Tuesday, January 14, 2014

बंगलादेश में राजनीतिक अस्थिरता और भारतीय डिप्लोमेसी की अग्निपरीक्षा


शेष नारायण सिंह
बंगलादेश में आम चुनाव हो गए लेकिन चुनाव नतीजों पर भारी सवाल खड़े हो गए हैं . ५ जनवरी को हुए चुनाव की वैधता पर मुख्य विपक्षी पार्टी  बांग्लादेश नैशनल पार्टी (बी एन पी) के बहिष्कार ने सवालिया निशान लगा दिया है .सत्ताधारी पार्टी ,अवामी लीग में नतीजे आने के बाद जश्न का माहौल है, .अवामी लीग  के नेता और प्रधानमंत्री शेख हसीना ने कहा  है कि विपक्ष की मांगें नाजायज़ थीं और तथाकथित मांगों के बहाने संविधान के हिसाब से चुनाव करवाने की सरकार की कोशिश में डाला गया अडंगा बेमतलब है .बहरहाल सत्ताधारी पार्टी ,अवामी लीग ने  जातीय संसद (कौमी असेम्बली ) की ३०० में से २३२  सीटें जीत ली हैं और अब शेख हसीना के पास भारी बहुमत है लेकिन विपक्ष की नेता खालिदा जिया इस जीत को मान्यता देने को तैयार नहीं हैं . इस बीच अमरीका ने भी  सुझाव दे दिया है कि  दोबारा चुनाव कराया जाना चाहिए . दक्षिण एशिया में अमरीका की ताक़त को देखते हुए यह माना जा सकता है कि प्रधानमंत्री शेख हसीना को दोबारा चुनाव करवाना पड़ सकता है . बंगलादेश के चुनाव आयोग के शुरुआती आंकड़ों के अनुसार पांच जनवरी को हुए मतदान में करीब ४० प्रतिशत लोगों ने वोट डाला है . जाहिर है कि  चुनाव के बहिष्कार की खालिदा जिया की लाइन का ख़ासा असर पड़ा है . खालिदा जिया को शेख हसीना का विरोध करने के लिए जमाते इस्लामी का सहयोग मिल रहा है .
शेख हसीना भी बंगलादेश नैशनल पार्टी और उसकी नेता खालिदा जिया को कोई रियायत देने के लिए तैयार नहीं हैं . उन्होने चुनाव के अगले दिन बिलकुल साफ़ कर दिया कि मुख्य विपक्षी पार्टी जमाते इस्लामी के हाथों खेल रही है. जब उनसे पूछा गया कि क्या वे मौजूदा राजनीतिक हालात में विपक्ष से बात चीत करने के बारे में सोच रही हैं तो उन्होने साफ़ कह दिया कि जब ततक विपक्ष हिंसा का रास्ता नहीं छोड़ देता तब तक किसी तरह की बात नहीं की जायेगी . उन्होंने कहा कि आज  लोकतंत्र के दामन पर बेगुनाह लोगों के खून के दाग लगा दिए गए हैं  .हमारे लोकतंत्र पर उन लोगों के आंसू का क़र्ज़ है जिन्होंने २०१३ में राजनीतिक हिंसा का सामना किया और अपनी जान गंवाई . आज राष्ट्र की चेतना पर राजनीतिक लाभ के लिए  हिंसा का सहारा लेने वालों  ने भारी हमला किया है और  उनको बातचीत का मौक़ा तब तक नहीं दिया जाएगा जब तक वे हिंसा का रास्ता छोड़ न दें . शेख हसीना ने पत्रकारों को बताया कि उन्होने सेना  को हुक्म दे दिया है कि चुनाव के बाद भी जो आतंकवादी हिंसा जारी है उसको ठीक करने के लिए  सख्ती का  तरीका भी अपनाया जा सकता है .
 विपक्ष की नेता खालिदा ज़िया भी शुरू में अपने रुख में किसी तरह का  बदलाव करने को तैयार नहीं थीं  .उन्होने  कहा था कि यह चुनाव पूरी तरह से फर्जी है ,उनके आवाहन पर पूरे देश ने चुनाव का बहिष्कार किया है और मतदान का प्रतिशत किसी भी हालत में १० प्रतिशत से ज्यादा नहीं है . उन्होंने कहा कि सरकार की तरफ से जो ४० प्रतिशत मतदान की बात की जा रही है ,वह  भी फर्जी है . लेकिन शेख हसीना की सरकार की तरफ से मिल रहे सख्ती के संकेतों के बाद बी एन पी की नेता खालिदा जिया का रवैया भी बदला है . हालांकि वे चुनाव को अभी भी फर्जी बता रही हैं और सरकार पर हर तरह की बेईमानी करने के आरोप लगा रही  हैं लेकिन अब उनकी बोली बदली हुयी है और कह रही हैं की वे सरकार से बात चीत करने के सुझाव पर विचार कर सकती हैं लेकिन उनकी शर्त  है की उनकी पार्टी के उन नेत्ताओं को रिहा कर दिया  जाये जिनको राजनीतिक कारणों से जेलों में बंद कर दिया गया है . देश में पांच जनवरी को हुए  आम चुनाव के पहले बड़े पैमाने पर राजनीतिक नेताओं की धरपकड़ हुयी थी . खालिदा जिया का कहना है कि  अगर सरकार बातचीत करना चाहती है तो उन नेताओं को छोड़ना पडेगा .उन्होने कहा कि  जो नेता अभी जेलों में नहीं बंद हैं वे भी डर के मारे कहीं छुपे हुए हैं .ज़ाहिर है कि बातचीत  करने  के लिए सरकार को बातचीत का माहौल बनाना  पडेगा . खालिदा जिया को चुनाव के एक हफ्ते पहले से ही उनके घर में नज़रबंद कर दिया गया था और किसी को भी उनसे मिलने की अनुमति नहीं दी गेई थी लेकिन चुनाव के बाद अमरीकी अखबार न्यूयार्क टाइम्स के संवाददाता को मिलने दिया गया . उसके साथ हुयी बातचीत में खालिदा जिया ने कहा कि वे जमाते इस्लामी से भी दोस्ताना सम्बन्ध ख़त्म करने पर विचार कर सकती हैं .उन्होने संवाददाता को बताया कि  जमात के साथ उनको कोई परमानेंट सम्बन्ध नहीं है . उनसे पूछा गया कि क्या ज़रुरत पड़ने पर वे जमाते इस्लामी के साथ संबंधों को खत्म भी कर सकती हैं  तो बी एन पी की अध्यक्ष ने कहा कि अभी  तुरंत तो खत्म नहीं कर सकती लेकिन जब वक़्त आयेगा तो विचार किया जा सकता है .यानी राजनीतिक सुविधा अगर आकर्षक लगी तो खालिदा जिया जमाते इस्लामी वालों को औकात बता सकती हैं .
उधर अमरीका और ब्रिटेन ने चुनाव नतीजों को नाकाफी बताकर माहौल में असमंजस की स्थिति पैदा कर दिया है . १९९६ का उदाहरण दिया जा रहा  है जब सत्ताधारी पार्टी बंगलादेश नैशनल पार्टी थी और खालिदा जिया प्रधानमंत्री थीं . शेख हसीना की अवामी लीग ने चुनाव के बहिष्कार का आवाहन किया था . बहुत कम लोग वोट डालने आये थे . लेकिन दुनिया ,  भर के नेताओं के दबाव के बाद खालिदा जिया ने  चार महीने बाद ही दोब़ारा चुनाव करवा दिया था . अमरीका  ब्रिटेन और खालिदा जिया इस बार भी वही उम्मीद कर रहे हैं कि शायद १९९६ की तरह इस बार  भी  शेख हसीना पर दबाव डालकर दोबारा चुनाव करवाया जा सकता है . लगता है कि शेख हसीना भी  इस संभावना पर विचार कर रही हैं क्योंकि उन्होंने भी मीडिया के ज़रिये मुख्य विपक्षी पार्टी को सुझाव दे दिया  है की बातचीत के बिना कोई रास्ता नहीं निकाला जा सकता .
उधर खालिदा जिया और उनके साथी यह कहकर चुनाव का बहिष्कार कर रहे हैं कि अवामी लीग सरकार को इस्तीफ़ा देकर कार्यवाहक सरकार की निगरानी में चुनाव कराने चाहिए था .सत्ताधारी पार्टी विपक्ष की इस मांग को ये कहते हुए सिरे से ख़ारिज़ कर चुकी है कि चुनाव एक संवैधानिक ज़रूरत है और समय से चुनाव होना ज़रूरी है  क्योंकि जब २४ जनवररी को संसद का कार्यकाल ख़त्म हो रहा है तो उसके ९० दिन के पहले चुनाव की प्रक्रिया शुरू की जा सकती है लेकिन सत्ता की उम्मीद लगाए बैठी बांगलादेश नैशनल पार्टी की अध्यक्ष खालिदा जिया कुछ भी स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं . वे एक तरह से जमाते इस्लामी की आवाज़ में बात कर रही है . सबको  मालूम है कि १९७१ में जमाते इस्लामी की भूमिका  बंगलादेश की स्थापना  के विरोध में थी . सबको यह भी मालूम है कि जब जनरल याहया खान ने १९७१ में बंगलादेश के  मुक्ति संग्राम को कुचल देने के लिए ढाका में जनरल टिक्का खान को तैनात किया था तो  बलात्कार की सारी घटनाएं इसी जमाते इस्लामी के रजाकारों की मिलीभगत से हुयी थीं . इसलिए जमाते इस्लामी की ख्याति एक खूंखार आतंकी संगठन के रूप में बंगलादेश में मानी जाती है और इसी कारण से सरकार ने उसपर पाबंदी लगा रखी है लेकिन खालिदा जिया , पता नहीं किस मजबूरी के चलते जमात का साथ पकडे हुए हैं .इसी जमाते इस्लामी की मदद से उन्होने २०१३ में कई बार हड़ताल करवाई , हिंसा हुयी और ८५ दिन तक बंद रखवाया .खालिदा जिया के उत्साह का कारण शायद यह है कि कुछ नगरों में हुए मेयर पद के चुनाव में खालिदा जिया की पार्टी ने सत्तधारी पार्टी को बुरी तरह से हरा दिया था .इसीलिए वे चुनाव के पहले एक ऐसी सरकार के अधीन चुनाव संपन्न करवाना चाहती थीं जो शुद्ध रूप से टेक्नोक्रेट लोगों की सरकार हो उसमें कोई राजनीतिक व्यक्ति न हो लेकिन शेख हसीना ने इस बात को यह कह कर खारिज कर दिया कि संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है .लेकिन खालिदा जिया एक नहीं मानीं . २९ दिसंबर २०१३ को उन्होने एक जुलूस निकाला और उसे मार्च आफ डेमोक्रेसी नाम दिया . उस दौरान बहुत हिंसा हुई . चुनाव के ऐन पहले ४ जनवरी के दिन कई बूथों में आग लगा दी गयी. सडकों पर ब्लाकेड लगा दिए  गए .और ऐसी हालात पैदा कर दिए गए कि सरकार को बहुत सारे  राजनीतिक नेताओं को जेल में डालना पडा .

अब तो  खालिदा जिया बातचीत के लिए तैयार नज़र आती हैं लेकिन हड़ताल और आन्दोलन के दौरान वे विजेता की तरह चलती थीं . बंगलादेश के मुक्तिसंग्राम मे  भारत के योगदान से कोई नहीं इनकार करता लेकिन बेगम खालिदा जिया भारतीय नेताओं की कोई बात सुनने को तैयार नहीं थीं . राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी जब बंगलादेश की यात्रा पर गए थे और खालिदा जिया से मुलाक़ात का कार्यक्रम बन चुका था . उसके बावजूद उन्होने मना कर दिया . जमाते इस्लामी वाले प्रधानमंत्री शेख  हसीना  को भारत की कठपुतली साबित करने पर आमादा रहते हैं और उनको सिक्किम के पूर्व मुख्यमंत्री काजी लेंदुप दोरजी की तरह का बताते हैं . आन्दोलन के दौर में खालिदा जिया ने भी कई बार शेख हसीना को काजी लेंदुप दोरजी जैसा कहा जबकि उनको मालूम है कि ऐसा नहीं  है.
लेकिन अब लगता है कि  उनको अहसास हो गया है की ज़्यादा बढ़ बढ़ कर बात करने से कुछ नहीं होने वाला था  और शायद इसीलिये न्यूयार्क टाइम्स को दिये गये इंटरव्यू में उन्होंने स्वीकार किया कि जमाते इस्लामी से रिश्ता स्थाई नहीं है और दोबारा चुनाव पर भी बात हो सकती है . जहां तक शेख हसीना की बात है वे तो बातचीत का आमंत्रण पहले ही दे चुकी हैं . बस उनकी एक शर्त है कि हिंसा का रास्ता छोड़ना पडेगा 

Friday, January 10, 2014

प्रियंका गांधी के शामिल होने से चुनाव अभियान में नया माहौल बनेगा



शेष नारायण सिंह
प्रियंका गांधी को कांग्रेस में बड़े रोल देने की कांग्रेस की योजना पर चौतरफा चर्चा शुरू हो यी है . खबर है कि प्रियंका गांधी ने कांग्रेस पार्टी में राहुलगांधी और सोनिया गांधी के निजी सहायकों को बुलाकर उन्होंने सलाह शविरा किया .खबर है कि सोनिया गांधी के जनार्दन द्विवेदी और अहमद पटेल को राहुल गांधी के आवास पर तलब किया गया .राहुल गांधी की टीम के मधुसूदन मिस्त्री,जयराम रमेश और अजय माकन भी बुलाये गए थे . पिछले विधान सभा चुनावों में कांग्रेस की जो दुर्दशा हुई है ,उसके बाद कांग्रेसी हलकों में हडकंप है .विधानसभा चुनावों में हुई भारी  हार के बाद कांग्रेस को लोक सभा में अपना सूपड़ा साफ़ होते साफ़ नज़र आ रहा ही . अगर आज चुनाव हो जाएँ तो कांग्रेस को दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार , मध्यप्रदेश , छत्तीसगढ़ ,पश्चिम बंगाल ,राजस्थान ,गुजरात, महाराष्ट्र, हरियाणा ,आंध्रप्रदेश ,तमिलनाडु, उडीसा जैसे राज्यों में बहुत कम सीटें मिलने वाली हैं . असम, कर्णाटक और एकाध और छोटे राज्यों के सहारे दिल्ली में केंद्रीय सरकार बना पाना असंभव है. यह बात विधानसभा चुनावों के बाद बिलकुल साफ़ हो गयी है .  २०१३ के विधान सभा चुनावों ने यह भी साफ़ कर दिया कि देश की राजनीति में जीतने के लिए अब चक्रवर्ती सम्राट की तरह आचरण करने  का विकल्प नहीं रह गया है . राहुल गांधी की उस राजनीति को भी नकारा जा चुका है जिसमें वे किसी से मिलते ही नहीं .अगर मिलते है तो टी वी कैमरों के ज़रिये पूरी दुनिया  को दिखाते हैं .अब जनता रियल लोगों से सीधी बातचीत करना चाहती है .इन चुनावों ने यह भी साफ़ कर दिया कि अगर तीसरा विकल्प मिल जाए तो जनता दोनों ही पडी पार्टियों को किनारे कर सकती  है . पिछले चुनावों में सबकी समझ में आ गया कि किस तरह से कांग्रेस का चुनाव अभियान कुप्रबंधन का शिकार था . राजस्थान में जिस दिन सी पी जोशी एक वोट से हारने के बाद राज्य के  मुख्यमंत्री पद की दावेदारी से बाहर हुए थे ,उसी दिन से उन्होने  मुख्यमंत्री अशोक गहलौत को औकात बताने के प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू का दिया था . तुर्रा यह कि दिल्ली में उनके आका , राहुल गांधी को कभी पता नहीं लगा कि जोशी जी राजस्थान में कांग्रेस की जड़ों में मट्ठा डाल रहे हैं . उनके बारे में राहुल गांधी को आखीर तक यह भरोसा रहा कि जोशी जी सब कुछ संभाल लेगें . इसीलिये विधानसभा चुनाव के ठीक पहले उनको राजस्थान का करता धरता बनाकर फिर भेज दिया . जोशी जी ने भी अशोक गहलौत को कभी माफ़ नहीं किया .पूरे चुनाव अभियान के दौरान उनकी हार की माला जपते रहे और परमात्मा की असीम अनुकम्पा से सी पी जोशी कामयाब हुए . यह अलग बात है कि अशोक गहलौत के साथ ही कांग्रेस हार गयी . अशोक गहलौत को हराने  के काम में स्व सीसराम ओला , गिरिजा व्यास और सचिन पायलट भी लगे हुए थे .सबको सफलता मिली और कांग्रेस वहां तबाह हो गयी. . दिल्ली में शीला दीक्षित ने अच्छा काम किया था लेकिन यहाँ भी अजय माकन और जयप्रकाश अग्रवाल लगातार उनके खिलाफ काम करते रहे . अजय माकन तो राहुल गांधी की कृपा से अपना काम चलाते रहे और आखीर में सफल हुए और दिल्ली में कांग्रेस उसी पोजीशन पर पंहुच गयी जिस पर १९५७ के चुनावों में जनसंघ हुआ करती थी. छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की स्थिति मज़बूत थी लेकिन वहां भी अजीत जोगी को पूरा मौक़ा दिया गया कि वे अपने मित्र और मददगार रमन सिंह की ताजपोशी फिर से करवा सकें . बताते हैं की रमन सिंह की मदद करने के चक्कर में जोगी जी ने कांग्रेस को राज्य में धूल चटाने में भारी योगदान किया . उनके सतनामी सम्प्रदाय के लोगों ने तय कर लिया था कि किसी भी सूरत में रमन सिंह को वोट नहीं देना है . ज़ाहिर है यह सारे वोट कांग्रेस को मिलते . रायपुर में चर्चा है की अजीत जोगी  के दिमाग का ही कमल था कि  सतनामी सेना बन गयी और उसके आध्यात्मिक गुरु ने हेलीकाप्टर पर सवार होकर सतनामी सम्प्रदाय के सारे वोट ले लिए . इस तरह से जो वोट कांग्रेस को मिलने थे वे कांग्रेस के खिलाफ पड़ गए और हर उस सीट पार जहां सतनामियों की मदद से कान्ग्रे सको जीतना था ,वहां बीजेपी जीत गयी. मध्य प्रदेश में भी २००८ में जब तत्कालीन कांग्रेस के आला नेत्ता सुरेश पचौरी ने टिकटों की कथित हेराफेरी करके शिवराज सिंह की जीत के लिए माहौल बनाया था तो उनको दरकिनार कर दिया गया था और राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री  दिग्विजय सिंह को आगे किया गया था. हर जिले में उन्होंने कुछ लोगों को तैयार किया था लेकिन चुनाव के ठीक पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया को आगे कर दिया गया . नत्तीजा सामने है . ज्योतिरादित्य को शिवराज सिंह के आगे खड़ा कर दिया गया . वह शिवराज सिंह ,जो दिन रात मध्यप्रदेश की राजनीति में डूबे रहते है ,उनके सामने ऐसे सिंधिया जी खड़े थे जिनकी जेब में दिल्ली वापस लौटने का बोर्डिंग कार्ड नज़र आता रहता  था. आम धारणा यह बन गयी की  सिंधिया जी वहां बस तफरीह के लिए आये हैं , असल ठिकाना तो उनका दिल्ली ही है .मध्यप्रदेश में  भी कांग्रेस की दुर्दशा हो गयी .
यह तो विधान सभा चुनाव वाले राज्यों का हाल है .अन्य  महत्वपूर्ण राज्यों में भी कांग्रेस ने जिस तरह से राजनीतिक प्रबंधन किया है वह तर्क पद्धति से समझ में नहीं आता. उत्तर प्रदेश का उदाहरण दिया जा सकता है . सबसे ज़्यादा सांसद लोकसभा में भेजने वाले राज्य में कांग्रेस के चुनाव प्रबंधन का ज़िम्मा मधुसूदन मिस्त्री नाम के एक व्यक्ति को दे दिया गया है . राज्य के कांग्रेस अध्यक्ष निर्मल खत्री बना दिए गए थे जिनका अपने जिले में कोई प्रभाव नहीं है राज्य की बात तो बहुत दूर की कौड़ी है . १९८० से विधान सभा का हर चुनाव जीत रहे राज्य कांग्रेस के बड़े नेता और एक वर्ग के पत्रकारों के चहेते प्रमोद तिवारी को कोई  भूमिका नहीं दी गयी तो उन्होने  मुलायम सिंह यादव की टीम की तरफ क़दम  बढ़ाना शुरू कर दिया . आज वे मुलायम सिंह यादव की कृपा से राज्य सभा के सदस्य हैं .नतीजा यह  है कि आज उत्तर प्रदेश  में जो कांग्रेसी बच गए हैं वे भारी कन्फ्यूज़न के शिकार हैं . सबसे बड़ा कन्फ्यूज़न तो राज्य में कांग्रेस के इंचार्ज महासचिव मधुसूदन मिस्त्री को लेकर ही है . उनके बारे में तरह तरह की बातें सुनने में आती  हैं . बताया जाता है कि वे एन  जी ओ सर्किट से आते हैं ,  राहुल जी की टीम में जो हारवर्ड विश्वाविद्यालय से आये हुए लोग हैं ,उनके ख़ास बन्दे हैं . दूसरी चर्चा यह है कि वे नरेंद्र मोदी के पुराने साथी हैं , उनके साथ गुजरात में काम कर चुके हैं और नरेंद्र मोदी के ख़ास कृपापात्र हैं . एक अफवाह यह भी है की मिस्त्री जी ने ही नरेंद्र मोदी की शुरुआती राजनीति को सम्भाला था और आज मोदी कहाँ से कहाँ पंहुंच गए. उनसे राहुल जी को उम्मीद है की वे उत्तर प्रदेश में भी वही कर दिखायेगें  जो उन्होंने मोदी जी के लिये गुजरात में किया था . इस बात की पूरी संभावना है कि इन बातों में कोई भी बात सच न हो लेकिन अगर उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी सर्किल में इस तरह की बातें चल रही हैं तो यह कांग्रेस के लिए अच्छा संकेत नहीं है .
कांग्रेस की इस दुर्दशा के बीच में अब प्रियंका गांधी को प्रचार की ज़िम्मेदारी देने की योजना बनायी जा रही है .इस बात में दो राय नहीं है कि प्रियंका गांधी जवाहरलाल नेहरू की मौजूदा पीढ़ी की सबसे करिश्माई नेता हैं . उनके भाई राहुल गांधी की  राजनीतिक प्रबंधन की योग्यता का नतीजा दुनिया के सामने है ,उनके चचेरे भाई वरुण गांधी की ख्याति भी एक ऐसे व्यक्ति की बन गयी है जो कई बार ऐसे बयान दे देते हैं  जिसके कारण उनको जेल की हवा खानी पड़ती है . कुछ लोगों के हाथ  काटने की धमकी और साम्प्रदायिक विद्वेष फ़ैलाने के मुक़दमों का तजुर्बा उनको है .  इंदिरा गांधी की तीसरी पीढ़ी के तीनों ही लोगों में प्रियंका गांधी का व्यक्तित्व सबसे ज़्यादा  स्वीकार्य माना जाता है लेकिन जब वे खुले आम चुनाव मैदान में आयेगीं, बीजेपी और आम आदमी पार्टी की जीत के आड़े आ रही  होंगीं तो उनको खासी परेशानियों का सामना करना पडेगा . सामान्य राजनातिक समझ का तकाज़ा है कि आम आदमी पार्टी के कुमार विशवास और ही बीजेपी की मीनाक्षी लेखी  उनके परिवार की सारी कारस्तानियों का वर्णन  करेगें . उनके पति राबर्ट वाड्रा की राजस्थान में खरीदी गयी  ज़मीनों का विषद विवेचन होगा  और बीजेपी की मौजूदा सरकार उस प्रकरण में हो रही जांच को या तो सार्वजनिक रूप से और या अखबारों में लीक करके राजनीति के अखाड़े में डालेगी . ज़ाहिर है कि  यह प्रियंका गांधी के लिए बहुत ही उपयोगी नहीं होगा. इसलिए कामनसेंस का तकाजा  है  की प्रियंका गांधी की पूरे देश में सक्रियता से कांग्रेस को कोई बहुत फायदा नहीं होने वाला है . हाँ यह पक्के तौर  पर कहा जा सकता है कि  अब से मई तक राजनीतिक परिदृश्य बहुत ही दिलचस्प बना रहेगा क्योंकि आम आदमी वाले दिल्ली सरकार के ज़रिये कांग्रेस और बीजेपी के भ्रष्टाचार की कहानियाँ पब्लिक डोमेन में डालते रहेगें, स्नूप्गेट की केंद्र सरकार की जांच की प्रगति से वे बातें पब्लिक डोमेन में लीक होती रहेगीं जिनसे कांग्रेस की सरकार यह साबित कर सके कि नरेंद्र मोदी के ख़ास सिपहसलार ,अमित शाह के साहेब किस तरह के इंसान हैं और किसी लडकी का पीछा किस हद तक करवा सकते हैं .
कुल मिलाकर प्रियंका गांधी के बड़े पैमाने पर राजनीति में सक्रिय होने से राजनीतिक माहौल बिलकुल एक नयी पिच पर पंहुच जाएगा और उम्मीद की जानी चाहिये कि  २०१४ का चुनाव बहुत ही दिलचस्प होगा .

Thursday, January 9, 2014

यह लेख मेरा नहीं है ,हमारे मुख्य सम्पादक ललित सुरजन का है





ललित सुरजन का अवश्य पठनाय लेख ,आज देशबंधु में छपा है



आम आदमी पार्टी के अरविन्द की सादगी को ललित जी ने सन्दर्भ दिया है. अवश्य पठनीय 









आज 
की शुरुआत आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार के उस निर्णय के जिक्र से जिस पर न जाने क्यों समाज के किसी भी वर्ग ने बहुत यादा ध्यान नहीं दिया, जबकि मेरी राय में वह इस सरकार का पहला बड़ा और ठोस कदम था। पाठकों को संभवत: स्मरण हो कि सरकार संभालने के तुरंत बाद मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने सिपाही विनोद कुमार के परिवार को एक करोड़ रुपए की बड़ी राशि क्षतिपूर्ति के रूप में देने का आदेश जारी किया था।  खतरे के बीच अपनी डयूटी निभाते हुए सिपाही विनोद कुमार असामाजिक तत्वों के द्वारा मारा गया था। निर्णय इसलिए बड़ा था क्योंकि इसमें पुलिस के मनोबल बढ़ने की बड़ी संभावना छिपी हुई है वरना प्रदेशों में पुलिस के जो हालात हैं वे किसी से छिपे हुए नहीं हैं। अपनी डयूटी निभाते हुए पुलिस कदम-कदम पर मौजूद खतरों से तभी जूझ सकता है जब उसे विश्वास हो कि कोई अनहोनी हो गई तो बाद में परिवार को दुर्दशा नहीं झेलना पड़ेगी। मैं समझता था कि प्रकाश सिंह, वेद मरवाह और किरण बेदी जैसे मुखर पुलिस अधिकारी तो इस बारे में बोलेंगे, लेकिन मेरे देखे-सुने में उनका कोई बयान नहीं आया।
मजे की बात यह है कि अरविंद केजरीवाल व आम आदमी पार्टी की उन नीतियों और निर्णयों की यादा चर्चा हो रही है, जो किसी हद तक प्रतीकात्मक हैं और जिन्हें क्रियान्वयन की कसौटी पर खरा उतरना अभी बाकी है। मुख्यमंत्री और उनके सहयोगी खुद के लिए ''आम आदमी'' की संज्ञा धारण करने के साथ-साथ बार-बार  ''हम तो छोटे लोग हैं'', ''हम तो सड़क के आदमी हैं'' जैसे जुमलों का इस्तेमाल भी कर रहे हैं। मैं नहीं समझ पाता कि अपने आपको इतना दीन-हीन जतलाने की क्या जरूरत है! श्री केजरीवाल के लिए यह उचित होगा कि वाक् चातुरी को छोड़कर इस पर ध्यान दें कि वे और उनके साथी निराभिमानी व विनम्र रहते हुए सादगी के अपने एजेंडे को ईमानदारी से लागू करने के लिए काम करते रहें। आखिरकार जनता ने आपको चुना इसलिए है कि अन्य पार्टियों की तरह आपकी कथनी और करनी में अंतर नहीं होगा!
अभी इस बात पर हो-हल्ला हुआ कि 'आप' के मंत्री सरकारी गाड़ियों में चलने लगे हैं। इस पर भी कि मुख्यमंत्री को आधिकारिक आवास के लिए बड़े मकान की जरूरत क्यों पड़ी? दोनों मुद्दों पर आपत्ति  अनावश्यक थी। मुख्यमंत्री बहुत बड़े बंगले में न रहें यहां तक तो ठीक है, लेकिन उस पद पर बैठे व्यक्ति को अपनी शासकीय जिम्मेदारी के तहत जितने लोगों से मिलना होता है उसे देखते हुए पांच कमरे का मकान बड़ा नहीं, पर्याप्त ही माना जाना चाहिए। मुख्यमंत्री के निवास से लगकर यदि एक आवासीय कार्यालय भी है तो वह भी विलासिता नहीं, बल्कि आवश्यकता है। देश की राजधानी दिल्ली के मुख्यमंत्री से भेंट करने देश-विदेश से लोग आते हैं। इनसे मुख्यमंत्री कहां मिलेंगे? उन्हें शिष्टाचार के निर्वाह के लिए शासकीय स्तर पर भोज भी देना होंगे। इसकी व्यवस्था वे कहां करेंगे? श्री केजरीवाल ने अपने दामन पर कोई दाग न लगे इस नाते तुरंत ही और छोटे मकान की तलाश शुरु कर दी है, लेकिन इसमें कोई बहुत बुध्दिमानी नहीं है।
शासकीय वाहन की बात करें। मुख्यमंत्री अपनी वैगन आर में चल रहे हैं। अच्छी बात है। दिल्ली की भीड़ भरी सड़कों पर छोटे वाहन में चलना ठीक ही है। इनके साथियों को इनोवा गाड़ियां दी गई हैं। जाहिर है कि दिल्ली सरकार के गैराज में ये गाड़ियां रही होंगी जो पुराने से नए मंत्रियों के  पास आ गई हैं। इनका इस्तेमाल करने में कोई बुराई नहीं है।  गैराज में रखे धूल खाने से बेहतर है कि गाड़ियां चलती रहें लेकिन आगे के लिए सरकार इतना जरूर तय कर सकती है कि बड़ी गाड़ियों के बदले छोटी, कम खर्चीली व यादा मायलेज देने वाली गाड़ियां ही खरीदी जाएंगी। ऐसा करने से यह भी होगा कि दिल्ली के अफसरान भी छोटी गाड़ियों में चलने की आदत डाल लेंगे, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। मुख्यमंत्री सादगी की प्रतीकात्मकता को यदि स्थायी वास्तविकता में बदलना चाहते हैं तो उन्हें सुनीता नारायण व दिनेश मोहन जैसे विशेषज्ञों से सलाह कर सार्वजनिक यातायात, सायकिल व फुटपाथ- इनके बारे में विचार करना होगा।
बहरहाल, सादगी की चर्चा करते हुए यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत ने राजनेताओं में ऐसी सादगी पहली बार नहीं देखी है। इतिहास में जाने से पहले वर्तमान की बात करें तो दो प्रखर उदाहरण सामने है-त्रिपुरा के माणिक सरकार और पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी। त्रिपुरा में वामपंथी  मुख्यमंत्री हैं इसलिए उनका सादा जीवन अस्वाभाविक नहीं है, लेकिन ममता बनर्जी तो कांग्रेस से निकलकर आई हैं। गो कि कांग्रेस में मध्यप्रदेश की सांसद मीनाक्षी नटराजन जैसे उदाहरण सामने हैं। यदि अरविंद केजरीवाल ने ममता बनर्जी को सादगी से कहीं प्रेरणा ग्रहण की हो तो उन्हें शायद यह भी पता हो कि सूती साड़ी, हवाई चप्पल और रूखे व्यवहार वाली ममता बंगाल की सांस्कृतिक परंपराओं से न सिर्फ सुपरिचित हैं बल्कि वे अपने प्रदेश के लेखकों, कलाकारों व संस्कृतिकर्मियों का हर संभव सम्मान करती हैं। 'ममता' और 'आंधी' जैसी फिल्मों की नायिका अस्सी वर्षीय सुचित्रा सेन ने पिछले तीस साल से अपने आपको बाहरी दुनिया से काट लिया है, लेकिन जब ममता बनर्जी ने उनसे मिलने की इच्छा प्रकट की तो अस्पताल में दाखिल सुचित्रा सेन ने उन्हें मना नहीं किया।
जिन लोगों को इतिहास का ज्ञान नहीं है अथवा जो अपने राजनैतिक विचारों के अनुरूप इतिहास की मनमानी व्याख्या करते हैं, उनकी बात क्या करें; सुधीजन जानते हैं कि स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का अपने शयन कक्ष में एक खड़खड़िया टेबल फैन से काम चल जाता था। इंदिराजी ने उनको बिना बताए नया पंखा लगा दिया तो उन्होंने उसे लौटा दिया। वे अपने मेहमानों का सत्कार उस समय मिलने वाले अल्प वेतन से नहीं कर पाते थे और इसलिए उन्होंने संसद में अपील की थी कि उनका वेतन कुछ बढ़ा दिया जाए, क्योंकि उनके पास आय का कोई दूसरा जरिया नहीं था। पंडित नेहरू के अनन्य सहयोगी वी.के. कृष्ण मेनन के बारे में भी क्या-क्या नहीं कहा गया, लेकिन लंदन में उच्चायुक्त रहते हुए श्री मेनन अपने दफ्तर की टेबल पर ही सो जाते थे। क्या ये तथ्य जानने में श्री केजरीवाल को कोई दिलचस्पी होगी?
मैंने ऊपर माणिक सरकार का जिक्र किया है। दरअसल, सभी वामपंथी पार्टियाें के नेताओं के लिए सादा जीवन उनकी जीवन शैली का अनिवार्य अंग है। वे इसका ढिंढोरा नहीं पीटते। योति बसु मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए सीटू के अधिवेशन में भाग लेने के लिए भिलाई आए। उन्हें लेने सरकारी गाड़ी स्टेशन गई। योति बाबू ने उसे वापिस कर दिया और मजदूर संगठन के लोग जिस खटारा गाड़ी में स्टेशन पहुंचे थे, वे उसमें बैठे। बात साफ थी-मैं यहां मुख्यमंत्री की हैसियत से किसी सरकारी कार्यक्रम में नहीं आया हूं। इस तरह 2009 में पश्चिम बंगाल के सीपीआई के मंत्री श्रीकुमार मुखर्जी रायपुर आए तो उन्होंने भी सरकारी गाड़ी स्टेशन से ही लौटा दी। वे जिस कार्यक्रम में आए थे, उसके आयोजकों ने जिस साधारण होटल में अन्य प्रतिनिधियों को रुकवाया था, श्रीकुमार भी वहीं रुके।  ए.बी. वर्ध्दन, डी. राजा, गुरुदास दासगुप्ता इत्यादि भी कभी सुख-सुविधा के मोहपाश में नहीं फंसते।
पश्चिम बंगाल में योति बाबू के बाद मुख्यमंत्री बने बुध्ददेव भट्टाचार्य भी अपनी सादगी के लिए जाने जाते हैं। लेकिन इस मामले में केरल का कोई मुकाबला नहीं है। वहां कांग्रेस हो, या वाममोर्चा- दोनों की लोकतंत्र में जैसी गहरी आस्था है और आचरण में जो सादगी है वह अन्यत्र दुर्लभ है। ई.एम.एस. नम्बूदरीपाद से लेकर वर्तमान मुख्यमंत्री  ओमन चांडी तक यह सिलसिला बना हुआ है। सीपीआई के सी.के. अच्युत मेनन तो भारत के ऐसे पहले मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने स्वास्थ्य का हवाला देकर स्वेच्छा से पद छोड़ दिया था। केरल के अफसरों में भी सादे जीवन की झलकियां देखी जा सकती हैं। इधर बिहार के समाजवादी मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर का स्मरण अनायास हो आता है, जिन्होंने सचिवालय में वीआईपी लिफ्ट को आम जनता के लिए खोल दिया था। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री सुधाकर राव नाइक को सपत्नीक व बसपा के संस्थापक कांशीराम को अकेले मैंने विमानतल पर सामान्य यात्रियों के साथ लाइन में खड़े होते देखा है और अपने छत्तीसगढ़ चंदूलाल चंद्राकर को भी, जबकि वे स्वयं नागरिक उड्डयन मंत्री थे। कांग्रेस के ही रामचंद्र सिंहदेव छह बार विधायक व मंत्री रहने के बाद भी एक साधारण से क्वार्टर में रहते हैं।
ए.के. एंटोनी का जिक्र किए बिना यह चर्चा खत्म नहीं हो सकती। वे मुख्यमंत्री थे, तब भी उनकी पत्नी अपनी नौकरी पर बस से जाती थीं। श्री केजरीवाल ने जरूर अपनी गाड़ी में लालबत्ती लगाने से मना कर दिया है, लेकिन किसी पत्रकार को पता करना चाहिए कि उनकी पत्नी किस गाड़ी में यात्रा करती हैं। कुछ दिन पहले श्री केजरीवाल के सहयोगी कुमार विश्वास रायपुर में बता गए कि उनकी बेटी डीपीएस में पढ़ती है। 'आप' के नेतागण सोचें कि क्या यह सादगी के मूलमंत्र के अनुरूप है?
lalitsurjan@gmail.com

Sunday, January 5, 2014

सियासत की उपेक्षा झेल रही उर्दू की धूम कभी सारे जहां में हुआ करती थी .





शेष नारायण सिंह 


दाग़ देहलवी ने फरमाया है 

उर्दू है जिसका नाम, हमीं जानते हैं दाग
सारे जहां में धूम हमारी ज़बां की है।


कभी उर्दू की धूम सारे जहां में हुआ करती थी, दक्षिण एशिया का बेहतरीन साहित्य इसी भाषा में लिखा जाता था और उर्दू जानना पढ़े लिखे होने का सबूत माना जाता था। अब वह बात नही है। राजनीति के थपेड़ों को बरदाश्त करती भारत की यह भाषा आजकल अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है .वह उर्दू जो आज़ादी की ख्वाहिश के इज़हार का ज़रिया बनी आज एक धर्म विशेष के लोगों की जबान बताई जा रही है। इसी जबान में कई बार हमारा मुश्तरका तबाही के बाद गम और गुस्से का इज़हार भी किया गया था।आज जिस जबान को उर्दू कहते हैं वह विकास के कई पड़ावों से होकर गुजरी है। 12वीं सदी की शुरुआत में मध्य एशिया से आने वाले लोग भारत में बसने लगे थे। वे अपने साथ चर्खा और कागज भी लाए जिसके बाद जिंदगी, तहज़ीब और ज़बान ने एक नया रंग अख्तियार करना शुरू कर दिया। जो फौजी आते थे, वे साथ लाते थे अपनी जबान खाने पीने की आदतें और संगीत।वे यहां के लोगों से अपने इलाके की जबान में बात करते थे जो यहां की पंजाबी, हरियाणवी और खड़ी बोली से मिल जाती थी और बन जाती थी फौजी लश्करी जबान जिसमें पश्तों, फारसी, खड़ी बोली और हरियाणवी के शब्द और वाक्य मिलते जाते थे। 13 वीं सदी में सिंधी, पंजाबी, फारसी, तुर्की और खड़ी बोली के मिश्रण से लश्करी की अगली पीढ़ी आई और उसे सरायकी ज़बान कहा गया। इसी दौर में यहां सूफी ख्यालात की लहर भी फैल रही थी।


सूफियों के दरवाज़ों पर बादशाह आते और अमीर आते, सिपहसालार आते और गरीब आते और सब अपनी अपनी जबान में कुछ कहते। इस बातचीत से जो जबान पैदा हो रही थी वही जम्हूरी जबान आने वाली सदियों में इस देश की सबसे महत्वपूर्ण जबान बनने वाली थी। इस तरह की संस्कृति का सबसे बड़ा केंद्र महरौली में कुतुब साहब की खानकाह थी। सूफियों की खानकाहों में जो संगीत पैदा हुआ वह आज 800 साल बाद भी न केवल जिंदा है बल्कि अवाम की जिंदगी का हिस्सा है।अजमेर शरीफ में चिश्तिया सिलसिले के सबसे बड़े बुजुर्ग ख़्वाजा गऱीब नवाज के दरबार में अमीर गरीब हिन्दू, मुसलमान सभी आते थे और आशीर्वाद की जो भाषा लेकर जाते थे, आने वाले वक्त में उसी का नाम उर्दू होने वाला था। सूफी संतों की खानकाहों पर एक नई ज़बान परवान चढ़ रही थी। मुकामी बोलियों में फारसी और अरबी के शब्द मिल रहे थे और हिंदुस्तान को एक सूत्र में पिरोने वाली ज़बान की बुनियाद पड़ रही थी।इस ज़बान को अब हिंदवी कहा जाने लगा था। बाबा फरीद गंजे शकर ने इसी ज़बान में अपनी बात कही। बाबा फरीद के कलाम को गुरूग्रंथ साहिब में भी शामिल किया गया। दिल्ली और पंजाब में विकसित हो रही इस भाषा को दक्षिण में पहुंचाने का काम ख्वाजा गेसूदराज ने किया। जब वे गुलबर्गा गए और वहीं उनका आस्ताना बना। इस बीच दिल्ली में हिंदवी के सबसे बड़े शायर हज़रत अमीर खुसरो अपने पीर हजरत निजामुद्दीन औलिया के चरणों में बैठकर हिंदवी जबान को छापा तिलक से विभूषित कर रहे थे।


अमीर खुसरो साहब ने लाजवाब शायरी की जो अभी तक बेहतरीन अदब का हिस्सा है और आने वाली नस्लें उन पर फख्र करेंगी। हजरत अमीर खुसरों से महबूब-ए-इलाही ने ही फरमाया था कि हिंदवी में शायरी करो और इस महान जीनियस ने हिंदवी में वह सब लिखा जो जिंदगी को छूता है। हजरत निजामुद्दीन औलिया के आशीर्वाद से दिल्ली की यह जबान आम आदमी की जबान बनती जा रही थी।उर्दू की तरक्की में दिल्ली के सुलतानों की विजय यात्राओं का भी योगदान है। 1297 में अलाउद्दीन खिलजी ने जब गुजरात पर हमला किया तो लश्कर के साथ वहां यह जबान भी गई। 1327 ई. में जब तुगलक ने दकन कूच किया तो देहली की भाषा, हिंदवी उनके साथ गई। अब इस ज़बान में मराठी, तेलुगू और गुजराती के शब्द मिल चुके थे। दकनी और गूजरी का जन्म हो चुका था।इस बीच दिल्ली पर कुछ हमले भी हुए। 14वीं सदी के अंत में तैमूर लंग ने दिल्ली पर हमला किया, जिंदगी मुश्किल हो गई। लोग भागने लगे। यह भागते हुए लोग जहां भी गए अपनी जबान ले गए जिसका नतीजा यह हुआ कि उर्दू की पूर्वज भाषा का दायरा पूरे भारत में फैल रहा था। दिल्ली से दूर अपनी जबान की धूम मचने का सिलसिला शुरू हो चुका था। बीजापुर में हिंदवी को बहुत इज्जत मिली। वहां का सुलतान आदिलशाह अपनी प्रजा में बहुत लोकप्रिय था, उसे जगदगुरू कहा जाता था।सुलतान ने स्वयं हजरत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम), ख्वाजा गेसूदराज और बहुत सारे हिंदू देवी देवताओं की शान में शायरी लिखी। गोलकुंडा के कुली कुतुबशाह भी बड़े शायर थे। उन्होंने राधा और कृष्ण की जिंदगी के बारे में शायरी की। मसनवी कुली कुतुबशाह एक ऐतिहासिक किताब है। 1653 में उर्दू गद्य (नस्त्र) की पहली किताब लिखी गई। उर्दू के विकास के इस मुकाम पर गव्वासी का नाम लेना जरूरी हैं।


गव्वासी ने बहुत काम किया है इनका नाम उर्दू के जानकारों में सम्मान से लिया जाता है। दकन में उर्दू को सबसे ज्यादा सम्मान वली दकनी की शायरी से मिला। आप गुजरात की बार-बार यात्रा करते थे। इन्हें वली गुजराती भी कहते हैं। 2002 में अहमदाबाद में हुए दंगों में इन्हीं के मजार पर बुलडोजर चलवा कर नरेंद्र मोदी ने उस पर सड़क बनवा दी थी। जब तुगलक ने अपनी राजधानी दिल्ली से दौलताबाद शिफ्ट करने का फैसला लिया तो दिल्ली की जनता पर तो पहाड़ टूट पड़ा लेकिन जो लोग वहां गए वे अपने साथ संगीत, साहित्य, वास्तु और भाषा की जो परंपरा लेकर गए वह आज भी उस इलाके की थाती है।1526 में जहीरुद्दीन बाबर ने इब्राहीम लोदी को हराकर भारत में मुगुल साम्राज्य की बुनियाद डाली। 17 मुगल बादशाह हुए जिनमें मुहम्मद जलालुद्दीन अकबर सबसे ज्यादा प्रभावशाली हुए। उनके दौर में एक मुकम्मल तहज़ीब विकसित हुई। अकबर ने इंसानी मुहब्बत और रवादारी को हुकूमत का बुनियादी सिद्घांत बनाया। दो तहजीबें इसी दौर में मिलना शुरू हुईं। और हिंदुस्तान की मुश्तरका तहजीब की बुनियाद पड़ी। अकबर की राजधानी आगरा में थी जो ब्रज भाषा का केंद्र था और अकबर के दरबार में उस दौर के सबसे बड़े विद्वान हुआ करते थे।वहां अबुलफजल भी थे, तो फैजी भी थे, अब्दुर्रहीम खानखाना थे तो बीरबल भी थे। इस दौर में ब्रजभाषा और अवधी भाषाओं का खूब विकास हुआ। यह दौर वह है जब सूफी संतों और भक्ति आंदोलन के संतों ने आम बोलचाल की भाषा में अपनी बात कही। सारी भाषाओं का आपस में मेलजोल बढ़ रहा था और उर्दू जबान की बुनियाद मजबूत हो रही थी। बाबर के समकालीन थे सिखों के गुरू नानक देव। उन्होंने नामदेव, बाबा फरीद और कबीर के कलाम को सम्मान दिया और अपने पवित्र ग्रंथ में शामिल किया। इसी दौर में मलिक मुहम्मद जायसी ने पदमावती की रचना की जो अवधी भाषा का महाकाव्य है लेकिन इसका रस्मुल खत फारसी है।


शाहजहां के काल में मुगल साम्राज्य की राजधानी दिल्ली आ गई। इसी दौर में वली दकनी की शायरी दिल्ली पहुंची और दिल्ली के फारसी दानों को पता चला कि रेख्ता में भी बेहतरीन शायरी हो सकती थी और इसी सोच के कारण रेख्ता एक जम्हूरी जबान के रूप में अपनी पहचान बना सकी। दिल्ली में मुगल साम्राज्य के कमजोर होने के बाद अवध ने दिल्ली से अपना नाता तोड़ लिया लेकिन जबान की तरक्की लगातार होती रही। दरअसल 18वीं सदी मीर, सौदा और दर्द के नाम से याद की जायेगी। मीर पहले अवामी शायर हैं। बचपन गरीबी में बीता और जब जवान हुए तो दिल्ली पर मुसीबत बनकर नादिर शाह टूट पड़ा।उनकी शायरी की जो तल्खी है वह अपने जमाने के दर्द को बयान करती है। बाद में नज़ीर की शायरी में भी ज़ालिम हुक्मरानों का जिक्र, मीर तकी मीर की याद दिलाता है। मुगलिया ताकत के कमजोर होने के बाद रेख्ता के अन्य महत्वपूर्ण केंद्र हैं, हैदराबाद, रामपुर और लखनऊ। इसी जमाने में दिल्ली से इंशा लखनऊ गए। उनकी कहानी ''रानी केतकी की कहानी'' उर्दू की पहली कहानी है। इसके बाद मुसहफी, आतिश और नासिख का जिक्र होना जरूरी है। मीर हसन ने दकनी और देहलवी मसनवियां लिखी।
उर्दू की इस विकास यात्रा में वाजिद अली शाह 'अख्तर' का महत्वपूर्ण योगदान है। लेकिन जब 1857 में अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया तो अदब के केंद्र के रूप में लखनऊ की पहचान को एक धक्का लगा लेकिन दिल्ली में इस दौर में उर्दू ज़बान परवान चढ़ रही थी।


बख्त खां ने पहला संविधान उर्दू में लिखा। बहादुरशाह जफर खुद शायर थे और उनके समकालीन ग़ालिब और जौक उर्दू ही नहीं भारत की साहित्यिक परंपरा की शान हैं। इसी दौर में मुहम्मद हुसैन आज़ाद ने उर्दू की बड़ी सेवा की उर्दू के सफरनामे का यह दौर गालिब, ज़ौक और मोमिन के नाम है। गालिब इस दौर के सबसे कद्दावर शायर हैं। उन्होंने आम ज़बानों में गद्य, चिट्ठयां और शायरी लिखी। इसके पहले अदालतों की भाषा फारसी के बजाय उर्दू को बना दिया गया।1822 में उर्दू सहाफत की बुनियाद पड़ी जब मुंशी सदासुख लाल ने जाने जहांनुमा अखबार निकाला। दिल्ली से 'दिल्ली उर्दू अखबार' और 1856 में लखनऊ से 'तिलिस्मे लखनऊ' का प्रकाशन किया गया। लखनऊ में नवल किशोर प्रेस की स्थापना का उर्दू के विकास में प्रमुख योगदान है। सर सैय्यद अहमद खां, मौलाना शिबली नोमानी, अकबर इलाहाबादी, डा. इकबाल उर्दू के विकास के बहुत बड़े नाम हैं। इक़बाल की शायरी, लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी और सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा हमारी तहजीब और तारीख का हिस्सा हैं। इसके अलावा मौलवी नजीर अहमद, पं. रतनलाल शरशार और मिर्जा हादी रुस्वा ने नोवल लिखे। आग़ा हश्र कश्मीरी ने नाटक लिखे।


कांग्रेस के सम्मेलनों की भाषा भी उर्दू ही बन गई थी। 1916 में लखनऊ कांग्रेस में होम रूल का जो प्रस्ताव पास हुआ वह उर्दू में है। 1919 में जब जलियां वाला बाग में अंग्रेजों ने निहत्थे भारतीयों को गोलियों से भून दिया तो उस $गम और गुस्से का इज़हार पं. बृज नारायण चकबस्त और अकबर इलाहाबादी ने उर्दू में ही किया था। इस मौके पर लिखा गया मौलाना अबुल कलाम आजाद का लेख आने वाली कई पीढिय़ां याद रखेंगी। हसरत मोहानी ने 1921 के आंदोलन में इकलाब जिंदाबाद का नारा दिया था जो आज न्याय की लड़ाई का निशान बन गया है।आज़ादी के बाद सीमा के दोनों पार जो क़त्लो ग़ारद हुआ था उसको भी उर्दू जबान ने संभालने की पूरी को कोशिश की। हमारी मुश्तरका तबाही के खिलाफ अवाम को फिर से लामबंद करने में उर्दू का बहुत योगदान है। आज यह सियासत के घेर में है  लेकिन उम्मीद बनाए रखने की ज़रूरत है क्योंकि इतनी संपन्न भाषा को राजनीति का कोई भी कारिन्दा दफ़न नहीं का सकता ,चाहे जितना ताक़तवर हो जाए .


Saturday, January 4, 2014

सुरेश चन्द्र शुक्ल की पत्रिका स्पाइल दर्पण के पचीस साल पूरे दिल्ली में जश्न आज


शेष नारायण सिंह 


नार्वे में भारतीयों के सबसे प्रिय इंसान के रूप में सुरेश चन्द्र शुक्ल जाने जाते हैं. वे नार्वे की राजधानी ओस्लो से एक पत्रिका निकालते हैं . हिंदी और नार्वेजीय भाषाओं में . सुरेश शुक्ल जी देशबन्धु के यूरोप एडिटर भी हैं .आज दिल्ली में उनकी पत्रिका के २५ साल के जश्न का मौक़ा है . अपने एक पुराने लेख के संपादित अंश मैंने आज फिर छाप दिया है .

सुरेश चन्द्र शुक्ल का एक और नाम शरद आलोक है लेकिन ओस्लो की सडकों पर जो भी उन्हें जानता है वह उन्हें शुक्ला जी ही कहता है . हिंदी और नार्वेजी भाषा के पत्रकार और साहित्यकार होने के अलावा सुरेश शुक्ल नार्वे की राजनीति में भी दखल रखते हैं .ओस्लो की नगर पार्लियामेंट में सोशलिस्ट लेफ्ट पार्टी ( एस वी ) की ओर से सदस्य रह चुके हैं . २००७ में ओस्लो टैक्स समिति के सदस्य थे  और २००५ में हुए पार्लियामेंट के चुनाव में  सोशलिस्ट लेफ्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में राष्ट्रीय चुनाव में शामिल हो चुके हैं . नार्वेजियन जर्नलिस्ट यूनियन और इंटरनैशनल  फेडरेशन और जर्नलिस्ट्स के सदस्य हैं . इसके  अलावा बहुत सारे भारतीय और नार्वेजी संगठनों के भी सदस्य हैं . डेनमार्क और कनाडा के कई साहित्यिक संगठनों से जुड़े हुए हैं.अपनी ही कहानियों पर आधारित टेलीफिल्म ,तलाश , नार्वे और कनाडा की संयुक्त  फिल्म ‘कनाडा की सैर’ ,आतंकवाद पर आधारित हिंदी लघुफिल्म ‘ गुमराह ‘ बना चुके  हैं . एक शिक्षाविद के रूप में भी उनकी पहचान है . ओस्लो विश्वविद्यालय  ,कोपेनहेगन विश्वविद्यालय,अमरीका का कोलंबिया विश्वविद्यालय और महात्मा गांधी संस्थान, मारीशस में विजिटिंग प्रोफ़ेसर के रूप में आमंत्रित किये जा चुके हैं . नार्वे की कई साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर हैं.
साहित्यकार के रूप में भी सुरेश चन्द्र शुक्ल ‘ शरद आलोक ‘ जाने माने नाम हैं. भारत में भी बहुत सारी पत्रिकाओं और अखबारों  में इनके साहित्यिक काम को छापा और सराहा  गया है .इनका पहला काव्य संग्रह १९७६ में ही भारत में छप गया था तब शायद इंटर में पढते थे . उसके बाद हिंदी और नार्वेजी भाषाओं में उनके दस और काव्य प्रकाशित  हुए. १९९६ में उनका पहला कहानी संग्रह छपा था ,अब तक कहानियों के  कई संकलन वे संपादित कर चुके हैं ., नार्वे के सबसे नामवर साहित्यकार हेनरिक इब्सेन के १९४५ के बाद के साहित्य का उन्होंने गहराई से अध्ययन किया है . ओस्लो विश्वविद्यालय के छात्र के रूप में उन्होंने इसी विषय पर विशेष अध्ययन किया था . नार्वे के साहित्य खासकर इब्सेन के  लेखन का सुरेश शुक्ल ने अनुवाद भी खूब किया है .उन्हें बहुत सारे पुरस्कार भी मिल चुके हैं ,भारत में भी और नार्वे में भी .
एक साहित्यकार और राजनीतिक नेता के रूप में ऐसे बहुत से लोग मिल जायेगें जो सुरेश चन्द्र शुक्ल से बड़े होंगें और केवल इस विशेषता के कारण मैं उनसे प्रभावित  नहीं हुआ. यह सारी बातें तो बहुत सारे लोगों में हो सकती हैं , मैं दिल्ली में रहता हूँ और इस तरह के बहुत लोग मिलते हैं जो साहित्यकार भी हैं और राजनेता भी .  लेकिन सुरेश चन्द्र शुक्ल में जो खास बात है वह बिलकुल अलग है और वह है उनका बेबाकपन, अदम्य साहस और किसी भी हाल में मस्त  रहने की क्षमता . मैंने इस बारीकी को समझने  के लिए उनको कुरदने का फैसला किया और सारा रहस्य परत दर परत खुलता चला गया और साफ़ हो गया कि यह आदमी जो मुझे लेकर ओस्लो की सड़कों और ऐतिहासिक स्थलों पर घूमता हुआ गप्प मार रहा है वह कोई मामूली आदमी नहीं है और उसके गैरमामूलीपन की शुरुआत बचपन में ही हो चुकी थी . आपने १९७२ में लखनऊ से हाई स्कूल की परीक्षा पास की थी. दसवीं का तीन साल का कोर्स शुरू तो १९६९ में  ही हो गया था जब आप कक्षा ९ पास करके दसवीं में भरती हुए थे . लेकिन १९७० में फेल हो गए . इनके साथ दो साथी और थे जो इनकी  तरह की बाकायदा फेल हुए थे . बहरहाल तीनों मित्रों ने १९७१ में पास होने के लिए खूब मेह्नत से पढाई शुरू की लेकिन भाग्य  को कुछ और ही मंज़ूर था , सुरेश शुक्ल बीमार हो गए . उनके घनिष्ठ मित्रों ने कहा कि जब हमेशा का साथ  है तो एक साथी को छोड़कर अगली क्लास में  नहीं जायेगें . लिहाजा उन दोनों ने भी इम्तिहान छोड़ दिया और साथ साथ फेल हुए . जब दोस्ती की यह कथा परवान चढ़ रही थी तो इन दोस्तों के माता पिता बहुत दुखी हो रहे थे . सुरेश के पिता ने चेतावनी दे दी कि अब पढाई खत्म करो और नौकरी शुरू करो. सुरेश शुक्ल ने लखनऊ के सवारी डिब्बे के कारखाने में काम शुरू कर दिया और खलासी हो गए. जब १९७२ में दसवीं की परीक्षा हुई तो तीनों ही मित्र पास हो गए थे . तीनों को नौकरी मिल चुकी थी . तो इन लोगों ने तय किया कि अब जो बच्चे तीन साल फेल होने के बाद दसवीं  की परीक्षा  पास करने की कोशिश करेगें उसको यह आर्थिक मदद करेगें . इस काम के लिए इन लोगों ने अपने वेतन से पैसा जोड़कर एक फंड बनाया जिस से तीन बार फेल होने वाले धुरंधरों की मदद की जायेगी . दो एक लोगों को वायदा भी किया . मदद भी की . इस बीच इनके किसी दोस्त की बहन भी तीन बार फेल  हो गयी . फंड के संचालक तीनों मित्र उसके घर पंहुच गए और मित्र की माँ के पास पंहुच गए . और चाची को प्रणाम करके बैठ गए. चाची ने चाय पिलाने के लिए जैसे ही रसोई में प्रवेश किया हमारे शुक्ल की ने उनसे बच्ची के फेल होने पर सहानुभूति जताई और कहा कि आप चिंता मत कीजियेगा . हमने एक फंड बनाया है जिसका उद्देश्य उन बच्चों की पढाई का खर्च उठाना है जो दसवीं में तीन साल फेल हो चुके हों. चाची आगबबूला हो गयीं और चाय भूलकर झाडू हाथ में लेकर  इन तीनों धर्मात्माओं को दौड़ा लिया और जब बाकी लोगों ने इनको समझाया कि महराज आपके इस फंड की कृपा से बच्चों में फेल होने के लिए उत्साह बढ़ेगा तो इनकी समझ में आया कि कहीं कोई गलती हो रही थी और वह फंड अकाल मृत्यु को प्राप्त हुआ . कहने का मतलब  यह है कि लीक से हटकर काम करने की प्रवृत्ति सुरेश चन्द्र शुक्ल के अंदर शुरू से ही थी.
रेलवे में नौकरी करते हुए सुरेश चन्द्र शुक्ल ने लखनऊ के कान्यकुब्ज वोकेशनल कालेज से बी ए पास किया , १९७८ में रेलवे ने इनको कानपुर भेजकर वर्कर-टीचर की ट्रेनिंग करवाया .हालांकि रेलवे में यह तरक्की कर रहे थे ,खलासी से शुरू करके छः साल में फिटर हो गए थे  लेकिन मन नहीं लग रहा था , कोल्हू के बैल की तरह की ज़िंदगी शुक्ल जी को कभी पसंद नहीं थी.और फिर इनकी ज़िंदगी में एक नया अध्याय शुरू होने वाला था . शुक्ल जी ने नौकरी पर अचानक जाना बंद कर दिया और २६ जनवरी १९८० के दिन हवाई जहाज़ से उड़कर ओस्लो पंहुच गए . हवाई जहाज़ इसलिए लिख रहा हूँ कि इनके बड़े भाई साहेब कुछ वर्ष पहले साइकिल से ओस्लो की यात्रा कर चुके थे और यहीं रह रहे थे. इनको कुछ नहीं मालूम था कि यहाँ की ज़िंदगी की शर्तें क्या हैं लेकिन ओस्लो पंहुच कर बिना कोई वक़्त गंवाए आप भारतीय दूतावास पंहुच गए और वहाँ आयोजित गणतंत्र दिवस के कार्यक्रम में दर्शक के रूप में शामिल हो गए. यहाँ आकर सुरेश शुक्ल फ़ौरन काम से लग गए . सबसे पहले नार्वेजी भाषा सीखने के लिए नाम लिखा लिया , दो साल के अंदर यहाँ की भाषा सीख गए. भाषा के सभी पहलू सीखे ,ग्रामर , टाइपोग्राफी,फोनेटिक्स सब सीखा . उसके बाद नार्वेजी साहित्य की पढाई के  लिए ओस्लो विश्वविद्यालय में नाम लिखा लिया . सुरेश चन्द्र शुक्ल १९४५ के बाद के नार्वेजी साहित्य के मास्टरपीस रचनाओं के विशेषज्ञ हैं और नार्वे में उनका इसी रूप में सम्मान किया जाता है .

ज़िंदगी के हर मोड पर संघर्ष को गले लगाते हुए सुरेश चन्द्र शुक्ल ‘ शरद आलोक ‘ आगे बढते जा रहे थे लेकिन इस आदमी ने अपने सेन्स आफ ह्यूमर को हमेशा साथ रखा . पढाई के साथ साथ ओस्लो से प्रकाशित होने वाली हिंदी की पत्रिका ‘परिचय’ मे  काम करते हुए उनको कुछ आमदनी भी होने लगी थी . शुक्ल जी ने २००० क्रोनर में एक पुरानी कार खरीदी,. इस कार के कारण उन्होंने  कुछ दोस्तों को हमेशा साथ रखने का फैसला किया क्योंकि कार कहीं भी रुक जाती थी तो उसे धकेलने के लिए कुछ वालिंटियर चाहिए होते थे . उसी ज़रूरत के तहत ओस्लो में शुक्ल जी कुछ साथियों के साथ हमेशा ही  घूमते पाए जाते थे. पत्रकार के रूप में ज़िंदगी शुरू हो चुकी थी. २ हज़ार क्रोनर में कार खरीदने वाले शुक्ल जी को वीडियो देखने का शौक़ था और आप ९ हज़ार क्रोनर का वीडियो प्लेयर खरीद लाये  लेकिन टी वी  नहीं था . इस्तेमालशुदा चीज़ों के बाज़ार में जाकर इन्होने एक टी वी खरीदा लेकिन उसमें पिक्चर तो दिखती थी , आवाज़ नहीं आती थी . पुराना सामान इस शहर में वापस नहीं किया जा सकता उसकी कोई गारंटी भी नहीं होती . इसलिए इन्होने तय किया कि अब एक और टी वी खरीदेगें जिसमें आवाज़ सुनायी पड़े. इस तरह से एक वीडियो प्लेयर , और २ टी वी मिलकर नार्वे के राजधानी में गोमती के किनारे से ओलमा नदी के शहर ओस्लो में पंहुचा  पंहुचा यह नौजवान ज़िंदगी की परेशानियों को मुंह चिढा रहा था. बाद में अपनी पत्रिका भी शुरू कर दी .१९८८ में शुरू की गयी उनकी हिंदी और नार्वेजी भाषाओं में छपने वाली पत्रिका स्पाइल दर्पण में आज भी नए लेखकों को महत्व दिया जाता है . हिंदी में लिखने वाले यूरोप में बहुत से साहित्यकार मिल जायेगें जिनकी कृतियाँ इस पत्रिका में सबसे पहले छपी थीं.
ऐसी बहुत सारी कहानियाँ हैं जो सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक को बाकी दुनिया से अलग कर देती हैं .इस सारी लड़ाई में उनकी पत्नी माया जी उनके साथ जमी रहीं और अपने बच्चों को बेहतर ज़िंदगी देने की अपने मकसद में कामयाबी के झंडे फहरते रहे . आज उनके सभी बच्चों में भारत और  नार्वे के संयुक्त संस्कारों के कारण शिष्टाचार की सभी अच्छाइयां हैं . वाइतवेत के उनके घर में हिंदी और उर्दू के बहुत से साहित्यकार आ चुके हैं , कुछ ने तो यहीं पर अपना ओस्लो प्रवास भी  बिताया .हिंदू उर्दू के बड़े साहित्यकारों में शुक्ल जी सबसे ज़्यादा कादम्बिनी के तत्कालीन संपादक राजेन्द्र अवस्थी क एहसान मानते हैं क्योंकि अवस्थी जी ने कादम्बिनी में इनकी रचनाएं छापकर इन्हें प्रोत्साहन दिया था . कमलेश्वर , इन्द्रनाथ चौधरी ,रामलाल ( लखनऊ के उर्दू के अदीब ),कुर्रतुल एन हैदर ,श्याम सिंह शशि,गोपीचंद नारंग ,सत्य नारायण रेड्डी ,भीष्म नारायण सिंह , सरोजिनी प्रीतम बाल्सौरी रेड्डी इनके मेहमान रह चुके हैं . नोबेल शान्ति पुरस्कार का संस्थान ओस्लो में ही है . आपकी मुलाक़ात यहाँ पर नेल्सन मंडेला , दलाई लामा, अमर्त्य सेन, आर्च बिशप डेसमंड टूटू से कई बार हुई है और जब नोबेल शान्ति पुरस्कार के एक सौ साल पूरे होने पर जश्न मनाया गया था तो जिन विभूतोयों को बुलाया गया था उनमें सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक भी शामिल थे .
यह है अपना दोस्त जो आज भी जब किसी से मिलता है को उसकी मस्ती और उसका बांकपन लोगों को उसका बना देता है. बातचीत करते हुए लगता ही नहीं कि जिस व्यक्ति से बात कर रहे हैं वह उन्नाव के एक कस्बे अचल गंज से चलकर ओलमा नदी के तीरे  बसे इस शहर में बहुत लोगों का दोस्त है और यूरोप और अमरीका सहित विश्व हिंदी सम्मलेन में शामिल होने वाले प्रतिष्ठिति लोगों के बीच भी सम्मान से जाना जाता है

Saturday, December 14, 2013

आम आदमी पार्टी स्थापित सत्ता की पार्टियों का विकल्प बन सकती है





शेष नारायण सिंह

दिल्ली में नरेंद्र मोदी ने एडी चोटी का जोर लगा दिया था लेकिन उनकी पार्टी को बहुमत नहीं मिल पाया .दिल्ली विधान सभा का चुनाव वास्तव में शुद्ध रूप से नरेन्द्र मोदी का चुनाव था क्योंकि यहाँ उन्होंने अपने मनमाफिक मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार तैनात करवाया था और खुद ही कई कई सभाएं की थीं लेकिन सरकार बनाने भर को बहुमत नहीं जुटा सके. आम आदमी पार्टी के रूप में एक नई राजनीतिक ताक़त आ गयी .ताज़ा खबर यह  है कि दिल्ली के उप राज्यपाल नजीब जंग ने बीजेपी के नेता डॉ हर्षवर्धन को सरकार बनाने के लिए बुलाया था लेकिन उन्होने मना कर दिया और कहा कि ज़रूरी बहुमत नहीं है इसलिए सरकार नहीं बनायेगें .दिल्ली में सरकार बनाने से भाग रही बीजेपी से आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने एक सवाल पूछा है कि अगर २०१४ के चुनावों में लोकसभा में स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो क्या बीजेपी सरकार बनाने की कोशिश नहीं करेगी. यह सवाल बहुत ही दिलचस्प है और अब इसी तरह के सवाल पूछे जायेगें क्योंकि सूचना क्रान्ति और आम आदमी पार्टी के प्रादुर्भाव ने ऐसा माहौल बना दिया है कि अब मुश्किल सवाल पूछने में कोई भी संकोच नहीं रह गया है .हालांकि आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल से भी पूछा जा सकता है दिल्ली की जनता ने आपको महत्व दिया है और जब  आपकी पार्टी के बाहर के विधायक भी आपका समर्थन देने की बात करते पाए जा रहे हैं तो आप क्यों सरकार  नहीं बनाते .लेकिन उनका घोषित तिकडम की राजनीति  का विरोध करने का है इसलिए उनको अगले अवसर की प्रतीक्षा है और वक़्त ही बताएगा कि वे विरोध की राजनीति विरोध के लिए करते हैं कि उनके मन में राजनीति को सही दिशा देने का कोई सकारात्मक कार्यक्रम है .   
भ्रष्टाचार के आचरण को अपनी नियति मान चुकी राजनीतिक पार्टियों के बीच से आम आदमी पार्टी का उदय एक ऐसी घटना है जिसके बाद लोगों को लगने लगा है कि इस देश के दरवाज़े पर दस्तक दे रही फासिस्ट ताकतों को रोका जा सकता है . यहाँ यह स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि बीजेपी के सभी नेताओं को फासिस्ट कह देना अति सरलीकरण होगा .अभी चार राज्यों के विधानसभा चुनावों में जो देखा गया है वह यह है कि सभी राजनीतिक पार्टियों ने एक दूसरे की ताक़त को सामने से चुनौती दी और सही लोकत्रांत्रिक तरीके से चुनाव प्रचार किया . किसी भी पार्टी ने सत्ता को हथियाने के लिए गठबंधन सरकार के उन तिकडमों का सहारा नहीं लिया जिनके सहारे १९३३ में हिटलर ने जर्मनी की सत्ता पर कब्जा किया था . और जहां खुले आम चुनावी राजनीति का पारदर्शी प्रचार और कार्यक्रम होता है वहाँ फासिस्ट ताक़तें सत्ता नहीं हासिल कर सकतीं . यह भी भरोसा किया जाना चाहिए कि मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह और छत्तीसगढ़ में रमन सिंह ने आम आदमी की राजनीतिक भावनाओं को राजनीतिक शक्ल दी है .उम्मीद की जानी चाहिए कि वे भविष्य में भी उसकी भावनाओं के खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं जुटा पायेगें. इन चुनावों के बाद कांग्रेस में हिम्मत हार चुके नेताओं का जमावडा भी साफ़ नज़र आ  रहा है .इसलिए उनसे किसी राजनीतिक लड़ाई की उम्मीद करने का कोई मतलब नहीं है लेकिंन दिल्ली में कांग्रेस और बीजेपी को चुनौती देने वाली आम आदमी पार्टी से उम्मीद की जानी चाहिए. अभी आम आदमी पार्टी के एक वक्तव्यप्रिय नेता  ने घोषणा की है कि वे राहुल गांधी के खिलाफ अमेठी से चुनाव लड़ेगें . उन्होंने कहा है कि उनकी पार्टी देश के किसी भी क्षेत्र में किसी भी पार्टी के बड़े से बड़े नेता को वाक् ओवर देने के पक्ष में नहीं है . यह देश की राजनीति के लिए बहुत ही अच्छा संकेत है . संसद के चुनाव के हर क्षेत्र में सभी नेताओं को बड़ी से बड़ी चुनौती देकर ही लोकतांत्रिक भारत की  रक्षा की जा सकती है . दिल्ली विधान सभा के चुनावों में जिस तरह से आम आदमी पार्टी के उम्मीदवारों ने अपने राजनीतिक  दायित्व का  निर्वाह  किया है वह महत्वपूर्ण है . पिछले एक हफ्ते में ऐसे बहुत सारे राजनीतिक विश्लेषकों से बातचीत हुई है जो कहते हैं कि यह पार्टी चल नहीं पायेगी या कि इसमें ऐसे नेता नहीं है जो साफ़ समझ के साथ राजनीति को दिशा दे  सकें ,आदि आदि . इन बातों का कोई मतलब नहीं है .एक तो यह बात ही बेमतलब है कि आम आदमी पार्टी में सही राजनीतिक सोच के लोग नहीं है . हम जानते हैं कि वहाँ काम करने वाले , आनंद कुमार , योगेन्द्र यादव, गोपाल राय और संजय सिंह ऐसे लोग हैं जिन्होने इसके पहले कई बार स्थापित सत्ता के खिलाफ लोकतांत्रिक सत्ता की बहाली के लिए संघर्ष  किया  है और उनकी  राजनीतिक समझ किसी भी राहुल गांधी या नरेंद्र मोदी से ज़्यादा है .इसलिए इन शंकाओं को गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए . लेकिन इस से भी महत्वपूर्ण बात यह  है कि इस पार्टी का जो मुख्य रोल है उसमें इसने अपने आपको खरा साबित कर दिया है . स्थापित सत्ता के दावेदारों को चुनौती देकर अगर आम आदमी पार्टी  इस बात को पूरे देश में साबित करने में कामयाब हो जाती है कि राजनीति में जनता की इच्छा से बड़ा कुछ नहीं होता तो यह बहुत बड़ी बात होगी .
आज की सच्च्चाई यह  है कि देश के  बड़े भूभाग में जनता दो पार्टियों की साम्राज्यवादी पूंजीवादी राजनीति के बीच पिस रही है . आम आदमी पार्टी ने एक ऐसी खिड़की दे दी है जिसके  रास्ते देश का आम आदमी स्थापित सत्ता की दोनों की पार्टियों को चुनौती दे सकता है . और यह कोई मामूली भूमिका नहीं  है . १९७७ में  जिस तरह से जनता ने चुनाव लड़कर उन लोगों को जिता दिया था जो स्थापित तानाशाही सत्ता के खिलाफ चुनाव लड़ रहे थे ,उसी तरह इस बार दिल्ली विधानसभा में जनता ने आम आदमी पार्टी के उम्म्मीद्वारों को जिता कर यह सन्देश दे दिया है कि अगर राजनीतिक समूह की नीयत साफ़ हो तो जनता के पास ताकत है और वह अपेन बदलाव के  सन्देश को देने के लिए किसी भी ईमानदार समूह का साथ दे देती है .और बदलाव की आंधी को गति दे देती है . १९७७ में तानाशाही ताकतों के खिलाफ हुई लड़ाई में जो नतीजे निकले उनके ऊपर उस दौर की उन पार्टियों के पस्तहिम्मत नेताओं ने कब्जा कर लिया जो इंदिरा गांधी की ताकत का लोहा मान कर हथियार डाल चुके थे . जनता पार्टी का गठन १९७७ के उस चुनाव के बाद हुआ जिसमें इंदिरा गांधी और संजय गांधी की तानाशाही हुकूमत को जनता पराजित कर चुकी थी . लेकिन जनता के उस अभियान का  वह नतीजा नहीं निकला जिसकी उम्मीद की गयी  थी. जेल से छूटकर आये नेताओं को लगने लगा कि उनकी पार्टी की लोकप्रियता और उनकी अपनी राजनीतिक योग्यता के कारण १९७७ की चुनावी सफलता मिली थी . वे लोग भी सत्ता से मिलने वाले कोटा परमिट के लाभ को संभालने में उसी तरह से  जुट गए जैसे उस पार्टी के लोग करते थे जिसको हराकर वे आये थे . नतीजा यह हुआ  कि दो साल के अंदर ही जनता पार्टी टूट गयी और सब कुछ फिर से यथास्थितिवादी राजनीति के हवाले  हो गया और संजय गांधी-इंदिरा गांधी की कांग्रेस फिर से सत्ता पर वापस आ गयी. आम आदमी पार्टी का विरोध कर रहे बहुत सारे लोग यही बात  याद दिलाने की कोशिश करते हैं .
जनता पार्टी के प्रयोग को  असफलता के रूप में पेश करने की तर्कपद्धति में दोष है .१९७७ में जनता पार्टी की चुनावी सफलता किसी राजनीतिक पार्टी की सफलता नहीं थी.  वह तो देश की जनता का आक्रोश था जिसने तनाशाही के खिलाफ एक आन्दोलन चलाया था. जनता के पास अपनी कोई राजनीतिक पार्टी नहीं थी ,उसने जनसंघ ,संसोपा ,मुस्लिम मजलिस, भारतीय लोकदल ,स्वतन्त्र पार्टी आदि राजनीतिक पार्टियों के नेताओं को मजबूर कर दिया था कि इंदिरा गांधी की सत्ता के खिलाफ राजनीतिक लड़ाई कि उसकी मुहिम में सामने आयें . जनता के पास राजनीतिक पार्टी नहीं थी लिहाज़ा जनता पार्टी नाम का एक नया नाम राजनीति के मैदान में डाल दिया गया . और इस तरह से  बिना किसी तैयारी के जनता पार्टी का ऐलान हो गया . चुनाव आयोग के पास जाकर चुनाव  निशान लेने तक का समय नहीं था लिहाजा चौधरी चरण सिंह की पार्टी भारतीय लोकदल के चुनाव निशान हलधर किसान को जनता पार्टी के उम्मीदवारों का चुनाव निशान बना दिया गया . यह जानना  दिलचस्प होगा कि १९७७ का चुनाव जीतने वाले जनता पार्टी के सभी उम्मीदवार वास्तव में भारतीय लोक दल के  संसद सदस्य के रूप में चुनकर आये थे और उसी पार्टी के सदस्य के रूप में उन्होने लोकसभा में सदस्यता की शपथ ली थी . मोरारजी देसाई जिस सरकार के प्रधानमंत्री बने थे वह भारतीय लोकदल की सरकार थी . सरकार बनाने के बाद इन लोगों ने १ मई १९७७ के दिन सम्मलेन करके जनता पार्टी का गठन किया और फिर हलधर किसान जनता पार्टी का चुनाव निशान बना . सब को मालूम है कि जनता पार्टी जैसी पार्टी उसमें शामिल राजनीतिक नेताओं के स्वार्थ के कारण तहस नहस हो गयी और बाद के कई वर्षों तक कांग्रेस के लोग यह भरोसा दिलाते रहे कि कांग्रेस विरोध की राजनीति का कोई मतलब नहीं होता लेकिन यह सच्चाई है कि  जनता पार्टी के प्रयोग ने संजय गांधी ब्रांड तानाशाही को रोक दिया था और दोबारा १९८० में जब कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई तो एक लोकतांत्रिक पार्टी के रूप में  ही उसकी वापसी हुई थी ,१९७५ की तानशाही की राजनीति को  वह तिलांजलि दे चुकी थी.
१९७५ के जनता के आन्दोलन को उस समय की मौजूदा पार्टियों  ने हडपने में सफलता ग हासिल कर ली थी क्योंकि उन दिनों जनता की तरफ से कोई राजनीतिक  फार्मेशन नहीं था . आम आदमी पार्टी ने उस कमी को पूरा कर दिया है. आज जनता के पास उसका अपना विकल्प है और उसपर यथास्थितिवाद की पार्टियों का प्रभाव बिलकुल नहीं है .३६ साल पुराने जनता पार्टी के सन्दर्भ का ज़िक्र करने का केवल यह मतलब है कि जब जनता तय करती है तो परिवर्तन असंभव नहीं रह जाता .आम आदमी पार्टी के गठन के समय भी देश की जनता आम तौर पर दिशाहीनता का शिकार हो चुकी थी. देश में दो बड़ी राजनीतिक पार्टियां हैं , कुछ राज्यों में बड़ी राष्ट्रीय पार्टियां तो नहीं हैं लेकिन वहाँ की मुकामी पार्टियों के बीच सारी राजनीति सिमट कर रह गयी है . जनता के सामने कोई विकल्प नहीं है . उसे नागनाथ और सांपनाथ के बीच किसी का चुनाव करना  है लेकिन दिल्ली विधानसभा के चुनाव में जिस तरह से आम आदमी पार्टी ने विकल्प दिया है उसके बाद पूरे देश में राजनीतिक पार्टियों के बीच सक्रियता साफ़ नज़र आ रही है . उम्मीद की जानी चाहिए कि इसके बाद जनता की उन इच्छाओं को सम्मान मिलेगा जिसके तहत वे बदलाव कर देना चाहती हैं .

Friday, December 6, 2013

एक मनु की औकात नहीं कि वह जाति व्यवस्था की स्थापना कर दे


शेष नारायण सिंह

डा.अंबेडकर के निर्वाण दिवस के मौके पर ज़रूरी है कि उनकी सोच और दर्शन के सबसे अहम पहलू पर गौर किया जाए. सब को मालूम है कि डा. अंबेडकर के दर्शन ने २० वीं सदी के भारत के राजनीतिक आचरण को बहुत ज्यादा प्रभावित किया था . लेकिन उनके दर्शन की सबसे ख़ास बात पर जानकारी की भारी कमी है. यह बात कई बार कही जा चुकी है कि उनके नाम पर राजनीति करने वालों को इतना तो मालूम है कि बाबा साहेब जाति व्यवस्था के खिलाफ थे लेकिन बाकी चीजों पर ज़्यादातर लोग अन्धकार में हैं. उन्हीं कुछ बातों का ज़िक्र करना आज के दिन सही रहेगा. डा. अंबेडकर को इतिहास एक ऐसे राजनीतिक चिन्तक के रूप में याद रखेगा जिन्होंने जाति के विनाश को सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन की बुनियाद माना था. यह बात किसी से छुपी नहीं है कि उनकी राजनीतिक विरासत का सबसे ज्यादा फायदा उठाने वाली पार्टी की नेता, आज जाति की संस्था को संभाल कर रखना चाहती हैं ,उसके विनाश में उनकी कोई रूचि नहीं है . वोट बैंक राजनीति के चक्कर में पड़ गयी अंबेडकरवादी पार्टियों को अब वास्तव में इस बात की चिंता सताने लगी है कि अगर जाति का विनाश हो जाएगा तो उनकी वोट बैंक की राजनीति का क्या होगा. डा अंबेडकर की राजनीतिक सोच को लेकर कुछ और भ्रांतियां भी हैं . कांशीराम और मायावती ने इस क़दर प्रचार कर रखा है कि जाति की पूरी व्यवस्था का ज़हर मनु ने ही फैलाया था, वही इसके संस्थापक थे और मनु की सोच को ख़त्म कर देने मात्र से सब ठीक हो जाएगा. लेकिन बाबा साहेब ऐसा नहीं मानते थे . उनके एक बहुचर्चित, और अकादमिक भाषण के हवाले से कहा जा सकता है कि जाति व्यवस्था की सारी बुराइयों को लिए मनु को ही ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता .मनु के बारे में उन्होंने कहा कि अगर कभी मनु रहे भी होंगें तो बहुत ही हिम्मती रहे होंगें . डा. अंबेडकर का कहना है कि ऐसा कभी नहीं होता कि जाति जैसा शिकंजा कोई एक व्यक्ति बना दे और बाकी पूरा समाज उसको स्वीकार कर ले. उनके अनुसार इस बात की कल्पना करना भी बेमतलब है कि कोई एक आदमी कानून बना देगा और पीढियां दर पीढियां उसको मानती रहेंगीं. . हाँ इस बात की कल्पना की जा सकती है कि मनु नाम के कोई तानाशाह रहे होंगें जिनकी ताक़त के नीचे पूरी आबादी दबी रही होगी और वे जो कह देंगे ,उसे सब मान लेंगें और उन लोगों की आने वाली नस्लें भी उसे मानती रहेंगी.उन्होंने कहा कि , मैं इस बात को जोर दे कर कहना चाहता हूँ कि मनु ने जाति की व्यवस्था की स्थापना नहीं की क्योंकि यह उनके बस की बात नहीं था. . मनु के जन्म के पहले भी जाति की व्यवस्था कायम थी. . मनु का योगदान बस इतना है कि उन्होंने इसे एक दार्शनिक आधार दिया. . जहां तक हिन्दू समाज के स्वरुप और उसमें जाति के मह्त्व की बात है, वह मनु की हैसियत के बाहर था और उन्होंने वर्तमान हिन्दू समाज की दिशा तय करने में कोई भूमिका नहीं निभाई. उनका योगदान बस इतना ही है उन्होंने जाति को एक धर्म के रूप में स्थापित करने की कोशिश की . जाति का दायरा इतना बड़ा है कि उसे एक आदमी, चाहे वह जितना ही बड़ा ज्ञाता या शातिर हो, संभाल ही नहीं सकता. . इसी तरह से यह कहना भी ठीक नहीं होगा कि ब्राह्मणों ने जाति की संस्था की स्थापना की. मेरा मानना है कि ब्राह्मणों ने बहुत सारे गलत काम किये हैं लेकिन उनकी औक़ात यह कभी नहीं थी कि वे पूरे समाज पर जाति व्यवस्था को थोप सकते. . हिन्दू समाज में यह धारणा आम है कि के जाति की संस्था का आविष्कार शास्त्रों ने किया और शास्त्र तो कभी गलत हो नहीं सकते. बाबा साहेब ने अपने इसी भाषण में एक चेतावनी और दी थी कि उपदेश देने से जाति की स्थापना नहीं हुई थी और इसको ख़त्म भी उपदेश के ज़रिये नहीं किया जा सकता.. यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना ज़रूरी है अपने इन विचारों के बावजूद भी , डा अंबेडकर ने समाज सुधारकों के खिलाफ कोई बात नहीं कही. ज्योतिबा फुले का वे हमेशा सम्मान करते रहे. . हाँ उन्हें यह पूरा विश्वास था कि जाति प्रथा को किसी महापुरुष से जोड़ कर उसकी तार्किक परिणति तक नहीं ले जाया जा सकता.

डा अंबेडकर के अनुसार हर समाज का वर्गीकरण और उप वर्गीकरण होता है लेकिन परेशानी की बात यह है कि इस वर्गीकरण के चलते वह ऐसे सांचों में फिट हो जाता है कि एक दूसरे वर्ग के लोग इसमें न अन्दर जा सकते हैं और न बाहर आ सकते हैं . यही जाति का शिकंजा है और इसे ख़त्म किये बिना कोई तरक्की नहीं हो सकती. सच्ची बात यह है कि शुरू में अन्य समाजों की तरह हिन्दू समाज भी चार वर्गों में बंटा हुआ था . ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र . यह वर्गीकरण मूल रूप से जन्म के आधार पर नहीं था, यह कर्म के आधार पर था .एक वर्ग से दूसरे वर्ग में आवाजाही थी लेकिन हज़ारों वर्षों की निहित स्वार्थों कोशिश के बाद इसे जन्म के आधार पर कर दिया गया और एक दूसरे वर्ग में आने जाने की रीति ख़त्म हो गयी. और यही जाति की संस्था के रूप में बाद के युगों में पहचाना जाने लगा. . अगर आर्थिक विकास की गति को तेज़ किया जाय और उसमें सार्थक हस्तक्षेप करके कामकाज के बेहतर अवसर उपलब्ध कराये जाएँ तो जाति व्यवस्था को जिंदा रख पाना बहुत ही मुश्किल होगा. और जाति के सिद्धांत पर आधारित व्यवस्था का बच पाना बहुत ही मुश्किल होगा.. अगर ऐसा हुआ तो जाति के विनाश के ज्योतिबा फुले, डा. राम मनोहर लोहिया और डा. अम्बेडकर की राजनीतिक और सामाजिक सोच और दर्शन का मकसद हासिल किया जा सकेगा..

Sunday, December 1, 2013

अमरीका की नज़र में इरान की बढ़ती अहमियत से सउदी अरब बहुत परेशान है

  
शेष नारायण सिंह

कभी इरान के शाह पहलवी अमरीका के बहुत प्रिय  हुआ करते थे लेकिन जब उनकी ज्यादतियां सारी हदें पार कर गयीं तो इरान की अवाम ने पेरिस में रह रहे एक धार्मिक नेता अयातोल्ला खुमैनी के नेतृत्व में उनका तख़्त बदल दिया ताज बदल दिया और इस्लामी सरकार कायम कर दी. इरान में अपनी तरह की लोकशाही शुरू हो गयी और अमरीका और इरान में दूरियां बढ़ गयीं . एक मुकाम तो ऐसा भी आया जब अमरीका ने इरान पर सद्दाम हुसैन से हमला करवाया . यह पुरानी बात है .उसके बाद से दजला और फरात  नदियों में  बहुत पानी बह गया . सद्दाम हुसैन जो कभी अमरीका के सबसे करीबी भक्त हुआ करते थे , अमरीका की कृपा से मारे जा चुके हैं इराक में अब शिया मतावलंबी प्रधानमंत्री पदस्थ किया जा चुका है और अमरीका की समझ में पूरी तरह से आ गया है कि इरान से  पंगा लेना उसको बहुत महँगा पड़ सकता है . ऐसे महौल में अमरीका ने एडी चोटी  का जोर लगाकर इरान से दोस्ती की कोशिश शुरू कर दी है . परमाणु  हथियारों की अपनी दादागीरी की आदत से अमरीका को बहुत नुक्सान हुआ  है लेकिन  वह दुनिया के किसी मुल्क की परमाणु ताकत को वह अभी भी दबा देना चाहता है .अमरीका समेत सुरक्षा परिषद के सभी पाँचों स्थायी सदस्यों की इच्छा यही रहती है कि उनके अलावा और कोई भी परमाणु ताक़त न बने लेकिन उनकी चल नहीं रही है . इरान के मामले में भी एक बार यही हो रहा है लेकिन दुनिया की राजनीति के बदल रहे नए समीकारणों के चलते अब खेल बदल गया है . अब इरान को एक परमाणु शक्ति के रूप में स्वीकार करने के अलावा अमरीका के सामने और कोई रास्ता नहीं है .
इरान के साथ अमरीका और अन्य देशों के समझौते का जश्न पश्चिमी दुनिया में मनाया जा रहा है लेकिन इस समझौते से एक तरह से परमाणु हथियारों की दुनिया में अपना दबदबा बनाए रखने की सुरक्षा परिषद के स्थायी देशों की मंशा ही सबसे स्थाई कारण नज़र आती है .इजरायल के दबाव में पिछले कई वर्षों से इरान पर पश्चिमी देशों की तरफ से लगाई गयी पाबंदियां भी  देश के हौसले को नहीं रोक पाईं . बहर हाल आखीर में उनकी समझ में आ गया कि इरान से बातचीत करने का सही तरीका यह है कि उसको रियाया न समझा जाए ,उसके साथ बराबरी के स्तर पर बातचीत की जाए .
मौजूदा समझौते के बाद इरान का परमाणु संवर्धन का कार्यक्रम जारी रहेगा .दस्तावेज़ में लिखा  है कि शान्तिपूर्ण उद्देश्यों के लिए आपसी परिभाषा के आधार पर परमाणु संवर्धन का कार्यक्रम चलाया जाएगा . इरान ने वचन दिया है कि वह समझौते के छः महीनों में यूरेनियम का पांच प्रतिशत से ज्यादा का संवर्धन नहीं करेगा  या ३.५ प्रतिशत संवर्धन वाला जो उसका भण्डार है उसमें कोई वृद्धि नहीं करेगा . ३.५ प्रतिशत के संवर्धन पर ही बिजली पैदा की जा सकती है जबकि हथियार बनाने के लिए ९० प्रतिशत संवर्धन की ज़रूरत पड़ती है .इरान ने समझौते में पूरा सहयोग किया है . उसने अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी को अपने परमाणु ठिकानों की जाँच करने का पूरा अधिकार देने का वचन दिया है .इसके बदले में  अमरीका ,फ्रांस ,चीनरूसजर्मनी और ब्रिटेन ने इरान को वादा किया है कि वह उसके तेल पर लगाई गयी पाबंदियों ढील देगें . इरान से पेट्रोल के निर्यात पर जो पाबंदी लगी हुई है वह भी दुरुस्त की जायेगी . सुरक्षा परिषद में भी इरान के खिलाफ कोई पाबंदी  का प्रस्ताव नहीं लाया जाएगा . ओबामा की सरकार भी  इरान पर पाबंदियां लगाने या उसकी धमकी देने से बाज़ आयेगी. यह पाबंदियां इरान के परमाणु कार्यक्रम को रोकने के लिए लगाई  गयी थीं. वह तो कहीं रुका नहीं अलबत्ता इरान की जनता ने सारी तकलीफें झेलीं .

इजरायल इस नए कूटनीतिक विकास से सबसे ज़्यादा परेशान है .उसके ज़ाहिर से कारण है . अभी तक वह अमरीका के लठैत के रूप में पश्चिम एशिया में मनमानी करता रहा  है लेकिन सउदी अरब की परेशानी भी कम नहीं है . इरान के साथ अमरीका के रिश्ते ठीक होने का नतीजा यह होगा कि पश्चिम एशिया में अमरीका के सबसे भरोसेमंद अरब देश के रूप में पहचाने जाने वाले देश के रूप में साउदी हनक कम हो जायेगी . इरान की कोशिश यह भी चल रही है कि पश्चिम एशिया में शिया शासकों की संख्या बढ़ाई जाए . जबकि यह  रियाद को यह बिलकुल पसंद नहीं है . साउदी अरब  ने देखा है कि  किस तरह से २०१० के चुनाव के बाद भी इरान की मदद से इराक में शिया राष्ट्रपति बना रहा  गया . रियाद की परेशानी यह है कि अमरीकी सत्ता में उनके कोई लाबी ग्रुप नहीं हैं . इसलिए वह अमरीका की नीतियों को उ सत्रह से नहीं प्रभावित कर पाता जिस तरह से इजरायल कर लेता है .इसलिए इरान के साथ हुए अमरीका और अन्य ताक़तवर देशों के समझौते को समर्थन देने के अलावा साउदी अरब के पास कोई रास्ता नहीं था. साउदी अरब को डर है कि पश्चिम एशिया की राजनीति में उनकी घट रही ताक़त को और गति मिल जायेगी . उनके घोषित शत्रु इरान अब उनके आका अमरीका के करीब आ  जाएगा.  इरान ने अपनी ताक़त इराक और लेबनान में बढ़ा  ही  लिया है .सीरिया में भी बशर अल असद के साथ इरान के सम्बन्ध हैं और सुन्नियों के हमलों को रूस और इरान के बल पर लगातार नाकाम किया जा रहा है . साउदी अरब को उम्मीद थी कि वह सीरिया के खिलाफ भी फौजी ताक़त का इस्तेमाल करेगा .खासतौर से जब पिछले अगस्त में दमिश्क के पास एक आबादी पर सीरिया की सेना की तरफ से कथित रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल की खबर आई थी . अगर ऐसा हुआ होता तो  बशर अल असद की सत्ता को हटाकर साउदी पसंद  का कोई शासक वहाँ बैठाया जा सकता था लेकिन अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा  ने दूसरा रास्ता चुन लिया. उन्होने रूस से समझौता कर लिया कि सीरिया अपने रासायनिक हथियारों को खत्म कर देगा . हालांकि इस समझौते को ओबामा की भारी कूटनीतिक सफलता माना गया लेकिन साउदी अरब को इस से बहुत निराशा हुई .

अमरीका की कथित शह से पश्चिम एशिया और इत्तर अफ्रीका में लोकतंत्र की आवाजें जब जोर पकड़ने लगीं तो साउदी हुक्मरान बहुत चिंतित हुए .इसी प्रक्रिया में उनका सबसे करीबी अरब दोस्त होस्नी मुबारक हटा दिया गया और बहरीन में भी सुन्नी शासक के खिलाफ जब लोकतंत्र वाले जुलूस निकलने लगे तो साउदी अरब वालों को लगा कि उस आभियान को भी इरान का सहयोग हासिल है . बहरीन का शासक सुन्नी है लेकिन वहाँ भी आबादी का बहुमत वाला हिस्सा शिया समुदाय वालों का है .
कुल मिलाकर साउदी अरब को इस बात से नाराज़गी तो है कि अमरीका इरान की तरफ खिंच रहा  है लेकिन जानकारों को मालूम है कि अमरीका अभी साउदी अरब से रिश्ते खराब नहीं कर सकता . खादी के देशों में अमरीकी हितों के सबसे बड़े संरक्षक के रूप में रियाद की हैसियत अभी कायम है और आने वाले बहुत दिनों तक उसके कमज़ोर होने की कोई संभावना नहीं है .लेकिन अमरीका भी खाड़ी के देशों में साउदी अरब के विकल्प की तलाश कर रहा  है . इराक में सत्ता परिवरतन के साथ उनको उम्मीद थे एकी वहाँ एक ऐसा साथी मिल जाएगा जो पुराने सद्दाम हुसैन की तरह काम करेगा लेकिन वाहन बहुमत की सत्ता आ गयी और बहुमत वहाँ शियाओं का है . नतीजा यह  हुआ कि  वहाँ का शासक इरान के ज़्यादा  करीब चला गया . अमरीका को खाड़ी के धार्मिक संप्रदायों की उठा पटक में कोई रूचि नहीं है .उसे तो वहाँ ऐसे राजनीतिक हालात चाहिए जिससे उसकी मौजूदगी औउर ताकत मजबूती के साथ जमी रहे . सबको मालूम है कि किसी भी कूटनीतिक चाल का उद्देश्य अपने राष्ट्रीय हित को मुक़म्मल तौर पर पक्का करना होता है .इसलिए अमरीका इस इलाके में साउदी अरब के ऊपर निर्भरता कम करने के लिए इरान को साथ लेने की नीति पर काम कर रहा  है . यह शुरुआत है . साउदी अरब को मालूम है कि  ओबामा अब खाड़ी के देशों की राजनीति पर उतना ध्यान नहीं देगें क्योंकि अब चीन के आस पास के देश उनकी प्राथमिकता सूची में ज़्यादा ऊपर आ गए हैं .
इस सबके बावजूद भी साउदी अरब और अमरीका के बीच बहुत कुछ साझा  है .दोनों ही देश पश्चिम एशिया में अल कायदा और इरान की बढती ताकत से परेशान हैं . अमरीका को लाभ यह है  कि वह इरान से दोस्ती करके  अपनी कूटनीतिक चमक को मज़बूत कर सकता है लेकिन यह रियाद वालों को बिलकुल सही नहीं लगता . उनके पास अमरीका के अलावा क्सिई उअर से मदद की उम्मीद भी नहीं है और संभावना भी नहीं है . बीच में साउदी शासकों ने यूरोपियन  यूनियन से दोस्ती बढाने की कोशिश की थी लेकिन वे बेचारे तो अमरीका की ही मदद के याचक  हैं . रूस और चीन भी अमरीका का विकल्प नहीं बन सकते इसलिए न चाहते हुए भी साउदी अरब को अमरीका का साथी बने रहने में भलाई नज़र आती है . लेकिन एक बात साफ़ है कि इरान से जिनेवा में हुए इस समझौते के बाद  खाड़ी की राजनीति में मौलिक बदलाव आने वाला है . यह भी तय है कि पिछले कई दशकों से अमरीकी राजनीति की गलतियों के चलते पश्चिम एशिया में जो संघर्ष के हालत पैदा हो गए थे अब उनमें भी बदलाव होना तय है . हो सकता है कि इसका श्रेय  बराक ओबामा के खाते में जाय और उनकी वह वाही हो लेकिन मध्यपूर्व में अमरीका के सबसे बड़े सहयोगी के रूप में साउदी अरब की हैसियत कम होने के दिन बहुत करीब आ गए हैं .

Friday, November 29, 2013

US-Iran deal: Why the Saudis are upset


  

After years of efforts US diplomacy has got an opening with Iran. Barack Obama’s team has succeeded in persuading Iran to sign an agreement with the permanent members of the U.N. Security Council and Germany to consider halting its nuclear weapons programme.
Israel is the the most vocal critic of this agreement for obvious reasons. Israeli leadership does not want its enemy number one and the friend of Hezbollah, the government of Iran to come any closer to the US. Rather, they would like Iran to be declared a pariah and be condemned. The Israeli Prime Minister, Benjamin Netanyahu, has termed the agreement “a historic mistake.”. But Saudi Arab is more uncomfortable with the Iran getting any recognition. Although, Saudi Arabia welcomed the deal but their unhappiness can be seen on all the signals coming out of Riyadh.
But first one must understand the contours of the Iran nuclear deal. The agreement requires Iran to halt or scale back parts of its nuclear infrastructure. In exchange the US and allies will ease the sanctions which the Iranian people are facing for decades. Iranian Foreign Minister Mohammad Javad Zarif was visibly happy after the deal was signed between US, France, Britain, China, Russia and Germany and Iran on the other. He said “It is important that we all of us see the opportunity to end an unnecessary crisis and open new horizons based on respect, based on the rights of the Iranian people and removing any doubts about the exclusively peaceful nature of Iran’s nuclear programme.”
The deal is a first step towards a more comprehensive nuclear pact to be completed in six months. Both sides have been able to get some concessions. If this deal is followed up, Iran might use nuclear power for power generation but they will not be able to build a nuclear weapon without being detected. Iran will receive some relief in trade sanctions and access to some of its frozen currency accounts overseas.
It seems Iran was very keen to get this agreement in place. The president of Iran was a very satisfied man when he got the news. He said “Let anyone make his own reading, but this right is clearly stated in the text of the agreement that Iran can continue its enrichment, and I announce to our people that our enrichment activities will continue as before.” America was not happy with this enthusiasm of the Iranian president. John Kerry said “There is no inherent right to enrich.” US president Obama was positive about the outcome of the negotiations. He said “diplomacy opened up a new path toward a world that is more secure — a future in which we can verify that Iran’s nuclear program is peaceful and that it cannot build a nuclear weapon.”
There is some good news for India though. The Iran-Pakistan-India pipeline project may now fructify. It will save a lot of Indian money that is spent on import and transportation of petroleum products from Iran. Day after the deal was signed in Geneva the Pakistan prime minister’s advisor, Sartaj Aziz happened to be in Tehran for a meeting. He met with the Iranian foreign minister. After the meeting it was said that both the countries have agreed that the Iran-Pakistan gas pipeline would be discussed in Tehran between Inter-State Gas System Ltd of Pakistan and the Iranian nominated company – Tadbir Energy Gaspar Iranian Co. in the first week of December. Now even the US will not have any problems with the project and once this pipeline project is completed. It will be very useful for all the three countries.
So this agreement is going to be an important milestone in the efforts of the international community for lasting peace in this region. But there are many countries who are not happy with this development . The anger of Israel is understandable but the attitude of Saudi Arabia is avoidable. It seems they want to be the most important ally of US and do not want anybody else to come close to America . But the scenario is changing very fast and Iran seems to be heading towards becoming a significant diplomatic resource for America.
There is no doubt that America has stopped taking Saudi Arabia as seriously as it used to during the presidency of George Bush.
There are many reasons for Saudi Arabia to get upset with the US but the most immediate before this agreement is the American attitude towards Bashar Al-Assad of Syria . They expected an American air strike on Sriya after reports of use of chemical weapons by the Syrian regime but the Americans did a deal with the help of Russia. The deal negotiated between the U.S. and Russia to remove Syria’s chemical weapons was seen as diplomatic victory for the Obama Administration. But the Saudis did not like it. They wanted the US to use this opportunity and bomb the Assad regime .
Saudi Arabia has been trying to check the growth of Iranian power in the middle east. They could not stop the influence of Hezbollah in Lebanese politics. They could not do anything to stop Iran’s growing influence in Iraq. Despite Saudi opposition Iran has kept the Shia Prime Minister Nouri al-Maliki in office. Saudi Arabia tried to create a wedge between Iran and Hamas but failed and today the Hamas is very powerful and very close to Iran. In whole of West Asia and North Africa Saudi Arabia was fast losing influence and Iran was winning. F. Gregory Gause, an expert in West Asian politics and oil monarchies says that increased Iranian power will lead to political mobilization by Shias inside the Sunni-ruled Gulf states. Saudis and their allies in the Gulf remain certain that Iran meddles directly in their domestic affairs, but they are also convinced that Iran’s heightened regional role will inevitably inspire Shia discontent, which makes Iran’s ascendance an indirect threat to the stability of the Gulf monarchies.
In the wave of democratic movements, Saudi Arab has lost very important allies in the region. The Arab Spring brought down Hosni Mubarak’s regime in Egypt. He was a very trusted friend of the regime. The age of domination by Saudi Arabia in the area is coming to an end. May be they remain the leaders of the Sunni rulers of middle east but Shia regimes will be close to America and the concern of Riyadh is that Obama Administration will be supporting Iran. Obama believes that better relations with Iran will bring stability to the region, and sees an Iranian commitment to forswear nuclear weapons as a benefit to allies like Saudi Arabia. But the Saudis, without a seat at the negotiating table, fear that Washington will ratify Iranian hegemony in Iraq, Syria, Lebanon, and the Persian Gulf in exchange for a nuclear deal.
That is the reason this deal that was signed by the five permanent members of the security council and Germany on one side and Iran on the other is going to play a very important role in the geopolitical scene of West Asia. It might also be the beginning of the end of the Saudi hegemony over the relations with America.