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Saturday, August 1, 2009

बलराज मधोक से एलके आडवाणी तक

आज की भारतीय जनता पार्टी अपने पूर्व अवतार में भारतीय जनसंघ नाम से जानी जाती थी। 60 के दशक में जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद जब कांग्रेस पार्टी कमजोर हुई तो जनसंघ एक महत्वपूर्ण पार्टी के रूप में उभरी। जनसंघ के बड़े नेता थे, प्रो. बलराज मधोक। 1967 में इनके नेतृत्व में ही जनसंघ ने चुनाव में अच्छा प्रदर्शन किया था और उत्तर भारत में कांग्रेस के विकल्प के रूप में आगे बढ़ रही थी लेकिन 1971 के लोकसभा चुनावों में पार्टी बुरी तरह से हार गई।

बलराज मधोक भी चुनाव हार गए, उनकी पार्टी में घमासान शुरू हो गया। अटल बिहारी वाजपेयी नए नेता के रूप में उभरे और बलराज मधोक को जनसंघ से निकाल दिया। पार्टी से निकाले जाने के पहले बलराज मधोक ने 1971 के चुनावों की ऐसी व्याख्या की थी जिसे समकालीन राजनीति शास्त्र के विद्यार्थी बहुत ही कुतूहल से याद करते है। 1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया और उनकी पार्टी भारी बहुमत से विजयी रही। भारतीय जनसंघ को भारी नुकसान हुआ लेकिन मधोक हार मानने को तैयार नहीं थे।

उन्होंने एक आरोप लगाया कि चुनाव में प्रयोग हुए मतपत्रों में ऐसा केमिकल लगा दिया गया था जिसकी वजह से, वोट देते समय मतदाता चाहे जिस निशान पर मुहर लगाता था, मुहर की स्याही खिंचकर इंदिरा गांधी के चुनाव निशान गाय बछड़ा पर ही पहुंच जाती थी। इस तरह का काम कांग्रेस और चुनाव आयोग ने पूरे देश में करवा रखा था। बलराज मधोक ने कहा कि वास्तव में कांग्रेस चुनाव जीती नहीं है, केमिकल लगे मतपत्रों की हेराफेरी की वजह से कांग्रेस को बहुमत मिला है। मधोक के इस सिद्घांत को आम तौर पर हास्यास्पद माना गया।

इसके कुछ समय बाद ही उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया। बैलट पेपर पर केमिकल की बात अब तक भारतीय राजनीति में चुटकुले के रूप में इस्तेमाल होती रही है। लोकसभा चुनाव 2009 के बाद भी कांग्रेस को सीटें उसकी उम्मीद से ज्यादा ही मिली हैं। बीजेपी के नेताओं की उम्मीद से तो दुगुनी ज्यादा सीटें कांग्रेस को मिली हैं। बीजेपी वाले चुनाव नतीजों के आने के बाद दंग रह गए। कुछ दिन तो शांत रहे लेकिन थोड़ा संभल जाने के बाद पार्टी के सर्वोच्च नेता लालकृष्ण आडवाणी ने आरोप लगाया कि चुनाव में जो इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन इस्तेमाल की गई उसकी चिप के साथ बड़े पैमाने पर हेराफेरी की गई थी लिहाजा कांग्रेस को आराम से सरकार चलाने लायक बहुमत मिल गया और आडवाणी जी प्रधानमंत्री बनते बनते रह गए। उसके बाद तेलुगू देशम और राष्ट्रीय जनता दल ने भी यही बात कहना शुरू कर दिया।

ताजा खबर यह है कि दक्षिण मुंबई से शिवसेना के पराजित उम्मीदवार मोहन रावले ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दी है और प्रार्थना की है कि पंद्रहवीं लोकसभा का चुनाव रद्द कर दिया जाय। उनका कहना है कि ईवीएम से चुनाव करवाने में पूरी तरह से हेराफेरी की गई है। अपने चुनाव क्षेत्र के बारे में तो उन्होंने लगभग पूरी तरह से ईवीएम मशीनों में गड़बड़ी पर भरोसा जताया है और वहां के चुनाव को रद्द करने की मांग की है। मानवीय व्यक्तित्व बहुत ही पेचीदा होता है। आम तौर पर सबको जीत की खुशी होती है और पराजय सबको तकलीफ पहुंचाती है। इंसान के व्यक्तित्व की ताकत की परीक्षा पराजय के बाद ही होती है।

मजबूत आदमी अपनी हार से खुश तो नहीं होता लेकिन हारने के बाद अपना संतुलन नहीं खोता। हार के बाद खंभा नोचने वालों को इंसानी बिरादरी में शामिल करना भी बहुत मुश्किल होता है। हार के बाद संतुलन खो बैठना कमजोर आदमी की निशानी है। ईवीएम के अभियान चलाने वाले नेताओं को पता होना चाहिए कि इन मशीनों का आविष्कार लोकतंत्र के विकास में एक महत्वपूर्ण कदम है। ईवीएम के खिलाफ आने के बाद बाहुबलियों और बदमाशों की बूथ कैप्चर करने की क्षमता लगभग पूरी तरह से काबू में आ गई है। बैलट पेपर के जमाने में इनकी ताकत बहुत बढ़ गई थी। बंडल के बंडल बैलट पेपर लेकर बदमाशों के कारिंदे बैठ जाते थे और मनपसंद उम्मीदवार को वोट देकर विजयी बना देते थे।

ईवीएम के लागू होने के बाद यह संभव नहीं है। मशीन को डिजाइन इस तरह से किया गया है कि एक वोट पूरी तरह से पड़ जाने के बाद ही अगला वोट डाला जा सकता है। ऐसी हालत में अगर पूरी व्यवस्था ही बूथ कैप्चर करना चाहे और किसी भी उम्मीदवार का एजेंट विरोध न करे तभी उन्हें सफलता मिलेगी। सबको मालूम है कि अस्सी के दशक में गुडों ने जब राजनीति में प्रवेश करना शुरू किया तब से जनता के वोट को लूटकर लोकतंत्र का मखौल उड़ाने का सिलसिला शुरू हुआ था, क्योंकि बूथ कैप्चर करने की क्षमता को राजनीतिक सद्गुण माना जाने लगा था। इसके चलते हर पार्टी ने गुंडों को टिकट देना शुरू कर दिया था।

इस बार बहुत कम बाहुबली चुनाव जीतने में सफल हो सके। जानकार कहते हैं कि बदमाशों के चुनाव हारने में ईवीएम मशीन का भी बड़ा योगदान है। इसलिए इसको बंद करने की मांग करना ठीक नहीं है। अगर फिर बैलट पेपर के जरिए वोट पडऩे लगे तो देश अस्सी के उसी रक्त रंजित दशक की तरह अराजकता की तरफ बढ़ जाएगा। ई.वी.एम. के खिलाफ शुरू किए गए अभियान पर चुनाव आयोग को भी खासी नाराजगी है। चुनाव आयुक्त एस.वाई. कुरैशी ने एक सेमिनार में कहा कि ई.वी.एम. लगभग फूल-प्रूफ है। इसकी किसी भी गड़बड़ी को कभी भी जांचा परखा जा सकता है। उन्होंने केन्या का उदाहरण दिया जहां चुनाव व्यवस्था बिल्कुल तबाह हो चुकी है, लोकतंत्र रसातल में पहुंचने वाला है।

श्री कुरैशी ने कहा कि केन्या के प्रबुद्घ लोगों ने यह सुझाव दिया कि भारत की तर्ज पर वहां भी ईवीएम का इस्तेमाल किया जाय और चुनाव प्रक्रिया में काम करने वाले अधिकारियों को भारत की मदद से टे्रनिंग दी जाय। इसके अलावा दुनिया के और कई देशों में भी भारतीय ई.वी.एम. मशीनों की तारीफ हो रही है। ज़ाहिर है प्रयोग सफल है और उसके आगे बढ़ते रहने की जरूरत है। ई.वी.एम. मशीनों का विरोध कर रही पराजित पार्टियों को इस बात का ध्यान रखना पड़ेगा कि चुनाव होता ही इसीलिए है कि कोई हारे और कोई जीते। जो लोग एक बार लोकसभा या विधानसभा चुनाव जीत जाते हैं उन्हें पता चल जाता है कि चुनाव जीतने के बाद सुख सुविधा और ताकत का अंबार लग जाता है। चुनाव हारने के बाद वह सब कुछ काफूर हो जाता है।

ज़ाहिर है कि पराजित व्यक्ति को पछतावा बहुत ज्यादा होता है लेकिन लोकतंत्र के हित में आदमी को धीरज से काम लेना चाहिए। अगर लोकतंत्र रहेगा तो सब कुछ रहेगा और मोहन रावले सहित बाकी लोगों को दुबारा चुनाव जीतने का मौका मिलेगा और अगर बैलट पेपर युग की फिर वापसी हो गई तो पूरी आशंका है कि अपराधियों और बाहुबलियों का लोकतंत्र पर कब्जा हो जाएगा और चुनाव प्रक्रिया पर भी खतरे के बादल मंडराने लगेंगे। इसलिए राजनीतिक नेताओं को चाहिए कि लोकतंत्र के विकास के रास्ते में कांटे न बिछाएं।

Sunday, July 26, 2009

सेकुलर सरकार या गैर कांग्रेसी सरकार

लोकसभा चुनावों के पहले दौर में 124 सीटों पर मतदान संपन्न हो गया। अब तक के राजनीतिक और चुनावी संकेत ऐसे हैं, कि केंद्र में इस बार भी ऐसी सरकार बनेगी जिसमें बीजेपी का कोई योगदान नहीं होगा। ऐसा ही संकेत प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दिया जब उन्होंने कहा कि चुनावों के बाद की परिस्थितियां तय करेगी कि सरकार बनाने में किन पार्टियों का सहयोग लिया जाए।

प्रधानमंत्री ने लेफ्ट फ्रंट की तारीफ की और स्वीकार किया कि कुम्युनिस्टों के सहयोग से सरकार चलाना एक अच्छा अनुभव था। अपने इस बयान से मनमोहन सिंह वामपंथी पार्टियों के सहयोग के संवाद को फिर से जिंदा कर दिया है।प्रधानमंत्री के इस बयान में जो न्यौता है उसमें राजनीतिक आचरण की कई परते हैं जिसे राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी प्रकाश करात ने तुरंत भांप लिया। गठबंधन राजनीति की स्थिति पर पहुंचने से पहले सभी पार्टियां चुनावी राजनीति के समुद्र में गोते लगा रहीं है। पूरे देश में राजनीतिक हार जीत की चर्चा चल रही है और कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों आमने सामने है।

पश्चिम बंगाल और केरल, जहां से अधिकतर कम्युनिस्ट सदस्य लोकसभा में पहुंचते है, वहां दोनों की पक्षों के गंठबंधन एक दूसरे के खिलाफ कठिन लड़ाई लड़ रहे हैं। बंगाल में कांग्रेस-तृणमूल गठबंधन की ओर से वामपंथियों को कड़ी चुनौती मिल रहीं है, ऐसे माहौल में प्रधानमंत्री का यह संदेश कि अभी की लड़ाई तो ठीक है लेकिन चुनाव के बाद हम फिर एक होने की कोशिश करेंगे चुनाव में कार्यकर्ताओं के हौंसले को प्रभावित कर सकता है। ज़ाहिर है कि इससे वामपंथी चुनावी अभियान की धार कुंद हो सकती है।

शायद इसी संभावना की काट के लिए माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात ने तुरंत बयान दे दिया कि चुनाव के बाद भी कांग्रेस से कोई समझौता नहीं होगा।जानकार मानते है कि अपने अभियान की हवा निकालने वाले किसी भी बयान को बेमतलब साबित करने के उद्देश्य से ही माक्र्सवादी नेता ने यह बयान दिया है। वरना यह सभी जानते है कि लेफ्ट फ्रंट के नेता दिल्ली में एक सेकुलर सरकार बनाना चाहते हैं।

अभी उनकी पोजीशन है कि केंद्र में गैर कांग्रेस सेकुलर सरकार बनानी है। यह उनकी इच्छा है और इस आदर्श स्थिति को हासिल करने के लिए वामपंथी नेता सारी कोशिशें कर रहे हैं। हालांकि उन्हें मालूम है कि मौजूदा स्थिति में जो पार्टियां वामपंथी मोर्चा में शामिल है अगर उनके सभी उम्मीदवार जीत जायं तो भी 272 सीटों का लक्ष्य नहीं हासिल कर सकेंगे। जाहिर है ऐसी हालत में तीसरे मोर्चे को अपनी वैकल्पिक योजना को फौरन प्रस्तुत करना पड़ेगा क्योंकि अगर इसमें ज्यादा वक्त लगा तो तीसरा मोर्चा बिखरना शुरू हो जायेगा।

तीसरे मोर्चे में शामिल सभी गैर कम्युनिस्ट पार्टियां कभी न कभी भाजपा के साथ काम कर चुकी हैं और अगर बीजेपी की सरकार बनने की संभावना बनी तो इन पार्टियों को विचारधारा का कोई संकट पेश नहीं आयेगा क्योंकि सभी पार्टियां एनडीए या अन्य गठबंधनों में बीजेपी के साथ रही चुकी हैं। कभी किसी को अपना लक्ष्य मुकम्मल तौर पर नहीं मिलता। यहां सवाल यह पूछा जाना चाहिए कि अगर गैर कांग्रेस सेकुलर सरकार का लक्ष्य हासिल करने में तीसरे मोर्चे को सफलता न मिली तो क्या बीजेपी की सरकार बनने की स्थितियां उन्हें स्वीकार होगी अगर बीजेपी के सहयोग से बनने वाली सरकार में वामपंथी पार्टियों को कोई दिक्कत नहीं है, तब तो कोई बात नहीं।

लेकिन अगर बीजेपी को सत्ता में अपने से रोकने के अपने घोषित उद्देश्य को माक्र्सवादी नेता पूरी करना चाहते हैं तो उन्हें कांग्रेस का सहयोग जरुरी होगा। और प्रधानमंत्री का संवाद शुरु करने वाला बयान ऐसी परिस्थिति में सार्थक होगा। सरकार किसकी बनती है, यह उस वक्त की राजनीतिक स्थिति पर निर्भर करेगा। वामपंथियों के सामने विकल्प दो ही हैं या तो सरकार कांग्रेस की हो और धर्मनिरपेक्ष ताकतें उसका समर्थन करें और या तीसरे मोर्चे का कोई नेता प्रधानमंत्री बने और कांग्रेस उसे समर्थन दे।