Monday, September 21, 2009

मानवता का युद्ध अपराधी इजरायल

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट ने गाजा शहर पर हुए इजरायली सैनिक अभियान की सच्चाई खोल दी है। इस रिपोर्ट में वही बातें कही गईं हैं जो पूरी दुनिया को पहले से ही मालूम थीं लेकिन संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट आने के बाद उम्मीद की जानी चाहिए कि अमरीका को भी सच्चाई मालूम हो जायेगी। रिपोर्ट में कहा गया है कि इजरायली सेना ने जान बूझकर फिलस्तीनी अवाम के खिलाफ सैनिक शक्ति का इस्तेमाल किया। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट तैयार करने का जिम्मा एक जज को सौंपा गया था।

रिचर्ड गोल्डस्टोन नाम के इस जज ने कहा है कि इजरायल ने जो कुछ भी गाजा में उन तीन हफ्तों में किया है, उसे युद्ध अपराध माना जाएगा कुछ मामले तो ऐसे हैं जहां इजरायली सेना की कार्रवाई "मानवता के खिलाफ" अपराध की श्रेणी में आ जाएगी इजरायल कहता रहा है कि सैनिक कार्रवाई फिलिस्तानी इलाकों से होने वाले हमलों के जवाब में है लेकिन सच्चाई यह है कि इजरायली सेना ने कम से कम चौदह सौ लोगों को मार डाला जिसमें करीब 500 महिलाएं और बच्चे हैं। यह जांच एक निष्पक्ष जज ने की है जो मूलतः दक्षिण अफ्रीका के रहने वाले हैं।

उन्होंने पता लगाया है कि नागरिक ठिकानों को जानबूझकर निशाना बनाया गया। इजरायल ने आवश्यकता से अधिक सैनिक बल का इस्तेमाल करके सिविलियन संपत्ति और सार्वजनिक सुविधाओं की तबाही की जिसकी वजह से गाजा के सीधे सादे फिलिस्तीनियों को बहुत मुसीबतों का सामना करना पड़ा। जांच से यह भी पता लगा कि इजरायली सेना ने संयुक्त राष्ट्र के शरणार्थी ठिकानों को भी नहीं बख्शा। 15 जनवरी की रात ऐसे ही एक ठिकाने पर हमला किया गया जहां करीब 700 सिविलयन रखे गए थे। इस हमले में फॉस्फोरस बम का इस्तेमाल किया गया जिसकी वजह से आग लग जाती है।

गाजा शहर के अल कुदस अस्पताल पर भी हमला किया गया इजरायल ने अस्पताल पर हमले के बाद बहाना बनाया था कि वहां फिलिस्तीनी आतंकवादी छुपे हुए थे। जांच से पता चला है कि इजरायल का यह बयान बिल्कुल गलत है, वहां कोई नहीं छुपा हुआ था। हमले में बेगुनाह लोग मारे गए थे। कई ऐसे भी मामलों से पर्दाफाश हुआ है जब इजरायली सेना ने निर्दोष बच्चों और औरतों को अगवा किया, उनकी आंखों पर पट्टी बांधी और उनको आगे करके मानवीय शील्ड की तरह इस्तेमाल किया, फिलिस्तीनी ठिकानों पर हमला किया और तबाही मचाई।

ऐसे भी सबूत मिले हैं कि इजरायली सेना ने खेती को बर्बाद किया, पानी के कुओं में बमबारी की, पानी के टैंक बरबाद किए और जिंदगी को नामुमकिन बनाने की कोशिश की। उनका लक्ष्य स्पष्ट था कि फिलिस्तीनी अवाम के लिए इतनी मुश्किले पैदा कर दी जायं कि उनकी जिंदगी तबाह हो जाय। इजरायली सेना हमेशा से यही करती रही है, इसमें नया कुछ नहीं है। नया है तो बस उस उम्मीद का मर जाना, जो दुनिया के सभ्य समाजों ने अमरीका के नए राष्ट्रपति बराक ओबामा से लगा रखी थी।अपने चुनाव अभियान के शुरुआती दौर से ही बराक ओबामा यह संकेत देते रहे थे कि उनकी पश्चिम एशिया नीति उतनी अरब विरोधी नहीं होती जितनी अब तक के राष्ट्रपतियों की होती रही है लेकिन अब तक के संकेतों से तो यही लगता है कि कोई खास परिवर्तन नहीं होने वाला है।

अमरीका की नीति पश्चिम एशिया में वही रहेगी जिसके हिसाब से इजरायल को धौंस देने के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है। दरअसल रिचर्ड ग्लैडस्टोन की रिपोर्ट के बाद बराक ओबामा की परीक्षा की घड़ी भी आ पहुंची है। जैसी कि उम्मीद थी, इजरायल ने ग्लैडस्टोन की रिपोर्ट को पक्षपातपूर्ण कहकर टरकाने की कोशिश की लेकिन इस दक्षिण अफ्रीकी जज ने इजरायल को फटकार दिया है और कहा कि इजरायल का यह कहना ही गैर जिम्मेदार आचरण है कि रिपोर्ट तैयार करते समय उन पर कोई दबाव डाल रहा था। उन्होंने कहा कि जो कुछ भी रिपोर्ट में लिखा गया है, वह एक निष्पक्ष जांच का नतीजा है। और उन्हें इस बात का अफसोस रहेगा कि इस पूरी जांच प्रक्रिया में इजरायल का रुख सहयोग का नहीं रहा।

इस बीच इजरायली मीडिया के माध्यम से सरकार ने जज ग्लैडस्टोन पर व्यक्तिगत हमलों का अभियान शुरू कर दिया है लेकिन ग्लैडस्टोन के ऊपर इसका कुछ भी असर नहीं पड़ने वाला है। वे इस तरह की परिस्थितियों से कई बार गुजर चुके हैं। 1994 में जब रंगभेद के खात्मे के बाद दक्षिणी अफ्रीका में चुनाव हुए तो चुनावों के पहले बड़े पैमाने पर हिंसा और धौंस पट्टी की वारदातें हुई थीं। उनकी जांच का जिम्मा भी इन्हें दिया गया था और उसे उन्होंने बहुत ही सच्चाई के साथ पूरा किया था। वे अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में यूगोस्लाविया और वांडा जैसे मामलों में भी संयुक्त राष्ट्र की तरफ से काम कर चुके है। अब अमरीका के राष्ट्रपति को एक मौका मिला है कि वे फिलिस्तीन और अरब राजनीति में इंसाफ के पक्षधर के रूप में अपने आपको पेश करें क्योंकि अगर ऐसा न हुआ तो अन्य अमरीकी राष्ट्रपतियों की तरह इतिहास उनको भी नहीं माफ करेगा।

Friday, September 18, 2009

ऐतिहासिक भूलों का मार्क्सवादी मसीहा

पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टियों को एक और चुनावी नुकसान हुआ है। लोकसभा चुनाव में काफी सीटें गवां चुकी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और अन्य वामपंथी पार्टियों को सिलिगुड़ी नगर निगम के चुनावों में जोर का झटका बहुत ज़ोर से लगा है। पिछले 28 वर्षों से सिलीगुड़ी नगर निगम पर लाल झंडे वालों का कब्ज़ा था लेकिन इस बार उन्हें मुंह की खानी पड़ी है।

अबकी तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस गठबंधन ने 29 सीटें जीतकर स्पष्ट बहुमत हासिल कर लिया है। वामपंथी मोर्चे को केवल 17 सीटें मिली हैं। यह बड़ी हार है क्योंकि पिछले चुनावों में 36 सीटें जीतकर सिलीगुड़ी नगर पालिका पर लाल झंडा फहराया गया था। गौर करने की बात यह है कि सिलीगुड़ी किसी कस्बे की टाउन एरिया कमेटी नहीं है, यह कलकत्ता के बाद राज्य का सबसे बड़ा नगर निगम है। इसे उत्तर बंगाल में लेफ्ट का गढ़ माना जाता है।

दक्षिण बंगाल में मार्क्सवादी दलों की दुर्दशा लोकसभा चुनाव में ही हो चुकी थी अब उत्तर बंगाल में राग विदाई की भनक सुनाई पड़ने लगी है। सिलीगुड़ी नगर निगम के चुनाव का भावार्थ बहुत गहरा है। 2011 में पश्चिम बंगाल विधानसभा का चुनाव होने वाला है और तृणमूल कांग्रेस की कोशिश है कि उस चुनाव में अपनी जीत के पक्की होने के संदेश के रूप में सिलीगुड़ी की लड़ाई को पेश किया जाय। दक्षिण बंगाल में वाम मोर्चा की जो खस्ता हालत हुई है, उसको ध्यान में रखा जाय तो इस बात में बहुत वज़न नज़र आने लगता है कि ममता बनर्जी राज्य की सबसे महत्वपूर्ण नेता के रूप में उभर रही है।

सवाल उठता है कि पश्चिम बंगाल में पिछले 32 वर्षों से राज करने वाले वाम मोर्चे के नेताओं के सामने यह दुर्दिन क्यों मुंह बाए खड़ा है? 1977 में वाम मोर्चे ने कई साल से चल रहे कांग्रेसी कुशासन को समाप्त करने के लिए पश्चिम बंगाल की जनता के भारी समर्थन से कलकत्ता में सरकार बनाई थी। ज्योति बसु मुख्मंत्री बने थे और राज्य में बुनियादी परिवर्तन की शुरुआत की थी। गांवों में रहने वाले गरीब से गरीब आदमी के हित को राजकाज के फैसलों का केंद्र बिंदु बनाकर ज्योति बसु ने राज किया लेकिन जब हाथ पांव चलाने में भी दिक्कत होने लगी और उम्र अपना नज़ारा दिखाने लगी तो उन्होंने अगली पीढ़ी को काम संभलवाकर वानप्रस्थ ले लिया।

लगता है कि यहीं कोई चूक हो गई क्योंकि ज्योति बसु के जाने के बाद से ही पश्चिम बंगाल में वामपंथी राजनीति ढलान पर है। पार्टी का दुर्भाग्य ही है कि ज्योति बसु के लगभग साथ-साथ ही दिल्ली के सत्ता के गलियारों का ज्ञाता एक और कम्युनिस्ट रिटायर हो गया। हरिकिशन सिंह सुरजीत के बैठक ले लेने के बाद दिल्ली में भी सत्ता परिवर्तन हुआ और नए महासचिव, प्रकाश करात ने कमान संभाली। प्रकाश करात बहुत ही पढ़े लिखे और कुशाग्र बुद्धि के माहिर नेता हैं।

चुस्त दुरुस्त लेखन के ज्ञाता हैं और मार्क्सवाद के प्रकांड पंडित हैं। उनका व्यक्तित्व कुछ-कुछ मुहम्मद अली जिनाह वाला है। जिनाह की एक खासियत थी कि वे कभी भी किसी जन आंदोलन का हिस्सा नहीं रहे लेकिन अपनी बात को सबसे ऊपर रखने की कला के माहिर थे। जिन्ना की खासियत यह थी कि वे पूरी नहीं तो आधी ही सत्ता लेकर माने लेकिन प्रकाश करात आई हुई सत्ता को दुत्कार कर भगा देने में बहुत ही निपुण हैं।

1996 में जब पूरा देश ज्योति बसु को प्रधान मंत्री देखना चाहता था, प्रकाश करात ने ही उस खेल में गाड़ी के आगे काठ रखा था। बाद में उस गलती को ऐतिहासिक भूल कहा गया और पार्टी ने गलती स्वीकार की। उसके बाद प्रकाश करात को ऐतिहासिक भूलों का विशेषज्ञ मान लिया गया। 2004 में कांग्रेस को बाहर से समर्थन देना, अभी ऐतिहासिक भूल के रूप में औपचारिक रूप से दर्ज तो नहीं है लेकिन जानकार बताते हैं कि अंदरखाने यह चर्चा हुई थी कि अगर मनमोहन सिंह सरकार में करीब 10 कम्युनिस्ट मंत्री होते तो बहुराष्ट्रीय कंपनियां मनमानी न कर पातीं और सरकार परमाणु समझौता न कर पाती।

बाद में सरकार से समर्थन वापसी और तथाकथित तीसरा मोर्चा बनाने की ऐतिहासिक भूलें भी न होतीं। दक्षिणपंथी राजनेताओं और पूंजीवादी मीडिया की कृपा से आमतौर पर माना जाता है कि कम्युनिस्ट पार्टियों में लोकतांत्रिक तरीके से काम नहीं होता। लेकिन यह सच नहीं हैं, कम्युनिस्ट पार्टियों में हर प्रस्ताव गांव स्तर की कमेटी तक बहस के लिए लाया जाता है और अधिकतर संख्या के लोगों की राय को राष्ट्रीय प्रस्तावों में परिलक्षित होते देखा जा सकता है।

मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में भी यही माहौल था। लेकिन ज्योति बसु-सुरजीत टीम के हटने के बाद लगता है, यह रिवाज खत्म हो गया। आम कार्यकर्ता अपने को अलग थलग महसूस करने लगा। जब लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निकाला गया तो पश्चिम बंगाल में चारों तरफ निराशा छा गई। लगता है कि भविष्य में सोमनाथ को हटाने का फैसला भी ऐतिहासिक भूल की हैसियत हासिल कर लेगा। बहरहाल भूलों के बाद भूल करती मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी पश्चिम बंगाल में एक-एक करके सब कुछ गंवा रही है। यह देखना दिलचस्प होगा कि चुनावों में लगातार नुकसान उठा रही पार्टी अपने को संभाल पाती है या उसका भी वही हाल होता है, जो उत्तर भारत के कई राज्यों में कांग्रेस पार्टी का हुआ है।

Thursday, September 17, 2009

कांग्रेस की शिकस्त और बड़प्पन के मुग़ालते

लोकसभा चुनाव 2009 के बाद धर्मनिरपेक्ष सोच वाले लोगों के घरों में जो नगाड़े बजना शुरू हुए थे, उनकी आवाज कुछ सहम सी गई है। बीजेपी और संघ से संबंधित अन्य दक्षिणपंथी ताकतों की सरकार बना लेने की योजना को नाकाम करने के बात को कांग्रेस पार्टी ने अपनी जीत बताना शुरू कर दिया था और उसी रौ में बह रही थी।

उत्तर प्रदेश में उम्मीद से कुछ सीटें ज्यादा पाने के बाद कांग्रेसी नेताओं की चाल में कुछ अलग किस्म की धमक आ गई थी, महाराष्ट्र में भी अपने पुराने साथी एनसीपी के नेता, शरद पवार को औकातबोध का ककहरा बताया जाने लगा था। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के प्रतिनिधि अमर सिंह की शिकायत टेलीविजन पर सुनाई पड़ी कि सोनिया गांधी उनको मिलने का टाइम तक नहीं दे रही हैं। यानी कांगे्रस में वही सारे लक्षण दिखने लगे थे, जो एक विजेता में पाए जाते हैं। सच्ची बात यह है कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत नहीं हुई थी।

वास्तव में जिसे कांग्रेस की जीत कहा जा रहा है, वह बीजेपी की हार थी। कांग्रेस ने तो सबसे बड़ी पार्टी की हैसियत हासिल करके कहीं का ईंट, कहीं का रोड़ा जुटाकर दिल्ली में एक सरकार बना दी थी। जिससे केंद्र में स्थिरता आ गई थी। केंद्र सरकार बन जाने के बाद कांग्रेस के ज्यादातर नेता इसे धर्मनिरपेक्षता की जीत बताने लगे और यहीं गलती हो गई क्योंकि खींच खांचकर कांग्रेस को तो सेक्युलर माना जा सकता है लेकिन यूपीए में शामिल सभी घटक दल ऐसे नहीं हैं।

उसमें ममता बनर्जी, फारूक अब्दुल्लाह और करूणानिधि भी हैं जो अटल बिहारी वाजपेयी की ताजपोशी में भूमिका अदा कर चुके हैं। ममता बनर्जी तो बीजेपी के साथ मिलकर पश्चिम बंगाल में चुनाव भी लड़ चुकी हैं। इसलिए केंद्र सरकार की धर्मनिरपेक्षता स्वंयसिद्घ नही हैं। हां अगर कांग्रेस की नीयत साफ हो तो इस सरकार से सेक्युलर एजेंडे पर काम करवाया जा सकता है। एक बात जो बहुत ज्यादा सच है, वह यह कि किसी भी सरकार के जरिए राजनीतिक लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती खासकर अगर सरकार में शामिल मंत्री आराम तलबी की लत के शिकार हो चुके हैं।

पिछले दिनों जिस तरह से हवाई जहाज़ में मंहगी टिकट लेकर यात्रा करने के मामले में नेताओं का व्यक्तित्व उभरा है, वह बहुत ही दु:खद है। इन लोगों से किसी राजनीतिक लड़ाई के संचालन की उम्मीद करना बेमतलब है। बहरहाल मई से अब तक के बीच में जो हुआ है, उसका लुब्बो-लुबाब यह है कि सांप्रदायिक ताकतें फिर से लामबंद हो रही हैं और विधान सभा के कुछ उपचुनावों के जो नतीजे आए हैं, वे निश्चित रूप से इस बात का संकेत करते हैं कि बीजेपी कहीं से कमजोर नहीं है और कांग्रेस के लोग फौरन न चेते तो उनकी राजनीतिक हैसियत ढलान पर चल रही मानी जाएगी और ढलान पर चलने वाली हर सवारी सबसे निचले स्तर पर पहुंच कर ही रूकती हैं।

अब जिन 12 उपचुनावों के नतीजे आए हैं उनमें सात सीटें बीजेपी को मिली हैं। इसमें 6 सीटें वे हैं जो पहले कांग्रेस के पास थीं और इन उपचुनावों में वे बीजेपी के पास आ गई हैं। इसका मतलब यह हुआ कि कांग्रेस इन इलाकों में कमजोर हुई है। कांग्रेस को जहां सफलता मिली है, उनमें से ज्यादातर सीटें आंध्र प्रदेश से आई हैं जहां सांप्रदायिक ताकतें बहुत ही कमज़ोर हैं। यानी अगर कांग्रेस को सांप्रदायिकता के खिलाफ ईमानदारी से लड़ाई का नेतृत्व करना है तो उसे पूरे देश में मौजूद बहुसंख्यक धर्मनिरपेक्ष लोगों की लामबंद करना पड़ेगा। यह काम कोई आसान नहीं है। उसके लिए सबसे पहले तो कांग्रेसी नेताओं को दंभ की बीमारी छोडऩी पड़ेगी।

अभी कल की बात है कि समाजवादी पार्टी ने परमाणु समझौते वाले मसले पर कांग्रेस की आबरू बचाई थी और आज थोड़ी ज्यादा सीटें आ गईं तो उस पार्टी के महामंत्री को सोनिया गांधी के निजी सहायक तक ने समय नहीं दिया। यही हाल महाराष्ट्र में भी है। संयुक्त मोर्चा सरकारों के बारे में पश्चिम बंगाल के लेफ्ट फ्रंट का तजुरबा बहुत ही महत्वपूर्ण है। 1977 में राज्य की वामपंथी पार्टियों ने मिलकर चुनाव लड़ा और सरकार बनाई। उसके बाद कई बार ऐसे मौके आए कि सबसे बड़ी पार्टी को अपने बलबूते पर स्पष्टï बहुमत मिल गया लेकिन पार्टी के सबसे बड़े नेता ज्योति बसु अहंकार से वशीभूत नहीं हुए और सभी पार्टियों को साथ लेकर चलते रहे।

केंद्रीय नेतृत्व का सबसे बड़ा अधिकारी जिद्दी और दंभी है जिसकी वजह से कांग्रेस और ममता बनर्जी की संयुक्त ताकत वामपंथियों को दुरूस्त कर रही है। बहरहाल ज्योतिबसु और हरिकिशन सिंह सुरजीत के नेतृत्व में गठबंधन राजनीति का जो बंगाल मॉडल विकसित हुआ है, केंद्र की पार्टियों को भी उसको अपनाना चाहिए। खासतौर से अगर फासिस्ट ताकतों से मुकाबला है तो जनवादी ताकतों और उनके साथियों को लामबंद होना पड़ेगा। कांग्रेसी नेताओं में घुस चुके अहंकार के भाव को अगर फौरन रोका न गया तो भारत सांप्रदायिकता के खिलाफ शुरू की गई लड़ाई हार जाएगा। जो देश के लिए बिलकुल ठीक नहीं होगा।

Tuesday, September 15, 2009

भूख की जंग का अजेय योद्धा

डॉ. नार्मन बोरलाग नहीं रहे। अमरीका के दक्षिणी राज्य टेक्सॉस में 95 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया और पिछली सदी के सबसे महान व्यक्तियों में से एक ने अपना पूरा जीवन मानवता को समर्पित करके विदा ले ली। उन्हें 1970 में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। डा. बोरलाग ने भूख के खिलाफ लड़ाई लड़ी और दुनिया के बड़े हिस्से में भूख को पराजित किया। पूरे दक्षिण अमरीका और एशिया में उन्होंने भूख को बेदखल करने का अभियान चलाया और काफी हद तक सफल रहे।


प्रो. बोरलाग को ग्रीन रिवोल्यूशन का जनक कहा जाता है। हालांकि वे इस उपाधि को स्वीकार करने में बहुत संकोच करते थे। लेकिन सच्ची बात यह है कि 1960 के दशक में भूख के मुकाबिल खड़ी दक्षिण एशिया की जनता को डॉ. नार्मल बोरलाग ने भूख से लड़ने और बच निकलने की तमीज सिखाई। 20 वीं सदी की सबसे खतरनाक समस्या भूख को ही माना जाता है। ज्यादातर विद्वानों ने दूसरे विश्वयुद्ध के बाद भविष्यवाणी कर दी थी कि सदी के अंत के दो दशकों में अनाज की इतनी कमी होगी कि बहुत बड़ी संख्या में लोग भूख से मर जाएंगे।

विद्वानों को समझ में नहीं आ रहा था कि किया क्या जाए। इसी दौरान दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति पर जब नार्मन बोरलाग, वापस आए तो उन्हें अमरीका की बहुत बड़ी रासायनिक कंपनी में नौकरी मिली लेकिन उनका मन नहीं लगा और रॉकफेलर फाउंडेशन के एक प्रोजेक्ट के तहत वे मैक्सिको चले गए। इस प्रोजेक्ट का उद्देश्य मैक्सिको के किसानों को अपनी फसल को सुधारने की जानकारी और ट्रेनिंग देना था। इस योजना को उस वक्त की अमरीकी सरकार का आशीर्वाद प्राप्त था। बोरलाग जब मैक्सिको पहुंचे तो सन्न रह गए, वहां हालात बहुत खराब थे। मिट्टी का पूरा दोहन हो चुका था, बहुत पुराने तरीके से खेती होती थी और किसान इतना भी नहीं पैदा कर सकते थे कि अपने परिवार को दो जून की रोटी खिला सकें।

इसी हालत में इस तपस्वी ने अपना काम शुरू किया। कई वर्षों के कठिन परिश्रम के बाद गेहूं की ऐसी किस्में विकसित कीं जिनकी वजह से पैदावार कई गुना ज्यादा होने लगी। आमतौर पर गेहूं की पैदावार तीन गुना ज्यादा हो गई और कुछ मामलों में तो चार गुना तक पहुंच गई। मैक्सिको सहित कई अन्य दक्षिण अमरीकी देशों में किसानों में खुशहाली आना शुरू हो गई थी, बहुत कम लोग भूखे सो रहे थे। बाकी दुनिया में भी यही हाल था। 60 का दशक पूरी दुनिया में गरीब आदमी और किसान के लिए बहुत मुश्किल भरा माना जाता है। भारत में भी खेती के वही प्राचीन तरीके थे। पीढ़ियों से चले आ रहे बीज बोए जा रहे थे।

1962 में चीन और 1965 में पाकिस्तान से लड़ाई हो चुकी थी, गरीब आदमी और किसान भुखमरी के कगार पर खड़ा था। अमरीका से पी.एल-480 के तहत सहायता में मिलने वाला गेहूं और ज्वार ही भूख मिटाने का मुख्य साधन बन चुका था और कहा जाता था कि भारत की खाद्य समस्या, "शिप इ माउथ" चलती है। यानी अमरीका से आने वाला गेहूं, फौरन भारत के गरीब आदमियों तक पहुंचाया जाता था। ऐसी विकट परिस्थिति में डॉ. बोरलाग भारत आए और हरितक्रांति का सूत्रपात किया। हरित क्रांति के अंतर्गत किसान को अच्छे औजार, सिंचाई के लिए पानी और उन्नत बीज की व्यवस्था की जानी थी जो डॉ. बोरलाग की प्रेरणा से संभव हुआ।

भारत में दो ढाई साल में ही हालात बदल गए और अमरीका से आने वाले अनाज को मना कर दिया गया। भारत एक फूड सरप्लस देश बन चुका था। भारत में हरितक्रांति के लिए तकनीकी मदद तो निश्चित रूप से नॉरमन बोरलाग की वजह से मिली लेकिन भारत के कृषिमंत्री सी. सुब्रहमण्यम ने राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया और हरित क्रांति के लिए जरूरी प्रशासनिक इंतजाम किया। डा. बोरलाग का अविष्कार था बौना गेहूं और धान जिसने भारत और पाकिस्तान में मुंह बाए खड़ी भुखमरी की समस्या को हमेशा के लिए बौना कर दिया। बाद में चीन ने भी इस टेक्नालोजी का फायदा उठाया।

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Friday, September 11, 2009

हैदराबाद के तख्त की लड़ाई

हैदराबाद के तख्त की लड़ाई निर्णायक मुकाम पर पहुंचने वाली है। राजशेखर रेड्डी की दु:खद मृत्यु के बाद उनके वफादरों का एक वर्ग उनके अनुभवहीन बेटे को गद्दी पर बैठाने की जुगत में है। इन लोगों का कहना है कि वाई.एस.आर. के बेटे, जगनमोहन को मुख्यमंत्री बना देने से पार्टी का बहुत फायदा होगा। दावा किया जा रहा है कि आंध्रप्रदेश के लगभग सभी विधायक और अधिसंख्य सांसद, जगनमोहन रेड्डी को मुख्यमंत्री बनवाना चाहते हैं।

इसी तरह के और भी बहुत सारे तर्क दिए जा रहे हैं। यह सारे ही तर्क बेमतलब हैं। कोई वंशवाद की जय जयकार कर रहे इन कांग्रेसियों से पूछे कि अगर जगनमोहन रेड्डी के अलावा दिल्ली दरबार में किसी और व्यक्ति को आंध्र प्रदेश की गद्दी सौंप दी जाएगी तो क्या यह जगन ब्रिगेड नए मुख्यमंत्री का समर्थन नहीं करेगा। यह प्रश्न है जो सभी सवालों के जवाब दे देगा। आम तौर पर माना जाता है कि जयकारा लगाने वाले ए नेता सिंहासन से प्रतिबद्घ होते हैं। जो ही राजा बन जाएगा, उसी का चालीसा पढऩे लगेगे।

कांग्रेस आलाकमान के अब तक के संकेत से तो साफ है कि आंध्रप्रदेश में वंशवाद को बढ़ावा नहीं दिया जायेगा। एक तो जगन मोहन रेड्डी बिलकुल अनुभवहीन हैं, दूसरे उनकी ख्याति भी बहुत सकारात्मक नहीं है। इसके अलावा सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि राजनीति में रिटेक नहीं होता यानी दुबारा मौका नहीं मिलता। अगर एक राजनीतिक गलती कर दी तो आंध्रप्रदेश में कांग्रेस का वह हाल भी हो सकता है जो एन.टी. रामाराव ने किया था।

इसलिए सोनिया गांधी कोई भी लूज बाल नहीं फेंकना चाहतीं क्योंकि क्रिकेट में लूज बाल फेंकने पर एक छक्का लगता है लेकिन राजनीतिक में लूज बाल पर छक्का भी लगता है और विकेट भी जाती है। इसलिए कांग्रेस को आंध्रप्रदेश में ऐसे व्यक्ति की तलाश है जो उस मजबूती को संभाल सके जो राजशेखर रेड्डी की मेहनत से राज्य में मौजूद है। एक और भी तल्ख सच्चाई है जिस पर है कि कांग्रेस आलाकमान की नजर ज़रूर होगी। वह यह कि राज्य में स्वर्गीय राजशेखर रेड्डी के कद का कोई नेता नहीं है।

सोनिया गांधी के सामने विकल्प बहुत कम हैं और फैसला कठिन। शायद आंध्रप्रदेश के कांग्रेस सांसद और राजशेखर रेड्डी के निजी मित्र के.वी.पी. राव को विकल्पों की कमी का एहसास सबसे ज्यादा है इसीलिए जगनमोहन की ताजपोशी न होने की हालत में वे केंद्र में अपने या जगन मोहन के लिए कुछ हासिल कर लेना चाहते हैं।

वंशवाद के खिलाफ जाने के मामले पर कांगे्रेस की कोर भी थोड़ी दबी हुई है। 1975 में जब इंदिरा गांधी ने अपने अनुभवहीन बेटे को उत्तराधिकारी बनाने की योजना बनाई तो एक तरह से कांग्रेस के अंदर रहकर वंशवाद के खिलाफ आवाज उठाने वालों की बोलती सदा के लिए बंद कर दी गई थी। यह परंपरा आज तक कायम है इसलिए जगनमोहन की दावेदारी, वंशवाद का तर्क देकर तो नहीं खारिज की जा सकती। इसके बावजूद भी सोनिया गांधी का अब तक का रुख ऐसा है कि वह राजनीतिक परिपक्वता का परिचय देकर किसी ऐसे व्यक्ति को सत्ता सौंपना चाहती हैं जो राजनीतिक रूप से सब को स्वीकार्य हो।

यहां यह भी स्पष्ट रूप से समझ लेने की जरुरत है कि सत्तर के दशक में जो कांग्रेस पार्टी ने राज्यों के कद्दावर नेताओं को बौना बनाने का सिलसिला शुरू किया था अब वह पूरी तरह से लागू है और फल फूल रहा है अगर भूला बिसरा कोई नेता किसी राज्य में ताकतवर होता भी है तो वह आलाकमान के आशीर्वाद का मोहताज रहता है। इसलिए यह सोचना ही बेमतलब है कि कोई भी ऐसा व्यक्ति जिसे दिल्ली से नामजद कर दिया जाएगा, उसे विधायक अस्वीकार कर देंगे।

इसलिए जगनमोहन रेड्डी का सारा समर्थन काफूर हो जायेगा जब आलाकमान किसी और को मुख्यमंत्री बना देगा। सारे विधायक उसी के समर्थक हो जाएंगे। इस मामले ने एक बार फिर हमारे लोकतंत्र की दुखती रग पर हाथ रख दिया है। साठ के दशक तक ज्यादातर राज्यों में कांग्रेसी शासन होता था लेकिन आम तौर पर मुख्यमंत्री के बारे में राज्य की राजधानी में ही फैसला होता था। राज्यों के मुख्यमंत्री आम तौर पर आलाकमान का हिस्सा होते थे। उनका चुनाव आम सहमति से होता था लेकिन वह आम सहमति सोच विचार और बहस के बाद हासिल की जाती थी, हड़काकर नहीं।

बहरहाल, सोनिया गांधी के सामने इस वक्त वह अवसर है कि सच्ची आम सहमति की संस्कृति को फिर से महत्व दे सकती हैं। पिछले कुछ वर्षों में उन्होंने देश की राजनीतिक व्यवस्था में कुछ ऐसे प्रयोग किए हैं जो देश को सही ढर्रे पर ले जा सकते हैं। देखना यह है कि आंध्रप्रदेश में उनका फैसला राजनीतिक परिपक्वता का संदेश देता है या राजनीतिक गुटबाजी और वंशवाद को बढ़ावा देता है।
आंध्रप्रदेश में राजशेखर रेड्डी के बाद किसी को भी मुश्किल पेश आएगी। 2004 में जब राजशेखर रेड्डी ने तेलगुदेशम पार्टी को हराकर कांग्रेस को फिर से सत्ता दिलवाई थी, तो कांग्रेस की हैसियत बहुत कम थी।

पिछले पांच वर्षों में उन्होंने पार्टी को मजबूती दी और दुबारा जीतकर आए लेकिन यह कोई अटल सत्य नहीं है कि कांग्रेस हमेशा के लिए आ गई है। अगर एक फैसला गड़बड़ हुआ कि कांग्रेस फिर वहीं पहुंच जाएगी। जहां एन.टी.आर. ने पहुंचाया था इसलिए यह लोकतंत्र के हित में है कि कांग्रेस आलाकमान सही फैसला ले।

Thursday, September 10, 2009

मूर्तियां जरूरी कि सूखा राहत

मायावती सरकार के मूर्ति बनाने के अभियान पर सुप्रीम कोर्ट का ब्रेक लग गया है। सूखे से त्राहि त्राहि कर रहे उत्तरप्रदेश की सरकार, राज्य में हजारों करोड़ रुपए खर्च करके दलित नेताओं और हाथियों की मूर्तियों लगवाने और कांशीराम का स्मारक बनवाने की इतनी हड़बड़ी में है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की भी अनदेखी कर रही है।

बहरहाल मंगलवार को मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार की दलीलों को कोई महत्व नहीं दिया और ऐसे सवाल पूछे जो सरकार के लिए मुश्किल खड़ी कर सकते हैं। स्टे आर्डर तो नहीं दिया लेकिन सरकार से अंडरटेकिंग लिखवा ली कि जब तक सुप्रीम कोर्ट की तरफ से विचाराधीन मामले में कोई फाइनल फैसला नहीं हो जाता, मूर्ति और स्मारक का निर्माण कार्य रोक दिया जाएगा।
जस्टिस बी.एन. अग्रवाल और जस्टिस आफताब आलम की बेंच ने उत्तरप्रदेश सरकार के फैसला लेने की प्रक्रिया की भी न्यायिक समीक्षा की संभावना पर गौर करने की बात की है। बेंच ने कहा कि इस बात की जांच की जाएगी कि क्या किसी भी सरकार को इस तरह के खर्च करने की मंजूरी संविधान में दी गई है।

उत्तरप्रदेश सरकार के वकील सतीश चंद्र मिश्र ने दलील दी कि राजनीतिक कारणों से उनके मुवक्किल यानी उत्तरप्रदेश सरकार पर इस तरह के मुकदमे दायर किए जा रहे है। न्यायालय ने उन्हें तुरंत टोका कि उनका काम मामले के संवैधानिक और कानूनी पहलू पर गौर करना है, राजनीति से अदालत का कोई मतलब नहीं है। उत्तरप्रदेश सरकार के वकील के इस दावे को भी अदालत ने सिरे से खारिज कर दिया कि मायावती कांशीराम और अंबेडकर की मूर्तियों और स्मारकों की स्थापना का फैसला संविधान सम्मत है, अदालत ने क्योंकि उसे मंत्रिपरिषद की मंजूरी मिल चुकी है तो माननीय न्यायालय ने कहा कि मामले के इस पहलू की भी जांच की जाएगी कि किसी भी सरकार को जनता के पैसे को इस तरह की योजनाओं पर खर्च करने का संवैधानिक अधिकार है कि नहीं।

सतीश मिश्रा ने यह भी दलील दी कि नेहरू गांधी परिवार की मूर्तियों पर इतना खर्च हो चुका है तो दलितों की मूर्तियों के लिए क्यों मना किया जा रहा है। अदालत ने इस हास्यास्पद दलील पर गौर करना भी मुनासिब नहीं समझा। सवाल उठता है कि मायावती ने इन मूर्तियों को बनवाने का काम युद्घ स्तर पर क्यों शुरू कर रखा है। इस वक्त उत्तरप्रदेश में किसान सूखे से तड़प रहा है, राज्य में सिंचाई के कोई भी सरकारी साधन नहीं हैं, निजी ट्यूबवेल से सिंचाई नहीं हो पा रही है क्योंकि राज्य में हफ्तों बिजली नहीं आ रही है, खरीफ की फसल तबाह हो चुकी है।

राज्य सरकार के पास कर्मचारियों की तनखाह देने के लिए पैसे भी बड़ी मुश्किल से जुट रहे हैं, कानून व्यवस्था ऐसी है कि कहीं भी, कोई भी किसी को भी झापड़ मार दे रहा है। कई जिलों में मुख्यमंत्री के खास कहे जाने वाले पुलिस वाले मनमानी कर रहे है। अपहरण और लूटमार की घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही है। अपना खर्च चलाने के लिए राज्य सरकार केंद्र से अस्सी हजार करोड़ रुपए की मांग कर रही है और मायावती इसे राज्य बनाम केंद्र का मुद्दा बनाने की कोशिश कर रही हैं।

किसी भी समझदार मुख्यमंत्री को सूखे जैसी मुसीबत के वक्त अपने लोगों के साथ खड़े रहना चाहिए। उनकी जो भी खेती संभल सके उसमें मदद करनी चाहिए लेकिन उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मूर्तियों और स्मारकों के निर्माण में इस तरह से जुटी है जैसे अब उन्हें दुबारा मौका ही नहीं मिलेगा। सुप्रीम कोर्ट तो अपना संवैधानिक कर्तव्य निभा रहा है लेकिन सरकार को अपना कर्तव्य करने की प्रेरणा देने के लिए सभ्य समाज और जागरूक जनमत का भी कोई फर्ज है।

जरूरत इस बात की है कि उत्तरप्रदेश सरकार को इस बात की जानकारी दी जाये कि राज्य में हाहाकार मचा हुआ है और सरकार का काम है जनता को राहत देना। यह काम आमतौर पर जनता के चुने हुए प्रतिनिधि करते हैं लेकिन उत्तरप्रदेश सरकार का रवैया ऐसा है कि विधान सभा की कोई भूमिका ही नहीं रह गई है। मुख्यमंत्री की सलाहकार सभा में ऐसे लोगों की भरमार है जो राजनीतिक और सामाजिक समझ से दूर रहते हैं और जी हजूरी की कला में पारंगत है। अगर सलाहकार राजा को सही सलाह देने के बजाय चापलूसी करने लगे तो न तो राजा का भला होगा और न ही राज्य का।

उसी तरह, अगर हकीम रोगी की मर्जी से इलाज करे तो भी बहुत ही मुश्किल होगी। उत्तरप्रदेश की हालत को सुधारने के लिए कुछ ऐसे लोगों की जरूरत है जो सच्चाई बयान कर सकें। अगर फौरन ऐसा न हुआ तो बहुत देर हो जाएगी। फिर मूर्तियों को देखने वाले बहुत कम हो जाएंगे या यह भी हो सकता है कि शोषित पीडि़त जनता इन मूर्तियों का वह हाल कर दे जो बाकी तानाशाहों की मूर्तियों का होता रहा है।

इशरत को आतंकी बना देने की हसरत

मुसलमानों को फर्जी मामलों में मार डालने के गुजरात सरकार के एक और कारनामे से पर्दा उठ गया है। जून 2004 में गुजरात पुलिस के बड़े अधिकारियों ने बंबई से उठाकर एक लड़की, इशरत जहां और उसके तीन साथियों की हत्या कर दी थी और इस जघन्य हत्या को एनकाउंटर बताया था। प्रचार यह किया गया कि मारे गए चारों लोग, तश्करे-तैयबा के सदस्य थे और मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या करने जा रहे थे। इस हत्याकांड के भी सरगना वही पुलिस अधिकारी थे जो सोहराबुद्दीन शेख की फर्जी मुठभेड़ में हुई हत्या में आजकल जेल में हैं।

अब बिलकुल स्पष्ट हो गया है कि डी.जी. वंजारा नाम का एक पुलिस का डी.आई.जी. एक गैंग बनाकर हत्या, लूट और डकैती की घटनाओं को अंजाम देता था। उसके सभी साथी पुलिस वाले ही होते थे। सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़कांड में जिन पुलिस वालों को सजा हुई है, वे सभी इशरत जहां और उसके साथियों के फर्जी मुठभेड़ में शामिल थे।यह सारी जानकारी अहमदाबाद के मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट, एस.पी. तमांग की जांच से मिली है।

अपनी 243 पेज की हाथ से लिखी गई रिपोर्ट में मजिस्ट्रेट ने कहा है कि इन पुलिस वालों ने मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को खुश करके नौकरी में आउट ऑफ टर्न प्रमोशन के चक्कर में निरीह और निहत्थे नौजवानों को मार डाला। जांच से पता चला कि बंबई के मुंब्रा इलाके से डी.जी. वंज़ारा के गिरोह ने इशरत जहां और अन्य तीन लड़कों का अपहरण 12 जून को किया था। इनका फर्जी मुठभेड़ 14 जून 2004 के दिन दिखाया गया यानी पुलिस अधिकारी होते हुए भी इन बच्चों को दो दिन तक अगवा करके रखा। मुठभेड़ के बाद गुजरात सरकार ने दावा किया था कि मारे गए लोगों में से दो पाकिस्तानी नागरिक थे।

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Wednesday, September 9, 2009

मीडिया को शर्म से सिर झुका लेना चाहिए

हत्यारी पुलिस, सांप्रदायिक सरकार, गैर-जिम्मेदार मीडिया : एक बहुत बडे़ टीवी न्यूज चैनल के न्यूज सेक्शन के कर्ताधर्ता, जो उस वक्त तक मेरे मित्र थे, ने जब इशरत जहां की हत्या को इस तरह से अपने चैनल पर पेश करना शुरू किया जैसे देश की सेना किसी दुश्मन देश पर विजय करके लौटी हो, तो मैंने उन्हें याद दिलाया कि खबर की सच्चाई जांच लें।

इतना सुनते ही वे बिफर पडे़ और कहने लगे कि उनके रिपोर्टर ने जांच कर ली है और उन्हें अपने रिपोर्टर पर भरोसा है। मैं न सिर्फ चुप हो गया बल्कि उनसे दोस्ती भी खत्म कर ली। वे श्रीमानजी टीवी के सबसे वरिष्ठ पत्रकारों में शुमार किए जाते हैं। टीवी के कारण उनकी संकुचित हो गई सोच पर मुझे घोर आश्चर्य हुआ। बात सिर्फ सबसे बड़े न्यूज चैनल की ही नहीं है। उस दौर में इशरत जहां को ज्यादातर टीवी न्यूज चैनलों ने पाकिस्तानी जासूस बताया।

उन सभी टी.वी. चैनलों को अब चाहिए कि वे राष्ट्र से न सिर्फ माफी मांगें बल्कि शर्म से अपना सिर कुछ देर के लिए झुका भी लें। दरअसल, मुसलमानों को फर्जी मामलों में मार डालने के गुजरात सरकार के एक और कारनामे से पर्दा उठने के बाद अब मीडिया को चाहिए कि मोदी के राज में हुए सभी मुठभेड़ों की निष्पक्ष न्यायिक जांच कराने के लिए आवाज उठाए। इशरत जहां मामले में गैर-जिम्मेदारी दिखा चुकी मीडिया के लिए यही प्रायश्चित भी होगा।

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Tuesday, September 8, 2009

आरएसएस के एजेण्डे पर सरदार पटेल

जसवंत सिंह की जिनाह वाली किताब ने और कुछ किया हो या न किया हो लेकिन एक मुद्दे को हमेशा के लिए दफन कर दिया। किताब में सरदार पटेल, नेहरू और जिनाह के हवाले से मुल्क के बंटवारे की जो तसवीर, जसवंत सिंह ने प्रस्तुत की, उसमें कुछ भी नया नहीं है, इतिहासकारों ने उसका बार बार विवेचन किया है। इस किताब का महत्व केवल यह है कि भाजपा और आर.एस.एस. की उन कोशिशों को लगाम लग गई कि सरदार पटेल की सहानुभूति आर.एस.एस. के साथ थी, क्योंकि अब ऐसे सैकड़ों सबूत एक बार फिर से अखबारों में छपने लगे हैं।

जिससे फिर साबित हो गया है कि सरदार पटेल आर.एस.एस. और उसके तत्कालीन मुखिया गोलवलकर को बिलकुल नापसंद करते थे। यहां तक कि गांधी जी की हत्या के मुकदमे के बाद गिरफ्तार किए गए एम.एस. गोलवलकर को सरदार पटेल ने तब रिहा किया जब उन्होंने एक अंडरटेकिंग दी कि आगे से वे और उनका संगठन हिंसा का रास्ता नहीं अपनाएंगे।

उस अंडरटेकिंग के मुख्य बिंदु ये हैं:-आर.एस.एस. एक लिखित संविधान बनाएगा जो प्रकाशित किया जायेगा, हिंसा और रहस्यात्मकता को छोड़ना होगा, सांस्कृतिक काम तक ही सीमित रहेगा, भारत के संविधान और तिरंगे झंडे के प्रति वफादारी रखेगा और अपने संगठन का लोकतंत्रीकरण करेगा। (पटेल -ए-लाइफ पृष्ठ 497, लेखक राजमोहन गांधी प्रकाशक-नवजीवन पब्लिशिंग हाउस, 2001) आर.एस.एस. वाले अब इस अंडरटेकिंग को माफीनामा नहीं मानते लेकिन उन दिनों सब यही जानते थे कि गोलवलकर की रिहाई माफी मांगने के बाद ही हुई थी।

बहरहाल हम इसे अंडरटेकिंग ही कहेंगे। इस अंडरटेकिंग को देकर सरदार पटेल से रिहाई मांगने वाले संगठन का मुखिया यह दावा नहीं कर सकता कि सरदार उसके अपने बंदे थे। सरदार पटेल को अपनाने की कोशिशों को उस वक्त भी बड़ा झटका लगा जब लालकृष्ण आडवाणी गृहमंत्री बने और उन्होंने वे कागजात देखे जिसमें बहुत सारी ऐसी सूचनाएं दर्ज हैं जो अभी सार्वजनिक नहीं की गई है। जब 1947 में सरदार पटेल ने गृहमंत्री के रूप में काम करना शुरू किया तो उन्होंने कुछ लोगों की पहचान अंग्रेजों के मित्र के रूप में की थी। इसमें कम्युनिस्ट थे जो कि 1942 में अंग्रेजों के खैरख्वाह बन गए थे।

पटेल इन्हें शक की निगाह से देखते थे। लिहाजा इन पर उनके विशेष आदेश पर इंटेलीजेंस ब्यूरो की ओर से सर्विलांस रखा जा रहा था। पूरे देश में बहुत सारे ऐसे लोग थे जिनकी अंग्रेज भक्ति की वजह से सरदार पटेल उन पर नजर रख रहे थे। कम्युनिस्टों के अलावा इसमें अंग्रेजों के वफादार राजे महाराजे थे। लेकिन सबसे बड़ी संख्या आर.एस.एस. वालों की थी, जो शक के घेरे में आए लोगों की कुल संख्या का 40 प्रतिशत थे। गौर करने की बात यह है कि महात्मा जी की हत्या के पहले ही, सरदार पटेल आर.एस.एस. को भरोसे लायक संगठन मानने को तैयार नहीं थे। आगे पढ़ें...

Thursday, September 3, 2009

दर्द पर न हों हमदर्द

एक मशहूर फिल्मी गीत है- तुम्हीं ने दर्द दिया है, तुम्हीं दवा देना। भला जो दर्द दे रहा है, अगर उसे दवा देना है तो वह दर्द ही क्यों देगा? यह गीत अपने जमाने में बहुत हिट हुआ था। असल जिंदगी में भी कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि जो तकलीफ देता है, वह पछताता है और मरहम लगाने पहुंच जाता है लेकिन सियासत में ऐसा नहीं होता। राजनीति में जो दर्द देता है वह अगर दवा देने की कोशिश करता है तो उसे व्यंग्य माना जाता है।

इसलिए जब राजस्थान की यात्रा पर गए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि बीजेपी की अस्थिरता लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है तो बात का अलग असर हुआ। उनका कहना था कि मजबूत लोकतंत्र के लिए सभी राजनीतिक पार्टियों में स्थिरता होनी चाहिए। बात तो ठीक थी। कहीं कोई गलती नहीं है लेकिन बीजेपी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह बुरा मान गए। उन्होंन प्रधानमंत्री को एक चिट्ठी लिख दी कि भाई, आप अपना काम देखिए देश में सूखा पड़ा है, उसको संभालिए, हमारी चिंता छोड़ दीजिए।

बीजेपी अपने गठन के बाद से सबसे कठिन दौर से गुजर रही है, उसके शीर्ष नेतृत्व में विश्वास का संकट चल रहा है, कौन किसको कब हमले की जद में ले लेगा, बता पाना मुश्किल है। तिकड़म के हर समीकरण पर मैकबेथ की मानसिकता हावी है सभी एक दूसरे पर शक कर रहे हैं। ऐसी हालत में प्रधानमंत्री की बीजेपी का शुभचिंतक बनने की कोशिश, राजनाथ सिंह को अच्छी नहीं लगी। शायद उनको लगा कि मनमोहन सिंह ताने की भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं और वे नाराज हो गए।

उनकी पार्टी के प्रवक्ता ने इस घटना को अपनी रूटीन प्रेस कान्फ्रेंस में भी बताया और टीवी चैनलों ने इस को दिन भर चलाया और मजा लिया। ज़ाहिर है कि खबर में जितना रस था सब बाहर आ चुका है और बीजेपी का मीडिया चित्रण एक खिसियानी बिल्ली का हो चुका है जो कभी कभार खंबे वगैरह भी नोच लेती है। आगे पढ़ें...

Monday, August 31, 2009

नागपुर के चश्मा बाबा

शुक्रवार को आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत की प्रेस कांफ्रेंस को सुनते हुए, मुझे चश्मा बाबा की बहुत याद आई। लगा कि हिंदुत्व कर राजनीति की झंडाबरदार पार्टी में लगी आग को बुझाने के लिए नागपुर का बुजुर्ग अपना लोटा लेकर दौड़ पड़ा है। आग लगने से न तो खलिहान में कुछ बचता है और न ही राजनीतिक पार्टी में लेकिन संघ की कोशिश है कि अपनी राजनीतिक शाखा को बचा लिया जाय, ठीक वैसे ही जैसे मेरे गांव के बुजुर्ग बचाने की कोशिश करते थे।

मेरे गांव में एक चश्मा बाबा थे। नाम कुछ और था लेकिन चश्मा लगाते थे इसलिए उनका नाम यही हो गया था। सन् 1968 में जब उनकी मृत्यु हुई तो उम्र निश्चित रूप से 90 साल के पार रही होगी। बहुत कमजोर हो गए थे, चलना फिरना भी मुश्किल हो गया था। उनके अपने नाती पोते खुशहाल थे, गांव में सबसे संपन्न परिवार था उनका। सारे गांव को अपना परिवार मानते थे, सबकी शादी गमी में मौजूद रहते थे। आमतौर पर गांव की राजनीति में दखल नहीं देते थे। लेकिन अगर कभी ऐसी नौबत आती कि गांव में लाठी चल जायेगी या और किसी कारण से लोग अपने आप को तबाह करने के रास्ते पर चल पड़े हैं तो वे दखल देते थे, और शांत करने की कोशिश करते थे।

अगर किसी के घर या खलिहान में आग लग जाती तो अपना पीतल का लोटा लेकर चल पड़ते थे, आग बुझाने। धीरे-धीरे चलते थे, बुढ़ापे की वजह से चलने में दिक्कत होने लगी थी लेकिन आग बुझाने का उनका इरादा दुनिया को जाहिर हो जाता था।

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Sunday, August 30, 2009

आडवाणी और झूठ का राजनीति शास्त्र

बीजेपी के बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी को आज कल अखबारों, टीवी चैनलों में और खबरिया पोर्टलों में खूब कवरेज मिल रही है उनका एक झूठ चर्चा का विषय बना हुआ है। उन पर आरोप है कि उन्होंने मुल्क को गुमराह किया कि जैशे मुहम्मद के मुखिया मसूद अज़हर की रिहाई में उनका हाथ नहीं था और अपने फैसलों को अपना कह पाने की हिम्मत नहीं जुटा पाए।

यह आडवाणी के लिए बड़ा झटका है। पिछले दो-तीन साल से प्रधानमंत्री पद की उम्मीद लगाए बैठे थे और अपने को मजबूत नेता बता रहे थे। उनकी पार्टी में ऐसे लोगों की बड़ी जमात है जो आडवाणी की हर बात को सही ठहराते हैं। इस समूह में कुछ स्वनाम धन्य पत्रकार भी हैं और कुछ ऐसे नेता हैं जो आडवाणी के प्रभाव से ओहदा पद पाते रहते हैं। ये लोग भी आस लगाए बैठे थे कि अगर मजबूत नेता, निर्णायक सरकार कायम हुई तो कुछ न कुछ हाथ आ जाएगा। बहरहाल सरकार बनने की संभावना तो कभी नहीं थी सो नहीं बनी लेकिन आज कल आडवाणी अपनी झूठ बोलने की आदत के चलते मुसीबत में हैं।

झूठ बोलने के कारण यह संकट लालकृष्ण आडवाणी पर पहली बार आया है ऐसा शायद इसलिए हुआ कि कंधार विमान अपहरण कांड के मामले में उन्होंने गलत बयानी की जो कि राष्ट्रीय महत्व का मामला था। देश की गरिमा से समझौता करने वाली उस वक्त की राष्ट्रीय सुरक्षा की मंत्रिमंडलीय समिति के सबसे शर्मनाक फैसले से वे अपने को अलग करने अपने बाकी साथियों को नाकारा साबित करने के चक्कर में बेचारे बुरे फंस गए। ऐसा नहीं है कि आडवाणी ने पहली बार झूठ बोला हो, वे बोलते ही रहते हैं उनकी इस आदत से परिचित लोग, बात को टाल देते हैं या कभी कभार उनका मजाक बनाते हैं।

एक बार अपनी शिक्षा को लेकर उन्होंने कोई बयान दिया था। बिहार के नेता लालू प्रसाद ने सिद्घ कर दिया कि जिस कोई की बात आडवाणी कर रहे थे, वह उस कॉलेज में था ही नहीं। आडवाणी ने लालू यादव की बात का कभी खंडन नहीं किया। ऐसे बहुत सारे मामले हैं लेकिन कंधार विमान अपहरण कांड जैसा मामला कोई नहीं इसलिए पूरे मुल्क में इस बात की चिंता है कि अगर किसी वजह से भी बीजेपी जीत गई होती तो यह आदमी देश का नेता होता तो हमारा क्या होता। शुक्र है कि हम बच गए।

लालकृष्ण आडवाणी ने कुछ अरसा पहले एक किताब लिखी थी जिसमें उन्होंने कहा था कि कंधार कांड में जो राष्ट्रीय अपमान हुआ था, उससे उनका कोई लेना देना नहीं था, उन्हें मालूम ही नहीं था कि जसवंत सिंह आतंकवादियों को लेकर कंधार जा रहे हैं। प्रधानमंत्री पद के लालच में उन्होंने अपने आपको राष्ट्रीय शर्म की इस घटना से अलग कर लिया था। जबकि यह फैसला राष्ट्रीय सुरक्षा की मंत्रिमंडलीय समिति में लिया गया। यह समिति सरकार की सबसे ताकतवर संस्था है।

इसमें प्रधानमंत्री अध्यक्ष होते हैं और गृहमंत्री, रक्षामंत्री व वित्तमंत्री और विदेशमंत्री सदस्य होते हैं। इसे एक तरह से सुपर कैबिनेट भी कहा जा सकता है। कंधार में फंसे आईसी 814 को वापस लगाने के लिए तीन आतंकवादियों को छोडऩे का फैसला इसी कमेटी में लिया गया था। अब पता लग रहा है कि फैसला एकमत से लिया गया था यानी अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, जॉर्ज फर्नाडीस, यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह सब की राय थी कि आतंकवादियों को छोड़ देना चाहिए। आडवाणी इस मसले से अपने को अलग कर रहे थे और यह माहौल बना रहे थे कि उनकी जानकारी के बिना ही यह महत्वपूर्ण फैसला ले लिया गया था।

जाहिर है उनके बाकी साथी आडवाणी की इस चालाकी से नाराज थे और अब जार्ज फर्नांडीज यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह ने आडवाणी के ब्लाक को उजागर कर दिया है। अटल बिहारी वाजपेयी की तबीयत ठीक नहीं है वरना वह भी अपनी बात कहते। सवाल यह उठता है कि जब पिछले दो साल से आडवाणी इतने महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक मामले पर गलत बयानी कर रहे थे। तो इन तीन महत्वपुरुषों ने सच्ची बात पर परदा डाले रखना क्यों जरूरी समझा? यह जानते हुए कि इतनी बड़ी बात पर खुले आम झूठ बोलने वाला एक व्यक्ति प्रधानमंत्री पद हथियाने के चक्कर में है उसे इन लोगों ने नहीं रोका।

रोकना तो खैऱ दूर की बात है आडवाणी को प्रधानमंत्री बनवाने के अभियान में ऐसे लोग शामिल रहे, उनकी जय-जय कार करते रहे। इस पहेली को समझना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है। यह लोग भी लालच में रहे होंगे कि सरकार बनने पर इन्हें भी कुछ मिल जाएगा। जो भी हो अब कंधार जैसे महत्वपूर्ण मामले पर उस वक्त की एन.डी.ए. सरकार के गैर जि़म्मेदाराना रुख़ से जाल साजी की परतें वरक-दर-वरक हट रही है।

सवाल यह उठता है कि जिस पार्टी की टॉप लीडरशिप सच्चाई को छुपाने के इतने बड़े खेल में शामिल रही हो उसको क्या सजा मिलनी चाहिए। देश को जागरुक जनता का इन लोगों की जवाब देही सुनिश्चित करने की कोशिश करनी चाहिए।