शेष नारायण सिंह
अन्ना हजारे के अनिश्चितकालीन अनशन के दौरान मैं अस्पताल में पड़ा था. मुझे तो पीड़ा थी लेकिन डाक्टरों ने कहा कि बहुत ही मामूली बीमारी है . जो भी हो उस दौर में कुछ लिख नहीं पाया . कई मित्रों ने कहा कि इतनी बड़ी घटना घट रही है और आप कुछ लिख नहीं रहे हैं . लगा कि अवसर चूक रहा था लेकिन आज करीब दो हफ्ते बाद जब फिर लिखने बैठा हूँ तो लगता है कि अच्छा हुआ कुछ नहीं लिखा. क्योंकि चीज़ें इतनी तेज़ी से बदल रही थीं कि अगर कुछ लिख मारता तो ख़तरा पूरा था कि बेवकूफी भरा ज्ञान ही बघारता. अब ठीक है . अन्ना हजारे के मौजूं पर रवीश कुमार का बेहतरीन आलेख पढ़ चुका हूँ. अंग्रेज़ी अख़बारों में सर्वज्ञ विश्लेषकों की शेखी पढ़ चुका हूँ और अब अन्ना हजारे के आन्दोलन को रास्ते से धकेल देने की कोशिशों के बारे में शुरुआती कोशिशों का जायजा ले चुका हूँ .लगता है आज जो कुछ लिखा जाएगा वह थोडा बहुत सन्दर्भ में होगा. सबसे बड़ी बात अब यह समझ में आ रही है कि जिन राजनेताओं ने लोकपाल बिल को ४२ वर्षों से लटकाए रखा वे आसानी से हार मानने वाले नहीं हैं . वे इस बिल को लगभग उसी क्वालिटी की सब्जी बनाने की कोशिश करेगें जैसी प्रसार भारती के साथ इन लोगों ने किया था . करीब बीस साल पहले जब प्रसार भारती की बात होती थी तो लगता था कि ऐसी संस्था बन जायेगी जो नेताओं की खूब जमकर पोल खोलेगी लेकिन प्रसार भारती का जो स्वरुप बन कर आया वह ऐसा है जैसे लाखों वर्षों से पाली गयी किसी बिल्ली ने म्याऊँ की आवाज़ निकाली हो . जैसा कि ज़्यादातर फालतू किस्म की संस्थाओं के साथ होता है ,प्रसार भारती भी सत्ता पक्ष के मित्रों को नौकरी देने का मंच बन कर रह गयी है . नेता लोग कोशिश करेगें कि लोकपाल बिल भी कुछ उसी डिजाइन का एक मंच बन जाए. लेकिन सूचना के अधिकार कानून और वेब पत्रकारिता की पूंजी से लैस इस देश का शिक्षित समाज नेताओं की मनमानी को शायद अब कारगर नहीं होने देगा.आजकल कांग्रेस की तरफ से कुछ नेता अन्ना हजारे को बेचारा साबित करने के चक्कर में जुटे हैं. उनकी टीम के खिलाफ सड़क छाप टिप्पणियाँ कर रहे हैं . उनकी कोशिश है कि लोकपाल बिल को या तो ठंडे बस्ते के हवाले कर दिया जाए और अगर नहीं तो इतना बवाल खड़ा कर दिया जाए कि मामला विवादित हो जाए . लेकिन सूचना की क्रान्ति, और विकीलीक्स की परंपरा से वाकिफ लोगों को उन तरीकों से बेवक़ूफ़ नहीं बनाया जा सकता जिस से पहले बनाया जाता था . आगे क्या होगा वह तो अभी अंदाज़ लगाना भी ठीक नहीं है लेकिन ३० जनवरी और आज के बीच जो कुछ भी हुआ है उस पर अब अपनी बात कहने का अवसर आ गया है . इतनी सूचना पब्लिक डोमेन में उपलब्ध है कि विश्लेषण करने में रिस्क बिलकुल नहीं है .
इस बात में दो राय नहीं है कि अन्ना हजारे का आन्दोलन उच्चकोटि की राजनीति का उदाहरण है . अन्ना के कैम्प में अपने लोगों को अहम रोल दिलवाकर आर एस एस/बीजेपी ने कोशिश की थी कि इस आन्दोलन को कांग्रेस के खिलाफ तूफ़ान के रूप में खड़ा कर दिया जाए. यह बिलकुल सही राजनीति थी और हर राजनीतिक पार्टी को अपने लाभ के लिए काम करना चाहिए . आर एस एस/बीजेपी की कोशिश थी कि कांग्रेस को भ्रष्टाचार का पर्यायवाची बनाकर पेश कर दिया जाए और अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को कांग्रेस के खिलाफ तूफ़ान के रूप में खड़ा कर दिया जाए. यह बहुत ही सही राजनीतिक रणनीति थी. लेकिन सच्ची बात यह है कि अन्ना हजारे का आन्दोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ था . वह भ्रष्टाचार मूल रूप से तो कांग्रेस में ही है लेकिन आर एस एस/बीजेपी की सरकारें भी कम भ्रष्ट नहीं है . ज़ाहिर है अन्ना का आन्दोलन आर एस एस/बीजेपी की सरकारों के खिलाफ भी है . उन्होंने इस बात को बार बार कहा भी है .आर एस एस/बीजेपी ने किसी बहुत ही पाक साफ़ आदमी के आन्दोलन को अपने हित में इस्तेमाल करने की पहली कोशिश जेपी आन्दोलन के साथ की थी. जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने १९७४ में इंदिरा गाँधी की कांग्रेस के खिलाफ आन्दोलन की शुरुआत की तो उनके साथ कुछ आदर्शवादी समाजवादी लोग ही थे. लेकिन देश में इंदिरा गाँधी और उनके बेटे संजय के खिलाफ माहौल बन रहा था .आर एस एस ने राजनीति के इस रुख को पहचान लिया . इस बीच बी एच यू से अपनी पढाई पूरी करके के एन गोविन्दाचार्य पटना में आर एस एस के प्रचारक के रूप में गये. उन्होंने ही जेपी से बात की और उनके आन्दोलन को आर एस एस के समर्थन की पेशकश की. जेपी को बताया गया कि आपके साथ जो समाजवादी लोग लगे हैं वे सब नेता है और नेताओं के बल पर कोई भी आन्दोलन नहीं चलता . आर एस एस में सभी कार्यकर्ता होते हैं और वे आन्दोलन को ताक़त देगें . उसके बाद तो जेपी की बड़ी सभाएं होने लगीं . शुरू में जेपी का आन्दोलन भी इंदिरा गाँधी के खिलाफ नहीं था. वे कहते थे कि राजनीति में जो गड़बड़ियां आ गयीं है उन्हें ठीक करने की ज़रूरत है और उसमें इंदिरा गांधी को भी योगदान करना चाहिए . वे कई बार जवाहरलाल नेहरू से अपने संबंधों का हवाला भी देते थे लेकिन इंदिरा गाँधी की मानसिकता दूसरी थी . उन्होंने सोचा कि सत्ता का दमन चक्र चला कर उस आन्दोलन को निपटाया जा सकता था . वैसे महात्मा गाँधी के बाद इस देश में यह पहला आन्दोलन भी था जिसमें आम आदमी शामिल हुआ था .उन्होंने जेपी के कांग्रेस में मौजूद समर्थकों को कसना शुरू कर दिया . हेमवती नंदन बहुगुणा और चन्द्र शेखर उनकी इस नीति के शिकार हो गए . और आर एस एस ने अपने समर्थकों को पूरी तरह से आन्दोलन को ताक़त देने में लगा दिया . इंदिरा गाँधी ने जेपी को नज़रंदाज़ करना शुरू कर दिया और उनको 'कुछ लोग ' कहने लगीं . इस बीच इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला आया और इंदिरा गाँधी के अंदर का तानाशाह भड़क उठा . नतीजा यह हुआ कि जो आन्दोलन राजनीति से भ्रष्टाचार मिटाने के लिए शुरू हुआ था वह कांग्रेस के खिलाफ एक तूफ़ान की शक्ल में खड़ा हो गया . बाद में १९७७ आया और आर एस एस को एक बार केंद्र की सरकार में शामिल होने का मौक़ा मिला.
अन्ना हजारे का आन्दोलन भी उसी तर्ज़ पर चल निकला था . ३० जनवरी २०११ के दिन जो देश भर में लोग उठ खड़े हुए थे ,उसमें बड़ी संख्या आर एस एस के कार्यकर्ताओं की थी. इस आन्दोलन में बहुत बड़े पैमाने पर सक्रिय बाबा रामदेव के ठिकाने पर जाकर बीजेपी के अध्यक्ष ने मुलाक़ात कर ली थी . अगर तीन चार दिन और यही हाल रहता तो आर एस एस/बीजेपी की कांग्रेस को भ्रष्टाचार का पर्याय बना देने में सफलता मिल जाती . और फिर १९७४ के आन्दोलन से भी ताक़त वर आन्दोलन तैयार हो जाता . कांग्रेसी नेताओं ने भी ऐसा माहौल बनाना शुरू कर दिया था कि अन्ना हजारे न चाहते हुए भी आर एस एस/बीजेपी के हित में काम करते नज़र आने लगते . लेकिन ठीक इसी वक़्त पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने हस्तक्षेप किया और अन्ना हजारे के आन्दोलन से आर एस एस/बीजेपी को अलग कर दिया . उनकी पार्टी और सरकार के खिलाफ जो तूफ़ान चल पड़ा था उसे रास्ते में ही रोक कर अपनी राजनीतिक दक्षता का परिचय दिया . ज़ाहिर है कि आर एस एस/बीजेपी को इस खेल ने निराशा हुई और एक बड़ा राजनीतिक मौक़ा हाथ से निकल गया . बीजेपी के प्रवक्ताओं और उनकी तरफ से मीडिया में काम करने वालों का जो अन्ना के प्रति गुस्सा है वह इसी राजनीतिक घटना क्रम का नतीजा है .जिस सोनिया गाँधी को आर एस एस/बीजेपी वाले राजनेता ही मानने को तैयार नहीं थे ,उसने एक बार उन्हें फिर परेशानी में डाल दिया है . अब तो आर एस एस/बीजेपी वाले यह कहते पाए जा रहे हैं कि अन्ना हजारे वास्तव में कांग्रेस के बन्दे हैं . जो भी हो देश का राजनीतिक घटना क्रम एक बहुत ही दिलचस्प दौर से गुज़र रहा है और इस युद्ध का पहला राउंड सोनिया गाँधी ने जीत लिया है . आने वाला वक़्त दिलचस्प होगा और दुनिया भर के राजनीतिक विशेषकों की उस पर नज़र रहेगी.
Wednesday, April 20, 2011
Monday, April 4, 2011
जगजीवन राम-लोकतंत्र और सामाजिक बराबरी के अग्रणी राजनेता
शेष नारायण सिंह
पांच अप्रैल जगजीवन राम की जयंती है. उनकी शख्सियत के कई आयाम हैं . लेकिन सबसे बड़ी बात जो उनके व्यक्तित्व से निकल कर आती है वह अन्याय के खिलाफ खड़े होने की उनकी प्रवृत्ति है. अपने पूरे जीवन काल में उन्होंने हमेशा ही अन्याय का विरोध किया . खुद दलित परिवार में पैदा हुए थे . हालांकि उनके पिता उस वक़्त के समाज के नेता थे. शिवनारायणी सम्प्रदाय के महंत थे, कांग्रेस की राजनीति में शामिल रह चुके थे और दलितों के बीच बहुत ही सम्मान की नज़र से देखे जाते थे . लेकिन तत्कालीन सामंती समाज ने उन्हें बरबरी का अवसर कभी नहीं दिया . और जब जगजीवन राम के बचपन में ही पिता की मृत्यु हो गयी तो मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा लेकिन कुशाग्रबुद्धि जगजीवन राम की माँ ने शिक्षा के मह्त्व को पहचानते हुए पढाई नहीं बंद करवाई. बचपन में ही उन्होंने स्कूल में अछूत बच्चों के खिलाफ हो रहे भेद भाव के खिलाफ आवाज़ उठायी जो बाद में उनकी प्रकृति का हिस्सा बन गया . उन्होंने १९७७ में भी अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठायी जब इंदिरा गाँधी ने अपने लफंगा टाइप बेटे को सत्ता की बागडोर थमाने की योजना बनायी . जगजीवन राम का अन्याय का विरोध करने के तरीका औरों से अलग था . वे कभी भी सब कुछ दांव पर नहीं लगाते थे. मसलन जब इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी लगाने का फैसला किया तो उन्होंने उसका समर्थन किया . यहाँ तक कि इमरजेंसी को मंज़ूर करवाने के लिए जो प्रस्ताव लोक सभा में सरकार की तरफ से पेश किया गया था ,उसको बाबू जगजीवन राम ने ही पाइलट किया था. हालांकि इमरजेंसी इंदिरा गाँधी की तानाशाही के खिलाफ अवाम की जुबान बंद करने के लिए लगाई गयी थी लेकिन शायद बाबू जी को उसमें कुछ अच्छाइयां नज़र आ रही होंगीं. लेकिन बहुत शुरुआती स्टेज में ही यह साफ़ हो गया कि इमरजेंसी को इंदिरा जी के छोटे बेटे को सत्ता के दावेदार के रूप में स्थापित करने के लिए लगाया गया था. उसके आस पास एक चौकड़ी जमा हो गयी,जिसमें कुछ पुलिस वाले, कुछ आई ए एस अफसर, कुछ नेता,दिल्ली शहर के कुछ लफंगे ,कुछ स्मगलर , कुछ दलाल और कुछ ब्लैक मार्केटियर शामिल थे. उन दिनों जो लोग बाबू जगजीवन राम से मिले थे उन्होंने इस बात की बार बार ताईद की थी कि इमरजेंसी का समर्थन करके जगजीवन राम बहुत दुखी थे . लेकिन तब तक देश का हर बड़ा कांग्रेसी नेता इंदिरा जी के बेटे की चौकड़ी के जाल में फंस चुका था . बाबू जगजीवन राम की राजनीतिक कुशलता और विद्वत्ता की परीक्षा हो रही थी. उनके पास पूरे देश से कांग्रेस कार्यकर्ता आते थे और उन्हें मालूम था कि इमरजेंसी में दलितों और अल्पसंख्यकों को खूब परेशान किया जा रहा है. उस ज़माने में केंद्र के साथ साथ हर राज्य में भी कांग्रेस की सरकारें होती थी. उनके सभी मुख्य मंत्री इंदिरा गाँधी के बेटे संजय के सामने नतमस्तक थे. उत्तर प्रदेश में हेमवती नंदन बहुगुणा ने संविधान की बात कने की कोशिश की तो उन्हें पैदल कर दिया गया . उनकी जगह पर आये नारायण दत्त तिवारी तो सीधे ही संजय गाँधी की मंडली के हुक्म के गुलाम थे . लगभग हर राज्य में यही आलम था .बाबू जगजीवन राम को करीब से जानने वाले बताते हैं कि इंदिरा गाँधी के इस पुत्र मोह की बलि चढ़ रहे लोकतांत्रिक मूल्यों के खात्मे से वे बहुत दुखी थे . लेकिन उन्हें यह भी मालूम था कि अगर खुले आम बगावत कर दी तो उनका भी वही हाल होगा जो बाकी विपक्षी नेताओं का हो रहा था. विपक्ष का हर नेता, यहाँ तक कि मामूली कार्यकर्ता भी जेलों में था. ज़ाहिर है उस माहौल में जगजीवन राम अगर कोई समझदारी की बात करते तो उन्हें भी राजनीतिक रूप से ख़त्म कर दिया जाता . वे चुप चाप सही वक़्त का इंतज़ार करते रहे और जब इंदिरा जी के खुफिया तंत्र ने उन्हें भरोसा दिला दिया कि विपक्ष पूरी तरह से पस्त पड़ा था .अगर उस वक़्त चुनाव करा दिए जाएँ तो कांग्रेस की दुबारा वापसी हो सकती थी और उसके ठीक बाद संजय गाँधी कि ताजपोशी कर दी जाती. चुनाव की घोषणा हो जाने के बाद अपने विश्वस्त साथियों हेमवती नंदन बहुगुणा, नंदिनी सत्पथी और के आर गणेश के साथ बाबू जगजीवन राम ने लोकशाही की बिसात पर अपनी धमाकेदार मौजूदगी का ऐलान कर दिया . उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफ़ा दिया, सरकार से इस्तीफ़ा दिया और कांग्रेस फोर डेमोक्रेसी के गठन का ऐलान कर दिया. निराश हताश विपक्ष के नेताओं में जान आ गयी . बाबू जगजीवन राम के पास पहले से ही पूरे देश से आये कांग्रेस कार्यकर्ताओं का इनपुट था ही और देश में तूफ़ान आ गया. इस तरह १९७७ में देश की जनता ने इंदिरा गाँधी की स्थापित सत्ता का विरोध करके एक ऐसी पार्टी को सत्ता सौंप दी जिसका तब तक गठन ही नहीं हुआ था. जनता पार्टी का गठन मोरारजी देसाई कि सरकार बन जाने के बाद हुआ . लोकतंत्र के अध्येता बताते हैं कि यहीं पर जनता पार्टी के नेताओं का वर्ग चरित्र सामने आ गया . उनमें से ज़्यादातर सामन्ती मानसिकता के थे और उन्होंने प्रधान मंत्री पद के असली हक़दार बाबू जगजीवन राम को प्रधान मंत्री नहीं बनने दिया . लेकिन बाबूजी खुश थे .देश में एक बार फिर जनता की ताक़त की सत्ता स्थापित हो चुकी थी .
१९७७ में इंदिरा गाँधी के पुत्र मोह के चक्कर में देश को कुछ गैर ज़िम्मेदार लोगों के हाथ में जाने से उन्होंने बचा लिया था . यह उनके बगावती तेवर की वजह से ही हुआ था. अपने पूरे राजनीतिक जीवन में वे हमेशा सही मूल्यों की राजनीति का समर्थन करते रहे. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र के रूप में उन्होंने इस बात का विरोध किया था कि दलित छात्रों को बाकी छात्रों के साथ बैठकर खाना खाने की अनुमति नहीं थी. .बनारस की सामन्ती मानसिकता से ऊब कर ही वे कलकत्ता गए थे जहां उन्होंने अपने आपको मजदूरों के एक शुभचिन्तक के रूप में स्थापित किया . वहीं पर वे महात्मा गाँधी और सुभाष चन्द्र बोस की नज़र में आये और बाद में तो उन्होंने अंग्रेजों की उस कोशिश को धता बता दिया जिसमें उन्हने लालच देकर महात्मा गाँधी के खिलाफ करने की कोशिश की जा रही थी. महत्मा जी ने कहा था कि जगजीवन राम खरा सोना हैं .उस दौर के बहुत सारे गैर कांग्रेसी नेता अंग्रेजों के भक्त हो गए थे लेकिन बाबू जगजीवन राम ने ऐसा नहीं होने दिया .१९४२ के भारत छोडो आन्दोलन में वे एक बहुत बड़े नेता के रूप में उभरे . बाद में जब शिमला में दलितो के हित की बात करने वे कैबिनेट mishan से मिलने गए तो उन्होंने भारत और यहाँ के लोगों के हित को सर्वोपरि रखा . १९३० के दशक में तो एक अवसर ऐसा भी आया जब अँगरेज़ अनुसूचित जातियों के नेताओं को जिन्ना के बराबर खड़े कर देने की साज़िश पर काम कर रहे थे लेकिन बाद में जगजीवन राम ने उसे नाकाम कर दिया . अजीब बात है कि सामंती सोच के इतिहासकारों ने बाबू जगजीवन राम को किसी और कांग्रेसी नेता के रूप में पेश करने की कोशिश की और सफल रहे . सच्चाई यह है वे सही मायनों में लोकतंत्र और सामाजिक बराबरी के अग्रणी दार्शनिक और राजनीतिज्ञ थे
पांच अप्रैल जगजीवन राम की जयंती है. उनकी शख्सियत के कई आयाम हैं . लेकिन सबसे बड़ी बात जो उनके व्यक्तित्व से निकल कर आती है वह अन्याय के खिलाफ खड़े होने की उनकी प्रवृत्ति है. अपने पूरे जीवन काल में उन्होंने हमेशा ही अन्याय का विरोध किया . खुद दलित परिवार में पैदा हुए थे . हालांकि उनके पिता उस वक़्त के समाज के नेता थे. शिवनारायणी सम्प्रदाय के महंत थे, कांग्रेस की राजनीति में शामिल रह चुके थे और दलितों के बीच बहुत ही सम्मान की नज़र से देखे जाते थे . लेकिन तत्कालीन सामंती समाज ने उन्हें बरबरी का अवसर कभी नहीं दिया . और जब जगजीवन राम के बचपन में ही पिता की मृत्यु हो गयी तो मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा लेकिन कुशाग्रबुद्धि जगजीवन राम की माँ ने शिक्षा के मह्त्व को पहचानते हुए पढाई नहीं बंद करवाई. बचपन में ही उन्होंने स्कूल में अछूत बच्चों के खिलाफ हो रहे भेद भाव के खिलाफ आवाज़ उठायी जो बाद में उनकी प्रकृति का हिस्सा बन गया . उन्होंने १९७७ में भी अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठायी जब इंदिरा गाँधी ने अपने लफंगा टाइप बेटे को सत्ता की बागडोर थमाने की योजना बनायी . जगजीवन राम का अन्याय का विरोध करने के तरीका औरों से अलग था . वे कभी भी सब कुछ दांव पर नहीं लगाते थे. मसलन जब इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी लगाने का फैसला किया तो उन्होंने उसका समर्थन किया . यहाँ तक कि इमरजेंसी को मंज़ूर करवाने के लिए जो प्रस्ताव लोक सभा में सरकार की तरफ से पेश किया गया था ,उसको बाबू जगजीवन राम ने ही पाइलट किया था. हालांकि इमरजेंसी इंदिरा गाँधी की तानाशाही के खिलाफ अवाम की जुबान बंद करने के लिए लगाई गयी थी लेकिन शायद बाबू जी को उसमें कुछ अच्छाइयां नज़र आ रही होंगीं. लेकिन बहुत शुरुआती स्टेज में ही यह साफ़ हो गया कि इमरजेंसी को इंदिरा जी के छोटे बेटे को सत्ता के दावेदार के रूप में स्थापित करने के लिए लगाया गया था. उसके आस पास एक चौकड़ी जमा हो गयी,जिसमें कुछ पुलिस वाले, कुछ आई ए एस अफसर, कुछ नेता,दिल्ली शहर के कुछ लफंगे ,कुछ स्मगलर , कुछ दलाल और कुछ ब्लैक मार्केटियर शामिल थे. उन दिनों जो लोग बाबू जगजीवन राम से मिले थे उन्होंने इस बात की बार बार ताईद की थी कि इमरजेंसी का समर्थन करके जगजीवन राम बहुत दुखी थे . लेकिन तब तक देश का हर बड़ा कांग्रेसी नेता इंदिरा जी के बेटे की चौकड़ी के जाल में फंस चुका था . बाबू जगजीवन राम की राजनीतिक कुशलता और विद्वत्ता की परीक्षा हो रही थी. उनके पास पूरे देश से कांग्रेस कार्यकर्ता आते थे और उन्हें मालूम था कि इमरजेंसी में दलितों और अल्पसंख्यकों को खूब परेशान किया जा रहा है. उस ज़माने में केंद्र के साथ साथ हर राज्य में भी कांग्रेस की सरकारें होती थी. उनके सभी मुख्य मंत्री इंदिरा गाँधी के बेटे संजय के सामने नतमस्तक थे. उत्तर प्रदेश में हेमवती नंदन बहुगुणा ने संविधान की बात कने की कोशिश की तो उन्हें पैदल कर दिया गया . उनकी जगह पर आये नारायण दत्त तिवारी तो सीधे ही संजय गाँधी की मंडली के हुक्म के गुलाम थे . लगभग हर राज्य में यही आलम था .बाबू जगजीवन राम को करीब से जानने वाले बताते हैं कि इंदिरा गाँधी के इस पुत्र मोह की बलि चढ़ रहे लोकतांत्रिक मूल्यों के खात्मे से वे बहुत दुखी थे . लेकिन उन्हें यह भी मालूम था कि अगर खुले आम बगावत कर दी तो उनका भी वही हाल होगा जो बाकी विपक्षी नेताओं का हो रहा था. विपक्ष का हर नेता, यहाँ तक कि मामूली कार्यकर्ता भी जेलों में था. ज़ाहिर है उस माहौल में जगजीवन राम अगर कोई समझदारी की बात करते तो उन्हें भी राजनीतिक रूप से ख़त्म कर दिया जाता . वे चुप चाप सही वक़्त का इंतज़ार करते रहे और जब इंदिरा जी के खुफिया तंत्र ने उन्हें भरोसा दिला दिया कि विपक्ष पूरी तरह से पस्त पड़ा था .अगर उस वक़्त चुनाव करा दिए जाएँ तो कांग्रेस की दुबारा वापसी हो सकती थी और उसके ठीक बाद संजय गाँधी कि ताजपोशी कर दी जाती. चुनाव की घोषणा हो जाने के बाद अपने विश्वस्त साथियों हेमवती नंदन बहुगुणा, नंदिनी सत्पथी और के आर गणेश के साथ बाबू जगजीवन राम ने लोकशाही की बिसात पर अपनी धमाकेदार मौजूदगी का ऐलान कर दिया . उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफ़ा दिया, सरकार से इस्तीफ़ा दिया और कांग्रेस फोर डेमोक्रेसी के गठन का ऐलान कर दिया. निराश हताश विपक्ष के नेताओं में जान आ गयी . बाबू जगजीवन राम के पास पहले से ही पूरे देश से आये कांग्रेस कार्यकर्ताओं का इनपुट था ही और देश में तूफ़ान आ गया. इस तरह १९७७ में देश की जनता ने इंदिरा गाँधी की स्थापित सत्ता का विरोध करके एक ऐसी पार्टी को सत्ता सौंप दी जिसका तब तक गठन ही नहीं हुआ था. जनता पार्टी का गठन मोरारजी देसाई कि सरकार बन जाने के बाद हुआ . लोकतंत्र के अध्येता बताते हैं कि यहीं पर जनता पार्टी के नेताओं का वर्ग चरित्र सामने आ गया . उनमें से ज़्यादातर सामन्ती मानसिकता के थे और उन्होंने प्रधान मंत्री पद के असली हक़दार बाबू जगजीवन राम को प्रधान मंत्री नहीं बनने दिया . लेकिन बाबूजी खुश थे .देश में एक बार फिर जनता की ताक़त की सत्ता स्थापित हो चुकी थी .
१९७७ में इंदिरा गाँधी के पुत्र मोह के चक्कर में देश को कुछ गैर ज़िम्मेदार लोगों के हाथ में जाने से उन्होंने बचा लिया था . यह उनके बगावती तेवर की वजह से ही हुआ था. अपने पूरे राजनीतिक जीवन में वे हमेशा सही मूल्यों की राजनीति का समर्थन करते रहे. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र के रूप में उन्होंने इस बात का विरोध किया था कि दलित छात्रों को बाकी छात्रों के साथ बैठकर खाना खाने की अनुमति नहीं थी. .बनारस की सामन्ती मानसिकता से ऊब कर ही वे कलकत्ता गए थे जहां उन्होंने अपने आपको मजदूरों के एक शुभचिन्तक के रूप में स्थापित किया . वहीं पर वे महात्मा गाँधी और सुभाष चन्द्र बोस की नज़र में आये और बाद में तो उन्होंने अंग्रेजों की उस कोशिश को धता बता दिया जिसमें उन्हने लालच देकर महात्मा गाँधी के खिलाफ करने की कोशिश की जा रही थी. महत्मा जी ने कहा था कि जगजीवन राम खरा सोना हैं .उस दौर के बहुत सारे गैर कांग्रेसी नेता अंग्रेजों के भक्त हो गए थे लेकिन बाबू जगजीवन राम ने ऐसा नहीं होने दिया .१९४२ के भारत छोडो आन्दोलन में वे एक बहुत बड़े नेता के रूप में उभरे . बाद में जब शिमला में दलितो के हित की बात करने वे कैबिनेट mishan से मिलने गए तो उन्होंने भारत और यहाँ के लोगों के हित को सर्वोपरि रखा . १९३० के दशक में तो एक अवसर ऐसा भी आया जब अँगरेज़ अनुसूचित जातियों के नेताओं को जिन्ना के बराबर खड़े कर देने की साज़िश पर काम कर रहे थे लेकिन बाद में जगजीवन राम ने उसे नाकाम कर दिया . अजीब बात है कि सामंती सोच के इतिहासकारों ने बाबू जगजीवन राम को किसी और कांग्रेसी नेता के रूप में पेश करने की कोशिश की और सफल रहे . सच्चाई यह है वे सही मायनों में लोकतंत्र और सामाजिक बराबरी के अग्रणी दार्शनिक और राजनीतिज्ञ थे
Monday, March 28, 2011
बीजेपी ने हिन्दू राष्ट्रवाद को इस्तेमाल किया है अब तक
शेष नारायण सिंह
विकीलीक्स ने अमरीकी दूतावास के संदेशों को पब्लिक डोमेन में लाकर भारतीय राजनीति का बहुत उपकार किया है . विकीलीक्स की कृपा से ही हम जानते हैं कि बीजेपी की नज़र में हिंदुत्व एक अवसरवादी राजनीति है. बीजेपी के बड़े नेता और टाप पद के प्रमुख दावेदार अरुण जेटली ने यह बात अमरीकी अफसर राबर्ट ब्लेक को एक अन्तरंग बातचीत में बतायी थी .श्री जेटली ने उसको भरोसे के साथ बताया था कि हिन्दू राष्ट्रवाद एक अवसरवादी मुद्दा है . उन्होंने समझाया कि बातचीत शुरू करने के लिए यह ठीक तरीका है .इस से ज्यादा कुछ नहीं . आज से करीब छः साल पहले हुई इस बातचीत में अरुण जेटली ने अमरीका को बता दिया था कि लाल कृष्ण आडवानी कुछ वर्षों के बाद बीजेपी की राजनीति के हाशिये पर आ जायेगें और अगली पीढी के लोग काम संभाल लेगें. अगर आडवाणी को उस वक़्त मालूम होता कि अरुण जेटली उनके बारे में इस तरह की बात करते हैं तो आज अरुण जेटली का राजनीतिक जीवन बिलकुल अलग होता .यह जिस दौर की बात चीत है उसके बारे में सबको मालूम है अरुण जेटली को बीजेपी के आडवाणी गुट ख़ास नेता माना जाता था . आडवाणी से पिछले पांच वर्षों में अरुण जेटली को बहुत समर्थन मिला है . जानकार बताते हैं कि अरुण जेटली को राज्यसभा का सदस्य बनवाने में भी आडवानी की प्रमुख भूमिका रही है . उनको राज्यसभा में बीजेपी का नेता भी आडवाणी ने ही बनवाया था. २००९ में लाल कृष्णा आडवाणी पूरे देश में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बन कर घूमते फिर रहे थे और अरुण जेटली उनको उसके चार साल पहले ही रिटायर करवाने की तैयारी में थे . . बाद में मीडिया को अरुण जेटली ने बताया कि उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा था . यहाँ उनसे यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि जब पहले दिन विकीलीक्स के संदेशों को द हिन्दू अखबार ने छापा था और पता चला था कि कांग्रेस की मनमोहन सरकार को बचाने के लिए २००८ में पैसे चले थे ,तो क्यों उसको अंतिम सत्य मानकर संसद नहीं चलने दिया था . सच्चाई यह है सारा देश जानता है कि २००८ में परमाणु बिल के मुद्दे पर पैसे चले थे और उस काण्ड में लाल कृष्ण आडवाणी सहित बीजेपी के कई नेता किसी न किसी रूप में शामिल थे . लेकिन बीजेपी का यह आग्रह कि मनमोहन सिंह इस्तीफ़ा दें बिलकुल तर्कसंगत नहीं लगा था . अब नए खुलासे के बाद तो बीजेपी को उन सभी लोगों से माफी मांगनी चाहिए जिन्होंने हिन्दू राष्ट्रवाद की पक्षधर पार्टी के रूप में बीजेपी को सम्मान दिया है और अपनाया है . बीजेपी की वैचारिक सोच की नियंता पार्टी आर एस एस है . आर एस एस की राजनीति का मकसद घोषित रूप से हिन्दू राष्ट्रवाद है . १९८० में आर एस एस ने तत्कालीन जनता पार्टी को इसीलिये तोडा था कि पार्टी के बड़े नेता और समाजवादी चिन्तक मधु लिमये ने मांग कर दी थी कि जनता पार्टी में जो लोग भी शामिल थे, वे किसी अन्य राजनीतिक संगठन में न रहें . मधु लिमये ने हमेशा यही माना कि आर एस एस एक राजनीतिक संगठन है और हिन्दू राष्ट्रवाद उसकी मूल राजनीतिक अवधारणा है . आर एस एस ने अपने लोगों को पार्टी से अलग कर लिया और भारतीय जनता पार्टी का गठन कर दिया .शुरू में इस नई पार्टी ने उदारतावादी राजनीतिक सोच को अपनाने की कोशिश की . दीन दयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद और गांधीवादी समाजवाद जैसे राजनीतिक दर्शन को अपनी बुनियादी सोच का आधार बनाने की कोशिश की . लेकिन जब १९८४ के लोकसभा चुनाव में ५४२ सीटों वाली लोकसभा में बीजेपी को दो सीटें मिलीं तो उदार राजनीतिक संगठन बनने का विचार हमेशा के लिए दफन कर दिया गया . जनवरी १९८५ में कलकत्ता में आर एस एस के टाप नेताओं की बैठक हुई जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी को भी बुलाया गया और साफ़ बता दिया गया कि अब हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को चलाया जाएगा . वहीं तय कर लिया गया कि अयोध्या की बाबरी मस्जिद को रामजन्मभूमि बता कर राजनीतिक मोबिलाइज़ेशन किया जाएगा . आर एस एस के दो संगठनों, विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को इस प्रोजेक्ट को चलाने का जिम्मा दिया गया. विश्व हिन्दू परिषद् की स्थापना १९६६ में हो चुकी थी लेकिन वह सक्रिय नहीं था. १९८५ के बाद उसे सक्रिय किया गया और कई बार तो यह भी लगने लगा कि आर एस एस वाले बीजेपी को पीछे धकेल कर वी एच पी से ही राजनीतिक काम करवाने की सोच रहे थे . लेकिन ऐसा नहीं हुआ और चुनाव लड़ने का काम बीजेपी के जिम्मे ही रहा . १९८५ से अब तक बीजेपी हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को ही अपना स्थायी भाव मानकर चल रही है ..कांग्रेस और अन्य सेकुलर पार्टियों ने अपना राजनीतिक काम ठीक से नहीं किया है इसलिए देश में हिन्दू राष्ट्रवाद का खूब प्रचार प्रसार हो गया है . जब बीजेपी ने हिन्दू राष्ट्रवाद को अपने राजनीतिक दर्शन के रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया तो उस विचारधारा को मानने वाले बड़ी संख्या में उसके साथ जुड़ गए .वही लोग १९९१ में अयोध्या आये थे जब उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी . बाबरी मस्जिद को तबाह करने पर आमादा इन लोगों के ऊपर गोलियां भी चली थीं .वही लोग १९९२ में अयोध्या आये थे जिनकी मौजूदगी में बाबरी मस्जिद का ध्वंस हुआ , वही लोग साबरमती एक्सप्रेस में सवार थे जब गोधरा रेलवे स्टेशन पर उन्हें जिंदा जला दिया गया . . अब जब निजी बातचीत के आधार पर दुनिया को मालूम चल गया है कि बीजेपी हिन्दू राष्ट्रवाद को केवल बातचीत का प्वाइंट मानती है तो उनके परिवार वालों पर क्या गुज़र रही होगी जो हिन्दू राष्ट्रवाद के चक्कर में मारे जा चुके हैं . . सबको मालूम है हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति के बल पर देश का नेतृत्व नहीं किया जा सकता . इसलिए बीजेपी के राष्ट्र को नेतृत्व देने की इच्छा रखने वाले नेताओं में अपने आपको हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति से दूर रखने की प्रवृत्ति पायी जाने लगी है . इसी सोच के तहत लाल कृष्ण आडवाणी ने जिन्ना की तारीफ़ की थी और अब अरुण जेटली इसको बोगस विचारधारा के रूप में पेश कर रहे हैं . लेकिन विकीलीक्स के खुलासों ने इस अहम जानकारी को पब्लिक डोमेन में डालकर भारतीय राजनीति के टाप नेताओं की सोच को उजागर किया है जिसकी सराहना के जानी चाहिए
विकीलीक्स ने अमरीकी दूतावास के संदेशों को पब्लिक डोमेन में लाकर भारतीय राजनीति का बहुत उपकार किया है . विकीलीक्स की कृपा से ही हम जानते हैं कि बीजेपी की नज़र में हिंदुत्व एक अवसरवादी राजनीति है. बीजेपी के बड़े नेता और टाप पद के प्रमुख दावेदार अरुण जेटली ने यह बात अमरीकी अफसर राबर्ट ब्लेक को एक अन्तरंग बातचीत में बतायी थी .श्री जेटली ने उसको भरोसे के साथ बताया था कि हिन्दू राष्ट्रवाद एक अवसरवादी मुद्दा है . उन्होंने समझाया कि बातचीत शुरू करने के लिए यह ठीक तरीका है .इस से ज्यादा कुछ नहीं . आज से करीब छः साल पहले हुई इस बातचीत में अरुण जेटली ने अमरीका को बता दिया था कि लाल कृष्ण आडवानी कुछ वर्षों के बाद बीजेपी की राजनीति के हाशिये पर आ जायेगें और अगली पीढी के लोग काम संभाल लेगें. अगर आडवाणी को उस वक़्त मालूम होता कि अरुण जेटली उनके बारे में इस तरह की बात करते हैं तो आज अरुण जेटली का राजनीतिक जीवन बिलकुल अलग होता .यह जिस दौर की बात चीत है उसके बारे में सबको मालूम है अरुण जेटली को बीजेपी के आडवाणी गुट ख़ास नेता माना जाता था . आडवाणी से पिछले पांच वर्षों में अरुण जेटली को बहुत समर्थन मिला है . जानकार बताते हैं कि अरुण जेटली को राज्यसभा का सदस्य बनवाने में भी आडवानी की प्रमुख भूमिका रही है . उनको राज्यसभा में बीजेपी का नेता भी आडवाणी ने ही बनवाया था. २००९ में लाल कृष्णा आडवाणी पूरे देश में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बन कर घूमते फिर रहे थे और अरुण जेटली उनको उसके चार साल पहले ही रिटायर करवाने की तैयारी में थे . . बाद में मीडिया को अरुण जेटली ने बताया कि उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा था . यहाँ उनसे यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि जब पहले दिन विकीलीक्स के संदेशों को द हिन्दू अखबार ने छापा था और पता चला था कि कांग्रेस की मनमोहन सरकार को बचाने के लिए २००८ में पैसे चले थे ,तो क्यों उसको अंतिम सत्य मानकर संसद नहीं चलने दिया था . सच्चाई यह है सारा देश जानता है कि २००८ में परमाणु बिल के मुद्दे पर पैसे चले थे और उस काण्ड में लाल कृष्ण आडवाणी सहित बीजेपी के कई नेता किसी न किसी रूप में शामिल थे . लेकिन बीजेपी का यह आग्रह कि मनमोहन सिंह इस्तीफ़ा दें बिलकुल तर्कसंगत नहीं लगा था . अब नए खुलासे के बाद तो बीजेपी को उन सभी लोगों से माफी मांगनी चाहिए जिन्होंने हिन्दू राष्ट्रवाद की पक्षधर पार्टी के रूप में बीजेपी को सम्मान दिया है और अपनाया है . बीजेपी की वैचारिक सोच की नियंता पार्टी आर एस एस है . आर एस एस की राजनीति का मकसद घोषित रूप से हिन्दू राष्ट्रवाद है . १९८० में आर एस एस ने तत्कालीन जनता पार्टी को इसीलिये तोडा था कि पार्टी के बड़े नेता और समाजवादी चिन्तक मधु लिमये ने मांग कर दी थी कि जनता पार्टी में जो लोग भी शामिल थे, वे किसी अन्य राजनीतिक संगठन में न रहें . मधु लिमये ने हमेशा यही माना कि आर एस एस एक राजनीतिक संगठन है और हिन्दू राष्ट्रवाद उसकी मूल राजनीतिक अवधारणा है . आर एस एस ने अपने लोगों को पार्टी से अलग कर लिया और भारतीय जनता पार्टी का गठन कर दिया .शुरू में इस नई पार्टी ने उदारतावादी राजनीतिक सोच को अपनाने की कोशिश की . दीन दयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद और गांधीवादी समाजवाद जैसे राजनीतिक दर्शन को अपनी बुनियादी सोच का आधार बनाने की कोशिश की . लेकिन जब १९८४ के लोकसभा चुनाव में ५४२ सीटों वाली लोकसभा में बीजेपी को दो सीटें मिलीं तो उदार राजनीतिक संगठन बनने का विचार हमेशा के लिए दफन कर दिया गया . जनवरी १९८५ में कलकत्ता में आर एस एस के टाप नेताओं की बैठक हुई जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी को भी बुलाया गया और साफ़ बता दिया गया कि अब हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को चलाया जाएगा . वहीं तय कर लिया गया कि अयोध्या की बाबरी मस्जिद को रामजन्मभूमि बता कर राजनीतिक मोबिलाइज़ेशन किया जाएगा . आर एस एस के दो संगठनों, विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को इस प्रोजेक्ट को चलाने का जिम्मा दिया गया. विश्व हिन्दू परिषद् की स्थापना १९६६ में हो चुकी थी लेकिन वह सक्रिय नहीं था. १९८५ के बाद उसे सक्रिय किया गया और कई बार तो यह भी लगने लगा कि आर एस एस वाले बीजेपी को पीछे धकेल कर वी एच पी से ही राजनीतिक काम करवाने की सोच रहे थे . लेकिन ऐसा नहीं हुआ और चुनाव लड़ने का काम बीजेपी के जिम्मे ही रहा . १९८५ से अब तक बीजेपी हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को ही अपना स्थायी भाव मानकर चल रही है ..कांग्रेस और अन्य सेकुलर पार्टियों ने अपना राजनीतिक काम ठीक से नहीं किया है इसलिए देश में हिन्दू राष्ट्रवाद का खूब प्रचार प्रसार हो गया है . जब बीजेपी ने हिन्दू राष्ट्रवाद को अपने राजनीतिक दर्शन के रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया तो उस विचारधारा को मानने वाले बड़ी संख्या में उसके साथ जुड़ गए .वही लोग १९९१ में अयोध्या आये थे जब उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी . बाबरी मस्जिद को तबाह करने पर आमादा इन लोगों के ऊपर गोलियां भी चली थीं .वही लोग १९९२ में अयोध्या आये थे जिनकी मौजूदगी में बाबरी मस्जिद का ध्वंस हुआ , वही लोग साबरमती एक्सप्रेस में सवार थे जब गोधरा रेलवे स्टेशन पर उन्हें जिंदा जला दिया गया . . अब जब निजी बातचीत के आधार पर दुनिया को मालूम चल गया है कि बीजेपी हिन्दू राष्ट्रवाद को केवल बातचीत का प्वाइंट मानती है तो उनके परिवार वालों पर क्या गुज़र रही होगी जो हिन्दू राष्ट्रवाद के चक्कर में मारे जा चुके हैं . . सबको मालूम है हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति के बल पर देश का नेतृत्व नहीं किया जा सकता . इसलिए बीजेपी के राष्ट्र को नेतृत्व देने की इच्छा रखने वाले नेताओं में अपने आपको हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति से दूर रखने की प्रवृत्ति पायी जाने लगी है . इसी सोच के तहत लाल कृष्ण आडवाणी ने जिन्ना की तारीफ़ की थी और अब अरुण जेटली इसको बोगस विचारधारा के रूप में पेश कर रहे हैं . लेकिन विकीलीक्स के खुलासों ने इस अहम जानकारी को पब्लिक डोमेन में डालकर भारतीय 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Saturday, March 26, 2011
विकीलीक्स ने किया बीजेपी की दोहरी चाल को बेनकाब
शेष नारायण सिंह
विकीलीक्स के कंधे पर बैठकर मनमोहन सिंह को पैदल करने की बीजेपी की रणनीति उल्टी पड़ गयी है.विकीलीक्स के ज़रिये उजागर हुए नई दिल्ली के अमरीकी दूतावास के अफसरों की ओर से अमरीकी विदेश विभाग को भेजे गए संदेशों के बाद बीजेपी ने ऐसा तूफ़ान खड़ा किया कि लगता था कि बस अगले कुछ घंटों में ही वे लोग मनमोहन सिंह को लपक लेगें . संघभक्त मीडिया ने भी अपनी भूमिका निभाई . कांग्रेसी सहम भी गए लेकिन बीजेपी के भाग से छींका टूटा नहीं. मनमोहन सिंह ने संसद के दोनों सदनों में बयान दिया कि बीजेपी के हल्ले गुल्ले का कोई मतलब नहीं है . लेकिन बीजेपी वाले विकीलीक्स को अंतिम सत्य मनवाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाते रहे.. प्रधानमंत्री पद के पूर्व उम्मीदवार सहित बीजेपी के सभी बड़े नेता मनमोहन सिंह से एक इस्तीफे की फ़रियाद करते रहे लेकिन मनमोहन सिंह ने साफ़ मना कर दिया . उन्होंने कहा कि बीजेपी को जनता ने रिजेक्ट करके बहुत अच्छा काम किया है . दुनिया जानती है कि परमाणु बिल को पास करवाने के लिए पैसे के इस्तेमाल के मसले में ऐसा कुछ भी नया नहीं था जिसे विकीलीक्स ने उजागर किया हो . सब को मालूम था कि पैसा चला था और बीजेपी के आला नेता ,लाल कृष्ण आडवाणी ने स्वीकार भी किया था कि उनकी पार्टी के संसद सदस्यों ने उनसे मंजूरी लेकर कथित रूप से रिश्वत में मिला पैसा लोकसभा में लाकर पेश किया था . जांच भी हुई थी और अन्य लोगों के अलावा लाल कृष्ण आडवाणी के उन दिनों के भक्त, सुधीन्द्र कुलकर्णी की जांच करने का सुझाव भी इस काम के लिए नियुक्त जेपीसी ने दिया था. कांग्रेस के खिलाफ तो जो भी विकीलीक्स में पता चला था,वह दुनिया जानती थी लेकिन द हिन्दू अखबार ने आज जो कुछ बीजेपी के बारे में विकीलीक्स के हवाले से छापा है,वह एक अनहोनी है. लोकसभा चुनाव २००९ के नतीजे आने के ठीक पहले नई दिल्ली के अमरीकी दूतावास में चार्ज ड अफ़ेयर्स के रूप में तैनात पीटर बरले,१३ मई २००९ को लाल कृष्ण आडवाणी से मिले थे . मुलाक़ात के बाद उसी दिन उन्होंने एक सन्देश अपनी सरकार के पास अमरीका में भेजा था. उस तार में जो कुछ लिखा है अगर उसे सच माना जाय तो बीजेपी के नेता लाल कृष्ण आडवाणी की छवि बहुत ही धूमिल नज़र आयेगी.. अमरीका बहुत चिंतित था कि २००९ के चुनावों के बाद सत्ता पाने की उम्मीद में बैठी बीजेपी और प्रधान मंत्री हासिल करने के उम्मीदवार लाल कृष्ण आडवाणी अगर सफल हो गए तो अमरीकी हितों को नुकसान पंहुचेगा . अपने सन्देश में चार्ज ड अफ़ेयर्स ने लिखा है कि भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बहुत ही शांतचित्त बैठे थे . बात चीत के दौरान लाल कृष्ण आडवाणी ने भारत-अमरीका परमाणु संधि के बारे में अपनी पार्टी के सख्त रुख को गंभीरता से न लेने की सलाह दी और भरोसा दिलाया कि अगर बीजेपी सत्ता में आ जाती है तो परमाणु समझौते पर फिर से कोई विचार नहीं किया जाएगा . चार्ज ड अफ़ेयर्स ने इस बात को जोर देकर लिखा है कि श्री आडवाणी ने स्वीकार किया कि बीजेपी ने जुलाई २००८ में सार्वजनिक रूप से कहा था कि समझौते से भारत की सामरिक स्वायत्तता कमज़ोर हुई है और सत्ता में आने पर उनकी पार्टी उस संधि का पुनर्परीक्षण करेगी. चार्ज ड अफ़ेयर्स का दावा है कि लाल कृष्ण आडवाणी ने साफ़ कहा कि वह बयान देश की आन्तरिक राजनीति की ज़रूरतों को ध्यान में रख कर दिया गया था. सत्ता में आने पर बीजेपी ऐसा कुछ नहीं करेगी. लाल कृष्ण आडवाणी का यह बयान अगर यह सच है तो यह बहुत ही गैरजिम्मेदार राजनीतिक आचरण है . क्योंकि आडवाणी साफ़ साफ़ यह कह रहे हैं कि परमाणु संधि का जो भी विरोध किया गया था, वह पब्लिक के लिए था . ऐसा भी नहीं है कि श्री आडवाणी यह बात यूं ही कह रहे थे . अपने तर्क की गंभीरता को उन्होंने ऐतिहासिक सन्दर्भों से पुष्ट भी किया .उन्होंने कहा कि ऐसा उनकी पार्टी पहले भी कर चुकी है . श्री आडवाणी ने ख़ास तौर से १९७२ के इंदिरा गाँधी और ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो के बीच हुए शिमला समझौते का उल्लेख किया और कहा कि समझौते के बाद उनकी तत्कालीन पार्टी ( भारतीय जनसंघ ) ने पब्लिक की नज़र में समझौते का विरोध किया था लेकिन जब सत्ता में आई तो उसका पूरी तरह से पालन किया गया .
यहाँ यह समझ लेना ज़रूरी है कि लाल कृष्ण आडवाणी का बयान उनका कोई निजी बयान नहीं है . वास्तव में वह उनकी पार्टी की नीति पर आधारित बयान है . विकीलीक्स के एक अन्य सन्देश के हवाले से यह बात समझी जा सकती है . बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की एक अहम बैठक २६ और २७ दिसंबर २००५ को मुंबई में हुई थी जहां यू पी ए सरकार की सख्त आलोचना की गई थी और कहा गया था कि उसने ऐसी विदेश नीति अपनाई है जो भारत को अमरीका का गुलाम बना देगी . लेकिन इस प्रस्ताव को पास करने के तुरंत बाद ही बीजेपी के नेताओं ने अमरीकी दूतावास में तैनात अफसरों को बताना शुरू कर दिया कि घबडाने के कोई बात नहीं है क्योंकि यह बयान यू पी ए के खिलाफ जनता की नज़र में ऊंचा उठने के लिए दिया गया है . सच्चाई यह है कि जहां तक अमरीका का सवाल है कांग्रेस और बीजेपी की नीतियों में कोई फ़र्क़ नहीं है . उस वक़्त के नई दिल्ली स्थित अमरीकी दूतावास के डिप्टी चीफ आफ मिशन, राबर्ट ब्लेक ने २८ दिसंबर २००५ के दिन अपनी सरकार को भेजे गए सन्देश में साफ़ लिखा है कि २८ दिसंबर को ही उनके साथ एक निजी बातचीत में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य शेषाद्रि चारी ने कहा कि विदेशनीति वाले प्रस्ताव को गंभीरता से लेने की ज़रुरत नहीं है. खासकर वे बातें तो बिलकुल गंभीरता से न ली जायें जहां अमरीका के खिलाफ टिप्पणी की गयी है .उन्होंने यह भी कहा कि भारत में अमरीका विरोध का आम तौर पर माहौल रहता है ,इसलिए जनता को ध्यान में रख कर इस तरह के बयान दिए जाते हैं . इसका मतलब यह है कि बीजेपी वाले भारत की जनता को कुछ कहते हैं लेकिन उनकी मंशा कुछ और रहती है . रिचर्ड ब्लेक ने बीजेपी के इरादों का विश्लेषण भी किया है . उन्होंने अपने सन्देश में लिखा है कि बीजेपी के प्रवक्ता प्रकाश जावडेकर ने भी इन स्पष्ट किया कि भारत-अमरीका संबंधों के बारे में बीजेपी को कोई एतराज़ नहीं है . उनका विचार है कि बीजेपी की राजनीतिक लाइन यू पी ए का विरोध करने की है . वैसे बीजेपी के नेताओं को मालूम है कि अमरीका में उनकी इतनी इज़्ज़त है कि अगर वे सार्वजनिक रूप से अमरीका के खिलाफ भी बयान देगें तो अमरीका बुरा नहीं मानेगा. तो यह है बीजेपी की अमरीका विरोध की सच्चाई . ज़ाहिर है इन मामलों के सार्वजनिक होने के बाद देश की जनता बीजेपी की बातों को गंभीरता से नहीं लेगी.
विकीलीक्स के कंधे पर बैठकर मनमोहन सिंह को पैदल करने की बीजेपी की रणनीति उल्टी पड़ गयी है.विकीलीक्स के ज़रिये उजागर हुए नई दिल्ली के अमरीकी दूतावास के अफसरों की ओर से अमरीकी विदेश विभाग को भेजे गए संदेशों के बाद बीजेपी ने ऐसा तूफ़ान खड़ा किया कि लगता था कि बस अगले कुछ घंटों में ही वे लोग मनमोहन सिंह को लपक लेगें . संघभक्त मीडिया ने भी अपनी भूमिका निभाई . कांग्रेसी सहम भी गए लेकिन बीजेपी के भाग से छींका टूटा नहीं. मनमोहन सिंह ने संसद के दोनों सदनों में बयान दिया कि बीजेपी के हल्ले गुल्ले का कोई मतलब नहीं है . लेकिन बीजेपी वाले विकीलीक्स को अंतिम सत्य मनवाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाते रहे.. प्रधानमंत्री पद के पूर्व उम्मीदवार सहित बीजेपी के सभी बड़े नेता मनमोहन सिंह से एक इस्तीफे की फ़रियाद करते रहे लेकिन मनमोहन सिंह ने साफ़ मना कर दिया . उन्होंने कहा कि बीजेपी को जनता ने रिजेक्ट करके बहुत अच्छा काम किया है . दुनिया जानती है कि परमाणु बिल को पास करवाने के लिए पैसे के इस्तेमाल के मसले में ऐसा कुछ भी नया नहीं था जिसे विकीलीक्स ने उजागर किया हो . सब को मालूम था कि पैसा चला था और बीजेपी के आला नेता ,लाल कृष्ण आडवाणी ने स्वीकार भी किया था कि उनकी पार्टी के संसद सदस्यों ने उनसे मंजूरी लेकर कथित रूप से रिश्वत में मिला पैसा लोकसभा में लाकर पेश किया था . जांच भी हुई थी और अन्य लोगों के अलावा लाल कृष्ण आडवाणी के उन दिनों के भक्त, सुधीन्द्र कुलकर्णी की जांच करने का सुझाव भी इस काम के लिए नियुक्त जेपीसी ने दिया था. कांग्रेस के खिलाफ तो जो भी विकीलीक्स में पता चला था,वह दुनिया जानती थी लेकिन द हिन्दू अखबार ने आज जो कुछ बीजेपी के बारे में विकीलीक्स के हवाले से छापा है,वह एक अनहोनी है. लोकसभा चुनाव २००९ के नतीजे आने के ठीक पहले नई दिल्ली के अमरीकी दूतावास में चार्ज ड अफ़ेयर्स के रूप में तैनात पीटर बरले,१३ मई २००९ को लाल कृष्ण आडवाणी से मिले थे . मुलाक़ात के बाद उसी दिन उन्होंने एक सन्देश अपनी सरकार के पास अमरीका में भेजा था. उस तार में जो कुछ लिखा है अगर उसे सच माना जाय तो बीजेपी के नेता लाल कृष्ण आडवाणी की छवि बहुत ही धूमिल नज़र आयेगी.. अमरीका बहुत चिंतित था कि २००९ के चुनावों के बाद सत्ता पाने की उम्मीद में बैठी बीजेपी और प्रधान मंत्री हासिल करने के उम्मीदवार लाल कृष्ण आडवाणी अगर सफल हो गए तो अमरीकी हितों को नुकसान पंहुचेगा . अपने सन्देश में चार्ज ड अफ़ेयर्स ने लिखा है कि भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बहुत ही शांतचित्त बैठे थे . बात चीत के दौरान लाल कृष्ण आडवाणी ने भारत-अमरीका परमाणु संधि के बारे में अपनी पार्टी के सख्त रुख को गंभीरता से न लेने की सलाह दी और भरोसा दिलाया कि अगर बीजेपी सत्ता में आ जाती है तो परमाणु समझौते पर फिर से कोई विचार नहीं किया जाएगा . चार्ज ड अफ़ेयर्स ने इस बात को जोर देकर लिखा है कि श्री आडवाणी ने स्वीकार किया कि बीजेपी ने जुलाई २००८ में सार्वजनिक रूप से कहा था कि समझौते से भारत की सामरिक स्वायत्तता कमज़ोर हुई है और सत्ता में आने पर उनकी पार्टी उस संधि का पुनर्परीक्षण करेगी. चार्ज ड अफ़ेयर्स का दावा है कि लाल कृष्ण आडवाणी ने साफ़ कहा कि वह बयान देश की आन्तरिक राजनीति की ज़रूरतों को ध्यान में रख कर दिया गया था. सत्ता में आने पर बीजेपी ऐसा कुछ नहीं करेगी. लाल कृष्ण आडवाणी का यह बयान अगर यह सच है तो यह बहुत ही गैरजिम्मेदार राजनीतिक आचरण है . क्योंकि आडवाणी साफ़ साफ़ यह कह रहे हैं कि परमाणु संधि का जो भी विरोध किया गया था, वह पब्लिक के लिए था . ऐसा भी नहीं है कि श्री आडवाणी यह बात यूं ही कह रहे थे . अपने तर्क की गंभीरता को उन्होंने ऐतिहासिक सन्दर्भों से पुष्ट भी किया .उन्होंने कहा कि ऐसा उनकी पार्टी पहले भी कर चुकी है . श्री आडवाणी ने ख़ास तौर से १९७२ के इंदिरा गाँधी और ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो के बीच हुए शिमला समझौते का उल्लेख किया और कहा कि समझौते के बाद उनकी तत्कालीन पार्टी ( भारतीय जनसंघ ) ने पब्लिक की नज़र में समझौते का विरोध किया था लेकिन जब सत्ता में आई तो उसका पूरी तरह से पालन किया गया .
यहाँ यह समझ लेना ज़रूरी है कि लाल कृष्ण आडवाणी का बयान उनका कोई निजी बयान नहीं है . वास्तव में वह उनकी पार्टी की नीति पर आधारित बयान है . विकीलीक्स के एक अन्य सन्देश के हवाले से यह बात समझी जा सकती है . बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की एक अहम बैठक २६ और २७ दिसंबर २००५ को मुंबई में हुई थी जहां यू पी ए सरकार की सख्त आलोचना की गई थी और कहा गया था कि उसने ऐसी विदेश नीति अपनाई है जो भारत को अमरीका का गुलाम बना देगी . लेकिन इस प्रस्ताव को पास करने के तुरंत बाद ही बीजेपी के नेताओं ने अमरीकी दूतावास में तैनात अफसरों को बताना शुरू कर दिया कि घबडाने के कोई बात नहीं है क्योंकि यह बयान यू पी ए के खिलाफ जनता की नज़र में ऊंचा उठने के लिए दिया गया है . सच्चाई यह है कि जहां तक अमरीका का सवाल है कांग्रेस और बीजेपी की नीतियों में कोई फ़र्क़ नहीं है . उस वक़्त के नई दिल्ली स्थित अमरीकी दूतावास के डिप्टी चीफ आफ मिशन, राबर्ट ब्लेक ने २८ दिसंबर २००५ के दिन अपनी सरकार को भेजे गए सन्देश में साफ़ लिखा है कि २८ दिसंबर को ही उनके साथ एक निजी बातचीत में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य शेषाद्रि चारी ने कहा कि विदेशनीति वाले प्रस्ताव को गंभीरता से लेने की ज़रुरत नहीं है. खासकर वे बातें तो बिलकुल गंभीरता से न ली जायें जहां अमरीका के खिलाफ टिप्पणी की गयी है .उन्होंने यह भी कहा कि भारत में अमरीका विरोध का आम तौर पर माहौल रहता है ,इसलिए जनता को ध्यान में रख कर इस तरह के बयान दिए जाते हैं . इसका मतलब यह है कि बीजेपी वाले भारत की जनता को कुछ कहते हैं लेकिन उनकी मंशा कुछ और रहती है . रिचर्ड ब्लेक ने बीजेपी के इरादों का विश्लेषण भी किया है . उन्होंने अपने सन्देश में लिखा है कि बीजेपी के प्रवक्ता प्रकाश जावडेकर ने भी इन स्पष्ट किया कि भारत-अमरीका संबंधों के बारे में बीजेपी को कोई एतराज़ नहीं है . उनका विचार है कि बीजेपी की राजनीतिक लाइन यू पी ए का विरोध करने की है . वैसे बीजेपी के नेताओं को मालूम है कि अमरीका में उनकी इतनी इज़्ज़त है कि अगर वे सार्वजनिक रूप से अमरीका के खिलाफ भी बयान देगें तो अमरीका बुरा नहीं मानेगा. तो यह है बीजेपी की अमरीका विरोध की सच्चाई . ज़ाहिर है इन मामलों के सार्वजनिक होने के बाद देश की जनता बीजेपी की बातों को गंभीरता से नहीं लेगी.
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शेष नारायण सिंह
Friday, March 25, 2011
पी चिदंबरम को बर्खास्त करने की मांग ,दोनों सदनों में हंगामा
शेष नारायण सिंह
भारत के गृहमंत्री पी चिदंबरम ने २००९ में नई दिल्ली में तैनात अमरीकी राजदूत को बताया कि अगर पूर्व और उत्तर भारत के लोग भारत का हिस्सा न होते तो भारत एक बहुत ज्यादा विकसित देश होता. भारत के गृहमंत्री का यह बयान हर तरह से निंदा करने लायक है . वैसे भी वे बहुत वर्षों से दिल्ली की काकटेल सर्किट के सदस्य हैं जिसमें अभी तक बिहारी शब्द को गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है . वे दक्षिण से चुनकर ज़रूर आते हैं लेकिन उन्हें दक्षिण भारतीय नहीं कहा जा सकता . वे दरअसल दिल्ली में रहने वाली उस जाति के सदस्य हैं जिनके पूर्वज या तो अंग्रेजों के चाकर थे, उनके जी हुज़ूर थे या अंग्रेजों के राज में दिल्ली में दलाली वगैरह किया करते थे. पिछले साठ वर्षों में बाकी भारत से जो लोग भी दिल्ली आये उनकी एक बड़ी संख्या के लोग इसी बिरादरी की सदस्यता लेने के लिए व्याकुल रहते रहे हैं . इस वर्ग के लोगों को किसी भी प्रदेश या किसी भी वर्ग का कहना उस वर्ग का अपमान होगा. इनकी बिरादरी बहुत ही छोटी है . इसमें आम तौर पर नई भर्ती नहीं होती. कुछ ऐसे लड़के जो बिहार ,ओडिशा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के मूल निवासी होते हैं और आई ए एस या इनकम टैक्स जैसी नौकरियों में सिविल सर्विस परीक्षा पास करके चुन लिए जाते हैं , उनको शादी व्याह के चक्कर में फंसाकर इस काकटेल सर्किट वाले अपने साथ मिला अलेते हैं . बाद में उनके बाल बच्चे भी इसी तरह की ज़िंदगी के आदी हो जाते हैं और वे भी बिहारी शंब्द को बतौर गाली इस्तेमाल करने लगते हैं . दिल्ली शहर में आई ए एस या और नौकरियों में बहुत सारे ऐसे अफसर मिल जायेगें जिनकी शादी बचपन में ही हो गयी थी लेकिन बाद में बड़ी नौकरी में चुन लिए जाने के बाद काकटेल सर्किट वालों ने उन्हें फंसाया और दुबारा शादी करवा दी. उत्तर प्रदेश और बिहार का होने के बावजूद भी इन लोगों की जो औलादें है वे भी इसी दिल्ली की काकटेलजीवी बिरादरी के तरह बात करते पाए जाती हैं .. करीब तीस साल पहले तो यह बीमारी बहुत ही भयानक थी . उस दौर में चिदंबरम की उम्र के लोग यही कोई तीस पैंतीस साल के थे . चिदंबरम का अमरीकी आका को दिया गया बयान उनकी उसी मानसिकता की खुरचन है . इस तरह की बात करने वाले लोग आम तौर पर बिना किसी सोच समझ के ही यह बयान दे देते हैं .उन्हें मालूम नहीं रहता कि दुनिया कितनी बदल गयी है . ऐसे लोग जब पकडे जाते हैं तो कहते हैं कि वह बात तो मैंने निश्चिन्त भाव से की गई किसी बातचीत के दौरान कही थी. इनसे सवाल पूछा जाना चाहिए कि आप जब औपचारिक नहीं होते तो क्या गाली गलौज की भाषा में बात करते हैं . बहरहाल जो बात सबसे ज्यादा संभव लगती है वह यह है कि इस तरह की बातचीत करने वाले किसी बीमारी का शिकार होते हैं और उन्हें मानसिक रोगी मानकर उनकी बात का विश्लेषण किया जाना चाहिए . चिदंबरम के इस गैरज़िम्मेदार बयान पर उन्हें आज संसद के दोनों ही सदनों में लथेरा गया और सरकार को उनकी वजह से खिसियाहट झेलना पड़ा.
उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों को घटिया बताने के पहले इन लोगों को सोचना चाहिए कि इन दो राज्यों का योगदान भारत के राजनीतिक विकास में सबसे ज्यादा है . महात्मा गाँधी भी अंतर राष्ट्रीय स्तर पर सर्वमान्य नेता बनने के पहले चंपारण गए थे .वे राष्ट्रीय स्तर के नेता तभी बने जब उन्हें इस इलाके ने स्वीकार किया . जवाहलाल नेहरू का योगदान भारत की राजनीति में किसी से कम नहीं है. आज देश की सभी बड़ी संस्थाओं में इस इलाके से आये लोगों की भूमिका कम नहीं है. पी चिदंबरम को यह भी याद रखना चाहिए कि वे जिस सामंती मानसिकता में रहते हैं वह कब की ख़त्म हो चुकी है आज जिन लोगों के समर्थन से कांग्रेस सत्ता में हैं उनके पूर्वज दलाल नहीं थे.अंग्रेजों के जी हुजूर नहीं थे और किसी की दी हुई रोटी को तिरस्कार की नज़र से देखते थे , जिन लालू प्रसाद , मायावती, मुलायम सिंह यादव की पार्टियों के कृपा से आज पी चिदंबरम गृह मंत्री हैं , उन लोगों के पूर्वज अपनी मेहनत की कमाई खाते थे और दिल्ली के दलालों के पूर्वज उनके पूर्वजों का शोषण करते थे . इसलिए किसी तरह की गैरजिम्मेदार बात करने के पहले उन्हें अपने इन नए अन्न दाताओं के गुस्से का ध्यान कर लेना चाहिए . अगर चिदंबरम जैसे लोगों को यह औकात बोध रहे तो आने वाले वक़्त में कांग्रेस भी आराम से रहेगी और पी चिदंबरम की बर्खास्तगी की मांग भी नहीं होगी.
भारत के गृहमंत्री पी चिदंबरम ने २००९ में नई दिल्ली में तैनात अमरीकी राजदूत को बताया कि अगर पूर्व और उत्तर भारत के लोग भारत का हिस्सा न होते तो भारत एक बहुत ज्यादा विकसित देश होता. भारत के गृहमंत्री का यह बयान हर तरह से निंदा करने लायक है . वैसे भी वे बहुत वर्षों से दिल्ली की काकटेल सर्किट के सदस्य हैं जिसमें अभी तक बिहारी शब्द को गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है . वे दक्षिण से चुनकर ज़रूर आते हैं लेकिन उन्हें दक्षिण भारतीय नहीं कहा जा सकता . वे दरअसल दिल्ली में रहने वाली उस जाति के सदस्य हैं जिनके पूर्वज या तो अंग्रेजों के चाकर थे, उनके जी हुज़ूर थे या अंग्रेजों के राज में दिल्ली में दलाली वगैरह किया करते थे. पिछले साठ वर्षों में बाकी भारत से जो लोग भी दिल्ली आये उनकी एक बड़ी संख्या के लोग इसी बिरादरी की सदस्यता लेने के लिए व्याकुल रहते रहे हैं . इस वर्ग के लोगों को किसी भी प्रदेश या किसी भी वर्ग का कहना उस वर्ग का अपमान होगा. इनकी बिरादरी बहुत ही छोटी है . इसमें आम तौर पर नई भर्ती नहीं होती. कुछ ऐसे लड़के जो बिहार ,ओडिशा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के मूल निवासी होते हैं और आई ए एस या इनकम टैक्स जैसी नौकरियों में सिविल सर्विस परीक्षा पास करके चुन लिए जाते हैं , उनको शादी व्याह के चक्कर में फंसाकर इस काकटेल सर्किट वाले अपने साथ मिला अलेते हैं . बाद में उनके बाल बच्चे भी इसी तरह की ज़िंदगी के आदी हो जाते हैं और वे भी बिहारी शंब्द को बतौर गाली इस्तेमाल करने लगते हैं . दिल्ली शहर में आई ए एस या और नौकरियों में बहुत सारे ऐसे अफसर मिल जायेगें जिनकी शादी बचपन में ही हो गयी थी लेकिन बाद में बड़ी नौकरी में चुन लिए जाने के बाद काकटेल सर्किट वालों ने उन्हें फंसाया और दुबारा शादी करवा दी. उत्तर प्रदेश और बिहार का होने के बावजूद भी इन लोगों की जो औलादें है वे भी इसी दिल्ली की काकटेलजीवी बिरादरी के तरह बात करते पाए जाती हैं .. करीब तीस साल पहले तो यह बीमारी बहुत ही भयानक थी . उस दौर में चिदंबरम की उम्र के लोग यही कोई तीस पैंतीस साल के थे . चिदंबरम का अमरीकी आका को दिया गया बयान उनकी उसी मानसिकता की खुरचन है . इस तरह की बात करने वाले लोग आम तौर पर बिना किसी सोच समझ के ही यह बयान दे देते हैं .उन्हें मालूम नहीं रहता कि दुनिया कितनी बदल गयी है . ऐसे लोग जब पकडे जाते हैं तो कहते हैं कि वह बात तो मैंने निश्चिन्त भाव से की गई किसी बातचीत के दौरान कही थी. इनसे सवाल पूछा जाना चाहिए कि आप जब औपचारिक नहीं होते तो क्या गाली गलौज की भाषा में बात करते हैं . बहरहाल जो बात सबसे ज्यादा संभव लगती है वह यह है कि इस तरह की बातचीत करने वाले किसी बीमारी का शिकार होते हैं और उन्हें मानसिक रोगी मानकर उनकी बात का विश्लेषण किया जाना चाहिए . चिदंबरम के इस गैरज़िम्मेदार बयान पर उन्हें आज संसद के दोनों ही सदनों में लथेरा गया और सरकार को उनकी वजह से खिसियाहट झेलना पड़ा.
उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों को घटिया बताने के पहले इन लोगों को सोचना चाहिए कि इन दो राज्यों का योगदान भारत के राजनीतिक विकास में सबसे ज्यादा है . महात्मा गाँधी भी अंतर राष्ट्रीय स्तर पर सर्वमान्य नेता बनने के पहले चंपारण गए थे .वे राष्ट्रीय स्तर के नेता तभी बने जब उन्हें इस इलाके ने स्वीकार किया . जवाहलाल नेहरू का योगदान भारत की राजनीति में किसी से कम नहीं है. आज देश की सभी बड़ी संस्थाओं में इस इलाके से आये लोगों की भूमिका कम नहीं है. पी चिदंबरम को यह भी याद रखना चाहिए कि वे जिस सामंती मानसिकता में रहते हैं वह कब की ख़त्म हो चुकी है आज जिन लोगों के समर्थन से कांग्रेस सत्ता में हैं उनके पूर्वज दलाल नहीं थे.अंग्रेजों के जी हुजूर नहीं थे और किसी की दी हुई रोटी को तिरस्कार की नज़र से देखते थे , जिन लालू प्रसाद , मायावती, मुलायम सिंह यादव की पार्टियों के कृपा से आज पी चिदंबरम गृह मंत्री हैं , उन लोगों के पूर्वज अपनी मेहनत की कमाई खाते थे और दिल्ली के दलालों के पूर्वज उनके पूर्वजों का शोषण करते थे . इसलिए किसी तरह की गैरजिम्मेदार बात करने के पहले उन्हें अपने इन नए अन्न दाताओं के गुस्से का ध्यान कर लेना चाहिए . अगर चिदंबरम जैसे लोगों को यह औकात बोध रहे तो आने वाले वक़्त में कांग्रेस भी आराम से रहेगी और पी चिदंबरम की बर्खास्तगी की मांग भी नहीं होगी.
Thursday, March 24, 2011
मोरारजी देसाई की पुरातनपंथी सोच से निराश होकर वंचित तबकों ने अपने मंच बनाया
शेष नारायण सिंह
आज से ठीक ३४ साल पहले २४ मार्च १९७७ के दिन मोरारजी देसाई ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी.कांग्रेस की स्थापित सत्ता के खिलाफ जनता ने फैसला सुना दिया था .अजीब इत्तफाक है कि देश के राजनीतिक इतिहास में इतने बड़े परिवर्तन के बाद सत्ता के शीर्ष पर जो आदमी स्थापित किया गया वह पूरी तरह से परिवर्तन का विरोधी था. मोरारजी देसाई तो इंदिरा गाँधी की कसौटी पर भी दकियानूसी विचारधारा के राजनेता थे लेकिन इंदिरा गाँधी की इमरजेंसी की सत्ता से मुक्ति की अभिलाषा ही आम आदमी का लक्ष्य बन चुकी थी इसलिए जो भी मिला उसे स्वीकार कर लिया . कांग्रेस के खिलाफ जनता इतने बड़े पैमाने पर हो गयी थी कि जो भी कांग्रेस के खिलाफ खड़ा हुआ उसको ही नेता मान लिया . कांग्रेस को हराने के बाद जिस जनता पार्टी के नेता के रूप में मोरार्जी देसाई ने सत्ता संभाली थी , चुनाव के दौरान उसका गठन तक नहीं हुआ था. सत्ता मिल जाने के बाद औपचारिक रूप से पहली मई १९७७ के दिन जनता पार्टी का गठन किया गया
कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने की फौरी कारण तो इमरजेंसी की ज्यादतियां थीं .इमरजेंसी में तानाशाही निजाम कायम करके इंदिरा गाँधी ने अपने एक बेरोजगार बेटे को सत्ता थमाने की कोशिश की थी . वह लड़का भी क्या था. दिल्ली में कुछ लफंगा टाइप लोगों से उसने दोस्ती कर रखी थी और इंदिरा गाँधी के शासन काल के में वह पूरी तरह से मनमानी कर रहा था . इमरजेंसी लागू होने के बाद तो वह और भी बेकाबू हो गया . कुछ चापलूस टाइप नेताओं और अफसरों को काबू में करके उसने पूरे देश में मनमानी का राज कायम कर रखा था. इमरजेंसी लगने के पहले तक आमतौर पर माना जाता था कि कांग्रेस पार्टी मुसलमानों और दलितों की भलाई के लिए काम करती थी .हालांकि यह सच्चाई नहीं थी क्योंकि इन वर्गों को बेवक़ूफ़ बनाकर सत्ता में बने रहने का यह एक बहाना मात्र था . इमरजेंसी में दलितों और मुसलमानों के प्रति कांग्रेस का असली रुख सामने आ गया . दोनों ही वर्गों पर खूब अत्याचार हुए . देहरादून के दून स्कूल में कुछ साल बिता चुके इंदिरा गाँधी के उसी बिगडैल बेटे ने पुराने राजा महराजाओं के बेटों को कांग्रेस की मुख्य धारा में ला दिया था जिसकी वजह से कांग्रेस का पुराना स्वरुप पूरी तरह से बदल दिया गया था . अब कांग्रेस ऐलानियाँ सामंतों और उच्च वर्गों की पार्टी बन चुकी थी. ऐसी हालत में दलितों और मुसलमानों ने उत्तर भारत में कांग्रेस से किनारा कर लिया . नतीजा दुनिया जानती है . कांग्रेस उत्तर भारत में पूरी तरह से हार गयी और केंद्र में पहली बार गैरकांग्रेसी सरकार स्थापित हुई .लेकिन सत्ता में आने के पहले ही कांग्रेस के खिलाफ जीत कर आई पार्टियों ने अपनी दलित विरोधी मानसिकता का परिचय दे दिया . जनता पार्टी की जीत के बाद जो नेता चुनाव जीतकर आये उनमें सबसे बुलंद व्यक्तित्व , बाबू जगजीवन राम का था . आम तौर पर माना जा रहा था कि प्रधान मंत्री पद पर उनको ही बैठाया जाएगा लेकिन जयप्रकाश नारायण के साथ कई दौर की बैठकों के बाद यह तय हो गया कि जगजीवन राम को जनता पार्टी ने किनारे कर दिया है, जो सीट उन्हें मिलनी चाहिए थी वह यथास्थितिवादी राजनेता मोरारजी देसाई को दी गयी . इसे उस वक़्त के प्रगतिशील वर्गों ने धोखा माना था . आम तौर पर माना जा रहा था कि एक दलित और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी को प्रधानमंत्री पद पर देख कर सामाजिक परिवर्तन की शक्तियां और सक्रिय हो जायेगीं . जिसका नतीजा यह होता कि सामाजिक परिवर्तन का तूफ़ान चल पड़ता और राजनीतिक आज़ादी का वास्तविक लक्ष्य हासिल कर लिया गया होता . जिन लोगों ने इमरजेंसी के दौरान देश की राजनीतिक स्थिति देखी है उन्हें मालूम है कि बाबू जगजीवन राम के शामिल होने के पहले सभी गैर कांग्रेसी नेता मानकर चल रहे थे कि समय से पहले चुनाव की घोषणा इंदिरा गाँधी ने इस लिए की थी कि उन्हें अपनी जीत का पूरा भरोसा था. विपक्ष की मौजूदगी कहीं थी ही नहीं .जेलों से जो नेता छूट कर आ रहे थे ,वे आराम की बात ही कर रहे थे. ,सबकी हिम्मत खस्ता थी लेकिन ६ फरवरी १९७७ के दिन सब कुछ बदल गया . जब इंदिरा गाँधी की सरकार के मंत्री बाबू जगजीवन राम ने बगावत कर दी . सरकार से इस्तीफ़ा देकर कांग्रेस फार डेमोक्रेसी बना डाली उनके साथ हेमवती नन्दन बहुगुणा और नंदिनी सत्पथी भी थे . उसके बाद तो राजनीतिक तूफ़ान आ गया . इंदिरा गाँधी के खिलाफ आंधी चलने लगी और वे रायबरेली से खुद चुनाव हार गयीं . सबको मालूम था कि १९७७ के चुनाव में दलितों ने पूरी तरह से कांग्रेस के खिलाफ वोट दिया लेकिन जब बाबू जगजीवन राम को प्रधान मंत्री बनाने की बात आई तो सबने कहना शुरू कर दिया कि अभी देश एक दलित को प्रधानमंत्री स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है .मीडिया में भी ऐसे ही लोगों का वर्चस्व था जो यही बात करते रहते थे . और इस तरह एक बड़ी संभावित क्रान्ति को कुचल दिया गया . जनाकांक्षाओं पर मोरारजी देसाई का यथास्थितिवादी बुलडोज़र चल गया . उसके बाद शासक वर्गों के हितों के रक्षक जनहित की बातें भूल कर अपने हितों की साधना में लग गए . जनता पार्टी में आर एस एस के लोग भी भारी संख्या में मौजूद थे . ज़ाहिर है उनकी ज़्यादातर नीतियों का मकसद सामंती सोच वाली सत्ता को स्थापित करना था. जिसकी वजह से जनता पार्टी राजनीतिक विरोधाभासों का पुलिंदा बन गयी और इंदिरा गाँधी की राजनीतिक कुशलता के सामने धराशायी हो गयी . जो सरकार पांच साल के लिए बनाई गयी थी वह दो साल में ही तहस नहस हो गयी .
लेकिन जनता पार्टी की दलित और मुसलमान विरोधी मानसिकता को एक भावी राजनीतिक विचारक ने भांप लिया था. और इन वर्गों को एकजुट करने के काम में जुट गए थे. १९७१ में ही वंचितों के हक के सबसे बड़े पैरोकार, कांशीराम ने दलित ,पिछड़े और अल्पसंख्यक सरकारी कर्मचारियों के हित के लिए काम करना शुरू कर दिया था. सवर्णों के प्रभाव वाली राजनीतिक पार्टियों से किसी को कोई उम्मीद नहीं थी लेकिन जनता पार्टी का जो जनादेश था ,उस से उम्मीद बंधी थी कि शायद उसकी सरकार आम आदमी की पक्षधर सरकार के रूप में काम करे . लेकिन जब उसकी कोई उम्मीद नहीं रह गयी तो डॉ अंबेडकर के महापरिनिर्वन दिवस,६ दिसंबर के दिन १९७८ में दिल्ली के बोट क्लब पर दलित ,पिछड़े और अल्पसंख्यक कर्मचारियों के फेडरेशन का बहुत ही जोर शोर से आयोजन किया गया . बनाया . बामसेफ नाम का यह संगठन वंचित तबक़ों के कर्मचारियों में बहुत ही लोकप्रिय हो गया था . शुरू में तो यह इन वर्गों के कर्मचारियों के शोषण के खिलाफ एक मोर्चे के रूप में काम करता रहा लेकिन बाद में इसी संगठन के अगले क़दम के रूप में दलित शोषित समाज संघर्ष समिति यानी डी एस फोर नाम के संगठन की स्थापना की गई. इस तरह जनता पार्टी के जन्म से जो उम्मीद बंधी उसके निराशा में बदल जाने के बाद दलितों के अधिकारों के संघर्ष का यह मंच सामाजिक बराबरी के इतिहास में मील का एक पत्थर बना. जनता पार्टी जब यथास्थिवाद की बलि चढ़ गयी तो कांशी राम ने सामाजिक बराबरी और वंचित वर्गों के हितों के संगर्ष के लिए एक राजनीतिक मंच की स्थापना की और उसे बहुजन समाज पार्टी का नाम दिया . बाद में यही पार्टी पूरे देश में पुरातनपंथी राजनीतिक और समाजिक् सोच को चुनौती देने के एक मंच में रूप में स्थापित हो गयी. इस तरह हम देखते हैं कि हालांकि मोरारजी देसाई का आज से ठीक ३४ साल पहले सत्ता पर काबिज़ होना देश के राजनीतिक इतिहास में एक कामा की होसियत भी नहीं रखता लेकिन उनका सत्ता में आना सामाजिक बराबरी के संघर्ष के इतिहास में एक अहम मुकाम रखता है
आज से ठीक ३४ साल पहले २४ मार्च १९७७ के दिन मोरारजी देसाई ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी.कांग्रेस की स्थापित सत्ता के खिलाफ जनता ने फैसला सुना दिया था .अजीब इत्तफाक है कि देश के राजनीतिक इतिहास में इतने बड़े परिवर्तन के बाद सत्ता के शीर्ष पर जो आदमी स्थापित किया गया वह पूरी तरह से परिवर्तन का विरोधी था. मोरारजी देसाई तो इंदिरा गाँधी की कसौटी पर भी दकियानूसी विचारधारा के राजनेता थे लेकिन इंदिरा गाँधी की इमरजेंसी की सत्ता से मुक्ति की अभिलाषा ही आम आदमी का लक्ष्य बन चुकी थी इसलिए जो भी मिला उसे स्वीकार कर लिया . कांग्रेस के खिलाफ जनता इतने बड़े पैमाने पर हो गयी थी कि जो भी कांग्रेस के खिलाफ खड़ा हुआ उसको ही नेता मान लिया . कांग्रेस को हराने के बाद जिस जनता पार्टी के नेता के रूप में मोरार्जी देसाई ने सत्ता संभाली थी , चुनाव के दौरान उसका गठन तक नहीं हुआ था. सत्ता मिल जाने के बाद औपचारिक रूप से पहली मई १९७७ के दिन जनता पार्टी का गठन किया गया
कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने की फौरी कारण तो इमरजेंसी की ज्यादतियां थीं .इमरजेंसी में तानाशाही निजाम कायम करके इंदिरा गाँधी ने अपने एक बेरोजगार बेटे को सत्ता थमाने की कोशिश की थी . वह लड़का भी क्या था. दिल्ली में कुछ लफंगा टाइप लोगों से उसने दोस्ती कर रखी थी और इंदिरा गाँधी के शासन काल के में वह पूरी तरह से मनमानी कर रहा था . इमरजेंसी लागू होने के बाद तो वह और भी बेकाबू हो गया . कुछ चापलूस टाइप नेताओं और अफसरों को काबू में करके उसने पूरे देश में मनमानी का राज कायम कर रखा था. इमरजेंसी लगने के पहले तक आमतौर पर माना जाता था कि कांग्रेस पार्टी मुसलमानों और दलितों की भलाई के लिए काम करती थी .हालांकि यह सच्चाई नहीं थी क्योंकि इन वर्गों को बेवक़ूफ़ बनाकर सत्ता में बने रहने का यह एक बहाना मात्र था . इमरजेंसी में दलितों और मुसलमानों के प्रति कांग्रेस का असली रुख सामने आ गया . दोनों ही वर्गों पर खूब अत्याचार हुए . देहरादून के दून स्कूल में कुछ साल बिता चुके इंदिरा गाँधी के उसी बिगडैल बेटे ने पुराने राजा महराजाओं के बेटों को कांग्रेस की मुख्य धारा में ला दिया था जिसकी वजह से कांग्रेस का पुराना स्वरुप पूरी तरह से बदल दिया गया था . अब कांग्रेस ऐलानियाँ सामंतों और उच्च वर्गों की पार्टी बन चुकी थी. ऐसी हालत में दलितों और मुसलमानों ने उत्तर भारत में कांग्रेस से किनारा कर लिया . नतीजा दुनिया जानती है . कांग्रेस उत्तर भारत में पूरी तरह से हार गयी और केंद्र में पहली बार गैरकांग्रेसी सरकार स्थापित हुई .लेकिन सत्ता में आने के पहले ही कांग्रेस के खिलाफ जीत कर आई पार्टियों ने अपनी दलित विरोधी मानसिकता का परिचय दे दिया . जनता पार्टी की जीत के बाद जो नेता चुनाव जीतकर आये उनमें सबसे बुलंद व्यक्तित्व , बाबू जगजीवन राम का था . आम तौर पर माना जा रहा था कि प्रधान मंत्री पद पर उनको ही बैठाया जाएगा लेकिन जयप्रकाश नारायण के साथ कई दौर की बैठकों के बाद यह तय हो गया कि जगजीवन राम को जनता पार्टी ने किनारे कर दिया है, जो सीट उन्हें मिलनी चाहिए थी वह यथास्थितिवादी राजनेता मोरारजी देसाई को दी गयी . इसे उस वक़्त के प्रगतिशील वर्गों ने धोखा माना था . आम तौर पर माना जा रहा था कि एक दलित और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी को प्रधानमंत्री पद पर देख कर सामाजिक परिवर्तन की शक्तियां और सक्रिय हो जायेगीं . जिसका नतीजा यह होता कि सामाजिक परिवर्तन का तूफ़ान चल पड़ता और राजनीतिक आज़ादी का वास्तविक लक्ष्य हासिल कर लिया गया होता . जिन लोगों ने इमरजेंसी के दौरान देश की राजनीतिक स्थिति देखी है उन्हें मालूम है कि बाबू जगजीवन राम के शामिल होने के पहले सभी गैर कांग्रेसी नेता मानकर चल रहे थे कि समय से पहले चुनाव की घोषणा इंदिरा गाँधी ने इस लिए की थी कि उन्हें अपनी जीत का पूरा भरोसा था. विपक्ष की मौजूदगी कहीं थी ही नहीं .जेलों से जो नेता छूट कर आ रहे थे ,वे आराम की बात ही कर रहे थे. ,सबकी हिम्मत खस्ता थी लेकिन ६ फरवरी १९७७ के दिन सब कुछ बदल गया . जब इंदिरा गाँधी की सरकार के मंत्री बाबू जगजीवन राम ने बगावत कर दी . सरकार से इस्तीफ़ा देकर कांग्रेस फार डेमोक्रेसी बना डाली उनके साथ हेमवती नन्दन बहुगुणा और नंदिनी सत्पथी भी थे . उसके बाद तो राजनीतिक तूफ़ान आ गया . इंदिरा गाँधी के खिलाफ आंधी चलने लगी और वे रायबरेली से खुद चुनाव हार गयीं . सबको मालूम था कि १९७७ के चुनाव में दलितों ने पूरी तरह से कांग्रेस के खिलाफ वोट दिया लेकिन जब बाबू जगजीवन राम को प्रधान मंत्री बनाने की बात आई तो सबने कहना शुरू कर दिया कि अभी देश एक दलित को प्रधानमंत्री स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है .मीडिया में भी ऐसे ही लोगों का वर्चस्व था जो यही बात करते रहते थे . और इस तरह एक बड़ी संभावित क्रान्ति को कुचल दिया गया . जनाकांक्षाओं पर मोरारजी देसाई का यथास्थितिवादी बुलडोज़र चल गया . उसके बाद शासक वर्गों के हितों के रक्षक जनहित की बातें भूल कर अपने हितों की साधना में लग गए . जनता पार्टी में आर एस एस के लोग भी भारी संख्या में मौजूद थे . ज़ाहिर है उनकी ज़्यादातर नीतियों का मकसद सामंती सोच वाली सत्ता को स्थापित करना था. जिसकी वजह से जनता पार्टी राजनीतिक विरोधाभासों का पुलिंदा बन गयी और इंदिरा गाँधी की राजनीतिक कुशलता के सामने धराशायी हो गयी . जो सरकार पांच साल के लिए बनाई गयी थी वह दो साल में ही तहस नहस हो गयी .
लेकिन जनता पार्टी की दलित और मुसलमान विरोधी मानसिकता को एक भावी राजनीतिक विचारक ने भांप लिया था. और इन वर्गों को एकजुट करने के काम में जुट गए थे. १९७१ में ही वंचितों के हक के सबसे बड़े पैरोकार, कांशीराम ने दलित ,पिछड़े और अल्पसंख्यक सरकारी कर्मचारियों के हित के लिए काम करना शुरू कर दिया था. सवर्णों के प्रभाव वाली राजनीतिक पार्टियों से किसी को कोई उम्मीद नहीं थी लेकिन जनता पार्टी का जो जनादेश था ,उस से उम्मीद बंधी थी कि शायद उसकी सरकार आम आदमी की पक्षधर सरकार के रूप में काम करे . लेकिन जब उसकी कोई उम्मीद नहीं रह गयी तो डॉ अंबेडकर के महापरिनिर्वन दिवस,६ दिसंबर के दिन १९७८ में दिल्ली के बोट क्लब पर दलित ,पिछड़े और अल्पसंख्यक कर्मचारियों के फेडरेशन का बहुत ही जोर शोर से आयोजन किया गया . बनाया . बामसेफ नाम का यह संगठन वंचित तबक़ों के कर्मचारियों में बहुत ही लोकप्रिय हो गया था . शुरू में तो यह इन वर्गों के कर्मचारियों के शोषण के खिलाफ एक मोर्चे के रूप में काम करता रहा लेकिन बाद में इसी संगठन के अगले क़दम के रूप में दलित शोषित समाज संघर्ष समिति यानी डी एस फोर नाम के संगठन की स्थापना की गई. इस तरह जनता पार्टी के जन्म से जो उम्मीद बंधी उसके निराशा में बदल जाने के बाद दलितों के अधिकारों के संघर्ष का यह मंच सामाजिक बराबरी के इतिहास में मील का एक पत्थर बना. जनता पार्टी जब यथास्थिवाद की बलि चढ़ गयी तो कांशी राम ने सामाजिक बराबरी और वंचित वर्गों के हितों के संगर्ष के लिए एक राजनीतिक मंच की स्थापना की और उसे बहुजन समाज पार्टी का नाम दिया . बाद में यही पार्टी पूरे देश में पुरातनपंथी राजनीतिक और समाजिक् सोच को चुनौती देने के एक मंच में रूप में स्थापित हो गयी. इस तरह हम देखते हैं कि हालांकि मोरारजी देसाई का आज से ठीक ३४ साल पहले सत्ता पर काबिज़ होना देश के राजनीतिक इतिहास में एक कामा की होसियत भी नहीं रखता लेकिन उनका सत्ता में आना सामाजिक बराबरी के संघर्ष के इतिहास में एक अहम मुकाम रखता है
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शेष नारायण सिंह
Monday, March 21, 2011
बाप के पाग न लागल दाग , न माई के दाग लगा अंचरे में
शेष नारायण सिंह
( आलोक तोमर की याद २१ मार्च २०११ )
आलोक तोमर की अंत्येष्टि से लौटा हूँ.मन बहुत ही खिन्न है .आलोक की कलम की ताक़त का लोहा मानने वालों का नाम दिमाग में घूम रहा है . अटल बिहारी वाजपेयी का नाम सबसे पहले मन में आया . अटल जी आलोक के फैन थे. जब मुझे पता चला कि आलोक के लेखन को अटल बिहारी वाजपेयी बहुत पसंद करते हैं तो बहुत उत्सुक हुआ . आलोक तोमर को फिर से पढने की इच्छा हुई . पढ़ा भी . १९६७ में मैं भी अटल बिहारी वाजपेयी का प्रशंसक था . सही बात यह है कि हाई स्कूल के छात्र के रूप में मैंने उनको भाषण करते देखा था . और उनकी शैली को नक़ल करने की कोशिश की थी . बाद में उसी शैली की कृपा से अपने विश्वविद्यालय में एक वक्ता के रूप में नाम मिला. वजीफा मिला और पढाई हो सकी. ज़ाहिर है जिस को भी अटल बिहारी वाजपेयी पसंद कर रहे होगें,उसके बारे में मेरी राय निश्चित रूप से पाजिटिव होगी. उसके बाद से मैंने आलोक तोमर को नियमित रूप से पढ़ना शुरू कर दिया . बाद में पता लगा कि अमिताभ बच्चन ने ज़िंदगी भर में जो सबसे अच्छे गैर फ़िल्मी डायलाग बोले हैं , उनको भी आलोक तोमर ने लिखा था . अमिताभ के बेस्ट फ़िल्मी डायलाग तो खैर जावेद अख्तर ने लिखे थे , ज़ंजीर में भी और शोले में भी . प्रभाष जोशी ने निजी बातचीत में बार बार आलोक तोमर की तारीफ की थी .लिखा भी . प्रभाष जी की मृत्यु के बाद जब कुछ लोगों ने उनकी चावी के भंजन का अभियान चलाया तो आलोक ने अकेले सबसे लोहा लिया .प्रभाष जी के खिलाफ अभद्र टिप्पणी करने वालों को बाकायदा धमकाया लेकिन मैदान नहीं छोड़ा .
बहुत सारी यादें हैं . लेकिन आज जो कुछ देख कर आया हूँ ,उसके बाद हिम्मत हार गया हूँ .. लोदी रोड की श्मसान भूमि में आलोक तोमर के पिता जी को देख कर बहुत तकलीफ हुई . अपना जवान बेटा अगर इंसान के सामने ही गुज़र जाए तो उस से बड़ा कष्ट हो ही नहीं सकता . कुंवर सिंह महाकाव्य की वह पंक्ति याद आ गयी जब बेटे के शहीद होने का वर्णन किया गया है
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. पूत जुझाइ के देस बदे, बुढ़िया-बुढ़वा जहँ बैठल होइहें . जेकर कान्ह कुंआर जुझे उजरी मथुरा अब कौन बसईहें
आज जब मैंने आलोक की बच्ची को उनका अंतिम संस्कार करते देखा तो सिहर गया . जब वह बच्ची घड़े में जल लेकर आलोक के पार्थिव शरीर के चारों ओर परिक्रमा कर रही थी तो लगा कि पक्षाघात हो गया है मुझे. अंतिम क्षणों के अनुष्टान के दौरान जब उनकी पत्नी ने कहा कि आलोक उठ जाओ , तो लगा कि अगर जीवित होते तो अपनी मित्र और पत्नी की बात को ज़रूर पूरा करते. आलोक के बारे में सभी जानते हैं कि वे जिसके भी मित्र थे ,पूरी तरह उसके साथ रहते थे. मुंबई की फ़िल्मी दुनिया के कलाकार ,ओम पुरी आलोक के मित्र थे . जब अपने किसी आचरण की वजह से ओम जी की बहुत बदनामी हुई ,तो भी आलोक उनके साथ रहे , दिलासा दिया और कोशिश की कि उनका कम से कम नुकसान हो .
आलोक के कैंसर के बारे में सबसे पहले मुझे यशवंत सिंह ने बताया था . यशवंत सिंह से आलोक का परिचय ताज़ा था,पुराना नहीं था ,लेकिन वे यशवंत के पक्ष में हमेशा खड़े रहे . मेरे मित्र प्रदीप सिंह और आलोक तोमर ने साथ काम किया था . आलोक तोमर के बारे में कभी कोई सेमिनारनुमा चर्चा तो नहीं हुई लेकिन पिछले बीस-बाईस वर्षों में प्रदीप ने इतनी अच्छी बातें की हैं वे सारी याद आ रही हैं. विश्वनाथ प्रताप सिंह को प्रधानमंत्री बनवाने में मीडिया की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता . उसमें प्रभाष जोशी और जनसत्ता की भी अहम भूमिका थी. आलोक उस टीम के प्रमुख नायक थे . लेकिन जब वी पी सिंह ने उलटे सीधे काम करने शुरू कर दिए तो आलोक ने सबसे पहले लाठी उठायी और फिर तो वी पी सिंह के पतन की पटकथा लिखने का काम शुरू हो गया. अटल जी के करीबी होने के बावजूद जब भी उनकी पार्टी ने कोई गैर ज़िम्मेदार काम किया,आलोक ने उसका पत्रकारीय विश्लेषण ज़रूर किया.
आलोक तोमर को अंतिम विदाई देने गए लोगों में मालवा से आये हिन्दी के वरिष्ठ पत्रकार रवीन्द्र शाह भी थे .जब मैंने बात चीत के दौरान कहा कि अगर आलोक पचास साल में चले गए तो मैं तो ओवरड्यू हो गया हूँ . रवीन्द्र ने कहा कि ऐसा नहीं है . सभी पत्रकारों की शारीरिक उम्र और संघर्ष की उम्र फिक्स रहती है. हम लोगों ने उतना संघर्ष नहीं किया है जितना आलोक तोमर ने किया . उन्होंने कभी भी किसी लड़ाई को टाला नहीं , फ़ौरन निपटा देने में विश्वास करते रहे . इस तरह उनका पूरा जीवन ही संघर्ष को समर्पित था . हम लोग अभी उतना संघर्ष नहीं कर सके हैं ,इसलिए हमारी उम्र अभी बची हुई है . आलोक की संघर्ष और जीवन की उम्र बराबर ही थी . अलविदा आलोक . हम उम्मीद करते हैं कि तुम्हारी पत्नी जो तुम्हारी सबसे करीबी दोस्त भी हैं , अपने को संभाल सकें . हम दुआ करते हैं कि तुम्हारी बेटी भी उतनी ही मज़बूत बने जितने तुम थे .तुम्हारे माता पिता को पता नहीं किस जन्म की गलती के लिए सज़ा मिली है . उन्हने इतनी ताक़त मिले कि एक बहादुर बेटे के मान बाप के रूप में बाकी ज़िन्दगी बिता सकें . मैं तो बहुत मामूली आदमी हूँ लेकिन अगर डेटलाइन इंडिया जारी रहा तो जो कुछ भी लिखूंगा डेटलाइन इंडिया में ज़रूर भेजूंगा, चाहे किसी काम का हो या न हो. अलविदा एक बहादुर पत्रकार
( आलोक तोमर की याद २१ मार्च २०११ )
आलोक तोमर की अंत्येष्टि से लौटा हूँ.मन बहुत ही खिन्न है .आलोक की कलम की ताक़त का लोहा मानने वालों का नाम दिमाग में घूम रहा है . अटल बिहारी वाजपेयी का नाम सबसे पहले मन में आया . अटल जी आलोक के फैन थे. जब मुझे पता चला कि आलोक के लेखन को अटल बिहारी वाजपेयी बहुत पसंद करते हैं तो बहुत उत्सुक हुआ . आलोक तोमर को फिर से पढने की इच्छा हुई . पढ़ा भी . १९६७ में मैं भी अटल बिहारी वाजपेयी का प्रशंसक था . सही बात यह है कि हाई स्कूल के छात्र के रूप में मैंने उनको भाषण करते देखा था . और उनकी शैली को नक़ल करने की कोशिश की थी . बाद में उसी शैली की कृपा से अपने विश्वविद्यालय में एक वक्ता के रूप में नाम मिला. वजीफा मिला और पढाई हो सकी. ज़ाहिर है जिस को भी अटल बिहारी वाजपेयी पसंद कर रहे होगें,उसके बारे में मेरी राय निश्चित रूप से पाजिटिव होगी. उसके बाद से मैंने आलोक तोमर को नियमित रूप से पढ़ना शुरू कर दिया . बाद में पता लगा कि अमिताभ बच्चन ने ज़िंदगी भर में जो सबसे अच्छे गैर फ़िल्मी डायलाग बोले हैं , उनको भी आलोक तोमर ने लिखा था . अमिताभ के बेस्ट फ़िल्मी डायलाग तो खैर जावेद अख्तर ने लिखे थे , ज़ंजीर में भी और शोले में भी . प्रभाष जोशी ने निजी बातचीत में बार बार आलोक तोमर की तारीफ की थी .लिखा भी . प्रभाष जी की मृत्यु के बाद जब कुछ लोगों ने उनकी चावी के भंजन का अभियान चलाया तो आलोक ने अकेले सबसे लोहा लिया .प्रभाष जी के खिलाफ अभद्र टिप्पणी करने वालों को बाकायदा धमकाया लेकिन मैदान नहीं छोड़ा .
बहुत सारी यादें हैं . लेकिन आज जो कुछ देख कर आया हूँ ,उसके बाद हिम्मत हार गया हूँ .. लोदी रोड की श्मसान भूमि में आलोक तोमर के पिता जी को देख कर बहुत तकलीफ हुई . अपना जवान बेटा अगर इंसान के सामने ही गुज़र जाए तो उस से बड़ा कष्ट हो ही नहीं सकता . कुंवर सिंह महाकाव्य की वह पंक्ति याद आ गयी जब बेटे के शहीद होने का वर्णन किया गया है
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. पूत जुझाइ के देस बदे, बुढ़िया-बुढ़वा जहँ बैठल होइहें . जेकर कान्ह कुंआर जुझे उजरी मथुरा अब कौन बसईहें
आज जब मैंने आलोक की बच्ची को उनका अंतिम संस्कार करते देखा तो सिहर गया . जब वह बच्ची घड़े में जल लेकर आलोक के पार्थिव शरीर के चारों ओर परिक्रमा कर रही थी तो लगा कि पक्षाघात हो गया है मुझे. अंतिम क्षणों के अनुष्टान के दौरान जब उनकी पत्नी ने कहा कि आलोक उठ जाओ , तो लगा कि अगर जीवित होते तो अपनी मित्र और पत्नी की बात को ज़रूर पूरा करते. आलोक के बारे में सभी जानते हैं कि वे जिसके भी मित्र थे ,पूरी तरह उसके साथ रहते थे. मुंबई की फ़िल्मी दुनिया के कलाकार ,ओम पुरी आलोक के मित्र थे . जब अपने किसी आचरण की वजह से ओम जी की बहुत बदनामी हुई ,तो भी आलोक उनके साथ रहे , दिलासा दिया और कोशिश की कि उनका कम से कम नुकसान हो .
आलोक के कैंसर के बारे में सबसे पहले मुझे यशवंत सिंह ने बताया था . यशवंत सिंह से आलोक का परिचय ताज़ा था,पुराना नहीं था ,लेकिन वे यशवंत के पक्ष में हमेशा खड़े रहे . मेरे मित्र प्रदीप सिंह और आलोक तोमर ने साथ काम किया था . आलोक तोमर के बारे में कभी कोई सेमिनारनुमा चर्चा तो नहीं हुई लेकिन पिछले बीस-बाईस वर्षों में प्रदीप ने इतनी अच्छी बातें की हैं वे सारी याद आ रही हैं. विश्वनाथ प्रताप सिंह को प्रधानमंत्री बनवाने में मीडिया की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता . उसमें प्रभाष जोशी और जनसत्ता की भी अहम भूमिका थी. आलोक उस टीम के प्रमुख नायक थे . लेकिन जब वी पी सिंह ने उलटे सीधे काम करने शुरू कर दिए तो आलोक ने सबसे पहले लाठी उठायी और फिर तो वी पी सिंह के पतन की पटकथा लिखने का काम शुरू हो गया. अटल जी के करीबी होने के बावजूद जब भी उनकी पार्टी ने कोई गैर ज़िम्मेदार काम किया,आलोक ने उसका पत्रकारीय विश्लेषण ज़रूर किया.
आलोक तोमर को अंतिम विदाई देने गए लोगों में मालवा से आये हिन्दी के वरिष्ठ पत्रकार रवीन्द्र शाह भी थे .जब मैंने बात चीत के दौरान कहा कि अगर आलोक पचास साल में चले गए तो मैं तो ओवरड्यू हो गया हूँ . रवीन्द्र ने कहा कि ऐसा नहीं है . सभी पत्रकारों की शारीरिक उम्र और संघर्ष की उम्र फिक्स रहती है. हम लोगों ने उतना संघर्ष नहीं किया है जितना आलोक तोमर ने किया . उन्होंने कभी भी किसी लड़ाई को टाला नहीं , फ़ौरन निपटा देने में विश्वास करते रहे . इस तरह उनका पूरा जीवन ही संघर्ष को समर्पित था . हम लोग अभी उतना संघर्ष नहीं कर सके हैं ,इसलिए हमारी उम्र अभी बची हुई है . आलोक की संघर्ष और जीवन की उम्र बराबर ही थी . अलविदा आलोक . हम उम्मीद करते हैं कि तुम्हारी पत्नी जो तुम्हारी सबसे करीबी दोस्त भी हैं , अपने को संभाल सकें . हम दुआ करते हैं कि तुम्हारी बेटी भी उतनी ही मज़बूत बने जितने तुम थे .तुम्हारे माता पिता को पता नहीं किस जन्म की गलती के लिए सज़ा मिली है . उन्हने इतनी ताक़त मिले कि एक बहादुर बेटे के मान बाप के रूप में बाकी ज़िन्दगी बिता सकें . मैं तो बहुत मामूली आदमी हूँ लेकिन अगर डेटलाइन इंडिया जारी रहा तो जो कुछ भी लिखूंगा डेटलाइन इंडिया में ज़रूर भेजूंगा, चाहे किसी काम का हो या न हो. अलविदा एक बहादुर पत्रकार
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शेष नारायण सिंह
Sunday, March 20, 2011
कूच करने के लिए पचास साल की भी कोई उम्र होती है
शेष नारायण सिंह
आलोक तोमर चले गए. जाने के लिए भी दिन क्या चुना . ठीक होली के दिन . शायद यह सुनिश्चित करना चाहते रहे होंगें कि बहुत करीबी लोगों के अलावा कोई दुःख न मना ले.आलोक के बारे में आज कुछ भी लिख पाना मुश्किल होगा लेकिन आलोक का नाम लेते ही कुछ यादें आ जाती हैं .
आलोक तोमर ने अपने प्रोफेशनल जीवन में प्रभाषजी से बहुत कुछ सीखा ,इस बात को वे बार बार स्वीकार भी करते रहे. प्रभाष जी से दण्डित होने के बाद भी उन्हें सम्मान देते रहे. लेकिन अपने को हमेशा उनका शिष्य मानते रहे. आलोक मूल रूप से मध्य प्रदेश के भिंड जिले के रहने वाले थे अपने गाँव में लालटेन की रोशनी में अपनी शुरुआती पढाई करते हुए जब उन्हें पत्रकारिता में रूचि बढ़ी तो सबसे ज्यादा वे रविवार के उस वक़्त के विशेष संवाददाता उदयन शर्मा से प्रभावित हुए . बाद में उदयन शर्मा ,रविवार के संपादक भी बने. बहुत नामी पत्रकार हो जाने के बाद एक बार उन्होंने बहुत ही स्नेह से बताया था कि उन्होंने अपने गाँव में अपनी पढाई वाली छप्पर की टाटी के साथ किसी अखबार में छपी उदयन शर्मा की फोटो लगा रखी थी. बाद में जब जनसत्ता में काम करना शुरू किया तो लेखन में वही धार थी जिसके लिए उदयन शर्मा जाने जाते थे .जनसत्ता में रिपोर्टर के रूप में उन्होंने अपनी पहचान बनायी और बाकी जीवन उस पहचान के साथ जीते रहे. जनसत्ता की बुलंदी भारत में हिन्दी पत्रकारिता की बुलंदी भी है . दर असल १९८३ में जनसत्ता अखबार के बाज़ार में आने के बाद भारतीय राजनीति का परिवर्तन चक्र बहुत तेज़ी से घूमा . प्रभाष जोशी ने ढूंढ ढूंढ कर अपने साथ अच्छे लोगों को भर्ती किया . उसी रेले के साथ आलोक तोमर भी आये थे. जनसत्ता ने खूब तरक्की की और उसमें शामिल सभी लोगों ने तरक्की की . तीस साल की उम्र तक पंहुचते पंहुचते ,आलोक तोमर हिन्दी पत्रकारिता में एक स्थापित नाम बन चुके थे .इतने बड़े नाम कि उनके खिलाफ बाकायदा साजिशें रची जाने लगी थीं . राजनीति के तो वे मर्मज्ञ थे ही , साहित्य और सिनेमा के मुद्दों पर भी उनका पत्रकारीय चंचुप्रवेश था . अपने विरोधी को कभी माफ़ नहीं किया आलोक तोमर ने . जब जनसत्ता और आलोक तोमर अपनी बुलंदी पर थे ,तो कुछ लोगों ने साजिशन उन्हें बदनाम करने की कोशिश भी की लेकिन आलोक डटे रहे. वे ब्लैकमेलरों, बलात्कारियों ,जातिवादियों और निक्करधारियों के धुर विरोधी थे . जनसत्ता के बाद आलोक तोमर ने कई नौकरियाँ कीं लेकिन कहीं जमे नहीं . सच्ची बात यह है कि जनसत्ता के बाद कोई भी ऐसा संस्थान उन्हें नहीं मिला जिसकी पहले से ही कोई इज्ज़त हो .एक बार उन्होंने एक बिल्डर के चैनल में प्रमुख का काम संभाल लिया था . वह बेचारा बिल्डर अपने को भाग्यविधाता समझ बैठा था. आलोक तोमर ने उसे ठीक किया और उसे पत्रकारों से तमीज से बात करने की बुनियादी शिक्षा देने का अहम काम किया. प्रभाष जी की मृत्यु के बाद कुछ लोग कुछ लालच के वशीभूत होकर काम करने लगे थे . वेब पत्रकारिता का इस्तेमाल करके आलोक तोमर ने सब से मोर्चा लिया . अगर कोई प्रभाषजी की स्मृति के साथ अपमानजनक भाषा में बात करता था तो उसे दण्डित करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे. एक बार उन्होंने लिखा था कि
."प्रभाष जोशी पर हमला बोलने वाले चिरकुट लफंगों की जमात पर मैंने हमला बोला था और आगे भी अगर प्रभाष जी का अपमान तर्करहित उच्च विचारों द्वारा किया जाएगा तो बोलूंगा। इतना ही नहीं, कोई सामने आ कर बात करेगा और ऐसी ही नीचता और अभद्रता पर उतारू हो जाएगा जैसी इंटरनेट के अगंभीर और अर्धसाक्षर लोग चला रहे हैं तो कनपटी के नीचे झापड़ भी दूंगा। "
इसके बाद बहुत हल्ला गुल्ला हुआ लेकिन लेकिन आलोक जमे रहे. कभी हार नहीं मानी . हार तो उन्होंने कैंसर से भी नहीं मानी ,उसका मजाक उड़ाते रहे. और आखिर में चले गए.आलोक के बहुत सारे शत्रु थे लेकिन उस से ज्यादा उनके मित्र हैं. यहाँ से कूच करने के लिए पचास साल की भी कोई उम्र होती है लेकिन कूच कर गए. अलविदा आलोक
आलोक तोमर चले गए. जाने के लिए भी दिन क्या चुना . ठीक होली के दिन . शायद यह सुनिश्चित करना चाहते रहे होंगें कि बहुत करीबी लोगों के अलावा कोई दुःख न मना ले.आलोक के बारे में आज कुछ भी लिख पाना मुश्किल होगा लेकिन आलोक का नाम लेते ही कुछ यादें आ जाती हैं .
आलोक तोमर ने अपने प्रोफेशनल जीवन में प्रभाषजी से बहुत कुछ सीखा ,इस बात को वे बार बार स्वीकार भी करते रहे. प्रभाष जी से दण्डित होने के बाद भी उन्हें सम्मान देते रहे. लेकिन अपने को हमेशा उनका शिष्य मानते रहे. आलोक मूल रूप से मध्य प्रदेश के भिंड जिले के रहने वाले थे अपने गाँव में लालटेन की रोशनी में अपनी शुरुआती पढाई करते हुए जब उन्हें पत्रकारिता में रूचि बढ़ी तो सबसे ज्यादा वे रविवार के उस वक़्त के विशेष संवाददाता उदयन शर्मा से प्रभावित हुए . बाद में उदयन शर्मा ,रविवार के संपादक भी बने. बहुत नामी पत्रकार हो जाने के बाद एक बार उन्होंने बहुत ही स्नेह से बताया था कि उन्होंने अपने गाँव में अपनी पढाई वाली छप्पर की टाटी के साथ किसी अखबार में छपी उदयन शर्मा की फोटो लगा रखी थी. बाद में जब जनसत्ता में काम करना शुरू किया तो लेखन में वही धार थी जिसके लिए उदयन शर्मा जाने जाते थे .जनसत्ता में रिपोर्टर के रूप में उन्होंने अपनी पहचान बनायी और बाकी जीवन उस पहचान के साथ जीते रहे. जनसत्ता की बुलंदी भारत में हिन्दी पत्रकारिता की बुलंदी भी है . दर असल १९८३ में जनसत्ता अखबार के बाज़ार में आने के बाद भारतीय राजनीति का परिवर्तन चक्र बहुत तेज़ी से घूमा . प्रभाष जोशी ने ढूंढ ढूंढ कर अपने साथ अच्छे लोगों को भर्ती किया . उसी रेले के साथ आलोक तोमर भी आये थे. जनसत्ता ने खूब तरक्की की और उसमें शामिल सभी लोगों ने तरक्की की . तीस साल की उम्र तक पंहुचते पंहुचते ,आलोक तोमर हिन्दी पत्रकारिता में एक स्थापित नाम बन चुके थे .इतने बड़े नाम कि उनके खिलाफ बाकायदा साजिशें रची जाने लगी थीं . राजनीति के तो वे मर्मज्ञ थे ही , साहित्य और सिनेमा के मुद्दों पर भी उनका पत्रकारीय चंचुप्रवेश था . अपने विरोधी को कभी माफ़ नहीं किया आलोक तोमर ने . जब जनसत्ता और आलोक तोमर अपनी बुलंदी पर थे ,तो कुछ लोगों ने साजिशन उन्हें बदनाम करने की कोशिश भी की लेकिन आलोक डटे रहे. वे ब्लैकमेलरों, बलात्कारियों ,जातिवादियों और निक्करधारियों के धुर विरोधी थे . जनसत्ता के बाद आलोक तोमर ने कई नौकरियाँ कीं लेकिन कहीं जमे नहीं . सच्ची बात यह है कि जनसत्ता के बाद कोई भी ऐसा संस्थान उन्हें नहीं मिला जिसकी पहले से ही कोई इज्ज़त हो .एक बार उन्होंने एक बिल्डर के चैनल में प्रमुख का काम संभाल लिया था . वह बेचारा बिल्डर अपने को भाग्यविधाता समझ बैठा था. आलोक तोमर ने उसे ठीक किया और उसे पत्रकारों से तमीज से बात करने की बुनियादी शिक्षा देने का अहम काम किया. प्रभाष जी की मृत्यु के बाद कुछ लोग कुछ लालच के वशीभूत होकर काम करने लगे थे . वेब पत्रकारिता का इस्तेमाल करके आलोक तोमर ने सब से मोर्चा लिया . अगर कोई प्रभाषजी की स्मृति के साथ अपमानजनक भाषा में बात करता था तो उसे दण्डित करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे. एक बार उन्होंने लिखा था कि
."प्रभाष जोशी पर हमला बोलने वाले चिरकुट लफंगों की जमात पर मैंने हमला बोला था और आगे भी अगर प्रभाष जी का अपमान तर्करहित उच्च विचारों द्वारा किया जाएगा तो बोलूंगा। इतना ही नहीं, कोई सामने आ कर बात करेगा और ऐसी ही नीचता और अभद्रता पर उतारू हो जाएगा जैसी इंटरनेट के अगंभीर और अर्धसाक्षर लोग चला रहे हैं तो कनपटी के नीचे झापड़ भी दूंगा। "
इसके बाद बहुत हल्ला गुल्ला हुआ लेकिन लेकिन आलोक जमे रहे. कभी हार नहीं मानी . हार तो उन्होंने कैंसर से भी नहीं मानी ,उसका मजाक उड़ाते रहे. और आखिर में चले गए.आलोक के बहुत सारे शत्रु थे लेकिन उस से ज्यादा उनके मित्र हैं. यहाँ से कूच करने के लिए पचास साल की भी कोई उम्र होती है लेकिन कूच कर गए. अलविदा आलोक
Saturday, March 19, 2011
लाल बुझक्कड़ की दूरदृष्टि और मुंगेरीलाल के हसीन सपने भी शरमा जाएँ इस अदा पर
शेष नारायण सिंह
विकीलीक्स के खुलासों के बाद बीजेपी को एक बार फिर गद्दी नज़र आने लगी थी. पिछले लोक सभा चुनाव में प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार रह चुके लाल कृष्ण आडवाणी ने द हिन्दू अखबार में छपी कुछ ख़बरों के बाद प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह को आदेश दे डाला कि वे लोक सभा में आयें और वहां अपने इस्तीफे की घोषणा करें. आडवाणी जी की यह इच्छा २००४ के लोक सभा चुनाव से ही रह रह कर कुलांचे मारती रही है . जब भी मौक़ा लगता है कि वे डॉ मनमोहन सिंह के इस्तीफे की मांग कर देते हैं . मीडिया में उनकी पार्टी और मालिक संस्था,आर एस एस के बहुत सारे समर्थक मौजूद हैं और यह बात जोर शोर से उछल भी जाती है . लेकिन किसी सरकार के इस्तीफे की याचना करना और उसे गिरा देना दो अलग अलग बातें हैं . बजट सेशन में तो सरकार गिरा देना बहुत ही आसान होता है क्योंकि अगर सरकार के वित्तीय प्रस्तावों पर कटौती प्रस्ताव विपक्ष की ओर से लाये जाएँ और वे स्वीकार हो जाएँ तो सरकार को जाना पड़ता है . अविश्वास प्रस्ताव का रास्ता तो हमेशा ही खुला रहता है . `लेकिन बीजेपी वाले केवल मीडिया का इस्तेमाल करके सरकार की किरकिरी करने के चक्कर में रहते हैं. लेकिन यह बात चलती नहीं है . जिस मुद्दे पर बीजेपी वाले प्रधान मंत्री को घेरने के चक्कर में थे वह पिछली लोकसभा का मामला था. . परमाणु बिल पास कराने के लिए उस वक़्त की यू पी ए सरकार ने एड़ी चोटी का जोर लगाया था. उस दौरान यह चर्चा भी थी कि सरकार ने सांसदों की खरीद फरोख्त की थी. बीजेपी वाले खुद लोक सभा में हज़ार हज़ार के नोटों की गड्डियाँ लेकर आ गए थे और दावा किया था कि यूपीए के सहयोगी और समाजवादी पार्टी के नेता ,अमर सिंह ने वह नोट उनके पास भिजवाये थे, बाद में एक टी वी चैनल ने सारे मामले को स्टिंग का नाम देकर दिखाया भी था लेकिन वह वास्तव में स्टिंग नहीं था क्योंकि वह बीजेपी के साथ मिल कर किया गया एक ड्रामा था. बीजेपी नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने स्वीकार भी किया था कि उनके कहने पर ही उनकी पार्टी के सांसद वह भारे रक़म लेकर लोकसभा में आये थे . सारे मामले की जे पी सी जांच भी हुई थी और जे पी से ने सुझाव दिया था कि मामला गंभीर है लेकिन जे पी सी के पास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि आपराधिक मामलों की जांच कर सके . इसलिए किसी उपयुक्त संस्था से इसकी जांच करवाई जानी चाहिए . जिन लोगों की गहन जांच होनी थी , उसमें बीजेपी के नेता, लाल कृष्ण आडवाणी के विशेष सहायक सुधीन्द्र कुलकर्णी का भी नाम था जे पी सी की जांच के नतीजों के मद्दे नज़र लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष ,सोम नाथ चटर्जी ने आदेश भी दे दिया था कि गृह मंत्रालय को चाहिए कि सारे मामले की जांच करे . लेकिन कहीं कोई जांच नहीं हुई . और अब जब विकीलीक्स के लीक हुए दस्तावेजों में बात एक बार फिर सामने आई तो बीजेपी वालों को फिर गद्दी नज़र आने लगी . नतीजा वही हुआ जो टी वी चैनलों पर पूरे देश ने देखा . आर एस एस के मित्र एंकरों ने जिस हाहाकार के साथ मामले को गरमाने की कोशिश की वह बहुत ही अजीब था. बीजेपी ने भी अपने बहुत तल्ख़- ज़बान प्रवक्ताओं को मैदान में उतारा और मामला बहुत ही मनोरंजक हो गया . लेकिन आज सब कुछ शांत है . इस बात की गंभीर संभावना लगने लगी है कि लाल कृष्ण आडवाणी के तत्कालीन सहायक , सुधीन्द्र कुलकर्णी के ऊपर जांच बैठ जायेगी . ऐसा इसलिए संभव लगता है कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता , सीताराम येचुरी ने आज जोर देकर कहा कि सोमनाथ चटर्जी ने जिस जेपीसी का गठन किया था उसने सुधीन्द्र कुलकर्णी, संजीव सक्सेना और सुहेल हिन्दुस्तानी की गंभीर जांच करने का सुझाव दिया था . यानी अगर यह जाँच होती है तो लाल कृष्ण आडवाणी एक बार फिर शक़ के दायरे में आ जायेगें . . ज़ाहिर है कि बीजेपी ने इसलिए इतना हल्ला गुल्ला नहीं मचाया था कि उनकी जूती उनके ही सर आकर पद जाए . ऊपर से आज अपने जवाब में मनमोहन सिंह ने बीजेपी के सारे मंसूबों पर पानी फेर दिया . उन्होंने sansad के दोनों सदनों को बताया कि विपक्ष का आचरण गैर ज़िम्मेदार है . अमरीकी दूतावास और अमरीकी सरकार के बीच हुए पत्र व्यवहार को महत्व देकर विपक्ष ने एक गलत परंपरा डाली है . उन्होंने बीजेपी को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि यह सारे आरोप पब्लिक डोमेन में हैं . इन पर चर्चा हो चुकी है और 2009 के लोकसभा चुनावों में जनता इन्हें खारिज कर चुकी है .उन चुनावों में कैश फार वोट के तथाकथित स्टिंग में शामिल बीजेपी की सीटें कम हो गयी थीं जबकि कांग्रेस की सीटों की संख्या बढ़ गयी थी . इसलिए जनता ने जिन आरोपों को रिजेक्ट कर दिया है , उनको फिर से चर्चा में laana ठीक नहीं है . संसद होली के अवकाश के लिए बंद रहेगा और अब २२ मार्च को फिर बैठक होगी लेकिन बीजेपी की आतुरता को देखते हुए यह आशंका बनी रहेगी कि पता नहीं sansad का काम यह लोग चलने देगें कि नहीं
विकीलीक्स के खुलासों के बाद बीजेपी को एक बार फिर गद्दी नज़र आने लगी थी. पिछले लोक सभा चुनाव में प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार रह चुके लाल कृष्ण आडवाणी ने द हिन्दू अखबार में छपी कुछ ख़बरों के बाद प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह को आदेश दे डाला कि वे लोक सभा में आयें और वहां अपने इस्तीफे की घोषणा करें. आडवाणी जी की यह इच्छा २००४ के लोक सभा चुनाव से ही रह रह कर कुलांचे मारती रही है . जब भी मौक़ा लगता है कि वे डॉ मनमोहन सिंह के इस्तीफे की मांग कर देते हैं . मीडिया में उनकी पार्टी और मालिक संस्था,आर एस एस के बहुत सारे समर्थक मौजूद हैं और यह बात जोर शोर से उछल भी जाती है . लेकिन किसी सरकार के इस्तीफे की याचना करना और उसे गिरा देना दो अलग अलग बातें हैं . बजट सेशन में तो सरकार गिरा देना बहुत ही आसान होता है क्योंकि अगर सरकार के वित्तीय प्रस्तावों पर कटौती प्रस्ताव विपक्ष की ओर से लाये जाएँ और वे स्वीकार हो जाएँ तो सरकार को जाना पड़ता है . अविश्वास प्रस्ताव का रास्ता तो हमेशा ही खुला रहता है . `लेकिन बीजेपी वाले केवल मीडिया का इस्तेमाल करके सरकार की किरकिरी करने के चक्कर में रहते हैं. लेकिन यह बात चलती नहीं है . जिस मुद्दे पर बीजेपी वाले प्रधान मंत्री को घेरने के चक्कर में थे वह पिछली लोकसभा का मामला था. . परमाणु बिल पास कराने के लिए उस वक़्त की यू पी ए सरकार ने एड़ी चोटी का जोर लगाया था. उस दौरान यह चर्चा भी थी कि सरकार ने सांसदों की खरीद फरोख्त की थी. बीजेपी वाले खुद लोक सभा में हज़ार हज़ार के नोटों की गड्डियाँ लेकर आ गए थे और दावा किया था कि यूपीए के सहयोगी और समाजवादी पार्टी के नेता ,अमर सिंह ने वह नोट उनके पास भिजवाये थे, बाद में एक टी वी चैनल ने सारे मामले को स्टिंग का नाम देकर दिखाया भी था लेकिन वह वास्तव में स्टिंग नहीं था क्योंकि वह बीजेपी के साथ मिल कर किया गया एक ड्रामा था. बीजेपी नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने स्वीकार भी किया था कि उनके कहने पर ही उनकी पार्टी के सांसद वह भारे रक़म लेकर लोकसभा में आये थे . सारे मामले की जे पी सी जांच भी हुई थी और जे पी से ने सुझाव दिया था कि मामला गंभीर है लेकिन जे पी सी के पास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि आपराधिक मामलों की जांच कर सके . इसलिए किसी उपयुक्त संस्था से इसकी जांच करवाई जानी चाहिए . जिन लोगों की गहन जांच होनी थी , उसमें बीजेपी के नेता, लाल कृष्ण आडवाणी के विशेष सहायक सुधीन्द्र कुलकर्णी का भी नाम था जे पी सी की जांच के नतीजों के मद्दे नज़र लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष ,सोम नाथ चटर्जी ने आदेश भी दे दिया था कि गृह मंत्रालय को चाहिए कि सारे मामले की जांच करे . लेकिन कहीं कोई जांच नहीं हुई . और अब जब विकीलीक्स के लीक हुए दस्तावेजों में बात एक बार फिर सामने आई तो बीजेपी वालों को फिर गद्दी नज़र आने लगी . नतीजा वही हुआ जो टी वी चैनलों पर पूरे देश ने देखा . आर एस एस के मित्र एंकरों ने जिस हाहाकार के साथ मामले को गरमाने की कोशिश की वह बहुत ही अजीब था. बीजेपी ने भी अपने बहुत तल्ख़- ज़बान प्रवक्ताओं को मैदान में उतारा और मामला बहुत ही मनोरंजक हो गया . लेकिन आज सब कुछ शांत है . इस बात की गंभीर संभावना लगने लगी है कि लाल कृष्ण आडवाणी के तत्कालीन सहायक , सुधीन्द्र कुलकर्णी के ऊपर जांच बैठ जायेगी . ऐसा इसलिए संभव लगता है कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता , सीताराम येचुरी ने आज जोर देकर कहा कि सोमनाथ चटर्जी ने जिस जेपीसी का गठन किया था उसने सुधीन्द्र कुलकर्णी, संजीव सक्सेना और सुहेल हिन्दुस्तानी की गंभीर जांच करने का सुझाव दिया था . यानी अगर यह जाँच होती है तो लाल कृष्ण आडवाणी एक बार फिर शक़ के दायरे में आ जायेगें . . ज़ाहिर है कि बीजेपी ने इसलिए इतना हल्ला गुल्ला नहीं मचाया था कि उनकी जूती उनके ही सर आकर पद जाए . ऊपर से आज अपने जवाब में मनमोहन सिंह ने बीजेपी के सारे मंसूबों पर पानी फेर दिया . उन्होंने sansad के दोनों सदनों को बताया कि विपक्ष का आचरण गैर ज़िम्मेदार है . अमरीकी दूतावास और अमरीकी सरकार के बीच हुए पत्र व्यवहार को महत्व देकर विपक्ष ने एक गलत परंपरा डाली है . उन्होंने बीजेपी को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि यह सारे आरोप पब्लिक डोमेन में हैं . इन पर चर्चा हो चुकी है और 2009 के लोकसभा चुनावों में जनता इन्हें खारिज कर चुकी है .उन चुनावों में कैश फार वोट के तथाकथित स्टिंग में शामिल बीजेपी की सीटें कम हो गयी थीं जबकि कांग्रेस की सीटों की संख्या बढ़ गयी थी . इसलिए जनता ने जिन आरोपों को रिजेक्ट कर दिया है , उनको फिर से चर्चा में laana ठीक नहीं है . संसद होली के अवकाश के लिए बंद रहेगा और अब २२ मार्च को फिर बैठक होगी लेकिन बीजेपी की आतुरता को देखते हुए यह आशंका बनी रहेगी कि पता नहीं sansad का काम यह लोग चलने देगें कि नहीं
Friday, March 18, 2011
वे समाज जाहिल हैं जहां औरत की इज्ज़त नहीं है
शेष नारायण सिंह
पिछले दिनों नई दिल्ली में एक पत्रकार संगठन के कार्यक्रम में महिलाओं के प्रति समाज के रवैय्ये के बारे में आयोजित चर्चा में शामिल होने का मौक़ा मिला . आम तौर पर महसूस किया गया कि समाज के रूप में औरतों के प्रति हमारा रुख दकियानूसी है और उसको हर हाल में बदलना होगा . इस बहस का असर यह हुआ कि बहुत सारी तस्वीरें दिमाग मे घूमने लगीं जहां औरत को पुरुषों की तुलना में दोयम दर्जे का मना जाता रहा है .जब आर एस एस के कारसेवक अयोध्या में ६ दिसंबर १९९२ के दिन बाबरी मस्जिद को ढहा रहे थे तो वहां बड़ी संख्या में पत्रकार भी मौजूद थे.आज की तरह लाइव टेलीविज़न का ज़माना नहीं था .उन दिनों सबसे ज्यादा विश्वसनीय ख़बरों का सूत्र बी बी सी को ही माना जाता था . बी बी सी के भारत संवाददाता , मार्क टली भी वहां थे . कारसेवकों ने पत्रकारों के साथ भी बहुत ज्यादती की, जिन पत्रकारों को वे आर एस एस का विरोधी मानते थे ,उनके साथ ज्यादा ही अभद्र व्यवहार किया गया . लेकिन सबसे ज्यादा परेशान हमारी साथी पत्रकार रुचिरा गुप्ता को किया गया . बाद में पता चला कि आर एस एस की असहिष्णु सोच में औरत की इज्ज़त करने का कोई प्रावधान नहीं होता . दूसरी बात और भी ज़्यादा अजीब थी . रुचिरा ने ठण्ड से बचने के लिए अपने सिर पर एक तरह की टोपी पहन रखी थी जो आम तौर पर मुसलमान पहनते हैं . अयोध्या में पत्रकारों को पीटने की ड्यूटी कर रहे कारसेवकों ने सोचा कि रुचिरा कोई मुसलमान औरत है . यह सारी बातें बाद में सब को पता चलीं , जब इसकी जांच वगैरह हुई . रुचिरा के साथ औरत होने की वजह से ऐसा आचरण क्यों हुआ ? यह बात उस वक़्त तो राजनीतिशास्त्र के जानकारों का विषय थी लेकिन बाद में यह समाज शास्त्र के विद्वानों की चर्चा का विषय है . रुचिरा गुप्ता को हम बहुत अरसे से जानते हैं ,उनकी ज़िंदगी के इस दुखद पहलू का उल्लेख करके हम बार बार यह सवाल पूछते रहे हैं कि क्यों एक समाज के रूप में हम औरत के प्रति न्याय नहीं कर पाते. भारतीय समाज में औरत के प्रति एक ख़ास सोच की मौजूदगी के लाखों उदाहरण हैं . हर आदमी को ऐसी बहुत सारी कहानियां मालूम होगीं जिन से यह साबित हो जाएगा कि अपने देश और समाज के एक बड़े तबके में औरत को वह जगह नसीब नहीं है जो उसको मिलनी चाहिए . इसके पीछे हमारी वह सोच काम करती है जिसे हमने सैकड़ों वर्षों में एक समाज के रूप में अपनाया है . ऐसे कुछ और उदाहरणों का ज़िक्र किया जाएगा . दिल्ली शहर में प्रगतिशील वामपंथी वर्गों का एक बड़ा समूह है . माना जाता है कि एक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता ,औरत और मर्द के बीच बराबरी के सवाल पर हमेशा प्रगतिशील रुख अपनाता है . लेकिन जब बात अपने घर की होती है तो शायद ऐसा नहीं होता . १९४0 के दशक में दिल्ली के एक प्रगतिशील परिवार के एक नौजवान ने समाज में न्याय की भावना को भरने की गरज से लड़ाई लडी. मुल्क के बँटवारे के वक़्त उसने पाकिस्तान जाने से इनकार कर दिया और इंसानी बिरादरी की एकता में विश्वास करते हुए दिल्ली में ही रहने का फैसला किया , शादी की और 1९४९ में उन्हें एक बेटी पैदा हुई . बेटी को वामपंथी प्रगातिशील सोच की घुट्टी पिलाकर बड़ा किया गया, हमेशा बताया गया कि एक इंसान के रूप में उस लडकी को पूरी आज़ादी है लेकिन जब उस लड़की ने १९७० में अपने मन से शादी कर ली तो अपने इस नौजवान ने , जो अब बाप था ,अपनी बेटी से ही बोलना बंद कर दिया . उत्तर प्रदेश के अवध इलाके में एक लगभग अनपढ़ ज़मींदार के यहाँ १९५५ में बेटी पैदा हुई . उसने अपनी बेटी को प्राइमरी स्कूल के बाद पढने नहीं दिया क्योंकि उसे डर था कि पढ़ लिखकर लडकी सवाल करने लगेगी . १४ साल की उम्र में एक सस्ता लड़का ढूंढ कर उस बच्ची की शादी कर दी , बच्ची के दो बेटे हुए और जब उसकी उम्र २१ साल की थी ,वह विधवा हो गयी. जब ज़मींदार के परिवार वालों ने लडकी के दूसरे विवाह की सलाह दी तो बाबू साहेब ने हंगामा कर दिया और कहा कि अगर लड़का होता तो शायद इस लाइन पर सोचा जा सकता था . लडकी के लिए नहीं .
लोकसभा में ग्रामीण विकास मंत्रालय की बजट मांगों पर बहस के दौरान एक पुराने सरकारी नौकर और मौजूदा सांसद ने विधवा पेंशन के हवाले से औरतों के बारे में अजीब बात कही, जब सदन में मौजूद कुछ महिला सांसदों ने आपत्ति की तो उनको यह कर टालने की कोशिश की कि हमें मालूम है कि आप कहाँ से आई हैं और कहाँ जाने वाली हैं . आमतौर पर इस तरह की टिप्पणी पर हंगामा हो जाता लेकिन इस केस में जिन महिलाओं के खिलाफ टिप्पणी की गयी थी , उनके अलावा कोई कुछ नहीं बोला . सवाल पैदा होता है कि एक समाज के रूप में औरतों के प्रति यह रुख क्यों है . क्या इसमें बदलाव की ज़रुरत है ? अगर बदलाव की ज़रुरत है तो उसकी पहल कहाँ से होनी चाहिये .
सामाजिक परवर्तन के लिए सबसे ज़रूरी राजनीतिक समझदारी होती है ..अगर राजनीति की समझ आधुनिक और प्रगति शील मूल्यों पर आधारित हो तो बहुत कुछ बदल सकता है . एक बार सही राजनीतिक समझ विकसित हो जाए तो संचार माध्यमों की भूमिका शुरू हो जाती है . इसके लिए सबसे ज़रूरी बात यह है राजनीतिक समझ में न्याय और बराबरी को अहम स्थान दिया जाए क्योंकि अगर राजनीति की समझ पुरातनपंथी और पोंगा ज्ञान पर आधारीत होगी तो संचार माध्यमों से उसी का प्रचार हो जाएगा. संचार माध्यमों ने औरत के उसी रूप को आगे बढाया जो पुरुष प्रधान समाज में स्वीकार्य था . शुरू में संचार माध्यमों का सबसे सशक्त माध्यम यात्रियों के वर्णन हुआ करते थे . लेकिन वक़्त की साथ साथ हालात बदल गए हैं .आज संचार माध्यमों का सबसे नया रूप इंटरनेट है. लेकिन सिनेमा और टेलीविज़न आज के समाज को सबसे ज्यादा प्रभावित करते हैं . दुर्भाग्य की बात यह है कि इन दोनों की माध्यमों में औरत को मर्द की मर्जी की कठपुतली या उसके द्वारा डिजाइन किये गए रोल में ही दिखाया जाता है .इसी रोल को टेलिविज़न भी आगे बढाता है . हमारी फिल्मों में महिला एक पूरक रोल में ही पेश की जाती है . वह स्वतंत्र रूप से कहीं नहीं आती . अगर किसी फिल्म में महिला को बहुत आधुनिक दिखाया भी जाता है तो उसे पुरुषों की तरह गालियाँ बकते हुए दिखाया जाता है . यह आधुनिकता नहीं है .टेलिविज़न में भी औरत की साँचाबद्ध तस्वीर को ही प्रमुखता दी जाती है . ज़ाहिर है कि इस सोच का बदलाव ज़रूरी है . अगर ऐसा न हुआ तो समता मूलक समाज की कल्पना करना बहुत मुश्किल होगा .
पिछले दिनों नई दिल्ली में एक पत्रकार संगठन के कार्यक्रम में महिलाओं के प्रति समाज के रवैय्ये के बारे में आयोजित चर्चा में शामिल होने का मौक़ा मिला . आम तौर पर महसूस किया गया कि समाज के रूप में औरतों के प्रति हमारा रुख दकियानूसी है और उसको हर हाल में बदलना होगा . इस बहस का असर यह हुआ कि बहुत सारी तस्वीरें दिमाग मे घूमने लगीं जहां औरत को पुरुषों की तुलना में दोयम दर्जे का मना जाता रहा है .जब आर एस एस के कारसेवक अयोध्या में ६ दिसंबर १९९२ के दिन बाबरी मस्जिद को ढहा रहे थे तो वहां बड़ी संख्या में पत्रकार भी मौजूद थे.आज की तरह लाइव टेलीविज़न का ज़माना नहीं था .उन दिनों सबसे ज्यादा विश्वसनीय ख़बरों का सूत्र बी बी सी को ही माना जाता था . बी बी सी के भारत संवाददाता , मार्क टली भी वहां थे . कारसेवकों ने पत्रकारों के साथ भी बहुत ज्यादती की, जिन पत्रकारों को वे आर एस एस का विरोधी मानते थे ,उनके साथ ज्यादा ही अभद्र व्यवहार किया गया . लेकिन सबसे ज्यादा परेशान हमारी साथी पत्रकार रुचिरा गुप्ता को किया गया . बाद में पता चला कि आर एस एस की असहिष्णु सोच में औरत की इज्ज़त करने का कोई प्रावधान नहीं होता . दूसरी बात और भी ज़्यादा अजीब थी . रुचिरा ने ठण्ड से बचने के लिए अपने सिर पर एक तरह की टोपी पहन रखी थी जो आम तौर पर मुसलमान पहनते हैं . अयोध्या में पत्रकारों को पीटने की ड्यूटी कर रहे कारसेवकों ने सोचा कि रुचिरा कोई मुसलमान औरत है . यह सारी बातें बाद में सब को पता चलीं , जब इसकी जांच वगैरह हुई . रुचिरा के साथ औरत होने की वजह से ऐसा आचरण क्यों हुआ ? यह बात उस वक़्त तो राजनीतिशास्त्र के जानकारों का विषय थी लेकिन बाद में यह समाज शास्त्र के विद्वानों की चर्चा का विषय है . रुचिरा गुप्ता को हम बहुत अरसे से जानते हैं ,उनकी ज़िंदगी के इस दुखद पहलू का उल्लेख करके हम बार बार यह सवाल पूछते रहे हैं कि क्यों एक समाज के रूप में हम औरत के प्रति न्याय नहीं कर पाते. भारतीय समाज में औरत के प्रति एक ख़ास सोच की मौजूदगी के लाखों उदाहरण हैं . हर आदमी को ऐसी बहुत सारी कहानियां मालूम होगीं जिन से यह साबित हो जाएगा कि अपने देश और समाज के एक बड़े तबके में औरत को वह जगह नसीब नहीं है जो उसको मिलनी चाहिए . इसके पीछे हमारी वह सोच काम करती है जिसे हमने सैकड़ों वर्षों में एक समाज के रूप में अपनाया है . ऐसे कुछ और उदाहरणों का ज़िक्र किया जाएगा . दिल्ली शहर में प्रगतिशील वामपंथी वर्गों का एक बड़ा समूह है . माना जाता है कि एक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता ,औरत और मर्द के बीच बराबरी के सवाल पर हमेशा प्रगतिशील रुख अपनाता है . लेकिन जब बात अपने घर की होती है तो शायद ऐसा नहीं होता . १९४0 के दशक में दिल्ली के एक प्रगतिशील परिवार के एक नौजवान ने समाज में न्याय की भावना को भरने की गरज से लड़ाई लडी. मुल्क के बँटवारे के वक़्त उसने पाकिस्तान जाने से इनकार कर दिया और इंसानी बिरादरी की एकता में विश्वास करते हुए दिल्ली में ही रहने का फैसला किया , शादी की और 1९४९ में उन्हें एक बेटी पैदा हुई . बेटी को वामपंथी प्रगातिशील सोच की घुट्टी पिलाकर बड़ा किया गया, हमेशा बताया गया कि एक इंसान के रूप में उस लडकी को पूरी आज़ादी है लेकिन जब उस लड़की ने १९७० में अपने मन से शादी कर ली तो अपने इस नौजवान ने , जो अब बाप था ,अपनी बेटी से ही बोलना बंद कर दिया . उत्तर प्रदेश के अवध इलाके में एक लगभग अनपढ़ ज़मींदार के यहाँ १९५५ में बेटी पैदा हुई . उसने अपनी बेटी को प्राइमरी स्कूल के बाद पढने नहीं दिया क्योंकि उसे डर था कि पढ़ लिखकर लडकी सवाल करने लगेगी . १४ साल की उम्र में एक सस्ता लड़का ढूंढ कर उस बच्ची की शादी कर दी , बच्ची के दो बेटे हुए और जब उसकी उम्र २१ साल की थी ,वह विधवा हो गयी. जब ज़मींदार के परिवार वालों ने लडकी के दूसरे विवाह की सलाह दी तो बाबू साहेब ने हंगामा कर दिया और कहा कि अगर लड़का होता तो शायद इस लाइन पर सोचा जा सकता था . लडकी के लिए नहीं .
लोकसभा में ग्रामीण विकास मंत्रालय की बजट मांगों पर बहस के दौरान एक पुराने सरकारी नौकर और मौजूदा सांसद ने विधवा पेंशन के हवाले से औरतों के बारे में अजीब बात कही, जब सदन में मौजूद कुछ महिला सांसदों ने आपत्ति की तो उनको यह कर टालने की कोशिश की कि हमें मालूम है कि आप कहाँ से आई हैं और कहाँ जाने वाली हैं . आमतौर पर इस तरह की टिप्पणी पर हंगामा हो जाता लेकिन इस केस में जिन महिलाओं के खिलाफ टिप्पणी की गयी थी , उनके अलावा कोई कुछ नहीं बोला . सवाल पैदा होता है कि एक समाज के रूप में औरतों के प्रति यह रुख क्यों है . क्या इसमें बदलाव की ज़रुरत है ? अगर बदलाव की ज़रुरत है तो उसकी पहल कहाँ से होनी चाहिये .
सामाजिक परवर्तन के लिए सबसे ज़रूरी राजनीतिक समझदारी होती है ..अगर राजनीति की समझ आधुनिक और प्रगति शील मूल्यों पर आधारित हो तो बहुत कुछ बदल सकता है . एक बार सही राजनीतिक समझ विकसित हो जाए तो संचार माध्यमों की भूमिका शुरू हो जाती है . इसके लिए सबसे ज़रूरी बात यह है राजनीतिक समझ में न्याय और बराबरी को अहम स्थान दिया जाए क्योंकि अगर राजनीति की समझ पुरातनपंथी और पोंगा ज्ञान पर आधारीत होगी तो संचार माध्यमों से उसी का प्रचार हो जाएगा. संचार माध्यमों ने औरत के उसी रूप को आगे बढाया जो पुरुष प्रधान समाज में स्वीकार्य था . शुरू में संचार माध्यमों का सबसे सशक्त माध्यम यात्रियों के वर्णन हुआ करते थे . लेकिन वक़्त की साथ साथ हालात बदल गए हैं .आज संचार माध्यमों का सबसे नया रूप इंटरनेट है. लेकिन सिनेमा और टेलीविज़न आज के समाज को सबसे ज्यादा प्रभावित करते हैं . दुर्भाग्य की बात यह है कि इन दोनों की माध्यमों में औरत को मर्द की मर्जी की कठपुतली या उसके द्वारा डिजाइन किये गए रोल में ही दिखाया जाता है .इसी रोल को टेलिविज़न भी आगे बढाता है . हमारी फिल्मों में महिला एक पूरक रोल में ही पेश की जाती है . वह स्वतंत्र रूप से कहीं नहीं आती . अगर किसी फिल्म में महिला को बहुत आधुनिक दिखाया भी जाता है तो उसे पुरुषों की तरह गालियाँ बकते हुए दिखाया जाता है . यह आधुनिकता नहीं है .टेलिविज़न में भी औरत की साँचाबद्ध तस्वीर को ही प्रमुखता दी जाती है . ज़ाहिर है कि इस सोच का बदलाव ज़रूरी है . अगर ऐसा न हुआ तो समता मूलक समाज की कल्पना करना बहुत मुश्किल होगा .
Wednesday, March 16, 2011
विकीलीक्स का सही इस्तेमाल किया गया तो देश की राजनीति का बहुत भला होगा
शेष नारायण सिंह
सूचना क्रान्ति को इस्तेमाल करके जनपक्षधरता के एक बड़े पैरोकार के रूप में विकीलीक्स ने इतिहास में अपनी जगह बना ली है . विकीलीक्स के संस्थापक ,जूलियन असांज के काम को पूरी दुनिया में सराहा जा रहा है . यह अलग बात है कि अब अमरीकी शासक वर्गों को उनका काम पसंद नहीं आ रहा है और उनके खिलाफ तरह तरह के मुक़दमे भी किये जा रहे हैं . अमरीकी कूटनीति की खासी दुर्दशा भी हो रही है . अमरीकी राजनीति की वे बातें भी पब्लिक डोमेन में आ रही हैं जो आम तौर पर गुप्त रखी जाती हैं . उन बातों को कहने के लिए कूटनीतिक भाषा का इस्तेमाल किया जाता है जिसका आम तौर पर कुछ् मतलब नहीं होता . एक ही बयान के तरह तरह के अर्थ निकाले जाते हैं और यह प्रक्रिया बहुत दिनों तक चलती रहती है . मनमोहन सिंह की सरकार में अमरीका परस्त त मंत्रियों की तैनाती की सूचना को जिस कच्ची भाषा में भारत में तैनात अमरीकी राजदूत ने वाशिंगटन को दिया था ,उसके चलते नई दिल्ली के कई मंत्रियों के चेहरे से नकाब उठ गया है. अब सबको पता है कि मुरली देवड़ा क्यों मंत्री बने थे और मणि शंकर ऐय्यर को क्यों पैदल किया गया था. दोनों का कारण एक ही था. सरकार के बनने में अमरीका की मर्जी चल रही थी. कभी इस देश की राजनीति में अमरीका विरोधी होना स्टेटस सिम्बल माना जाता था. सत्ता में आने के बाद इंदिरा गाँधी ने अमरीका विरोध को अपनी विदेश नीति और राजनीति का स्थायी भाव बना दिया था . दो खेमों में बंटी दुनिया में अमरीका और रूस के बीच वर्चस्व की लड़ाई चलती रहती थी . इंदिरा गाँधी का दुर्भाग्य था कि उनके पास कुछ ऐसे मौक़ापरस्त और फैशनेबुल लोग इकठ्ठा हो गए थे जो कभी बायें बाजू की छात्र राजनीति में रह चुके थे . बाद में वे खिसक कर कांग्रेस में शामिल हो गए थे . जब इंदिरा गाँधी ने प्रधानमंत्री पद हासिल किया तो यह लोग उनके साथ लग लिए और रूस छाप कम्युनिज्म के आधार पर राजनीतिक सलाह देने लगे . इसके बहुत सारे घाटे हुए लेकिन एक फ़ायदा भी हुआ.फायदा यह हुआ कि भारत की सरकार अमरीकी हित साधन का माध्यम नहीं बनीं. यह राजनीति १९९१ तक चली लेकिन सोवियत रूस के ढहने के बाद जब पी वी नरसिम्हाराव देश के प्रधान मंत्री बने तो उन्होंने ऐलानियाँ अमरीका की पक्षधरता की कूटनीति की बुनियाद डाल दी. आर्थिक रूप से अपने मुल्क में पूरी तरह से अमरीकी हितों को आगे बढाने का काम शुरू हो गया. पी वी नरसिम्हाराव के वित्तमंत्री के रूप में डॉ मनमोहन सिंह ने अमरीकी हितों का पूरा ध्यान रखा और भारत के राष्ट्रीय हित को अमरीकी फायदों से जोड़ने में प्रमुख भूमिका निभाई . बाद में जब अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार बनी तो भारतीय विदेशनीति की छवि अमरीकी हुक्म के गुलाम की बन गयी. अमरीकी विदेश विभाग के एक मझोले दर्जे के अफसर को पटाने के लिए भारत के विदेश मंत्री बिछ बिछ जाते थे.उसको लेकर अपने गाँव भी गए और हर तरह से राजपूताने की चापलूसी वाली परंपरा के हिसाब से उसका स्वागत सत्कार किया . हालांकि यह विदेश मंत्री महोदय दावा करते थे कि उनके पूर्वज महान थे और वे राजपूताने की गौरवशाली परंपरा के प्रतिनिधि थे लेकिन इन श्रीमान जी ने चापलूसी वाला रास्ता ही अपनाया . बाद में उस अफसर ने जब एक किताब लिखी तो भारतीय विदेश मंत्री की छवि की खासी छीछालेदर की.वाजपेयी जी के बाद डॉ मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने जिनकी अमरीका के प्रति मुहब्बत किसी से छुपी नहीं है . इस पृष्ठभूमि में नई दिल्ली में तैनात अमरीकी राजदूत के तार को देखने से तस्वीर साफ़ हो जाती है .अमरीकी राजदूत का यह दावा कि मनमोहन सिंह की सरकार में अमरीका के कई दोस्तों को जगह दी गयी है ,भारतीय राजनीति की दुखती रग पर हाथ रख देता है . साथ ही यह भी साफ़ हो जाता है कि अमरीका विरोध की राजनीति अब इतिहास की बात है , भारत में अमरीका परस्ती पूरी तरह से घर बना चुकी है . इस तार के अलावा भी बहुत सारी सूचनाओं को सार्वजनिक करके विकीलीक्स ने पारदर्शिता का निजाम कायम करने की दिशा में पहला क़दम उठा दिया है . राष्ट्रीय अखबार " द हिन्दू " ने इन तारों को सिलसिलेवार छापकर भारतीय राजनीति के ऊपर बहुत उपकार किया है . एक तार में अमरीकी राजदूत ने सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी की कार्यशैली का विश्लेषण किया है . अगर कांग्रेस का आला नेतृत्व इस तार को ध्यान में रख कर आगे की रणनीति बनाए तो उसकी राजनीति को सही ढर्रे पर लाया जा सकता है . जो बात सारे देश को मालूम है वह अमरीकी राजदूत के तार में स्पष्ट तरीके से लिख दी गयी है . जनवरी २००६ के एक तार में अमरीकी राजदूत ने अपनी सरकार को सूचित किया है कि कांग्रेस की एलीट लीडरशिप हिन्दी बेल्ट के ग्रामीण इलाकों में जाकर आम आदमी से कोई भी संपर्क बनाने की कोशिश नहीं करती .इस एलीट लीडरशिप में सोनिया गांधी और उनके बच्चे भी शामिल हैं . तार में लिखा है पूरी कांग्रेस राजनीति सोनिया गाँधी के करिश्मा के आधार पर सत्ता में बने रहने की राजनीति को प्रमुखता देती है . सोनिया गांधी के आस पास जमी हुई कोटरी को भरोसा है कि अगर वे मैडम की नज़र में ठीक हैं तो किसी की भी इज्ज़त उतारने का उन्हें लाइसेंस मिला हुआ है . पार्टी के नंबर एक परिवार के अलावा बाकी लोग एक दूसरे की टांगखिंचाई और निंदा अभियान में मशगूल रहते हैं . इसी तार में कांग्रेस के २२ जनवरी २००६ के हैदराबाद अधिवेशन का भी ज़िक्र है जब वहां जुटे करीब दस हज़ार कांग्रेसियों में से बहुत बड़ी संख्या में लोगों ने हल्ला मचाना शुरू कर दिया कि राहुल गांधी को मंच पर बैठाया जाए. ज़ाहिर है उन कांग्रेसियों के दिमाग में रहा होगा कि अगर राहुल गांधी की बात की जायेगी तो मैडम को खुशी होगी. इस तरह विकीलीक्स के दस्तावजों में बहुत सारी सूचना पब्लिक डोमेन में आई है अगर उसका सही इस्तेमाल किया गया तो देश की राजनीति का बहुत भला होगा
सूचना क्रान्ति को इस्तेमाल करके जनपक्षधरता के एक बड़े पैरोकार के रूप में विकीलीक्स ने इतिहास में अपनी जगह बना ली है . विकीलीक्स के संस्थापक ,जूलियन असांज के काम को पूरी दुनिया में सराहा जा रहा है . यह अलग बात है कि अब अमरीकी शासक वर्गों को उनका काम पसंद नहीं आ रहा है और उनके खिलाफ तरह तरह के मुक़दमे भी किये जा रहे हैं . अमरीकी कूटनीति की खासी दुर्दशा भी हो रही है . अमरीकी राजनीति की वे बातें भी पब्लिक डोमेन में आ रही हैं जो आम तौर पर गुप्त रखी जाती हैं . उन बातों को कहने के लिए कूटनीतिक भाषा का इस्तेमाल किया जाता है जिसका आम तौर पर कुछ् मतलब नहीं होता . एक ही बयान के तरह तरह के अर्थ निकाले जाते हैं और यह प्रक्रिया बहुत दिनों तक चलती रहती है . मनमोहन सिंह की सरकार में अमरीका परस्त त मंत्रियों की तैनाती की सूचना को जिस कच्ची भाषा में भारत में तैनात अमरीकी राजदूत ने वाशिंगटन को दिया था ,उसके चलते नई दिल्ली के कई मंत्रियों के चेहरे से नकाब उठ गया है. अब सबको पता है कि मुरली देवड़ा क्यों मंत्री बने थे और मणि शंकर ऐय्यर को क्यों पैदल किया गया था. दोनों का कारण एक ही था. सरकार के बनने में अमरीका की मर्जी चल रही थी. कभी इस देश की राजनीति में अमरीका विरोधी होना स्टेटस सिम्बल माना जाता था. सत्ता में आने के बाद इंदिरा गाँधी ने अमरीका विरोध को अपनी विदेश नीति और राजनीति का स्थायी भाव बना दिया था . दो खेमों में बंटी दुनिया में अमरीका और रूस के बीच वर्चस्व की लड़ाई चलती रहती थी . इंदिरा गाँधी का दुर्भाग्य था कि उनके पास कुछ ऐसे मौक़ापरस्त और फैशनेबुल लोग इकठ्ठा हो गए थे जो कभी बायें बाजू की छात्र राजनीति में रह चुके थे . बाद में वे खिसक कर कांग्रेस में शामिल हो गए थे . जब इंदिरा गाँधी ने प्रधानमंत्री पद हासिल किया तो यह लोग उनके साथ लग लिए और रूस छाप कम्युनिज्म के आधार पर राजनीतिक सलाह देने लगे . इसके बहुत सारे घाटे हुए लेकिन एक फ़ायदा भी हुआ.फायदा यह हुआ कि भारत की सरकार अमरीकी हित साधन का माध्यम नहीं बनीं. यह राजनीति १९९१ तक चली लेकिन सोवियत रूस के ढहने के बाद जब पी वी नरसिम्हाराव देश के प्रधान मंत्री बने तो उन्होंने ऐलानियाँ अमरीका की पक्षधरता की कूटनीति की बुनियाद डाल दी. आर्थिक रूप से अपने मुल्क में पूरी तरह से अमरीकी हितों को आगे बढाने का काम शुरू हो गया. पी वी नरसिम्हाराव के वित्तमंत्री के रूप में डॉ मनमोहन सिंह ने अमरीकी हितों का पूरा ध्यान रखा और भारत के राष्ट्रीय हित को अमरीकी फायदों से जोड़ने में प्रमुख भूमिका निभाई . बाद में जब अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार बनी तो भारतीय विदेशनीति की छवि अमरीकी हुक्म के गुलाम की बन गयी. अमरीकी विदेश विभाग के एक मझोले दर्जे के अफसर को पटाने के लिए भारत के विदेश मंत्री बिछ बिछ जाते थे.उसको लेकर अपने गाँव भी गए और हर तरह से राजपूताने की चापलूसी वाली परंपरा के हिसाब से उसका स्वागत सत्कार किया . हालांकि यह विदेश मंत्री महोदय दावा करते थे कि उनके पूर्वज महान थे और वे राजपूताने की गौरवशाली परंपरा के प्रतिनिधि थे लेकिन इन श्रीमान जी ने चापलूसी वाला रास्ता ही अपनाया . बाद में उस अफसर ने जब एक किताब लिखी तो भारतीय विदेश मंत्री की छवि की खासी छीछालेदर की.वाजपेयी जी के बाद डॉ मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने जिनकी अमरीका के प्रति मुहब्बत किसी से छुपी नहीं है . इस पृष्ठभूमि में नई दिल्ली में तैनात अमरीकी राजदूत के तार को देखने से तस्वीर साफ़ हो जाती है .अमरीकी राजदूत का यह दावा कि मनमोहन सिंह की सरकार में अमरीका के कई दोस्तों को जगह दी गयी है ,भारतीय राजनीति की दुखती रग पर हाथ रख देता है . साथ ही यह भी साफ़ हो जाता है कि अमरीका विरोध की राजनीति अब इतिहास की बात है , भारत में अमरीका परस्ती पूरी तरह से घर बना चुकी है . इस तार के अलावा भी बहुत सारी सूचनाओं को सार्वजनिक करके विकीलीक्स ने पारदर्शिता का निजाम कायम करने की दिशा में पहला क़दम उठा दिया है . राष्ट्रीय अखबार " द हिन्दू " ने इन तारों को सिलसिलेवार छापकर भारतीय राजनीति के ऊपर बहुत उपकार किया है . एक तार में अमरीकी राजदूत ने सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी की कार्यशैली का विश्लेषण किया है . अगर कांग्रेस का आला नेतृत्व इस तार को ध्यान में रख कर आगे की रणनीति बनाए तो उसकी राजनीति को सही ढर्रे पर लाया जा सकता है . जो बात सारे देश को मालूम है वह अमरीकी राजदूत के तार में स्पष्ट तरीके से लिख दी गयी है . जनवरी २००६ के एक तार में अमरीकी राजदूत ने अपनी सरकार को सूचित किया है कि कांग्रेस की एलीट लीडरशिप हिन्दी बेल्ट के ग्रामीण इलाकों में जाकर आम आदमी से कोई भी संपर्क बनाने की कोशिश नहीं करती .इस एलीट लीडरशिप में सोनिया गांधी और उनके बच्चे भी शामिल हैं . तार में लिखा है पूरी कांग्रेस राजनीति सोनिया गाँधी के करिश्मा के आधार पर सत्ता में बने रहने की राजनीति को प्रमुखता देती है . सोनिया गांधी के आस पास जमी हुई कोटरी को भरोसा है कि अगर वे मैडम की नज़र में ठीक हैं तो किसी की भी इज्ज़त उतारने का उन्हें लाइसेंस मिला हुआ है . पार्टी के नंबर एक परिवार के अलावा बाकी लोग एक दूसरे की टांगखिंचाई और निंदा अभियान में मशगूल रहते हैं . इसी तार में कांग्रेस के २२ जनवरी २००६ के हैदराबाद अधिवेशन का भी ज़िक्र है जब वहां जुटे करीब दस हज़ार कांग्रेसियों में से बहुत बड़ी संख्या में लोगों ने हल्ला मचाना शुरू कर दिया कि राहुल गांधी को मंच पर बैठाया जाए. ज़ाहिर है उन कांग्रेसियों के दिमाग में रहा होगा कि अगर राहुल गांधी की बात की जायेगी तो मैडम को खुशी होगी. इस तरह विकीलीक्स के दस्तावजों में बहुत सारी सूचना पब्लिक डोमेन में आई है अगर उसका सही इस्तेमाल किया गया तो देश की राजनीति का बहुत भला होगा
Tuesday, March 15, 2011
दो तिहाई दलित बच्चे दसवीं क्लास के पहले ही स्कूल छोड़ने को मजबूर हो जाते हैं .
शेष नारायण सिंह
दलितों को शिक्षित करने की दिशा में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी को केंद्र सरकार ने स्वीकार कर लिया है .संविधान में व्यवस्था है कि दलित भारतीयों के लिए सकारात्मक हस्तक्षेप के ज़रिये समता मूलक समाज की स्थापना की जायेगी. उसके लिए १९५० में संविधान के लागू होने के साथ ही यह सुनिश्व्चित कर दिया गया था कि राजनीतिक नेतृत्व अगर दलितों के विकास के लिए कोई योजनायें बनाना चाहे तो उसमें किसी तरह की कानूनी अड़चन न आये . लेकिन संविधान लागू होने के ६० साल बाद भी अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को शिक्षा के क्षेत्र में बाकी लोगों के बराबर करने के लिए कोई प्रभावी क़दम नहीं उठाया गया है . सबको मालूम है कि सामाजिक परिवर्तन का सबसे बड़ा हथियार शिक्षा ही है . जिन समाजों में भी बराबरी का माहौल बना है उसमें दलित और शोषित वर्गों को शिक्षित करना सबसे बड़ा हथियार रहा है लेकिन भारत सरकार और मुख्य रूप से केंद्र की सत्ता में रही कांग्रेस सरकार ने दलितों को शिक्षा के क्षेत्र में ऊपर उठाने की दिशा में कोई राजनीतिक क़दम नहीं उठाया है . उनकी जो भी कोशिश रही है वह केवल खानापूर्ति की रही है . ऐसा लगता है कि १९५० से अब तक कांग्रेस ने दलितों को वोट देने की मशीन से ज्यादा कुछ नहीं समझा . शायद इसीलिये दलितों के वैकल्पिक राजनीतिक नेतृत्व के विकास की आवश्यकता समझी गयी और कुछ हद तक यह काम संभव भी हुआ. दक्षिण में तो यह राजनीतिक नेतृत्व आज़ादी के करीब २० साल बाद ही प्रभावी होने लगा था लेकिन उत्तर में अभी यह बहुत कमज़ोर है . उत्तर प्रदेश में एक विकल्प उभर रहा है लेकिन उसमें भी शासक वर्गों की सामंती सोच के आधार पर ही दलितों के विकास की राजनीति की जा रही है क्योंकि नौकरशाही पर अभी निहित स्वार्थ ही हावी हैं . कई बार तो ऐसा लगता है कि राजनीतिक पार्टियां जब भी दलितों के विकास के लिए कोई काम करती हैं तो यह उम्मीद करती हैं कि दलितों के हित के बारे में सोचने वाली जमातें उनका एहसान मानें . कारण जो भी हों दलितों को शक्तिशाली बनाने के लिए जो सबसे ज़रूरी हथियार शिक्षा का है उस तक अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की पंहुच अभी सीमित है . पिछले हफ्ते लोकसभा में एक सवाल के जवाब में बताया गया कि स्कूलों में पहली से दसवीं क्लास तक की पढाई करने जाने वाले अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के बच्चों की कुल संख्या में से बहुत बड़ी तादाद में बच्चे पढाई बीच में ही छोड़ देते हैं . यह आंकड़े हैरतअंगेज़ हैं और हमारे राजनीतिक नेताओं की नीयत पर ही सवाल उठा देते हैं . सरकारी तौर पर बताया गया है कि दसवीं तक की शिक्षा पूरी करने के पहले अनुसूचित जातियों के बच्चों का ड्राप रेट डरावना है . २००६-०७ में करीब ६९ प्रतिशत अनुसूचित जातियों के बच्चों ने पढाई छोड़ दी थी. जबकि २००८-०९ में इस वर्ग के ६६.५६ प्रतिशत बच्चों ने स्कूल जाना बंद कर दिया था . अनुसूचित जनजातियों के सन्दर्भ में यह आंकड़े और भी अधिक चिंताजनक हैं . २००६-०७ में अनुसूचित जनजातियों के ७८ प्रतिशत से ज्यादा बच्चों ने स्कूल छोड़ दिया था जबकि २००८-०८ में यह ड्राप रेट २ प्रतिशत नीचे जाकर लगभग ७६ प्रतिशत रह गया था. यह आंकड़े बहुत ही निराशा पैदा करते हैं . अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के बच्चों की इतनी बड़ी संख्या का बीच में ही स्कूल छोड़ देना बहुत ही खराब बात है . ज़ाहिर है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और नौकरशाही के बे परवाह रवैय्ये के कारण ही यह हालात पैदा हुए हैं और इन पर फ़ौरन रोक लागने की ज़रुरत है .
केंद्र सरकार के उच्च शिक्षा विभाग की ओर से सरकारी तौर पर दिए गए इन आंकड़ों में कांग्रेस की अगुवाई वाली केंद्र सरकार की कई नीतियों का उल्लेख किया गया है और बताया गया है कि इन नीतियों के कारण दलितों के शैक्षिक विकास को रफ़्तार मिलेगी . सरकार ने दावा किया है कि सर्व शिक्षा अभियान नाम की जो योजना है वह समता मूलक समाज की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी .लोकसभा को सरकार ने बताया कि सर्व शिक्षा अभियान ने समानता आधारित दृष्टिकोण अपनाया है जो शैक्षिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों तथा समाज के लाभवंचित वर्गों की आवश्यकताओं पर ध्यान केन्द्रित करता है ..समाज के लाभवंचित वर्गों की शिक्षा सम्बंधित सरोकार ,सर्व शिक्षा अभियान योजना में अन्तर्निहित है.. यह सरकारी भाषा है जिसमें बिना कोई भी पक्की बात बताये सच्चाई को कवर कर दिया जाता है . लेकिन सच्चाई यह है कि सर्व शिक्षा अभियान का जो मौजूदा स्वरुप है वह पूरी तरह से राज्यों में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को आर्थिक लाभ पंहुचाने की योजना बन कर रह गया है . सरकार ने दावा किया है कि निःशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम २००९ ,सर्व शिक्षा आभियान , मध्याह्न भोजन योजना ,कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय योजना ,राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान का उद्देश्य स्कूलों में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों श्रेणियों के छात्रों सहित सभी वर्ग के छात्रों के नामांकन में वृद्धि करवाना है . सरकारी भाषा में कही गयी इस बात में लगभग घोषित कर दिया गया है कि दलित बच्चों का स्कूलों में नामांकन करवाना ही सरकार का उद्देश्य है .उनकी पढाई को पूरा करवाने के लिए सरकार कोई भी उपाय नहीं करना चाहती .ज़मीनी सच्चाई यह है कि इन योजनाओं के नाम पर जनता का धन तो बहुत बड़े पैमाने पर लग रहा है लेकिन बीच में निहित स्वार्थ वालों की ज़बरदस्त मौजूदगी के चलते यह योजनायें अपना मकसद हासिल करने से कोसों दूर हैं
दलितों को शिक्षित करने की दिशा में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी को केंद्र सरकार ने स्वीकार कर लिया है .संविधान में व्यवस्था है कि दलित भारतीयों के लिए सकारात्मक हस्तक्षेप के ज़रिये समता मूलक समाज की स्थापना की जायेगी. उसके लिए १९५० में संविधान के लागू होने के साथ ही यह सुनिश्व्चित कर दिया गया था कि राजनीतिक नेतृत्व अगर दलितों के विकास के लिए कोई योजनायें बनाना चाहे तो उसमें किसी तरह की कानूनी अड़चन न आये . लेकिन संविधान लागू होने के ६० साल बाद भी अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को शिक्षा के क्षेत्र में बाकी लोगों के बराबर करने के लिए कोई प्रभावी क़दम नहीं उठाया गया है . सबको मालूम है कि सामाजिक परिवर्तन का सबसे बड़ा हथियार शिक्षा ही है . जिन समाजों में भी बराबरी का माहौल बना है उसमें दलित और शोषित वर्गों को शिक्षित करना सबसे बड़ा हथियार रहा है लेकिन भारत सरकार और मुख्य रूप से केंद्र की सत्ता में रही कांग्रेस सरकार ने दलितों को शिक्षा के क्षेत्र में ऊपर उठाने की दिशा में कोई राजनीतिक क़दम नहीं उठाया है . उनकी जो भी कोशिश रही है वह केवल खानापूर्ति की रही है . ऐसा लगता है कि १९५० से अब तक कांग्रेस ने दलितों को वोट देने की मशीन से ज्यादा कुछ नहीं समझा . शायद इसीलिये दलितों के वैकल्पिक राजनीतिक नेतृत्व के विकास की आवश्यकता समझी गयी और कुछ हद तक यह काम संभव भी हुआ. दक्षिण में तो यह राजनीतिक नेतृत्व आज़ादी के करीब २० साल बाद ही प्रभावी होने लगा था लेकिन उत्तर में अभी यह बहुत कमज़ोर है . उत्तर प्रदेश में एक विकल्प उभर रहा है लेकिन उसमें भी शासक वर्गों की सामंती सोच के आधार पर ही दलितों के विकास की राजनीति की जा रही है क्योंकि नौकरशाही पर अभी निहित स्वार्थ ही हावी हैं . कई बार तो ऐसा लगता है कि राजनीतिक पार्टियां जब भी दलितों के विकास के लिए कोई काम करती हैं तो यह उम्मीद करती हैं कि दलितों के हित के बारे में सोचने वाली जमातें उनका एहसान मानें . कारण जो भी हों दलितों को शक्तिशाली बनाने के लिए जो सबसे ज़रूरी हथियार शिक्षा का है उस तक अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की पंहुच अभी सीमित है . पिछले हफ्ते लोकसभा में एक सवाल के जवाब में बताया गया कि स्कूलों में पहली से दसवीं क्लास तक की पढाई करने जाने वाले अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के बच्चों की कुल संख्या में से बहुत बड़ी तादाद में बच्चे पढाई बीच में ही छोड़ देते हैं . यह आंकड़े हैरतअंगेज़ हैं और हमारे राजनीतिक नेताओं की नीयत पर ही सवाल उठा देते हैं . सरकारी तौर पर बताया गया है कि दसवीं तक की शिक्षा पूरी करने के पहले अनुसूचित जातियों के बच्चों का ड्राप रेट डरावना है . २००६-०७ में करीब ६९ प्रतिशत अनुसूचित जातियों के बच्चों ने पढाई छोड़ दी थी. जबकि २००८-०९ में इस वर्ग के ६६.५६ प्रतिशत बच्चों ने स्कूल जाना बंद कर दिया था . अनुसूचित जनजातियों के सन्दर्भ में यह आंकड़े और भी अधिक चिंताजनक हैं . २००६-०७ में अनुसूचित जनजातियों के ७८ प्रतिशत से ज्यादा बच्चों ने स्कूल छोड़ दिया था जबकि २००८-०८ में यह ड्राप रेट २ प्रतिशत नीचे जाकर लगभग ७६ प्रतिशत रह गया था. यह आंकड़े बहुत ही निराशा पैदा करते हैं . अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के बच्चों की इतनी बड़ी संख्या का बीच में ही स्कूल छोड़ देना बहुत ही खराब बात है . ज़ाहिर है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और नौकरशाही के बे परवाह रवैय्ये के कारण ही यह हालात पैदा हुए हैं और इन पर फ़ौरन रोक लागने की ज़रुरत है .
केंद्र सरकार के उच्च शिक्षा विभाग की ओर से सरकारी तौर पर दिए गए इन आंकड़ों में कांग्रेस की अगुवाई वाली केंद्र सरकार की कई नीतियों का उल्लेख किया गया है और बताया गया है कि इन नीतियों के कारण दलितों के शैक्षिक विकास को रफ़्तार मिलेगी . सरकार ने दावा किया है कि सर्व शिक्षा अभियान नाम की जो योजना है वह समता मूलक समाज की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी .लोकसभा को सरकार ने बताया कि सर्व शिक्षा अभियान ने समानता आधारित दृष्टिकोण अपनाया है जो शैक्षिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों तथा समाज के लाभवंचित वर्गों की आवश्यकताओं पर ध्यान केन्द्रित करता है ..समाज के लाभवंचित वर्गों की शिक्षा सम्बंधित सरोकार ,सर्व शिक्षा अभियान योजना में अन्तर्निहित है.. यह सरकारी भाषा है जिसमें बिना कोई भी पक्की बात बताये सच्चाई को कवर कर दिया जाता है . लेकिन सच्चाई यह है कि सर्व शिक्षा अभियान का जो मौजूदा स्वरुप है वह पूरी तरह से राज्यों में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को आर्थिक लाभ पंहुचाने की योजना बन कर रह गया है . सरकार ने दावा किया है कि निःशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम २००९ ,सर्व शिक्षा आभियान , मध्याह्न भोजन योजना ,कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय योजना ,राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान का उद्देश्य स्कूलों में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों श्रेणियों के छात्रों सहित सभी वर्ग के छात्रों के नामांकन में वृद्धि करवाना है . सरकारी भाषा में कही गयी इस बात में लगभग घोषित कर दिया गया है कि दलित बच्चों का स्कूलों में नामांकन करवाना ही सरकार का उद्देश्य है .उनकी पढाई को पूरा करवाने के लिए सरकार कोई भी उपाय नहीं करना चाहती .ज़मीनी सच्चाई यह है कि इन योजनाओं के नाम पर जनता का धन तो बहुत बड़े पैमाने पर लग रहा है लेकिन बीच में निहित स्वार्थ वालों की ज़बरदस्त मौजूदगी के चलते यह योजनायें अपना मकसद हासिल करने से कोसों दूर हैं
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