Wednesday, February 20, 2013

इनलैंड वाटरवेज़ अथारिटी बना हुआ है आई ए एस अफसरों का डम्पिंग ग्राउंड



शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली,१९ फरवरी . भारत में नदियों का एक बहुत ही महत्वपूर्ण नेटवर्क है . प्राचीन काल में नदियाँ आवाजाही का सबसे प्रमुख साधन थीं इसीलिये ज़्यादातर पुराने शहर नदियों के किनारे ही बसे हैं .बहादुरशाह ज़फर भी जब दिल्ली से रंगून भेजे जा रहे थे कलकत्ता तक की यात्रा गंगा नदी के रास्ते पूरी की थी. आज़ादी के बाद सरकार ने तय किया कि अपने देश में नदियों के ज़रिये यातायात को बड़े पैमाने पर  विकसित किया जाएगा. इसके लिए इनलैंड वाटरवेज़ अथारिटी भी बना दी गयी . सरफेस ट्रांसपोर्ट मंत्रालय के अधीन सारा सरकारी तामझाम भी बना दिया गया . लेकिन अफसरों के गैर ज़िम्मेदार रवैये के कारण पिछले ४० साल से यह सारा काम बेकार पड़ा है . सरकारी पैसा लग रहा है लेकिन कहीं  कुछ नहीं हो रहा है . केन्द्र सरकार के अफसरों के दिल्ली प्रेम के चलते इनलैंड वाटरवेज़ अथारिटी का  मुख्यालय नोयडा में बना दिया गया है जो कि एक तरह से दिल्ली ही है . इनसे कोई पूछे कि ,’भाई दिल्ली के पास मुख्यालय क्यों रखा गया है जबकि दिल्ली  या नोयडा के पास अथारिटी का कहीं कोई काम नहीं है . यह भी वैसा ही अजूबा है कि जैसे ओ एन जी सी  का मुख्यालय देहरादून में बना दिया गया था जबकि उनका सारा काम समुद्र के आस पास है . इनलैंड वाटरवेज़ अथारिटी काम नेशनल वाटरवेज का विकास करना है लेकिन कहीं कोई खास प्रगति नहीं हो  है .
संसद की इस विभाग का काम देखने वाली ,यातायात,पर्यटन और संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध स्थायी संसदीय समिति की नज़र इस मामले पर पड़  गयी और  समिति ने विधिवत जांच की और पाया कि सरकारी तंत्र जो सफ़ेद हाथियों को पालने का बेहद शौक़ीन है ,उसने यहाँ भी एक बेहतरीन क्वालिटी के बहुत ही सफ़ेद हाथी पाल रखा है . कमेटी ने इसी फरवरी में कमेटी ने दोनों ही सदनों के पीठासीन अधिकारीयों को अपनी रिपोर्ट दी है. रिपोर्ट देख कर कुछ ऐसे तथ्य सामने आये हैं जिनको देख कर लगता है कि अगर सरकारी अफसर चाह लें तो बढ़िया से बढिया राष्ट्रीय योजनाओं को अपनी जगह से उठने का कोई मौक़ा ही न नसीब हो .अपने देश में इनलैंड वाटरवेज़ का एक अच्छा नेटवर्क है .नदियों, नहरों,समुद्री क्षेत्रों में करीब १४५०० किलोमीटर की दूरी में जल यातायात संभव है.जिसमें से ५२०० किलोमीटर नदी और ४००० किलोमीटर नहरों में है जिसमें मशीनीकृत छोटे जहाज़  चल सकते हैं जिनसे बहुत सारा व्यापारिक माल ढोया जा सकता है . एक तुलना से बात सही सन्दर्भ में सामने आ जायेगी. अमरीका में पानी के मार्ग से माल ढुलाई उनकी पूरी राष्ट्रीय  क्षमता का २१ प्रतिशत है जबकि अपने देश में दशमलव एक प्रतिशत ( ०.१०) माल की दुलाई जलमार्गों से होती है . माल ढुलाई का यह सस्ता  तरीका है और अपने देश में इसकी बहुत सारी संभावना है लेकिन सरकारी अफसरों के आलस्य की कृपा से राष्ट्र लगातार नुक्सान उठा  रहा  है . यह  कोई आरोप नहीं है , यह सारी जानकारी यातायात,पर्यटन और संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध स्थायी संसदीय समिति की १८९वीं रिपोर्ट में संकलित है . रिपोर्ट में मांग की गयी है  कि इस बात को अर्जेंट समझ कर काम किया जाना चाहिए लेकिन भरोसा इसलिए नहीं जम रहा है कि इस तरह के सिफारिशें पहले भी हो चुकी हैं लेकिन अधिकारियों ने हर बार संसद की मंशा को पटरी से उतारने में सफलता  पा ली है.
यातायात,पर्यटन और संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध स्थायी संसदीय समिति  ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि देश के अंदर जलमार्गों के यातायात को विकसित करने से भारी माल की ढुलाई आसान हो जायेगी . यह तरीका पर्यावरण की रक्षा में भी मदद करेगा.अभी तक यातायात की इस विधा को सरकार की वह प्राथमिकता नहीं मिली है जो मिलनी चाहिए. सरकार ने देश में आतंरिक जल यातायात के लिए पांच मार्गों की घोषणा की है   जिनमें से दो मार्ग तो बिलकुल बंद  पड़े हैं और जो तीन चल भी रहे हैं वह भी लगभग शून्य के आसपास ही की क्षमता का इस्तेमाल कर रहे हैं . संसदीय समिति ने इस बात पर जोर दिया है कि १२वीं
योजना में १०५०० करोड रूपये इस मद में लगाए जाएँ.और एन टी पी सी ,ओ एन जी सी जैसी सरकारी कंपनियों को इस यातायात के विकास में भागीदार बनाया जाए.इस रकम का इस्तेमाल बुनियादी ढाँचे के विकास में लगाया जाए. और इस यातायात को समयबद्ध तरीके से  विकसित किया जाए. आतंरिक जलमार्गों को पड़ोसी देशों , बांग्लादेश और म्यांमार के साथ जोड़ने के लिए भी कोशिश की जानी चाहिए जिससे आर्थिक पक्ष के अलावा कूटनीतिक लाभ भी हासिल किया जा सके.
इस सब काम के लिए ज़िम्मेदार इनलैंड वाटरवेज़ अथारिटी  है . कमेटी ने उसके कामकाज के तरीकों पर भी सख्त टिप्पणी की है. कमेटी का कहना है कि इनलैंड वाटरवेज़ अथारिटी के पास अपनी क्षमता और लक्ष्य हासिल करने की न तो इच्छाशक्ति है और  न ही ज़रूरी लावलश्कर. सरकार को सुझाव दिया गया है कि  हाइड्रोग्राफी ,नेवीगेशन,सिविल इंजीनियरिंग,नौसैनिक आर्किटेक्चर जैसी सुविधाओं से इनलैंड वाटरवेज़ अथारिटी को लैस  किया जाना चाहिए . इसके प्रबंधन में विशेषज्ञों को शामिल किया जाना चाहिए . अभी तो यह आई ए एस अफसरों के लिए एक तरह से डम्पिंग ग्राउंड बना हुआ है जहां यह अफसर तब तक इंतज़ार करते हैं जब तक कि इन्हें कोई बढ़िया मालदार तैनाती न मिल जाए. अफसरशाही की इस जिद के सामने राष्ट्र का एक अहम संसाधन लुंजपुंज पड़ा है इस पर फौरान लगाम  लगाने की ज़रूरत है .

रेलवे मंत्रालय की मनमानी के कारण होती हैं रेल दुर्घटनाएं


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शेष नारायण सिंह

अपने देश में  रेलों में सुरक्षा की हालत दिन बा दिन बिगडती जा रही है लेकिन रेलवे के अफसरों को कहीं से भी जिमेदार नहीं ठहराया जा सक रहा है .  यह  रहस्य बना हुआ था लेकिन रेलवे सुरक्षा आयुक्त के कामकाज से सम्बंधित संसद की एक स्थायी समिति की रपोर्ट आने के बाद अब बात समझ में आने लगी है . रेल सुरक्षा के लिए केन्द्र सरकार ने रेलवे एक्ट के तहत रेलवे सुरक्षा आयुक्त के संगठन का गठन किया गया था . एक्ट में इस संगठन का काम बहुत ही महत्वपूर्ण बताया गया था. इस संगठन के जिम्मे रेलवे के हर साजो-सामान का  निरीक्षण भी था. एक्ट में यह व्यवस्था थी की अगर कभी कहीं कोई रेल दुर्घटना हो तो रेलवे सुरक्षा आयुक्त को जांच करना था .इसमें कहीं भी किसी आदेश का इंतज़ार करने की व्यवस्था नहीं थी.इस संगठन की  आज़ादी को बनाए रखने के लिए  रेलवे सुरक्षा आयुक्त को रेल मंत्रालय के  कंट्रोल के बाहर रखा गया था. इसे नागरिक उड्डयन मंत्रालय के प्रशासनिक कंट्रोल में रखा गया था. इसके सारे नियम कानून रेलवे एक्ट के प्रावधानों के तहत बनाए  गए थे .लेकिन रेल मंत्रालय के अधिकारियों ने १९५३ में एक एक्जीक्यूटिव आर्डर जारी करके यह अधिकार वापस ले  लिया. यानी निरीक्षण का जो महत्वपूर्ण काम रेलवे सुरक्षा आयुक्त  को करना था वह वापस ले लिया गया .  संसद की इस विभाग से सम्बंधित स्थायी समिति ने सवाल किया है कि जो अधिकार किसी भी संगठन को संसद के किसी एक्ट के कारण मिला है उसे किसी एक्जीक्यूटिव आर्डर  के ज़रिये कैसे वापस लिया जा सकता है . इसके अलावा हमेशा से ही रेल मंत्रालय  का रवैया ऐसा रहा है कि  रेलवे सुरक्षा आयुक्त का दफ्तर पूरी तरह से रेल मंत्रालय के अधिकारियों की कृपा पर बना रहे. मसलन संसद ने रेलवे सुरक्षा आयुक्त की आटोनामी को सुनिश्चित करने के लिए इसे रेल मंत्रालय से हटकार सिविल एविएशन मंत्रालय के जिम्मे किया था लेकिन रेलवे बोर्ड के ताक़तवर अधिकारियों ने इस आर्डर  जारी कर दिया और नियम बना दिया कि रेलवे सुरक्षा आयुक्त का ज़ोन स्तर पर तैनात बड़ा अफसर वहाँ के जनरल मैनेजर के अधीन काम करेगा. इस आदेश एक बाद सब कुछ ऐसे  ही चलता  रहा और रेलवे सुरक्षा आयुक्त पूरी तरह से सफ़ेद हाथी के रूप में काम  करता रहा. देश  भर में रेल में दुर्घटनाएं होती रहीं और रेल मंत्रालय के अफसरों की सुविधा के हिसाब से  रिपोर्ट आती रही. जवाहर लाल नेहरू की सरकार ने  रेलवे सुरक्षा का जो भरोसेमंद ताम झाम तैयार किया था , उस रेलवे सुरक्षा आयुक्त के संगठन को  कुछ रेलवे अधिकारियों ने दो एक्जीक्यूटिव आर्डर जारी करके छीन लिया . और संसद को बहुत दिन तक इस हेराफेरी का पता भी नहीं चला.
अब बात  पब्लिक डोमेन में आ गयी है . यातायात,पर्यटन और संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध संसद की स्थायी समिति ने सारी गडबडी को पकड़ लिया है और अपनी १८८वीं रिपोर्ट में संसद को सब कुछ बता दिया है .रिपोर्ट में बताया गया है कि  रेलवे सुरक्षा आयुक्त में कमांड का दोहरापन है .रेलवे एक्ट में इसे नागरिक उड्डयन मंत्रालय के जिम्मे किया गया है .दुर्घटना के इन्वेस्टीगेशन के नियम तो नागरिक उड्डयन मंत्रालय की तरफ से बनाए जाते हैं जबकि दुर्घटना के इन्क्वायरी से सम्बंधित नियम रेल  मंत्रालय से आते हैं .  कमेटी को यह बात बहुत अजीब लगी क्योंकि इस तरह से कुछ  शब्दों के उलटफेर  के बाद जनहित का काम बहुत बुरी तरह से प्रभावित होता है. नतीजा यह होता है कि सुरक्षा के जो कोड बनाए जाते हैं , रेलवे सुरक्षा आयुक्त को  उसके बारे में कोई जानकारी नहीं होती. सरकारी कायदा यह है कि अगर किसी फैसले में दो मंत्रालय शामिल हैं तो जब तक तो दोनों ही मंत्रालय सहमत न हों कोई फैसला न लिया जाए लेकिन रेलवे सुरक्षा आयुक्त के अधिकार के फैसले रेलवे मंत्रालय वाले बड़े मौज से लेते रहते हैं .रेलवे एक्ट में एक टर्म “ सेन्ट्रल गवर्नमेंट “ लिखा हुआ है . इसी टर्म के कवर में रेल मंत्रालय के अफसर मनमानी करते रहते हैं .कमेटी ने सुझाव दिया है कि इस दुविधा को दूर करने के लिए रेलवे एक्ट में ही ज़रूरी सुधार कर दिया  जाना चाहिए .
 मौजूदा सिस्टम में रेलवे मंत्रालय की मनमानी चलती है क्योंकि रेलवे सुरक्षा आयुक्त को अपना काम करने के लिए रेल मंत्रालय पर निर्भर करना पडता है . उसके  पास अपने एक्सपर्ट नहीं होते और रेल मंत्रालय उनको एक्सपर्ट देता नहीं . कमेटी का विचार है कि सरकार को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जिसके बाद रेलवे सुरक्षा आयुक्त को अपनी एक्सपर्ट  सीधे भर्ती करने के अधिकार मिल जाएँ . वर्ना आज तो रेलवे सुरक्षा आयुक्त पूरी तरह से रेल मंत्रालय के अधीन ही काम करने के लिए अभिशप्त है . नागरिक उड्डयन मंत्रालय वाले केवल कुर्सी मेज़ आदि के  इंतजाम तक ही सीमित हैं . अभी रेलवे सुरक्षा आयुक्त सभी  दुर्घटनाओं की जांच नहीं कर पाता क्योंकि क्योंकि रेल मंत्रालय सभी दुर्घटनाओं की नोटिफिकेशन नहीं जारी करता . नतीजा यह होता है कि रेल मंत्रालय वाले खुद ही  जांच करके मामले को रफा दफा कर देते हैं. रेलवे सुरक्षा आयुक्त को रेलवे की सुरक्षा के मानकों को बदलने के पहले  भरोसे में लेना ज़रूरी है लेकिन अभी ऐसा कुछ नहीं  है . रेल अफसर जब चाहते हैं रेलवे सुरक्षा आयुक्त को बताए बिना मानकों में परिवर्तन कर देते हैं .
इस सारी दुर्दशा से बचने के लिए कमेटी ने सुझाव दिया है रेलवे सुरक्षा आयुक्त को किसी भी मंत्रालय के अधीन कर दिया जाए उससे कोई फर्क नहीं पडेगा लेकिन ज़रूरी  है कि संसद एक अलग एक्ट पास करके रेलवे सुरक्षा आयुक्त के अधिकार ,कर्तव्य और जिम्मेवारियों को विधिवत कानून की सीमा में लाने की व्यवस्था करे . वरना दुर्घटनाएं होती रहेगीं और रेलवे के अधिकारी अपनी मर्जी के हिसाब से रिपोर्ट बनवाते रहेगें.  

Saturday, February 16, 2013

सावरकरवादी हिंदुत्व की राजनीति के पैरोकारों के सामने अस्तित्व का संकट



शेष नारायण सिंह


बीजेपी और आर एस एस के बीच २०१४ के लोकसभा चुनावों के मुद्दों के बारे में भारी विवाद है . आर एस एस की कोशिश है कि इस बार का चुनाव शुद्ध रूप से धार्मिक ध्रुवीकरण  को मुद्दा बनाकर लड़ा जाए .शायद इसीलिये सबसे ज़्यादा लोकसभा सीटों  वाले राज्य उत्तर प्रदेश में किसी सीट से नरेंद्र मोदी को उम्मीदवार बनाने की बात शुरू कर दी गयी है . उत्तर प्रदेश में मौजूदा सरकार में मुसलमानों के समर्थन के माहौल के चलते मुस्लिम बिरादरी में उत्साह है . उम्मीद की जा रही है कि राज्य सरकार के ऊपर  बीजेपी वाले बहुत आसानी से मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप चस्पा कर देगें. और मुसलमानों के खिलाफ नरेंद्र मोदी की इमेज का फायदा उठाकर हिंदुओं को एकजुट कर लेगें  . राज्य में कुछ इलाकों में समाजविरोधी तत्वों ने कानून व्यवस्था के सामने खासी चुनातियाँ पेश कर रखी हैं .इन समाज विरोधी तत्वों में अगर कोई मुसलमान हुआ तो आर एस एस के सहयोग वाले मुकामी अखबार उसको भारी मुद्दा बना देते हैं  और  मुसलमानों को राष्ट्र के दुश्मन की तरह पेश करके यह सन्देश देने की कोशिश करते हैं कि अगर मोदी की तरह की राजनीति उत्तरप्रदेश में भी चल गयी तो मुसलमान बहुत कमज़ोर हो जायेगें और  उनका वही हाल होगा जो २००२ में गुजरात के मुसलमानों का हुआ था.इस तर्कपद्धति में केवल एक दोष यह है कि आर एस एस और  उसके सहयोगी मीडिया की पूरी कोशिश के बावजूद मुसलमानों से साफ़ बता दिया  है कि अब चुनाव  वास्तविक मुद्दों पर ही लड़ा जाएगा ,धार्मिक ध्रुवीकरण की कोशिश करने से कोई लाभ नहीं होने वाला है .
२०१४ के लोकसभा चुनाव के लिए मुद्दों की तलाश में भटक रही सावरकरवादी हिन्दुत्ववादी  संगठनों में रास्ते की तलाश की कोशिशें जारी हैं .इसी सिलसिले में  १२ फरवरी के दिन दिल्ली में एक बार फिर आर एस एस के बड़े नेता और बीजेपी अध्यक्ष समेत कई लोग इकठ्ठा हुए और और करीब चार घंटे तक चर्चा की. आर एस एस और बीजेपी से सहानुभूति रखने वाले टी वी चैनलों ने मीटिंग की खबर को दिन  भर इस तर्ज़ में पेश किया कि जैसे उस मीटिंग के बाद देश का इतिहास बदल जायेगा.लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. मीटिंग में शामिल लोगों ने बताया कि बीजेपी के नेता आर एस एस–बीजेपी के सावरकरवादी हिंदुत्व के एजेंडे को २०१४ के चुनावी उद्घोष के रूप में पेश करने से बच रहे हैं . इस बैठक में शामिल बीजेपी नेताओं ने कहा कि जब कांग्रेस शुद्ध रूप से राजनीतिक मुद्दों पर चुनाव के मैदान में जा आ रही है और बीजेपी को ऐलानियाँ एक साम्प्रदायिक पार्टी की छवि में  लपेट रही है तो सावरकरवादी हिंदुत्व को राजनीतिक आधार बनाकर चुनाव में जाने की गलती नहीं की जानी चाहिए . १२ फरवरी की बैठक में आर एस एस वालों ने बीजेपी नेताओं को साफ़ हिदायत दी कि उनको हिंदुओं की पक्षधर पार्टी के रूप में चुनाव मैदान में जाने की ज़रूरत है .जबकि बीजेपी का कहना है कि अब सरस्वती शिशु मंदिर से पढकर आये कुछ पत्रकारों के अलावा कोई भी सावरकरवादी हिंदुत्व को गंभीरता से नहीं लेता. बीजेपी वालों का आग्रह है कि ऐसे मुद्दे आने चाहिए जिसमें उनकी पार्टी देश के नौजवानों की समस्याओं को संबोधित कर सके.इस बैठक से जब बीजेपी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह बाहर आये तो उन्होंने बताया कि अपनी पार्टी की भावी रणनीति के बारे में विस्तार से चर्चा हुई .उन्होंने साफ़ कहा कि प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के मामले पर  कोई चर्चा नहीं हुई .हालांकि राजनाथ सिंह ने तो इस मुद्दे पर कुछ नहीं कहा लेकिन अन्य सूत्रों से पता चला है कि आतंकवादी घटनाओं में शामिल आर एस एस वालों के भविष्य के बारे में चर्चा विस्तार से हुई. आर एस एस को डर है कि अगर एन आई ए ने प्रज्ञा ठाकुर, असीमानंद आदि को आतंकवाद के आरोपों में सज़ा करवा दिया तो मुसलमानों को आतंकवादी साबित करने की उनकी सारी मंशा रसातल में चली जायेगी. जब तक आर एस एस से सम्बंधित लोगों को कई आतंकवादी घटनाओं के सिलसिले में पकड़ा नहीं गया था तब तक बीजेपी वाले कहते पाए जाते थे  कि हर मुसलमान आतंकवादी नहीं  होता लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान होता है . जब आर एस एस के बड़े नेता इन्द्रेश कुमार सहित बहुत सारे अन्य लोगों एक खिलाफ भी आतंकवाद में शामिल होने की जांच शुरू हो गयी तो बीजेपी वालों के सामने मुश्किल आ गयी . कांग्रेस में साम्प्रदायिकता विरोधी राजनीति के मुख्य रणनीतिकार दिग्विजय सिंह ने भी बीजेपी की मुश्किले  बढ़ा दीं जब उन्होने संघी आतंकवाद को बाकी हर तरह के आतंकवाद की तरह का ही साबित कर दिया. हालांकि जयपुर में संघी आतंकवाद को भगवा आतंकवाद कहकर गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने बीजेपी वालों को कुछ उम्मीद दिखा दी थी और बीजेपी वाले कहते फिर रहे थे कि सुशील कुमार शिंदे ने हिंदू आतंकवाद कहा था. यह सच नहीं है . मैं उस वक़्त हाल में मौजूद था और शिंदे के भाषण को सुना था. उन्होंने  हिन्दू आतंकवाद शब्द का प्रयोग नहीं किया था.  लेकिन बीजपी उन्हें हिंदू विरोधी साबित करने पर आमादा थी और ऐलान कर दिया था कि वह संसद के बजट सत्र के दौरान शिंदे का बहिष्कार करेगी .लेकिन इस बीच शिंदे ने बीजेपी से सबसे प्रिय विषय को उनके हाथ से छीन लिया है . पिछले कई वर्षों से बीजेपी वाले “ अफजल गुरू को फांसी  दो “ के नारे लगाते रहे हैं लेकिन शिंदे  के  विभाग की तत्परता के कारण अफजल गुरू को फांसी दी जा चुकी है . यहाँ अफजल गुरू को दी गयी फांसी के गुणदोष पर विचार करने का इरादा नहीं है लेकिन यह साफ़ है कि बीजेपी के लिए अब अफजल गुरू के नाम के मुद्दे की जगह कोई और नाम लाना पडेगा .इसके साथ ही सुशील कुमार शिंदे का बहिष्कार कर पाना बहुत मुश्किल होगा. लेकिन बीजेपी को एक डर और भी है कि अगर  २०१४ के लोकसभा के चुनाव के पहले समझौता एक्सप्रेस, मक्का मसजिद, अजमेर धमाके आदि के अभियुक्त आर एस एस वालों को सज़ा हो गयी तो मुसलमानों को आतंकवाद का समानार्थी साबित करने की आर एस एस की कोशिश हमेशा के लिए दफन हो जायेगी.


अफजल गुरू को फांसी देने की बीजेपी की मांग से माहौल को धार्मिक ध्रुवीकरण के रंग में रंगने की आर एस एस की कोशिश बेकार साबित हो चुकी है . जिस तरह से भारत के मुसलमानों ने अफजल गुरू के फांसी के मुद्दे को बीजेपी की मंशा के हिसाब से  नहीं ढलने दिया वह अपनी लोकशाही की परिपक्वता का परिचायक है . अफजल गुरू की फांसी की राजनीति पर सोशल मीडिया और अन्य मंचों पर जो बहसें चल रही हैं उसमें भी भारतीय हिंदू ही बढ़ चढ़कर हिसा ले रहे हैं . मुसलमानों ने आम तौर पर इस मुद्दे पर बीजेपी की मनपसंद टिप्पणी  कहीं नहीं की . इस सन्दर्भ में उर्दू अखबारों का रुख भी ऐसा रहा जिसको ज़िम्मेदार माना जाएगा. बीजेपी ने जब १९८६ के बाद से सावरकरवादी हिंदुत्व को चुनावी रणनीति का हिस्सा बनाया उसके बाद से ही उनको उम्मीद रहती थी कि जैसे ही किसी ऐसे मुद्दे पर चर्चा की जायेगी जिसमें इतिहास के किसी मुकाम पर हिंदू-मुस्लिम  विवाद रहा हो तो माहौल गरम हो जाएगा .अयोध्या की बाबरी  मसजिद को राम जन्म भूमि बताना इसी रणनीति का हिस्सा था.  बहुत ही भावनात्मक मुद्दे के नाम पर आर एस एस ने काम किया और जो बीजेपी १९८४ के चुनावोंमें २ सीटों वाली पार्टी बन गयी  उसकी संख्या इतनी बढ़ गयी कि वह जोड़ तोड़ कर सरकार बनाने के मुकाम पर पंहुच गयी . आर एस एस वालों की यही सोच  है  कि अगर चुनाव धार्मिक और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को मुद्दा बनाकर लड़ा गया तो बहुत फायदा होगा . अफजल गुरू के मामले में भी बीजेपी को  यह  उम्मीद थी कि देश के मुसलमान तोड़ फोड करना शुरू कर देगें और उसको हाईलाईट किया जाएगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ. आज की राजनीतिक सच्चाई यह है कि उत्तर प्रदेश में तो मुसलमान , समाजवादी पार्टी की सरकार को अपना शुभचिन्तक मनाता है लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर मुसलमानों का भरोसा कांग्रेस में पूरी तरह से हो गया है . प्रधानमंत्री के पन्द्रह सूत्री कार्यक्रम को लागू करने के लिए अल्पसंख्यक मामलों के केन्द्र सरकार के मौजूदा  मंत्री के.रहमान खान दिन-रात एक कर रहे हैं . सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्रा कमीशन की रिपोर्टों पर केन्द्र सरकार का पूरा ध्यान है . ज़ाहिर है मुसलमानों को केन्द्र सरकार की नीयत पर शक नहीं है . ऐसी हालत में अगर केन्द्र सरकार से पहल होती है और देश  के  धर्मनिरपेक्ष ताने बाने  को सुरक्षित रखने के लिए कोई ऐसा क़दम भी उठाया जाता है जिस से बीजेपी  की चमक कमज़ोर हो तो मुस्लिम समाज के ज़िम्मेदार नेता और उर्दू अखबार  सहयोग करते नज़र आ रहे हैं.

साम्प्रदायिक राजनीति के पैरोकारों के लिए परेशानी का एक और भी कारण है . एक  तरफ दिग्विजय सिंह  हैं जो आर एस एस और बीजेपी के साम्प्रदायिक रूप को हमले के निशाने में लेने के किसी मौके को हाथ से नहीं जाने देते वहीं दूसरी तरह पी चिदंबरम,  जयराम रमेश आदि नेता हैं जो सब्सिडी के कैश ट्रांसफर जैसी स्कीमों पर काम कर रहे हैं जो देश के हर गाँव और हर  कालेज में रहने वाले लोगों को लाभ पन्हुचायेगी. वजीफों आदि को सीधे लाभार्थी के खाते में जमा कर देने वाली जो स्कीमें हैं वे निश्चित रूप से महात्मा गांधी के भाषणों और लेखों में बताए गए आख़री आदमी को लाभ पंहुचायेगी . काँग्रेस के इस चौतरफा अभियान के बीच बीजेपी वाले भावी प्रधानमंत्री के दावेदार के खेल में अपने आपको घिरा पाते हैं . दिल्ली दरबार में सक्रिय  बीजेपी वाले और उनके समर्थक पत्रकार कुछ इस तरह से बात करते पाए जाते हैं जैसे बीजेपी को बहुतमत मिल चुका है और अब किसी बेजीपी नेता को प्रधानमंत्री पद की शपथ लेनी बाकी है . इसी सिलसिले में  नरेंद्र मोदी का नाम उछाला जा रहा है . उनका नाम ऐसे लोग उछाल रहे हैं जिनका आर एस एस और बीजेपी की सियासत में कोई मज़बूत स्थान नहीं है . बीजेपी के अध्यक्ष और आर एस एस के बड़े नेताओं  सहित सावरकरवादी हिंदुत्व के सभी पैरोकारों में नरेंद्र मोदी का विरोध है लेकिन मीडिया के बल पर राजनीति करने वाले मोदी  के कुछ मित्रों ने माहौल बना रखा  है . बीजेपी नेता लाल कृष्ण आडवानी को प्रधान मंत्री पद के दावेदार के रूप में पूरे देश में घुमते हुए २००९ के चुनावों में जिन लोगों ने देखा  है उनको मालूम है कि बीजेपी नेताओं के प्रधान मंत्री पद के सपनों में कितना प्रहसन हो सकता है .वैसे भी अटल बिहारी वाजपेयी को इस देश का  प्रधान मंत्री बनाने में २० से ज़्यादा पार्टियां शामिल थीं . उन पार्टियों में रामविलास पासवान, फारूक अब्दुल्ला, ममता बनर्जी, चन्द्र बाबू नायडू ,मायावती जैसे लोग भी थे. अब यह सारे लोग किसी ऐसी पार्टी के साथ नहीं जायेगें जो साम्प्रदायिक हो . २००४ के लोकसभा चुनावों में यह सभी पार्टियां तबाह हो गयी थी. आज बीजेपी के साथ केवल दो पार्टियां तहे दिल से हैं . शिवसेना और अकाली दल . नीतीश कुमार की पार्टी को अगर धर्मनिरपेक्ष पार्टियों में रहने का मौक़ा मिला तो वह भी सावरकरवादी हिंदुत्व की पार्टी से नाता तोड़ने में संकोच नहीं करेगी.

ऐसी हालत में देश को साम्प्रदायिकता की आग में झोंक कर सत्ता हासिल करने की कोई कोशिश सफल होती नहीं दिखती . आर एस एस और बीजेपी की कोशिश है कि जिस तरह से १९८६ से लेकर २००२ तक साम्प्रदायिक राजनीति के सहारे देश में ध्रुवीकरण किया गया था अगर वह एक बार फिर संभव हो गया तो सत्ता फिर हाथ आ सकती है . लेकिन अब देश के लोग ,खासकर बहुसंख्यक मुसलमान ज्यादा मेच्योर हो गये हैं . अब न तो बहुसंख्यक हिन्दुओं  को नक़ली मुद्दों में फंसाया  जा सकता है और न ही  बहुसंख्यक मुसलमानों को .ऐसी स्थिति में अगर बाबरी मसजिद के मसले का कोई समाधान अगले दो चार महीनों में हो गया तो सावरकरवादी  हिंदुत्व की समर्थक राजनीतिक ताक़तों के सामने अस्तित्व का संकट भी आ सकता है . 

Monday, February 11, 2013

सत्य और अहिंसा के दार्शनिक गांधी की विरासत को अपनाने में जुटीं फासिस्ट जमातें




शेष नारायण सिंह 

महात्मा गांधी को गए 65 साल हो गए।  30 जनवरी 1948 के दिन दिल्ली में प्रार्थना के लिए जा रहे  महात्मा जी को एक हत्यारे ने गोली मार दिया था और हे राम कहते हुए वे स्वर्ग चले गए थे . पूरा देश सन्न रह गया था। आज़ादी की लड़ाई में शामिल सभी राजनीतिक जमातें दुःख में  डूब गयी थी। ऐसा इसलिए हुआ था कि 1920 से 1947 तक महात्मा  गांधी के नेतृत्व में  ही आज़ादी का लड़ाई लड़ी गयी थी। लेकिन जो जमातें आज़ादी की लड़ाई में शामिल नहीं थीं, उन्होंने गांधी जी की शहादत पर कोई आंसू नहीं बहाए। ऐसी ही एक जमात आर  एस एस थी जिसकी सहयोगी राजनीतिक पार्टी उन दिनों हिन्दू महासभा हुआ करती थी। हिन्दू महासभा के कई सदस्यों की साज़िश का ही नतीजा था जिसके कारण महात्मा गांधी की मृत्यु हुयी थी।  हिन्दू महासभा के सदस्यों पर ही  महात्मा गांधी की हत्या का मुक़दमा चला और उनमें से कुछ लोगों को फांसी हुयी, कुछ को आजीवन कारावास हुआ और कुछ तकनीकी आधार पर बच गए। नाथूराम गोडसे ने गोलियां चलायी थीं , उसे फांसी हुयी, उसके भाई गोपाल गोडसे को साज़िश में शामिल पाया गया लेकिन उसे आजीवन कारावास की सज़ा हुयी। बाद में वह छूट कर  जेल से बाहर आया और उसने गांधी जी की हत्या को सही ठहराने के लिए कई किताबें वगैरह  लिखीं। आर एस एस के लोगों के ऊपर आरोप है की उन्होंने महात्मा जी की हत्या के बाद कई जगह मिठाइयां आदि भी बांटी। इस बात को आर एस एस वाले शुरू से ही गलत बताते रहे हैं लेकिन इतना पक्का है की आर एस एस  ने  प्रकट रूप से महात्मा गांधी की  मृत्यु पर कोई दुःख व्यक्त नहीं किया  उस वक़्त के आर एस एस के मुखिया एम एस गोलवलकर को भी महात्मा गांधी की हत्या की साज़िश में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार  किया गया था  . सरदार पटेल उन दिनों देश के गृह मंत्री थे और उन्होंने  गोलवलकर को एक अंडरटेकिंग लेकर  कुछ शर्तें मनवा कर जेल से रिहा किया था . बाद के दिनों में आर एस एस ने हिन्दू महासभा से पूरी  तरह से किनारा  कर लिया था। बाद में जनसंघ की स्थापना हुयी और आर एस एस के प्रभाव वाली एक नयी राजनीतिक पार्टी की तैयार हो गयी। आर एस एस के प्रचारक दीन दयाल उपाध्याय  को नागपुर वालों ने जनसंघ का काम करने के लिए भेजा था। बाद में  वे जनसंघ के सबसे बड़े नेता हुए।  1977  तक आर एस एस और जनसंघ वालों ने महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू की नीतियों की खूब जमकर आलोचना की और  गांधी-नेहरू की राजनीतिक  विरासत को ही देश में होने वाली हर परेशानी का कारण बताया . . लेकिन 1980 में जब जनता पार्टी को तोड़कर जनसंघ वालों ने   भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की तो पता नहीं क्यों उन्होंने अपनी पार्टी के राजनीतिक उद्देश्यों में  गांधियन  सोशलिज्म को भी शामिल कर लिया। ऐसा शायद इसलिए हुआ होगा कि आज़ादी की लड़ाई में आर एस एस  का कोई आदमी कभी शामिल नहीं हुआ था। नवगठित बीजेपी  को कम से कम  एक ऐसे महान व्यक्ति तलाश थी जिसने आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया हो . हालांकि अपने पूरे जीवन भर महात्मा गांधी कांग्रेस के नेता रहे लेकिन बीजेपी ने उन्हें अपनाने की योजना पर काम करना शुरू कर दिया . 

महात्मा गांधी को अपनाने की अपनी योजना को अमली जामा पहनाने के लिए बीजेपी ने मुंबई में 28 दिसंबर 1980 को आयोजित अपने पहले ही अधिवेशन में अपने पांच आदर्शों में से एक गांधियन सोशलिज्म  को निर्धारित किया .बाद में जब 1985 में बीजेपी लगभग शून्य हो गयी  तो गांधी जी से अपने आपको दूर भी कर लिया गया लेकिन बाद में फिर  किस मंशा से महात्मा गांधी को अपाने की योजना पर काम चल रहा है और अब तो बीजेपी वाले खुले आम कहते पाए जाते हैं की महात्मा गांधी  कांग्रेस  की बपौती नहीं  हैं . हालांकि आजकल बीजेपी वाले महात्मा गांधी को अपना बताने में कोई कसर नहीं छोड़ते लेकिन सच्चाई यह है की महात्मा गांधी और आर एस एस के बीच इतनी  दूरियां  थीं जिनको कि महात्मा जी के जीवन काल और उसके बाद भी  भरा नहीं जा सका।अंग्रेज़ी  राज  के  बारे में महात्मा गांधी और आर एस एस में बहुत भारी मतभेद था। महात्मा गांधी अंग्रेजों को हर कीमत पर हटाना चाहते थे  जबकि आर एस एस वाले अंग्रेजों की छत्रछाया में ही अपना मकसद हासिल  करना चाहते थे। . वास्तव में 1925 से लेकर 1947 तक आर एस एस को अंग्रेजों के सहयोगी के रूप में देखा जाता है . शायद इसीलिये जब 1942 में भारत छोडो का नारा देने के बाद देश के सभी नेता जेलों में ठूंस दिए गए थे तो आर एस एस के सरसंघचालक एम एस गोलवलकर सहित उनके सभी नेता जेलों के बाहर थे और  अँगरेज़ अफसरों की  कृपा से अपना सांस्कृतिक काम चला रहे थे .

गांधियन सोशलिज्म की असफलता के बाद दोबारा महात्मा गांधी को अपनाने की कोशिश आर एस एस ने पूरी गंभीरता के साथ 1997 को 2 अक्टोबर को शुरू किया . योजना यह थी की 30 जनवरी 1998 के दिन इस अभियान का समापन करके महात्मा गांधी को संघी विचारधारा का समर्थक साबित कर दिया जाएगा . 2 अक्टूबर की सभा में आर एस एस के तत्कालीन प्रमुख , राजेन्द्र सिंह ने महात्मा गांधी की बहुत तारीफ़ की . उस सभा में अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवानी भी मौजूद थे। राजेन्द्र सिंह ने कहा कि  गांधीजी भारतमाता  के चमकते हुए नवरत्नों में से एक थे और अफ़सोस जताया कि  उनको सरकार ने भारत रत्न की उपाधि तो नहीं दी लेकिन  वे लोगों की नज़र में सम्मान के पात्र थे। इतिहास का कोई भी  विद्यार्थी बता देगा कि  महात्मा गांधी के प्रति प्रेम के इस उभार में  किसी योजना का हाथ नज़र आता है .संघ परिवार ने अपने सामाजिक कार्य से भारत के बंटवारे के दौरान बहुत ही सम्मान हासिल कर लिया था . लेकिन  महात्मा गांधी की हत्या में आर एस एस के  बहुत सारे लोगों की गिरफ्तारी के कारण उन्हें सम्मान मिलना बंद हो गया था।महात्मा जी की ह्त्या के 30 साल बाद जब आर एस एस वाले जनता पार्टी के सदस्य बने तो उन्हें राजनीतिक सम्मान मिलना शुरू हुआ लेकिन उन्हें कुछ काबिल पुरखों की तलाश लगातार बनी हुयी थी। इसी प्रक्रिया में आर एस एस प्रमुख के अलावा बीजेपी के  दोनों बड़े नेता, अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवानी भी  गांधीजी  को सदगुणों की खान मानने  लगे। महात्मा गांधी से अपनी करीबी और नाथूराम गोडसे से अपनी दूरी साबित करने के लिए आर एस एस ,जनसंघ और बीजेपी के नेताओं ने हमेशा से ही भारी मशक्क़त की है . महात्मा गांधी की विरासत पर क़ब्ज़ा पाने की  संघ की  जारी मुहिम  के बीच कुछ ऐसे तथ्य सामने  आ गए जिस से उनके अभियान को भारी घाटा हुआ। आडवानी समेत सभी बड़े नेताओं ने बार बार यह कहा था कि जब महात्मा गांधी की हत्या हुयी तो नाथूराम गोडसे आर एस एस का सदस्य नहीं था .यह बात तकनीकी आधार पर सही हो सकती है लेकिन गांधी जी  की हत्या के अपराध में आजीवन कारावास की सज़ा  काट कर लौटे  नाथू राम गोडसे के भाई , गोपाल गोडसे ने सब गड़बड़ कर दी। उन्होंने अंग्रेज़ी पत्रिका " फ्रंटलाइन " को दिए गए एक इंटरव्यू में बताया कि आडवानी  और बीजेपी के अन्य नेता उनसे दूरी  नहीं  बना सकते। . उसने कहा कि " हम सभी भाई आर एस एस में थे। नाथूराम,दत्तात्रेय . मैं और गोविन्द सभी आर एस एस में थे। आप कह सकते हैं  की हमारा पालन पोषण अपने घर में न होकर आर एस एस में हुआ। . वह हमारे लिए एक परिवार जैसा था।  . नाथूराम आर एस एस के बौद्धिक कार्यवाह बन गए थे।। उन्होंने अपने बयान में यह कहा था कि  उन्होंने आर एस एस छोड़ दिया था . ऐसा उन्होंने  इसलिए कहा क्योंकि महात्मा गांधी की हत्या के बाद गोलवलकर और आर एस एस वाले बहुत परेशानी  में पड़  गए थे। लेकिन उन्होंने कभी भी आर एस एस छोड़ा नहीं था " जब गोपाल गोडसे को बताया गया कि आडवानी ने दावा किया है कि नाथूराम का आर एस एस से कोई लेना देना नहीं था तो गोपाल गोडसे ने जवाब दिया " मैंने उनको  यह कहकर फटकार दिया है  की ऐसा कहना कायराना हरकत है .. हाँ यह आप कह सकते हैं की आर एस एस ने गांधी की हत्या का कोई प्रस्ताव नहीं पास किया था लेकिन आप उनसे  (नाथूराम से ) सम्बन्ध विच्छेद नहीं कर सकते। जब 1944 में नाथूराम ने हिन्दू महासभा का काम करना शुरू किया था तो वे आर एस एस के बौद्धिक कार्यवाह थे।"

 नाथूराम गोडसे दूरी बनाने और अपनी विचारधारा  को महात्मा गांधी की प्रिय विचारधारा बताने के लिए भी आर एस एस वालों ने बहुत काम किया है .नवम्बर 1990 में बीजेपी के महासचिव कृष्ण लाल शर्मा ने प्रधानमंत्री चन्द्र शेखर को एक पत्र लिखकर बताया कि  27 जुलाई 1937 को हरिजन सेवक  में एक लेख लिखा था जिसमें महात्मा गांधी ने रामजन्म भूमि के बारे में उन्हीं बातों को सही ठहराया था जिसको अब आर एस एस सही बताता  है . उन्होंने यह भी दावा किया कि महात्मा गांधी के हिंदी साप्ताहिक की वह प्रति उन्होंने देखी थी जिसमें यह बात लिखी गयी थी। . यह खबर अंग्रेज़ी अखबार टाइम्स आफ इण्डिया में छपी भी थी . लेकिन कुछ दिन बाद टाइम्स आफ इण्डिया की रिसर्च टीम ने यह  खबर छापी कि  कृष्ण लाल शर्मा का बयान सही नहीं है क्योंकि महात्मा गांधी ने ऐसा कोई  लेख लिखा ही नहीं था . सच्चाई यह है की 27 जुलाई 1937 को हरिजन सेवक का कोई अंक ही नहीं छपा था . 1937 में उस साप्ताहिक अखबार का अंक 24 जुलाई और 31 जुलाई को छपा था। 

कुल मिलाकर सत्य और अहिंसा के सबसे बड़े दार्शनिक की विरासत को वे लोग झपटने की कोशिश में हैं जो हिंसा को हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का माध्यम मानते और असत्य तो उनके खजाने में इतने हैं कि की उनको कोई गिना ही नहीं सकता .मैंने कुछ नमूने पेश किये हैं और अगर ज़रूरी हुआ तो ऐसे बहुत सारे तथ्य और भी प्रस्तुत किये जा सकते हैं . आज सभ्य समाज की यह सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी है कि वह महात्मा  गांधी को सत्य और अहिंसा के मैदान से बाहर  खींचकर अपना बनाने की कोशिश करने वालों को रोकने के प्रयास में शामिल हो जाए।.

Monday, January 28, 2013

हिंदू धर्म एक पवित्र धर्म है जबकि हिंदुत्व एक राजनीतिक विचारधारा है




शेष नारायण सिंह

हिंदू धर्म भारत का प्राचीन धर्म है। इसमें बहुत सारे संप्रदाय हैं। संप्रदायों को मानने वाला व्यक्ति अपने आपको हिंदू कहता है लेकिन हिंदुत्व एक राजनीतिक विचारधारा है जिसका प्रतिपादन 1924 में वीडी सावरकर ने अपनी किताब 'हिंदुत्व में किया था। सावरकर इटली के उदार राष्ट्रवादी चिंतक माजिनी से बहुत प्रभावित हुए थे। उनके विचारों से प्रभावित होकर ही उन्होंने हिंदुत्व का राजनीतिक अभियान का मंच बनाने की कोशिश की थी।

सावरकर ने हिंदुत्व की परिभाषा भी दी। उनके अनुसार -''हिंदू वह है जो सिंधु नदी से समुद्र तक के भारतवर्ष को अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि माने। इस विचारधारा को ही हिंदुत्व नाम दिया गया है। ज़ाहिर है हिंदुत्व को हिंदू धर्म से कोई लेना देना नहीं है। लेकिन हिंदू धर्म और हिंदुत्व में शाब्दिक समानता के चलते पर्यायवाची होने का बोध होता है। इसी भ्रम के चलते कई बार सांप्रदायिकता के खतरे भी पैदा हो जाते हैं। धर्म और सांप्रदायिकता के सवाल पर कोई भी सार्थक बहस शुरू करने के पहले यह जरूरी है कि धर्म के स्वरूप और उसके दर्शन को समझने की कोशिश की जाये।

दर्शन शास्त्र के लगभग सभी विद्वानों ने धर्म को परिभाषित करने का प्रयास किया है। धर्म दर्शन के बड़े ज्ञाता गैलोबे की परिभाषा लगभग सभी ईश्वरवादी धर्मों पर लागू होती है। उनका कहना है कि -''धर्म अपने से परे किसी शक्ति में श्रद्घा है जिसके द्वारा वह अपनी भावात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है और जीवन में स्थिरता प्राप्त करना है और जिसे वह उपासना और सेवा में व्यक्त करता है। इसी से मिलती जुलती परिभाषा ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में भी दी गयी है जिसके अनुसार ''धर्म व्यक्ति का ऐसा उच्चतर अदृश्य शक्ति पर विश्वास है जो उसके भविष्य का नियंत्रण करती है जो उसकी आज्ञाकारिता, शील, सम्मान और आराधना का विषय है।

यह परिभाषाएं लगभग सभी ईश्वरवादी धर्मों पर लागू होती हैं। यह जानना दिलचस्प होगा कि भारत में कुछं ऐसे भी धर्म हैं जो सैद्धांतिक रूप से ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते। जैन धर्म में तो ईश्वर की सत्ता के विरूद्घ तर्क भी दिए गये हैं। बौद्ध धर्म में प्रतीत्य समुत्पाद के सिद्घांत को माना गया है जिसके अनुसार प्रत्येक कार्य का कोई कारण होता है और यह संसार कार्य-कारण की अनन्त श्रंखला है। इसी के आधार पर दुख के कारण स्वरूप बारह कडिय़ों की व्याख्या की गयी है। जिन्हें द्वादश निदान का नाम दिया गया है।

इसीलिए धर्म वह अभिवृत्ति है जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को, प्रत्येक क्रिया को प्रभावित करती है। इस अभिवृत्ति का आधार एक सर्वव्यापक, अदार्श विषय के प्रति आस्था है। यह विषय जैन धर्म का कर्म-नियम, बौद्घों का प्रतीत्य समुत्पाद का सिद्घांत या वैष्णवों, ईसाइयों और मुसलमानों का ईश्वर हो सकता है। आस्था और विश्वास में अंतर है। विश्वास तर्क और सामान्य प्रेक्षण पर आधारित होता है लेकिन आस्था तर्क से परे की स्थिति है। विश्वविख्यात दार्शनिक इमनुअल कांट ने आस्था की परिभाषा की है। उनके अनुसार ''आस्था वह है जिसमें आत्मनिष्ठ रूप से पर्याप्त लेकिन वस्तुन्ष्टि रूप से अपर्याप्त ज्ञान हो।

आस्था का विषय बुद्घि या तर्क के बिल्कुल विपरीत नहीं होता लेकिन उसे तर्क की कसौटी पर कसने की कोशिश भी नहीं की जानी चाहिए। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि जो धार्मिक मान्यताएं बुद्घि के विपरीत हों, वे स्वीकार्य नहीं। धार्मिक आस्था तर्कातीत है तर्क विपरीत नहीं। सच्चाई यह है कि धार्मिक आस्था का आधार अनुभूति है। यह अनुभूति सामान्य अनुभूतियों से भिन्न है। इसी अनुभूति को रहस्यात्मक अनुभूति या समाधिजन्य अनुभूति का जाता है। यह अनुभूति सबको नहीं होती केवल उनको ही होती है जो अपने आपका इसके लिए तैयार करते हैं।

इस अनुभूति को प्राप्त करने के लिए धर्म में साधना का मार्ग बताया गया है। इस साधना की पहली शर्त है अहंकार का त्याग करना। जब तक व्यक्ति तेरे-मेरे के भाव से मुक्त नहीं होगा, तब तक चित्त निर्मल नहीं होगा और दिव्य अनुभूति प्राप्त नहीं होगी। इस अनुभूति का वर्णन नहीं किया जा सकता क्योंकि इस अनुभूति के वक्त ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान की त्रिपुरी नहीं रहती। कोई भी साधक जब इस अनुभूति का वर्णन करता है तो वह वर्णन अपूर्ण रहता है। इसीलिए संतों और साधकों ने इसके वर्णन के लिए प्रतीकों का सहारा लिया है। प्रतीक उसी परिवेश के लिए जाते हैं, जिसमें साधक रहता है इसीलिए अलग-अलग साधकों के वर्णन अलग-अलग होते हैं, अनुभूति की एकरूपता नहीं रहती।

लेकिन यह बात निर्विवाद है कि इस दिव्य अनुभूति का प्रभाव सभी देशों और कालों में रहने वाले साधकों पर एक सा पड़ता है। अध्यात्मिक अनुभूति की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि सन्त चरित्र है। सभी धर्मों के संतों का चरित्र एक सा रहता है। सन्तों का जीवन के प्रति दृष्टिïकोण बदल जाता है, ऐसे सन्तों की भाषा सदैव प्रतीकात्मक होती है। इसका उद्देश्य किसी वस्तुसत्ता का वर्णन करना न होकर, जिज्ञासुओं तथा साधकों में ऊंची भावनाएं जागृत करना होता है। सन्तों में भौतिक सुखों के प्रति उदासीनता का भाव पाया जाता है। लेकिन यह उदासीनता नकारात्मक नहीं होती। पतंजलि ने साफ साफ कहा है कि योग साधक के मन में मैत्री, करुणा एवं मुदिता अर्थात दूसरों के सुख में संतोष के गुण होने चाहिये।

सांसारिक सुखों के प्रति जो उदासीनता सन्तों में पाई जाती है उसे एक उदाहरण में समझा जा सकता है। छोटी बच्ची गुडिय़ा के गायब हो जाने पर दुखी होती है और मिल जाने पर खुश होती है। उसके माता पिता मुस्कुराते हैं और बच्ची के व्यवहार को नासमझी समझते हैं। उसी प्रकार सन्त भी आम आदमी के ईप्र्या, द्वेष, मान-अपमान संबंधी मापदंडों पर मुस्कुराते हैं और मानते हैं कि जीवन के उच्चतर मूल्यों को न समझ पाने के कारण व्यक्ति इस तरह का आचरण करता है। भौतिक उपलब्धियों के प्रति उदासीनता का यह भाव श्रेष्ठ वैज्ञानिकों, चिन्तकों आदि में भी पाया जाता है।

लेकिन सन्त मानवीय तकलीफों के प्रति उदासीन नहीं होते। अरण्यकांड के अंत मे गोस्वामी तुलसीदास ने सन्तों के स्वभाव की विवेचना की है। कहते हैं-संत सबके सहज मित्र होते हैं-श्रद्घा, क्षमा, मैत्री और करुणा उनके स्वाभाविक गुण होते हैं। बौद्घ ग्रंथों में भी ब्रह्मï विहार को भिक्षुओं का स्वाभाविक गुण बताया गया है। मैत्री, करुणा, मुदिता और सांसारिक भागों के प्रति उपेक्षा ही ब्रह्मï विहार हैं। किसी भी धर्म की सर्वोच्च उपलब्धि सन्त चरित्र ही है। इसीलिए हर धर्म के महान संतों ने मैत्री, करुणा और मुदिता का ही उपदेश दिया है। भारतीय संदर्भ में धर्म का विशेष अर्थ है। प्राचीन भारतीय चिन्तन में मूल्य का प्रयोग नहीं हुआ है। मूल्य की बजाय पुरुषार्थ शब्द का प्रयोग किया गया है।

चार पुरुषार्थ हैं-धर्म, अर्थ, काम है मोक्ष। आमतौर पर 'धर्म शब्द का प्रयोग मोक्ष या पारलौकिक आनन्द प्राप्त करने के मार्ग के रूप में किया जाता है। लेकिन भारतीय परम्परा में धर्म और मोक्ष समानार्थी शब्द नहीं हैं। धर्म का अर्थ नैतिक आचरण के रूप में किया गया है, धर्म सम्मत अर्थ और काम ही पुरुषार्थ हैं। धर्म शब्द की व्युत्पत्ति 'धृ धातु से हुई है। जिसका अर्थ है धारण करना। महाभारत में कहा गया है कि जो समाज को धारण करे वही धर्म है।

यहां धर्म नैतिक चेतना या विवेक के अर्थ में प्रयोग किया गया है। वैसे भी भारतीय परम्परा में धर्म शब्द का प्रयोग अधिकतर कर्तव्य के अर्थ में ही होता है। इसीलिए धर्म के दो प्रकार बताए गये हैं-विशेषधर्म और सामान्य धर्म। सामान्य धर्म मानव का स्वाभाविक धर्म है जबकि विशेष धर्म उसके विभिन्न सामाजिक सन्दर्भों में कर्तव्य है। सामान्य धर्म है-धृति:, क्षमा,यम, शौचम् अस्तेयम् इन्द्रिय निग्रह, धा,विद्या, सत्यम, आक्रोध। मतलब यह है कि धर्म इंसान के लिए बहुत जरूरी चीज है। सच्चा धर्म मनुष्य के चरित्र को उदात्त बनाता है और वसुधैव कुटुंबकम् की धारणा को विकसित करता है। धर्म मनुष्यों को जोड़ता है, तोड़ता नहीं।

प्रथम पुरुषार्थ के रूप में धर्म नैतिकता है और चौथे पुरुषार्थ, मोक्ष की प्राप्ति का साधन है। इसीलिए नैतिक आचरण या धर्म आचरण का पालन न करने वाला व्यक्ति मोक्ष प्राप्ति का अधिकारी नहीं हो सकता। हमने देखा कि भारतीय परम्परा के अनुसार धर्म पूरी तरह से जीवन के हर पक्ष को प्रभावित करता है जबकि सम्प्रदाय का एक सीमित क्षेत्र है। संस्कृत कोश के अनुसार सम्प्रदाय का अर्थ है-धर्म (मोक्ष) शिक्षा की विशेष पद्घति। औक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार मज़हब का अर्थ है-वह धार्मिक ग्रुप या वर्ग जो मुख्य परम्परा से हटकर हो। सवाल यह है कि विभिन्न सम्प्रदाय पैदा क्यों और कैसे होते हैं। ऐसा लगता है कि सभी लोग धर्म के उदात्त स्वरूप को समझ नहीं पाते हैं जिस अहंकार से मुक्ति धर्म साधना की मुख्य शर्त होती है, उसी के वशीभूत होकर अपने-अपने ढंग से धर्म के मूल स्वरूप की व्याख्या करने लगते हैं।

दार्शनिक मतभेद के कारण भी अलग-अलग सम्प्रदायों का उदय होता है। उपनिषदों में अनुभूतिजन्य सत्य का वर्णन किया गया है। इन अनुभूतियों की व्याख्या उद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैत, शुद्घाद्वैत आदि दार्शनिक दृष्टिïयों से की गयी है। सत्य की अनुभूति के लिए इन सम्प्रदायों में अलग-अलग पद्घति बताई गयी है। लेकिन जो बात सबसे अहम है, वह यह है कि सभी सम्प्रदायों में साधना की पद्घति की विभिन्नता तो है लेकिन नैतिक आचरण के मामले पर लगभग पूरी तरह से एक रूपता है। परेशानी तब होती है जब विभिन्न सम्प्रदायों के अनुयायी इस एकरूपता का कम महत्व देकर, भिन्नता पर ही फोकस कर लेते हैं और अपनी सांप्रदायिक मान्यता को सबसे ऊपर मानने लगते हैं।

यहां समझने की बात यह है कि अपने सम्प्रदाय को सबसे बड़ा मानने में वे अहंकार की शरण जाते हैं और हमने इस की शुरूआत में ही बता दिया है कि धार्मिक साधना की पहली शर्त ही अहंकार का खात्मा है। जब व्यक्ति या सम्प्रदाय अहंकारी हो जाता है तो संघर्ष की स्थिति पैदा हो जाती है। जाहिर है कि अहंकारी व्यक्ति सांप्रदायिक तो हो सकता है, धार्मिक कतई नहीं हो सकता। संकुचित दृष्टि के कारण सामाजिक विद्वेष उत्पन्न होता है। लोग लक्ष्य को भूल जाते हैं और सत्य तक पहुंचने के रास्ते को ही महत्व देने लगते हैं और यही सांप्रदायिक आचरण है।

कभी-कभी स्वार्थी और चालाक  लोग भी साधारण लोगों को सांप्रदायिक श्रेष्ठता के नाम पर ठगते हैं। एक खास किस्म की पूजा पद्धति , कर्मकांड आदि के चक्कर में सादा दिल इंसान फंसता जाता है। समाज में दंगे फसाद इसे संकीर्ण स्वार्थ के कारण होते हैं। जो सत्ता सारी सृष्टि में व्याप्त है, उसे हम मंदिरों और गिरिजाघरों में सीमित कर देते हैं और इंसान को बांट देते हैं।धर्म का लक्ष्य सन्त चरित्र है, दम्भी, लोभी और भोगी गुरू नहीं सत्य तो एक ही है उसकी प्राप्ति के उपाय अनेक हो सकते हैं और अगर मकसद को भूलकर उस तक पहुंचने के साधन पर लड़ाई भिड़ाई हो जाए तो हम लक्ष्यहीन हो जाएंगी और दिग्भ्रम की स्थिति पद होगी। और इसी हालत का फायदा उठाकर हर धर्म का कठमुल्ला और धार्मिक विद्वेष की राजनीति की रोटी खाने वाला नेता सांप्रदायिक दंगे कराएगा, समाज को बांटेगा और धार्मिकता के लक्ष्य में अडंगा खड़ा करेगा।

ज़ाहिर है धर्म को सम्प्रदाय मानने की गलती से ही संघर्ष और दंगे फसाद के हालात पैदा होते हैं और अगर हमारी आजादी की लड़ाई के असली मकसद को हासिल करना है तो उदारवादी राजनीति के नेताओं को चाहिए वे आम आदमी को धर्म के असली अर्थ के बारे में जानकारी देने का अभियान चलाएं और लोगों को जागरूक करें। ऐसा करने से आजादी की लड़ाई का एक अहम लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा

Monday, January 21, 2013

राहुल गांधी का उपाध्यक्ष के रूप में पहला भाषण


शेष नारायण सिंह 

जयपुर,२० जनवरी  काँग्रेस के नव नियुक्त उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने आज अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में दिए  गए अपने भाषण में  ऐसा बहुत कुछ कहा कि जिस से स्थापित सत्ता की राजनीति को कई मुकामों पर  चुनौती मिलती है .हालांकि आलोचकोंको शक है कि राहुल गांधी  ने जो बातें की हैं वे गैलरी को ध्यान में रख कर कही गयी हैं लेकिन यह भी सच है कि देश की सबसे  बड़ी पार्टी के आला हाकिम  की तरफ से यह बात इतने बेबाक तरीके से पिछले कई दशकों में कभी नहीं कही गयी. उन्होंने अपने पिता स्व राजीव गांधी के उस भाषण से बात को शुरू किया जो उन्होंने १९८५ में दिया था .  राजीव गांधी ने कहा था कि केन्द्र से जो कुछ आम आदमी के लिए भेजा जाता है उसका केवल १५ प्रतिशत ही पंहुचता है .उन्होंने दावा किया कि अब आम आदमी को  जितना भेजना है उसका ९९ प्रतिशत सही व्यक्ति तक पंहुचाया जायेगा. इसके लिए उन्होंने वर्तमान सूचना क्रान्ति का धन्यवाद किया . अपने भाषण में राहुल गांधी ने भावनात्मक क्षण भी जोड़ दिया जब  उन्होंने कहा कि बचपन  में  अपनी दादी के रक्षकों के साथ वे खेला करते थे , वे  लोग उनके दोस्त  बन गए थे लेकिन के दिन उनके उन्हीं दो दोस्तों  ने उनकी दादी को मार डाला .

अपने भाषण में राहुल गांधी ने कांग्रेस की सफलताओं का ज़िक्र किया और हरित क्रान्ति से लेकर शिक्षा के अधिकार तक को अपनी पार्टी की सरकार की उपलब्धि बताया . लेकिन उनकी जो बातें देश में बहुत ही ध्यान से सूनी जायेगी वह है उनकी तो टूक बातें .उन्होंने कहा कि सरकार और राज काज का जो मौजूदा सिस्टम है वह ज़रूरी डिलीवरी नहीं कर पा रहा है .. सत्ता के बहुत सारे केन्द्र बने हुए हैं .बड़े पदों पर जो लोग बैठे हैं उन्हें समझ नहीं है और जिनको समझ और अक्ल है वे लोग बड़े पदों पर पंहुच नहीं पाते ऐसा सिस्टम  बन गया है कि बुद्दिमान व्यक्ति महत्वपूर्ण मुकाम तक पंहुच ही  नहीं पाता.आम आदमी की आवाज़ सुनने वाला कहीं कोई नहीं है .उन्होंने कहा कि  अभी ज्ञान की इज्ज़त नहीं 
होती बल्कि  पद की इज्ज़त होती है . इस व्यवस्था को बदलना पडेगा.  ज्ञान  पूरे देश में जहां भी होगा उसे आगे लाना पडेगा. उन्होंने कहा कि  यह दुर्भाग्य है कि कांग्रेस में नियम कानून नहीं चलते .  इसे बदलना होगा  , नियम क़ानून के हिसाब से कांग्रेस को चलाना पडेगा .. उन्होंने इस बात पर दुःख व्यक्त किया कि हर जगह मीडियाक्रिटी  समझदार लोगों  को दबाने में सफल हो जाती है .. इनीशिएटिव को मार दिया जाता है . सत्ता  में  बैठे लोग मीडियाक्रिटी को ही आगे करते हैं क्योंकि उस से उनको सुरक्षा मिलती है . काबिल  लोगों  की  तारीफ़ करने का फैशन ही नहीं है .भ्रष्ट लोग भ्रष्टाचार हटाने की बात करते हैं , औरतों की रोज ही बेइज्ज़त करने  वाले  महिलाओं  के अधिकारों की बात करते हैं .उन्होंने कहा कि इस तरह के पाखण्ड को भारत अनंत काल तक बर्दाश्त नहीं करेगा. 

राहुल गांधी ने कहा कि वे आशावादी हैं . इसलिए कि उनको उम्मीद है कि इस देश का नौजवान जब सही अवसर पायेगा को देश को आग ले  जाने में उसे कोई  परेशानी नहीं आयेगी. उन्होंने कहा कि कांग्रेस को एक  ऐसी पार्टी के रूप में अपनी पहचान बनानी है  जहां नेताओं का विकास होता है . उन्होंने कहा कि आज़ादी के बाद अपने देश में ऐसे बहुत सारे  नेता थे जो प्रधानमंत्री बंसकते थे और हर राज्य में ऐसे नेता थे जो मुख्यमंत्री बन सकते थे. लेकिन अब ऐसा नहीं है . कांग्रेस पार्टी कोशिश करेगी कि वह  हर स्तर पर लीडरशिप का विकास करे और बहुत सारे नेता पैदा कर सके. 
आखिर में उन्होने दादी की हत्या से जुडी घटना और दोस्ती पर लगी आंच का ज़िक्र करके माहौल को बहुत ही संजीदा बना दिया . 

जयपुर में सोनिया गांधी ने क्या कहा


शेष नारायण सिंह 

जयपुर २० जनवरी. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने इस बात पर चिंता जताई कि राजनीतिक प्रक्रिया से आम  आदमी का मोहभंग हो रहा है। उन्होंने कहा कि राजनीतिक नेताओं पर कीचड उछाला जाना ठीक नहीं है लेकिन इसके  लिए ज़रूरी है कि   राजनीतिक बिरादरी के लोग इस  मोहभंग के कारणों को समझें और अपने आचरण से उसे दूर करें .उन्होंने अपने  पार्टीजनों से आग्रह कियाकि इस बात को बहुत गंभीरता से लें . अपना आधा  भाषण सोनिया गांधी ने अंग्रेज़ी में पढ़ा और बाकी हिंदी में.  दिल्ली में हाल ही में हुई सामूहिक बलात्कार की घटना से वे विचलित नज़र आयीं और कहा कि इस घटना के खिलाफ पूरे देश में गुस्सा  है और महिलाओं की सुरक्षा की बात जोरदार ढंग से उठी है। उन्होंने कहा कि लोग इस घटना का जवाब और कार्रवाई मांग रहे हैं, जो बिलकुल जायज़ और सही है।इस हादसे में मारी गयी लड़की की बहादुरी की उन्होंने तारीफ की और कहा कि उसने एक तरह से अपना बलिदान देकर  महिलाओं की सुरक्षा के प्रति लोगों को जागरूक किया है। यह  देखना होगा कि उसका बलिदान व्यर्थ न जाने पाए .

कांग्रेस अध्यक्ष ने दो दिवसीय चिंतन शिविर के बाद कांग्रेस महासमिति की बैठक के अपने भाषण में राजनीतिक प्रक्रिया से मोहभंग को दूर करने और लोगों का भरोसा लौटाने के लिए चुनाव सुधारों पर विचार  को प्राथमिकता के आधार पर हल करने की बात की .उन्होंने कहा कि चुनाव सुधारों के लिए एक  समयबद्ध कार्यक्रम बनाए जाने की जरूरत है। इस संदर्भ में उन्होंने पार्टी में एक समूह का गठन करने का ऐलान किया, जो  सभी सुझावों पर विचार करेगा और जल्द ही अपनी सिफारिशें देगा।उन्होंने कांग्रेसियों को चेताया कि लोकसभा के चुनाव में सिर्फ 15 महीने रह गए हैं और उसमें सफल होने के  लिए एकता  और अनुशासन बनाए रखने की है। उन्होंने कहा कि अगले 15 महीनों में लोकसभा के अलावा कई राज्यों में भी चुनाव होने हैं .सोनिया गांधी ने विश्वास जताया कि अगर एकता और आनुशासन बना रहा तो चुनाव  जीतना बहुत मुश्किल नहीं होगा .

सोनिया गांधी ने कहा कि  कार्यकर्ताओं को नेताओं से केवल एक ही उम्मीद है और वह है एकता और अनुशासन। यह ज़रूरी  है क्योंकि चुनाव इसी के सहारे जीता जा सकता है .र खरा उतरना होगा, क्योंकि पार्टी की विजय ही हम सब की विजय है। पार्टी के पदाधिकारियों द्वारा अपने चहेतों को आगे बढ़ाने की प्रवृत्ति पर कड़ी टिप्पणी करते हुए पार्टी अध्यक्ष ने कहा, यह पार्टी ही है, जिसने उन्हें यह पद प्रदान किए हैं और अब यह उनका दायित्व है कि वे अपना दायरा विकसित करें और अपना सहयोग केवल अपने चहेतों तक ही सीमित न रखें, बल्कि सभी कार्यकर्ताओं को दें।

बीजेपी का नाम लिए बिना सोनिया गांधी ने कहा कि हम उन सभी विचारधाराओं और ताकतों का हमेशा मुकाबला करेंगे, जो भारत की एकता और अखंडता को चुनौती देती हैं, जो हमारे समाज का ध्रुवीकरण करना चाहते हैं और जो हमें विभाजित करना चाहते हैं। उन्होंने दावा किया कि अकेली कांग्रेस पार्टी भारत की एकता और अखंडता का मुख्य प्रतीक है। हम न सिर्फ भारत, बल्कि हम भारत के भावनात्मक एकता के लिए भी पूरी तरह प्रतिबद्ध हैं। भ्रष्टाचार का जिक्र करते हुए सोनिया ने कहा कि ये सभी स्तरों पर गहरे तक पैठ बना चुका है और इससे सभी वर्ग और आम समाज प्रभावित हो रहा है। एक पार्टी के रूप में हमें इसके खिलाफ प्रभावी ढंग से लड़ाई लड़नी है।

जयपुर घोषणा: राहुल गांधी के अगले १० साल के लिए काम




शेष नारायण सिंह 



जयपुर,20  जनवरी। कांग्रेस का जयपुर घोषणा पत्र जारी हो गया . कांग्रेस ने दावा किया है की इस घोषणापत्र में जो कुछ लिखा है वह उनकी पार्टी का भावी कार्यक्रम भी है . कांग्रेस में आज नयी शुरुआत हुयी क्योकि  कल कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने सोनिया गांधी के पुत्र राहुल गांधी को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाए जाने को मंजूरी दे दी थी और कांग्रेस में एक नयी लीडरशिप की बुनियाद रख दी गयी थी। राहुल गांधी अपने नेहरू परिवार से आने वाले कांग्रेस अध्यक्षों की पांचवीं पीढी के नौजवान हैं . 42 साल के राहुल गांधी ने कांग्रेस उपाध्यक्ष के रूप में काम शुरू कर दिया हैं . इसी उम्र में इनके  पिता जी के नाना जवाहर लाल नेहरू ने लाहौर में काग्रेस का अध्यक्ष पद हासिल कर लिया था। जब जवाहरलाल नेहरू ने लाहौर में कांग्रेस अध्यक्ष  का पद संभाला था तो देश की राजनीति में महात्मा गांधी का था। वहीं रावी नदी के किनारे देश ने जवाहरलाल नेहरू की अगुवाई  में पूर्ण स्वतंत्रता का लक्ष्य  निरधारित किया था। राहुल गांधी के उपाध्यक्ष बनाने के पहले भी कांग्रेस पार्टी में उपाध्यक्ष रह चुके हैं लेकिन उनको वह अधिकार नहीं मिले थे जो राहुल गांधी को मिल रहे हैं . आज  अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने जब उनकी तैनाती को मंजूरी दी तो सोनिया गांधी के चेहरे की प्रसन्नता बता रही थी कि  वे अपने बेटे की नयी ज़िम्मेदारी से बहुत खुश हैं।

 जयपुर घोषणा पत्र  जारी होने के साथ साथ राहुल गांधी को कांग्रेस पार्टी का एक तरह से सारा ही काम काज दे दिया  गया। जयपुर घोषणा पत्र में धर्म निरपेक्ष और प्रगतिशील ताक़तों से एकजुट होने की अपील की गयी है . और जो लोग समाज में ध्रवीकरण के ज़रिये दुशमनी पैदा करना चाहते हैं उनको शिकस्त देने की  बात की गयी है .यू पी ए  सरकार की आठ साल के एउप्लाब्धियों को लेकर वोट मांगने जाने के लिए तैयार कांग्रेस  पार्टी ने दावा किया है कि वह भ्रष्टाचार के खिलाफ जारी अपने संघर्ष  को जारी रखेगी।लोकपाल बिल के बारे में हुयी प्रगति  को पार्टी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी लड़ाई के उदाहरण के तौर पर पेश किया है .राजनेताओं और सरकारी  अफसरों के भ्रष्टाचार के खिलाफ ज़रूरी मुहिम चलाई जायेगी।

कांग्रेस पार्टी ने स्वीकार किया है कि अल्पसंख्यकों के अधिकार  अभी भी पूर्ण रूप से सुरक्षित नहीं हैं .इसके लिए सरकार से मांग भी कर डाली गयी है . जयपुर घोषणा पात्र ने अल्पसंख्यकों के लिए बनायी गयी सच्चर कमेटी की सिफारिशों को प्रासंगिक माना है अब कांग्रेस  प्रधान मंत्री के १५ सूत्री कार्यक्रम को लागू करने में सरकार को सहयोग करेगी.

पिछले दिनों  सडकों पर आ रहे नौजवानों के गुस्से को भी कांग्रेस ने पहचाना है . शहरी और ग्रामीण नौजवानों के सपनों की शिनाख्त करके उन्हने पूरा करने की दिशा में काम करने की बात की गयी है .पकिस्तान के बारे में कांग्रेस ने  दृढ रुख अपनाया है और तय किया  है कि देश की आतंरिक और बाह्य सुरक्षा को सुनिश्चित किया जाएगा और  आतंकवाद को किसी भी हालत में बर्दाश्त नहीं किया जाएगा .पाकिस्तान के बारे में सोनिया गांधी के भाषण में जिन  मानदंडों की बात की  गयी थी उसे जयपुर घोषणा पत्र  का हिस्सा बनाया गया है . अलगाव वादी ताक़तों और साम्प्रदायिक ताक़तों के खिलाफ जारी राजनीतिक प्रयास को और तेज़ किया जाएगा .और उन्हें राजनीतिक  स्तर  पर हल करने की योजना बनायी जायेगी .न्याय पालिका और  चुनाव प्रक्रिया में सुधार को  प्राथमिकता दी जायेगी क्योंकि इन  रास्तों से भ्रष्टाचार सबसे ज्यादा हो रहा है .. " आपका पैसा आपके हाथ " कार्यक्रम को भी कांग्रेस अपने कार्यक्रम के रूप  में पेश कर रही है और उसे लेकर उसके कार्यकर्ता अब जनता के बीच में जायेगें।

मूलभूत स्वास्थ और स्वच्छता  के कार्यक्रमों को भी प्रमुखता दी जायेगी . माओवादी आतंकवाद को राजनीतिक और प्रशासनिक स्तर  पर कमज़ोर  करने के  लिए कम किया जायेगा।असमानता को कम करके  रोज़गार के सृजन के साथ समावेशी विकास को सुनिश्चित करना सबसे बड़ी सामाजिक आर्थिक चुनौती है ./ साल २०२० तक महिलाओं और बच्चों को कुपोषण का शिकार न होने देने का भी संकाल्प उठाया गया है .घोषणा पत्र में किसानों के लिए भी कुछ विषय डाले गए हैं .किसानों की ज़मीन लेने के पुराने कानून को बदल कर उसे आधुनिक बनाने की बात की गयी है .खाद्य सुरक्षा को पक्का करना भी जयपुर घोषणा पत्र की एक खास बात है  भारतीयों में उद्यमिता के विकास को महत्व दिया जाएगा और कोशिश की जायेगी और पूंजी निवेश को प्रमुखता दी जायेगी. पूंजी देशी और विदेशी दोनों तरह की हो सकती है . हैंडलूम को विकसित करने की बात भी  की गयी है .पंचायती राज संस्थाओं , सरकारी स्कूलों और ग्रामीण नौजवानों के शैक्षिक विकास के लिए सरकारों की मदद के काम में  कांग्रेसी कार्यकर्ता भी  लगाए जायेगें .बुनियादी ढांचागत सुविधाओं को आर्थिक  विकास की बुनियाद माना गया है और उनके  विकास के लिये पार्टी हर प्रयास करेगी,संचार और सूचना के क्षेत्र में आई क्रान्ति को आम आदमी और अपनी पार्टी के हित में प्रयोग करने की भी कोशिश भी कांग्रेस पार्टी करेगी 
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महिलाओं के  सुरक्षा के मसले पर  सोनिया गांधी और अन्य नेता बहुत संतुष्ट नहीं है . जिस से भी बात की गयी सभी दिल्ली गैंग रेप की घटना  से विचलित नज़र आये .कांग्रेस ने २००२ में महिलाओं के सशक्तीकरण  के लिए एक कार्य योजना बनाई थी . अब उसे अपने कार्यक्रम में शामिल करके उस दिशा में आगे बढ़ने  का कार्यक्रम बना लिया  गया है .लड़कियों के लिए छात्रवृत्ति को बढ़ाया जाएगा.यौन अत्याचारों की परिभाषा के बारे में चल रही राष्ट्रीय  बहस में कांग्रेस ने अपने आपको जोड़ दिया है और तय किया है है कि जहां जहां कांग्रेस सरकारें हैं वहाँ पुलिस फ़ोर्स में ३० प्रतिशत  महिलाओं को भर्ती किया जाएगा. . महिलाओं के लिए एक अलग राष्ट्रीय बैंक की स्थापना की जायेगी जो महिलाओं के कार्यक्रमों को उसी तरह से समर्थन देगी जिस तरह से खेती के कार्यक्रमों को नाबार्ड बैंक देता है . १८ से ६० साल की आयु के बीच की निराश्रित, परित्यक्ता और विधवा महिलाओं को उचित पेंशन दी जायेगी लेकिन इसमें एक सवाल पूछा जा  रहा है कि  ६० साल से ऊपर आयु की महिलायें कहाँ जायेगीं . कांग्रेस पार्टी में अब ३० प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए रिज़र्व कर दी जायेगीं.

विदेश नीति में नेहरू की विदेश नीति के आधार पर दावा करते हुए दुनिया में हुए बदलाव और कोल्ड वार  की समाप्ति के हवाले से अमरीका परस्ती के ढर्रे  पर चलने के संकेत दिए गए हैं .संगठन के स्तर पर कुछ काम लीक से हटकर किये जायेगें . ब्लाक और जिला स्तर पर कमेटियों में उन्हीं लोगों को  स्थान दिया जायेगा जिन्होंने  पंचायत के स्तर पर कहीं चुनाव में सफलता पायी हो . इसी योजना के सहारे सभी वर्गों के लोगों को कांग्रेस में काम दिया जाएगा .बूथ और ब्लाक  स्तर पर भी कांग्रेस कमेटियों का गठन किया जायेगा .  

Saturday, January 19, 2013

सोनिया गांधी ने कहा कि पब्लिक के गुस्से को गंभीरता से लेना पडेगा



शेष नारायण सिंह  


जयपुर,१८ जनवरी .जयपुर में शुरू हुए कांग्रेस चिंतन शिविर में सोनिया  गांधी अपनी पार्टी के उन नेताओं को आड़े हाथों लिया जो यह कहना चाहते हैं कि किसी भी समस्या हल के लिए  कनट्रोल का तरीका सही है.  उन्होंने अपनी पार्टी के बड़े नेताओं को चेताया कि सार्वजनिक जीवन में अगर सभ्य और पारदर्शी आचरण न किया गया कि तो सूचना के अधिकार से लैस जनता सूचना क्रान्ति के सभी साधनों को अपनायेगी और अपना हक लेने से आम आदमी को कोई नहेने रोक सकता . सोनिया गंधे एके पूरे भाषण में आम आदमी को सही मायनों में फोकस में रखने का संदेश  नज़र आया  उन्होंने सुझाया कि कंट्रोल की मानसिकता से बाहर आना आज कांग्रेस की सबसे बड़ी ज़रूरत है. उन्होंने कहा कि रोज रोज के भ्रष्टाचार से जनता बहुत परेशान है और उसको दुरुस्त करना हमारी राष्ट्रीय जिम्मेदारी है .एक बात जो साफ़ नज़र आयी  वह थी राहुल गांधी की प्राथमिकता इस चिंतनशिविर के बाद लगभग औपचारिक रूप से स्थापित होने की संभावना बहुत ज्यादा बढ़ गयी है . आज  का सोनिया गांधी का भाषण इसलिए बी भी याद किया जाएगा कि उन्होंने विपक्ष पर बहुत करारा प्रहार नहीं किया और अपनी पार्टी के उन लोगों  को आगाह किया जो अपनी हर असफलता में विपक्ष की साज़िश देखने के बहाने तलाशते हैं .
सोनिया गांधी को इस बात पर बहुत रंज था कि एक समाज के रूप में हम  महिलाओं और अन्य कमज़ोर तबकों के प्रति इतने वहशी क्यों हैं .उन्होंने अपनी पार्टी वालों को चेताया कि सब को साथ लेकर चलने की जो बात कांग्रेस में की जाती है वह हमारे लिए चुनाव जीतने की रणनीति  नहीं  है . हम उसमें विश्वास करते हैं . उन्होने कांग्रेस के शीर्ष नेताओं को सलाह दी कि कुछ ऐसा प्रबंध किया जाए हमारी नीतियां विपक्ष की किसी बात के आधार पर न हों . जो कांग्रेस की मान्यताएं रही हैं वही राष्ट्र निर्माण की भी मान्यताएं हैं. सोनिया गांधी ने दलितों ,आदिवासियों अल्पसंख्यकों और महिलाओं के  प्रति राजनीतिक बिरादरी के लोगों को ज़िम्मेदार रवैय्या अपनाने को कहा .बाद में उन्होंने ओ बी सी का नाम भी इस सूची में जोड़ दिया .
महिलाओं के प्रति हो रहे अन्याय से सोनिया गांधी सबसे ज्यादा विचलित नज़र आयीं . उन्होंने कहा अकी उन्हने इस बात का बहुत दुःख और पीड़ा है कि बच्चियों के प्रति भेदभाव जारी है .महिलाओं पर अत्याचार शर्मनाक है और हमारे समाज की सामूहिक अंतरात्मा पर कक्लांक के सामान है .  विधावा के साथ पेश आने का हमारा तरीका  कन्या भ्रूण की ह्त्या और बच्चों की खरीद फरोख्त और बेख़ौफ़  यौन हिंसा के के खिलाफ समाज झकझोरने और आँखे खोलने की ज़रूरत है .उन्होंने यह भी ताकीद की कि यह काम महिला और्कान्ग्रेस या महिलओं के संगठनों का हे एनाहेने है यह पूरे देश का अकाम है  इसलिए हर कांग्रेसी को इस काम को  गंभीरता से लेना चाहिए .
उन्होंने कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को समझाया कि  कांग्रेस पार्टी हर गली मोहल्ले की पार्टी रही है लेकिन वहाँ पर पार्टी मज़बूत हो इसका तरीका इस चिंतन शिविर से मिलने वाली दिशा से तय होगा .उन्होंने कहा कि पार्टी को पुरानी गरिमा दिलवाने के लिए ज़रूरी है कि कांग्रेस गरीबी पर काबू पाए .देश की  अर्थव्यवस्था को बेहतर बनाएँ ,अपने सेकुलर मूल्यों को और गहरा  करें, लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूती दें और बाकी दुनिया से और सकारात्मक सम्बन्ध बनाएँ .उन्होंने पड़ोसी देश से शान्ति  की  ज़रूरत पर बहुत जोर दिया और कहा कि बात चीत के महत्व को कम नहीं किया जा सकता लेकिन यह भी कहा कि हमारी बातचीत सभ्य और स्वीकृत व्यवहार पर आधारित होनी चाहिए .हम आतंकवाद और सीमाओं पर खतरे से निपटने के लिए सावधानी रखेगें और अपनी सुरक्षा से किसी तरह का समझौता नहीं करेगें.
सोनिया गांधी ने संगठन के मुद्दे पर अपनी पार्टी के नेताओं की ज़बरदस्त क्लास ली. उन्होंने कहा कि  कांग्रेस एक अनुशासित पार्टी के रूप में काम नहीं कर रही है . न्होंने कहा कि गुटबाजी के चक्कर में हमें बहुत सारे अवसर गँवा दिए हैं  . कांग्रेस वालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि पार्टी की जीत होती है तो सब को लाभ मिलता है .सोशल मीडिया को काबू करने वालों को भी सोनिया गांधी ने आड़े हाथों लिया और  कहा कि भारत बदल रहा है .उन्होंने नौजवान साथियों से कहा कि हमारी जीवन शैली में जो भारी बदलाव आ रहे हैं उनसे वे परेशान होती हैं . उन्होंने कहा कि शादी और त्यौहार के समय फ़िज़ूल के दिखावे की संस्कृति से एक समाज के रूप में हमें बचना होगा . उन्होंने कहा कि आप लोग शादी व्याह में जो बेहिसाब खर्च करते हैं उसका पैसा कहाँ से आता है . उनके श्रोताओं में बड़ी संख्या में ऐसे नेता मौजूद तह जिन्होंने अपने बच्चों की शादियों में उल जलूल खर्च किया  है . सोनिया गांधी ने सीधा सवाल किया कि  इस शानो शौकत का पैसा कहाँ से आता है . ज़ाहिर है सोनिया गांधी नेताओं को रिश्वत की कल्चर के खिलाफ आगाह कर  रही थीं.
उन्होंने कहा कि नौजवानों में जो अशांति है वह इसलिए है कि नेताओं के आचरण के चलते उनका राजनीतिक संस्थाओं से विश्वास हट रहा है . राजनीतिक दलों से उम्मीदें बढ़ रही हैं .सोशल मीडिया और इंटरनेट के ज़रिये आज का नौजवान अपनी बात को दूर तक पंहुचा सकता है .यू पी ए ने सूचना का अधिकार क़ानून बनाया है. जाहिर है कि आपके काम पर सबकी नज़र हमेशा रहेगी . नेताओं से अपना हक मांगने के लिए भी सूचना क्रान्ति के हथियारों का इस्तेमाल हो रहा है .इसलिए पारदर्शिता अब बहुत ज़रूरी राजनीतिक आचरण हो गया है . सच्चाई और ईमानदारी  जैसे मूल्यों के बिना  काम नहीं चलने वाला वाला है .जनता रोज़मर्रा के भ्रष्टाचार से तंग है . यह उनका हक है कि वे अपने प्रतिनधियों से जवाब मांगें उन्होंने कहा कि राजनीतिक वर्ग को वह जवाब देना होगा यह हमारी भविष्य को मज़बूत बनाएगा. और समाज के रूप में हम आगे बढ़ सकेगें

जयपुर चिंतन शिविर नौजवानों को कर्त्तव्य और अधिकार की बात बतायी जा रही है




शेष नारायण सिंह 


आज़ादी के संघर्ष के मंच और आन्दोलन के रूप में कांग्रेस संगठन की जो स्थिति थी वह दुनिया से छुपी नहीं थी। कांग्रेस की सबसे बड़ी मजबूती  उसकी संगठनात्मक मजबूती थी। जवाहरलाल नेहरू के युग में कांग्रेस में आतंरिक लोकतंत्र उसका स्थायी भाव था . लेकिन 1969 में कांग्रेस के विघटन के बाद लोकतंत्र के क्षरण की प्रक्रिया शुरू हो गयी थी।  जिन लोगों ने आम कांग्रेसी के मर्जी के  खिलाफ नीलम संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया वे इतिहास के गर्त में चले गए।जिन लोगों पर जनता को भरोसा था वे ही  असली कांग्रेसजन कहलाये । आज़ादी के बाद के कांग्रेसजनों की पीढी  की  नेता, इंदिरा गांधी थीं .और जब 1971 का चुनाव उन्होंने भारी बहुमत से जीत लिया तो वे कांग्रेस की सबसे बड़ी नेता  बन गयीं . इंदिरा गांधी की इस उपलब्धि के बाद वे देश में एक नयी राजनीतिक संस्कृति शुरू कर सकती थीं . लेकिन दिल्ली के कुछ लोगों ने उनके छोटे बेटे  के कंधे  पर रख कर स्वार्थ की बंदूकें चलाना शुरू कर दिया . देश की राजनीति में यारबाजी का दौर शुरू हो गया और इंदिरा जी के जीवन के अंत आने तक वह एक ऐसी शक्ल अख्तियार कर चुका था जिसे दुबारा संभालने की ज़रुरत थी। जब सोनिया गांधी ने कांग्रेस का अध्यक्ष पद स्वीकार किया तो  कांग्रेस के पास केंद्र की सत्ता नहीं थी। उनके साथ दो तरह के लोग जुड़े . एक तो वे जो दिल्ली की काकटेल सर्किट वाले हैं और दुसरे वे जो साम्प्रदायिकता की राजनीति के विरोधी हैं . उनके कांग्रेस अध्यक्ष बनने के पहले कांग्रेस में साफ्ट हिंदुत्व और बाबरी  मस्जिद के ध्वंस का कलंक लग चुका था। पार्टी को संभाल पाना बहुत मुश्किल था। देश की  दूसरी सबसे बड़ी  पार्टी के बड़े नेता उन्हें एक मामूली नेता ही मानते थे . उन्हें अपने बराबर का नेता मानने को तैयार नहीं थे . इसीलिये जब वे लोकसभा का पहला चुनाव लड़ने गयीं तो उनके खिलाफ आन्ध्र प्रदेश के रेड्डी बंधुओं की आयरन ओर  की काली कमाई का पैसा लगा दिया गया और  बीजेपी की एक महिला नेता को वहां से चुनाव लड़ने भेज दिया  गया। यह अलग बात है कि सोनिया गांधी चुनाव जीतकर आ गयीं लेकिन उनके खिलाफ  ऐसा अभियान चलाया गया जिसको  कि  सभ्य किसी भी सूरत में नहीं कहा जा सकता है .इन्हीं हालात में उनके  नेतृत्व में कांग्रेस ने 2004 के लोक सभा चुनाव में इतनी सीटें हासिल कीं जिसके बाद  कांग्रेस की अगुवाई वाली एक गठबंधन सरकार बन गयी .
 
कांग्रेस की कमान संभालने के बाद सोनिया गांधी ने हताश पड़  चुके कांग्रेस वालों को फिर से सक्रिय करने की कोशिश की और 2004 आते आते सत्ता  उनकी पार्टी के पास आ गयी . मुख्य विपक्षी दल की हताशा उन दिनों देखने लायक थी। उनको प्रधान मंत्री पद की शपथ लेने से रोकने के लिए  बीजेपी के कुछ नेताओं से अपने सर मुंडवाने की योजना तक बना डाली। संतोष की बात यह है की सोनिया गांधी ने इन नेताओं को सर मुंडवाने से बचा लिया और डॉ मनमोहन सिंह  को कांग्रेस की तरफ से प्रधान मंत्री पद की शपथ दिला दी गयी।  संगठनात्मक रूप से लगभग शून्य हो चुकी कांग्रेस  को उन्होंने विचार धारा के स्तर  पर भी मजबूती देने की कोशिश शुरू कर दी। उसी कोशिश के  सिलसिले में उन्होंने चिंतन  शिविरों की  परम्परा डाली। पहला पंचमढी ,दूसरा शिमला  और अब तीसरा  जयपुर में हो रहा है .जयपुर के चिंतन शिविर में मूल रूप से आगामी लोक सभा चुनावों को ध्यान में रख कर रणनीति पर विचार किया जाएगा। आज़ादी की लड़ाई  के दौरान कांग्रेस के जो मुद्दे हुआ करते थे,  पिछले कुछ दशकों में कांग्रेस उनसे भटक गयी थी। अब एक बार उन्हीं समस्याओं के आस पास कांग्रेस  की राजनीतिक दिशा को ढालने के लिए जयपुर चिंतन शिविर में काम  किया जाएगा। 

जयपुर चिंतन शिविर में मूल रूप से पांच विषयों पर चर्चा होगी । यह विषय बहुत पहले तय कर दिए गए थे।  इन विषयों पर पार्टी के  शीर्ष नेताओं और कुछ नौजवान नेताओं के बीच में गहन चर्चा  होने की बात कही जा रही हैं .  जो पांच विषय चुने  गए हैं उनमें सामाजिक आर्थिक चुनौतियां, संगठन को ठीक करना, राजनीतिक प्रस्ताव , विदेश नीति से संबंधित ग्रुप और महिला सशक्तीकरण जैसे मुद्दे हैं . जयपुर में जो चर्चा होगी उसी के आधार पर आगामी  कार्यक्रम बनाया जाएगा  . अगले  लोक सभा चुनाव  का मैनिफेस्टो भी जयपुर चिंतन के आधार पर ही बनाया जाएगा  .  जयपुर चिंतन शिविर के बाद जो कुछ फैसले लिए जायेगें  उनको  जयपुर घोषणापत्र के नाम से एक दस्तावेज़ के रूप में संकलित किया जायेगा। यह कांग्रेस की भावी नीतियों को उसी तरह से प्रभावित करेगा जिस तरह से  यू पी ए की पहली सरकार के दौरान तैयार की गयी सच्चर कमेटी की रिपोर्ट ने प्रभावित किया था। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद यह साबित हो गया था  कि  मुसलमानों के  तुष्टीकरण की बोगी चलाने वाले कितने गलत थे . देश में बहुत सारे ऐसे सरकारी विभाग थे जहां एक भी मुसल्मान कर्मचारी नहीं था। शिक्षा के क्षेत्र में मुसलमान देश के दलितों से भी ज्यादा पिछड़े हुए थे . ज़ाहिर है सच्चर कमेटी  की रिपोर्ट ने देश के आर्थिक योजनाकारों को एक नया दृष्टिकोण अपनाने का मौक़ा दिया था। 

सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद   हे एप्रधन मंत्री का पंद्रह सूत्री कार्यक्रम आया था . इस कार्यक्रम को लागू करने के लिए एक नया अमन्त्रलाया बनाया गया . सच्चर कमेटी की रिपोर्ट  आने के तीन साल बाद तक ऐसा कोई ढांचा  नहीं  बन पाया था जिसकी  बिना पर कोई काम किया जा सके। अगस्त 2010 में कांग्रेस  महासचिव , राहुल गाँधी ने पार्टी के मंचों पर बहुत नाराज़गी दिखाई थी।  पता चला था कि जिन राज्यों में उनकी पार्टी की विरोधी सरकारें हैं ,वहां मुसलमानों के लिए केंद्र सरकार की ओर से चलाई गयी योजनाओं को ठीक से लागू नहीं किया जा रहा था।.  उत्तर प्रदेश में भी मुसलमानों की भलाई के लिए केंद्र से मंज़ूर रक़म का इस्तेमाल नहीं हो रहा था।.  प्रधान मंत्री की पन्द्रह सूत्री योजना को लागू नहीं किया जा रहा था। सरकार ने यह भी वादा किया था कि केंद्रीय अफसरों की मदद से पंद्रह सूत्री कार्यक्रम को लागू किया जाए  . लेकिन कुछ ख़ास हुआ नहीं . दर असल  पंद्रह सूत्री कार्यक्रम को लागू करने के लिए बनाए गए अल्पसंख्यक मामलों का जो मंत्रालय बनया गया था उसके दो शुरुआती मंत्रियों का मन अल्पसंख्यक मंत्रालय में लगा ही नहीं . नतीजा यह हुआ  कि  राहुल गांधी की  नाराज़गी के बावजूद भी काम कुछ ख़ास आगे नहीं बढ़ सका .

अब अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय को के। रहमान खान के रूप में एक ऐसे मंत्री मिले हैं जिन्होंने  प्रधानमंत्री से इस विभाग को माँगा था और अब दिन रात उसी काम में लगे रहते हैं .कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने एक ख़ास बातचीत में  बताया कि  जिन राज्यों में आर एस एस के प्रभाव वाली सरकारें हैं वहां मुसलमानों के  हित के बारे में चलाई जाने वाली किसी भी केंद्रीय योजना को सही तरीके से नहीं चलाया जा सकता। इस सम्बन्ध में गुजरात सरकार का उदाहरण दिया जा सकता है जहां के मुख्यमंत्री ने साफ़ कह दिया है की वे मैट्रिक तक के  अल्पसंख्यक छात्रों को मिलने वाले वजीफों की स्कीम  नहीं लागू करेगें . इसी तरह के कुछ और भी राज्य हैं .जयपुर चिंतन शिविर में इस बात पर भी विचार किया जा रहा है की जिस तरह से बहुत सारी अन्य स्कीमों का धन लाभार्थी के खाते में सीधे ट्रांसफर  करने की बात चल रही है . उसी तरह  अल्पसंख्यकों के लिए जो भी केंद्रीय स्कीमें हैं उन्हें केंद्र  आपका पैसा आपके हाथ योजना के माध्यम से सीधे उनके बैंक खाते में पंहुचा देने के बारे में कोई फैसला ले ले .

 प्रधान मंत्री के १५ सूत्रीय कार्यक्रम में से एक है 'अल्पसंख्यकों के लिए बहु आयामी विकास कार्यक्रम.' इस मद में केंद्र सरकार की तरफ से अल्पसंख्यकों के विकास के लिए आर्थिक पैकेज की व्यवस्था की गयी है . यह कार्यक्रम केंद्र सरकार की तरफ से चुने गए ९० जिलों में शुरू किया गया है .कांग्रेस महासचिव् दिग्विजय सिंह का कहना है की जयपुर में इस बात पर भी विचार किया जा सकता है की अल्पसंख्यकों के लाभ की योजनाओं के लाभार्थियों के बैंक खातों में  उनको जो रक़म मिलनी है  वह सीधे ट्रांसफर कर दी जाए .  एक प्रस्ताव यह भी है की अल्पसंख्यक आबादी वाले जिलों के साथ साथ अल्पसंख्यक आबादी  वाले  प्रखंड और गाँव भी चिन्हित करने की योजना बनायी जा सके . इस बात की संभावना से  इनकार नहीं किया जा सकता की ऐसी किसी बात की शुरुआत होने पर केंद्र राज्य संबंधों के आयामों की चर्चा भी होगी लेकिन यह ऐसी समस्या है जिसको राजनीतिक तौर पर हल किया जा सकता है। बहर हाल अभी यह  बात केवल आइडिया के स्तर  पर है . हालांकि वजीफे आदि तो सीधे ट्रांसफर स्कीम में आ चुके हैं लेकिन अल्पसंख्यकों के आर्थिक पॅकेज को इसमें शामिल कर लेने से बहुत फर्क पड़  जाएगा। ऐसी हालत में लगता है कि जयपुर चिंतन शिविर में कांग्रेस अपना  भविष्य तो ठीक करने  की कोशिश करेगी ही, अल्पसंख्यकों को भी कुछ लाभ मिल सकता है 

Saturday, January 12, 2013

अकबरुद्दीन ओवैसी को देशद्रोह की सज़ा मिलनी चाहिए





शेष नारायण सिंह   

आंध्र प्रदेश के एम एल ए अकबरुद्दीन ओवैसी को आखिर पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया .उसे बहुत पहले  गिरफ्तार हो जाना चाहिए था लेकिन आन्ध्र प्रदेश की कांग्रेस सरकार उसको पकड़ने या उस पर आपराधिक मुक़दमा  चलाने से बच रही थी. इसका सीधा कारण  यह लगता है कि कांग्रेस को अकबरुद्दीन ओवैसी की पार्टी का केन्द्र और राज्य में समर्थन मिलता है .जिन लोगों ने अकबरुद्दीन ओवैसी के भाषण सुने हैं वे उसे पागल कहने में संकोच करेगें . वह पागलपन की हदें भी पार कर गया है .अब तक होता यह रहा है कि जिस तरह के भाषण यह अकबरुदीन देता  है वे पब्लिक डोमेन में नहीं आते थे . नतीजा यह होता था कि आम तौर पर लोगों तक बात पंहुचती नहीं थी लेकिन अब सोशल मीडिया के प्रचार प्रसार के कारण हर बात सब तक पंहुच रही है. यू ट्यूब पर जिसने भी उसके भाषणों को सुना है वह उसे  भारत का दुश्मन ही मानेगा . अपने ताज़ा भाषण में इस अकबरुद्दीन ओवैसी ने राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक आचरण की सभी सीमाएं लांघ दी हैं जब यह हिंदू देवी  देवताओं  और भारतीय  राष्ट्र के खिलाफ अभियान छेड़ता है . अदालतों के आदेश के बाद पुलिस ने उसके खिलाफ ताजीरात हिंद ( आईपीसी ) की धारा 153ए (दो समुदायों के बीच धर्मभाषावंश और जन्म स्थाने के आधार पर दुश्मनी पैदा करना। जो सद्भाव के कार्य में बाधा है), 295ए (किसी के धर्म और धार्मिक विश्वास के अपमान के द्वारा किसी भी वर्ग के आक्रोश व धार्मिक भावनाओं को जानबूझ कर भड़काना) और धारा 121 (भारत सरकार के खिलाफ युद्ध छोड़ना या युद्ध छेड़ने का प्रयास या युद्ध के लिए उकसाने का प्रयास) के तहत मुक़दमा दर्ज किया है . उसके खिलाफ मुक़दमा दर्ज करके कार्रवाई की जानी चाहिए और उसको ऐसी सज़ा दी जानी चाहिए जिस से आने वाले वक़्त में कोई भी सिरफिरा यह हिम्मत न कर सके कि वह इस तरह से भारत राष्ट्र के खिलाफ कोई भी गैर जिम्मेदार बयान देकर बच सकता  है.

अकबरुद्दीन के गैर ज़िम्मेदार भाषण की बातें गिनाकर उस जैसे आदमी को किसी तरह का सम्मान देने की  ज़रूरत नहीं है लेकिन इतना पक्का है कि यह आदमी गरीब और अनपढ़ मुसलमानों का समर्थन लेने के लिए के लिए धर्म का इस्तेमाल करता है और धर्म का इस्तेमाल करते हुए आगे बढ़ जाता है और अन्य धर्मों का अपमान करने लगता है . उसके बाद अपनी रौ में वह आगे बढ़ जाता है और राष्ट्र के खिलाफ ज़हर उगलने लगता है . सरकार का कर्त्तव्य था कि इसके खिलाफ आज के कई साल पहले कानून के हिसाब से कार्रवाई की जाती और इसे इसकी औकात बता दी जाती लेकिन सरकार ने अपना काम नहीं किया और इसको लगा कि यह कुछ भी करके पार पा जाएगा . नतीजा यह  हुआ कि ज़हर फ़ैलाने का इसका  काम चलता  रहा. अकबरुद्दीन ओवैसी के भाषण को सुनकर कोई भी यह बता देगा कि यह पूरी तरह से डरा हुआ इंसान है . वह बात तो उसकी गिरफ्तारी के बाद साबित भी हो गयी जब उसने गिरफ्तारी से बचने के लिए बीमारी का बहाना बनाया और अपने जाहिल समर्थकों को तोड़ फोड के लिए उकसाया . हाँ सरकारों  और राजनीतिक पार्टियों का रवैया गैर ज़िम्मेदार  रहा . जहां कांग्रेस उसे वोट बैंक की राजनीति का हथियार मानती रही वहीं बीजेपी उसको मुस्लिम तोगडिया मानकर उस पर हमले करती रही . दोनों ही बातें गलत हैं .  इस देश का मुसलमान आम तौर पर अकबरुद्दीन जैसे पागल के कहने पर वोट नहीं देता . जहां तक हैदराबाद के कुछ इलाकों का सवाल है , वहाँ पर अकबरुद्दीन की तीन पीढ़ियों ने मुसलमानों के एक बड़े वर्ग को शिक्षित नहीं होने दिया है ,उनको पुरातनपंथी तरीके से सोचने को मजबूर कर दिया है और आज वे लोग अकबरुद्दीन के परिवार के आगे नहीं सोच पाते .अकबरुद्दीन ओवैसी ने जिन्दगी में कुछ  भी हासिल नहीं किया . अपने सांसद  पिता के प्रभाव के तहत वह  शहर के कुछ स्कूलों में पढ़ने के बाद डाकटरी की पढाई के लिए गुलबर्गा गया था लेकिन दो साल के अंदर  ही वहाँ से भाग खड़ा हुआ और तब से अब तक हैदराबाद शहर में बदमाशी और प्रापर्टी की हेराफेरी का धंधा करता है . ज़ाहिर है उस से किसी जिम्मेदार आचरण की उम्मीद नहीं की जा सकती है .सरकार को चाहिए था कि उसको उसकी सही जगह यानी जेल में बंद रखते  लेकिन ऐसा नहीं हुआ  क्योंकि सरकार भी हैदराबाद के पुराने शहर में रहने वाले लोगों  की सही देखभाल नहीं की है और उनको आधुनिक शिक्षा  नहीं दी है  . नतीजा  यह है कि अकबरुद्दीन आज उन लोगों की जहालत को कवर बनाकर राजनीति कर  रहा है और देश किंकर्तव्य विमूढ़ होकर देख रहा है .  

अपने राष्ट्र के लिए संतोष की जो बात है वह यह है  कि अकबरुद्दीन ओवैसी के ज़हरीले और भारत विरोधी भाषण के पब्लिक डोमेन में  आने के बाद बुद्धिजीवियों के एक  बहुत बड़े वर्ग ने उसकी निंदा की . अकबरुद्दीन ने अपने ताज़ा भाषण में हिन्दुस्तान के भविष्य को चुनौती  दी है और धर्म निरपेक्ष बिरादरी के एक बड़े वर्ग के लोग उसकी तुलना प्रवीण तोगडिया या नरेंद्र मोदी से कर रहे हैं .  मोदी के खिलाफ गुजरात में अभियान चला रही शबनम हाशमी ने अकबरुद्दीन ओवैसी के खिलाफ दिल्ली  के किसी थाने  में रिपोट दर्ज करवा दी है और उसके खिलाफ मुक़दमे की तैयारी कर रही हैं. उनके अलावा  जामिया मिलिया के  वाइस चांसलर नजीब जंग और असगर अली इंजीनियर ने भी  इस अकबरुद्दीन ओवैसी की निंदा की हो . मुसलमानों के एक बड़े वर्ग के लोग इस ओवैसी के खिलाफ लामबंद हो रहे हैं .लेकिन बहुत सारे लोग यह मांग करते पाए जा रहे हैं कि अगर तोगडिया पर कार्रवाई नहीं की जा रही  है तो अकबरुद्दीन पर क्यों कार्रवाई की जाय . जबकि सच्चाई यह है कि तोगडिया के हर बयान के खिलाफ इस देश  की सेकुलर बिरादरी के लोग ऐलानियाँ हमला बोलते हैं वह चाहे जिस मंच से  मुसलमानों के खिलाफ धार्मिक बयान दे . लेकिन अकबरुद्दीन ने तो हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को भारी ठेस पंहुचाया है , भगवान राम के लिए गाली की भाषा का इस्तेमाल किया है और उनकी माँ कौशल्या के लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जिसे कभी भी माफ नहीं किया जा सकता . उसने इस तरह की बात की है जैसे हिन्दुस्तान केवल हिंदुओं का है और हिंदुओं के हवाले से उसने हिन्दुस्तान की शान में गुस्ताखी और बदतमीजी  की है .उसने  भारत की हैसियत को चैलेंज किया है . ज़रूरी यह था कि भारत सरकार या आंध्र प्रदेश  की सरकार ने उसको उसकी औकात बता दी होती लेकिन ऐसा नहीं हुआ . १९४७ में जब  भारत आज़ाद हुआ  तो इस अकबरुद्दीन की पार्टी,इत्तेहादुल मुसलमीन  का मुखिया एक कासिम रिजवी हुआ करता था .कुख्यात रजाकार, इसी संगठन के मातहत काम करते थे . कासिम  रिज़वी ने तिकड़म करके निजाम के दीवान ,नवाब छतारी की छुट्टी करवा दी और उनकी जगह पर मीर  लायक  अली नाम के एक व्यापारी   को तैनात करवा दिया . बस इसी फैसले के बाद निजाम की मुसीबतों  का सिलसिला शुरू हुआ जो बहुत बाद तक चला...मीर लायकअली हैदराबाद  के  थे ,मुहम्मद अली  जिन्ना के कृपापात्र थे और पाकिस्तान की तरफ से संयुक्तराष्ट्र जाने वाले प्रतिनिधि मंडल के सदस्य रह चुके थे... इसके बाद हैदराबाद में  रिज़वी की तूती बोलने लगी थी  .निजाम के प्रतिनिधि के रूप में  उसने दिल्ली की यात्रा भी की. जब उसकी मुलाक़ात सरदार पटेल से हुई तो वह बहुत ही ऊंची किस्म की डींग मार रहा था. उसने सरदार पटेल से कहा कि उसके साथी अपना मकसद हासिल करने के लिए अंत तक लड़ेंगें .ठीक इसी अकबरुद्दीन की तरह जिसके जवाब में सरदार पटेल ने कहा कि अगर आप आत्महत्या करना चाहते हैं तो आपको कोई  कैसे रोक सकता है .अपनी  बीमारी  के बावजूद  सरदार  पटेल  ने बातचीत  की और साफ़  कह  दिया  कि यह रिज़वी अगर   फ़ौरन  काबू  में न  किया गया  तो  निजाम और हैदराबाद के लिए  बहुत  ही मुश्किल  पेश  आ  सकती  है . आज भी ज़रूरत इस बात की है कि सरदार पटेल की तरह की मजबूती सरकार दिखाए और इस अकबरुद्दीन को उसकी औकात बतायी जाए जैसा कि सरदार पटेल ने इसके पूर्वज कासिम रिजवी को बतायी थी .

यह अकबरुद्दीन ओवैसी  किसी भी सूरत में मुसलमानों का नुमाइंदा नहीं  हो सकता . अगर यह  मुसलमानों का  नुमाइंदा मान लिया  गया तो बहुत बुरा होगा क्योंकि इस देश ने जिन मुसलमानों को अपना नुमाइंदा माना है वे अलग किस्म के लोग होते हैं. मुसलमानों ने कभी भी भारत विरोधियों को अपना नेता नहीं माना . मुसलमानो के बड़े बुद्धिजीवियों ने भी हमेशा अपने भारत की पक्षधरता दिखाई 1930 में जब इलाहाबाद में संपन्न हुए मुस्लिम लीग के सम्मेलन में डा. मुहम्मद इकबाल ने अलग मुस्लिम राज्य की बात की तो दारुल उलूम के विख्यात कानूनविद मौलाना हुसैन अहमद मदनी ने उसकी मुखालिफत की थी.1857 में आज़ादी की लड़ाई में मुसलमान , हाजी इमादुल्ला के नेतृत्व में इकट्ठा हुए थे . हाजी इमादुल्ला तो 1857 में मक्का चले गए थे. उनके दो प्रमुख अनुयायियों मौलाना मुहम्मद कासिम नानौतवी और मौलाना रशीद अहमद गंगोही ने देवबंद में दारुल उलूम की स्थापना करने वालों की अगुवाई की थी . जब 1885 में कांग्रेस की स्थापना हुई तो दारुल उलूम के प्रमुख मौलाना रशीद अहमद गंगोही थे। उन्होंने फतवा दिया कि शाह अब्दुल अज़ीज़ का फतवा है कि भारत दारुल हर्ब है। इसलिए मुसलमानों का फर्ज है कि अंग्रेजों को भारत से निकाल बाहर करें।  उनकी प्रेरणा से बड़ी संख्या में मुसलमानों ने कांग्रेस की सदस्यता ली और आजादी की लड़ाई में शामिल हो गये।

आज़ादी की इसी लड़ाई के बाद जो भारत राष्ट्र बना है उसको चुनौती देने वाले इस अकबरुद्दीन जैसे कायर के खिलाफ सबसे पहले आवाज़ मुसलमानों की तरफ से उठनी चाहिए और अगर ऐसा न हुआ तो उन लोगों के लिए बहुत मुश्किल पेश आयेगी जो  इस देश और इसकी धर्मनिरपेक्षता से बेपनाह मुहब्बत करते हैं .

Sunday, January 6, 2013

बलराज साहनी और मंटो ने इंसानी तहजीब को दिशा दी




शेष नारायण सिंह

24 साल पहले कुछ राजनीतिक गुंडों ने दिल्ली के कलाकार, सफ़दर हाशमी को बहुत  ही क्रूर तरीके से मार  डाला था। सफ़दर हाशमी पर हमला उस दिन हुआ जब वे मजदूरों के एक इलाके में नुक्कड़ नाटक प्रस्तुत कर रहे थे .बाद में उनके साथियों ने राजनीतिक गुंडई को चुनौती दी और उसी जगह पर जाकर सफ़दर के अधूरे नाटक का मंचन किया . 1 जनवरी  1989 के दिन सफ़दर हाशमी पर जानलेवा हमला हुआ था. उनकी याद में  सफ़दर हाशमी मेमोरियल  ट्रस्ट बनाया  गया .इसी ट्रस्ट का नाम सहमत है .सफ़दर की शहादत के एक साल बाद 1 जनवरी 1990 के दिन उनके साथी और देश भर के कलाकार, साहित्यकार,संगीतकार और संस्कृति से जुड़े सभी पक्षों के प्रगतिशील लोग इकठ्ठा हुए और  दिल्ली के मंडी हाउस इलाके में साहित्य और संस्कृति का एक जश्न मनाया . उसके बाद हर साल सफ़दर की याद में सहमत के तत्वावधान में दिल्ली में भारतीय उप महाद्वीप के बुद्दिजीवियों और कलाकारों का मेला लगता है और अवाम की अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार का उत्सव मनाया जाता है . इस उत्सव में पिछले 24 वर्षों से प्रगतिशील कलाकार और संस्कृतिकर्मी अपने को सम्बद्ध पाता है .

इस साल सहमत ने 1 जनवरी का कार्यक्रम जन-कलाकार बलराज साहनी और सआदत हसन मंटो की याद को समर्पित किया . बलराज साहनी और मंटो का ज़िक्र किये बिना बीसवीं सदी के जनवादी आन्दोलन के बारे में बात पूरी नहीं की जा सकती है .बलराज साहनी ने इस देश को गरम हवा जैसी फिल्म दी .कहते हैं कि एम एस सत्थ्यूके निर्देशन में बनी फिल्म ,गरम हवा में बंटवारे के दौर के असली दर्द को जिस बारीकी से रेखांकित किया गया वह वस्तुवादी कलारूप का ऊंचे दर्जे का उदाहरण है . बलराज साहनी को उनकी फिल्मों के कारण आमतौर पर एक ऐसे कलाकार के रूप में जाना जाता है जिनका फिल्मों के बाहर की दुनिया से बहुत वास्ता नहीं था . लेकिन यह बिलकुल अधूरी सच्चाई है . बलराज साहनी बेशक बहुत बड़े फिल्म अभिनेता थे लेकिन एक बुद्धिजीवी के रूप में भी उनका स्तर बहुत ऊंचा है . बलराज साहनी ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का पहला कन्वोकेशन भाषण दिया था। बाद के वर्षों में विश्वविद्यालय में दाखिला लेने वाले छात्रों को सीनियर छात्रों की ओर से उस भाषण की साइक्लोस्टाइल कापी दी जाती थी . बलराज साहनी का वह भाषण शिक्षा की दुनिया में संस्कृति के सकारात्मक हस्तक्षेप की मिसाल के रूप में देखा जाता है .

बलराज साहनी की मौत के बाद महान पत्रकार , फिल्मकार और बुद्धिजीवी  ख्वाजा अहमद अब्बास ने उनकी याद में एक मज़मून लिखा था जिसकी कुछ पंक्तियाँ शामिल किये बिना मेरा यह मज़मून अधूरा रह जाएगा। ख्वाजा साहेब ने लिखा था  की बलराज साहनी ने अपनी जिंदगी के बेहतरीन साल, भारतीय रंगमंच तथा सिनेमा को घनघोर व्यापारिकता के दमघोंटू शिकंजे से बचाने के लिए और आम जन के जीवन के साथ उनके मूल, जीवनदायी रिश्ते फिर से कायम करने के लिए समर्पित किए थे।
बहुत से लोग इस पर हैरानी जताते थे कि बलराज साहनी  कितनी सहजता और आसानी से आम जन के बीच से विभिन्न पात्रों को मंच पर या पर्दे पर प्रस्तुत कर गए हैं, चाहे वह धरती के लाल का कंगाल हो गए किसान का बेटा हो या हम लोग का कुंठित तथा गुस्सैल नौजवान; चाहे वह दो बीघा जमीन का हाथ रिक्शा खींचने वाला मजबूर इंसान हो या काबुलीवाला का पठान मेवा बेचनेवाला या फिर इप्टा के नाटक "आखिरी शमा" में मिर्जा गालिब का बौद्धिक  रूपांतरण ही क्यों न हो। बलराज साहनी कोई यथार्थ से कटे हुए बुद्धिजीवी या  कलाकार नहीं थे। आम आदमी से उनका गहरा परिचय स्वतंत्रता के लिए तथा सामाजिक न्याय के लिए जनता के संघर्षों में उनकी हिस्सेदारी से निकला था। उन्होंने जुलूसों में, जनसभाओं में तथा ट्रेड यूनियन गतिविधियों में शामिल होकर और पुलिस की नृशंस लाठियों और गोलियां उगलती बंदूकों का सामना करते हुए यह भागीदारी की थी। गोर्की की तरह अगर जिंदगी उनके लिए एक विशाल विश्वविद्यालय थी, तो जेलों ने जीवन व जनता के इस चिरंतन अध्येता, बलराज साहनी के लिए स्नातकोत्तर प्रशिक्षण का काम किया था।

इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन, जिसे इप्टा के नाम से ही ज्यादा जाना जाता है, का जन्म दूसरे विश्व युद्ध तथा बंगाल के भीषण अकाल के बीच हुआ था और बलराज साहनी इसके पहले कार्यकर्ताओं में से थे। एक अभिनेता की हैसियत से भी और एक निदेशक की हैसियत से भी, उनका इप्टा के खजाने में शानदार योगदान रहा था। सब से बढक़र वह एक संगठनकर्ता थे। किसी भी मुकाम पर इप्टा अपने नाटकों के जरिए जिस भी लक्ष्य के लिए अपना जोर लगा रहा होता था, चाहे वह फासीविरोधी जनयुद्ध हो या नृशंस दंगों की पृष्ठïभूमि में हिंदू-मुस्लिम एकता का सवाल हो, वह चाहे  अफ्रीकी जनगण की मुक्ति हो या फिर साम्राज्यवाद के खिलाफ वियतनाम का युद्ध , बलराज साहनी हमेशा सभी के मन में उस लक्ष्य के प्रति हार्दिकता व गहरी भावना जगाते थे। काबुलीवाल फिल्म में बलराज साहनी ने जिस तरह से ऐ मेरे प्यारे वतन का सीन अभिनीत किया था वह आज भी हर उस आदमी को अपने वतन की याद दिलाता है जो अपने घर से दूर है . हालांकि यह गाना अफगानिस्तान छोड़कर आये एक मेवा बेचने वाले की टीस थी।

मंटो के बारे में  उनके जन्मशती के हवाले से पिछले एक साल से बहुत चर्चा हुई है . इस अवसर पर सहमत ने एक किताब भी प्रकाशित की . जनवादी लेखक और पत्रकार राजेन्द्र शर्मा ने इस किताब का सम्पादान किया है . किताब की भूमिका में उन्होंने मंटो के होने का अर्थ समझाने की  कोशिश की है . वे मंटो को भारतीय और  हिंदी पाठकों के  सामने बहुत ही बेबाक तरीके से प्रस्तुत करते हैं .  राजेन्द्र शर्मा ने लिखा  है  कि 1931 में यानी उन्नीस बरस की उम्र में जलियांवाला बाग त्रासदी पर पहली कहानी ‘तमाशा’ से शुरू करने वाले मंटो ने, मुश्किल से बाईस साल के अपने लेखकीय जीवन में इतना लिखा, गद्य की इतनी विधाओं में लिखा और इतने ऊंचे दर्जे का लिखा कि  मंटो की चमक  सबसे अलग  दिखाई देती है। मुश्किल से बाईस साल में बाईस कहानी संग्रह (बाईस दर्जन से ज्यादा कहानियां), एक उपन्यास, पांच रेडियो नाटक संग्रह, तीन लेख संग्रह, दो निजी खाकों के संकलन इतना सब कोई जुनूनी ही रच सकता था।  मंटो के देश के विभाजन के बाद पाकिस्तान में लाहौर में जा बसने के ‘कारणों’ और ‘संदेशों’ पर तो बहस हो सकती है और यह बहस शायद कभी खत्म भी न हो, पर इसमें बहस की कोई गुंजाइश नहीं है कि यह फैसला, व्यक्ति सआदत हसन को बहुत-बहुत भारी पड़ा। 

मंटो को अपने ‘दूसरे वतन’ बंबई से इतनी मोहब्बत थी कि वह बंबई छूटने के बाद भी खुद को ‘चलता-फिरता बंबई’ कहते थे.उस बंबई में उसने ‘चंद रुपयों से लेकर हजारों और लाखों कमाए और खर्च किए’ थे। दूसरी तरफ लाहौर में डेरा डालने के साढ़े चार बरस बाद भी मंटो को यह लिखना पड़ रहा था कि, ‘‘दिन रात मशक़्क़त के बाद मुश्किल से इतना कमाता हूं जो मेरी रोजमर्रा की जरूरियात के लिए पूरा हो सके। ये तकलीफदेह एहसास हर वक्त मुझे दीमक की तरह चाटता रहता है कि अगर आज मैंने आंखें मींच लीं तो मेरी बीवी और तीन कमसिन बच्चियों की देखभाल कौन करेगा।’’ फिर भी, जो चीज मंटो को खाए जा रही थी, वह न उसे पाकिस्तान में मिला सलूक था और न छूटे हुए पहले और दूसरे ‘वतनों’ की याद। 

मंटो विभाजन की  की विभीषिका को कभी स्वीकार  नहीं कर पाए . विभाजन का मंटो पर क्या और कैसा असर हुआ था, इसे समझने के लिए शायद विभाजन पर मंटो की कहानियां ही सबसे भरोसेमंद गवाह हैं .। फिर भी विभाजन के साढ़े चार साल बाद मंटो का यह लिखना एक महत्वपूर्ण संकेत है कि, ‘‘मुल्क के बंटवारे से जो इंकलाब बरपा हुआ, उससे मैं एक अर्से तक बागी रहा और अब भी हूं।’’ बेशक, उसी टिप्पणी में मंटो यह भी कहते हैं कि, ‘‘लेकिन बाद में उस खौफनाक हकीकत को मैंने तस्लीम कर लिया’’। लेकिन, मंटो का इसे तस्लीम करना, इस खौफनाक हकीकत को स्वीकार करने की जगह, उसे शिव के हालाहल पान की तरह, अपने भीतर उतार लेना ही ज्यादा लगता है। अचरज नहीं कि मंटो ‘‘तस्लीम करने’’ के दावे के फौरन बाद, उसी सांस में अपनी स्याह हाशिए के बहाने से, जो ‘टोबा टेक सिंह’ की ही तरह, विभाजन की त्रासदी का स्तब्धकारी दस्तावेज है, विभाजन की खौफनाक हकीकत के साथ अपने खास मंटोआई सलूक की अनोखी विशिष्टïता की ओर इशारा करता है:

बहरहाल, विभाजन की विभीषिका को देखने का मंटो का यह खास मुकाम, दो परस्पर जुड़े हुए काम और करता है। पहला, यह मंटो को विभाजन, उससे जुड़ी-चरम अमानवीयता और खून-खराबे को एक तिरछे कोण से देखने और इस तरह इस अमानवीयता के भीतर झांककर, सबसे बढक़र उसकी निरर्थकता को देखने और बहुत ही ठंडे तरीके से तथा मारक ढंग से दिखाने का मौका देता है। ‘टोबा टेक सिंह’ से लेकर, जिसे सहज ही भारतीय उपमहाद्वीप के विभाजन के सबसे बड़े क्लासिक का दर्जा दिया जा सकता है, ‘खोल दो’ या स्याह हाशिए की पांच-सात वाक्यांशों की कहानी ‘मिस्टेक’ तक, विभाजन से अपेक्षाकृत प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी मंटो की अधिकांश रचनाएं, विडंबना और व्यंग्य को अपना मुख्य हथियार यूं ही नहीं बनाती हैं। मंटो सबसे बढक़र इन्हीं हथियारों से विभाजन की सचाई की भयावहता और उसकी सम्पूर्ण निरर्थकता को, एक दूसरे की पृष्ठïभूमि में रखते हैं और इस तरह इसकी भयावहता और निरर्थकता, दोनों को उस तरह रौशन करते हैं, जैसे हिंदी-उर्दू-पंजाबी में दूसरा कोई लेखक नहीं कर पाया है। 
वास्तव में मंटो विभाजन और उसके साथ जुड़ी विभीषिका को, उसकी निरर्थकता तथा भीषणता के अर्थ में ही ‘पागलपन’ के रूपक के जरिए नहीं देखता है बल्कि इस अर्थ में भी पागलपन के रूप में देखते हैं  कि यह पागलपन भी, पागल को इस तरह पूरी तरह नहीं भर सकता है कि वह शुद्ध पागल ही रह जाए और दूसरे किसी भाव की उसके अंदर गुंजाइश ही न बचे। मंटो इस पागलपन को पहचानता है, तो यह भी पहचानता है कि यह पागलपन भी कोई हमेशा बना नहीं रह सकता है। ‘यज़ीद’ इस पागलपन के नशे के धीरे-धीरे टूटने की ही कहानी है। वास्तव में यहां मंटो की सांप्रदायिकता और विभाजन की भी आलोचना, कहीं ज्यादा वास्तविक और मानव-केंद्रित लगती है। 
यह तो निर्विवाद है कि मंटो विभाजन के, हिंदी-उर्दू-पंजाबी के क्षेत्र के सबसे बड़े और सबसे ‘विश्वसनीय गवाह’ हैं। उन्होंने इस त्रासदी को गहरे अर्थों में जिया था और एक अर्थ में अपनी जान से इस गवाही की कीमत चुकायी। हिंदी के लिए, पंजाब से जुड़े या मुस्लिम लेखकों को छोड़ दें तो, विभाजन की यह त्रासदी शायद कभी घटी ही नहीं थी। ऐसा  आबादी की अदला-बदली में हिंदी क्षेत्र में भारी उथल-पुथल होने के बावजूद है। ऐसे में हिंदी के लिए तो विभाजन की त्रासदी का याद दिलाया जाना ही काफी है। फिर भी, मंटो का लेखकीय योगदान, विभाजन की त्रासदी की गवाही तक ही सीमित नहीं है। उल्टे, विभाजन की त्रासदी की उसकी गवाही भी, इंसानियत में और इसीलिए इंसान की बराबरी तथा स्वतंत्रता में, मंटो की गहरी आस्था का ही हिस्सा है। 

हर साल की तरह इस साल भी सहमत ने एक ऐसा आयोजन किया जिसे उसमें शामिल लोग हमेशा याद रखेगें.