शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली, २ दिसंबर.आज नौवें दिन भी संसद में कोई काम नहीं हो सका. शीतकालीन सत्र का आधा वक़्त ख़त्म हो चुका है और अभी यह उम्मीद नज़र नहीं आ रही है कि आने वाले दिनों में भी कोई काम काज हो सकेगा. इसी सत्र में लोकपाल बिल भी पास होना है जिसके लिए राजनीतिक वातावरण पहले से ही बहुत गर्म हो चुका है . लोकपाल कानून को पास कराने के लिए शुरू किये गए आन्दोलन से सुर्ख़ियों में आये अन्ना हजारे और उनके संगी साथी अभी से ताल ठोंक रहे हैं . ज़ाहिर है आने वाला समय देश की राजनीति में बहुत ही दिलचस्प होगा.
आज शुक्रवार है .संसद में शुक्रवार का दिन वैसे भी ढीला माना जाता है . शुक्रवार का दिन उन सदस्यों के विधायी काम के लिए रिज़र्व रखा गया है जो सरकार में नहीं है . संसद के समय का बहुत बड़ा हिस्सा सरकारी विधायी कार्य को समर्पित होता है . इसलिए वे कानून धरे रह जाते हैं जिसे सरकार की मर्जी के खिलाफ सदस्य लाना चाहते हैं . इसीलिये १९५२ से ही शुक्रवार का दिन प्राइवेट मेंबर बिल के लिए आरक्षित कर दिया गया है . इस दिन सदस्य ऐसा कोई भी प्रस्ताव संसद के विचार के लिए ला सकते हैं जिसको वे जनहित में कानून बनाना चाहते हैं . पिछले ५९ वर्षों में हज़ारों प्राइवेट मेंबर बिल संसद के दोनों सदनों में पेश किये जा चुके हैं . जिनमें से १४ अब तक कानून भी बन चुके हैं . ऐसा ही एक बिल १९५६ में रायबरेली के कांग्रेस सांसद फीरोज़ गांधी ने पेश किया था जिसकी वजह से आज संसद की कार्यवाही आम आदमी तक पंहुच पाती है . उसके पहले संसद की कार्यवाही को रिपोर्ट करने की पूरी छूट नहीं होती थी. हुआ यह था कि उस वक़्त के वित्तमंत्री ने बिरला औद्योगिक घराने के बारे में कोई बयान दिया था . लेकिन अगले दिन के अखबारों में उसका कहीं भी कोई उल्लेख नहीं था. राजनीतिक आचरण में शुचिता के पक्षधर फीरोज़ गांधी को यह बात ठीक नहीं लगी. उन्होंने लोकसभा में एक प्राइवेट मेंबर बिल पेश किया जिसका उद्देश्य संसद की कार्यवाही को रिपोर्ट करने के काम को बंदिशों से आज़ाद कराना था . . उन्होंने कहा कि मैं इस सदन में जनता का प्रतिनधि हूँ . मैं जो कुछ भी यहाँ बोलता हूँ उसे जनता तक पंहुचाना प्रेस की ड्यूटी है. मैं आग्रह करता हूँ कि एक ऐसा क़ानून बनाया जाय जिस से सदन की कार्यवाही वर्बेटिम ( अक्षरशः ) रिपोर्ट की जा सके. यह भी प्रावधान किया जाना चाहिये कि उन संवाददाताओं के ऊपर संसद की कार्यवाही रिपोर्ट करने के लिए कोई भी मानहानि का मुक़दमा न चलाया जा सके या उनके ऊपर कोई जुरमाना न हो सके. आज संसद के अंदर होने वाली हर बात को पूरा देश जानता है . वह एक प्राइवेट मेबर बिल के ज़रिये ही कानून बन सका था लेकिन आजकल अजीब माहौल है . ज़्यादातर संसद सदस्य गुरुवार को ही दिल्ली छोड़ देते हैं और शुक्रवार का दिन आम तौर पर खाली माना जाता है . जबकि सच्चाई यह है कि अगर संसद सदस्य रचनात्मक तरीके से काम करें तो शुक्रवार के दिन का बहुत ही अच्छा इस्तेमाल किया जा सकता है .
Sunday, December 4, 2011
अमेठी के राजा ने दिखाए बगावती तेवर
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली,२९ नवम्बर . कांग्रेस पार्टी की मुसीबतें बढ़ती ही जा रही हैं . पार्टी के महसचिव, राहुल गाँधी के तुफैल में दिल्ली में बुलाये गए यूथ कांग्रेस वालों को आज प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने राजनीति के बारे में बताया लेकिन लगता है कि उत्तर प्रदेश में एक राजनीतिक गलती के बाद उससे भी बड़ी गलती कर रहे राहुल गांधी के सामने असली समस्याएं आना शुरू हो गयी हैं . आज राहुल गांधी के चुनाव क्षेत्र ,अमेठी के राजा और उनकी पड़ोसी सीट से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीतकर आये संसद सदस्य संजय सिंह ने खुदरा कारोबार के अलोकप्रिय मुद्दे पर सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया . लोकसभा के कल तक के लिए स्थगित होने के बाद उन्होंने संसद भवन परिसर में ही पत्रकारों को बताया कि खुदरा कारोबार में विदेशी कंपनियों को पूंजी निवेश के लिए बुलाना बिकुल गलत राजनीति है . उन्होंने कहा कि यह कांग्रेस पार्टी की मूल राजनीतिक विचार धारा से बिलकुल अलग है और इसका विरोध किया जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि वे इसके खिलाफ हैं और वे प्रधान मंत्री को इसके बारे में पत्र लिख कर आगाह करने जा रहे हैं .उनका दावा है कि यह फैसला इस देश के आम आदमी पर सीधा वार करेगा और कम से कम यह तो कांग्रेस की राजनीति का मकसद कभी नहीं रहा कि आम आदमी को परेशान किया जाए.
उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनावों में एक मज़बूत राजनीतिक हैसियत के लिए अभियान चला रही कांग्रेस पार्टी के लिए यह एक गैरमामूली चुनौती है . संजय सिंह का विरोध किसी एक एम पी का विरोध नहीं है . इस विरोध का खामियाजा कांग्रेस को तो भोगना ही पड़ेगा . खुद राहुल गांधी को अपने इलाके में पाँचों विधान सभा सीटें जीतने का सपना भूल जाना पडेगा. अगर कहीं संसद में दुर्दशा झेल रही कांग्रेस के पतन की शुरुआत हो गयी तो राहुल गांधी को राजनीति के सपने से भी तौबा करना पड़ सकता है . संजय सिंह के करीबी लोगों ने संकेत दिया है कि राहुल गांधी के पड़ोसी क्षेत्र से और उसी जिले से एम पी होने के बावजूद राहुल गांधी ने संजय सिंह से दूरी बना कर रखा हुआ है . हद तो तब हो गयी जब राहुल गांधी ने पिछले हफ्ते लखनऊ के आस पास के जिलों में जनसंपर्क अभियान शुरू किया . उस अभियान में उनके साथ इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा और बाराबंकी के सांसद पी एल पुनिया सर्वेसर्वा के तौर पर मौजूद थे. उस इलाके की राजनीति जानने वालों का दावा है कि कांग्रेस सांसद जगदम्बिका पाल के घर के पास जब २५ नवम्बर को राहुल गांधी की सभा हुई ,उसी दिन दिल्ली में जगदम्बिका पाल के बेटे का रिसेप्शन था. यह कार्यक्रम करीब तीन महीने पहले से तय था लेकिन ऐन उसी दिन राहुल गांधी ने उनके गाँव के पास सभा की . सभा में जगदम्बिका पाल नहीं थे. संजय सिंह को भी वहां नहीं बुलाया गया था. एक सन्देश देने की कोशिश की गयी थी कि उत्तर प्रदेश में अब संजय सिंह और जगदम्बिका पाल जैसे लोगों की कोई ज़रुरत नहीं है , उनकी कमी को दिग्विजय सिंह बहुत ही प्रभाव शाली तरीके से पूरा कर रहे हैं. बताते हैं कि संजय सिंह का आज मीडिया से मुखातिब होना इसी तिरस्कार की राजनीति का एक नतीजा है .संजय गाँधी के १९७५-७६ वाले अमेठी कैम्प से हाईलाईट हुए जगदम्बिका पाल और संजय सिंह यू पी की राजनीति में इतना कुछ बिगाड़ सकते हैं जिसका अभी तक राहुल गांधी के नए सिपहसालार बने बेनी प्रसाद वर्मा और पी एल पुनिया को अंदाज़ तक नहीं होगा. संजय सिंह ने तो बोलना शुरू कर दिया है लेकिन अभी जगदम्बिका पाल चुप हैं लेकिन उनके करीबी लोगों का कहना है कि २५ तारीख को खलीलाबाद में सभा करके राहुल गांधी ने ऐसी हालत पैदा कर दी है कि अब जगदम्बिका पाल कांग्रेस के लिए वोट मांगने जायेगें तो उनके अपने लोग ही उन्हें गंभीरता से नहीं लेगें . संजय सिंह की भी यही हालत अमेठी में हो चुकी है . सरकार के खिलाफ बयान देकर वे अपने आपको ऐसी स्थिति में लाने की कोशिश कर रहे हैं कि कम से कम चुनाव के वक़्त वे इलाके में जाकर कह सकें कि उन्होंने तो कांग्रेस की गलत नीतियों का विरोध किया था.
नई दिल्ली,२९ नवम्बर . कांग्रेस पार्टी की मुसीबतें बढ़ती ही जा रही हैं . पार्टी के महसचिव, राहुल गाँधी के तुफैल में दिल्ली में बुलाये गए यूथ कांग्रेस वालों को आज प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने राजनीति के बारे में बताया लेकिन लगता है कि उत्तर प्रदेश में एक राजनीतिक गलती के बाद उससे भी बड़ी गलती कर रहे राहुल गांधी के सामने असली समस्याएं आना शुरू हो गयी हैं . आज राहुल गांधी के चुनाव क्षेत्र ,अमेठी के राजा और उनकी पड़ोसी सीट से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीतकर आये संसद सदस्य संजय सिंह ने खुदरा कारोबार के अलोकप्रिय मुद्दे पर सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया . लोकसभा के कल तक के लिए स्थगित होने के बाद उन्होंने संसद भवन परिसर में ही पत्रकारों को बताया कि खुदरा कारोबार में विदेशी कंपनियों को पूंजी निवेश के लिए बुलाना बिकुल गलत राजनीति है . उन्होंने कहा कि यह कांग्रेस पार्टी की मूल राजनीतिक विचार धारा से बिलकुल अलग है और इसका विरोध किया जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि वे इसके खिलाफ हैं और वे प्रधान मंत्री को इसके बारे में पत्र लिख कर आगाह करने जा रहे हैं .उनका दावा है कि यह फैसला इस देश के आम आदमी पर सीधा वार करेगा और कम से कम यह तो कांग्रेस की राजनीति का मकसद कभी नहीं रहा कि आम आदमी को परेशान किया जाए.
उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनावों में एक मज़बूत राजनीतिक हैसियत के लिए अभियान चला रही कांग्रेस पार्टी के लिए यह एक गैरमामूली चुनौती है . संजय सिंह का विरोध किसी एक एम पी का विरोध नहीं है . इस विरोध का खामियाजा कांग्रेस को तो भोगना ही पड़ेगा . खुद राहुल गांधी को अपने इलाके में पाँचों विधान सभा सीटें जीतने का सपना भूल जाना पडेगा. अगर कहीं संसद में दुर्दशा झेल रही कांग्रेस के पतन की शुरुआत हो गयी तो राहुल गांधी को राजनीति के सपने से भी तौबा करना पड़ सकता है . संजय सिंह के करीबी लोगों ने संकेत दिया है कि राहुल गांधी के पड़ोसी क्षेत्र से और उसी जिले से एम पी होने के बावजूद राहुल गांधी ने संजय सिंह से दूरी बना कर रखा हुआ है . हद तो तब हो गयी जब राहुल गांधी ने पिछले हफ्ते लखनऊ के आस पास के जिलों में जनसंपर्क अभियान शुरू किया . उस अभियान में उनके साथ इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा और बाराबंकी के सांसद पी एल पुनिया सर्वेसर्वा के तौर पर मौजूद थे. उस इलाके की राजनीति जानने वालों का दावा है कि कांग्रेस सांसद जगदम्बिका पाल के घर के पास जब २५ नवम्बर को राहुल गांधी की सभा हुई ,उसी दिन दिल्ली में जगदम्बिका पाल के बेटे का रिसेप्शन था. यह कार्यक्रम करीब तीन महीने पहले से तय था लेकिन ऐन उसी दिन राहुल गांधी ने उनके गाँव के पास सभा की . सभा में जगदम्बिका पाल नहीं थे. संजय सिंह को भी वहां नहीं बुलाया गया था. एक सन्देश देने की कोशिश की गयी थी कि उत्तर प्रदेश में अब संजय सिंह और जगदम्बिका पाल जैसे लोगों की कोई ज़रुरत नहीं है , उनकी कमी को दिग्विजय सिंह बहुत ही प्रभाव शाली तरीके से पूरा कर रहे हैं. बताते हैं कि संजय सिंह का आज मीडिया से मुखातिब होना इसी तिरस्कार की राजनीति का एक नतीजा है .संजय गाँधी के १९७५-७६ वाले अमेठी कैम्प से हाईलाईट हुए जगदम्बिका पाल और संजय सिंह यू पी की राजनीति में इतना कुछ बिगाड़ सकते हैं जिसका अभी तक राहुल गांधी के नए सिपहसालार बने बेनी प्रसाद वर्मा और पी एल पुनिया को अंदाज़ तक नहीं होगा. संजय सिंह ने तो बोलना शुरू कर दिया है लेकिन अभी जगदम्बिका पाल चुप हैं लेकिन उनके करीबी लोगों का कहना है कि २५ तारीख को खलीलाबाद में सभा करके राहुल गांधी ने ऐसी हालत पैदा कर दी है कि अब जगदम्बिका पाल कांग्रेस के लिए वोट मांगने जायेगें तो उनके अपने लोग ही उन्हें गंभीरता से नहीं लेगें . संजय सिंह की भी यही हालत अमेठी में हो चुकी है . सरकार के खिलाफ बयान देकर वे अपने आपको ऐसी स्थिति में लाने की कोशिश कर रहे हैं कि कम से कम चुनाव के वक़्त वे इलाके में जाकर कह सकें कि उन्होंने तो कांग्रेस की गलत नीतियों का विरोध किया था.
Tuesday, November 29, 2011
केंद्र सरकार ने रिटेल कारोबार में विदेशी पूंजी निवेश का फैसला अमरीका के दबाव में किया है .दासगुप्ता.
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली,२८ नवम्बर . खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजी के निवेश पर केंद्र सरकार के ऊपर राजनीतिक हमले बहुत तेज़ हो गए है .. आज विपक्ष के साथ साथ यू पी ए की साथी पार्टियों ने भी खुले आम सरकार का विरोध किया . कम्युनिस्ट पार्टी के संसद सदस्य गुरुदास दासगुप्ता ने साफ़ आरोप लगाया कि प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को वादा किया था कि अमरीकी अर्थ व्यवस्था को सहारा देने के लिए लिए वे अपने देश के रिटेल कारोबार को बड़ी अमरीकी कंपनियों के लिए खोल देगें . इसीलिये उन्होंने बिना संसद को भरोसे में लिए कैबेनिट में ऐसा फैसला ले लिया जिसकी वजह से आने वाली पीढियां भी परेशानी में पड़ सकती हैं .उन्होंने यह कहा कि इस फैसले को लेने में डॉ मनमोहन सिंह ने जो हडबडी दिखाई है वह शक़ पैदा करती है उन्होंने आरोप लगाया कि डॉ मनमोहन सिंह ने यह फैसला किसी दबाव में लिया है . उनका कहना है कि यह फैसला आर्थिक कारणों से नहीं राजनीतिक कारणों से लिया गया है . प्रधान मंत्री पर गंभीर आरोप लगाते हुए वाम मोर्चे ने कहा कि इस फैसले से देश का कोई भला नहीं होगा.
इसके पहले मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सभा में नेता, सीताराम येचुरी ने कहा कि जब संसद का सत्र चल रहा हो तो इतने अहम फैसले को संसद को विश्वास में लिए बिना लेना बिलकुल गलत है . उन्होंने कहा जो हडबडी केंद्र सरकार ने दिखाई है , वह बिलकुल आश्चर्यजनक है. आज़ादी के बाद के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ जब किसी सरकार ने इस तरह का काम किया हो.. सीताराम येचुरी ने आरोप लगाया कि सरकार का यह कहना कि वे इस मुद्दे पर संसद में बहस करने को तैयार हैं कोई मतलब नहीं रखता .सवाल पैदा होता है जब सरकार ने फैसला ले ही लिया है तो सदन में बहस का अभिनय करने का क्या मतलब है . वामपंथी मोर्चे की मांग है कि सरकार ने खुदरा कारोबार में विदेशी निवेशा करने का जो फैसला लिया है पहले उसे वापस ले तभी उस पर बहस की बात का कोई मतलब निकलेगा. उन्होंने आरोप लगाया कि केंद्र सरकार नहीं चाहती कि संसद के शीतकालीन सत्र में महत्वपूर्ण बिल लाये जा सकें , इसलिए वह किसी न किसी बहाने संसद की कार्यवाही में बाधा डालने के हालात पैदा कर रही है . . सरकार ने सारे विपक्ष को अपने खुदरा कारोबार वाले फैसले से उत्तेजित करने की कोशिश की है जिसके बाद ऐसा माहौल बन सके कि कोई काम न हो और बाद में वह देश को बता सके कि विपक्ष ने काम नहीं करने दिया इसलिए लोकपाल समेत और भी बिल नहीं लाये जा सके. . सीताराम येचुरी ने आरोप लगाया कि सरकार अखबारों में विज्ञापन लाकर खुदर कारोबार में विदेशी निवेश के मामले में गलत बयानी भी कर रही है . वे इसका भी विरोध करते हैं .
लोक सभा में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता बासुदेव आचार्य ने बताया कि वाणिज्य मंत्रालय की संसद की स्थायी समिति ने एक राय से सरकार से सिफारिश की थी कि मल्टी ब्रैंड या सिंगल ब्रैंड , किसी भी खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजी के निवेश की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए .वामपंथी मोर्चे ने कहा कि उनकी तरफ से लोक सभा में काम रोको प्रस्ताव दिया गया है . जब तक सरकार विदेशी पूंजी निवेश वाले अपने फैसले को वापस नहीं लेती तब तक उस पर भी बहस नहीं की जायेगी.
नई दिल्ली,२८ नवम्बर . खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजी के निवेश पर केंद्र सरकार के ऊपर राजनीतिक हमले बहुत तेज़ हो गए है .. आज विपक्ष के साथ साथ यू पी ए की साथी पार्टियों ने भी खुले आम सरकार का विरोध किया . कम्युनिस्ट पार्टी के संसद सदस्य गुरुदास दासगुप्ता ने साफ़ आरोप लगाया कि प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को वादा किया था कि अमरीकी अर्थ व्यवस्था को सहारा देने के लिए लिए वे अपने देश के रिटेल कारोबार को बड़ी अमरीकी कंपनियों के लिए खोल देगें . इसीलिये उन्होंने बिना संसद को भरोसे में लिए कैबेनिट में ऐसा फैसला ले लिया जिसकी वजह से आने वाली पीढियां भी परेशानी में पड़ सकती हैं .उन्होंने यह कहा कि इस फैसले को लेने में डॉ मनमोहन सिंह ने जो हडबडी दिखाई है वह शक़ पैदा करती है उन्होंने आरोप लगाया कि डॉ मनमोहन सिंह ने यह फैसला किसी दबाव में लिया है . उनका कहना है कि यह फैसला आर्थिक कारणों से नहीं राजनीतिक कारणों से लिया गया है . प्रधान मंत्री पर गंभीर आरोप लगाते हुए वाम मोर्चे ने कहा कि इस फैसले से देश का कोई भला नहीं होगा.
इसके पहले मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सभा में नेता, सीताराम येचुरी ने कहा कि जब संसद का सत्र चल रहा हो तो इतने अहम फैसले को संसद को विश्वास में लिए बिना लेना बिलकुल गलत है . उन्होंने कहा जो हडबडी केंद्र सरकार ने दिखाई है , वह बिलकुल आश्चर्यजनक है. आज़ादी के बाद के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ जब किसी सरकार ने इस तरह का काम किया हो.. सीताराम येचुरी ने आरोप लगाया कि सरकार का यह कहना कि वे इस मुद्दे पर संसद में बहस करने को तैयार हैं कोई मतलब नहीं रखता .सवाल पैदा होता है जब सरकार ने फैसला ले ही लिया है तो सदन में बहस का अभिनय करने का क्या मतलब है . वामपंथी मोर्चे की मांग है कि सरकार ने खुदरा कारोबार में विदेशी निवेशा करने का जो फैसला लिया है पहले उसे वापस ले तभी उस पर बहस की बात का कोई मतलब निकलेगा. उन्होंने आरोप लगाया कि केंद्र सरकार नहीं चाहती कि संसद के शीतकालीन सत्र में महत्वपूर्ण बिल लाये जा सकें , इसलिए वह किसी न किसी बहाने संसद की कार्यवाही में बाधा डालने के हालात पैदा कर रही है . . सरकार ने सारे विपक्ष को अपने खुदरा कारोबार वाले फैसले से उत्तेजित करने की कोशिश की है जिसके बाद ऐसा माहौल बन सके कि कोई काम न हो और बाद में वह देश को बता सके कि विपक्ष ने काम नहीं करने दिया इसलिए लोकपाल समेत और भी बिल नहीं लाये जा सके. . सीताराम येचुरी ने आरोप लगाया कि सरकार अखबारों में विज्ञापन लाकर खुदर कारोबार में विदेशी निवेश के मामले में गलत बयानी भी कर रही है . वे इसका भी विरोध करते हैं .
लोक सभा में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता बासुदेव आचार्य ने बताया कि वाणिज्य मंत्रालय की संसद की स्थायी समिति ने एक राय से सरकार से सिफारिश की थी कि मल्टी ब्रैंड या सिंगल ब्रैंड , किसी भी खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजी के निवेश की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए .वामपंथी मोर्चे ने कहा कि उनकी तरफ से लोक सभा में काम रोको प्रस्ताव दिया गया है . जब तक सरकार विदेशी पूंजी निवेश वाले अपने फैसले को वापस नहीं लेती तब तक उस पर भी बहस नहीं की जायेगी.
Sunday, November 27, 2011
इस बार उत्तर प्रदेश की सत्ता की चाभी मुसलमानों के हाथ में है
शेष नारायण सिंह
उत्तरप्रदेश विधान सभा के चुनाव के लिए प्रचार शुरू हो गया है .राहुल गांधी अपने विवादास्पद बयानों के चलते सुर्ख़ियों में बने हुए हैं . कभी मुलायम सिंह यादव के सबसे वफादार साथी रहे बेनी प्रसाद वर्मा के जिले,बाराबंकी में उन्होंने कई धमाकेदार बयान दिये और एक बार फिर साबित करने की कोशिश की कि उत्तर प्रदेश के लोग दिल्ली और मुंबई में भीख मांगने के काम को कोई अछूत काम नहीं मानते हैं . राहुल गांधी के इस बयान को बीजेपी वाले उनके खिलाफ इस्तेमाल करेगें . उस बयान की धमक यू पी विधान सभा चुनाव पर तो पड़ेगी ही, राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि उसका असर मुंबई में यू पी विधान सभा चुनाव के आस पास ही हो रहे नगरपालिका चुनावों पर भी पड़ सकता है . यह बयान निश्चित रूप से लोगों को शाक करने के लिए दिया गया है , लोगों को सोचने के लिए मजबूर करने के लिए दिया गया है . अगर कांग्रेस के पास ज़मीनी स्तर के कार्यकर्ता होते तो इसे राहुल गांधी की यू पी वालों के घर छोड़ कर भागने की प्रवृत्ति को रोकने की कोशिश के रूप में पेश किया जा सकता था . लेकिन कांग्रेस के पास यू पी में नेता बहुत हैं, कार्यकर्ता बिलकुल नहीं हैं . मीडिया में भी राज्य के कांग्रेसी नेताओं की ऐसी छवि नहीं है कि राहुल गांधी की बात को आम जनता तक पंहुचाने में वे सहयोग कर सकें . जबकि विपक्षी दलों की कोशिश होगी कि वे राहुल गांधी के इस बयान को एक गैर ज़िम्मेदार बयान के दायरे से बाहर ही न आने दें .कांग्रेस ने पिछले कुछ वर्षों में यू पी में बहुत काम किया है . ख़ास तौर पर मुसलमानों में अपनी छवि को सुधारने में सफलता पायी है . इसका नतीजा लोकसभा २००९ में नज़र भी आया जब कांग्रेस पार्टी राज्य की दोनों बड़ी पार्टियों के बराबर सांसद चुनवाने में सफल रही. इस बार भी कांग्रेस को उम्मीद है कि मुसलमान उसको उसी तरह से समर्थन देगें जिस तरह से लोक सभा चुनाव २००९ के वक़्त दिया था. यह उम्मीद बिकुल जायज़ है .लेकिन अब हालात बदल गए है . सबसे बड़ी बात तो यही है कि इस बार एक ऐसी सरकार चुनी जानी है जो यू पी में राज काज संभालेगी . उसके पास कानून व्यवस्था का प्रबंधन होगा . मुसलमान की पूरी कोशिश होगी कि वह उत्तर प्रदेश में किसी ऐसी सरकार के गठन में सहयोग न कर दे जो गुजरात की मोदी सरकार की तरह काम करे. गुजरात की मोदी सरकार के बारे में जो तथ्य सामने आ रहे हैं उन से कोई भी मुसलमान डर सकता है . सबसे ताज़ा मामला मुंबई की लडकी इशरत जहां को फर्जी इनकाउंटर के ज़रिये क़त्ल करने का है .गुजरात के पुलिस अधिकारी संजीव भट्ट ने सुप्रीम कोर्ट तक में हलफनामा दाखिल कर दिया है कि मुख्य मंत्री,नरेंद्र मोदी ने गोधरा में ट्रेन में आग लगने के बाद पुलिस को हुक्म दिया था कि हिन्दुओं के गुस्से को प्रकट होने दें . दुनिया जानती है कि उस गुस्से के बाद गुजरात के कुछ शहरों में मुसलमानों का क्या हाल हुआ था. पूरे देश में मुसलामन उस हालत में नहीं पंहुचना चाहता जिस हालत में २००२ में गुजरात के मुसलमान पंहुच गए थे . बहुत सारे लोग यह कहते पाए जाते हैं कि नरेंद्र मोदी निजी तौर पर बहुत ही शांत प्रवृत्ति के इंसान हैं . उनकी बात को अगर मान भी लिया जाये तो गुजरात २००२ के नरसंहार को भुलाया नहीं जा सकता . इससे यह साबित होता है कि बीजेपी का मुख्यमंत्री अगर बहुत भला आदमी भी होगा तो वह गोधरा के बाद मुसलमानों के क़त्ले आम जैसी हालत पैदा होने से रोकने में बहुत दिलचस्पी नहीं लेगा. ज़ाहिर है कि कहीं भी कोई भी मुसलमान ऐसी किसी सरकार के बनने के हालात नहीं पैदा होने देगा जिससे उत्तर प्रदेश में बीजेपी की स्पष्ट बहुमत वाली सरकार बन जाए.पूरी तरह से टुकड़ों टुकड़ों में बँट चुकी उत्तर प्रदेश की आबादी में अब बहुत कम वोट बैंक रह गए हैं . इसलिए यह उम्मीद करना कि कोई एक ख़ास वर्ग किसी एक पार्टी के पक्ष में टूट पडेगा, बेमतलब है . अब तक माना जाता था कि उत्तर प्रदेश में दलित वर्गों का वोटर मौजूदा मुख्य मंत्री , मायावती के साथ रहता है लेकिन इस बार वह तस्वीर भी बदल रही है . गाँवों के स्तर तक जिस तरह से भ्रष्टाचार करने वालों का सरकारी आशीर्वाद से आतंक मचा हुआ है उसका शिकार सभी लोग हो रहे हैं . उसमें दलित भी शामिल हैं . इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि विधान सभा २०१२ में यू पी की जनता कुछ इस तरह से वोट करेगी जिस से राज्य में ग्रामीण स्तर पर मची लूट को रोका जा सके. ऐसी हालत में वोट उसी को मिल सकता है जो अपने आप को मायावाती के विकल्प के रूप में पेश करने में सफल होगा .समाजवादी पार्टी और उसके नेता मुलायम सिंह मायावती को सबसे मज़बूत चुनौती देने वाले नेता के रूप में पहचाने जाते हैं. पारंपरिक रूप से मुसलमान उनको वोट देते भी रहे हैं . यहाँ तक कि २००७ में भी मुसलमानों ने उनको वोट दिया था लेकिन उनकी पिछली सरकार में उनके कुछ साथियों की कारस्तानी ऐसी थी कि उनको बाकी कहीं से वोट नहीं मिले . नतीजा यह हुआ कि उनसे नाराज़ जनता ने मायावाती को मुख्यमंत्री बना दिया . स्पष्ट बहुमत के साथ मायावती पहली बार मुख्य मंत्री बनी थीं . इसके पहले हर बार वे बीजेपी के समर्थन से ही सरकार चलाती रही थीं . पूर्ण बहुमत के साथ चली मायावती की सरकार ऐसी सरकार नहीं है जिसको कोई बहुत गरीबपरवर सरकार कह सके . उसमें आर्थिक शुचिता निश्चित रूप से बहुत कम रही है . ऐसा लगता है कि मायावती को मालूम है कि पुराने फार्मूलों से इस बार चुनाव जीत सकना मुश्किल होगा.शायद इसीलिए चुनाव के ऐन पहले या यूं कहें कि चुनावी रणनीति को धार देने की गरज से मायावती ने उत्तर प्रदेश के बँटवारे का ऐलान कर दिया है . उत्तर प्रदेश के बँटवारे का राजनीतिक फैसला लेकर मायावती ने राज्य में सारे चुनावी समीकरण बदल दिया है . सबको मालूम है कि विधानसभा में पास किये गए मुख्यमंत्री मायावती के प्रस्ताव का कोई मतलब नहीं है लेकिन वह एक धमाकेदार राजनीतिक स्टेटमेंट तो हैं ही. उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव २०१२ में अब यह मुद्दा निश्चित रूप से अहम भूमिका निभायेगा. राज्य के बँटवारे पर गोलमोल बयान दे रही कांग्रेस और बीजेपी के सामने अब उत्तर प्रदेश की राजनीति में खासी मुश्किल पेश आने वाली है . उत्तर प्रदेश के बँटवारे की बात कर रहे अजीत सिंह को इस राजनीतिक घटनाक्रम ने निश्चित रूप से कमज़ोर किया है . पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के बीच कांग्रेस की मज़बूत होती साख के चक्कर में वे कांग्रेस से समझौता करने की कोशिश कर रहे हैं . उनके स्वर्गीय पिता ने अपनी बिरादरी के वोट और मुसलमानों के वोट के बल पर उतर प्रदेश में वर्षों राज किया था लेकिन अब मुसलमानों के बीच अजीत सिंह की स्वीकार्यता घटी है .लोकसभा २००९ के दौरान उनकी ख़ास सहयोगी और पार्टी की बड़ी नेता, अनुराधा चौधरी को जिताने के लिए गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी का सहयोग लिया गया था. अजीत सिंह और अनुराधा चौधरी के साथ नरेंद्र मोदी की तस्वीर वाले पोस्टर पूरे इलाके में पाट दिए गए थे. मुसलमानों ने एकमुश्त अनुराधा के खिलाफ वोट दिया और वे हार गयीं . वे पोस्टर इलाके के लोगों को अभी भी याद है . इसलिए लगता है कि राज्य के बँटवारे के मुद्दे के छिन जाने के बाद अजीत सिंह खासे कमज़ोर हुए हैं . पश्चिमी उत्तरप्रदेश के प्रभावशाली मुसलमानों के बीच उनकी नरेंद्र मोदी परस्त नेता की छवि भी उनको नुकसान पंहुचा सकती है . जानकार तो यहाँ तक कहते हैं कि अगर कांग्रेस ने अजीत सिंह के साथ समझौता किया तो उसके अपने वोट पश्चिम में ही नहीं पूरे राज्य में घट जायेगें .ऐसी हालत में कांग्रेस के समझौते के बाद भी अजीत सिंह एक ताक़त के रूप में नहीं उभरने वाले हैं . वैसे भी उनके बारे में यह शक़ बना रहता है कि पता नहीं कब वे बीजेपी से जा मिलेगें .
कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश के मुसलमानों के सामने विकल्प बहुत कम हैं . हालांकि खासी बड़ी संख्या में मुसलमान कांग्रेस की तरफ खिंचे हैं लेकिन कांग्रेस जब तक सरकार बनाने लायक स्थिति में नहीं आती तब तक मुसलमानों के वोट सारी सहानुभूति के बावजूद उसे नहीं मिलेगें . मायवाती के खिलाफ बन रहे माहौल के बाद लगता है कि मुसलमानों की प्राथमिकता सूची में समाजवादी पार्टी सबसे ऊपर रहेगी. कहा जा रहा है कि राज्य के बँटवारे का विरोध करके मुलायम सिंह यादव ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों को नाराज़ कर लिया है और उनको इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है .मुलायम सिंह यादव ने इस बार अपने चुनाव अभियान की शुरुआत एटा जिले के उस इलाके से की जहां यादवों का ख़ासा प्रभाव है . लगता है कि राज्य के बँटवारे की राजनीतिक चाल से होने वाले नुकसान की भरपाई वे पिछड़ों के वोट को अपने साथ बड़े पैमाने पर जोड़कर करना चाहते हैं . लेकिन उनकी हालत पूर्वी उत्तरप्रदेश में उतनी मजबूत नहीं है जितनी पहले हुआ करती थी .वहां पीस पार्टी नाम की एक पार्टी बना दी गयी है जो निश्चित रूप से मुलायम सिंह के मतदाताओं को तोड़ेगी उनके प्रभाव के जिलों, आज़मगढ़ , जौनपुर आदि में उनकी बिरादरी के जो नेता उनके सारथी हैं वे बहुत ही अलोकप्रिय लोग हैं . वहां मायावती का प्रभाव भी बहुत ज्यादा है . बीजेपी के तीनों बड़े नेता उसी इलाके के हैं . अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही और राजनाथ सिंह की कोशिश है कि ठाकुरों को साथ जोड़ा जाए. जब कि उसी इलाके से आने वाले कलराज मिश्र ने भी अपने को अभी से मुख्यमंत्री के रूप में देखना शुरू कर दिया है. उनकी रथ यात्रा के कारण भी उनके कार्यकर्ताओं में कुछ जागरूकता देखी गयी है . राहुल गांधी भी पूर्वी उत्तर प्रदेश को बहुत महत्व दे रहे हैं .पीस पार्टी के कारण मुसलमानों में दुविधा की स्थिति है . लेकिन कांग्रेस और बीजेपी की लगभग बराबर हो रही ताक़त के बाद लगता है वहां भी मुसलमानों को मायावती और मुलायम सिंह यादव के बीच ही चुनाव करना पडेगा . इस बात की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि बहुत हाई प्रोफाइल प्रचार के बावजूद भी पीस पार्टी के पहचान एक वोट काटने वाली पार्टी वाली ही बन जाय. ऐसी हालत में मुलायम सिंह और मायावती के बीच टाई होगी. दलित वोट तो मायावती के साथ जाएगा ही , अगर मुलायम सिंह ऐसा माहौल बनाने में सफल हो गए कि वे मायावती को हरा सकते हैं तो मुसलमान , बैकवर्ड और मायवती के नाराज़ वोटर के कंधे पर बैठ कर वे इस बार भी यू पी की सत्ता पर काबिज़ हो सकते हैं . लेकिन अभी बहुत जल्दी है . कुछ भी फाइनल कहना ठीक नहीं होगा लेकिन यह बात बहुत ही भरोसे के साथ कही जा सकती है कि इस बार उत्तर प्रदेश की सत्ता की चाभी मुसलमानों के हाथ में है .
उत्तरप्रदेश विधान सभा के चुनाव के लिए प्रचार शुरू हो गया है .राहुल गांधी अपने विवादास्पद बयानों के चलते सुर्ख़ियों में बने हुए हैं . कभी मुलायम सिंह यादव के सबसे वफादार साथी रहे बेनी प्रसाद वर्मा के जिले,बाराबंकी में उन्होंने कई धमाकेदार बयान दिये और एक बार फिर साबित करने की कोशिश की कि उत्तर प्रदेश के लोग दिल्ली और मुंबई में भीख मांगने के काम को कोई अछूत काम नहीं मानते हैं . राहुल गांधी के इस बयान को बीजेपी वाले उनके खिलाफ इस्तेमाल करेगें . उस बयान की धमक यू पी विधान सभा चुनाव पर तो पड़ेगी ही, राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि उसका असर मुंबई में यू पी विधान सभा चुनाव के आस पास ही हो रहे नगरपालिका चुनावों पर भी पड़ सकता है . यह बयान निश्चित रूप से लोगों को शाक करने के लिए दिया गया है , लोगों को सोचने के लिए मजबूर करने के लिए दिया गया है . अगर कांग्रेस के पास ज़मीनी स्तर के कार्यकर्ता होते तो इसे राहुल गांधी की यू पी वालों के घर छोड़ कर भागने की प्रवृत्ति को रोकने की कोशिश के रूप में पेश किया जा सकता था . लेकिन कांग्रेस के पास यू पी में नेता बहुत हैं, कार्यकर्ता बिलकुल नहीं हैं . मीडिया में भी राज्य के कांग्रेसी नेताओं की ऐसी छवि नहीं है कि राहुल गांधी की बात को आम जनता तक पंहुचाने में वे सहयोग कर सकें . जबकि विपक्षी दलों की कोशिश होगी कि वे राहुल गांधी के इस बयान को एक गैर ज़िम्मेदार बयान के दायरे से बाहर ही न आने दें .कांग्रेस ने पिछले कुछ वर्षों में यू पी में बहुत काम किया है . ख़ास तौर पर मुसलमानों में अपनी छवि को सुधारने में सफलता पायी है . इसका नतीजा लोकसभा २००९ में नज़र भी आया जब कांग्रेस पार्टी राज्य की दोनों बड़ी पार्टियों के बराबर सांसद चुनवाने में सफल रही. इस बार भी कांग्रेस को उम्मीद है कि मुसलमान उसको उसी तरह से समर्थन देगें जिस तरह से लोक सभा चुनाव २००९ के वक़्त दिया था. यह उम्मीद बिकुल जायज़ है .लेकिन अब हालात बदल गए है . सबसे बड़ी बात तो यही है कि इस बार एक ऐसी सरकार चुनी जानी है जो यू पी में राज काज संभालेगी . उसके पास कानून व्यवस्था का प्रबंधन होगा . मुसलमान की पूरी कोशिश होगी कि वह उत्तर प्रदेश में किसी ऐसी सरकार के गठन में सहयोग न कर दे जो गुजरात की मोदी सरकार की तरह काम करे. गुजरात की मोदी सरकार के बारे में जो तथ्य सामने आ रहे हैं उन से कोई भी मुसलमान डर सकता है . सबसे ताज़ा मामला मुंबई की लडकी इशरत जहां को फर्जी इनकाउंटर के ज़रिये क़त्ल करने का है .गुजरात के पुलिस अधिकारी संजीव भट्ट ने सुप्रीम कोर्ट तक में हलफनामा दाखिल कर दिया है कि मुख्य मंत्री,नरेंद्र मोदी ने गोधरा में ट्रेन में आग लगने के बाद पुलिस को हुक्म दिया था कि हिन्दुओं के गुस्से को प्रकट होने दें . दुनिया जानती है कि उस गुस्से के बाद गुजरात के कुछ शहरों में मुसलमानों का क्या हाल हुआ था. पूरे देश में मुसलामन उस हालत में नहीं पंहुचना चाहता जिस हालत में २००२ में गुजरात के मुसलमान पंहुच गए थे . बहुत सारे लोग यह कहते पाए जाते हैं कि नरेंद्र मोदी निजी तौर पर बहुत ही शांत प्रवृत्ति के इंसान हैं . उनकी बात को अगर मान भी लिया जाये तो गुजरात २००२ के नरसंहार को भुलाया नहीं जा सकता . इससे यह साबित होता है कि बीजेपी का मुख्यमंत्री अगर बहुत भला आदमी भी होगा तो वह गोधरा के बाद मुसलमानों के क़त्ले आम जैसी हालत पैदा होने से रोकने में बहुत दिलचस्पी नहीं लेगा. ज़ाहिर है कि कहीं भी कोई भी मुसलमान ऐसी किसी सरकार के बनने के हालात नहीं पैदा होने देगा जिससे उत्तर प्रदेश में बीजेपी की स्पष्ट बहुमत वाली सरकार बन जाए.पूरी तरह से टुकड़ों टुकड़ों में बँट चुकी उत्तर प्रदेश की आबादी में अब बहुत कम वोट बैंक रह गए हैं . इसलिए यह उम्मीद करना कि कोई एक ख़ास वर्ग किसी एक पार्टी के पक्ष में टूट पडेगा, बेमतलब है . अब तक माना जाता था कि उत्तर प्रदेश में दलित वर्गों का वोटर मौजूदा मुख्य मंत्री , मायावती के साथ रहता है लेकिन इस बार वह तस्वीर भी बदल रही है . गाँवों के स्तर तक जिस तरह से भ्रष्टाचार करने वालों का सरकारी आशीर्वाद से आतंक मचा हुआ है उसका शिकार सभी लोग हो रहे हैं . उसमें दलित भी शामिल हैं . इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि विधान सभा २०१२ में यू पी की जनता कुछ इस तरह से वोट करेगी जिस से राज्य में ग्रामीण स्तर पर मची लूट को रोका जा सके. ऐसी हालत में वोट उसी को मिल सकता है जो अपने आप को मायावाती के विकल्प के रूप में पेश करने में सफल होगा .समाजवादी पार्टी और उसके नेता मुलायम सिंह मायावती को सबसे मज़बूत चुनौती देने वाले नेता के रूप में पहचाने जाते हैं. पारंपरिक रूप से मुसलमान उनको वोट देते भी रहे हैं . यहाँ तक कि २००७ में भी मुसलमानों ने उनको वोट दिया था लेकिन उनकी पिछली सरकार में उनके कुछ साथियों की कारस्तानी ऐसी थी कि उनको बाकी कहीं से वोट नहीं मिले . नतीजा यह हुआ कि उनसे नाराज़ जनता ने मायावाती को मुख्यमंत्री बना दिया . स्पष्ट बहुमत के साथ मायावती पहली बार मुख्य मंत्री बनी थीं . इसके पहले हर बार वे बीजेपी के समर्थन से ही सरकार चलाती रही थीं . पूर्ण बहुमत के साथ चली मायावती की सरकार ऐसी सरकार नहीं है जिसको कोई बहुत गरीबपरवर सरकार कह सके . उसमें आर्थिक शुचिता निश्चित रूप से बहुत कम रही है . ऐसा लगता है कि मायावती को मालूम है कि पुराने फार्मूलों से इस बार चुनाव जीत सकना मुश्किल होगा.शायद इसीलिए चुनाव के ऐन पहले या यूं कहें कि चुनावी रणनीति को धार देने की गरज से मायावती ने उत्तर प्रदेश के बँटवारे का ऐलान कर दिया है . उत्तर प्रदेश के बँटवारे का राजनीतिक फैसला लेकर मायावती ने राज्य में सारे चुनावी समीकरण बदल दिया है . सबको मालूम है कि विधानसभा में पास किये गए मुख्यमंत्री मायावती के प्रस्ताव का कोई मतलब नहीं है लेकिन वह एक धमाकेदार राजनीतिक स्टेटमेंट तो हैं ही. उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव २०१२ में अब यह मुद्दा निश्चित रूप से अहम भूमिका निभायेगा. राज्य के बँटवारे पर गोलमोल बयान दे रही कांग्रेस और बीजेपी के सामने अब उत्तर प्रदेश की राजनीति में खासी मुश्किल पेश आने वाली है . उत्तर प्रदेश के बँटवारे की बात कर रहे अजीत सिंह को इस राजनीतिक घटनाक्रम ने निश्चित रूप से कमज़ोर किया है . पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के बीच कांग्रेस की मज़बूत होती साख के चक्कर में वे कांग्रेस से समझौता करने की कोशिश कर रहे हैं . उनके स्वर्गीय पिता ने अपनी बिरादरी के वोट और मुसलमानों के वोट के बल पर उतर प्रदेश में वर्षों राज किया था लेकिन अब मुसलमानों के बीच अजीत सिंह की स्वीकार्यता घटी है .लोकसभा २००९ के दौरान उनकी ख़ास सहयोगी और पार्टी की बड़ी नेता, अनुराधा चौधरी को जिताने के लिए गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी का सहयोग लिया गया था. अजीत सिंह और अनुराधा चौधरी के साथ नरेंद्र मोदी की तस्वीर वाले पोस्टर पूरे इलाके में पाट दिए गए थे. मुसलमानों ने एकमुश्त अनुराधा के खिलाफ वोट दिया और वे हार गयीं . वे पोस्टर इलाके के लोगों को अभी भी याद है . इसलिए लगता है कि राज्य के बँटवारे के मुद्दे के छिन जाने के बाद अजीत सिंह खासे कमज़ोर हुए हैं . पश्चिमी उत्तरप्रदेश के प्रभावशाली मुसलमानों के बीच उनकी नरेंद्र मोदी परस्त नेता की छवि भी उनको नुकसान पंहुचा सकती है . जानकार तो यहाँ तक कहते हैं कि अगर कांग्रेस ने अजीत सिंह के साथ समझौता किया तो उसके अपने वोट पश्चिम में ही नहीं पूरे राज्य में घट जायेगें .ऐसी हालत में कांग्रेस के समझौते के बाद भी अजीत सिंह एक ताक़त के रूप में नहीं उभरने वाले हैं . वैसे भी उनके बारे में यह शक़ बना रहता है कि पता नहीं कब वे बीजेपी से जा मिलेगें .
कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश के मुसलमानों के सामने विकल्प बहुत कम हैं . हालांकि खासी बड़ी संख्या में मुसलमान कांग्रेस की तरफ खिंचे हैं लेकिन कांग्रेस जब तक सरकार बनाने लायक स्थिति में नहीं आती तब तक मुसलमानों के वोट सारी सहानुभूति के बावजूद उसे नहीं मिलेगें . मायवाती के खिलाफ बन रहे माहौल के बाद लगता है कि मुसलमानों की प्राथमिकता सूची में समाजवादी पार्टी सबसे ऊपर रहेगी. कहा जा रहा है कि राज्य के बँटवारे का विरोध करके मुलायम सिंह यादव ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों को नाराज़ कर लिया है और उनको इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है .मुलायम सिंह यादव ने इस बार अपने चुनाव अभियान की शुरुआत एटा जिले के उस इलाके से की जहां यादवों का ख़ासा प्रभाव है . लगता है कि राज्य के बँटवारे की राजनीतिक चाल से होने वाले नुकसान की भरपाई वे पिछड़ों के वोट को अपने साथ बड़े पैमाने पर जोड़कर करना चाहते हैं . लेकिन उनकी हालत पूर्वी उत्तरप्रदेश में उतनी मजबूत नहीं है जितनी पहले हुआ करती थी .वहां पीस पार्टी नाम की एक पार्टी बना दी गयी है जो निश्चित रूप से मुलायम सिंह के मतदाताओं को तोड़ेगी उनके प्रभाव के जिलों, आज़मगढ़ , जौनपुर आदि में उनकी बिरादरी के जो नेता उनके सारथी हैं वे बहुत ही अलोकप्रिय लोग हैं . वहां मायावती का प्रभाव भी बहुत ज्यादा है . बीजेपी के तीनों बड़े नेता उसी इलाके के हैं . अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही और राजनाथ सिंह की कोशिश है कि ठाकुरों को साथ जोड़ा जाए. जब कि उसी इलाके से आने वाले कलराज मिश्र ने भी अपने को अभी से मुख्यमंत्री के रूप में देखना शुरू कर दिया है. उनकी रथ यात्रा के कारण भी उनके कार्यकर्ताओं में कुछ जागरूकता देखी गयी है . राहुल गांधी भी पूर्वी उत्तर प्रदेश को बहुत महत्व दे रहे हैं .पीस पार्टी के कारण मुसलमानों में दुविधा की स्थिति है . लेकिन कांग्रेस और बीजेपी की लगभग बराबर हो रही ताक़त के बाद लगता है वहां भी मुसलमानों को मायावती और मुलायम सिंह यादव के बीच ही चुनाव करना पडेगा . इस बात की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि बहुत हाई प्रोफाइल प्रचार के बावजूद भी पीस पार्टी के पहचान एक वोट काटने वाली पार्टी वाली ही बन जाय. ऐसी हालत में मुलायम सिंह और मायावती के बीच टाई होगी. दलित वोट तो मायावती के साथ जाएगा ही , अगर मुलायम सिंह ऐसा माहौल बनाने में सफल हो गए कि वे मायावती को हरा सकते हैं तो मुसलमान , बैकवर्ड और मायवती के नाराज़ वोटर के कंधे पर बैठ कर वे इस बार भी यू पी की सत्ता पर काबिज़ हो सकते हैं . लेकिन अभी बहुत जल्दी है . कुछ भी फाइनल कहना ठीक नहीं होगा लेकिन यह बात बहुत ही भरोसे के साथ कही जा सकती है कि इस बार उत्तर प्रदेश की सत्ता की चाभी मुसलमानों के हाथ में है .
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Sunday, November 20, 2011
यह हंगामा क्यों ? जस्टिस काटजू ने किसी की भैंस नहीं खोल ली है
शेष नारायण सिंह
हमें गर्व है कि हम उसी देश में रहते हैं जहां जस्टिस मार्कंडेय काटजू रहते
हैं .१७ नवम्बर के दिन प्रेस काउन्सिल की बैठक में जिस तरह से कुछ अखबारों के
मालिकों ने उनका बहिष्कार करने की कोशिश की हम अपने आप को उस से पूरी तरह
से अलग करते हैं. मार्कंडेय काटजू ने पिछले दिनों कुछ टी वी पत्रकारों को कम
बौद्धिक स्तर का व्यक्ति बताकर टी वी पत्रकारिता के मठाधीशों को नाराज़ कर
दिया था .उन्होंने इस बात पर भी एतराज़ किया था कि ज़्यादातर टी वी चैनल
गैरज़िम्मेदार तरीकों से खबर का प्रसारण करते हैं . उन्होंने यह भी कहा था कि
टी वी पत्रकारिता को भी प्रेस काउन्सिल की तरह के किसी कायदे कानून के निजाम
को स्वीकार करना चाहिए . उनके इस बयान के बाद तूफ़ान मच गया . टी वी न्यूज़ के
संगठनों ने लाठी भांजना शुरू कर दिया . उनके बयान को तोड़ मरोड़ कर पेश किया
जाने लगा . पत्रकार बिरादरी में मार्कंडेय काटजू को घटिया आदमी बताने का फैशन
चलाने की कोशिश शुरू हो गयी. अधिकतम लोगों तक अपनी पंहुच की ताक़त के बल पर
टी वी चैनलों के कुछ स्वनामधन्य न्यूज़ रीडरों ने तूफ़ान खड़ा कर दिया . लेकिन
मार्कंडेय काटजू ने अपनी बात को सही ठहराने का सिलसिला जारी रखा. हर संभव मंच
पर उन्होंने अपनी बात कही. जब एक टी वी चैनल की महिला एंकर ने उनके बयान को
तोड़ मरोड़ कर पेश किया तो उन्होंने फ़ौरन अपना प्रोटेस्ट दर्ज किया . उन देवी जी
को टेलीफोन करके बताया कि वे उनके बयान को सही तरीके से उद्धरित नहीं कर रही
हैं . टी वी चैनल की नामी एंकर साहिबा कह रही थीं कि मार्कंडेय काटजू ने
अधिकतर पत्रकारों को अशिक्षित कहा है . काटजू ने उनको फोन करके बताया कि आप
गलत बोल रही हैं . करण थापर के साथ हुए इंटरव्यू में मैंने कुछ पत्रकारों को "
पूअर इंटेलेक्चुअल लेवल " वाला कहा है . उन्होंने उन देवी जी से आग्रह किया कि
मेरी आलोचना अवश्य कीजिये लेकिन कृपया मेरी बात को सही तरीके से कोट तो
कीजिये . झूठ के आधार पर कोई डिस्कशन संभव नहीं है .
संतोष की बात यह है कि देश के सबसे सम्मानित अंग्रेज़ी अखबार ने जस्टिस
मार्कंडेय काटजू के स्पष्टीकरण को प्रमुखता से छापा है और टी वी पत्रकारों
के " पूअर इंटेलेक्चुअल लेवल " के विषय पर सार्थक बहस शुरू कर दिया है .यह
बहुत अच्छी बात है क्योंकि इसके बाद देश के प्रमुख टी वी चैनल वाले जस्टिस
काटजू को टाल नहीं पायेगें .बड़े माँ बाप के बेटे बेटियों के दबदबे से भरे
हुए टी वी चैनलों के आकाओं को यह मालूम होना चाहिए कि मार्कंडेय काटजू
भी बहुत बड़े बाप दादाओं की औलाद हैं . उनके पिता ,जस्टिस एस एन काटजू
इलाहाबाद हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रह चुके हैं. मार्कंडेय काटजू के दादा
डॉ कैलाश नाथ काटजू आज़ादी की लड़ाई में शामिल हुए थे और केंद्र सरकार में
कानून और रक्षा विभाग के मंत्री भी रह चुके थे. वे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री
और पश्चिम बंगाल के राज्यपाल भी थे. खुद मार्कंडेय काटजू अंग्रेज़ी,
हिन्दी, संस्कृत , उर्दू, इतिहास ,दर्शनशास्त्र ,समाजशास्त्र जैसे विषयों के
अधिकारी विद्वान् हैं . १९६८ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय की एल एल बी परीक्षा
में उन्होंने टाप किया था . इलाहाबाद के हाई कोर्ट में ४५ साल की उम्र में ही
जज बन गए थे. मद्रास और दिल्ली हाई कोर्टों में मुख्य न्यायाधीश रह चुके हैं
. बहुत सारी किताबों के लेखक हैं और अपनी बात को बिना किसी संकोच के , बिना
किसी हर्ष विषाद के कह देने की कला में निष्णात हैं . उन्होंने ही इलाहाबाद
हाई कोर्ट के बारे में वह बयान दिया था जिसमे उस महान संस्था में काम करने
वालों की कठोर आलोचना की गई थी.
अब मीडिया के बारे में उनके बयान आये हैं . उनके बयान इसलिए भी अहम हैं कि वे
आजकल प्रेस कौंसिल के अध्यक्ष हैं . ज़ाहिर है मीडिया को नियमित करने में उनकी
भूमिका पर सब की नज़र रहेगी और मीडिया के मह्त्व को समझने वालों को उम्मीद
रहेगी कि शायद उनके प्रयत्नों से मीडिया अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभा सके. अपने
बयान के बारे में एक बड़े अखबार में लेख लिख कर उन्होंने जी सफाई पेश की है
वह बेहतरीन अंग्रेज़ी गद्य का नमूना है . हम कोशिश करेगें कि लोगों तक हिन्दी
में जस्टिस काटजू की बात को पंहुचा सकें.
जस्टिस काटजू कहते हैं कि भारतीय मीडिया को भी वही ऐतिहासिक भूमिका निभानी है
जो सामंतवाद से औद्योगीकरण के दौर में जा रहे यूरोपीय समाज के निगहबान के रूप
में पश्चिमी मीडिया ने निभाया था . भारतीय सन्दर्भ में वह काम सामंतवादी सोच
पर हमला करके किया जा सकता है . अगर आज के दौर में मीडिया ने जातिवाद ,
सम्प्रदायवाद,रूढ़िवाद, स्त्रियों का शोषण आदि विषयों पर प्रगतिशील रुख न
अपनाया तो आने वाली पीढियां उसे माफ़ नहीं करेगीं .एक दौर था जब राजा राममोहन
रॉय, मुंशी प्रेमचंद और निखिल चक्रवर्ती ने पत्रकारिता की ऊंचाइयों पर जाकर
समाज को जागरूक बनाने में अहम भूमिका निभाई थी. बंगाल के अकाल की १९४३ में की
गयी निखिल चक्रवर्ती की रिपोर्टिंग की भी मार्कंडेय काटजू ने प्रशंसा की है .
उन्होंने आज की पत्रकारिता के शिरोमणि पत्रकारों की भी तारीफ की है . उन्होंने
पी साईनाथ की भूरि भूरि तारीफ़ की है और कहा है कि उनका नाम स्वर्णाक्षरों में
लिखा जाना चाहिए .. एन. राम, विनोद मेहता, प्रनंजय गुहा ठाकुरता,श्रीनिवास
रेड्डी आदि पत्रकारों की काटजू ने तारीफ़ की है . इसलिए टी वी चैनलों के उन
न्यूज़ रीडरों की उस बात में कोई दम नहीं है कि उन्होंने सभी पत्रकारों को
अशिक्षित कहा है . लेकिन यह दुर्भाग्य है कि जब उन्होंने टी वी चैनलों पर
यह आरोप लगाया कि वे प्रगतिशीलता के अपने ऐतिहासिक रोल की अनदेखी कर रहे हैं
तो कुछ टी वी चैनलों ने उन पर हमला बोल दिया . कई बार तो ऐसा लगता था कि जैसे
किसी बहस में न शामिल होकर कुछ टी वी पत्रकार काटजू से कोई पुरानी
दुश्मनी निकाल रहे हों या जिस तरह से व्यापारिक संगठनों के लोग अपने सदस्यों
के हर काम को सही ठहराते हैं , उस तरह का काम कर रहे हों. कई बार देखा गया है
कि व्यापार और उद्योग के संगठन अपने सदस्यों की टैक्स चोरी या स्मगलिंग की
कारस्तानियों को भी सही ठहराते हैं . काटजू के खिलाफ भी टी वी संगठनों के जो
बयान आ रहे थे , उनमें से भी वही बू आती थी. इसलिए टी वी चैनलों के मालिकों
के संगठनों या टी वी न्यूज़ के संपादकों के संगठनों की बात को गंभीरता से लेने
की ज़रुरत नहीं है .इन लोगों का आचरण वैसा ही था जैसा अपने गैंग के लोगों की
हर बात को सही ठहराने की कोशिश कर रहे अपराधियों का होता है . संतोष की बात यह
है कि मार्कंडेय काटजू भी उसी स्तर नहीं उतरे . हालांकि उनके ऊपर बहुत
नीचे उतर कर व्यक्तिगत हमले भी किये गए थे . उनको सरकारी एजेंट तक कहा गया
लेकिन उन्होंने न तो राडिया टेप्स का ज़िक्र किया और न ही एक बार भी कुछ टी
वी पत्रकारों को पूंजीपतियों का एजेंट कहा . हालांकि वे यह बातें आसानी से कह
सकते थे और उनकी बात को सही मानने वाली बहुत बड़ी सँख्या में लोग मिल जाते
.ज़रुरत इस बात की है कि जस्टिस मार्कंडेय काटजू के " पूअर इंटेलेक्चुअल
लेवल " वाले बयान पर पूरी गंभीरता से बहस हो और टी वी चैनलों में मौजूद
अज्ञानी लोग अपनी गलती मानें और मीडिया को अपने सामजिक और ऐतिहासिक दायित्व
को निभाने का मौक़ा मिले.
हमें गर्व है कि हम उसी देश में रहते हैं जहां जस्टिस मार्कंडेय काटजू रहते
हैं .१७ नवम्बर के दिन प्रेस काउन्सिल की बैठक में जिस तरह से कुछ अखबारों के
मालिकों ने उनका बहिष्कार करने की कोशिश की हम अपने आप को उस से पूरी तरह
से अलग करते हैं. मार्कंडेय काटजू ने पिछले दिनों कुछ टी वी पत्रकारों को कम
बौद्धिक स्तर का व्यक्ति बताकर टी वी पत्रकारिता के मठाधीशों को नाराज़ कर
दिया था .उन्होंने इस बात पर भी एतराज़ किया था कि ज़्यादातर टी वी चैनल
गैरज़िम्मेदार तरीकों से खबर का प्रसारण करते हैं . उन्होंने यह भी कहा था कि
टी वी पत्रकारिता को भी प्रेस काउन्सिल की तरह के किसी कायदे कानून के निजाम
को स्वीकार करना चाहिए . उनके इस बयान के बाद तूफ़ान मच गया . टी वी न्यूज़ के
संगठनों ने लाठी भांजना शुरू कर दिया . उनके बयान को तोड़ मरोड़ कर पेश किया
जाने लगा . पत्रकार बिरादरी में मार्कंडेय काटजू को घटिया आदमी बताने का फैशन
चलाने की कोशिश शुरू हो गयी. अधिकतम लोगों तक अपनी पंहुच की ताक़त के बल पर
टी वी चैनलों के कुछ स्वनामधन्य न्यूज़ रीडरों ने तूफ़ान खड़ा कर दिया . लेकिन
मार्कंडेय काटजू ने अपनी बात को सही ठहराने का सिलसिला जारी रखा. हर संभव मंच
पर उन्होंने अपनी बात कही. जब एक टी वी चैनल की महिला एंकर ने उनके बयान को
तोड़ मरोड़ कर पेश किया तो उन्होंने फ़ौरन अपना प्रोटेस्ट दर्ज किया . उन देवी जी
को टेलीफोन करके बताया कि वे उनके बयान को सही तरीके से उद्धरित नहीं कर रही
हैं . टी वी चैनल की नामी एंकर साहिबा कह रही थीं कि मार्कंडेय काटजू ने
अधिकतर पत्रकारों को अशिक्षित कहा है . काटजू ने उनको फोन करके बताया कि आप
गलत बोल रही हैं . करण थापर के साथ हुए इंटरव्यू में मैंने कुछ पत्रकारों को "
पूअर इंटेलेक्चुअल लेवल " वाला कहा है . उन्होंने उन देवी जी से आग्रह किया कि
मेरी आलोचना अवश्य कीजिये लेकिन कृपया मेरी बात को सही तरीके से कोट तो
कीजिये . झूठ के आधार पर कोई डिस्कशन संभव नहीं है .
संतोष की बात यह है कि देश के सबसे सम्मानित अंग्रेज़ी अखबार ने जस्टिस
मार्कंडेय काटजू के स्पष्टीकरण को प्रमुखता से छापा है और टी वी पत्रकारों
के " पूअर इंटेलेक्चुअल लेवल " के विषय पर सार्थक बहस शुरू कर दिया है .यह
बहुत अच्छी बात है क्योंकि इसके बाद देश के प्रमुख टी वी चैनल वाले जस्टिस
काटजू को टाल नहीं पायेगें .बड़े माँ बाप के बेटे बेटियों के दबदबे से भरे
हुए टी वी चैनलों के आकाओं को यह मालूम होना चाहिए कि मार्कंडेय काटजू
भी बहुत बड़े बाप दादाओं की औलाद हैं . उनके पिता ,जस्टिस एस एन काटजू
इलाहाबाद हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रह चुके हैं. मार्कंडेय काटजू के दादा
डॉ कैलाश नाथ काटजू आज़ादी की लड़ाई में शामिल हुए थे और केंद्र सरकार में
कानून और रक्षा विभाग के मंत्री भी रह चुके थे. वे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री
और पश्चिम बंगाल के राज्यपाल भी थे. खुद मार्कंडेय काटजू अंग्रेज़ी,
हिन्दी, संस्कृत , उर्दू, इतिहास ,दर्शनशास्त्र ,समाजशास्त्र जैसे विषयों के
अधिकारी विद्वान् हैं . १९६८ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय की एल एल बी परीक्षा
में उन्होंने टाप किया था . इलाहाबाद के हाई कोर्ट में ४५ साल की उम्र में ही
जज बन गए थे. मद्रास और दिल्ली हाई कोर्टों में मुख्य न्यायाधीश रह चुके हैं
. बहुत सारी किताबों के लेखक हैं और अपनी बात को बिना किसी संकोच के , बिना
किसी हर्ष विषाद के कह देने की कला में निष्णात हैं . उन्होंने ही इलाहाबाद
हाई कोर्ट के बारे में वह बयान दिया था जिसमे उस महान संस्था में काम करने
वालों की कठोर आलोचना की गई थी.
अब मीडिया के बारे में उनके बयान आये हैं . उनके बयान इसलिए भी अहम हैं कि वे
आजकल प्रेस कौंसिल के अध्यक्ष हैं . ज़ाहिर है मीडिया को नियमित करने में उनकी
भूमिका पर सब की नज़र रहेगी और मीडिया के मह्त्व को समझने वालों को उम्मीद
रहेगी कि शायद उनके प्रयत्नों से मीडिया अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभा सके. अपने
बयान के बारे में एक बड़े अखबार में लेख लिख कर उन्होंने जी सफाई पेश की है
वह बेहतरीन अंग्रेज़ी गद्य का नमूना है . हम कोशिश करेगें कि लोगों तक हिन्दी
में जस्टिस काटजू की बात को पंहुचा सकें.
जस्टिस काटजू कहते हैं कि भारतीय मीडिया को भी वही ऐतिहासिक भूमिका निभानी है
जो सामंतवाद से औद्योगीकरण के दौर में जा रहे यूरोपीय समाज के निगहबान के रूप
में पश्चिमी मीडिया ने निभाया था . भारतीय सन्दर्भ में वह काम सामंतवादी सोच
पर हमला करके किया जा सकता है . अगर आज के दौर में मीडिया ने जातिवाद ,
सम्प्रदायवाद,रूढ़िवाद, स्त्रियों का शोषण आदि विषयों पर प्रगतिशील रुख न
अपनाया तो आने वाली पीढियां उसे माफ़ नहीं करेगीं .एक दौर था जब राजा राममोहन
रॉय, मुंशी प्रेमचंद और निखिल चक्रवर्ती ने पत्रकारिता की ऊंचाइयों पर जाकर
समाज को जागरूक बनाने में अहम भूमिका निभाई थी. बंगाल के अकाल की १९४३ में की
गयी निखिल चक्रवर्ती की रिपोर्टिंग की भी मार्कंडेय काटजू ने प्रशंसा की है .
उन्होंने आज की पत्रकारिता के शिरोमणि पत्रकारों की भी तारीफ की है . उन्होंने
पी साईनाथ की भूरि भूरि तारीफ़ की है और कहा है कि उनका नाम स्वर्णाक्षरों में
लिखा जाना चाहिए .. एन. राम, विनोद मेहता, प्रनंजय गुहा ठाकुरता,श्रीनिवास
रेड्डी आदि पत्रकारों की काटजू ने तारीफ़ की है . इसलिए टी वी चैनलों के उन
न्यूज़ रीडरों की उस बात में कोई दम नहीं है कि उन्होंने सभी पत्रकारों को
अशिक्षित कहा है . लेकिन यह दुर्भाग्य है कि जब उन्होंने टी वी चैनलों पर
यह आरोप लगाया कि वे प्रगतिशीलता के अपने ऐतिहासिक रोल की अनदेखी कर रहे हैं
तो कुछ टी वी चैनलों ने उन पर हमला बोल दिया . कई बार तो ऐसा लगता था कि जैसे
किसी बहस में न शामिल होकर कुछ टी वी पत्रकार काटजू से कोई पुरानी
दुश्मनी निकाल रहे हों या जिस तरह से व्यापारिक संगठनों के लोग अपने सदस्यों
के हर काम को सही ठहराते हैं , उस तरह का काम कर रहे हों. कई बार देखा गया है
कि व्यापार और उद्योग के संगठन अपने सदस्यों की टैक्स चोरी या स्मगलिंग की
कारस्तानियों को भी सही ठहराते हैं . काटजू के खिलाफ भी टी वी संगठनों के जो
बयान आ रहे थे , उनमें से भी वही बू आती थी. इसलिए टी वी चैनलों के मालिकों
के संगठनों या टी वी न्यूज़ के संपादकों के संगठनों की बात को गंभीरता से लेने
की ज़रुरत नहीं है .इन लोगों का आचरण वैसा ही था जैसा अपने गैंग के लोगों की
हर बात को सही ठहराने की कोशिश कर रहे अपराधियों का होता है . संतोष की बात यह
है कि मार्कंडेय काटजू भी उसी स्तर नहीं उतरे . हालांकि उनके ऊपर बहुत
नीचे उतर कर व्यक्तिगत हमले भी किये गए थे . उनको सरकारी एजेंट तक कहा गया
लेकिन उन्होंने न तो राडिया टेप्स का ज़िक्र किया और न ही एक बार भी कुछ टी
वी पत्रकारों को पूंजीपतियों का एजेंट कहा . हालांकि वे यह बातें आसानी से कह
सकते थे और उनकी बात को सही मानने वाली बहुत बड़ी सँख्या में लोग मिल जाते
.ज़रुरत इस बात की है कि जस्टिस मार्कंडेय काटजू के " पूअर इंटेलेक्चुअल
लेवल " वाले बयान पर पूरी गंभीरता से बहस हो और टी वी चैनलों में मौजूद
अज्ञानी लोग अपनी गलती मानें और मीडिया को अपने सामजिक और ऐतिहासिक दायित्व
को निभाने का मौक़ा मिले.
Friday, November 18, 2011
ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के खिलाफ गिरोह बना रहे हैं धन्नासेठ
(नवभारत टाइम्स में छपा लेख)
शेष नारायण सिंह
नामी अमरीकी अखबार, वाशिंगटन पोस्ट में आज एक दिलचस्प खबर छपी है . लिखा है कि भारत सरकार के ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के कारण औद्योगिक सेक्टर को अब ज़रूरी मजदूर नहीं मिल रहे हैं . पंजाब और महाराष्ट्र में दूर गाँव से आकर मजदूरी करने वाले लोग नहीं पंहुच रहे हैं इसलिये औद्योगिक इस्तेमाल के लिए गन्ना भी मिलों तक नहीं पंहुच रहा है.बताया गया है कि अखबार के रिपोर्टरों ने देहातों में घूम घूम कर रोजगार गारंटी योजना ( नरेगा ) में काम करने वाले जिन मजदूरों से बात की, उन्होंने बताया कि यह काम उन्हें दो जून की रोटी तो देता ही है ,सम्मान के साथ अपनी ही ज़मीन पर रह कर जीने का अवसर भी देता है . अब ग्रामीण मजदूर भूखा नहीं सोता और बड़े किसानों के खेतों में कम मजदूरी पर काम करने के लिए मजबूर नहीं है . ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के अंतर्गत १०० दिन का काम पाने वाले मजदूरों के परिवार अति दरिद्रता के जीवन से मुक्ति पा चुके हैं और अब उन्हें मिल मालिक या बड़े किसान के सामने काम के लिए गिडगिडाना नहीं पड़ता . वाशिंगटन पोस्ट को इस बात से खासी परेशानी है कि इण्डिया में अब सस्ते मजदूर मिलने कम हो गए हैं .
यहाँ यह ध्यान में रखने की बात है कि ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत भारतीय ग्रामीण गरीब को दिनभर की मजदूरी के मद में केवल दो अमरीकी डालर मिलते हैं .साथ में कुछ अनाज भी मिल जाता है .वह भी पूरे साल नहीं ,साल में केवल सौ दिन . यानी प्रतिदिन के केवल २७ रूपये और ४० पैसे पड़े. अब मानवीय गरिमा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के सबसे बड़े समर्थक कहलाने के दावेदार अमरीका के एक बहुत बड़े अखबार को इस बात से भी परेशानी है कि भारत में अति गरीबी की ज़िंदगी बसर करने के लिए अभिशप्त एक आदमी २७ रूपये रोज़ क्यों कमा रहा है . अखबार का पूरा टोन यह है कि भारत सरकार ने ग्रामीण रोज़गार गारंटी जैसी योजना शुरू करके भारत के औद्योगिक उत्पादन के लिए मजदूरों की किल्लत पैदा कर दी है . उसे ऐसा नहीं करना चाहिए .
पूंजीवादी आर्थिक सोच के सरगना देश , अमरीका की इस सोच पर दुखी होने की ज़रूरत नहीं है . पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था का ट्रेड मार्क है कि उसमें गरीब इंसान का शोषण होता है .भारत में अमरीकी माडल के सपने देख रहे उद्योगपतियों को इस बात से बहुत परेशानी है कि इस योजना की वजह से मजदूरों को काम में कोई रूचि नहीं रह गयी है .भारतीय उद्योगपतियों के संगठन फिक्की में कृषि सेक्शन के मुखिया भास्कर रेड्डी कहते हैं कि यह योजना सबसे गरीब आदमी को कुछ राहत देने के लिए शुरू की गयी थी , लेकिन अब यह सबसे आसान रास्ता बन गयी है क्योंकि थोड़ी बहुत मिट्टी इधर उधर कर देने से लोगों को आसानी से पैसा मिल जाता है और वे अब कोई भी गंभीर काम नहीं करते. इस योजना का विरोध करने के लिए कुछ अर्थशास्त्रियों को भी आगे कर दिया गया है .वे कहते हैं कि करीब १०० अरब रूपयों के खर्च वाली यह योजना भारत सरकार की अर्थव्यवस्था पर भारी बोझ है . सरकार को इस योजना को फ़ौरन बंद कर देना चाहिए
अमरीका के सबसे प्रभावशाली अखबारों में से एक ,वाशिंगटन पोस्ट ने भारत के गरीबों के पक्षधर सबसे बड़े प्रोग्राम की निन्दा करने की जो योजना बनायी है वह हवा में नहीं है .लगता है कि भारत की पूंजीपति और औद्योगिक लाबी अब पूरी तरह से जुट गयी है कि इस योजना को गरीबों लायक न रहने दिया जाय . बहुत बड़े पैमाने पर कोशिश हो रही है कि ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के अंतर्गत फैक्टरी और बड़े फार्मों के काम को भी ले लिया जाय . संसद में पिछले सत्र में कुछ सांसदों ने यह आवाज़ उठायी थी कि जब खेती में काम का समय हो तो नरेगा की योजना को बंद रखा जाए. यानी मजदूर को बड़े किसानों के यहाँ कम मजदूरी पर काम करने के लिए मज़बूर किया जा सके और इस काम में उनको सरकार की मदद मिले. यह अजीब बात है कि पूंजीपति लाबी गरीब आदमी का शोषण न कर पाने पर पछता रही है . फिक्की ने एक सर्वे करवाया है जिससे पता चलता है कि बहुत सारे कारखाने ऐसे हैं जो अपना टार्गेट नहीं पूरा कर पा रहे हैं . बिल्डरों ने भी शिकायत की है कि उनके प्रोजेक्टों की कीमतें बढ़ रही हैं क्योंकि अब औने पौने दाम पर मजदूर नहीं मिल रहे हैं. उद्योगपतियों को सरकार से शिकायत है कि वह इस तरह की योजना चलाकर उद्योगों का सर्वनाश कर रही है. पूंजीपति खेमे के पूरी गंभीरता से जुट जाने के खतरे बहुत हैं . जानकार बताते हैं कि इस बात की पूरी आशंका है कि आने वाले दिनों में यह वर्ग नरेगा में ऐसे प्रावधान डलवा देगा जिससे यह मजदूरों की संकटमोचक योजना न रहकर औद्योगिक लाबी के हाथ का खिलौना बन जायेगी.केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश को भी यही डर है . उन्होंने चिंता जताई है कि उद्योगों में मजदूरों की कमी की बात का कोई मतलब नहीं है . ग्रामीण रोजगार योजना में कोई भी मजदूर को बाँधकर काम नहीं करवाता . वे जहां चाहें, काम करने के लिए स्वतंत्र हैं .लेकिन दुर्भाग्य है कि बड़े उद्योगपति और बड़े किसान उन्हें सम्मानजनक मजदूरी नहीं देते जिसके कारण वे नरेगा की योजनाओं से जीवन यापन करना बेहतर समझते हैं .
नरेगा के खिलाफ अमरीकी औद्योगिक कंपनियों ने भी अभियान शुरू कर दिया है . तमिलनाडु में टी शर्ट के उत्पादन के काम में लगी हुई अमरीका की कई कंपनियों ने प्रस्ताव दिया है कि अगर जिन जिलों में उनका काम चल रहा है , वहां से सरकारी ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना को हटा दिया जाय तो वे लोग खुद ही अपनी रोज़गार गारंटी योजना लागू कर देगें . केंद्र सरकार के आला अफसरों का कहना है कि यह बात बहुत ही शर्मनाक है कि खुले कम्पटीशन की वकालत करने वाले अमरीका के बड़े उद्योग , लोगों की मजबूरी से फायदा उठाने के लिए सरकार की मदद चाहते हैं . अमरीकी कंपनियों की इस सलाह पर ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना वाले अफसरों का कहना है कि उन्हें अपनी कोई योजना चलाने के लिए सरकारी मदद क्यों चाहिए . जब वे दुनिया भर में सबसे ज्यादा फायदा कमाते हैं तो उन्हें सरकार की २७ रूपये रोज़ वाली स्कीम को बंद करवाने की क्या ज़रुरत है . उन्हें तो चाहिए कि नरेगा के मुक़ाबिल अपनी योजना चलायें और अधिक से अधिक मजदूरों को नरेगा से ज्यादा मजदूरी दें. मजदूर अपने आप नरेगा को भूल जाएगा .
खुली अर्थव्यवस्था के पक्षधर अमरीका और उनके समर्थक अर्थशास्त्रियों को इसलिए परेशानी हो रही है कि देश के गरीब मजदूरों से वे अपनी शर्तों पर काम नहीं करवा पा रहे हैं .जब भारत में मिश्रित अर्थव्यवस्था की राजनीतिक सोच सरकारी कामकाज की नियंता होती थी तो उदारीकरण की अर्थव्यवस्था के वकील कहा करते थे कि सरकारी कंट्रोल से बाहर हो जाने के बाद पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के राजनीतिक अर्थशास्त्र के चल जाने के बाद खुला कम्पटीशन होगा लेकिन एक साधारण सी सरकारी योजना के चल जाने के बाद इन लोगों को सारा कम्पटीशन भूल गया . अब सरकारी अर्थशास्त्री, उद्योगपति, बड़े किसानों के संगठन सब उसी नरेगा को ख़त्म करने पर आमादा हैं . देखना यह है कि जयराम रमेश जैसे अर्थशास्त्री इस योजना को चला पाते हैं या बड़ी पूंजी के चाकर अर्थशास्त्री अपनी मनमानी करवाने में सफल होते हैं .
इस बात को समझने के लिए सरकारी सब्सिडी के निजाम को भी समझना पड़ेगा . कई औद्योगिक क्षेत्रों में भारी सरकारी सब्सिडी का इंतज़ाम होता है . लेकिन देखा यह गया है कि उद्योगपति सब्सिडी को अपनी आमदनी का हिस्सा मानते हैं . ज़्यादातर मामलों में सब्सिडी का लाभ उपभोक्ता तक नहीं पंहुचता है . नरेगा से हो रही बड़े उद्योगपतियों की असुविधा को सब्सिडी के बरक्स देखना चाहिए. खाद की कीमतें आज आसमान छू रही हैं . उस से किसानों को बहुत नुकसान हो रहा है रासायनिक खाद के कमरतोड़ दाम की वजह से किसान अपनी खेती को ठीक से नहीं कर पा रहे हैं . तुर्रा यह कि खाद बनाने वाली कंपनियों को बहुत बड़े पैमाने पर सरकारी सब्सिडी दी जाती है . लेकिन सब्सिडी को कम्पनियां किसान तक नहीं पंहुचाती . उसे वे अपने पास ही रख लेती हैं . आम आदमी दोनों तरफ से मारा जाता है . टैक्स देने वाली जनता के पैसे से ही सब्सिडी दी जाती है और जब वही जनता किसान के रूप में खाद खरीदती है तो उसे उनका हक नहीं मिलता. अक्सर खबर आती रहती है कि सरकार निजी कंपनियों क बेल आउट पैकेज देती है . यानी टैक्स देने वालों का पैसा निजी कंपनियों को दिवाला पिटने से बचाने के लिए दिया जाता है. यह दिवाला इसलिए निकल रहा होता है कि कंपनी कुप्रबंध की शिकार होती है. इस बात को किंगफिशर एयरलाइन के ताज़ा मामले से समझा जा सकता है. किंगफिशर पर करीब सात हज़ार करोड़ का घाटा है . कंपनी के मालिक कोशिश कर रहे हैं कि उन्हें सरकारी मदद मिल जाए और वे कंपनी को फिर से चला सकें .उद्योगजगत में सबको मालूम है कि किंगफिशर के मालिक बहुत ही राजसी शैली में जीवन जीते हैं . कंपनी के घाटे में एक बड़ा हिस्सा उनके बेमतलब के खर्चों का भी है . उन्होंने बैंकों से भी बहुत ज्यादा रक़म बतौर क़र्ज़ ले रखी है . उनके बारे में कहा जाता है कि वह बहुत ही ज्यादा पैसे लेने वाली माडलों के साथ समुद्र में पानी के जहाज़ में महीनों घूमते रहते हैं और फोटो खिंचाते हैं जिसके बाद में कैलेण्डर बनता है . ज़ाहिर है यह खर्च भी कंपनी के खाते से होता है और अब उस खर्च को पूरा करने के लिए सरकार से मदद मांग रहे हैं. हो सकता है कि उनको मदद मिल भी जाए. इसी तरह से बहुत सारे और भी मामले हैं जहां सरकार की सब्सिडी पर ऐश करने वाले उद्योगपति मिल जायेगें . डीज़ल पर आज बहुत भारी सब्सिडी है और डीज़ल का इस्तेमाल सबसे ज्यादा बड़े उद्योगों में ही होता है . हालांकि एक बहुत मामूली प्रतिशत में डीज़ल की खपत करने वाला किसान डीज़ल की कीमतों के कारण सबसे ज्यादा प्रभावित होता है.
इसलिए ज़रूरी यह है कि बड़े उद्योगपति, पूंजीपति और उनको समर्थन देने वाले देश और अखबार इन उद्योगपतियों को यह सलाह दें कि उद्योग चलाने के नाम पर बेमतलब खर्च करने से बाज़ आयें और उन मजदूरों को जिंदा रहने भर के लिए मजदूरी दें . नरेगा को हटाकर गरीब आदमी को मजबूर करके काम करवाने की मानसिकता से बचना आज के उद्योग जगत की सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए .
शेष नारायण सिंह
नामी अमरीकी अखबार, वाशिंगटन पोस्ट में आज एक दिलचस्प खबर छपी है . लिखा है कि भारत सरकार के ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के कारण औद्योगिक सेक्टर को अब ज़रूरी मजदूर नहीं मिल रहे हैं . पंजाब और महाराष्ट्र में दूर गाँव से आकर मजदूरी करने वाले लोग नहीं पंहुच रहे हैं इसलिये औद्योगिक इस्तेमाल के लिए गन्ना भी मिलों तक नहीं पंहुच रहा है.बताया गया है कि अखबार के रिपोर्टरों ने देहातों में घूम घूम कर रोजगार गारंटी योजना ( नरेगा ) में काम करने वाले जिन मजदूरों से बात की, उन्होंने बताया कि यह काम उन्हें दो जून की रोटी तो देता ही है ,सम्मान के साथ अपनी ही ज़मीन पर रह कर जीने का अवसर भी देता है . अब ग्रामीण मजदूर भूखा नहीं सोता और बड़े किसानों के खेतों में कम मजदूरी पर काम करने के लिए मजबूर नहीं है . ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के अंतर्गत १०० दिन का काम पाने वाले मजदूरों के परिवार अति दरिद्रता के जीवन से मुक्ति पा चुके हैं और अब उन्हें मिल मालिक या बड़े किसान के सामने काम के लिए गिडगिडाना नहीं पड़ता . वाशिंगटन पोस्ट को इस बात से खासी परेशानी है कि इण्डिया में अब सस्ते मजदूर मिलने कम हो गए हैं .
यहाँ यह ध्यान में रखने की बात है कि ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत भारतीय ग्रामीण गरीब को दिनभर की मजदूरी के मद में केवल दो अमरीकी डालर मिलते हैं .साथ में कुछ अनाज भी मिल जाता है .वह भी पूरे साल नहीं ,साल में केवल सौ दिन . यानी प्रतिदिन के केवल २७ रूपये और ४० पैसे पड़े. अब मानवीय गरिमा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के सबसे बड़े समर्थक कहलाने के दावेदार अमरीका के एक बहुत बड़े अखबार को इस बात से भी परेशानी है कि भारत में अति गरीबी की ज़िंदगी बसर करने के लिए अभिशप्त एक आदमी २७ रूपये रोज़ क्यों कमा रहा है . अखबार का पूरा टोन यह है कि भारत सरकार ने ग्रामीण रोज़गार गारंटी जैसी योजना शुरू करके भारत के औद्योगिक उत्पादन के लिए मजदूरों की किल्लत पैदा कर दी है . उसे ऐसा नहीं करना चाहिए .
पूंजीवादी आर्थिक सोच के सरगना देश , अमरीका की इस सोच पर दुखी होने की ज़रूरत नहीं है . पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था का ट्रेड मार्क है कि उसमें गरीब इंसान का शोषण होता है .भारत में अमरीकी माडल के सपने देख रहे उद्योगपतियों को इस बात से बहुत परेशानी है कि इस योजना की वजह से मजदूरों को काम में कोई रूचि नहीं रह गयी है .भारतीय उद्योगपतियों के संगठन फिक्की में कृषि सेक्शन के मुखिया भास्कर रेड्डी कहते हैं कि यह योजना सबसे गरीब आदमी को कुछ राहत देने के लिए शुरू की गयी थी , लेकिन अब यह सबसे आसान रास्ता बन गयी है क्योंकि थोड़ी बहुत मिट्टी इधर उधर कर देने से लोगों को आसानी से पैसा मिल जाता है और वे अब कोई भी गंभीर काम नहीं करते. इस योजना का विरोध करने के लिए कुछ अर्थशास्त्रियों को भी आगे कर दिया गया है .वे कहते हैं कि करीब १०० अरब रूपयों के खर्च वाली यह योजना भारत सरकार की अर्थव्यवस्था पर भारी बोझ है . सरकार को इस योजना को फ़ौरन बंद कर देना चाहिए
अमरीका के सबसे प्रभावशाली अखबारों में से एक ,वाशिंगटन पोस्ट ने भारत के गरीबों के पक्षधर सबसे बड़े प्रोग्राम की निन्दा करने की जो योजना बनायी है वह हवा में नहीं है .लगता है कि भारत की पूंजीपति और औद्योगिक लाबी अब पूरी तरह से जुट गयी है कि इस योजना को गरीबों लायक न रहने दिया जाय . बहुत बड़े पैमाने पर कोशिश हो रही है कि ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के अंतर्गत फैक्टरी और बड़े फार्मों के काम को भी ले लिया जाय . संसद में पिछले सत्र में कुछ सांसदों ने यह आवाज़ उठायी थी कि जब खेती में काम का समय हो तो नरेगा की योजना को बंद रखा जाए. यानी मजदूर को बड़े किसानों के यहाँ कम मजदूरी पर काम करने के लिए मज़बूर किया जा सके और इस काम में उनको सरकार की मदद मिले. यह अजीब बात है कि पूंजीपति लाबी गरीब आदमी का शोषण न कर पाने पर पछता रही है . फिक्की ने एक सर्वे करवाया है जिससे पता चलता है कि बहुत सारे कारखाने ऐसे हैं जो अपना टार्गेट नहीं पूरा कर पा रहे हैं . बिल्डरों ने भी शिकायत की है कि उनके प्रोजेक्टों की कीमतें बढ़ रही हैं क्योंकि अब औने पौने दाम पर मजदूर नहीं मिल रहे हैं. उद्योगपतियों को सरकार से शिकायत है कि वह इस तरह की योजना चलाकर उद्योगों का सर्वनाश कर रही है. पूंजीपति खेमे के पूरी गंभीरता से जुट जाने के खतरे बहुत हैं . जानकार बताते हैं कि इस बात की पूरी आशंका है कि आने वाले दिनों में यह वर्ग नरेगा में ऐसे प्रावधान डलवा देगा जिससे यह मजदूरों की संकटमोचक योजना न रहकर औद्योगिक लाबी के हाथ का खिलौना बन जायेगी.केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश को भी यही डर है . उन्होंने चिंता जताई है कि उद्योगों में मजदूरों की कमी की बात का कोई मतलब नहीं है . ग्रामीण रोजगार योजना में कोई भी मजदूर को बाँधकर काम नहीं करवाता . वे जहां चाहें, काम करने के लिए स्वतंत्र हैं .लेकिन दुर्भाग्य है कि बड़े उद्योगपति और बड़े किसान उन्हें सम्मानजनक मजदूरी नहीं देते जिसके कारण वे नरेगा की योजनाओं से जीवन यापन करना बेहतर समझते हैं .
नरेगा के खिलाफ अमरीकी औद्योगिक कंपनियों ने भी अभियान शुरू कर दिया है . तमिलनाडु में टी शर्ट के उत्पादन के काम में लगी हुई अमरीका की कई कंपनियों ने प्रस्ताव दिया है कि अगर जिन जिलों में उनका काम चल रहा है , वहां से सरकारी ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना को हटा दिया जाय तो वे लोग खुद ही अपनी रोज़गार गारंटी योजना लागू कर देगें . केंद्र सरकार के आला अफसरों का कहना है कि यह बात बहुत ही शर्मनाक है कि खुले कम्पटीशन की वकालत करने वाले अमरीका के बड़े उद्योग , लोगों की मजबूरी से फायदा उठाने के लिए सरकार की मदद चाहते हैं . अमरीकी कंपनियों की इस सलाह पर ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना वाले अफसरों का कहना है कि उन्हें अपनी कोई योजना चलाने के लिए सरकारी मदद क्यों चाहिए . जब वे दुनिया भर में सबसे ज्यादा फायदा कमाते हैं तो उन्हें सरकार की २७ रूपये रोज़ वाली स्कीम को बंद करवाने की क्या ज़रुरत है . उन्हें तो चाहिए कि नरेगा के मुक़ाबिल अपनी योजना चलायें और अधिक से अधिक मजदूरों को नरेगा से ज्यादा मजदूरी दें. मजदूर अपने आप नरेगा को भूल जाएगा .
खुली अर्थव्यवस्था के पक्षधर अमरीका और उनके समर्थक अर्थशास्त्रियों को इसलिए परेशानी हो रही है कि देश के गरीब मजदूरों से वे अपनी शर्तों पर काम नहीं करवा पा रहे हैं .जब भारत में मिश्रित अर्थव्यवस्था की राजनीतिक सोच सरकारी कामकाज की नियंता होती थी तो उदारीकरण की अर्थव्यवस्था के वकील कहा करते थे कि सरकारी कंट्रोल से बाहर हो जाने के बाद पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के राजनीतिक अर्थशास्त्र के चल जाने के बाद खुला कम्पटीशन होगा लेकिन एक साधारण सी सरकारी योजना के चल जाने के बाद इन लोगों को सारा कम्पटीशन भूल गया . अब सरकारी अर्थशास्त्री, उद्योगपति, बड़े किसानों के संगठन सब उसी नरेगा को ख़त्म करने पर आमादा हैं . देखना यह है कि जयराम रमेश जैसे अर्थशास्त्री इस योजना को चला पाते हैं या बड़ी पूंजी के चाकर अर्थशास्त्री अपनी मनमानी करवाने में सफल होते हैं .
इस बात को समझने के लिए सरकारी सब्सिडी के निजाम को भी समझना पड़ेगा . कई औद्योगिक क्षेत्रों में भारी सरकारी सब्सिडी का इंतज़ाम होता है . लेकिन देखा यह गया है कि उद्योगपति सब्सिडी को अपनी आमदनी का हिस्सा मानते हैं . ज़्यादातर मामलों में सब्सिडी का लाभ उपभोक्ता तक नहीं पंहुचता है . नरेगा से हो रही बड़े उद्योगपतियों की असुविधा को सब्सिडी के बरक्स देखना चाहिए. खाद की कीमतें आज आसमान छू रही हैं . उस से किसानों को बहुत नुकसान हो रहा है रासायनिक खाद के कमरतोड़ दाम की वजह से किसान अपनी खेती को ठीक से नहीं कर पा रहे हैं . तुर्रा यह कि खाद बनाने वाली कंपनियों को बहुत बड़े पैमाने पर सरकारी सब्सिडी दी जाती है . लेकिन सब्सिडी को कम्पनियां किसान तक नहीं पंहुचाती . उसे वे अपने पास ही रख लेती हैं . आम आदमी दोनों तरफ से मारा जाता है . टैक्स देने वाली जनता के पैसे से ही सब्सिडी दी जाती है और जब वही जनता किसान के रूप में खाद खरीदती है तो उसे उनका हक नहीं मिलता. अक्सर खबर आती रहती है कि सरकार निजी कंपनियों क बेल आउट पैकेज देती है . यानी टैक्स देने वालों का पैसा निजी कंपनियों को दिवाला पिटने से बचाने के लिए दिया जाता है. यह दिवाला इसलिए निकल रहा होता है कि कंपनी कुप्रबंध की शिकार होती है. इस बात को किंगफिशर एयरलाइन के ताज़ा मामले से समझा जा सकता है. किंगफिशर पर करीब सात हज़ार करोड़ का घाटा है . कंपनी के मालिक कोशिश कर रहे हैं कि उन्हें सरकारी मदद मिल जाए और वे कंपनी को फिर से चला सकें .उद्योगजगत में सबको मालूम है कि किंगफिशर के मालिक बहुत ही राजसी शैली में जीवन जीते हैं . कंपनी के घाटे में एक बड़ा हिस्सा उनके बेमतलब के खर्चों का भी है . उन्होंने बैंकों से भी बहुत ज्यादा रक़म बतौर क़र्ज़ ले रखी है . उनके बारे में कहा जाता है कि वह बहुत ही ज्यादा पैसे लेने वाली माडलों के साथ समुद्र में पानी के जहाज़ में महीनों घूमते रहते हैं और फोटो खिंचाते हैं जिसके बाद में कैलेण्डर बनता है . ज़ाहिर है यह खर्च भी कंपनी के खाते से होता है और अब उस खर्च को पूरा करने के लिए सरकार से मदद मांग रहे हैं. हो सकता है कि उनको मदद मिल भी जाए. इसी तरह से बहुत सारे और भी मामले हैं जहां सरकार की सब्सिडी पर ऐश करने वाले उद्योगपति मिल जायेगें . डीज़ल पर आज बहुत भारी सब्सिडी है और डीज़ल का इस्तेमाल सबसे ज्यादा बड़े उद्योगों में ही होता है . हालांकि एक बहुत मामूली प्रतिशत में डीज़ल की खपत करने वाला किसान डीज़ल की कीमतों के कारण सबसे ज्यादा प्रभावित होता है.
इसलिए ज़रूरी यह है कि बड़े उद्योगपति, पूंजीपति और उनको समर्थन देने वाले देश और अखबार इन उद्योगपतियों को यह सलाह दें कि उद्योग चलाने के नाम पर बेमतलब खर्च करने से बाज़ आयें और उन मजदूरों को जिंदा रहने भर के लिए मजदूरी दें . नरेगा को हटाकर गरीब आदमी को मजबूर करके काम करवाने की मानसिकता से बचना आज के उद्योग जगत की सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए .
Tuesday, November 15, 2011
गरीब सवर्णों को ओ बी सी के बराबर मानने की सिफारिश
शेष नारायण सिंह
सवर्ण जातियों के जो लोग इनकम टैक्स नहीं देते उन्हें ओ बी सी जातियों के बराबर माना जाना चाहिए और उन्हें भी वही सुविधा मिलनी चाहिए जो पिछड़ी जाति के लोगों के लिए उपलब्ध है . आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए बनाए गए कमीशन ने अपने सुझाव में कहा है कि इन वर्गों को शिक्षा, आवास,स्वास्थ्य और सामाजिक क्षेत्रोंमें वही सुविधाएं मिलनी चाहिए जो ओ बी सी को मिलती है .हालांकि इस कमीशन की सिफारिशों में नौकारियों में आरक्षण की बात नहीं कही गयी है लेकिन इसे सवर्ण आरक्षण के लिए कोशिश कर रही राजनीतिक पार्टियों के हाथ में एक महत्वपूर्ण हथियार के तौर पर देखा जा रहा है.
करीब चार साल पहले केंद्र सरकार ने आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान के लिए मानदंड तय करने के लिये एक आयोग का गठन किया था.इसे यह भी पता करना था कि इन वर्गों का कल्याण कैसे किया जाए . एजेंडा में यह भी था कि क्या इन वर्गों के लिए नौकरियों में आरक्षण करना चाहिए कि नहीं . इस आयोग की रिपोर्ट तैयार हो गयी है . इसमें लिखा है कि करीब ६ करोड़ सवर्ण ऐसे हैं जिनको ओ बी सी के बराबर माना जाना चाहिए . कहा गया है कि आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों में सभी धर्मों के लोग शामिल किये जाने चाहिए .सरकारी नौकरियों में आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को शामिल किये जाने की वकालत बहुत सारी पार्टियां करती रही हैं . उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री तो हर मंच पर यह बात कहती रही हैं. इस रिपोर्ट के बाद उनका काम आसान हो जाएगा. कांग्रेस और बीजेपी वाले ओ बी सी में अति पिछड़े वर्ग के नाम पर आरक्षण की मांग पहले से ही कर रहे हैं. उनकी कोशिश है कि पिछड़ों के लिए उपलब्ध २७ प्रतिशत के आरक्षण में से मुलायम सिंह यादव की पार्टी के मुख्य समर्थक, यादवों को केवल ५ प्रतिशत ही आरक्षण दिया जाए . आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों के आरक्षण के लिए भी राजनीतिक ज़मीन तैयार हो जाने के बाद बीजेपी वाले समाजवादी पार्टी को कमज़ोर करने की अपनी कोशिश तेज़ कर देगें . अभी कुछ दिन पहले ही केंद्र सरकार के योजना आयोग ने पिछड़े और अति पिछड़े वर्गों के नाम पर कोटा के अंदर कोटा की बहस शुरू की थी . अब आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों की बात को भी नौकरियों के रिज़र्वेशन की बहस में झोंक कर उत्तर प्रदेश की सबसे मज़बूत विपक्षी पार्टी पर ज़बरदस्त राजनीतिक हमला हो सकता है .
आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के कमीशन की रपोर्ट में यह तो लिखा है कि इन वर्गों के सवर्णों को सामाजिक रूप से तो वह अपमान नहीं झेलना पड़ता जो दलित जातियों के लोगों को झेलना पड़ता है. इस कमीशन ने देश के २८ राज्यों का दौरा करके अपनी रिपोर्ट तैयार की है और कहा है कि एक करोड़ परिवार इस श्रेणी में आते हैं . अगर प्रति परिवार छः लोगों की संख्या मान ली जाए तो यह आबादी छः करोड़ के आस पास पंहुच जाती है .अगर सरकार इन सिफारिशों को स्वीकार कर लेती है तो देश के राजनीतिक माहौल में कुछ उसी तरह का परिवर्तन आ जाएगा जैसा मंडल कमीशन के सुझावों को मान लेने के बाद १९९० में आ गया था .
सवर्ण जातियों के जो लोग इनकम टैक्स नहीं देते उन्हें ओ बी सी जातियों के बराबर माना जाना चाहिए और उन्हें भी वही सुविधा मिलनी चाहिए जो पिछड़ी जाति के लोगों के लिए उपलब्ध है . आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए बनाए गए कमीशन ने अपने सुझाव में कहा है कि इन वर्गों को शिक्षा, आवास,स्वास्थ्य और सामाजिक क्षेत्रोंमें वही सुविधाएं मिलनी चाहिए जो ओ बी सी को मिलती है .हालांकि इस कमीशन की सिफारिशों में नौकारियों में आरक्षण की बात नहीं कही गयी है लेकिन इसे सवर्ण आरक्षण के लिए कोशिश कर रही राजनीतिक पार्टियों के हाथ में एक महत्वपूर्ण हथियार के तौर पर देखा जा रहा है.
करीब चार साल पहले केंद्र सरकार ने आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान के लिए मानदंड तय करने के लिये एक आयोग का गठन किया था.इसे यह भी पता करना था कि इन वर्गों का कल्याण कैसे किया जाए . एजेंडा में यह भी था कि क्या इन वर्गों के लिए नौकरियों में आरक्षण करना चाहिए कि नहीं . इस आयोग की रिपोर्ट तैयार हो गयी है . इसमें लिखा है कि करीब ६ करोड़ सवर्ण ऐसे हैं जिनको ओ बी सी के बराबर माना जाना चाहिए . कहा गया है कि आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों में सभी धर्मों के लोग शामिल किये जाने चाहिए .सरकारी नौकरियों में आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को शामिल किये जाने की वकालत बहुत सारी पार्टियां करती रही हैं . उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री तो हर मंच पर यह बात कहती रही हैं. इस रिपोर्ट के बाद उनका काम आसान हो जाएगा. कांग्रेस और बीजेपी वाले ओ बी सी में अति पिछड़े वर्ग के नाम पर आरक्षण की मांग पहले से ही कर रहे हैं. उनकी कोशिश है कि पिछड़ों के लिए उपलब्ध २७ प्रतिशत के आरक्षण में से मुलायम सिंह यादव की पार्टी के मुख्य समर्थक, यादवों को केवल ५ प्रतिशत ही आरक्षण दिया जाए . आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों के आरक्षण के लिए भी राजनीतिक ज़मीन तैयार हो जाने के बाद बीजेपी वाले समाजवादी पार्टी को कमज़ोर करने की अपनी कोशिश तेज़ कर देगें . अभी कुछ दिन पहले ही केंद्र सरकार के योजना आयोग ने पिछड़े और अति पिछड़े वर्गों के नाम पर कोटा के अंदर कोटा की बहस शुरू की थी . अब आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों की बात को भी नौकरियों के रिज़र्वेशन की बहस में झोंक कर उत्तर प्रदेश की सबसे मज़बूत विपक्षी पार्टी पर ज़बरदस्त राजनीतिक हमला हो सकता है .
आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के कमीशन की रपोर्ट में यह तो लिखा है कि इन वर्गों के सवर्णों को सामाजिक रूप से तो वह अपमान नहीं झेलना पड़ता जो दलित जातियों के लोगों को झेलना पड़ता है. इस कमीशन ने देश के २८ राज्यों का दौरा करके अपनी रिपोर्ट तैयार की है और कहा है कि एक करोड़ परिवार इस श्रेणी में आते हैं . अगर प्रति परिवार छः लोगों की संख्या मान ली जाए तो यह आबादी छः करोड़ के आस पास पंहुच जाती है .अगर सरकार इन सिफारिशों को स्वीकार कर लेती है तो देश के राजनीतिक माहौल में कुछ उसी तरह का परिवर्तन आ जाएगा जैसा मंडल कमीशन के सुझावों को मान लेने के बाद १९९० में आ गया था .
क्या नेहरू के नाम पर यू पी में कांग्रेस की डूबती नैया पार होगी
शेष नारायण सिंह
कांग्रेस के सरताज राहुल गांधी जवाहरलाल नेहरू के चुनाव क्षेत्र ,फूलपुर से उत्तरप्रदेश विधान सभा के २०१२ के चुनाव अभियान की शुरुआत कर चुके हैं . अपने पिताजी के नाना से अपने नाम को जोड़ने के चक्कर में राहुल गांधी, जवाहरलाल नेहरू की विरासत को केवल अपने परिवार तक सीमित करने की कोशिश कर रहे हैं . यह सच नहीं है. जवाहरलाल नेहरू को इंदिरा गाँधी के पिता के रूप में ही प्रस्तुत करना देश की आज़ादी की लड़ाई के संघर्ष के साथ मजाक है . यह भी वैसी ही कोशिश है जिसके तहत एक राजनीतिक पार्टी के लोग हर गलती के लिए जवाहरलाल नेहरू को ज़िम्मेदार ठहराते पाए जाए हैं . आजकल तो इस प्रजाति के लोग अखबारों में भी खासी संख्या में पंहुच गए हैं और वे कहते रहते हैं कि कश्मीर समस्या सहित देश की सभी बड़ी समस्याएं नेहरू की देन हैं . समकालीन इतिहास की इससे बड़ी अज्ञानतापूर्ण समझ हो ही नहीं सकती. सच्ची बात यह है कि अगर महात्मा गाँधी ,जवाहरलाल नेहरू , सरदार पटेल और शेख अब्दुल्ला ने राजनीतिक बुलंदी न दिखाई होती तो राजा हरि सिंह और मुहम्मद अली जिन्ना ने तो जम्मू-कश्मीर को पाकिस्तान में मिला ही दिया था. लेकिन सरदार पटेल और शेख अब्दुल्ला की संयुक्त कोशिश का नतीजा था कि कश्मीर आज भारत का हिस्सा है .समकालीन इतिहास के इस सच को जनता तक पंहुचाने का काम किसी राजनीतिक विश्लेशक का नहीं है . यह काम तो कांग्रेस पार्टी का है लेकिन उसने सच्चाई को पब्लिक डोमेन में लाने का काम कभी नहीं किया . नतीजा यह है कि आज की पीढी के एक बहुत बड़े वर्ग को अब भी यही बताया जा रहा है कि जवाहरलाल नेहरू ने देश को कमज़ोर किया . शायद इसका करण यह है कि कांग्रेस पार्टी वाले नेहरू के वंशजों की जय जय कार में इतने व्यस्त हैं कि उन्हें नेहरू की विरासत को याद करने का मौक़ा ही नहीं मिल रहा है .आज कांग्रेसी नेता यह कोशिश करते देखे जा रहे हैं कि राहुल गांधी भी उतने ही दूरदर्शी नेता हैं ,जितने कि जवाहरलाल नेहरू थे.. लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि जवाहरलाल नेहरू का वंशज होकर कोई उन जैसा नहीं बन जाता . कल्पना कीजिये कि अगर जवाहरलाल नेहरू के बाद लाल बहादुर शास्त्री की प्रधानमंत्री के रूप में असमय मृत्यु न हो गयी होती और उस दौर के कांग्रेसी चापलूस, जिसमें कामराज सर्वोपरि थे, ने इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री न बनवा दिया होता तो आज राहुल गांधी और वरुण गांधी जैसे अजूबे कहाँ होते. वास्तव में राहुल गांधी और वरुण गांधी टाइप नेताओं को अपने आप को जवाहरलाल नेहरू का वारिस कहना ही नहीं चाहिए . में यह सब तो इंदिरा गाँधी के वारिस हैं . वही इंदिरा गाँधी जिन्होंने सत्ता में बने रहने के लिए लोकतंत्र का सर्वनाश करने की गरज से इमरजेंसी लगाई थी, विपक्षी नेताओं को जेल में ठूंस दिया था, प्रेस का गला घोंट दिया था और इस देश के लगभग सभी नेताओं को यह प्रोत्साहन दिया था कि वे अपने वंशजों को राजनीति में बढ़ावा दें और जनता के धन की लूट के अभियान में शामिल हों. आज हर पार्टी का नेता अपने बच्चों को राजनीति में शामिल करवा रहा है और उनको भी वैसी ही चोरी करने की प्रेरणा दे रहा है जिसके चलते वह खुद करोडपति या अरबपति बन गया है.
बहरहाल अब कोई जवाहरलाल नेहरू का अभिनय करना चाहे तो उसे कोई रोक नहीं सकता है इसलिए आज फूलपुर में राहुल गांधी का भाषण उसी तर्ज़ पर हो गया जैसा फिल्म्स डिवीज़न के आर्काइव्ज़ में जवाहरलाल नेहरू का भाषण देखा जाता है . लेकिन यह समझ लेना ज़रूरी है कि फूलपुर में जवाहरलाल नेहरू इसलिए जीत जाते थे कि उनको कहीं से भी मज़बूत विरोध नहीं मिल रहा था. एक बार तो उनके खिलाफ स्वामी करपात्री जी लड़े थे और एकाध बार स्वामी प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने उन्हें चुनौती दी थी. जवाहरलाल नेहरू देश को प्रगति के रास्ते पर ले जा रहे थे तो सभी चाहते थे कि उन्हें कोई चुनावी चुनौती न मिले . लेकिन जब उन्हें चुनौती मिली तो जीत बहुत आसान नहीं रह गयी थी. १९६२ के चुनाव में फूलपुर में जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ सोशलिस्ट पार्टी से डॉ. राम मनोहर लोहिया उम्मीदवार थे . डॉ लोहिया भी आज़ादी के लड़ाई के महान नेता थे. कांग्रेस से अलग होने के पहले वे नेहरू के समाजवादी विचारों के बड़े समर्थक रह चुके थे. बाद में भी एक डेमोक्रेट के रूप में वे नेहरू जी की बहुत इज्ज़त करते थे . लेकिन जब आज़ादी के एक दशक बाद यह साफ़ हो गया कि जवाहरलाल नेहरू भी समाजवादी कवर के अंदर देश में पूंजीवादी निजाम कायम कर रहे हैं तो डॉ लोहिया ने जवाहरलाल को आगाह किया था . तब तक जवाहरलाल पूरी तरह से नौकरशाही और पुरातनपंथी लोगों से घिर चुके थे. नतीजा यह हुआ कि डॉ राम मनोहर लोहिया ने फूलपुर चुनाव में पर्चा दाखिल कर दिया . ऐसा लगता है कि डॉ लोहिया भी जवाहरलाल नेहरू को हराना नहीं चाहते थे क्योंकि उन्होंने फूलपुर चुनाव क्षेत्र में केवल दो सभाएं कीं . स्वर्गीय जनेश्वर मिश्र ने बताया था कि जहां भी डॉ लोहिया गए और उन्होंने नेहरू की अगुवाई वाली सरकार की कमियाँ गिनाई तो जनता की समझ में बात आ गयी. जनेश्वर मिश्रा का कहना था कि जिन इलाकों में लोहिया ने सभाएं की थीं वहां नेहरू को बहुत कम वोट मिले थे. मसलन कोटवा नाम के पोलिंग स्टेशन पर डॉ लोहिया को ७५० वोट मिले थे तो जवाहरलाल नेहरू के नाम पर केवल २ वोट पड़े थे. इसी तरह से हरिसेन गंज में लोहिया को ३७५ वोट मिले तो जवाहरलाल को ३ वोट मिले.राहुल गांधी और उनकी मंडली के लोगों को यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि जवाहर लाल नेहरू की तरह चुनाव लड़ने का अभिनय करके बहुत कुछ हासिल किया जा सकता है . उत्तर प्रदेश या देश के किसी भी हिस्से में जवाहरलाल नेहरू की तरह सफल होने के लिए राजनीतिक छुटपन से बाहर निकलना होगा और देश की समस्यायों को सही सन्दर्भ में समझना होगा . अगर ऐसा न हुआ तो जवाहरलाल नेहरू की बेटी का पौत्र बनकर राजनीतिक सफलता हासिल कर पाना आसान नहीं होगा .
कांग्रेस के सरताज राहुल गांधी जवाहरलाल नेहरू के चुनाव क्षेत्र ,फूलपुर से उत्तरप्रदेश विधान सभा के २०१२ के चुनाव अभियान की शुरुआत कर चुके हैं . अपने पिताजी के नाना से अपने नाम को जोड़ने के चक्कर में राहुल गांधी, जवाहरलाल नेहरू की विरासत को केवल अपने परिवार तक सीमित करने की कोशिश कर रहे हैं . यह सच नहीं है. जवाहरलाल नेहरू को इंदिरा गाँधी के पिता के रूप में ही प्रस्तुत करना देश की आज़ादी की लड़ाई के संघर्ष के साथ मजाक है . यह भी वैसी ही कोशिश है जिसके तहत एक राजनीतिक पार्टी के लोग हर गलती के लिए जवाहरलाल नेहरू को ज़िम्मेदार ठहराते पाए जाए हैं . आजकल तो इस प्रजाति के लोग अखबारों में भी खासी संख्या में पंहुच गए हैं और वे कहते रहते हैं कि कश्मीर समस्या सहित देश की सभी बड़ी समस्याएं नेहरू की देन हैं . समकालीन इतिहास की इससे बड़ी अज्ञानतापूर्ण समझ हो ही नहीं सकती. सच्ची बात यह है कि अगर महात्मा गाँधी ,जवाहरलाल नेहरू , सरदार पटेल और शेख अब्दुल्ला ने राजनीतिक बुलंदी न दिखाई होती तो राजा हरि सिंह और मुहम्मद अली जिन्ना ने तो जम्मू-कश्मीर को पाकिस्तान में मिला ही दिया था. लेकिन सरदार पटेल और शेख अब्दुल्ला की संयुक्त कोशिश का नतीजा था कि कश्मीर आज भारत का हिस्सा है .समकालीन इतिहास के इस सच को जनता तक पंहुचाने का काम किसी राजनीतिक विश्लेशक का नहीं है . यह काम तो कांग्रेस पार्टी का है लेकिन उसने सच्चाई को पब्लिक डोमेन में लाने का काम कभी नहीं किया . नतीजा यह है कि आज की पीढी के एक बहुत बड़े वर्ग को अब भी यही बताया जा रहा है कि जवाहरलाल नेहरू ने देश को कमज़ोर किया . शायद इसका करण यह है कि कांग्रेस पार्टी वाले नेहरू के वंशजों की जय जय कार में इतने व्यस्त हैं कि उन्हें नेहरू की विरासत को याद करने का मौक़ा ही नहीं मिल रहा है .आज कांग्रेसी नेता यह कोशिश करते देखे जा रहे हैं कि राहुल गांधी भी उतने ही दूरदर्शी नेता हैं ,जितने कि जवाहरलाल नेहरू थे.. लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि जवाहरलाल नेहरू का वंशज होकर कोई उन जैसा नहीं बन जाता . कल्पना कीजिये कि अगर जवाहरलाल नेहरू के बाद लाल बहादुर शास्त्री की प्रधानमंत्री के रूप में असमय मृत्यु न हो गयी होती और उस दौर के कांग्रेसी चापलूस, जिसमें कामराज सर्वोपरि थे, ने इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री न बनवा दिया होता तो आज राहुल गांधी और वरुण गांधी जैसे अजूबे कहाँ होते. वास्तव में राहुल गांधी और वरुण गांधी टाइप नेताओं को अपने आप को जवाहरलाल नेहरू का वारिस कहना ही नहीं चाहिए . में यह सब तो इंदिरा गाँधी के वारिस हैं . वही इंदिरा गाँधी जिन्होंने सत्ता में बने रहने के लिए लोकतंत्र का सर्वनाश करने की गरज से इमरजेंसी लगाई थी, विपक्षी नेताओं को जेल में ठूंस दिया था, प्रेस का गला घोंट दिया था और इस देश के लगभग सभी नेताओं को यह प्रोत्साहन दिया था कि वे अपने वंशजों को राजनीति में बढ़ावा दें और जनता के धन की लूट के अभियान में शामिल हों. आज हर पार्टी का नेता अपने बच्चों को राजनीति में शामिल करवा रहा है और उनको भी वैसी ही चोरी करने की प्रेरणा दे रहा है जिसके चलते वह खुद करोडपति या अरबपति बन गया है.
बहरहाल अब कोई जवाहरलाल नेहरू का अभिनय करना चाहे तो उसे कोई रोक नहीं सकता है इसलिए आज फूलपुर में राहुल गांधी का भाषण उसी तर्ज़ पर हो गया जैसा फिल्म्स डिवीज़न के आर्काइव्ज़ में जवाहरलाल नेहरू का भाषण देखा जाता है . लेकिन यह समझ लेना ज़रूरी है कि फूलपुर में जवाहरलाल नेहरू इसलिए जीत जाते थे कि उनको कहीं से भी मज़बूत विरोध नहीं मिल रहा था. एक बार तो उनके खिलाफ स्वामी करपात्री जी लड़े थे और एकाध बार स्वामी प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने उन्हें चुनौती दी थी. जवाहरलाल नेहरू देश को प्रगति के रास्ते पर ले जा रहे थे तो सभी चाहते थे कि उन्हें कोई चुनावी चुनौती न मिले . लेकिन जब उन्हें चुनौती मिली तो जीत बहुत आसान नहीं रह गयी थी. १९६२ के चुनाव में फूलपुर में जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ सोशलिस्ट पार्टी से डॉ. राम मनोहर लोहिया उम्मीदवार थे . डॉ लोहिया भी आज़ादी के लड़ाई के महान नेता थे. कांग्रेस से अलग होने के पहले वे नेहरू के समाजवादी विचारों के बड़े समर्थक रह चुके थे. बाद में भी एक डेमोक्रेट के रूप में वे नेहरू जी की बहुत इज्ज़त करते थे . लेकिन जब आज़ादी के एक दशक बाद यह साफ़ हो गया कि जवाहरलाल नेहरू भी समाजवादी कवर के अंदर देश में पूंजीवादी निजाम कायम कर रहे हैं तो डॉ लोहिया ने जवाहरलाल को आगाह किया था . तब तक जवाहरलाल पूरी तरह से नौकरशाही और पुरातनपंथी लोगों से घिर चुके थे. नतीजा यह हुआ कि डॉ राम मनोहर लोहिया ने फूलपुर चुनाव में पर्चा दाखिल कर दिया . ऐसा लगता है कि डॉ लोहिया भी जवाहरलाल नेहरू को हराना नहीं चाहते थे क्योंकि उन्होंने फूलपुर चुनाव क्षेत्र में केवल दो सभाएं कीं . स्वर्गीय जनेश्वर मिश्र ने बताया था कि जहां भी डॉ लोहिया गए और उन्होंने नेहरू की अगुवाई वाली सरकार की कमियाँ गिनाई तो जनता की समझ में बात आ गयी. जनेश्वर मिश्रा का कहना था कि जिन इलाकों में लोहिया ने सभाएं की थीं वहां नेहरू को बहुत कम वोट मिले थे. मसलन कोटवा नाम के पोलिंग स्टेशन पर डॉ लोहिया को ७५० वोट मिले थे तो जवाहरलाल नेहरू के नाम पर केवल २ वोट पड़े थे. इसी तरह से हरिसेन गंज में लोहिया को ३७५ वोट मिले तो जवाहरलाल को ३ वोट मिले.राहुल गांधी और उनकी मंडली के लोगों को यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि जवाहर लाल नेहरू की तरह चुनाव लड़ने का अभिनय करके बहुत कुछ हासिल किया जा सकता है . उत्तर प्रदेश या देश के किसी भी हिस्से में जवाहरलाल नेहरू की तरह सफल होने के लिए राजनीतिक छुटपन से बाहर निकलना होगा और देश की समस्यायों को सही सन्दर्भ में समझना होगा . अगर ऐसा न हुआ तो जवाहरलाल नेहरू की बेटी का पौत्र बनकर राजनीतिक सफलता हासिल कर पाना आसान नहीं होगा .
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Sunday, November 13, 2011
अब कांग्रेस और बीजेपी ओ बी सी राजनीति के चक्कर में है
शेष नारायण सिंह
कुछ राज्यों में विधानसभा चुनावों की दस्तक के साथ ही राजनीतिक मुद्दों की तलाश में भटक रही पार्टियां खासे हबड़ तबड में हैं . ताज़ा राजनीतिक संकेतों से साफ़ लगने लगा है कि कांग्रेस और बीजेपी वाले इस बार अपने लिए तो कुछ नया नहीं ढूंढ पायेगें लेकिन अपने विरोधियों की राजनीति को कमज़ोर करने की योजना को ज़रूर ताक़त देगें .मंडल कमीशन लागू होने के बाद देश की राजनीति में लगभग सभी समीकरण बदल गए थे. पिछले बीस वर्षों में यह साफ़ हो गया है कि पिछड़े वर्गों में दो तीन जातियों के लोग ही सरकारी नौकरियों में आरक्षण का लाभ ले रहे हैं . नतीजा यह हुआ है कि अपेक्षाकृत संपन्न पिछड़ी जातियों के लोग बहुत ही ताक़त र हो गए हैं . उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और बिहार में लालू प्रसाद की राजनीतिक ताक़त के पीछे इन्हीं जातियों के समर्थन को माना जा रहा है .लेकिन अब यह सब गडबडाने वाला है . योजना आयोग ने एक ऐसा प्रस्ताव तैयार किया है कि जिसके बाद पिछड़ी जातियों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण से मिलने वाले लाभ के हक़दार वे लोग भी होंगें जो अभी तक टुकटुकी लगाए बैठे हैं .
योजना आयोग की एक कमेटी ने केंद्र सरकार को सलाह दी है कि वह ऐसे कानून बनाए या कानून में ऐसा सुधार करे जिसके चलते अन्य पिछड़े वर्गों में शामिल सभी जातियों को सरकारी नौकरियों में फायदा मिल सके.योजना आयोग की सलाह है कि ओ बी सी को पिछड़े और अति पिछड़े वर्गों में बाँट कर २७ प्रतिशत के कोटे में अति पिछड़ों के लिए अलग से आरक्षण का इंतज़ाम किया जाए. अभी यह केवल सुझाव मात्र है लेकिन यह राजनीतिक ध्रुवीकरण का एक बड़ा साधन बन सकने की क्षमता रखता है .योजना आयोग की यह धारणा अभी सरकारी नीति तो बनेगी नहीं लेकिन राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल होने लगेगी .योजना आयोग के सुझाव को अगर केंद्र सरकार सैद्धांतिक रूप से स्वीकार कर लेती है तो अगले कुछ वर्षों में ओ बी सी की राजनीति करने वालों को बैकफुट पर जाना पड़ सकता है . योजना आयोग के पहले ही नैशनल बैकवर्ड कास्ट कमीशन के अध्यक्ष एम एन राव भी इसी तरह की बात कर चुके हैं. कहते हैं कि ओ बी सी के मौजूदा आरक्षण के निजाम से सही मायनों में सामाजिक न्याय नहीं मिल पा रहा है . पिछड़ों की प्रभावशाली जातियां ही सारा फायदा उठा रही हैं . अति पिछड़े अभी भी अति पिछड़े रहने के लिए अभिशप्त हैं .
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को इसका सबसे ज्यादा नुकसान होगा. समाजवादी पार्टी के मुख्य प्रवक्ता , मोहन सिंह ने बताया कि यह ओ बी सी जातियों में फूट डालने के उद्देश्य से किया जा रहा है . जब उनको बताया गया कि अभी तो पिछड़ों के सारे आरक्षण पर एक ख़ास जाति के लोग क़ब्ज़ा करते पाए जा रहे हैं तो उन्होंने कहा कि यह गलत बात है . यह शुद्ध रूप से पिछड़ी जातियों को कमज़ोर करने की साज़िश है . जहां तक अति पिछड़े वर्गों का सवाल है वह समय की गति के साथ ओ बी सी की मुख्य धारा में शामिल हो रहे हैं और कुछ समय बाद वह भी उतने की सक्षम हो जायेगें जितने सक्षम अन्य जातियों के लोग हैं . उत्तर प्रदेश की राजनीति में पिछड़े वर्गों की मुख्य पार्टी को केंद्र सरकार की यह योजना सही नहीं लग रही है . समाजवादी पार्टी की चिंता है कि इस तरह के राजनीतिक प्रस्तावों से पिछड़े वर्गों की एकता खंडित होगी .
केंद्र सरकार, योजना आयोग और नैशनल बैकवर्ड कास्ट कमीशन की बातें तो अभी फाइलों में हैं या नीति के स्तर पर बहस के दायरे में हैं . लेकिन उत्तर प्रदेश में तो पिछड़े वर्गों की राजनीति में एक तूफ़ान आने वाला है . बीजेपी ने २०१२ के विधान सभा चुनावों के दौरान इस मुद्दे को अपने घोषणा पत्र में डालने का मन बना लिया है . कांग्रेस भी योजना आयोग के सुझाव को अपना बनाकर पेश करने से बाज़ नहीं आयेगी. इस तरह की बात से राजनीतिक समीकरण निश्चित रूप से बदलेगें.. बीजेपी वालों ने पिछड़ी और दलित जातियों को खंडित करने की योजना पर पहले भी काम किया है . राजनाथ सिंह के मुख्य मंत्री बनने के बाद पार्टी ने सरकारी तौर पर अति दलितों और अति पिछड़ों के नाम पर एस सी और ओ बी सी कोटे के अंदर कोटे की व्यवस्था कर दी थी. इस तरह का कानून भी बना दिया था, कुछ भर्तियाँ भी हो गयी थीं लेकिन जब बीजेपी के बाद मायावती मुख्यमंत्री बनीं तो उन्होंने उस आदेश को रद्द कर दिया था. राजनाथ सिंह की सरकार ने अपनी सरकार के एक मंत्री हुकुम सिंह की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाकर दलित और पिछड़ी जातियों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति का आकलन करवाया था. उन्होंने दलित और पिछड़ी जातियों में अति दलित और अति पिछड़ों को चिन्हित किया था .उस समिति की रिपोर्ट से कुछ दिलचस्प आंकड़े सामने आये. देखा गया कि ७९ पिछड़ी जातियों में कुछ जातियां लगभग सारा लाभ ले रही हैं . ऐसी जातियों में यादव, कुर्मी, जाट आदि शामिल हैं जबकि मल्लाह ,कुम्हार ,कहार , राजभर आदि जातियां नौकरियों में अपना सही हिस्सा नहीं पा रही थीं . राजनाथ सिंह की सरकार ने पिछड़ी जातियों को तीन श्रेणियों में बाँट दिया . पिछड़ी जाति में केवल एक जाति ,यादव रखा और २८ प्रतिशत के कोटे में उनके लिए ५ प्रतिशत का रिज़र्वेशन दे दिया. अति पिछड़ी जातियों में आठ जातियों को रखा और उन्हें ९ प्रतिशत का रिज़र्वेशन दे दिया. बाकी सत्तर जातियों को अत्यधिक पिछड़ी जातियों की श्रेणी में रख दिया और उन्हें १४ प्रतिशत का रिज़र्वेशन दे दिया . अगर यह व्यवस्था लागू हो जाती तो उत्तर प्रदेश में मूल रूप से यादवों के कल्याण में लगी हुई समाजवादी पार्टी को भारी नुकसान होता लेकिन मुलायम सिंह यादव का सौभाग्य ही था कि राजनाथ सिंह के बाद मायवाती उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री बनीं और उन्होंने राजनाथ सिंह के मंसूबों पर पानी फेर दिया . अब विधान सभा चुनावों के मद्दे नज़र राजनाथ सिंह ने एक बार इस प्रस्ताव को फिर से ज़िन्दा करने की कोशिश शुरू कर दी है . ज़ाहिर है उत्तर प्रदेश में पिछड़ी जातियों की राजनीति करने वालों के सामने कुछ मुश्किलें ज़रूर पेश आयेगीं.हालांकि इसका एक नतीजा यह भी हो सकता है कि जो सवर्ण जातियां बीजेपी की तरफ खिंच रही हीब वे इस तरह की चर्चा से नाराज़ भी हो सकती हैं.
उतर प्रदेश में तो इसे नहीं लागू कर सके लेकिन बिहार में बीजेपी के सहयोगी दल के नेता और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अति पिछड़ों के आरक्षण की राजनीति के सहारे लालू यादव को एक जाति का नेता बनाने में पक्की सफलता हासिल कर ली और राज्य में अपनी राजनीतिक हैसियत को बढ़ा लिया .अब इस खेल में केंद्र सरकार के योजना आयोग के शामिल होने के बाद बहस राष्ट्रीय स्तर पर चलेगी . ज़ाहिर है सामाजिक न्याय का विमर्श आने वाले दिनों में राष्ट्रीय स्तर पर बहस का विषय बनने वाला है .
कुछ राज्यों में विधानसभा चुनावों की दस्तक के साथ ही राजनीतिक मुद्दों की तलाश में भटक रही पार्टियां खासे हबड़ तबड में हैं . ताज़ा राजनीतिक संकेतों से साफ़ लगने लगा है कि कांग्रेस और बीजेपी वाले इस बार अपने लिए तो कुछ नया नहीं ढूंढ पायेगें लेकिन अपने विरोधियों की राजनीति को कमज़ोर करने की योजना को ज़रूर ताक़त देगें .मंडल कमीशन लागू होने के बाद देश की राजनीति में लगभग सभी समीकरण बदल गए थे. पिछले बीस वर्षों में यह साफ़ हो गया है कि पिछड़े वर्गों में दो तीन जातियों के लोग ही सरकारी नौकरियों में आरक्षण का लाभ ले रहे हैं . नतीजा यह हुआ है कि अपेक्षाकृत संपन्न पिछड़ी जातियों के लोग बहुत ही ताक़त र हो गए हैं . उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और बिहार में लालू प्रसाद की राजनीतिक ताक़त के पीछे इन्हीं जातियों के समर्थन को माना जा रहा है .लेकिन अब यह सब गडबडाने वाला है . योजना आयोग ने एक ऐसा प्रस्ताव तैयार किया है कि जिसके बाद पिछड़ी जातियों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण से मिलने वाले लाभ के हक़दार वे लोग भी होंगें जो अभी तक टुकटुकी लगाए बैठे हैं .
योजना आयोग की एक कमेटी ने केंद्र सरकार को सलाह दी है कि वह ऐसे कानून बनाए या कानून में ऐसा सुधार करे जिसके चलते अन्य पिछड़े वर्गों में शामिल सभी जातियों को सरकारी नौकरियों में फायदा मिल सके.योजना आयोग की सलाह है कि ओ बी सी को पिछड़े और अति पिछड़े वर्गों में बाँट कर २७ प्रतिशत के कोटे में अति पिछड़ों के लिए अलग से आरक्षण का इंतज़ाम किया जाए. अभी यह केवल सुझाव मात्र है लेकिन यह राजनीतिक ध्रुवीकरण का एक बड़ा साधन बन सकने की क्षमता रखता है .योजना आयोग की यह धारणा अभी सरकारी नीति तो बनेगी नहीं लेकिन राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल होने लगेगी .योजना आयोग के सुझाव को अगर केंद्र सरकार सैद्धांतिक रूप से स्वीकार कर लेती है तो अगले कुछ वर्षों में ओ बी सी की राजनीति करने वालों को बैकफुट पर जाना पड़ सकता है . योजना आयोग के पहले ही नैशनल बैकवर्ड कास्ट कमीशन के अध्यक्ष एम एन राव भी इसी तरह की बात कर चुके हैं. कहते हैं कि ओ बी सी के मौजूदा आरक्षण के निजाम से सही मायनों में सामाजिक न्याय नहीं मिल पा रहा है . पिछड़ों की प्रभावशाली जातियां ही सारा फायदा उठा रही हैं . अति पिछड़े अभी भी अति पिछड़े रहने के लिए अभिशप्त हैं .
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को इसका सबसे ज्यादा नुकसान होगा. समाजवादी पार्टी के मुख्य प्रवक्ता , मोहन सिंह ने बताया कि यह ओ बी सी जातियों में फूट डालने के उद्देश्य से किया जा रहा है . जब उनको बताया गया कि अभी तो पिछड़ों के सारे आरक्षण पर एक ख़ास जाति के लोग क़ब्ज़ा करते पाए जा रहे हैं तो उन्होंने कहा कि यह गलत बात है . यह शुद्ध रूप से पिछड़ी जातियों को कमज़ोर करने की साज़िश है . जहां तक अति पिछड़े वर्गों का सवाल है वह समय की गति के साथ ओ बी सी की मुख्य धारा में शामिल हो रहे हैं और कुछ समय बाद वह भी उतने की सक्षम हो जायेगें जितने सक्षम अन्य जातियों के लोग हैं . उत्तर प्रदेश की राजनीति में पिछड़े वर्गों की मुख्य पार्टी को केंद्र सरकार की यह योजना सही नहीं लग रही है . समाजवादी पार्टी की चिंता है कि इस तरह के राजनीतिक प्रस्तावों से पिछड़े वर्गों की एकता खंडित होगी .
केंद्र सरकार, योजना आयोग और नैशनल बैकवर्ड कास्ट कमीशन की बातें तो अभी फाइलों में हैं या नीति के स्तर पर बहस के दायरे में हैं . लेकिन उत्तर प्रदेश में तो पिछड़े वर्गों की राजनीति में एक तूफ़ान आने वाला है . बीजेपी ने २०१२ के विधान सभा चुनावों के दौरान इस मुद्दे को अपने घोषणा पत्र में डालने का मन बना लिया है . कांग्रेस भी योजना आयोग के सुझाव को अपना बनाकर पेश करने से बाज़ नहीं आयेगी. इस तरह की बात से राजनीतिक समीकरण निश्चित रूप से बदलेगें.. बीजेपी वालों ने पिछड़ी और दलित जातियों को खंडित करने की योजना पर पहले भी काम किया है . राजनाथ सिंह के मुख्य मंत्री बनने के बाद पार्टी ने सरकारी तौर पर अति दलितों और अति पिछड़ों के नाम पर एस सी और ओ बी सी कोटे के अंदर कोटे की व्यवस्था कर दी थी. इस तरह का कानून भी बना दिया था, कुछ भर्तियाँ भी हो गयी थीं लेकिन जब बीजेपी के बाद मायावती मुख्यमंत्री बनीं तो उन्होंने उस आदेश को रद्द कर दिया था. राजनाथ सिंह की सरकार ने अपनी सरकार के एक मंत्री हुकुम सिंह की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाकर दलित और पिछड़ी जातियों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति का आकलन करवाया था. उन्होंने दलित और पिछड़ी जातियों में अति दलित और अति पिछड़ों को चिन्हित किया था .उस समिति की रिपोर्ट से कुछ दिलचस्प आंकड़े सामने आये. देखा गया कि ७९ पिछड़ी जातियों में कुछ जातियां लगभग सारा लाभ ले रही हैं . ऐसी जातियों में यादव, कुर्मी, जाट आदि शामिल हैं जबकि मल्लाह ,कुम्हार ,कहार , राजभर आदि जातियां नौकरियों में अपना सही हिस्सा नहीं पा रही थीं . राजनाथ सिंह की सरकार ने पिछड़ी जातियों को तीन श्रेणियों में बाँट दिया . पिछड़ी जाति में केवल एक जाति ,यादव रखा और २८ प्रतिशत के कोटे में उनके लिए ५ प्रतिशत का रिज़र्वेशन दे दिया. अति पिछड़ी जातियों में आठ जातियों को रखा और उन्हें ९ प्रतिशत का रिज़र्वेशन दे दिया. बाकी सत्तर जातियों को अत्यधिक पिछड़ी जातियों की श्रेणी में रख दिया और उन्हें १४ प्रतिशत का रिज़र्वेशन दे दिया . अगर यह व्यवस्था लागू हो जाती तो उत्तर प्रदेश में मूल रूप से यादवों के कल्याण में लगी हुई समाजवादी पार्टी को भारी नुकसान होता लेकिन मुलायम सिंह यादव का सौभाग्य ही था कि राजनाथ सिंह के बाद मायवाती उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री बनीं और उन्होंने राजनाथ सिंह के मंसूबों पर पानी फेर दिया . अब विधान सभा चुनावों के मद्दे नज़र राजनाथ सिंह ने एक बार इस प्रस्ताव को फिर से ज़िन्दा करने की कोशिश शुरू कर दी है . ज़ाहिर है उत्तर प्रदेश में पिछड़ी जातियों की राजनीति करने वालों के सामने कुछ मुश्किलें ज़रूर पेश आयेगीं.हालांकि इसका एक नतीजा यह भी हो सकता है कि जो सवर्ण जातियां बीजेपी की तरफ खिंच रही हीब वे इस तरह की चर्चा से नाराज़ भी हो सकती हैं.
उतर प्रदेश में तो इसे नहीं लागू कर सके लेकिन बिहार में बीजेपी के सहयोगी दल के नेता और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अति पिछड़ों के आरक्षण की राजनीति के सहारे लालू यादव को एक जाति का नेता बनाने में पक्की सफलता हासिल कर ली और राज्य में अपनी राजनीतिक हैसियत को बढ़ा लिया .अब इस खेल में केंद्र सरकार के योजना आयोग के शामिल होने के बाद बहस राष्ट्रीय स्तर पर चलेगी . ज़ाहिर है सामाजिक न्याय का विमर्श आने वाले दिनों में राष्ट्रीय स्तर पर बहस का विषय बनने वाला है .
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शेष नारायण सिंह
ईरान को भी ईराक बनाने के फ़िराक़ में हैं अमरीका
शेष नारायण सिंह
अमरीका ने ईरान को घेरने की अपनी कोशिश तेज़ कर दी है . इस बार परमाणु हथियारों के नाम पर वह ईरान को कटघरे में खड़ा करना चाहता है .पश्चिम एशिया पर नज़र रखने वालों को भरोसा है कि अमरीका ने ईरान के खिलाफ इजरायल को इस्तेमाल करने का मन बना लिया है .हालांकि अमरीका, फ्रांस सहित कई अन्य पश्चिमी देश मानते हैं कि इजरायल के राष्ट्रीय नेता हमेशा सच नहीं बोलते लेकिन इजरायल की ओर से मिली इंटेलिजेंस के आधार पर अमरीका ने ईरान को अलग थलग करने की कोशिश तेज़ कर दी है . हर बार की तरह इस बार भी अमरीका संयुक्त राष्ट्र को अपने हित में इस्तेमाल करने की योजना बना चुका है .अमरीकी अखबारों में पिछले एक हफ्ते से सनसनीखेज़ बनाकर खबरें छापी जा रही हैं कि अंतर राष्ट्रीय परमाणु एनर्जी एजेंसी के पास ऐसे दस्तावेजी सबूत हैं जिसके आधार पर साबित किया जा सके कि ईरान अब परमाणु हथियार विकसित कर सकता है . इस कथित इंटेलिजेंस में वही पुराने राग अलापे जा रहे हैं . मसलन यह कहा जा रहा है कि सोवियत संघ में हथियारों को बनाने वाले वैज्ञानिकों की सेवाएँ ली जा रही हैं , उत्तरी कोरिया वालों से मदद ली जा रही है और पाकिस्तानी परमाणु स्मगलर ए क्यू खां से भी इस प्रोजेक्ट में मदद ली गयी है .ज़ाहिर है कि यह सब बहाने हैं . लेकिन इन सबके हवाले से अमरीका छुप कर हमला करने की अपनी नीति को अंजाम तक पंहुचाने की कोशिश कर रहा है.
ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने अमरीका की संयुक्त राष्ट्र के ज़रिये ईरान को बदनाम करने के नाटक को अनुचित बताया है . अहमदीनेजाद ने संयुक्त राष्ट्र की कथित रिपोर्ट की चर्चा शुरू होने के बाद अपनी पहली प्रतिक्रिया में कहा है कि अमरीका की कोशिश है कि वह ईरान सहित बाकी विकास शील देशों को परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में आत्म निर्भर न बनने दे. अहमदीनेजाद ने कहा है कि ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम से बिलकुल पीछे नहीं हटेगा. उन्होंने कहा कि संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के बहाने अमरीका दुनिया को गुमराह कर रहा है.उन्होंने संयुक्त राष्ट्र की संस्था अंतर राष्ट्रीय परमाणु एनर्जी एजेंसी की भी आलोचना की और कहा कि उसे अमरीका के बेहूदा आरोपों को अपनी तरफ से प्रचारित करने से बचना चाहिए .उन्होंने कहा कि ईरानी राष्ट्र शान्तिपूर्ण कार्यों के लिए परमाणु ऊर्जा के विकास करने के रास्ते से ज़रा सा भी विचलित नहीं होगा. एक जनसभा को संबोधित करते हुए अहमदीनेजाद ने कहा कि अंतर राष्ट्रीय परमाणु एनर्जी एजेंसी को अमरीका के चक्कर में पड़कर अपनी विश्वसनीयता से खिलवाड़ नहीं करना चाहिए. ईरान ने संयुक्त राष्ट्र को आगाह किया है कि अमरीका के एजेंट के रूप में काम करने से वह बाकी दुनिया की नजर में बिलकुल नीचे गिर जाएगा .अमरीका ने दावा किया है कि ईरान ने अपना परमाणु कार्यक्रम २००३ में अंतर राष्ट्रीय दबाव के चलते बंद कर दिया था लेकिन अब वह फिरसे चालू हो गया है.
ईरान ने संयुक्त राष्ट्र की ईरानी परमाणु कार्यक्रम को हथियारों का कार्यक्रम बताने की कोशिश को बहुत ही हलके से लिया है.ईरान के परमाणु कार्यक्रम से बहुत निकट से जुड़े अधिकारी और मौजूदा ईरानी विदेश मंत्री अली अकबर सालेही ने कहा कि अगर संयुक्त राष्ट्र का यही रुख है तो उन्हें रिपोर्ट को प्रकाशित कर लेने दीजिये . सालेही ने कहा कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर शुरू हुआ विवाद सौ फीसदी राजनीति से प्रेरित है .उन्होंने आरोप लगाया कि अंतर राष्ट्रीय परमाणु एनर्जी एजेंसी ( आई ई ए ई ) पूरी तरह से विदेशी ताक़तों के दबाव में काम रही है .आई ई ए ई वाले कई साल से ईरानी परमाणु कार्यक्रम पर सवाल उठाते रहे हैं लेकिन इस बार उनका दावा है कि इस बार जो सूचना मिली है उसके आधार पर कहा जा सकता है कि अब ईरान का परमाणु कार्यक्रम पूरी तरह से विकसित हो चुका है और अब उसमें रिसर्च को बहुत ही मह्त्व दिया जा रहा है .
जिस तरह से इस बार आई ई ए ई ने दावा किया है और जिस तरह से भारत समेत पूरी दुनिया के अमरीका परस्त मीडिया संगठन इस खबर को ले उड़े हैं उस से लगता है कि अमरीका एक बार फिर वही करने के फ़िराक़ में है जो उसने ईराक में किया था. दुनिया भर में फैले हुए अपने हमदर्द देशों और अखबारों की मदद से पहले ईराक के खिलाफ माहौल बनाया गया उसके बाद यह साबित करने की कोशिश की गयी कि ईराक के पास सामूहिक संहार के हथियार हैं . फिर संयुक्त राष्ट्र का इस्तेमाल कारके इराक पर हमला कर दिया गया. आज ईराक में अमरीकी कठपुतली सरकार है और अमरीका उनके पेट्रोल को अपने हित में इस्तेमाल कर रहा है . अब यह बात भी सारी दुनिया को मालूम है कि इराक और उसेक राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को तबाह करने के बाद अमरीकी विदेश नीति के करता धरता मुंह छुपाते फिर रहे थे क्योंकि जब पूरे देश पर अमरीका का क़ब्ज़ा हो गया और उस से पूछा गया कि सामूहिक नरसंहार के हथियार कहाँ हैं तो अमरीकी राजनयिकों के पास कोई जवाब नहीं था.
ऐसा लगता है कि अमरीका अपनी उसी नीति पर चल रहा है जिसके तहत उसने तय कर रखा है कि जो देश उसकी बात नहीं मानेगा उसे किसी न किसी तरीके से सैनिक कार्रवाई का विषय बना देगा.दिलचस्प बात यह है कि इस बार के अमरीका के ईरान विरोधी अभियान में भी वही व्यक्ति इस्तेमाल हो रहा है जो ईराक के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र के अभियान में शामिल रह चुका है . डेविड अल्ब्राईट नाम का यह पूर्व हथियार इन्स्पेक्टर अमरीका की नीतियों को संयुक्त राष्ट्र का मुखौटा पहनाने में माहिर बताया जाता है . इसी अल्ब्राईट के हवाले से इस बार अमरीकी अखबारों में खबरें प्लांट की जा रही हैं . इसने दावा किया है कि जब बाकी दुनिया को बताया गया था कि ईरान ने २००३ में परमाणु कार्यक्रम रोक दिया था , उस वक़्त भी ईरान ने कोई काम रोका नहीं था. वास्तव में उसने परमाणु कार्यक्रम पर काम कर रहे अपने वैज्ञानिकों को अन्य क्षेत्रों में रिसर्च करने के काम में लगा दिया था. संयुक्त राष्ट्र से छुट्टी पाने के बाद डेविड अल्ब्राईट अमरीका की राजधानी वाशिंगटन डी सी के एक संस्थान का अध्यक्ष है .वहां भी यह अमरीकी हितों के काम में ही लगा हुआ है . इंस्टीटयूट फार साइंस ऐंड इंटरनैशनल सिक्योरिटी नाम के इस संगठन का काम प्रकट में तो पूरी दुनिया के परमाणु कार्यक्रमों का विश्लेषण करना है लेकिन वास्तव यह अमरीकी विदेश नीति के हित साधन का एक फ्रंट मात्र है . इसी संस्थान में बैठकर अब डेविड अल्ब्राईट अमरीकी विदेश नीति का काम संभाल रहे हैं . बताया जाता है कि सी आई ए ने अपने बहुत सारे गुप्त संगठनों की तरफ से इस संस्थान को ग्रांट भी दिलवा रखी है .डेविड आल्ब्राईट के इस संस्थान को अमरीकी विदेश और रक्षा विभाग से भी पैसा मिलता है .इसी संस्थान के पास मौजूद तथाकथित दस्तावजों के आधार पर डेविड अल्ब्राईट ने अपने लाल बुझक्कड़ी अंदाज़ में दावा किया है कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम को चलाने वाले वाले वैज्ञानिकों को पुराने सोवियत संघ के परमाणु वैज्ञानिकों ने पढ़ा लिखा कर हथियार बनाने की शिक्षा दी है .
यह सारा प्रचार अभियान अभी ऐसे संगठनों और व्यक्तियों की तरफ से चलाया जा रहा है जिनका अमरीकी सरकार से डायरेक्ट समबन्ध नहीं है . यह सब या तो एन जी ओ हैं ,या थिंक टैंक का लबादा ओढ़े हुए हैं. अमरीकी अधिकारियों ने प्रकट रूप से यही कहा है कि अभी ईरान के नेताओं ने हथियार बनाने का फैसला नहीं किया है लेकिन उनके पास अब पूरी तकनीकी जानकारी है . उनके पास सारा सामान भी उपलब्ध है . वे जब चाहें परमाणु हथियार बहुत कम समय में तैयार कर सकते हैं .अमरीकी अधिकारी यह भी कहते हैं कि ईरान का यह दावा कि वह परमाणु कार्यक्रम की मदद से बिजली पैदा करना चाहता है , भरोसे के काबिल नहीं है. ज़ाहिर है अमरीका की पूरी कोशिश है कि ईरान का भी वही हाल किया जाए जो उसने ईराक का किया था लेकिन लगता है कि ईरान से पंगा लेना इस बार अमरीका को मुश्किल में डाल सकता है .
अमरीका ने ईरान को घेरने की अपनी कोशिश तेज़ कर दी है . इस बार परमाणु हथियारों के नाम पर वह ईरान को कटघरे में खड़ा करना चाहता है .पश्चिम एशिया पर नज़र रखने वालों को भरोसा है कि अमरीका ने ईरान के खिलाफ इजरायल को इस्तेमाल करने का मन बना लिया है .हालांकि अमरीका, फ्रांस सहित कई अन्य पश्चिमी देश मानते हैं कि इजरायल के राष्ट्रीय नेता हमेशा सच नहीं बोलते लेकिन इजरायल की ओर से मिली इंटेलिजेंस के आधार पर अमरीका ने ईरान को अलग थलग करने की कोशिश तेज़ कर दी है . हर बार की तरह इस बार भी अमरीका संयुक्त राष्ट्र को अपने हित में इस्तेमाल करने की योजना बना चुका है .अमरीकी अखबारों में पिछले एक हफ्ते से सनसनीखेज़ बनाकर खबरें छापी जा रही हैं कि अंतर राष्ट्रीय परमाणु एनर्जी एजेंसी के पास ऐसे दस्तावेजी सबूत हैं जिसके आधार पर साबित किया जा सके कि ईरान अब परमाणु हथियार विकसित कर सकता है . इस कथित इंटेलिजेंस में वही पुराने राग अलापे जा रहे हैं . मसलन यह कहा जा रहा है कि सोवियत संघ में हथियारों को बनाने वाले वैज्ञानिकों की सेवाएँ ली जा रही हैं , उत्तरी कोरिया वालों से मदद ली जा रही है और पाकिस्तानी परमाणु स्मगलर ए क्यू खां से भी इस प्रोजेक्ट में मदद ली गयी है .ज़ाहिर है कि यह सब बहाने हैं . लेकिन इन सबके हवाले से अमरीका छुप कर हमला करने की अपनी नीति को अंजाम तक पंहुचाने की कोशिश कर रहा है.
ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने अमरीका की संयुक्त राष्ट्र के ज़रिये ईरान को बदनाम करने के नाटक को अनुचित बताया है . अहमदीनेजाद ने संयुक्त राष्ट्र की कथित रिपोर्ट की चर्चा शुरू होने के बाद अपनी पहली प्रतिक्रिया में कहा है कि अमरीका की कोशिश है कि वह ईरान सहित बाकी विकास शील देशों को परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में आत्म निर्भर न बनने दे. अहमदीनेजाद ने कहा है कि ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम से बिलकुल पीछे नहीं हटेगा. उन्होंने कहा कि संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के बहाने अमरीका दुनिया को गुमराह कर रहा है.उन्होंने संयुक्त राष्ट्र की संस्था अंतर राष्ट्रीय परमाणु एनर्जी एजेंसी की भी आलोचना की और कहा कि उसे अमरीका के बेहूदा आरोपों को अपनी तरफ से प्रचारित करने से बचना चाहिए .उन्होंने कहा कि ईरानी राष्ट्र शान्तिपूर्ण कार्यों के लिए परमाणु ऊर्जा के विकास करने के रास्ते से ज़रा सा भी विचलित नहीं होगा. एक जनसभा को संबोधित करते हुए अहमदीनेजाद ने कहा कि अंतर राष्ट्रीय परमाणु एनर्जी एजेंसी को अमरीका के चक्कर में पड़कर अपनी विश्वसनीयता से खिलवाड़ नहीं करना चाहिए. ईरान ने संयुक्त राष्ट्र को आगाह किया है कि अमरीका के एजेंट के रूप में काम करने से वह बाकी दुनिया की नजर में बिलकुल नीचे गिर जाएगा .अमरीका ने दावा किया है कि ईरान ने अपना परमाणु कार्यक्रम २००३ में अंतर राष्ट्रीय दबाव के चलते बंद कर दिया था लेकिन अब वह फिरसे चालू हो गया है.
ईरान ने संयुक्त राष्ट्र की ईरानी परमाणु कार्यक्रम को हथियारों का कार्यक्रम बताने की कोशिश को बहुत ही हलके से लिया है.ईरान के परमाणु कार्यक्रम से बहुत निकट से जुड़े अधिकारी और मौजूदा ईरानी विदेश मंत्री अली अकबर सालेही ने कहा कि अगर संयुक्त राष्ट्र का यही रुख है तो उन्हें रिपोर्ट को प्रकाशित कर लेने दीजिये . सालेही ने कहा कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर शुरू हुआ विवाद सौ फीसदी राजनीति से प्रेरित है .उन्होंने आरोप लगाया कि अंतर राष्ट्रीय परमाणु एनर्जी एजेंसी ( आई ई ए ई ) पूरी तरह से विदेशी ताक़तों के दबाव में काम रही है .आई ई ए ई वाले कई साल से ईरानी परमाणु कार्यक्रम पर सवाल उठाते रहे हैं लेकिन इस बार उनका दावा है कि इस बार जो सूचना मिली है उसके आधार पर कहा जा सकता है कि अब ईरान का परमाणु कार्यक्रम पूरी तरह से विकसित हो चुका है और अब उसमें रिसर्च को बहुत ही मह्त्व दिया जा रहा है .
जिस तरह से इस बार आई ई ए ई ने दावा किया है और जिस तरह से भारत समेत पूरी दुनिया के अमरीका परस्त मीडिया संगठन इस खबर को ले उड़े हैं उस से लगता है कि अमरीका एक बार फिर वही करने के फ़िराक़ में है जो उसने ईराक में किया था. दुनिया भर में फैले हुए अपने हमदर्द देशों और अखबारों की मदद से पहले ईराक के खिलाफ माहौल बनाया गया उसके बाद यह साबित करने की कोशिश की गयी कि ईराक के पास सामूहिक संहार के हथियार हैं . फिर संयुक्त राष्ट्र का इस्तेमाल कारके इराक पर हमला कर दिया गया. आज ईराक में अमरीकी कठपुतली सरकार है और अमरीका उनके पेट्रोल को अपने हित में इस्तेमाल कर रहा है . अब यह बात भी सारी दुनिया को मालूम है कि इराक और उसेक राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को तबाह करने के बाद अमरीकी विदेश नीति के करता धरता मुंह छुपाते फिर रहे थे क्योंकि जब पूरे देश पर अमरीका का क़ब्ज़ा हो गया और उस से पूछा गया कि सामूहिक नरसंहार के हथियार कहाँ हैं तो अमरीकी राजनयिकों के पास कोई जवाब नहीं था.
ऐसा लगता है कि अमरीका अपनी उसी नीति पर चल रहा है जिसके तहत उसने तय कर रखा है कि जो देश उसकी बात नहीं मानेगा उसे किसी न किसी तरीके से सैनिक कार्रवाई का विषय बना देगा.दिलचस्प बात यह है कि इस बार के अमरीका के ईरान विरोधी अभियान में भी वही व्यक्ति इस्तेमाल हो रहा है जो ईराक के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र के अभियान में शामिल रह चुका है . डेविड अल्ब्राईट नाम का यह पूर्व हथियार इन्स्पेक्टर अमरीका की नीतियों को संयुक्त राष्ट्र का मुखौटा पहनाने में माहिर बताया जाता है . इसी अल्ब्राईट के हवाले से इस बार अमरीकी अखबारों में खबरें प्लांट की जा रही हैं . इसने दावा किया है कि जब बाकी दुनिया को बताया गया था कि ईरान ने २००३ में परमाणु कार्यक्रम रोक दिया था , उस वक़्त भी ईरान ने कोई काम रोका नहीं था. वास्तव में उसने परमाणु कार्यक्रम पर काम कर रहे अपने वैज्ञानिकों को अन्य क्षेत्रों में रिसर्च करने के काम में लगा दिया था. संयुक्त राष्ट्र से छुट्टी पाने के बाद डेविड अल्ब्राईट अमरीका की राजधानी वाशिंगटन डी सी के एक संस्थान का अध्यक्ष है .वहां भी यह अमरीकी हितों के काम में ही लगा हुआ है . इंस्टीटयूट फार साइंस ऐंड इंटरनैशनल सिक्योरिटी नाम के इस संगठन का काम प्रकट में तो पूरी दुनिया के परमाणु कार्यक्रमों का विश्लेषण करना है लेकिन वास्तव यह अमरीकी विदेश नीति के हित साधन का एक फ्रंट मात्र है . इसी संस्थान में बैठकर अब डेविड अल्ब्राईट अमरीकी विदेश नीति का काम संभाल रहे हैं . बताया जाता है कि सी आई ए ने अपने बहुत सारे गुप्त संगठनों की तरफ से इस संस्थान को ग्रांट भी दिलवा रखी है .डेविड आल्ब्राईट के इस संस्थान को अमरीकी विदेश और रक्षा विभाग से भी पैसा मिलता है .इसी संस्थान के पास मौजूद तथाकथित दस्तावजों के आधार पर डेविड अल्ब्राईट ने अपने लाल बुझक्कड़ी अंदाज़ में दावा किया है कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम को चलाने वाले वाले वैज्ञानिकों को पुराने सोवियत संघ के परमाणु वैज्ञानिकों ने पढ़ा लिखा कर हथियार बनाने की शिक्षा दी है .
यह सारा प्रचार अभियान अभी ऐसे संगठनों और व्यक्तियों की तरफ से चलाया जा रहा है जिनका अमरीकी सरकार से डायरेक्ट समबन्ध नहीं है . यह सब या तो एन जी ओ हैं ,या थिंक टैंक का लबादा ओढ़े हुए हैं. अमरीकी अधिकारियों ने प्रकट रूप से यही कहा है कि अभी ईरान के नेताओं ने हथियार बनाने का फैसला नहीं किया है लेकिन उनके पास अब पूरी तकनीकी जानकारी है . उनके पास सारा सामान भी उपलब्ध है . वे जब चाहें परमाणु हथियार बहुत कम समय में तैयार कर सकते हैं .अमरीकी अधिकारी यह भी कहते हैं कि ईरान का यह दावा कि वह परमाणु कार्यक्रम की मदद से बिजली पैदा करना चाहता है , भरोसे के काबिल नहीं है. ज़ाहिर है अमरीका की पूरी कोशिश है कि ईरान का भी वही हाल किया जाए जो उसने ईराक का किया था लेकिन लगता है कि ईरान से पंगा लेना इस बार अमरीका को मुश्किल में डाल सकता है .
Sunday, November 6, 2011
उसने गंगा के बहने पर भी सवाल उठाया था
शेष नारायण सिंह
ब्रह्मपुत्र के गायक भूपेन हजारिका नहीं रहे. अब दिल धूम धूम भी नहीं करेगा और गंगा के बहने पर जनवादी सवाल भी नहीं पूछे जायेगें . भूपेन ड़ा महान गायक तो थे ही, वे एक जनपक्ष धर कवि भी थे, संगीत के रचयिता थे और एक बहुत ही मज़बूत और बुलंद आवाज़ के मालिक थे.उनके जाने के बाद असम, कलकाता और ढाका में तो मातम है ही, बाकी दुनिया में भूपेन के चाहने वालों के चहेरों पर मायूसी की खबरें आ रही हैं .
भूपेन ने बहुत ही उच्च कोटि की शिक्षा पायी थी. शुरुआती पढाई गुवाहाटी में करने के बाद वे बी एच यू चले आये थे जहां से उन्होंने बी ए और एम ए पास किया . १९४६ में एम ए करने के बाद वे अमरीका के विख्यात कोलंबिया विश्वविद्यालय चले गए थे, जहां उन्होंने मास कम्युनिकेशन में पी एच डी किया .भूपेन हजारिका ने उस के बाद भी पढाई की .उन्होंने पी एच डी के बाद , शिकागो विश्वविद्यालय से सिनेमा के शिक्षा में इस्तेमाल पर पोस्ट डाक्टोरल अध्ययन किया . बताया जाता है कि मास कम्युनिकेशन में पी एच डी करने वाले भूपेन पहले एशियन थे..
अमरीका में भूपेन हजारिका की मुलाकात , पॉल राबसन से हुई थी . पॉल राबसन की हैसियत दुनिया के क्रांतिकारी गायकों में सबसे ऊंची है . यह अमरीका में वह दौर था जब काले लोगों को अमरीकी लोकतंत्र में वोट देने तक के अधिकार नहीं थे. उस दौर में पॉल का " ओल्ड मैन रिवर " मानवीय अधिकारों के संघर्ष का प्रतीक गीत बन चुका था. हर जुलूस में लाठी गोली खाने वाले दलित और अश्वेत अधिकारों के दीवाने उस गीत को ज़रूर गाते थे. उसी गीत की प्रेरणा से भूपेन ने " गंगा बहती हो क्यों " लिखा था और अधिकारों की लड़ाई के लिए जहां भी संघर्ष हुआ वहां गंगा वाला भूपेन का गीत ज़रूर सुना गया .१९३० से भूपेन ने गाना शुरू किया और पूरी सदी वे आम आदमी के गीत गाते रहे.बहुत सारी असमिया फिल्मों के लिए उन्होंने संगीत और गीत लिखा और गाया . अपनी जीवन भर की दोस्त कल्पना लाजमी के साथ मिलकर उन्होंने हिन्दी फिल्मों ,रुदाली, एक पल ,दरमियान आदि का संगीत लिखा. एम एफ हुसैन की फिल्म गजगामिनी का संगीत भी भूपेन दा का ही था. भूपेन बाएं बाजू के महान बुद्धिजीवी थे .बलराज साहनी और अनिल चौधरी के दोस्त थे. उनको मिले हुए सम्मानों को गिनाने का कोई मतलब नहीं है . उनको हर वह सम्मान मिल था जो किसी भी संगीतकार को मिलना चाहिए . सरकारी पदों से बचने के चक्कर में रहने वाले भूपेन दा ने २००३ में प्रसार भारती बोर्ड का सदस्य होना स्वीकार कर लिया था. हमें उनकी याद हमेशा रहेगी
ब्रह्मपुत्र के गायक भूपेन हजारिका नहीं रहे. अब दिल धूम धूम भी नहीं करेगा और गंगा के बहने पर जनवादी सवाल भी नहीं पूछे जायेगें . भूपेन ड़ा महान गायक तो थे ही, वे एक जनपक्ष धर कवि भी थे, संगीत के रचयिता थे और एक बहुत ही मज़बूत और बुलंद आवाज़ के मालिक थे.उनके जाने के बाद असम, कलकाता और ढाका में तो मातम है ही, बाकी दुनिया में भूपेन के चाहने वालों के चहेरों पर मायूसी की खबरें आ रही हैं .
भूपेन ने बहुत ही उच्च कोटि की शिक्षा पायी थी. शुरुआती पढाई गुवाहाटी में करने के बाद वे बी एच यू चले आये थे जहां से उन्होंने बी ए और एम ए पास किया . १९४६ में एम ए करने के बाद वे अमरीका के विख्यात कोलंबिया विश्वविद्यालय चले गए थे, जहां उन्होंने मास कम्युनिकेशन में पी एच डी किया .भूपेन हजारिका ने उस के बाद भी पढाई की .उन्होंने पी एच डी के बाद , शिकागो विश्वविद्यालय से सिनेमा के शिक्षा में इस्तेमाल पर पोस्ट डाक्टोरल अध्ययन किया . बताया जाता है कि मास कम्युनिकेशन में पी एच डी करने वाले भूपेन पहले एशियन थे..
अमरीका में भूपेन हजारिका की मुलाकात , पॉल राबसन से हुई थी . पॉल राबसन की हैसियत दुनिया के क्रांतिकारी गायकों में सबसे ऊंची है . यह अमरीका में वह दौर था जब काले लोगों को अमरीकी लोकतंत्र में वोट देने तक के अधिकार नहीं थे. उस दौर में पॉल का " ओल्ड मैन रिवर " मानवीय अधिकारों के संघर्ष का प्रतीक गीत बन चुका था. हर जुलूस में लाठी गोली खाने वाले दलित और अश्वेत अधिकारों के दीवाने उस गीत को ज़रूर गाते थे. उसी गीत की प्रेरणा से भूपेन ने " गंगा बहती हो क्यों " लिखा था और अधिकारों की लड़ाई के लिए जहां भी संघर्ष हुआ वहां गंगा वाला भूपेन का गीत ज़रूर सुना गया .१९३० से भूपेन ने गाना शुरू किया और पूरी सदी वे आम आदमी के गीत गाते रहे.बहुत सारी असमिया फिल्मों के लिए उन्होंने संगीत और गीत लिखा और गाया . अपनी जीवन भर की दोस्त कल्पना लाजमी के साथ मिलकर उन्होंने हिन्दी फिल्मों ,रुदाली, एक पल ,दरमियान आदि का संगीत लिखा. एम एफ हुसैन की फिल्म गजगामिनी का संगीत भी भूपेन दा का ही था. भूपेन बाएं बाजू के महान बुद्धिजीवी थे .बलराज साहनी और अनिल चौधरी के दोस्त थे. उनको मिले हुए सम्मानों को गिनाने का कोई मतलब नहीं है . उनको हर वह सम्मान मिल था जो किसी भी संगीतकार को मिलना चाहिए . सरकारी पदों से बचने के चक्कर में रहने वाले भूपेन दा ने २००३ में प्रसार भारती बोर्ड का सदस्य होना स्वीकार कर लिया था. हमें उनकी याद हमेशा रहेगी
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शेष नारायण सिंह
अन्ना हजारे के आन्दोलन की किश्ती झूठ के भंवर में है
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली, ५ नवम्बर.अन्ना हजारे उलझ गए हैं . अपने ब्लॉगर राजू परुलेकर से पल्ला झाड़ने के चक्कर में विरोधाभासी बयान दे रहे हैं . कल जब उनसे महारष्ट्र सदन की प्रेस कानफरेंस में पूछा गया कि आप अपनी टीम के कुछ लोगों को निकालना चाहते थे अब क्यों मना कर रहे हैं तो उन्होंने कहा कि उनका ब्लॉग लिखने वाले राजू परुलेकर ने बिना उनकी मंजूरी के यह बात ब्लॉग पर लिख दी थी. उन्होंने कहा कि यह गलत बात है . लेकिन आज जब उनकी हैण्ड राइटिंग में वह सारी बाद पब्लिक डोमेन में आ गयी तो अन्ना हजारे कानूनी दांव पेंच की बात करते नज़र आये. उन्होंने आज मीडिया को बताया कि अगर कोई भी चीज़ उनकी हैण्ड राइटिंग में है लेकिन उस पर उनकी दस्तखत नहीं है, तो उसे सच न माना जाये.उधर राजू परुलेकर भी अन्ना की हर चाल का जवाब दे रहे हैं . उन्होंने अन्ना हजारे की वह चिट्ठी ब्लॉग पर डाल दी जिसमें उन्होंने लिखा था कि अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी, मनीष सिसोदिया और प्रशांत भूषण को निकाल दिया जाएगा. इस चिट्ठी पर अन्ना हजारे के दस्तखत भी हैं . पुणे की फ्लाईट पकड़ने दिल्ली दिल्ली हवाई अड्डे पर पंहुचे अन्ना हजारे से जब पूछा गया कि अब तो उनके दस्तखत वाली चिट्ठी भी सामने आ गयी है ,तो उनके पास कोई जवाब नहीं था .उन्होंने कहा कि अब वे पुणे जाकर ब्लॉग ही बंद कर देगें.
२३ अक्टूबर २०११ के अन्ना हजारे के ब्लॉग पर उनके विचार प्रकाशित होने के बाद सारा विवाद शुरू हुआ था. अन्ना खुद तो लिखते नहीं, वे राजू परुलेकर नाम के एक पत्रकार को अपनी बात बता देते थे और राजू अन्ना की तरफ से बातों को ब्लॉग पर लिख देते थे. लेकिन मौन व्रत के दौरान अन्ना ने दूसरा तरीका निकाला. उन्होंने कागज़ पर मराठी में लिख कर देना शुरू किया.२३ अक्टूबर वाला ब्लॉग उसी मौनव्रत वाले टाइम का है. उसमें अन्ना ने कहा था कि वे अपनी कोर टीम में कुछ बदलाव करना चाहते हैं . बात मीडिया में चल पड़ी लेकिन दिल्ली में ४ नवम्बर की प्रेस कानफरेंस में उन्होंने कह दिया कि राजू परुलेकर ने यह बात अपने मन से बनाकर लिख दी थी. मैंने कुछ नहीं कहा था. राजू परुलेकर मुंबई के एक सम्माननीय पत्रकार हैं . उनके ऊपर जब अन्ना हजारे ने विश्ववासघात का आरोप लगा दिया तो उन्हें गुस्सा आया और उन्होंने अन्ना हजारे के हाथ से लिखा हुआ वह मज़मून सार्वजनिक कर दिया जिसमें अन्ना से साफ़ लिखा है कि अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी, प्रशांत भूषण और मनीष सिसोदिया को वे हटाने के बारे में सोच रहे हैं .अब अन्ना घिर चुके थे. इसी के बाद अन्ना हजारे ने कहा कि यह उनका फैसला नहीं था. उन्होंने केवल सोचा भर था. बात को मजबूती देने के उद्देश्य से अन्ना हजारे ने कहा कि जब तक किसी भी मज़मून पर उनके दस्तखत नहीं होगें, वे उसको सही नहीं मानेगें. लेकिन अन्ना हजारे के इस बयान के कुछ देर बाद ही राजू ने कुछ टी वी वालों को उस मज़मून पर अन्ना हजारे के दस्तखत भी दिखा दिए . ज़ाहिर है कि अन्ना हजारे गलतबयानी के जाल में बुरी तरह से फंस गए हैं .
अपने ऊपर आरोप लगने के बाद राजू परुलेकर ने बहुत सारी ऐसी चीज़ीं पब्लिक करना शुरू कर दिया है जिसके अन्ना हजारे की सत्य के प्रति निष्ठा सवालों के घेरे में आ जायेगी . राजू परुलेकर ने बताया है कि जब अन्ना ने गुस्से में आकर मौन व्रत के दौरान लिखना शुरू किया तो अन्ना के करीबी सुरेशभाऊ पठारे ने उनको रोकने की कोशिश की लेकिन अन्ना नहीं रुके. उन्हें उस वक़्त रोकना संभव नहीं था . लेकिन बाद में सुरेश भाऊ ने राजू को सलाह दी कि इस ब्लॉग को अभी रोक लिया जाए . केवल उसका संकेत ही दे दिया जाए. परुलेकर ने वही किया लेकिन जब कल दिल्ली में अन्ना हजारे ने उनके ऊपर गंभीर आरोप लगा दिया तो राजू परुलेकर ने अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए अन्ना का वह पत्र सार्वजनिक कर दिया जिसको सुरेश भाऊ की सलाह पर उन्होंने पूरी तरह से नहीं छापा था .राजू परुलेकर ने अपने बयान में कहा है कि उस वक़्त डाक्टर धर्माधिकारी भी मौजूद थे और उन्होंने कहा कि कोशिश की जानी चाहिए कि अन्ना प्रसन्न चित्त रहें और उनका ब्लड प्रेशर न बढ़ने पाए .
नई दिल्ली, ५ नवम्बर.अन्ना हजारे उलझ गए हैं . अपने ब्लॉगर राजू परुलेकर से पल्ला झाड़ने के चक्कर में विरोधाभासी बयान दे रहे हैं . कल जब उनसे महारष्ट्र सदन की प्रेस कानफरेंस में पूछा गया कि आप अपनी टीम के कुछ लोगों को निकालना चाहते थे अब क्यों मना कर रहे हैं तो उन्होंने कहा कि उनका ब्लॉग लिखने वाले राजू परुलेकर ने बिना उनकी मंजूरी के यह बात ब्लॉग पर लिख दी थी. उन्होंने कहा कि यह गलत बात है . लेकिन आज जब उनकी हैण्ड राइटिंग में वह सारी बाद पब्लिक डोमेन में आ गयी तो अन्ना हजारे कानूनी दांव पेंच की बात करते नज़र आये. उन्होंने आज मीडिया को बताया कि अगर कोई भी चीज़ उनकी हैण्ड राइटिंग में है लेकिन उस पर उनकी दस्तखत नहीं है, तो उसे सच न माना जाये.उधर राजू परुलेकर भी अन्ना की हर चाल का जवाब दे रहे हैं . उन्होंने अन्ना हजारे की वह चिट्ठी ब्लॉग पर डाल दी जिसमें उन्होंने लिखा था कि अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी, मनीष सिसोदिया और प्रशांत भूषण को निकाल दिया जाएगा. इस चिट्ठी पर अन्ना हजारे के दस्तखत भी हैं . पुणे की फ्लाईट पकड़ने दिल्ली दिल्ली हवाई अड्डे पर पंहुचे अन्ना हजारे से जब पूछा गया कि अब तो उनके दस्तखत वाली चिट्ठी भी सामने आ गयी है ,तो उनके पास कोई जवाब नहीं था .उन्होंने कहा कि अब वे पुणे जाकर ब्लॉग ही बंद कर देगें.
२३ अक्टूबर २०११ के अन्ना हजारे के ब्लॉग पर उनके विचार प्रकाशित होने के बाद सारा विवाद शुरू हुआ था. अन्ना खुद तो लिखते नहीं, वे राजू परुलेकर नाम के एक पत्रकार को अपनी बात बता देते थे और राजू अन्ना की तरफ से बातों को ब्लॉग पर लिख देते थे. लेकिन मौन व्रत के दौरान अन्ना ने दूसरा तरीका निकाला. उन्होंने कागज़ पर मराठी में लिख कर देना शुरू किया.२३ अक्टूबर वाला ब्लॉग उसी मौनव्रत वाले टाइम का है. उसमें अन्ना ने कहा था कि वे अपनी कोर टीम में कुछ बदलाव करना चाहते हैं . बात मीडिया में चल पड़ी लेकिन दिल्ली में ४ नवम्बर की प्रेस कानफरेंस में उन्होंने कह दिया कि राजू परुलेकर ने यह बात अपने मन से बनाकर लिख दी थी. मैंने कुछ नहीं कहा था. राजू परुलेकर मुंबई के एक सम्माननीय पत्रकार हैं . उनके ऊपर जब अन्ना हजारे ने विश्ववासघात का आरोप लगा दिया तो उन्हें गुस्सा आया और उन्होंने अन्ना हजारे के हाथ से लिखा हुआ वह मज़मून सार्वजनिक कर दिया जिसमें अन्ना से साफ़ लिखा है कि अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी, प्रशांत भूषण और मनीष सिसोदिया को वे हटाने के बारे में सोच रहे हैं .अब अन्ना घिर चुके थे. इसी के बाद अन्ना हजारे ने कहा कि यह उनका फैसला नहीं था. उन्होंने केवल सोचा भर था. बात को मजबूती देने के उद्देश्य से अन्ना हजारे ने कहा कि जब तक किसी भी मज़मून पर उनके दस्तखत नहीं होगें, वे उसको सही नहीं मानेगें. लेकिन अन्ना हजारे के इस बयान के कुछ देर बाद ही राजू ने कुछ टी वी वालों को उस मज़मून पर अन्ना हजारे के दस्तखत भी दिखा दिए . ज़ाहिर है कि अन्ना हजारे गलतबयानी के जाल में बुरी तरह से फंस गए हैं .
अपने ऊपर आरोप लगने के बाद राजू परुलेकर ने बहुत सारी ऐसी चीज़ीं पब्लिक करना शुरू कर दिया है जिसके अन्ना हजारे की सत्य के प्रति निष्ठा सवालों के घेरे में आ जायेगी . राजू परुलेकर ने बताया है कि जब अन्ना ने गुस्से में आकर मौन व्रत के दौरान लिखना शुरू किया तो अन्ना के करीबी सुरेशभाऊ पठारे ने उनको रोकने की कोशिश की लेकिन अन्ना नहीं रुके. उन्हें उस वक़्त रोकना संभव नहीं था . लेकिन बाद में सुरेश भाऊ ने राजू को सलाह दी कि इस ब्लॉग को अभी रोक लिया जाए . केवल उसका संकेत ही दे दिया जाए. परुलेकर ने वही किया लेकिन जब कल दिल्ली में अन्ना हजारे ने उनके ऊपर गंभीर आरोप लगा दिया तो राजू परुलेकर ने अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए अन्ना का वह पत्र सार्वजनिक कर दिया जिसको सुरेश भाऊ की सलाह पर उन्होंने पूरी तरह से नहीं छापा था .राजू परुलेकर ने अपने बयान में कहा है कि उस वक़्त डाक्टर धर्माधिकारी भी मौजूद थे और उन्होंने कहा कि कोशिश की जानी चाहिए कि अन्ना प्रसन्न चित्त रहें और उनका ब्लड प्रेशर न बढ़ने पाए .
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