Sunday, January 6, 2013

बलराज साहनी और मंटो ने इंसानी तहजीब को दिशा दी




शेष नारायण सिंह

24 साल पहले कुछ राजनीतिक गुंडों ने दिल्ली के कलाकार, सफ़दर हाशमी को बहुत  ही क्रूर तरीके से मार  डाला था। सफ़दर हाशमी पर हमला उस दिन हुआ जब वे मजदूरों के एक इलाके में नुक्कड़ नाटक प्रस्तुत कर रहे थे .बाद में उनके साथियों ने राजनीतिक गुंडई को चुनौती दी और उसी जगह पर जाकर सफ़दर के अधूरे नाटक का मंचन किया . 1 जनवरी  1989 के दिन सफ़दर हाशमी पर जानलेवा हमला हुआ था. उनकी याद में  सफ़दर हाशमी मेमोरियल  ट्रस्ट बनाया  गया .इसी ट्रस्ट का नाम सहमत है .सफ़दर की शहादत के एक साल बाद 1 जनवरी 1990 के दिन उनके साथी और देश भर के कलाकार, साहित्यकार,संगीतकार और संस्कृति से जुड़े सभी पक्षों के प्रगतिशील लोग इकठ्ठा हुए और  दिल्ली के मंडी हाउस इलाके में साहित्य और संस्कृति का एक जश्न मनाया . उसके बाद हर साल सफ़दर की याद में सहमत के तत्वावधान में दिल्ली में भारतीय उप महाद्वीप के बुद्दिजीवियों और कलाकारों का मेला लगता है और अवाम की अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार का उत्सव मनाया जाता है . इस उत्सव में पिछले 24 वर्षों से प्रगतिशील कलाकार और संस्कृतिकर्मी अपने को सम्बद्ध पाता है .

इस साल सहमत ने 1 जनवरी का कार्यक्रम जन-कलाकार बलराज साहनी और सआदत हसन मंटो की याद को समर्पित किया . बलराज साहनी और मंटो का ज़िक्र किये बिना बीसवीं सदी के जनवादी आन्दोलन के बारे में बात पूरी नहीं की जा सकती है .बलराज साहनी ने इस देश को गरम हवा जैसी फिल्म दी .कहते हैं कि एम एस सत्थ्यूके निर्देशन में बनी फिल्म ,गरम हवा में बंटवारे के दौर के असली दर्द को जिस बारीकी से रेखांकित किया गया वह वस्तुवादी कलारूप का ऊंचे दर्जे का उदाहरण है . बलराज साहनी को उनकी फिल्मों के कारण आमतौर पर एक ऐसे कलाकार के रूप में जाना जाता है जिनका फिल्मों के बाहर की दुनिया से बहुत वास्ता नहीं था . लेकिन यह बिलकुल अधूरी सच्चाई है . बलराज साहनी बेशक बहुत बड़े फिल्म अभिनेता थे लेकिन एक बुद्धिजीवी के रूप में भी उनका स्तर बहुत ऊंचा है . बलराज साहनी ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का पहला कन्वोकेशन भाषण दिया था। बाद के वर्षों में विश्वविद्यालय में दाखिला लेने वाले छात्रों को सीनियर छात्रों की ओर से उस भाषण की साइक्लोस्टाइल कापी दी जाती थी . बलराज साहनी का वह भाषण शिक्षा की दुनिया में संस्कृति के सकारात्मक हस्तक्षेप की मिसाल के रूप में देखा जाता है .

बलराज साहनी की मौत के बाद महान पत्रकार , फिल्मकार और बुद्धिजीवी  ख्वाजा अहमद अब्बास ने उनकी याद में एक मज़मून लिखा था जिसकी कुछ पंक्तियाँ शामिल किये बिना मेरा यह मज़मून अधूरा रह जाएगा। ख्वाजा साहेब ने लिखा था  की बलराज साहनी ने अपनी जिंदगी के बेहतरीन साल, भारतीय रंगमंच तथा सिनेमा को घनघोर व्यापारिकता के दमघोंटू शिकंजे से बचाने के लिए और आम जन के जीवन के साथ उनके मूल, जीवनदायी रिश्ते फिर से कायम करने के लिए समर्पित किए थे।
बहुत से लोग इस पर हैरानी जताते थे कि बलराज साहनी  कितनी सहजता और आसानी से आम जन के बीच से विभिन्न पात्रों को मंच पर या पर्दे पर प्रस्तुत कर गए हैं, चाहे वह धरती के लाल का कंगाल हो गए किसान का बेटा हो या हम लोग का कुंठित तथा गुस्सैल नौजवान; चाहे वह दो बीघा जमीन का हाथ रिक्शा खींचने वाला मजबूर इंसान हो या काबुलीवाला का पठान मेवा बेचनेवाला या फिर इप्टा के नाटक "आखिरी शमा" में मिर्जा गालिब का बौद्धिक  रूपांतरण ही क्यों न हो। बलराज साहनी कोई यथार्थ से कटे हुए बुद्धिजीवी या  कलाकार नहीं थे। आम आदमी से उनका गहरा परिचय स्वतंत्रता के लिए तथा सामाजिक न्याय के लिए जनता के संघर्षों में उनकी हिस्सेदारी से निकला था। उन्होंने जुलूसों में, जनसभाओं में तथा ट्रेड यूनियन गतिविधियों में शामिल होकर और पुलिस की नृशंस लाठियों और गोलियां उगलती बंदूकों का सामना करते हुए यह भागीदारी की थी। गोर्की की तरह अगर जिंदगी उनके लिए एक विशाल विश्वविद्यालय थी, तो जेलों ने जीवन व जनता के इस चिरंतन अध्येता, बलराज साहनी के लिए स्नातकोत्तर प्रशिक्षण का काम किया था।

इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन, जिसे इप्टा के नाम से ही ज्यादा जाना जाता है, का जन्म दूसरे विश्व युद्ध तथा बंगाल के भीषण अकाल के बीच हुआ था और बलराज साहनी इसके पहले कार्यकर्ताओं में से थे। एक अभिनेता की हैसियत से भी और एक निदेशक की हैसियत से भी, उनका इप्टा के खजाने में शानदार योगदान रहा था। सब से बढक़र वह एक संगठनकर्ता थे। किसी भी मुकाम पर इप्टा अपने नाटकों के जरिए जिस भी लक्ष्य के लिए अपना जोर लगा रहा होता था, चाहे वह फासीविरोधी जनयुद्ध हो या नृशंस दंगों की पृष्ठïभूमि में हिंदू-मुस्लिम एकता का सवाल हो, वह चाहे  अफ्रीकी जनगण की मुक्ति हो या फिर साम्राज्यवाद के खिलाफ वियतनाम का युद्ध , बलराज साहनी हमेशा सभी के मन में उस लक्ष्य के प्रति हार्दिकता व गहरी भावना जगाते थे। काबुलीवाल फिल्म में बलराज साहनी ने जिस तरह से ऐ मेरे प्यारे वतन का सीन अभिनीत किया था वह आज भी हर उस आदमी को अपने वतन की याद दिलाता है जो अपने घर से दूर है . हालांकि यह गाना अफगानिस्तान छोड़कर आये एक मेवा बेचने वाले की टीस थी।

मंटो के बारे में  उनके जन्मशती के हवाले से पिछले एक साल से बहुत चर्चा हुई है . इस अवसर पर सहमत ने एक किताब भी प्रकाशित की . जनवादी लेखक और पत्रकार राजेन्द्र शर्मा ने इस किताब का सम्पादान किया है . किताब की भूमिका में उन्होंने मंटो के होने का अर्थ समझाने की  कोशिश की है . वे मंटो को भारतीय और  हिंदी पाठकों के  सामने बहुत ही बेबाक तरीके से प्रस्तुत करते हैं .  राजेन्द्र शर्मा ने लिखा  है  कि 1931 में यानी उन्नीस बरस की उम्र में जलियांवाला बाग त्रासदी पर पहली कहानी ‘तमाशा’ से शुरू करने वाले मंटो ने, मुश्किल से बाईस साल के अपने लेखकीय जीवन में इतना लिखा, गद्य की इतनी विधाओं में लिखा और इतने ऊंचे दर्जे का लिखा कि  मंटो की चमक  सबसे अलग  दिखाई देती है। मुश्किल से बाईस साल में बाईस कहानी संग्रह (बाईस दर्जन से ज्यादा कहानियां), एक उपन्यास, पांच रेडियो नाटक संग्रह, तीन लेख संग्रह, दो निजी खाकों के संकलन इतना सब कोई जुनूनी ही रच सकता था।  मंटो के देश के विभाजन के बाद पाकिस्तान में लाहौर में जा बसने के ‘कारणों’ और ‘संदेशों’ पर तो बहस हो सकती है और यह बहस शायद कभी खत्म भी न हो, पर इसमें बहस की कोई गुंजाइश नहीं है कि यह फैसला, व्यक्ति सआदत हसन को बहुत-बहुत भारी पड़ा। 

मंटो को अपने ‘दूसरे वतन’ बंबई से इतनी मोहब्बत थी कि वह बंबई छूटने के बाद भी खुद को ‘चलता-फिरता बंबई’ कहते थे.उस बंबई में उसने ‘चंद रुपयों से लेकर हजारों और लाखों कमाए और खर्च किए’ थे। दूसरी तरफ लाहौर में डेरा डालने के साढ़े चार बरस बाद भी मंटो को यह लिखना पड़ रहा था कि, ‘‘दिन रात मशक़्क़त के बाद मुश्किल से इतना कमाता हूं जो मेरी रोजमर्रा की जरूरियात के लिए पूरा हो सके। ये तकलीफदेह एहसास हर वक्त मुझे दीमक की तरह चाटता रहता है कि अगर आज मैंने आंखें मींच लीं तो मेरी बीवी और तीन कमसिन बच्चियों की देखभाल कौन करेगा।’’ फिर भी, जो चीज मंटो को खाए जा रही थी, वह न उसे पाकिस्तान में मिला सलूक था और न छूटे हुए पहले और दूसरे ‘वतनों’ की याद। 

मंटो विभाजन की  की विभीषिका को कभी स्वीकार  नहीं कर पाए . विभाजन का मंटो पर क्या और कैसा असर हुआ था, इसे समझने के लिए शायद विभाजन पर मंटो की कहानियां ही सबसे भरोसेमंद गवाह हैं .। फिर भी विभाजन के साढ़े चार साल बाद मंटो का यह लिखना एक महत्वपूर्ण संकेत है कि, ‘‘मुल्क के बंटवारे से जो इंकलाब बरपा हुआ, उससे मैं एक अर्से तक बागी रहा और अब भी हूं।’’ बेशक, उसी टिप्पणी में मंटो यह भी कहते हैं कि, ‘‘लेकिन बाद में उस खौफनाक हकीकत को मैंने तस्लीम कर लिया’’। लेकिन, मंटो का इसे तस्लीम करना, इस खौफनाक हकीकत को स्वीकार करने की जगह, उसे शिव के हालाहल पान की तरह, अपने भीतर उतार लेना ही ज्यादा लगता है। अचरज नहीं कि मंटो ‘‘तस्लीम करने’’ के दावे के फौरन बाद, उसी सांस में अपनी स्याह हाशिए के बहाने से, जो ‘टोबा टेक सिंह’ की ही तरह, विभाजन की त्रासदी का स्तब्धकारी दस्तावेज है, विभाजन की खौफनाक हकीकत के साथ अपने खास मंटोआई सलूक की अनोखी विशिष्टïता की ओर इशारा करता है:

बहरहाल, विभाजन की विभीषिका को देखने का मंटो का यह खास मुकाम, दो परस्पर जुड़े हुए काम और करता है। पहला, यह मंटो को विभाजन, उससे जुड़ी-चरम अमानवीयता और खून-खराबे को एक तिरछे कोण से देखने और इस तरह इस अमानवीयता के भीतर झांककर, सबसे बढक़र उसकी निरर्थकता को देखने और बहुत ही ठंडे तरीके से तथा मारक ढंग से दिखाने का मौका देता है। ‘टोबा टेक सिंह’ से लेकर, जिसे सहज ही भारतीय उपमहाद्वीप के विभाजन के सबसे बड़े क्लासिक का दर्जा दिया जा सकता है, ‘खोल दो’ या स्याह हाशिए की पांच-सात वाक्यांशों की कहानी ‘मिस्टेक’ तक, विभाजन से अपेक्षाकृत प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी मंटो की अधिकांश रचनाएं, विडंबना और व्यंग्य को अपना मुख्य हथियार यूं ही नहीं बनाती हैं। मंटो सबसे बढक़र इन्हीं हथियारों से विभाजन की सचाई की भयावहता और उसकी सम्पूर्ण निरर्थकता को, एक दूसरे की पृष्ठïभूमि में रखते हैं और इस तरह इसकी भयावहता और निरर्थकता, दोनों को उस तरह रौशन करते हैं, जैसे हिंदी-उर्दू-पंजाबी में दूसरा कोई लेखक नहीं कर पाया है। 
वास्तव में मंटो विभाजन और उसके साथ जुड़ी विभीषिका को, उसकी निरर्थकता तथा भीषणता के अर्थ में ही ‘पागलपन’ के रूपक के जरिए नहीं देखता है बल्कि इस अर्थ में भी पागलपन के रूप में देखते हैं  कि यह पागलपन भी, पागल को इस तरह पूरी तरह नहीं भर सकता है कि वह शुद्ध पागल ही रह जाए और दूसरे किसी भाव की उसके अंदर गुंजाइश ही न बचे। मंटो इस पागलपन को पहचानता है, तो यह भी पहचानता है कि यह पागलपन भी कोई हमेशा बना नहीं रह सकता है। ‘यज़ीद’ इस पागलपन के नशे के धीरे-धीरे टूटने की ही कहानी है। वास्तव में यहां मंटो की सांप्रदायिकता और विभाजन की भी आलोचना, कहीं ज्यादा वास्तविक और मानव-केंद्रित लगती है। 
यह तो निर्विवाद है कि मंटो विभाजन के, हिंदी-उर्दू-पंजाबी के क्षेत्र के सबसे बड़े और सबसे ‘विश्वसनीय गवाह’ हैं। उन्होंने इस त्रासदी को गहरे अर्थों में जिया था और एक अर्थ में अपनी जान से इस गवाही की कीमत चुकायी। हिंदी के लिए, पंजाब से जुड़े या मुस्लिम लेखकों को छोड़ दें तो, विभाजन की यह त्रासदी शायद कभी घटी ही नहीं थी। ऐसा  आबादी की अदला-बदली में हिंदी क्षेत्र में भारी उथल-पुथल होने के बावजूद है। ऐसे में हिंदी के लिए तो विभाजन की त्रासदी का याद दिलाया जाना ही काफी है। फिर भी, मंटो का लेखकीय योगदान, विभाजन की त्रासदी की गवाही तक ही सीमित नहीं है। उल्टे, विभाजन की त्रासदी की उसकी गवाही भी, इंसानियत में और इसीलिए इंसान की बराबरी तथा स्वतंत्रता में, मंटो की गहरी आस्था का ही हिस्सा है। 

हर साल की तरह इस साल भी सहमत ने एक ऐसा आयोजन किया जिसे उसमें शामिल लोग हमेशा याद रखेगें.

Tuesday, January 1, 2013

महिलाओं के सशक्तीकरण के बिना उनके साथ न्याय नहीं होगा




शेष नारायण सिंह


दिल्ली गैंग रेप कांड के बाद समाज के हर वर्ग में गुस्सा है . अब महिलाओं के सशक्तीकरण के काम को पूरी ताक़त से शुरू कर देना चाहिए . शुरू में घटना  को रूटीन की घटना मानने की कोशिश कर रही दिल्ली पुलिस को अवाम के सामने झुकना पड़ा और केन्द्र सरकार में सर्वोच्च स्तर पर बैठे लोगों ने भी हस्तक्षेप  किया और अब सब कुछ  सही दिशा में चल रहा है . दरिंदों की वहशत का शिकार लड़की अभी तक अस्पताल में ज़िंदगी की लड़ाई लड़ रही है . डाक्टरों की सारी योग्यता उसको बचाने में लगी हुई है . केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के एक बहुत ही सम्माननीय पूर्व जज की अगुवाई में जांच बैठा दी है ,केन्द्र सरकार ने भारतीय दंड संहिता में बलात्कार की सज़ा को और भी कठोर बनाने की मांग को भी स्वीकार कर लिया है और उसपर ज़रूरी कार्रवाई शुरू हो गयी  है . ज़ाहिर है कि एक जघन्य घटना के बाद कानून को दुरुस्त करने की दिशा में काम हो रहे हैं . लेकिन अजीब बात है कि लडकी के प्रति न्याय मांगने वालों की सभी मांगें माने जाने के बाद भी आंदोलनकारियों का एक वर्ग दिल्ली की सडकों पर हल्ला गुल्ला कर रहा है . इसमें कुछ राजनीतिक दलों के लोग बताए जा  रहे हैं जो  राजनीतिक लाभ के लिए एक लडकी के साथ हुए जघन्य अपराध को एक चुनाव में जीत हासिल कार सकने वाले अवसर की तरह देख रहे हैं . यह समस्या के वास्तविक हल से ध्यान भटका कर अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करने की साज़िश है और यह अनुचित है . राजनीतिक दलों को मानवीय संवेदना का सम्मान करना चाहिए और हर अवसर पर राजनीतिक रोटियां  सेंकने से बाज़ आना चाहिए .
अजीब बात है कि बलात्कार जैसे अपराध के बाद शुरू हुए आंदोलन से वह बातें निकल कर नहीं आ रही हैं जो महिलाओं को राजनीतिक ताक़त दें और उनके सशक्तीकरण की बात को आगे बढ़ाएँ. गैंग रेप का शिकार हुई लडकी के साथ हमदर्दी वाला जो आंदोलन शुरू हुआ था उसमें बहुत कुछ ऐसा था जो कि व्यवस्था बदल देने की क्षमता रखता था लेकिन बीच में पता नहीं कब अपना राजनीतिक एजेंडा चलाने वाली राजनीतिक पार्टियों ने आंदोलन को हाइजैक कर लिया और केन्द्र सरकार ,दिल्ली  सरकार और इन सरकारों को चलाने वाली राजनीतिक पार्टी फोकस में आ गयी . कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने की कोशिश में लगी हुई पार्टियों ने आंदोलन को दिशाहीन और हिंसक बना दिया . इस दिशाहीनता का नतीजा है कि आज महिलाओं के सशक्तीकरण के मुख्य मुद्दों से राजनीतिक विमर्श को पूरी तरह से भटका दिया गया है . दिल्ली में प्रभाव रखने वाले एक राजनीतिक दल से सम्बंधित लोग गैंग रेप कांड के बाद उबल रहे गुस्से को केवल एक राजनीतिक पार्टी के खिलाफ अभियान के रूप में चलाने की कोशिश कर रहे हैं. बच्चियों और महिलाओं के प्रति समाज के रवैय्ये को  बदल डालने का जो अवसर मिला है उसको गँवा देने का खतरा वास्तविक है और शासक वर्गों के राजनीतिक दल महिलाओं के सशक्तीकरण के खिलाफ चल रहे अपने राजनीतिक प्रोजेक्ट को ही पूरा करने पर आमादा हैं . ज़रूरत इस बात की है कि इन्साफपसंद लोग सामने आयें और महिलाओं के सशक्तीकरण की दिशा में इस आंदोलन को आगे बढाने में सहयोग करें .   
यह मांग बिलकुल जायज़ है कि कानून में ऐसे इंतजामात किये जाएँ कि अपराधी को मिलने वाली सज़ा को देख कर भविष्य में किसी भी पुरुष की हिम्मत न पड़े कि बलात्कार के बारे में सोच भी सके. एक समाज के रूप में यह गुस्सा हमारे लिए गर्व करने की बात है कि हम  सामाजिक अपराध के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत रखते हैं . इसी तरह का एक जघन्य अपराध १९७८ में दिल्ली में हुआ था जब रंगा और बिल्ला नाम के दो अपराधियों ने गोल डाकखाने के पास खड़े भाई और बहन को लिफ्ट देकर अपहरण कर किया ,लड़की के साथ बलात्कार किया और बाद में उनकी हत्या कर दी . बहुत  गुस्सा था ,लोगों ने  बहुत नाराज़गी दिखाई लेकिन कहीं कोई फर्क नहीं पड़ा . कुछ साल मुक़दमा चलने के बाद उन दोनों को फांसी दे दी गयी . लेकिन बलात्कार करने वालों की मानसिकता पर कोई फर्क नहीं पड़ा . इस मानसिकता को खतम करने की ज़रूरत है .  उस समाज के खिलाफ सभ्य समाज को लामबंद होने की ज़रूरत है जो लडकी को इस्तेमाल की वस्तु साबित करता है  और उसके साथ होने वाले बलात्कार को भी अपनी शान में गुस्ताखी मान कर सारा काम करता है . हमें एक ऐसा समाज  चाहिए जिसमें लडकी के साथ बलात्कार करने वालों और उनकी मानसिकता की हिफाज़त करने वालों के खिलाफ लामबंद होने की इच्छा हो और ताक़त हो.
दिल्ली में इतना बड़ा जघन्य कांड हो गया है लेकिन आज के दिल्ली के अखबारों पर नज़र डालें तो बलात्कार के कम से कम दस मामले ऐसे हैं जिनकी खबर छपी है . ये ऐसे मामले हैं जिनको पुलिस थानों में बाकायदा रिपोर्ट किया गया है . बहुत सारे मामले ऐसे होंगें जो पुलिस बुलेटिन में नहीं आये इसलिए उनपर खबर बाद में छपेगी . जाहिर के बलात्कार करने वालों पर दिल्ली में चल रहे इन विरोध प्रदर्शनों का कोई असर नहीं पड़ रहा है . लेकिन इन बलात्कारों से भी ज्यादा अपमानजनक बहुत सारे  विज्ञापन हैं जो अखबारों और टेलिविज़न चैनलों पर चलाये जा रहे हैं .एक विज्ञापन में तो  क्रिकेट का कोई खिलाड़ी कहता दिखाया जा  रहा है कि वह लडकी कैसे पटाता है . यह विज्ञापन बहुत ही अपमानित करने वाला विज्ञापन मानता है . उस मानसिकता के खिलाफ जंग  छेड़ने की ज़रूरत है जिसमें लडकी को वस्तु मानते हैं .उस से भी ज्यादा अपमानजनक यह  है कि उसे पटाये जाने की वस्तु मानते हैं . इसी मानसिकता के चलते इस देश में लड़कियों को दूसरे दरजे का इंसान माना जाता है और उनकी इज्ज़त को मर्दानी इज्ज़त से जोड़कर देखा जाता है . लडकी की इज्ज़त की रक्षा करना समाज का कर्त्तव्य माना जाता है . यह गलत है . पुरुष कौन होता है लडकी की रक्षा करने वाला . ऐसी शिक्षा और माहौल बनाया जाना चाहिए जिसमें लड़की खुद को अपनी रक्षक माने . लड़की के रक्षक के रूप में पुरुष को पेश करने की  मानसिकता को जब तक खत्म नहीं किया जाएगा तह तक कुछ भी बद्लेगा नहीं. जो पुरुष समाज अपने आप को महिला की इज्ज़त का रखवाला मानता है वही पुरुष समाज अपने आपको यह अधिकार भी दे देता है कि वह महिला के  यौन जीवन का संरक्षक  और उसका उपभोक्ता है . इस मानसिकता को उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया जाना चाहिए .मर्दवादी सोच से एक समाज के रूप में लड़ने की ज़रूरत है . और यह लड़ाई केवल वे लोग कर सकते हैं जो लड़की और लड़के को बराबर का  इंसान मानें और उसी सोच को जीवन के हर क्षेत्र में उतारें . हर बार बलात्कार के खिलाफ सडकों पर जो गुस्सा नज़र आता है उसे संभाल कर रख लें और उसे उस मानसिकता के खिलाफ आंदोलन करने के लिए इस्तेमाल करें जिसके बाद बलात्कार करने की किसी की हिम्मत ही न पड़े .
हमें उस मर्दवादी सोच से लड़ने की ज़रूरत है जिसके बाद पुरुष अपनी कायरता को शौर्य के रूप में पेश करता है  . कमज़ोर को मारकर बहादुरी दिखाने वाले जब तक अपने कायराना काम को शौर्य बताते रहेगें तब तक इस देश में बलात्कार करने वालों के हौसलों को तोड़ पाना संभव नहीं होगा. अब तक का भारतीय समाज  का इतिहास ऐसा है जहां औरत को कमज़ोर बनाने के सैकड़ों संस्कार मौजूद हैं . स्कूलों में भी कायरता को शौर्य बताने वाले पाठ्यक्रमों की कमी  नहीं है .इन पाठ्यक्रमों को खत्म करने की ज़रूरत है . सरकारी स्कूलों के स्थान पर देश में कई जगह ऐसे स्कूल खुल गए हैं,जहां मर्दाना शौर्य की वाहवाही की शिक्षा दी जाती है . वहाँ औरत को एक ऐसी वस्तु की रूप में सम्मानित करने की सीख दी जाती है जिसका सम्मान पुरुष के सम्मान से जुड़ा हुआ है . इस मानसिकता के खिलाफ एकजुट  होकर उसे दफ़न करने की ज़रूरत है . अगर हम एक समाज के रूप में अपने आपको बराबरी की बुनियाद पर नहीं स्थापित कर सके तो जो पुरुष अपने आपको महिला का रक्षक बनाता फिरता है वह उसके साथ ज़बरदस्ती करने में भी संकोच नहीं करेगा. शिक्षा और समाज की बुनियाद में ही यह भर देने की ज़रूरत है कि पुरुष और स्त्री बराबर है और कोई किसी का रक्षक नहीं है. सब अपनी रक्षा खुद कर सकते हैं. बिना बुनियादी बदलाव के बलात्कार को हटाने की कोशिश वैसी  ही है जैसे किसी घाव पर मलहम लगाना . हमें ऐसे एंटी बायोटिक की तलाश करनी है जो शरीर में ऐसी शक्ति पैदा करे कि घाव होने की नौबत ही न आये. कहीं कोई बलात्कार ही न हो . उसके लिए सबसे ज़रूरी बात यह है कि महिला और पुरुष के बीच बराबरी को सामाजिक विकास की आवश्यक शर्त माना जाए.
यह लक्ष्य तभी हासिल होगा जब पुरुष और स्त्री में बराबरी की बात को सभी पार्टियों के राजनीतिक एजेंडा में प्रमुखता से स्थान दिया जाए. आज़ादी की  लड़ाई के दौरान सामाजिक बराबरी को स्वतन्त्रता का स्थायी भाव माना गया था.  महात्मा गांधी, बी आर अम्बेडकर और राम मनोहर लोहिया के उत्तराधिकारी आज देश के ज़्यादातर इलाकों में राज कर रहे हैं . इन तीनों ही महान राजनेताओं ने अपनी राजनीतिक समझदारी में दलित  वंचित वर्गों को राजनीतिक ताक़त देने की बात की थी. सबके तरीके अलग अलग थे लेकिन संविधान में पिछड़े वर्गों को अन्य वर्गों के साथ बराबरी के मुकाम पर लाने के लिए सकारात्मक हस्तक्षेप की बात की गयी थी . देश के सभी बड़े राजनीतिक चिंतकों और मनीषियों ने स्वीकार किया था कि महिलायें भी समाज के वंचित वर्गों में शामिल हैं . अगर सब ऐसा मानते थे तो अन्य वंचित तबकों के साथ साथ महिलाओं को भी सरकारी नौकरियों और राजनीतिक पदों में आरक्षण क्यों नहीं दिया गया . उसी चूक का नतीजा है कि लडकियां पिछडती गयीं और उनको शिकंजे में रखने के लिए तरह तरह के प्रयोग किये गए. अभी भी दहेज जैसी आदिम व्यवस्था समाज में कायम  है .  लडकियों को राजनीतिक आरक्षण देने की बात तो की जा रही है लेकिन सरकारी नौकरियों में इन्हें आरक्षण देने की बात कहीं नहीं  कही जा रही है . महिलाओं को समाज में और राजनीति में सम्मान देने का एक ही तरीका है कि उनको देश और समाज के साथ साथ अपने बारे में राजनीतिक फैसले लेने के अधिकार दिए जाएँ . अगर ऐसा न हुआ तो महिलायें पिछड़ी ही रहेगीं और जब तक पिछड़ी रहेगीं उनका शोषण हर स्तर पर होता रहेगा. बलात्कार महिलाओं  को कमज़ोर रखने और उनको हमेशा पुरुष के अधीन बनाए रखने की मर्दवादी सोच का नतीजा है . राजनीतिक पार्टियों पर इस बात के  लिए दबाव बनाया जाना चाहिए कि ऐसे क़ानून बनाएँ जिस से महिला और पुरुष  बराबरी के अधिकार के साथ समाज के भविष्य के फैसले लें और भारत को एक बेहतर देश के रूप में सम्मान मिल सके. इसकी शुरुआत लडकियों की आधी आबादी को सरकारी नौकरियों में ५० प्रतिशत आरक्षण का क़ानून बनाकर की जा सकती है . बाद में राजनीतिक पदों ,लोकसभा और  विधानमंडलों में भी महिलाओं को आरक्षण देकर उनकी राजनीतिक ताकत को बढ़ाया जा सकता है .क्योंकि जबतक इस देश की महिलायें अपने भविष्य के फैसलों में बराबर का भागीदार नहीं बनेगीं देश और समाज का कोई भला नहीं होगा

Thursday, December 27, 2012

उत्तर प्रदेश में प्रमोशन में आरक्षण और कैश सब्सिडी के इर्द गिर्द होगी २०१४ की लड़ाई




शेष नारायण सिंह 

२०१४ के चुनावों की तैयारियां हर राजनीतिक पार्टी पूरी शिद्दत से कर रही है .लोकसभा के पिछले सत्र में सरकारी नौकरियों में प्रमोशन में आरक्षण की बात को ज़ोरदार तरीके से उठाकर  बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने यह संकेत दे दिया था .वे अपने घोर समर्थकों की पक्षधरता की राजनीति कर रही थीं जो लोकतंत्र में हर तरह से जायज़ है. इस सत्र में उन्होंने उसे पास भी करवा लिया .उनके इस क़दम से साफ़ लगता है कि वे पूरे देश में अनुसूचित जातियों और जनजातियों की नेता बनना चाहती हैं . हालांकि पूरे देश में उनको अनुसूचित जातियों और जनजातियों  के नेता के रूप में स्वीकार किया जाता है लेकिन उत्तर प्रदेश के बाहर वे एक राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित नहीं हो सकी हैं . जहां तक उत्तर प्रदेश का सवाल है ,वहाँ मायावती को नज़र अंदाज़ कर पाना मुश्किल है . वे  हर क्षेत्र में १५ से २५ प्रतिशत के बीच वोट पर लगभग पूरी तरह से काबिज हैं. लेकिन  उनके कोर समर्थकों यानी अनुसूचित जातियों और जनजातियों की संख्या उत्तर प्रदेश के किसी एक जिले में ऐसी नहीं है कि उन्हें कोई सीट दिला सके. विधानसभा या लोकसभा में कोई सीट जीतने के लिए मायावती और बहुजन समाज पार्टी के लिए ज़रूरी है कि वे अनुसूचित जातियों और जनजातियों  के साथ किसी अन्य जाति का समर्थन हासिल करें  . इसी राजनीतिक रणनीति के तहत २००७ के चुनावोंमें मायावती ने विधानसभा में स्पष्ट  बहुमत हासिल किया था और पांच साल तक निर्बाध तरीके से राज किया था . उत्तर प्रदेश में कभी बीजेपी और कांग्रेस की समर्थक रही एक खास जाति के वोटों को अपनी तरफ  खींचने में मायावती सफल हो गयी थीं .अनुसूचित जातियों और जनजातियों  के साथ जब ब्राह्मण मिल गए तो चुनाव जीतने लायक समूह तैयार हो गया. इसके साथ उम्मीदवार की जाति भी मिल गयी और उत्तर प्रदेश में मायावती को बहुमत दिलवा दिया . २०१२ में उनकी पार्टी विधान सभा चुनाव हार गयी लेकिन जातियों का यह  गठबंधन उनके साथ था और राजनीतिक हल्कों में उम्मीद की जा रही थी कि  जिस तरह से  उत्तर प्रदेश की मौजूदा सरकार काम कर रही है ,उसी तरह काम करती रही तो २०१४ में समाजवादी पार्टी को वे फिर पटखनी दे देगीं . लेकिन अब पांसा पलट गया है . मायावाती ने अनुसूचित जातियों और जनजातियों  के बीच अपनी नेतागीरी को पुख्ता करने के लिए प्रमोशन  में आरक्षण को राज्यसभा में इतने  ज़बरदस्त तरीके से उछाल दिया कि अब वे शुद्ध रूप से दलितों की नेता के रूप में स्थापित हो चुकी हैं . उत्तर प्रदेश में  दलितों के बाद उनके सबसे बड़े समर्थक वोट बैंक ने उनके खिलाफ मोर्चा खोल रखा है . जिस दिन से राज्यसभा में दलितों को  प्रमोशन में आरक्षण देने वाला संविधान संशोधन विधेयक पास हुआ है उसी दिन से उत्तर प्रदेश में सरकारी कर्मचारियों की  हड़ताल है . राज्य के १८ लाख कर्मचारी मायावती, बीजेपी और कांग्रेस के  खिलाफ लामबंद हैं और सडकों पर जुलूस निकाल रहे हैं , प्रदर्शन कर रहे हैं और समाजवादी पार्टी के साथ एकजुट हो रहे  हैं . यहाँ यह समझ लेना बहुत ज़रूरी है कि १८ लाख कर्मचारी केवल १८ लाख वोट नहीं हैं . अगर एक परिवार में १० व्यक्ति शामिल कर लिए जाएँ तो करीब २ करोड वोटर तो सीधे तौर पर मायावती, बीजेपी और कांग्रेस के  खिलाफ  इकट्ठा हो चुके हैं और वे मुलायम सिंह यादव को समर्थन दे रहे हैं .इसके अलावा उत्तर प्रदेश के हर गाँव में अधिकतर नौजवान सरकारी नौकरियों के उम्मीदवार हैं . उनको सरकारी नौकरी मिले चाहे न मिले लेकिन वे उसके बारे में पूरी तरह से जानकारी रखते हैं . राज्य में मौजूदा राजनीतिक माहौल ऐसा  है कि अनुसूचित जातियों और जनजातियों  के सभी नौजवान मायावती के साथ हैं जबकि इन  जातियों के अलावा बाकी जातियों के नौजवान और उनके परिवार मायावती के घोर विरोधी हैं . इन विरोधियों में ब्राहमण भी शामिल हैं  जो अनुसूचित जातियों और जनजातियों  के बाद  मायावती के सबसे बड़े समर्थक के रूप में पहचाने जाते हैं . उत्तर प्रदेश के सरकारी कर्मचारियों में ब्राह्मणों की  संख्या सबसे ज़्यादा है . ऐतिहासिक रूप से वे ही सरकारी नौकरियों में सबसे बड़ी संख्या में भर्ती होते रहे हैं .मंडल आयोग के पहले तो यह संख्या ७०  प्रतिशत के आस पास होती थी लेकिन बाद में भी यह संख्या ४० प्रतिशत  से  ज्यादा है . प्रमोशन में आरक्षण से पैदा हुई ध्रुवीकरण की राजनीति के चलते मायावती इस वर्ग का समर्थन पूरी  तरह से खो चुकी हैं .


अगर ऐसे ही चलता रहता तो इस बात की पूरी संभावना थी कि उत्तर प्रदेश का राजनीतिक गणित  बिलकुल बदल जाता लेकिन अपने लिए बढ़ रहे समर्थन के तूफ़ान के बावजूद समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने आबादी के अनुपात में मुसलमानों के आरक्षण की बात को राजनीतिक बहस के दायरे में ला दिया . उन्होंने मांग कर दी  कि मुसलमानों को सरकारी  नौकरियों में   आबादी के हिसाब से आरक्षण दिया जाए. जानकार बताते हैं कि मुलायम सिंह यादव का यह क़दम राजनीतिक रूप से उन्हें नुक्सान पंहुचा सकता   है . उनका यह एक क़दम राजनीतिक पहल को बीजेपी के पाले में फेंक देने की क्षमता रखता है .  बीजेपी किसी भी घटना को साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के औज़ार के रूप में इस्तेमाल करने की कला में निष्णात है . उनकी इस क्षमता का सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण गुजरात में पिछले दस वर्षों से हो रहे  चुनाव हैं . २००२ में गोधरा में ट्रेन के एक डिब्बे में मारे  गए  लोगों की दुर्भाग्यपूर्ण मौत के बाद  हुए मुसलमानों के क़त्ले आम के तमगे के साथ नरेंद्र मोदी ने गुजरात  का चुनाव जीत लिया  था. २००७ के चुनाव में भी जब उन्हें सोनिया गांधी के एक भाषण में मौत का सौदागर कह दिया गया तो मोदी ने चुनाव को साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की पिच पर ला दिया और चुनाव जीत  गए. इस बार कांग्रेस ने उनको कोई अवसर नहीं दिया कि वे चुनाव को साम्प्रदायिक रंग में  पेश कर सकें .नरेंद्र मोदी ने  विकास की बात की तो उसी पिच पर उनेक विरोधियों ने उनको घेर दिया और साबित हो गया कि गुजरात के विकास में मोदी  का कोई खास योगदान  नहीं  है . गुजरात तो पहले से ही विकसित राज्य था.गुजरात से बेहतर विकास वाले राज्य भी हैं .गुजरात चुनाव को कांग्रेस ने इस तरीके से लड़ा कि मोदी की साम्प्रदायिक राजनीति को  बैकफुट पर जाना पड़ा .लेकिन उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने मुसलमानों के लिए आरक्षण मांगकर बीजेपी को एक मौक़ा दे दिया है . खासतौर से जब सरकारी नौकरियों के प्रमोशन में आरक्षण की राजनीति  में बीजेपी कांग्रेस के साथ खड़ी पायी गयी है और राज्य  कर्मचारी उसके खिलाफ हैं . पिछले २५ वर्षों की उत्तर प्रदेश की  राजनीति  का कोई भी जानकार बता देगा कि इस राज्य में अगर साम्प्रदायिक मुद्दे राजनीति को बहुत ज्यादा प्रभावित करते रहे हैं .बीजेपी के खिलाफ जिस तरह से राज्य कर्मचारियों के बीच गुस्सा है ,उसके दफ्तर पर पत्थर फेंके जा रहे हैं,उसके नेताओं के पुतले जलाए जा रहे हैं और वह  पूरी तरह से घिर चुकी है .ऐसी हालत में बीजेपी इस अहम विषय से ध्यान हटाने के लिए आगामी चुनाव को साम्प्रदायिक बना सकती है .और राज्य की सत्ताधारी पार्टी को केवल मुसलमानों का शुभचिंतक  साबित करना एक उपयोगी रणनीति हो सकती है .समझ में नहीं आता कि अपने पक्ष में उठ रहे राजनीतिक तूफ़ान के बीच मुलायम सिंह यादव ने मुसलमानों के आरक्षण जैसी बात क्यों की. खास तौर पर जबकि राज्य के मुसलमान पूरी तरह से उनके साथ हैं . उनके इस एक राजनीतिक क़दम के कारण बीजेपी फिर से चुनावी मैदान में वापसी कर  सकती है और  लोकसभा २०१४ त्रिकोणीय हो सकता है . सबको मालूम है कि बीजेपी उत्तर प्रदेश में चुनाव को बाबरी मसजिद की यादों की पिच पर लड़ना चाहती है .वह कल्याण सिंह को अपने साथ ले रही है , उमा  भारती विधानसभा  चुनाव में खास भूमिका अदा कर चुकी हैं . पूरी संभावना है कि वे इस बार भी चुनाव प्रचार की मुख्यधारा में रहेगीं .  मुसलमानों के खिलाफ दुश्मनी के नए सिम्बल वरुण गांधी भी चुनावों में खास भूमिका की तैयारी में हैं .  वे अमेठी की पड़ोसी सीट सुल्तानपुर से उम्मीदवार बनने की कोशिश कर रहे हैं . बाबरी मसजिद के विध्वंस के बाद से ही यह सीट  हिंदुत्व की राजनीति करने वालों की प्रिय सीट रही है. इसके अलावा राज्य की राजनीतिक हवा में वाराणसी से नरेंद्र मोदी को चुनाव लड़ाने की बात भी कभी कभी उछाली  जा रही है . ज़ाहिर है कि चुनाव को साम्प्रदायक बनाया जा सकता है . मुलायम सिंह यादव और उनकी पार्टी को प्रमोशन में आरक्षण के उनके रुख के बाद लाभ मिला है . अगर यही माहौल बना रहा तो वे लोकसभा २०१४  में बहुत  मज़बूत हो जायेगे . लेकिन अगर चुनाव साम्प्रदायिक हो गया तो उनका नुक्सान हो जाएगा. वैसे भी उत्तर प्रदेश में मुसलमान पूरी तरह से उनके साथ है . तो मुसलमानों के आरक्षण की बात को  उठाकर पता नहीं क्यों वे पहल साम्प्रदायिक ताक़तों के हाथ में देना चाहते हैं. 

 उत्तर प्रदेश की राजनीति के हाशिए पर चली गयी कांग्रेस भी इस बार राज्य में अपनी मौजूदगी को सुनिश्चित करने का मन बना लिया है .  सरकारी  नौकरियों में प्रमोशन में आरक्षण को लागू करने की अपनी राजनीति  के चलते वह राज्य की एक बड़ी आबादी का कोपभाजन बन चुकी है लेकिन एक राजनीतिक पार्टी होने के कारण वह अन्य  राजनीतिक पहल के ज़रिये उत्तर प्रदेश के खेल में शामिल होना चाहती  है . इस दिशा में सब्सिडी को लाभार्थी के हाथ में देने की केन्द्र सरकार की योजना को कांग्रेस २०१४ के राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना चाहती है .कांग्रेस ने 'आपका पैसा, आपके हाथ' का राजनीतिक नारा दिया है और 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले इस कार्यक्रम का खूब प्रचार प्रसार करने की योजना बना ली है .राहुल  गांधी ने कैश सब्सिडी योजना लागू करने वाले 51 जिलों के पार्टी अध्‍यक्षों और युवा कांग्रेस अध्‍यक्षों के साथ बैठक की . इन जिलों में अगले साल एक जनवरी से केन्द्र सरकार की सीधा लाभ अंतरण योजना शुरू हो रही है .ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश इस कार्यक्रम के सबसे महत्वपूण  व्यक्ति हैं .उन्होंने बताया कि कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने 'आपका पैसा, आपके हाथ' कार्यक्रम को कांग्रेस पार्टी और सरकार की भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का प्रभावशाली हथियार बताया और कहा कि यह सिर्फ एक योजना नहीं, बल्कि पूरी वितरण व्यवस्था में बदलाव लाने की शुरुआत है। बैठक में वित्तमंत्री पी चिदंबरम भी मौजूद थे। बैठक में राहुल ने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के उस बयान का भी उल्लेख किया जिसमें उन्होंने कहा था कि गरीबों के कल्याण के लिए भेजे जाने वाले एक रुपए में से सिर्फ पंद्रह पैसा गरीबों तक पहुंचता है, बाकी पैसे बिचौलिए के हाथ में चले जाते हैं। राहुल गाँधी का दावा है कि इस योजना के सफल होने पर सौ में से सौ रुपया लाभार्थी तक जरूर पहुंचेगा. हालांकि अभी इस योजना में उत्तर प्रदेश के जिले नहीं शामिल किये  गए हैं लेकिन दूसरे चरण में उत्तर प्रदेश को भी शामिल कर लिया जाएगा और २०१४ तक यह योजना उत्तर प्रदेश में पूरी ताक़त के साथ लागू की जा चुकी होगी. अभी इस योजना में ३४ तरह की आर्थिक मदद  को शामिल किया  गया है  .अभी  एलपीजी, केरोसीन और उर्वरक सब्सिडी को इसके दायरे में नहीं लाया गया है लेकिन साल भर के अंदर यानी लोकसभा २०१४ के पहले  इसे लगभग  हर सब्सिडी स्कीम पर लागू कर दिया जाएगा .फिलहाल इसमें छात्रवृति, वृद्धावस्था पेंशन, मनरेगा मजदूरी और अन्य कल्याण योजनाओं के पैसे का भुगतान होगा। 

अगर कांग्रेस की यह योजना सफल होती है तो वह भी  उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपनी मौजूदगी को पक्के तौर पर दर्ज करवा देगी . उत्तर प्रदेश विधान सभा २०१२ के राहुल गांधी के चुनाव अभियान को जिन  लोगों ने देखा है उन्हें मालूम है कि राहुल गांधी अपने राज्य  में किसी को भी वाकओवर नहीं देगें . वे कैश सब्सिडी की योजना के साथ उत्तर प्रदेश में चुनाव की राजनीति करेगें .और कैश सब्सिडी की यह योजना उत्तर प्रदेश समेत पूरे देश में राजनीति में कांग्रेस को बढ़त दिला सकती है . ज़ाहिर है कि बाकी पार्टियों के नेताओं को कांग्रेस की इस गेमचेंजर योजना की काट तलाशनी पड़ेगी . तजुर्बा बताता है कि राजनीति में अर्थ का योगदान सबसे प्रभावी है और धर्म जाति वगैरह उस से पिछड़ जाते हैं . 

Thursday, December 20, 2012

बाबरी मसजिद ढहाने वालों की मानसिकता से देश के सामने तबाही का खतरा बना हुआ है



शेष नारायण सिंह 

बीस साल पहले ६ दिसंबर १९९२ के दिन अयोध्या की बाबरी मसजिद को ढहा दिया  गया था . उसके सात साल पहले से उस मसजिद के नाम पर हिंदुओं को जागृत करने की कोशिश शुरू कर दी गयी थी . १९८० में आर एस एस ने तत्कालीन जनता पार्टी को इसीलिये तोडा था कि पार्टी के बड़े समाजवादी  नेता मधु लिमये ने मांग कर दी थी कि जनता पार्टी में जो लोग भी शामिल थे, वे किसी अन्य राजनीतिक संगठन में न रहें . मधु लिमये ने हमेशा यही माना कि आर एस एस एक राजनीतिक संगठन है और हिन्दू राष्ट्रवाद उसकी मूल राजनीतिक अवधारणा है . आर एस एस ने अपने लोगों को पार्टी से अलग कर लिया और भारतीय जनता पार्टी का गठन कर दिया .शुरू में इस पार्टी ने उदारतावादी राजनीतिक सोच को अपनाने की कोशिश की . दीन दयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद और गांधीवादी समाजवाद जैसे राजनीतिक शब्दों को अपनी बुनियादी सोच का आधार बनाने की कोशिश की . लेकिन जब १९८४ के लोकसभा चुनाव में ५४२ सीटों वाली लोकसभा में बीजेपी को केवल दो सीटें मिलीं तो उदार राजनीतिक संगठन बनने का विचार हमेशा के लिए दफन कर दिया गया . जनवरी १९८५ में कलकत्ता में आर एस एस के टाप नेताओं की बैठक हुई जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी को भी बुलाया गया और साफ़ बता दिया गया कि अब हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को चलाया जाएगा . वहीं तय कर लिया गया कि अयोध्या की बाबरी मस्जिद को रामजन्मभूमि बता कर राजनीतिक मोबिलाइज़ेशन किया जाएगा . आर एस एस के दो संगठनों, विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को इस प्रोजेक्ट को चलाने का जिम्मा दिया गया. विश्व हिन्दू परिषद् की स्थापना १९६६ में हो चुकी थी लेकिन वह सक्रिय नहीं था. १९८५ के बाद उसे सक्रिय किया गया और कई बार तो यह भी लगने लगा कि आर एस एस वाले बीजेपी को पीछे धकेल कर वी एच पी से ही राजनीतिक काम करवाने की सोच रहे थे . लेकिन ऐसा नहीं हुआ और चुनाव लड़ने का काम बीजेपी के जिम्मे ही रहा . १९८५ से अब तक बीजेपी हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को ही अपना स्थायी भाव मानकर चल रही है ..कांग्रेस और अन्य सेकुलर पार्टियों ने अपना राजनीतिक काम ठीक से नहीं किया  इसलिए देश में हिन्दू राष्ट्रवाद का खूब प्रचार प्रसार हो गया . जब बीजेपी ने हिन्दू राष्ट्रवाद को अपने राजनीतिक दर्शन के रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया तो उस विचारधारा को मानने वाले बड़ी संख्या में उसके साथ जुड़ गए .वही लोग १९९१ में अयोध्या आये थे जब उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी . बाबरी मस्जिद को तबाह करने पर आमादा इन लोगों के ऊपर गोलियां भी चली थीं .वही लोग १९९२ में अयोध्या आये थे जिनकी मौजूदगी में बाबरी मस्जिद का ध्वंस हुआ , वही लोग साबरमती एक्सप्रेस में सवार थे जब गोधरा रेलवे स्टेशन पर उन्हें जिंदा जला दिया गया . . अब जब निजी बातचीत के आधार पर दुनिया को मालूम चल गया है कि बीजेपी हिन्दू राष्ट्रवाद को केवल बातचीत का प्वाइंट मानती है तो उनके परिवार वालों पर क्या गुज़र रही होगी जो हिन्दू राष्ट्रवाद के चक्कर में मारे जा चुके हैं . . सबको मालूम है हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति के बल पर देश का नेतृत्व नहीं किया जा सकता . इसलिए बीजेपी के राष्ट्र को नेतृत्व देने की इच्छा रखने वाले नेताओं में अपने आपको हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति से दूर रखने की प्रवृत्ति पायी जाने लगी है . इसी सोच के तहत लाल कृष्ण आडवाणी ने जिन्ना की तारीफ़ की थी.

१९९२ में जिन लोगों ने अयोध्या में एक मध्य युगीन मसजिद को ज़मींदोज़ किया था उन्होंने  उसके साथ ही बहुत कुछ ज़मींदोज़ कर दिया था .उन्होंने आज़ादी की लड़ाई की उस परंपरा को ढहा दिया था जिसे महात्मा गांधी ने आंदोलन का मकसद बताया था. दर असल  धर्म निरपेक्षता भारत की आज़ादी  के संघर्ष का इथास थी. बाबरी मसजिद के विध्वंस  के बाद मैं उन कुछ बदकिस्मत लोगों में था जिन्होंने उसके बाद की राजनीति को विकसित होते देखा था.  हिंदी मीडिया में पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग आर एस एस की राजनीति के प्रचारक के रूप में काम कर रहा था . वे आर एस एस के मसजिद ढहाने के काम को वीरता बता रहे थे . उस वक़्त के प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव को अर्जुन सिंह की चुनौती मिल रही थे लेकिन कुछ भी करने के पहले १०० बार सोचने के लिए विख्यात अर्जुन सिंह ने मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा नहीं दिया .  अटल बिहारी वाजपेयी दुखी होने का  अभिनय कर रहे तह . लाल कृष्ण आडवानी, कल्याण सिंह , उमा  भारती ,   साध्वी ऋतंभरा , अशोक सिंघल आदि जश्न मना रहे थे . कांग्रेस में हताशा का माहौल था. २४ घंटे का टेलिविज़न नहीं था. ख़बरें बहुत धीरे धीरे आ रा ही थीं लेकिन जो भी ख़बरें आ रही थीं वे अपने राष्ट्र की बुनियाद को हिला देने वालीथीं . दिल्ली में सहमत नाम की  संस्था ने कुछ बुद्धिजीवियों को इकठ्ठा करना शुरू कर दिया था . महात्मा गांधी की समाधि पर जब मदर टेरेसा  के साथ देश भर से आये धर्म निरपेक्ष लोगों ने  माथा टेका तो लगता था कि अब अपना देश तबाह होने से बच जाएगा . बिना किसी तैयारी के  शांतिप्रेमी लोग वहाँ इकठ्ठा हुए और समवेत स्वर में  रघुपति  राघव राजाराम की  टेर लगाते रहे. मेरी नज़र में महात्मा गांधी के  दर्शन की उपयोगिता का यह प्रैक्टिकल  सबूत था .  
बाबरी मसजिद को  ढहाने के बाद आर एस एस ने कट्टर हिन्दूवाद को एक राजनीतिक विचार धारा के रूपमें स्थापित कर दिया था . आर एस एस के लोग इस योजना पर बहुत पहले से  काम कर  रहे थे .दुनिया जानती है कि आज़ादी की लड़ाई में आर एस एस के लोग शामिल नहीं हुए थे .  आज़ादी  के बाद महात्मा गांधी की हत्या के बाद संघ के ऊपर प्रतिबन्ध लगा था .बाद में १९७५ में भी इन पर पाबंदी लगी थी  लेकिन इनका काम कभी रुका नहीं . आर एस  एस के लोग पूरी तरह से अपने मिशन में  लगे  रहे. डॉ  लोहिया  ने गैर कांग्रेस वाद की राजनीति के सहारे इन लोगों को राजनीतिक सम्मान  दिलवाया था. जब १९६७ में संविद सरकारों का प्रयोग हुआ तो आर एस एस  की अधीन पार्टी  भारतीय जनसंघ थी . उस पार्टी के लोग कई राज्य सरकारों में मंत्री बने . बाद में जब जनता पार्टी बनी तो जनसंघ घटक के लोग उसमें सबसे ज्यादा संख्या में थे. उसके साथ ही आर एस एस की राजनीति मुख्यधारा में आ चुकी थी . १९७७ में जब लाल कृष्ण आडवानी सूचना और प्रसारण मंत्री बने तो बड़े पैमाने पर संघ के  कार्यकर्ताओं को अखबारों में भर्ती करवाया गया . जब १९९२ में  बाबरी मसजिद को तबाह किया गया तो  उत्तर भारत के अधिकतर अखबारों में आर एस एस के लोग भरे हुए थे . उन्हीं लोगों ने ऐसा माहौल बनाया जैसे कि जैसे बाबरी मसजिद को ढहाने  वालों ने  कोई बहुत भारी वीरता का काम किया हो . कुल मिलाकर  माहौल ऐसा बन गया कि देश में धर्म निरपेक्ष होना किसी अपराध जैसा लागने लगा था.   लेकिन देश में बहुसंख्यक  हिंदू धर्म  निरपेक्ष हैं और उनको मालूम है कि धार्मिक कट्टरता से समाज में विघटन पैदा होता है, शायद इसी लिए हिंदुओं की  बहुसंख्या होने के बाद भी देश में  साम्प्रदायिक ताक़तों की हालत खराब ही रहती है . 

बाबरी मसजिद के तबाह  होने के बाद आर एस एस ने सत्ता के पास आने में सफलता तो पा ली लेकिन देश के धर्म निरपेक्ष मूल ढाँचे से छेडछाड करने की उनकी कोशिश का नतीजा ऐसा नहीं है जिससे उन्हें बहुत खुशी  हो . उनकी   विध्वंस की राजनीति ने वरुण गांधी , नरेंद्र मोदी , परवीन  तोगडिया टाइप कुछ  नेता भले  ही पैदा कर दिये  हों  लेकिन उन्हें सम्मान मिल पाना बहुत मुश्किल है .उसके लिए उन्हें  बहुत मेहनत करनी पड़ेगी . बाबरी मसजिद की तबाही की तारीख  हमें हमेशा यह भी याद दिलाती है कि महात्मा गांधी ने जिस आजादी को हमारे हवाले  किया था , हमेशा उसकी  हिफाज़त करते रहना पड़ेगा . अगर एक राष्ट्र और समाज के  रूप में हम चौकन्ना न रहे तो जिन लोगों ने बाबरी मसजिद को ज़मींदोज़ किया  था वे हमारे अंदर के तार तार को तोड़ डालेगें

Saturday, December 15, 2012

नरेन्द्र मोदी ने पत्रकारों को भी डरा दिया है

शेष नारायण सिंह 


आज जब गुजरात में फिर से चुनाव हो रहे  हैं , मुझे २०१० के शुरुआती महीनों की बहुत याद आ रही है . उन दिनों मोदी और उनके समर्थकों ने प्रचार कर रखा था कि मोदी के २००२ वाले नरसंहार कार्यक्रम  को  मुसलमान भूल चुके हैं और अब मुसलमान शुद्ध रूप से मोदी के साथ हैं . मैंने गुजरात के कुछ तथ्य जुटाए और एक लेख  लिख मारा था . जून २०१० में  यह लेख ख़ासा चर्चित हुआ और कई जगह इसका उद्धरण दिया गया . गुजरात चुनाव के मौजूदा संस्करण में भी मुझे एक बात बार बार समझ में आती रही जिसे पत्रकार और  विश्लेषक  प्रदीप सौरभ ने  रखांकित कर दिया . जो भी गुजरात से वापस आ रहा है कि वह बताता है कि मोदी की हालत ठीक नहीं है . लेकिन वह अपनी बात को कुछ गोलमोल तरीके से कहता है  .प्रदीप सौरभ ने कहा कि भाई जब आप देख कर आये हैं कि मोदी की हालत खराब है तो उसको ऐलानियाँ क्यों नहीं कहते .  कई लोगों ने कहा कि बात अभी बिलकुल साफ़ नहीं है . मुझे लगता है कि नरेंद्र मोदी आतंक के तरह तरह के तरीके जानते हैं . उन्होंने आजकल पत्रकारों के वर्ग को भी आतंकित कर दिया है . देश के कुछ बड़े अखबारों के कुछ बड़े पत्रकार  मोदी या उनके चेलों की  चेलाही करते हैं और वे अपने मोदी  जी के गुणगान के कार्यक्रम के तहत माहौल बनाए  हुए हैं कि मोदी को हराया नहीं  जा सकता . नतीजा यह है कि  दिल्ली में विराजमान विश्लेषक दहशत में हैं और वही कह रहे हैं जो देश के बड़े अखबारों में छपा रहता है . इस तरह से मोदी   ने पत्रकारों के बीच जो दहशत फैला रखी है वह टेलिविज़न के स्टूडियो में साफ़ नज़र आ रही है .  सच्चाई यह  है कि मोदी अपनी  ज़िंदगी की सबसे मुश्किल राजनीतिक लड़ाई लड़  रहे हैं और उसमें उनकी जीत की  संभावना बहुत कम है . आतंक फैलाने के उनके तरीकों को समझने के लिए मैंने अपने ही एक लेख का सहारा लिया जो मुसलमानों के बीच आतंक फैलाने के  मोदी के तरीकों को  साफ़ करने के लिए मैंने लिखा था . प्रस्तुत है वही पुराना लेख .

गुजरात में एक दलित नेता और उनकी पत्नी को पकड़ लिया गया है . पुलिस की कहानी में बताया गया है कि वे दोनों नक्सलवादी हैं और उनसे राज्य के अमन चैन को ख़तरा है . शंकर नाम के यह व्यक्ति मूलतः आंध्र प्रदेश के रहने वाले हैं लेकिन अब वर्षों से गुजरात को ही अपना घर बना लिया है . गुजरात में साम्प्रदायिकता के खिलाफ जो चंद आवाजें बच गयी हैं , वे भी उसी में शामिल हैं. विरोधियों को परेशान करने की सरकारी नीति के खिलाफ वे विरोध कर रहे हैं और लोगों को एकजुट करने की कोशिश कर रहे हैं .उनकी पत्नी, हंसाबेन भी इला भट के संगठन सेवा में काम करती हैं , वे गुजराती मूल की हैं लेकिन उनको गिरफ्तार करते वक़्त पुलिस ने जो कहानी दी है ,उसके अनुसार वे अपने पति के साथ आंध्र प्रदेश से ही आई हैं और वहीं से नक्सलवाद की ट्रेनिंग लेकर आई हैं . ज़ाहिर है पुलिस ने सिविल सोसाइटी के इन कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करने के पहले होम वर्क नहीं किया था. इसके पहले डांग्स जिले के एक मानवाधिकार कार्यकर्ता ,अविनाश कुलकर्णी को भी गिरफ्तार कर लिया गया था . किसी को कुछ पता नहीं कि ऐसा क्यों हुआ लेकिन वे अभी तक जेल में ही हैं .गुजरात में सक्रिय सभी मानवाधिकार संगठनों के कार्यकर्ताओं को चुप कराने की गुजरात पुलिस की नीति पर काम शुरू हो चुका है और आने वाले वक़्त में किसी को भी नक्सलवादी बता कर धर लिया जाएगा और उसक अभी वही हाल होगा जो पिछले १० साल से गुजराती मुसलमानों का हो रहा है .नक्सलवादी बता कर किसी को पकड़ लेना बहुत आसान होता है क्योंकि किसी भी पढ़े लिखे आदमी के घर में मार्क्सवाद की एकाध किताब तो मिल ही जायेगी. और मोदी क एपुलिस वालों के लिए इतना ही काफी है . वैसे भी मुसलमानों को पूरी तरह से चुप करा देने के बाद , राज्य में मोदी का विरोध करने वाले कुछ मानवाधिकार संगठन ही बचे हैं . अगर उनको भी दमन का शिकार बना कर निष्क्रिय कर दिया गया तो उनकी बिरादराना राजनीतिक पार्टी , राष्ट्रवादी सोशलिस्ट पार्टी और उसके नेता , एडोल्फ हिटलर की तरह गुजरात के मुख्यमंत्री का भी अपने राज्य में एकछत्र निरंकुश राज कायम हो जाएगा .
अहमदाबाद में जारी के बयान में मानवाधिकार संस्था,दर्शन के निदेशक हीरेन गाँधी ने कहा है कि 'गुजरात सरकार और उसकी पुलिस विरोध की हर आवाज़ को कुचल देने के उद्देश्य से मानवाधिकार संगठनो , दलितों के हितों की रक्षा के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं और सिविल सोसाइटी के अन्य कार्यकर्ताओं को नक्सलवादी बताकर पकड़ रही है ' लेकिन विरोध के स्वर भी अभी दबने वाले नहीं है . शहर के एक मोहल्ले गोमतीपुर में पुलिस का सबसे ज़्यादा आतंक है, . वहां के लोगों ने तय किया है कि अपने घरों के सामने बोर्ड लगा देंगें जिसमें लिखा होगा कि उस घर में रहने वाले लोग नक्सलवादी हैं और पुलिस के सामने ऐसी हालात पैदा की जायेगीं कि वे लोगों को गिरफ्तार करें . ज़ाहिर है इस तरीके से जेलों में ज्यादा से ज्यादा लोग बंद होंगें और मोदी की दमनकारी नीतियों को राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनाया जाएगा.वैसे भी अगर सभ्य समाज के लोग बर्बरता के खिलाफ लामबंद नहीं हुए तो बहुत देर हो चुकी होगी और कम से कम गुजरात में तो हिटलरी जनतंत्र का स्वाद जनता को चखना ही पड़ जाएगा.

वैसे गुजरात में अब मुसलमानों में कोई अशांति नहीं है , सब अमन चैन से हैं . गुजरात के कई मुसलमानों से सूरत और वड़ोदरा में बात करने का मौक़ा लगा . सब ने बताया कि अब बिलकुल शान्ति है , कहीं किसी तरह के दंगे की कोई आशंका नहीं है . उन लोगों का कहना था कि शान्ति के माहौल में कारोबार भी ठीक तरह से होता है और आर्थिक सुरक्षा के बाद ही बाकी सुरक्षा आती है.बड़ा अच्छा लगा कि चलो १० साल बाद गुजरात में ऐसी शान्ति आई है .लेकिन कुछ देर बाद पता चला कि जो कुछ मैं सुन रहा था वह सच्चाई नहीं थी. वही लोग जो ग्रुप में अच्छी अच्छी बातें कर रहे थे , जब अलग से मिले तो बताया कि हालात बहुत खराब हैं . गुजरात में मुसलमान का जिंदा रहना उतना ही मुश्किल है जितना कि पाकिस्तान में हिन्दू का . गुजरात के शहरों के ज़्यादातर मुहल्लों में पुलिस ने कुछ मुसलमानों को मुखबिर बना रखा है , पता नहीं चलता कि कौन मुखबिर है और कौन नहीं है . अगर पुलिस या सरकार के खिलाफ कहीं कुछ कह दिया गया तो अगले ही दिन पुलिस का अत्याचार शुरू हो जाता है. मोदी के इस आतंक को देख कर समझ में आया कि अपने राजनीतिक पूर्वजों की लाइन को कितनी खूबी से वे लागू कर रहे हैं . लेकिन यह सफलता उन्हें एक दिन में नहीं मिली . इसके लिए वे पिछले दस वर्षों से काम कर रहे हैं . गोधरा में हुए ट्रेन हादसे के बहाने मुसलमानों को हलाल करना इसी रणनीति का हिस्सा था . उसके बाद मुसलमानों को फर्जी इनकाउंटर में मारा गया, इशरत जहां और शोहराबुद्दीन की हत्या इस योजना का उदाहरण है . उसके बाद मुस्लिम बस्तियों में उन लड़कों को पकड़ लिया जाता था जिनके ऊपर कभी कोई मामूली आपराधिक मामला दर्ज किया गया हो . पाकेटमारी, दफा १५१ , चोरी आदि अपराधों के रिकार्ड वाले लोगों को पुलिस वाले पकड़ कर ले जाते थे , उन्हें गिरफ्तार नहीं दिखाते थे, किसी प्राइवेट फार्म हाउस में ले जा कर प्रताड़ित करते थे और अपंग बनाकर उनके मुहल्लों में छोड़ देते थे . पड़ोसियों में दहशत फैल जाती थी और मुसलमानों को चुप रहने के लिए बहाना मिल जाता था .लोग कहते थे कि हमारा बच्चा तो कभी किसी केस में पकड़ा नहीं गया इसलिए उसे कोई ख़तरा नहीं था . ज़ाहिर है इन लोगों ने अपने पड़ोसियों की मदद नहीं की ..इसके बाद पुलिस ने अपने खेल का नया चरण शुरू किया . इस चरण में मुस्लिम मुहल्लों से उन लड़कों को पकड़ा जाता था जिनके खिलाफ कभी कोई मामला न दर्ज किया गया हो . उनको भी उसी तरह से प्रताड़ित करके छोड़ दिया जाता था . इस अभियान की सफलता के बाद राज्य के मुसलमानों में पूरी तरह से दहशत पैदा की जा सकी. और अब गुजरात का कोई मुसलमान मोदी या उनकी सरकार के खिलाफ नहीं बोलता ..डर के मारे सभी नरेन्द्र मोदी की जय जयकार कर रहे हैं. अब राज्य में विरोध का स्वर कहीं नहीं है . कांग्रेस नाम की पार्टी के लोग पहले से ही निष्क्रिय हैं . वैसे उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती क्योंकि विपक्ष का अभिनय करने के लिए उनकी ज़रूरत है .यह मानवाधिकार संगठन वाले आज के मोदी के लिए एक मामूली चुनौती हैं और अब उनको भी नक्सलवादी बताकर दुरुस्त कर दिया जाएगा. फिर मोदी को किसी से कोई ख़तरा नहीं रह जाएगा. हमारी राजनीति और लोकशाही के लिए यह बहुत ही खतरनाक संकेत हैं क्योंकि मोदी की मौजूदा पार्टी बी जे पी ने अपने बाकी मुख्यमंत्रियों को भी सलाह दी है कि नरेन्द्र मोदी की तरह ही राज काज चलाना उनके हित में होगा


Thursday, December 6, 2012

अम्बेडकर जाति संस्था को खत्म करना चाहते थे,मायावती उसे जिंदा रखना चाहती हैं .



 शेष नारायण सिंह

डा.अंबेडकर के  निर्वाण दिवस के मौके पर उनको याद किया जाएगा. इस अवसर पर ज़रूरी है कि उनकी सोच और दर्शन के सबसे अहम पहलू पर गौर किया जाए. सब को मालूम है कि डा. अंबेडकर के दर्शन ने २० वीं सदी के भारत के राजनीतिक आचरण को बहुत ज्यादा प्रभावित किया था . लेकिन उनके दर्शन की सबसे ख़ास बात पर जानकारी की भारी कमी है. यह बात कई बार कही जा चुकी है कि उनके नाम पर राजनीति करने वालों को इतना तो मालूम है कि बाबा साहेब जाति व्यवस्था के खिलाफ थे लेकिन बाकी चीजों पर ज़्यादातर लोग अन्धकार में हैं. उन्हीं कुछ बातों का ज़िक्र करना आज के दिन सही रहेगा. डा. अंबेडकर को इतिहास एक ऐसे राजनीतिक चिन्तक के रूप में याद रखेगा जिन्होंने जाति के विनाश को सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन की बुनियाद माना था. यह बात किसी से छुपी नहीं है कि उनकी राजनीतिक विरासत का सबसे ज्यादा फायदा उठाने वाली पार्टी की नेता, आज जाति की संस्था को संभाल कर रखना चाहती हैं ,उसके विनाश में उनकी कोई रूचि नहीं है . वोट बैंक राजनीति के चक्कर में पड़ गयी अंबेडकरवादी पार्टियों को अब वास्तव में इस बात की चिंता सताने लगी है कि अगर जाति का विनाश हो जाएगा तो उनकी वोट बैंक की राजनीति का क्या होगा. डा अंबेडकर की राजनीतिक सोच को लेकर कुछ और भ्रांतियां भी हैं . कांशीराम और मायावती ने इस क़दर प्रचार कर रखा है कि जाति की पूरी व्यवस्था का ज़हर मनु ने ही फैलाया था, वही इसके संस्थापक थे और मनु की सोच को ख़त्म कर देने मात्र से सब ठीक हो जाएगा. लेकिन बाबा साहेब ऐसा नहीं मानते थे . उनके एक बहुचर्चित, और अकादमिक भाषण के हवाले से कहा जा सकता है कि जाति व्यवस्था की सारी बुराइयों को लिए मनु को ही ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता .मनु के बारे में उन्होंने कहा कि अगर कभी मनु रहे भी होंगें तो बहुत ही हिम्मती रहे होंगें . डा. अंबेडकर का कहना है कि ऐसा कभी नहीं होता कि जाति जैसा शिकंजा कोई एक व्यक्ति बना दे और बाकी पूरा समाज उसको स्वीकार कर ले. उनके अनुसार इस बात की कल्पना करना भी बेमतलब है कि कोई एक आदमी कानून बना देगा और पीढियां दर पीढियां उसको मानती रहेंगीं. . हाँ इस बात की कल्पना की जा सकती है कि मनु नाम के कोई तानाशाह रहे होंगें जिनकी ताक़त के नीचे पूरी आबादी दबी रही होगी और वे जो कह देंगे ,उसे सब मान लेंगें और उन लोगों की आने वाली नस्लें भी उसे मानती रहेंगी.उन्होंने कहा कि , मैं इस बात को जोर दे कर कहना चाहता हूँ कि मनु ने जाति की व्यवस्था की स्थापना नहीं की क्योंकि यह उनके बस की बात नहीं था. . मनु के जन्म के पहले भी जाति की व्यवस्था कायम थी. . मनु का योगदान बस इतना है कि उन्होंने इसे एक दार्शनिक आधार दिया. . जहां तक हिन्दू समाज के स्वरुप और उसमें जाति के मह्त्व की बात है, वह मनु की हैसियत के बाहर था और उन्होंने वर्तमान हिन्दू समाज की दिशा तय करने में कोई भूमिका नहीं निभाई. उनका योगदान बस इतना ही है उन्होंने जाति को एक धर्म के रूप में स्थापित करने की कोशिश की . जाति का दायरा इतना बड़ा है कि उसे एक आदमी, चाहे वह जितना ही बड़ा ज्ञाता या शातिर हो, संभाल ही नहीं सकता. . इसी तरह से यह कहना भी ठीक नहीं होगा कि ब्राह्मणों ने जाति की संस्था की स्थापना की. मेरा मानना है कि ब्राह्मणों ने बहुत सारे गलत काम किये हैं लेकिन उनकी औक़ात यह कभी नहीं थी कि वे पूरे समाज पर जाति व्यवस्था को थोप सकते. . हिन्दू समाज में यह धारणा आम है कि के जाति की संस्था का आविष्कार शास्त्रों ने किया और शास्त्र तो कभी गलत हो नहीं सकते. बाबा साहेब ने अपने इसी भाषण में एक चेतावनी और दी थी कि उपदेश देने से जाति की स्थापना नहीं हुई थी और इसको ख़त्म भी उपदेश के ज़रिये नहीं किया जा सकता.. यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना ज़रूरी है अपने इन विचारों के बावजूद भी , डा अंबेडकर ने समाज सुधारकों के खिलाफ कोई बात नहीं कही. ज्योतिबा फुले का वे हमेशा सम्मान करते रहे. . हाँ उन्हें यह पूरा विश्वास था कि जाति प्रथा को किसी महापुरुष से जोड़ कर उसकी तार्किक परिणति तक नहीं ले जाया जा सकता.

डा अंबेडकर के अनुसार हर समाज का वर्गीकरण और उप वर्गीकरण होता है लेकिन परेशानी की बात यह है कि इस वर्गीकरण के चलते वह ऐसे सांचों में फिट हो जाता है कि एक दूसरे वर्ग के लोग इसमें न अन्दर जा सकते हैं और न बाहर आ सकते हैं . यही जाति का शिकंजा है और इसे ख़त्म किये बिना कोई तरक्की नहीं हो सकती. सच्ची बात यह है कि शुरू में अन्य समाजों की तरह हिन्दू समाज भी चार वर्गों में बंटा हुआ था . ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र . यह वर्गीकरण मूल रूप से जन्म के आधार पर नहीं था, यह कर्म के आधार पर था .एक वर्ग से दूसरे वर्ग में आवाजाही थी लेकिन हज़ारों वर्षों की निहित स्वार्थों कोशिश के बाद इसे जन्म के आधार पर कर दिया गया और एक दूसरे वर्ग में आने जाने की रीति ख़त्म हो गयी. और यही जाति की संस्था के रूप में बाद के युगों में पहचाना जाने लगा. . अगर आर्थिक विकास की गति को तेज़ किया जाय और उसमें सार्थक हस्तक्षेप करके कामकाज के बेहतर अवसर उपलब्ध कराये जाएँ तो जाति व्यवस्था को जिंदा रख पाना बहुत ही मुश्किल होगा. और जाति के सिद्धांत पर आधारित व्यवस्था का बच पाना बहुत ही मुश्किल होगा.. अगर ऐसा हुआ तो जाति के विनाश के ज्योतिब फुले, डा. राम मनोहर लोहिया और डा. अम्बेडकर की राजनीतिक और सामाजिक सोच और दर्शन का मकसद हासिल किया जा सकेगा.

तालाबों के मरम्मत की केन्द्र सरकार की योजना को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं अफसर




शेष नारायण सिंह 

नयी दिल्ली, ३० नवम्बर। पंद्रहवीं लोकसभा की जल  संसाधन मंत्रालय से संबद्ध स्थाई समिति की सोलहवीं रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों में २७ नवंबर को पेश कर दी गयी.रिपोर्ट को देखने से साफ़ पता चलता  है कि जल संकट की तरफ बढ़ रहे देश में इतनी महत्वपूर्ण योजना नौकरशाही की मनमानी का शिकार हो रही है . देश भर में फैले तालाबों की मरम्मत, नवीनीकरण और  जीर्णोद्धार के लिए केन्द्र सरकार की एक बहुत   ही महत्वपूर्ण योजना को सरकारी अफसरों के गैर ज़िम्मेदार रवैय्ये के कारण सफल नहीं हो रही है .अपनी कालजयी किताब ," आज भी खरे हैं तालाब " में अनुपम मिश्र ने लिखा है कि 'पानी का प्रबंध उसकी चिंता हमारे समाज के कर्तव्य बोद्ध के विशाल सागर की एक  बूँद थी. सागर और बूँद एक दूसरे से जुड़े थे .' लेकिन आज हमें यह देखने को मिल  रहा  है कि सरकार के स्तर पर तो कोशिश  हो रही है लेकिन अफसर उसे गडबड कर रहे हैं .

देश भर में फैले तालाबों , बावलियों और पोखरों की 2000-2001 में गिनती की गयी थी। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से देश में इस तरह के जलाशयों की संख्या  साढ़े पांच लाख से ज्यादा है . इसमें से करीब 4 लाख 70 हज़ार जलाशय किसी न किसी रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं .जबकि करीब 15 प्रतिशत बेकार पड़े हैं . दसवीं पञ्च वर्षीय योजना के दौरान 2005  में केंद्र सरकार ने एक स्कीम शुरू करने की योजना बनायी  जिसके तहत इन जलाशयों  की मरम्मत , नवीकरण और जीर्णोद्धार ( आर आर आर ) का काम शुरू किया जान था . ग्यारहवीं योजना में काम शुरू भी हो गया .इसके अधीन केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों के  ज़रिये इस योजना को लागू करने की योजना बनायी . कुछ धन केंद्र सरकार की तरफ  से जाना था जबकि विश्व बैंक जैसी संस्थाओं से भी कुछ धन आना था। इस योजना का लक्ष्य इन जलाशयों की क्षमता बढ़ाना और सामुदायिक  स्तर  पर  बुनियादी ढाँचे का विकास करना था . गाँव  ,ब्लाक, जिला और राज्य स्तर पर योजना को लागू किया  गया है । हर स्तर  पर टेक्नीकल एडवाइज़री कमेटी का   गठन किया जाना था . सेन्ट्रल वाटर कमीशन और  सेन्ट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड को इस योजना को तकनीकी सहयोग देने के   ज़िम्मा दिया गया .  जल संसाधन मंत्रालय इस योजना को केंद्र सरकार के स्तर पर मानिटर करता है .

यह योजना बहुत ही महत्वाकांक्षी है . और इस बात को सुनिश्चित करने का एक प्रयास है कि आने वाले दिनों में देश में जल की कमी एक भयावह समस्या का रूप ने ले ले। सरकार की तरफ से कोशिश यह भी  की गयी  कि  मनरेगा  जैसी अन्य स्कीमों से इसको मिलाकर अधिकतम और अच्छे नतीजे हासिल किये जा सकें . लेकिन संसद में रखी गयी इस विषय पर बनी स्थायी समिति की रिपोर्ट  में लिखा  है कि इस दिशा में उम्मीद के मुताबिक कुछ भी नहीं हुआ है।सबसे तकलीफ की बात यह है कि  इस योजना को लागू  करने का जिन सरकारी महकमों को  ज़िम्मा दिया  गया था वे सभी लापरवाह हैं .कमेटी ने अपनी नाराज़गी इस बात पर जताई है  कि  ज़रूरी स्कीमें ही नहीं बनायी जा सकीं।इस स्कीम की  पाइलट प्रोजेक्ट के तहत  शुरू में 3341 जलाशयों को  चुना गया था लेकिन  कमेटी को बताया गया कि सितम्बर 2012 तक केवल 1481 जलाशय की ठीक किये जा सके। इस योजना के लिए जो धन आवंटित किया गया है वह भी इस्तेमाल नहीं हो रहा है .कमेटी ने सुझाव दिया है कि आर आर आर स्कीम की सफलता के लिए पंचायतों को  भी शामिल किया जाए. इस काम में केंद्रीय जन संसाधन मंत्रालय का बहुत भारी योगदान है . मंत्रालय को चाहिए कि धन का आवंटन करके ही अपने काम  की इतिश्री न समझ लें .  अभी व्यवस्था यह है कि  राज्य सरकारों को कम्पलीशन सार्टिफिकेट दाखिल करने पर अगली  किश्त दी जाती है . ज़रूरत इस बात की है कि मंत्रालय राज्य सरकारों से बाकायदा प्रोग्रेस रिपोर्ट मंगवाए और काम पर नज़र रखने के लिए अफसर तैनात करे.

आर आर आर स्कीमों पर तकनीकी नज़र रखने का काम अभी केन्द्र सरकार की कंपनी वाटर एंड पावर कंसल्टेंसी सर्विसेज लिमिटेड ( वाप्कोस) के ज़िम्मे किया गया है .अभी वाप्कोस को फंड तब रिलीज़ किया जाता है जब राज्य सरकारें प्रोजेक्ट का मूल्यांकन कर लेती हैं . कमेटी का सुझाव है कि मंत्रालय को राज्य सरकारों से बात करके ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जिस से वाप्कोस को फंड समय से दिया जा सके.कमेटी ने पाया है कि एक बार प्रोजेट शुरू हो जाने के बाद अफसर लोग उसको देखने बहुत कम जाते हैं . अफसरों के यात्रा विवरण  कमेटी के पास उपलब्ध हैं  जिनसे पता चलता है कि केन्द्र  सर्कार के अफसर तो राज्यों के दौरे पर जाते हैं लेकिन राज्य सरकार के अफसर मौके  का निरीक्षण करने में कोताही बरत रहे हैं.इसे भी ठीक किये जाने की ज़रूरत है . कुल मिलाकर पंद्रहवीं लोकसभा की जल  संसाधन मंत्रालय से संबद्ध स्थाई समिति की सोलहवीं रिपोर्ट  से पता  चलता है कि केन्द्र सरकार की इतनी  महत्वपूर्ण स्कीम अफसरों की लापरवाही के चलते बिलकुल बेकार साबित हो  रही है.

सब्सिडी की रकम सीधे उपभोक्ता तक पंहुचाकर कांग्रेस ने गेम चेंज कर दिया है .



शेष नारायण सिंह 

एफ डी आई  के मुद्दे को यू पी ए सरकार को घेरने के लिये बीजेपी इस्तेमाल नहीं कर पायी. अब सरकार ने कह दिया है कि बहस चाहे जैसे करवा ली जाए.यानी उसने लोकसभा में इतने वोटों का प्रबंध कर लिया है कि बीजेपी को अब सरकार को मुश्किल में डालना आसान  नहीं होगा .यू पी ए की प्रमुख सहयोगी डी एम के के आला नेता,करूणानिधि ने ऐलान कर दिया है  कि वह सरकार को मुश्किल में नहीं डालेगें . यही रुख तृणमूल कांग्रेस का भी है . वह भी सरकार को परेशानी में नहीं पड़ने देना चाहती . हालांकि तृणमूल वालों को कांग्रेस या उसके नेतृत्व से कोई मुहब्बत नहीं है. वह तो मनमोहन सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लेकर आ  गए थे . तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी ने उम्मीद की थी कि उनके अविश्वास प्रस्ताव के नोटिस को बीजेपी का समर्थन मिल जाएगा . हालांकि ऐसी कोई जानकारी नहीं है कि बीजेपी ने उनको किसी भी स्तर पर  वादा किया हो कि उनके प्रस्ताव पर समर्थन या कोई सहूलियत दी जायेगी .  लेकिन ममता बनर्जी ने बीजेपी से उम्मीद लगा रखी थी कि बीजेपी वाले यू पी ए सरकार को परेशान करने के लिए उनके साथ आ  जायेगें . लेकिन ऐसा नहीं हुआ.नतीजा यह हुआ कि तृणमूल कांग्रेस का अविश्वास प्रस्ताव मुंह के बल गिर पड़ा.एफ डी आई के खिलाफ होने के बावजूद भी तृणमूल कांग्रेस  आज बीजेपी के साथ दिखने के लिए तैयार नहीं है इसका कारण यह  है कि वह बीजेपी को भी मुश्किल में डालना चाहते हैं.आज का घटनाक्रम ऐसा है कि नियम १८४ के तहत जब लोकसभा में बहस होगी तो बीजेपी को कुछ  खास हासिल नहीं होगा . उसका प्रस्ताव पास नहीं हो सकेगा और सरकार  को कोई फरक नहीं पडेगा .  एक बार फिर राजनीतिक प्रबंधन में  बीजेपी को कांग्रेस ने  पिछाड दिया है . बीजेपी के प्रबंधकों में इस बात पर  चर्चा शुरू हो गयी है कि गलती कहाँ हुई. जबकि  बाकी दुनिया को मालूम है कि गलती कहाँ हुई है . जब अटल बिहारी वाजपेयी  प्रधान मंत्री थे थे तो उनके साथ बहुत सारी पार्टियां हुआ करती  थीं लेकिन आज बात  बिलकुल अलग है. एन डी ए में तृणमूल कांग्रेस, डी एम के , तेलुगु देशम. बीजू जनता दल  , नेशनल कानफरेंस सब थे .एक वक़्त तो जयललिता भी अटल बिहारी  वाजपेयी की समर्थक रह चुकी है . लेकिन आज हालात वैसे नहीं है . आज बीजेपी के  साथ पूरी तरह से केवल शिवसेना और अकाली दल ही बचे है . नीतीश कुमार की  जे डी ( यू  ) भी अधिकतर मुद्दों पर  बीजेपी के खिलाफ रहती है . अभी ताज़ा  उदाहरण सी बी आई के निदेशक की नियुक्ति का है जहां  बीजेपी के दोनों बड़े नेताओं ने प्रधान मंत्री के पास चिट्ठी लिखी थी लेकिन नीतीश कुमार ने उस चिट्ठी से सहमति नहीं जताई ,. बीजेपी के बड़े नेता नरेंद्र  मोदी को नीतीश  कुमार अपने  राज्य में चुनाव प्रचार तक नहीं करने देते हैं . ऐसी हालत में बीजेपी के साथ अब ऐसी ताक़त नहीं है कि वह किसी सरकार को हिला  सके. बीजेपी की राजनीतिक रणनीति  की दुर्दशा अभी राष्ट्रपति के चुनाव में भी  हो चुकी है  जबकि उसके  खास साथी शिवसेना ने भी कांग्रेस के उम्मीदवार का साथ दिया . वहाँ भी ममता बनर्जी की राजनीतिक सोच की धज्जियां उड़ी थीं जब  उन्होंने समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर कांग्रेस को शिकस्त देने की कोशिश की थी . उस वक़्त भी ममता बनर्जी को मालूम था कि वे कांग्रेस उम्मीदवार को तो हरा नहीं पायेगीं लेकिन वे यू पी ए की सरकार को कमज़ोर करना चाहती थीं. उस दौर में ममता बनर्जी यू पी ए में शामिल थीं और जो कुछ भी चाहती थीं , सरकार को करना पड़ता था . उनकी गैरवाजिब मांगों से  मनमोहन सरकार और सोनिया गांधी परेशान थे लेकिन ममता सरकार को गिरा नहीं सकती थीं क्योंकि उस सरकार को मुलायम  सिंह यादव के  २२ सदस्यों का बाहर रहकर समर्थन प्राप्त था . राष्ट्रपति चुनाव के दौरान ममता बनर्जी ने कोशिश की थी कि मुलायम सिंह यादव को अपने साथ लेकर वे यू पी ए से अपनी हार बात  मानने को मजबूर कर सकेगीं . लेकिन उनसे गलती हो गयी . उन्होंने सोचा कि मुलायम सिंह यादव  उनकी राजनीति चमकाने में मदद  करेगें. राजनीति का बुनियादी सिद्धांत है कि सभी नेता अपनी राजनीति को चमकाने के  लिए काम करते हैं . मुलायम  सिंह ने भी अपनी राजनीति को मज़बूत किया . उनकी राजनीति यह है कि वे कभी भी किसी साम्प्रदायिक शक्ति के साथ  नहीं देखे जा सकते और उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव में बीजेपी के उम्मीद्वार के खिलाफ वोट देकर कांग्रेस के उम्मीदवार को  जिता दिया और प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति हो  गए. उस चुनाव में भी कांग्रेस की राजनीति सफल रही  थी और बीजेपी की राजनीति को झटका लगा था .

   १९८९ के बाद से  ही बीजेपी की राजनीति का सभी मकसद हासिल किये जाते रहे हैं .उनकी बात को सबसे ऊपर तक पंहुचाने में उनके विपक्षियों की सबसे बड़ी भूमिका रहती रही है .कांग्रेस का नेतृत्व जबतक लचर था ,बीजेपी को कोई परेशान नहीं कर सकता था . बीजेपी की बात को आगे बढाने में मीडिया की भूमिका भी बहुत ही अहम रही है .  जब बाबरी मसजिद की  हिफाज़त के दौरान उत्तर प्रदेश की तत्कालीन सरकार ने गोलियाँ चलवाई थीं तो वाराणसी से छपने वाले हिंदी के एक अखबार ने तो लिख दिया था कि खून से सरजू नदी लाल हो गयी थी.  जो कि सच नहीं था.बाद में पता लगा कि खबर गलत थी . बाद के दौर में भी मीडिया ने बीजेपी की मदद की.बड़ी संख्या में मीडिया संगठनों में  बीजेपी  से सहानुभूति रखने वाले पत्रकारों की मौजूदगी के कारण ऐसा माहौल बन गया कि अगर कोई बीजेपी के खिलाफ कोई तथ्यपरक खबर भी लिखता  तो उस पर नज़रें तिरछी होने लगी थीं . लेकिन पिछले  कुछ वर्षों से बीजेपी के पक्ष में काम करने वाले पत्रकारों के सामने बड़ी मुश्किल है . जब से कर्नाटक की बीजेपी सरकार के भ्रष्टाचार के कारनामे पब्लिक हुए हैं . मीडिया को उसे हाईलाईट करना पड़ रहा है. ताज़ा मामला तो बीजेपी  के अध्यक्ष का ही  है . एक बार फिर साबित हो गया है कि भ्रष्टाचार में टू जी, कामनवेल्थ खेल,और अन्य घोटाले करने वाली यू पी ए और बीजेपी के नेता भ्रष्टाचार की पिच पर बराबर  हैं . दोनों ही पार्टियों में भ्रष्टाचार है .सवाल केवल भ्रष्टाचार को मैनेज करने का  है . बीजेपी के भ्रष्टाचार को उजागर करने में देश के हिंदी और अंग्रेज़ी , दोनों ही भाषाओं के सबसे बड़े अखबारों ने पूरी निष्पक्षता से काम किया है . नतीजा यह है कि अब भ्रष्टाचार के मामलों में कांग्रेस को बीजेपी घेर नहीं सकती . बीजेपी के मौजूदा अध्यक्ष के राजनीतिक कद को लेकर भी बीजेपी डिफेंसिव है . नितिन गडकरी अपनी ही पार्टी के सभी राष्ट्रीय नेताओं से  छोटे पाए जा  रहे हैं . लोकसभा और राज्य सभा में उनकी पार्टी के दोनों नेता ,उनसे बहुत बड़े हैं . उनके  सभी पूर्व अध्यक्ष उनसे राजनीतिक हैसियत में बहुत ऊंचे हैं और ऊपर से उन्होने महाराष्ट्र सरकार में मंत्री रहने के दौरान कुछ ऐसे काम किये हैं जिसका खामियाजा उनकी पार्टी को आज भुगतना पड़ रहा है . उनकी पार्टी  के निर्माताओं में  अटल  बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवानी का नाम लिया जाता है .. नितिन गडकरी के लिए वे ऊंचाइयां तो असंभव ही मानी जायेगीं . 
बीजेपी की एक और मुश्किल  है . उनका मुकाबला कांग्रेस से माना जाता है जहां राष्ट्रीय अध्यक्ष  का कद पार्टी के हर बड़े नेता से बड़ा  है . सोनिया गांधी  बहुत ही विपरीत परिस्थितियों में राजनीति में आयीं . अध्यक्ष के रूप में सीताराम केसरी ने पार्टी  को कहीं का नहीं छोड़ा था लेकिन सोनिया गांधी ने जीरो से शुरू  करके पार्टी को सरकार तक पंहुचाया . विपक्षी पार्टी की मुखिया के रूप में  काम शुरू  किया और केन्द्र सरकार में अपने कार्यकर्ता को प्रधान मंत्री  पद तक पंहुचाया . डॉ मनमोहन सिंह के बारे में उन दिनों कहा  जाता था  कि वे बहुत ही कमज़ोर प्रधान मंत्री हैं लेकिन अर्थशास्त्र के विद्वान प्रधान  मंत्री को दुबारा जीत दिलाकर उन्होंने साबित कर दिया कि वे देश की सबसे बड़ी राजनीतिक नेता  हैं . बीजेपी के बहुत ही कुशल पार्टी प्रवक्ताओं के आरोपों पर भी चुप रहने की कला में  प्रवीण सोनिया गांधी ने जब भी मौक़ा लगा तो संसद में लाल  कृष्ण आडवानी तक को हडका लिया और आडवानी जी को मजबूर होकर अपना बयान वापस लेना पड़ा. यू पी ए के पहले कार्यकाल में मनरेगा और सूचना के अधिकार जैसे क्रांतिकारी काम  के बल पर उन्होंने अपनी सरकार को दूसरा कार्यकाल दिलवा दिया . इस  हफ्ते सब्सिडी को सीधे उपभोक्ता के बैंक खाते में भेजने की जिस योजना की घोषणा कांग्रेस की नियमित ब्रीफिंग में  जाकर जयराम रमेश और पी चिदंबरम ने की है , वह गेम चेंजर  की भूमिका निभाएगा और आब विपक्ष को और भी मज़बूत रणनीति के साथ आना पड़ेगा वर्ना अगर कहीं सोनिया गाँधी ने लगातार तीन बार अपनी पार्टी के नेता को प्रधानमंत्री बनवा दिया तो वे जवाहरलाल नेहरू के बराबर की राजनेता  हो जायेगीं और बीजेपी  के लिए  बहुत मुश्किल होगी. बीजेपी को चाहिए कि वह फ़ौरन सोनिया गांधी को राजनीतिक चुनौती देने में सक्षम नेता  की  तलाश करे वर्ना बहुत देर हो चुकी होगी .क्योंकि आज की बीजेपी की राजनीति अपने अंदर से आ रही चुनौतियों को  संभालने में परेशान है जबकि  कांग्रेस समेत बाकी पार्टियां २०१४ या २०१३ जब भी लोक सभा चुनाव  होंगें उसकी तैयारी में हैं .

Sunday, November 25, 2012

गाजा में इजरायल की दादागीरी रोकने में नाकाम अमरीका की विदेशनीति कन्फ्यूज्ड है



शेष नारायण सिंह 


दूसरे विश्व युद्ध के दौरान नाजी जर्मनी में यहूदियों के साथ बहुत ज्यादती हुई थी .उसके बाद ही नाजी जर्मनी  को हराने वाली शक्तियों ने  अरब क्षेत्रमें यहूदी  राज्य की स्थापना कर दी थी.इसी राज्य में यरूशलम है जो  इस्लाम का एक बहुत ही पवित्र केन्द्र है और वहाँ पिछले ६४ साल से यहूदियोंका कब्जा है . इजरायल नाम के इस राज्य  को अमरीका ही चलाता है . अमरीकी नीति के इजरायल समर्थक रुख के कारण ही आज अरब क्षेत्र में यहूदीआतंकवाद कायम है . यह अलग बात है कि पश्चिम एशिया के कुछ देशों के शासक अमरीका को खुश रखने के चक्कर  में इजरायल का ऐलानियाँविरोध नहीं करते लेकिन इस बात में भी कोई शक नहीं है कि पश्चिम एशिया और बाकीदुनिया के मुसलमान इजरायली दादागीरी के खिलाफ हैं . दुनिया भर में इन्साफपसंद लोग इजरायल द्वारा आतंक को हथियार बनाने के तरीकोंकी मुखालफत करते हैं .इस इलाके में हमेशा से ही इजरायली आधिपत्य का विरोध होता रहा है .  बहुत दिन बाद जब फिलीस्तीनी लोगों की भावनाओंको सम्मान देने की गरज़ से अमरीका ने फिलीस्तीनी नेता यासर अराफात और इजरायल के बीच समझौता करवाया तो फिलीस्तीनी इलाकों में अरबलोगों को थोड़े बहुत अधिकार तो  मिले लेकिन उनकी हैसियत हमेशा से ही दूसरे दर्जे के नागरिकों की ही रही .चुनावी लोकशाही के चलते चुनावों  में गाजा में हमास के नेतृत्व में सरकार बनी लेकिन अमरीका ने उसे स्वीकार नहीं किया और  एक बार फिर फिलिस्तीन और इजरायल के बीच जारीदुश्मनी  सामने आ गयी और आजकल वहाँ गोलीबारी चल  रही है . हमास किसी भी सूरत में पश्चिम एशिया में इजरायल की मौजूदगी स्वीकार करने कोतैयार नहीं है. जिस ज़मीन को वे अपनी मानते हैं उसी गाजा  इलाके में अरब आबादी  बद से बदतर हालत में रहने को मजबूर है.गाजासे इजरायली सैनिक तो चले  गए हैं लेकिन अभी भी इजरायल ने समुद्री सीमा, वायु सीमा और गाजा के चारों तरफ की ज़मीन की सीमा की घेरेबंदी कर रखी है. आज भी गाजा के लोग यह मानते हैं कि उनके ऊपर इजरायल ने सैनिक कब्जा कर रखा है और उस कब्जे से मुक्ति दिलाने वाले संगठन के रूप में हमास की पहचान  बनती है .

इस पृष्ठभूमि में वर्तमान हमास-इजरायल संघर्ष को देखा जाना चाहिए . जब चार साल पहले  इजरायल ने गाजा पर हमला किया था तो उसी हमले के बाद हुई शान्ति में अगले संघर्ष की इबारत लिख दी गयी थी. हमास की कोशिश है कि वह पश्चिम एशिया में न्याय के लिए चल रहे संघर्ष का नायक  बन जाय . शायद इसीलिए वह अमरीकी समर्थन से राज कर रहे इजरायल के खिलाफ ताकत का इस्तेमाल कर देता है . हर बार की तरह इस बार भी  इजरायल ने  ज़रूरत से ज्यादा ताक़त झोंककर फिलितीनियों को दबा लेने की कोशिश की. दुनिया जनाती है  कि एक ही ज़मीन पर रह रहे इजरायलियों  और फिलिस्तीनियों के बीच नफरत के सिवा कुछ भी साझा नहीं है .ऐसी हालत में गाजा पट्टी में सक्रिय हमास के लड़ाकू कभी कभार इजरायली इलाकों पर राकेट दागते रहते हैं . जबकि इजरायल का कहना है कि जब २००५ में उसने गाजा पट्टी से अपने सैनिक हटा लिए और अपनी आबादी को वापस बुला लिया तो फिलीस्तीनी आवाम की नाराज़गी का कोई कारण नहीं होना चाहिए . लेकिन २००५ के समझौते से अरब अवाम में कोई खुशी नहीं थी . शायद इसी लिए गाजा की जनता ने यासर अराफात की  फतह पार्टी को हराकर हमास को  २००६ में सत्ता सौंप दी थी .


इजरायली अवाम भी हर हाल में अपने आपको  मज़बूत रखना चाहता है  . उसकी ऐतिहासक याददाश्त में जर्मनी में यहूदियों के साथ हुए अत्याचार ताज़ा हैं . जबकि अरब  दुनिया में भी आजकल चारों तरफ इन्साफ के लिए  संघर्ष की ख़बरें आम हैं .इसी सन्दर्भ में हमास की स्वीकार्यता भी  बढ़ रही है .हालांकि अमरीका हमास को मान्यता नहीं  देता और कोशिश करता है कि उसे अछूत माना जाय  लेकिन अरब और इस्लामी दुनिया में हमास की स्थिति मज़बूत हो रही है . पिछले महीने कतर के अमीर  की  यात्रा से हमास की  मान्यता हासिल करने की कोशिश को ताकत मिली थी . इजिप्ट के प्रधानमंत्री की यात्रा भी इसी कड़ी में देखी जानी चाहिए .हालांकि इजिप्ट में जो सरकार है वह अमरीका की कृपा पर पल  रही है लेकिन हालात की नजाकात ऐसी है कि अमरीकी कारिंदे भी अब हमास को नज़र अंदाज़ नहीं कर पा रहे हैं .इजिप्ट के राष्ट्रपति मुहम्मद मोर्सी ने कहा है कि आज के इजिप्ट और पुराने इजिप्ट में बहुत फर्क है . यहाँ यह बात गौर करने की है कि  हमास और मुहम्मद मोर्सी के संगठन ,मुस्लिम ब्रदरहुड के  बीच बिरादराना  राजनीतिक सम्बन्ध हैं .

पश्चिम एशिया की राजनीति के जानकार बताते हैं कि २२ जनवरी को होने वाले इजरायली चुनाव के कारण भी शायद वहाँ के शासकों  ने  अरबों को सबक सिखाने की बात को बार बार दोहराया है.. इजरायली नेता इस बात से इनकार करते हैं लेकिन ऐसा  पहले भी हुआ है जब इजरायली चुनाव में अच्छा नंबर लाने के चक्कर ने इजरायली सत्ताधारी दल ने अरबों पर हमले किये थे.जून १९८१ में मेनाचेम बेगिन इजरायल के प्रधान मंत्री थे . कुछ ही हफ्ते बाद चुनाव होने थे और माना जा रहा था  कि उनको चुनौती देने वाले शिमोन पेरेज़ की जीत होगी लेकिन बेगिन ने अपनी सीमा से बहुत  दूर इराक में ओसिरक के परमाणु ठिकाने पर हमला करके उसे बर्बाद कर दिया .बेगिन की अमरीका ने तारीफ़ की और कहा कि सद्दाम हुसेन की परमाणु  हथियार बनाने की क्षमता को तबाह करके बेगिन ने अच्छा काम किया है . बेगिन के लिए जो हारा हुआ चुनाव था उसमें वे मामूली बहुमत से जीत गए .जिन शिमोन पेरेज़ को १९८१ में बेगिन ने हराया था वे १९९६ में कामचलाऊ  प्रधानमंत्री थे.चुनाव में उनकी हालत अच्छी नहीं थी. इजरायली लोग उन्हें शान्ति का पैरोकार मानते थे .इजरायली समाज में शान्ति का पैरोकार होना कोई बहुत अच्छी बात  नहीं मानी जाती. अपनी छवि को हमलावर साबित करने  के लिए  उन्होने हमास के बहुत सारे कार्यकर्ताओं को मरवा डाला और हेज़बोल्ला के खिलाफ हमला बोल दिया . लेबनान में हेज़बोल्ला  के  ठिकानों पर बमबारी की . उस चुनाव के दौरान आमतौर पर यह बताया गया था कि पेरेज़ चुनाव में जीत  के चक्कर में यह सब कर रहे थे. उनकी हालत में सुधार भी हुआ लेकिन आखिर में चुनाव हार  गए . ऐसा शायद इसलिए कि  उनके हमले में लेबनान में मौजूद संयुक्तराष्ट्र के कुछ कार्यकर्ता भी मारे  गए थे . ऐसा ही सैनिक हमला चार साल पहले भी देखा गया था जब बेंजामिन नेतान्याहू की जीत पक्की मानी जा रही थी . घबडाकर उस वक़्त  के प्रधानमंत्री एहूद ओलमर्ट ने हमला कर दिया और उनको थोडा बहुत चुनावी लाभ मिल गया .

इजरायल और हमास के बीच चल रहे संघर्ष का अरब दुनिया पर जो भी असर पड़ रहा हो लेकिन अमरीकी विदेशनीति की भी कड़ी परीक्षा हो रही है .अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा ने नोम पेन्ह में मौजूद अपनी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन को पश्चिम एशिया की यात्रा पर भेज दिया है .  अमरीका की हमास से तो बोलचाल नहीं है लेकिन हिलेरी क्लिंटन ने वहाँ रामल्ला में फिलीस्तीनी नेताओं से बातचीत किया है और कोई नतीजा तलाशने की कोशिश जारी है . अमरीका की चिंता इसलिए भी बढ़ गयी है कि तुर्की के प्रधानमंत्री रेसेप तय्यब एरदोगान ने भी इजरायल को एक आतंकवादी राज्य घोषित कर दिया और गाजा पर हो रहे इजरायल के हवाई हमलों की निंदा की . अभी कुछ दिन पहले जब इजरायल ने जब कहा कि वह गाजा में ज़मीनी हमला शुरू कर देगा तो इजिप्ट के राष्ट्रपति मुहम्मद मोर्सी ने इजरायल को ऐसी किसी भी कोशिश से बाज़ आने की चेतावनी दी और  अपने प्रधानमंत्री को गाजा की यात्रा  पर भेज दिया  . इजरायल की  ताज़ा हठधर्मी के चलते उसके आका अमरीका के पश्चिम एशिया में मौजूद दोस्त भी अमरीका की जयजयकार करने की स्थिति में नहीं हैं .इजिप्ट की सरकार में इस बात पर भारी नाराज़गी है कि अमरीका ने  हफ़्तों चली बमबारी के बाद भी इजरायल से सार्वजनिक रूप से हमले रोकने को नहीं कहा .इस क्षेत्र में इजिप्ट के अलावा  जोर्डन भी अमरीका का दोस्त  माना  जाता  है लेकिन इजरायल के  रवैया ऐसा है कि वह  भी अब तक अमरीका के पक्ष में कुछ भी नहीं कह पाया है . अमरीकी सरकार ने सभी पक्षों से अपील की है कि वह  पश्चिम एशिया में संघर्ष की हालत को काबू में करें . बमबारी कर रहे इजरायल और हमले झेल रहे गाजा को एक ही  स्तर पर रखने के अमरीकी रुख से अरब दुनिया में गम और गुस्सा है . शायद इसीलिये अपनी लगातार गिर रही साख को संभालने की गरज़ से ओबामा ने अपनी विदेश मंत्री को  रामल्ला भेजा है . यह अलग बात है कि हालात पर काबू कर पाना अब अमरीका के लिए तभी संभव होगा जब वह इजरायल को  सैनिक ताकत का इस्तेमाल करने से रोक पाए.


(२१ नवंबर को लिखा गया लेख )

Sunday, November 18, 2012

संसदीय लोकतंत्र के अस्तित्व पर भ्रष्टाचार का संकट , उसे बचाने के लिए अवाम का एकजुट होना ज़रूरी





शेष नारायण सिंह 

जब पी वी नरसिम्हाराव के  वित्त मंत्री के रूप में डॉ मनमोहन सिंह ने अंधाधुंध निजीकरण की प्रक्रिया की  बुनियाद डाली थी तो लोगों की समझ में  नहीं आ रहा था कि अर्थशास्त्र का यह विद्वान वित्त मंत्री के अपने अवतार में करना क्या चाहता था. आज़ादी के बाद जो कुछ भी राष्ट्र की संपत्ति के रूप में बनाया गया था ,उसे पूंजीपतियों के हाथ में सौंप देने की राजनीति शुरू हो चुकी थी. उसके पहले शासक  वर्गों की पार्टियों ने  बाबरी मसजिद के विवाद के ज़रिये धार्मिक भावनाओं को खूब ज़बरदस्त तरीके से उभार दिया था और दोनों ही बड़ी पार्टियां यह सुनिश्चित कर चुकी थीं कि देश के अधिकाँश आमजन हिंदू या  मुसलमान के रूप में अपनी अस्मिता की रक्षा के चक्कर में इतनी बुरी तरह से उलझ जायेगें कि वे अपने राजनीतिक भविष्य के साथ खिलवाड कर रही राजनीतिक पार्टियों की चाल की बारीकियो को देखना बंद कर देगें .  यही हुआ भी .यह अलग बात है कि  उस दौर में भी समझदार राजनेताओं का एक बड़ा वर्ग था जिसने संसद में और संसद के बाहर यह चेतावनी दी थी कि अगर मंदिर मसजिद के चक्कर में देश का अवाम उलझा रहा तो देश की राजनीति का बहुत नुक्सान हो जाएगा. ऐसे ही एक राजनेता मधु  दंडवते थे. उन्होंने कहा कि मनोहन सिंह की राजनीति देश के सार्वजनिक उद्योगों के मुनाफे का निजीकरण कर रही है और नुक्सान का राष्ट्रीयकरण कर रही है . उन्हीं मधु दंडवते की याद में दिल्ल्ली में एक  सेमीनार में आज की संसदीय लोकशाही के  सामने मौजूद संकटों पर बातचीत हुई. समाजवादी चिन्तक मस्त राम कपूर और कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव सुधाकर रेड्डी मुख्य वक्ता थे, चर्चा के दौरान आज की हमारी राजनीति के संकट के बारे में खुलकर चर्चा हुई. 

मस्त राम कपूर ने कहा  कि आज की संसदीय राजनीति के  सामने सबसे बड़ा संकट दल बदल क़ानून के कारण पैदा  हुआ  है . इस कानून ने भारतीय राजनीति  से असहमति का अधिकार छीन लिया है . नतीजा यह है कि संसद और विधान सभा के सदस्यों के सामने पार्टी के व्हिप को मानने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है . उन्होंने भारतीय राजनेति में दल बदल के कानून के इतिहास के बारे में भी कुछ जानकारी थी. भारत में दलबदल कानून की  ज़रूरत १९६७ में गैर कांग्रेस बाद की सफलता के बाद महसूस की गयी थी.जब कई राज्यों में विपक्षी दलों ने मिलजुलकर सरकारें बनाई थीं. आया राम और गयाराम भारतीय राजनीति के नए मुहावरे बने थे . दल बदल पर रोक लगाने की ज़रूरत के मद्दे नज़र सरकार को सुझाव देने के लिए तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने एक  कमेटी बनायी जिसके प्रमुख जयप्रकाश नारायण थे .उस कमेटी में अटल बिहारी वाजपयी, मोरारजी देसाई और मधु लिमये भी थे. उस कमेटी ने सुझाव दिए जिनको कानून की शक्ल देकर दल बदल पर काबू किया जाना था,कमेटी के के सुझावों में पार्टी के आलाकमान से असहमति के अधिकार को सुरक्षित रखा गया था .कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि  पार्टी के नेतृत्व से असहमति का अधिकार हर सदस्य के पास होना चाहिए . यही लोकतंत्र की जान है. अगर असहमति का अधिकार खत्म हो गया तो राजनीतिक पार्टियां मनमाने फैसले करने लगेगीं. इस कमेटी के सुझाव इंदिरा गांधी को सूट नहीं करते थे इसलिए उन्होंने उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया . लेकिन जब उनके हारने के बाद १९७७ में मोरारजी देसाई ने सत्ता संभाली तो उन्होंने दल बदल विरोधी कानून बनाने की बात फिर शुरू कर दी. लेकिन ऐसा कानून बनाने की कोशिश की कि असहमति के अधिकार को खत्म कर देने की ताक़त राजनीतिक पार्टियों  के पास आ जाती. उन दिनों मधु लिमये जनता पार्टी के संसद सदस्य थे उन्होंने इस  प्रस्तावित कानून का ज़बरदस्त विरोध किया और कानून पास नहीं हो सका . उस दौर के कई बड़े लोगों ने मधु लिमये की आलोचना की और उन्हें दल बदलुओ का सरदार भी कहा लेकिन मधु लिमये जिस सदन के सदस्य हों उसमें कोई भी सरकार मनमाने तरीके से लोकतंत्र विरोधी काम नहीं कर सकती थी. यह बात इंदिरा गाँधी और जवाहर लाल नेहरू  को भी मालूम थी. दल बदल क़ानून जनता पार्टी   के समय में नहीं बन सका . लेकिन जब इंदिरा गांधी के मरने के बाद राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने  तो उन्होंने ३० जनवरी के दिन दलबदल कानून पास कारवा लिया . और कहा गया कि महात्मा गांधी की शहादत के दिन कानून पास करवाकर सरकार ने उनके प्रति सही श्रद्धांजलि  दी है .अजीब बात है कि उस दिन संसद में मधु  दंडवते भी मौजूद थे और उन्होंने भी उसका समर्थन किया . जब शाम को वे मधु लिमये से मिलने गए  तब उनकी समझ में आया कि कितनी बड़ी गलती कर चुके थे .उनको अफसोस  भी हुआ लेकिन तब तक चिड़िया खेत चुग चुकी थी. मधु लिमये कहा  करते थे कि अगर एक व्यवस्था कर दी जाए कि जो लोग दल बदल करेगें उन्हें नयी पार्टी की सरकार में तब तक मंत्री नहीं बनाया जाएगा जब तक  उस लोक सभा या विधान सभा का कार्यकाल  खत्म न  हो जाए.  इसके अलावा उनकी सदस्यता से कोई भी छेड़छाड न करने की गारंटी भी  सुनिश्चित की जाए.उन्हें लाभ का कोई भी पद न  दिया जाए. अगर अगले चुनाव में वे अपनी नई पार्टी से जीतकर आते हैं तो उनको मंत्री भी बनाया जा सकता  है और अन्य कोई भी पद दिया जा सकता है . देखा गया है कि ज़्यादातर दल बदल मंत्री बनने की लालच में ही होते है .इसलिए अगर यह पक्का कर दिया जाए कि मंत्री नहीं बनना है तो केवल वे लोग ही दलबदल करेगें  जो सिद्धांतों के आधार पर कर रहे होंगे.

आज दल बदल कानून के चलते संसदीय पद्धति के लोकतन्त्र का भारी नुक्सान हो चुका है . शासक वर्गों  की पार्टियों के आतंरिक लोकतंत्र को लगभग दफ़न किया जा चुका है .और चारों तरफ चुनाव सुधारों की बात होने लगी है .इसी सेमीनार में कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव सुधाकर रेड्डी भी वक्ता थे. उन्होंने कहा कि भारत का संसदीय लोकतंत्र भारी संकट के दौर से गुजर रहा है.. सत्ताधारी वर्गों की दोनों ही पार्टियां आम आदमी से कट चुकी हैं .संसद और विधान सभाओं में हंगामा होना आम बात हो गयी है . उन्होंने  कहा कि जहां पहली लोक सभा के दौरान साल में १४२ दिन काम होता था आज वहीं ४५ दिन का औसत है और वह भी अक्सर हंगामे की भेंट चढ़ जाता है .संसद में ३०० से ज्यादा लोग अरबपति  हैं और वे आम आदमी के हित की बात नहीं करते. कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही पार्टियों के भ्रष्टाचार के जलवे आम हैं . इसीलिये आम आदमी अब यह मानने लगा है कि संसद या विधान सभाओं में उसके हित की बात नहीं की जायेगी .यह बहुत ही निराशा की बात है कि जनता का भरोसा संसद से उठ रहा है .अब लोगों को मालूम है कि संसद में उनका कोई काम नहीं हो रहा है .ऐसी हालत में लोग अपनी समस्याओं के हल के लिए  सडकों पर निकल रहे हैं.जनता को लगभग भरोसा हो चूका है कि संसद में पूंजीपतियों के लाभ के फैसले ही लिए जायेगें. ऐसी हालत में कहीं को अन्ना हजारे, या अरविन्द केजरीवाल में जनता को उम्मीद नज़र आती है और कहीं वामपंथी आतंकवाद का माहौल बन रहा है.  यह सारे विकल्प राजनीतिक रूप से अधूरे हैं इनसे संसदीय लोकतंत्र का भला नहीं होने वाला है 

इसलिए ज़रूरी यह है कि हम एक राष्ट्र के रूप में एकजुट हों और अपने संसदीय लोकतंत्र की  हिफाज़त करें . ऐसा माहौल बनाया जाए जिसके बाद राजनीतिक फैसलों की  बुनियाद आम आदमी के हित को ध्यान में रख कर डाली जाए,क्रोनी कैपिटलिज्म के आधार पर नहीं .ऐसा लगता है कि संसद में हंगामा करके दोनों ही  बड़ी पार्टियां संसद को नाकारा साबित करने के चक्कर में हैं . ऐसा होना बहुत ही बुरा होगा इसलिए आज इस बात की ज़रूरत बहुत ज्यादा है कि सारा देश लोकतंत्र को बचाने के लिए लामबंद हो और कुछ  ऐसी पार्टियां उनका नेतृत्व करने के लिये आगे आयें जो वास्तव में जनता की पक्षधरता की राजनीति करती हों .आज विदेशी कंपनियों को सारा देश थमा देने की जो तैयारी हो रही है उसका विरोध अगर कारगर तरीके से न किया  गया तो राष्ट्र की अस्मिता पर ही सवाल उठना शुरू  हो जाएगा. इसको जनता का भरोसा जीतकर ही सम्भाला जा सकता है .आज भ्रष्टाचार का दानव इतना बड़ा हो चुका है कि अगर लोकतांत्रिक तरीके से उसके खिलाफ आंदोलन न शुरू कर दिए गए तो बहुत बुरा होगा. इस बात में दो राय नहीं है कि संसदीय लोकतंत्र में बहुत सारी खामियां हैं लेकिन उस से बेहतर विकल्प अभी ईजाद नहीं हुआ है इसलिए एक देश के रूप में हमें अपने संसदीय लोकतंत्र की रक्षा करनी चाहिए .

Wednesday, November 14, 2012

कहीं नामाबर की नीयत पर ही सवाल न उठा दें रिलायंस के लोग



शेष नारायण सिंह 

अरविन्द केजरीवाल भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाते चलाते भटक गए। जब उन्होंने सोनिया गांधी के दामाद राबर्ट वाड्रा के आर्थिक अपराध को पब्लिक किया था तो लोगों को लगा था कि  शायद भ्रष्टाचार के खिलाफ एक माहौल बनेगा। उसके बाद उन्होंने अगले हफ्ते ही बीजेपी के अध्यक्ष नितिन गडकरी की आर्थिक हेराफेरी को सार्वजनिक कर दिया . उम्मीद बढी कि अब तो यह पहलवान बड़ों बड़ों को औकात पर ला देगा . उसके बाद जब रिलायंस के कृष्णा गोदावरी बेसिन के गैस भण्डार में हुयी बेईमानी का ज़िक्र आया और अरविन्द केजरीवाल ने वहां हुयी सारी गडबडी को दुनिया के सामने लाकर पटक दिया तो  आम आदमी  को बहुत खुशी हुयी . सब को मालूम था कि  कृष्णा गोदावरी बेसिन में रिलायंस ने पिछले कई वर्षों से सरकारों को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया था लेकिन कम्युनिस्ट पार्टियों के नेताओं के अलावा किसी भी पार्टी के राजनीतिक नेता और पार्टी की हिम्मत नहीं पडी कि सार्वजनिक संपत्ति को निजी कंपनी के स्वार्थ के लिए इस्तेमाल होने से रोकने के लिए आवाज़ उठा सके। पता नहीं क्या हो गया था कि सारी बात को मीडिया ने भी हाईलाईट नहीं किया .अरविन्द केजरीवाल को शाबाशी इसलिए भी दी जानी चाहिए कि उन्होंने अपनी सुरक्षा की परवाह किये बिना उन बातों को सार्वजनिक किया जिनको जानते सभी थे लेकिन बोल कोई नहीं पा रहा  था. 

लेकिन एक बात से मन में दुविधा पैदा हो रही है. कहीं अरविन्द केजरीवाल की बातों पर लोग एतबार करना  बंद  न कर दें . अगर ऐसा हुआ तो देश के लिए बुरा होगा. बहुत दिन बाद सार्वजनिक जीवन में कोई ऐसा आदमी आया है जो सच्चाई को डंके की चोट पर कह रहा है . केजरीवाल ने जो सबसे ताज़ा मामला पब्लिक के सामने पेश किया  है उसके लिए कोई कागज़ी सबूत नहीं दिया . स्विस बैंकों में काले धन के जिस मामले को उन्होंने इस बार उजागर किया है उसके लिए कोई दस्तावेज़ नहीं हैं . वे कह रहे हैं कि " चूंकि मैं कह रहा हूँ इसलिए इसका विश्वास कर लिया जाए" .हो सकता है कि उनको हीरो मानने वाले उनकी बात  मान लें लेकिन उनके मानने से कुछ नहीं होता. भंडाफोड नंबर तीन और चार में अरविन्द केजरीवाल ने रिलायंस को निशाने पर लिया है . रिलायंस के बारे में हर पढ़े लिखे आदमी को मालूम है  . सबको मालूम है कि रिलायंस ने पिछ्ले ३५ वर्षों में नियमों को तोड़कर और नेताओं-पत्रकारों-नौकरशाहों के सामने टुकड़े फेंक कर अपना  हर काम करवाया है . उसके चाकर नेताओं और पत्रकारों  का एक बहुत बड़ा वर्ग देश की हर गैर कम्युनिस्ट पार्टी और लगभग हर अखबार में  सक्रिय है. आशंका यह जताई जा रही है कि बिना किसी सबूत के लगाए गए आरोपों को  रिलायंस के मित्रों की ताक़त से गलत न साबित कर दिया जाए. ऐसी हालत में अरविन्द केजरीवाल की विश्वसनीयता पर ही सवाल उठा दिए जायेगें .अगर ऐसा हुआ तो  वह इस देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ बन रहे माहौल के लिए मुश्किल होगा. 

९ नवम्बर के खुलासे के बाद ही हवा में बात छोड़ने की कोशिश की जा रही है कि अरविन्द केजरीवाल और उनकी टीम को रिलायंस के विरोधी हवा दे रहे हैं . इसका नतीजा यह होगा कि रिलायंस के साथी केजरीवाल को किसी अन्य कारपोरेट घराने का कारिन्दा साबित कर देगें . इस से आम आदमी को कोई फर्क नहीं  पड़ता . कोई किसी घराने का हो ,सच्चाई तो सामने आ रही है लेकिन अगर सच्चाई बताने वाले  की विश्वसनीयता पर सवाल उठ गए  तो मुश्किल होगा. अरविन्द केजरीवाल को इस बात को ध्यान में रखना चाहिए .