शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली, १४ मार्च . २०१२-१३ के लिए रेल बजट पेश कर दिया गया है . इस बजट के साथ ममता बनर्जी की जानी पहचानी राजनीतिक क्रिया शुरू हो गयी है . सरकार में उनकी गद्दी लेने वाले रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने रेलवे को निजी हाथों में सौंपने की मनमोहनी अर्थनीति का पूरा पालन किया और बहुत सारे ऐसे कार्यक्रमों की घोषणा की जिसके बाद रेलवे को निजी हाथों में सौंपने की बड़े पैमाने पर शुरुआत हो जायेगी. उधर तृणमूल ब्रैंड की राजनीति भी शुरू हो गयी. तृणमूल कांग्रेस के नेता और रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने रेल बजट में किराए के वृद्धि का ऐलान किया तो उसी पार्टी के दूसरे नेता सुदीप बंद्योपाध्याय ने संसद से बाहर निकल कर भाड़ा बढाए जाने का विरोध कर दिया .फिलहाल नूरा कुश्ती जारी है और राजनीति में ममता विधा के जानकारों का कहना है कि बात बिकुल साफ़ नहीं है.
यह रेल बजट शुद्ध रूप से मनमोहन सिंह के आशीर्वाद से तैयार किया गया लगता है क्योंकि इसमें एक बहुत महत्वपूर्ण सरकारी विभाग को निजी हाथों में सौंप देने की लगभग वही अकुलाहट है जो टेलीफोन विभाग को सौंप देने के समय थी.डॉ मनमोहन सिंह ने भूमंडलीकरण और वैश्वीकरण के नाम पर ज़्यादातर सरकारी व्यापारिक काम को निजी हाथों में सौंप देने की बुनियाद तभी डाल दी थी . जब वे पी वी नरसिम्हा राव की सरकार में वित्त मंत्री थे.बाद की सभी सरकारों ने मनमोहन सिंह के पूंजीवादी अर्थशास्त्र को ही आर्थिक विकास का ढांचा बनाया. आज लगता है कि रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी ने उसी प्रक्रिया को आगे बढाते हुए रेल बजट पेश किया है . उनकी पार्टी की सुप्रीमो ममता बनर्जी ने रेल बजट में प्रस्तावित वृद्धि के खिलाफ लाठी भांजना शुरू कर दिया है लेकिन जानकार कहते हैं कि किराया वृद्धि के बारे में ममता बनर्जी का बयान राजनीतिक है और वे डॉ मनमोहन सिंह के साथ बातचीत करने के बाद इस तरह की पैंतरेबाजी कर रही हैं . इस बात की संभावना है कि उनके हल्ला मचाने के बाद बढा हुआ किराया वापस ले लिया जाएगा और वे बंगाल की जनता के सामने इसे अपनी ट्राफी के रूप में पेश करेगीं . लेकिन इस सरकार का जो मुख्य एजेंडा है वह लागू हो जाएगा. दुनिया जानती है कि इस सरकार का एजेंडा हर सरकारी व्यापार को निजी हाथों में सौंप देना है
.ऐसे राजनीतिक माहौल में आज रेल बजट पेश कर दिया गया . रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने कहा कि उनका उद्देश्य रेल में पांच बातें लागू करना है . उन्होंने कहा कि उनकी प्राथमिकता है , संरक्षा,मजबूती, भीड़ भाड़ को कम करना और क्षमता में वृद्धि करना . १२वीं पंच वर्षीय योजना में परिचालन अनुपात ९५ प्रतिशत से घटाकर ७४ प्रतिशत करना.
इसके लिए उन्होंने उपाय भी बताये. उन्होंने कहा कि काकोडकर समिति की सिफारिशों के तहत रेलवे संरक्षा प्राधिकरण की स्थापना . सैम पित्रोदा समिति की सिफारिशों के तहत मिशनों की स्थापना करना,काकोदकर और पित्रोदा समिति द्वारा बताये गए पांच क्षत्रों को लक्ष्य बनाकर काम करना . यह क्षेत्र हैं . रेलपथ,, पुल,सिग्नल प्रणाली,रोलिंग स्टाक,स्टेशन और टर्मिनल पर वार्षिक निवेश की योजना को संतुलित करना. नए बोर्ड सदस्यों की तैनाती, लेवल क्रासिंग पर होने वाले हादसों से बचने के लिए रेल-रोड सेपरेशन कारपोरेशन आफ इण्डिया की स्थापना करना. इसके अलावा और भी कुछ प्रस्ताव रेल मंत्री ने अपने बजट में किया है. ज़ाहिर है इस तरह के काम केलिए सरकार के पास पैसा नहीं है . उसके लिए भी रेले मंत्री ने रास्ता निकाल लिया है . वे कहते हैं कि सब कुछ प्राइवेट लोगों को शामिल करके हासिल किया जा सकता है .प्रस्ताव है कि सार्वजनिक -निजी -भागीदारी ( पी पी पी ) के माध्यम से स्टेशनों का पुनर्विकास करने के लिए इन्डियन रेलवे डेवलपमेंट कारपोरेशन की स्थापना की जायेगी . वैगन लीसिंग,साइडिंग ,प्राइवेट फ्रेट टर्मिनल,कंटेनर ट्रेन परिचालन में भी निजी पूंजी को शामिल कर लिया जायेगा,. उन्होंने कहा कि पिछले दिनों इस तरह की योजनाओं में निजी पूंजी का निवेश नहीं हो सका है इसलिए अब इसे और आकर्षक बनाया जाएगा,. और निजीकरण की बात को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जायेगी इस काम के लिए रेलवे बोर्ड में एक ऐसे सदस्य की भर्ती की जायेगी जिसका काम केवल पी पी पी परियोजनाओं की देख भाल करना होगा . उसको रेल के निजीकरण की योजना की मार्केटिंग भी करनी पड़ेगी.
रेल के विकास में राज्य सरकारों से भी सहयोग लिया जाएगा. छत्तीसगढ़ सरकार के साथ रेल मंत्रालय इस तरह का समझौता कर भी चुका है . राज्य सरकारों के सहयोग से १० राज्यों में ५ हज़ार किलोमीटर की ३१ परियोजनाओं पर काम चल रहा है .पड़ोसी देशों के साथ संपर्क पर भी काम चल रहा है . नेपाल से संपर्क करने के लिए जोगबनी-बिराट नगर और जयनगर -बीजलपुरा-बरबीदास के बीच नई लाइन का काम चल रहा है .बहुत सारे कारखाने भी लगाने का प्रस्ताव है और उनमें भी निजी भागीदारी से परहेज़ नहीं किया जायेगा.
देश के महत्वपूर्ण स्टेशनों पर सीढ़ी चढने में दिक्क़त पेश आती है . इसके लिए करीब ३२१ एस्केल्टर लगाए जायेगें . इस तरह की योजना में मुम्बई के लोकल ट्रेनों वाले स्टेशनों को भी शामिल किया गया है .बजट में हर बार की तरह आंकड़े भी दिए गए हैं . और बहुत सारी कल्याण कारी योजनायें भी शामिल की गयी हैं . एक बड़ी सूची तो उन योजनाओं की है जिन्हें पहले के रेल मंत्री बीसों साल से बताते रहे हैं ..लेकिन आज के बजट का स्थायी भाव यही है कि भारतीय रेल को निजी हाथों में देने की तैयारी बड़े पैमाने पर शुरू हो चुकी है ठीक उसी तरह जैसे टेलीफोन सुविधाओं के साथ किया गया था , यह अलग बात है कि बाद में उन्हीं योजनाओं में देश के इतिहास के सबसे बड़े घोटाले भी हुए
Friday, March 16, 2012
Monday, March 12, 2012
चुनावी बहस और टेलिविज़न की दुनिया
शेष नारायण सिंह
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव २०१२ ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि दिल्ली में बैठे राजनीतिक पंडितों को कुछ पता नहीं रहता कि राज्य में क्या हो रहा है . टेलिविज़न चैनलों पर बहस के प्रहसन में भाग लेने वाले राजनीतिक विश्लेषकों की भी यही स्थिति होती है. चुनाव की घोषणा के साथ ही विद्वान् पत्रकारों की मंडली में चर्चा शुरू हो गयी थी कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को १५० के करीब सीटें मिलेगीं, बहुजन समाज पार्टी को १३० के आसपास, बीजेपी ९० तक जा सकती है और कांग्रेस की झोली में ५० के आसपास सीटें आयेगीं. लगभग सब का ऐलान यही था कि उत्तर प्रदेश में इस बार त्रिशंकु विधानसभा आयेगी , किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलेगा. इन स्वनामधन्य विश्लेषकों से जब कभी पूछा गया कि भाई आपको यह इलहाम कैसे हो रहा है तो एक सर्वज्ञ मुद्रा वाली मुस्कराहट के साथ बता देते थे कि कि उन्हें सब मालूम है ठीक उसी तरह जैसे आजकल एक विज्ञापन में बीते ज़माने की अभिनेत्री नीतू सिंह कहती पायी जाती हैं कि ' आई नो एवरीथिंग ' . लेकिन सच्चाई यह थी कि किसी को कुछ नहीं मालूम था और उत्तर प्रदेश की जनता किसी भी कीमत पर बदलाव चाहती थी . उसकी बदलाव की यह इच्छा मायावती के राज के दो साल के अंदर ही नज़र आने लगी थी लेकिन यह जनता की समझ में यह नहीं आ रहा था कि जाना किधर है .
उत्तर प्रदेश की जनता ने जब २००९ के लोकसभा चुनावों में देखा कि सत्ताधारी बहुजन समाज पार्टी के अलावा कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी और समाजवादी पार्टी ने भी लगभग बराबर सीटें हासिल की हैं तो यह तय हो गया कि मायावती की सत्ता को बदलने के अवसरों की कमी नहीं है .उस चुनाव के बाद राज्य के बहुत सारे इलाकों के लोगों से बात करके पता लगा कि विधान सभाचुनाव में बदलाव का हवा बहेगी.
बहरहाल अब चुनावों के नतीजे पब्लिक डोमेन में हैं . और सभी विश्लेषक और पत्रकार उसकी माकूल व्याख्या कर रहे हैं और बता रहे हैं कि उनसे चूक क्यों हुई .लेकिन ३ मार्च २०१२ के दिन कोई भी ऐसा विश्लेषक नज़र नहीं आया था जो इन नतीजों को किसी भी तरह से संभव मानने को तैयार होता. अंग्रेज़ी के सबसे नामी न्यूज़ चैनल में चुनाव विश्लेषण केलिए बुलाये गए लोगों से मैंने कहा कि उत्तर प्रदेश के चुनाव बहुत ही अलग माहौल में हुए हैं , कहीं किसी का कोई दबाव नहीं पड़ा है ,लोगों ने अपने मन से वोट दिया है और दो बातें तय हैं. पहली तो यह कि मायावती सत्ता से बाहर चली जायेगीं और जो दूसरी बात तय है वह यह कि समाजवादी पार्टी को २२० से एकाध ज्यादा ही सीटें मिलेगीं . मेरी इस बात को सुनकर जिस तरह के अविश्वास का माहौल हवा में तैर गया वह बहुत ही दमघोंटू था .कुछ लोगों ने मुझे समझाने की कोशिश की मैं अपनी राय बदल लूं . पैनल में मौजूद पंजाब की राजनीति के जानकार एक आदरणीय मित्र से मैंने गंभीरता से कहा कि भाई मेरे पास राय बदलने का विकल्प नहीं है . यह सच्चाई है . और यह सच्चाई मैंने हर दौर के चुनाव के बाद की हालत को समझ कर जानी है . लेकिन खंडित जनादेश के विमर्श से आगे जाने को कोई तैयार नहीं था. पूरे तीन दिन बहस इस बात पर होती रही कि समाजवादी पार्टी को जब १८० के आस पास सीट मिलेगी तो मुलायम सिंह किसके समर्थन से सरकार बनायेगें ,या नहीं बनायेगें . ज़ाहिर है कि मुझे इस सिद्धांत की परिकल्पना पर ही विश्वास नहीं था इसलिए मैं बहस से लगभग बाहर ही रहा . चुनाव के नतीजों के बाद देश के चोटी के पत्रकार कुमार केतकर ने मेरी तारीफ़ की और कहा कि हालांकि शुरू में उन्होंने भी मेरी बात पर बहुत विश्वास नहीं किया था लेकिन नतीजों के बाद उन्होंने मुझे इस बात पर शाबासी दी कि न केवल मैंने समाजवादी पार्टी के नतीजों का सही आकलन किया था बल्कि सभी चारों पार्टियों की संभावित सीटों का भी लगभग सही अनुमान लगाया था. मैंने बहस के दौरान भी बार बार यह कहा था कि इस बार उत्तर प्रदेश में बाहुबली भी नहीं जीत पायेगें . चार दिन तक चर्चा में शामिल कई मित्रों ने इस बात की भी तारीफ़ की . पत्रकारिता के एक शीर्ष पुरुष और मेरे आदर्श पत्रकार ने मुझसे कहा है कि मैं ३ मार्च २०१२ के दिन किये गए के अपने आकलन के कारणों पर चर्चा करूँ , इसलिए यह लेख लिखा जा रहा है .
उत्तर प्रदेश की जनता ने २००७ में मुलायम सिंह यादव की पार्टी के जोर ज़बरदस्ती के राज से बचने के लिए मायावती को स्पष्ट बहुमत दिया था . लेकिन मायावती ने जनता को निराश किया .लोग उन्हने हटाना चाहते थे लेकिन यह नहीं पता लग पा रहा था कि रास्ता किधर से है. २००९ के चुनावों के बाद से यह बात साफ़ हो गयी थी कि सत्ता बदल दी जायेगी. मुलायम सिंह की पार्टी २००९ के लोक सभा चुनाव तक पस्त हिम्मत की शिकार थी. उसी के बाद फिरोजाबाद संसदीय क्षेत्र में ही उपचुनाव में हुई अखिलेश यादव की पत्नी की हार के बाद समाजवादी पार्टी में चारों तरफ निराशा थी .मुलायम सिंह यादव शारीरिक रूप से कुछ कमज़ोर भी हो गए थे . पार्टी का और कोई नेता बाहर नहीं निकल रहा था. अमर सिंह ने मीडिया के ज़रिये हमला बोल रखा था . ज़ाहिर है पार्टी में निराशा और मायूसी का माहौल था . कांग्रेस को लोक सभा २००९ में पहले से ज्यादा वोट मिले थे लेकिन कांग्रेस के नेताओं को भी मालूम था और जनता को भी मालूम था कि ज्यादातर सीटों पर चौथी या पांचवीं और कहीं कहीं तो सातवीं या आठवीं जगह पर रही कांग्रेस पार्टी मायावती को चुनौती नहीं दे सकती थी. एक दौर में तो ऐसा लगता था कि भारतीय जनता पार्टी ही मायावती को चुनौती दे सकती थी. उनके पास लगभग हरेक मंडल में कार्यकर्ता थे , आर एस एस की मौजूदगी थी और सारे इलाकों में मज़बूत नेता थे . यह सारा माहौल तब बदला जब समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष ,अखिलेश यादव ने मैदान ले लिया और सडकों पर निकल पड़े . मायावती से नाराज़ लोगों को उम्मीद नज़र आने लगी कि समाजवादी पार्टी को वोट देने से मायावती से पिंड छूट जाएगा .इसके पहले तो यू पी के राजनीतिक माहौल में साफ़ नज़र आ रहा था कि २०१२ की लड़ाई भारतीय जनता पार्टी और मायावती के बीच होगी और मायावती को हराने के लिए तड़प रही जनता बीजेपी के सिर पर ताज रख देगी . इस पर ब्रेक लगाया नागपुर के नेता और बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष , नितिन गडकरी ने. उन्होंने यू पी के बीजेपी नेताओं राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र , विनय कटियार , मुरली मनोहर जोशी , ओम प्रकाश सिंह , सूर्य प्रताप शाही और केशरी नाथ त्रिपाठी को पीछे कारके मध्य प्रदेश की नेता उमा भारती को आगे कर दिया . राज्य के स्थापित नेताओं के समर्थक बीजेपी के अभियान से अलग हो गए और जो बीजेपी मायावती को चुनौती देने वाली थी, वह तीसरे स्थान की लड़ाई में चली गयी . अखिलेश यादव की सभाओं में भीड़ होने लगी और साफ़ नज़र आने लगा कि मायावती को चुनौती समाजवादी पार्टी से मिल रही है . इस बीच राहुल गांधी ने भी राज्य में धुंआधार प्रचार किया . लेकिन उनके चुनावी प्रबंधन में बहुत सारी गड़बड़ियां हुईं . उन्होंने बाराबंकी के नेता बेनी प्रसाद वर्मा को बहुत मह्त्व दे दिया .बेनी प्रसाद वर्मा भी पूरे फार्म में आ गये . उन्होंने करीब १३५ सीटों पर अपनी पुरानी समाजवादी पार्टी से आये हुए चेलों को टिकट दे दिया . जिसके कारण कांग्रेस के मुकामी नेता तो नाराज़ हुए ही , कांग्रेस के कई एम पी बेनी प्रसाद वर्मा के खिलाफ हो गए . ऐसे माहौल में समाजवादी पार्टी ने अखिलेश यादव के नेतृत्व में चुनाव में झंडे गाड़ने शुरू कर दिए .
चुनाव आभियान शुरू होने के बाद भी बीजेपी और कांग्रेस के नेताओं ने थोक में गलतियां की.मायावती के बहुत करीबी रह चुके और भारी भ्रष्टाचार में फंसे बाबू सिंह कुशवाहा को चुनाव अभियान के दौरान भारतीय जनता पार्टी में शामिल कर लेने से रामदेव और अन्ना हजारे की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के कारण बीजेपी की तरफ मुड़ रहे नौजवानों ने बीजेपी के खिलाफ काम करना शुरू कर दिया . कांग्रेस ने साम्प्रदायिक आधार पर जनता के ध्रुवीकरण की कोशिश की . जिसका फायदा भी समाजवादी पार्टी को मिल गया . मुसलमान लगभग एकतरफा समाजवादी पार्टी में चले गए. राष्ट्रपति राज की चर्चा करके भी कांग्रेस ने स्पष्ट बहुमत की ज़रुरत को रेखांकित किया .
इस बीच समाजवादी पार्टी के बड़े नेता आज़म खां ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बाहुबली , डी पी यादव को पार्टी में भर्ती करने की कोशिश की . अखिलेश यादव ने बहुत ही निर्णायक तरीके से हस्तक्षेप किया और डी पी यादव की भर्ती पर लगाम लगा दिया . उनके इस एक क़दम ने उत्तर प्रदेश में कई सन्देश दिए . एक तो यह कि अब अपराधी पृष्ठभूमि के लोगों को वे साथ नहीं आने देगें . और दूसरा सन्देश राज्य के सरकारी कर्मचारियों को दिया गया. उन्हें साफ़ बता दिया गया कि समाजवादी पार्टी के पिछले कार्यकाल की तरह की स्थिति नहीं रहने वाली है .उत्तर प्रदेश के सरकारी कर्मचारियों के बीच आज़म खां की छवि एक ऐसे नेता की है जो मंत्री बनने के बाद लोगों को डांटते फटकारते रहते हैं .उनको काबू करके अखिलेश यादव ने ऐलान कर दिया कि आज़म खां की मनमानी नहीं चलेगी. इसके बाद तो समाजवादी पार्टी के पक्ष में लहर चलने लगी. इस बीच समाजवादी के घोषणापत्र ने बाकी काम पूरा कर दिया.आमतौर पर पार्टी के घोषणापत्रों पर विश्वास नहीं किया जाता लेकिन मुलायम सिंह यादव की उस बात पर लोगों ने विश्वास किया जहां उन्होंने कहा था कि अगर सरकार बनी तो १००० रूपये महीने का बेरोजगारी भत्ता दिया जाएगा. उनकी बात पर लोगों ने विश्वास इसलिए किया कि अपने पिछले कार्यकाल के अंतिम छः महीनों में उन्होंने ५०० रूपये महीने का बेरोजगारी भत्ता दिया था . मैंने देखा था कि पूर्वी और मध्य उत्तर प्रदेश के बहुत सारे इलाकों में नौजवान और बेरोजगार युवकों ने मुलायम सिंह को इसलिए वोट दिया था कि वे १००० महीने के बेरोजगारी भत्ते के चक्कर में थे . बड़ी संख्या में नौजवानों के वोट इसी कारण से मुलायम सिंह को मिले . चुनाव ख़त्म होने के बाद जिला रोज़गार कार्यालयों में बेरोजगार नौजवानों की भीड़ को जिसने भी देखा था उसे पक्का भरोसा था कि मुलायम सिंह यादव की पार्टी का स्पष्ट बहुमत आ रहा है . इसके अलावा मैंने हर दौर के चुनाव के पहले और बाद में जिला स्तर के पत्रकारों से बात करके सही स्थिति का जायज़ा लिया था . और लगभग हर सीट के ज़मीनी समीकरणों को समझा था शायद इसी लिए सही आकलन कर सका था .
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव २०१२ ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि दिल्ली में बैठे राजनीतिक पंडितों को कुछ पता नहीं रहता कि राज्य में क्या हो रहा है . टेलिविज़न चैनलों पर बहस के प्रहसन में भाग लेने वाले राजनीतिक विश्लेषकों की भी यही स्थिति होती है. चुनाव की घोषणा के साथ ही विद्वान् पत्रकारों की मंडली में चर्चा शुरू हो गयी थी कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को १५० के करीब सीटें मिलेगीं, बहुजन समाज पार्टी को १३० के आसपास, बीजेपी ९० तक जा सकती है और कांग्रेस की झोली में ५० के आसपास सीटें आयेगीं. लगभग सब का ऐलान यही था कि उत्तर प्रदेश में इस बार त्रिशंकु विधानसभा आयेगी , किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलेगा. इन स्वनामधन्य विश्लेषकों से जब कभी पूछा गया कि भाई आपको यह इलहाम कैसे हो रहा है तो एक सर्वज्ञ मुद्रा वाली मुस्कराहट के साथ बता देते थे कि कि उन्हें सब मालूम है ठीक उसी तरह जैसे आजकल एक विज्ञापन में बीते ज़माने की अभिनेत्री नीतू सिंह कहती पायी जाती हैं कि ' आई नो एवरीथिंग ' . लेकिन सच्चाई यह थी कि किसी को कुछ नहीं मालूम था और उत्तर प्रदेश की जनता किसी भी कीमत पर बदलाव चाहती थी . उसकी बदलाव की यह इच्छा मायावती के राज के दो साल के अंदर ही नज़र आने लगी थी लेकिन यह जनता की समझ में यह नहीं आ रहा था कि जाना किधर है .
उत्तर प्रदेश की जनता ने जब २००९ के लोकसभा चुनावों में देखा कि सत्ताधारी बहुजन समाज पार्टी के अलावा कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी और समाजवादी पार्टी ने भी लगभग बराबर सीटें हासिल की हैं तो यह तय हो गया कि मायावती की सत्ता को बदलने के अवसरों की कमी नहीं है .उस चुनाव के बाद राज्य के बहुत सारे इलाकों के लोगों से बात करके पता लगा कि विधान सभाचुनाव में बदलाव का हवा बहेगी.
बहरहाल अब चुनावों के नतीजे पब्लिक डोमेन में हैं . और सभी विश्लेषक और पत्रकार उसकी माकूल व्याख्या कर रहे हैं और बता रहे हैं कि उनसे चूक क्यों हुई .लेकिन ३ मार्च २०१२ के दिन कोई भी ऐसा विश्लेषक नज़र नहीं आया था जो इन नतीजों को किसी भी तरह से संभव मानने को तैयार होता. अंग्रेज़ी के सबसे नामी न्यूज़ चैनल में चुनाव विश्लेषण केलिए बुलाये गए लोगों से मैंने कहा कि उत्तर प्रदेश के चुनाव बहुत ही अलग माहौल में हुए हैं , कहीं किसी का कोई दबाव नहीं पड़ा है ,लोगों ने अपने मन से वोट दिया है और दो बातें तय हैं. पहली तो यह कि मायावती सत्ता से बाहर चली जायेगीं और जो दूसरी बात तय है वह यह कि समाजवादी पार्टी को २२० से एकाध ज्यादा ही सीटें मिलेगीं . मेरी इस बात को सुनकर जिस तरह के अविश्वास का माहौल हवा में तैर गया वह बहुत ही दमघोंटू था .कुछ लोगों ने मुझे समझाने की कोशिश की मैं अपनी राय बदल लूं . पैनल में मौजूद पंजाब की राजनीति के जानकार एक आदरणीय मित्र से मैंने गंभीरता से कहा कि भाई मेरे पास राय बदलने का विकल्प नहीं है . यह सच्चाई है . और यह सच्चाई मैंने हर दौर के चुनाव के बाद की हालत को समझ कर जानी है . लेकिन खंडित जनादेश के विमर्श से आगे जाने को कोई तैयार नहीं था. पूरे तीन दिन बहस इस बात पर होती रही कि समाजवादी पार्टी को जब १८० के आस पास सीट मिलेगी तो मुलायम सिंह किसके समर्थन से सरकार बनायेगें ,या नहीं बनायेगें . ज़ाहिर है कि मुझे इस सिद्धांत की परिकल्पना पर ही विश्वास नहीं था इसलिए मैं बहस से लगभग बाहर ही रहा . चुनाव के नतीजों के बाद देश के चोटी के पत्रकार कुमार केतकर ने मेरी तारीफ़ की और कहा कि हालांकि शुरू में उन्होंने भी मेरी बात पर बहुत विश्वास नहीं किया था लेकिन नतीजों के बाद उन्होंने मुझे इस बात पर शाबासी दी कि न केवल मैंने समाजवादी पार्टी के नतीजों का सही आकलन किया था बल्कि सभी चारों पार्टियों की संभावित सीटों का भी लगभग सही अनुमान लगाया था. मैंने बहस के दौरान भी बार बार यह कहा था कि इस बार उत्तर प्रदेश में बाहुबली भी नहीं जीत पायेगें . चार दिन तक चर्चा में शामिल कई मित्रों ने इस बात की भी तारीफ़ की . पत्रकारिता के एक शीर्ष पुरुष और मेरे आदर्श पत्रकार ने मुझसे कहा है कि मैं ३ मार्च २०१२ के दिन किये गए के अपने आकलन के कारणों पर चर्चा करूँ , इसलिए यह लेख लिखा जा रहा है .
उत्तर प्रदेश की जनता ने २००७ में मुलायम सिंह यादव की पार्टी के जोर ज़बरदस्ती के राज से बचने के लिए मायावती को स्पष्ट बहुमत दिया था . लेकिन मायावती ने जनता को निराश किया .लोग उन्हने हटाना चाहते थे लेकिन यह नहीं पता लग पा रहा था कि रास्ता किधर से है. २००९ के चुनावों के बाद से यह बात साफ़ हो गयी थी कि सत्ता बदल दी जायेगी. मुलायम सिंह की पार्टी २००९ के लोक सभा चुनाव तक पस्त हिम्मत की शिकार थी. उसी के बाद फिरोजाबाद संसदीय क्षेत्र में ही उपचुनाव में हुई अखिलेश यादव की पत्नी की हार के बाद समाजवादी पार्टी में चारों तरफ निराशा थी .मुलायम सिंह यादव शारीरिक रूप से कुछ कमज़ोर भी हो गए थे . पार्टी का और कोई नेता बाहर नहीं निकल रहा था. अमर सिंह ने मीडिया के ज़रिये हमला बोल रखा था . ज़ाहिर है पार्टी में निराशा और मायूसी का माहौल था . कांग्रेस को लोक सभा २००९ में पहले से ज्यादा वोट मिले थे लेकिन कांग्रेस के नेताओं को भी मालूम था और जनता को भी मालूम था कि ज्यादातर सीटों पर चौथी या पांचवीं और कहीं कहीं तो सातवीं या आठवीं जगह पर रही कांग्रेस पार्टी मायावती को चुनौती नहीं दे सकती थी. एक दौर में तो ऐसा लगता था कि भारतीय जनता पार्टी ही मायावती को चुनौती दे सकती थी. उनके पास लगभग हरेक मंडल में कार्यकर्ता थे , आर एस एस की मौजूदगी थी और सारे इलाकों में मज़बूत नेता थे . यह सारा माहौल तब बदला जब समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष ,अखिलेश यादव ने मैदान ले लिया और सडकों पर निकल पड़े . मायावती से नाराज़ लोगों को उम्मीद नज़र आने लगी कि समाजवादी पार्टी को वोट देने से मायावती से पिंड छूट जाएगा .इसके पहले तो यू पी के राजनीतिक माहौल में साफ़ नज़र आ रहा था कि २०१२ की लड़ाई भारतीय जनता पार्टी और मायावती के बीच होगी और मायावती को हराने के लिए तड़प रही जनता बीजेपी के सिर पर ताज रख देगी . इस पर ब्रेक लगाया नागपुर के नेता और बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष , नितिन गडकरी ने. उन्होंने यू पी के बीजेपी नेताओं राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र , विनय कटियार , मुरली मनोहर जोशी , ओम प्रकाश सिंह , सूर्य प्रताप शाही और केशरी नाथ त्रिपाठी को पीछे कारके मध्य प्रदेश की नेता उमा भारती को आगे कर दिया . राज्य के स्थापित नेताओं के समर्थक बीजेपी के अभियान से अलग हो गए और जो बीजेपी मायावती को चुनौती देने वाली थी, वह तीसरे स्थान की लड़ाई में चली गयी . अखिलेश यादव की सभाओं में भीड़ होने लगी और साफ़ नज़र आने लगा कि मायावती को चुनौती समाजवादी पार्टी से मिल रही है . इस बीच राहुल गांधी ने भी राज्य में धुंआधार प्रचार किया . लेकिन उनके चुनावी प्रबंधन में बहुत सारी गड़बड़ियां हुईं . उन्होंने बाराबंकी के नेता बेनी प्रसाद वर्मा को बहुत मह्त्व दे दिया .बेनी प्रसाद वर्मा भी पूरे फार्म में आ गये . उन्होंने करीब १३५ सीटों पर अपनी पुरानी समाजवादी पार्टी से आये हुए चेलों को टिकट दे दिया . जिसके कारण कांग्रेस के मुकामी नेता तो नाराज़ हुए ही , कांग्रेस के कई एम पी बेनी प्रसाद वर्मा के खिलाफ हो गए . ऐसे माहौल में समाजवादी पार्टी ने अखिलेश यादव के नेतृत्व में चुनाव में झंडे गाड़ने शुरू कर दिए .
चुनाव आभियान शुरू होने के बाद भी बीजेपी और कांग्रेस के नेताओं ने थोक में गलतियां की.मायावती के बहुत करीबी रह चुके और भारी भ्रष्टाचार में फंसे बाबू सिंह कुशवाहा को चुनाव अभियान के दौरान भारतीय जनता पार्टी में शामिल कर लेने से रामदेव और अन्ना हजारे की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के कारण बीजेपी की तरफ मुड़ रहे नौजवानों ने बीजेपी के खिलाफ काम करना शुरू कर दिया . कांग्रेस ने साम्प्रदायिक आधार पर जनता के ध्रुवीकरण की कोशिश की . जिसका फायदा भी समाजवादी पार्टी को मिल गया . मुसलमान लगभग एकतरफा समाजवादी पार्टी में चले गए. राष्ट्रपति राज की चर्चा करके भी कांग्रेस ने स्पष्ट बहुमत की ज़रुरत को रेखांकित किया .
इस बीच समाजवादी पार्टी के बड़े नेता आज़म खां ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बाहुबली , डी पी यादव को पार्टी में भर्ती करने की कोशिश की . अखिलेश यादव ने बहुत ही निर्णायक तरीके से हस्तक्षेप किया और डी पी यादव की भर्ती पर लगाम लगा दिया . उनके इस एक क़दम ने उत्तर प्रदेश में कई सन्देश दिए . एक तो यह कि अब अपराधी पृष्ठभूमि के लोगों को वे साथ नहीं आने देगें . और दूसरा सन्देश राज्य के सरकारी कर्मचारियों को दिया गया. उन्हें साफ़ बता दिया गया कि समाजवादी पार्टी के पिछले कार्यकाल की तरह की स्थिति नहीं रहने वाली है .उत्तर प्रदेश के सरकारी कर्मचारियों के बीच आज़म खां की छवि एक ऐसे नेता की है जो मंत्री बनने के बाद लोगों को डांटते फटकारते रहते हैं .उनको काबू करके अखिलेश यादव ने ऐलान कर दिया कि आज़म खां की मनमानी नहीं चलेगी. इसके बाद तो समाजवादी पार्टी के पक्ष में लहर चलने लगी. इस बीच समाजवादी के घोषणापत्र ने बाकी काम पूरा कर दिया.आमतौर पर पार्टी के घोषणापत्रों पर विश्वास नहीं किया जाता लेकिन मुलायम सिंह यादव की उस बात पर लोगों ने विश्वास किया जहां उन्होंने कहा था कि अगर सरकार बनी तो १००० रूपये महीने का बेरोजगारी भत्ता दिया जाएगा. उनकी बात पर लोगों ने विश्वास इसलिए किया कि अपने पिछले कार्यकाल के अंतिम छः महीनों में उन्होंने ५०० रूपये महीने का बेरोजगारी भत्ता दिया था . मैंने देखा था कि पूर्वी और मध्य उत्तर प्रदेश के बहुत सारे इलाकों में नौजवान और बेरोजगार युवकों ने मुलायम सिंह को इसलिए वोट दिया था कि वे १००० महीने के बेरोजगारी भत्ते के चक्कर में थे . बड़ी संख्या में नौजवानों के वोट इसी कारण से मुलायम सिंह को मिले . चुनाव ख़त्म होने के बाद जिला रोज़गार कार्यालयों में बेरोजगार नौजवानों की भीड़ को जिसने भी देखा था उसे पक्का भरोसा था कि मुलायम सिंह यादव की पार्टी का स्पष्ट बहुमत आ रहा है . इसके अलावा मैंने हर दौर के चुनाव के पहले और बाद में जिला स्तर के पत्रकारों से बात करके सही स्थिति का जायज़ा लिया था . और लगभग हर सीट के ज़मीनी समीकरणों को समझा था शायद इसी लिए सही आकलन कर सका था .
Saturday, March 3, 2012
गुजरात में साझी आस्था के केंद्र भी तोड़े गए थे
शेष नारायण सिंह
दस साल पहले गुजरात में वली गुजराती की मज़ार पर बुलडोज़र चला दिया गया और उर्दू बोलने वालों को घेर घेर कर मारा गया था . हुआ यह था कि गोधरा में एक ट्रेन में कुछ कारसेवकों की दुर्भाग्यपूर्ण मौत हो गयी थी. अयोध्या से लौट रहे इन कारसेवकों की बोगी में आग लग गयी थी जिसमें उस डिब्बे में सवार सभी लोग मर गए थे.इस हादसे के बाद गुजरात के बड़े शहरों और कुछ गांवों में मुसलमानों को मौत के घाट उतार दिया गया था. गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी के लोगों को लगा था कि उस डिब्बे में सवार लोगों की हत्या में मुसलमानों का हाथ था . उनके सहयोगी संगठनों , विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंगदल वालों ने मुसलमानों से बदला लेने की योजना बनायी . जिसके बाद तो अहमदाबाद, वड़ोदरा, सूरत राजकोट आदि शहरोंमें मुसलमानों को तबाह करने की कोशिश की गयी , उनके घर जलाए गए, उनकी महिलाओं को रेप किया गया और घरों में घेर कर लोगों को जलाया गया. कांग्रेस के एक सांसद एहसान जाफरी को भी उसी दौरान गुलबर्गा सोसाइटी के उनके घर में जलाकर मारा डाला गया था. उसके बाद से ही गोधरा हादसे के बाद हुए नरसंहार में मारे गए लोगों को इंसाफ़ दिलाने की कोशिश चल रही है लेकिन अभी तक कोई ख़ास सफलता नहीं मिली है .
गोधरा हादसे के बाद गुजरात में हुए नरसंहार के दस साल पूरा होने के बाद आज एक बार वे ज़ख्म फिर ताज़ा हो गए हैं .इस बीच नरेंद्र मोदी और उनके साथियों ने कोई मौक़ा भी नहीं दिया कि उन ज़ख्मों पर किसी तरह का मरहम लगाया जा सके. उनकी पार्टी के सभी नेता यही कहते रहे कि २००२ के बाद गुजरात में बहुत विकास हुआ है इसलिए उस नर संहार की बात नहीं की जानी चाहिए . जिसने भी उन भयानक दौर की बात उठायी उसे धमकाया गया और कुछ लोगों को तो फर्जी मुठभेड़ में मार भी दिया गया. अब ताज़ा तर्क यह दिया जा रहा है कि मीडिया ने गुजरात नरसंहार को ज्यादा तूल दे दिया वरना बात इतनी बड़ी नहीं थी. यह भी तर्क सुनने में आ रहा है कि गुजरात के २००२ नरसंहार के बाद वहां कोई दंगा नहीं हुआ. ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी के साथियों की इच्छा है कि देश और समाज यह मान ले कि गुजरात के विकास के लिए २००२ के नरसंहार का होना बहुत ज़रूरी था. कुछ लोग यह भी तर्क देते पाए जा रहे हैं कि २००२ के बाद नरेंद्र मोदी ने बहुत तरक्की की है इसलिए उनके २००२ वाले अपराध को भूल जाना चाहिए और उन्हें माफ़ कर देना चाहिए .
गुजरात सरकार और उसके मुख्यमंत्री के मीडिया और राजनीति में मौजूद साथियों के इस दावे में कोई दम नहीं है कि गुजरात में २००२ के बाद दंगे नहीं हुए . गुजरात में २००२ के नर संहार के पीड़ितों को इंसाफ़ दिलाने की मुहिम में जुटी मानवाधिकार कार्यकर्ता, शबनम हाशमी का कहना है कि गुजरात में २००२ के बाद कई दंगे हुए हैं . २००५ में बडौदा में दंगा हुआ था, सितम्बर २००७ में सूरत जिले के कोसाड़ी गाँव में जो दंगा हुआ था उसके बाद आस पास के पांच गाँव जला दिए गए थे .सच्चाई यह है कि २००२ के बाद मुसलमान गुजरात में दहशत के साए में ज़िंदगी बसर करने के लिए मजबूर है . इसका नामूना यह है कि डांग जिले के एक गाँव ,नंदनपड़ा में २००९ के आस पास वी एच पी के कुछ लोग गए और उनको धमकाया कि अपना धर्म छोड़कर हिन्दू बन जाओ . अगर ऐसा न हुआ तो मार डाले जाओगे. अहमदाबाद और अन्य बड़े शहरों के पास ऐसे करीब ६ कब्रिस्तान हैं जिन पर क़ब्ज़ा करके सड़कें बना दी गयी हैं . और इन सारी बातों की कहीं कोई सुनवाई नहीं हैं . हो सकता है कि मुसलमान इतने दबे कुचले महसूस करने के लिए मजबूर कर दिए गए हों कि वे अब हर तरह के अत्याचार के खिलाफ मुंह खोलने की हिम्मत ही न कर पाते हों . गुजरात में पिछले दस साल से दंगे न होने की बात को और भी गलत साबित करने के लिए हजात कैडर के ही आला पुलिस अफसर संजीव भट्ट के हवाले से बताया जा सकता है . .उनका दावा है कि १९९३ के बाद गुजरात में कोई दंगा नहीं हुआ था लेकिन २००२ में इतना बड़ा नरसंहार किया गया. संजीव भट्ट गुजरात २००२ के समर्थकों के एक और दावे की भी धज्जियां उड़ा देते हैं . उनका कहना है कि गुजरात में हमेशा से ही विकास होता रहा है इसलिए नरेंद्र मोदी और उनके साथियों का २००२ के बाद राज्य में बहुत तरक्की होने वाला तर्क भी बेमतलब साबित हो जाता है .
दुनिया भर में माना जाता है कि २००२ का गुजरात का नरसंहार मानवता पर कलंक है. उस कलंक को धोने का तरीका यह नहीं है कि उसे भूल जाया जाए. और अपराधियों को माफ़ कर दिया जाए . उस कलंक को धोने का तरीका यह है कि उस नर संहार के दोषियों को कानूनी तरीके से सज़ा दी जाए और इंसाफ़ की प्रक्रिया में पड़ने वाले रोड़ों को ख़त्म किया जाए. इस देश की सुप्रीम कोर्ट ने यह सुनिश्चित किया है कि गुजरात २००२ के अपराधियों को कानून के दायरे में ज़रूर लाया जाएगा.जहां तक इस देश के आम आदमी का सवाल है वह कभी भी गुजरात २००२ के अपराधियों को सम्मान का जीवन नहीं हासिल करने देगा. गुजरात २००२ के दस साल पूरा होने पर देश में जगह जगह सभ्य समाज के लोग इकट्ठा हुए औरत उन्होंने संकल्प लिया कि यह देश नरसंहार के अपराधियों को कभी माफ़ नहीं करेगा. अहमदाबाद में कई संगठनों के लोगों ने फरवरी के अंतिम हफ्ते में कई आयोजन किये और आने वाली नस्लों को आगाह किया कि कहीं कोई गाफिल न रह जाए और भविष्य में २००२ जैसा नर संहार दुबारा न हो . लखनऊ में शान्ति,सद्भाव और लोकतंत्र की भावना को जिंदा रखने के लिए ज़रूरी साझी विरासत के विषय पर हफ्ते भर का आयोजन किया गया. इंस्टीटयूट फार सोशल डेमोक्रेसी नाम के संगठन ने इस कार्यक्रम का आयोजन किया . इंस्टीटयूट फार सोशल डेमोक्रेसी के निदेशक खुर्शीद अनवर का कहना है कि गुजरात २००२ केवल एक नरसंहार नहीं था. वह दरअसल फासिस्ट ताक़तों का वह खेल था जिसके तहत उन्होंने हमारी संस्कृति और हमारी साझी विरासत को जोड़ने वाले पुलों को ही तबाह करने की कोशिश की थी. खुर्शीद अनवर का दावा है जो लोग २००२ में गुजरात में आतंक का राज कायम करने में सफल हुए थे वे सिर्फ मुसलमानों को नहीं मार रहे थे . फरवरी मार्च २००२ के उन काली रातों को गुजरात में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच स्थायी खाईं बनाने की साज़िश पर भी काम हुआ था. उस दौर में वहां २६ मंदिर,३६ मदरसे,१८६ मस्जिदें तो जलाई ही गयी थीं, २६८ ऐसे स्थान भी आग के हवाले कर दिए गए थे जो हिन्दू और मुसलमान ,दोनों के ही आस्था के केंद्र थे. इसके अलावा गुजरात की साझा विरासत के महान फ़कीर वली गुजराती की मजार को भी ज़मींदोज़ कर दिया गया था और आज उस जगह के ऊपर से एक सड़क गुजरती है . ज़ाहिर है यह कुछ मुसलमानों को मार डालने और उनके कारोबार को तबाह करने भर की साज़िश नहीं थी, वास्तव में यह उस संस्कृति को ही तबाह करने की साज़िश थे जसकी वजह से इस देश में हर धर्म और वर्ग का आदमी साथ साथ रहता रहा है . इसी कार्यक्रम में शामिल वरिष्ठ पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज का कहना है कि गुजरात २००२ को भारतीय जनता ने हमेशा हिकारत के नज़र से देखा है . आतंक फैलाने वालों की कोशिश थी कि मुसलमानों के प्रति नफरत फैलाई जाए लेकिन ऐसा नहीं हो सका . देश की सिनेमा देखने वाली अवाम ने अपनी तरह से उसका जवाब दिया . भारत की फ़िल्में भारत की अवाम की पसंद या नापसंद जानने का सबसे बड़ा बैरोमीटर होती हैं और वहां नज़र डालें तो समझ में आ जाता है कि भारत की जनता ने फिरकापरस्तों को अपना जवाब दे दिया है. आज हिन्दी फिल्मों के सबसे लोकप्रिय हीरो मुसलमान हैं. २००२ के पहले जो फ़िल्में बनती थीं उनमें आम तौर पर जिस पात्र की मुख्य भूमिका होती थी वह पात्र मुसलमान नहीं होता था , वह हमेशा ही सहनायक के रूप में आता था लेकिन २००२ के बाद ऐसी कई हिट फ़िल्में बनी हैं जिसमें हीरो मुसलमान है . २००२ के नर संहार को विषय बनाकर जो फ़िल्में बनायी गयीं वे भी हिट रही हैं . भारतीय अवाम का यह रुख भी फासिस्ट ताक़तों के मुंह पर तमाचा हैं . पाकिस्तान के प्रति नफरत का अभियान चलाने की फासिस्ट ताक़तों की कोशिश भी बेकार गयी है .भारत में पाकिस्तानी फ़िल्मी कलाकार बहुत ही लोकप्रिय हो रहे हैं .पाकिस्तानी कलाकार भारत में अब सम्मान पा रहे हैं . इस हफ्ते पाकिस्तानी फ़िल्मी अभिनेता अली ज़फर के एफिल्म रिलीज़ हि रही है जिसके बहुत ही सफल रहने की संभावना है .
२००२ से सबक लेने और हमारी एकता को मुक़म्मल रखने के उद्देश्य से ४ मार्च को दिल्ली के मावलंकर हाल के मैदान में एक बड़े कार्यक्रम का आयोजन किया गया है .जहाँ साझी विरासत की बुनियाद पर हमारी एकता को मज़बूत बनाने की कोशिश जायेगी.इस कारय्क्रम्में बहुत नामी कलाकार और दिल्ली की जनता शामिल हो रही है . ज़ाहिर है यह देश गुजरात नरसंहार के शिकार हुए लोगों को तो वापस नहीं ला सकता लेकिन एक बात पक्की है कि भारत की जनता दुबारा गुजरात के नरसंहार को कहीं भी दोहराए जाने की मौक़ा नहीं देगी
दस साल पहले गुजरात में वली गुजराती की मज़ार पर बुलडोज़र चला दिया गया और उर्दू बोलने वालों को घेर घेर कर मारा गया था . हुआ यह था कि गोधरा में एक ट्रेन में कुछ कारसेवकों की दुर्भाग्यपूर्ण मौत हो गयी थी. अयोध्या से लौट रहे इन कारसेवकों की बोगी में आग लग गयी थी जिसमें उस डिब्बे में सवार सभी लोग मर गए थे.इस हादसे के बाद गुजरात के बड़े शहरों और कुछ गांवों में मुसलमानों को मौत के घाट उतार दिया गया था. गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी के लोगों को लगा था कि उस डिब्बे में सवार लोगों की हत्या में मुसलमानों का हाथ था . उनके सहयोगी संगठनों , विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंगदल वालों ने मुसलमानों से बदला लेने की योजना बनायी . जिसके बाद तो अहमदाबाद, वड़ोदरा, सूरत राजकोट आदि शहरोंमें मुसलमानों को तबाह करने की कोशिश की गयी , उनके घर जलाए गए, उनकी महिलाओं को रेप किया गया और घरों में घेर कर लोगों को जलाया गया. कांग्रेस के एक सांसद एहसान जाफरी को भी उसी दौरान गुलबर्गा सोसाइटी के उनके घर में जलाकर मारा डाला गया था. उसके बाद से ही गोधरा हादसे के बाद हुए नरसंहार में मारे गए लोगों को इंसाफ़ दिलाने की कोशिश चल रही है लेकिन अभी तक कोई ख़ास सफलता नहीं मिली है .
गोधरा हादसे के बाद गुजरात में हुए नरसंहार के दस साल पूरा होने के बाद आज एक बार वे ज़ख्म फिर ताज़ा हो गए हैं .इस बीच नरेंद्र मोदी और उनके साथियों ने कोई मौक़ा भी नहीं दिया कि उन ज़ख्मों पर किसी तरह का मरहम लगाया जा सके. उनकी पार्टी के सभी नेता यही कहते रहे कि २००२ के बाद गुजरात में बहुत विकास हुआ है इसलिए उस नर संहार की बात नहीं की जानी चाहिए . जिसने भी उन भयानक दौर की बात उठायी उसे धमकाया गया और कुछ लोगों को तो फर्जी मुठभेड़ में मार भी दिया गया. अब ताज़ा तर्क यह दिया जा रहा है कि मीडिया ने गुजरात नरसंहार को ज्यादा तूल दे दिया वरना बात इतनी बड़ी नहीं थी. यह भी तर्क सुनने में आ रहा है कि गुजरात के २००२ नरसंहार के बाद वहां कोई दंगा नहीं हुआ. ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी के साथियों की इच्छा है कि देश और समाज यह मान ले कि गुजरात के विकास के लिए २००२ के नरसंहार का होना बहुत ज़रूरी था. कुछ लोग यह भी तर्क देते पाए जा रहे हैं कि २००२ के बाद नरेंद्र मोदी ने बहुत तरक्की की है इसलिए उनके २००२ वाले अपराध को भूल जाना चाहिए और उन्हें माफ़ कर देना चाहिए .
गुजरात सरकार और उसके मुख्यमंत्री के मीडिया और राजनीति में मौजूद साथियों के इस दावे में कोई दम नहीं है कि गुजरात में २००२ के बाद दंगे नहीं हुए . गुजरात में २००२ के नर संहार के पीड़ितों को इंसाफ़ दिलाने की मुहिम में जुटी मानवाधिकार कार्यकर्ता, शबनम हाशमी का कहना है कि गुजरात में २००२ के बाद कई दंगे हुए हैं . २००५ में बडौदा में दंगा हुआ था, सितम्बर २००७ में सूरत जिले के कोसाड़ी गाँव में जो दंगा हुआ था उसके बाद आस पास के पांच गाँव जला दिए गए थे .सच्चाई यह है कि २००२ के बाद मुसलमान गुजरात में दहशत के साए में ज़िंदगी बसर करने के लिए मजबूर है . इसका नामूना यह है कि डांग जिले के एक गाँव ,नंदनपड़ा में २००९ के आस पास वी एच पी के कुछ लोग गए और उनको धमकाया कि अपना धर्म छोड़कर हिन्दू बन जाओ . अगर ऐसा न हुआ तो मार डाले जाओगे. अहमदाबाद और अन्य बड़े शहरों के पास ऐसे करीब ६ कब्रिस्तान हैं जिन पर क़ब्ज़ा करके सड़कें बना दी गयी हैं . और इन सारी बातों की कहीं कोई सुनवाई नहीं हैं . हो सकता है कि मुसलमान इतने दबे कुचले महसूस करने के लिए मजबूर कर दिए गए हों कि वे अब हर तरह के अत्याचार के खिलाफ मुंह खोलने की हिम्मत ही न कर पाते हों . गुजरात में पिछले दस साल से दंगे न होने की बात को और भी गलत साबित करने के लिए हजात कैडर के ही आला पुलिस अफसर संजीव भट्ट के हवाले से बताया जा सकता है . .उनका दावा है कि १९९३ के बाद गुजरात में कोई दंगा नहीं हुआ था लेकिन २००२ में इतना बड़ा नरसंहार किया गया. संजीव भट्ट गुजरात २००२ के समर्थकों के एक और दावे की भी धज्जियां उड़ा देते हैं . उनका कहना है कि गुजरात में हमेशा से ही विकास होता रहा है इसलिए नरेंद्र मोदी और उनके साथियों का २००२ के बाद राज्य में बहुत तरक्की होने वाला तर्क भी बेमतलब साबित हो जाता है .
दुनिया भर में माना जाता है कि २००२ का गुजरात का नरसंहार मानवता पर कलंक है. उस कलंक को धोने का तरीका यह नहीं है कि उसे भूल जाया जाए. और अपराधियों को माफ़ कर दिया जाए . उस कलंक को धोने का तरीका यह है कि उस नर संहार के दोषियों को कानूनी तरीके से सज़ा दी जाए और इंसाफ़ की प्रक्रिया में पड़ने वाले रोड़ों को ख़त्म किया जाए. इस देश की सुप्रीम कोर्ट ने यह सुनिश्चित किया है कि गुजरात २००२ के अपराधियों को कानून के दायरे में ज़रूर लाया जाएगा.जहां तक इस देश के आम आदमी का सवाल है वह कभी भी गुजरात २००२ के अपराधियों को सम्मान का जीवन नहीं हासिल करने देगा. गुजरात २००२ के दस साल पूरा होने पर देश में जगह जगह सभ्य समाज के लोग इकट्ठा हुए औरत उन्होंने संकल्प लिया कि यह देश नरसंहार के अपराधियों को कभी माफ़ नहीं करेगा. अहमदाबाद में कई संगठनों के लोगों ने फरवरी के अंतिम हफ्ते में कई आयोजन किये और आने वाली नस्लों को आगाह किया कि कहीं कोई गाफिल न रह जाए और भविष्य में २००२ जैसा नर संहार दुबारा न हो . लखनऊ में शान्ति,सद्भाव और लोकतंत्र की भावना को जिंदा रखने के लिए ज़रूरी साझी विरासत के विषय पर हफ्ते भर का आयोजन किया गया. इंस्टीटयूट फार सोशल डेमोक्रेसी नाम के संगठन ने इस कार्यक्रम का आयोजन किया . इंस्टीटयूट फार सोशल डेमोक्रेसी के निदेशक खुर्शीद अनवर का कहना है कि गुजरात २००२ केवल एक नरसंहार नहीं था. वह दरअसल फासिस्ट ताक़तों का वह खेल था जिसके तहत उन्होंने हमारी संस्कृति और हमारी साझी विरासत को जोड़ने वाले पुलों को ही तबाह करने की कोशिश की थी. खुर्शीद अनवर का दावा है जो लोग २००२ में गुजरात में आतंक का राज कायम करने में सफल हुए थे वे सिर्फ मुसलमानों को नहीं मार रहे थे . फरवरी मार्च २००२ के उन काली रातों को गुजरात में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच स्थायी खाईं बनाने की साज़िश पर भी काम हुआ था. उस दौर में वहां २६ मंदिर,३६ मदरसे,१८६ मस्जिदें तो जलाई ही गयी थीं, २६८ ऐसे स्थान भी आग के हवाले कर दिए गए थे जो हिन्दू और मुसलमान ,दोनों के ही आस्था के केंद्र थे. इसके अलावा गुजरात की साझा विरासत के महान फ़कीर वली गुजराती की मजार को भी ज़मींदोज़ कर दिया गया था और आज उस जगह के ऊपर से एक सड़क गुजरती है . ज़ाहिर है यह कुछ मुसलमानों को मार डालने और उनके कारोबार को तबाह करने भर की साज़िश नहीं थी, वास्तव में यह उस संस्कृति को ही तबाह करने की साज़िश थे जसकी वजह से इस देश में हर धर्म और वर्ग का आदमी साथ साथ रहता रहा है . इसी कार्यक्रम में शामिल वरिष्ठ पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज का कहना है कि गुजरात २००२ को भारतीय जनता ने हमेशा हिकारत के नज़र से देखा है . आतंक फैलाने वालों की कोशिश थी कि मुसलमानों के प्रति नफरत फैलाई जाए लेकिन ऐसा नहीं हो सका . देश की सिनेमा देखने वाली अवाम ने अपनी तरह से उसका जवाब दिया . भारत की फ़िल्में भारत की अवाम की पसंद या नापसंद जानने का सबसे बड़ा बैरोमीटर होती हैं और वहां नज़र डालें तो समझ में आ जाता है कि भारत की जनता ने फिरकापरस्तों को अपना जवाब दे दिया है. आज हिन्दी फिल्मों के सबसे लोकप्रिय हीरो मुसलमान हैं. २००२ के पहले जो फ़िल्में बनती थीं उनमें आम तौर पर जिस पात्र की मुख्य भूमिका होती थी वह पात्र मुसलमान नहीं होता था , वह हमेशा ही सहनायक के रूप में आता था लेकिन २००२ के बाद ऐसी कई हिट फ़िल्में बनी हैं जिसमें हीरो मुसलमान है . २००२ के नर संहार को विषय बनाकर जो फ़िल्में बनायी गयीं वे भी हिट रही हैं . भारतीय अवाम का यह रुख भी फासिस्ट ताक़तों के मुंह पर तमाचा हैं . पाकिस्तान के प्रति नफरत का अभियान चलाने की फासिस्ट ताक़तों की कोशिश भी बेकार गयी है .भारत में पाकिस्तानी फ़िल्मी कलाकार बहुत ही लोकप्रिय हो रहे हैं .पाकिस्तानी कलाकार भारत में अब सम्मान पा रहे हैं . इस हफ्ते पाकिस्तानी फ़िल्मी अभिनेता अली ज़फर के एफिल्म रिलीज़ हि रही है जिसके बहुत ही सफल रहने की संभावना है .
२००२ से सबक लेने और हमारी एकता को मुक़म्मल रखने के उद्देश्य से ४ मार्च को दिल्ली के मावलंकर हाल के मैदान में एक बड़े कार्यक्रम का आयोजन किया गया है .जहाँ साझी विरासत की बुनियाद पर हमारी एकता को मज़बूत बनाने की कोशिश जायेगी.इस कारय्क्रम्में बहुत नामी कलाकार और दिल्ली की जनता शामिल हो रही है . ज़ाहिर है यह देश गुजरात नरसंहार के शिकार हुए लोगों को तो वापस नहीं ला सकता लेकिन एक बात पक्की है कि भारत की जनता दुबारा गुजरात के नरसंहार को कहीं भी दोहराए जाने की मौक़ा नहीं देगी
Wednesday, February 29, 2012
पुलिस का काम अब कानून व्यवस्था ही होगा, जाँच और मुक़दमे कोई और चलाएगा
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली,२८ फरवरी. अपराध की जांच और अभियुक्तों पर मुक़दमा चलाने की प्रक्रिया में बहुत बड़े परिवर्तन की संभावना है . केंद्र सरकार ने तय किया है कि अब अपराध की जांच करने वाले लोग जांच करके मामले को मुक़दमा चलाने वाले विभाग को सौंप देगें. अब पुलिस वाले केवल कानून वयवस्था देखेगें और अपराध की जांच और अभियोजन के लिए अलग विभाग बनाया जायेगा . राज्य सकारों से केंद्र सरकार इस सम्बन्ध में लगातार संपर्क में है .गृह मंत्रालय ने कहा है कि इस सुधार के लिए विधि आयोग से अनुरोध किया किया गया है क वह जल्द से जल्द प्रक्रिया को दुरुस्त करने के लिए अपने सुझाव दे. सरकार का दावा है कि ऐसा होने के बाद इंसाफ़ मिलने में होने वाली देरी को बहुत ही कम किया जा सकेगा.
केंद्र सरकार क्रिनिनल प्रोसीजर कोड में परिवर्तन की बात बहुत दिनों से कर रही है . इस सन्दर्भ में २०१० में एक बिल भी संसद में लाया गया था जिसे गृह मंत्रालय का काम देखने वाली संसद की स्थायी समिति को विचार करने के लिए भेज दिया गया था, स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट दे दी है .रिपोर्ट में कहा गया है कि अपराधिक न्याय की प्रक्रिया की बड़े पैमाने पर समीक्षा की जानी चाहिए और उस बात को ध्यान में रखते हुए संसद में एक नया बिल लाना चाहिए .केंद्र सरकार की मंशा है कि आपराधिक न्याय से सम्बंधित सभी कानूनों की समीक्षा की जानी चाहिए . भारतीय दंड संहिता, साक्ष्य अधिनियम , क्रिमिनल प्रोसीजर कोड सहित सभी कानूनों में बदलाव की ज़रूरत है . अपराध और न्याय के प्रशासन के बारे में विधि आयोग की सिफारिशें अभी नहीं मिली हैं
अपने मंत्रालय से सम्बद्ध संसद सदस्यों की सलाहकार समिति के बैठक के बाद गृहमंत्री पी चिदंबरम ने बताया कि केंद्र सरकार की इच्छा है कि समय के साथ साथ तकनीक की प्रगति के सन्दर्भ में भी साक्ष्य अधिनियम में बद्लाव की ज़रुरत है . इस ज़रुरत को ध्यान में रख कर ही अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधान मंत्रित्व काल में सन २००० में गृह मंत्रालय ने आपराधिक न्याय व्यवस्था में सुधार के लिए कर्नाटक हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया . इस कमेटी से केंद्र सरकार ने सुझाव मांगे थे. कमेटी ने मार्च २००३ में रिपोर्ट दे दिया था . अपराध की जांच और उस से समबन्धित विषय राज्य सरकारों के अधीन होते हैं इसलिए इन सिफारिशों पर राज्य सरकारों की मर्जी के बिना कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता था . इसीलिए कमेटी की रिपोर्ट को राज्य सरकारों के पास भेज दिया गया था.विधि आयोग की १९७वी रिपोर्ट भी मिल चुकी है . केंद्र सरकार ने इस रिपर्ट पर भी राज्यों से उनकी राय माँगी है . .
विधि आयोग ने अपराध के प्रशासन की दिशा में बड़े बदलाव की बात की है . सुझाव दिया है कि अपराध की जांच के काम को पुलिस के मौजूदा ढाँचे से बिकुल अलग कर दिया जाना चाहिए . कानून व्यवस्था संभालने में ही पुलिस का सारा समय लग जाता है इसलिए अपराध की जांच का काम एक अलग विभाग को दे दिया जाना चाहिए . यह भी पुलिस की तरह का विभाग होगा लेकिन इस विभाग के काम का दायरा तब शुरू होगा जब अपराध हो चुका होगा.अपराध को होने से रोकना और चौकसी रखना शुद्ध रूप से पुलिस के हाथ में होना चाहिए . जांच के काम में सुधार के लिए भी बहुत सारे तरीके सुझाए गए हैं .इन सुझावों में यह भी बताया गया है कि फर्जी मुक़दमे दर्ज करवाने वालों के खिलाफ भी सख्त कार्रवाई होनी चाहिए
नई दिल्ली,२८ फरवरी. अपराध की जांच और अभियुक्तों पर मुक़दमा चलाने की प्रक्रिया में बहुत बड़े परिवर्तन की संभावना है . केंद्र सरकार ने तय किया है कि अब अपराध की जांच करने वाले लोग जांच करके मामले को मुक़दमा चलाने वाले विभाग को सौंप देगें. अब पुलिस वाले केवल कानून वयवस्था देखेगें और अपराध की जांच और अभियोजन के लिए अलग विभाग बनाया जायेगा . राज्य सकारों से केंद्र सरकार इस सम्बन्ध में लगातार संपर्क में है .गृह मंत्रालय ने कहा है कि इस सुधार के लिए विधि आयोग से अनुरोध किया किया गया है क वह जल्द से जल्द प्रक्रिया को दुरुस्त करने के लिए अपने सुझाव दे. सरकार का दावा है कि ऐसा होने के बाद इंसाफ़ मिलने में होने वाली देरी को बहुत ही कम किया जा सकेगा.
केंद्र सरकार क्रिनिनल प्रोसीजर कोड में परिवर्तन की बात बहुत दिनों से कर रही है . इस सन्दर्भ में २०१० में एक बिल भी संसद में लाया गया था जिसे गृह मंत्रालय का काम देखने वाली संसद की स्थायी समिति को विचार करने के लिए भेज दिया गया था, स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट दे दी है .रिपोर्ट में कहा गया है कि अपराधिक न्याय की प्रक्रिया की बड़े पैमाने पर समीक्षा की जानी चाहिए और उस बात को ध्यान में रखते हुए संसद में एक नया बिल लाना चाहिए .केंद्र सरकार की मंशा है कि आपराधिक न्याय से सम्बंधित सभी कानूनों की समीक्षा की जानी चाहिए . भारतीय दंड संहिता, साक्ष्य अधिनियम , क्रिमिनल प्रोसीजर कोड सहित सभी कानूनों में बदलाव की ज़रूरत है . अपराध और न्याय के प्रशासन के बारे में विधि आयोग की सिफारिशें अभी नहीं मिली हैं
अपने मंत्रालय से सम्बद्ध संसद सदस्यों की सलाहकार समिति के बैठक के बाद गृहमंत्री पी चिदंबरम ने बताया कि केंद्र सरकार की इच्छा है कि समय के साथ साथ तकनीक की प्रगति के सन्दर्भ में भी साक्ष्य अधिनियम में बद्लाव की ज़रुरत है . इस ज़रुरत को ध्यान में रख कर ही अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधान मंत्रित्व काल में सन २००० में गृह मंत्रालय ने आपराधिक न्याय व्यवस्था में सुधार के लिए कर्नाटक हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया . इस कमेटी से केंद्र सरकार ने सुझाव मांगे थे. कमेटी ने मार्च २००३ में रिपोर्ट दे दिया था . अपराध की जांच और उस से समबन्धित विषय राज्य सरकारों के अधीन होते हैं इसलिए इन सिफारिशों पर राज्य सरकारों की मर्जी के बिना कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता था . इसीलिए कमेटी की रिपोर्ट को राज्य सरकारों के पास भेज दिया गया था.विधि आयोग की १९७वी रिपोर्ट भी मिल चुकी है . केंद्र सरकार ने इस रिपर्ट पर भी राज्यों से उनकी राय माँगी है . .
विधि आयोग ने अपराध के प्रशासन की दिशा में बड़े बदलाव की बात की है . सुझाव दिया है कि अपराध की जांच के काम को पुलिस के मौजूदा ढाँचे से बिकुल अलग कर दिया जाना चाहिए . कानून व्यवस्था संभालने में ही पुलिस का सारा समय लग जाता है इसलिए अपराध की जांच का काम एक अलग विभाग को दे दिया जाना चाहिए . यह भी पुलिस की तरह का विभाग होगा लेकिन इस विभाग के काम का दायरा तब शुरू होगा जब अपराध हो चुका होगा.अपराध को होने से रोकना और चौकसी रखना शुद्ध रूप से पुलिस के हाथ में होना चाहिए . जांच के काम में सुधार के लिए भी बहुत सारे तरीके सुझाए गए हैं .इन सुझावों में यह भी बताया गया है कि फर्जी मुक़दमे दर्ज करवाने वालों के खिलाफ भी सख्त कार्रवाई होनी चाहिए
जनता की सेवा में बहुत मेवा है . उर्फ़ कैसे कमाए जाते हैं करोड़ों रूपये
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली,२७ फरवरी. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के सातवें दौर के उम्मीदवारों में भी हर दौर ही तरह अपराधी भी खूब हैं और करोडपति भी खूब. नैशनल इलेक्शन वाच और लोकतांत्रिक सुधार के काम में लगी संस्थाओं के परिश्रम से ऐसे आंकडे लगातार सामने आ रहे हैं जो आम आदमी को अपने उम्मीदवारों के बारे में बेहतर जानकारी देते रहेगें. इस दौर के भी आंकड़े आ गए हैं . पिछले दौर में जिन लोगों ने चुनाव लड़ा था उनकी संपत्ति में खूब इजाफा हुआ है . सातवें दौर के उन ४७ उम्मीदवारों की संपत्ति का विश्लेषण किया गया है जो इस बार भी चुनाव लड़ रहे हैं . इन ४७ उम्मीदवारों की औसत संपत्ति पिछली बार १ कारोड़ १३ लाख रूपये की थी जबकि इन्हीं उम्मीदवारों की संपत्ति इस दौर में ४ करोड़ ७४ लाख रूपये हो गयी है . इस का मतलब यह हुआ कि पिछले ५ वर्षों में इनकी संपत्ति की विकास की दर ३२० प्रतिशत रही है .
सबसे संपन्न उम्मीदवार रामपुर की स्वार सीट से कांग्रेस के उम्मीदवार नवाब काजिम अली खां हैं जिनकी संपत्ति इस बार ५६ करोड़ ८९ लाख रूपये हैं जबकि पिछली बार इनकी संपत्ति ९ करोड़ १८ लाख रूपये थी. यानी पिछले ५ वर्षों में इनकी संपत्ति में ४७ करोड़ ७० लाख रूपये का इजाफा हुआ है . पिछली बार यह बी एस पी से लड़े थे.दूसरे नंबर पर सहसवान क्षेत्र के धर्म पाल यादव हैं जिनकी संपत्ति में भी भारी वृद्धि हुई है . २००७ में इनके पास १४ करोड़ ४२ लाख रूपये थे जबकि इस बार इन्होने अपने हलफनामे में ४७ करोड़ ७२ लाख रूपये की संपत्ति का ऐलान किया है . अजित सिंह की पार्टी के उम्मीदवार शाहनवाज़ राना भी खूब फले फूले हैं . २००७ में इनके पास २ करोड़ २ लाख रूपये थे जबकि इस बार यह १७ करोड़ ९९ लाख के मालिक हैं .
सबसे दिलचस्प केस बी एस पी के दातागंज के उम्मीदवार सिनोद कुमार शाक्य का है . २००७ में इनके पास केवल ९ लाख ६० हज़ार रूपये थे जबकि इस बार इन्होने हलफनामा दिया है कि इनके पास ३ करोड़ १ लाख रूपये की संपति है . पिछले पांच वर्षों में इनकी दौलत में ३०४६ प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि निघासन क्षेत्र के उम्मीदवार, समाजवादी पार्टी के आर ए उस्मानी की संपत्ति में १५०० प्रतिशत की वृद्धि हुई .इनके पास २००७ में ९ लाख २० हज़ार रूपये थे जबकि इस बार इनके कब्जे में १ करोड़ ४७ लाख रूपये की दौलत है. समाजवादी पार्टी के ही महबूब अली खां भी खूब कमाई करने में सफल रहे हैं .इनकी दौलत भी १३९१ प्रतिशत की वृद्धि हुई है .
उम्मीदवारों के हलफनामों को देखने से लगता है कि नए उम्मीद्वार तो कुछ ऐसे हैं जिनके पास बहुत कम धन है लेकिन जो एक बार लड़ चुका है या विधायक रह चुका है वह करोड़पति ज़रूर हो गया है .नैशनल इलेक्शन वाच की कोशिश है कि यह जानकारी जो उम्मीदवारों ने अपना परचा दाखिल करते समय चुनाव अधिकारी के पास जमा किया है उसे मीडिया के ज़रिये आम आदमी तक पंहुचाया जाय जिस से सबको मालूम हो सके कि जनता की सेवा में कितना मेवा है .
नई दिल्ली,२७ फरवरी. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के सातवें दौर के उम्मीदवारों में भी हर दौर ही तरह अपराधी भी खूब हैं और करोडपति भी खूब. नैशनल इलेक्शन वाच और लोकतांत्रिक सुधार के काम में लगी संस्थाओं के परिश्रम से ऐसे आंकडे लगातार सामने आ रहे हैं जो आम आदमी को अपने उम्मीदवारों के बारे में बेहतर जानकारी देते रहेगें. इस दौर के भी आंकड़े आ गए हैं . पिछले दौर में जिन लोगों ने चुनाव लड़ा था उनकी संपत्ति में खूब इजाफा हुआ है . सातवें दौर के उन ४७ उम्मीदवारों की संपत्ति का विश्लेषण किया गया है जो इस बार भी चुनाव लड़ रहे हैं . इन ४७ उम्मीदवारों की औसत संपत्ति पिछली बार १ कारोड़ १३ लाख रूपये की थी जबकि इन्हीं उम्मीदवारों की संपत्ति इस दौर में ४ करोड़ ७४ लाख रूपये हो गयी है . इस का मतलब यह हुआ कि पिछले ५ वर्षों में इनकी संपत्ति की विकास की दर ३२० प्रतिशत रही है .
सबसे संपन्न उम्मीदवार रामपुर की स्वार सीट से कांग्रेस के उम्मीदवार नवाब काजिम अली खां हैं जिनकी संपत्ति इस बार ५६ करोड़ ८९ लाख रूपये हैं जबकि पिछली बार इनकी संपत्ति ९ करोड़ १८ लाख रूपये थी. यानी पिछले ५ वर्षों में इनकी संपत्ति में ४७ करोड़ ७० लाख रूपये का इजाफा हुआ है . पिछली बार यह बी एस पी से लड़े थे.दूसरे नंबर पर सहसवान क्षेत्र के धर्म पाल यादव हैं जिनकी संपत्ति में भी भारी वृद्धि हुई है . २००७ में इनके पास १४ करोड़ ४२ लाख रूपये थे जबकि इस बार इन्होने अपने हलफनामे में ४७ करोड़ ७२ लाख रूपये की संपत्ति का ऐलान किया है . अजित सिंह की पार्टी के उम्मीदवार शाहनवाज़ राना भी खूब फले फूले हैं . २००७ में इनके पास २ करोड़ २ लाख रूपये थे जबकि इस बार यह १७ करोड़ ९९ लाख के मालिक हैं .
सबसे दिलचस्प केस बी एस पी के दातागंज के उम्मीदवार सिनोद कुमार शाक्य का है . २००७ में इनके पास केवल ९ लाख ६० हज़ार रूपये थे जबकि इस बार इन्होने हलफनामा दिया है कि इनके पास ३ करोड़ १ लाख रूपये की संपति है . पिछले पांच वर्षों में इनकी दौलत में ३०४६ प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि निघासन क्षेत्र के उम्मीदवार, समाजवादी पार्टी के आर ए उस्मानी की संपत्ति में १५०० प्रतिशत की वृद्धि हुई .इनके पास २००७ में ९ लाख २० हज़ार रूपये थे जबकि इस बार इनके कब्जे में १ करोड़ ४७ लाख रूपये की दौलत है. समाजवादी पार्टी के ही महबूब अली खां भी खूब कमाई करने में सफल रहे हैं .इनकी दौलत भी १३९१ प्रतिशत की वृद्धि हुई है .
उम्मीदवारों के हलफनामों को देखने से लगता है कि नए उम्मीद्वार तो कुछ ऐसे हैं जिनके पास बहुत कम धन है लेकिन जो एक बार लड़ चुका है या विधायक रह चुका है वह करोड़पति ज़रूर हो गया है .नैशनल इलेक्शन वाच की कोशिश है कि यह जानकारी जो उम्मीदवारों ने अपना परचा दाखिल करते समय चुनाव अधिकारी के पास जमा किया है उसे मीडिया के ज़रिये आम आदमी तक पंहुचाया जाय जिस से सबको मालूम हो सके कि जनता की सेवा में कितना मेवा है .
उत्तर प्रदेश चुनाव के आख़िरी दौर में तय होगी सांप्रदायिक राजनीतिक की दशा दिशा
शेष नारायण सिंह
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के पांच चरण पूरे हो जाने के बाद चुनावी मुकाबला निर्णायक दौर में पंहुच गया है . शुरू के चार दौर में आम तौर पर मुकाबला समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच ही रहा, कहीं कहीं कांग्रेस या बीजेपी की मौजूदगी भी देखी गयी. दिलचस्प बात यह है कि नेहरू गांधी परिवार के मज़बूत किले रायबरेली और अमेठी में भी कांग्रेस अस्तित्व की लड़ाई जैसी हालत में नज़र आई .लेकिन पांचवें दौर में कांग्रेस और बीजेपी की मौजूदगी मुख्य मुकाबले में पंहुच गयी . छठे और सातवें दौर में भी मुख्य रूप से लड़ाई समाजवादी और बहुजन समाज पार्टी के बीच बतायी जा रही है लेकिन बीजेपी और कांग्रेस यहाँ कुछ चुनिन्दा सीटों पर जीत की स्थिति में हैं .ज़ाहिर है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश और रूहेलखंड में मुकाबले त्रिकोण नहीं रह जायेगें . यहाँ सभी मुकाबला चारों पार्टियों के बीच होने जा रहा है .यही वह इलाका है जहां मुसलमानों का वोट सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि पूर्वी उत्तर प्रदेश की तुलना में यहाँ मुसलमान ज्यादा संपन्न है . मुस्लिम प्रभाव का इलाका होने की वजह से राजनीतिक पार्टियां इसी इलाके में मुसलमानों को टिकट देने में भी प्रथमिकता दिखाती हैं .सपा, बसपा और कांग्रेस के बीच इसी इलाके में मुसलमानों का हमदर्द बनकर वोट मांगने की कोशिश साफ़ नज़र आती है . इसी इलाके में बसपा ने बहुत सारी सीटों पर मुसलिम उम्मीदवारों को टिकट दिया है . उसकी योजना है कि बसपा के बुनियादी दलित वोट के साथ अगर मुस्लिम वोट मिल जाएगा तो पार्टी की जीत सुनिश्चित हो जायेगी. लेकिन ऐसा होना इसलिए संभव नहीं नज़र आ रहा है कि कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने भी बड़ी संख्या में मुसलमानों को टिकट दिया है . उनको भी उम्मीद है कि उम्मीदवार की जाति के वोट उनकी तरफ खिंच जायेगें तो चुनाव जीतना आसान हो जाएगा. इस चक्कर में इस इलाके में बहुत सारी ऐसी सीटें हैं जहां बीजेपी के अलावा तीनों ही पार्टियों ने मुस्लिम उम्मीदवारों को उतार दिया है . पिछला इतिहास यह रहा है कि जहां सभी गैर बीजेपी पार्टियों ने मुसलमानों को टिकट दिया वहां बीजेपी का उम्मीदवार विजयी रहा . लेकिन इस बार के चुनाव में कुछ ख़ास बातें स्पष्ट लग रही हैं .इस बार जो सबसे अहम बात समझ में आ रही है वह यह कि बाहुबलियों का असर इस चुनाव पर उतना नहीं रहा जितना अब तक हुआ करता था. पूर्वी उत्तर प्रदेश में गुंडों की भूमिका राजनीति में वही होने वाली है जो १९८० के पहले हुआ करती थी, उन दिनों गुंडे चुनाव में खुद उम्मीदवार नहीं बनते थे बल्कि इलाके के राजनीतिक नेताओं को चुपचाप समर्थन किया करते थे. जब १९८० में संजय गांधी ने बाहुबलियों को बड़ी संख्या में टिकट दिया और वे जीत गए तो उनकी काट के लिए सभी पार्टियों ने गुंडों को टिकट देना शुरू कर दिया था ,नतीजा यह हुआ कि आज विधान सभा और लोक सभा में बहुत सारे ऐसे सदस्य मिल जायेगें जिनके ऊपर आपराधिक मामले चल रहे हैं .दूसरी अहम बात यह है कि इस बार जाति और धर्म की भूमिका भी काफी हद तक सीमित हो गयी है .चुनावी अभियान पर नज़र रख रहे लोगों को मालूम है कि उम्मीदवार की जाति का कोई खास असर इस बार नहीं रहेगा . इस बार लोग अपने हित का ध्यान रख रहे हैं . मसलन पूर्वी उत्तर प्रदेश में पिछले दो तीन वर्षों में एक नई पार्टी अस्तित्व में आई है . कुछ उपचुनावों में उसने वोट भी खूब बटोरे हैं .उसके बारे में कहा जाता है कि उसको शुरू करवाने में एक ऐसे व्यक्ति का हाथ था जो मुसलमानों के वोट में विभाजन चाहता था. . इस पार्टी ने कुछ रिटायर्ड आई ए एस अफसरों , पत्रकारों और बहुत सारे बाहुबलियों को अपने साथ शामिल भी कर लिया लेकिन चुनाव आभियान के दौरान इसके अपील मुसलमानों के बीच में वह नहीं लगी जिसकी उम्मीद इसके संस्थापकों ने की थी. मुसलमानों ने अब तक के दौर में आम तौर पर सेकुलर छवि के उमीदवारों को ही समर्थन दिया है .
उत्तर प्रदेश में मुसलमानो के वोट के दो दावेदार बहुत ही गंभीरता से लगे हुए हैं . कांग्रेस ने तो बाबरी मस्जिद के लगे दाग़ को पोंछकर अपने को मुस्लिम दोस्त के रूप में पेश करने की कोशिश की और काफी हद तक सफल भी हुई. ख़ास तौर से कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह और राहुल गांधी की कोशिशों का नतीजा है कि मुसलमान अब कांग्रेस को अछूत नहीं मानता .इस बार मुस्लिम वोटों के दावेदार मूल रूप से कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ही हैं . जहां तक बी एस पी का सवाल है मुसलमानों की नज़र में वह तीसरी प्राथमिकता की ही पार्टी रहती है . इसका करण यह है कि उत्तर प्रदेश में बी एस पी की नेता मायावती कई बार मुख्य मंत्री बनीं और २००७ के अलावा हर बार उनको गद्दी बीजेपी के समर्थन से ही मिली . इस बार भी आम धारणा यह बन चुकी है कि अगर मायावती को सरकार बनाने के लिए कुछ सीटें कम पडीं तो बीजेपी उनका समर्थन कर देगी .इसलिए मुसलमानों के बीच चर्चा करने पर जो तस्वीर सामने आ रही है वह यह है कि कौम इस बार कांग्रेस और समाजवादी पार्टी की ओर झुक रही है . यह बात पश्चिमी उत्तर प्रदेश और रूहेलखंड में इसलिए और भी अहम हो जाती है कि यहाँ गैर बीजेपी पार्टियों के बीच मुस्लिम वोटों के बंटवारे का मतलब यह है कि बीजेपी उम्मीदवार विजयी रहेगा . जब अजीत सिंह का बीजेपी से समझौता था तो उनकी बिरादरी लगभग पूरी तरह से बीजेपी को वोट देती थी लेकिन इस बार कांग्रेस के साथ अजीत सिंह के समझौते के कारण बड़ी संख्या में जाटों के वोट कांग्रेस को मिल रहे हैं. अजीत सिंह और उनके उम्मीदवारों के परम्परागत विरोधी गूजर समुदाय के वोट इस बार कहीं कहीं बीजेपी को मिल रहे हैं लेकिन आम तौर पर समाजवादी पार्टी की तरफ झुक रहे हैं . इस बार पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक नया ट्रेंड नज़र आ रहा है . पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हर जिले में कुछ इलाकों में त्यागी बिरादरी की बहुत बड़ी संख्या है . त्यागी बिरादारी के वोट अब तक बीजेपी को ही मिलते रहे हैं लेकिन इस बार एक अजीब बात देखने में आई . देवबंद, बिजनौर और मुरादाबाद के कुछ त्यागी नेताओं से बात करके पता लगा कि इस बार त्यागी वोट समाजवादी पार्टी के हिस्से में जा रहे हैं . यह बात अजीब लगी क्योंकि अब तक ऐसा कभी नहीं हुआ था. देवबंद के पास के एक गाँव ,जडोदा पांडा के प्रधान श्याम सिंह त्यागी से बात करने पर पता चला कि इस बार कई जिलों में त्यागी बिरादरी समाजवादी पार्टी की तरफ चली गयी है . उन्होंने बताया कि समाजवादी पार्टी के महासचिव प्रो. राम गोपाल यादव के कुछ प्रतिनिधि बिरादरी के बीच घूम रहे हैं . और वे बिरादरी को भरोसा दिला रहे हैं कि समाजवादी पार्टी के साथ जाने में उनकी भलाई है .पेशे से डाक्टर इन लोगों ने त्यागियों को समाजवादी पार्टी की तरफ मोड़ दिया है . श्याम सिंह ने बताया कि उनके गाँव में करीब ग्यारह हज़ार वोट हैं जिनमें दलितों के वोटों के अलावा लगभग सभी वोट समाजवादी पार्टी के पास जा रहे हैं .इस इलाके में किसानों के बीच मौजूदा सरकार से भी बहुत नाराज़गी है . खेती चौपट हो रही है क्योंकि बिजली बहुत कम मिलती है और खाद तो बहुत बड़े पैमाने पर ब्लैक हो रही है . ज़ाहिर है कि मौजूदा सरकार को हराने के लिए वोट देने वाले हर बिरादरी में हैं . समाजवादी पार्टी की कोशिश है कि वह आपने आपको सरकार विरोधी वोटों की इकलौती दावेदार के रूप में पेश कर दे. उस हालत में उसको बड़े पैमाने पार समर्थन मिलेगा . उसके लिए उसने कांग्रेस के खिलाफ भी प्रत्यक्ष और गुप्त अभियान चला रखा है . दिग्विजय सिंह और राहुल गांधी के खिलाफ भी अभियान चलाया जा रहा है . दिग्विजय सिंह को आर एस एस का समर्थक बताने की कोशिश भी समाजवादी पार्टी के कुछ समर्थक कर रहे हैं . लेकिन लगता है कि दिल्ली और लखनऊ में बैठ कर राजनीति करने वालों को इस बार ग्रामीण इलाकों का मतदाता गम्भीरता से नहीं ले रहा है .
उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव के अंतिम दो चरणों में निश्चित रूप से मुस्लिम मतदाताओं का रुझान नतीजे तय करेगा. अगर मुसलमान ने जाति और धर्म के नाम पर वोट दिया तो इस इलाके में बीजेपी को भी अच्छी सफलता मिल सकती है . लेकिन अब तक के संकेतों से साफ़ है कि मुस्लिम मतदाता इस बार भी बीजेपी को हराने के लिए मतदान करेगा. हालांकि बीजेपी ने मुसलमानों के घोषित विरोधियों नरेंद्र मोदी और वरुण गांधी को इस बार चुनाव से दूर रखा है लेकिन मीडिया की जागरूकता और हर जगह टी वी और अखबारों की मौजूदगी के कारण सब को मालूम है कि किस पार्टी की क्या रणनीति है . लेकिन यह तय है कि आख़री चरणों में मुसलमानों के वोट ही तय करेगें कि देश की भावी राजनीति की क्या दिशा होगी. अगर उत्तर प्रदेश में बीजेपी कमज़ोर हुई तो राजनीति से साम्प्रदायिक शक्तियों को बाहर करना आसान हो जाएगा लेकिन अगर अगर उत्तर प्रदेश की अगली सरकार में बीजेपी को कोई मुकाम मिल गया तो राज्य ही नहीं देश की साम्प्रदायिक शक्तियां मज़बूत होंगीं.
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के पांच चरण पूरे हो जाने के बाद चुनावी मुकाबला निर्णायक दौर में पंहुच गया है . शुरू के चार दौर में आम तौर पर मुकाबला समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच ही रहा, कहीं कहीं कांग्रेस या बीजेपी की मौजूदगी भी देखी गयी. दिलचस्प बात यह है कि नेहरू गांधी परिवार के मज़बूत किले रायबरेली और अमेठी में भी कांग्रेस अस्तित्व की लड़ाई जैसी हालत में नज़र आई .लेकिन पांचवें दौर में कांग्रेस और बीजेपी की मौजूदगी मुख्य मुकाबले में पंहुच गयी . छठे और सातवें दौर में भी मुख्य रूप से लड़ाई समाजवादी और बहुजन समाज पार्टी के बीच बतायी जा रही है लेकिन बीजेपी और कांग्रेस यहाँ कुछ चुनिन्दा सीटों पर जीत की स्थिति में हैं .ज़ाहिर है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश और रूहेलखंड में मुकाबले त्रिकोण नहीं रह जायेगें . यहाँ सभी मुकाबला चारों पार्टियों के बीच होने जा रहा है .यही वह इलाका है जहां मुसलमानों का वोट सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि पूर्वी उत्तर प्रदेश की तुलना में यहाँ मुसलमान ज्यादा संपन्न है . मुस्लिम प्रभाव का इलाका होने की वजह से राजनीतिक पार्टियां इसी इलाके में मुसलमानों को टिकट देने में भी प्रथमिकता दिखाती हैं .सपा, बसपा और कांग्रेस के बीच इसी इलाके में मुसलमानों का हमदर्द बनकर वोट मांगने की कोशिश साफ़ नज़र आती है . इसी इलाके में बसपा ने बहुत सारी सीटों पर मुसलिम उम्मीदवारों को टिकट दिया है . उसकी योजना है कि बसपा के बुनियादी दलित वोट के साथ अगर मुस्लिम वोट मिल जाएगा तो पार्टी की जीत सुनिश्चित हो जायेगी. लेकिन ऐसा होना इसलिए संभव नहीं नज़र आ रहा है कि कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने भी बड़ी संख्या में मुसलमानों को टिकट दिया है . उनको भी उम्मीद है कि उम्मीदवार की जाति के वोट उनकी तरफ खिंच जायेगें तो चुनाव जीतना आसान हो जाएगा. इस चक्कर में इस इलाके में बहुत सारी ऐसी सीटें हैं जहां बीजेपी के अलावा तीनों ही पार्टियों ने मुस्लिम उम्मीदवारों को उतार दिया है . पिछला इतिहास यह रहा है कि जहां सभी गैर बीजेपी पार्टियों ने मुसलमानों को टिकट दिया वहां बीजेपी का उम्मीदवार विजयी रहा . लेकिन इस बार के चुनाव में कुछ ख़ास बातें स्पष्ट लग रही हैं .इस बार जो सबसे अहम बात समझ में आ रही है वह यह कि बाहुबलियों का असर इस चुनाव पर उतना नहीं रहा जितना अब तक हुआ करता था. पूर्वी उत्तर प्रदेश में गुंडों की भूमिका राजनीति में वही होने वाली है जो १९८० के पहले हुआ करती थी, उन दिनों गुंडे चुनाव में खुद उम्मीदवार नहीं बनते थे बल्कि इलाके के राजनीतिक नेताओं को चुपचाप समर्थन किया करते थे. जब १९८० में संजय गांधी ने बाहुबलियों को बड़ी संख्या में टिकट दिया और वे जीत गए तो उनकी काट के लिए सभी पार्टियों ने गुंडों को टिकट देना शुरू कर दिया था ,नतीजा यह हुआ कि आज विधान सभा और लोक सभा में बहुत सारे ऐसे सदस्य मिल जायेगें जिनके ऊपर आपराधिक मामले चल रहे हैं .दूसरी अहम बात यह है कि इस बार जाति और धर्म की भूमिका भी काफी हद तक सीमित हो गयी है .चुनावी अभियान पर नज़र रख रहे लोगों को मालूम है कि उम्मीदवार की जाति का कोई खास असर इस बार नहीं रहेगा . इस बार लोग अपने हित का ध्यान रख रहे हैं . मसलन पूर्वी उत्तर प्रदेश में पिछले दो तीन वर्षों में एक नई पार्टी अस्तित्व में आई है . कुछ उपचुनावों में उसने वोट भी खूब बटोरे हैं .उसके बारे में कहा जाता है कि उसको शुरू करवाने में एक ऐसे व्यक्ति का हाथ था जो मुसलमानों के वोट में विभाजन चाहता था. . इस पार्टी ने कुछ रिटायर्ड आई ए एस अफसरों , पत्रकारों और बहुत सारे बाहुबलियों को अपने साथ शामिल भी कर लिया लेकिन चुनाव आभियान के दौरान इसके अपील मुसलमानों के बीच में वह नहीं लगी जिसकी उम्मीद इसके संस्थापकों ने की थी. मुसलमानों ने अब तक के दौर में आम तौर पर सेकुलर छवि के उमीदवारों को ही समर्थन दिया है .
उत्तर प्रदेश में मुसलमानो के वोट के दो दावेदार बहुत ही गंभीरता से लगे हुए हैं . कांग्रेस ने तो बाबरी मस्जिद के लगे दाग़ को पोंछकर अपने को मुस्लिम दोस्त के रूप में पेश करने की कोशिश की और काफी हद तक सफल भी हुई. ख़ास तौर से कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह और राहुल गांधी की कोशिशों का नतीजा है कि मुसलमान अब कांग्रेस को अछूत नहीं मानता .इस बार मुस्लिम वोटों के दावेदार मूल रूप से कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ही हैं . जहां तक बी एस पी का सवाल है मुसलमानों की नज़र में वह तीसरी प्राथमिकता की ही पार्टी रहती है . इसका करण यह है कि उत्तर प्रदेश में बी एस पी की नेता मायावती कई बार मुख्य मंत्री बनीं और २००७ के अलावा हर बार उनको गद्दी बीजेपी के समर्थन से ही मिली . इस बार भी आम धारणा यह बन चुकी है कि अगर मायावती को सरकार बनाने के लिए कुछ सीटें कम पडीं तो बीजेपी उनका समर्थन कर देगी .इसलिए मुसलमानों के बीच चर्चा करने पर जो तस्वीर सामने आ रही है वह यह है कि कौम इस बार कांग्रेस और समाजवादी पार्टी की ओर झुक रही है . यह बात पश्चिमी उत्तर प्रदेश और रूहेलखंड में इसलिए और भी अहम हो जाती है कि यहाँ गैर बीजेपी पार्टियों के बीच मुस्लिम वोटों के बंटवारे का मतलब यह है कि बीजेपी उम्मीदवार विजयी रहेगा . जब अजीत सिंह का बीजेपी से समझौता था तो उनकी बिरादरी लगभग पूरी तरह से बीजेपी को वोट देती थी लेकिन इस बार कांग्रेस के साथ अजीत सिंह के समझौते के कारण बड़ी संख्या में जाटों के वोट कांग्रेस को मिल रहे हैं. अजीत सिंह और उनके उम्मीदवारों के परम्परागत विरोधी गूजर समुदाय के वोट इस बार कहीं कहीं बीजेपी को मिल रहे हैं लेकिन आम तौर पर समाजवादी पार्टी की तरफ झुक रहे हैं . इस बार पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक नया ट्रेंड नज़र आ रहा है . पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हर जिले में कुछ इलाकों में त्यागी बिरादरी की बहुत बड़ी संख्या है . त्यागी बिरादारी के वोट अब तक बीजेपी को ही मिलते रहे हैं लेकिन इस बार एक अजीब बात देखने में आई . देवबंद, बिजनौर और मुरादाबाद के कुछ त्यागी नेताओं से बात करके पता लगा कि इस बार त्यागी वोट समाजवादी पार्टी के हिस्से में जा रहे हैं . यह बात अजीब लगी क्योंकि अब तक ऐसा कभी नहीं हुआ था. देवबंद के पास के एक गाँव ,जडोदा पांडा के प्रधान श्याम सिंह त्यागी से बात करने पर पता चला कि इस बार कई जिलों में त्यागी बिरादरी समाजवादी पार्टी की तरफ चली गयी है . उन्होंने बताया कि समाजवादी पार्टी के महासचिव प्रो. राम गोपाल यादव के कुछ प्रतिनिधि बिरादरी के बीच घूम रहे हैं . और वे बिरादरी को भरोसा दिला रहे हैं कि समाजवादी पार्टी के साथ जाने में उनकी भलाई है .पेशे से डाक्टर इन लोगों ने त्यागियों को समाजवादी पार्टी की तरफ मोड़ दिया है . श्याम सिंह ने बताया कि उनके गाँव में करीब ग्यारह हज़ार वोट हैं जिनमें दलितों के वोटों के अलावा लगभग सभी वोट समाजवादी पार्टी के पास जा रहे हैं .इस इलाके में किसानों के बीच मौजूदा सरकार से भी बहुत नाराज़गी है . खेती चौपट हो रही है क्योंकि बिजली बहुत कम मिलती है और खाद तो बहुत बड़े पैमाने पर ब्लैक हो रही है . ज़ाहिर है कि मौजूदा सरकार को हराने के लिए वोट देने वाले हर बिरादरी में हैं . समाजवादी पार्टी की कोशिश है कि वह आपने आपको सरकार विरोधी वोटों की इकलौती दावेदार के रूप में पेश कर दे. उस हालत में उसको बड़े पैमाने पार समर्थन मिलेगा . उसके लिए उसने कांग्रेस के खिलाफ भी प्रत्यक्ष और गुप्त अभियान चला रखा है . दिग्विजय सिंह और राहुल गांधी के खिलाफ भी अभियान चलाया जा रहा है . दिग्विजय सिंह को आर एस एस का समर्थक बताने की कोशिश भी समाजवादी पार्टी के कुछ समर्थक कर रहे हैं . लेकिन लगता है कि दिल्ली और लखनऊ में बैठ कर राजनीति करने वालों को इस बार ग्रामीण इलाकों का मतदाता गम्भीरता से नहीं ले रहा है .
उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव के अंतिम दो चरणों में निश्चित रूप से मुस्लिम मतदाताओं का रुझान नतीजे तय करेगा. अगर मुसलमान ने जाति और धर्म के नाम पर वोट दिया तो इस इलाके में बीजेपी को भी अच्छी सफलता मिल सकती है . लेकिन अब तक के संकेतों से साफ़ है कि मुस्लिम मतदाता इस बार भी बीजेपी को हराने के लिए मतदान करेगा. हालांकि बीजेपी ने मुसलमानों के घोषित विरोधियों नरेंद्र मोदी और वरुण गांधी को इस बार चुनाव से दूर रखा है लेकिन मीडिया की जागरूकता और हर जगह टी वी और अखबारों की मौजूदगी के कारण सब को मालूम है कि किस पार्टी की क्या रणनीति है . लेकिन यह तय है कि आख़री चरणों में मुसलमानों के वोट ही तय करेगें कि देश की भावी राजनीति की क्या दिशा होगी. अगर उत्तर प्रदेश में बीजेपी कमज़ोर हुई तो राजनीति से साम्प्रदायिक शक्तियों को बाहर करना आसान हो जाएगा लेकिन अगर अगर उत्तर प्रदेश की अगली सरकार में बीजेपी को कोई मुकाम मिल गया तो राज्य ही नहीं देश की साम्प्रदायिक शक्तियां मज़बूत होंगीं.
Friday, February 24, 2012
मायावती का दावा --उनकी पार्टी में जो अपराधी थे वे पिछली सरकार की विरासत थे
शेष नारायण सिंह
ग्रेटर नोयडा ,२२ फरवरी.ग्रेटर नोयडा के नालेज पार्क में आज उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री ने एक चुनावी सभा में स्वीकार किया कि पिछले पांच साल में उनकी पार्टी या सरकार में जो भी अपराधी या नेता थे वे पिछली सरकार की विरासत थे. उन्होंने पूरी कोशिश की कि उनको सुधारा जाये लेकिन जब वे सफल नहीं रहीं तो उन्होंने खराब छवि वालों को पार्टी का टिकट नहीं दिया . उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि प्रदेश के विकास के लिए ज़रूरी अस्सी हज़ार करोड़ रूपये केंद्र सरकार ने नहीं दिया इसलिए वे प्रदेश का वैसा विकास नहीं कर पायीं जैसा वे करना चाहती थीं.इसके बावजूद उन्होंने अपील की कि गौतम बुद्ध नगर से चुनाव लड़ रहे उनके तीनों ही उम्मीद्वारों को चुनाव में विजयी बनाया जाए. उनकी सभा में राज्य के मंत्री, वेदराम भाटी, लोकसभा सदस्य सुरेन्द्र नागर, विधायक, सतवीर गुर्जर और सतीश अवाना के अलावा जिला पंचायत की अध्यक्ष जयवंती नागर भी मौजूद थीं.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के चुनावी अभियान पर निकलीं मायावती ने आज गौतम बुद्ध नगर जिले में समाजवादी पार्टी,कांग्रेस और बीजेपी के खिलाफ राजनीतिक हमला बोला. उनकी सभा में भीड़ तो उम्मीद से बहुत कम थी लेकिन उन्होंने कहा कि मेरे सामने जो अपार जनसमूह मौजूद है उसे चाहिए कि वह अगले हफ्ते होने वाले मतदान में तीनों ही विपक्षी पार्टियों को चुनाव में शिकस्त दे और उनके उमीदवारों को विजयी बनाए. चुनावी सभा ख़त्म होने के बाद उन्होंने अपनी पार्टी के स्थानीय नेताओं को फटकारा भी कि आप इतने लोग यहाँ मंत्री, विधायक , सांसद ,जिला परिषद् अध्यक्ष आदि पदों पर मौजूद हैं लेकिन सभा में भीड़ बहुत कम है. बताते हैं उन्होंने कहा कि अगर हर एक विधायक और सांसद ने एक हज़ार लोगों को बुलाया होता तो कम से कम दस हज़ार लोग होते . भाषण तो उनका वही रहा जो अन्य चुनाव सभाओं में होता रहा है लेकिन आज उन्होंने इस बात पर बहुत जोर दिया कि केंद्र सरकार की तरफ से मंजूरी न मिलने के कारण बहुत सी ऐसी योजनायें नहीं लागू की जा सकीं जिसमें सरकार का एक भी पैसा नहीं लगना था .लेकिन उन योजनाओं में इलाके के लोगों को बहुत सारे रोज़गार मिल जाते . उन्होंने बहुत जोर देकर कहा कि उद्योगपतियों के ज़रिये वे राज्य का विकास करवाना चाहती थीं लेकिन केंद्र सरकार ने मंजूरी न देकर काम खराब कर दिया . वे आज प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप की बहुत बड़ी समर्थक के रूप नज़र आयीं . में उन्होंने कहा कि केन्द्रीय योजनायें भी राज्य में नहीं चलाई जा सकीं क्योंकि केंद्र सरकार ने अपने कोटे का धन राज्य सरकार को नहीं दिया . उन्होंने कांग्रेस और बीजेपी सहित सपा की सरकार आने के खतरे गिनाये और लोगों को समझाया कि अगर आपकी लापरवाही से किसी भी विपक्षी पार्टी की सरकार बन जाती है तो आम आदमी के लिए बहुत मुश्किल हो जायेगी.
मायावती ने दावा किया कि उन्होंने अपने पांच साल के राज में गन्ना किसानों बहुत लाभ पंहुचाया. गन्ने की कीमत जो २००७ में १२५ रूपये प्रति कुंतल थी उसे अब २५० रूपये प्रति कुंतल कर दिया गया है .उन्होंने कहा कि किसानों के डेढ़ हज़ार करोड़ रूपये के बिजली के बिल माफ़ कर दिए गए हैं .दलितों के लिए २५ लाख रूपये तक के ठेकों में आरक्षण कर दिया गया है ..राज्य के विभाजन के लिए उन्होंने २००७ में ही केंद्र सरकार को चिट्ठी लिख दी थी और बाद में उस पर दबाव बनाने के लिए विधान सभा में प्रस्ताव पास करवा कर भी भेज दिया लेकिन केंद्र सरकार ने इसका कोई जवाब नहीं दिया . बाहर निकले पर उनकी पार्टी के ही एक कार्यकर्ता ने अफ़सोस ज़ाहिर किया कि बहन जी अब गलत बातें करके अपनी बात को मनवाने की कोशिश कर रही हैं .उसने कहा कि केंद्र सरकार ने उनके विभाजन वाले प्रस्ताव का जवाब तो भेज दिया था. केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने चिट्ठी लिख कर कहा था कि राज्य के विभाजन के बारे में सही तरीके प्रस्ताव लाना चाहिए ,केवल विधान सभा में पास हुए एक लाइन के प्रस्ताव से काम नहीं चलेगा . उसने कहा कि केंद्र सरकार की योजनाओं के साथ यू पी सरकार ने खिलवाड़ किया है ,. उसने कहा कि ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन का इतना बड़ा घोटाला जो हुआ है वह केन्द्रीय सरकार का ही पैसा था., मनरेगा में भी पूरी रकम केंद्र से ही आती है और उसका भी फायदा हमारी सरकार के घूसखोर अफसरों और मंत्रियों की जेब में जा रहा है , आम आदमी उस से उतना भी लाभ नहीं ले पा रहा है जितना उसे मिलना चाहिए .
मुसलमानों के रिज़र्वेशन के मामले में मायावती ने कहा कि उनकी पार्टी मुसलमानों को आरक्षण देने के खिलाफ नहीं है लेकिन उनकी मांग है कि ओ बी सी के हिस्से से काट कर नहीं . मुसलमानों को अलग से रिज़र्वेशन दिया जाना चाहिए . मायावती ने मीडिया बंधुओं के प्रति भी नाराज़गी जताई और कहा कि स्वर्गीय कांशीराम की इच्छा थी कि दलित महापुरुषों की जब भी मूर्तियाँ बनें तो उसमें मेरी भी मूर्ति लगे लेकिन चुनाव आयोग ने हाथियों और मेरी मूर्तियों को ढंकने का आदेश दे दिया और मीडिया बंधुओं ने उसका खूब प्रचार किया . मीडिया वाले प्रचार तो हमारे कार्यकर्ताओं को कमज़ोर करने के लिए कर रहे थे लेकिन १५-२० दिन तक उस प्रचार के चलते हमारे हाथियों का खूब प्रचार हुआ. आखिर में मायावती ने अपने लोगों को चेताया कि आपके खिलाफ बहुत सारे लोग सक्रिय हैं इसलिए सुबह ही जाकर जाकर अपना वोट डालकर अपनी सरकार बनाने के लिए वोट ज़रूर डालें .
ग्रेटर नोयडा ,२२ फरवरी.ग्रेटर नोयडा के नालेज पार्क में आज उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री ने एक चुनावी सभा में स्वीकार किया कि पिछले पांच साल में उनकी पार्टी या सरकार में जो भी अपराधी या नेता थे वे पिछली सरकार की विरासत थे. उन्होंने पूरी कोशिश की कि उनको सुधारा जाये लेकिन जब वे सफल नहीं रहीं तो उन्होंने खराब छवि वालों को पार्टी का टिकट नहीं दिया . उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि प्रदेश के विकास के लिए ज़रूरी अस्सी हज़ार करोड़ रूपये केंद्र सरकार ने नहीं दिया इसलिए वे प्रदेश का वैसा विकास नहीं कर पायीं जैसा वे करना चाहती थीं.इसके बावजूद उन्होंने अपील की कि गौतम बुद्ध नगर से चुनाव लड़ रहे उनके तीनों ही उम्मीद्वारों को चुनाव में विजयी बनाया जाए. उनकी सभा में राज्य के मंत्री, वेदराम भाटी, लोकसभा सदस्य सुरेन्द्र नागर, विधायक, सतवीर गुर्जर और सतीश अवाना के अलावा जिला पंचायत की अध्यक्ष जयवंती नागर भी मौजूद थीं.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के चुनावी अभियान पर निकलीं मायावती ने आज गौतम बुद्ध नगर जिले में समाजवादी पार्टी,कांग्रेस और बीजेपी के खिलाफ राजनीतिक हमला बोला. उनकी सभा में भीड़ तो उम्मीद से बहुत कम थी लेकिन उन्होंने कहा कि मेरे सामने जो अपार जनसमूह मौजूद है उसे चाहिए कि वह अगले हफ्ते होने वाले मतदान में तीनों ही विपक्षी पार्टियों को चुनाव में शिकस्त दे और उनके उमीदवारों को विजयी बनाए. चुनावी सभा ख़त्म होने के बाद उन्होंने अपनी पार्टी के स्थानीय नेताओं को फटकारा भी कि आप इतने लोग यहाँ मंत्री, विधायक , सांसद ,जिला परिषद् अध्यक्ष आदि पदों पर मौजूद हैं लेकिन सभा में भीड़ बहुत कम है. बताते हैं उन्होंने कहा कि अगर हर एक विधायक और सांसद ने एक हज़ार लोगों को बुलाया होता तो कम से कम दस हज़ार लोग होते . भाषण तो उनका वही रहा जो अन्य चुनाव सभाओं में होता रहा है लेकिन आज उन्होंने इस बात पर बहुत जोर दिया कि केंद्र सरकार की तरफ से मंजूरी न मिलने के कारण बहुत सी ऐसी योजनायें नहीं लागू की जा सकीं जिसमें सरकार का एक भी पैसा नहीं लगना था .लेकिन उन योजनाओं में इलाके के लोगों को बहुत सारे रोज़गार मिल जाते . उन्होंने बहुत जोर देकर कहा कि उद्योगपतियों के ज़रिये वे राज्य का विकास करवाना चाहती थीं लेकिन केंद्र सरकार ने मंजूरी न देकर काम खराब कर दिया . वे आज प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप की बहुत बड़ी समर्थक के रूप नज़र आयीं . में उन्होंने कहा कि केन्द्रीय योजनायें भी राज्य में नहीं चलाई जा सकीं क्योंकि केंद्र सरकार ने अपने कोटे का धन राज्य सरकार को नहीं दिया . उन्होंने कांग्रेस और बीजेपी सहित सपा की सरकार आने के खतरे गिनाये और लोगों को समझाया कि अगर आपकी लापरवाही से किसी भी विपक्षी पार्टी की सरकार बन जाती है तो आम आदमी के लिए बहुत मुश्किल हो जायेगी.
मायावती ने दावा किया कि उन्होंने अपने पांच साल के राज में गन्ना किसानों बहुत लाभ पंहुचाया. गन्ने की कीमत जो २००७ में १२५ रूपये प्रति कुंतल थी उसे अब २५० रूपये प्रति कुंतल कर दिया गया है .उन्होंने कहा कि किसानों के डेढ़ हज़ार करोड़ रूपये के बिजली के बिल माफ़ कर दिए गए हैं .दलितों के लिए २५ लाख रूपये तक के ठेकों में आरक्षण कर दिया गया है ..राज्य के विभाजन के लिए उन्होंने २००७ में ही केंद्र सरकार को चिट्ठी लिख दी थी और बाद में उस पर दबाव बनाने के लिए विधान सभा में प्रस्ताव पास करवा कर भी भेज दिया लेकिन केंद्र सरकार ने इसका कोई जवाब नहीं दिया . बाहर निकले पर उनकी पार्टी के ही एक कार्यकर्ता ने अफ़सोस ज़ाहिर किया कि बहन जी अब गलत बातें करके अपनी बात को मनवाने की कोशिश कर रही हैं .उसने कहा कि केंद्र सरकार ने उनके विभाजन वाले प्रस्ताव का जवाब तो भेज दिया था. केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने चिट्ठी लिख कर कहा था कि राज्य के विभाजन के बारे में सही तरीके प्रस्ताव लाना चाहिए ,केवल विधान सभा में पास हुए एक लाइन के प्रस्ताव से काम नहीं चलेगा . उसने कहा कि केंद्र सरकार की योजनाओं के साथ यू पी सरकार ने खिलवाड़ किया है ,. उसने कहा कि ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन का इतना बड़ा घोटाला जो हुआ है वह केन्द्रीय सरकार का ही पैसा था., मनरेगा में भी पूरी रकम केंद्र से ही आती है और उसका भी फायदा हमारी सरकार के घूसखोर अफसरों और मंत्रियों की जेब में जा रहा है , आम आदमी उस से उतना भी लाभ नहीं ले पा रहा है जितना उसे मिलना चाहिए .
मुसलमानों के रिज़र्वेशन के मामले में मायावती ने कहा कि उनकी पार्टी मुसलमानों को आरक्षण देने के खिलाफ नहीं है लेकिन उनकी मांग है कि ओ बी सी के हिस्से से काट कर नहीं . मुसलमानों को अलग से रिज़र्वेशन दिया जाना चाहिए . मायावती ने मीडिया बंधुओं के प्रति भी नाराज़गी जताई और कहा कि स्वर्गीय कांशीराम की इच्छा थी कि दलित महापुरुषों की जब भी मूर्तियाँ बनें तो उसमें मेरी भी मूर्ति लगे लेकिन चुनाव आयोग ने हाथियों और मेरी मूर्तियों को ढंकने का आदेश दे दिया और मीडिया बंधुओं ने उसका खूब प्रचार किया . मीडिया वाले प्रचार तो हमारे कार्यकर्ताओं को कमज़ोर करने के लिए कर रहे थे लेकिन १५-२० दिन तक उस प्रचार के चलते हमारे हाथियों का खूब प्रचार हुआ. आखिर में मायावती ने अपने लोगों को चेताया कि आपके खिलाफ बहुत सारे लोग सक्रिय हैं इसलिए सुबह ही जाकर जाकर अपना वोट डालकर अपनी सरकार बनाने के लिए वोट ज़रूर डालें .
Thursday, February 23, 2012
चुनाव आयोग से विवाद कांग्रेसी मीडिया प्रबंधन का हिस्सा है
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली,२१ फरवरी. उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस बेताब हो गयी है . पार्टी की कोशिश है कि मीडिया में ज़्यादा से ज्यादा जगह घेर कर रखा जाए और खिलाफ पार्टियों को मीडिया से दूर रखा जाए. यह एक रणनीति का हिस्सा है. मुस्लिम आरक्षण के मुद्दे पर कांग्रेस के आला मंत्रियों ने चुनाव आयोग पर वार पर वार करने की योजना पर काम बंद नहीं किया था कि राहुल गांधी ने कानपुर में ऐसा कुछ कर दिया जिस से मीडिया में पिछले २४ घंटों से छाये हुए है . मीडिया पर बने रहने के आदी हो चुके बीजेपी वाले कांग्रेस की इस कारस्तानी से बहुत खफा हैं लेकिन सच्चाई यह है कि चुनाव के इस मौके पर वे कुछ नहीं कर नहीं पा रहे हैं .
चुनाव आयोग की ताक़त कम करने की कांग्रेसी रण नीति की जानकारी आज एक अखबार में छप जाने के बाद आज का दिन दिल्ली में पूरी तरह से कांग्रेस और चुनाव आयोग के विवाद के हवाले हो गया .नतीज यह हुआ कि बीजेपी ने भी अपने रूटीन वाले प्रवक्ताओं को पीछे धकेल कर अपने सबसे सक्षम प्रवक्ता को मैदान में उतारा . बात को बहुत दमदार बनाने की कोशिश में अरुण जेटली ने कांग्रेस को सीरियल अपराधी बता दिया और बात को गर्माना चाहा लेकिन उनके कुछ प्रिय पत्रकारों के अलावा किसी ने खबर को आगे नहीं बढ़ाया .उधर चुनाब आयोग ने बिलकुल साफ़ कह दिया है कि केंद्र सरकार की उस कोशिश को सफल नहीं होने दिया जाएगा जिसके तहत वह चुनाव आयोग और आचार संहिता को बेअसर करने की कोशिश कर रहे हैं . इस बीच प्रणब मुखर्जी के बयान आ गया कि ऐसी कोई चर्चा नहीं है . अखबार की खबर का भरोसा नहीं किया जाना चाहिए. दिल्ली की राजनीति के एक बहुत पुराने जानकार पत्रकार ने बताया कि कांग्रेस भी चुनाव आयोग को कमज़ोर करने का ख़तरा नहीं लेने वाली है . उसकी तो कोशिश केवल यह है कि रोज़ ही इस तरह के मुद्दे चुनावी मैदान में फेंकती रहे जिससे विपक्ष को मीडिया में कम स कम जगह मिले . इस काम में दक्ष पुराने खिलाडी दिग्विजय सिंह तो आजकल गंभीर चुनाव विमर्श में लग गए हैं जबकि बेनी प्रसाद वर्मा और सलमान खुर्शीद जैसे लोग मीडिया को घेरने के काम में लगे हुए हैं . आज तो मीडिया का सारा ध्यान राहुल गांधी के खिलाफ कानपुर में दर्ज रिपोर्ट पर है . उस पर तरह तरह के बयान दिया जा रहे हैं और विपक्ष भी कांग्रेस की चाल में लगातार फंसता जा रहा है .आज दिन भर जिस दूसरी बात की चर्चा रही वह है केन्द्रीय कैबिनेट में चुनाव सुधारों के मुद्दे पर चर्चा जिसमें चुनाव आयोग को कमज़ोर कर दिया जायेगा और आचार संहिता के अपराध अब चुनाव आयोग नहीं, अदालत तय करेगी . सूत्र बताते हैं कि ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है . चुनाव में मुसलमानों को वोट देने के लिए प्रेरित करने के लिए से शुरू की गयी सलमान खुर्शीद और बेनी प्रसाद वर्मा की योजना को भी भुला दिया जाएगा और राहुल गांधी भी एकाध दिन में खेद प्रकट कर देगें.ज़ाहिर है यह सारा काम मीडिया के प्रबंधन के लिए किया गया है और चुनाव ख़त्म होते सारे विवाद ख़त्म कर दिए जायेगें अगर कानून के हिसाब से ज़रूरी हुआ तो माफी आदि भी मांग ली जायेगी.
नई दिल्ली,२१ फरवरी. उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस बेताब हो गयी है . पार्टी की कोशिश है कि मीडिया में ज़्यादा से ज्यादा जगह घेर कर रखा जाए और खिलाफ पार्टियों को मीडिया से दूर रखा जाए. यह एक रणनीति का हिस्सा है. मुस्लिम आरक्षण के मुद्दे पर कांग्रेस के आला मंत्रियों ने चुनाव आयोग पर वार पर वार करने की योजना पर काम बंद नहीं किया था कि राहुल गांधी ने कानपुर में ऐसा कुछ कर दिया जिस से मीडिया में पिछले २४ घंटों से छाये हुए है . मीडिया पर बने रहने के आदी हो चुके बीजेपी वाले कांग्रेस की इस कारस्तानी से बहुत खफा हैं लेकिन सच्चाई यह है कि चुनाव के इस मौके पर वे कुछ नहीं कर नहीं पा रहे हैं .
चुनाव आयोग की ताक़त कम करने की कांग्रेसी रण नीति की जानकारी आज एक अखबार में छप जाने के बाद आज का दिन दिल्ली में पूरी तरह से कांग्रेस और चुनाव आयोग के विवाद के हवाले हो गया .नतीज यह हुआ कि बीजेपी ने भी अपने रूटीन वाले प्रवक्ताओं को पीछे धकेल कर अपने सबसे सक्षम प्रवक्ता को मैदान में उतारा . बात को बहुत दमदार बनाने की कोशिश में अरुण जेटली ने कांग्रेस को सीरियल अपराधी बता दिया और बात को गर्माना चाहा लेकिन उनके कुछ प्रिय पत्रकारों के अलावा किसी ने खबर को आगे नहीं बढ़ाया .उधर चुनाब आयोग ने बिलकुल साफ़ कह दिया है कि केंद्र सरकार की उस कोशिश को सफल नहीं होने दिया जाएगा जिसके तहत वह चुनाव आयोग और आचार संहिता को बेअसर करने की कोशिश कर रहे हैं . इस बीच प्रणब मुखर्जी के बयान आ गया कि ऐसी कोई चर्चा नहीं है . अखबार की खबर का भरोसा नहीं किया जाना चाहिए. दिल्ली की राजनीति के एक बहुत पुराने जानकार पत्रकार ने बताया कि कांग्रेस भी चुनाव आयोग को कमज़ोर करने का ख़तरा नहीं लेने वाली है . उसकी तो कोशिश केवल यह है कि रोज़ ही इस तरह के मुद्दे चुनावी मैदान में फेंकती रहे जिससे विपक्ष को मीडिया में कम स कम जगह मिले . इस काम में दक्ष पुराने खिलाडी दिग्विजय सिंह तो आजकल गंभीर चुनाव विमर्श में लग गए हैं जबकि बेनी प्रसाद वर्मा और सलमान खुर्शीद जैसे लोग मीडिया को घेरने के काम में लगे हुए हैं . आज तो मीडिया का सारा ध्यान राहुल गांधी के खिलाफ कानपुर में दर्ज रिपोर्ट पर है . उस पर तरह तरह के बयान दिया जा रहे हैं और विपक्ष भी कांग्रेस की चाल में लगातार फंसता जा रहा है .आज दिन भर जिस दूसरी बात की चर्चा रही वह है केन्द्रीय कैबिनेट में चुनाव सुधारों के मुद्दे पर चर्चा जिसमें चुनाव आयोग को कमज़ोर कर दिया जायेगा और आचार संहिता के अपराध अब चुनाव आयोग नहीं, अदालत तय करेगी . सूत्र बताते हैं कि ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है . चुनाव में मुसलमानों को वोट देने के लिए प्रेरित करने के लिए से शुरू की गयी सलमान खुर्शीद और बेनी प्रसाद वर्मा की योजना को भी भुला दिया जाएगा और राहुल गांधी भी एकाध दिन में खेद प्रकट कर देगें.ज़ाहिर है यह सारा काम मीडिया के प्रबंधन के लिए किया गया है और चुनाव ख़त्म होते सारे विवाद ख़त्म कर दिए जायेगें अगर कानून के हिसाब से ज़रूरी हुआ तो माफी आदि भी मांग ली जायेगी.
Tuesday, February 21, 2012
भारत की लोकसभा स्पीकर की पाकिस्तान यात्रा पार्लियामेंटरी डिप्लोमेसी की बुलंदी का मौक़ा है
शेष नारायण सिंह
भारत के व्यापार मंत्री आनंद शर्मा पिछले दिनों पाकिस्तान गए थे. उनकी यात्रा का मकसद पाकिस्तान को यह समझाना था कि दोनों देशों के बीच व्यापार बढ़ने से बहुत फायदा होगा. अब बयान आया है कि भारत और पाकिस्तान इस बात पर सहमत हो गए हैं कि वे एक ऐसी योजना पर काम करेगें जिसके बाद दोनों देशों के बीच व्यापारिक रिश्ते पूरी तरह से सामान्य हो जायेगें.यह बड़ी बात है क्यों कि इस फैसले के एक दिन पहले ही पाकिस्तानी मंत्रिमंडल ने इसी विषय पर एक फैसले नहीं लिया था और मामले को टाल दिया था. भारत और पाकिस्तान में रहने वाले बहुत सारे परिवारों के बीच जितने क़रीबी सम्बन्ध हैं ,उतने दुनिया में किन्हीं भी दो देशों की जनता के बीच नहीं हैं .लेकिन राजनेताओं की अदूरदर्शिता के चलते रिश्तों में खटास हमेशा बनी रहती है . हालांकि पाकिस्तान और भारत में नेताओं का एक ऐसा वर्ग भी है जो दोनों देशों के बीच रिश्तों को सामान्य करना चाहता है लेकिन दोनों ही देशों में ऐसे पुरातनपंथी सोच के लोग मौजूद हैं जो रिश्तों को खराब बनाए रखने में सफल रहते हैं . दोनों ही मुल्कों में ऐसे लोग हैं जिनका राजनीतिक धंधा ही भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव पर ही निर्भर करता है .
शान्ति स्थापित करने की मुहिम में लगे लोगों के लिए संतोष की बात यह है कि आजकल दोनों ही देशों के बीच उन लोगों की ताक़त बढ़ रही है रिश्तों को मज़बूत करना चाहते हैं बुधवार को इस्लामाबाद में हुए समझौते को इसी रोशनी में देखे जाने की ज़रुरत है . यह समझौता इस बात का सबूत है कि भारत के व्यापार मंत्री आनंद शर्मा और पाकिस्तान के व्यापार मंत्री,मख्दूम मोहम्मद अमीन फहीम अपने देशों के बीच के दोस्ताना रिश्तों को आगे बढ़ाना चाहते हैं .यह इस बात का भी सबूत है को दोनों देशों के बीच अब सरकारी स्तर पर भी गंभीर प्रयास किये जा रहे हैं कि ट्रैक टू डिप्लोमेसी को आगे बढ़ाना है .
आनंद शर्मा की पाकिस्तान यात्रा के ठीक बाद भारत की लोकसभा की स्पीकर मीरा कुमार भी संसद सदस्यों के एक गुडविल मिशन का नेतृत्व करेगीं. वे अगले हफ्ते इस्लामाबाद जा रही हैं . इस प्रतिनिधि मंडल में अन्य लोगों के अलावा बीजेपी के सैय्यद शाहनवाज़ हुसैन और तरुण विजय भी शामिल हैं .यह यात्रा पाकिस्तान की संसद , कौमी असेम्बली की स्पीकर डॉ फहमीदा मिर्ज़ा के निमत्रण पर हो रही है . मीरा कुमार को पाकिस्तानी प्रधानमंत्री युसूफ रजा गीलानी ने भी पाकिस्तान आने की दावत दिया था.. इसके पहले लोकसभा का कोई भी स्पीकर कभी भी पाकिस्तान की यात्रा पर नहीं गया है. यह बहुत ही दिलचस्प संयोग है कि भारत और पाकिस्तान ,दोनों ही देशों में आजकल संसद के निचले सदन की पीठासीन अधिकारी महिलायें हैं . दरअसल पाकिस्तानी कौमी असेम्बली की स्पीकर डॉ फहमीदा मिर्ज़ा तो किसी भी एशियायी देश की पहली महिला स्पीकर हैं . मीरा कुमार २००९ में लोक सभा की अध्यक्ष बनीं जबकि फहमीदा मिर्ज़ा २००८ में ही पाकिस्तान की कौमी असेम्बली की स्पीकर बन चुकी थीं . मीरा कुमार और डॉ फहमीदा मिर्ज़ा के बीच निजी तौर पर भी बहुत अच्छे सम्बन्ध हैं . मीरा कुमार को लिखे एक पत्र में फहमीदा मिर्ज़ा ने कहा था कि हमारे दोनों ही देशों के लोग चाहते हैं कि इस इलाके में शान्ति और सम्पन्नता हो . यह उनका हक भी है . हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम उनकी आकांक्षा को हकीकत बनाने में मदद करें.हमारे दोनों ही मुल्क पड़ोसी तो हैं ही वे गरीबी,अशिक्षा ,बीमारी और अभाव के भी शिकार हैं . मुझे उम्मीद है कि हम दो महिला स्पीकर साथ साथ काम करके अपने क्षेत्र में लोगों की ,ख़ासकर महिलाओं की तरक्की को सुनिश्चित करने में कामयाब हो सकेगीं . पाकिस्तान की संसद की स्पीकर डॉ फहमीदा मिर्ज़ा भी पाकिस्तान की राजनीति में एक बहुत ही महत्वपूर्ण राजनेता हैं ,. १९९७ में पहली बार वे पाकिस्तानी कौमी असेम्बली के लिए चुनी गयी थीं. तीन टर्म से लगातार चुनाव जीत रहीं हैं .वे पाकिस्तान के एक राजनीतिक परिवार की सदस्य हैं . उनके पिता काजी आबिद , सिंध की राजनीति में बहुत ही प्रभावशाली व्यक्ति थे. वे सिंध की प्रांतीय सरकार और केंद्रीय सरकार में कई बार मंत्री रहे. डॉ फहमीदा के पति डॉ ज़ुल्फ़िकार मिर्ज़ा राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी के मित्र हैं और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के बड़े नेता हैं .
मीरा कुमार को संसदीय कूटनीति की एक्सपर्ट माना जाता है .वे खुद भारत की विदेश सेवा की आला अफसर रही हैं . उन्होंने अंतर राष्ट्रीय संबंधों की बारीकियों को बहुत करीब से देखा है. विदेश सेवा के अफसर के रूप में वे स्पेन, ब्रिटेन और मारीशस में काम कर चुकी हैं . राजनीति में उन्होंने १९८५ में प्रवेश किया और लोक सभा में धमाके दार इंट्री ली. अपने पहले चुनाव में ही उन्होंने उत्तर प्रदेश की मौजूदा मुख्यमंत्री मायावती को बिजनौर संसदीय क्षेत्र से हुए उपचुनाव में हराया था. उस चुनाव में कारने वालों में लोकजनशक्ति पार्टी के नेता राम विलास पासवान भी थे. वे केंद्र सरकार में मंत्री भी रहीं .उनके पिता बाबू जगजीवन राम भारत की आज़ादी की लड़ाई के बहुत त बड़े नेता थे . उन्होंने महात्मा गाँधी के साथ काम किया और जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमंडल के सदस्य के रूप में देश में बहुत सारी ऐसी संस्थाओं की स्थापना की जो आज देश को मज़बूत बनाने में अहम भूमिका निभा रही हैं .
ज़ाहिर है दक्षिण एशिया की दो प्रभावशाली महिला राजनेताओं के प्रयास से भारत और पाकिस्तान के समबन्धों में बेहतरी का जज़बा पैदा होगा और उब लोगों को ताक़त मिलेगी जो दोनों देशों के बीच अच्छे रिश्तों के लिए कोशिश कर रहे हैं . पाकिस्तान का सबसे ज्यादा विरोध भारत में बीजेपी के ओर से होता है . अगले हफ्ते जाने वाले प्रतिनिधिमंडल में बीजेपी के दो प्रमुख नेता शामिल हैं. सैय्यद शाहनवाज़ हुसैन पहले भी पाकिस्तान जा चुके हैं . जब वे मणि शंकर ऐय्यर के साथ पाकिस्तान गए थे तो उन्होंने ही कहा था कि जो विवाद के मामले हैं उनपर बात करते रहने की ज़रूरत है लेकिन अगर व्यापार के रास्ते खोल दिए जाएँ तो दोनों की देशों के आम आदमियों का बहुत भला होगा. एक बातचीत में उन्होंने बताया कि चीन से भी भारत का सीमा विवाद है ,उस पर अलग से बात चीत चलती रहती है लेकिन कारोबार भी चलता रहता है . दो देशों के बीच रिश्तों को अच्छा बनने में कारोबार का सबसे ज्यादा योगदान है .उनका कहना है कि पाकिस्तान से भी इसी तरह की बात चीत की ज़रुरत है .
शान्ति के पैरोकारों को लोक सभा की अध्यक्ष मीरा कुमार की इस यात्रा से बहुत उम्मीदें हैं . क्योंकि गैर सरकारी तौर पर तो ट्रैक टू डिप्लोमेसी बहुत वक़्त से चल रही है लेकिन संसद की स्पीकर की संसदीय डिप्लोमेसी की पहल निश्चित रूप से भारत और पाकिस्तान के अवाम के बीच रिश्तों को मज़बूत करने की दिशा में बहुत ही कारगर साबित होगी.
भारत के व्यापार मंत्री आनंद शर्मा पिछले दिनों पाकिस्तान गए थे. उनकी यात्रा का मकसद पाकिस्तान को यह समझाना था कि दोनों देशों के बीच व्यापार बढ़ने से बहुत फायदा होगा. अब बयान आया है कि भारत और पाकिस्तान इस बात पर सहमत हो गए हैं कि वे एक ऐसी योजना पर काम करेगें जिसके बाद दोनों देशों के बीच व्यापारिक रिश्ते पूरी तरह से सामान्य हो जायेगें.यह बड़ी बात है क्यों कि इस फैसले के एक दिन पहले ही पाकिस्तानी मंत्रिमंडल ने इसी विषय पर एक फैसले नहीं लिया था और मामले को टाल दिया था. भारत और पाकिस्तान में रहने वाले बहुत सारे परिवारों के बीच जितने क़रीबी सम्बन्ध हैं ,उतने दुनिया में किन्हीं भी दो देशों की जनता के बीच नहीं हैं .लेकिन राजनेताओं की अदूरदर्शिता के चलते रिश्तों में खटास हमेशा बनी रहती है . हालांकि पाकिस्तान और भारत में नेताओं का एक ऐसा वर्ग भी है जो दोनों देशों के बीच रिश्तों को सामान्य करना चाहता है लेकिन दोनों ही देशों में ऐसे पुरातनपंथी सोच के लोग मौजूद हैं जो रिश्तों को खराब बनाए रखने में सफल रहते हैं . दोनों ही मुल्कों में ऐसे लोग हैं जिनका राजनीतिक धंधा ही भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव पर ही निर्भर करता है .
शान्ति स्थापित करने की मुहिम में लगे लोगों के लिए संतोष की बात यह है कि आजकल दोनों ही देशों के बीच उन लोगों की ताक़त बढ़ रही है रिश्तों को मज़बूत करना चाहते हैं बुधवार को इस्लामाबाद में हुए समझौते को इसी रोशनी में देखे जाने की ज़रुरत है . यह समझौता इस बात का सबूत है कि भारत के व्यापार मंत्री आनंद शर्मा और पाकिस्तान के व्यापार मंत्री,मख्दूम मोहम्मद अमीन फहीम अपने देशों के बीच के दोस्ताना रिश्तों को आगे बढ़ाना चाहते हैं .यह इस बात का भी सबूत है को दोनों देशों के बीच अब सरकारी स्तर पर भी गंभीर प्रयास किये जा रहे हैं कि ट्रैक टू डिप्लोमेसी को आगे बढ़ाना है .
आनंद शर्मा की पाकिस्तान यात्रा के ठीक बाद भारत की लोकसभा की स्पीकर मीरा कुमार भी संसद सदस्यों के एक गुडविल मिशन का नेतृत्व करेगीं. वे अगले हफ्ते इस्लामाबाद जा रही हैं . इस प्रतिनिधि मंडल में अन्य लोगों के अलावा बीजेपी के सैय्यद शाहनवाज़ हुसैन और तरुण विजय भी शामिल हैं .यह यात्रा पाकिस्तान की संसद , कौमी असेम्बली की स्पीकर डॉ फहमीदा मिर्ज़ा के निमत्रण पर हो रही है . मीरा कुमार को पाकिस्तानी प्रधानमंत्री युसूफ रजा गीलानी ने भी पाकिस्तान आने की दावत दिया था.. इसके पहले लोकसभा का कोई भी स्पीकर कभी भी पाकिस्तान की यात्रा पर नहीं गया है. यह बहुत ही दिलचस्प संयोग है कि भारत और पाकिस्तान ,दोनों ही देशों में आजकल संसद के निचले सदन की पीठासीन अधिकारी महिलायें हैं . दरअसल पाकिस्तानी कौमी असेम्बली की स्पीकर डॉ फहमीदा मिर्ज़ा तो किसी भी एशियायी देश की पहली महिला स्पीकर हैं . मीरा कुमार २००९ में लोक सभा की अध्यक्ष बनीं जबकि फहमीदा मिर्ज़ा २००८ में ही पाकिस्तान की कौमी असेम्बली की स्पीकर बन चुकी थीं . मीरा कुमार और डॉ फहमीदा मिर्ज़ा के बीच निजी तौर पर भी बहुत अच्छे सम्बन्ध हैं . मीरा कुमार को लिखे एक पत्र में फहमीदा मिर्ज़ा ने कहा था कि हमारे दोनों ही देशों के लोग चाहते हैं कि इस इलाके में शान्ति और सम्पन्नता हो . यह उनका हक भी है . हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम उनकी आकांक्षा को हकीकत बनाने में मदद करें.हमारे दोनों ही मुल्क पड़ोसी तो हैं ही वे गरीबी,अशिक्षा ,बीमारी और अभाव के भी शिकार हैं . मुझे उम्मीद है कि हम दो महिला स्पीकर साथ साथ काम करके अपने क्षेत्र में लोगों की ,ख़ासकर महिलाओं की तरक्की को सुनिश्चित करने में कामयाब हो सकेगीं . पाकिस्तान की संसद की स्पीकर डॉ फहमीदा मिर्ज़ा भी पाकिस्तान की राजनीति में एक बहुत ही महत्वपूर्ण राजनेता हैं ,. १९९७ में पहली बार वे पाकिस्तानी कौमी असेम्बली के लिए चुनी गयी थीं. तीन टर्म से लगातार चुनाव जीत रहीं हैं .वे पाकिस्तान के एक राजनीतिक परिवार की सदस्य हैं . उनके पिता काजी आबिद , सिंध की राजनीति में बहुत ही प्रभावशाली व्यक्ति थे. वे सिंध की प्रांतीय सरकार और केंद्रीय सरकार में कई बार मंत्री रहे. डॉ फहमीदा के पति डॉ ज़ुल्फ़िकार मिर्ज़ा राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी के मित्र हैं और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के बड़े नेता हैं .
मीरा कुमार को संसदीय कूटनीति की एक्सपर्ट माना जाता है .वे खुद भारत की विदेश सेवा की आला अफसर रही हैं . उन्होंने अंतर राष्ट्रीय संबंधों की बारीकियों को बहुत करीब से देखा है. विदेश सेवा के अफसर के रूप में वे स्पेन, ब्रिटेन और मारीशस में काम कर चुकी हैं . राजनीति में उन्होंने १९८५ में प्रवेश किया और लोक सभा में धमाके दार इंट्री ली. अपने पहले चुनाव में ही उन्होंने उत्तर प्रदेश की मौजूदा मुख्यमंत्री मायावती को बिजनौर संसदीय क्षेत्र से हुए उपचुनाव में हराया था. उस चुनाव में कारने वालों में लोकजनशक्ति पार्टी के नेता राम विलास पासवान भी थे. वे केंद्र सरकार में मंत्री भी रहीं .उनके पिता बाबू जगजीवन राम भारत की आज़ादी की लड़ाई के बहुत त बड़े नेता थे . उन्होंने महात्मा गाँधी के साथ काम किया और जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमंडल के सदस्य के रूप में देश में बहुत सारी ऐसी संस्थाओं की स्थापना की जो आज देश को मज़बूत बनाने में अहम भूमिका निभा रही हैं .
ज़ाहिर है दक्षिण एशिया की दो प्रभावशाली महिला राजनेताओं के प्रयास से भारत और पाकिस्तान के समबन्धों में बेहतरी का जज़बा पैदा होगा और उब लोगों को ताक़त मिलेगी जो दोनों देशों के बीच अच्छे रिश्तों के लिए कोशिश कर रहे हैं . पाकिस्तान का सबसे ज्यादा विरोध भारत में बीजेपी के ओर से होता है . अगले हफ्ते जाने वाले प्रतिनिधिमंडल में बीजेपी के दो प्रमुख नेता शामिल हैं. सैय्यद शाहनवाज़ हुसैन पहले भी पाकिस्तान जा चुके हैं . जब वे मणि शंकर ऐय्यर के साथ पाकिस्तान गए थे तो उन्होंने ही कहा था कि जो विवाद के मामले हैं उनपर बात करते रहने की ज़रूरत है लेकिन अगर व्यापार के रास्ते खोल दिए जाएँ तो दोनों की देशों के आम आदमियों का बहुत भला होगा. एक बातचीत में उन्होंने बताया कि चीन से भी भारत का सीमा विवाद है ,उस पर अलग से बात चीत चलती रहती है लेकिन कारोबार भी चलता रहता है . दो देशों के बीच रिश्तों को अच्छा बनने में कारोबार का सबसे ज्यादा योगदान है .उनका कहना है कि पाकिस्तान से भी इसी तरह की बात चीत की ज़रुरत है .
शान्ति के पैरोकारों को लोक सभा की अध्यक्ष मीरा कुमार की इस यात्रा से बहुत उम्मीदें हैं . क्योंकि गैर सरकारी तौर पर तो ट्रैक टू डिप्लोमेसी बहुत वक़्त से चल रही है लेकिन संसद की स्पीकर की संसदीय डिप्लोमेसी की पहल निश्चित रूप से भारत और पाकिस्तान के अवाम के बीच रिश्तों को मज़बूत करने की दिशा में बहुत ही कारगर साबित होगी.
Wednesday, February 15, 2012
उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक राजनीति का कोई भविष्य नहीं है .
शेष नारायण सिंह
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के पहले दौर के मतदान के बाद तस्वीर कुछ साफ़ होने लगी है . करीब एक महीने पहले तक माना जा रहा था कि चुनाव में मुकाबले चार मुख्य पार्टियों में होंगें लेकिन बीजेपी के चुनावी अभियान के कारण उसके पुराने वोटरों में वह उत्साह नहीं पैदा हो सका जिसके लिए यह पार्टी जानी जाती है . इस एक राजनीतिक घटना के चलते उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनाव के तरीके, बदल गए हैं . ज़ाहिर है इनका असर नतीजों पर भी होगा. .
उत्तर प्रदेश की राजनीति के जानकार जानते हैं कि राज्य में सत्ता तक पंहुचने के लिए मुसलमानों का समर्थन बहुत ज़रूरी होता है . इसीलिए सभी राजनीतिक पार्टियों में वोटर को अपनी तरफ खींच लेने की होड़ मची हुई है . गैर बीजेपी पार्टियां अपने को मुसलमानों का सबसे बड़ा शुभचिन्तक बता रही हैं . तीन मुख्य राजनीतिक पार्टियां मुसलमानों के समर्थन के बल पर लखनऊ की सत्ता पर काबिज़ होने के सपने देख रही हैं . इसके लिए जहां पुराने तरीकों को भी अपनाया जा रहा है तो नए से नए तरीके भी अपनाए जा रहे हैं .राज्य की सत्ताधारी पार्टी की मुखिया ने बहुत बड़ी संख्या में मुसलिम उम्मीदवारों को टिकट देकर यह माहौल बनाने की कोशिश की है कि वह मुसलमान की असली शुभचिन्तक हैं . कांग्रेस पार्टी आज़ादी के बाद से ही मुसलमानों में लोकप्रिय हुआ करती थी. लेकिन १९७७ के बाद वह रुख बदला था . ६ दिसंबर १९९२ के बाद तो हालात बिलकुल बदल गए. उसके बाद उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की प्रिय पार्टी का रुतबा समाजवादी पार्टी को मिल गया . लेकिन जब समाजवादी पार्टी ने कल्याण सिंह को साथ ले लिया तो मुसलमानों ने तय कर लिया कि समाजवादी पार्टी उनका ठिकाना नहीं है . उसी एक फैसले के कारण मुसलमानों ने कांग्रेस को फिर एक विकल्प के रूप में देखना शुरू किया. २००९ के लोक सभा चुनावों में इस बदलाव का नतीजा भी सामने आ गया जब राज्य में चौथे मुकाम पर पंहुच चुकी कांग्रेस पार्टी ने पहले से बहुत अधिक सीटें जीतने में सफलता पायी. उसके बाद तो कांग्रेस ने बहुत सारे ऐसे काम किये हैं जिससे लगता है कि कांग्रेस ६ दिसंबर १९९२ के अपने काम के लिए शर्मिंदा है और बात को ठीक करना चाहती है . कांग्रेस की सरकार ने जो सच्चर कमेटी बनायी है वह मुसलमान की हालत सुधारने की दिशा में उठाया गया एक निर्णायक क़दम है . सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आ जाने के बाद अब तक प्रचलित बहुत सारी भ्रांतियों से पर्दा उठ गया है . मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति का प्रचार करके संघ परिवार और उसके मातहत संगठन हर सरकार पर आरोप लगाते रहते थे कि मुसलमान का अपीजमेंट किया जाता है.लेकिन सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद उस तर्क की हवा निकल चुकी है .इतना ही नहीं ,कांग्रेस की सरकार ने रंगनाथ मिश्रा कमीशन बनाकर मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में रिज़र्वेशन देने की भी सरकारी पहल को एक शक्ल दे दी. यू पी ए सरकार ने सरकारी नौकरियों में ओ बी सी कोटे से काटकर साढ़े चार प्रतिशत अल्पसंख्यक आरक्षण की बात की, तो बात कुछ आगे बढ़ी. कांग्रेस ने इसका खूब प्रचार प्रसार भी किया और इस साढ़े चार प्रतिशत को मुसलमान का आरक्षण बताने की राजनीतिक मुहिम चलाई .
१९९२ के बाद से हर चुनाव में मुसलमानों ने बीजेपी को सत्ता से दूर रखने के लिए वोट दिया है . हर बार बीजेपी मुख्य रूप से मुकाबले में रहती थी लेकिन इस बार हालात बदल गए हैं . मौजूदा चुनाव में बीजेपी की वह ताक़त नहीं है कि उस से डर कर मुसलमान ऐसी पार्टी को वोट दे जो बीजेपी को हरा सके. बीजेपी ज़्यादातर सीटों पर मुख्य मुकाबले में ही नहीं है. बहुजन समाज पार्टी के बारे में यह चर्चा पूरे राज्य में सुनने को मिल जाती है कि अगर सरकार बनाने में उसे कुछ सीटें कम पडीं तो वह बीजेपी के समर्थन से सरकार बना लेगी. शायद इसीलिये बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों को टिकट देने के बाद भी आम मुसलमान बहुजन समाज पार्टी को अपनी पहली प्राथमिकता नहीं मान रहा है. उत्तर प्रदेश में आज मुसलमानों के वोट को हासिल करने के लिए मुख्य रूप से मुकाबला कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच है . कांग्रेस की रणनीति मुसलमान को अपने साथ लेने की है . सच्चर कमेटी, रंगनाथ मिश्रा आयोग आदि ऐसे कुछ कार्य हैं जिसके बल पर कांग्रेस अपने आपको मुस्लिम दोस्त के रूप में पेश कर रही है . पार्टी के महासचिव राहुल गांधी कई साल से मुसलमानों से संपर्क बनाए हुये हैं . हर उस ठिकाने पर जाते रहते हैं जिसक सम्बन्ध मुसलमानों से माना जाता है . चुनाव के ठीक अफ्ले ओबीसी मुसलमानों को साढ़े चार प्रतिशत की बात भी की जा चुकी है . लेकिन समाजवादी पार्टी अभी भी मुस्लिम वोटों की मुख्य दावेदार के रूप में पहचानी जा रही है. कम से कम समाजवादी पार्टी कोशिश तो यही कर रही है . समाजवादी पार्टी के सांसद और पार्टी के मुखिया के परिवार के सदस्य धर्मेन्द्र यादव ने अपनी पार्टी की बात विस्तार से की. जब उनसे पूछा गया कि उत्तर प्रदेश में मुसलमान कांग्रेस को छोड़कर उनकी पार्टी को क्यों वोट दे तो वे फ़ौरन शुरू हो गए. बताया कि राज्य में मुसलमानों को कांग्रेस को किसी कीमत पर वोट नहीं देना चाहिए . उन्होंने आरोप लगाया कि कांग्रेस हमेशा से मुसलमानों के हित के खिलाफ काम करती रही है . कांग्रेस ने मुसलमानों के भावनात्मक मुद्दों पर भी गैर ज़िम्मेदार काम किया है . उन्होंने बाबरी मस्जिद के हवाले से बताया कि कांग्रेस ने हमेशा ही मुस्लिम विरोधी रवैया अपनाया है . उनका आरोप है कांग्रेस ने बाबरी मस्जिद में १९४९ में मूर्ति रखवाई ,१९४७ में ताला खुलवाया, १९८९ में शिलान्यास करवाया और कांग्रेस नेता और प्रधान मंत्री पी वी नरसिम्हा राव ने १९९२ में बाबरी मस्जिद के विध्वंस में भूमिका निभाई. समाजवादी पार्टी का आरोप है कि कांग्रेस ने मुसलमानों को सरकारी नौकरियों से बिकुल बेदखल कर दिया. कहते हैं कि १९४७ में सरकारी नौकरियों में राज्य में ३५ प्रतिशत मुसलमान थे जबकि कांग्रेस के राज में वह घट कर २ प्रतिशत रह गया. धर्मेन्द्र यादव का दावा है कि अगर उनकी पार्टी सरकार में आई तो वे मुसलमानों के हित में ठोस क़दम उठायेगें . उर्दू को तरक्की देगें और सरकारी नौकरियों में मुसलमानों को मह्त्व दिया जाएगा.
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के चुनाव का संचालन कर रहे पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह ने समाजवादी पार्टी की बातों को बेबुनियाद बताया . उन्होंने कहा कि समाजवादी पार्टी को इतिहास को सही तरह से समझना चाहिए . उन्होंने कहा कि १९४९ में फैजाबाद के जिस कलेक्टर ने बाबरी मस्जिद में मूर्ति रखवाई थी वह बाद में आर एस एस की राजनीतिक पार्टी जनसंघ की ओर से लोक सभा का सदस्य बना .उसने साज़िश की थी . उसकी साज़िश का नतीजा आजतक पूरा देश भोग़ रहा है.१९९२ में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के लिए निश्चित रूप से प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव ने आर एस एस की साजिश को समझने में गलती की और बाबरी मस्जिद को तबाह करने की योजना में शामिल उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के उस हलफनामे पर विश्वास किया जो उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किया था . बाद में कल्याण सिंह ने सुप्रीम कोर्ट और इस देश की जनता के साथ विश्वासघात किया जिस के लिए उन्हें सुप्रीम कोर्ट ने सज़ा दी और कांग्रेस अब तक उस गलती की सज़ा भोग रही है . जहां तक १९४७ में ३५ प्रतिशत मुसलमानों का सरकारी नौकरी में होने का सवाल है , समाजवादी पार्टी को पता होना चाहिए कि १९४७ के बाद बहुत बड़ी संख्या में मुसलमान पाकिस्तान चले गए थे. वहां जाने वालों में पढ़े लिखे मुसलमानों की संख्या सबसे ज्यादा थी. दिग्विजय सिंह कहते हैं कि जबसे सोनिया गाँधी ने कांग्रेस का नेतृत्व सम्भाला है तब से मुसलमानों के लिए कांग्रेस ने बहुत कल्याणकारी योजनायें चलाईं . उन्होंने दावा किया कि सच्चर कमेटी ,रंगनाथ मिश्रा कमीशन , साढ़े चार प्रतिशत का आरक्षण कुछ ऐसी बातें हैं जिनके बाद मुसलमानों का भविष्य हर हाल में सुधरेगा. कांग्रेस ने मुसलमानों के कल्याण के लिए समर्पित अल्पसंख्यक मंत्रालय की स्थापना करके अपनी मंशा ज़ाहिर कर दी है . दिग्विजय सिंह कहते हैं मुसलमानों के वोट के लिए कोशिश कर रहे मुलायम सिंह यादव को कुछ सवालों के जवाब देने होंगें . वे कहते हैं वास्तव में यह सवाल बार बार मुसलमानों की तरफ से पूछे जाने चाहिए . वे पूछते हैं कि कल्याण सिंह को बाबरी मस्जिद से सम्बंधित एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक दिन सज़ा दी थी, उस सज़ायाफ्ता कल्याण सिंह के लिए मुलायम सिंह यादव ने अपनी पार्टी के आगरा अधिवेशन में जिंदाबाद के नारे लगाए थे.कल्याण सिंह के बेटे को अपने साथ मंत्री बनाया और उसी मंत्रिमंडल में उनके ख़ास दोस्त आज़म खां साहेब भी थे. २००९ के चुनावों में कल्याण सिंह को मुलायम सिंह यादव ने लोक सभा का सदस्य बनवाया और आज भी कल्याण सिंह लोक सभा में मुलायम सिंह की मदद की वजह से ही हैं . साक्षी महाराज बाबरी मस्जिद के विध्वंस अभियुक्त हैं . उनको राज्य सभा में मुलायम सिंह यादव ने ही भेजा था .दिग्विजय सिंह कहते हैं कि उन्होंने इस बात पर रिसर्च किया है कि मुलायम सिंह यादव ने कभी भी आर एस एस के खिलाफ बयान नहीं दिया है और मुलायम सिंह यादव २००३ में बीजेपी के साथ एक गुप्त समझौते के तहत मुख्यमंत्री बने थे. दिग्विजय सिंह के इन आरोपों को टाल पाना मुलायम सिंह यादव के लिए बहुत आसान नहीं होगा.
मुसलमानों के वोट की तीसरी दावेदार बहुजन समाज पार्टी है . वह पार्टी पिछले पांच साल से राज्य में सरकार चला रही है और उसे कोई वादा करने की ज़रुरत नहीं है . लोग उसके काम को साफ़ देख रहे हैं . जैसा कि आम तौर पर होता है हर सत्ताधारी पार्टी को चुनाव में मुश्किल पेश आती है लेकिन मायावती ने जिस बड़ी संख्या में मुसलमानों को टिकट दिया है उसकी रोशनी में कहा जा सकता है कि मुसलमानों की आबादी का एक हिस्सा बहुजन समाज पार्टी को भी वोट देगा. इस बात में दो राय नहीं है कि उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की संख्या अहम भूमिका निभाने वाली है .आबादी के हिसाब से करीब १९ जिले ऐसे हैं जहां मुसलमानों की मर्जी के लोग ही चुने जायेगें . इन जिलों में करीब सवा सौ सीटें हैं . रामपुर ,मुरादाबाद,बिजनौर ,मुज़फ्फरनगर,सहारनपुर, बरेली,बलरामपुर,अमरोहा,मेरठ ,बहराइच और श्रावस्ती में मुसलमान तीस प्रतिशत से ज्यादा हैं . गाज़ियाबाद,लखनऊ , बदायूं, बुलंदशहर, खलीलाबाद पीलीभीत,आदि कुछ ऐसे जिले जहां कुल वोटरों का एक चौथाई संख्या मुसलमानों की है . ज़ाहिर है कि कोई भी पार्टी लखनऊ में सरकार बनाए वह सेकुलर सरकार ही होगी, लगता है कि उत्तर प्रदेश में मौजूदा चुनाव के नतीजे ऐसे होगें कि आने वाले वक़्त में यहाँ साम्प्रदायिक राजनीति कर पाना बहुत मुश्किल हो जाएगा. .
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के पहले दौर के मतदान के बाद तस्वीर कुछ साफ़ होने लगी है . करीब एक महीने पहले तक माना जा रहा था कि चुनाव में मुकाबले चार मुख्य पार्टियों में होंगें लेकिन बीजेपी के चुनावी अभियान के कारण उसके पुराने वोटरों में वह उत्साह नहीं पैदा हो सका जिसके लिए यह पार्टी जानी जाती है . इस एक राजनीतिक घटना के चलते उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनाव के तरीके, बदल गए हैं . ज़ाहिर है इनका असर नतीजों पर भी होगा. .
उत्तर प्रदेश की राजनीति के जानकार जानते हैं कि राज्य में सत्ता तक पंहुचने के लिए मुसलमानों का समर्थन बहुत ज़रूरी होता है . इसीलिए सभी राजनीतिक पार्टियों में वोटर को अपनी तरफ खींच लेने की होड़ मची हुई है . गैर बीजेपी पार्टियां अपने को मुसलमानों का सबसे बड़ा शुभचिन्तक बता रही हैं . तीन मुख्य राजनीतिक पार्टियां मुसलमानों के समर्थन के बल पर लखनऊ की सत्ता पर काबिज़ होने के सपने देख रही हैं . इसके लिए जहां पुराने तरीकों को भी अपनाया जा रहा है तो नए से नए तरीके भी अपनाए जा रहे हैं .राज्य की सत्ताधारी पार्टी की मुखिया ने बहुत बड़ी संख्या में मुसलिम उम्मीदवारों को टिकट देकर यह माहौल बनाने की कोशिश की है कि वह मुसलमान की असली शुभचिन्तक हैं . कांग्रेस पार्टी आज़ादी के बाद से ही मुसलमानों में लोकप्रिय हुआ करती थी. लेकिन १९७७ के बाद वह रुख बदला था . ६ दिसंबर १९९२ के बाद तो हालात बिलकुल बदल गए. उसके बाद उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की प्रिय पार्टी का रुतबा समाजवादी पार्टी को मिल गया . लेकिन जब समाजवादी पार्टी ने कल्याण सिंह को साथ ले लिया तो मुसलमानों ने तय कर लिया कि समाजवादी पार्टी उनका ठिकाना नहीं है . उसी एक फैसले के कारण मुसलमानों ने कांग्रेस को फिर एक विकल्प के रूप में देखना शुरू किया. २००९ के लोक सभा चुनावों में इस बदलाव का नतीजा भी सामने आ गया जब राज्य में चौथे मुकाम पर पंहुच चुकी कांग्रेस पार्टी ने पहले से बहुत अधिक सीटें जीतने में सफलता पायी. उसके बाद तो कांग्रेस ने बहुत सारे ऐसे काम किये हैं जिससे लगता है कि कांग्रेस ६ दिसंबर १९९२ के अपने काम के लिए शर्मिंदा है और बात को ठीक करना चाहती है . कांग्रेस की सरकार ने जो सच्चर कमेटी बनायी है वह मुसलमान की हालत सुधारने की दिशा में उठाया गया एक निर्णायक क़दम है . सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आ जाने के बाद अब तक प्रचलित बहुत सारी भ्रांतियों से पर्दा उठ गया है . मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति का प्रचार करके संघ परिवार और उसके मातहत संगठन हर सरकार पर आरोप लगाते रहते थे कि मुसलमान का अपीजमेंट किया जाता है.लेकिन सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद उस तर्क की हवा निकल चुकी है .इतना ही नहीं ,कांग्रेस की सरकार ने रंगनाथ मिश्रा कमीशन बनाकर मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में रिज़र्वेशन देने की भी सरकारी पहल को एक शक्ल दे दी. यू पी ए सरकार ने सरकारी नौकरियों में ओ बी सी कोटे से काटकर साढ़े चार प्रतिशत अल्पसंख्यक आरक्षण की बात की, तो बात कुछ आगे बढ़ी. कांग्रेस ने इसका खूब प्रचार प्रसार भी किया और इस साढ़े चार प्रतिशत को मुसलमान का आरक्षण बताने की राजनीतिक मुहिम चलाई .
१९९२ के बाद से हर चुनाव में मुसलमानों ने बीजेपी को सत्ता से दूर रखने के लिए वोट दिया है . हर बार बीजेपी मुख्य रूप से मुकाबले में रहती थी लेकिन इस बार हालात बदल गए हैं . मौजूदा चुनाव में बीजेपी की वह ताक़त नहीं है कि उस से डर कर मुसलमान ऐसी पार्टी को वोट दे जो बीजेपी को हरा सके. बीजेपी ज़्यादातर सीटों पर मुख्य मुकाबले में ही नहीं है. बहुजन समाज पार्टी के बारे में यह चर्चा पूरे राज्य में सुनने को मिल जाती है कि अगर सरकार बनाने में उसे कुछ सीटें कम पडीं तो वह बीजेपी के समर्थन से सरकार बना लेगी. शायद इसीलिये बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों को टिकट देने के बाद भी आम मुसलमान बहुजन समाज पार्टी को अपनी पहली प्राथमिकता नहीं मान रहा है. उत्तर प्रदेश में आज मुसलमानों के वोट को हासिल करने के लिए मुख्य रूप से मुकाबला कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच है . कांग्रेस की रणनीति मुसलमान को अपने साथ लेने की है . सच्चर कमेटी, रंगनाथ मिश्रा आयोग आदि ऐसे कुछ कार्य हैं जिसके बल पर कांग्रेस अपने आपको मुस्लिम दोस्त के रूप में पेश कर रही है . पार्टी के महासचिव राहुल गांधी कई साल से मुसलमानों से संपर्क बनाए हुये हैं . हर उस ठिकाने पर जाते रहते हैं जिसक सम्बन्ध मुसलमानों से माना जाता है . चुनाव के ठीक अफ्ले ओबीसी मुसलमानों को साढ़े चार प्रतिशत की बात भी की जा चुकी है . लेकिन समाजवादी पार्टी अभी भी मुस्लिम वोटों की मुख्य दावेदार के रूप में पहचानी जा रही है. कम से कम समाजवादी पार्टी कोशिश तो यही कर रही है . समाजवादी पार्टी के सांसद और पार्टी के मुखिया के परिवार के सदस्य धर्मेन्द्र यादव ने अपनी पार्टी की बात विस्तार से की. जब उनसे पूछा गया कि उत्तर प्रदेश में मुसलमान कांग्रेस को छोड़कर उनकी पार्टी को क्यों वोट दे तो वे फ़ौरन शुरू हो गए. बताया कि राज्य में मुसलमानों को कांग्रेस को किसी कीमत पर वोट नहीं देना चाहिए . उन्होंने आरोप लगाया कि कांग्रेस हमेशा से मुसलमानों के हित के खिलाफ काम करती रही है . कांग्रेस ने मुसलमानों के भावनात्मक मुद्दों पर भी गैर ज़िम्मेदार काम किया है . उन्होंने बाबरी मस्जिद के हवाले से बताया कि कांग्रेस ने हमेशा ही मुस्लिम विरोधी रवैया अपनाया है . उनका आरोप है कांग्रेस ने बाबरी मस्जिद में १९४९ में मूर्ति रखवाई ,१९४७ में ताला खुलवाया, १९८९ में शिलान्यास करवाया और कांग्रेस नेता और प्रधान मंत्री पी वी नरसिम्हा राव ने १९९२ में बाबरी मस्जिद के विध्वंस में भूमिका निभाई. समाजवादी पार्टी का आरोप है कि कांग्रेस ने मुसलमानों को सरकारी नौकरियों से बिकुल बेदखल कर दिया. कहते हैं कि १९४७ में सरकारी नौकरियों में राज्य में ३५ प्रतिशत मुसलमान थे जबकि कांग्रेस के राज में वह घट कर २ प्रतिशत रह गया. धर्मेन्द्र यादव का दावा है कि अगर उनकी पार्टी सरकार में आई तो वे मुसलमानों के हित में ठोस क़दम उठायेगें . उर्दू को तरक्की देगें और सरकारी नौकरियों में मुसलमानों को मह्त्व दिया जाएगा.
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के चुनाव का संचालन कर रहे पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह ने समाजवादी पार्टी की बातों को बेबुनियाद बताया . उन्होंने कहा कि समाजवादी पार्टी को इतिहास को सही तरह से समझना चाहिए . उन्होंने कहा कि १९४९ में फैजाबाद के जिस कलेक्टर ने बाबरी मस्जिद में मूर्ति रखवाई थी वह बाद में आर एस एस की राजनीतिक पार्टी जनसंघ की ओर से लोक सभा का सदस्य बना .उसने साज़िश की थी . उसकी साज़िश का नतीजा आजतक पूरा देश भोग़ रहा है.१९९२ में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के लिए निश्चित रूप से प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव ने आर एस एस की साजिश को समझने में गलती की और बाबरी मस्जिद को तबाह करने की योजना में शामिल उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के उस हलफनामे पर विश्वास किया जो उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किया था . बाद में कल्याण सिंह ने सुप्रीम कोर्ट और इस देश की जनता के साथ विश्वासघात किया जिस के लिए उन्हें सुप्रीम कोर्ट ने सज़ा दी और कांग्रेस अब तक उस गलती की सज़ा भोग रही है . जहां तक १९४७ में ३५ प्रतिशत मुसलमानों का सरकारी नौकरी में होने का सवाल है , समाजवादी पार्टी को पता होना चाहिए कि १९४७ के बाद बहुत बड़ी संख्या में मुसलमान पाकिस्तान चले गए थे. वहां जाने वालों में पढ़े लिखे मुसलमानों की संख्या सबसे ज्यादा थी. दिग्विजय सिंह कहते हैं कि जबसे सोनिया गाँधी ने कांग्रेस का नेतृत्व सम्भाला है तब से मुसलमानों के लिए कांग्रेस ने बहुत कल्याणकारी योजनायें चलाईं . उन्होंने दावा किया कि सच्चर कमेटी ,रंगनाथ मिश्रा कमीशन , साढ़े चार प्रतिशत का आरक्षण कुछ ऐसी बातें हैं जिनके बाद मुसलमानों का भविष्य हर हाल में सुधरेगा. कांग्रेस ने मुसलमानों के कल्याण के लिए समर्पित अल्पसंख्यक मंत्रालय की स्थापना करके अपनी मंशा ज़ाहिर कर दी है . दिग्विजय सिंह कहते हैं मुसलमानों के वोट के लिए कोशिश कर रहे मुलायम सिंह यादव को कुछ सवालों के जवाब देने होंगें . वे कहते हैं वास्तव में यह सवाल बार बार मुसलमानों की तरफ से पूछे जाने चाहिए . वे पूछते हैं कि कल्याण सिंह को बाबरी मस्जिद से सम्बंधित एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक दिन सज़ा दी थी, उस सज़ायाफ्ता कल्याण सिंह के लिए मुलायम सिंह यादव ने अपनी पार्टी के आगरा अधिवेशन में जिंदाबाद के नारे लगाए थे.कल्याण सिंह के बेटे को अपने साथ मंत्री बनाया और उसी मंत्रिमंडल में उनके ख़ास दोस्त आज़म खां साहेब भी थे. २००९ के चुनावों में कल्याण सिंह को मुलायम सिंह यादव ने लोक सभा का सदस्य बनवाया और आज भी कल्याण सिंह लोक सभा में मुलायम सिंह की मदद की वजह से ही हैं . साक्षी महाराज बाबरी मस्जिद के विध्वंस अभियुक्त हैं . उनको राज्य सभा में मुलायम सिंह यादव ने ही भेजा था .दिग्विजय सिंह कहते हैं कि उन्होंने इस बात पर रिसर्च किया है कि मुलायम सिंह यादव ने कभी भी आर एस एस के खिलाफ बयान नहीं दिया है और मुलायम सिंह यादव २००३ में बीजेपी के साथ एक गुप्त समझौते के तहत मुख्यमंत्री बने थे. दिग्विजय सिंह के इन आरोपों को टाल पाना मुलायम सिंह यादव के लिए बहुत आसान नहीं होगा.
मुसलमानों के वोट की तीसरी दावेदार बहुजन समाज पार्टी है . वह पार्टी पिछले पांच साल से राज्य में सरकार चला रही है और उसे कोई वादा करने की ज़रुरत नहीं है . लोग उसके काम को साफ़ देख रहे हैं . जैसा कि आम तौर पर होता है हर सत्ताधारी पार्टी को चुनाव में मुश्किल पेश आती है लेकिन मायावती ने जिस बड़ी संख्या में मुसलमानों को टिकट दिया है उसकी रोशनी में कहा जा सकता है कि मुसलमानों की आबादी का एक हिस्सा बहुजन समाज पार्टी को भी वोट देगा. इस बात में दो राय नहीं है कि उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की संख्या अहम भूमिका निभाने वाली है .आबादी के हिसाब से करीब १९ जिले ऐसे हैं जहां मुसलमानों की मर्जी के लोग ही चुने जायेगें . इन जिलों में करीब सवा सौ सीटें हैं . रामपुर ,मुरादाबाद,बिजनौर ,मुज़फ्फरनगर,सहारनपुर, बरेली,बलरामपुर,अमरोहा,मेरठ ,बहराइच और श्रावस्ती में मुसलमान तीस प्रतिशत से ज्यादा हैं . गाज़ियाबाद,लखनऊ , बदायूं, बुलंदशहर, खलीलाबाद पीलीभीत,आदि कुछ ऐसे जिले जहां कुल वोटरों का एक चौथाई संख्या मुसलमानों की है . ज़ाहिर है कि कोई भी पार्टी लखनऊ में सरकार बनाए वह सेकुलर सरकार ही होगी, लगता है कि उत्तर प्रदेश में मौजूदा चुनाव के नतीजे ऐसे होगें कि आने वाले वक़्त में यहाँ साम्प्रदायिक राजनीति कर पाना बहुत मुश्किल हो जाएगा. .
Wednesday, February 8, 2012
१९४७ में भारत में विलय को कश्मीरी अवाम ने आज़ादी माना था.
शेष नारायण सिंह
जश्ने आजादी नाम की एक फिल्म के हवाले से कश्मीर एक बार फिर फोकस में है . पुणे में यह फिल्म दिखाई जानी थी लेकिन एक राजनीतिक पार्टी की छात्र शाखा के लोगों को लगा कि ऐसा नहीं होना चाहिए .सच्चाई यह है कि कश्मीर की आज़ादी की अवधारणा बाकी देश की अवधारणा से बिलकुल अलग है .कश्मीर के सन्दर्भ में आज़ादी का मतलब भी भारत में विलय ही था .कश्मीर को मुग़ल सम्राट अकबर ने १५८६ में अपने राज्य में मिला लिया था . उसी दिन से कश्मीरी अपने को गुलाम मानता था. और जब ३६१ साल बाद कश्मीर का भारत में अक्टूबर १९४७ में विलय हुआ तो मुसलमान और हिन्दू कश्मीरियों ने अपने आपको आज़ाद माना. इस बीच मुसलमानों, सिखों और हिन्दू राजाओं का कश्मीर में शासन रहा लेकिन कश्मीरी उन सबको विदेशी शासक मानता रहा.अंतिम हिन्दू राजा, हरी सिंह के खिलाफ आज़ादी की जो लड़ाई शुरू हुयी उसके नेता, शेख अब्दुल्ला थे. शेख ने आज़ादी के पहले कश्मीर छोडो का नारा दिया.इस आन्दोलन को जिनाह ने गुंडों का आन्दोलन कहा था क्योंकि वे राजा के बड़े खैरख्वाह थे जबकि जवाहरलाल नेहरू कश्मीर छोडो आन्दोलन में शामिल हुए और शेख अब्दुल्ला के कंधे से कंधे मिला कर खड़े हुए . इसलिए कश्मीर में हिन्दू या मुस्लिम का सवाल कभी नहीं था .वहां तो गैर कश्मीरी और कश्मीरी शासक का सवाल था और उस दौर में शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के इकलौते नेता थे. लेकिन राजा भी कम जिद्दी नहीं थे . उन्होंने शेख अब्दुल्ला के ऊपर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया . उस मुक़दमे में शेख के वकील थे इलाहाबाद के बैरिस्टर जवाहर लाल नेहरू .. १ अगस्त १९४७ को महात्मा गांधी कश्मीर गए और उन्होंने घोषणा कर दी कि जिस अमृतसर समझौते को आधार बनाकर हरि सिंह कश्मीर पर राज कर रहे हैं वह वास्तव में एक बैनामा है . उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर को हरि सिंह के पूर्वजों ने अंग्रेजों से खरीदा था . अंग्रेजों के चले जाने के बाद उस गैर कानूनी बैनामे का कोई महत्व नहीं है . गाँधी जी ने एक और बात कहीं जो सबको बहुत अच्छी लगी. उन्होंने कहा कि सता का असली हक़दार कश्मीरी अवाम हैं जबकि जिन्नाह कहते रहते थे कि देशी राजाओं की सत्ता को उनसे छीना नहीं जा सकता .राजा के खिलाफ संघर्ष कर रहे कश्मीरी अवाम को महात्मा गांधी की यह बात बहुत अच्छी लगी. जबकि राजा सब कुछ लुट जाने के बाद भी अपने आप को सर्वोच्च्च मानते रहे. इसीलिये देश द्रोह के मुक़दमे में फंसाए गए शेख अद्बुल्ला को रिहा करने में देरी हुई क्योंकि राजा उनसे लिखवा लेना चाहता था कि वे आगे से उसके प्रति वफादार रहेगें.
शेख अब्दुल्ला ,कश्मीरी अवाम के हीरो थे . उन्होंने इन् बातों की कोई परवाह नहीं की. कश्मीरी अवाम के हित के लिए उन्होंने भारत और पाकिस्तान से बात चीत का सिलसिला जारी रखा अपने दो साथियों, बख्शी गुलाम मुहम्मद और गुलाम मुहम्मद सादिक को तो कराची भेज दिया और खुद दिल्ली चले गए . वहां वे जवाहरलाल नेहरू के घर पर रुके. कराची गए शेख के नुमाइंदों से न तो जिन्ना मिले और न ही लियाक़त अली. शेख ने अपनी आत्म कथा में लिखा है कि कश्मीरी अवाम के नेता वहां दूसरे दर्जे के पाकिस्तानी नेताओं से बात कर रहे थे और इधर कश्मीर में पाकिस्तानी सेना के साथ बढ़ रहे कबायली लड़ाके,कश्मीर की ज़मीन और कश्मीरी अधिकारों को अपने बूटों तले रौंद रहे थे. तेज़ी से बढ़ रहे कबायलियों को रोकना डोगरा सेना के ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह के बस की बात नहीं थी. . पाकिस्तान के इस हमले के कारण कश्मीरी अवाम पाकिस्तान के खिलाफ हो गया . क्योंकि महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू तो जनता की सत्ता की बात करते थे जबकि पाकिस्तान उनकी आज़ादी पर ही हमला कर रहा था. इसके बाद कश्मीर के राजा के पास भारत से मदद माँगने के अलावा कोई रास्ता नहीं था.. महाराजा के प्रधान मंत्री, मेहर चंद महाजन २६ अक्टूबर को दिल्ली भागे. उनको जवाहरलाल नेहरू के घर पर बातचीत के लिए समय दिया गया .उन्होंने नेहरू से कहा कि महाराजा भारत के साथ विलय करना चाहते हैं . लेकिन एक शर्त भी थी. वह यह कि भारत की सेना आज ही कश्मीर पंहुच जाए और पाकिस्तानी हमले से उनकी रक्षा करे वरना वे पाकिस्तान से बात चीत शुरू कर देगें. उनकी यह शर्त सुनकर जवाहर लाल नेहरू आग बबूला हो गए और महाजन से कहा '" गेट आउट " . बगल के कमरे में शेख अब्दुल्ला आराम कर रहे थे. बाहर आये और नेहरू का गुस्सा शांत कराया . . इसके बाद महाराजा ने विलय के कागज़ात पर दस्तखत किया और उसे २७ अक्टूबर को भारत सरकार ने मंज़ूर कर लिया. भारत की फौज़ को तुरंत रवाना किया गया और कश्मीर से पाकिस्तानी शह पर आये कबायलियों को हटा दिया गया .कश्मीरी अवाम ने कहा कि भारत हमारी आज़ादी की रक्षा के लिए आया है जबकि पाकिस्तान ने फौजी हमला करके हमारी आजादी को रौंदने की कोशिश की थी. उस दौर में आज़ादी का मतलब भारत से दोस्ती हुआ करती थी लेकिन अब वह बात नहीं है.
कश्मीर का मसला बाद में संयुक्त राष्ट्र में ले जाया गया और उसके बाद बहुत सारे ऐसे काम हुए कि अक्टूबर १९४७ वाली बात नहीं रही. संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पास हुआ कि कश्मीरी जनता से पूछ कर तय किया जाय कि वे किधर जाना चाहते हैं . भारत ने इस प्रस्ताव का खुले दिल से समर्थन किया लेकिन पाकिस्तान वाले भागते रहे , उस दौर में पाकिस्तान कश्मीर में जनमत संग्रह का विरोध करता था.शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के हीरो थे और वे जिधर चाहते उधर ही कश्मीर जाता . लेकिन १९५३ के बाद यह हालात भी बदल गए. . बाद में पाकिस्तान जनमत संग्रह के पक्ष में हो गया और भारत उस से पीछा छुडाने लगा . इन हालात के पैदा होने में बहुत सारे कारण हैं.बात यहाँ तक बिगड़ गयी कि शेख अब्दुल्ला की सरकार बर्खास्त की गयी, और शेख अब्दुल्ला को ९ अगस्त १९५३ के दिन गिरफ्तार कर लिया गया.उसके बाद तो फिर वह बात कभी नहीं रही. बीच में राजा के वफादार नेताओं की टोली जिसे प्रजा परिषद् के नाम से जाना जाता था, ने हालात को बहुत बिगाड़ा . अपने अंतिम दिनों में जवाहर लाल ने शेख अब्दुल्ला से बात करके स्थिति को दुरुस्त करने की कोशिश फिर से शुरू कर दिया था. ६ अप्रैल १९६४ को शेख अब्दुल्ला को जम्मू जेल से रिहा किया गया और नेहरू से उनकी मुलाक़ात हुई. शेख अब्दुल्ला ने एक बयान दिया जिसे लिखा कश्मीरी मामलों के जानकार बलराज पुरी ने था . शेख ने कहा कि उनके नेतृत्व में ही जम्मू कश्मीर का विलय भारत में हुआ था . वे हर उस बात को अपनी बात मानते हैं जो उन्होंने अपनी गिरफ्तारी के पहले ८ अगस्त १९५३ तक कहा था. नेहरू भी पाकिस्तान से बात करना चाहते थे और किसी तरह से समस्या को हल करना चाहते थे.. नेहरू ने इसी सिलसिले में शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तान जाकर संभावना तलाशने का काम सौंपा.. शेख गए . और २७ मई १९६४ के ,दिन जब पाक अधिकृत कश्मीर के मुज़फ्फराबाद में उनके लिए दोपहर के भोजन के लिए की गयी व्यवस्था में उनके पुराने दोस्त मौजूद थे, जवाहरलाल नेहरू की मौत की खबर आई. बताते हैं कि खबर सुन कर शेख अब्दुल्ला फूट फूट कर रोये थे. नेहरू के मरने के बाद तो हालात बहुत तेज़ी से बिगड़ने लगे . कश्मीर के मामलों में नेहरू के बाद के नेताओं ने कानूनी हस्तक्षेप की तैयारी शुरू कर दी,..वहां संविधान की धारा ३५६ और ३५७ लागू कर दी गयी. इसके बाद शेख अब्दुल्ला को एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया. इस बीच पाकिस्तान ने एक बार फिर कश्मीर पर हमला करके उसे कब्जाने की कोशिश की लेकिन पाकिस्तानी फौज ने मुंह की खाई और ताशकंद में जाकर रूसी दखल से सुलह हुई.
भारत में उसके बाद अदूरदर्शी शासक आते गए. हद तो तब हुए जब राजीव गांधी के प्रधान मंत्रित्वा के दौरान अरुण नेहरू ने शेख साहेब के दामाद ,गुज शाह हो मुख्य मंत्री बनावाकर फारूक अब्दुल्ला से बदला ने की कोशिश की . एक बार फिर साफ़ हो गया कि दिल्ली वाले कश्मीरी अवाम के पक्ष धर नहीं हैं , वेट तो कश्मीर पर हुकूमत करना चाहते हैं . उसके बाद एक से एक गलतियाँ होती गयीं. जगमोहन को राज्य का गवर्नर बनाकर भेजा गया . उन्होंने जो कुछ भी किया उसे कश्मीरी जनता ने पसंद नहीं किया. वी पी सिंह सरकार में गृह मंत्री रहे मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी का अपहरण करके आतंकवादियों ने साबित कर दिया कि वे कश्मीरी जनता को भारत के खिलाफ कर चुके हैं . बाद में तो भारत की सेना ने ही कश्मीर को सम्भाला. और हालात बाद से बदतर होते गए . आज आलम यह है कि कश्मीर के बारे में कुछ भे एबोलकर हर तरह के स्वार्थी लोग अपने एराजनीति चमकाते फिर रह एहियन . ज़रुरत इस बात की है कि कश्मीर में वही माहौल एक बार फिर पैदा हो जो १९५३ के पहले था. वरना पता नहीं कब तक कश्मीर का आम आदमी राजनीतिक स्वार्थों का शिकार होता रहेगा.
जश्ने आजादी नाम की एक फिल्म के हवाले से कश्मीर एक बार फिर फोकस में है . पुणे में यह फिल्म दिखाई जानी थी लेकिन एक राजनीतिक पार्टी की छात्र शाखा के लोगों को लगा कि ऐसा नहीं होना चाहिए .सच्चाई यह है कि कश्मीर की आज़ादी की अवधारणा बाकी देश की अवधारणा से बिलकुल अलग है .कश्मीर के सन्दर्भ में आज़ादी का मतलब भी भारत में विलय ही था .कश्मीर को मुग़ल सम्राट अकबर ने १५८६ में अपने राज्य में मिला लिया था . उसी दिन से कश्मीरी अपने को गुलाम मानता था. और जब ३६१ साल बाद कश्मीर का भारत में अक्टूबर १९४७ में विलय हुआ तो मुसलमान और हिन्दू कश्मीरियों ने अपने आपको आज़ाद माना. इस बीच मुसलमानों, सिखों और हिन्दू राजाओं का कश्मीर में शासन रहा लेकिन कश्मीरी उन सबको विदेशी शासक मानता रहा.अंतिम हिन्दू राजा, हरी सिंह के खिलाफ आज़ादी की जो लड़ाई शुरू हुयी उसके नेता, शेख अब्दुल्ला थे. शेख ने आज़ादी के पहले कश्मीर छोडो का नारा दिया.इस आन्दोलन को जिनाह ने गुंडों का आन्दोलन कहा था क्योंकि वे राजा के बड़े खैरख्वाह थे जबकि जवाहरलाल नेहरू कश्मीर छोडो आन्दोलन में शामिल हुए और शेख अब्दुल्ला के कंधे से कंधे मिला कर खड़े हुए . इसलिए कश्मीर में हिन्दू या मुस्लिम का सवाल कभी नहीं था .वहां तो गैर कश्मीरी और कश्मीरी शासक का सवाल था और उस दौर में शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के इकलौते नेता थे. लेकिन राजा भी कम जिद्दी नहीं थे . उन्होंने शेख अब्दुल्ला के ऊपर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया . उस मुक़दमे में शेख के वकील थे इलाहाबाद के बैरिस्टर जवाहर लाल नेहरू .. १ अगस्त १९४७ को महात्मा गांधी कश्मीर गए और उन्होंने घोषणा कर दी कि जिस अमृतसर समझौते को आधार बनाकर हरि सिंह कश्मीर पर राज कर रहे हैं वह वास्तव में एक बैनामा है . उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर को हरि सिंह के पूर्वजों ने अंग्रेजों से खरीदा था . अंग्रेजों के चले जाने के बाद उस गैर कानूनी बैनामे का कोई महत्व नहीं है . गाँधी जी ने एक और बात कहीं जो सबको बहुत अच्छी लगी. उन्होंने कहा कि सता का असली हक़दार कश्मीरी अवाम हैं जबकि जिन्नाह कहते रहते थे कि देशी राजाओं की सत्ता को उनसे छीना नहीं जा सकता .राजा के खिलाफ संघर्ष कर रहे कश्मीरी अवाम को महात्मा गांधी की यह बात बहुत अच्छी लगी. जबकि राजा सब कुछ लुट जाने के बाद भी अपने आप को सर्वोच्च्च मानते रहे. इसीलिये देश द्रोह के मुक़दमे में फंसाए गए शेख अद्बुल्ला को रिहा करने में देरी हुई क्योंकि राजा उनसे लिखवा लेना चाहता था कि वे आगे से उसके प्रति वफादार रहेगें.
शेख अब्दुल्ला ,कश्मीरी अवाम के हीरो थे . उन्होंने इन् बातों की कोई परवाह नहीं की. कश्मीरी अवाम के हित के लिए उन्होंने भारत और पाकिस्तान से बात चीत का सिलसिला जारी रखा अपने दो साथियों, बख्शी गुलाम मुहम्मद और गुलाम मुहम्मद सादिक को तो कराची भेज दिया और खुद दिल्ली चले गए . वहां वे जवाहरलाल नेहरू के घर पर रुके. कराची गए शेख के नुमाइंदों से न तो जिन्ना मिले और न ही लियाक़त अली. शेख ने अपनी आत्म कथा में लिखा है कि कश्मीरी अवाम के नेता वहां दूसरे दर्जे के पाकिस्तानी नेताओं से बात कर रहे थे और इधर कश्मीर में पाकिस्तानी सेना के साथ बढ़ रहे कबायली लड़ाके,कश्मीर की ज़मीन और कश्मीरी अधिकारों को अपने बूटों तले रौंद रहे थे. तेज़ी से बढ़ रहे कबायलियों को रोकना डोगरा सेना के ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह के बस की बात नहीं थी. . पाकिस्तान के इस हमले के कारण कश्मीरी अवाम पाकिस्तान के खिलाफ हो गया . क्योंकि महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू तो जनता की सत्ता की बात करते थे जबकि पाकिस्तान उनकी आज़ादी पर ही हमला कर रहा था. इसके बाद कश्मीर के राजा के पास भारत से मदद माँगने के अलावा कोई रास्ता नहीं था.. महाराजा के प्रधान मंत्री, मेहर चंद महाजन २६ अक्टूबर को दिल्ली भागे. उनको जवाहरलाल नेहरू के घर पर बातचीत के लिए समय दिया गया .उन्होंने नेहरू से कहा कि महाराजा भारत के साथ विलय करना चाहते हैं . लेकिन एक शर्त भी थी. वह यह कि भारत की सेना आज ही कश्मीर पंहुच जाए और पाकिस्तानी हमले से उनकी रक्षा करे वरना वे पाकिस्तान से बात चीत शुरू कर देगें. उनकी यह शर्त सुनकर जवाहर लाल नेहरू आग बबूला हो गए और महाजन से कहा '" गेट आउट " . बगल के कमरे में शेख अब्दुल्ला आराम कर रहे थे. बाहर आये और नेहरू का गुस्सा शांत कराया . . इसके बाद महाराजा ने विलय के कागज़ात पर दस्तखत किया और उसे २७ अक्टूबर को भारत सरकार ने मंज़ूर कर लिया. भारत की फौज़ को तुरंत रवाना किया गया और कश्मीर से पाकिस्तानी शह पर आये कबायलियों को हटा दिया गया .कश्मीरी अवाम ने कहा कि भारत हमारी आज़ादी की रक्षा के लिए आया है जबकि पाकिस्तान ने फौजी हमला करके हमारी आजादी को रौंदने की कोशिश की थी. उस दौर में आज़ादी का मतलब भारत से दोस्ती हुआ करती थी लेकिन अब वह बात नहीं है.
कश्मीर का मसला बाद में संयुक्त राष्ट्र में ले जाया गया और उसके बाद बहुत सारे ऐसे काम हुए कि अक्टूबर १९४७ वाली बात नहीं रही. संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पास हुआ कि कश्मीरी जनता से पूछ कर तय किया जाय कि वे किधर जाना चाहते हैं . भारत ने इस प्रस्ताव का खुले दिल से समर्थन किया लेकिन पाकिस्तान वाले भागते रहे , उस दौर में पाकिस्तान कश्मीर में जनमत संग्रह का विरोध करता था.शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के हीरो थे और वे जिधर चाहते उधर ही कश्मीर जाता . लेकिन १९५३ के बाद यह हालात भी बदल गए. . बाद में पाकिस्तान जनमत संग्रह के पक्ष में हो गया और भारत उस से पीछा छुडाने लगा . इन हालात के पैदा होने में बहुत सारे कारण हैं.बात यहाँ तक बिगड़ गयी कि शेख अब्दुल्ला की सरकार बर्खास्त की गयी, और शेख अब्दुल्ला को ९ अगस्त १९५३ के दिन गिरफ्तार कर लिया गया.उसके बाद तो फिर वह बात कभी नहीं रही. बीच में राजा के वफादार नेताओं की टोली जिसे प्रजा परिषद् के नाम से जाना जाता था, ने हालात को बहुत बिगाड़ा . अपने अंतिम दिनों में जवाहर लाल ने शेख अब्दुल्ला से बात करके स्थिति को दुरुस्त करने की कोशिश फिर से शुरू कर दिया था. ६ अप्रैल १९६४ को शेख अब्दुल्ला को जम्मू जेल से रिहा किया गया और नेहरू से उनकी मुलाक़ात हुई. शेख अब्दुल्ला ने एक बयान दिया जिसे लिखा कश्मीरी मामलों के जानकार बलराज पुरी ने था . शेख ने कहा कि उनके नेतृत्व में ही जम्मू कश्मीर का विलय भारत में हुआ था . वे हर उस बात को अपनी बात मानते हैं जो उन्होंने अपनी गिरफ्तारी के पहले ८ अगस्त १९५३ तक कहा था. नेहरू भी पाकिस्तान से बात करना चाहते थे और किसी तरह से समस्या को हल करना चाहते थे.. नेहरू ने इसी सिलसिले में शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तान जाकर संभावना तलाशने का काम सौंपा.. शेख गए . और २७ मई १९६४ के ,दिन जब पाक अधिकृत कश्मीर के मुज़फ्फराबाद में उनके लिए दोपहर के भोजन के लिए की गयी व्यवस्था में उनके पुराने दोस्त मौजूद थे, जवाहरलाल नेहरू की मौत की खबर आई. बताते हैं कि खबर सुन कर शेख अब्दुल्ला फूट फूट कर रोये थे. नेहरू के मरने के बाद तो हालात बहुत तेज़ी से बिगड़ने लगे . कश्मीर के मामलों में नेहरू के बाद के नेताओं ने कानूनी हस्तक्षेप की तैयारी शुरू कर दी,..वहां संविधान की धारा ३५६ और ३५७ लागू कर दी गयी. इसके बाद शेख अब्दुल्ला को एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया. इस बीच पाकिस्तान ने एक बार फिर कश्मीर पर हमला करके उसे कब्जाने की कोशिश की लेकिन पाकिस्तानी फौज ने मुंह की खाई और ताशकंद में जाकर रूसी दखल से सुलह हुई.
भारत में उसके बाद अदूरदर्शी शासक आते गए. हद तो तब हुए जब राजीव गांधी के प्रधान मंत्रित्वा के दौरान अरुण नेहरू ने शेख साहेब के दामाद ,गुज शाह हो मुख्य मंत्री बनावाकर फारूक अब्दुल्ला से बदला ने की कोशिश की . एक बार फिर साफ़ हो गया कि दिल्ली वाले कश्मीरी अवाम के पक्ष धर नहीं हैं , वेट तो कश्मीर पर हुकूमत करना चाहते हैं . उसके बाद एक से एक गलतियाँ होती गयीं. जगमोहन को राज्य का गवर्नर बनाकर भेजा गया . उन्होंने जो कुछ भी किया उसे कश्मीरी जनता ने पसंद नहीं किया. वी पी सिंह सरकार में गृह मंत्री रहे मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी का अपहरण करके आतंकवादियों ने साबित कर दिया कि वे कश्मीरी जनता को भारत के खिलाफ कर चुके हैं . बाद में तो भारत की सेना ने ही कश्मीर को सम्भाला. और हालात बाद से बदतर होते गए . आज आलम यह है कि कश्मीर के बारे में कुछ भे एबोलकर हर तरह के स्वार्थी लोग अपने एराजनीति चमकाते फिर रह एहियन . ज़रुरत इस बात की है कि कश्मीर में वही माहौल एक बार फिर पैदा हो जो १९५३ के पहले था. वरना पता नहीं कब तक कश्मीर का आम आदमी राजनीतिक स्वार्थों का शिकार होता रहेगा.
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शेष नारायण सिंह
Saturday, January 28, 2012
पाकिस्तान में लोकतंत्र की मजबूती से इस इलाके में शान्ति कायम होगी
शेष नारायण सिंह
पाकिस्तानी अखबार डान के पहले पेज पर खबर छपी है कि पाकिस्तानी फौज के मुखिया, जनरल अशफाक परवेज़ कयानी और आई एस आई के महानिदेशक लेफ्टिनेंट जनरल शुजा पाशा ने मंगलवार को प्रधान मंत्री युसूफ रजा गीलानी के दफ्तर जाकर उनसे मुलाक़ात की . इस बैठक में राजकाज के बहुत सारी बातों के अलावा यह भी तय किया गया कि अफगानिस्तान में सरकार की नीतियों को लागू करने की दिशा में क्या क़दम उठाये जाने हैं . प्रधानमंत्री ने विदेशमंत्री, हिना रब्बानी खार को अफगानिस्तान की यात्रा करने का निर्देश दिया .इस यात्रा का उद्देश्य अमरीका-पाकिस्तान-अफगानिस्तान की शीर्ष बैठक के पहले माहौल ठीक करना भी बताया गया है .
इस खबर का ज़िक्र करने का मतलब यह है कि जहाँ पाकिस्तानी फौज और आई एस आई देश की सबसे ताक़तवर संस्थाएं मानी जाती थीं और अगर किसी नवाज़ शरीफ या किसी ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने उसका हुक्म नहीं माना तो उसे सत्ता से बेदखल कर दिया जाता था, उसी पाकिस्तान में प्रधानमंत्री युसूफ रज़ा गीलानी के सख्त तेवर के बाद आई एस आई और फौज का मुखिया राजकाज के मामलों की चर्चा में शामिल होने के लिए प्रधान मंत्री के यहाँ हाजिरी लगा रहा है . पाकिस्तान के पिछले साठ साल के इतिहास को जानने वाले जानते हैं कि फौज का मुखिया डांट खाने के बाद कभी किसी भी सिविलियन सरकार को सत्ता से बेदखल करने के लिए ही उसके दफतर जाता है .लेकिन पाकिस्तान में भी हालात बदल रहे हैं . चारों तरफ से लोकतंत्र की मजबूती की खबरें आ रही हैं जो पाकिस्तान के लिए तो बहुत अच्छा है ही, भारत और अफगानिस्तान के लिए बहुत अच्छा है, बाकी दुनिया के लिए बहुत अच्छा है .
पाकिस्तान के बारे में पिछले कुछ महीनों से अजीब खबरें आ रही थीं . पाकिस्तानी मामलों के भारत में मौजूद लाल बुझक्कड़ अक्सर बताते रहते हैं कि बहुत जल्द पाकिस्तान में फौजी हुकूमत कायम होने वाली है. लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है . जब से सिविलियन हुकूमत ने फौज को अपनी हद में रहने की हिदायत दी है,उसी वक़्त से बार बार यह चर्चा जोर पकड़ लेती है कि फौज अब फ़ौरन राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री की छुट्टी कर देगी और खुद सरकार बन जायेगी. सारी दुनिया में पाकिस्तानी मामलों के जानकार अपनी इस तर्ज़ पर की गयी भविष्यवाणियों के पूरा होने का इंतज़ार करते रहे लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.पाकिस्तानी मीडिया में भी इस तरह की खबरें रोज़ ही आ रही थीं कि पता नहीं कब क्या हो जाए लेकिन लगता है कि वहां लोकशाही की जड़ें मज़बूत होना शुरू हो गयी हैं .पाकिस्तानी बुद्धिजीवियों को विश्वास होने लगा है कि अब उनके देश में लोकतंत्र के लिए अब पहले से ज़्यादा अवसर मौजूद हैं . हालांकि यह भी हो सकता है कि आने वाले कुछ हफ़्तों में मौजूदा सरकार हटा दी जाए लेकिन सिविलियन हुकूमत के पिछले कुछ हफ़्तों के तेवर ऐसे हैं जो पक्की तरह से लोक शाही की ताकत का सन्देश देते हैं . अगर मौजूदा सरकार चुनाव के पहले नहीं हटाई जायेगी गयी तो पाकिस्तान के इतिहास में पहली सिविलियन सरकार बन जायेगी जिसने अपने पूरा कार्यकाल पूरा किया हो .
पाकिस्तान में सारा विवाद तब शुरू हुआ जब उनकी फौज की नाक के नीचे ओसामा बिन लादेन की मौजूदगी साबित हो गयी जबकि जनरल परवेश मुशर्रफ से लेकर जनरल कयानी तक सभी फौजी कहते रहे थे कि उन्हें नहीं मालूम कि ओसामा कहाँ है. उसके बाद जब सरकार ने फौज को आइना दिखाने की कोशिश की तो सेना मुख्यालय से तख्तापलट के संकेत आने लगे थे . बाद में उसी चक्कर में मेमो काण्ड वाला लफडा भी हुआ . लगने लगा कि सिविलियन हुकूमत के आदेश न मानने के लिए बदनाम पाकिस्तानी फौज अब सरकार की छुट्टी कर देगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ .पाकिस्तान में फौज ने चार बार सिविलियन सत्ता को हटाकर खुद गद्दी पर क़ब्ज़ा किया है . चारों बार सडकों पर टैंक उतार दिए जाते थे, रेडियो और टेलीविज़न पर क़ब्ज़ा कर लिया जाता था और सिविलियन शासक को पकड़ लिया जाता था . इस बार ऐसा संभव नहीं है . आज न्यायपालिका एक मज़बूत सत्ता केंद्र के रूपमें विकसित हो चुकी है , पाकिस्तानी मीडिया भी अपनी भूमिका बहुत ही खूबी से निभा रहा है और आज मीडिया ब्लैक और का सपना देखना किसी ही शासक के लिए संभव नहीं है . पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को पूरा भरोसा है कि आज फौज की हिम्मत नहीं है कि वह सीधे हस्तक्षेप कर सके.
ओसामा बिन लादेन के मारे जाने के बाद फौज की जो बदनामी हुई उसके बाद से ही ज़रदारी-गीलानी सरकार ने अपनी अथारिटी को स्थापित करना शुरू कर दिया था . उसी जद्दो-जहद में देश में प्रगतिशीलता की दिशा में जितने बदलाव हुए हैं ,उतने पाकिस्तान के इतिहास में कभी नहीं हुए . पाकिस्तान की संसद में पिछले चार महीनों में कुछ ऐसे कानून पास किये गए हैं जिनको देख कर लगता है कि पाकिस्तान में बदलाव ही हवा बह रही है. पाकिस्तान में मानवाधिकारों के संघर्ष के एक महत्वपूर्ण व्यक्ति ,बी एम कुट्टी दिसंबर में मुंबई आये थे .उन्होंने बहुत सारे उदाहरणों के साथ यह बात समझाया कि बहुत दिन बाद पाकिस्तान में लोकशाही की जड़ें जमती दिख रही है . बी एम कुट्टी ने कहा कि यह बहुत संतोष की बात है कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री युसूफ रजा गीलानी आम पाकिस्तानी की उस भावना को आवाज़ दे रहे हैं जिसमें वह चाहता है कि पाकिस्तानी फौज़ को काबू में रखा जाए .
पाकिस्तान में अब आम तौर पर माना जाने लगा है कि फौज की मनमानी पर लगाम लगाई जा सकेगी. पाकिस्तान के चर्चित मेमोगेट काण्ड के बाद जिस तरह से फौज ने सिविलियन सरकार को अर्दब में लेने की कोशिश की थी उसके बाद पाकिस्तान में एक बार फिर फौजी हुकूमत की आशंका बन गयी थी . उसी दौर में राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी को इलाज़ के लिए दुबई जाना पड़ गया था. जिसके बाद यह अफवाहें बहुत ही गर्म हो गयी थीं कि पाकिस्तान एक बार फिर फौज के हवाले होने वाला है . लेकिन प्रधान मंत्री युसफ रज़ा गीलानी ने कमान संभाली और सिविलियन सरकार की हैसियत को स्थापित करने की कोशिश की. अब फौज रक्षात्मक मुद्रा में है. . जब मेमोगेट वाले कांड में फौज के जनरलों की मिली भगत की बात सामने आई तो प्रधान मंत्री ने फ़ौरन जांच का आदेश दिया .. पाकिस्तानी जनरलों की मर्जी के खिलाफ यह जांच चल रही है और इमकान है कि सिविलियन सरकार का इक़बाल भारी पडेगा और पाकिस्तान में एक बार लोकशाही की जड़ें जम सकेगीं .
पाकिस्तानी अखबार डान के पहले पेज पर खबर छपी है कि पाकिस्तानी फौज के मुखिया, जनरल अशफाक परवेज़ कयानी और आई एस आई के महानिदेशक लेफ्टिनेंट जनरल शुजा पाशा ने मंगलवार को प्रधान मंत्री युसूफ रजा गीलानी के दफ्तर जाकर उनसे मुलाक़ात की . इस बैठक में राजकाज के बहुत सारी बातों के अलावा यह भी तय किया गया कि अफगानिस्तान में सरकार की नीतियों को लागू करने की दिशा में क्या क़दम उठाये जाने हैं . प्रधानमंत्री ने विदेशमंत्री, हिना रब्बानी खार को अफगानिस्तान की यात्रा करने का निर्देश दिया .इस यात्रा का उद्देश्य अमरीका-पाकिस्तान-अफगानिस्तान की शीर्ष बैठक के पहले माहौल ठीक करना भी बताया गया है .
इस खबर का ज़िक्र करने का मतलब यह है कि जहाँ पाकिस्तानी फौज और आई एस आई देश की सबसे ताक़तवर संस्थाएं मानी जाती थीं और अगर किसी नवाज़ शरीफ या किसी ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने उसका हुक्म नहीं माना तो उसे सत्ता से बेदखल कर दिया जाता था, उसी पाकिस्तान में प्रधानमंत्री युसूफ रज़ा गीलानी के सख्त तेवर के बाद आई एस आई और फौज का मुखिया राजकाज के मामलों की चर्चा में शामिल होने के लिए प्रधान मंत्री के यहाँ हाजिरी लगा रहा है . पाकिस्तान के पिछले साठ साल के इतिहास को जानने वाले जानते हैं कि फौज का मुखिया डांट खाने के बाद कभी किसी भी सिविलियन सरकार को सत्ता से बेदखल करने के लिए ही उसके दफतर जाता है .लेकिन पाकिस्तान में भी हालात बदल रहे हैं . चारों तरफ से लोकतंत्र की मजबूती की खबरें आ रही हैं जो पाकिस्तान के लिए तो बहुत अच्छा है ही, भारत और अफगानिस्तान के लिए बहुत अच्छा है, बाकी दुनिया के लिए बहुत अच्छा है .
पाकिस्तान के बारे में पिछले कुछ महीनों से अजीब खबरें आ रही थीं . पाकिस्तानी मामलों के भारत में मौजूद लाल बुझक्कड़ अक्सर बताते रहते हैं कि बहुत जल्द पाकिस्तान में फौजी हुकूमत कायम होने वाली है. लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है . जब से सिविलियन हुकूमत ने फौज को अपनी हद में रहने की हिदायत दी है,उसी वक़्त से बार बार यह चर्चा जोर पकड़ लेती है कि फौज अब फ़ौरन राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री की छुट्टी कर देगी और खुद सरकार बन जायेगी. सारी दुनिया में पाकिस्तानी मामलों के जानकार अपनी इस तर्ज़ पर की गयी भविष्यवाणियों के पूरा होने का इंतज़ार करते रहे लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.पाकिस्तानी मीडिया में भी इस तरह की खबरें रोज़ ही आ रही थीं कि पता नहीं कब क्या हो जाए लेकिन लगता है कि वहां लोकशाही की जड़ें मज़बूत होना शुरू हो गयी हैं .पाकिस्तानी बुद्धिजीवियों को विश्वास होने लगा है कि अब उनके देश में लोकतंत्र के लिए अब पहले से ज़्यादा अवसर मौजूद हैं . हालांकि यह भी हो सकता है कि आने वाले कुछ हफ़्तों में मौजूदा सरकार हटा दी जाए लेकिन सिविलियन हुकूमत के पिछले कुछ हफ़्तों के तेवर ऐसे हैं जो पक्की तरह से लोक शाही की ताकत का सन्देश देते हैं . अगर मौजूदा सरकार चुनाव के पहले नहीं हटाई जायेगी गयी तो पाकिस्तान के इतिहास में पहली सिविलियन सरकार बन जायेगी जिसने अपने पूरा कार्यकाल पूरा किया हो .
पाकिस्तान में सारा विवाद तब शुरू हुआ जब उनकी फौज की नाक के नीचे ओसामा बिन लादेन की मौजूदगी साबित हो गयी जबकि जनरल परवेश मुशर्रफ से लेकर जनरल कयानी तक सभी फौजी कहते रहे थे कि उन्हें नहीं मालूम कि ओसामा कहाँ है. उसके बाद जब सरकार ने फौज को आइना दिखाने की कोशिश की तो सेना मुख्यालय से तख्तापलट के संकेत आने लगे थे . बाद में उसी चक्कर में मेमो काण्ड वाला लफडा भी हुआ . लगने लगा कि सिविलियन हुकूमत के आदेश न मानने के लिए बदनाम पाकिस्तानी फौज अब सरकार की छुट्टी कर देगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ .पाकिस्तान में फौज ने चार बार सिविलियन सत्ता को हटाकर खुद गद्दी पर क़ब्ज़ा किया है . चारों बार सडकों पर टैंक उतार दिए जाते थे, रेडियो और टेलीविज़न पर क़ब्ज़ा कर लिया जाता था और सिविलियन शासक को पकड़ लिया जाता था . इस बार ऐसा संभव नहीं है . आज न्यायपालिका एक मज़बूत सत्ता केंद्र के रूपमें विकसित हो चुकी है , पाकिस्तानी मीडिया भी अपनी भूमिका बहुत ही खूबी से निभा रहा है और आज मीडिया ब्लैक और का सपना देखना किसी ही शासक के लिए संभव नहीं है . पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को पूरा भरोसा है कि आज फौज की हिम्मत नहीं है कि वह सीधे हस्तक्षेप कर सके.
ओसामा बिन लादेन के मारे जाने के बाद फौज की जो बदनामी हुई उसके बाद से ही ज़रदारी-गीलानी सरकार ने अपनी अथारिटी को स्थापित करना शुरू कर दिया था . उसी जद्दो-जहद में देश में प्रगतिशीलता की दिशा में जितने बदलाव हुए हैं ,उतने पाकिस्तान के इतिहास में कभी नहीं हुए . पाकिस्तान की संसद में पिछले चार महीनों में कुछ ऐसे कानून पास किये गए हैं जिनको देख कर लगता है कि पाकिस्तान में बदलाव ही हवा बह रही है. पाकिस्तान में मानवाधिकारों के संघर्ष के एक महत्वपूर्ण व्यक्ति ,बी एम कुट्टी दिसंबर में मुंबई आये थे .उन्होंने बहुत सारे उदाहरणों के साथ यह बात समझाया कि बहुत दिन बाद पाकिस्तान में लोकशाही की जड़ें जमती दिख रही है . बी एम कुट्टी ने कहा कि यह बहुत संतोष की बात है कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री युसूफ रजा गीलानी आम पाकिस्तानी की उस भावना को आवाज़ दे रहे हैं जिसमें वह चाहता है कि पाकिस्तानी फौज़ को काबू में रखा जाए .
पाकिस्तान में अब आम तौर पर माना जाने लगा है कि फौज की मनमानी पर लगाम लगाई जा सकेगी. पाकिस्तान के चर्चित मेमोगेट काण्ड के बाद जिस तरह से फौज ने सिविलियन सरकार को अर्दब में लेने की कोशिश की थी उसके बाद पाकिस्तान में एक बार फिर फौजी हुकूमत की आशंका बन गयी थी . उसी दौर में राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी को इलाज़ के लिए दुबई जाना पड़ गया था. जिसके बाद यह अफवाहें बहुत ही गर्म हो गयी थीं कि पाकिस्तान एक बार फिर फौज के हवाले होने वाला है . लेकिन प्रधान मंत्री युसफ रज़ा गीलानी ने कमान संभाली और सिविलियन सरकार की हैसियत को स्थापित करने की कोशिश की. अब फौज रक्षात्मक मुद्रा में है. . जब मेमोगेट वाले कांड में फौज के जनरलों की मिली भगत की बात सामने आई तो प्रधान मंत्री ने फ़ौरन जांच का आदेश दिया .. पाकिस्तानी जनरलों की मर्जी के खिलाफ यह जांच चल रही है और इमकान है कि सिविलियन सरकार का इक़बाल भारी पडेगा और पाकिस्तान में एक बार लोकशाही की जड़ें जम सकेगीं .
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