शेष नारायण सिंह
ब्रिटेन के पूर्व प्रधान मंत्री , टोनी ब्लेयर ने कुछ दिन पहले बी बी सी को दिए गए एक इंटरव्यू में स्वीकार किया था कि उन्होंने झूठ बोल कर इराक पर हमले की योजना बनायी थी . उनके उस इकबालिया बयान के अनुसार उनको यह मालूम था कि इराक के तत्कालीन राष्ट्रपति , सद्दाम हुसैन के पास सामूहिक जन संहार के हथियार नहीं थे लेकिन उन्होंने खुफिया रिपोर्टों में फेर बदल करके इराक पर हमला करने के लिए तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति , जार्ज डब्ल्यू बुश की योजना को समर्थन दिया था और ब्रिटिश फ़ौज को उस लड़ाई में शामिल कर दिया था. इस बयान के बाद ब्रिटिश सरकार ने अवकाश प्राप्त , नौकरशाह सर जॉन चिल्कोट की अध्यक्षता में एक जांच कमेटी का गठन किया है जिसका काम इराक युद्ध में ब्रिटेन की भूमिका की विस्तृत जांच करना है ..शुक्रवार को इस कमेटी के सामने पूर्व ब्रिटिश प्रधान मंत्री, टोनी ब्लेयर पेश हुए और उन्होंने इराक युद्ध के दौरान और उसके पहले किये गए अपने कारनामों को सही ठहराया. उन्होंने कहा कि अगर उन्हें फिर मौक़ा मिला तो वे दोबारा भी वैसा ही फैसला लेंगे
टोनी ब्लेयर पर अक्सर आरोप लगते रहते हैं कि उन्होंने इराक युद्ध में शामिल होने का र्फैसला इसलिए किया था कि उनकी उस वक़्त के राष्ट्रपति बुश से कोई निजी बातचीत हो गयी थी. जब वे बुश से उनके टेक्सास वाले, फ़ार्म हाउस पर मिले थे . उन पर यह भी आरोप लगते रहे हैं कि उन्होंने इस गैरकानूनी युद्ध में बुश से अपनी दोस्ती को पुख्ता करने के लिए , ब्रिटेन के हितों की अनदेखी करते हुए निजी कारणों से सेना को भेज दिया था . लन्दन में इराक जांच कमेटी के सामने पेश होने पर ब्लेयर ने सभी आरोपों को गलत बताया और यह भी कहा कि उनका फैसला सही था. सुनवाई के लिए जहां ब्लेयर को तलब किया गया था, वहां उन लोगों के लिए भी जगह रखी गयी थे जिनके परिवार के लोग ब्रिटिश सेना में थे और इराक युद्ध में मारे गए थे . ६ घंटे तक चली सुनवाई एक दौरान जब भी ब्लेयर ने अपने कारनामे को सही ठहराया , तो दर्शकों में मौजूद मारे गए सैनिकों के रिश्तेदारों ने उन्हें ऊंची आवाज़ में झूठा और हत्यारा कहा लेकिन ब्लेयर अपनी बात पर अड़े रहे .ब्रिटेन की जनता में ब्लेयर के प्रति बहुत नाराज़गी है क्योंकि वहां की अवाम अभी उनके इराक युद्ध के गैरज़िम्मेदार फैसले और उसके नतीजों से उबर नहीं पायी है ... ब्रितानी अखबारों की राय में २००७ में सत्ता से हटाये जाने के बाद ब्लेयर ने इराक पर हमला करने वाली अपनी छवि का फायदा उठा कर पूरी दुनिया में भाषण दिए और करीब १५० करोड़ रूपये के बराबर दौलत इकठ्ठा कर लिया है . शायद इसीलिए वे अपने आपको इराक युद्ध के हीरो के रूप में पेश करके कुछ न कुछ कमाई करते रहना चाहते हैं ... जब गवाही के लिए उनको लाया गया तो उनके ऊपर हमले का ख़तरा बना हुआ था . उनकी कार को बहुत ही कड़ी सुरक्षा के बीच अन्दर लाया गया . बाहर हल्की बारिश हो रही थी लेकिन करीब ३०० लोग जमा थे और ब्लेयर के खिलाफ नारे लगा रहे थे . हाथों में ब्लेयर विरोधी नारों की तख्तियां लिए यह लोग मांग कर रहे थे कि ब्लेयर को कड़ी से कड़ी सज़ा दी जानी चाहिए ..लेकिन पूरी जिरह के दौरान ब्लेयर ने अपनी ट्रेड मार्क बेशर्मी को बरकरार रखा .जांच कमेटी के मुखिया जॉन चिल्कोट ने जब उनसे पूछा कि क्या ब्लेयर को अपने कारनामे के लिए कोई अफ़सोस है उन्होंने कहा कि मैं पूरी ज़िम्मेदारी के साथ स्वीकार करता हूँ कि मैंने जो भी फैसला लिया राष्ट्र हित में लिया . लेकिन ब्रितानी समाज में उसकी वजह से विभाजन हो गया है उसका उन्हें अफसोस है .अलबत्ता सद्दाम को हटाये जाने के बारे में उन्हें कोई अफ़सोस नहीं है . जब ब्लेयर ने यह बात कही तो श्रोताओं में मौजूद उन महिलाओं के रोने की आवाजें साफ़ सुनाई दे रही थीं जिनके बच्चे इस गैरकानूनी और गैरज़रूरी लड़ाई में मारे गए थे ..कमेटी ने ब्लेयर से पूछा कि संयुक्त राष्ट्र की राय को प्रभावित करने के लिए भी उन्होंने खुफिया सूचनाओं में हेराफेरी क्यों की तो उनका जवाब था कि मुझे उन हालात में एक फैसला लेना था सो मैंने लिया . उन्होंने दावा किया कि वह एक फैसला था और उसे झूठ, साज़िश और धोखा जैसे नाम देना ठीक नहीं होगा . उन्होंने कहा कि सद्दाम हुसैन का जो इतिहास रहा है , उसके मद्दे-नज़र उन्हें हटाने का बुश का फैसला सही था . उसकी नैतिकता या वैधानिकता पर बहस करने की कोई ज़रुरत नहीं है . ब्लेयर ने कहा कि ११ सितम्बर २००१ के दिन अमरीका पर हुए हमले के बाद रिस्क का हिसाब किताब करने के तरीके बदल गए थे ... सवाल उठता है कि जब अमरीका भी कह रहा था कि अल कायदा का सद्दाम हुसैन से कोई सम्बन्ध नहीं था तो सद्दाम हुसैन पर हमले का क्या औचित्य है . बुश और ब्लेयर पर आरोप लगते रहे हैं कि सद्दाम हुसैन पर हमला इसलिए किया गया था कि बुश के कुछ बड़ी अमरीकी तेल कंपनियों से सम्बन्ध थे . ब्लेयर ने शुक्रवार को अपनी गवाही में बुश का साथ देने के लिए भी कोई अफ़सोस नहीं जताया.
पूरी जिरह के दौरान ब्लेयर ने जांच कमेटी को कन्फ्यूज़ करने की भी कोशिश की. बार बार कहते रहे कि अगर उस वक़्त सद्दाम को न हटाया गया होता तो आज वह बहुत खतरे पैदा कर सकते थे . जब पूछा गया कि किसी नुकसान के अंदेशे में आपने ब्रिटेन को एक गैर ज़रूरी युद्ध में क्यों धकेल दिया तो वे बगलें झांकते रहे..लेकिन इराक युद्ध पर अपनी अब तक की सोच को सही साबित करने में कोई चूक नहीं की.
Thursday, February 4, 2010
Monday, February 1, 2010
पश्चिम बंगाल में विधान सभा चुनाव हार सकती हैं वामपंथी पार्टियां
शेष नारायण सिंह
ज्योति बसु के निधन से पश्चिम बंगाल की वामपंथी राजनीति में एक शून्य उभर आया है. हो सकता है यह शून्य इतना व्यापक हो जाए कि वामपंथी राजनीति के गढ़ पश्चिम बंगाल में ही वामपंथ इतना कमजोर पड़ जाए कि लालिकले पर लाल निशान फहराने की तमन्ना पश्चिम बंगाल में ही हवा हो जाए. -
दिल्ली में संपन्न ज्योति बसु की शोकसभा में उन्हें एक बहुत अच्छे राजनेता और एक कुशल प्रशासक के रूप में याद किया गया. वित्त मंत्री प्रणव मुख़र्जी ने करीब पांच दशक के अपने परिचय के हवाले से उन्हें एक बेहतरीन प्रशासक बताया और उनकी दूरदर्शिता के कुछ उदाहरण दिए. पश्चिम बंगाल में वामपंथी राजनीति को एक मज़बूत आन्दोलन और सरकार के रूप में स्थापित करने की ज्योति बाबू की योग्यता का बार बार ज़िक्र आया. सबने स्वीकार किया कि उन्होंने बंगाल के समाज को एक स्थिरता दी और राजनीतिक परिपक्वता का आलम तो यह था कि सन २००० में अपनी मर्जी से मुख्यमंत्री पद छोड़ दिया. लेकिन उनके मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद पश्चिम बंगाल की वामपंथी पार्टियां निश्चित रूप से कमज़ोर पड़ी हैं. हालांकि उनके रिटायर होने के बाद भी विधानसभा के दो चुनावों में लेफ्ट फ्रंट को सरकार बनाने लायक बहुमत मिला है लेकिन २०११ के चुनावों में कम्युनिस्ट पार्टियों की वह हैसियत नहीं रहने वाली है जो पिछले तीन दशकों से रही है. इस बात की पड़ताल की जानी चाहिए कि ऐसा क्यों हो रहा है.
जवाब तलाशने की कोशिश में बहुत सारे सवाल खड़े हो जाते हैं और ज्योति बसु के बाद के नेताओं में राजनीतिक अदूरदर्शिता के बहुत सारे निशान नज़र आने लगते हैं. २००६ के विधान सभा चुनावों के बाद जितने भी चुनाव हुए हैं उनमें लेफ्ट फ्रंट की हालत खस्ता ही है ..तुर्रा यह कि जनता के फैसले को उसकी गलती मान कर अपने आपको सही समझने की शुतुरमुर्गी सोच भी कम्युनिस्ट नेताओं के बयानों का स्थायी भाव बनी रही है. २००८ के पंचायत चुनावों में बुरी तरह से धुनी जाने के बाद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं ने कहा कि "पश्चिम बंगाल की जनता ने एक बहुत बड़ी गलती की है लेकिन यह गलती क्षणिक है" यानी उन्हें मुगालता था कि इस गलती को सुधार लिया जाएगा. लेकिन जनता ने यह गलतियाँ बार बार कीं. कई उपचुनाव हुए और नगरपालिका चुनावों में भी लेफ्ट फ्रंट को भारी चुनावी नुकसान हुआ तब जाकर कम्युनिस्ट नेताओं की समझ में आया कि यह जनता की गलती नहीं है.
वास्तव में वामपंथी नेतृत्व ने ऐसी गलतियाँ कर रखी हैं कि चुनावों में धुनाई का सिलसिला चलता ही रहेगा. लगातार जनता का समर्थन खो रहे नेताओं को अब शायद यह भी लगने लगा है कि जनता जो भी कर रही है वह अस्थायी नहीं है, वह अब वामपंथी राजनीति को अलविदा कहने की तैयारी में है. लेफ्ट फ्रंट से अवाम की नाराज़गी ज्योति बसु के मुख्यमंत्री पद छोड़ने के बाद से ही थी लेकिन खंडित विपक्ष की वजह से कुछ हो नहीं पाता था. लेफ्ट फ्रंट के उम्मीदवार सरकार बनाने लायक सीटें बटोरते रहे लेकिन जब परमाणु मुद्दे पर केंद्र की कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार को लेफ्ट फ्रंट ने गिराने की योजना बनायी तो एक नयी राजनीतिक तस्वीर सामने आ गयी. कांग्रेस ने तृणमूल कांग्रेस के साथ समझौता कर लिया और बंगाल में जो खंडित विपक्ष था वह अब एकमुश्त होने लगा. इस नयी राजनीतिक एकता की वजह से लेफ्ट फ्रंट को गंभीर झटके लगे. राज्य की राजनीति में सक्रिय सभी कम्युनिस्ट विरोधी जमातों ने इस नई ताक़त के साथ खड़े होने का फैसला किया. कुछ अति वामपंथी ताक़तों ने भी इस नए कांग्रेस-तृणमूल गठबंधन को समर्थन दिया और नतीजा सामने है .
२००६ के बाद हुए प्रत्येक चुनाव में हार का सामना कर चुकी कम्युनिस्ट पार्टियों के सामने २०११ के विधान सभा चुनाव में हार एक सच्चाई की शक्ल लेता जा रहा है..और इसका सबसे प्रमुख कारण यह है कि बंगाल के ग्रामीण इलाकों में लेफ्ट फ्रंट अब उतना लोकप्रिय नहीं रहा जितना कि ज्योति बसु के दौर में हुआ करता था. १९७७ में जब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में पश्चिम बंगाल में सरकार बनी थी तो बहुत सारे क्रांतिकारी काम हुए थे. खेती लायक ज़मीन जो कुछ लोगों के कब्जे में थी उसे धीरे धीरे आम किसानों के हाथ में देने का जो क्रांतिकारी कारनामा ज्योति बसु की सरकार ने किया था उसकी वजह से बंगाली समाज में बहुत सारे परिवर्तन आये थे. बटाईदारों के अधिकार को ऑपरेशन बर्गा के तहत जिस तरह से सुरक्षित किया गया था उसकी वजह से शहरों की तरफ भागने की गरीब आदमी की मजबूरी पर प्रभावी रोक लगा दी गयी थी. इसके अलावा ज्योति बसु ने गावों में अपने पार्टी के कार्यकर्ताओं की अगुवाई में एक मज़बूत पंचायती व्यवस्था कायम की थी. इस पंचायती इंतज़ाम का फायदा यह हुआ था कि ग्रामीण और ब्लाक स्तर पर मौजूद भ्रष्ट नौकरशाही से जनता को निजात मिल गयी थी लेकिन ३० साल बाद पार्टी की अगुवाई में बनाए गए न्याय करने के इस तंत्र का बहुत ही ज्यादा बेजा इस्तेमाल हो रहा है. अब इस व्यवस्था पर मुकामी गुंडों का क़ब्ज़ा है जो कम्युनिस्ट पार्टियों के सदस्य भी हैं. ममता बनर्जी ने इन्ही गुंडों के खिलाफ जनता को तैयार करने की कोशिश की और वे काफी हद तक सफल भी रहीं. नतीजा सामने है. वामपन्थी राजनीति के अगले दस्ते में गुंडों की बहुतायत से परेशान आम आदमी अब किसीभी चुनाव में लेफ्ट फ्रंट को दुरुस्त करने का मन बना चुका है. इस लिहाज़ से पश्चिम बंगाल विधानसभा का अगला चुनाव बहुत ही दिलचस्प होने वाला है..
पश्चिम बंगाल में सत्ताधारी लेफ्ट पार्टियों ने शुरू में जो क्रांतिकारी काम किये उसके बाद किसी नयी आईडिया को तरजीह नहीं दी गयी. ग्रामीण स्तर पर बने पार्टी के संगठन की वजह से चुनाव जीत रही कम्युनिस्ट पार्टियों ने इस बात की परवाह ही नहीं की कि ज़रा देखें कि कहीं गलती तो नहीं हो रही है. ग्रामीण बंगाल में अर्थव्यवस्था बहुत तेज़ी से बदल रही थी. खेती में इस्तेमाल होने वाली चीज़ें महंगी हो रही थीं लेकिन कोलकता और दिल्ली में बैठे कम्युनिस्ट महाप्रभुओं को सच्चाई की हवा तक नहीं लग रही थी. राज्य के ग्रामीण इलाकों में नयी किस्म के राजनीतिक समीकरण उभर रहे थे. और वामपंथी मोर्चा अपनी उसी नैतिक और राजनीतिक पूंजी के सहारे चुनाव जीतने की उम्मीद लगाए बैठा था जिसे ज्योति बसु ने ८० के दशक में सर्वहारा की पक्ष धरता के लिए कमाया था. हरकिशन सिंह सुरजीत की मृत्यु के बाद पार्टी का सर्वोच्च अधिकारी एक ऐसा व्यक्ति बन गया जिसकी मार्क्सवादी समझ का तो उसके विरोधी भी लोहा मानते हैं लेकिन राजनीति के व्यावहारिक पक्ष में वह सुरजीत की तुलना में कहीं नहीं पंहुचता था. लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष सोम नाथ चटर्जी के साथ व्यवहार और कांग्रेस से बेमतलब दुश्मनी करके उसे ममता बनर्जी के खेमे में धकेल देना ऐसे काम हैं जिन्हें राजनीतिक अदूरदर्शिता की श्रेणी में ही रखा जाएगा. क्योंकि अगर कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस एक न हुए होते तो नगर पालिका और पंचायत चुनावों में वामपंथियों की वैसी हार न हुई होती जिसकी वजह से वह आज कमज़ोर पड़ गया है. बंगाली समाज में राजनीति एक सांस्कृतिक काम भी होता है.
औद्योगीकरण और शहरीकरण के चक्कर में पड़े मुख्य मंत्री, बुद्ध देव भट्टाचार्य ने राजनीति के सांस्कृतिक पक्ष को नज़र अंदाज़ किया सिंगुर, नंदीग्राम और लाल गढ़ में वामा मोर्चा सरकार ने जो गलतियाँ कीं उसके नतीजे में बंगाली बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग उस से अलग हो गया और ममता बनर्जी के साथ खड़ा हो गया. ममता बनर्जी ने राज्य के बाहर और भीतर इन बुद्धिजीवियों के साथ आने से होने वाले फायदे को ख़ूब भुनाया. महाश्वेता देवी, सांवली मित्र, बिभाश चक्रवर्ती आदि जब ममता के साथ खड़े हो गए तो उन्हें बंगाली भद्रलोक में भी स्वीकार्यता मिलने लगी जो अब तक एक तरह से कम्युनिस्ट नेताओं के लिए सुरक्षित मानी जाती थी. ममता बनर्जी एक तेज़ तर्रार नेता हैं. युवक कांग्रेस से राजनीति शुरू करने वाली ममता बनर्जी को बंगाली समाज ने पहली बार तब देखा था जब १९७५ में उन्होंने युवक कांग्रेस के कुछ साथियों के साथ जयप्रकाश नारायण की कार पर हमला बोल दिया था .वे कोलकाता विश्वविद्यालय में एक सभा को संबोधित करने जा रहे थे. बच गए लेकिन ममता बनर्जी का राजनीतिक अवतार हो चुका था. २००६ के चुनावों के बाद लेफ्ट फ्रंट की गलतियों के ज़खीरे की वजह से अब उन्हें भद्रलोक की इज्ज़त भी मिल रही है . इस लिए करीब एक साल बाद होने वाले विधान चुनावों में कौन विजयी होता है, आने वाले कुछ दिनों में यह विमर्श और तेज़ होने जा रहा है. नतीजा चुनाव परिणाम बता देंगे.
ज्योति बसु के निधन से पश्चिम बंगाल की वामपंथी राजनीति में एक शून्य उभर आया है. हो सकता है यह शून्य इतना व्यापक हो जाए कि वामपंथी राजनीति के गढ़ पश्चिम बंगाल में ही वामपंथ इतना कमजोर पड़ जाए कि लालिकले पर लाल निशान फहराने की तमन्ना पश्चिम बंगाल में ही हवा हो जाए. -
दिल्ली में संपन्न ज्योति बसु की शोकसभा में उन्हें एक बहुत अच्छे राजनेता और एक कुशल प्रशासक के रूप में याद किया गया. वित्त मंत्री प्रणव मुख़र्जी ने करीब पांच दशक के अपने परिचय के हवाले से उन्हें एक बेहतरीन प्रशासक बताया और उनकी दूरदर्शिता के कुछ उदाहरण दिए. पश्चिम बंगाल में वामपंथी राजनीति को एक मज़बूत आन्दोलन और सरकार के रूप में स्थापित करने की ज्योति बाबू की योग्यता का बार बार ज़िक्र आया. सबने स्वीकार किया कि उन्होंने बंगाल के समाज को एक स्थिरता दी और राजनीतिक परिपक्वता का आलम तो यह था कि सन २००० में अपनी मर्जी से मुख्यमंत्री पद छोड़ दिया. लेकिन उनके मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद पश्चिम बंगाल की वामपंथी पार्टियां निश्चित रूप से कमज़ोर पड़ी हैं. हालांकि उनके रिटायर होने के बाद भी विधानसभा के दो चुनावों में लेफ्ट फ्रंट को सरकार बनाने लायक बहुमत मिला है लेकिन २०११ के चुनावों में कम्युनिस्ट पार्टियों की वह हैसियत नहीं रहने वाली है जो पिछले तीन दशकों से रही है. इस बात की पड़ताल की जानी चाहिए कि ऐसा क्यों हो रहा है.
जवाब तलाशने की कोशिश में बहुत सारे सवाल खड़े हो जाते हैं और ज्योति बसु के बाद के नेताओं में राजनीतिक अदूरदर्शिता के बहुत सारे निशान नज़र आने लगते हैं. २००६ के विधान सभा चुनावों के बाद जितने भी चुनाव हुए हैं उनमें लेफ्ट फ्रंट की हालत खस्ता ही है ..तुर्रा यह कि जनता के फैसले को उसकी गलती मान कर अपने आपको सही समझने की शुतुरमुर्गी सोच भी कम्युनिस्ट नेताओं के बयानों का स्थायी भाव बनी रही है. २००८ के पंचायत चुनावों में बुरी तरह से धुनी जाने के बाद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं ने कहा कि "पश्चिम बंगाल की जनता ने एक बहुत बड़ी गलती की है लेकिन यह गलती क्षणिक है" यानी उन्हें मुगालता था कि इस गलती को सुधार लिया जाएगा. लेकिन जनता ने यह गलतियाँ बार बार कीं. कई उपचुनाव हुए और नगरपालिका चुनावों में भी लेफ्ट फ्रंट को भारी चुनावी नुकसान हुआ तब जाकर कम्युनिस्ट नेताओं की समझ में आया कि यह जनता की गलती नहीं है.
वास्तव में वामपंथी नेतृत्व ने ऐसी गलतियाँ कर रखी हैं कि चुनावों में धुनाई का सिलसिला चलता ही रहेगा. लगातार जनता का समर्थन खो रहे नेताओं को अब शायद यह भी लगने लगा है कि जनता जो भी कर रही है वह अस्थायी नहीं है, वह अब वामपंथी राजनीति को अलविदा कहने की तैयारी में है. लेफ्ट फ्रंट से अवाम की नाराज़गी ज्योति बसु के मुख्यमंत्री पद छोड़ने के बाद से ही थी लेकिन खंडित विपक्ष की वजह से कुछ हो नहीं पाता था. लेफ्ट फ्रंट के उम्मीदवार सरकार बनाने लायक सीटें बटोरते रहे लेकिन जब परमाणु मुद्दे पर केंद्र की कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार को लेफ्ट फ्रंट ने गिराने की योजना बनायी तो एक नयी राजनीतिक तस्वीर सामने आ गयी. कांग्रेस ने तृणमूल कांग्रेस के साथ समझौता कर लिया और बंगाल में जो खंडित विपक्ष था वह अब एकमुश्त होने लगा. इस नयी राजनीतिक एकता की वजह से लेफ्ट फ्रंट को गंभीर झटके लगे. राज्य की राजनीति में सक्रिय सभी कम्युनिस्ट विरोधी जमातों ने इस नई ताक़त के साथ खड़े होने का फैसला किया. कुछ अति वामपंथी ताक़तों ने भी इस नए कांग्रेस-तृणमूल गठबंधन को समर्थन दिया और नतीजा सामने है .
२००६ के बाद हुए प्रत्येक चुनाव में हार का सामना कर चुकी कम्युनिस्ट पार्टियों के सामने २०११ के विधान सभा चुनाव में हार एक सच्चाई की शक्ल लेता जा रहा है..और इसका सबसे प्रमुख कारण यह है कि बंगाल के ग्रामीण इलाकों में लेफ्ट फ्रंट अब उतना लोकप्रिय नहीं रहा जितना कि ज्योति बसु के दौर में हुआ करता था. १९७७ में जब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में पश्चिम बंगाल में सरकार बनी थी तो बहुत सारे क्रांतिकारी काम हुए थे. खेती लायक ज़मीन जो कुछ लोगों के कब्जे में थी उसे धीरे धीरे आम किसानों के हाथ में देने का जो क्रांतिकारी कारनामा ज्योति बसु की सरकार ने किया था उसकी वजह से बंगाली समाज में बहुत सारे परिवर्तन आये थे. बटाईदारों के अधिकार को ऑपरेशन बर्गा के तहत जिस तरह से सुरक्षित किया गया था उसकी वजह से शहरों की तरफ भागने की गरीब आदमी की मजबूरी पर प्रभावी रोक लगा दी गयी थी. इसके अलावा ज्योति बसु ने गावों में अपने पार्टी के कार्यकर्ताओं की अगुवाई में एक मज़बूत पंचायती व्यवस्था कायम की थी. इस पंचायती इंतज़ाम का फायदा यह हुआ था कि ग्रामीण और ब्लाक स्तर पर मौजूद भ्रष्ट नौकरशाही से जनता को निजात मिल गयी थी लेकिन ३० साल बाद पार्टी की अगुवाई में बनाए गए न्याय करने के इस तंत्र का बहुत ही ज्यादा बेजा इस्तेमाल हो रहा है. अब इस व्यवस्था पर मुकामी गुंडों का क़ब्ज़ा है जो कम्युनिस्ट पार्टियों के सदस्य भी हैं. ममता बनर्जी ने इन्ही गुंडों के खिलाफ जनता को तैयार करने की कोशिश की और वे काफी हद तक सफल भी रहीं. नतीजा सामने है. वामपन्थी राजनीति के अगले दस्ते में गुंडों की बहुतायत से परेशान आम आदमी अब किसीभी चुनाव में लेफ्ट फ्रंट को दुरुस्त करने का मन बना चुका है. इस लिहाज़ से पश्चिम बंगाल विधानसभा का अगला चुनाव बहुत ही दिलचस्प होने वाला है..
पश्चिम बंगाल में सत्ताधारी लेफ्ट पार्टियों ने शुरू में जो क्रांतिकारी काम किये उसके बाद किसी नयी आईडिया को तरजीह नहीं दी गयी. ग्रामीण स्तर पर बने पार्टी के संगठन की वजह से चुनाव जीत रही कम्युनिस्ट पार्टियों ने इस बात की परवाह ही नहीं की कि ज़रा देखें कि कहीं गलती तो नहीं हो रही है. ग्रामीण बंगाल में अर्थव्यवस्था बहुत तेज़ी से बदल रही थी. खेती में इस्तेमाल होने वाली चीज़ें महंगी हो रही थीं लेकिन कोलकता और दिल्ली में बैठे कम्युनिस्ट महाप्रभुओं को सच्चाई की हवा तक नहीं लग रही थी. राज्य के ग्रामीण इलाकों में नयी किस्म के राजनीतिक समीकरण उभर रहे थे. और वामपंथी मोर्चा अपनी उसी नैतिक और राजनीतिक पूंजी के सहारे चुनाव जीतने की उम्मीद लगाए बैठा था जिसे ज्योति बसु ने ८० के दशक में सर्वहारा की पक्ष धरता के लिए कमाया था. हरकिशन सिंह सुरजीत की मृत्यु के बाद पार्टी का सर्वोच्च अधिकारी एक ऐसा व्यक्ति बन गया जिसकी मार्क्सवादी समझ का तो उसके विरोधी भी लोहा मानते हैं लेकिन राजनीति के व्यावहारिक पक्ष में वह सुरजीत की तुलना में कहीं नहीं पंहुचता था. लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष सोम नाथ चटर्जी के साथ व्यवहार और कांग्रेस से बेमतलब दुश्मनी करके उसे ममता बनर्जी के खेमे में धकेल देना ऐसे काम हैं जिन्हें राजनीतिक अदूरदर्शिता की श्रेणी में ही रखा जाएगा. क्योंकि अगर कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस एक न हुए होते तो नगर पालिका और पंचायत चुनावों में वामपंथियों की वैसी हार न हुई होती जिसकी वजह से वह आज कमज़ोर पड़ गया है. बंगाली समाज में राजनीति एक सांस्कृतिक काम भी होता है.
औद्योगीकरण और शहरीकरण के चक्कर में पड़े मुख्य मंत्री, बुद्ध देव भट्टाचार्य ने राजनीति के सांस्कृतिक पक्ष को नज़र अंदाज़ किया सिंगुर, नंदीग्राम और लाल गढ़ में वामा मोर्चा सरकार ने जो गलतियाँ कीं उसके नतीजे में बंगाली बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग उस से अलग हो गया और ममता बनर्जी के साथ खड़ा हो गया. ममता बनर्जी ने राज्य के बाहर और भीतर इन बुद्धिजीवियों के साथ आने से होने वाले फायदे को ख़ूब भुनाया. महाश्वेता देवी, सांवली मित्र, बिभाश चक्रवर्ती आदि जब ममता के साथ खड़े हो गए तो उन्हें बंगाली भद्रलोक में भी स्वीकार्यता मिलने लगी जो अब तक एक तरह से कम्युनिस्ट नेताओं के लिए सुरक्षित मानी जाती थी. ममता बनर्जी एक तेज़ तर्रार नेता हैं. युवक कांग्रेस से राजनीति शुरू करने वाली ममता बनर्जी को बंगाली समाज ने पहली बार तब देखा था जब १९७५ में उन्होंने युवक कांग्रेस के कुछ साथियों के साथ जयप्रकाश नारायण की कार पर हमला बोल दिया था .वे कोलकाता विश्वविद्यालय में एक सभा को संबोधित करने जा रहे थे. बच गए लेकिन ममता बनर्जी का राजनीतिक अवतार हो चुका था. २००६ के चुनावों के बाद लेफ्ट फ्रंट की गलतियों के ज़खीरे की वजह से अब उन्हें भद्रलोक की इज्ज़त भी मिल रही है . इस लिए करीब एक साल बाद होने वाले विधान चुनावों में कौन विजयी होता है, आने वाले कुछ दिनों में यह विमर्श और तेज़ होने जा रहा है. नतीजा चुनाव परिणाम बता देंगे.
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Friday, January 29, 2010
मोहन सिंह, बृजभूषण तिवारी और रामगोपाल यादव सपा के नये आलाकमान
शेष नारायण सिंह
मुलायम सिंह यादव ने कहा कि सपा जनेश्वर मिश्र के रास्ते पर चलेगी.जनेश्वर मिश्र अमर सिंह के समाजवाद को "फिल्मी समाजवाद" कहकर खारिज कर दिया करते थे फिर भी उनके जीते जी समाजवादी पार्टी में वही फिल्मी समाजवाद हावी रहा. लेकिन नियति देखिए कि उस फिल्मी समाजवाद के समाप्ति का ऐलान उन्हीं मुलायम सिंह ने उस सभा से की जो जनेश्वर मिश्र की याद में आयोजित शोकसभा थी.
निश्वित रूप से भौतिक शरीरधारी जनेश्वर मिश्र जिस अच्छी खबर को नहीं सुन पाये उसे उनका पारलौकिक शरीर महसूस कर रहा होगा. सपा से फिल्मी समाजवाद के सफाये का ऐलान खुद खांटी लंगोटधारी मुलायम सिंह यादव ने किया और कहा कि जनेश्वर मिश्र की हर बात मानेंगे और उनके बताए हुए रास्ते पर ही समाजवादी पार्टी के आगे के कार्यक्रम चलाए जाएंगे।
इस घोषणा को बल देने के लिए मुलायम सिंह ने दूसरी बात भी कही. बुधवार को दिल्ली में सपा के सिपहसलार रामगोपाल यादव ने अमर सिंह की के बारे में बिना कहे जो कुछ कहा उसकी पुष्टि अगले दिन गुरुवार को दिल्ली में ही सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने कर दी. गुरुवार को मुलायम सिंह यादव ने साफ किया कि अब सपा उसी शक्तिशाली त्रिगुट के हवाले है जिसका ऐलान रामगोपाल यादव ने किया था. इस तरह से समाजवादी पार्टी में अमर सिंह युग की समाप्ति पर औपचारिक मुहर लग गई। अब मोहन सिंह, बृजभूषण तिवारी और रामगोपाल यादव समाजवादी पार्टी के नये आलाकमान हैं.
स्व. जनेश्वर मिश्र की शोकसभा का आयोजन समाजवादी पार्टी की ओर से किया गया था। सभा का संचालन कर रहे पार्टी के नव नियुक्त प्रवक्ता मोहन सिंह ने सबसे पहले मुलायम सिंह यादव को भाषण करने के लिए आमंत्रित किया। रुंधे गले से मुलायम सिंह यादव ने जनेश्वर मिश्र को याद किया और कहा कि 1965 में अपनी पहली मुलाकात से अब तक उन्होंने हमेशा जनेश्वर मिश्र को नेता माना। उन्होंने कहा कि स्व. मिश्र की सलाह पर ही 19 जनवरी के संघर्ष की योजना बनाई गई थी उनके आदेश पर ही हर जि़ले में एक वरिष्ठ नेता ने संघर्ष की अगुवाई की। वे खुद तो इलाहाबाद में रहे लेकिन मुलायम सिंह को लखनऊ में नेतृत्व करने को कहा। मुलायम सिंह ने कहा कि जनेश्वर मिश्र कहते थे कि किसान, छात्र, गरीब, बेरोज़गार, नौजवान, राज्य कर्मचारी सब निराश हैं, सब गुस्से में हैं। इन सबको संघर्ष करने की प्रेरणा देना और उनका नेतृत्व करना समाजवादी पार्टी का कर्तव्य है। आज वे नहीं हैं लेकिन समाजवादी पार्टी इस बात का संकल्प लेती है उनके बताए रास्ते पर ही चलेंगे। इसके लिए मोहन सिंह, बृज भूषण तिवारी और राम गोपाल यादव को निर्देश दे दिया गया है कि वे जल्द से जल्द रणनीति बनाए और योजना को कार्यरूप देने की कोशिश शुरू कर दें। इन तीनों को सबसे महत्वपूर्ण नेता बताकर मुलायम सिंह ने सभी अटकलबाजियों और चर्चाओं पर विराम लगा दिया।
समान विचारधारा वाली पार्टियों के साथ मिलकर काम करने की भी मुलायम सिंह यादव ने घोषणा की। उहोंने कहा कि छोटे मोटे मतभेद भुलाकर आम आदमी की भलाई और राष्ट्र निर्माण के काम में वे अन्य पार्टियों को भी साथ लेकर चलना चाहेंगे और इस देश से असमानता को हर हाल में खत्म कर देंगे। जनेश्वर मिश्र का जाना इस नाजुक मोड़ पर एक बड़ा झटका है लेकिन हम इससे बच निकलेंगे।
लगता है कि विपक्षी पार्टियों में अंदर ही अंदर कहीं एकता की बात चल रही है क्योंकि शोकसभा मं आए माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता, सीताराम येचुरी को मुलायम सिंह यादव ने बहुत महत्व दिया। सीताराम येचुरी ने भी कहा कि जनेश्वर मिश्र ने जो राजनीतिक नैतिकता के मानदंड स्थापित किए हैं, उनका बहुत महत्व है। आज चौतरफा नैतिक मूल्यों की गिरावट के माहौल में उनके जीवन का उदाहरण बहुत उपयोगी हो सकता है। समान विचारधारा की राजनीतिक पार्टियों की एकता के सवाल पर श्री येचुरी ने कहा कि समाजवादी वामपंथी और कम्युनिस्ट वामपंथी पार्टियों को एकजुट होकर राजनीतिक कार्य करना चाहिए जिससे बराबरी पर आधारित समाज की स्थापना की जा सके। आज भारत दो वर्गों में बंट गया है - चमकता भारत और तड़पता भारत। अगर सभी वामपंथी एक हो जायं तो तड़पता भारत की तकलीफें कम की जा सकती हैं। शोकसभा में शरद यादव, सी.पी.आई की अमरजीत कौर, अबनी राय, सतपाल मलिक, मधुकर दिघे, प्रो. आनंद कुमार, मस्तराम कपूर आदि मौजूद थे। शोकसभा की अध्यक्षता वयोवृद्घ समाजवादी, आजाद हिंद फौज के पूर्व कैप्टन अब्बास अली ने किया। मोहन सिंह ने कहा कि कैप्टन साहब समाजवादी आंदोलन के पुरोधा और स्व. डा. राम मनोहर लोहिया के मित्र रहे हैं।
मुलायम सिंह यादव ने कहा कि सपा जनेश्वर मिश्र के रास्ते पर चलेगी.जनेश्वर मिश्र अमर सिंह के समाजवाद को "फिल्मी समाजवाद" कहकर खारिज कर दिया करते थे फिर भी उनके जीते जी समाजवादी पार्टी में वही फिल्मी समाजवाद हावी रहा. लेकिन नियति देखिए कि उस फिल्मी समाजवाद के समाप्ति का ऐलान उन्हीं मुलायम सिंह ने उस सभा से की जो जनेश्वर मिश्र की याद में आयोजित शोकसभा थी.
निश्वित रूप से भौतिक शरीरधारी जनेश्वर मिश्र जिस अच्छी खबर को नहीं सुन पाये उसे उनका पारलौकिक शरीर महसूस कर रहा होगा. सपा से फिल्मी समाजवाद के सफाये का ऐलान खुद खांटी लंगोटधारी मुलायम सिंह यादव ने किया और कहा कि जनेश्वर मिश्र की हर बात मानेंगे और उनके बताए हुए रास्ते पर ही समाजवादी पार्टी के आगे के कार्यक्रम चलाए जाएंगे।
इस घोषणा को बल देने के लिए मुलायम सिंह ने दूसरी बात भी कही. बुधवार को दिल्ली में सपा के सिपहसलार रामगोपाल यादव ने अमर सिंह की के बारे में बिना कहे जो कुछ कहा उसकी पुष्टि अगले दिन गुरुवार को दिल्ली में ही सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने कर दी. गुरुवार को मुलायम सिंह यादव ने साफ किया कि अब सपा उसी शक्तिशाली त्रिगुट के हवाले है जिसका ऐलान रामगोपाल यादव ने किया था. इस तरह से समाजवादी पार्टी में अमर सिंह युग की समाप्ति पर औपचारिक मुहर लग गई। अब मोहन सिंह, बृजभूषण तिवारी और रामगोपाल यादव समाजवादी पार्टी के नये आलाकमान हैं.
स्व. जनेश्वर मिश्र की शोकसभा का आयोजन समाजवादी पार्टी की ओर से किया गया था। सभा का संचालन कर रहे पार्टी के नव नियुक्त प्रवक्ता मोहन सिंह ने सबसे पहले मुलायम सिंह यादव को भाषण करने के लिए आमंत्रित किया। रुंधे गले से मुलायम सिंह यादव ने जनेश्वर मिश्र को याद किया और कहा कि 1965 में अपनी पहली मुलाकात से अब तक उन्होंने हमेशा जनेश्वर मिश्र को नेता माना। उन्होंने कहा कि स्व. मिश्र की सलाह पर ही 19 जनवरी के संघर्ष की योजना बनाई गई थी उनके आदेश पर ही हर जि़ले में एक वरिष्ठ नेता ने संघर्ष की अगुवाई की। वे खुद तो इलाहाबाद में रहे लेकिन मुलायम सिंह को लखनऊ में नेतृत्व करने को कहा। मुलायम सिंह ने कहा कि जनेश्वर मिश्र कहते थे कि किसान, छात्र, गरीब, बेरोज़गार, नौजवान, राज्य कर्मचारी सब निराश हैं, सब गुस्से में हैं। इन सबको संघर्ष करने की प्रेरणा देना और उनका नेतृत्व करना समाजवादी पार्टी का कर्तव्य है। आज वे नहीं हैं लेकिन समाजवादी पार्टी इस बात का संकल्प लेती है उनके बताए रास्ते पर ही चलेंगे। इसके लिए मोहन सिंह, बृज भूषण तिवारी और राम गोपाल यादव को निर्देश दे दिया गया है कि वे जल्द से जल्द रणनीति बनाए और योजना को कार्यरूप देने की कोशिश शुरू कर दें। इन तीनों को सबसे महत्वपूर्ण नेता बताकर मुलायम सिंह ने सभी अटकलबाजियों और चर्चाओं पर विराम लगा दिया।
समान विचारधारा वाली पार्टियों के साथ मिलकर काम करने की भी मुलायम सिंह यादव ने घोषणा की। उहोंने कहा कि छोटे मोटे मतभेद भुलाकर आम आदमी की भलाई और राष्ट्र निर्माण के काम में वे अन्य पार्टियों को भी साथ लेकर चलना चाहेंगे और इस देश से असमानता को हर हाल में खत्म कर देंगे। जनेश्वर मिश्र का जाना इस नाजुक मोड़ पर एक बड़ा झटका है लेकिन हम इससे बच निकलेंगे।
लगता है कि विपक्षी पार्टियों में अंदर ही अंदर कहीं एकता की बात चल रही है क्योंकि शोकसभा मं आए माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता, सीताराम येचुरी को मुलायम सिंह यादव ने बहुत महत्व दिया। सीताराम येचुरी ने भी कहा कि जनेश्वर मिश्र ने जो राजनीतिक नैतिकता के मानदंड स्थापित किए हैं, उनका बहुत महत्व है। आज चौतरफा नैतिक मूल्यों की गिरावट के माहौल में उनके जीवन का उदाहरण बहुत उपयोगी हो सकता है। समान विचारधारा की राजनीतिक पार्टियों की एकता के सवाल पर श्री येचुरी ने कहा कि समाजवादी वामपंथी और कम्युनिस्ट वामपंथी पार्टियों को एकजुट होकर राजनीतिक कार्य करना चाहिए जिससे बराबरी पर आधारित समाज की स्थापना की जा सके। आज भारत दो वर्गों में बंट गया है - चमकता भारत और तड़पता भारत। अगर सभी वामपंथी एक हो जायं तो तड़पता भारत की तकलीफें कम की जा सकती हैं। शोकसभा में शरद यादव, सी.पी.आई की अमरजीत कौर, अबनी राय, सतपाल मलिक, मधुकर दिघे, प्रो. आनंद कुमार, मस्तराम कपूर आदि मौजूद थे। शोकसभा की अध्यक्षता वयोवृद्घ समाजवादी, आजाद हिंद फौज के पूर्व कैप्टन अब्बास अली ने किया। मोहन सिंह ने कहा कि कैप्टन साहब समाजवादी आंदोलन के पुरोधा और स्व. डा. राम मनोहर लोहिया के मित्र रहे हैं।
Tuesday, January 26, 2010
गले पड़ी मंहगाई
शेष नारायण सिंह
मंहगाई अब केंद्र सरकार के गले पड़ गई है। पिछले कई महीने से खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय की तरफ से गोलमोल बातें की जाती रहीं लेकिन जब मीडिया ने लगभग पूरी तरह से साबित कर दिया कि सरकारी नीतियां ही मंहगाई के लिए जिम्मेदार हैं तो अब केंद्र सरकार में सर्वोच्च स्तर पर आरोप प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया है।
खाद्य और कृषि मंत्री ने अपने ताज़ा बयान में प्रधानमंत्री को ही मंहगाई के लिए जि़म्मेदार बताकर मंहगाई पर चल रही बहस को बहुत ही ज्य़ादा गरम कर दिया है। संसदीय लोकतंत्र की सरकार वाली पद्घति में अगर कोई मंत्री प्रधानमंत्री पर सरकार की विफलता का आरोप लगाए तो यह बहुत गंभीर बात है, लेकिन आरोप लगा है और उसकी विधिवत समीक्षा की जानी चाहिए।
जैसा कि सबको मालूम है कि मंहगाई के लिए सबसे ज्य़ादा तो कृषि और खाद्य मंत्री के वे बयान जि़म्मेदार हैं जिसमें वे चीनी, दूध और अन्य खाद्य सामग्री की किल्लत और संभावित मंहगाई के बारे में चेतावनी दिया करते थे। चीनी की कीमतें तो जमाखोरों ने केंद्रीय मंत्री के गैर जिम्मेदार बयानों की वजह से बढ़ाईं। लेकिन केंद्र सरकार की वे नीतियां भी कम जि़म्मेदार नहीं हैं जिनकी वजह से जमाखोरी को पिछले दरवाज़े से सरकारी मंज़ूरी दे दी गई है। पिछली यूपीए सरकार के दौरान जब कीमतें बढऩे लगीं तो मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता सीताराम येचुरी ने बार-बार यह साबित किया था कि अनाज और अन्य खाद्य सामग्री में वायदा कारोबार की नीति बनाकर सरकार ने व्यापारियों को एक तरह से जमाखोरी करने का लाइसेंस दे दिया है। वायदा कारोबार का मतलब होता है कि खरीदार और विक्रेता के बीच कुछ महीने बाद की खरीदारी का समझौता हो जाता है। वास्तव में कोई खरीद नहीं होती लेकिन माल गोदाम में मौजूद होना चाहिए। इस तरह किसानों की पैदावार का एक बड़ा हिस्सा जमाखोरी के हवाले हो जाता है।
यह देखना दिलचस्प होगा कि वास्तव में जमाखोर हैं कौन? सबसे बड़ी जमाख़ोर तो कारगिल कंपनी को माना जाता है। यह अमरीका की निजी क्षेत्र की सबसे बड़ी कंपनी है। हज़ारों हज़ार अरब डॉलर की यह कंपनी बड़े से बड़े गोदामों में ज्य़ादा से ज्य़ादा अनाज बरसों तक जमा रखने की ताकत रखती है। पूरे देश में, बहुत सारे जिलों में जहां सरकारी खरीद हो रही है वहां इनका भी खरीद केंद्र है। यह किसानों से तो पैदावार खरीद रहे हैं, बाकी चीनी वग़ैरह बाज़ार से खरीद करके जमा कर रहे हैं। इसके अलावा देश के सबसे बड़े औद्योगिक घराने अब अनाज की खरीद फरोख्त के धंधे में लगे हुए हैं। ज़ाहिर है कि उनकी वित्तीय ताकत इतनी ज्य़ादा है जिसकी पुराने स्टाइल वाले जमाखोर सपने में भी कल्पना नहीं कर सकते।
इसलिए सरकार के कृषिमंत्री के गैर जि़म्मेदार बयान के अलावा केंद्र सरकार की जमाखोरी समर्थक नीति भी मंहगाई के लिए जि़म्मेवार है। लगता है कि जब मंहगाई का ठीकरा शरद पवार की तरफ से प्रधानमंत्री के दरवाज़े फोडऩे की बात की गई तो विदेशी कंपनियों के हस्तक्षेप और वायदा कारोबार की नीतियां बनाने वाली सरकार के मुखिया को जि़म्मेदार ठहराने की कोशिश की जा रही है। लेकिन आम आदमी का इस बात से और सरकारी मंत्रियों के झगड़े से कोई मतलब नहीं है। अवाम को तो मंहगाई से मुक्ति चाहिए और अगर मौजूदा सरकार खाने पीने की चीजों के दाम कम न कर सकी तो वर्तमान यूपीए सरकार के लिए बहुत मुश्किल होगी।
मंहगाई अब केंद्र सरकार के गले पड़ गई है। पिछले कई महीने से खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय की तरफ से गोलमोल बातें की जाती रहीं लेकिन जब मीडिया ने लगभग पूरी तरह से साबित कर दिया कि सरकारी नीतियां ही मंहगाई के लिए जिम्मेदार हैं तो अब केंद्र सरकार में सर्वोच्च स्तर पर आरोप प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया है।
खाद्य और कृषि मंत्री ने अपने ताज़ा बयान में प्रधानमंत्री को ही मंहगाई के लिए जि़म्मेदार बताकर मंहगाई पर चल रही बहस को बहुत ही ज्य़ादा गरम कर दिया है। संसदीय लोकतंत्र की सरकार वाली पद्घति में अगर कोई मंत्री प्रधानमंत्री पर सरकार की विफलता का आरोप लगाए तो यह बहुत गंभीर बात है, लेकिन आरोप लगा है और उसकी विधिवत समीक्षा की जानी चाहिए।
जैसा कि सबको मालूम है कि मंहगाई के लिए सबसे ज्य़ादा तो कृषि और खाद्य मंत्री के वे बयान जि़म्मेदार हैं जिसमें वे चीनी, दूध और अन्य खाद्य सामग्री की किल्लत और संभावित मंहगाई के बारे में चेतावनी दिया करते थे। चीनी की कीमतें तो जमाखोरों ने केंद्रीय मंत्री के गैर जिम्मेदार बयानों की वजह से बढ़ाईं। लेकिन केंद्र सरकार की वे नीतियां भी कम जि़म्मेदार नहीं हैं जिनकी वजह से जमाखोरी को पिछले दरवाज़े से सरकारी मंज़ूरी दे दी गई है। पिछली यूपीए सरकार के दौरान जब कीमतें बढऩे लगीं तो मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता सीताराम येचुरी ने बार-बार यह साबित किया था कि अनाज और अन्य खाद्य सामग्री में वायदा कारोबार की नीति बनाकर सरकार ने व्यापारियों को एक तरह से जमाखोरी करने का लाइसेंस दे दिया है। वायदा कारोबार का मतलब होता है कि खरीदार और विक्रेता के बीच कुछ महीने बाद की खरीदारी का समझौता हो जाता है। वास्तव में कोई खरीद नहीं होती लेकिन माल गोदाम में मौजूद होना चाहिए। इस तरह किसानों की पैदावार का एक बड़ा हिस्सा जमाखोरी के हवाले हो जाता है।
यह देखना दिलचस्प होगा कि वास्तव में जमाखोर हैं कौन? सबसे बड़ी जमाख़ोर तो कारगिल कंपनी को माना जाता है। यह अमरीका की निजी क्षेत्र की सबसे बड़ी कंपनी है। हज़ारों हज़ार अरब डॉलर की यह कंपनी बड़े से बड़े गोदामों में ज्य़ादा से ज्य़ादा अनाज बरसों तक जमा रखने की ताकत रखती है। पूरे देश में, बहुत सारे जिलों में जहां सरकारी खरीद हो रही है वहां इनका भी खरीद केंद्र है। यह किसानों से तो पैदावार खरीद रहे हैं, बाकी चीनी वग़ैरह बाज़ार से खरीद करके जमा कर रहे हैं। इसके अलावा देश के सबसे बड़े औद्योगिक घराने अब अनाज की खरीद फरोख्त के धंधे में लगे हुए हैं। ज़ाहिर है कि उनकी वित्तीय ताकत इतनी ज्य़ादा है जिसकी पुराने स्टाइल वाले जमाखोर सपने में भी कल्पना नहीं कर सकते।
इसलिए सरकार के कृषिमंत्री के गैर जि़म्मेदार बयान के अलावा केंद्र सरकार की जमाखोरी समर्थक नीति भी मंहगाई के लिए जि़म्मेवार है। लगता है कि जब मंहगाई का ठीकरा शरद पवार की तरफ से प्रधानमंत्री के दरवाज़े फोडऩे की बात की गई तो विदेशी कंपनियों के हस्तक्षेप और वायदा कारोबार की नीतियां बनाने वाली सरकार के मुखिया को जि़म्मेदार ठहराने की कोशिश की जा रही है। लेकिन आम आदमी का इस बात से और सरकारी मंत्रियों के झगड़े से कोई मतलब नहीं है। अवाम को तो मंहगाई से मुक्ति चाहिए और अगर मौजूदा सरकार खाने पीने की चीजों के दाम कम न कर सकी तो वर्तमान यूपीए सरकार के लिए बहुत मुश्किल होगी।
Monday, January 25, 2010
कल्याण सिंह ने कहा-- अमर सिंह बहुत अच्छे नेता
शेष नारायण सिंह
अमर सिंह को खोकर मुलायम सिंह यादव का भारी नुकसान हुआ है ..अमर सिंह बहुत अच्छे इंसान हैं , राजनीतिक प्रबंधन का कौशल उनके टक्कर का किसी और नेता में नहीं है . उन्होंने मुलायम सिंह यादव की पार्टी को बहुत मजबूती दी और आय से अधिक संपत्ति के मामले में उनको अमर सिंह ने ही बचाया . अमर सिंह एक बहुत अच्छे नेता हैं और मैं उनका बहुत आदर करता हूँ .उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री, कल्याण सिंह ने एक बातचीत के दौरान यह बातें कहीं.. यह पूछे जाने पर कि क्या आप अमर सिंह को अपने साथ लेंगें , उन्होंने सीधा जवाब नहीं दिया. बोले कि अभी अमर सिंह के लिए पार्टी में शामिल होना तकनीकी रूप से अड़चन वाला काम है क्योंकि जब तक समाजवादी पार्टी उन्हें निष्कासित नहीं करती उन्हें उसी पार्टी में रहना पड़ेगा. क्योंकि अगर खुद इस्तीफ़ा दे देगें तो राज्य सभा की सदस्यता जायेगी. इस लिए जब तक वे समाजवादी पार्टी से अलग नहीं होते उनके लिए कोई भी पार्टी ज्वाइन करना संभव नहीं है ... कल्याण सिंह ने इस बात को भी सिरे से खारिज कर दिया कि अमर सिंह उन्हें समाजवादी पार्टी के साथ लाये थे. उन्होंने कहा कि मुलायम सिंह ही उनके बेटे के घर गए और लखनऊ उनके घर गए. साथ में अमर सिंह भी थे लेकिन लाये मुलायम सिंह यादव ही थे . उन्होंने इस बात पर अपनी नाराज़गी जताई कि बाद में उन्हें अपमानित करके अलग कर दिया और कहा कि गलती से आगरा सम्मलेन के लिए कार्ड पंहुच गया था और कल्याण सिंह चले आये. . कोई उनसे पूछे कि आगरा में जब माइक पर माननीय मुलायम सिंह यादव , कल्याण सिंह जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे तो वह भी गलती से हो गया था . मुलायम सिंह की आदत है कि वे लोगों को मझधार में छोड़ देते हैं ..वही मेरे साथ हुआ और वही अब अमर सिंह के साथ हो रहा है. हाँ इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि जब अमर सिंह को कहीं जगह न मिले तो वे और मुलायम सिंह फिर इकठ्ठा हो सकते हैं .. इसलिए अभी अमर सिंह के अगले पड़ाव के बारे में कुछ कहना ठीक नहीं होगा. जहां तक उनका सवाल है वे अब कभी भी मुलायम सिंह के साथ नहीं जायेंगें. क्योंकि अबकी जो नयी पार्टी, जन क्रान्ति पार्टी , बनायी गयी है वह उनका अपना फैसला नहीं है. दिल्ली , लखनऊ, डिबाई और अतरौली में अपने कार्यकर्ताओं की बैठक करके सबकी राय से पार्टी बनायी है. सब ने एक सुर से कहा था कि नया घर ,नयी पार्टी ,नया झंडा और नया एजेंडा लेकर हम आये हैं और अब बी जे पी या किसी अन्य पार्टी में जाने का कोई मतलब नहीं है .. कल्याण सिंह कहते हैं कि २०१२ में उत्तर प्रदेश में त्रिशंकु विधान सभा आना तय है और उनकी पार्टी करीब ६० सीटें लेकर ऐसी स्थिति में होगी जिस से कोई भी सरकार उनकी पार्टी से सहयोग लिए बिना न बन सके. कल्याण सिंह कहते है कि २०१२ में मायावती भी को १०० के थोडा ऊपर सीटें मिल सकती हैं और सबसे बड़ी पार्टी वही होगी. . उत्तर प्रदेश में जो अभी जंगलराज है , भ्रष्टाचार चरम पर है , लूट मची हुई है वह अगले दो साल में और बढ़ेगी जिसकी वजह से मायावती की सीट संख्या कम होगी. . सारे हल्ले गुल्ले के बाद भी कांग्रेस को ५० के आस पास ही सीटें मिलेंगीं. बी जे पी का कोई भी नेता राज्य में ऐसा नहीं है जिसकी वजह से चुनाव जीता जा सके.पहले बी जे पी को पार्टी विथ ए डिफरेंस कहा जाता था लेकिन अब वह ए पार्टी ऑफ़ डिफरेंसेज़ हो गयी है .. मुसलमान अब मुलायम सिंह के साथ नहीं है. पिछड़ा वर्ग भी उनके साथ नहीं है. इस सब का फ़ायदा लेकर कल्याण सिंह एक ताक़त वर राजनीतिक जमात बन सकने की उम्मीद लागाये बैठे हैं ..उनका दावा है कि उनकी पार्टी ही राज्य की तरक्की का कार्यक्रम बना कर चल रही है ..कल्याण सिंह की नज़र में मुलायम सिंह यादव एक अपरिपक्व नेता हैं जिन्होंने मुसलमानों के अलग होने के बाद मुझे आनन् फानन में अलग कर दिया जबकि आज़म खां ने बेमतलब इसको मुद्दा बना दिया था. . मुसलमान अलग इसलिए हुआ कि अब उसके सामने बी जे पी का हौवा नहीं है , बी जे पी अब उत्तर प्रदेश में एक राजनीतिक ताक़त नहीं है और मुसलमान कांग्रेस को बतौर विकल्प स्वीकार करने की तैयारी में है ..आज़म खां की नाराज़गी ,रामपुर से जया प्रदा की टिकट की वजह से थी जो वह ऐलानियाँ कह नहीं पाए और मेरे नाम पर हल्ला गुल्ला शुरू कर दिया .२०१२ में यह सारे चुनावी शिगूफे बेकार साबित होंगें क्योंकि उनकी पार्टी ने जो कार्यक्रम बनाया है उसकी तरफ सभी आकर्षित होंगें .. उनकी पार्टी का कार्यक्रम है प्रखर हिन्दुत्व , प्रखर राष्ट्रवाद,लोकतंत्र ,सामाजिक न्याय, राम मंदिर के प्रति प्रतिबद्धता और विकास मंदिर की रचना. कल्याण सिंह के इस हिन्दुत्व अभियान में रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट का विरोध भी शामिल है ..क्योंकि वह हिन्दू ओ बी सी का हक मारता है .. बहरहाल उनका यह कहना है कि उत्तर प्रदेश में राजनीतिक स्थिति बहुत ही डावाडोल है और आने वाला वक़्त और भी अराजकता की तरफ जा सकता है . और उनकी पार्टी आने के बाद सब का नुकसान होगा सिवा कांग्रेस के और सबके नुक्सान का फ़ायदा उनकी पार्टी को हो सकता है ..
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अमर सिंह को खोकर मुलायम सिंह यादव का भारी नुकसान हुआ है ..अमर सिंह बहुत अच्छे इंसान हैं , राजनीतिक प्रबंधन का कौशल उनके टक्कर का किसी और नेता में नहीं है . उन्होंने मुलायम सिंह यादव की पार्टी को बहुत मजबूती दी और आय से अधिक संपत्ति के मामले में उनको अमर सिंह ने ही बचाया . अमर सिंह एक बहुत अच्छे नेता हैं और मैं उनका बहुत आदर करता हूँ .उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री, कल्याण सिंह ने एक बातचीत के दौरान यह बातें कहीं.. यह पूछे जाने पर कि क्या आप अमर सिंह को अपने साथ लेंगें , उन्होंने सीधा जवाब नहीं दिया. बोले कि अभी अमर सिंह के लिए पार्टी में शामिल होना तकनीकी रूप से अड़चन वाला काम है क्योंकि जब तक समाजवादी पार्टी उन्हें निष्कासित नहीं करती उन्हें उसी पार्टी में रहना पड़ेगा. क्योंकि अगर खुद इस्तीफ़ा दे देगें तो राज्य सभा की सदस्यता जायेगी. इस लिए जब तक वे समाजवादी पार्टी से अलग नहीं होते उनके लिए कोई भी पार्टी ज्वाइन करना संभव नहीं है ... कल्याण सिंह ने इस बात को भी सिरे से खारिज कर दिया कि अमर सिंह उन्हें समाजवादी पार्टी के साथ लाये थे. उन्होंने कहा कि मुलायम सिंह ही उनके बेटे के घर गए और लखनऊ उनके घर गए. साथ में अमर सिंह भी थे लेकिन लाये मुलायम सिंह यादव ही थे . उन्होंने इस बात पर अपनी नाराज़गी जताई कि बाद में उन्हें अपमानित करके अलग कर दिया और कहा कि गलती से आगरा सम्मलेन के लिए कार्ड पंहुच गया था और कल्याण सिंह चले आये. . कोई उनसे पूछे कि आगरा में जब माइक पर माननीय मुलायम सिंह यादव , कल्याण सिंह जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे तो वह भी गलती से हो गया था . मुलायम सिंह की आदत है कि वे लोगों को मझधार में छोड़ देते हैं ..वही मेरे साथ हुआ और वही अब अमर सिंह के साथ हो रहा है. हाँ इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि जब अमर सिंह को कहीं जगह न मिले तो वे और मुलायम सिंह फिर इकठ्ठा हो सकते हैं .. इसलिए अभी अमर सिंह के अगले पड़ाव के बारे में कुछ कहना ठीक नहीं होगा. जहां तक उनका सवाल है वे अब कभी भी मुलायम सिंह के साथ नहीं जायेंगें. क्योंकि अबकी जो नयी पार्टी, जन क्रान्ति पार्टी , बनायी गयी है वह उनका अपना फैसला नहीं है. दिल्ली , लखनऊ, डिबाई और अतरौली में अपने कार्यकर्ताओं की बैठक करके सबकी राय से पार्टी बनायी है. सब ने एक सुर से कहा था कि नया घर ,नयी पार्टी ,नया झंडा और नया एजेंडा लेकर हम आये हैं और अब बी जे पी या किसी अन्य पार्टी में जाने का कोई मतलब नहीं है .. कल्याण सिंह कहते हैं कि २०१२ में उत्तर प्रदेश में त्रिशंकु विधान सभा आना तय है और उनकी पार्टी करीब ६० सीटें लेकर ऐसी स्थिति में होगी जिस से कोई भी सरकार उनकी पार्टी से सहयोग लिए बिना न बन सके. कल्याण सिंह कहते है कि २०१२ में मायावती भी को १०० के थोडा ऊपर सीटें मिल सकती हैं और सबसे बड़ी पार्टी वही होगी. . उत्तर प्रदेश में जो अभी जंगलराज है , भ्रष्टाचार चरम पर है , लूट मची हुई है वह अगले दो साल में और बढ़ेगी जिसकी वजह से मायावती की सीट संख्या कम होगी. . सारे हल्ले गुल्ले के बाद भी कांग्रेस को ५० के आस पास ही सीटें मिलेंगीं. बी जे पी का कोई भी नेता राज्य में ऐसा नहीं है जिसकी वजह से चुनाव जीता जा सके.पहले बी जे पी को पार्टी विथ ए डिफरेंस कहा जाता था लेकिन अब वह ए पार्टी ऑफ़ डिफरेंसेज़ हो गयी है .. मुसलमान अब मुलायम सिंह के साथ नहीं है. पिछड़ा वर्ग भी उनके साथ नहीं है. इस सब का फ़ायदा लेकर कल्याण सिंह एक ताक़त वर राजनीतिक जमात बन सकने की उम्मीद लागाये बैठे हैं ..उनका दावा है कि उनकी पार्टी ही राज्य की तरक्की का कार्यक्रम बना कर चल रही है ..कल्याण सिंह की नज़र में मुलायम सिंह यादव एक अपरिपक्व नेता हैं जिन्होंने मुसलमानों के अलग होने के बाद मुझे आनन् फानन में अलग कर दिया जबकि आज़म खां ने बेमतलब इसको मुद्दा बना दिया था. . मुसलमान अलग इसलिए हुआ कि अब उसके सामने बी जे पी का हौवा नहीं है , बी जे पी अब उत्तर प्रदेश में एक राजनीतिक ताक़त नहीं है और मुसलमान कांग्रेस को बतौर विकल्प स्वीकार करने की तैयारी में है ..आज़म खां की नाराज़गी ,रामपुर से जया प्रदा की टिकट की वजह से थी जो वह ऐलानियाँ कह नहीं पाए और मेरे नाम पर हल्ला गुल्ला शुरू कर दिया .२०१२ में यह सारे चुनावी शिगूफे बेकार साबित होंगें क्योंकि उनकी पार्टी ने जो कार्यक्रम बनाया है उसकी तरफ सभी आकर्षित होंगें .. उनकी पार्टी का कार्यक्रम है प्रखर हिन्दुत्व , प्रखर राष्ट्रवाद,लोकतंत्र ,सामाजिक न्याय, राम मंदिर के प्रति प्रतिबद्धता और विकास मंदिर की रचना. कल्याण सिंह के इस हिन्दुत्व अभियान में रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट का विरोध भी शामिल है ..क्योंकि वह हिन्दू ओ बी सी का हक मारता है .. बहरहाल उनका यह कहना है कि उत्तर प्रदेश में राजनीतिक स्थिति बहुत ही डावाडोल है और आने वाला वक़्त और भी अराजकता की तरफ जा सकता है . और उनकी पार्टी आने के बाद सब का नुकसान होगा सिवा कांग्रेस के और सबके नुक्सान का फ़ायदा उनकी पार्टी को हो सकता है ..
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Saturday, January 23, 2010
अलविदा, छोटे लोहिया
शेष नारायण सिंह
76 साल की उम्र में जनेश्वर मिश्र ने इस दुनिया को अलविदा कहा। आज सुबह इलाहाबाद में उन्होंने अंतिम सांस ली। सुबह अचानक तबीयत बिगडऩे पर उन्हें लखनऊ के पी.जी.आई. ले जाने की सलाह दी गई क्योंकि उन के ऊपर ब्रेन हैमरेज का अटैक हुआ था। शहर से बाहर भी नहीं निकल पाए थे कि आखरी वक्त आ गया
और समाजवादी राजनीति के शलाका पुरूष ने हमेशा के लिए कूच कर दिया है और इस तरह से उसी इलाहाबाद में उन्होंने अपने आपको समाहित कर दिया जहां की क्षिति, जल, पावक और वायु उनके रोम-रोम में समाया हुआ था।
जनेश्वर मिश्र की मृत्यु समाजवादी आंदोलन की उस परम्परा का पटाक्षेप है जिसमें गप के जरिये सभी विषयों पर चर्चा होती थी। डॉ. लोहिया भारतीय राजनीति की इस पंरम्परा के आदि पुरूष थे। दिल्ली में लोहिया के बाद मधु लिमये ने उस पंरम्परा को जारी रखा था। मधु जी के बाद जनेश्वर मिश्र के यहां पूरे देश से आए समाजवादियों का मिलन स्थल बना था। अब उजड़ गया। जनेश्वर मिश्र समाजवादियों की उस पंरम्परा के प्रतिनिधि थे फकीरी जिसका स्थाई भाव है। इलाहाबाद में बी.ए. की पढ़ाई के लिए दाखिला लिया लेकिन ऐसी पढ़ाई शुरू की कि कभी छुट्टी ही नहीं मिली और आज पांच दशक बाद अपना नाम ही कटवा कर चल पड़े।
इंटरमीडिएट के छात्र के रूप में ही जनेश्वर मिश्र ने यह सबूत दे दिया था कि वे संघर्ष के लिए ही पैदा हुए हैं। बलिया में जब उन्हें पता लगा कि उपस्थिति कम होने की वजह से परीक्षा नहीं दे सकते तो इलाहाबाद आकर बोर्ड के अधिकारियों से मिले। जब यहां भी काम नहीं बना तो लखनऊ जाकर शिक्षामंत्री संपूर्णानंद से मिलकर उत्तर प्रदेश के उन सभी छात्रों को इंटर परीक्षा में शामिल होने की अनुमति का आदेश पारित करवाया जिनकी उपस्थिति कम थी। पचास के दशक से ही इलाहाबाद और बाकी उत्तर प्रदेश के सभी समाजवादी आंदोलनों में जनेश्वर मिश्र के हस्ताक्षर साफ नजर आते थे। समाजवादी नेताओं की एक बड़ी फेहरीस्त है जो जनेश्वर मिश्र के कामरेड रहे चुके है। मुलायम सिंह यादव, बृज भूषण तिवारी, मोहन सिंह, जनार्दन द्विवेदी, सत्यदेव द्विवेदी आदि सभी उनके साथी थे। गैर कांग्रेसवाद की डॉ. लोहिया की राजनीतिक सोच को अमली जामा पहनाने की गरज से 1963 में जो चार उपचुनाव हुए थे उसमें फर्रूखाबाद वाला चुनाव डॉ. लोहिया ने खुद लड़ा था। पूरे देश के समाजवादी वहां जमा हुए। इलाहाबाद विश्वविद्यालय और उत्तर प्रदेश के नौजवानों की अगुवाई जनेश्वर ने की थी।
जब उन्होंने जवाहर लाल नेहरू की बहन विजय लक्ष्मी पंडित को फूलपुर संसदीय क्षेत्र में चुनौती दी तो पूरी दुनिया के प्रगतिशील लोगों की नजर उस चुनाव पर थी। संयुक्त राष्ट्र के राजदूत बनने के चक्कर में विजय लक्ष्मी पंडित ने इस्तीफ दिया तो कांग्रेस ने केशव देव मालवीय को फूलपुर उपचुनाव के 1969 में उम्मीदवार बनाया। जनेश्वर मिश्र ने जब उनको पराजित किया तो पूरी दुनिया के प्रगतिशीलों ने जश्न मनाया था। यह समय लोकसभा में बहसों को भी स्वर्ण युग है। हरि विष्णू कामथ मधुलिमये, ज्योतिर्मय बसु, अटल बिहारी वाजपेयी, जनेश्वर मिश्र सभी विपक्षी बेंचों पर बैठते थे और इंदिरा गांधी की सरकार को सही विपक्ष मिलता था।
इमरजेंसी में जेल यात्रा काटने के बाद जब वे 1977 में फूलपुर से चुनकर आए तो जनता पार्टी की सरकार में मंत्री बने। वैसे मंत्री तो वे 1989, 1990 और 1996 में भी बनाए गए लेकिन मंत्री पद का उन पर कोई असर नहीं पड़ता था। गंभीर से गंभीर राजनतिक विषयों पर बातचीत के जरिए विमर्श करना उनकी फितरत थी। समाजवाद में भी उन्होंने पाखंड का हमेशा विरोध किया और पूंजीवादी समाजवाद को कभी बर्दाश्त नही किया। जीवन के अंतिम दिनों में उन्हें अपनी पार्टी के एक नेता की तल्ख बातों का भी सामना करना पड़ा लेकिन इस रिर्पोटर को उन्होंने जो बात ऑफ दि रिकार्ड बताई थी। उससे साफ है कि वे बिना मतलब की टिप्पणी की परवाह नहीं करते थे। बृज भूषण तिवारी, मुलायम सिंह यादव और राम गोपाल यादव के खिलाफ वे कोई भी उल्टी सीधी बात बर्दाश्त नहीं कर पाते थे। आखरी कुछ वर्षो मे मिठाई खाना मना था लेकिन साथ बैठे लोगों को जरूर खिलवाते थे और थोड़ा सा खुद भी चख लेते थे। उनकी महानता में बाल सुलभ सादगी थी जिसकी वजह से बड़ा से बड़ा और मामूली से मामूली आदमी उन्हें अपना मानता था।
76 साल की उम्र में जनेश्वर मिश्र ने इस दुनिया को अलविदा कहा। आज सुबह इलाहाबाद में उन्होंने अंतिम सांस ली। सुबह अचानक तबीयत बिगडऩे पर उन्हें लखनऊ के पी.जी.आई. ले जाने की सलाह दी गई क्योंकि उन के ऊपर ब्रेन हैमरेज का अटैक हुआ था। शहर से बाहर भी नहीं निकल पाए थे कि आखरी वक्त आ गया
और समाजवादी राजनीति के शलाका पुरूष ने हमेशा के लिए कूच कर दिया है और इस तरह से उसी इलाहाबाद में उन्होंने अपने आपको समाहित कर दिया जहां की क्षिति, जल, पावक और वायु उनके रोम-रोम में समाया हुआ था।
जनेश्वर मिश्र की मृत्यु समाजवादी आंदोलन की उस परम्परा का पटाक्षेप है जिसमें गप के जरिये सभी विषयों पर चर्चा होती थी। डॉ. लोहिया भारतीय राजनीति की इस पंरम्परा के आदि पुरूष थे। दिल्ली में लोहिया के बाद मधु लिमये ने उस पंरम्परा को जारी रखा था। मधु जी के बाद जनेश्वर मिश्र के यहां पूरे देश से आए समाजवादियों का मिलन स्थल बना था। अब उजड़ गया। जनेश्वर मिश्र समाजवादियों की उस पंरम्परा के प्रतिनिधि थे फकीरी जिसका स्थाई भाव है। इलाहाबाद में बी.ए. की पढ़ाई के लिए दाखिला लिया लेकिन ऐसी पढ़ाई शुरू की कि कभी छुट्टी ही नहीं मिली और आज पांच दशक बाद अपना नाम ही कटवा कर चल पड़े।
इंटरमीडिएट के छात्र के रूप में ही जनेश्वर मिश्र ने यह सबूत दे दिया था कि वे संघर्ष के लिए ही पैदा हुए हैं। बलिया में जब उन्हें पता लगा कि उपस्थिति कम होने की वजह से परीक्षा नहीं दे सकते तो इलाहाबाद आकर बोर्ड के अधिकारियों से मिले। जब यहां भी काम नहीं बना तो लखनऊ जाकर शिक्षामंत्री संपूर्णानंद से मिलकर उत्तर प्रदेश के उन सभी छात्रों को इंटर परीक्षा में शामिल होने की अनुमति का आदेश पारित करवाया जिनकी उपस्थिति कम थी। पचास के दशक से ही इलाहाबाद और बाकी उत्तर प्रदेश के सभी समाजवादी आंदोलनों में जनेश्वर मिश्र के हस्ताक्षर साफ नजर आते थे। समाजवादी नेताओं की एक बड़ी फेहरीस्त है जो जनेश्वर मिश्र के कामरेड रहे चुके है। मुलायम सिंह यादव, बृज भूषण तिवारी, मोहन सिंह, जनार्दन द्विवेदी, सत्यदेव द्विवेदी आदि सभी उनके साथी थे। गैर कांग्रेसवाद की डॉ. लोहिया की राजनीतिक सोच को अमली जामा पहनाने की गरज से 1963 में जो चार उपचुनाव हुए थे उसमें फर्रूखाबाद वाला चुनाव डॉ. लोहिया ने खुद लड़ा था। पूरे देश के समाजवादी वहां जमा हुए। इलाहाबाद विश्वविद्यालय और उत्तर प्रदेश के नौजवानों की अगुवाई जनेश्वर ने की थी।
जब उन्होंने जवाहर लाल नेहरू की बहन विजय लक्ष्मी पंडित को फूलपुर संसदीय क्षेत्र में चुनौती दी तो पूरी दुनिया के प्रगतिशील लोगों की नजर उस चुनाव पर थी। संयुक्त राष्ट्र के राजदूत बनने के चक्कर में विजय लक्ष्मी पंडित ने इस्तीफ दिया तो कांग्रेस ने केशव देव मालवीय को फूलपुर उपचुनाव के 1969 में उम्मीदवार बनाया। जनेश्वर मिश्र ने जब उनको पराजित किया तो पूरी दुनिया के प्रगतिशीलों ने जश्न मनाया था। यह समय लोकसभा में बहसों को भी स्वर्ण युग है। हरि विष्णू कामथ मधुलिमये, ज्योतिर्मय बसु, अटल बिहारी वाजपेयी, जनेश्वर मिश्र सभी विपक्षी बेंचों पर बैठते थे और इंदिरा गांधी की सरकार को सही विपक्ष मिलता था।
इमरजेंसी में जेल यात्रा काटने के बाद जब वे 1977 में फूलपुर से चुनकर आए तो जनता पार्टी की सरकार में मंत्री बने। वैसे मंत्री तो वे 1989, 1990 और 1996 में भी बनाए गए लेकिन मंत्री पद का उन पर कोई असर नहीं पड़ता था। गंभीर से गंभीर राजनतिक विषयों पर बातचीत के जरिए विमर्श करना उनकी फितरत थी। समाजवाद में भी उन्होंने पाखंड का हमेशा विरोध किया और पूंजीवादी समाजवाद को कभी बर्दाश्त नही किया। जीवन के अंतिम दिनों में उन्हें अपनी पार्टी के एक नेता की तल्ख बातों का भी सामना करना पड़ा लेकिन इस रिर्पोटर को उन्होंने जो बात ऑफ दि रिकार्ड बताई थी। उससे साफ है कि वे बिना मतलब की टिप्पणी की परवाह नहीं करते थे। बृज भूषण तिवारी, मुलायम सिंह यादव और राम गोपाल यादव के खिलाफ वे कोई भी उल्टी सीधी बात बर्दाश्त नहीं कर पाते थे। आखरी कुछ वर्षो मे मिठाई खाना मना था लेकिन साथ बैठे लोगों को जरूर खिलवाते थे और थोड़ा सा खुद भी चख लेते थे। उनकी महानता में बाल सुलभ सादगी थी जिसकी वजह से बड़ा से बड़ा और मामूली से मामूली आदमी उन्हें अपना मानता था।
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Friday, January 22, 2010
गैरज़िम्मेदार मंत्री, विदेशी हस्तक्षेप और महंगाई
शेष नारायण सिंह
केंद्रीय कृषि और खाद्य मंत्री ,शरद पवार ने एक बार फिर वह काम किया है जिसके लिए उन्हें गरीब आदमी कभी माफ़ नहीं करेगा.एक बार फिर उन्होंने सरकार के संभावित फैसले को लीक कर के महंगाई के नीचे पिस रही जनता को भूख से मरने वालों की अगली कतार में झोंक दिया है .उन्होंने एक बयान दे दिया है कि आने वाले कुछ दिनों में दूध की कीमतें भी बढ़ने वाली हैं ... उनके इस बयान का असर यह हुआ है कि अभी सरकार तो पता नहीं कब दूध की कीमतें बढायेगी, लेकिन आज सुबह से ही दूध वालों ने निरीह मिडिल क्लास के लोगों से दूध की ज्यादा कीमतें वसूलना शुरू कर दिया है ...अभी कुछ हफ्ते पहले उन्होंने चीनी की कीमतें बढ़ने की चेतावनी दे कर चीनी के जमाखोरों को आगाह कर दिया था कि चीनी की मूल्यवृद्धि के बहाने आम आदमी की जेब पर हमला बोलने का वक़्त आ गया है ..जमाखोरों और मुनाफाखोरों ने उनकी उस सूचना का फायदा भी उठाया और चीनी की कीमतें आसमान तक पंहुच गयी.चीनी के जमाखोरों को फायदा पंहुचाने की बात समझ में आती है क्योंकि शरद पवार को आम तौर पर शुगर लॉबी का एजेंट माना जाता है और वे खुद भी कई चीनी मिलों में हिस्सेदार हैं . इस देश में इस बात का इतिहास रहा है कि शुगर लॉबी वाले और चीन मिल मालिक सरकार में शामिल अपने बन्दों की मदद से मुनाफाखोरी करते रहे हैं . शरद पवार तो पहले से ही शुगर लॉबी के आदमी माने जाते हैं. इसलिए जब उन्होंने चीनी की कीमतों को बढाने की चीनी मिल मालिकों और जमाखोरों की साज़िश में सरगना के रूप में हिस्सा लेना शुरू किया तो लोगों को लगा कि एक भ्रष्ट मंत्री को जो करना चाहिए, कर रहा है . जनता चीनी की बढ़ती कीमतों का तमाशा देखती रही और त्राहि त्राहि करती रही. दुनिया जानती है कि चीनी की कीमत बढ़ने से बहुत सारी चीज़ों की कीमतें अपने आप बढ़ जाती हैं . शरद पवार को कोई फर्क नहीं पड़ा. वे नीरो की तरह अपने काम में लगे रहे . जिस तरह जब रोम में आग लगी थी तो नीरो बांसुरी बजा रहा था उसी तरह जब चौतरफा राजनीतिक दबाव के बाद बुरी तरह घिर चुकी सरकार ने कुछ करने की कोशिश की तो सरकारी सख्ती को बिलकुल बेकार करने की गरज से शरद पवार ने कहा कि मैं ज्योतिषी नहीं हूँ जो चीनी की कीमतों को कम करने के बारे में कोई तारीख बता सकूं. इसका सीधा मतलब यह था कि शरद पवार ने चीनी के जमाखोरों को आश्वस्त कर दिया था कि घबड़ाओ मत अभी कुछ नहीं होने वाला है . लूटमार बदस्तूर जारी रही और जब केंद्र सरकार ने लोकलाज से बचने के लिए खाद्यमंत्री को टाईट किया तो उन्होंने फरमाया कि अभी चीनी की कीमतें कम होने में दस दिन लगेंगें . इसका मतलब यह हुआ कि उन्होंने साफ़ भरोसा दे दिया चीनी के जमाखोरों और मुनाफाखोरों को कि अभी दस दिन तक का समय है अपना सारा हिसाब किताब दुरुस्त कर लो.. स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक से एक भ्रष्ट और गैर ज़िम्मेदार मंत्री हुए है लेकिन लगता है कि शरद पवार उस लिस्ट में सबसे ऊपर पाए जायेंगें .. . शरद पवार को एक और काम में भी महारत हासिल है .अपनी शातिराना साजिशों के असर का ज़िम्मा किसी और के ऊपर मढ़ देने में भी उनका जवाब नहीं है .. जब पिछले दिनों चौतरफा महंगाई के लिए उनसे मीडिया ने सवाल किया तो उन्होंने कहा कि राशन की दुकानों और गरीबी के रेखा के नीचे के लोगों का काम राज्य सरकारों के जिम्मे है और राज्य सरकारें अपना काम सही तरीके से नहीं कर रहीहैं इसलिए महंगाई पर काबू पाने में दिक्क़त हो रही है . . चीनी की कीमतें बढाने के साज़िश में शरद पवार के शामिल होने की बात में आम तौर किसी शक की गुंजाइश नहीं है . लेकिन केंद्रीय सरकार में विभिन्न व्यापारिक हितों के प्रतिनिधियों के शामिल होने की वजह से भी खाने पीने की चीज़ों के दाम आसमान छू रहे हैं . महंगाई का एक बड़ा कारण यह भी है कि अनाज के वायदा कारोबार का काम भी शुरू हो गया है . यानी जमाखोरों को इस बात की छूट है कि वे जितना चाहें ,उतना अनाज जमा कर के कीमतें बढ़ने पर बेचें ..इसकी वजह से बहुत बड़े पैमाने पर आनाज जमाखोरों के गोदामों में जमा है . हालांकि यह बात अखबारों में ठीक से प्रचारित नहीं की गयी है लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि अमरीका की सबसे बड़ी निजी क्षेत्र की कंपनी कारगिल भी पिछले कुछ वर्षों से देश में बहुत बड़े पैमाने पर अनाज की खरीद कर रही है . उसने जिलों में अपने कर्मचारी तैनात कर रखे हैं जो एफ सी आई से ज्यादा कीमत पर गेहूं और धान की खरीद कर रहे हैं . इस खरीद का सारा हिस्सा सीधे वायदा कारोबार के हवाले हो जाता है . इसका एक तोला भी राशन की दुकानों या सार्वजनिक वितरण की प्रणाली में नहीं जाता . ज़ाहिर है इसकी वजह से कृत्रिम कमी के हालात बन रहे हैं ...यही हाल चीनी का भी है .. सवाल उठता है कि कारगिल को तो शरद पवार ने देश में अनाज खरीदने की अनुमति नहीं दी . , उसके लिए तो अमरीका परस्ती की केंद्र सरकार की नीतियाँ ही ज़िम्मेदार मानी जायेंगीं. .पता लगाने की ज़रुरत है किअपने देश में इस तरह से खुले आम खरीद करने की अनुमति कारगिल जैसी कंपनी को किसने दी है . कारगिल की भयावहता के बारे में अभी भारत में जानकारी का अभाव है. यह वही कंपनी है जिसने लातिन अमरीका के कई देशों में खाने पीने की चीज़ों की कृत्रिम कमी का माहौल बनाया और वहां खाद्य दंगें तक करवाए. कारगिल अफ्रीका के कई देशों में सरकारे गिराने का काम भी कर चुका है .. . दुनिया में कई देशों की सरकारें कारगिल की नाराज़गी झेल चुकी हैं और उन्हें अपदस्थ भी होना पड़ा है ..अमरीकी प्रशासन में भी इस कंपनी की तूती बोलती है .. इस बात की जांच करना दिलचस्प होगा कि किस राजनेता ने कारगिल को देश में काम करने की अनुमति दी है . खाद्य सामग्री की कमी का ज़िम्मा उस व्यक्ति पर भी डालना पडेगा. ..
केंद्र सरकार में बैठे लोगों को यह भी ध्यान रखना पड़ेगा कि आम आदमी की पंहुच से खाने पीने की चीज़ों को हटा कर , संविधान के उस मूल अधिकार का भी उन्ल्लंघन हो रहा है जिसके तहत संविधान से सभी नागरिकों को राईट तो फ़ूड का प्रावधान किया है .. जो सरकार दो जून की रोटी के लिए भी आम आदमी को तरसाने की फ़िराक़ में है उसे सत्ता में बने रहने का कोई अधिकार नहीं है .... ऐसा नहीं है कि नागरिकों के सामने से रोटी का निवाला छीनने के लिए केवल शरद पवार की ज़िम्मेदार हैं . मौजूदा केंद्र सरकार में और भी ऐसे सूरमा मंत्री हैं जो जनता के पेट पर लात मार कर अपनी पूंजीपति आकाओं को खुश करने के लिए तड़प रहे हैं ... अभी पिछले हफ्ते एक श्रीमान जी को जनता के गुस्से से घबडाई केंद्र सरकार ने रोका वरना वे तो डीज़ल और पेट्रोल की कीमतें भी बढाने जा रहे थे . सबको मालूम है कि पेट्रोल और डीज़ल की कीमतें बढ़ने से चौतरफा महंगाई आती है ..लेकिन आज पूंजीपतियों के हुक्म की गुलाम सरकार से कोई उम्मीद करना बिलकुल ठीक नहीं है . हाँ यह उम्मीद की जा सकती है कि मौजूदा सरकार अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए ही सही , अनाज, चीनी और पेट्रोल की कीमतों के ज़रिये आम आदमी को लूटने के लिए बैठे पूंजी पतियों को थोडा बहुत काबू में करेगी क्योंकि अगर ऐसा न हुआ और जनता सडकों पर आ गयी तो तब तो ताज भी उछलेंगें और तख़्त भी उछाले जायेंगें
केंद्रीय कृषि और खाद्य मंत्री ,शरद पवार ने एक बार फिर वह काम किया है जिसके लिए उन्हें गरीब आदमी कभी माफ़ नहीं करेगा.एक बार फिर उन्होंने सरकार के संभावित फैसले को लीक कर के महंगाई के नीचे पिस रही जनता को भूख से मरने वालों की अगली कतार में झोंक दिया है .उन्होंने एक बयान दे दिया है कि आने वाले कुछ दिनों में दूध की कीमतें भी बढ़ने वाली हैं ... उनके इस बयान का असर यह हुआ है कि अभी सरकार तो पता नहीं कब दूध की कीमतें बढायेगी, लेकिन आज सुबह से ही दूध वालों ने निरीह मिडिल क्लास के लोगों से दूध की ज्यादा कीमतें वसूलना शुरू कर दिया है ...अभी कुछ हफ्ते पहले उन्होंने चीनी की कीमतें बढ़ने की चेतावनी दे कर चीनी के जमाखोरों को आगाह कर दिया था कि चीनी की मूल्यवृद्धि के बहाने आम आदमी की जेब पर हमला बोलने का वक़्त आ गया है ..जमाखोरों और मुनाफाखोरों ने उनकी उस सूचना का फायदा भी उठाया और चीनी की कीमतें आसमान तक पंहुच गयी.चीनी के जमाखोरों को फायदा पंहुचाने की बात समझ में आती है क्योंकि शरद पवार को आम तौर पर शुगर लॉबी का एजेंट माना जाता है और वे खुद भी कई चीनी मिलों में हिस्सेदार हैं . इस देश में इस बात का इतिहास रहा है कि शुगर लॉबी वाले और चीन मिल मालिक सरकार में शामिल अपने बन्दों की मदद से मुनाफाखोरी करते रहे हैं . शरद पवार तो पहले से ही शुगर लॉबी के आदमी माने जाते हैं. इसलिए जब उन्होंने चीनी की कीमतों को बढाने की चीनी मिल मालिकों और जमाखोरों की साज़िश में सरगना के रूप में हिस्सा लेना शुरू किया तो लोगों को लगा कि एक भ्रष्ट मंत्री को जो करना चाहिए, कर रहा है . जनता चीनी की बढ़ती कीमतों का तमाशा देखती रही और त्राहि त्राहि करती रही. दुनिया जानती है कि चीनी की कीमत बढ़ने से बहुत सारी चीज़ों की कीमतें अपने आप बढ़ जाती हैं . शरद पवार को कोई फर्क नहीं पड़ा. वे नीरो की तरह अपने काम में लगे रहे . जिस तरह जब रोम में आग लगी थी तो नीरो बांसुरी बजा रहा था उसी तरह जब चौतरफा राजनीतिक दबाव के बाद बुरी तरह घिर चुकी सरकार ने कुछ करने की कोशिश की तो सरकारी सख्ती को बिलकुल बेकार करने की गरज से शरद पवार ने कहा कि मैं ज्योतिषी नहीं हूँ जो चीनी की कीमतों को कम करने के बारे में कोई तारीख बता सकूं. इसका सीधा मतलब यह था कि शरद पवार ने चीनी के जमाखोरों को आश्वस्त कर दिया था कि घबड़ाओ मत अभी कुछ नहीं होने वाला है . लूटमार बदस्तूर जारी रही और जब केंद्र सरकार ने लोकलाज से बचने के लिए खाद्यमंत्री को टाईट किया तो उन्होंने फरमाया कि अभी चीनी की कीमतें कम होने में दस दिन लगेंगें . इसका मतलब यह हुआ कि उन्होंने साफ़ भरोसा दे दिया चीनी के जमाखोरों और मुनाफाखोरों को कि अभी दस दिन तक का समय है अपना सारा हिसाब किताब दुरुस्त कर लो.. स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक से एक भ्रष्ट और गैर ज़िम्मेदार मंत्री हुए है लेकिन लगता है कि शरद पवार उस लिस्ट में सबसे ऊपर पाए जायेंगें .. . शरद पवार को एक और काम में भी महारत हासिल है .अपनी शातिराना साजिशों के असर का ज़िम्मा किसी और के ऊपर मढ़ देने में भी उनका जवाब नहीं है .. जब पिछले दिनों चौतरफा महंगाई के लिए उनसे मीडिया ने सवाल किया तो उन्होंने कहा कि राशन की दुकानों और गरीबी के रेखा के नीचे के लोगों का काम राज्य सरकारों के जिम्मे है और राज्य सरकारें अपना काम सही तरीके से नहीं कर रहीहैं इसलिए महंगाई पर काबू पाने में दिक्क़त हो रही है . . चीनी की कीमतें बढाने के साज़िश में शरद पवार के शामिल होने की बात में आम तौर किसी शक की गुंजाइश नहीं है . लेकिन केंद्रीय सरकार में विभिन्न व्यापारिक हितों के प्रतिनिधियों के शामिल होने की वजह से भी खाने पीने की चीज़ों के दाम आसमान छू रहे हैं . महंगाई का एक बड़ा कारण यह भी है कि अनाज के वायदा कारोबार का काम भी शुरू हो गया है . यानी जमाखोरों को इस बात की छूट है कि वे जितना चाहें ,उतना अनाज जमा कर के कीमतें बढ़ने पर बेचें ..इसकी वजह से बहुत बड़े पैमाने पर आनाज जमाखोरों के गोदामों में जमा है . हालांकि यह बात अखबारों में ठीक से प्रचारित नहीं की गयी है लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि अमरीका की सबसे बड़ी निजी क्षेत्र की कंपनी कारगिल भी पिछले कुछ वर्षों से देश में बहुत बड़े पैमाने पर अनाज की खरीद कर रही है . उसने जिलों में अपने कर्मचारी तैनात कर रखे हैं जो एफ सी आई से ज्यादा कीमत पर गेहूं और धान की खरीद कर रहे हैं . इस खरीद का सारा हिस्सा सीधे वायदा कारोबार के हवाले हो जाता है . इसका एक तोला भी राशन की दुकानों या सार्वजनिक वितरण की प्रणाली में नहीं जाता . ज़ाहिर है इसकी वजह से कृत्रिम कमी के हालात बन रहे हैं ...यही हाल चीनी का भी है .. सवाल उठता है कि कारगिल को तो शरद पवार ने देश में अनाज खरीदने की अनुमति नहीं दी . , उसके लिए तो अमरीका परस्ती की केंद्र सरकार की नीतियाँ ही ज़िम्मेदार मानी जायेंगीं. .पता लगाने की ज़रुरत है किअपने देश में इस तरह से खुले आम खरीद करने की अनुमति कारगिल जैसी कंपनी को किसने दी है . कारगिल की भयावहता के बारे में अभी भारत में जानकारी का अभाव है. यह वही कंपनी है जिसने लातिन अमरीका के कई देशों में खाने पीने की चीज़ों की कृत्रिम कमी का माहौल बनाया और वहां खाद्य दंगें तक करवाए. कारगिल अफ्रीका के कई देशों में सरकारे गिराने का काम भी कर चुका है .. . दुनिया में कई देशों की सरकारें कारगिल की नाराज़गी झेल चुकी हैं और उन्हें अपदस्थ भी होना पड़ा है ..अमरीकी प्रशासन में भी इस कंपनी की तूती बोलती है .. इस बात की जांच करना दिलचस्प होगा कि किस राजनेता ने कारगिल को देश में काम करने की अनुमति दी है . खाद्य सामग्री की कमी का ज़िम्मा उस व्यक्ति पर भी डालना पडेगा. ..
केंद्र सरकार में बैठे लोगों को यह भी ध्यान रखना पड़ेगा कि आम आदमी की पंहुच से खाने पीने की चीज़ों को हटा कर , संविधान के उस मूल अधिकार का भी उन्ल्लंघन हो रहा है जिसके तहत संविधान से सभी नागरिकों को राईट तो फ़ूड का प्रावधान किया है .. जो सरकार दो जून की रोटी के लिए भी आम आदमी को तरसाने की फ़िराक़ में है उसे सत्ता में बने रहने का कोई अधिकार नहीं है .... ऐसा नहीं है कि नागरिकों के सामने से रोटी का निवाला छीनने के लिए केवल शरद पवार की ज़िम्मेदार हैं . मौजूदा केंद्र सरकार में और भी ऐसे सूरमा मंत्री हैं जो जनता के पेट पर लात मार कर अपनी पूंजीपति आकाओं को खुश करने के लिए तड़प रहे हैं ... अभी पिछले हफ्ते एक श्रीमान जी को जनता के गुस्से से घबडाई केंद्र सरकार ने रोका वरना वे तो डीज़ल और पेट्रोल की कीमतें भी बढाने जा रहे थे . सबको मालूम है कि पेट्रोल और डीज़ल की कीमतें बढ़ने से चौतरफा महंगाई आती है ..लेकिन आज पूंजीपतियों के हुक्म की गुलाम सरकार से कोई उम्मीद करना बिलकुल ठीक नहीं है . हाँ यह उम्मीद की जा सकती है कि मौजूदा सरकार अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए ही सही , अनाज, चीनी और पेट्रोल की कीमतों के ज़रिये आम आदमी को लूटने के लिए बैठे पूंजी पतियों को थोडा बहुत काबू में करेगी क्योंकि अगर ऐसा न हुआ और जनता सडकों पर आ गयी तो तब तो ताज भी उछलेंगें और तख़्त भी उछाले जायेंगें
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Tuesday, January 19, 2010
भारतीय राजनीति के निराले व्यक्तित्व ज्योति बसु
शेष नारायण सिंह
ज्योति बसु नहीं रहे. ९५ साल की उम्र में उन्होंने अलविदा कहा. अपने राजनीतिक जीवन में उन्होंने बहुत सारी बुलंदियां तय कीं जो किसी भी राजनेता के लिए सपना हो सकता था. १९७७ में कांग्रेस की पराजय के बाद उन्हें पश्चिम बंगाल का मुख्य मंत्री बनाया गया था और जब शरीर कमज़ोर पड़ने लगा तो उन्होंने अपनी मर्जी से गद्दी छोड़ दी और बुद्धदेव भट्टाचार्य को मुख्यमंत्री बना दिया गया. १९७७ के बाद का उनका जीवन एक खुली किताब है. मुख्यमंत्री के रूप में उनका सार्वजनिक जीवन हमेशा कसौटी पर रहा लेकिन उनको कभी किसी ने कोई गलती करते नहीं देखा, न सुना. १९९६ की वह घटना दुनिया जानती है जब वे देश के प्रधान मंत्रीपद के लिए सर्वसम्मत उम्मीदवार बन गए थे लेकिन दफ्तर में बैठ कर राजनीति करने वाले कुछ सांचाबद्ध कम्युनिस्टों ने उन्हें रोक दिया. अगर ऐसा न हुआ होता तो देश देवगौड़ा को प्रधान मंत्री के रूप में न देखता . बहरहाल बाद के वक़्त में यह भी कहा कि १९९६७ में प्रधान मंत्री पद न लेना मार्क्सवादियों की ऐतिहासिक भूल थी. उस हादसे को ऐतिहासिक भूल मानने वालों में भी बहुत मतभेद है.
१९७७ में मुख्यमंत्री बनने के बाद वे एक राज्य के मुखिया थे लेकिन राष्ट्रीय राजनीति पर उनकी पकड़ हमेशा बनी रही. १९८९ में जब राजीव गाँधी की कांग्रेस चुनाव हार गयी तो आम तौर पर माना जा रहा था कि कोई भी सरकार बनना बहुत ही मुश्किल है. वी पी सिंह को ज्यादातर विपक्षी पार्टियां प्रधानमंत्री बनाने के चक्कर में थीं लेकिन यह समझ में नहीं आ रहा था कि लेफ्ट फ्रंट और बी जे पी एक ही सरकार को कैसे समर्थन करेंगें. ज्योति बसु ने बार बार कहा था कि बी जे पी पूरी तरह से साम्प्रदायिक पार्टी है तो कैसे जायेंगें उनके साथ. लेकिन ज्योति बसु और हरकिशन सिंह सुरजीत ने मिल कर ऐसा फार्मूला बनाया कि बीजेपी को वी पी सिंह को बाहर से समर्थन करने में कोई दिक्क़त नहीं रह गयी. प्रणय रॉय के साथ एक टेलिविज़न कार्यक्रम में सुरजीत ने ऐलान कर दिया कि वे वी पी सिंह को प्रधान मंत्री बनाने को तैयार हैं बशर्ते कि उस में बीजेपी का कोई मंत्री न हो. बस बन गयी सरकार. बहुत सारी यादें है ज्योति बाबू की जिन्होंने पिछले कई दशकों की भारतीय राजनीति को प्रभावित किया है.
ज्योति बाबू को उस वक़्त के बंगाल के सम्पान परिवारों के लड़कों को जो कुछ भी मिलता है, सब मिला.कोलकता के नामी सेंट जेवियर कॉलेज में पढ़ाई पूरी करने के बाद वे इंग्लैंड गए जहां उन्होंने कानून की पढ़ाई की. लन्दन में उनके समकालीनों में इंदिरा गाँधी, फीरोज़ गाँधी, वी के कृष्ण मेनन और भूपेश गुप्ता जैसे लोग थे. लन्दन के विश्व विख्यात लिंकल इन ने कानून की पढ़ाई पूरी करने के बाद जब वे कोलकता आये तो कुछ दिन छोटी मोटी वकालत करने के बाद ट्रेड यूनियन के काम में जुट गए. उन्होंने कम्युनिस्ट विचारधारा को चुना था लेकिन दिल्ली दरबार की कभी परवाह नहीं की. एक बार केंद्र सरकार से पश्चिम बंगाल के लिए केंद्रीय सहायता की बात करने दिल्ली पंहुचे ज्योति बसु से किसी केंद्रीय मंत्री ने शिकायत भरे लहजे में कहा कि आप समस्याएं ही गिनाते हैं, कभी कोई हल नहीं बताते, ज्योति बाबू का जवाब तुरंत मिल गया. जब हम आपकी सीट पार बैठेंगें तब हल भी बतायेंगें. लेकिन इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि वे कभी भी इस सीट पर नहीं बैठ पाये.
वामपंथी राजनीति के शिखर पर पंहुचने के पहले उन्होंने बंगाल के समाज के हर वर्ग में क्रांतिकारी परिवर्तन की पहल की थी. राजनीति के ऊंच-नीच से होते हुए वे १९६७ और १९६९की गैर कांग्रेसी सरकारों में मंत्री रहे. चुनाव हारे भी लेकिन कभी हार नहीं मानी.पार्टी के अन्दर भी उन्हें बहुत संभल कर चलना पड़ता था.उनकी राज्य पार्टी के बॉस प्रमोद दासगुप्ता थे. एक बार उन्होंने घोषणा कर दी कि अगर केंद्रीय गृह मंत्री एस बी चह्वाण, कोलकाता आये तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाएगा. मुख्यमंत्री ज्योति बसु के लिए दासगुप्त की यह टिप्पणी बहुत ही मुश्किल थी लेकिन उन्होंने बात को संभाला. एक बार प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी ने कहा कि आपके ऊपर मुझे पूरा भरोसा है लेकिन आपके कुछ सहयोगियों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता.
उन्होंने बार-बार कहा कि हमारी पार्टी क्रान्ति में विश्वास करती है लेकिन हमने फिल-हाल संसदीय लोकतंत्र का रास्ता चुना है. मार्क्सवाद की मूल विचार धारा में संसदीय पद्धति को घुसाने का आरोप सभी वामपंथी पार्टियों पर लगता रहा है लेकिन अपने कार्यकर्ताओं को उन्होंने हमेशा इस दुविधा से बाहर का राष्ट्र ढूँढने, आलोचना से बच निकलने में मदद की. ज्योति बसु निजी तौर पर भी बहुत बहादुर इंसान थे. १९६९ में एक बार कोलकाता में पुलिस वालों ने विद्रोह कर दिया था. उन्होंने विधानसभा को ही घेर लिया. मंत्री लोग भागने लगे लेकिन ज्योति बसु ने पुलिस वालों का हड़का कर भगा दिया था. विपक्षी को हड़का देने की उनकी खासियत अंत तह बनी रही. हमेशा अपनी बात को सोच समझ कर और सही तरीके से कहने वाले ज्योति बाबू ने मार्क्सवादी पार्टी के आतंरिक लोकतंत्र को बहुत संभाला था. आने वाले दिनों में इस मोर्चे पर भी राजनीतिक बिरादरी उनकी कमी को महसूस करेगी.
ज्योति बसु नहीं रहे. ९५ साल की उम्र में उन्होंने अलविदा कहा. अपने राजनीतिक जीवन में उन्होंने बहुत सारी बुलंदियां तय कीं जो किसी भी राजनेता के लिए सपना हो सकता था. १९७७ में कांग्रेस की पराजय के बाद उन्हें पश्चिम बंगाल का मुख्य मंत्री बनाया गया था और जब शरीर कमज़ोर पड़ने लगा तो उन्होंने अपनी मर्जी से गद्दी छोड़ दी और बुद्धदेव भट्टाचार्य को मुख्यमंत्री बना दिया गया. १९७७ के बाद का उनका जीवन एक खुली किताब है. मुख्यमंत्री के रूप में उनका सार्वजनिक जीवन हमेशा कसौटी पर रहा लेकिन उनको कभी किसी ने कोई गलती करते नहीं देखा, न सुना. १९९६ की वह घटना दुनिया जानती है जब वे देश के प्रधान मंत्रीपद के लिए सर्वसम्मत उम्मीदवार बन गए थे लेकिन दफ्तर में बैठ कर राजनीति करने वाले कुछ सांचाबद्ध कम्युनिस्टों ने उन्हें रोक दिया. अगर ऐसा न हुआ होता तो देश देवगौड़ा को प्रधान मंत्री के रूप में न देखता . बहरहाल बाद के वक़्त में यह भी कहा कि १९९६७ में प्रधान मंत्री पद न लेना मार्क्सवादियों की ऐतिहासिक भूल थी. उस हादसे को ऐतिहासिक भूल मानने वालों में भी बहुत मतभेद है.
१९७७ में मुख्यमंत्री बनने के बाद वे एक राज्य के मुखिया थे लेकिन राष्ट्रीय राजनीति पर उनकी पकड़ हमेशा बनी रही. १९८९ में जब राजीव गाँधी की कांग्रेस चुनाव हार गयी तो आम तौर पर माना जा रहा था कि कोई भी सरकार बनना बहुत ही मुश्किल है. वी पी सिंह को ज्यादातर विपक्षी पार्टियां प्रधानमंत्री बनाने के चक्कर में थीं लेकिन यह समझ में नहीं आ रहा था कि लेफ्ट फ्रंट और बी जे पी एक ही सरकार को कैसे समर्थन करेंगें. ज्योति बसु ने बार बार कहा था कि बी जे पी पूरी तरह से साम्प्रदायिक पार्टी है तो कैसे जायेंगें उनके साथ. लेकिन ज्योति बसु और हरकिशन सिंह सुरजीत ने मिल कर ऐसा फार्मूला बनाया कि बीजेपी को वी पी सिंह को बाहर से समर्थन करने में कोई दिक्क़त नहीं रह गयी. प्रणय रॉय के साथ एक टेलिविज़न कार्यक्रम में सुरजीत ने ऐलान कर दिया कि वे वी पी सिंह को प्रधान मंत्री बनाने को तैयार हैं बशर्ते कि उस में बीजेपी का कोई मंत्री न हो. बस बन गयी सरकार. बहुत सारी यादें है ज्योति बाबू की जिन्होंने पिछले कई दशकों की भारतीय राजनीति को प्रभावित किया है.
ज्योति बाबू को उस वक़्त के बंगाल के सम्पान परिवारों के लड़कों को जो कुछ भी मिलता है, सब मिला.कोलकता के नामी सेंट जेवियर कॉलेज में पढ़ाई पूरी करने के बाद वे इंग्लैंड गए जहां उन्होंने कानून की पढ़ाई की. लन्दन में उनके समकालीनों में इंदिरा गाँधी, फीरोज़ गाँधी, वी के कृष्ण मेनन और भूपेश गुप्ता जैसे लोग थे. लन्दन के विश्व विख्यात लिंकल इन ने कानून की पढ़ाई पूरी करने के बाद जब वे कोलकता आये तो कुछ दिन छोटी मोटी वकालत करने के बाद ट्रेड यूनियन के काम में जुट गए. उन्होंने कम्युनिस्ट विचारधारा को चुना था लेकिन दिल्ली दरबार की कभी परवाह नहीं की. एक बार केंद्र सरकार से पश्चिम बंगाल के लिए केंद्रीय सहायता की बात करने दिल्ली पंहुचे ज्योति बसु से किसी केंद्रीय मंत्री ने शिकायत भरे लहजे में कहा कि आप समस्याएं ही गिनाते हैं, कभी कोई हल नहीं बताते, ज्योति बाबू का जवाब तुरंत मिल गया. जब हम आपकी सीट पार बैठेंगें तब हल भी बतायेंगें. लेकिन इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि वे कभी भी इस सीट पर नहीं बैठ पाये.
वामपंथी राजनीति के शिखर पर पंहुचने के पहले उन्होंने बंगाल के समाज के हर वर्ग में क्रांतिकारी परिवर्तन की पहल की थी. राजनीति के ऊंच-नीच से होते हुए वे १९६७ और १९६९की गैर कांग्रेसी सरकारों में मंत्री रहे. चुनाव हारे भी लेकिन कभी हार नहीं मानी.पार्टी के अन्दर भी उन्हें बहुत संभल कर चलना पड़ता था.उनकी राज्य पार्टी के बॉस प्रमोद दासगुप्ता थे. एक बार उन्होंने घोषणा कर दी कि अगर केंद्रीय गृह मंत्री एस बी चह्वाण, कोलकाता आये तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाएगा. मुख्यमंत्री ज्योति बसु के लिए दासगुप्त की यह टिप्पणी बहुत ही मुश्किल थी लेकिन उन्होंने बात को संभाला. एक बार प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी ने कहा कि आपके ऊपर मुझे पूरा भरोसा है लेकिन आपके कुछ सहयोगियों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता.
उन्होंने बार-बार कहा कि हमारी पार्टी क्रान्ति में विश्वास करती है लेकिन हमने फिल-हाल संसदीय लोकतंत्र का रास्ता चुना है. मार्क्सवाद की मूल विचार धारा में संसदीय पद्धति को घुसाने का आरोप सभी वामपंथी पार्टियों पर लगता रहा है लेकिन अपने कार्यकर्ताओं को उन्होंने हमेशा इस दुविधा से बाहर का राष्ट्र ढूँढने, आलोचना से बच निकलने में मदद की. ज्योति बसु निजी तौर पर भी बहुत बहादुर इंसान थे. १९६९ में एक बार कोलकाता में पुलिस वालों ने विद्रोह कर दिया था. उन्होंने विधानसभा को ही घेर लिया. मंत्री लोग भागने लगे लेकिन ज्योति बसु ने पुलिस वालों का हड़का कर भगा दिया था. विपक्षी को हड़का देने की उनकी खासियत अंत तह बनी रही. हमेशा अपनी बात को सोच समझ कर और सही तरीके से कहने वाले ज्योति बाबू ने मार्क्सवादी पार्टी के आतंरिक लोकतंत्र को बहुत संभाला था. आने वाले दिनों में इस मोर्चे पर भी राजनीतिक बिरादरी उनकी कमी को महसूस करेगी.
Saturday, January 16, 2010
शोषण का बड़ा हथियार है जाति का शिकंजा
शेष नारायण सिंह
लोकसभा की अध्यक्ष , मीरा कुमार को बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी की लिस्ट में जिस तरह से संबोधित किया गया है , वह कांग्रेसी नेताओं की सामंती सोच का एक प्रतिनिधि नमूना है. जिन लोगों ने यह काम किया उनके ऊपर दलित एक्ट में मुक़दमा भी शुरू कर दिया गया है लेकिन इस से समस्या हल होने वाली नहीं . है . इस घटना के ज़रिये एक बार फिर जाति के विनाश की ज़रुरत रेखांकित हो गयी है . यहाँ यह समझ लेना ज़रूरी है कि मीरा कुमार कोई आम दलित नहीं है . वे बहुत सारे तथाकथित उच्च वर्गों के लोगों को अपने घर में बतौर नौकर देख चुकी हैं . उनके पिता स्वर्गीय जगजीवन राम और दादा स्वर्गीय शोभीराम जी आज़ादी की लड़ाई में शामिल रह चुके हैं . शोभीराम जी तो १८८५ में मुंबई में हुए कांग्रेस के स्थापना सम्मलेन में बिहार के डेलीगेट के रूप में शामिल हुए थे . जब शासक वर्गों की एक प्रतिनिधि को यह सामंती सोच वाला मध्यवर्ग उनके जाति सूचक शब्दों से संबोधित करता है तो गरीब , खस्ताहाल दलितों का क्या हाल होगा. इस लिए इस घटना के बहाने एक बार फिर याद दिलाने की ज़रुरत है कि जब तक जाति का विनाश नहीं होगा, सामाजिक बराबरी की बात के बारे मे सोचना भी बेमतलब है.अपने देश के विकास में सबसे बड़ी बाधा समाज का जाति के सांचे में बँटा होना ही है . जब से वर्ण व्यवस्था ने जाति का रूप लिया है और जाति को जन्मना माना जाने लगा है तब से ही समाज के विकास को घुन लग गया है. उसके बाद से शूद्र का काबिल से काबिल लड़का उपेक्षित होने लगा और ब्राह्मण का मूर्खातिमूर्ख बच्चा सम्मान का दावेदार बनने लगा .इतिहास का सबसे बड़ा धनुर्धर एकलव्य, अपने अंगूठे को ब्राह्मणवाद की वेदी पर कुर्बान करने पर मजबूर कर दिया जाता है .. अर्जुन और कर्ण की गाथा से पूरा महाभारत भरा पड़ा है. सच्ची बात यह है कि वे दोनों एकलव्य से दोयम दर्जे के धनुर्धर थे .शायद इसी लिए द्रोणाचार्य ने इमोशनल ब्लैकमेल करके उसका अंगूठा कटवा लिया था ऐतिहासिक युग में भी इस तरह के बहुत सारे सन्दर्भ आते हैं... इन घटनाओं का ज़िक्र करना इसलिए ज़रूरी है कि इस बात से बहुत दुखी होने की ज़रुरत नहीं है कि किसी टाईटलर या किसी शर्मा ने मीरा जी को चमार कह दिया है . इनसे उम्मीद ही क्या की जाती है . जहा तक शर्मा का सवाल है , उसे कोई नहीं जानता लेकिन टाईटलर तो उन्हीं संजय गाँधी के चेले हैं जिन्होंने १९७५ से १९८० के बीच में कांग्रेस में सामंतों की बड़े पैमाने पर भर्ती की थी . उत्तर प्रदेश, ख़ास कर अवध के छोटे से छोटे ताल्लुकेदारों के खाली बैठे बच्चे कांग्रेस में भर्ती हो गए थे . फिर उन्होंने विधायक और मंत्री बनकर पार्टी में एक बार फिर ज़मींदारी प्रथा की स्थापना करने की कोशिश की थी. यह वह दौर है जब उत्तर प्रदेश में दलित एकमुश्त कांग्रेस का साथ दता था लेकिन संजय गाँधी के इस सामंती , ताल्लुकेदारी खेल के चलते दलित कांग्रेस से दूर गया . उसके बाद स्वर्गीय कांशीराम ने राज्य की दलित जनता को अपना साथ खींचा और वह आज एक बड़ा आन्दोलन बन चुका है . इस बात को मानने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि उत्तर प्रदेश में दलित आन्दोलन को मज़बूती इसलिए मिली कि स्वर्गीय संजय गाँधी के सामंती दोस्तों ने दलितों के लिये वहां कोई जगह ही नहीं छोडी थी . और कांग्रेस का सबसे मज़बूत वोट बैंक नए ठिकाने की तलाश के लिए मजबूर हो गया था . इसलिए इन टाईटलरों को उसी नज़र से देखा जाना चाहिए जिस से जागरूक जनता स्व. संजय गाँधी को देखती है .
लेकिन मीरा कुमार के बहाने दलितों को एक खांचे में फिट करने की शासकवर्गों की सोच को ख़त्म करने के लिए ज़रूरी यह है कि देश का प्रबुद्ध वर्ग जाति के विनाश के लिए एक बार मैदान में कूद जाए क्योंकि अगर ऐसा न हुआ तो जाति का शैतान सबकुछ निगल जाएगा. . जाति के विनाश की लड़ाई लड़ने के लिए दार्शनिक आधार की कमी नहीं है . बस नौजवान पीढी को केवल अपनी इच्छाशक्ति को मज़बूत करना है . दार्शनिक आधार और महात्मा फुले, बाबासाहेब अंबेडकर और महात्मा गाँधी ने दे रखा है . हालांकि महात्मा गाँधी ने जाति के आधार पर छुआछूत को गलत माना था लेकिन बाबा साहेब अंबेडकर और महात्मा फुले ने तो साफ़ तौर पर जाति की तबाही की बात की थी..
महात्मा फुले के चिंतन के केंद्र में मुख्य रूप से धर्म और जाति की अवधारणा है। वे कभी भी हिंदू धर्म शब्द का प्रयोग नहीं करते। वे उसे ब्राह्मणवाद के नाम से ही संबोधित करते हैं। उनका विश्वास था कि अपने एकाधिकार को स्थापित किये रहने के उद्देश्य से ही ब्राह्मणों ने श्रुति और स्मृति का आविष्कार किया था। इन्हीं ग्रंथों के जरिये ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था को दैवी रूप देने की कोशिश की। महात्मा फुले ने इस विचारधारा को पूरी तरह ख़ारिज़ कर दिया। फुले को विश्वास था कि ब्राह्मणवाद एक ऐसी धार्मिक व्यवस्था थी जो ब्राह्मणों की प्रभुता की उच्चता को बौद्घिक और तार्किक आधार देने के लिए बनायी गयी थी। उनका हमला ब्राह्मण वर्चस्ववादी दर्शन पर होता था। उनका कहना था कि ब्राह्मणवाद के इतिहास पर गौर करें तो समझ में आ जाएगा कि यह शोषण करने के उद्देश्य से हजारों वर्षों में विकसित की गयी व्यवस्था है। इसमें कुछ भी पवित्र या दैवी नहीं है। न्याय शास्त्र में सत की जानकारी के लिए जिन 16 तरकीबों का वर्णन किया गया है, वितंडा उसमें से एक है। महात्मा फुले ने इसी वितंडा का सहारा लेकर ब्राह्मणवादी वर्चस्व को समाप्त करने की लड़ाई लड़ी।बाबा साहेब अंबेडकर ने जाति प्रथा को ही सारी बुराइयों की जड़ माना था . उनका कहना था कि स्वतंत्रता की अवधारणा भी जाति प्रथा को नकारती है। जाति प्रथा को जारी रखने के पक्षधर लोग राजनीतिक आजादी की बात तो करते हैं लेकिन वे लोगों को अपना पेशा चुनने की आजादी नहीं देना चाहते इस अधिकार को अंबेडकर की कृपा से ही संविधान के मौलिक अधिकारों में शुमार कर लिया गया है और आज इसकी मांग करना उतना अजीब नहीं लगेगा लेकिन जब उन्होंने उनके दशक में में यह बात कही थी तो उसका महत्व बहुत अधिक था। अंबेडकर के आदर्श समाज में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है, बराबरी ....ब्राहमणों के आधिपत्य वाले समाज ने उनके इस विचार के कारण उन्हें बार-बार अपमानित किया। लेकिन अंबेडकर ने अपने विचारों में कहीं भी ढील नहीं होने दी. इसलिए इन महापुरुषों की विरासत के सहारे एक बार फिर जाति की लड़ाई को धार देने का मौक़ा मिला है , उसे छोड़ना नहीं चाहिए.मीरा कुमार के बारे में की गयी टिप्पणी इस सन्दर्भ में एक अवसर है
लोकसभा की अध्यक्ष , मीरा कुमार को बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी की लिस्ट में जिस तरह से संबोधित किया गया है , वह कांग्रेसी नेताओं की सामंती सोच का एक प्रतिनिधि नमूना है. जिन लोगों ने यह काम किया उनके ऊपर दलित एक्ट में मुक़दमा भी शुरू कर दिया गया है लेकिन इस से समस्या हल होने वाली नहीं . है . इस घटना के ज़रिये एक बार फिर जाति के विनाश की ज़रुरत रेखांकित हो गयी है . यहाँ यह समझ लेना ज़रूरी है कि मीरा कुमार कोई आम दलित नहीं है . वे बहुत सारे तथाकथित उच्च वर्गों के लोगों को अपने घर में बतौर नौकर देख चुकी हैं . उनके पिता स्वर्गीय जगजीवन राम और दादा स्वर्गीय शोभीराम जी आज़ादी की लड़ाई में शामिल रह चुके हैं . शोभीराम जी तो १८८५ में मुंबई में हुए कांग्रेस के स्थापना सम्मलेन में बिहार के डेलीगेट के रूप में शामिल हुए थे . जब शासक वर्गों की एक प्रतिनिधि को यह सामंती सोच वाला मध्यवर्ग उनके जाति सूचक शब्दों से संबोधित करता है तो गरीब , खस्ताहाल दलितों का क्या हाल होगा. इस लिए इस घटना के बहाने एक बार फिर याद दिलाने की ज़रुरत है कि जब तक जाति का विनाश नहीं होगा, सामाजिक बराबरी की बात के बारे मे सोचना भी बेमतलब है.अपने देश के विकास में सबसे बड़ी बाधा समाज का जाति के सांचे में बँटा होना ही है . जब से वर्ण व्यवस्था ने जाति का रूप लिया है और जाति को जन्मना माना जाने लगा है तब से ही समाज के विकास को घुन लग गया है. उसके बाद से शूद्र का काबिल से काबिल लड़का उपेक्षित होने लगा और ब्राह्मण का मूर्खातिमूर्ख बच्चा सम्मान का दावेदार बनने लगा .इतिहास का सबसे बड़ा धनुर्धर एकलव्य, अपने अंगूठे को ब्राह्मणवाद की वेदी पर कुर्बान करने पर मजबूर कर दिया जाता है .. अर्जुन और कर्ण की गाथा से पूरा महाभारत भरा पड़ा है. सच्ची बात यह है कि वे दोनों एकलव्य से दोयम दर्जे के धनुर्धर थे .शायद इसी लिए द्रोणाचार्य ने इमोशनल ब्लैकमेल करके उसका अंगूठा कटवा लिया था ऐतिहासिक युग में भी इस तरह के बहुत सारे सन्दर्भ आते हैं... इन घटनाओं का ज़िक्र करना इसलिए ज़रूरी है कि इस बात से बहुत दुखी होने की ज़रुरत नहीं है कि किसी टाईटलर या किसी शर्मा ने मीरा जी को चमार कह दिया है . इनसे उम्मीद ही क्या की जाती है . जहा तक शर्मा का सवाल है , उसे कोई नहीं जानता लेकिन टाईटलर तो उन्हीं संजय गाँधी के चेले हैं जिन्होंने १९७५ से १९८० के बीच में कांग्रेस में सामंतों की बड़े पैमाने पर भर्ती की थी . उत्तर प्रदेश, ख़ास कर अवध के छोटे से छोटे ताल्लुकेदारों के खाली बैठे बच्चे कांग्रेस में भर्ती हो गए थे . फिर उन्होंने विधायक और मंत्री बनकर पार्टी में एक बार फिर ज़मींदारी प्रथा की स्थापना करने की कोशिश की थी. यह वह दौर है जब उत्तर प्रदेश में दलित एकमुश्त कांग्रेस का साथ दता था लेकिन संजय गाँधी के इस सामंती , ताल्लुकेदारी खेल के चलते दलित कांग्रेस से दूर गया . उसके बाद स्वर्गीय कांशीराम ने राज्य की दलित जनता को अपना साथ खींचा और वह आज एक बड़ा आन्दोलन बन चुका है . इस बात को मानने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि उत्तर प्रदेश में दलित आन्दोलन को मज़बूती इसलिए मिली कि स्वर्गीय संजय गाँधी के सामंती दोस्तों ने दलितों के लिये वहां कोई जगह ही नहीं छोडी थी . और कांग्रेस का सबसे मज़बूत वोट बैंक नए ठिकाने की तलाश के लिए मजबूर हो गया था . इसलिए इन टाईटलरों को उसी नज़र से देखा जाना चाहिए जिस से जागरूक जनता स्व. संजय गाँधी को देखती है .
लेकिन मीरा कुमार के बहाने दलितों को एक खांचे में फिट करने की शासकवर्गों की सोच को ख़त्म करने के लिए ज़रूरी यह है कि देश का प्रबुद्ध वर्ग जाति के विनाश के लिए एक बार मैदान में कूद जाए क्योंकि अगर ऐसा न हुआ तो जाति का शैतान सबकुछ निगल जाएगा. . जाति के विनाश की लड़ाई लड़ने के लिए दार्शनिक आधार की कमी नहीं है . बस नौजवान पीढी को केवल अपनी इच्छाशक्ति को मज़बूत करना है . दार्शनिक आधार और महात्मा फुले, बाबासाहेब अंबेडकर और महात्मा गाँधी ने दे रखा है . हालांकि महात्मा गाँधी ने जाति के आधार पर छुआछूत को गलत माना था लेकिन बाबा साहेब अंबेडकर और महात्मा फुले ने तो साफ़ तौर पर जाति की तबाही की बात की थी..
महात्मा फुले के चिंतन के केंद्र में मुख्य रूप से धर्म और जाति की अवधारणा है। वे कभी भी हिंदू धर्म शब्द का प्रयोग नहीं करते। वे उसे ब्राह्मणवाद के नाम से ही संबोधित करते हैं। उनका विश्वास था कि अपने एकाधिकार को स्थापित किये रहने के उद्देश्य से ही ब्राह्मणों ने श्रुति और स्मृति का आविष्कार किया था। इन्हीं ग्रंथों के जरिये ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था को दैवी रूप देने की कोशिश की। महात्मा फुले ने इस विचारधारा को पूरी तरह ख़ारिज़ कर दिया। फुले को विश्वास था कि ब्राह्मणवाद एक ऐसी धार्मिक व्यवस्था थी जो ब्राह्मणों की प्रभुता की उच्चता को बौद्घिक और तार्किक आधार देने के लिए बनायी गयी थी। उनका हमला ब्राह्मण वर्चस्ववादी दर्शन पर होता था। उनका कहना था कि ब्राह्मणवाद के इतिहास पर गौर करें तो समझ में आ जाएगा कि यह शोषण करने के उद्देश्य से हजारों वर्षों में विकसित की गयी व्यवस्था है। इसमें कुछ भी पवित्र या दैवी नहीं है। न्याय शास्त्र में सत की जानकारी के लिए जिन 16 तरकीबों का वर्णन किया गया है, वितंडा उसमें से एक है। महात्मा फुले ने इसी वितंडा का सहारा लेकर ब्राह्मणवादी वर्चस्व को समाप्त करने की लड़ाई लड़ी।बाबा साहेब अंबेडकर ने जाति प्रथा को ही सारी बुराइयों की जड़ माना था . उनका कहना था कि स्वतंत्रता की अवधारणा भी जाति प्रथा को नकारती है। जाति प्रथा को जारी रखने के पक्षधर लोग राजनीतिक आजादी की बात तो करते हैं लेकिन वे लोगों को अपना पेशा चुनने की आजादी नहीं देना चाहते इस अधिकार को अंबेडकर की कृपा से ही संविधान के मौलिक अधिकारों में शुमार कर लिया गया है और आज इसकी मांग करना उतना अजीब नहीं लगेगा लेकिन जब उन्होंने उनके दशक में में यह बात कही थी तो उसका महत्व बहुत अधिक था। अंबेडकर के आदर्श समाज में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है, बराबरी ....ब्राहमणों के आधिपत्य वाले समाज ने उनके इस विचार के कारण उन्हें बार-बार अपमानित किया। लेकिन अंबेडकर ने अपने विचारों में कहीं भी ढील नहीं होने दी. इसलिए इन महापुरुषों की विरासत के सहारे एक बार फिर जाति की लड़ाई को धार देने का मौक़ा मिला है , उसे छोड़ना नहीं चाहिए.मीरा कुमार के बारे में की गयी टिप्पणी इस सन्दर्भ में एक अवसर है
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Friday, January 15, 2010
स्थिर और खुशहाल बंगलादेश भारत के हित में है .
शेष नारायण सिंह
बंगला देश की प्रधान मंत्री शेख हसीना वाजेद की भारत यात्रा सही मायनों में ऐतिहासिक रही ..ख़ास कर खालिदा जिया के ६ साल के कुशासन के बाद लगता है कि बंगलादेश में बदलाव की बयार बह रही है .. भारत ने भी शेख हसीना का ज़ोरदार स्वागत किया . उन्हें इंदिरा गाँधी शान्ति पुरस्कार से नवाज़ा और उनके साथ ऐसे समझौते किये जो उनको अपने मुल्क में राजनीतिक मजबूती देंगें ..भारत ने बंगलादेश को करीब ५ हज़ार करोड़ रूपये की लाइन ऑफ़ क्रेडिट देने का फैसला किया है जो कि वहां की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था के लिए आक्सीजन का काम करेगी. . पिछले कुछ वर्षों में बंगलादेश, भारत के खिलाफ आतंकवादी गतिविधियों का केंद्र बनता जा रहा था जिसकी वजह से दोनों देशों के बीच रिश्ते बहुत ही खराब होने का ख़तरा बना हुआ था . ऐसा शायद इस लिए हो रहा था कि पूर्व प्रधानमंत्री, खालिदा जिया की सोच ऐसी थी जिसके तहत भारत को सबसे ख़ास दोस्त मानने से उनकी संप्रभुता पर आंच आ सकती थी . शायद इसीलिए उन्होंने बहुत सारे ऐसे काम किये जिससे भारत विरोध की बू आती थी. दोनों देशों के बीच रिश्ते खराब होने का मुख्य कारण यह था कि उन्होंने भारत विरोधी लोगों को महत्व दिया , बंगलादेश में रहने वाले उन लोगों को संरक्षण दिया जो भारत के खिलाफ आतंकवादी गतिविधियाँ चलाते हैं , धार्मिक असहिष्णुता को बढ़ावा दिया जिसकी वजह से भारत से उनके रिश्ते बहुत बिगड़ गए. सही बात यह है कि बेगम खालिदा के वक़्त में भारत के साथ बंगलादेश के रिश्ते बहुत खराब थे .इस चक्कर में बंगलादेशी हुक्मरान ने बहुत सारे ऐसे फैसले भी लिए जिससे उनका नुकसान ज्यादा हो रहा था लेकिन भारत के खिलाफ बाकी दुनिया में शेखी मारने में मदद मिलती थी. . इस तरह का एक फैसला ट्रांस एशियन हाइवे प्रोजेक्ट का था . जिस से बंगलादेश को तो लाभ होता ही लेकिन भारत का ज्यादा लाभ होता . खालिदा जिया ने उस पर रोक लगा दी क्योंकि वे भारत की पक्षधर के रूप में नहीं देखी जाना चाहती थीं. उनको लगता था कि भारत के सामने अपनी नक़ली शान दिखाने से उनकी संप्रभुता को ताक़त मिलती है . दुनिया जानती है कि बंगलादेश की अर्थव्यवस्था आज मुश्किल दौर से गुज़र रही है . शेख हसीना की भारत यात्रा को बहुत ही उपयोगी बनाने में भारत ने भी कोई कसर नहीं छोडी है .नेपाल और भूटान से बंगलादेश के व्यापार को बढ़ावा देने के दिशा में भारत ने बहुत ही अहम् फैसला किया . अब इन दोनों देशों से बंगलादेशी व्यापारियों को काम करने में बहुत सुविधा रहेगी क्योंकि भारत ने ट्रांज़िट की बात को मान लिया है .भारत आतंकवाद से परेशान है लेकिन बंगलादेश उस से भी ज्यादा पीड़ित देश है. वहां तो एक मौक़ा ऐसा भी आया था जब कि शेख हसीना की पार्टी, अवामी लीग के सभी बड़े नेता काल के गाल में चले गए होते जब अगस्त २००४ में उनकी एक रैली के ऊपर बम फेंके गए थे . इस मुद्दे पर दोनों देशों के बीच समझदारी होनी चाहिए . शेख हसीना की सरकार ने आतंक् से मुकाबला करने के लिए कई महत्वपूर्ण क़दम उठाये हैं.. आतंकवादियों के संगठनों को तबाह किया है ,भारत के खिलाफ काम करने वाले आतंकवादी संगठनों के बड़े नेताओं को पकड़ा है, इस से लगता है कि इस क्षेत्र को आतंकवादियों का स्वर्ग न बनने देने की शेख हसीना की चुनावी घोषणा को उनकी सरकार गंभीरता से ले रही है और भारत सरकार उसमें पूरी मदद कर रही है .. शेख हसीना और खालिदा जिया के बीच बुनियादी फर्क भी है . हसीना ने बंगलादेश देश की मुक्ति के आन्दोलन में हिस्सा लिया था और सच्ची बात यह है कि बंगलादेश की आज़ादी में उनका बहुत कुछ दांव पर लगा था. उनके स्वर्गीय पिता शेख मुजीबुर्रहमान ने तो बंगलादेश की मुक्ति के संग्राम का नेतृत्व किया था लेकिन ढाका की सडकों पर जो लाखों नौजवान उस वक़्त के पाकिस्तानी तंत्र को उखाड़ फेंकने के लिए निकल पड़े थे , शेख हसीना भी उसमें शामिल थीं. और बंगलादेश की आज़ादी के बाद फौज के कुछ बागियों ने उनके पूरे परिवार को ख़त्म कर दिया था जिसमें उनके पिता मुजीबुर्रहमान भी थे . शेख हसीना को मालूम है कि आजादी के लिए कैसे कुर्बानी दी जाती है .और वह उन्होंने दी है . इसलिए उस आजादी के रक्षा के लिए वे वह सब कुछ करेगीं जो करना चाहिए.
ऐसी स्थिति में भारत का भी फ़र्ज़ है कि वह उन्हें पूरी मदद दे क्योंकि भौगोलिक और ऐतिहासिक कारणों से हालात ऐसे हैं कि भारत की सुरक्षा भी बंगलादेश की स्थिरता और खुशहाली से जुडी हुई है . क्योंकि अगर वहां मजबूती होगी तो भारत में भी चैन की सांस ली जा सकेगी. हो सकता है कि ऐसा करने में भारत को थोडा आर्थिक नुकसान भी उठाना पड़े लेकिन आर्थिक नुकसान उठा कर सुरक्षा को मुकम्मल करना भी कूटनीति का एक प्रमुख हिस्सा है . बहरहाल शेख हसीना की भारत यात्रा के दौरान हुए समझौतों और फैसलों से इस इलाके की जनता को राहत मिलेगी इसमें कोई दो राय नहें है ...हाँ एक बात का ध्यान रखना ज़रूरी रहेगा कि दोनों देशों के बीच होने वाले समझौतों में बहुत सारा राजनीतिक तत्व रहता है इसलिए उसमें राजनीति को प्रमुख भूमिका अदा करनी पड़ेगी .अगर सब कुछ नौकरशाहों के हवाले कर दिया गया तो सब कुछ लाल फीताशाही हजम कर जायेगी और सरकारें ताकती रह जायेंगीं.ऐसा एक बार हो चुका है जब भारत सरकार ने बंगलादेश को चावल देने की घोषणा की थी और वह वहां पंहुचा ही नहीं . सारा मामला नौकरशाही की भूल भुलैया में फंस कर रह गया..
बंगला देश की प्रधान मंत्री शेख हसीना वाजेद की भारत यात्रा सही मायनों में ऐतिहासिक रही ..ख़ास कर खालिदा जिया के ६ साल के कुशासन के बाद लगता है कि बंगलादेश में बदलाव की बयार बह रही है .. भारत ने भी शेख हसीना का ज़ोरदार स्वागत किया . उन्हें इंदिरा गाँधी शान्ति पुरस्कार से नवाज़ा और उनके साथ ऐसे समझौते किये जो उनको अपने मुल्क में राजनीतिक मजबूती देंगें ..भारत ने बंगलादेश को करीब ५ हज़ार करोड़ रूपये की लाइन ऑफ़ क्रेडिट देने का फैसला किया है जो कि वहां की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था के लिए आक्सीजन का काम करेगी. . पिछले कुछ वर्षों में बंगलादेश, भारत के खिलाफ आतंकवादी गतिविधियों का केंद्र बनता जा रहा था जिसकी वजह से दोनों देशों के बीच रिश्ते बहुत ही खराब होने का ख़तरा बना हुआ था . ऐसा शायद इस लिए हो रहा था कि पूर्व प्रधानमंत्री, खालिदा जिया की सोच ऐसी थी जिसके तहत भारत को सबसे ख़ास दोस्त मानने से उनकी संप्रभुता पर आंच आ सकती थी . शायद इसीलिए उन्होंने बहुत सारे ऐसे काम किये जिससे भारत विरोध की बू आती थी. दोनों देशों के बीच रिश्ते खराब होने का मुख्य कारण यह था कि उन्होंने भारत विरोधी लोगों को महत्व दिया , बंगलादेश में रहने वाले उन लोगों को संरक्षण दिया जो भारत के खिलाफ आतंकवादी गतिविधियाँ चलाते हैं , धार्मिक असहिष्णुता को बढ़ावा दिया जिसकी वजह से भारत से उनके रिश्ते बहुत बिगड़ गए. सही बात यह है कि बेगम खालिदा के वक़्त में भारत के साथ बंगलादेश के रिश्ते बहुत खराब थे .इस चक्कर में बंगलादेशी हुक्मरान ने बहुत सारे ऐसे फैसले भी लिए जिससे उनका नुकसान ज्यादा हो रहा था लेकिन भारत के खिलाफ बाकी दुनिया में शेखी मारने में मदद मिलती थी. . इस तरह का एक फैसला ट्रांस एशियन हाइवे प्रोजेक्ट का था . जिस से बंगलादेश को तो लाभ होता ही लेकिन भारत का ज्यादा लाभ होता . खालिदा जिया ने उस पर रोक लगा दी क्योंकि वे भारत की पक्षधर के रूप में नहीं देखी जाना चाहती थीं. उनको लगता था कि भारत के सामने अपनी नक़ली शान दिखाने से उनकी संप्रभुता को ताक़त मिलती है . दुनिया जानती है कि बंगलादेश की अर्थव्यवस्था आज मुश्किल दौर से गुज़र रही है . शेख हसीना की भारत यात्रा को बहुत ही उपयोगी बनाने में भारत ने भी कोई कसर नहीं छोडी है .नेपाल और भूटान से बंगलादेश के व्यापार को बढ़ावा देने के दिशा में भारत ने बहुत ही अहम् फैसला किया . अब इन दोनों देशों से बंगलादेशी व्यापारियों को काम करने में बहुत सुविधा रहेगी क्योंकि भारत ने ट्रांज़िट की बात को मान लिया है .भारत आतंकवाद से परेशान है लेकिन बंगलादेश उस से भी ज्यादा पीड़ित देश है. वहां तो एक मौक़ा ऐसा भी आया था जब कि शेख हसीना की पार्टी, अवामी लीग के सभी बड़े नेता काल के गाल में चले गए होते जब अगस्त २००४ में उनकी एक रैली के ऊपर बम फेंके गए थे . इस मुद्दे पर दोनों देशों के बीच समझदारी होनी चाहिए . शेख हसीना की सरकार ने आतंक् से मुकाबला करने के लिए कई महत्वपूर्ण क़दम उठाये हैं.. आतंकवादियों के संगठनों को तबाह किया है ,भारत के खिलाफ काम करने वाले आतंकवादी संगठनों के बड़े नेताओं को पकड़ा है, इस से लगता है कि इस क्षेत्र को आतंकवादियों का स्वर्ग न बनने देने की शेख हसीना की चुनावी घोषणा को उनकी सरकार गंभीरता से ले रही है और भारत सरकार उसमें पूरी मदद कर रही है .. शेख हसीना और खालिदा जिया के बीच बुनियादी फर्क भी है . हसीना ने बंगलादेश देश की मुक्ति के आन्दोलन में हिस्सा लिया था और सच्ची बात यह है कि बंगलादेश की आज़ादी में उनका बहुत कुछ दांव पर लगा था. उनके स्वर्गीय पिता शेख मुजीबुर्रहमान ने तो बंगलादेश की मुक्ति के संग्राम का नेतृत्व किया था लेकिन ढाका की सडकों पर जो लाखों नौजवान उस वक़्त के पाकिस्तानी तंत्र को उखाड़ फेंकने के लिए निकल पड़े थे , शेख हसीना भी उसमें शामिल थीं. और बंगलादेश की आज़ादी के बाद फौज के कुछ बागियों ने उनके पूरे परिवार को ख़त्म कर दिया था जिसमें उनके पिता मुजीबुर्रहमान भी थे . शेख हसीना को मालूम है कि आजादी के लिए कैसे कुर्बानी दी जाती है .और वह उन्होंने दी है . इसलिए उस आजादी के रक्षा के लिए वे वह सब कुछ करेगीं जो करना चाहिए.
ऐसी स्थिति में भारत का भी फ़र्ज़ है कि वह उन्हें पूरी मदद दे क्योंकि भौगोलिक और ऐतिहासिक कारणों से हालात ऐसे हैं कि भारत की सुरक्षा भी बंगलादेश की स्थिरता और खुशहाली से जुडी हुई है . क्योंकि अगर वहां मजबूती होगी तो भारत में भी चैन की सांस ली जा सकेगी. हो सकता है कि ऐसा करने में भारत को थोडा आर्थिक नुकसान भी उठाना पड़े लेकिन आर्थिक नुकसान उठा कर सुरक्षा को मुकम्मल करना भी कूटनीति का एक प्रमुख हिस्सा है . बहरहाल शेख हसीना की भारत यात्रा के दौरान हुए समझौतों और फैसलों से इस इलाके की जनता को राहत मिलेगी इसमें कोई दो राय नहें है ...हाँ एक बात का ध्यान रखना ज़रूरी रहेगा कि दोनों देशों के बीच होने वाले समझौतों में बहुत सारा राजनीतिक तत्व रहता है इसलिए उसमें राजनीति को प्रमुख भूमिका अदा करनी पड़ेगी .अगर सब कुछ नौकरशाहों के हवाले कर दिया गया तो सब कुछ लाल फीताशाही हजम कर जायेगी और सरकारें ताकती रह जायेंगीं.ऐसा एक बार हो चुका है जब भारत सरकार ने बंगलादेश को चावल देने की घोषणा की थी और वह वहां पंहुचा ही नहीं . सारा मामला नौकरशाही की भूल भुलैया में फंस कर रह गया..
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शेष नारायण सिंह
Thursday, January 14, 2010
नेहरू की विदेश नीति के आलोचक अपने पूर्वाग्रह की गिरफ्त में हैं
शेष नारायण सिंह
एक नौसिखिया मंत्री के बयानों के हवाले से एक बार फिर जवाहरलाल नेहरू की विदेश नीति के बारे में बहस का सिलसिला शुरू हो गया है और वे लोग जिनकी पार्टियां आज़ादी की लड़ाई के दौरान अंग्रेजों की मददगार थीं, नेहरू को बहुत ही मामूली नेता बताने की दौड़ में शामिल हो गयी हैं ..कुछ टेलिविज़न समाचारों के चैनल भी इस लड़ाई में कूद पड़े हैं . दिल्ली के काकटेल सर्किट में होने वाली गपबाज़ी से इतिहास और राजनीति की जानकारी ग्रहण करने वाले कुछ पत्रकार भी १९४७ के पहले और बाद के अंग्रेजों के वफादार बुद्धिजीवियों की जमात की मदद से जवाहरलाल नेहरू को बौना बताने की कोशिश में जुट गए हैं . यहाँ किसी का नाम लेकर बौने नेताओं , दलालों और पत्रकारों को मह्त्व देने की कोशिश नही की जायेगी लेकिन यह ज़रूरी है कि आज़ादी की लड़ाई और उसके बाद की भारत की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक तरक्की में जवाहरलाल नेहरू की हैसियत को कम करने वालों की कोशिशों पर लगाम लगाई जाए. .. जिस चैनल पर जवाहरलाल नेहरू की विदेशनीति के बारे में बहस चल रही थी ,उसमें विषय ही ऐसा चुना गया था जो स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, राजनेता, राष्ट्रनिर्माता, संस्थाओं के निर्माता जवाहललाल नेहरू की शान के मुताबिक नहीं था . बहस में आर एस एस की राजनीतिक शाखा का एक छुटभैया नेता और बड़ा पत्रकार और भारतीय मूल का एक ब्रिटिश नागरिक जवाहरलाल नेहरू को अपमानित कर रहे थे . न्यूज़ रीडर भी अपने हिसाब से और अपने ज्ञान के हिसाब से नेहरू को प्रस्तुत कर रही थी . इस हमले से नेहरू को बचाने के लिए एक कांग्रेसी नेता मैदान में था.
आर एस एस और अँगरेज़ नागरिक की बात तो समझ में आती है कि वे नेहरू की मुखालिफत करें लेकिन एक नामी टी वी चैनल जब इस खेल में इस्तेमाल होता है तो तकलीफ होती है .बहरहाल नेहरू की विदेश नीति या राजनीति में कमी बताने वालों को यह ध्यान रखना चाहिए कि यह नेहरू की दूरदर्शिता का ही नतीजा है कि आज भारत एक महान देश माना जाता है और ठीक उसी दिन आज़ादी पाने वाला पाकिस्तान आज एक बहुत ही पिछड़ा मुल्क है.. बहस में शामिल ब्रिटिश नागरिक की कोशिश थी कि वह यह साबित करे कि अगर आज़ादी मिलने के बाद भारत ने अमरीका का साथ पकड़ लिया होता तो बहुत अच्छी विदेशनीति बनती और आर एस एस वाले बुद्धिजीवी की कोशिश तो वही थी कि जो कुछ भी कांग्रेस ने किया वह गलत था.. ज़ाहिर है यह दोनों ही सोच भारत के लोगों के हित के खिलाफ है और उसे गंभीरता से लेने की ज़रुरत नहीं है . लेकिन जवाहरलाल नेहरू की विदेश नीति की बुनियाद को समझना ज़रूरी है ..१९४६ में जब कांग्रेस ने अंतरिम सरकार में शामिल होने का फैसला किया , उसी वक़्त जवाहरलाल ने स्पष्ट कर दिया था कि भारत की विदेशनीति विश्व के मामलों में दखल रखने की कोशिश करेगी , स्वतंत्र विदेशनीति होगी और अपने राष्ट्रहित को सर्वोपरि महत्व देगी .. लेकिन यह बात भी गौर करने की है कि किसी नवस्वतंत्र देश की विदेशनीति एक दिन में नहीं विकसित होती. जब विदेशनीति के मामले में नेहरू ने काम शुरू किया तो बहुत सारी अडचनें आयीं लेकिन वे जुटे रहे और एक एक करके सारे मानदंड तय कर दिया जिसकी वजह से भारत आज एक महान शक्ति है .. सच्चाई यह है कि भारत की विदेशनीति उन्ही आदर्शों का विस्तार है जिनके आधार पर आज़ादी की लड़ाई लड़ी गयी थी और आज़ादी की लड़ाई को एक महात्मा ने नेतृत्व प्रदान किया था जिनकी सदिच्छा और दूरदर्शिता में उनके दुश्मनों को भी पूरा भरोसा रहता था. आज़ादी के बाद भारत की आर्थिक और राजनयिक क्षमता बहुत ज्यादा थी लेकिन अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में ताक़त कुछ नहीं थी. जब भारत को आज़ादी मिली तो शीतयुद्ध शुरू हो चुका था और ब्रितानी साम्राज्यवाद के भक्तगण नहीं चाहते थे कि भारत एक मज़बूत ताक़त बने और अंतरराष्ट्रीय मंच पर उसकी आवाज़ सुनी जाए . जबकि जवाहरलाल नेहरू की विदेशनीति का यही लक्ष्य था. अमरीका के पास परमाणु हथियार थे लेकिन उसे इस बात से डर लगा रहता था कि कोई नया देश उसके खिलाफ न हो जाए जबकि सोविएत रूस के नेता स्टालिन और उनके साथी हर उस देश को शक की नज़र से देखते थे जो पूरी तरह उनके साथ नहीं था. नेहरू से दोनों ही देश नाराज़ थे क्योंकि वे किसी के साथ जाने को तैयार नहीं थे, भारत को किसी गुट में शामिल करना उनकी नीति का हिस्सा कभी नहीं रहा . दोनों ही महाशक्तियों को नेहरू भरोसा दे रहे थे कि भारत उनमें से न किसी के गुट में शामिल होगा और न ही किसी का विरोध करेगा. यह बात दोनों महाशक्तियों को बुरी लगती थी. यहाँ यह समझने की चीज़ है कि उस दौर के अमरीकी और सोवियत नेताओं को भी अंदाज़ नहीं था कि कोई देश ऐसा भी हो सकता है जो शान्तिपूर्वक अपना काम करेगा और किसी की तरफ से लाठी नहीं भांजेगा . जब कश्मीर का मसला संयुक्तराष्ट्र में गया तो ब्रिटेन और अमरीका ने भारत की मुखालिफत करके अपने गुस्से का इज़हार किया ..नए आज़ाद हुए देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अमरीकियों को कुछ इन शब्दों में फटकारा था . उन्होंने कहा कि ,'यह हैरतअंगेज़ है कि अपनी विदेशनीति को अमरीकी सरकार किस बचकाने पन से चलाती है .वे अपनी ताक़त और पैसे के बल पर काम चला रहे हैं , उनके पास न तो अक्ल है और न ही कोई और चीज़.' सोवियत रूस ने हमेशा नेहरू के गुटनिरपेक्ष विदेशनीति का विरोध किया और आरोप लगाया कि वह ब्रिटिश साम्राज्यवाद को समर्थन देने का एक मंच है ..सोवियत रूस ने कश्मीर के मसले पर भारत की कोई मदद नहीं की और उनकी कोशिश रही कि भारत उनके साथ शामिल हो जाए . जवाहरलाल ने कहा कि भारत रूस से दोस्ती चाहता है लेकिन हम बहुत ही संवेदंशील लोग हैं . हमें यह बर्दाश्त नहीं होगा कि कोई हमें गाली दे या हमारा अपमान करे. रूस को यह मुगालता है कि भारत में कुछ नहीं बदला है और हम अभी भी ब्रिटेन के साथी है . यह बहुत ही अहमकाना सोच है ..और अगर इस सोच की बिना पर कोई नीति बनायेगें तो वह गलत ही होगी जहां तक भारत का सवाल है वह अपने रास्ते पर चलता रहेगा. 'जो लोग समकालीन इतिहास की मामूली समझ भी रखते हैं उन्हें मालूम है कि कितनी मुश्किलों से भारत की आज़ादी के बाद की नाव को भंवर से निकाल कर जवाहरलाल लाये थे और आज जो लोग अपने पूर्वाग्रहों के आधार पर टी वी चैनलों पर बैठ कर मूर्खतापूर्ण प्रलाप करते हैं उन पर कोई भी केवल दया ही कर सकता है.(Already printed in Daily News Activist)
एक नौसिखिया मंत्री के बयानों के हवाले से एक बार फिर जवाहरलाल नेहरू की विदेश नीति के बारे में बहस का सिलसिला शुरू हो गया है और वे लोग जिनकी पार्टियां आज़ादी की लड़ाई के दौरान अंग्रेजों की मददगार थीं, नेहरू को बहुत ही मामूली नेता बताने की दौड़ में शामिल हो गयी हैं ..कुछ टेलिविज़न समाचारों के चैनल भी इस लड़ाई में कूद पड़े हैं . दिल्ली के काकटेल सर्किट में होने वाली गपबाज़ी से इतिहास और राजनीति की जानकारी ग्रहण करने वाले कुछ पत्रकार भी १९४७ के पहले और बाद के अंग्रेजों के वफादार बुद्धिजीवियों की जमात की मदद से जवाहरलाल नेहरू को बौना बताने की कोशिश में जुट गए हैं . यहाँ किसी का नाम लेकर बौने नेताओं , दलालों और पत्रकारों को मह्त्व देने की कोशिश नही की जायेगी लेकिन यह ज़रूरी है कि आज़ादी की लड़ाई और उसके बाद की भारत की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक तरक्की में जवाहरलाल नेहरू की हैसियत को कम करने वालों की कोशिशों पर लगाम लगाई जाए. .. जिस चैनल पर जवाहरलाल नेहरू की विदेशनीति के बारे में बहस चल रही थी ,उसमें विषय ही ऐसा चुना गया था जो स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, राजनेता, राष्ट्रनिर्माता, संस्थाओं के निर्माता जवाहललाल नेहरू की शान के मुताबिक नहीं था . बहस में आर एस एस की राजनीतिक शाखा का एक छुटभैया नेता और बड़ा पत्रकार और भारतीय मूल का एक ब्रिटिश नागरिक जवाहरलाल नेहरू को अपमानित कर रहे थे . न्यूज़ रीडर भी अपने हिसाब से और अपने ज्ञान के हिसाब से नेहरू को प्रस्तुत कर रही थी . इस हमले से नेहरू को बचाने के लिए एक कांग्रेसी नेता मैदान में था.
आर एस एस और अँगरेज़ नागरिक की बात तो समझ में आती है कि वे नेहरू की मुखालिफत करें लेकिन एक नामी टी वी चैनल जब इस खेल में इस्तेमाल होता है तो तकलीफ होती है .बहरहाल नेहरू की विदेश नीति या राजनीति में कमी बताने वालों को यह ध्यान रखना चाहिए कि यह नेहरू की दूरदर्शिता का ही नतीजा है कि आज भारत एक महान देश माना जाता है और ठीक उसी दिन आज़ादी पाने वाला पाकिस्तान आज एक बहुत ही पिछड़ा मुल्क है.. बहस में शामिल ब्रिटिश नागरिक की कोशिश थी कि वह यह साबित करे कि अगर आज़ादी मिलने के बाद भारत ने अमरीका का साथ पकड़ लिया होता तो बहुत अच्छी विदेशनीति बनती और आर एस एस वाले बुद्धिजीवी की कोशिश तो वही थी कि जो कुछ भी कांग्रेस ने किया वह गलत था.. ज़ाहिर है यह दोनों ही सोच भारत के लोगों के हित के खिलाफ है और उसे गंभीरता से लेने की ज़रुरत नहीं है . लेकिन जवाहरलाल नेहरू की विदेश नीति की बुनियाद को समझना ज़रूरी है ..१९४६ में जब कांग्रेस ने अंतरिम सरकार में शामिल होने का फैसला किया , उसी वक़्त जवाहरलाल ने स्पष्ट कर दिया था कि भारत की विदेशनीति विश्व के मामलों में दखल रखने की कोशिश करेगी , स्वतंत्र विदेशनीति होगी और अपने राष्ट्रहित को सर्वोपरि महत्व देगी .. लेकिन यह बात भी गौर करने की है कि किसी नवस्वतंत्र देश की विदेशनीति एक दिन में नहीं विकसित होती. जब विदेशनीति के मामले में नेहरू ने काम शुरू किया तो बहुत सारी अडचनें आयीं लेकिन वे जुटे रहे और एक एक करके सारे मानदंड तय कर दिया जिसकी वजह से भारत आज एक महान शक्ति है .. सच्चाई यह है कि भारत की विदेशनीति उन्ही आदर्शों का विस्तार है जिनके आधार पर आज़ादी की लड़ाई लड़ी गयी थी और आज़ादी की लड़ाई को एक महात्मा ने नेतृत्व प्रदान किया था जिनकी सदिच्छा और दूरदर्शिता में उनके दुश्मनों को भी पूरा भरोसा रहता था. आज़ादी के बाद भारत की आर्थिक और राजनयिक क्षमता बहुत ज्यादा थी लेकिन अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में ताक़त कुछ नहीं थी. जब भारत को आज़ादी मिली तो शीतयुद्ध शुरू हो चुका था और ब्रितानी साम्राज्यवाद के भक्तगण नहीं चाहते थे कि भारत एक मज़बूत ताक़त बने और अंतरराष्ट्रीय मंच पर उसकी आवाज़ सुनी जाए . जबकि जवाहरलाल नेहरू की विदेशनीति का यही लक्ष्य था. अमरीका के पास परमाणु हथियार थे लेकिन उसे इस बात से डर लगा रहता था कि कोई नया देश उसके खिलाफ न हो जाए जबकि सोविएत रूस के नेता स्टालिन और उनके साथी हर उस देश को शक की नज़र से देखते थे जो पूरी तरह उनके साथ नहीं था. नेहरू से दोनों ही देश नाराज़ थे क्योंकि वे किसी के साथ जाने को तैयार नहीं थे, भारत को किसी गुट में शामिल करना उनकी नीति का हिस्सा कभी नहीं रहा . दोनों ही महाशक्तियों को नेहरू भरोसा दे रहे थे कि भारत उनमें से न किसी के गुट में शामिल होगा और न ही किसी का विरोध करेगा. यह बात दोनों महाशक्तियों को बुरी लगती थी. यहाँ यह समझने की चीज़ है कि उस दौर के अमरीकी और सोवियत नेताओं को भी अंदाज़ नहीं था कि कोई देश ऐसा भी हो सकता है जो शान्तिपूर्वक अपना काम करेगा और किसी की तरफ से लाठी नहीं भांजेगा . जब कश्मीर का मसला संयुक्तराष्ट्र में गया तो ब्रिटेन और अमरीका ने भारत की मुखालिफत करके अपने गुस्से का इज़हार किया ..नए आज़ाद हुए देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अमरीकियों को कुछ इन शब्दों में फटकारा था . उन्होंने कहा कि ,'यह हैरतअंगेज़ है कि अपनी विदेशनीति को अमरीकी सरकार किस बचकाने पन से चलाती है .वे अपनी ताक़त और पैसे के बल पर काम चला रहे हैं , उनके पास न तो अक्ल है और न ही कोई और चीज़.' सोवियत रूस ने हमेशा नेहरू के गुटनिरपेक्ष विदेशनीति का विरोध किया और आरोप लगाया कि वह ब्रिटिश साम्राज्यवाद को समर्थन देने का एक मंच है ..सोवियत रूस ने कश्मीर के मसले पर भारत की कोई मदद नहीं की और उनकी कोशिश रही कि भारत उनके साथ शामिल हो जाए . जवाहरलाल ने कहा कि भारत रूस से दोस्ती चाहता है लेकिन हम बहुत ही संवेदंशील लोग हैं . हमें यह बर्दाश्त नहीं होगा कि कोई हमें गाली दे या हमारा अपमान करे. रूस को यह मुगालता है कि भारत में कुछ नहीं बदला है और हम अभी भी ब्रिटेन के साथी है . यह बहुत ही अहमकाना सोच है ..और अगर इस सोच की बिना पर कोई नीति बनायेगें तो वह गलत ही होगी जहां तक भारत का सवाल है वह अपने रास्ते पर चलता रहेगा. 'जो लोग समकालीन इतिहास की मामूली समझ भी रखते हैं उन्हें मालूम है कि कितनी मुश्किलों से भारत की आज़ादी के बाद की नाव को भंवर से निकाल कर जवाहरलाल लाये थे और आज जो लोग अपने पूर्वाग्रहों के आधार पर टी वी चैनलों पर बैठ कर मूर्खतापूर्ण प्रलाप करते हैं उन पर कोई भी केवल दया ही कर सकता है.(Already printed in Daily News Activist)
Monday, January 11, 2010
फिर पूछें कि कौन दुश्मन है ..
शेष नारायण सिंह
(rejectmaal.blogspot.com से साभार)
अपनी स्थापना के समय से ही भारत और पाकिस्तान के बीच तल्खी कई स्तर पर महसूस की जाती रही है. पाकिस्तानी हुक्मरान शुरू से जानते रहे हैं कि 1947 के पहले के भारत में रहने वाले मुसलमानों को बेवक़ूफ़ बना कर पाकिस्तान की स्थापना की गयी थी. आखिर तक, मुहम्मद अली जिन्ना ने यह नहीं बताया था कि पाकिस्तान की सीमा कहाँ होगी. क्योंकि अगर वे सच्चाई बता देते तो अवध और पंजाब के ज़मींदार मुसलमान अपनी खेती बारी छोड़ने को तैयार न होते और पाकिस्तान की अवधारणा ही खटाई में पड़ जाती. लेकिन पाकिस्तान बन गया है और वह आज एक सच्चाई है ..एक सच्चाई यह भी है कि दोनों देशों के बीच कई स्तर पर नफरत और दुश्मनी का भाव है सभ्य समाज में लगभग सभी मानते हैं कि यह दुश्मनी ख़त्म की जानी चाहिए.
भारत और पाकिस्तान के बीच दोस्ती की एक नयी पहल की गयी है. भारत और पाकिस्तान के कुछ अखबारों की कोशिश है कि दोनों देशों की जनता पहल करे और दोस्ती की जो लहर चले, वह दोनों मुल्कों के सरकारी तौर पर जिंदा रखे जा रहे दुश्मनी के भूत को भागने के लिए मजबूर कर दे. कोशिश यह है कि भारत और पाकिस्तान के बीच बनायी गयी सरहद की दीवाल इतनी नीची कर दी जाए कि कोई भी मासूम बच्चा उसे पार कर ले. दर असल पाकिस्तान का बनना ही एक ऐसी राजनीतिक चाल थी जिसने आम आदमी को हक्का-बक्का छोड़ दिया था. इसके पहले कि उस वक़्त के भारत की जनता यह तय कर पाती कि उसके साथ क्या हुआ है, अंग्रेजों की शातिराना राजनीति और भारत के नेताओं की अदूरदर्शिता का नतीजा था कि अंग्रेजों की पसंद के हिसाब से मुल्क बँट गया.
बँटवारे के इतिहास और भूगोल पर चर्चा बार बार हो चुकी है . चर्चा करने से एक दूसरे के खिलाफ तल्खी बढ़ती है. इस लेख का उद्देश्य पहले से मौजूद तल्खी को और बढ़ाना नहीं है. हाँ यह याद करना ज़रूरी है कि पाकिस्तान की भौगोलिक स्थिति चाहे जो हो, 1947 के बाद सरहद के इस पार बहुत सारे घरों के आँगन में पाकिस्तान बन गया है और वह अभी तक तकलीफ देता है ..राजनीतिक नेताओं की महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए हुए बँटवारे ने अवाम को बहुत तकलीफ पंहुचायी है. दुनिया मानती है कि 1947 में भारत का विभाजन एक गलत फैसला था . बाद में तो बँटवारे क एसबसे बड़े मसीहा, मुहम्मद अली जिन्ना भी मानने लगे थे..विख्याद इतिहासकार अलेक्स टुंजेलमान ने लिखा है कि अपने आखिरी वक्त में जिन्ना ने पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान से कहा था कि पाकिस्तान मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी बेवकूफी है। अगर मुझे मौका मिला तो मैं दिल्ली जाकर जवाहरलाल से कह दूंगा कि गलतियां भूल जाओ और हम फिर से दोस्तों की तरह रहें. बहरहाल पछताने से इतिहास के फैसले नहीं बदलते ..
बँटवारे के बाद ,पंजाब की तो आबादी का ही बँटवारा हो गया था. सरहद के दोनों तरफ के लोग रो पीट कर एक दूसरे के हिस्से में आये मुल्क में रिफ्यूजी बन कर आज 60 साल से रह रहे हैं लेकिन उत्तर प्रदेश के बहुत सारे जिलों से लोग कराची गए थे इस लालच में कि पाकिस्तान में मुसलमानों को अच्छी नौकरी मिलेगी.यहाँ उनका भरा पूरा परिवार था लेकिन वहां से कभी लौट नहीं पाए . उनके लोगों ने वर्षों के इंतज़ार के बाद अपनी ज़िंदगी को नए सिरे से जीने का फैसला किया और वह तकलीफ अब तक है..आज भी जब कोई बेटी, जो पाकिस्तान में बसे अपने परिवार के लोगों में ब्याह दी गयी है , जब भारत आती है तो उसकी माँ उसके घर आने की खुशी का इस डर के मारे नहीं इज़हार कर पाती कि बच्ची एक दिन चली जायेगी. और वह बीमार हो जाती है . उसी बीमार माँ की बात वास्तव में असली बात है . नेताओं को शौक़ है तो वे भारत और पाकिस्तान बनाए रखें, राज करें ,सार्वजनिक संपत्ति की लूट करें, जो चाहे करें लेकिन दोनों ही मुल्कों के आम आदमी को आपस में मिलने जुलने की आज़ादी तो दें. अगर ऐसा हो गया तो पाकिस्तान और हिन्दुतान सरहद पर तो होगा , संयुक्त राष्ट्र में होगा, कामनवेल्थ में होगा लेकिन हमारे मुल्क के बहुत सारे आंगनों में जो पाकिस्तान बन गया है , वह ध्वस्त हो जाएगा.फिर कोई माँ इसलिए नहीं बीमार होगी कि उसकी पाकिस्तान में ब्याही बेटी वापस चली जायेगी . वह माँ जब चाहेगी ,अपनी बेटी से मिल सकेगी. इसलिए दोनों देशों के बड़े अखबारों की और से शुरू किया गया यह अभियान निश्चित रूप से स्वागत योग्य है ..
अखबारों की तरफ से जो अभियान शुरू किया गया है उसमें दोनों देशों की सरकारों और नेताओं को बाईपास करके लोगों के बीच संवाद शुरू करने के लिए सकारात्मक पहल की घोषणा भी की गयी है .. दोनों देशों के बीच अविश्वास और नफरत के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए भी आपसी बात चीत के रास्ते शुरू करने का आवाहन किया गया है .कोशिश यह है कि विवादों को सुलझाने की नेताओं की कोशिश की परवाह किये बिना,दोस्ती और संवाद की बात चल निकले. आखिर सब कुछ तो एक जैसा है दोनों देशों के बीच में . संगीत, रीति रिवाज़, बोली , भाषा सब कुछ साझा है . हमारे बुज़ुर्ग तक साझी हैं., ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती , हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो, बुल्ले शाह , बाबा फरीद,गुरु नानक, कबीर सब साझी हैं. हमारे आस्था के केंद्र अजमेर में भी हैं और पाक पाटन में भी. .हमने आज़ादी की लड़ाई एक साथ लड़ी है. हमारा संगीत वही है . हमारे महान शायर वही हैं . हमारे ग़ालिब और मीर वही हैं और हमारे इकबाल वही हैं .. किशोर कुमार , लता मंगेश्कार, मुहम्मद रफ़ी ,गुलाम अली,आबिदा परवीन और मेहंदी हसन दोनों ही देशों के अवाम के बीच एक ही तरह के जज्बे पैदा करते है . तो फिर हम लड़ते क्यों हैं? जवाब साफ़ है . हम नहीं लड़ते. हमारे नेता लड़ते हैं .क्योंकि उनके अस्तित्व के लिए वह ज़रूरी है .... ज़रुरत इस बात की है कि सरकारों और नेताओं की परवाह न करके दोनों देशों के लोग एक दूसरे से बात चीत करें. दोनों ही देशों के अखबारों ने इस दिशा में पहला क़दम उठा दिया है ..
भारत के बहुत सारे शहरों में 16 से 24 जनवरी के बीच संगीत के कार्यक्रम आयोजित किये जा रहे हैं जिनमें भारत और पाकिस्तान के नामी संगीतकार हिस्सा लेंगें ..कैलाश खेर, राहत फ़तेह अली खां , शुभा मुद्गल ,आबिदा परवीन,गुलाम अली, हरिहरन आदि संगीतकार इस पहल की पहली कड़ी हैं .. और कोशिश करेंगें कि हमारे दोनों मुल्कों में रहने वाले इंसान एक दूसरे के खिलाफ नहीं बल्कि एक साथ खड़े हों . इस कोशिश की सफलता की कामना की जानी चाहिए.. ...
(rejectmaal.blogspot.com से साभार)
अपनी स्थापना के समय से ही भारत और पाकिस्तान के बीच तल्खी कई स्तर पर महसूस की जाती रही है. पाकिस्तानी हुक्मरान शुरू से जानते रहे हैं कि 1947 के पहले के भारत में रहने वाले मुसलमानों को बेवक़ूफ़ बना कर पाकिस्तान की स्थापना की गयी थी. आखिर तक, मुहम्मद अली जिन्ना ने यह नहीं बताया था कि पाकिस्तान की सीमा कहाँ होगी. क्योंकि अगर वे सच्चाई बता देते तो अवध और पंजाब के ज़मींदार मुसलमान अपनी खेती बारी छोड़ने को तैयार न होते और पाकिस्तान की अवधारणा ही खटाई में पड़ जाती. लेकिन पाकिस्तान बन गया है और वह आज एक सच्चाई है ..एक सच्चाई यह भी है कि दोनों देशों के बीच कई स्तर पर नफरत और दुश्मनी का भाव है सभ्य समाज में लगभग सभी मानते हैं कि यह दुश्मनी ख़त्म की जानी चाहिए.
भारत और पाकिस्तान के बीच दोस्ती की एक नयी पहल की गयी है. भारत और पाकिस्तान के कुछ अखबारों की कोशिश है कि दोनों देशों की जनता पहल करे और दोस्ती की जो लहर चले, वह दोनों मुल्कों के सरकारी तौर पर जिंदा रखे जा रहे दुश्मनी के भूत को भागने के लिए मजबूर कर दे. कोशिश यह है कि भारत और पाकिस्तान के बीच बनायी गयी सरहद की दीवाल इतनी नीची कर दी जाए कि कोई भी मासूम बच्चा उसे पार कर ले. दर असल पाकिस्तान का बनना ही एक ऐसी राजनीतिक चाल थी जिसने आम आदमी को हक्का-बक्का छोड़ दिया था. इसके पहले कि उस वक़्त के भारत की जनता यह तय कर पाती कि उसके साथ क्या हुआ है, अंग्रेजों की शातिराना राजनीति और भारत के नेताओं की अदूरदर्शिता का नतीजा था कि अंग्रेजों की पसंद के हिसाब से मुल्क बँट गया.
बँटवारे के इतिहास और भूगोल पर चर्चा बार बार हो चुकी है . चर्चा करने से एक दूसरे के खिलाफ तल्खी बढ़ती है. इस लेख का उद्देश्य पहले से मौजूद तल्खी को और बढ़ाना नहीं है. हाँ यह याद करना ज़रूरी है कि पाकिस्तान की भौगोलिक स्थिति चाहे जो हो, 1947 के बाद सरहद के इस पार बहुत सारे घरों के आँगन में पाकिस्तान बन गया है और वह अभी तक तकलीफ देता है ..राजनीतिक नेताओं की महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए हुए बँटवारे ने अवाम को बहुत तकलीफ पंहुचायी है. दुनिया मानती है कि 1947 में भारत का विभाजन एक गलत फैसला था . बाद में तो बँटवारे क एसबसे बड़े मसीहा, मुहम्मद अली जिन्ना भी मानने लगे थे..विख्याद इतिहासकार अलेक्स टुंजेलमान ने लिखा है कि अपने आखिरी वक्त में जिन्ना ने पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान से कहा था कि पाकिस्तान मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी बेवकूफी है। अगर मुझे मौका मिला तो मैं दिल्ली जाकर जवाहरलाल से कह दूंगा कि गलतियां भूल जाओ और हम फिर से दोस्तों की तरह रहें. बहरहाल पछताने से इतिहास के फैसले नहीं बदलते ..
बँटवारे के बाद ,पंजाब की तो आबादी का ही बँटवारा हो गया था. सरहद के दोनों तरफ के लोग रो पीट कर एक दूसरे के हिस्से में आये मुल्क में रिफ्यूजी बन कर आज 60 साल से रह रहे हैं लेकिन उत्तर प्रदेश के बहुत सारे जिलों से लोग कराची गए थे इस लालच में कि पाकिस्तान में मुसलमानों को अच्छी नौकरी मिलेगी.यहाँ उनका भरा पूरा परिवार था लेकिन वहां से कभी लौट नहीं पाए . उनके लोगों ने वर्षों के इंतज़ार के बाद अपनी ज़िंदगी को नए सिरे से जीने का फैसला किया और वह तकलीफ अब तक है..आज भी जब कोई बेटी, जो पाकिस्तान में बसे अपने परिवार के लोगों में ब्याह दी गयी है , जब भारत आती है तो उसकी माँ उसके घर आने की खुशी का इस डर के मारे नहीं इज़हार कर पाती कि बच्ची एक दिन चली जायेगी. और वह बीमार हो जाती है . उसी बीमार माँ की बात वास्तव में असली बात है . नेताओं को शौक़ है तो वे भारत और पाकिस्तान बनाए रखें, राज करें ,सार्वजनिक संपत्ति की लूट करें, जो चाहे करें लेकिन दोनों ही मुल्कों के आम आदमी को आपस में मिलने जुलने की आज़ादी तो दें. अगर ऐसा हो गया तो पाकिस्तान और हिन्दुतान सरहद पर तो होगा , संयुक्त राष्ट्र में होगा, कामनवेल्थ में होगा लेकिन हमारे मुल्क के बहुत सारे आंगनों में जो पाकिस्तान बन गया है , वह ध्वस्त हो जाएगा.फिर कोई माँ इसलिए नहीं बीमार होगी कि उसकी पाकिस्तान में ब्याही बेटी वापस चली जायेगी . वह माँ जब चाहेगी ,अपनी बेटी से मिल सकेगी. इसलिए दोनों देशों के बड़े अखबारों की और से शुरू किया गया यह अभियान निश्चित रूप से स्वागत योग्य है ..
अखबारों की तरफ से जो अभियान शुरू किया गया है उसमें दोनों देशों की सरकारों और नेताओं को बाईपास करके लोगों के बीच संवाद शुरू करने के लिए सकारात्मक पहल की घोषणा भी की गयी है .. दोनों देशों के बीच अविश्वास और नफरत के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए भी आपसी बात चीत के रास्ते शुरू करने का आवाहन किया गया है .कोशिश यह है कि विवादों को सुलझाने की नेताओं की कोशिश की परवाह किये बिना,दोस्ती और संवाद की बात चल निकले. आखिर सब कुछ तो एक जैसा है दोनों देशों के बीच में . संगीत, रीति रिवाज़, बोली , भाषा सब कुछ साझा है . हमारे बुज़ुर्ग तक साझी हैं., ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती , हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो, बुल्ले शाह , बाबा फरीद,गुरु नानक, कबीर सब साझी हैं. हमारे आस्था के केंद्र अजमेर में भी हैं और पाक पाटन में भी. .हमने आज़ादी की लड़ाई एक साथ लड़ी है. हमारा संगीत वही है . हमारे महान शायर वही हैं . हमारे ग़ालिब और मीर वही हैं और हमारे इकबाल वही हैं .. किशोर कुमार , लता मंगेश्कार, मुहम्मद रफ़ी ,गुलाम अली,आबिदा परवीन और मेहंदी हसन दोनों ही देशों के अवाम के बीच एक ही तरह के जज्बे पैदा करते है . तो फिर हम लड़ते क्यों हैं? जवाब साफ़ है . हम नहीं लड़ते. हमारे नेता लड़ते हैं .क्योंकि उनके अस्तित्व के लिए वह ज़रूरी है .... ज़रुरत इस बात की है कि सरकारों और नेताओं की परवाह न करके दोनों देशों के लोग एक दूसरे से बात चीत करें. दोनों ही देशों के अखबारों ने इस दिशा में पहला क़दम उठा दिया है ..
भारत के बहुत सारे शहरों में 16 से 24 जनवरी के बीच संगीत के कार्यक्रम आयोजित किये जा रहे हैं जिनमें भारत और पाकिस्तान के नामी संगीतकार हिस्सा लेंगें ..कैलाश खेर, राहत फ़तेह अली खां , शुभा मुद्गल ,आबिदा परवीन,गुलाम अली, हरिहरन आदि संगीतकार इस पहल की पहली कड़ी हैं .. और कोशिश करेंगें कि हमारे दोनों मुल्कों में रहने वाले इंसान एक दूसरे के खिलाफ नहीं बल्कि एक साथ खड़े हों . इस कोशिश की सफलता की कामना की जानी चाहिए.. ...
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