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Sunday, January 6, 2013

बलराज साहनी और मंटो ने इंसानी तहजीब को दिशा दी




शेष नारायण सिंह

24 साल पहले कुछ राजनीतिक गुंडों ने दिल्ली के कलाकार, सफ़दर हाशमी को बहुत  ही क्रूर तरीके से मार  डाला था। सफ़दर हाशमी पर हमला उस दिन हुआ जब वे मजदूरों के एक इलाके में नुक्कड़ नाटक प्रस्तुत कर रहे थे .बाद में उनके साथियों ने राजनीतिक गुंडई को चुनौती दी और उसी जगह पर जाकर सफ़दर के अधूरे नाटक का मंचन किया . 1 जनवरी  1989 के दिन सफ़दर हाशमी पर जानलेवा हमला हुआ था. उनकी याद में  सफ़दर हाशमी मेमोरियल  ट्रस्ट बनाया  गया .इसी ट्रस्ट का नाम सहमत है .सफ़दर की शहादत के एक साल बाद 1 जनवरी 1990 के दिन उनके साथी और देश भर के कलाकार, साहित्यकार,संगीतकार और संस्कृति से जुड़े सभी पक्षों के प्रगतिशील लोग इकठ्ठा हुए और  दिल्ली के मंडी हाउस इलाके में साहित्य और संस्कृति का एक जश्न मनाया . उसके बाद हर साल सफ़दर की याद में सहमत के तत्वावधान में दिल्ली में भारतीय उप महाद्वीप के बुद्दिजीवियों और कलाकारों का मेला लगता है और अवाम की अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार का उत्सव मनाया जाता है . इस उत्सव में पिछले 24 वर्षों से प्रगतिशील कलाकार और संस्कृतिकर्मी अपने को सम्बद्ध पाता है .

इस साल सहमत ने 1 जनवरी का कार्यक्रम जन-कलाकार बलराज साहनी और सआदत हसन मंटो की याद को समर्पित किया . बलराज साहनी और मंटो का ज़िक्र किये बिना बीसवीं सदी के जनवादी आन्दोलन के बारे में बात पूरी नहीं की जा सकती है .बलराज साहनी ने इस देश को गरम हवा जैसी फिल्म दी .कहते हैं कि एम एस सत्थ्यूके निर्देशन में बनी फिल्म ,गरम हवा में बंटवारे के दौर के असली दर्द को जिस बारीकी से रेखांकित किया गया वह वस्तुवादी कलारूप का ऊंचे दर्जे का उदाहरण है . बलराज साहनी को उनकी फिल्मों के कारण आमतौर पर एक ऐसे कलाकार के रूप में जाना जाता है जिनका फिल्मों के बाहर की दुनिया से बहुत वास्ता नहीं था . लेकिन यह बिलकुल अधूरी सच्चाई है . बलराज साहनी बेशक बहुत बड़े फिल्म अभिनेता थे लेकिन एक बुद्धिजीवी के रूप में भी उनका स्तर बहुत ऊंचा है . बलराज साहनी ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का पहला कन्वोकेशन भाषण दिया था। बाद के वर्षों में विश्वविद्यालय में दाखिला लेने वाले छात्रों को सीनियर छात्रों की ओर से उस भाषण की साइक्लोस्टाइल कापी दी जाती थी . बलराज साहनी का वह भाषण शिक्षा की दुनिया में संस्कृति के सकारात्मक हस्तक्षेप की मिसाल के रूप में देखा जाता है .

बलराज साहनी की मौत के बाद महान पत्रकार , फिल्मकार और बुद्धिजीवी  ख्वाजा अहमद अब्बास ने उनकी याद में एक मज़मून लिखा था जिसकी कुछ पंक्तियाँ शामिल किये बिना मेरा यह मज़मून अधूरा रह जाएगा। ख्वाजा साहेब ने लिखा था  की बलराज साहनी ने अपनी जिंदगी के बेहतरीन साल, भारतीय रंगमंच तथा सिनेमा को घनघोर व्यापारिकता के दमघोंटू शिकंजे से बचाने के लिए और आम जन के जीवन के साथ उनके मूल, जीवनदायी रिश्ते फिर से कायम करने के लिए समर्पित किए थे।
बहुत से लोग इस पर हैरानी जताते थे कि बलराज साहनी  कितनी सहजता और आसानी से आम जन के बीच से विभिन्न पात्रों को मंच पर या पर्दे पर प्रस्तुत कर गए हैं, चाहे वह धरती के लाल का कंगाल हो गए किसान का बेटा हो या हम लोग का कुंठित तथा गुस्सैल नौजवान; चाहे वह दो बीघा जमीन का हाथ रिक्शा खींचने वाला मजबूर इंसान हो या काबुलीवाला का पठान मेवा बेचनेवाला या फिर इप्टा के नाटक "आखिरी शमा" में मिर्जा गालिब का बौद्धिक  रूपांतरण ही क्यों न हो। बलराज साहनी कोई यथार्थ से कटे हुए बुद्धिजीवी या  कलाकार नहीं थे। आम आदमी से उनका गहरा परिचय स्वतंत्रता के लिए तथा सामाजिक न्याय के लिए जनता के संघर्षों में उनकी हिस्सेदारी से निकला था। उन्होंने जुलूसों में, जनसभाओं में तथा ट्रेड यूनियन गतिविधियों में शामिल होकर और पुलिस की नृशंस लाठियों और गोलियां उगलती बंदूकों का सामना करते हुए यह भागीदारी की थी। गोर्की की तरह अगर जिंदगी उनके लिए एक विशाल विश्वविद्यालय थी, तो जेलों ने जीवन व जनता के इस चिरंतन अध्येता, बलराज साहनी के लिए स्नातकोत्तर प्रशिक्षण का काम किया था।

इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन, जिसे इप्टा के नाम से ही ज्यादा जाना जाता है, का जन्म दूसरे विश्व युद्ध तथा बंगाल के भीषण अकाल के बीच हुआ था और बलराज साहनी इसके पहले कार्यकर्ताओं में से थे। एक अभिनेता की हैसियत से भी और एक निदेशक की हैसियत से भी, उनका इप्टा के खजाने में शानदार योगदान रहा था। सब से बढक़र वह एक संगठनकर्ता थे। किसी भी मुकाम पर इप्टा अपने नाटकों के जरिए जिस भी लक्ष्य के लिए अपना जोर लगा रहा होता था, चाहे वह फासीविरोधी जनयुद्ध हो या नृशंस दंगों की पृष्ठïभूमि में हिंदू-मुस्लिम एकता का सवाल हो, वह चाहे  अफ्रीकी जनगण की मुक्ति हो या फिर साम्राज्यवाद के खिलाफ वियतनाम का युद्ध , बलराज साहनी हमेशा सभी के मन में उस लक्ष्य के प्रति हार्दिकता व गहरी भावना जगाते थे। काबुलीवाल फिल्म में बलराज साहनी ने जिस तरह से ऐ मेरे प्यारे वतन का सीन अभिनीत किया था वह आज भी हर उस आदमी को अपने वतन की याद दिलाता है जो अपने घर से दूर है . हालांकि यह गाना अफगानिस्तान छोड़कर आये एक मेवा बेचने वाले की टीस थी।

मंटो के बारे में  उनके जन्मशती के हवाले से पिछले एक साल से बहुत चर्चा हुई है . इस अवसर पर सहमत ने एक किताब भी प्रकाशित की . जनवादी लेखक और पत्रकार राजेन्द्र शर्मा ने इस किताब का सम्पादान किया है . किताब की भूमिका में उन्होंने मंटो के होने का अर्थ समझाने की  कोशिश की है . वे मंटो को भारतीय और  हिंदी पाठकों के  सामने बहुत ही बेबाक तरीके से प्रस्तुत करते हैं .  राजेन्द्र शर्मा ने लिखा  है  कि 1931 में यानी उन्नीस बरस की उम्र में जलियांवाला बाग त्रासदी पर पहली कहानी ‘तमाशा’ से शुरू करने वाले मंटो ने, मुश्किल से बाईस साल के अपने लेखकीय जीवन में इतना लिखा, गद्य की इतनी विधाओं में लिखा और इतने ऊंचे दर्जे का लिखा कि  मंटो की चमक  सबसे अलग  दिखाई देती है। मुश्किल से बाईस साल में बाईस कहानी संग्रह (बाईस दर्जन से ज्यादा कहानियां), एक उपन्यास, पांच रेडियो नाटक संग्रह, तीन लेख संग्रह, दो निजी खाकों के संकलन इतना सब कोई जुनूनी ही रच सकता था।  मंटो के देश के विभाजन के बाद पाकिस्तान में लाहौर में जा बसने के ‘कारणों’ और ‘संदेशों’ पर तो बहस हो सकती है और यह बहस शायद कभी खत्म भी न हो, पर इसमें बहस की कोई गुंजाइश नहीं है कि यह फैसला, व्यक्ति सआदत हसन को बहुत-बहुत भारी पड़ा। 

मंटो को अपने ‘दूसरे वतन’ बंबई से इतनी मोहब्बत थी कि वह बंबई छूटने के बाद भी खुद को ‘चलता-फिरता बंबई’ कहते थे.उस बंबई में उसने ‘चंद रुपयों से लेकर हजारों और लाखों कमाए और खर्च किए’ थे। दूसरी तरफ लाहौर में डेरा डालने के साढ़े चार बरस बाद भी मंटो को यह लिखना पड़ रहा था कि, ‘‘दिन रात मशक़्क़त के बाद मुश्किल से इतना कमाता हूं जो मेरी रोजमर्रा की जरूरियात के लिए पूरा हो सके। ये तकलीफदेह एहसास हर वक्त मुझे दीमक की तरह चाटता रहता है कि अगर आज मैंने आंखें मींच लीं तो मेरी बीवी और तीन कमसिन बच्चियों की देखभाल कौन करेगा।’’ फिर भी, जो चीज मंटो को खाए जा रही थी, वह न उसे पाकिस्तान में मिला सलूक था और न छूटे हुए पहले और दूसरे ‘वतनों’ की याद। 

मंटो विभाजन की  की विभीषिका को कभी स्वीकार  नहीं कर पाए . विभाजन का मंटो पर क्या और कैसा असर हुआ था, इसे समझने के लिए शायद विभाजन पर मंटो की कहानियां ही सबसे भरोसेमंद गवाह हैं .। फिर भी विभाजन के साढ़े चार साल बाद मंटो का यह लिखना एक महत्वपूर्ण संकेत है कि, ‘‘मुल्क के बंटवारे से जो इंकलाब बरपा हुआ, उससे मैं एक अर्से तक बागी रहा और अब भी हूं।’’ बेशक, उसी टिप्पणी में मंटो यह भी कहते हैं कि, ‘‘लेकिन बाद में उस खौफनाक हकीकत को मैंने तस्लीम कर लिया’’। लेकिन, मंटो का इसे तस्लीम करना, इस खौफनाक हकीकत को स्वीकार करने की जगह, उसे शिव के हालाहल पान की तरह, अपने भीतर उतार लेना ही ज्यादा लगता है। अचरज नहीं कि मंटो ‘‘तस्लीम करने’’ के दावे के फौरन बाद, उसी सांस में अपनी स्याह हाशिए के बहाने से, जो ‘टोबा टेक सिंह’ की ही तरह, विभाजन की त्रासदी का स्तब्धकारी दस्तावेज है, विभाजन की खौफनाक हकीकत के साथ अपने खास मंटोआई सलूक की अनोखी विशिष्टïता की ओर इशारा करता है:

बहरहाल, विभाजन की विभीषिका को देखने का मंटो का यह खास मुकाम, दो परस्पर जुड़े हुए काम और करता है। पहला, यह मंटो को विभाजन, उससे जुड़ी-चरम अमानवीयता और खून-खराबे को एक तिरछे कोण से देखने और इस तरह इस अमानवीयता के भीतर झांककर, सबसे बढक़र उसकी निरर्थकता को देखने और बहुत ही ठंडे तरीके से तथा मारक ढंग से दिखाने का मौका देता है। ‘टोबा टेक सिंह’ से लेकर, जिसे सहज ही भारतीय उपमहाद्वीप के विभाजन के सबसे बड़े क्लासिक का दर्जा दिया जा सकता है, ‘खोल दो’ या स्याह हाशिए की पांच-सात वाक्यांशों की कहानी ‘मिस्टेक’ तक, विभाजन से अपेक्षाकृत प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी मंटो की अधिकांश रचनाएं, विडंबना और व्यंग्य को अपना मुख्य हथियार यूं ही नहीं बनाती हैं। मंटो सबसे बढक़र इन्हीं हथियारों से विभाजन की सचाई की भयावहता और उसकी सम्पूर्ण निरर्थकता को, एक दूसरे की पृष्ठïभूमि में रखते हैं और इस तरह इसकी भयावहता और निरर्थकता, दोनों को उस तरह रौशन करते हैं, जैसे हिंदी-उर्दू-पंजाबी में दूसरा कोई लेखक नहीं कर पाया है। 
वास्तव में मंटो विभाजन और उसके साथ जुड़ी विभीषिका को, उसकी निरर्थकता तथा भीषणता के अर्थ में ही ‘पागलपन’ के रूपक के जरिए नहीं देखता है बल्कि इस अर्थ में भी पागलपन के रूप में देखते हैं  कि यह पागलपन भी, पागल को इस तरह पूरी तरह नहीं भर सकता है कि वह शुद्ध पागल ही रह जाए और दूसरे किसी भाव की उसके अंदर गुंजाइश ही न बचे। मंटो इस पागलपन को पहचानता है, तो यह भी पहचानता है कि यह पागलपन भी कोई हमेशा बना नहीं रह सकता है। ‘यज़ीद’ इस पागलपन के नशे के धीरे-धीरे टूटने की ही कहानी है। वास्तव में यहां मंटो की सांप्रदायिकता और विभाजन की भी आलोचना, कहीं ज्यादा वास्तविक और मानव-केंद्रित लगती है। 
यह तो निर्विवाद है कि मंटो विभाजन के, हिंदी-उर्दू-पंजाबी के क्षेत्र के सबसे बड़े और सबसे ‘विश्वसनीय गवाह’ हैं। उन्होंने इस त्रासदी को गहरे अर्थों में जिया था और एक अर्थ में अपनी जान से इस गवाही की कीमत चुकायी। हिंदी के लिए, पंजाब से जुड़े या मुस्लिम लेखकों को छोड़ दें तो, विभाजन की यह त्रासदी शायद कभी घटी ही नहीं थी। ऐसा  आबादी की अदला-बदली में हिंदी क्षेत्र में भारी उथल-पुथल होने के बावजूद है। ऐसे में हिंदी के लिए तो विभाजन की त्रासदी का याद दिलाया जाना ही काफी है। फिर भी, मंटो का लेखकीय योगदान, विभाजन की त्रासदी की गवाही तक ही सीमित नहीं है। उल्टे, विभाजन की त्रासदी की उसकी गवाही भी, इंसानियत में और इसीलिए इंसान की बराबरी तथा स्वतंत्रता में, मंटो की गहरी आस्था का ही हिस्सा है। 

हर साल की तरह इस साल भी सहमत ने एक ऐसा आयोजन किया जिसे उसमें शामिल लोग हमेशा याद रखेगें.

Friday, January 1, 2010

सांस्कृतिक हस्तक्षेप भी तय करता है राजनीति की दिशा

शेष नारायण सिंह




२१ साल पहले सफ़दर हाशमी को दिल्ली के पास एक औद्योगिक इलाके में मार डाला गया था .वे मार्क्सवादी कमुनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता थे . उनको मारने वाला एक मुकामी गुंडा था और किसी लोकल चुनाव में कांग्रेसी उम्मीदवार था. अपनी मौत के समय सफ़दर एक नाटक प्रस्तुत कर रहे थे . सफ़दर हाशमी ने अपनी मौत के कुछ साल पहले से राजनीतिक लामबंदी के लिए सांस्कृतिक हस्तक्षेप की तरकीब पर काम करना शुरू किया था. कला, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में काम करने वाले बहुत सारे बड़े लोगों को एक मंच पर लाने की कोशिश कर रहे थे वे. सफ़दर की मौत के बाद दिल्ली और फिर पूरे देश में ग़म और गुस्से की एक लहर फूट पड़ी थी . जो काम सफ़दर करना चाहते थे और उन्हें कई साल लगते, वह एकाएक उनकी मौत के बाद स्वतः स्फूर्त तरीके से बहुत जल्दी हो गया. देश के हर हिस्से में संस्कृति के क्षेत्र में काम करने वाले लोग इकठ्ठा होते गए और सफ़दर की याद में बना संगठन, सफ़दर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट ,'सहमत' एक ऐसे मंच के रूप में विकसित हो गया जिसके झंडे के नीचे खड़े हो कर हिन्दू पुनरुत्थानवाद को संस्कृति का नाम दे कर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करने वाले आर एस एस के मातहत संगठनों को चुनौती देने के लिए सारे देश के प्रगतिशील संस्कृति कर्मी लामबंद हो गए.


राजनीतिक उद्देश्यों के लिए संस्कृति के आधार पर जनता को लामबंद करने की पश्चिमी देशो में तो बहुत पहले से कोशिश होती रही है लेकिन अपने यहाँ ऐसी कोई परंपरा नहीं थी .१८५७ में अंग्रेजों की हुकूमत के खिलाफ जो एकता दिखी थी , उस से ब्रितानी साम्राज्यवाद की चिंताएं बढ़ गयी थी, भारत का हिंदू और मुसलमान एक दूसरे के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर जिस तरह से खड़ा हो गया था , वह भारत में साम्राज्यवादी शासन के अंत की चेतावनी थी . हिन्दू और मुसलमान की एकता को ख़त्म करने के लिए अंग्रेजों ने बहुत सारे तरीके अपनाए . बंगाल का बंटवारा उसमें से एक था. लेकिन जब अंग्रेजों के खिलाफ १९२० में महात्मा गाँधी के नेतृत्व में हिन्दू और मुसलमान फिर लामबंद हो गए तो अंग्रेजों ने इस एकता को खत्म करने केलिए सक्रिय हस्तक्षेप की योजना पर काम करना शुरू कर दिया..१९२० के आन्दोलन के बाद साम्राज्यवादी ब्रिटेन को भारत की अवाम की ताक़त से दहशत पैदा होने लगी थी .सने भारत में सांस्कृतिक हस्तक्षेप के लिए सक्रिय कोशिश शुरू कर दी. अंग्रेजों के वफादारों की फौज में ताज़े ताज़े भर्ती हुए पूर्व क्रांतिकारी ,वी डी सावरकर ने १९२३-२४ में अपनी किताब "हिन्दुत्व-हू इज ए हिन्दू " लिखी जिसे आगे चल कर आम आदमी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को भोथरा करने के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाने वाला था .इसी दौर में आर एस एस की स्थापना हुई जिसके सबसे मह्त्वपूर्ण उद्देश्यों में पिछले हज़ार साल की गुलामी से लड़ना बताया गया था . इसका मतलब यह हुआ कि गाँधी जी के नेतृत्व में जो पूरा देश अंग्रेजों के खिलाफ लामबंद हो रहा था, उसका ध्यान बँटा कर उसे मुसलमानों की सत्ता के खिलाफ तैयार करना था . ज़ाहिर है इस से अँगरेज़ को बहुत फायदा होता क्योंकि उसके खिलाफ खिंची हुई भारत के अवाम की तलवारें अंग्रेजों से पहले आये मुस्लिम शासकों को तलाशने लगतीं और अँगरेज़ मौज से अपना राजकाज चलाता रहता . सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का सिद्धांत सावरकर की इसी किताब के गर्भ से निकलता हैं. आर एस एस और सावरकर की हिन्दू महासभा के ज़रिये, अवाम को बांटने की अँगरेज़ की इस कोशिश से महात्मा गाँधी अनभिज्ञ नहीं थे . शायद इसी लिए उन्होंने अपने आन्दोलन में सामाजिक परिवर्तन की बातें भी जोड़ दीं. लेकिन दंगों की राजनीति का इस्तेमाल करके हिन्दू और मुसलमानों की एकता को खंडित करने में ब्रितानी साम्राज्य को सफलता मिली . १९२७ में आर एस एस ने नागपुर में जो दंगा आयोजित किया, बाद में बाकी देश में भी उसी माडल को दोहराया गया . नतीजा यह हुआ कि भारत के आम आदमी की एकता को अंग्रेजों ने अपने मित्रों के सहयोग से खंडित कर दिया .


वामपंथी राजनीतिक सोच के लोगों ने संस्कृति के क्षेत्र में सक्रिय होने के लिए पहली बार १९३६ में कोशिश की . प्रगतिशील लेखक संघ का गठन हुआ और उसके पहले अध्यक्ष ,हिन्दी और उर्दू के बड़े लेखक , प्रेमचंद को बनाया गया.इसी दौर में रंगकर्मी भी सक्रिय हुए और नाटक के क्षेत्र में वामपंथी सोच के बुद्धिजीवियों का हस्तक्षेप हुआ. इप्टा का गठन करके इन लोगों ने बहुत काम किया . लेकिन यह जागरूकता १९४७ में कमज़ोर पड़ गयी क्योंकि कांग्रेस के नेतृत्व में जो आज़ादी मिली थी उसकी वजह से आम आदमी की सोच प्रभावित हुई. वैसे भी राष्ट्रीय चेतना के निगहबान के रूप में कांग्रेस का उदय हो चुका था.. जनचेतना में एक मुकम्मल बदलाव आ चुका था लेकिन वामपंथी उसे समझ नहीं पाए और इसमें बिखराव हुआ.उधर गाँधी हत्या केस में फंस जाने की वजह से आर एस एस वाले भी ढीले पड़ गए थे . १९६४ में विश्व हिन्दू परिषद् की स्थापना करके संघ ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और हिन्दू पुनरुत्थानवाद की राजनीति के स्पेस में काम करना शुरू कर दिया. लेकिन उनके पास कोई आइडियाज नहीं थे इसलिये खीच खांच कर काम चलता रहा . वह तो १९८४ के चुनावों में बी जे पी की हार के बाद आर एस एस ने भगवान् राम के नाम पर हिंदुत्व की राजनीति को सांस्कृतिक आन्दोलन का मुखौटा पहना कर आगे करने का फैसला किया . भगवान् राम का हिन्दू समाज में बहुत सम्मान है और उसी के बल पर आर एस एस ने बी जे पी को राजनीति में सम्मानित मुकाम दिलाने की कोशिश शुरू कर दी. सफ़दर हाशमी और उनकी पार्टी को संघ की इस डिजाइन का शायद अंदाज़ लग गया था. लगभग उसी दौर में सफ़दर ने कलाकारों को लामबंद करने की कोशिश शुरू कर दी. सफ़दर की मौत ऐसे वक़्त पर हुई जब आर एस एस ने राम के नाम पर हिन्दू जनमानस के एक बड़े हिस्से को अपने चंगुल में कर रखा था . समझदारी की बात कोई सुनने को तैयार नहीं था लेकिन सहमत के गठन के बाद संस्कृति के स्पेस में संघ को बाकायदा चुनौती दी जाने लगी . सहमत की उस दौर की करता धर्ता , सफदर की छोटी बहन शबनम हाशमी थीं . जिन्होंने अयोध्या के मोर्चे पर ही, विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को चुनती दी और उनकी बढ़त को रोकने में काफी हद तक सफलता पायी. शायद सहमत के नेतृत्व में हुए आन्दोलन का ही नतीजा है कि आज आर एस एस के सभी संगठन बी जे पी के मातहत संगठन बन चुके हैं और सरकार बनाने के चक्कर में हरदम रहते हैं . वहीं से ज़्यादातर संगठनों का खर्चा पानी चलता है ...


सहमत आज सांस्कृतिक हस्तक्षेप के एक ऐसे माध्यम के रूप में स्थापित हो चुका है कि दक्षिणपंथी राजनीतिक और संस्कृति संगठन उसकी परछाईं बचा कर भाग लेते हैं ..उसका कारण शायद यह है कि सहमत के गठन के पहले बहुमत के अधिनायकत्व की सोच की बिना पर चल रहे आर एस एस के धौंस पट्टी के अभियान से लोग ऊब चुके थे और जो भी सहमत ने कहा उसे दक्षिणपंथी दादागीरी से मुक्ति के रूप में अपनाने को उत्सुक थे .सहमत के वार्षिक कार्यक्रमों में ही , ऐतिहासिक रूप से फासीवाद की पक्षधर रही शास्त्रीय संगीत की परम्परा को अवामी प्रतिरोध का हाथियार बनाया गया और उसे गंगा-जमुनी साझा विरासत की पहचान के रूप में पेश किया गया.. सहमत के गठन का यह फायदा हुआ कि कलाकारों को एक मंच मिला . बाद में जब गुजरात में मुसलमानों के सफाए के लिए नरेंद्र मोदी ने अभियान चलाया तो सबसे बड़ा प्रतिरोध उन्हें' सहमत' और शबनम हाशमी के नए संगठन 'अनहद' से ही मिला. आज भी इन्हीं दो संगठनों के बैनर के नीचे मोदी की ज्यादतियों को सिविल सोसाइटी की ओर से चुनौती दी जा रही है. आर एस एस में भी अब सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के रास्ते सत्ता पाने की उम्मीद धूमिल हो गयी है . शायद इसीलिए अब वे नौकरशाही और पुलिस में घुस चुके अपने स्वयंसेवकों पर ज्यादा भरोसा कर रहे हैं ..जहां तक संस्कृति के क्षेत्र में सक्रिय प्रगतिशील जमातों की बात है , उनके लिए सहमत और अनहद के अलावा भी बहुत सारे मंच उपलब्ध हैं और हर जगह काम हो रहा है.. राजनीतिक एकजुटता के लिए सांस्कृतिक हस्तक्षेप को एक माध्यम बनाने की परंपरा भी रही है और संभावना भी है लेकिन बुनियादी बात आइडियाज़ की है जो दक्षिण पंथी संगठनों के पास बहुत कम होती है जबकि जन आन्दोलन के लिए संस्कृति के औज़ार ही सबसे बड़े हथियार होते हैं . उम्मीद की जानी चाहिए कि जब भी जन आन्दोलनों की बात होगी आम आदमी के साथ खडी जमातों को ज़्यादा सम्मान मिलेगा .