शेष नारायण सिंह
आर एस एस के खिलाफ दिग्विजय सिंह की मुहिम एक ऊंचे दर्जे की राजनीति है . आर एस एस की हमेशा कोशिश रही है कि वह अपने आपको गैर राजनीतिक मंच के रूप में पेश करे . लेकिन सच यह है कि वह एक राजनीतिक संगठन है . पहली बार आर एस एस की राजनीतिक स्वरुप को स्व मधु लिमये ने उजागर किया था और इसी मुद्दे पर इंदिरा गाँधी के खिलाफ लड़ी जा रही लड़ाई कमज़ोर पड़ गयी थी क्योंकि उनके बेटे संजय गाँधी को आर एस एस ने अपनाने की मुहिम शुरू कर दी थी. अब तीस साल बाद दिग्विजय सिंह ने आर एस एस को मजबूर कर दिया है कि वह राजनीतिक पार्टी के रूप में अपना बचाव करे. राजनीतिक पार्टियों का एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाना मज़बूत लोकतंत्र की निशानी है. इसलिए दिग्विजय का हमला और आर एस एस का बचाव दोनों का स्वागत किया जाना चाहिए .इस बीच आर एस एस वाले बचाव की मुद्रा में हैं . उनके टाप नेता और बम धमाकों के अभियुक्त इन्द्रेश कुमार के कुछ चेलों ने हज़रत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती, गरीब नवाज़ की अजमेर शरीफ़ स्थित दरगाह में दुआ माँगी है कि इन्द्रेश कुमार सलामत रहें. इस मुक़द्दस दरगाह पर तीन साल पहले हुए धमाकों की घटना की साज़िश में इन्द्रेश कुमार के शामिल होने का आरोप है . इन्द्रेश के जेबी संगठन मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के संयोजक मोहम्मद अफ़जाल कहते हैं कि उन्होंने डॉ सलीम के साथ एक समूह ने दरगाह में दुआ की और इन्द्रेश की सलामती के लिए चादर चढ़ाई...यानी जिस दरगाह को तबाह करने की कोशिश में इन्द्रेश के शामिल होने का आरोप है , उन्हीं ख्वाजा गरीब नवाज़ की शरण में जाकर दुआ मांगने का क्या मतलब है . जब से कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने आर एस एस पर सीधा हमला बोला है संघी आतंक के इस आयोजक की सिट्टी पिट्टी गुम है . नामी अखबार इन्डियन एक्सप्रेस में छपे उनके आज के इंटर व्यू को देखें तो समझ में आ जाएगा कि वे हर उस काम के लिए अपने अलावा बाकी पूरी दुनिया को ज़िम्मेदार मानने का आग्रह कर रहे हैं जिसमें वे गुनाहगार हैं , मसलन , समझौता एक्सप्रेस में हुए बम धमाकों के लिए वे अब चाहते हैं कि उसके लिए रक्षा , विदेश और गृह विभाग के मंत्रियों की जांच हो . साथ ही राहुल गांधी और दिग्विजय सिंह की भी जांच हो . यानी जो भी माननीय इन्द्रेश जी के ऊपर आरोप लगाएगा उसे वे हडका लेगें और डांटने लगेंगें .ख्वाजा गरीब नवाज़ से उन्होंने पता नहीं क्यों दुआ मांगने का फैसला किया .मतलब साफ़ है कि कांग्रेस महासचिव , दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में संघी आतंकवाद पर चल रहा कांग्रेस का हमला रंग ला रहा है. शुरू में तो आर एस एस ने कोशिश की कि अपने वफादार पत्रकारों और कुछ संघी लाइन वाले अखबारों की मदद से दिग्विजय सिंह को हिन्दू विरोधी साबित कर दिया जाएगा और फिर उन्हें पीट लेगें. लेकिन ऐसा हो नहीं सका . दिग्विजय सिंह ने भी साफ़ कहा और बार बार कहा कि वे भगवा या हिन्दू आतंकवाद जैसी किसी बात को सच नहीं मानते .उन्होंने कहा कि इस देश में करीब सौ करोड़ हिन्दू रहते हैं जिनमें से ९९ प्रतिशत से भी ज्यादा आर एस एस के खिलाफ हैं . ऐसी हालात में संघी आतंकवाद का यह दावा कि वे सभी हिन्दुओं के अगुवा हैं , मुंह के बल गिर जाता है. अस्सी के दशक में भी एक बार ऐसी नौबत आई थी जब आर एस एस ने तय किया कि जो उसके विरोध में है उसे हिन्दू विरोधी घोषित कर दिया जाए . वह ज़माना दूसरा था, हिन्दी क्षेत्रों में जो तीन चार बड़े अखबार थे , सब का राग आर एस एस वाला ही था. और उनकी कृपा से आर एस एस ने यह साबित कर दिया था कि जो भी उसके खिलाफ है वह हिन्दू मात्र के खिलाफ है . इस बार भी वही कोशिश शुरू की गयी. जब स्वर्गीय करकरे ने संघी आतंकवाद के पैरोकारों को चुन चुन कर पकड़ना शुरू किया तो संघी खेमे में हडकंप मच गया .हेमंत करकरे का ट्रांसफर कराने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया गया . खूंखार हिंदुत्व के सबसे बड़े विचारक , नरेंद्र मोदी को आगे कर के करकरे के नगर मुंबई में भी उनके खिलाफ जुलूस निकाले गए. लेकिन संघी आतंकवाद को करकरे के हाथों दण्डित होना नहीं लिखा था . पाकिस्तानी आतंकवाद के सरगना हाफ़िज़ सईद ने जब मुंबई के ऊपर हमला करवाया तो पाकिस्तानी आतंकवादियों ने हेमंत करकरे को ही मार डाला . हालांकि आज संघी बिरादरी ,शहीद हेमंत करकरे के लिए बहुत बड़ी बातें करती है लेकिन उनके जीवन काल में यह लोग उनके दुश्मन बन गए थे. ऐसा शायद इसलिए हुआ था कि संघ के सह्योगी संगठन , अभिनव भारत के बैनर तले काम करने वाले आतंकवादियों को पकड़ कर हेमंत करकरे ने आर एस एस का एक बहुत बड़ा हथियार छीन लिया था . हेमंत करकरे ने जब पुलिस सेवा के सर्वोच्च मानदंडों का परिचय देते हुए संघी आतंकवाद के कारनामों का पर्दाफाश किया उसके पहले ,आर एस एस और उसके मातहत संगठनों के लोग कहते पाए जाते थे कि ' हर मुस्लिम आतंकवादी नहीं होता ,लेकिन हर आतंकवादी मुस्लिम होता है .' जब करकरे ने आर एस एस और उसके अधीन संगठनों से जुड़े हुए लोगों को पकड़ लिया तो आर एस एस का मुसलमानों के खिलाफ इस्तेमाल होने वाला सबसे धारदार हथियार बेकार हो गया . शायद इसीलिए आर एस एस के दिमाग में करकरे के लिए भारी नफरत थी. बहुत कम लोगों को मालूम है कि जिस दिन करकरे की अंत्येष्टि हुई , उसी दिन आर एस एस ने उनके खिलाफ बहुत बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन का आयोजन कर रखा था. लेकिन जब वह बहादुर शहीद हो गया तो आनन् फानन में वह कार्यक्रम रद्द किया गया. दिल्ली में तो बहुत बड़ी संख्या में पोस्टर भी लगे थे . हो सकता है कि कभी कोई फोटोग्राफर उस सब को सार्वजनिक कर दे .
आर एस एस की कोशिश इस बार भी यही थी कि अर्ध सूचना और अर्ध सत्य के ज़रिये हर उस शख्स को घेर लिया जाएगा जो उनके खिलाफ बोलेगा . दिग्विजय सिंह पर हमला उसी रणनीति का हिस्सा है. इसे आर एस एस का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आजकल नियंत्रित मीडिया का ज़माना नहीं रहा . अस्सी के दशक वाली बात तो रही नहीं . अब तो सैकड़ों की संख्या में टेलिविज़न न्यूज़ के चैनल हैं और वे हर तरह के सच को बयान करते रहते हैं शायद इसी वजह से अब आर एस एस और उसके साथ सहानुभूति रखने वाले अखबार दिग्विजय सिंह पर चौतरफा हमला बोल चुके हैं . खबर है कि आर एस एस दिग्विजय सिंह से बहुत नाराज़ है क्योकि उन्होंने संघी आतंकवाद को हिन्दू धर्म से बिलकुल अलग कर दिया है और अब आर एस एस के अखबार भी दिग्विजय को घेरने में जुटे हैं . . सच्चाई यह है कि दिग्विजय सिंह हमेशा से ही कहते रहे हैं भगवा रंग एक पवित्र रंग है और हिन्दू धर्म का आतंक से कोई लेना देना नहीं है . लेकिन यह भी सच है कि आर एस एस भी हिन्दुओं का प्रतिनिधि नहीं है .आर एस एस की मुसीबत यह है कि अब आर एस एस के हर झूठ को उनके अखबारों में तो खबर के रूप में प्रचार होता है लेकिन बाकी मीडिया में उनकी सच्चाई सामने आ जाती है . .दिग्विजय सिंह ने रविवार को इंदौर में संघी आतंकवाद को घेरा और कहा,मालेगांव और समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट के वांछित आरोपियों संदीप डांगे और रामजी कलसांगरा को भी संघ प्रचारक सुनील जोशी की तरह कत्ल किया जा सकता है .उन्होंने कहा कि हैदराबाद की मक्का मस्जिद में धमाका, समझौता एक्सप्रेस में विस्फोट और अजमेर की दरगाह में धमाके की साजिश हिंदू आतंकवाद नहीं बल्कि संघ आतंकवाद का एक रूप है। असीमानंद के कबूलनामे से साबित होता है कि संघ परिवार इन घटनाओं में शामिल है. दिग्विजय सिंह ने आरोप लगाया कि 2007 के समझौता एक्सप्रेस बम कांड के वांछितों संदीप डांगे, रामजी कलसांगरा तथा संघ के मृत प्रचारक सुनील जोशी का नाम लेते हुए कहा, फरारी के दौरान मध्य प्रदेश भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने न केवल उन्हें शरण दी, बल्कि आर्थिक मदद भी मुहैया कराई. सिंह ने आरोप लगाया कि संघ प्रचारक जोशी के हत्यारों को भी मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार संरक्षण देती रही है. दिग्विजय सिंह ने दावा किया कि जोशी अपनी हत्या से पहले सारे राज फाश करने की धमकी देकर कुछ नेताओं को ब्लैकमेल कर रहा था। इसी लिए उसे कत्ल करवा दिया गया . इस बीच खबर है कि मृतक सुनील जोशी के कस्बे , देवास में आर एस एस की एक रैली निकाली गयी और लोगों को बाकायदा धमकाया गया कि अगर आर एस एस आतंक का रास्ता पकड लेगा तो बहुत मुश्किल हो जायेगी
Friday, January 21, 2011
Tuesday, January 18, 2011
अब चोर कोतवालों को डांटते नहीं, उनपर हुकुम चलाते हैं
.
शेष नारायण सिंह
पुराने ज़माने में जब को बड़ा चोर पकड़ा जाता था तो बेचारे कोतवाल की मुसीबत बढ़ जाती थी . दबंग चोर अक्सर कोतवाल को डांटते रहते थे .लेकिन उस दौर में ऐसे चोर होते ही बहुत कम थे जो कोतवाल को डांट सकें .इसलिए जब भी कोतवाल चोर को डांटता था तो खबर बन जाती थी . अब ऐसा नहीं होता . अब ज़्यादातर चोर कोतवाल को डांटते ही रहते हैं . यह रिवाज़ बिहार से शुरू हुआ जहां मुहम्मद शहाबुद्दीन नाम का खूंखार बदमाश जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के एक छात्र नेता को क़त्ल करके मौज करने लगा तो हल्ला गुल्ला हुआ . उस वक़्त बिहार में सामाजिक परिवर्तन के मसीहा लालू प्रसाद जी के रिश्तेदारों की हुकूमत थी. मुख्यमंत्री का अभिनय लालू जी खुद कर रहे थे . बाद में यह रोल भी उन्होंने को दे दिया था .नी पत्नी को मुख्य मंत्री पद पर बिठाकर जेल में छुट्टियां बिताने चले गए थे जहां से उन्होंने कोतवाल को डांटने की कला को नियम के सांचे में बाँधने का काम किया था. इन्हीं लालू जी के राज़ में पब्लिक ने उन्हें परेशान किया और शहाबुद्दीन भी जेल में कुछ वक़्त के लिए चले गए थे . उसी दौर में उस आचार संहिता का विकास हुआ था जिसमें बताया गया है कि जब चोर कोतवाल को डांटे तो कैसे व्यवहार किया जाना चाहिए . इसके पहले भी कांग्रेस के राज में जेल में जाकर आराम करने की परम्परा तो बन चुकी थी, कुछ कम असर वाले लोग अस्पताल वगैरह में भर्ती होकर टाइम पास करते थे लेकिन जेल में ही रहकर हर भले आदमी को गलत साबित करने की कला शहाबुद्दीन के युग में ही शुरू हुई. अब इस खेल में और भी अधिक विकास हो गया है . अब ज़्यादातर दबंग चोर नेतागीरी का काम करने लगे हैं . अब उनके खिलाफ अगर कोई केस बनाने लगता है वे हर उस आदमी को डांटने लगते हैं जो उनके खिलाफ होता है . इस बिरादरी में आजकल सुरेश कालमाडी का नाम सबसे ऊपर है . उन्होंने कामनवेल्थ खेलों के आयोजन का ज़िम्मा मिलने के बाद मुल्क को तबियत से लूटा . उनके साथ कांग्रेस और बीजेपी के बहुत सारे नेता भी लगे हुए थे. लेकिन जैसे ही पकडे गए उन्होंने सबको डांटना शुरू कर दिया . बीजेपी के कुछ नेता ज्यादा बोल रहे तह तो जांच एजेंसियों के कुछ अफसरों को छापा मारने के लिए बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के एक सदस्य के यहाँ अपने कांग्रेसी पार्टनरों से कह कर भिजवा दिया . बीजेपी वाले सन्न हो गए. उसके बाद चोरों की बिरादरी के चक्रवर्ती सम्राट ,ए राजा का नाम भी जोर शोर से उछला . लाखों करोड़ रूपये की बेईमानी से विभूषित राजा साहेब ने पहले सब को खुद डांटा ,बाद में अपने मालिक ,एम करूणानिधि से डंटवाया . जब फिर भी बात नहीं बनी तो अपने कांग्रेसी आकाओं की मार्फ़त जांच का दायरा इतना बड़ा करवा दिया कि उनके ऊपर आरोप लगाने वाले बीजेपी के भी नेता उसी लपेट में आ गए. अब २ जी स्पेक्ट्रम की चोरी की जांच भी मिल बाँटकर खाने वाली रेंज में आ चुकी है . उम्मीद है कि इसका भी वही हाल होगा जो जैन हवाला काण्ड की जांच का हुआ था जिसमें लाल कृष्ण आडवाणी समेत सभी पार्टियों के नेता अभियुक्त थे . जांच हुई लेकिन पता नहीं चला. आजकल उस मामले को फिर से उभारा जा रहा है क्योंकि लाल कृष्ण आडवाणी,शरद यादव और विपक्ष कुछ और नेता जैन हवाला काण्ड का ज़िक्र होते ही दुबक जाते हैं . जैसे बोफोर्स का नाम लेते ही कांग्रेसी घबडा जाते हैं . सरकार को उम्मीद है कि जैन हवाला काण्ड का नाम आगे कर देने के बाद बीजेपी वालों का भी वही हाल होगा जो बोफोर्स का नाम लेने के बाद कांग्रेसियों का होता है. इस तरह से हम देखते हैं अब चोरों ने कोतवाल को डांटना बंद करके कोतवाल को हुक्म देने का काम शुरू कर दिया है .
इस खेल का सबसे ताज़ा उदाहरण आर एस एस के टाप नेता इन्द्रेश कुमार के सन्दर्भ में है . उनपर हज़रत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती, गरीब नवाज़ की अजमेर शरीफ़ स्थित दरगाह में तीन साल पहले हुए धमाकों की घटना की साज़िश में शामिल होने का आरोप है . अब पता चला है कि उनेक कुछ चाहने वालों ने उन्हीं ख्वाजा साहेब की मुक़द्दस दरगाह में उनकी सलामती के लिए दुआ माँगी है . इन्द्रेश कुमार के लिए दुआ का आयोजन छत्तीस गढ़ में रहने वाले एक मुस्लिम नेता की अगुवाई में हुआ डॉ सलीम राज नाम के इन महानुभाव का कहना है कि इन्द्रेश बेगुनाह हैं.इन्द्रेश के जेबी संगठन मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के संयोजक मोहम्मद अफ़जाल कहते हैं कि उन्होंने डॉ सलीम के साथ एक समूह ने दरगाह में दुआ की और इन्द्रेश की सलामती के लिए चादर चढ़ाई.दरगाह में ख़ादिमों की संस्था अंजुमन के पूर्व सचिव सरवर चिश्ती कहते हैं कि ये शर्मनाक है, ''मुझे ये सुनकर बेहद दुख हुआ कि ऐसी कोई दुआ इस अमन के मु़द्दस मुक़ाम पर की गई. ऐसे लोग इंसानियत के ग़द्दार है,ये तो मीर जाफ़र जैसी हरकत है. क्या हक़ है ऐसे लोगो को दुआ करने का.''यानी जिस दरगाह को तबाह करने की कोशिश में इन्द्रेश के शामिल होने का आरोप है , उन्हीं ख्वाजा गरीब नवाज़ की शरण में जाकर दुआ मांगने का क्या मातलब है . लेकिन लगता है कि इन्द्रेश जी और भी कुछ बड़े काम करने वालों हैं . नामी अखबार इन्डियन एक्सप्रेस में छपे उनके आज के इंटर व्यू को देखें तो समझ में आ जाएगा कि वे हर उस काम के लिए अपने अलावा बाकी पूरी दुनिया को ज़िम्मेदार मानाने का आग्रह कर रहे हैं जिसमें वे गुनाहगार हैं , मसलन , समझौता एक्सप्रेस में हुए बम धमाकों के लिए वे अब चाहते हैं कि उसके लिए रक्षा , विदेश और गृह विभाग के मंत्रियों की जांच हो . साथ ही राहुल गांधी और दिग्विजय सिंह की भी जांच हो . यानी जो भी माननीय इन्द्रेश जी के ऊपर आरोप लगाएगा उसे वे हडका लेगें और डांटने लगेंगें .ख्वाजा गरीब नवाज़ से उन्होंने पता नहीं क्यों दुआ मांगने का फैसला किया .
शेष नारायण सिंह
पुराने ज़माने में जब को बड़ा चोर पकड़ा जाता था तो बेचारे कोतवाल की मुसीबत बढ़ जाती थी . दबंग चोर अक्सर कोतवाल को डांटते रहते थे .लेकिन उस दौर में ऐसे चोर होते ही बहुत कम थे जो कोतवाल को डांट सकें .इसलिए जब भी कोतवाल चोर को डांटता था तो खबर बन जाती थी . अब ऐसा नहीं होता . अब ज़्यादातर चोर कोतवाल को डांटते ही रहते हैं . यह रिवाज़ बिहार से शुरू हुआ जहां मुहम्मद शहाबुद्दीन नाम का खूंखार बदमाश जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के एक छात्र नेता को क़त्ल करके मौज करने लगा तो हल्ला गुल्ला हुआ . उस वक़्त बिहार में सामाजिक परिवर्तन के मसीहा लालू प्रसाद जी के रिश्तेदारों की हुकूमत थी. मुख्यमंत्री का अभिनय लालू जी खुद कर रहे थे . बाद में यह रोल भी उन्होंने को दे दिया था .नी पत्नी को मुख्य मंत्री पद पर बिठाकर जेल में छुट्टियां बिताने चले गए थे जहां से उन्होंने कोतवाल को डांटने की कला को नियम के सांचे में बाँधने का काम किया था. इन्हीं लालू जी के राज़ में पब्लिक ने उन्हें परेशान किया और शहाबुद्दीन भी जेल में कुछ वक़्त के लिए चले गए थे . उसी दौर में उस आचार संहिता का विकास हुआ था जिसमें बताया गया है कि जब चोर कोतवाल को डांटे तो कैसे व्यवहार किया जाना चाहिए . इसके पहले भी कांग्रेस के राज में जेल में जाकर आराम करने की परम्परा तो बन चुकी थी, कुछ कम असर वाले लोग अस्पताल वगैरह में भर्ती होकर टाइम पास करते थे लेकिन जेल में ही रहकर हर भले आदमी को गलत साबित करने की कला शहाबुद्दीन के युग में ही शुरू हुई. अब इस खेल में और भी अधिक विकास हो गया है . अब ज़्यादातर दबंग चोर नेतागीरी का काम करने लगे हैं . अब उनके खिलाफ अगर कोई केस बनाने लगता है वे हर उस आदमी को डांटने लगते हैं जो उनके खिलाफ होता है . इस बिरादरी में आजकल सुरेश कालमाडी का नाम सबसे ऊपर है . उन्होंने कामनवेल्थ खेलों के आयोजन का ज़िम्मा मिलने के बाद मुल्क को तबियत से लूटा . उनके साथ कांग्रेस और बीजेपी के बहुत सारे नेता भी लगे हुए थे. लेकिन जैसे ही पकडे गए उन्होंने सबको डांटना शुरू कर दिया . बीजेपी के कुछ नेता ज्यादा बोल रहे तह तो जांच एजेंसियों के कुछ अफसरों को छापा मारने के लिए बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के एक सदस्य के यहाँ अपने कांग्रेसी पार्टनरों से कह कर भिजवा दिया . बीजेपी वाले सन्न हो गए. उसके बाद चोरों की बिरादरी के चक्रवर्ती सम्राट ,ए राजा का नाम भी जोर शोर से उछला . लाखों करोड़ रूपये की बेईमानी से विभूषित राजा साहेब ने पहले सब को खुद डांटा ,बाद में अपने मालिक ,एम करूणानिधि से डंटवाया . जब फिर भी बात नहीं बनी तो अपने कांग्रेसी आकाओं की मार्फ़त जांच का दायरा इतना बड़ा करवा दिया कि उनके ऊपर आरोप लगाने वाले बीजेपी के भी नेता उसी लपेट में आ गए. अब २ जी स्पेक्ट्रम की चोरी की जांच भी मिल बाँटकर खाने वाली रेंज में आ चुकी है . उम्मीद है कि इसका भी वही हाल होगा जो जैन हवाला काण्ड की जांच का हुआ था जिसमें लाल कृष्ण आडवाणी समेत सभी पार्टियों के नेता अभियुक्त थे . जांच हुई लेकिन पता नहीं चला. आजकल उस मामले को फिर से उभारा जा रहा है क्योंकि लाल कृष्ण आडवाणी,शरद यादव और विपक्ष कुछ और नेता जैन हवाला काण्ड का ज़िक्र होते ही दुबक जाते हैं . जैसे बोफोर्स का नाम लेते ही कांग्रेसी घबडा जाते हैं . सरकार को उम्मीद है कि जैन हवाला काण्ड का नाम आगे कर देने के बाद बीजेपी वालों का भी वही हाल होगा जो बोफोर्स का नाम लेने के बाद कांग्रेसियों का होता है. इस तरह से हम देखते हैं अब चोरों ने कोतवाल को डांटना बंद करके कोतवाल को हुक्म देने का काम शुरू कर दिया है .
इस खेल का सबसे ताज़ा उदाहरण आर एस एस के टाप नेता इन्द्रेश कुमार के सन्दर्भ में है . उनपर हज़रत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती, गरीब नवाज़ की अजमेर शरीफ़ स्थित दरगाह में तीन साल पहले हुए धमाकों की घटना की साज़िश में शामिल होने का आरोप है . अब पता चला है कि उनेक कुछ चाहने वालों ने उन्हीं ख्वाजा साहेब की मुक़द्दस दरगाह में उनकी सलामती के लिए दुआ माँगी है . इन्द्रेश कुमार के लिए दुआ का आयोजन छत्तीस गढ़ में रहने वाले एक मुस्लिम नेता की अगुवाई में हुआ डॉ सलीम राज नाम के इन महानुभाव का कहना है कि इन्द्रेश बेगुनाह हैं.इन्द्रेश के जेबी संगठन मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के संयोजक मोहम्मद अफ़जाल कहते हैं कि उन्होंने डॉ सलीम के साथ एक समूह ने दरगाह में दुआ की और इन्द्रेश की सलामती के लिए चादर चढ़ाई.दरगाह में ख़ादिमों की संस्था अंजुमन के पूर्व सचिव सरवर चिश्ती कहते हैं कि ये शर्मनाक है, ''मुझे ये सुनकर बेहद दुख हुआ कि ऐसी कोई दुआ इस अमन के मु़द्दस मुक़ाम पर की गई. ऐसे लोग इंसानियत के ग़द्दार है,ये तो मीर जाफ़र जैसी हरकत है. क्या हक़ है ऐसे लोगो को दुआ करने का.''यानी जिस दरगाह को तबाह करने की कोशिश में इन्द्रेश के शामिल होने का आरोप है , उन्हीं ख्वाजा गरीब नवाज़ की शरण में जाकर दुआ मांगने का क्या मातलब है . लेकिन लगता है कि इन्द्रेश जी और भी कुछ बड़े काम करने वालों हैं . नामी अखबार इन्डियन एक्सप्रेस में छपे उनके आज के इंटर व्यू को देखें तो समझ में आ जाएगा कि वे हर उस काम के लिए अपने अलावा बाकी पूरी दुनिया को ज़िम्मेदार मानाने का आग्रह कर रहे हैं जिसमें वे गुनाहगार हैं , मसलन , समझौता एक्सप्रेस में हुए बम धमाकों के लिए वे अब चाहते हैं कि उसके लिए रक्षा , विदेश और गृह विभाग के मंत्रियों की जांच हो . साथ ही राहुल गांधी और दिग्विजय सिंह की भी जांच हो . यानी जो भी माननीय इन्द्रेश जी के ऊपर आरोप लगाएगा उसे वे हडका लेगें और डांटने लगेंगें .ख्वाजा गरीब नवाज़ से उन्होंने पता नहीं क्यों दुआ मांगने का फैसला किया .
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हुकुम
किसी लेख पर विद्वान् विश्लेषक और लेखक वीरेन्द्र जैन की टिप्पणी
वीरेन्द्र जैन्
विष्णु बैरागीजी इस नेट की दुनिया में साम्प्रदाय्क संगठन के कुछ लोग अपने सैकड़ों छद्म नाम बना कर गालियां देने का यह काम ठेके पर कर रहे हैं और वे जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं। तर्क वहां दिया जा सकता है जहाँ लोग ज्ञान पिपासु हों, यहाँ तो मुकुट बिहारी सरोज के शब्दों में कहा जा सकता है-
बन्द किवार किये बैठे हैं, अब आये कोई समझाने
इसलिए इनमें से अगर कोई अज्ञानी भी है तो जीसस के शब्दों में यही कहा जा सकता है कि हे प्रभु इन्हें माफ करना, ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं
विष्णु बैरागीजी इस नेट की दुनिया में साम्प्रदाय्क संगठन के कुछ लोग अपने सैकड़ों छद्म नाम बना कर गालियां देने का यह काम ठेके पर कर रहे हैं और वे जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं। तर्क वहां दिया जा सकता है जहाँ लोग ज्ञान पिपासु हों, यहाँ तो मुकुट बिहारी सरोज के शब्दों में कहा जा सकता है-
बन्द किवार किये बैठे हैं, अब आये कोई समझाने
इसलिए इनमें से अगर कोई अज्ञानी भी है तो जीसस के शब्दों में यही कहा जा सकता है कि हे प्रभु इन्हें माफ करना, ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं
Monday, January 17, 2011
पेट्रोल की बढ़ी कीमत इस देश के गरीब आदमी के मुंह पर तमाचा है .
शेष नारायण सिंह
केंद्र सरकार ने महंगाई की एक और खेप आम आदमी के सिर पर लाद दिया है . आलू प्याज सहित खाने की हर चीज़ की महंगाई की मार झेल रही जनता के लिए पेट्रोल की बढ़ी कीमतें बहुत भारी हमला हैं . हालांकि फौरी तौर पर गरीब आदमी सोच सकता है कि बढ़ी हुई कीमतों से उनका क्या लेना देना लेकिन सही बात यह है कि यह मंहगाई निश्चित रूप से कमर तोड़ है . १९६९ में जब स्व इंदिरा गाँधी ने डीज़ल और पेट्रोल की कीमतों में मामूली वृद्धि की थी तो साप्ताहिक ब्लिट्ज के महान संपादक , रूसी करंजिया ने अपने अखबार की हेडिंग लगाई थी कि पेट्रोल के महंगा होने से आम आदमी सबसे ज्यादा प्रभावित होगा , सबसे बड़ी चपत उसी को लगेगी . उन दिनों लोगों की समझ में नहीं आता था कि पेट्रोल की कीमत बढ़ने से आम आदमी कैसे प्रभावित होगा. स्व करंजिया ने अगले अंक में ही बाकायदा समझाया था कि किस तरह से पेट्रोल की कीमत बढ़ने से आम आदमी प्रभावित होता है . उन दिनों तो उनका तर्क ढुलाई के तर्क पर ही केंद्रित था लेकिन उन्होंने समझाया था कि डीज़ल और पेट्रोल की कीमतें बढ़ने या घटने का लाभ या हानि आम आदमी को सबसे ज्यादा होता है . नेहरू युग के बाद का युग था इसलिए घूस का वह बुलंद मुकाम उन दिनों नहीं हासिल था जो आजकल है . आजकल तो हर क्षेत्र में घूस को स्थायी तत्व माना जाता है लेकिन उन दिनों हर अफसर और नेता घूस जीवी नहीं थे . लेकिन करंजिया ने अपने सम्पादकीय में लिखा कि हर उस चीज़ का असर आम आदमी पर पड़ेगा जिसका असर घूसजीवी अधिकारियों पर पड़ता है क्योंकि वह अपने सारे खर्च का मुआवजा गरीब आदमी से वसूलता है .
आज की हालात अलग हैं . यह मंहगाई जनविरोधी नीतियों की कई साल से चली आ रही परम्परा का नतीजा है . विपक्षी पार्टियों की समझ में यह बात कब आयेगी कि जब संकट की हालात शुरू हो रही हों ,उसी वक़्त सरकार की नीतियों के खिलाफ जागरण का अभियान शुरू कर देने से आम आदमी की जान महंगाई के थपेड़ों से बचाई जा सकती है. पेट्रोल की कीमतों में वृद्धि तो ऐसी बात है जो सौ फीसदी सरकारी कुप्रबंध का नतीजा है . अगर कांग्रेस के शुरुआती दौर की बात छोड़ भी दी जाए जब घनश्याम दास बिड़ला की अम्बेसडर कार को जिंदा रहने के लिए अपने देश में कारों का वही इंजन चलता रहा जिसे बाकी दुनिया बहुत पहले ही नकार चुकी थी क्योंकि वह पेट्रोल बहुत पीता था . अम्बेसडर कार में वही इंजन चलता रहा लेकिन कांग्रेस में बिड़ला की पंहुच इतनी थी कि सरकारी कार के रूप में अम्बेसडर ही चलती रही . बहर हाल यह पुरानी बात है और उसके लिए ज़िम्मेदार किसी को ठहरा लिया जाए लेकिन हालात बदलेगें नहीं . केंद्र सरकार का मौजूदा रुख निश्चित रूप से अफ़सोस नाक है जब कि वह पेट्रोल और डीज़ल की कीमतों को बेहिसाब बढ़ने से रोकने की दिशा में पहल नहीं किया. बहुत मेहनत से इस देश में पब्लिक सेक्टर का विकास हुआ था लेकिन ग्लोबलाइज़ेशन और उदारी करण की आर्थिक नीतियों ने देश के आर्थिक विकास में सबसे ज्यादा योगदान कर सकने वाली कंपनियों को ही अपने चहेते पूंजीपतियों को सौंप दिया . नतीजा यह हुआ कि सरकारी कंपनी ओ एन जी सी और अन्य पेट्रोलियम कंपनियों को राजनीतिक रूप से कनेक्ट पूंजीपतियों को सौंप दिया गया. बात अब सरकार की काबू से बाहर जा चुकी है . लेकिन पिछले २० वर्षों में पूंजीपतियों को इतनी ताक़त दे दी गयी है कि अब वे हर क्षेत्र में सरकार को चुनौती देने की स्थिति में हैं,मनमानी कर सकने की स्थिति में हैं . सरकार के पास निजी पूंजी को काबू कर सकने की ताक़त अब बिलकुल नहीं है .
इस पृष्ठभूमि में बढ़ती कीमतों के अर्थशास्त्र को समझने की ज़रुरत है . दुर्भाग्य यह है कि देश का मौजूदा राजनीतिक नेतृत्व कुछ भी कंट्रोल कर पाने की स्थिति में नहीं है . गठबंधन सरकार की अपनी मजबूरियां होती हैं लेकिन जिस तरह से दाम बढ़ रहे हैं वे बहुत ही खतरनाक दिशा की ओर संकेत कर रहे हैं . आम आदमी को पूंजीपति वर्ग के कारखानों के लिए कच्चा माल और बाज़ार दोनों रूप में मान चुकी सरकार को चाहिए कि फ़ौरन ज़रूरी क़दम उठाये वरना अफ्रीका के कुछ देशों की तरह अपने यहाँ भी खाने के लिए दंगे शुरू हो जायेगें .क्योंकि अगर खाने पीने की हर चीज़ नागरिकों की सीमा के बाहर हो गयी तो आम आदमी लूट खसोट पर आमादा हो जाएगा .अगर ऐसी नौबत आई तो हालात को संभालने वाला कोई नहीं होगा क्योंकि उस हालात में सभी मंहगाई के शिकार हो चुके होगें
केंद्र सरकार ने महंगाई की एक और खेप आम आदमी के सिर पर लाद दिया है . आलू प्याज सहित खाने की हर चीज़ की महंगाई की मार झेल रही जनता के लिए पेट्रोल की बढ़ी कीमतें बहुत भारी हमला हैं . हालांकि फौरी तौर पर गरीब आदमी सोच सकता है कि बढ़ी हुई कीमतों से उनका क्या लेना देना लेकिन सही बात यह है कि यह मंहगाई निश्चित रूप से कमर तोड़ है . १९६९ में जब स्व इंदिरा गाँधी ने डीज़ल और पेट्रोल की कीमतों में मामूली वृद्धि की थी तो साप्ताहिक ब्लिट्ज के महान संपादक , रूसी करंजिया ने अपने अखबार की हेडिंग लगाई थी कि पेट्रोल के महंगा होने से आम आदमी सबसे ज्यादा प्रभावित होगा , सबसे बड़ी चपत उसी को लगेगी . उन दिनों लोगों की समझ में नहीं आता था कि पेट्रोल की कीमत बढ़ने से आम आदमी कैसे प्रभावित होगा. स्व करंजिया ने अगले अंक में ही बाकायदा समझाया था कि किस तरह से पेट्रोल की कीमत बढ़ने से आम आदमी प्रभावित होता है . उन दिनों तो उनका तर्क ढुलाई के तर्क पर ही केंद्रित था लेकिन उन्होंने समझाया था कि डीज़ल और पेट्रोल की कीमतें बढ़ने या घटने का लाभ या हानि आम आदमी को सबसे ज्यादा होता है . नेहरू युग के बाद का युग था इसलिए घूस का वह बुलंद मुकाम उन दिनों नहीं हासिल था जो आजकल है . आजकल तो हर क्षेत्र में घूस को स्थायी तत्व माना जाता है लेकिन उन दिनों हर अफसर और नेता घूस जीवी नहीं थे . लेकिन करंजिया ने अपने सम्पादकीय में लिखा कि हर उस चीज़ का असर आम आदमी पर पड़ेगा जिसका असर घूसजीवी अधिकारियों पर पड़ता है क्योंकि वह अपने सारे खर्च का मुआवजा गरीब आदमी से वसूलता है .
आज की हालात अलग हैं . यह मंहगाई जनविरोधी नीतियों की कई साल से चली आ रही परम्परा का नतीजा है . विपक्षी पार्टियों की समझ में यह बात कब आयेगी कि जब संकट की हालात शुरू हो रही हों ,उसी वक़्त सरकार की नीतियों के खिलाफ जागरण का अभियान शुरू कर देने से आम आदमी की जान महंगाई के थपेड़ों से बचाई जा सकती है. पेट्रोल की कीमतों में वृद्धि तो ऐसी बात है जो सौ फीसदी सरकारी कुप्रबंध का नतीजा है . अगर कांग्रेस के शुरुआती दौर की बात छोड़ भी दी जाए जब घनश्याम दास बिड़ला की अम्बेसडर कार को जिंदा रहने के लिए अपने देश में कारों का वही इंजन चलता रहा जिसे बाकी दुनिया बहुत पहले ही नकार चुकी थी क्योंकि वह पेट्रोल बहुत पीता था . अम्बेसडर कार में वही इंजन चलता रहा लेकिन कांग्रेस में बिड़ला की पंहुच इतनी थी कि सरकारी कार के रूप में अम्बेसडर ही चलती रही . बहर हाल यह पुरानी बात है और उसके लिए ज़िम्मेदार किसी को ठहरा लिया जाए लेकिन हालात बदलेगें नहीं . केंद्र सरकार का मौजूदा रुख निश्चित रूप से अफ़सोस नाक है जब कि वह पेट्रोल और डीज़ल की कीमतों को बेहिसाब बढ़ने से रोकने की दिशा में पहल नहीं किया. बहुत मेहनत से इस देश में पब्लिक सेक्टर का विकास हुआ था लेकिन ग्लोबलाइज़ेशन और उदारी करण की आर्थिक नीतियों ने देश के आर्थिक विकास में सबसे ज्यादा योगदान कर सकने वाली कंपनियों को ही अपने चहेते पूंजीपतियों को सौंप दिया . नतीजा यह हुआ कि सरकारी कंपनी ओ एन जी सी और अन्य पेट्रोलियम कंपनियों को राजनीतिक रूप से कनेक्ट पूंजीपतियों को सौंप दिया गया. बात अब सरकार की काबू से बाहर जा चुकी है . लेकिन पिछले २० वर्षों में पूंजीपतियों को इतनी ताक़त दे दी गयी है कि अब वे हर क्षेत्र में सरकार को चुनौती देने की स्थिति में हैं,मनमानी कर सकने की स्थिति में हैं . सरकार के पास निजी पूंजी को काबू कर सकने की ताक़त अब बिलकुल नहीं है .
इस पृष्ठभूमि में बढ़ती कीमतों के अर्थशास्त्र को समझने की ज़रुरत है . दुर्भाग्य यह है कि देश का मौजूदा राजनीतिक नेतृत्व कुछ भी कंट्रोल कर पाने की स्थिति में नहीं है . गठबंधन सरकार की अपनी मजबूरियां होती हैं लेकिन जिस तरह से दाम बढ़ रहे हैं वे बहुत ही खतरनाक दिशा की ओर संकेत कर रहे हैं . आम आदमी को पूंजीपति वर्ग के कारखानों के लिए कच्चा माल और बाज़ार दोनों रूप में मान चुकी सरकार को चाहिए कि फ़ौरन ज़रूरी क़दम उठाये वरना अफ्रीका के कुछ देशों की तरह अपने यहाँ भी खाने के लिए दंगे शुरू हो जायेगें .क्योंकि अगर खाने पीने की हर चीज़ नागरिकों की सीमा के बाहर हो गयी तो आम आदमी लूट खसोट पर आमादा हो जाएगा .अगर ऐसी नौबत आई तो हालात को संभालने वाला कोई नहीं होगा क्योंकि उस हालात में सभी मंहगाई के शिकार हो चुके होगें
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शेष नारायण सिंह
Sunday, January 16, 2011
यू पी में मुसलमानों के वोटों के चक्कर में हैं कई पार्टियां
शेष नारायण सिंह
केंद्रीय मंत्रिमंडल का विस्तार कभी भी हो सकता है . कुछ मंत्रियोंकी छुट्टी की भी चर्चा है,हालांकि फोकस नयी भर्तियों पर ही ज्यादा है . कुछ मंत्रियों के विभाग भी बदले जायेगें. अगले दो वर्षों में कई राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं . जानकार बताते हैं कि यह विस्तार आगामी चुनावों को ध्यान में रख कर किया जाएगा ,इसलिए राजनीतिक प्रबंधन मंत्रिमंडल की फेरबदल का स्थायी भाव होगा. मायावती ने उत्तर प्रदेश विधान सभा के उम्मीदवारों की सूची जारी करके राज्य की राजनीति की रफ़्तार को तेज़ कर दिया है . उत्तर प्रदेश में दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियों का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है .बीजेपी की शुरुआती कोशिश तो साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के ज़रिये चुनाव में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की थी लेकिन अब लगता है कि उनकी रणनीति भी बदल गयी है . खबर है कि अपेक्षाकृत उदार विचारों वाले राजनाथ सिंह को उत्तर प्रदेश की कमान दी जाने वाली है . उनके मुख्य सहयोगी के रूप में मुख्तार अब्बास नकवी को रखे जाने की संभावना है. बीजेपी मूल रूप से नरेंद्र मोदी और वरुण गांधी टाइप खूंखार लोगों को आगे करके उत्तर प्रदेश में ध्रुवीकरण की राजनीति करना चाहती थी लेकिन नीतीश कुमार ने साफ़ बता दिया कि अगर इन अतिवादी छवि के लोगों को आगे किया गया तो यू पी में बीजेपी को एन डी ए का कवर नहीं मिलेगा . ,वहां बीजेपी के रूप में ही उन्हें विधानसभा चुनाव लड़ना पड़ेगा. बिहार में नीतीश कुमार की सफलता के बाद मुसलमानों और पिछड़ों में उन्हें एक उदार नेता के रूप में देखा जाने लगा है . लगता है कि बीजेपी उनकी छवि को इस्तेमाल करके कुछ चुनावी मजबूती के चक्कर में है . केंद्रीय मंत्रिमंडल के इस विस्तार में राजनीति की इन बारीकियों को भी ध्यान में रखा जाएगा, ऐसा अन्दर की बात जानने वालों का दावा है .
उत्तर प्रदेश में चुनावी रणनीति को डिजाइन करने वालों को मालूम रहता है कि आधे से ज्यादा सीटों पर राज्य का मुसलमानों की निर्णायक भूमिका रहती है . इसलिए बीजेपी के अलावा बाकी तीनों पार्टियां , बहुजन समाज पार्टी ,समाजवादी पार्टी और कांग्रेस की कोशिश है कि मुसलमानों को साथ रखने की जुगत भिडाई जाए. पिछले क़रीब २० साल से उत्तर प्रदेश का मुसलमान मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी को वोट देता रहा है लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में ऐसा नहीं हुआ . मुसलमान ने बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस दोनों को वोट दिया .उसकी नज़र में जो बीजेपी को हराने की स्थिति में था , वही मुस्लिम वोटों का हक़दार बना . उसके बाद भी मुलायम सिंह यादव ने कई राजनीतिक गलतियाँ कीं. एक तो अमर सिंह को पार्टी से निकाल कर उन्होंने अपने लिए एक मुफ्त का दुश्मन खड़ा कर लिया . अमर सिंह की मदद से पीस पार्टी ने राज्य के पूर्वी हिस्से में मुलायम सिंह को कहीं भी जीतने लायक नहीं छोड़ा है . दूसरी बड़ी गलती मुलायम सिंह यादव ने यह की कि उन्होंने आज़म खां को फिर से पार्टी में भर्ती कर लिया . जिसकी वजह से बड़ी संख्या में मुसलमान उनसे दूर चला गया . आज़म खां ने अपने व्यवहार से बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों को नाराज़ कर रखा है . उनकी राजनीतिक ताक़त का पता २००९ के लोकसभा चुनावों में चल गया था जब उनके अपने विधान सभा क्षेत्र में जयाप्रदा भारी वोटों से विजयी रही थीं जबकि आज़म खां ने उनको हराने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया था .. ज़ाहिर है कि आज़म खां के साथ अब राज्य का मुसलमान नहीं है . इसका मातलब यह हुआ कि मुसलमानों के वोटों की दावेदारी में मुलायम सिंह बहुत पीछे छूट गए हैं . वे अब उत्तर प्रदेश के मुस्लिम मतदाताओं के प्रिय पात्र नहीं रहे.
बीजेपी के खिलाफ मज़बूत राजनीतिक ताक़त के रूप में मुसलमानों की नज़र राज्य में बी एस पी और कांग्रेस पर पड़ रही है. मायावती पहले से ही वरुण गाँधी टाइप लोगों को जेल की हवा खिलाकर इस दिशा में पहल कर चुकी हैं . लेकिन कांग्रेस की तरफ से राहुल गांधी की मुस्लिम बहुल इलाकों की यात्राओं के अलावा कोई पहल नहीं हुई है. सच्चर कमेटी जिस से कांग्रेस को बहुत उम्मीद थी ,वह कहीं लागू ही नहीं हुई है . मुसलमानों के बच्चों के लिए वजीफे का काम भी रफ़्तार नहीं पकड़ सका. अल्पसंख्यक मंत्रालय ने उस दिशा में ज़रूरी पहल ही नहीं की..मंत्रिमंडल का विस्तार एक ऐसा मौक़ा है जब कांग्रेस मुसलमानों में यह सन्देश दे सकती है कि वह कौम को क़ाबिले एहतराम मानती है . मोहसिना किदवई उत्तरप्रदेश के राजनीतिक मुसलमानों की सबसे सीनियर नेता हैं . उन्हें अगर सम्मान दिया गया तो कुछ मुसलमान कांग्रेस को विकल्प मान सकते हैं . ज़फर अली नकवी भी सांसद हैं . उनकी वजह से भी देहाती इलाकों में मुसलमानों को बताया जा सकता है कि कांग्रेस उन्हें गंभीरता से लेती है . अभी उत्तर प्रदेश के मुसलमानों के बीच से केवल सलमान खुर्शीद मंत्रिमंडल में हैं . एक तो आम मुसलमान उन्हें यू पी वाला मानता ही नहीं क्योंकि वे अपने पुरखों का नाम लेकर उत्तर प्रदेश में केवल चुनाव लड़ने जाते हैं . दूसरी बात जो उनको मुसलमान नेता कभी नहीं बनने देगी , वह अल्पसंख्यक मंत्रालय में उनकी काम करने या यूं कहिये कि काम न करने की योग्यता है .मुसलमानों के लिए इतने महत्वपूर्ण मंत्रालय को उन्होंने जिस तरह से चलाया है वह किसी की तारीफ़ का हक़दार नहीं बन सका.
ऐसी हालात में अगर कांग्रेस ने मुसलमानों का दिल जीतने के लिए कुछ कारगर क़दम नहीं उठाती तो उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव बीजेपी बनाम बहुजन समाज पार्टी हो जाएगा . . ज़ाहिर है ऐसा होने पर मुसलमान बहुजन समाज पार्टी के साथ होगा. हाँ, अगर कांग्रेस ने मुसलमान के पक्ष में फ़ौरन कोई बड़ा सन्देश दे दिया तो कांग्रेस भी मुख्य लड़ाई में आ सकती है . अगर विधान सभा में कांग्रेस ने अपनी धमाकेदार मौजूदगी दर्ज करा दी तो लोकसभा २०१४ में कांग्रेस उत्तर प्रदेश में एक मज़बूत ताक़त बन सकेगी . जिसके लिए राहुल गाँधी और दिग्विजय सिंह खासी मेहनत कर रहे हैं
केंद्रीय मंत्रिमंडल का विस्तार कभी भी हो सकता है . कुछ मंत्रियोंकी छुट्टी की भी चर्चा है,हालांकि फोकस नयी भर्तियों पर ही ज्यादा है . कुछ मंत्रियों के विभाग भी बदले जायेगें. अगले दो वर्षों में कई राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं . जानकार बताते हैं कि यह विस्तार आगामी चुनावों को ध्यान में रख कर किया जाएगा ,इसलिए राजनीतिक प्रबंधन मंत्रिमंडल की फेरबदल का स्थायी भाव होगा. मायावती ने उत्तर प्रदेश विधान सभा के उम्मीदवारों की सूची जारी करके राज्य की राजनीति की रफ़्तार को तेज़ कर दिया है . उत्तर प्रदेश में दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियों का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है .बीजेपी की शुरुआती कोशिश तो साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के ज़रिये चुनाव में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की थी लेकिन अब लगता है कि उनकी रणनीति भी बदल गयी है . खबर है कि अपेक्षाकृत उदार विचारों वाले राजनाथ सिंह को उत्तर प्रदेश की कमान दी जाने वाली है . उनके मुख्य सहयोगी के रूप में मुख्तार अब्बास नकवी को रखे जाने की संभावना है. बीजेपी मूल रूप से नरेंद्र मोदी और वरुण गांधी टाइप खूंखार लोगों को आगे करके उत्तर प्रदेश में ध्रुवीकरण की राजनीति करना चाहती थी लेकिन नीतीश कुमार ने साफ़ बता दिया कि अगर इन अतिवादी छवि के लोगों को आगे किया गया तो यू पी में बीजेपी को एन डी ए का कवर नहीं मिलेगा . ,वहां बीजेपी के रूप में ही उन्हें विधानसभा चुनाव लड़ना पड़ेगा. बिहार में नीतीश कुमार की सफलता के बाद मुसलमानों और पिछड़ों में उन्हें एक उदार नेता के रूप में देखा जाने लगा है . लगता है कि बीजेपी उनकी छवि को इस्तेमाल करके कुछ चुनावी मजबूती के चक्कर में है . केंद्रीय मंत्रिमंडल के इस विस्तार में राजनीति की इन बारीकियों को भी ध्यान में रखा जाएगा, ऐसा अन्दर की बात जानने वालों का दावा है .
उत्तर प्रदेश में चुनावी रणनीति को डिजाइन करने वालों को मालूम रहता है कि आधे से ज्यादा सीटों पर राज्य का मुसलमानों की निर्णायक भूमिका रहती है . इसलिए बीजेपी के अलावा बाकी तीनों पार्टियां , बहुजन समाज पार्टी ,समाजवादी पार्टी और कांग्रेस की कोशिश है कि मुसलमानों को साथ रखने की जुगत भिडाई जाए. पिछले क़रीब २० साल से उत्तर प्रदेश का मुसलमान मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी को वोट देता रहा है लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में ऐसा नहीं हुआ . मुसलमान ने बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस दोनों को वोट दिया .उसकी नज़र में जो बीजेपी को हराने की स्थिति में था , वही मुस्लिम वोटों का हक़दार बना . उसके बाद भी मुलायम सिंह यादव ने कई राजनीतिक गलतियाँ कीं. एक तो अमर सिंह को पार्टी से निकाल कर उन्होंने अपने लिए एक मुफ्त का दुश्मन खड़ा कर लिया . अमर सिंह की मदद से पीस पार्टी ने राज्य के पूर्वी हिस्से में मुलायम सिंह को कहीं भी जीतने लायक नहीं छोड़ा है . दूसरी बड़ी गलती मुलायम सिंह यादव ने यह की कि उन्होंने आज़म खां को फिर से पार्टी में भर्ती कर लिया . जिसकी वजह से बड़ी संख्या में मुसलमान उनसे दूर चला गया . आज़म खां ने अपने व्यवहार से बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों को नाराज़ कर रखा है . उनकी राजनीतिक ताक़त का पता २००९ के लोकसभा चुनावों में चल गया था जब उनके अपने विधान सभा क्षेत्र में जयाप्रदा भारी वोटों से विजयी रही थीं जबकि आज़म खां ने उनको हराने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया था .. ज़ाहिर है कि आज़म खां के साथ अब राज्य का मुसलमान नहीं है . इसका मातलब यह हुआ कि मुसलमानों के वोटों की दावेदारी में मुलायम सिंह बहुत पीछे छूट गए हैं . वे अब उत्तर प्रदेश के मुस्लिम मतदाताओं के प्रिय पात्र नहीं रहे.
बीजेपी के खिलाफ मज़बूत राजनीतिक ताक़त के रूप में मुसलमानों की नज़र राज्य में बी एस पी और कांग्रेस पर पड़ रही है. मायावती पहले से ही वरुण गाँधी टाइप लोगों को जेल की हवा खिलाकर इस दिशा में पहल कर चुकी हैं . लेकिन कांग्रेस की तरफ से राहुल गांधी की मुस्लिम बहुल इलाकों की यात्राओं के अलावा कोई पहल नहीं हुई है. सच्चर कमेटी जिस से कांग्रेस को बहुत उम्मीद थी ,वह कहीं लागू ही नहीं हुई है . मुसलमानों के बच्चों के लिए वजीफे का काम भी रफ़्तार नहीं पकड़ सका. अल्पसंख्यक मंत्रालय ने उस दिशा में ज़रूरी पहल ही नहीं की..मंत्रिमंडल का विस्तार एक ऐसा मौक़ा है जब कांग्रेस मुसलमानों में यह सन्देश दे सकती है कि वह कौम को क़ाबिले एहतराम मानती है . मोहसिना किदवई उत्तरप्रदेश के राजनीतिक मुसलमानों की सबसे सीनियर नेता हैं . उन्हें अगर सम्मान दिया गया तो कुछ मुसलमान कांग्रेस को विकल्प मान सकते हैं . ज़फर अली नकवी भी सांसद हैं . उनकी वजह से भी देहाती इलाकों में मुसलमानों को बताया जा सकता है कि कांग्रेस उन्हें गंभीरता से लेती है . अभी उत्तर प्रदेश के मुसलमानों के बीच से केवल सलमान खुर्शीद मंत्रिमंडल में हैं . एक तो आम मुसलमान उन्हें यू पी वाला मानता ही नहीं क्योंकि वे अपने पुरखों का नाम लेकर उत्तर प्रदेश में केवल चुनाव लड़ने जाते हैं . दूसरी बात जो उनको मुसलमान नेता कभी नहीं बनने देगी , वह अल्पसंख्यक मंत्रालय में उनकी काम करने या यूं कहिये कि काम न करने की योग्यता है .मुसलमानों के लिए इतने महत्वपूर्ण मंत्रालय को उन्होंने जिस तरह से चलाया है वह किसी की तारीफ़ का हक़दार नहीं बन सका.
ऐसी हालात में अगर कांग्रेस ने मुसलमानों का दिल जीतने के लिए कुछ कारगर क़दम नहीं उठाती तो उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव बीजेपी बनाम बहुजन समाज पार्टी हो जाएगा . . ज़ाहिर है ऐसा होने पर मुसलमान बहुजन समाज पार्टी के साथ होगा. हाँ, अगर कांग्रेस ने मुसलमान के पक्ष में फ़ौरन कोई बड़ा सन्देश दे दिया तो कांग्रेस भी मुख्य लड़ाई में आ सकती है . अगर विधान सभा में कांग्रेस ने अपनी धमाकेदार मौजूदगी दर्ज करा दी तो लोकसभा २०१४ में कांग्रेस उत्तर प्रदेश में एक मज़बूत ताक़त बन सकेगी . जिसके लिए राहुल गाँधी और दिग्विजय सिंह खासी मेहनत कर रहे हैं
Thursday, January 13, 2011
यह कवि फौलाद का बना है ,अपनी शर्तों पर कविता करेगा
शेष नारायण सिंह
फेसबुक पर एक बहुत ही दिलचस्प बहस चल रही है.जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में उनके छात्र जीवन के साथी असरार खां ने जनवादी कवि रमाशंकर यादव विद्रोही के बारे में कुछ ऐसे बयान दे दिए हैं जिन पर विवाद है. जे एन यू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष चन्द्रशेखर से उनकी तुलना कर देने के बाद कुछ लोगों को नागवार गुज़रा और उन्होंने विद्रोही की कविता पर ही सवाल उठाने शुरू कर दिए . जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में १९८३ में हुए संघर्ष की कथा में नायकों और खलनायकों का ज़िक्र चल पड़ा और बात विद्रोही की कविता से हट कर छात्र राजनीति की बारीकियों पर केन्द्रित हो गयी. मुझे लगता है कि चंद्रशेखर और विद्रोही दोनों उस महान विश्वविद्यालय के छात्र हैं और दोनों की अपनी अपनी विशिष्टता है . दोनों ने ही अवाम के संघर्ष की गाथा में योगदान किया है .चन्द्रशेखर का हमला सीधा था तो शासक वर्गों के एक मुष्टंडे ने उनकी जान ही ले ली और विद्रोही ने कविता के ज़रिये आम आदमी की तकलीफ को आवाज़ देने की कोशिश की ,तो अभी तक उनकी सांस चल रही है. इसलिए तुलना की बात यहीं ख़त्म की जानी चाहिए .लेकिन कविता के मैदान में विद्रोही का जवाब नहीं है. उनकी अवधी कविता , 'जगीर मांगता ,जगीर मांगता ,कलजुगहा मजूर पूरी सीर मांगता ' खेतिहर मजदूरों की उस संघर्ष गाथा की अभिव्यक्ति है जिसमें मजूर के दर्द की जो परते हैं वे उसकी उस हिम्मत की बात को रेखांकित करती हैं . विद्रोही ने इसी दर्द और हिम्मत को बा-आवाज़े बुलंद ऐलान किया है . इसी कविता में विद्रोही बताते हैं अब मजूर अपने पसीने का रेट मांग रहा है . वह इनाम से संतुष्ट नहीं होने वाला ,वह हक की बात करता है . मैं साहित्य का आलोचाक नहीं हूँ ,इस अवधी कविता की साहित्यिक व्याख्या के झेमेले में नहीं पड़ना चाहता लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि अवधी क्षेत्र में किसी भी संघर्ष के अगले दस्ते का गीत बन सकने की ताक़त वाला यह गीत आलोचकों की नज़र से या तो गुज़रा ही नहीं है और या उन लोगों का वर्गचरित्र आड़े आ गया होगा और इसे मामूली कविता मानकर भुला दिया गया होगा. जिस दौर में विद्रोही जे एन यू आये थे, उस दौर के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों और प्राध्यापकों ने हिन्दी साहित्य में बहुत ज्यादा योगदान किया है . कविता,आलोचना,कहानी,उपन्यास सभी क्षेत्रों के चोटी के आज के अधिकतर रचनाकार उस दौर में उसी विश्वविद्यालय में रहते थे . विद्रोही की कविताओं के बारे में उस तरह का जिक्र नहीं हुआ जैसा बाकी लोगों का हुआ. जब विद्रोही अपनी एक कविता में चेतावनी देते हैं कि 'नाच नाचेगी ऐसे कडाही में पूड़ी, खायेगा वही जो हवन से बचेगा ' तो अपने गाँव में बैठे उस शोषण की बारीकी को बात कर रहे होते हैं जो काफी हाउस वाले आलोचकों और बुद्धिजीवियों की समझ में नहीं आयेगा. इस कविता में सामंती मानसिकता की बखिया भी उधेड़ी गयी है . इस कविता में अवध के ग्रामीण समाज के उस इतिहास को रेखांकित करते हैं जो त्रिलोचन की समझ में तो आती थी लेकिन बाकी लोगों के लिए वह बरास्ता अनुवाद ही अपनी मंजिल तय करती है .
सर्वहारा के नाम पर साहित्य की खेती करने वालों के उस विशिष्ट वर्ग में विद्रोही की पंहुच नहीं है, जो किसी को भी महान साहित्यकार के रूप में पहचान दिलाती है . उनकी कविता को जे एन यू कैम्पस के बाहर पंहुचाने में विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने प्रमुख भूमिका निभाई है, जनवादी कवियों के बीच उनकी कविता की इज़्ज़त भी है . इन छात्रों ने उनकी कुछ कविताओं को यू ट्यूब पर डाल दिया है जिसके ज़रिये विद्रोही को सुना ,देखा जा सकता है लेकिन गरीब आदमी की पक्षधरता का दावा करने वाली राजनीतिक जमातों और उनके साहित्यिक ढपलीबाजों ने कुछ नहीं किया . मैं विद्र्ही को १९७४ से जानता हूँ जब वे मेरे छात्र के रूप में बी ए में दाखिल हुए थे. वामपंथी थे ,कवि थे और बहुत ही भले आदमी थे. जिस कालेज में विद्रोही पढने गए थे ,वह बांयें बाजू के साहित्यकार और कवि स्व मान बादुर सिंह के गाँव में था. मान बहादुर बहुत पहले से कवितायें करते थे लेकिन उसे उन्होंने कहीं भी छपने के लिए नहीं भेजा था . बाद में उनकी शोहरत देख कर लगा कि वे अच्छे कवि रह एहोगें . लेकिन विद्रोही की १९७४ की कवितायें जब उनको दिखाई गयीं तो वे बहुत प्रभावित हुए थे और कहा कि विद्रोही की सोच बिलकुल मौलिक है और भाषा बहुत ही दमदार . कादीपुर में मई दिवस के एक जुलूस में विद्रोही की कवितायें पढी और सराही गई थीं . १९७९ में वे, जे एन यू आ गए और यहाँ सामंती सोच के हर अलंबरदार ने उनका शोषण किया ,उनके परिवार को तहस नहस किया और उनको विश्वविद्यालय से बाहर निकाल कर सड़क पर खदेड़ दिया लेकिन विद्रोही के जीवट का उन्हें अंदाज़ नहीं था .बगावत का यह कवि तब से वहीं सड़क पर डटा हुआ है और आपनी बात को अपनी शर्तों पर कह रहा है . इस काम के लिए उसे अपने शरीर पर अथाह कष्ट झेलने पड़ रहे हैं लेकिन कमज़ोर लोगों की तरह वह आत्महत्या नहीं करेगा , वह जिंदा रहेगा .
फेसबुक पर एक बहुत ही दिलचस्प बहस चल रही है.जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में उनके छात्र जीवन के साथी असरार खां ने जनवादी कवि रमाशंकर यादव विद्रोही के बारे में कुछ ऐसे बयान दे दिए हैं जिन पर विवाद है. जे एन यू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष चन्द्रशेखर से उनकी तुलना कर देने के बाद कुछ लोगों को नागवार गुज़रा और उन्होंने विद्रोही की कविता पर ही सवाल उठाने शुरू कर दिए . जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में १९८३ में हुए संघर्ष की कथा में नायकों और खलनायकों का ज़िक्र चल पड़ा और बात विद्रोही की कविता से हट कर छात्र राजनीति की बारीकियों पर केन्द्रित हो गयी. मुझे लगता है कि चंद्रशेखर और विद्रोही दोनों उस महान विश्वविद्यालय के छात्र हैं और दोनों की अपनी अपनी विशिष्टता है . दोनों ने ही अवाम के संघर्ष की गाथा में योगदान किया है .चन्द्रशेखर का हमला सीधा था तो शासक वर्गों के एक मुष्टंडे ने उनकी जान ही ले ली और विद्रोही ने कविता के ज़रिये आम आदमी की तकलीफ को आवाज़ देने की कोशिश की ,तो अभी तक उनकी सांस चल रही है. इसलिए तुलना की बात यहीं ख़त्म की जानी चाहिए .लेकिन कविता के मैदान में विद्रोही का जवाब नहीं है. उनकी अवधी कविता , 'जगीर मांगता ,जगीर मांगता ,कलजुगहा मजूर पूरी सीर मांगता ' खेतिहर मजदूरों की उस संघर्ष गाथा की अभिव्यक्ति है जिसमें मजूर के दर्द की जो परते हैं वे उसकी उस हिम्मत की बात को रेखांकित करती हैं . विद्रोही ने इसी दर्द और हिम्मत को बा-आवाज़े बुलंद ऐलान किया है . इसी कविता में विद्रोही बताते हैं अब मजूर अपने पसीने का रेट मांग रहा है . वह इनाम से संतुष्ट नहीं होने वाला ,वह हक की बात करता है . मैं साहित्य का आलोचाक नहीं हूँ ,इस अवधी कविता की साहित्यिक व्याख्या के झेमेले में नहीं पड़ना चाहता लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि अवधी क्षेत्र में किसी भी संघर्ष के अगले दस्ते का गीत बन सकने की ताक़त वाला यह गीत आलोचकों की नज़र से या तो गुज़रा ही नहीं है और या उन लोगों का वर्गचरित्र आड़े आ गया होगा और इसे मामूली कविता मानकर भुला दिया गया होगा. जिस दौर में विद्रोही जे एन यू आये थे, उस दौर के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों और प्राध्यापकों ने हिन्दी साहित्य में बहुत ज्यादा योगदान किया है . कविता,आलोचना,कहानी,उपन्यास सभी क्षेत्रों के चोटी के आज के अधिकतर रचनाकार उस दौर में उसी विश्वविद्यालय में रहते थे . विद्रोही की कविताओं के बारे में उस तरह का जिक्र नहीं हुआ जैसा बाकी लोगों का हुआ. जब विद्रोही अपनी एक कविता में चेतावनी देते हैं कि 'नाच नाचेगी ऐसे कडाही में पूड़ी, खायेगा वही जो हवन से बचेगा ' तो अपने गाँव में बैठे उस शोषण की बारीकी को बात कर रहे होते हैं जो काफी हाउस वाले आलोचकों और बुद्धिजीवियों की समझ में नहीं आयेगा. इस कविता में सामंती मानसिकता की बखिया भी उधेड़ी गयी है . इस कविता में अवध के ग्रामीण समाज के उस इतिहास को रेखांकित करते हैं जो त्रिलोचन की समझ में तो आती थी लेकिन बाकी लोगों के लिए वह बरास्ता अनुवाद ही अपनी मंजिल तय करती है .
सर्वहारा के नाम पर साहित्य की खेती करने वालों के उस विशिष्ट वर्ग में विद्रोही की पंहुच नहीं है, जो किसी को भी महान साहित्यकार के रूप में पहचान दिलाती है . उनकी कविता को जे एन यू कैम्पस के बाहर पंहुचाने में विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने प्रमुख भूमिका निभाई है, जनवादी कवियों के बीच उनकी कविता की इज़्ज़त भी है . इन छात्रों ने उनकी कुछ कविताओं को यू ट्यूब पर डाल दिया है जिसके ज़रिये विद्रोही को सुना ,देखा जा सकता है लेकिन गरीब आदमी की पक्षधरता का दावा करने वाली राजनीतिक जमातों और उनके साहित्यिक ढपलीबाजों ने कुछ नहीं किया . मैं विद्र्ही को १९७४ से जानता हूँ जब वे मेरे छात्र के रूप में बी ए में दाखिल हुए थे. वामपंथी थे ,कवि थे और बहुत ही भले आदमी थे. जिस कालेज में विद्रोही पढने गए थे ,वह बांयें बाजू के साहित्यकार और कवि स्व मान बादुर सिंह के गाँव में था. मान बहादुर बहुत पहले से कवितायें करते थे लेकिन उसे उन्होंने कहीं भी छपने के लिए नहीं भेजा था . बाद में उनकी शोहरत देख कर लगा कि वे अच्छे कवि रह एहोगें . लेकिन विद्रोही की १९७४ की कवितायें जब उनको दिखाई गयीं तो वे बहुत प्रभावित हुए थे और कहा कि विद्रोही की सोच बिलकुल मौलिक है और भाषा बहुत ही दमदार . कादीपुर में मई दिवस के एक जुलूस में विद्रोही की कवितायें पढी और सराही गई थीं . १९७९ में वे, जे एन यू आ गए और यहाँ सामंती सोच के हर अलंबरदार ने उनका शोषण किया ,उनके परिवार को तहस नहस किया और उनको विश्वविद्यालय से बाहर निकाल कर सड़क पर खदेड़ दिया लेकिन विद्रोही के जीवट का उन्हें अंदाज़ नहीं था .बगावत का यह कवि तब से वहीं सड़क पर डटा हुआ है और आपनी बात को अपनी शर्तों पर कह रहा है . इस काम के लिए उसे अपने शरीर पर अथाह कष्ट झेलने पड़ रहे हैं लेकिन कमज़ोर लोगों की तरह वह आत्महत्या नहीं करेगा , वह जिंदा रहेगा .
Tuesday, January 11, 2011
ज़ुल्मो सितम के कोहे गिरां, रूई की तरह उड़ जायेगें
शेष नारायण सिंह
कांग्रेस के महामंत्री दिग्विजय सिंह की राजनीति रंग लाने लगी है . अपनी पार्टी के भ्रष्टाचार में डूबे हुए सूरमाओं के ऊपर से मीडिया का ध्यान हटाने का जो प्रोजेक्ट उन्होंने शुरू किया था , वह अब चमकना शुरू हो गया है . जिन लोगों ने उनकी पार्टी के बड़े नेताओं को भ्रष्ट साबित करने का मंसूबा बनाया था,उनके हौसले पस्त हैं . नागपुर में विराजने वाले उन लोगों के मालिकों के ख़ास लोगों को ही दिग्विजय सिंह के खेल ने अपनी जान बचाने के लिए मजबूर कर दिया है. आर एस एस के बड़े पदों पर विराजमान लोग इस क़दर दहशत में हैं कि इनके सबसे बड़े अधिकारी ने सूरत की एक सभा में सफाई दी कि आर एस एस के जो लोग भी गलत काम करते हैं ,उन्हें संगठन से निकाल दिया जाता है . यानी वे यह कहना चाह रहे हैं कि असीमानंद और इन्द्रेश कुमार अब उनके साथ नहीं हैं . उनको भी मालूम है कि असीमानंद से तो शायद पिंड छूट भी जाए लेकिन इन्द्रेश कुमार से जान नहीं बचने वाली है क्योंकि वह आज तक उनके संगठन में राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय पदाधिकारी है . अभी कुछ दिन पहले तक बीजेपी के लोग इन्द्रेश कुमार के पक्ष में बयान देते पाए जा चुके हैं . शुरू में तो आर एस एस ने दिग्विजय सिंह को यह कहकर धमकाने की कोशिश की थी कि वे हिन्दुओं के खिलाफ हैं इसलिए आतंकवाद को भगवा रंग दे रहे हैं . लेकिन दिग्विजय सिंह ने तुरंत जवाबी हमला बोल दिया और ऐलान कर दिया कि भगवा रंग तो बहुत ही पवित्र रंग है , वास्तव में उनका विरोध संघी आतंकवाद से है . लगता है कि भ्रष्टाचार के कांग्रेसी खेल से फिलहाल मीडिया का ध्यान बंटाने में दिग्विजय सिंह कामयाब हो गए हैं क्योंकि आतंकवाद की खबरें अगर बाज़ार में हो तो भ्रष्टाचार का नंबर दूसरे मुकाम पर अपने आप पंहुच जाता है .कांग्रेस के पक्ष में गुवाहाटी में संपन्न बीजेपी के राष्ट्रीय सम्मलेन में भी काम हो गया . सोनिया गाँधी को कटघरे में खड़ा करने की अपनी उतावली में बीजेपी आलाकमान ने सारे तीर सोनिया गाँधी के नाम कर दिए .नतीजा यह होगा कि अब बीजेपी के ज़्यादातर प्रवक्ता कांग्रेस अध्यक्ष के खिलाफ ही बयान देते रहेगें और मीडिया में आर एस एस के प्रभाव के मद्दे नज़र इस बात में दो राय नहीं कि बीजेपी प्रवक्ताओं का बयान पहले पन्ने पर ही छपेगा.यही गलती चौधरी चरण सिंह ने १९७८ में की थी जब अपनी मामूली सोच के तहत इंदिरा गाँधी को पहले पन्ने की खबर बना दी थी . उसके बाद इंदिरा गाँधी कभी भी पहले पन्ने से नहीं हटीं और जनता पार्टी टूट गयी. दिग्विजय सिंह ने एक बार फिर वही माहौल बना दिया है कि बीजेपी वाले अब सोनिया गाँधी को प्रचारित करते रहेगें और आर एस एस के लोग अपने आपको भला आदमी साबित करने में सारी ताक़त लगाते रहेगें. आर एस एस और उस से जुड़े हुए पत्रकार और बुद्धिजीवी आजकल यह बताने में लगे हुए हैं कि असीमानंद का बयान अदालत में नहीं टिकेगा . यह बात सभी जानते हैं . हम तो यह भी जानते हैं कि असीमानंद की हड्डियों का चूरमा बनाकर ही पुलिस ने बयान लिया है और वह बयान किसी भी हालत में बचाव पक्ष के वकीलों की बहस के सामने नहीं टिकेगा लेकिन उनके बयान के आधार पर जो जांच हो रही है वह आर एस एस और संघी आतंकवाद के पोषकों को बहुत नुकसान पंहुचाएगा . असीमानंद ने बताया है कि इन्द्रेश कुमार को कर्नल पुरोहित पाकिस्तानी जासूस मानता था . अगर यह साबित हो गया तो आर एस एस का हिन्दुओं का प्रतिनधि बनने का सपना हमेशा के लिए दफ़न हो जाएगा. देश को पूरी तरह से याद है कि अपने आपको पूरी दुनिया के सामने स्वीकार्य बनाने के लिए बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार ने किस तरह से पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना का गुणगान किया था . उसके बाद पूरे देश में उनके खिलाफ माहौल बना. यहाँ तक कि उनकी अपनी पार्टी में भारी मतभेद पैदा हो गया था . अगर आर एस एस में टाप पोजीशन पर बैठा हुआ कोई पदाधिकारी पाकिस्तानी जासूस साबित हो गया तो उस संगठन के लिए बहुत मुश्किल होगा . जानकार बाते हैं कि यह झटका गाँधी जी की हत्या में अभियुक्त होने से भी ज्यादा नुकसानदेह होगा . दुनिया जानती है कि १९४८ में गांधी जी की हत्या के आरोप में आर एस एस के मुखिया गोलवलकर के गिरफ्तार होने के बाद उनके संगठन को दुबारा सम्भलने के लिए १९७५ तक जयप्रकाश नारायण के आशीर्वाद का इंतज़ार करना पड़ा था.इस सारे मामले में एक और दिलचस्प बात सामने आ रही है . आर एस एस के प्रवक्ता ने असीमानंद के इकबाले-जुर्म वाले बयान को गलत नहीं बताया . उनको केवल यह एतराज़ है कि संघ को बदनाम करने के लिए सरकारी जांच एजेंसी ने बयान को लीक किया . उन्हें अपने आदमी के आतंकवादी होने की बात से ज्यादा नाराज़गी इस बात पर है कि दुनिया को कैसे मालूम हो गया कि उनके संगठन के बड़े लोग आतंकवाद में लिप्त हैं . यह बयान उसी तर्ज पर है जिसके अनुसार रतन टाटा ने आरोप लगाया था कि राडिया और उनके बीच की बातचीत को सरकार ने टेप किया वह तो ठीक है लेकिन उसे पब्लिक क्यों किया गया .अभी तक के संकेतों से लगता है कि आर एस एस की मुसीबतें अभी शुरू ही हुई हैं . सूरत में उनके मुखिया , मोहन भागवत ने आर एस एस का गणवेश पहनकर ऐलान किया कि आर एस एस के जो लोग आतंकवादी धमाकों में पकडे गए हैं, उनमें से कुछ ने अपने आप संगठन छोड़ दिया था और कुछ लोगों को आर एस एस ने ही अलग कर दिया था. इसका भावार्थ यह हुआ कि संघ का जो भी बंदा आतंकवादी घटनाओं में पकड़ा जाये़या उसे मोहन भागवत और उनके लोग दूध की मक्खी की तरह निकाल कार फेंक देगें. ज़ाहिर है कि इसके बाद उनमें से कुछ लोग सरकारी गवाह बनकर आर एस एस की पोल खोलने का काम करेगें . जो भी हो अब आने वाले वक़्त में आर एस एस के और भी बहुत सारे कारनामों से पर्दा उठने वाला है .
कांग्रेस के महामंत्री दिग्विजय सिंह की राजनीति रंग लाने लगी है . अपनी पार्टी के भ्रष्टाचार में डूबे हुए सूरमाओं के ऊपर से मीडिया का ध्यान हटाने का जो प्रोजेक्ट उन्होंने शुरू किया था , वह अब चमकना शुरू हो गया है . जिन लोगों ने उनकी पार्टी के बड़े नेताओं को भ्रष्ट साबित करने का मंसूबा बनाया था,उनके हौसले पस्त हैं . नागपुर में विराजने वाले उन लोगों के मालिकों के ख़ास लोगों को ही दिग्विजय सिंह के खेल ने अपनी जान बचाने के लिए मजबूर कर दिया है. आर एस एस के बड़े पदों पर विराजमान लोग इस क़दर दहशत में हैं कि इनके सबसे बड़े अधिकारी ने सूरत की एक सभा में सफाई दी कि आर एस एस के जो लोग भी गलत काम करते हैं ,उन्हें संगठन से निकाल दिया जाता है . यानी वे यह कहना चाह रहे हैं कि असीमानंद और इन्द्रेश कुमार अब उनके साथ नहीं हैं . उनको भी मालूम है कि असीमानंद से तो शायद पिंड छूट भी जाए लेकिन इन्द्रेश कुमार से जान नहीं बचने वाली है क्योंकि वह आज तक उनके संगठन में राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय पदाधिकारी है . अभी कुछ दिन पहले तक बीजेपी के लोग इन्द्रेश कुमार के पक्ष में बयान देते पाए जा चुके हैं . शुरू में तो आर एस एस ने दिग्विजय सिंह को यह कहकर धमकाने की कोशिश की थी कि वे हिन्दुओं के खिलाफ हैं इसलिए आतंकवाद को भगवा रंग दे रहे हैं . लेकिन दिग्विजय सिंह ने तुरंत जवाबी हमला बोल दिया और ऐलान कर दिया कि भगवा रंग तो बहुत ही पवित्र रंग है , वास्तव में उनका विरोध संघी आतंकवाद से है . लगता है कि भ्रष्टाचार के कांग्रेसी खेल से फिलहाल मीडिया का ध्यान बंटाने में दिग्विजय सिंह कामयाब हो गए हैं क्योंकि आतंकवाद की खबरें अगर बाज़ार में हो तो भ्रष्टाचार का नंबर दूसरे मुकाम पर अपने आप पंहुच जाता है .कांग्रेस के पक्ष में गुवाहाटी में संपन्न बीजेपी के राष्ट्रीय सम्मलेन में भी काम हो गया . सोनिया गाँधी को कटघरे में खड़ा करने की अपनी उतावली में बीजेपी आलाकमान ने सारे तीर सोनिया गाँधी के नाम कर दिए .नतीजा यह होगा कि अब बीजेपी के ज़्यादातर प्रवक्ता कांग्रेस अध्यक्ष के खिलाफ ही बयान देते रहेगें और मीडिया में आर एस एस के प्रभाव के मद्दे नज़र इस बात में दो राय नहीं कि बीजेपी प्रवक्ताओं का बयान पहले पन्ने पर ही छपेगा.यही गलती चौधरी चरण सिंह ने १९७८ में की थी जब अपनी मामूली सोच के तहत इंदिरा गाँधी को पहले पन्ने की खबर बना दी थी . उसके बाद इंदिरा गाँधी कभी भी पहले पन्ने से नहीं हटीं और जनता पार्टी टूट गयी. दिग्विजय सिंह ने एक बार फिर वही माहौल बना दिया है कि बीजेपी वाले अब सोनिया गाँधी को प्रचारित करते रहेगें और आर एस एस के लोग अपने आपको भला आदमी साबित करने में सारी ताक़त लगाते रहेगें. आर एस एस और उस से जुड़े हुए पत्रकार और बुद्धिजीवी आजकल यह बताने में लगे हुए हैं कि असीमानंद का बयान अदालत में नहीं टिकेगा . यह बात सभी जानते हैं . हम तो यह भी जानते हैं कि असीमानंद की हड्डियों का चूरमा बनाकर ही पुलिस ने बयान लिया है और वह बयान किसी भी हालत में बचाव पक्ष के वकीलों की बहस के सामने नहीं टिकेगा लेकिन उनके बयान के आधार पर जो जांच हो रही है वह आर एस एस और संघी आतंकवाद के पोषकों को बहुत नुकसान पंहुचाएगा . असीमानंद ने बताया है कि इन्द्रेश कुमार को कर्नल पुरोहित पाकिस्तानी जासूस मानता था . अगर यह साबित हो गया तो आर एस एस का हिन्दुओं का प्रतिनधि बनने का सपना हमेशा के लिए दफ़न हो जाएगा. देश को पूरी तरह से याद है कि अपने आपको पूरी दुनिया के सामने स्वीकार्य बनाने के लिए बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार ने किस तरह से पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना का गुणगान किया था . उसके बाद पूरे देश में उनके खिलाफ माहौल बना. यहाँ तक कि उनकी अपनी पार्टी में भारी मतभेद पैदा हो गया था . अगर आर एस एस में टाप पोजीशन पर बैठा हुआ कोई पदाधिकारी पाकिस्तानी जासूस साबित हो गया तो उस संगठन के लिए बहुत मुश्किल होगा . जानकार बाते हैं कि यह झटका गाँधी जी की हत्या में अभियुक्त होने से भी ज्यादा नुकसानदेह होगा . दुनिया जानती है कि १९४८ में गांधी जी की हत्या के आरोप में आर एस एस के मुखिया गोलवलकर के गिरफ्तार होने के बाद उनके संगठन को दुबारा सम्भलने के लिए १९७५ तक जयप्रकाश नारायण के आशीर्वाद का इंतज़ार करना पड़ा था.इस सारे मामले में एक और दिलचस्प बात सामने आ रही है . आर एस एस के प्रवक्ता ने असीमानंद के इकबाले-जुर्म वाले बयान को गलत नहीं बताया . उनको केवल यह एतराज़ है कि संघ को बदनाम करने के लिए सरकारी जांच एजेंसी ने बयान को लीक किया . उन्हें अपने आदमी के आतंकवादी होने की बात से ज्यादा नाराज़गी इस बात पर है कि दुनिया को कैसे मालूम हो गया कि उनके संगठन के बड़े लोग आतंकवाद में लिप्त हैं . यह बयान उसी तर्ज पर है जिसके अनुसार रतन टाटा ने आरोप लगाया था कि राडिया और उनके बीच की बातचीत को सरकार ने टेप किया वह तो ठीक है लेकिन उसे पब्लिक क्यों किया गया .अभी तक के संकेतों से लगता है कि आर एस एस की मुसीबतें अभी शुरू ही हुई हैं . सूरत में उनके मुखिया , मोहन भागवत ने आर एस एस का गणवेश पहनकर ऐलान किया कि आर एस एस के जो लोग आतंकवादी धमाकों में पकडे गए हैं, उनमें से कुछ ने अपने आप संगठन छोड़ दिया था और कुछ लोगों को आर एस एस ने ही अलग कर दिया था. इसका भावार्थ यह हुआ कि संघ का जो भी बंदा आतंकवादी घटनाओं में पकड़ा जाये़या उसे मोहन भागवत और उनके लोग दूध की मक्खी की तरह निकाल कार फेंक देगें. ज़ाहिर है कि इसके बाद उनमें से कुछ लोग सरकारी गवाह बनकर आर एस एस की पोल खोलने का काम करेगें . जो भी हो अब आने वाले वक़्त में आर एस एस के और भी बहुत सारे कारनामों से पर्दा उठने वाला है .
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Monday, January 10, 2011
बीजेपी ने सोनिया गाँधी को मुद्दा बनाया
शेष नारायण सिंह
उत्तर प्रदेश में १९६७ के चुनाव में बीजेपी के पूर्व अवतार,जनसंघ ने मजबूती से चुनाव लड़ा था.इसका मतलब यह नहीं कि पार्टी जीत गयी थी लेकिन थोड़ी सम्मानजनक सीटें मिल गयी थी. मेरे गाँव में भी १९६७ के चुनाव में जनसंघ का जोर था. पूरे गाँव ने जनसंघ को वोट दिया था लेकिन जब नतीजे आये तो उम्मीदवार हार गया ,कांग्रेस वाला जीत गया था . मेरे गाँव में हर आदमी हतप्रभ था कि जब पूरी आबादी जनसंघ को वोट दे रही है तो हारने का क्या मतलब है .जनसंघ की हनक भी इतनी थी कि आसपास के गाँवों के लोग डर के मारे यही कहते थे कि उनके गाँव में भी जनसंघ के चुनाव निशान दीपक पर ही वोट पड़ा था. लेकिन सच्चाई यह थी कि हमारे गाँव के बाहर के गाँवों के लोगों ने कांग्रेस को वोट दिया था. पूरे जिले में कांग्रेस को ही वोट मिला था और कांग्रेस लगभग सभी सीटों पर जीत गयी थी . मैं बहुत परेशान था और मेरे गाँव के भगेलू सिंह ने जब जनसंघ के उम्मीदवार के घर से लौट कर बताया कि कांग्रेसियों ने बक्सा बदल दिया तो हमारे गाँव में सबने विश्वास कर लिया था . १९७१ में जब इंदिरा गाँधी की पार्टी को भारी बहुमत मिला तो मेरे गाँव में भगेलू सिंह के समर्थकों ने साफ़ ऐलान कर दिया कि बक्सा बदल गया है .हालांकि तब तक कुछ और पढ़े लिखे लोग गाँव में पैदा हो चुके थे और उन्होंने कहा कि बक्सा नहीं बदला गया बल्कि अखबार में छपा था कि उस वक़्त के जनसंघ के बड़े नेता , बलराज मधोक ने कहा है कि कांग्रेस ने बैलट पेपर के ऊपर ऐसा केमिकल लगवा दिया था कि मोहर कहीं भी लगाओ निशान गाय बछड़े पर ही बन रहा था जो इस चुनाव में कांग्रेस का चुनाव निशान था.बहरहाल जो भी हो कांग्रेस की जीत में बेईमानी का योगदान मुकम्मल तौर पर माना जाता था . हमारे गाँव में कोई यह मानने को तैयार ही नहीं था कि जनसंघ जैसी अच्छी पार्टी को छोड़कर कोई किसी अन्य पार्टी को वोट दे सकता था..धीरे धीरे लोगों की समझ में आया कि एक गाँव के वोट से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता बाकी गाँवों में भी लोग रहते हैं और वोट देते हैं. हमारे गाँव वालों की समझ में यह बात तो बहुत पहले आ गयी लेकिन जनसंघ/बीजेपी के नेताओं की समझ में यह बात अभी तक नहीं आई है कि लोग उनके अलावा किसी और को वोट कैसे दे सकते हैं . शायद इसी मानसिकता से पीड़ित होकर गुवाहाटी में जमा हुये बीजेपी नेताओं ने बोफोर्स तोप के सौदे को एक बार फिर चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश की है . उन्हें लगता है कि जब बोफोर्स जैसा मुद्दा मौजूद है तो और किसी बात पर क्यों ध्यान दिया जाय . अब जब आम आदमी के दिमाग में बैठ गया है कि कामनवेल्थ और २ जी के घोटाले में कांग्रेस और बीजेपी ,दोनों ही शामिल हैं,तो बीजेपी उससे बचने की कोशिश कर रही है . प्याज की बढ़ी हुई कीमतें भी अच्छा मुद्दा थीं लेकिन अब ज़खीरेबाज़ों की धर पकड़ में तो बीजेपी वाले ही फंस रहे हैं .इसलिए कुल मिला कर बीजेपी को भ्रष्टाचार का एक मुद्ददा मिल रहा है जिसमें उसके लोग बिलकुल शामिल नहीं हैं और वह है , बोफोर्स वाला . लेकिन सवाल यह उठता है कि आज २५ साल बाद तक बोफोर्स मुद्दा चल पायेगा क्या? ख़ास तौर पर जब बोफोर्स के ६५ करोड़ रूपये के घूस के बदले जब बीजेपी के नेताओं ने अपनी सरकार के दौरान सैकड़ों करोड़ की हेराफेरी की हो . वैसे भी जानकार बताते हैं कि १९८९ के चुनाव में बीजेपी की सीटें बोफोर्स के चक्कर में नहीं बढीं थीं . हिंदुत्व के नारे ने काम किया था, बोफोर्स तो मरीचिका ही था . वैसे भी बाद के वर्षों में बोफोर्स केवल बीजेपी के नेताओं के दरबारों में मुद्दा रहा देश ने कभी उसे गंभीरता से नहीं लिया .लेकिन गुवाहाटी में तो बीजेपी के नागपुरी अध्यक्ष ने न केवल बोफोर्स को मुद्दा बनाने का ऐलान किया बल्कि सोनिया गाँधी के परिवार को मीडिया के फोकस में रखने का भी फैसला कर दिया . यह क़दम उतना ही अजीब है जितना जनता पार्टी के राज में चौधरी चरण सिंह का इंदिरा गाँधी को गिरफतार करने का फैसला था . इंदिरा गाँधी को देश ने १९७७ में दुत्कार दिया था लेकिन केंद्र सरकार की उस मूर्खतापूर्ण कारवाई के बाद जब इंदिरा गाँधी अखबारों के पहले पन्ने पर आयीं तो कभी हटी ही नहीं .इस तरह १९७७ में जनता ने जो बाज़ी जीती थी उसे उस दौर के गैर कांग्रेसी नेताओं ने हार में बदल दिया . बीजेपी के गुवाहाटी के फैसले से भी लगता है कि अब रोज़ ही इनकी प्रेस कानफरेंस में सोनिया गाँधी छायी रहेगीं और उन्हें ही सारा मीडिया कवर करने को मजबूर होगा. बीजेपी देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है उसे इस तरह के गैरजिम्मेदार राजनीतिक आचरण से बच कर रहना चाहिए और ऐसी कोशिश करनी चाहिये कि भ्रष्टाचार ही मुद्दा बना रहे , कोई परिवार मुद्दा न बन बान जाए . बीजेपी के इस काम से आम आदमी की सत्ता को बदल देने की इच्छा प्रभावित होती है.
उत्तर प्रदेश में १९६७ के चुनाव में बीजेपी के पूर्व अवतार,जनसंघ ने मजबूती से चुनाव लड़ा था.इसका मतलब यह नहीं कि पार्टी जीत गयी थी लेकिन थोड़ी सम्मानजनक सीटें मिल गयी थी. मेरे गाँव में भी १९६७ के चुनाव में जनसंघ का जोर था. पूरे गाँव ने जनसंघ को वोट दिया था लेकिन जब नतीजे आये तो उम्मीदवार हार गया ,कांग्रेस वाला जीत गया था . मेरे गाँव में हर आदमी हतप्रभ था कि जब पूरी आबादी जनसंघ को वोट दे रही है तो हारने का क्या मतलब है .जनसंघ की हनक भी इतनी थी कि आसपास के गाँवों के लोग डर के मारे यही कहते थे कि उनके गाँव में भी जनसंघ के चुनाव निशान दीपक पर ही वोट पड़ा था. लेकिन सच्चाई यह थी कि हमारे गाँव के बाहर के गाँवों के लोगों ने कांग्रेस को वोट दिया था. पूरे जिले में कांग्रेस को ही वोट मिला था और कांग्रेस लगभग सभी सीटों पर जीत गयी थी . मैं बहुत परेशान था और मेरे गाँव के भगेलू सिंह ने जब जनसंघ के उम्मीदवार के घर से लौट कर बताया कि कांग्रेसियों ने बक्सा बदल दिया तो हमारे गाँव में सबने विश्वास कर लिया था . १९७१ में जब इंदिरा गाँधी की पार्टी को भारी बहुमत मिला तो मेरे गाँव में भगेलू सिंह के समर्थकों ने साफ़ ऐलान कर दिया कि बक्सा बदल गया है .हालांकि तब तक कुछ और पढ़े लिखे लोग गाँव में पैदा हो चुके थे और उन्होंने कहा कि बक्सा नहीं बदला गया बल्कि अखबार में छपा था कि उस वक़्त के जनसंघ के बड़े नेता , बलराज मधोक ने कहा है कि कांग्रेस ने बैलट पेपर के ऊपर ऐसा केमिकल लगवा दिया था कि मोहर कहीं भी लगाओ निशान गाय बछड़े पर ही बन रहा था जो इस चुनाव में कांग्रेस का चुनाव निशान था.बहरहाल जो भी हो कांग्रेस की जीत में बेईमानी का योगदान मुकम्मल तौर पर माना जाता था . हमारे गाँव में कोई यह मानने को तैयार ही नहीं था कि जनसंघ जैसी अच्छी पार्टी को छोड़कर कोई किसी अन्य पार्टी को वोट दे सकता था..धीरे धीरे लोगों की समझ में आया कि एक गाँव के वोट से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता बाकी गाँवों में भी लोग रहते हैं और वोट देते हैं. हमारे गाँव वालों की समझ में यह बात तो बहुत पहले आ गयी लेकिन जनसंघ/बीजेपी के नेताओं की समझ में यह बात अभी तक नहीं आई है कि लोग उनके अलावा किसी और को वोट कैसे दे सकते हैं . शायद इसी मानसिकता से पीड़ित होकर गुवाहाटी में जमा हुये बीजेपी नेताओं ने बोफोर्स तोप के सौदे को एक बार फिर चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश की है . उन्हें लगता है कि जब बोफोर्स जैसा मुद्दा मौजूद है तो और किसी बात पर क्यों ध्यान दिया जाय . अब जब आम आदमी के दिमाग में बैठ गया है कि कामनवेल्थ और २ जी के घोटाले में कांग्रेस और बीजेपी ,दोनों ही शामिल हैं,तो बीजेपी उससे बचने की कोशिश कर रही है . प्याज की बढ़ी हुई कीमतें भी अच्छा मुद्दा थीं लेकिन अब ज़खीरेबाज़ों की धर पकड़ में तो बीजेपी वाले ही फंस रहे हैं .इसलिए कुल मिला कर बीजेपी को भ्रष्टाचार का एक मुद्ददा मिल रहा है जिसमें उसके लोग बिलकुल शामिल नहीं हैं और वह है , बोफोर्स वाला . लेकिन सवाल यह उठता है कि आज २५ साल बाद तक बोफोर्स मुद्दा चल पायेगा क्या? ख़ास तौर पर जब बोफोर्स के ६५ करोड़ रूपये के घूस के बदले जब बीजेपी के नेताओं ने अपनी सरकार के दौरान सैकड़ों करोड़ की हेराफेरी की हो . वैसे भी जानकार बताते हैं कि १९८९ के चुनाव में बीजेपी की सीटें बोफोर्स के चक्कर में नहीं बढीं थीं . हिंदुत्व के नारे ने काम किया था, बोफोर्स तो मरीचिका ही था . वैसे भी बाद के वर्षों में बोफोर्स केवल बीजेपी के नेताओं के दरबारों में मुद्दा रहा देश ने कभी उसे गंभीरता से नहीं लिया .लेकिन गुवाहाटी में तो बीजेपी के नागपुरी अध्यक्ष ने न केवल बोफोर्स को मुद्दा बनाने का ऐलान किया बल्कि सोनिया गाँधी के परिवार को मीडिया के फोकस में रखने का भी फैसला कर दिया . यह क़दम उतना ही अजीब है जितना जनता पार्टी के राज में चौधरी चरण सिंह का इंदिरा गाँधी को गिरफतार करने का फैसला था . इंदिरा गाँधी को देश ने १९७७ में दुत्कार दिया था लेकिन केंद्र सरकार की उस मूर्खतापूर्ण कारवाई के बाद जब इंदिरा गाँधी अखबारों के पहले पन्ने पर आयीं तो कभी हटी ही नहीं .इस तरह १९७७ में जनता ने जो बाज़ी जीती थी उसे उस दौर के गैर कांग्रेसी नेताओं ने हार में बदल दिया . बीजेपी के गुवाहाटी के फैसले से भी लगता है कि अब रोज़ ही इनकी प्रेस कानफरेंस में सोनिया गाँधी छायी रहेगीं और उन्हें ही सारा मीडिया कवर करने को मजबूर होगा. बीजेपी देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है उसे इस तरह के गैरजिम्मेदार राजनीतिक आचरण से बच कर रहना चाहिए और ऐसी कोशिश करनी चाहिये कि भ्रष्टाचार ही मुद्दा बना रहे , कोई परिवार मुद्दा न बन बान जाए . बीजेपी के इस काम से आम आदमी की सत्ता को बदल देने की इच्छा प्रभावित होती है.
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Sunday, January 9, 2011
आर एस एस पर प्रतिबन्ध की बात बिलकुल अहमकाना है .
शेष नारायण सिंह
कांग्रेस पार्टी के एक प्रवक्ता ने आर एस एस पर प्रतिबन्ध की मांग की है . उन्होंने पत्रकारों से बताया कि सरकार को चाहिए कि आर एस एस पर प्रतिबन्ध लगाने पर विचार करे. कांग्रेस का यह बहुत ही गैर ज़िम्मेदार और अनुचित प्रस्ताव है . लोकतांत्रिक व्यवस्था में सब को संगठित होने का अधिकार है . आर एस एस भी एक संगठन है उसके पास भी उतना ही अधिकार है जितना किसी अन्य जमात को . पिछले कुछ वर्षों से आर एस एस से जुड़े लोगों को आतंकवादी घटनाओं में पुलिस वाले पकड़ रहे हैं ..हालांकि मामला अभी पूरी तरह से जांच के स्तर पर ही है लेकिन आरोप इतने संगीन हैं उनका जवाब आना ज़रूरी है . ज़ाहिर है कि आर एस एस से जुड़े लोगों को तब तक निर्दोष माना जाएगा जब तक वह भारतीय दंड संहिता की किसी धारा के अंतर्गत दोषी न मान लिया जाए. यह तो हुई कानून की बात लेकिन उसको प्रतिबंधित कर देना पूरी तरह से तानाशाही की बात होगी. उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार कांग्रेस के इस अहमकाना सुझाव पर ध्यान नहीं देगी .
आर एस एस पर उनके ही एक कार्यकर्ता ने बहुत ही गंभीर आरोप लगाए हैं . असीमानंद नाम के इस व्यक्ति ने मजिस्ट्रेट के सामने बयान दिया है कि उसने हैदराबाद की मक्का मस्जिद में विस्फोट करवाया था, समझौता एक्सप्रेस , मालेगांव , अजमेर की दरगाह आदि धमाको में वह शामिल था और उसके साथ आर एस एस के और कई लोग शामिल थे . किसी अखबार में छपा है कि मालेगांव धमाकों में शामिल एक फौजी अफसर ने इस असीमानंद को बताया था कि आर एस एस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी का सदस्य इन्द्रेश कुमार , पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आई एस आई के लिए काम करता है . कांग्रेसी प्रवक्ता ने इस इक़बालिया अपराधी की बात को अंतिम सत्य मानने की जल्दी मचा दी और मांग कर बैठा कि आर एस एस पर प्रतिबन्ध लगा दो . अब कोई इनसे पूछे कि महराज आर एस एस पर इतने संगीन आरोप लगाए गए हैं और आप अगर उस पर प्रतिबन्ध लगवा देगें तो इन सवालों के जवाब कौन देगा. एक प्रतिबंधित संगठन की ओर से कौन पैरवी करने अदालतों में कौन जाएगा . जबकि देश को इन सवालों के जवाब चाहिए. देश के सबसे बड़े राजनीतिक / सांस्कृतिक संगठन का एक बहुत बड़ा पदाधिकारी अगर पाकिस्तानी जासूस है तो यह देश के लिए बहुत बड़ी चिंता की बात है .इस हालत में केवल दो बातें संभव है . या तो उस पदाधिकारी को निर्दोष सिद्ध किया आये और अगर वह दोषी पाया गया तो उसे दंड दिया जाए. प्रतिबन्ध लग जाने के बाद तो यह नौबत ही नहीं आयेगी .आर एस एस के ऊपर इस स्वामी असीमानंद ने आतंकवादी घटनाओं में शामिल होने के आरोप लगाए हैं . लोकतांत्रिक व्यवस्था में ज़रूरी है कि प्रत्येक अभियुक्त अपने ऊपर लगे आरोपों से अपने आप को मुक्त करवाने की कोशिश करे. हम में से बहुत लोगों को मालूम है कि आर एस एस इस तरह की गतिविधियों में शामिल रहता है लेकिन वह केवल शक़ है . असीमानंद का मजिस्ट्रेट के सामने दिया गया बयान भी केवल गवाही है . फैसला नहीं . और जिसके ऊपर आरोप लगा है अगर वह प्रतिबन्ध का शिकार हो गया तो अपनी सफाई कैसे देगा . इसलिए आर एस एस पर प्रतिबन्ध की मांग करके कांग्रेसी प्रवक्ता ने लोकतांत्रिक व्यवस्था का तो अपमान किया ही है ,एक राजनीतिक पार्टी के रूप में अपनी पार्टी का काम भी कम करने की कोशिश की है . अगर आर एस एस पर इतना बड़ा आरोप लगा है तो कांग्रेस और अन्य धर्मनिरपेक्ष पार्टियों का ज़िम्मा है कि उन आरोपों को साबित करें . लेकिन यह आरोप राजनीतिक तौर पर साबित करने होगें . अदालतों को अपना काम करने की पूरी छूट देनी होगी और निष्पक्ष जांच की गारंटी देनी होगी. ऐसी स्थिति में आम आदमी का ज़िम्मा भी कम नहीं है . उसे आर एस एस के आतंकवादी संगठन होने वाले आरोप के हर पहलू पर गौर करना होगा और अगर असीमानंद के आरोप सही पाए गए तो आर एस एस को ठीक उसी तरह से दण्डित करना पड़ेगा जैसे जनता ने १९७७ में इंदिरा गाँधी को दण्डित किया था . और अगर आर एस एस पर प्रतिबन्ध लगाने की बेवकूफी हो गयी तो आर एस एस सरकारी उत्पीडन के नाम पर बच निकलेगा जो देश की सुरक्षा के लिए भारी ख़तरा होगा . दुनिया जानती है कि देश की एक बहुत बड़ी पार्टी के ज़्यादातर नेता आर एस एस के ही हुक्म से काम करते हैं . अगर उनके ऊपर लगे आरोप गलत न साबित हो गए तो यह देश की सुरक्षा के लिए ठीक नहीं होगा . इसलिए ज़रूरी है कि आर एस एस को किसी तरह के प्रतिबन्ध का शिकार न बनाया जाए और उसे सार्वजनिक रूप से अपने आपको निर्दोष साबित करने का मौक़ा दिया जाय . इस बीच आर एस एस और उसके अधीन काम करने वाली बीजेपी के कुछ नेताओं के अजीब बयान आएं है कि केंद्र सरकार की जांच एजेंसी उनके संगठन को बदनाम करने के लिए इस तरह के आरोप लगा रही हैं . यह गलत बात है . देश की जनता सब जानती है . इस देश में बहुत ही चौकन्ना मीडिया है , बहुत बड़ा मिडिल क्लास है और जागरूक जनमत है . अगर सरकार किसी के ऊपर गलत आरोप लगाएगी तो जनता उसका जवाब देगी. इसलिए आर एस एस वालों को चाहिए कि वे अपने आप को असीमानंद के आरोपों से मुक्त करने के उपाय करें क्योंकि वे आरोप बहुत ही गंभीर हैं और अगर वे सच हैं तो यह पक्का है कि जनता कभी नहीं छोड़ेगी. हो सकता है कि सरकारी अदालतें इन लोगों को शक़ की बिना पर छोड़ भी दें . इंदिरा गाँधी ने १९७५ में इमरजेंसी को हर परेशानी का इलाज बताया था लेकिन जनता ने उनकी बात को गलत माना और १९७७ में उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा . २००४ में बीजेपी ने अरबों रूपया खर्च करके देश वासियों को बताया कि इंडिया चमक रहा है लेकिन जनता ने कहा कि बकवास मत करो और उसने राजनीतिक फैसला दे दिया . इसलिए असीमानंद के बयान के बाद हालात बहुत बदल गए हैं . और आर एस एस को चाहिए कि वह अपने आप को पाकसाफ़ साबित करे. और अगर नहीं कर सकते तो असीमानन्द और इन्द्रेश कुमार टाइप लोगों को दंड दिलवाने के लिएय अदालत से खुद ही अपील करे. यह राष्ट्र हित में होगा
कांग्रेस पार्टी के एक प्रवक्ता ने आर एस एस पर प्रतिबन्ध की मांग की है . उन्होंने पत्रकारों से बताया कि सरकार को चाहिए कि आर एस एस पर प्रतिबन्ध लगाने पर विचार करे. कांग्रेस का यह बहुत ही गैर ज़िम्मेदार और अनुचित प्रस्ताव है . लोकतांत्रिक व्यवस्था में सब को संगठित होने का अधिकार है . आर एस एस भी एक संगठन है उसके पास भी उतना ही अधिकार है जितना किसी अन्य जमात को . पिछले कुछ वर्षों से आर एस एस से जुड़े लोगों को आतंकवादी घटनाओं में पुलिस वाले पकड़ रहे हैं ..हालांकि मामला अभी पूरी तरह से जांच के स्तर पर ही है लेकिन आरोप इतने संगीन हैं उनका जवाब आना ज़रूरी है . ज़ाहिर है कि आर एस एस से जुड़े लोगों को तब तक निर्दोष माना जाएगा जब तक वह भारतीय दंड संहिता की किसी धारा के अंतर्गत दोषी न मान लिया जाए. यह तो हुई कानून की बात लेकिन उसको प्रतिबंधित कर देना पूरी तरह से तानाशाही की बात होगी. उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार कांग्रेस के इस अहमकाना सुझाव पर ध्यान नहीं देगी .
आर एस एस पर उनके ही एक कार्यकर्ता ने बहुत ही गंभीर आरोप लगाए हैं . असीमानंद नाम के इस व्यक्ति ने मजिस्ट्रेट के सामने बयान दिया है कि उसने हैदराबाद की मक्का मस्जिद में विस्फोट करवाया था, समझौता एक्सप्रेस , मालेगांव , अजमेर की दरगाह आदि धमाको में वह शामिल था और उसके साथ आर एस एस के और कई लोग शामिल थे . किसी अखबार में छपा है कि मालेगांव धमाकों में शामिल एक फौजी अफसर ने इस असीमानंद को बताया था कि आर एस एस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी का सदस्य इन्द्रेश कुमार , पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आई एस आई के लिए काम करता है . कांग्रेसी प्रवक्ता ने इस इक़बालिया अपराधी की बात को अंतिम सत्य मानने की जल्दी मचा दी और मांग कर बैठा कि आर एस एस पर प्रतिबन्ध लगा दो . अब कोई इनसे पूछे कि महराज आर एस एस पर इतने संगीन आरोप लगाए गए हैं और आप अगर उस पर प्रतिबन्ध लगवा देगें तो इन सवालों के जवाब कौन देगा. एक प्रतिबंधित संगठन की ओर से कौन पैरवी करने अदालतों में कौन जाएगा . जबकि देश को इन सवालों के जवाब चाहिए. देश के सबसे बड़े राजनीतिक / सांस्कृतिक संगठन का एक बहुत बड़ा पदाधिकारी अगर पाकिस्तानी जासूस है तो यह देश के लिए बहुत बड़ी चिंता की बात है .इस हालत में केवल दो बातें संभव है . या तो उस पदाधिकारी को निर्दोष सिद्ध किया आये और अगर वह दोषी पाया गया तो उसे दंड दिया जाए. प्रतिबन्ध लग जाने के बाद तो यह नौबत ही नहीं आयेगी .आर एस एस के ऊपर इस स्वामी असीमानंद ने आतंकवादी घटनाओं में शामिल होने के आरोप लगाए हैं . लोकतांत्रिक व्यवस्था में ज़रूरी है कि प्रत्येक अभियुक्त अपने ऊपर लगे आरोपों से अपने आप को मुक्त करवाने की कोशिश करे. हम में से बहुत लोगों को मालूम है कि आर एस एस इस तरह की गतिविधियों में शामिल रहता है लेकिन वह केवल शक़ है . असीमानंद का मजिस्ट्रेट के सामने दिया गया बयान भी केवल गवाही है . फैसला नहीं . और जिसके ऊपर आरोप लगा है अगर वह प्रतिबन्ध का शिकार हो गया तो अपनी सफाई कैसे देगा . इसलिए आर एस एस पर प्रतिबन्ध की मांग करके कांग्रेसी प्रवक्ता ने लोकतांत्रिक व्यवस्था का तो अपमान किया ही है ,एक राजनीतिक पार्टी के रूप में अपनी पार्टी का काम भी कम करने की कोशिश की है . अगर आर एस एस पर इतना बड़ा आरोप लगा है तो कांग्रेस और अन्य धर्मनिरपेक्ष पार्टियों का ज़िम्मा है कि उन आरोपों को साबित करें . लेकिन यह आरोप राजनीतिक तौर पर साबित करने होगें . अदालतों को अपना काम करने की पूरी छूट देनी होगी और निष्पक्ष जांच की गारंटी देनी होगी. ऐसी स्थिति में आम आदमी का ज़िम्मा भी कम नहीं है . उसे आर एस एस के आतंकवादी संगठन होने वाले आरोप के हर पहलू पर गौर करना होगा और अगर असीमानंद के आरोप सही पाए गए तो आर एस एस को ठीक उसी तरह से दण्डित करना पड़ेगा जैसे जनता ने १९७७ में इंदिरा गाँधी को दण्डित किया था . और अगर आर एस एस पर प्रतिबन्ध लगाने की बेवकूफी हो गयी तो आर एस एस सरकारी उत्पीडन के नाम पर बच निकलेगा जो देश की सुरक्षा के लिए भारी ख़तरा होगा . दुनिया जानती है कि देश की एक बहुत बड़ी पार्टी के ज़्यादातर नेता आर एस एस के ही हुक्म से काम करते हैं . अगर उनके ऊपर लगे आरोप गलत न साबित हो गए तो यह देश की सुरक्षा के लिए ठीक नहीं होगा . इसलिए ज़रूरी है कि आर एस एस को किसी तरह के प्रतिबन्ध का शिकार न बनाया जाए और उसे सार्वजनिक रूप से अपने आपको निर्दोष साबित करने का मौक़ा दिया जाय . इस बीच आर एस एस और उसके अधीन काम करने वाली बीजेपी के कुछ नेताओं के अजीब बयान आएं है कि केंद्र सरकार की जांच एजेंसी उनके संगठन को बदनाम करने के लिए इस तरह के आरोप लगा रही हैं . यह गलत बात है . देश की जनता सब जानती है . इस देश में बहुत ही चौकन्ना मीडिया है , बहुत बड़ा मिडिल क्लास है और जागरूक जनमत है . अगर सरकार किसी के ऊपर गलत आरोप लगाएगी तो जनता उसका जवाब देगी. इसलिए आर एस एस वालों को चाहिए कि वे अपने आप को असीमानंद के आरोपों से मुक्त करने के उपाय करें क्योंकि वे आरोप बहुत ही गंभीर हैं और अगर वे सच हैं तो यह पक्का है कि जनता कभी नहीं छोड़ेगी. हो सकता है कि सरकारी अदालतें इन लोगों को शक़ की बिना पर छोड़ भी दें . इंदिरा गाँधी ने १९७५ में इमरजेंसी को हर परेशानी का इलाज बताया था लेकिन जनता ने उनकी बात को गलत माना और १९७७ में उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा . २००४ में बीजेपी ने अरबों रूपया खर्च करके देश वासियों को बताया कि इंडिया चमक रहा है लेकिन जनता ने कहा कि बकवास मत करो और उसने राजनीतिक फैसला दे दिया . इसलिए असीमानंद के बयान के बाद हालात बहुत बदल गए हैं . और आर एस एस को चाहिए कि वह अपने आप को पाकसाफ़ साबित करे. और अगर नहीं कर सकते तो असीमानन्द और इन्द्रेश कुमार टाइप लोगों को दंड दिलवाने के लिएय अदालत से खुद ही अपील करे. यह राष्ट्र हित में होगा
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Saturday, January 8, 2011
दलित नेता और विद्रोही के संपादक सुधीर ढवले को पुलिस ने बिनायक सेन किया
शेष नारायण सिंह
महाराष्ट्र पुलिस ने भी छत्तीसगढ़ पुलिस की तरह गरीबों के अधिकार की लड़ाई लड़ने वालों की धरपकड़ शुरू कर दी है . इस सिलसिले में दलित अधिकारों के चैम्पियन और मराठी पत्रिका , 'विद्रोही ' के संपादक सुधीर ढवले को गोंदिया पुलिस ने देशद्रोह और अनलाफुल एक्टिविटीज़ प्रेवेंशन एक्ट की धारा १७,२० और ३० लगाकर गिरफ्तार कर लिया . उन पर आरोप है कि वे आतंकवादी काम के लिए धन जमा कर रहे थे. ,और किसी आतंकवादी संगठन के सदस्य थे. पुलिस ने उनको नक्सलवादी बताकर अपने काम को आसान करने की कोशिश भी कर ली है .अभी पिछले हफ्ते गृह मंत्री पी चिदम्बरम ने महाराष्ट्र सरकार से आग्रह किया था कि नक्सलियों के खिलाफ अभियान को तेज़ किया जाए. सबको मालूम है कि जब पुलिस के ऊपर आला अफसरों का दबाव पड़ता है तो वे सबसे आसान पकड़ उन वामपंथियों को मानते हैं जो गरीब आदमियों के बीच काम कर रहे हों . छत्तीसगढ़ में डॉ बिनायक सेन ऐसे ही शिकार थे और अब महाराष्ट पुलिस ने वही कारनामा कर दिखाया है .सुधीर ढवले ने वर्धा में रविवार को अंबेडकर-फुले साहित्य सम्मलेन को संबोधित किया था और गिरफतारी के समय ट्रेन से वापस मुंबई जा रहे थे. उन्हें गिरफ्तार करके १२ जनवरी तक पुलिस हिरासत में रखा जाएगा.
गोंदिया की पुलिस ने दावा किया है कि कुछ लोगों ने उसे बता दिया था कि सुधीर ढवले किसी नक्सलवादी संगठन के राज्य स्तर के पदाधिकारी हैं . और उनके पास एक कम्प्युटर है जिसमें सारा नक्सलवादी साहित्य रखा हुआ है .सुधीर का कम्प्युटर भी पुलिस ने अपने कब्जे में ले लिया है . सुधीर की गिरफ्तारी को सभ्य समाज के लोग किसी भी विरोधी आवाज़ को कुचल देने की सरकारी साज़िश का हिस्सा मान रहे हैं सुधीर सुधीर ढवले कोई लल्लू पंजू सड़क छाप नेता नहीं है .महाराष्ट्र में दलित अधिकारों के लिए चल रहे आन्दोलन के चोटी के नेता हैं . महाराष्ट्र में जाति के विनाश के लिए चल रहे आन्दोलन में वे बहुत ही आदर के मुकाम पर विराजमान हैं . २००६ में जब खैरलांजी में दलितों की सामूहिक ह्त्या की गयी थी तो महाराष्ट्र के नौजवानों में बहुत गुस्सा था . उसके बाद ६ दिसंबर २००७ को डॉ अंबेडकर के महापरिनिर्वाण के दिन रिपब्लिकन जातीय अन्ताची चालवाल की स्थापना करके सुधीर ढवले ने जाति के विनाश के डॉ अंबेडकर के अभियान को आगे बढ़ाया था. यह आन्दोलन आज मुंबई में एक मज़बूत आन्दोलन है . इस बात में दो राय नहीं है कि वे सरकार के लिए असुविधाजनक हमेशा से ही रहे हैं . .महाराष्ट्र में चल रहे उस आन्दोलन की अगुवाई भी वे कर रहे थे जिसमें मुंबई और महाराष्ट्र के सभ्य समाज के लोग डॉ बिनायक सेन की गिरफ्तारी के खिलाफ लामबंद हो गए थे. सुधीर की गिरफ्तारी के बाद मुंबई के संस्कृति कर्मियों के बीच बहुत गुस्सा है . फिल्मकार आनंद पटवर्धन ने कहा कि सुधीर धावले बहुत ही भले आदमी है .उनको भी उसी तर्ज़ पर पकड़ा गया है जिस पर बिनायक सेन को पकड़ा गया था. फिल्मकार सागर सरहदी ने भी सुधीर ढवले के एगिराफ्तारी को गलत बताया है .
महाराष्ट्र पुलिस ने भी छत्तीसगढ़ पुलिस की तरह गरीबों के अधिकार की लड़ाई लड़ने वालों की धरपकड़ शुरू कर दी है . इस सिलसिले में दलित अधिकारों के चैम्पियन और मराठी पत्रिका , 'विद्रोही ' के संपादक सुधीर ढवले को गोंदिया पुलिस ने देशद्रोह और अनलाफुल एक्टिविटीज़ प्रेवेंशन एक्ट की धारा १७,२० और ३० लगाकर गिरफ्तार कर लिया . उन पर आरोप है कि वे आतंकवादी काम के लिए धन जमा कर रहे थे. ,और किसी आतंकवादी संगठन के सदस्य थे. पुलिस ने उनको नक्सलवादी बताकर अपने काम को आसान करने की कोशिश भी कर ली है .अभी पिछले हफ्ते गृह मंत्री पी चिदम्बरम ने महाराष्ट्र सरकार से आग्रह किया था कि नक्सलियों के खिलाफ अभियान को तेज़ किया जाए. सबको मालूम है कि जब पुलिस के ऊपर आला अफसरों का दबाव पड़ता है तो वे सबसे आसान पकड़ उन वामपंथियों को मानते हैं जो गरीब आदमियों के बीच काम कर रहे हों . छत्तीसगढ़ में डॉ बिनायक सेन ऐसे ही शिकार थे और अब महाराष्ट पुलिस ने वही कारनामा कर दिखाया है .सुधीर ढवले ने वर्धा में रविवार को अंबेडकर-फुले साहित्य सम्मलेन को संबोधित किया था और गिरफतारी के समय ट्रेन से वापस मुंबई जा रहे थे. उन्हें गिरफ्तार करके १२ जनवरी तक पुलिस हिरासत में रखा जाएगा.
गोंदिया की पुलिस ने दावा किया है कि कुछ लोगों ने उसे बता दिया था कि सुधीर ढवले किसी नक्सलवादी संगठन के राज्य स्तर के पदाधिकारी हैं . और उनके पास एक कम्प्युटर है जिसमें सारा नक्सलवादी साहित्य रखा हुआ है .सुधीर का कम्प्युटर भी पुलिस ने अपने कब्जे में ले लिया है . सुधीर की गिरफ्तारी को सभ्य समाज के लोग किसी भी विरोधी आवाज़ को कुचल देने की सरकारी साज़िश का हिस्सा मान रहे हैं सुधीर सुधीर ढवले कोई लल्लू पंजू सड़क छाप नेता नहीं है .महाराष्ट्र में दलित अधिकारों के लिए चल रहे आन्दोलन के चोटी के नेता हैं . महाराष्ट्र में जाति के विनाश के लिए चल रहे आन्दोलन में वे बहुत ही आदर के मुकाम पर विराजमान हैं . २००६ में जब खैरलांजी में दलितों की सामूहिक ह्त्या की गयी थी तो महाराष्ट्र के नौजवानों में बहुत गुस्सा था . उसके बाद ६ दिसंबर २००७ को डॉ अंबेडकर के महापरिनिर्वाण के दिन रिपब्लिकन जातीय अन्ताची चालवाल की स्थापना करके सुधीर ढवले ने जाति के विनाश के डॉ अंबेडकर के अभियान को आगे बढ़ाया था. यह आन्दोलन आज मुंबई में एक मज़बूत आन्दोलन है . इस बात में दो राय नहीं है कि वे सरकार के लिए असुविधाजनक हमेशा से ही रहे हैं . .महाराष्ट्र में चल रहे उस आन्दोलन की अगुवाई भी वे कर रहे थे जिसमें मुंबई और महाराष्ट्र के सभ्य समाज के लोग डॉ बिनायक सेन की गिरफ्तारी के खिलाफ लामबंद हो गए थे. सुधीर की गिरफ्तारी के बाद मुंबई के संस्कृति कर्मियों के बीच बहुत गुस्सा है . फिल्मकार आनंद पटवर्धन ने कहा कि सुधीर धावले बहुत ही भले आदमी है .उनको भी उसी तर्ज़ पर पकड़ा गया है जिस पर बिनायक सेन को पकड़ा गया था. फिल्मकार सागर सरहदी ने भी सुधीर ढवले के एगिराफ्तारी को गलत बताया है .
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Friday, January 7, 2011
हर बच्चे के हाथ में लैपटाप होना चाहिए .
शेष नारायण सिंह
नईदिल्ली , ७ जनवरी. आज दिल्ली में नौवें प्रवासी भारतीय दिवस का उदघाटन हुआ . इस अवसर पर भारत की ताक़त की हनक नज़र आई. शिक्षा मंत्री कपिल सिब्बल ने साफ़ कहा कि अब उद्योग और व्यापार और उस से जुडी चीज़ों के अवसर भारत में ही हैं इसलिए भारतीय मूल के लोगों को नयी हालात में अपने बात कहने की आदत डालनी पड़ेगी. उन्होंने कहा कि भारत में जो लोग भी आ रहे हैं वे यहाँ बेहतर अवसर की तलाश में आ रहे हैं .इस अवसर पर शिक्षा के क्षेत्र में निवेश की संभावनाओं पर भी एक सेमिनार का आयोजन किया गया जिसमें मुख्य वक्तव्य प्रधान मंत्री के सलाहकार सैम पित्रोदा ने दिया . उन्होंने कहा कि शिक्षा के क्षेत्र में नयी टेक्नालोजी का रोल बहुत ही महत्वपूर्ण है .लेकिन शिक्षा का महत्व सही अर्थों में समझना होगा . ज़रुरत इस बात की है कि शिक्षा में सुधार को एक राष्ट्रीय आन्दोलन के रूप में विकसित किया जाए . कोशिश की जानी चाहिए कि भारतीय मूल के साढ़े बारह करोड़ लोग जो विदेशों में बसे हैं उन्हें भारत में काम करने के लिए प्रेरणा दी जा सके.उन्होंने जोर देकर कहा कि भारतीय मूल के विदेशियों का धन हमें नहीं चाहिए उनके पास जो ज्ञान का ज़खीरा है वह भारत के विकास में इस्तेमाल हो सकता है . उसके बदले में उन्हें भी काम करने के बड़े मौके मिलेगें .श्री पित्रोदा ने दावा किया कि मौजूदा सरकार की सबसे बड़ी प्राथमिकता शिक्षा है . लेकिन शिक्षा के बारे में जो पुरानी समझ है उसे ख़त्म करना होगा . शिक्षा के बारे में नयी समझ को आगे लाना पड़ेगा और भारत को शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी देश बनाना होगा .
इस अवसर पर सैम पित्रोदा ने कहा कि अपने देश में करीब ५० करोड़ ऐसे लोग हैं जिनकी उम्र २५ साल से कम है . उनकी काम करने की क्षमता का विकास किया जाना चाहिए . अगर शिक्षा के क्षेत्र में विकास की दर करीब १० प्रतिशत नहीं रही तो देश पिछड़ जाएगा. . शिक्षा की मांग बहुत ज्यादा है लेकिन मौजूदा तरीके के बुनियादी ढाँचे के विकास के सहारे उस मांग को पूरा नहीं किया जा सकता है .इसके लिए ज़रूरी है कि कुशल कारीगरों और अन्य तरह के काम करने वालों की शिक्षा को कंट्रोल की व्यवस्था से बाहर किया जाए . इस दिशा में मनमोहन सिंह की सरकार ने ज़रूरी पहल कर दी है. नालेज कमीशन उसी आधुनिक सोच का नतीजा था . हमने तीन साल मेहनत करके रिपोर्ट तैयार की जिसमें २७ मुद्दे पहचाने गए और उन पर काम करने की ज़रुरत थी लेकिन शिक्षा मंत्रालय ने वह काम मुस्तैदी ने नहीं किया .अब सरकार ने तय किया है कि दो अरब डालर खर्च करके एक सूचनातंत्र बनाया जाएगा अगले डेढ़ साल में देश की ढाई लाख पंचायतों को ब्राड बैंड से जोड़ दिया जाएगा . शिक्षा में मास्टर के ज़रुरत को ख़त्म करने की दिशा में काम चल रहा है . इतनी बड़ी संख्या में लोगों को शिक्षित करने के ज़रुरत है कि पुराने तरीके के बुनियादी ढाँचे से काम नहीं चलने वाला है . आज की तारीख में हमें नए आविष्कार करके ही समस्या का समाधान तलाशने की ज़रुरत है .. प्रधान मंत्री ने इस दिशा में शुरुआत कर दी है सरकारी खर्च पर एक राष्टीय आविष्कार परिषद की स्थापना कर दी गयी है . जिसका शुरुआती बजट एक अरब डालर का है . और भी पैसा उपलब्ध करवाया जा सकता है . इस सरकार ने शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता पर रखा है और कोशिश की जा रही है कि देश भर में १४ ऐसे विश्वविद्यालय बनाए जाएँ जहां केवल आविष्कार से सम्बंधित काम हो ..
इस अवसर पर हर बच्चे के लिए एक लैप टाप के व्यवस्था करने वाले मिशन के अध्यक्ष सतीश झा ने भी भाषण दिया .. उन्होंने कहा कि मौजूदा समय को नेशनल इमरजेंसी इन एजूकेशन का नाम दिया जाना चाहिए . उन्होंने कहा कि इस देश में ६४० हज़ार गावं हैं . गावों में शिक्षा का जो स्तर वह बिलकुल आदिम है . उसको ठीक करने की ज़रुरत है . लेकिन यह हमारी मौजूदा शिक्षाव्यवस्था के बूते के बात नहीं है कि उसको बदला जा सके . उसके लिए कुछ नया करना होगा . श्री झा ने बताया कि बहुत सोच विचार और शोध के बाद एक ऐसा कम्प्युटर तैयार किया जा सका है जिसकी देखभाल गाँव का बच्चा भी कर लेगा. उसको ज्यादा गर्मी से कोई नुकसान नहीं होता , उसको पटक देने से टूटता नहीं और उस लैप टाप की मदद से बिना टीचर की मदद के भी बच्चे अपनी पढाई कर सकते हैं . उसमें बच्चों के स्तर का इंटरनेट , उनकी अपनी भाषा में उपलब्ध करवाया जा सकता है .
बाद में सैम पित्रोदा ने भी कहा कि अपने देश की शिक्षा की ज़रुरत को पूरा करने के लिए सतीश झा के प्रोजेक्ट की तरह काम करने की ज़रूरत है लेकिन इस तरकीब में भी लगातार विकास करते रहना चाहिए
नईदिल्ली , ७ जनवरी. आज दिल्ली में नौवें प्रवासी भारतीय दिवस का उदघाटन हुआ . इस अवसर पर भारत की ताक़त की हनक नज़र आई. शिक्षा मंत्री कपिल सिब्बल ने साफ़ कहा कि अब उद्योग और व्यापार और उस से जुडी चीज़ों के अवसर भारत में ही हैं इसलिए भारतीय मूल के लोगों को नयी हालात में अपने बात कहने की आदत डालनी पड़ेगी. उन्होंने कहा कि भारत में जो लोग भी आ रहे हैं वे यहाँ बेहतर अवसर की तलाश में आ रहे हैं .इस अवसर पर शिक्षा के क्षेत्र में निवेश की संभावनाओं पर भी एक सेमिनार का आयोजन किया गया जिसमें मुख्य वक्तव्य प्रधान मंत्री के सलाहकार सैम पित्रोदा ने दिया . उन्होंने कहा कि शिक्षा के क्षेत्र में नयी टेक्नालोजी का रोल बहुत ही महत्वपूर्ण है .लेकिन शिक्षा का महत्व सही अर्थों में समझना होगा . ज़रुरत इस बात की है कि शिक्षा में सुधार को एक राष्ट्रीय आन्दोलन के रूप में विकसित किया जाए . कोशिश की जानी चाहिए कि भारतीय मूल के साढ़े बारह करोड़ लोग जो विदेशों में बसे हैं उन्हें भारत में काम करने के लिए प्रेरणा दी जा सके.उन्होंने जोर देकर कहा कि भारतीय मूल के विदेशियों का धन हमें नहीं चाहिए उनके पास जो ज्ञान का ज़खीरा है वह भारत के विकास में इस्तेमाल हो सकता है . उसके बदले में उन्हें भी काम करने के बड़े मौके मिलेगें .श्री पित्रोदा ने दावा किया कि मौजूदा सरकार की सबसे बड़ी प्राथमिकता शिक्षा है . लेकिन शिक्षा के बारे में जो पुरानी समझ है उसे ख़त्म करना होगा . शिक्षा के बारे में नयी समझ को आगे लाना पड़ेगा और भारत को शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी देश बनाना होगा .
इस अवसर पर सैम पित्रोदा ने कहा कि अपने देश में करीब ५० करोड़ ऐसे लोग हैं जिनकी उम्र २५ साल से कम है . उनकी काम करने की क्षमता का विकास किया जाना चाहिए . अगर शिक्षा के क्षेत्र में विकास की दर करीब १० प्रतिशत नहीं रही तो देश पिछड़ जाएगा. . शिक्षा की मांग बहुत ज्यादा है लेकिन मौजूदा तरीके के बुनियादी ढाँचे के विकास के सहारे उस मांग को पूरा नहीं किया जा सकता है .इसके लिए ज़रूरी है कि कुशल कारीगरों और अन्य तरह के काम करने वालों की शिक्षा को कंट्रोल की व्यवस्था से बाहर किया जाए . इस दिशा में मनमोहन सिंह की सरकार ने ज़रूरी पहल कर दी है. नालेज कमीशन उसी आधुनिक सोच का नतीजा था . हमने तीन साल मेहनत करके रिपोर्ट तैयार की जिसमें २७ मुद्दे पहचाने गए और उन पर काम करने की ज़रुरत थी लेकिन शिक्षा मंत्रालय ने वह काम मुस्तैदी ने नहीं किया .अब सरकार ने तय किया है कि दो अरब डालर खर्च करके एक सूचनातंत्र बनाया जाएगा अगले डेढ़ साल में देश की ढाई लाख पंचायतों को ब्राड बैंड से जोड़ दिया जाएगा . शिक्षा में मास्टर के ज़रुरत को ख़त्म करने की दिशा में काम चल रहा है . इतनी बड़ी संख्या में लोगों को शिक्षित करने के ज़रुरत है कि पुराने तरीके के बुनियादी ढाँचे से काम नहीं चलने वाला है . आज की तारीख में हमें नए आविष्कार करके ही समस्या का समाधान तलाशने की ज़रुरत है .. प्रधान मंत्री ने इस दिशा में शुरुआत कर दी है सरकारी खर्च पर एक राष्टीय आविष्कार परिषद की स्थापना कर दी गयी है . जिसका शुरुआती बजट एक अरब डालर का है . और भी पैसा उपलब्ध करवाया जा सकता है . इस सरकार ने शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता पर रखा है और कोशिश की जा रही है कि देश भर में १४ ऐसे विश्वविद्यालय बनाए जाएँ जहां केवल आविष्कार से सम्बंधित काम हो ..
इस अवसर पर हर बच्चे के लिए एक लैप टाप के व्यवस्था करने वाले मिशन के अध्यक्ष सतीश झा ने भी भाषण दिया .. उन्होंने कहा कि मौजूदा समय को नेशनल इमरजेंसी इन एजूकेशन का नाम दिया जाना चाहिए . उन्होंने कहा कि इस देश में ६४० हज़ार गावं हैं . गावों में शिक्षा का जो स्तर वह बिलकुल आदिम है . उसको ठीक करने की ज़रुरत है . लेकिन यह हमारी मौजूदा शिक्षाव्यवस्था के बूते के बात नहीं है कि उसको बदला जा सके . उसके लिए कुछ नया करना होगा . श्री झा ने बताया कि बहुत सोच विचार और शोध के बाद एक ऐसा कम्प्युटर तैयार किया जा सका है जिसकी देखभाल गाँव का बच्चा भी कर लेगा. उसको ज्यादा गर्मी से कोई नुकसान नहीं होता , उसको पटक देने से टूटता नहीं और उस लैप टाप की मदद से बिना टीचर की मदद के भी बच्चे अपनी पढाई कर सकते हैं . उसमें बच्चों के स्तर का इंटरनेट , उनकी अपनी भाषा में उपलब्ध करवाया जा सकता है .
बाद में सैम पित्रोदा ने भी कहा कि अपने देश की शिक्षा की ज़रुरत को पूरा करने के लिए सतीश झा के प्रोजेक्ट की तरह काम करने की ज़रूरत है लेकिन इस तरकीब में भी लगातार विकास करते रहना चाहिए
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Thursday, January 6, 2011
आरक्षण की राजनीति , नीतीश कुमार के महादलित और राजनाथ फार्मूला
शेष नारायण सिंह
( मूल लेख दैनिक जागरण में छप चुका है )
आरक्षण आज की राजनीति का एक अजीब हथियार बन गया है .राजस्थान के गुर्जर समुदाय अपने आपको मीणा समुदाय की तरह जनजाति घोषित करवाने के लिए आन्दोलन चला रहे हैं . विश्वनाथ प्रताप सिंह के दौर में पिछड़ी जातियों को नौकरियों में आरक्षण दे दिया गया था लेकिन ओबीसी के जिस वर्ग को उसमें शामिल किया गया था उसमें कुछ जातियाँ ऐसी थीं जो पहले से ही बेहतर आर्थिक सामाजिक स्थिति में थीं . ज़ाहिर है ओबीसी में जो कमज़ोर जातियां थीं , वे फिर सामाजिक बराबरी की रेस में पिछड़ती नज़र आ रही हैं . बिहार में कई वर्षों के कुप्रबन्ध के बाद जब नीतीश कुमार सत्ता में आये तो उन्होंने पिछड़े वर्गों के आरक्षण के तरीके में थोडा परिवर्तन सुझाया और उसके नतीजे चुनाव में फायदे की खेती साबित हुए. सामाजिक परिवर्तन की राजनीति में नीतीश कुमार के इस प्रयोग के बाद सामाजिक न्याय के विमर्श में नया अध्याय शुरू हो गया है .अपने देश में सकारात्मक हस्तक्षेप के पुरोधा डॉ भीमराव आंबेडकर और डॉ राम मनोहर लोहिया माने जाते हैं . इन नेताओं की सोच को कांग्रेस ने भी अपनाया और संविधान में ऐसी व्यवस्था की गयी कि दलितों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया गया. संविधान के लागू होने के 60 साल बाद सकारात्मक हस्तक्षेप के राजनीतिक दर्शन में अब कुछ सुधार की ज़रुरत महसूस की जा रही है . हालांकि आज के नेताओं में किसी की वह ताक़त नहीं है कि वह आज़ादी की लड़ाई में शामिल नेताओं की तरह वे तरीके भी अपना सकें जो चुनाव के गणित के हिसाब से अलोकप्रिय हों . लेकिन इतना तय है कि चुनावी लाभ हानि को ध्यान में रख कर ही सही सामाजिक बराबरी के बारे में चर्चा हो रही है . पिछड़े वर्गों में ऊपरी पायदान पर मौजूद जाति के एक सदस्य नीतीश कुमार के लिये इन नीतियों को लागू कर पाना अपेक्षाकृत आसान था . नीतीश कुमार की इस राजनीतिक सोच को रोकने वाला कोई नहीं था क्योंकि वे अपनी पार्टी के सबसे बड़े नेता हैं . दिल्ली में उनकी पार्टी के बड़े नेता ,शरद यादव हैं . शरद यादव की राजनीतिक हैसियत ऐसी नहीं है कि वे नीतीश कुमार के किसी फैसले को वीटो कर सकें . इसलिए अपनी ज़िम्मेदारी पर नीतीश ने फैसला किया और लागू किया. नीतीश ने दलित राजनीति को भी आरक्षण की कसौटी पर फिर से कसा और दलित जातियों में जो उच्च वर्ग विकसित हो गया है ,उसकी पहचान की. दलितों में जो उच्च वर्ग है वह परंपरागत रूप से मायावती को नेता मानने लगा है . बिहार में रामविलास पासवान भी इस वर्ग के वोट के खासे गंभीर दावेदार माने जाते हैं . शायद नीतीश कुमार को अंदाज़ था कि इन दोनों नेताओं को अपेक्षाकृत संपन्न दलितों में जो मुकाम हासिल है उसे कमज़ोर कर पाना बहुत ही मुश्किल है . इसी सोच का नतीजा है कि उन्होंने दलित वोट बैंक को तोड़ दिया और महादलित नाम की एक नई राजनीतिक जमात की पहचान करवाने में सहयोग दिया . बिहार विधान सभा के चुनाव में जब लालू प्रसाद और राम विलास पासवान इकठ्ठा खड़े हुए तो राजनीति की मामूली समझ वाले विश्लेषक मानकर चल रहे थे कि पिछड़े वर्ग और दलित नेताओं का यह मिलन अजेय है . लेकिन ऐसा कुछ नहीं था . संपन्न दलितों और संपन्न पिछड़ों के नेता के रूप में लालू प्रसाद और रामविलास पासवान की पहचान बन गयी जो पता नहीं कब कायम रहेगी
उत्तर प्रदेश में भी यह प्रयोग किया गया था .उत्तर प्रदेश में दलितों की राजनीति का व्याकरण अलग है . वहां कांशी राम ने शुरुआती काम किया था जिसकी वजह से उनकी पार्टी वहां आज बहुत ही मज़बूत है . मायावती को आज उत्तरप्रदेश के दलितों का सर्व स्वीकार्य नेता माना जाता है . लेकिन शुरू से ऐसा नहीं था . हालांकि दूर तक देख सकने वालों को मालूम था कि उत्तर प्रदेश में दलित अस्मिता भावी राजनीति का स्थायी भाव बनने जा रही थी. बीजेपी की ओर से जब राजनाथ सिंह मुख्यमंत्री बनाए गए तो उन्होंने राज्य की भावी राजनीति की इस दस्तक को पहचान लिया था .पिछड़ों की राजनीति के मामले में भी उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की ताक़त बहुत ज्यादा थी. पिछड़े और दलित वोट बैंक को छिन्न भिन्न करके अपनी पार्टी की स्थिति को मज़बूत बनाने के लिए राजनाथ सिंह ने वही करने की कोशिश की जिसे बाद में बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार ने अपनाया . नीतीश अपनी पार्टी के सबसे बड़े नेता हैं इसलिए वे अपनी योजना को लागू करने में सफल हुए लेकिन राजनाथ सिंह की किस्मत वैसी नहीं थी. उनकी टांग खींचने के लिए तो उत्तर प्रदेश में ही बहुत लोग मौजूद थे और उन लोगों को दिल्ली के नेताओं का आशीर्वाद भी मिलता रहता था . बहरहाल अब बीजेपी के नेताओं की समझ में आ गया है कि राजनाथ सिंह की योजना को खटाई में डालना राजनीतिक गलती थी .दैनिक जागरण की खबर है कि पिछले दिनों उत्तरप्रदेश में पीस पार्टी से भी पिछड़ जाने के बाद बीजेपी को राजनाथ सिंह फार्मूला याद आ रहा है . उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री के रूप में राजनाथ सिंह ने सामाजिक न्याय समिति बनायी थी जिसने अति पिछड़ों के लिए आरक्षण के अन्दर आरक्षण की सिफारिश की थी . राजनाथ सिंह ने कहा था कि पिछड़ों के लिए तय आरक्षण में कुछ जातियां ही आरक्षण का पूरा लाभ उठा लेती हैं जबकि अन्य पिछड़ी जातियां वंचित रह जाती हैं। समिति की सिफारिशें लागू हो पाती कि आम चुनाव हो गए और भाजपा सत्ता में लौटी ही नहीं। इसके बाद भाजपा ने भी समिति की रिपोर्ट को भुला दिया। उप्र में लगातार कम होते जनाधार से चिंतित पार्टी को अब इस समिति की रिपोर्ट की फिर से याद आई.बीजेपी के प्रदेश मुख्यालय में अति पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ की बैठक को सम्बोधित करते हुए प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही ने भी इस बात पर जोर दिया . अब लगता कि बीजेपी में भी सामाजिक न्याय और आरक्षण के मामले पर गंभीर आन्तरिक चिंतन चल रहा है . ज़ाहिर है आरक्षण से जुड़े मुद्दों की राजनीति करवट ले रही है .
( मूल लेख दैनिक जागरण में छप चुका है )
आरक्षण आज की राजनीति का एक अजीब हथियार बन गया है .राजस्थान के गुर्जर समुदाय अपने आपको मीणा समुदाय की तरह जनजाति घोषित करवाने के लिए आन्दोलन चला रहे हैं . विश्वनाथ प्रताप सिंह के दौर में पिछड़ी जातियों को नौकरियों में आरक्षण दे दिया गया था लेकिन ओबीसी के जिस वर्ग को उसमें शामिल किया गया था उसमें कुछ जातियाँ ऐसी थीं जो पहले से ही बेहतर आर्थिक सामाजिक स्थिति में थीं . ज़ाहिर है ओबीसी में जो कमज़ोर जातियां थीं , वे फिर सामाजिक बराबरी की रेस में पिछड़ती नज़र आ रही हैं . बिहार में कई वर्षों के कुप्रबन्ध के बाद जब नीतीश कुमार सत्ता में आये तो उन्होंने पिछड़े वर्गों के आरक्षण के तरीके में थोडा परिवर्तन सुझाया और उसके नतीजे चुनाव में फायदे की खेती साबित हुए. सामाजिक परिवर्तन की राजनीति में नीतीश कुमार के इस प्रयोग के बाद सामाजिक न्याय के विमर्श में नया अध्याय शुरू हो गया है .अपने देश में सकारात्मक हस्तक्षेप के पुरोधा डॉ भीमराव आंबेडकर और डॉ राम मनोहर लोहिया माने जाते हैं . इन नेताओं की सोच को कांग्रेस ने भी अपनाया और संविधान में ऐसी व्यवस्था की गयी कि दलितों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया गया. संविधान के लागू होने के 60 साल बाद सकारात्मक हस्तक्षेप के राजनीतिक दर्शन में अब कुछ सुधार की ज़रुरत महसूस की जा रही है . हालांकि आज के नेताओं में किसी की वह ताक़त नहीं है कि वह आज़ादी की लड़ाई में शामिल नेताओं की तरह वे तरीके भी अपना सकें जो चुनाव के गणित के हिसाब से अलोकप्रिय हों . लेकिन इतना तय है कि चुनावी लाभ हानि को ध्यान में रख कर ही सही सामाजिक बराबरी के बारे में चर्चा हो रही है . पिछड़े वर्गों में ऊपरी पायदान पर मौजूद जाति के एक सदस्य नीतीश कुमार के लिये इन नीतियों को लागू कर पाना अपेक्षाकृत आसान था . नीतीश कुमार की इस राजनीतिक सोच को रोकने वाला कोई नहीं था क्योंकि वे अपनी पार्टी के सबसे बड़े नेता हैं . दिल्ली में उनकी पार्टी के बड़े नेता ,शरद यादव हैं . शरद यादव की राजनीतिक हैसियत ऐसी नहीं है कि वे नीतीश कुमार के किसी फैसले को वीटो कर सकें . इसलिए अपनी ज़िम्मेदारी पर नीतीश ने फैसला किया और लागू किया. नीतीश ने दलित राजनीति को भी आरक्षण की कसौटी पर फिर से कसा और दलित जातियों में जो उच्च वर्ग विकसित हो गया है ,उसकी पहचान की. दलितों में जो उच्च वर्ग है वह परंपरागत रूप से मायावती को नेता मानने लगा है . बिहार में रामविलास पासवान भी इस वर्ग के वोट के खासे गंभीर दावेदार माने जाते हैं . शायद नीतीश कुमार को अंदाज़ था कि इन दोनों नेताओं को अपेक्षाकृत संपन्न दलितों में जो मुकाम हासिल है उसे कमज़ोर कर पाना बहुत ही मुश्किल है . इसी सोच का नतीजा है कि उन्होंने दलित वोट बैंक को तोड़ दिया और महादलित नाम की एक नई राजनीतिक जमात की पहचान करवाने में सहयोग दिया . बिहार विधान सभा के चुनाव में जब लालू प्रसाद और राम विलास पासवान इकठ्ठा खड़े हुए तो राजनीति की मामूली समझ वाले विश्लेषक मानकर चल रहे थे कि पिछड़े वर्ग और दलित नेताओं का यह मिलन अजेय है . लेकिन ऐसा कुछ नहीं था . संपन्न दलितों और संपन्न पिछड़ों के नेता के रूप में लालू प्रसाद और रामविलास पासवान की पहचान बन गयी जो पता नहीं कब कायम रहेगी
उत्तर प्रदेश में भी यह प्रयोग किया गया था .उत्तर प्रदेश में दलितों की राजनीति का व्याकरण अलग है . वहां कांशी राम ने शुरुआती काम किया था जिसकी वजह से उनकी पार्टी वहां आज बहुत ही मज़बूत है . मायावती को आज उत्तरप्रदेश के दलितों का सर्व स्वीकार्य नेता माना जाता है . लेकिन शुरू से ऐसा नहीं था . हालांकि दूर तक देख सकने वालों को मालूम था कि उत्तर प्रदेश में दलित अस्मिता भावी राजनीति का स्थायी भाव बनने जा रही थी. बीजेपी की ओर से जब राजनाथ सिंह मुख्यमंत्री बनाए गए तो उन्होंने राज्य की भावी राजनीति की इस दस्तक को पहचान लिया था .पिछड़ों की राजनीति के मामले में भी उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की ताक़त बहुत ज्यादा थी. पिछड़े और दलित वोट बैंक को छिन्न भिन्न करके अपनी पार्टी की स्थिति को मज़बूत बनाने के लिए राजनाथ सिंह ने वही करने की कोशिश की जिसे बाद में बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार ने अपनाया . नीतीश अपनी पार्टी के सबसे बड़े नेता हैं इसलिए वे अपनी योजना को लागू करने में सफल हुए लेकिन राजनाथ सिंह की किस्मत वैसी नहीं थी. उनकी टांग खींचने के लिए तो उत्तर प्रदेश में ही बहुत लोग मौजूद थे और उन लोगों को दिल्ली के नेताओं का आशीर्वाद भी मिलता रहता था . बहरहाल अब बीजेपी के नेताओं की समझ में आ गया है कि राजनाथ सिंह की योजना को खटाई में डालना राजनीतिक गलती थी .दैनिक जागरण की खबर है कि पिछले दिनों उत्तरप्रदेश में पीस पार्टी से भी पिछड़ जाने के बाद बीजेपी को राजनाथ सिंह फार्मूला याद आ रहा है . उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री के रूप में राजनाथ सिंह ने सामाजिक न्याय समिति बनायी थी जिसने अति पिछड़ों के लिए आरक्षण के अन्दर आरक्षण की सिफारिश की थी . राजनाथ सिंह ने कहा था कि पिछड़ों के लिए तय आरक्षण में कुछ जातियां ही आरक्षण का पूरा लाभ उठा लेती हैं जबकि अन्य पिछड़ी जातियां वंचित रह जाती हैं। समिति की सिफारिशें लागू हो पाती कि आम चुनाव हो गए और भाजपा सत्ता में लौटी ही नहीं। इसके बाद भाजपा ने भी समिति की रिपोर्ट को भुला दिया। उप्र में लगातार कम होते जनाधार से चिंतित पार्टी को अब इस समिति की रिपोर्ट की फिर से याद आई.बीजेपी के प्रदेश मुख्यालय में अति पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ की बैठक को सम्बोधित करते हुए प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही ने भी इस बात पर जोर दिया . अब लगता कि बीजेपी में भी सामाजिक न्याय और आरक्षण के मामले पर गंभीर आन्तरिक चिंतन चल रहा है . ज़ाहिर है आरक्षण से जुड़े मुद्दों की राजनीति करवट ले रही है .
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