Thursday, December 20, 2012

बाबरी मसजिद ढहाने वालों की मानसिकता से देश के सामने तबाही का खतरा बना हुआ है



शेष नारायण सिंह 

बीस साल पहले ६ दिसंबर १९९२ के दिन अयोध्या की बाबरी मसजिद को ढहा दिया  गया था . उसके सात साल पहले से उस मसजिद के नाम पर हिंदुओं को जागृत करने की कोशिश शुरू कर दी गयी थी . १९८० में आर एस एस ने तत्कालीन जनता पार्टी को इसीलिये तोडा था कि पार्टी के बड़े समाजवादी  नेता मधु लिमये ने मांग कर दी थी कि जनता पार्टी में जो लोग भी शामिल थे, वे किसी अन्य राजनीतिक संगठन में न रहें . मधु लिमये ने हमेशा यही माना कि आर एस एस एक राजनीतिक संगठन है और हिन्दू राष्ट्रवाद उसकी मूल राजनीतिक अवधारणा है . आर एस एस ने अपने लोगों को पार्टी से अलग कर लिया और भारतीय जनता पार्टी का गठन कर दिया .शुरू में इस पार्टी ने उदारतावादी राजनीतिक सोच को अपनाने की कोशिश की . दीन दयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद और गांधीवादी समाजवाद जैसे राजनीतिक शब्दों को अपनी बुनियादी सोच का आधार बनाने की कोशिश की . लेकिन जब १९८४ के लोकसभा चुनाव में ५४२ सीटों वाली लोकसभा में बीजेपी को केवल दो सीटें मिलीं तो उदार राजनीतिक संगठन बनने का विचार हमेशा के लिए दफन कर दिया गया . जनवरी १९८५ में कलकत्ता में आर एस एस के टाप नेताओं की बैठक हुई जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी को भी बुलाया गया और साफ़ बता दिया गया कि अब हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को चलाया जाएगा . वहीं तय कर लिया गया कि अयोध्या की बाबरी मस्जिद को रामजन्मभूमि बता कर राजनीतिक मोबिलाइज़ेशन किया जाएगा . आर एस एस के दो संगठनों, विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को इस प्रोजेक्ट को चलाने का जिम्मा दिया गया. विश्व हिन्दू परिषद् की स्थापना १९६६ में हो चुकी थी लेकिन वह सक्रिय नहीं था. १९८५ के बाद उसे सक्रिय किया गया और कई बार तो यह भी लगने लगा कि आर एस एस वाले बीजेपी को पीछे धकेल कर वी एच पी से ही राजनीतिक काम करवाने की सोच रहे थे . लेकिन ऐसा नहीं हुआ और चुनाव लड़ने का काम बीजेपी के जिम्मे ही रहा . १९८५ से अब तक बीजेपी हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को ही अपना स्थायी भाव मानकर चल रही है ..कांग्रेस और अन्य सेकुलर पार्टियों ने अपना राजनीतिक काम ठीक से नहीं किया  इसलिए देश में हिन्दू राष्ट्रवाद का खूब प्रचार प्रसार हो गया . जब बीजेपी ने हिन्दू राष्ट्रवाद को अपने राजनीतिक दर्शन के रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया तो उस विचारधारा को मानने वाले बड़ी संख्या में उसके साथ जुड़ गए .वही लोग १९९१ में अयोध्या आये थे जब उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी . बाबरी मस्जिद को तबाह करने पर आमादा इन लोगों के ऊपर गोलियां भी चली थीं .वही लोग १९९२ में अयोध्या आये थे जिनकी मौजूदगी में बाबरी मस्जिद का ध्वंस हुआ , वही लोग साबरमती एक्सप्रेस में सवार थे जब गोधरा रेलवे स्टेशन पर उन्हें जिंदा जला दिया गया . . अब जब निजी बातचीत के आधार पर दुनिया को मालूम चल गया है कि बीजेपी हिन्दू राष्ट्रवाद को केवल बातचीत का प्वाइंट मानती है तो उनके परिवार वालों पर क्या गुज़र रही होगी जो हिन्दू राष्ट्रवाद के चक्कर में मारे जा चुके हैं . . सबको मालूम है हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति के बल पर देश का नेतृत्व नहीं किया जा सकता . इसलिए बीजेपी के राष्ट्र को नेतृत्व देने की इच्छा रखने वाले नेताओं में अपने आपको हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति से दूर रखने की प्रवृत्ति पायी जाने लगी है . इसी सोच के तहत लाल कृष्ण आडवाणी ने जिन्ना की तारीफ़ की थी.

१९९२ में जिन लोगों ने अयोध्या में एक मध्य युगीन मसजिद को ज़मींदोज़ किया था उन्होंने  उसके साथ ही बहुत कुछ ज़मींदोज़ कर दिया था .उन्होंने आज़ादी की लड़ाई की उस परंपरा को ढहा दिया था जिसे महात्मा गांधी ने आंदोलन का मकसद बताया था. दर असल  धर्म निरपेक्षता भारत की आज़ादी  के संघर्ष का इथास थी. बाबरी मसजिद के विध्वंस  के बाद मैं उन कुछ बदकिस्मत लोगों में था जिन्होंने उसके बाद की राजनीति को विकसित होते देखा था.  हिंदी मीडिया में पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग आर एस एस की राजनीति के प्रचारक के रूप में काम कर रहा था . वे आर एस एस के मसजिद ढहाने के काम को वीरता बता रहे थे . उस वक़्त के प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव को अर्जुन सिंह की चुनौती मिल रही थे लेकिन कुछ भी करने के पहले १०० बार सोचने के लिए विख्यात अर्जुन सिंह ने मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा नहीं दिया .  अटल बिहारी वाजपेयी दुखी होने का  अभिनय कर रहे तह . लाल कृष्ण आडवानी, कल्याण सिंह , उमा  भारती ,   साध्वी ऋतंभरा , अशोक सिंघल आदि जश्न मना रहे थे . कांग्रेस में हताशा का माहौल था. २४ घंटे का टेलिविज़न नहीं था. ख़बरें बहुत धीरे धीरे आ रा ही थीं लेकिन जो भी ख़बरें आ रही थीं वे अपने राष्ट्र की बुनियाद को हिला देने वालीथीं . दिल्ली में सहमत नाम की  संस्था ने कुछ बुद्धिजीवियों को इकठ्ठा करना शुरू कर दिया था . महात्मा गांधी की समाधि पर जब मदर टेरेसा  के साथ देश भर से आये धर्म निरपेक्ष लोगों ने  माथा टेका तो लगता था कि अब अपना देश तबाह होने से बच जाएगा . बिना किसी तैयारी के  शांतिप्रेमी लोग वहाँ इकठ्ठा हुए और समवेत स्वर में  रघुपति  राघव राजाराम की  टेर लगाते रहे. मेरी नज़र में महात्मा गांधी के  दर्शन की उपयोगिता का यह प्रैक्टिकल  सबूत था .  
बाबरी मसजिद को  ढहाने के बाद आर एस एस ने कट्टर हिन्दूवाद को एक राजनीतिक विचार धारा के रूपमें स्थापित कर दिया था . आर एस एस के लोग इस योजना पर बहुत पहले से  काम कर  रहे थे .दुनिया जानती है कि आज़ादी की लड़ाई में आर एस एस के लोग शामिल नहीं हुए थे .  आज़ादी  के बाद महात्मा गांधी की हत्या के बाद संघ के ऊपर प्रतिबन्ध लगा था .बाद में १९७५ में भी इन पर पाबंदी लगी थी  लेकिन इनका काम कभी रुका नहीं . आर एस  एस के लोग पूरी तरह से अपने मिशन में  लगे  रहे. डॉ  लोहिया  ने गैर कांग्रेस वाद की राजनीति के सहारे इन लोगों को राजनीतिक सम्मान  दिलवाया था. जब १९६७ में संविद सरकारों का प्रयोग हुआ तो आर एस एस  की अधीन पार्टी  भारतीय जनसंघ थी . उस पार्टी के लोग कई राज्य सरकारों में मंत्री बने . बाद में जब जनता पार्टी बनी तो जनसंघ घटक के लोग उसमें सबसे ज्यादा संख्या में थे. उसके साथ ही आर एस एस की राजनीति मुख्यधारा में आ चुकी थी . १९७७ में जब लाल कृष्ण आडवानी सूचना और प्रसारण मंत्री बने तो बड़े पैमाने पर संघ के  कार्यकर्ताओं को अखबारों में भर्ती करवाया गया . जब १९९२ में  बाबरी मसजिद को तबाह किया गया तो  उत्तर भारत के अधिकतर अखबारों में आर एस एस के लोग भरे हुए थे . उन्हीं लोगों ने ऐसा माहौल बनाया जैसे कि जैसे बाबरी मसजिद को ढहाने  वालों ने  कोई बहुत भारी वीरता का काम किया हो . कुल मिलाकर  माहौल ऐसा बन गया कि देश में धर्म निरपेक्ष होना किसी अपराध जैसा लागने लगा था.   लेकिन देश में बहुसंख्यक  हिंदू धर्म  निरपेक्ष हैं और उनको मालूम है कि धार्मिक कट्टरता से समाज में विघटन पैदा होता है, शायद इसी लिए हिंदुओं की  बहुसंख्या होने के बाद भी देश में  साम्प्रदायिक ताक़तों की हालत खराब ही रहती है . 

बाबरी मसजिद के तबाह  होने के बाद आर एस एस ने सत्ता के पास आने में सफलता तो पा ली लेकिन देश के धर्म निरपेक्ष मूल ढाँचे से छेडछाड करने की उनकी कोशिश का नतीजा ऐसा नहीं है जिससे उन्हें बहुत खुशी  हो . उनकी   विध्वंस की राजनीति ने वरुण गांधी , नरेंद्र मोदी , परवीन  तोगडिया टाइप कुछ  नेता भले  ही पैदा कर दिये  हों  लेकिन उन्हें सम्मान मिल पाना बहुत मुश्किल है .उसके लिए उन्हें  बहुत मेहनत करनी पड़ेगी . बाबरी मसजिद की तबाही की तारीख  हमें हमेशा यह भी याद दिलाती है कि महात्मा गांधी ने जिस आजादी को हमारे हवाले  किया था , हमेशा उसकी  हिफाज़त करते रहना पड़ेगा . अगर एक राष्ट्र और समाज के  रूप में हम चौकन्ना न रहे तो जिन लोगों ने बाबरी मसजिद को ज़मींदोज़ किया  था वे हमारे अंदर के तार तार को तोड़ डालेगें

Saturday, December 15, 2012

नरेन्द्र मोदी ने पत्रकारों को भी डरा दिया है

शेष नारायण सिंह 


आज जब गुजरात में फिर से चुनाव हो रहे  हैं , मुझे २०१० के शुरुआती महीनों की बहुत याद आ रही है . उन दिनों मोदी और उनके समर्थकों ने प्रचार कर रखा था कि मोदी के २००२ वाले नरसंहार कार्यक्रम  को  मुसलमान भूल चुके हैं और अब मुसलमान शुद्ध रूप से मोदी के साथ हैं . मैंने गुजरात के कुछ तथ्य जुटाए और एक लेख  लिख मारा था . जून २०१० में  यह लेख ख़ासा चर्चित हुआ और कई जगह इसका उद्धरण दिया गया . गुजरात चुनाव के मौजूदा संस्करण में भी मुझे एक बात बार बार समझ में आती रही जिसे पत्रकार और  विश्लेषक  प्रदीप सौरभ ने  रखांकित कर दिया . जो भी गुजरात से वापस आ रहा है कि वह बताता है कि मोदी की हालत ठीक नहीं है . लेकिन वह अपनी बात को कुछ गोलमोल तरीके से कहता है  .प्रदीप सौरभ ने कहा कि भाई जब आप देख कर आये हैं कि मोदी की हालत खराब है तो उसको ऐलानियाँ क्यों नहीं कहते .  कई लोगों ने कहा कि बात अभी बिलकुल साफ़ नहीं है . मुझे लगता है कि नरेंद्र मोदी आतंक के तरह तरह के तरीके जानते हैं . उन्होंने आजकल पत्रकारों के वर्ग को भी आतंकित कर दिया है . देश के कुछ बड़े अखबारों के कुछ बड़े पत्रकार  मोदी या उनके चेलों की  चेलाही करते हैं और वे अपने मोदी  जी के गुणगान के कार्यक्रम के तहत माहौल बनाए  हुए हैं कि मोदी को हराया नहीं  जा सकता . नतीजा यह है कि  दिल्ली में विराजमान विश्लेषक दहशत में हैं और वही कह रहे हैं जो देश के बड़े अखबारों में छपा रहता है . इस तरह से मोदी   ने पत्रकारों के बीच जो दहशत फैला रखी है वह टेलिविज़न के स्टूडियो में साफ़ नज़र आ रही है .  सच्चाई यह  है कि मोदी अपनी  ज़िंदगी की सबसे मुश्किल राजनीतिक लड़ाई लड़  रहे हैं और उसमें उनकी जीत की  संभावना बहुत कम है . आतंक फैलाने के उनके तरीकों को समझने के लिए मैंने अपने ही एक लेख का सहारा लिया जो मुसलमानों के बीच आतंक फैलाने के  मोदी के तरीकों को  साफ़ करने के लिए मैंने लिखा था . प्रस्तुत है वही पुराना लेख .

गुजरात में एक दलित नेता और उनकी पत्नी को पकड़ लिया गया है . पुलिस की कहानी में बताया गया है कि वे दोनों नक्सलवादी हैं और उनसे राज्य के अमन चैन को ख़तरा है . शंकर नाम के यह व्यक्ति मूलतः आंध्र प्रदेश के रहने वाले हैं लेकिन अब वर्षों से गुजरात को ही अपना घर बना लिया है . गुजरात में साम्प्रदायिकता के खिलाफ जो चंद आवाजें बच गयी हैं , वे भी उसी में शामिल हैं. विरोधियों को परेशान करने की सरकारी नीति के खिलाफ वे विरोध कर रहे हैं और लोगों को एकजुट करने की कोशिश कर रहे हैं .उनकी पत्नी, हंसाबेन भी इला भट के संगठन सेवा में काम करती हैं , वे गुजराती मूल की हैं लेकिन उनको गिरफ्तार करते वक़्त पुलिस ने जो कहानी दी है ,उसके अनुसार वे अपने पति के साथ आंध्र प्रदेश से ही आई हैं और वहीं से नक्सलवाद की ट्रेनिंग लेकर आई हैं . ज़ाहिर है पुलिस ने सिविल सोसाइटी के इन कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करने के पहले होम वर्क नहीं किया था. इसके पहले डांग्स जिले के एक मानवाधिकार कार्यकर्ता ,अविनाश कुलकर्णी को भी गिरफ्तार कर लिया गया था . किसी को कुछ पता नहीं कि ऐसा क्यों हुआ लेकिन वे अभी तक जेल में ही हैं .गुजरात में सक्रिय सभी मानवाधिकार संगठनों के कार्यकर्ताओं को चुप कराने की गुजरात पुलिस की नीति पर काम शुरू हो चुका है और आने वाले वक़्त में किसी को भी नक्सलवादी बता कर धर लिया जाएगा और उसक अभी वही हाल होगा जो पिछले १० साल से गुजराती मुसलमानों का हो रहा है .नक्सलवादी बता कर किसी को पकड़ लेना बहुत आसान होता है क्योंकि किसी भी पढ़े लिखे आदमी के घर में मार्क्सवाद की एकाध किताब तो मिल ही जायेगी. और मोदी क एपुलिस वालों के लिए इतना ही काफी है . वैसे भी मुसलमानों को पूरी तरह से चुप करा देने के बाद , राज्य में मोदी का विरोध करने वाले कुछ मानवाधिकार संगठन ही बचे हैं . अगर उनको भी दमन का शिकार बना कर निष्क्रिय कर दिया गया तो उनकी बिरादराना राजनीतिक पार्टी , राष्ट्रवादी सोशलिस्ट पार्टी और उसके नेता , एडोल्फ हिटलर की तरह गुजरात के मुख्यमंत्री का भी अपने राज्य में एकछत्र निरंकुश राज कायम हो जाएगा .
अहमदाबाद में जारी के बयान में मानवाधिकार संस्था,दर्शन के निदेशक हीरेन गाँधी ने कहा है कि 'गुजरात सरकार और उसकी पुलिस विरोध की हर आवाज़ को कुचल देने के उद्देश्य से मानवाधिकार संगठनो , दलितों के हितों की रक्षा के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं और सिविल सोसाइटी के अन्य कार्यकर्ताओं को नक्सलवादी बताकर पकड़ रही है ' लेकिन विरोध के स्वर भी अभी दबने वाले नहीं है . शहर के एक मोहल्ले गोमतीपुर में पुलिस का सबसे ज़्यादा आतंक है, . वहां के लोगों ने तय किया है कि अपने घरों के सामने बोर्ड लगा देंगें जिसमें लिखा होगा कि उस घर में रहने वाले लोग नक्सलवादी हैं और पुलिस के सामने ऐसी हालात पैदा की जायेगीं कि वे लोगों को गिरफ्तार करें . ज़ाहिर है इस तरीके से जेलों में ज्यादा से ज्यादा लोग बंद होंगें और मोदी की दमनकारी नीतियों को राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनाया जाएगा.वैसे भी अगर सभ्य समाज के लोग बर्बरता के खिलाफ लामबंद नहीं हुए तो बहुत देर हो चुकी होगी और कम से कम गुजरात में तो हिटलरी जनतंत्र का स्वाद जनता को चखना ही पड़ जाएगा.

वैसे गुजरात में अब मुसलमानों में कोई अशांति नहीं है , सब अमन चैन से हैं . गुजरात के कई मुसलमानों से सूरत और वड़ोदरा में बात करने का मौक़ा लगा . सब ने बताया कि अब बिलकुल शान्ति है , कहीं किसी तरह के दंगे की कोई आशंका नहीं है . उन लोगों का कहना था कि शान्ति के माहौल में कारोबार भी ठीक तरह से होता है और आर्थिक सुरक्षा के बाद ही बाकी सुरक्षा आती है.बड़ा अच्छा लगा कि चलो १० साल बाद गुजरात में ऐसी शान्ति आई है .लेकिन कुछ देर बाद पता चला कि जो कुछ मैं सुन रहा था वह सच्चाई नहीं थी. वही लोग जो ग्रुप में अच्छी अच्छी बातें कर रहे थे , जब अलग से मिले तो बताया कि हालात बहुत खराब हैं . गुजरात में मुसलमान का जिंदा रहना उतना ही मुश्किल है जितना कि पाकिस्तान में हिन्दू का . गुजरात के शहरों के ज़्यादातर मुहल्लों में पुलिस ने कुछ मुसलमानों को मुखबिर बना रखा है , पता नहीं चलता कि कौन मुखबिर है और कौन नहीं है . अगर पुलिस या सरकार के खिलाफ कहीं कुछ कह दिया गया तो अगले ही दिन पुलिस का अत्याचार शुरू हो जाता है. मोदी के इस आतंक को देख कर समझ में आया कि अपने राजनीतिक पूर्वजों की लाइन को कितनी खूबी से वे लागू कर रहे हैं . लेकिन यह सफलता उन्हें एक दिन में नहीं मिली . इसके लिए वे पिछले दस वर्षों से काम कर रहे हैं . गोधरा में हुए ट्रेन हादसे के बहाने मुसलमानों को हलाल करना इसी रणनीति का हिस्सा था . उसके बाद मुसलमानों को फर्जी इनकाउंटर में मारा गया, इशरत जहां और शोहराबुद्दीन की हत्या इस योजना का उदाहरण है . उसके बाद मुस्लिम बस्तियों में उन लड़कों को पकड़ लिया जाता था जिनके ऊपर कभी कोई मामूली आपराधिक मामला दर्ज किया गया हो . पाकेटमारी, दफा १५१ , चोरी आदि अपराधों के रिकार्ड वाले लोगों को पुलिस वाले पकड़ कर ले जाते थे , उन्हें गिरफ्तार नहीं दिखाते थे, किसी प्राइवेट फार्म हाउस में ले जा कर प्रताड़ित करते थे और अपंग बनाकर उनके मुहल्लों में छोड़ देते थे . पड़ोसियों में दहशत फैल जाती थी और मुसलमानों को चुप रहने के लिए बहाना मिल जाता था .लोग कहते थे कि हमारा बच्चा तो कभी किसी केस में पकड़ा नहीं गया इसलिए उसे कोई ख़तरा नहीं था . ज़ाहिर है इन लोगों ने अपने पड़ोसियों की मदद नहीं की ..इसके बाद पुलिस ने अपने खेल का नया चरण शुरू किया . इस चरण में मुस्लिम मुहल्लों से उन लड़कों को पकड़ा जाता था जिनके खिलाफ कभी कोई मामला न दर्ज किया गया हो . उनको भी उसी तरह से प्रताड़ित करके छोड़ दिया जाता था . इस अभियान की सफलता के बाद राज्य के मुसलमानों में पूरी तरह से दहशत पैदा की जा सकी. और अब गुजरात का कोई मुसलमान मोदी या उनकी सरकार के खिलाफ नहीं बोलता ..डर के मारे सभी नरेन्द्र मोदी की जय जयकार कर रहे हैं. अब राज्य में विरोध का स्वर कहीं नहीं है . कांग्रेस नाम की पार्टी के लोग पहले से ही निष्क्रिय हैं . वैसे उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती क्योंकि विपक्ष का अभिनय करने के लिए उनकी ज़रूरत है .यह मानवाधिकार संगठन वाले आज के मोदी के लिए एक मामूली चुनौती हैं और अब उनको भी नक्सलवादी बताकर दुरुस्त कर दिया जाएगा. फिर मोदी को किसी से कोई ख़तरा नहीं रह जाएगा. हमारी राजनीति और लोकशाही के लिए यह बहुत ही खतरनाक संकेत हैं क्योंकि मोदी की मौजूदा पार्टी बी जे पी ने अपने बाकी मुख्यमंत्रियों को भी सलाह दी है कि नरेन्द्र मोदी की तरह ही राज काज चलाना उनके हित में होगा


Thursday, December 6, 2012

अम्बेडकर जाति संस्था को खत्म करना चाहते थे,मायावती उसे जिंदा रखना चाहती हैं .



 शेष नारायण सिंह

डा.अंबेडकर के  निर्वाण दिवस के मौके पर उनको याद किया जाएगा. इस अवसर पर ज़रूरी है कि उनकी सोच और दर्शन के सबसे अहम पहलू पर गौर किया जाए. सब को मालूम है कि डा. अंबेडकर के दर्शन ने २० वीं सदी के भारत के राजनीतिक आचरण को बहुत ज्यादा प्रभावित किया था . लेकिन उनके दर्शन की सबसे ख़ास बात पर जानकारी की भारी कमी है. यह बात कई बार कही जा चुकी है कि उनके नाम पर राजनीति करने वालों को इतना तो मालूम है कि बाबा साहेब जाति व्यवस्था के खिलाफ थे लेकिन बाकी चीजों पर ज़्यादातर लोग अन्धकार में हैं. उन्हीं कुछ बातों का ज़िक्र करना आज के दिन सही रहेगा. डा. अंबेडकर को इतिहास एक ऐसे राजनीतिक चिन्तक के रूप में याद रखेगा जिन्होंने जाति के विनाश को सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन की बुनियाद माना था. यह बात किसी से छुपी नहीं है कि उनकी राजनीतिक विरासत का सबसे ज्यादा फायदा उठाने वाली पार्टी की नेता, आज जाति की संस्था को संभाल कर रखना चाहती हैं ,उसके विनाश में उनकी कोई रूचि नहीं है . वोट बैंक राजनीति के चक्कर में पड़ गयी अंबेडकरवादी पार्टियों को अब वास्तव में इस बात की चिंता सताने लगी है कि अगर जाति का विनाश हो जाएगा तो उनकी वोट बैंक की राजनीति का क्या होगा. डा अंबेडकर की राजनीतिक सोच को लेकर कुछ और भ्रांतियां भी हैं . कांशीराम और मायावती ने इस क़दर प्रचार कर रखा है कि जाति की पूरी व्यवस्था का ज़हर मनु ने ही फैलाया था, वही इसके संस्थापक थे और मनु की सोच को ख़त्म कर देने मात्र से सब ठीक हो जाएगा. लेकिन बाबा साहेब ऐसा नहीं मानते थे . उनके एक बहुचर्चित, और अकादमिक भाषण के हवाले से कहा जा सकता है कि जाति व्यवस्था की सारी बुराइयों को लिए मनु को ही ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता .मनु के बारे में उन्होंने कहा कि अगर कभी मनु रहे भी होंगें तो बहुत ही हिम्मती रहे होंगें . डा. अंबेडकर का कहना है कि ऐसा कभी नहीं होता कि जाति जैसा शिकंजा कोई एक व्यक्ति बना दे और बाकी पूरा समाज उसको स्वीकार कर ले. उनके अनुसार इस बात की कल्पना करना भी बेमतलब है कि कोई एक आदमी कानून बना देगा और पीढियां दर पीढियां उसको मानती रहेंगीं. . हाँ इस बात की कल्पना की जा सकती है कि मनु नाम के कोई तानाशाह रहे होंगें जिनकी ताक़त के नीचे पूरी आबादी दबी रही होगी और वे जो कह देंगे ,उसे सब मान लेंगें और उन लोगों की आने वाली नस्लें भी उसे मानती रहेंगी.उन्होंने कहा कि , मैं इस बात को जोर दे कर कहना चाहता हूँ कि मनु ने जाति की व्यवस्था की स्थापना नहीं की क्योंकि यह उनके बस की बात नहीं था. . मनु के जन्म के पहले भी जाति की व्यवस्था कायम थी. . मनु का योगदान बस इतना है कि उन्होंने इसे एक दार्शनिक आधार दिया. . जहां तक हिन्दू समाज के स्वरुप और उसमें जाति के मह्त्व की बात है, वह मनु की हैसियत के बाहर था और उन्होंने वर्तमान हिन्दू समाज की दिशा तय करने में कोई भूमिका नहीं निभाई. उनका योगदान बस इतना ही है उन्होंने जाति को एक धर्म के रूप में स्थापित करने की कोशिश की . जाति का दायरा इतना बड़ा है कि उसे एक आदमी, चाहे वह जितना ही बड़ा ज्ञाता या शातिर हो, संभाल ही नहीं सकता. . इसी तरह से यह कहना भी ठीक नहीं होगा कि ब्राह्मणों ने जाति की संस्था की स्थापना की. मेरा मानना है कि ब्राह्मणों ने बहुत सारे गलत काम किये हैं लेकिन उनकी औक़ात यह कभी नहीं थी कि वे पूरे समाज पर जाति व्यवस्था को थोप सकते. . हिन्दू समाज में यह धारणा आम है कि के जाति की संस्था का आविष्कार शास्त्रों ने किया और शास्त्र तो कभी गलत हो नहीं सकते. बाबा साहेब ने अपने इसी भाषण में एक चेतावनी और दी थी कि उपदेश देने से जाति की स्थापना नहीं हुई थी और इसको ख़त्म भी उपदेश के ज़रिये नहीं किया जा सकता.. यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना ज़रूरी है अपने इन विचारों के बावजूद भी , डा अंबेडकर ने समाज सुधारकों के खिलाफ कोई बात नहीं कही. ज्योतिबा फुले का वे हमेशा सम्मान करते रहे. . हाँ उन्हें यह पूरा विश्वास था कि जाति प्रथा को किसी महापुरुष से जोड़ कर उसकी तार्किक परिणति तक नहीं ले जाया जा सकता.

डा अंबेडकर के अनुसार हर समाज का वर्गीकरण और उप वर्गीकरण होता है लेकिन परेशानी की बात यह है कि इस वर्गीकरण के चलते वह ऐसे सांचों में फिट हो जाता है कि एक दूसरे वर्ग के लोग इसमें न अन्दर जा सकते हैं और न बाहर आ सकते हैं . यही जाति का शिकंजा है और इसे ख़त्म किये बिना कोई तरक्की नहीं हो सकती. सच्ची बात यह है कि शुरू में अन्य समाजों की तरह हिन्दू समाज भी चार वर्गों में बंटा हुआ था . ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र . यह वर्गीकरण मूल रूप से जन्म के आधार पर नहीं था, यह कर्म के आधार पर था .एक वर्ग से दूसरे वर्ग में आवाजाही थी लेकिन हज़ारों वर्षों की निहित स्वार्थों कोशिश के बाद इसे जन्म के आधार पर कर दिया गया और एक दूसरे वर्ग में आने जाने की रीति ख़त्म हो गयी. और यही जाति की संस्था के रूप में बाद के युगों में पहचाना जाने लगा. . अगर आर्थिक विकास की गति को तेज़ किया जाय और उसमें सार्थक हस्तक्षेप करके कामकाज के बेहतर अवसर उपलब्ध कराये जाएँ तो जाति व्यवस्था को जिंदा रख पाना बहुत ही मुश्किल होगा. और जाति के सिद्धांत पर आधारित व्यवस्था का बच पाना बहुत ही मुश्किल होगा.. अगर ऐसा हुआ तो जाति के विनाश के ज्योतिब फुले, डा. राम मनोहर लोहिया और डा. अम्बेडकर की राजनीतिक और सामाजिक सोच और दर्शन का मकसद हासिल किया जा सकेगा.

तालाबों के मरम्मत की केन्द्र सरकार की योजना को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं अफसर




शेष नारायण सिंह 

नयी दिल्ली, ३० नवम्बर। पंद्रहवीं लोकसभा की जल  संसाधन मंत्रालय से संबद्ध स्थाई समिति की सोलहवीं रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों में २७ नवंबर को पेश कर दी गयी.रिपोर्ट को देखने से साफ़ पता चलता  है कि जल संकट की तरफ बढ़ रहे देश में इतनी महत्वपूर्ण योजना नौकरशाही की मनमानी का शिकार हो रही है . देश भर में फैले तालाबों की मरम्मत, नवीनीकरण और  जीर्णोद्धार के लिए केन्द्र सरकार की एक बहुत   ही महत्वपूर्ण योजना को सरकारी अफसरों के गैर ज़िम्मेदार रवैय्ये के कारण सफल नहीं हो रही है .अपनी कालजयी किताब ," आज भी खरे हैं तालाब " में अनुपम मिश्र ने लिखा है कि 'पानी का प्रबंध उसकी चिंता हमारे समाज के कर्तव्य बोद्ध के विशाल सागर की एक  बूँद थी. सागर और बूँद एक दूसरे से जुड़े थे .' लेकिन आज हमें यह देखने को मिल  रहा  है कि सरकार के स्तर पर तो कोशिश  हो रही है लेकिन अफसर उसे गडबड कर रहे हैं .

देश भर में फैले तालाबों , बावलियों और पोखरों की 2000-2001 में गिनती की गयी थी। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से देश में इस तरह के जलाशयों की संख्या  साढ़े पांच लाख से ज्यादा है . इसमें से करीब 4 लाख 70 हज़ार जलाशय किसी न किसी रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं .जबकि करीब 15 प्रतिशत बेकार पड़े हैं . दसवीं पञ्च वर्षीय योजना के दौरान 2005  में केंद्र सरकार ने एक स्कीम शुरू करने की योजना बनायी  जिसके तहत इन जलाशयों  की मरम्मत , नवीकरण और जीर्णोद्धार ( आर आर आर ) का काम शुरू किया जान था . ग्यारहवीं योजना में काम शुरू भी हो गया .इसके अधीन केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों के  ज़रिये इस योजना को लागू करने की योजना बनायी . कुछ धन केंद्र सरकार की तरफ  से जाना था जबकि विश्व बैंक जैसी संस्थाओं से भी कुछ धन आना था। इस योजना का लक्ष्य इन जलाशयों की क्षमता बढ़ाना और सामुदायिक  स्तर  पर  बुनियादी ढाँचे का विकास करना था . गाँव  ,ब्लाक, जिला और राज्य स्तर पर योजना को लागू किया  गया है । हर स्तर  पर टेक्नीकल एडवाइज़री कमेटी का   गठन किया जाना था . सेन्ट्रल वाटर कमीशन और  सेन्ट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड को इस योजना को तकनीकी सहयोग देने के   ज़िम्मा दिया गया .  जल संसाधन मंत्रालय इस योजना को केंद्र सरकार के स्तर पर मानिटर करता है .

यह योजना बहुत ही महत्वाकांक्षी है . और इस बात को सुनिश्चित करने का एक प्रयास है कि आने वाले दिनों में देश में जल की कमी एक भयावह समस्या का रूप ने ले ले। सरकार की तरफ से कोशिश यह भी  की गयी  कि  मनरेगा  जैसी अन्य स्कीमों से इसको मिलाकर अधिकतम और अच्छे नतीजे हासिल किये जा सकें . लेकिन संसद में रखी गयी इस विषय पर बनी स्थायी समिति की रिपोर्ट  में लिखा  है कि इस दिशा में उम्मीद के मुताबिक कुछ भी नहीं हुआ है।सबसे तकलीफ की बात यह है कि  इस योजना को लागू  करने का जिन सरकारी महकमों को  ज़िम्मा दिया  गया था वे सभी लापरवाह हैं .कमेटी ने अपनी नाराज़गी इस बात पर जताई है  कि  ज़रूरी स्कीमें ही नहीं बनायी जा सकीं।इस स्कीम की  पाइलट प्रोजेक्ट के तहत  शुरू में 3341 जलाशयों को  चुना गया था लेकिन  कमेटी को बताया गया कि सितम्बर 2012 तक केवल 1481 जलाशय की ठीक किये जा सके। इस योजना के लिए जो धन आवंटित किया गया है वह भी इस्तेमाल नहीं हो रहा है .कमेटी ने सुझाव दिया है कि आर आर आर स्कीम की सफलता के लिए पंचायतों को  भी शामिल किया जाए. इस काम में केंद्रीय जन संसाधन मंत्रालय का बहुत भारी योगदान है . मंत्रालय को चाहिए कि धन का आवंटन करके ही अपने काम  की इतिश्री न समझ लें .  अभी व्यवस्था यह है कि  राज्य सरकारों को कम्पलीशन सार्टिफिकेट दाखिल करने पर अगली  किश्त दी जाती है . ज़रूरत इस बात की है कि मंत्रालय राज्य सरकारों से बाकायदा प्रोग्रेस रिपोर्ट मंगवाए और काम पर नज़र रखने के लिए अफसर तैनात करे.

आर आर आर स्कीमों पर तकनीकी नज़र रखने का काम अभी केन्द्र सरकार की कंपनी वाटर एंड पावर कंसल्टेंसी सर्विसेज लिमिटेड ( वाप्कोस) के ज़िम्मे किया गया है .अभी वाप्कोस को फंड तब रिलीज़ किया जाता है जब राज्य सरकारें प्रोजेक्ट का मूल्यांकन कर लेती हैं . कमेटी का सुझाव है कि मंत्रालय को राज्य सरकारों से बात करके ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जिस से वाप्कोस को फंड समय से दिया जा सके.कमेटी ने पाया है कि एक बार प्रोजेट शुरू हो जाने के बाद अफसर लोग उसको देखने बहुत कम जाते हैं . अफसरों के यात्रा विवरण  कमेटी के पास उपलब्ध हैं  जिनसे पता चलता है कि केन्द्र  सर्कार के अफसर तो राज्यों के दौरे पर जाते हैं लेकिन राज्य सरकार के अफसर मौके  का निरीक्षण करने में कोताही बरत रहे हैं.इसे भी ठीक किये जाने की ज़रूरत है . कुल मिलाकर पंद्रहवीं लोकसभा की जल  संसाधन मंत्रालय से संबद्ध स्थाई समिति की सोलहवीं रिपोर्ट  से पता  चलता है कि केन्द्र सरकार की इतनी  महत्वपूर्ण स्कीम अफसरों की लापरवाही के चलते बिलकुल बेकार साबित हो  रही है.

सब्सिडी की रकम सीधे उपभोक्ता तक पंहुचाकर कांग्रेस ने गेम चेंज कर दिया है .



शेष नारायण सिंह 

एफ डी आई  के मुद्दे को यू पी ए सरकार को घेरने के लिये बीजेपी इस्तेमाल नहीं कर पायी. अब सरकार ने कह दिया है कि बहस चाहे जैसे करवा ली जाए.यानी उसने लोकसभा में इतने वोटों का प्रबंध कर लिया है कि बीजेपी को अब सरकार को मुश्किल में डालना आसान  नहीं होगा .यू पी ए की प्रमुख सहयोगी डी एम के के आला नेता,करूणानिधि ने ऐलान कर दिया है  कि वह सरकार को मुश्किल में नहीं डालेगें . यही रुख तृणमूल कांग्रेस का भी है . वह भी सरकार को परेशानी में नहीं पड़ने देना चाहती . हालांकि तृणमूल वालों को कांग्रेस या उसके नेतृत्व से कोई मुहब्बत नहीं है. वह तो मनमोहन सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लेकर आ  गए थे . तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी ने उम्मीद की थी कि उनके अविश्वास प्रस्ताव के नोटिस को बीजेपी का समर्थन मिल जाएगा . हालांकि ऐसी कोई जानकारी नहीं है कि बीजेपी ने उनको किसी भी स्तर पर  वादा किया हो कि उनके प्रस्ताव पर समर्थन या कोई सहूलियत दी जायेगी .  लेकिन ममता बनर्जी ने बीजेपी से उम्मीद लगा रखी थी कि बीजेपी वाले यू पी ए सरकार को परेशान करने के लिए उनके साथ आ  जायेगें . लेकिन ऐसा नहीं हुआ.नतीजा यह हुआ कि तृणमूल कांग्रेस का अविश्वास प्रस्ताव मुंह के बल गिर पड़ा.एफ डी आई के खिलाफ होने के बावजूद भी तृणमूल कांग्रेस  आज बीजेपी के साथ दिखने के लिए तैयार नहीं है इसका कारण यह  है कि वह बीजेपी को भी मुश्किल में डालना चाहते हैं.आज का घटनाक्रम ऐसा है कि नियम १८४ के तहत जब लोकसभा में बहस होगी तो बीजेपी को कुछ  खास हासिल नहीं होगा . उसका प्रस्ताव पास नहीं हो सकेगा और सरकार  को कोई फरक नहीं पडेगा .  एक बार फिर राजनीतिक प्रबंधन में  बीजेपी को कांग्रेस ने  पिछाड दिया है . बीजेपी के प्रबंधकों में इस बात पर  चर्चा शुरू हो गयी है कि गलती कहाँ हुई. जबकि  बाकी दुनिया को मालूम है कि गलती कहाँ हुई है . जब अटल बिहारी वाजपेयी  प्रधान मंत्री थे थे तो उनके साथ बहुत सारी पार्टियां हुआ करती  थीं लेकिन आज बात  बिलकुल अलग है. एन डी ए में तृणमूल कांग्रेस, डी एम के , तेलुगु देशम. बीजू जनता दल  , नेशनल कानफरेंस सब थे .एक वक़्त तो जयललिता भी अटल बिहारी  वाजपेयी की समर्थक रह चुकी है . लेकिन आज हालात वैसे नहीं है . आज बीजेपी के  साथ पूरी तरह से केवल शिवसेना और अकाली दल ही बचे है . नीतीश कुमार की  जे डी ( यू  ) भी अधिकतर मुद्दों पर  बीजेपी के खिलाफ रहती है . अभी ताज़ा  उदाहरण सी बी आई के निदेशक की नियुक्ति का है जहां  बीजेपी के दोनों बड़े नेताओं ने प्रधान मंत्री के पास चिट्ठी लिखी थी लेकिन नीतीश कुमार ने उस चिट्ठी से सहमति नहीं जताई ,. बीजेपी के बड़े नेता नरेंद्र  मोदी को नीतीश  कुमार अपने  राज्य में चुनाव प्रचार तक नहीं करने देते हैं . ऐसी हालत में बीजेपी के साथ अब ऐसी ताक़त नहीं है कि वह किसी सरकार को हिला  सके. बीजेपी की राजनीतिक रणनीति  की दुर्दशा अभी राष्ट्रपति के चुनाव में भी  हो चुकी है  जबकि उसके  खास साथी शिवसेना ने भी कांग्रेस के उम्मीदवार का साथ दिया . वहाँ भी ममता बनर्जी की राजनीतिक सोच की धज्जियां उड़ी थीं जब  उन्होंने समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर कांग्रेस को शिकस्त देने की कोशिश की थी . उस वक़्त भी ममता बनर्जी को मालूम था कि वे कांग्रेस उम्मीदवार को तो हरा नहीं पायेगीं लेकिन वे यू पी ए की सरकार को कमज़ोर करना चाहती थीं. उस दौर में ममता बनर्जी यू पी ए में शामिल थीं और जो कुछ भी चाहती थीं , सरकार को करना पड़ता था . उनकी गैरवाजिब मांगों से  मनमोहन सरकार और सोनिया गांधी परेशान थे लेकिन ममता सरकार को गिरा नहीं सकती थीं क्योंकि उस सरकार को मुलायम  सिंह यादव के  २२ सदस्यों का बाहर रहकर समर्थन प्राप्त था . राष्ट्रपति चुनाव के दौरान ममता बनर्जी ने कोशिश की थी कि मुलायम सिंह यादव को अपने साथ लेकर वे यू पी ए से अपनी हार बात  मानने को मजबूर कर सकेगीं . लेकिन उनसे गलती हो गयी . उन्होंने सोचा कि मुलायम सिंह यादव  उनकी राजनीति चमकाने में मदद  करेगें. राजनीति का बुनियादी सिद्धांत है कि सभी नेता अपनी राजनीति को चमकाने के  लिए काम करते हैं . मुलायम  सिंह ने भी अपनी राजनीति को मज़बूत किया . उनकी राजनीति यह है कि वे कभी भी किसी साम्प्रदायिक शक्ति के साथ  नहीं देखे जा सकते और उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव में बीजेपी के उम्मीद्वार के खिलाफ वोट देकर कांग्रेस के उम्मीदवार को  जिता दिया और प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति हो  गए. उस चुनाव में भी कांग्रेस की राजनीति सफल रही  थी और बीजेपी की राजनीति को झटका लगा था .

   १९८९ के बाद से  ही बीजेपी की राजनीति का सभी मकसद हासिल किये जाते रहे हैं .उनकी बात को सबसे ऊपर तक पंहुचाने में उनके विपक्षियों की सबसे बड़ी भूमिका रहती रही है .कांग्रेस का नेतृत्व जबतक लचर था ,बीजेपी को कोई परेशान नहीं कर सकता था . बीजेपी की बात को आगे बढाने में मीडिया की भूमिका भी बहुत ही अहम रही है .  जब बाबरी मसजिद की  हिफाज़त के दौरान उत्तर प्रदेश की तत्कालीन सरकार ने गोलियाँ चलवाई थीं तो वाराणसी से छपने वाले हिंदी के एक अखबार ने तो लिख दिया था कि खून से सरजू नदी लाल हो गयी थी.  जो कि सच नहीं था.बाद में पता लगा कि खबर गलत थी . बाद के दौर में भी मीडिया ने बीजेपी की मदद की.बड़ी संख्या में मीडिया संगठनों में  बीजेपी  से सहानुभूति रखने वाले पत्रकारों की मौजूदगी के कारण ऐसा माहौल बन गया कि अगर कोई बीजेपी के खिलाफ कोई तथ्यपरक खबर भी लिखता  तो उस पर नज़रें तिरछी होने लगी थीं . लेकिन पिछले  कुछ वर्षों से बीजेपी के पक्ष में काम करने वाले पत्रकारों के सामने बड़ी मुश्किल है . जब से कर्नाटक की बीजेपी सरकार के भ्रष्टाचार के कारनामे पब्लिक हुए हैं . मीडिया को उसे हाईलाईट करना पड़ रहा है. ताज़ा मामला तो बीजेपी  के अध्यक्ष का ही  है . एक बार फिर साबित हो गया है कि भ्रष्टाचार में टू जी, कामनवेल्थ खेल,और अन्य घोटाले करने वाली यू पी ए और बीजेपी के नेता भ्रष्टाचार की पिच पर बराबर  हैं . दोनों ही पार्टियों में भ्रष्टाचार है .सवाल केवल भ्रष्टाचार को मैनेज करने का  है . बीजेपी के भ्रष्टाचार को उजागर करने में देश के हिंदी और अंग्रेज़ी , दोनों ही भाषाओं के सबसे बड़े अखबारों ने पूरी निष्पक्षता से काम किया है . नतीजा यह है कि अब भ्रष्टाचार के मामलों में कांग्रेस को बीजेपी घेर नहीं सकती . बीजेपी के मौजूदा अध्यक्ष के राजनीतिक कद को लेकर भी बीजेपी डिफेंसिव है . नितिन गडकरी अपनी ही पार्टी के सभी राष्ट्रीय नेताओं से  छोटे पाए जा  रहे हैं . लोकसभा और राज्य सभा में उनकी पार्टी के दोनों नेता ,उनसे बहुत बड़े हैं . उनके  सभी पूर्व अध्यक्ष उनसे राजनीतिक हैसियत में बहुत ऊंचे हैं और ऊपर से उन्होने महाराष्ट्र सरकार में मंत्री रहने के दौरान कुछ ऐसे काम किये हैं जिसका खामियाजा उनकी पार्टी को आज भुगतना पड़ रहा है . उनकी पार्टी  के निर्माताओं में  अटल  बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवानी का नाम लिया जाता है .. नितिन गडकरी के लिए वे ऊंचाइयां तो असंभव ही मानी जायेगीं . 
बीजेपी की एक और मुश्किल  है . उनका मुकाबला कांग्रेस से माना जाता है जहां राष्ट्रीय अध्यक्ष  का कद पार्टी के हर बड़े नेता से बड़ा  है . सोनिया गांधी  बहुत ही विपरीत परिस्थितियों में राजनीति में आयीं . अध्यक्ष के रूप में सीताराम केसरी ने पार्टी  को कहीं का नहीं छोड़ा था लेकिन सोनिया गांधी ने जीरो से शुरू  करके पार्टी को सरकार तक पंहुचाया . विपक्षी पार्टी की मुखिया के रूप में  काम शुरू  किया और केन्द्र सरकार में अपने कार्यकर्ता को प्रधान मंत्री  पद तक पंहुचाया . डॉ मनमोहन सिंह के बारे में उन दिनों कहा  जाता था  कि वे बहुत ही कमज़ोर प्रधान मंत्री हैं लेकिन अर्थशास्त्र के विद्वान प्रधान  मंत्री को दुबारा जीत दिलाकर उन्होंने साबित कर दिया कि वे देश की सबसे बड़ी राजनीतिक नेता  हैं . बीजेपी के बहुत ही कुशल पार्टी प्रवक्ताओं के आरोपों पर भी चुप रहने की कला में  प्रवीण सोनिया गांधी ने जब भी मौक़ा लगा तो संसद में लाल  कृष्ण आडवानी तक को हडका लिया और आडवानी जी को मजबूर होकर अपना बयान वापस लेना पड़ा. यू पी ए के पहले कार्यकाल में मनरेगा और सूचना के अधिकार जैसे क्रांतिकारी काम  के बल पर उन्होंने अपनी सरकार को दूसरा कार्यकाल दिलवा दिया . इस  हफ्ते सब्सिडी को सीधे उपभोक्ता के बैंक खाते में भेजने की जिस योजना की घोषणा कांग्रेस की नियमित ब्रीफिंग में  जाकर जयराम रमेश और पी चिदंबरम ने की है , वह गेम चेंजर  की भूमिका निभाएगा और आब विपक्ष को और भी मज़बूत रणनीति के साथ आना पड़ेगा वर्ना अगर कहीं सोनिया गाँधी ने लगातार तीन बार अपनी पार्टी के नेता को प्रधानमंत्री बनवा दिया तो वे जवाहरलाल नेहरू के बराबर की राजनेता  हो जायेगीं और बीजेपी  के लिए  बहुत मुश्किल होगी. बीजेपी को चाहिए कि वह फ़ौरन सोनिया गांधी को राजनीतिक चुनौती देने में सक्षम नेता  की  तलाश करे वर्ना बहुत देर हो चुकी होगी .क्योंकि आज की बीजेपी की राजनीति अपने अंदर से आ रही चुनौतियों को  संभालने में परेशान है जबकि  कांग्रेस समेत बाकी पार्टियां २०१४ या २०१३ जब भी लोक सभा चुनाव  होंगें उसकी तैयारी में हैं .

Sunday, November 25, 2012

गाजा में इजरायल की दादागीरी रोकने में नाकाम अमरीका की विदेशनीति कन्फ्यूज्ड है



शेष नारायण सिंह 


दूसरे विश्व युद्ध के दौरान नाजी जर्मनी में यहूदियों के साथ बहुत ज्यादती हुई थी .उसके बाद ही नाजी जर्मनी  को हराने वाली शक्तियों ने  अरब क्षेत्रमें यहूदी  राज्य की स्थापना कर दी थी.इसी राज्य में यरूशलम है जो  इस्लाम का एक बहुत ही पवित्र केन्द्र है और वहाँ पिछले ६४ साल से यहूदियोंका कब्जा है . इजरायल नाम के इस राज्य  को अमरीका ही चलाता है . अमरीकी नीति के इजरायल समर्थक रुख के कारण ही आज अरब क्षेत्र में यहूदीआतंकवाद कायम है . यह अलग बात है कि पश्चिम एशिया के कुछ देशों के शासक अमरीका को खुश रखने के चक्कर  में इजरायल का ऐलानियाँविरोध नहीं करते लेकिन इस बात में भी कोई शक नहीं है कि पश्चिम एशिया और बाकीदुनिया के मुसलमान इजरायली दादागीरी के खिलाफ हैं . दुनिया भर में इन्साफपसंद लोग इजरायल द्वारा आतंक को हथियार बनाने के तरीकोंकी मुखालफत करते हैं .इस इलाके में हमेशा से ही इजरायली आधिपत्य का विरोध होता रहा है .  बहुत दिन बाद जब फिलीस्तीनी लोगों की भावनाओंको सम्मान देने की गरज़ से अमरीका ने फिलीस्तीनी नेता यासर अराफात और इजरायल के बीच समझौता करवाया तो फिलीस्तीनी इलाकों में अरबलोगों को थोड़े बहुत अधिकार तो  मिले लेकिन उनकी हैसियत हमेशा से ही दूसरे दर्जे के नागरिकों की ही रही .चुनावी लोकशाही के चलते चुनावों  में गाजा में हमास के नेतृत्व में सरकार बनी लेकिन अमरीका ने उसे स्वीकार नहीं किया और  एक बार फिर फिलिस्तीन और इजरायल के बीच जारीदुश्मनी  सामने आ गयी और आजकल वहाँ गोलीबारी चल  रही है . हमास किसी भी सूरत में पश्चिम एशिया में इजरायल की मौजूदगी स्वीकार करने कोतैयार नहीं है. जिस ज़मीन को वे अपनी मानते हैं उसी गाजा  इलाके में अरब आबादी  बद से बदतर हालत में रहने को मजबूर है.गाजासे इजरायली सैनिक तो चले  गए हैं लेकिन अभी भी इजरायल ने समुद्री सीमा, वायु सीमा और गाजा के चारों तरफ की ज़मीन की सीमा की घेरेबंदी कर रखी है. आज भी गाजा के लोग यह मानते हैं कि उनके ऊपर इजरायल ने सैनिक कब्जा कर रखा है और उस कब्जे से मुक्ति दिलाने वाले संगठन के रूप में हमास की पहचान  बनती है .

इस पृष्ठभूमि में वर्तमान हमास-इजरायल संघर्ष को देखा जाना चाहिए . जब चार साल पहले  इजरायल ने गाजा पर हमला किया था तो उसी हमले के बाद हुई शान्ति में अगले संघर्ष की इबारत लिख दी गयी थी. हमास की कोशिश है कि वह पश्चिम एशिया में न्याय के लिए चल रहे संघर्ष का नायक  बन जाय . शायद इसीलिए वह अमरीकी समर्थन से राज कर रहे इजरायल के खिलाफ ताकत का इस्तेमाल कर देता है . हर बार की तरह इस बार भी  इजरायल ने  ज़रूरत से ज्यादा ताक़त झोंककर फिलितीनियों को दबा लेने की कोशिश की. दुनिया जनाती है  कि एक ही ज़मीन पर रह रहे इजरायलियों  और फिलिस्तीनियों के बीच नफरत के सिवा कुछ भी साझा नहीं है .ऐसी हालत में गाजा पट्टी में सक्रिय हमास के लड़ाकू कभी कभार इजरायली इलाकों पर राकेट दागते रहते हैं . जबकि इजरायल का कहना है कि जब २००५ में उसने गाजा पट्टी से अपने सैनिक हटा लिए और अपनी आबादी को वापस बुला लिया तो फिलीस्तीनी आवाम की नाराज़गी का कोई कारण नहीं होना चाहिए . लेकिन २००५ के समझौते से अरब अवाम में कोई खुशी नहीं थी . शायद इसी लिए गाजा की जनता ने यासर अराफात की  फतह पार्टी को हराकर हमास को  २००६ में सत्ता सौंप दी थी .


इजरायली अवाम भी हर हाल में अपने आपको  मज़बूत रखना चाहता है  . उसकी ऐतिहासक याददाश्त में जर्मनी में यहूदियों के साथ हुए अत्याचार ताज़ा हैं . जबकि अरब  दुनिया में भी आजकल चारों तरफ इन्साफ के लिए  संघर्ष की ख़बरें आम हैं .इसी सन्दर्भ में हमास की स्वीकार्यता भी  बढ़ रही है .हालांकि अमरीका हमास को मान्यता नहीं  देता और कोशिश करता है कि उसे अछूत माना जाय  लेकिन अरब और इस्लामी दुनिया में हमास की स्थिति मज़बूत हो रही है . पिछले महीने कतर के अमीर  की  यात्रा से हमास की  मान्यता हासिल करने की कोशिश को ताकत मिली थी . इजिप्ट के प्रधानमंत्री की यात्रा भी इसी कड़ी में देखी जानी चाहिए .हालांकि इजिप्ट में जो सरकार है वह अमरीका की कृपा पर पल  रही है लेकिन हालात की नजाकात ऐसी है कि अमरीकी कारिंदे भी अब हमास को नज़र अंदाज़ नहीं कर पा रहे हैं .इजिप्ट के राष्ट्रपति मुहम्मद मोर्सी ने कहा है कि आज के इजिप्ट और पुराने इजिप्ट में बहुत फर्क है . यहाँ यह बात गौर करने की है कि  हमास और मुहम्मद मोर्सी के संगठन ,मुस्लिम ब्रदरहुड के  बीच बिरादराना  राजनीतिक सम्बन्ध हैं .

पश्चिम एशिया की राजनीति के जानकार बताते हैं कि २२ जनवरी को होने वाले इजरायली चुनाव के कारण भी शायद वहाँ के शासकों  ने  अरबों को सबक सिखाने की बात को बार बार दोहराया है.. इजरायली नेता इस बात से इनकार करते हैं लेकिन ऐसा  पहले भी हुआ है जब इजरायली चुनाव में अच्छा नंबर लाने के चक्कर ने इजरायली सत्ताधारी दल ने अरबों पर हमले किये थे.जून १९८१ में मेनाचेम बेगिन इजरायल के प्रधान मंत्री थे . कुछ ही हफ्ते बाद चुनाव होने थे और माना जा रहा था  कि उनको चुनौती देने वाले शिमोन पेरेज़ की जीत होगी लेकिन बेगिन ने अपनी सीमा से बहुत  दूर इराक में ओसिरक के परमाणु ठिकाने पर हमला करके उसे बर्बाद कर दिया .बेगिन की अमरीका ने तारीफ़ की और कहा कि सद्दाम हुसेन की परमाणु  हथियार बनाने की क्षमता को तबाह करके बेगिन ने अच्छा काम किया है . बेगिन के लिए जो हारा हुआ चुनाव था उसमें वे मामूली बहुमत से जीत गए .जिन शिमोन पेरेज़ को १९८१ में बेगिन ने हराया था वे १९९६ में कामचलाऊ  प्रधानमंत्री थे.चुनाव में उनकी हालत अच्छी नहीं थी. इजरायली लोग उन्हें शान्ति का पैरोकार मानते थे .इजरायली समाज में शान्ति का पैरोकार होना कोई बहुत अच्छी बात  नहीं मानी जाती. अपनी छवि को हमलावर साबित करने  के लिए  उन्होने हमास के बहुत सारे कार्यकर्ताओं को मरवा डाला और हेज़बोल्ला के खिलाफ हमला बोल दिया . लेबनान में हेज़बोल्ला  के  ठिकानों पर बमबारी की . उस चुनाव के दौरान आमतौर पर यह बताया गया था कि पेरेज़ चुनाव में जीत  के चक्कर में यह सब कर रहे थे. उनकी हालत में सुधार भी हुआ लेकिन आखिर में चुनाव हार  गए . ऐसा शायद इसलिए कि  उनके हमले में लेबनान में मौजूद संयुक्तराष्ट्र के कुछ कार्यकर्ता भी मारे  गए थे . ऐसा ही सैनिक हमला चार साल पहले भी देखा गया था जब बेंजामिन नेतान्याहू की जीत पक्की मानी जा रही थी . घबडाकर उस वक़्त  के प्रधानमंत्री एहूद ओलमर्ट ने हमला कर दिया और उनको थोडा बहुत चुनावी लाभ मिल गया .

इजरायल और हमास के बीच चल रहे संघर्ष का अरब दुनिया पर जो भी असर पड़ रहा हो लेकिन अमरीकी विदेशनीति की भी कड़ी परीक्षा हो रही है .अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा ने नोम पेन्ह में मौजूद अपनी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन को पश्चिम एशिया की यात्रा पर भेज दिया है .  अमरीका की हमास से तो बोलचाल नहीं है लेकिन हिलेरी क्लिंटन ने वहाँ रामल्ला में फिलीस्तीनी नेताओं से बातचीत किया है और कोई नतीजा तलाशने की कोशिश जारी है . अमरीका की चिंता इसलिए भी बढ़ गयी है कि तुर्की के प्रधानमंत्री रेसेप तय्यब एरदोगान ने भी इजरायल को एक आतंकवादी राज्य घोषित कर दिया और गाजा पर हो रहे इजरायल के हवाई हमलों की निंदा की . अभी कुछ दिन पहले जब इजरायल ने जब कहा कि वह गाजा में ज़मीनी हमला शुरू कर देगा तो इजिप्ट के राष्ट्रपति मुहम्मद मोर्सी ने इजरायल को ऐसी किसी भी कोशिश से बाज़ आने की चेतावनी दी और  अपने प्रधानमंत्री को गाजा की यात्रा  पर भेज दिया  . इजरायल की  ताज़ा हठधर्मी के चलते उसके आका अमरीका के पश्चिम एशिया में मौजूद दोस्त भी अमरीका की जयजयकार करने की स्थिति में नहीं हैं .इजिप्ट की सरकार में इस बात पर भारी नाराज़गी है कि अमरीका ने  हफ़्तों चली बमबारी के बाद भी इजरायल से सार्वजनिक रूप से हमले रोकने को नहीं कहा .इस क्षेत्र में इजिप्ट के अलावा  जोर्डन भी अमरीका का दोस्त  माना  जाता  है लेकिन इजरायल के  रवैया ऐसा है कि वह  भी अब तक अमरीका के पक्ष में कुछ भी नहीं कह पाया है . अमरीकी सरकार ने सभी पक्षों से अपील की है कि वह  पश्चिम एशिया में संघर्ष की हालत को काबू में करें . बमबारी कर रहे इजरायल और हमले झेल रहे गाजा को एक ही  स्तर पर रखने के अमरीकी रुख से अरब दुनिया में गम और गुस्सा है . शायद इसीलिये अपनी लगातार गिर रही साख को संभालने की गरज़ से ओबामा ने अपनी विदेश मंत्री को  रामल्ला भेजा है . यह अलग बात है कि हालात पर काबू कर पाना अब अमरीका के लिए तभी संभव होगा जब वह इजरायल को  सैनिक ताकत का इस्तेमाल करने से रोक पाए.


(२१ नवंबर को लिखा गया लेख )

Sunday, November 18, 2012

संसदीय लोकतंत्र के अस्तित्व पर भ्रष्टाचार का संकट , उसे बचाने के लिए अवाम का एकजुट होना ज़रूरी





शेष नारायण सिंह 

जब पी वी नरसिम्हाराव के  वित्त मंत्री के रूप में डॉ मनमोहन सिंह ने अंधाधुंध निजीकरण की प्रक्रिया की  बुनियाद डाली थी तो लोगों की समझ में  नहीं आ रहा था कि अर्थशास्त्र का यह विद्वान वित्त मंत्री के अपने अवतार में करना क्या चाहता था. आज़ादी के बाद जो कुछ भी राष्ट्र की संपत्ति के रूप में बनाया गया था ,उसे पूंजीपतियों के हाथ में सौंप देने की राजनीति शुरू हो चुकी थी. उसके पहले शासक  वर्गों की पार्टियों ने  बाबरी मसजिद के विवाद के ज़रिये धार्मिक भावनाओं को खूब ज़बरदस्त तरीके से उभार दिया था और दोनों ही बड़ी पार्टियां यह सुनिश्चित कर चुकी थीं कि देश के अधिकाँश आमजन हिंदू या  मुसलमान के रूप में अपनी अस्मिता की रक्षा के चक्कर में इतनी बुरी तरह से उलझ जायेगें कि वे अपने राजनीतिक भविष्य के साथ खिलवाड कर रही राजनीतिक पार्टियों की चाल की बारीकियो को देखना बंद कर देगें .  यही हुआ भी .यह अलग बात है कि  उस दौर में भी समझदार राजनेताओं का एक बड़ा वर्ग था जिसने संसद में और संसद के बाहर यह चेतावनी दी थी कि अगर मंदिर मसजिद के चक्कर में देश का अवाम उलझा रहा तो देश की राजनीति का बहुत नुक्सान हो जाएगा. ऐसे ही एक राजनेता मधु  दंडवते थे. उन्होंने कहा कि मनोहन सिंह की राजनीति देश के सार्वजनिक उद्योगों के मुनाफे का निजीकरण कर रही है और नुक्सान का राष्ट्रीयकरण कर रही है . उन्हीं मधु दंडवते की याद में दिल्ल्ली में एक  सेमीनार में आज की संसदीय लोकशाही के  सामने मौजूद संकटों पर बातचीत हुई. समाजवादी चिन्तक मस्त राम कपूर और कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव सुधाकर रेड्डी मुख्य वक्ता थे, चर्चा के दौरान आज की हमारी राजनीति के संकट के बारे में खुलकर चर्चा हुई. 

मस्त राम कपूर ने कहा  कि आज की संसदीय राजनीति के  सामने सबसे बड़ा संकट दल बदल क़ानून के कारण पैदा  हुआ  है . इस कानून ने भारतीय राजनीति  से असहमति का अधिकार छीन लिया है . नतीजा यह है कि संसद और विधान सभा के सदस्यों के सामने पार्टी के व्हिप को मानने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है . उन्होंने भारतीय राजनेति में दल बदल के कानून के इतिहास के बारे में भी कुछ जानकारी थी. भारत में दलबदल कानून की  ज़रूरत १९६७ में गैर कांग्रेस बाद की सफलता के बाद महसूस की गयी थी.जब कई राज्यों में विपक्षी दलों ने मिलजुलकर सरकारें बनाई थीं. आया राम और गयाराम भारतीय राजनीति के नए मुहावरे बने थे . दल बदल पर रोक लगाने की ज़रूरत के मद्दे नज़र सरकार को सुझाव देने के लिए तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने एक  कमेटी बनायी जिसके प्रमुख जयप्रकाश नारायण थे .उस कमेटी में अटल बिहारी वाजपयी, मोरारजी देसाई और मधु लिमये भी थे. उस कमेटी ने सुझाव दिए जिनको कानून की शक्ल देकर दल बदल पर काबू किया जाना था,कमेटी के के सुझावों में पार्टी के आलाकमान से असहमति के अधिकार को सुरक्षित रखा गया था .कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि  पार्टी के नेतृत्व से असहमति का अधिकार हर सदस्य के पास होना चाहिए . यही लोकतंत्र की जान है. अगर असहमति का अधिकार खत्म हो गया तो राजनीतिक पार्टियां मनमाने फैसले करने लगेगीं. इस कमेटी के सुझाव इंदिरा गांधी को सूट नहीं करते थे इसलिए उन्होंने उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया . लेकिन जब उनके हारने के बाद १९७७ में मोरारजी देसाई ने सत्ता संभाली तो उन्होंने दल बदल विरोधी कानून बनाने की बात फिर शुरू कर दी. लेकिन ऐसा कानून बनाने की कोशिश की कि असहमति के अधिकार को खत्म कर देने की ताक़त राजनीतिक पार्टियों  के पास आ जाती. उन दिनों मधु लिमये जनता पार्टी के संसद सदस्य थे उन्होंने इस  प्रस्तावित कानून का ज़बरदस्त विरोध किया और कानून पास नहीं हो सका . उस दौर के कई बड़े लोगों ने मधु लिमये की आलोचना की और उन्हें दल बदलुओ का सरदार भी कहा लेकिन मधु लिमये जिस सदन के सदस्य हों उसमें कोई भी सरकार मनमाने तरीके से लोकतंत्र विरोधी काम नहीं कर सकती थी. यह बात इंदिरा गाँधी और जवाहर लाल नेहरू  को भी मालूम थी. दल बदल क़ानून जनता पार्टी   के समय में नहीं बन सका . लेकिन जब इंदिरा गांधी के मरने के बाद राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने  तो उन्होंने ३० जनवरी के दिन दलबदल कानून पास कारवा लिया . और कहा गया कि महात्मा गांधी की शहादत के दिन कानून पास करवाकर सरकार ने उनके प्रति सही श्रद्धांजलि  दी है .अजीब बात है कि उस दिन संसद में मधु  दंडवते भी मौजूद थे और उन्होंने भी उसका समर्थन किया . जब शाम को वे मधु लिमये से मिलने गए  तब उनकी समझ में आया कि कितनी बड़ी गलती कर चुके थे .उनको अफसोस  भी हुआ लेकिन तब तक चिड़िया खेत चुग चुकी थी. मधु लिमये कहा  करते थे कि अगर एक व्यवस्था कर दी जाए कि जो लोग दल बदल करेगें उन्हें नयी पार्टी की सरकार में तब तक मंत्री नहीं बनाया जाएगा जब तक  उस लोक सभा या विधान सभा का कार्यकाल  खत्म न  हो जाए.  इसके अलावा उनकी सदस्यता से कोई भी छेड़छाड न करने की गारंटी भी  सुनिश्चित की जाए.उन्हें लाभ का कोई भी पद न  दिया जाए. अगर अगले चुनाव में वे अपनी नई पार्टी से जीतकर आते हैं तो उनको मंत्री भी बनाया जा सकता  है और अन्य कोई भी पद दिया जा सकता है . देखा गया है कि ज़्यादातर दल बदल मंत्री बनने की लालच में ही होते है .इसलिए अगर यह पक्का कर दिया जाए कि मंत्री नहीं बनना है तो केवल वे लोग ही दलबदल करेगें  जो सिद्धांतों के आधार पर कर रहे होंगे.

आज दल बदल कानून के चलते संसदीय पद्धति के लोकतन्त्र का भारी नुक्सान हो चुका है . शासक वर्गों  की पार्टियों के आतंरिक लोकतंत्र को लगभग दफ़न किया जा चुका है .और चारों तरफ चुनाव सुधारों की बात होने लगी है .इसी सेमीनार में कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव सुधाकर रेड्डी भी वक्ता थे. उन्होंने कहा कि भारत का संसदीय लोकतंत्र भारी संकट के दौर से गुजर रहा है.. सत्ताधारी वर्गों की दोनों ही पार्टियां आम आदमी से कट चुकी हैं .संसद और विधान सभाओं में हंगामा होना आम बात हो गयी है . उन्होंने  कहा कि जहां पहली लोक सभा के दौरान साल में १४२ दिन काम होता था आज वहीं ४५ दिन का औसत है और वह भी अक्सर हंगामे की भेंट चढ़ जाता है .संसद में ३०० से ज्यादा लोग अरबपति  हैं और वे आम आदमी के हित की बात नहीं करते. कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही पार्टियों के भ्रष्टाचार के जलवे आम हैं . इसीलिये आम आदमी अब यह मानने लगा है कि संसद या विधान सभाओं में उसके हित की बात नहीं की जायेगी .यह बहुत ही निराशा की बात है कि जनता का भरोसा संसद से उठ रहा है .अब लोगों को मालूम है कि संसद में उनका कोई काम नहीं हो रहा है .ऐसी हालत में लोग अपनी समस्याओं के हल के लिए  सडकों पर निकल रहे हैं.जनता को लगभग भरोसा हो चूका है कि संसद में पूंजीपतियों के लाभ के फैसले ही लिए जायेगें. ऐसी हालत में कहीं को अन्ना हजारे, या अरविन्द केजरीवाल में जनता को उम्मीद नज़र आती है और कहीं वामपंथी आतंकवाद का माहौल बन रहा है.  यह सारे विकल्प राजनीतिक रूप से अधूरे हैं इनसे संसदीय लोकतंत्र का भला नहीं होने वाला है 

इसलिए ज़रूरी यह है कि हम एक राष्ट्र के रूप में एकजुट हों और अपने संसदीय लोकतंत्र की  हिफाज़त करें . ऐसा माहौल बनाया जाए जिसके बाद राजनीतिक फैसलों की  बुनियाद आम आदमी के हित को ध्यान में रख कर डाली जाए,क्रोनी कैपिटलिज्म के आधार पर नहीं .ऐसा लगता है कि संसद में हंगामा करके दोनों ही  बड़ी पार्टियां संसद को नाकारा साबित करने के चक्कर में हैं . ऐसा होना बहुत ही बुरा होगा इसलिए आज इस बात की ज़रूरत बहुत ज्यादा है कि सारा देश लोकतंत्र को बचाने के लिए लामबंद हो और कुछ  ऐसी पार्टियां उनका नेतृत्व करने के लिये आगे आयें जो वास्तव में जनता की पक्षधरता की राजनीति करती हों .आज विदेशी कंपनियों को सारा देश थमा देने की जो तैयारी हो रही है उसका विरोध अगर कारगर तरीके से न किया  गया तो राष्ट्र की अस्मिता पर ही सवाल उठना शुरू  हो जाएगा. इसको जनता का भरोसा जीतकर ही सम्भाला जा सकता है .आज भ्रष्टाचार का दानव इतना बड़ा हो चुका है कि अगर लोकतांत्रिक तरीके से उसके खिलाफ आंदोलन न शुरू कर दिए गए तो बहुत बुरा होगा. इस बात में दो राय नहीं है कि संसदीय लोकतंत्र में बहुत सारी खामियां हैं लेकिन उस से बेहतर विकल्प अभी ईजाद नहीं हुआ है इसलिए एक देश के रूप में हमें अपने संसदीय लोकतंत्र की रक्षा करनी चाहिए .

Wednesday, November 14, 2012

कहीं नामाबर की नीयत पर ही सवाल न उठा दें रिलायंस के लोग



शेष नारायण सिंह 

अरविन्द केजरीवाल भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाते चलाते भटक गए। जब उन्होंने सोनिया गांधी के दामाद राबर्ट वाड्रा के आर्थिक अपराध को पब्लिक किया था तो लोगों को लगा था कि  शायद भ्रष्टाचार के खिलाफ एक माहौल बनेगा। उसके बाद उन्होंने अगले हफ्ते ही बीजेपी के अध्यक्ष नितिन गडकरी की आर्थिक हेराफेरी को सार्वजनिक कर दिया . उम्मीद बढी कि अब तो यह पहलवान बड़ों बड़ों को औकात पर ला देगा . उसके बाद जब रिलायंस के कृष्णा गोदावरी बेसिन के गैस भण्डार में हुयी बेईमानी का ज़िक्र आया और अरविन्द केजरीवाल ने वहां हुयी सारी गडबडी को दुनिया के सामने लाकर पटक दिया तो  आम आदमी  को बहुत खुशी हुयी . सब को मालूम था कि  कृष्णा गोदावरी बेसिन में रिलायंस ने पिछले कई वर्षों से सरकारों को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया था लेकिन कम्युनिस्ट पार्टियों के नेताओं के अलावा किसी भी पार्टी के राजनीतिक नेता और पार्टी की हिम्मत नहीं पडी कि सार्वजनिक संपत्ति को निजी कंपनी के स्वार्थ के लिए इस्तेमाल होने से रोकने के लिए आवाज़ उठा सके। पता नहीं क्या हो गया था कि सारी बात को मीडिया ने भी हाईलाईट नहीं किया .अरविन्द केजरीवाल को शाबाशी इसलिए भी दी जानी चाहिए कि उन्होंने अपनी सुरक्षा की परवाह किये बिना उन बातों को सार्वजनिक किया जिनको जानते सभी थे लेकिन बोल कोई नहीं पा रहा  था. 

लेकिन एक बात से मन में दुविधा पैदा हो रही है. कहीं अरविन्द केजरीवाल की बातों पर लोग एतबार करना  बंद  न कर दें . अगर ऐसा हुआ तो देश के लिए बुरा होगा. बहुत दिन बाद सार्वजनिक जीवन में कोई ऐसा आदमी आया है जो सच्चाई को डंके की चोट पर कह रहा है . केजरीवाल ने जो सबसे ताज़ा मामला पब्लिक के सामने पेश किया  है उसके लिए कोई कागज़ी सबूत नहीं दिया . स्विस बैंकों में काले धन के जिस मामले को उन्होंने इस बार उजागर किया है उसके लिए कोई दस्तावेज़ नहीं हैं . वे कह रहे हैं कि " चूंकि मैं कह रहा हूँ इसलिए इसका विश्वास कर लिया जाए" .हो सकता है कि उनको हीरो मानने वाले उनकी बात  मान लें लेकिन उनके मानने से कुछ नहीं होता. भंडाफोड नंबर तीन और चार में अरविन्द केजरीवाल ने रिलायंस को निशाने पर लिया है . रिलायंस के बारे में हर पढ़े लिखे आदमी को मालूम है  . सबको मालूम है कि रिलायंस ने पिछ्ले ३५ वर्षों में नियमों को तोड़कर और नेताओं-पत्रकारों-नौकरशाहों के सामने टुकड़े फेंक कर अपना  हर काम करवाया है . उसके चाकर नेताओं और पत्रकारों  का एक बहुत बड़ा वर्ग देश की हर गैर कम्युनिस्ट पार्टी और लगभग हर अखबार में  सक्रिय है. आशंका यह जताई जा रही है कि बिना किसी सबूत के लगाए गए आरोपों को  रिलायंस के मित्रों की ताक़त से गलत न साबित कर दिया जाए. ऐसी हालत में अरविन्द केजरीवाल की विश्वसनीयता पर ही सवाल उठा दिए जायेगें .अगर ऐसा हुआ तो  वह इस देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ बन रहे माहौल के लिए मुश्किल होगा. 

९ नवम्बर के खुलासे के बाद ही हवा में बात छोड़ने की कोशिश की जा रही है कि अरविन्द केजरीवाल और उनकी टीम को रिलायंस के विरोधी हवा दे रहे हैं . इसका नतीजा यह होगा कि रिलायंस के साथी केजरीवाल को किसी अन्य कारपोरेट घराने का कारिन्दा साबित कर देगें . इस से आम आदमी को कोई फर्क नहीं  पड़ता . कोई किसी घराने का हो ,सच्चाई तो सामने आ रही है लेकिन अगर सच्चाई बताने वाले  की विश्वसनीयता पर सवाल उठ गए  तो मुश्किल होगा. अरविन्द केजरीवाल को इस बात को ध्यान में रखना चाहिए . 

Saturday, November 10, 2012

कोई कुछ भी कहे लेकिन गडकरी की कश्ती भंवर में तो है ही



शेष नारायण सिंह  


शासक वर्ग की दोनों ही बड़ी पार्टियों में उथल पुथल है . कांग्रेस के कई नेताओं के ऊपर भ्रष्टाचार  के संगीन आरोप हैं तो सत्ताधारी पार्टी के भ्रष्टाचार पर नज़र रखने के लिए जनता की तरफ से तैनात विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी भी भ्रष्टाचार की लपटों से बच नहीं पा रही है . माहौल ऐसा है कि भ्रष्टाचार की पिच पर दोनों ही पार्टियों  की दमदार मौजूदगी है . ज़ाहिर है कांग्रेस या बीजेपी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर एक दुसरे के ऊपर उंगली उठाने की स्थिति में नहीं हैं .  यह देश का दुर्भाग्य है कि राजनीतिक जीवन में सक्रिय ज्यादातर बड़ी पार्टियों के नेता राजाओं की तरह का जीवन बिताने को आदर्श मानते हैं .जिसे हासिल करने के लिए ऐसे ज़रिये से धन कमाने के चक्कर में रहते हैं जिसकी गिनती कभी भी ईमानदारी की श्रेणी में नहीं की जा सकती. ताज़ा मामला बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी का है . उनके ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं . लेकिन उनके साथी यह कहते पाए जा रहे हैं कि उन्होंने कानूनी या नैतिक तौर पर कोई गलती नहीं की है . लेकिन उनकी पार्टी के अंदर से ही उनके खिलाफ माहौल बनना  शुरू हो गया है. सच्चाई यह है कि पिछले सात  वर्षों से बीजेपी ने कांग्रेस को भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ही घेरने की  रणनीति पर काम किया है ,विकास या अच्छी सरकार का मुद्दा उनकी नज़र में नहीं  आया. जब भ्रष्टाचार के चक्कर में लोकायुक्त  ने  कर्नाटक के मुख्यमंत्री पर आरोप लगाया तो बीजेपी ने दक्षिण भारत में अपनी पार्टी को कमज़ोर करने का खतरा लेकर भी मुख्यमंत्री येदुरप्पा को पद से हटाया. लेकिन गडकरी के ऊपर जो आरोप लगे हैं उनको  झेल पाना बीजेपी के बस की बात नहीं है. एक टी वी चैनल ने सारा मामला उठाया . बाद में भ्रष्टाचार के खिलाफ काम कर रहे लोगों की एक जमात के नेता ने भी बहुत ही समारोहपूर्वक नितिन गडकरी की भ्रष्टाचार कथा को सार्वजनिक किया . इस नेता की खासियत यह  है कि जिस मुद्दे को भी यह उठाता  है ,मीडिया उसे चटनी की तरह लपक लेता है .शायद इसी वजह से आज बीजेपी अध्यक्ष के भ्रष्टाचार  के कथित कारनामे सारे देश में चर्चा का विषय हैं .  बीजेपी के सामने भी चुनौती है कि अपने मौजूदा अध्यक्ष को कैसे बचाए .  माहौल ऐसा है  कि अगर नितिन गडकरी  हटाये जाते हैं तो भ्रष्टाचार के कहानियों के सारे ताने बाने बीजेपी के इर्द गिर्द ही बन जायेगें . लेकिन न हटाने की सूरत में भी वही हाल रहेगा. राजनीतिक माहौल ऐसा है कि आजकल जब भी भ्रष्टाचार शब्द के कहीं इस्तेमाल होता है, तो  नितिन गडकरी की तस्वीर सामने आ जाती है . 

हालात को काबू में रखने के लिए बीजेपी के नेता तरह तरह की कोशिश कर रहे हैं . बीजेपी का नियंत्रक संगठन आर एस एस है. आर एस एस की पूरी कोशिश है कि नितिन गडकरी को डंप न किया जाए. शायद इसी मंशा से उन्होंने अपने खास सदस्य  और चार्टर्ड अकाउन्टेंट ,एस गुरुमूर्ती को पेश किया और उन्होंने बीजेपी के कोर ग्रुप को बता दिया कि नितिन गडकरी बिलकुल निर्दोष हैं . यह अलग बात  है कि सार्वजनिक रूप से उनकी बात को स्वीकार कर लेने के बाद भी बीजेपी के नेता गडकरी को दोषमुक्त नहीं मान पा रहे हैं.आर एस एस की पोजीशन गडकरी ने बहुत ही मुश्किल कर दी है .आर्थिक भ्रष्टाचार के मामलों से वे जूझ ही रहे थे कि  उन्होंने स्वामी विवेकानंद की अक्ल की तुलना दाऊद इब्राहीम की अक्ल से करके भारी मुश्किल पैदा कर दी . आर्थिक भ्रष्टाचार के आरोप तो आर एस एस बर्दाश्त भी कर लेता लेकिन जिन स्वामी विवेकानंद जी के व्यक्तित्व के आसपास,  आर एस एस ने अपना संगठन खड़ा किया  हो उनकी तुलना दाऊद इब्राहीम जैसे आदमी से कर देना  आर एस एस के लिए बहुत मुश्किल है .हालांकि पूरे भारत में कोई भी दाऊद इब्राहीम को सही नहीं  ठहरा पायेगा लेकिन आर एस एस के लिए किसी ऐसे आदमी को महिमामंडित करना असंभव है जो मुसलमान हो, पाकिस्तान का दोस्त हो और मुंबई में शिवसेना के खिलाफ बहुत सारे अभियान चला चुका हो . गडकरी ने भ्रष्टाचार के कथित काम करके बीजेपी की वह अथारिटी तो छीन ही ली कि वह भ्रष्टाचार के मुद्दे को चुनावी मुद्दा बना सके, उन्होंने देश के नौजवानों के संघप्रेमी वर्ग को भावनात्मक स्तर पर भी  तकलीफ पंहुचाई . बीजेपी और आर एस एस के लिए विवेकानंद का अपमान करने वाले को बर्दाश्त कर पाना बहुत मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है .बीजेपी की परेशानी को समझने के  लिए आज़ादी  की लड़ाई के इतिहास पर एक नज़र डालनी होगी. भारत की आज़ादी की लड़ाई  की पहली कोशिश १८५७ में हुई थी . कहीं कोई  संगठन नहीं था  लिहाजा वह  संघर्ष बेकार साबित हो गया. लेकिन जब १९२० में महात्मा गांधी के नेतृत्व में आज़ादी की कोशिश शुरू हुई तो पूरा देश उनके साथ हो गया .लेकिन महात्मा गांधी के साथ कोई भी ऐसा आदमी नहीं था जिसका आर एस एस से किसी तरह का सम्बन्ध रहा हो. आर एस एस वाले बताते हैं कि इनके संस्थापक डॉ हेडगेवार ने आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया था . अगर उनकी बात को मान भी लिया जाए तो यह पक्का है कि आर एस एस वालों के पास महान पूर्वजों की किल्लत है .

सत्ता में आने के बाद बीजेपी ने वी.डी. सावरकर को आजादी की लड़ाई का हीरो बनाने की कोशिश की थी .बीजेपी ने सावरकर की तस्वीर संसद के सेंट्रल हाल में लगाने में सफलता भी हासिल कर ली लेकिन बात बनी नहीं क्योंकि 1910 तक के सावरकर और ब्रिटिश साम्राज्य से मांगी गई माफी के बाद आजाद हुए सावरकर में बहुत फर्क है और पब्लिक तो सब जानती है। सावरकर को राष्ट्रीय हीरो बनाने की बीजेपी की कोशिश मुंह के बल गिरी। इस अभियान का नुकसान बीजेपी को बहुत ज्यादा हुआ क्योंकि जो लोग नहीं भी जानते थे, उन्हें पता लग गया कि वी.डी. सावरकर ने अंग्रेजों से माफी मांगी थी और ब्रिटिश साम्राज्य की सेवा करने की शपथ ली थी। 1980 में अटल बिहारी वाजपेयी ने गांधी को अपनाने की कोशिश शुरू की थी लेकिन गांधी के हत्यारों और संघ परिवार के कुछ सदस्यों संबंधों को लेकर मुश्किल सवाल पूछे जाने लगे तो परेशानी पैदा हो गयी और वह प्रोजेक्ट भी ड्राप हो  गया .

1940 में संघ के मुखिया बनने के बाद एम एस गोलवलकर भी सक्रिय रहे लेकिन जेल नहीं गए। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौर में जब पूरा देश गांधी के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई में शामिल था तो आर.एस.एस. के गोलवलकर को कोई तकलीफ हुई,वे आराम से अपना काम करते रहे . ज़ाहिर है उनको भी आज़ादी की लड़ाई  का हीरो नहीं साबित किया जा सकता .कुछ वर्ष पहले सरदार पटेल को अपनाने की कोशिश शुरू की गई। लालकृष्ण आडवाणी लौहपुरुष वाली भूमिका में आए और हर वह काम करने की कोशिश करने लगे जो सरदार पटेल किया करते थे। लेकिन बात बनी नहीं क्योंकि सरदार की महानता के सामने लालकृष्ण आडवाणी टिक न सके। बाद में जब उन्होंने पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिनाह को महान बता दिया तो सब कुछ हवा हो गया. जिनाह को सरदार पटेल ने कभी भी सही आदमी नहीं माना था . ज़ाहिर है जिनाह का कोई भी प्रशंसक  सरदार पटेल का अनुयायी नहीं हो सकता . वैसे सरदार पटेल को अपनाने की आर.एस.एस. की हिम्मत की दाद देनी पडे़गी क्योंकि आर.एस.एस. को अपमानित करने वालों की अगर कोई लिस्ट बने तो उसमें सरदार पटेल का नाम सबसे ऊपर आएगा। सरदार पटेल ने ही महात्मा गांधी की हत्या वाले केस में आर.एस.एस. पर पाबंदी लगाई थी और उसके मुखिया एम एस गोलवलकर को गिरफ्तार करवाया था। बाद में मुक़दमा चलने के बाद जब हत्या में गोलवलकर का रोल साबित नहीं हो सका तो उन्हें रिहा हो जाना चाहिए था लेकिन सरदार पटेल ने कहा कि तब तक नहीं छोड़ेंगे जब तक वह अंडरटेकिंग न दें। बहरहाल अंडरटेकंग लेकर आर एस के प्रमुख एम एस गोलवलकर को छोड़ा। साथ ही एक और आदेश दिया कि आर एस एस वाले किसी तरह ही राजनीति में शामिल नहीं हो सकेंगे। जब राजनीतिक रूप से सक्रिय होने की बात हुई तो सरदार पटेल की मृत्यु के बाद भारतीय जनसंघ की स्थापना की गयी और उसके बाद चुनावी राजनीति करने के  रास्ते खुले . इसी भारतीय जनसंघ की उत्तराधिकारी पार्टी आज की बीजेपी है .

ज़ाहिर है कि बीजेपी और आर एस एस में ऐसे महान लोगों  की कमी है जो समकालीन इतिहास के हीरो हों और उन पर गर्व किया जा  सके. ऐसी  हालत में बीजेपी ने १९२० के पहले के कुछ महान लोगों को अपना बनाने का अभियान चला रखा है. ऐसे महान लोगों में स्वामी विवेकानंद का नाम सबसे ऊपर  है . यह अलग बात है कि स्वामी विवेकानंद के ऊपर बाकी देश का भी बराबर का अधिकार है. ऐसी हालत  अगर बीजेपी या आर एस एस का कोई  नेता स्वामी विवेकानंद की शान में गुस्ताखी करता है तो उसका समर्थन कर पाना  बहुत मुश्किल होगा . आज नितिन गडकरी की  नाव भंवर में है और उनके लिए बीजेपी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बने रह पाना बहुत मुश्किल है . गडकरी  के समर्थन में कोई नहीं है लेकिन आर एस एस के  सामने बहुत मुश्किल है . नागपुर वाले कभी नहीं चाहते कि  नरेंद्र मोदी या उनका कोई करीबी दोस्त पार्टी का अध्यक्ष बने . बताया तो यह भी जा रहा है कि नितिन गडकरी के भ्रष्टाचार के कारनामे के दस्तावेज़ भी उनके विरोधी खेमे के किसी बड़े  नेता ने मीडिया को दिया है . नरेंद्र मोदी को रोक पाना अब नितिन गडकरी के बस की बात नहीं है लेकिन आर एस एस जब तक मोदी विरोधी किसी बड़े बीजेपी नेता की तलाश नहीं कर लेता तब तक नितिन गडकरी का अध्यक्ष बने  रहना मुश्किल हालात के बावजूद भी संभव लगता है .

Saturday, November 3, 2012

मध्यप्रदेश के किसानों के खिलाफ कांग्रेस और बीजेपी एक साथ , डॉ सुनीलम को साजिशन सज़ा दी गयी




शेष नारायण सिंह 

नयी दिल्ली, 2 नवम्बर . किसान  संघर्ष समिति के अध्यक्ष और मध्य प्रदेश के पूर्व विधायक डॉ सुनीलम को मुलताई मामले में हुयी सज़ा का चारों तरफ विरोध हो रहा है . मानवाधिकार नेता , चितरंजन सिंह ने बताया की पटना में 11 नवम्बर को जुलूस निकाल कर विरोध किया जाएगा जबकि मुंबई और दिल्ली में नागरिक अधिकारों के कार्यकर्ता आंदोलित  हैं और अपने तरीकों से विरोध कर रहे हैं . आज  यहाँ सोशलिस्ट फ्रंट के बैनर  तले  एक प्रेस वार्ता का आयोजन करके डॉ सुनीलम और उनके साथ  दो किसानों को हुयी सज़ा को गलत बताया  गया। इस अवसर पर जस्टिस राजिंदर सच्चर, चितरंजन सिंह , पी यूं सी एल के नए महासचिव डॉ वी सुरेश , किसान नेता  विनोद सिंह आदि ने अपनी बात रखी। 

जस्टिस राजिंदर सच्चर ने  कहा की 12 जनवरी 1998  के दिन पुलिस फायरिंग में हुयी 24 किसानों  और एक पुलिस कर्मी की हत्या में डॉ सुनीलम को जो सजा हुयी है ,वह न्याय की कसौटी पर  सही नहीं है .उसमें बहुत  सारी गलतियाँ हैं . उन्होंने कहा  कि एक किसान  ने मरने के  पहले एक बयान दिया था।  मौत के समय दिए गए बयान को न्याय प्रक्रिया में बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है लेकिन अजीब बात है की कोर्ट ने उसके बयान को साक्ष्य नहीं माना . उन्होंने कहा कि मुलताई केस को देखने से लगता है की बीजेपी और कांग्रेस में कोई विवाद नहीं है।खासकर जब गरीब आदमी के अधिकारों को छीन कर पूंजीपतियों को  खुश करना होता है . उन्होने कहा की जब मुलताई में गोली चली थी तो कांग्रेस नेता ,दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री थे। उसके बाद बीजेपी के कई नेता मुख्यमंत्री बने लेकिन मध्य प्रदेश सरकार का रुख वही बना रहा .उन्होंने इस बात पर अफ़सोस जताया  कि  24 किसानों को उस दिन मार डाला गया था लेकिन किसी भी न्यायिक जांच के आदेश नहीं दिए गए . पुलिस ने मनमानी करके केस  बनाया और साजिशन डॉ सुनीलम और दो किसानों को सज़ा दिलवा दी। . उन्होंने कहा क़ानून का कोई भी विद्यार्थी बता देगा कि इस केस में किसी भी हालत में सज़ा नहीं होनी चाहिए थी लेकिन लगता है कि न्याय प्रक्रिया किसी दबाव के तहत काम कर रही थी।

जब तक समाज महिलाओं को बराबरी का दर्ज़ा नहीं देगा तब तक राष्ट्र की तरक्की नामुमकिन है.




शेष नारायण सिंह 

नरेंद्र मोदी ने हिमाचल प्रदेश में एक चुनाव सभा में केंद्रीय मंत्री  शशि थरूर की पत्नी के बारे में एक अभद्र टिप्पणी कर दी. मीडिया में हल्ला मच गया और उनकी इस टिप्पणी के लिए माफी मांगने की मांग उठने लगी.  जो लोग नरेंद्र मोदी को जानते हैं उनको पता है कि गुजरात के मुख्य मंत्री अपने किसी काम को गलत नहीं मानते और किसी भी गलत काम के करने के बाद माफी नहीं मांगते.२००२ में उनकी सरकार के रहते गुजरात में जो नर संहार हुआ था,उसके लिए उन्होंने कभी कोई अफ़सोस नहीं जताया. देश की निचली अदालतों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक उनके काम पर टीका टिप्पणी हो रही है , कई मामलों में तो उनके खास साथियों के खिलाफ फैसले भी आ चुके हैं लेकिन नरेंद्र मोदी के चेहरे पर कभी शिकन तक नहीं आयी. गुजरात के २००२ के नर संहार में बहुत सी महिलाओं के साथ बलात्कार भी हुआ था, नरेंद्र मोदी के एक समर्थक ने  टेलिविज़न के कैमरे के सामने स्वीकार किया था कि उसने किस तरह से एक गर्भवती महिला के पेट पर तलवार से वार किया था और पेट में पल रहा उसका बच्चा  बाहर आ गया था . गुजरात २००२ में बहुत सी महिलाओं की हत्या हुयी थी, बहुत सी बच्चियों के साथ बलात्कार हुआ था और बहुत सी लडकियों को अपमानित किया गया था .उस  वाकये  पर भी नरेंद्र मोदी ने कोई माफी नहीं माँगी . उलटे उनकी सरकार के मंत्री और गुजरात बीजेपी के कुछ नेता उस जघन्य कांड की भी सफाई देते फिर रहे थे . इसलिए मोदी जी से यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि वे महिलाओं के प्रति कही गयी ऐसी किसी अपमान जनक बात के  लिए माफी मांग लेगें. मोदी के कई समर्थक हिमाचल प्रदेश की अभद्र टिप्पणी वाली घटना के बाद से ही टेलिविज़न चैनलों पर कहते  पाए जा रहे हैं कि मोदी जी अपने शब्दों को खूब नाप तौल कर  ही बोलते हैं. यानी यह भी नहीं कहा जा सकता कि उनके मुंह से यह बात गलती से निकल गयी. नरेंद्र मोदी उस असहनशील भारतीय समाज की पैदाइश हैं  जिसमें महिलाओं को सम्मान की नज़र से नहीं देखा जाता है .

लेकिन नरेंद्र मोदी की ५० करोड वाली टिप्पणी को अलग थलग राय के रूप में देखने की भी ज़रूरत नहीं है .आज़ादी के ६५ साल बाद भी हम एक राष्ट्र के रूप में भी समाज की तरक्की के बारे में गाफिल हैं . नरेंद्र मोदी से महिलाओं के प्रति सम्मान की उम्मीद करने का  कोई मतलब नहीं है. शायद यह उनकी प्रकृति नहीं है .लेकिन एक समाज के रूप में हम क्या  महिलाओं और पुरुषों की बराबरी के बारे में संविधान में कही  गयी बातों को राजनीतिक बिरादरी में लागू कर पा रहे हैं. कांग्रेस के नेता और  हरियाणा के मुख्य मंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने कुछ दिन पहले खाप पंचायतों के  उस हुक्म को सही ठहरा दिया था  जिसमें महिलाओं को पुरुषों  की गुलाम का दर्ज़ा देने की साज़िश की बू आ रही थी. हरियाणा के ही पूर्व मुख्य मंत्री ओम प्रकाश चौटाला ने लड़कियों की कम उम्र में शादी के कुछ  खापों के सुझाव को सही बताया था.ऐसे ही अनगिनत मामले हैं जहां नेताओं ने महिलाओं के प्रति अभद्र टिप्पणी की  और उसके बाद उसे ठीक करने की ज़रूरत नहीं समझी, कोई माफी नहीं माँगी. इस तरह के  तत्व मीडिया में भी मौजूद हैं . एक बड़े मीडिया ग्रुप के एक बड़े  संपादक की रिकार्ड की गयी एक टेलीफोन वार्ता में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के हवाले से एक बहुत ही अभद्र  टिप्पणी की  गयी थी. बाद में उनके  ग्रुप के मालिक ने बात को संभालने की कोशिश तो की लेकिन कहीं भी कोई माफी नहीं माँगी गयी , कोई अफ़सोस  नहीं जताया गया . शिक्षा संस्थाओं में इस तरह की  घटनाएं रोज ही होती रहती हैं.राजनीति को कैरियर बनाने वाले नेता इस तरह की वारदात रोज ही  करते रहते हैं . इस तरह के कई नेता तो आजकल भी जेलों की हवा खा रहे हैं . उनके नाम लेकर उन्हें महत्व देना ठीक नहीं है.

 नरेंद्र मोदी की अभद्र टिप्पणी को और भी  अन्य नेताओं के साथ जोड़कर नरेंद्र मोदी की अमर्यादित बात को हल्का करना उद्देश्य नहीं  है . ऐसा लगता है कि  इस देश के पुरुषों में माचो कल्चर का अनुसरण करने  का फैशन है . जिसके चलते लड़कियों को अपमानित करने की बातें  होती हैं . इन नेताओं को दुरुस्त करने का तो शायद यही तरीका  है कि इनको संविधान के अनुसार  काम करने के लिए मजबूर कर दिया जाए. संविधान में जहां मौलिक अधिकारों का उल्लेख  किया गया  है ,वहीं अनुच्छेद १४  में लिखा है कि राज्य ,भारत के   किसी भी इलाके में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा. अनुच्छेद १५ में बात को और साफ़ कर दिया गया है जहां लिखा है कि राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म,मूलवंश, जाति , लिंग ,जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा. सवाल उठता है कि क्या इसी संविधान की  शपथ ले चुके किसी मोदी या  किसी हुड्डा को इस संविधान  का पालन करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता . हमें एक राष्ट्र के रूप में इन नेताओं के इस आचरण पर चिंतित होना चाहिए और इन्हें सभ्य आचरण करने के लिए मजबूर करने के उपाय करने चाहिए .

जहां तक नेताओं की बात है उनको तो काबू में करने के लिए सरकारी दंड विधान जैसी किसी बात को आगे किया जा सकता है. हो सकता है कि ऐसा संभव हो जाय कि कानून में कोई परिवर्तन कर दिया जाए और महिलाओं के प्रति अभद्रता करने वालों को किसी भी राजनीतिक पद के अयोग्य करार दे दिया जाए. या ऐसी ही कोई और सख्ती कर दी जाए  . सरकारी पद गंवाने  का डर अगर नेताओं के  दिमाग में डाल दिया जाए तो वे तो सुधर  जायगें . लेकिन एक समाज के रूप में देश के बहुत बड़े पुरुष वर्ग में महिलाओं के प्रति अपमान का जो भाव है उसको ठीक करने के लिए क्या क़दम उठाये जाने चाहिए.इस सवाल का जवाब तलाश करना ज़रूरी है . पूरे समाज को जब तक यह अहसास नहीं होगा कि स्त्री और पुरुष के अधिकारों में  समानता है तब तक कुछ भी बदलने वाला नहीं है.हम जानते हैं कि इसी देश में सती प्रथा भी थी और जौहर भी होता था  . महिलाओं के प्रति आचरण की जितनी  बातें पब्लिक डोमेन में आ रही हैं  उससे तो लगता है कि अपना देश एक बार फिर उसी सती और जौहर युग की तरफ बढ़ रहा है . अपनी पसंद के जीवन साथी चुनने के बाद दिल्ली के आस पास के  गाँवों में लड़कियों को क़त्ल करने वालों के जघन्य अपराध को कुछ  वर्गों में आनर किलिंग का नाम देने की कोशिश भी की जा रही  है . एक बात और भी समझ में आती है . उत्तर भारत में महिलाओं के प्रति जिस तरह का व्यवहार देखने को मिलता है ,देश के अन्य भागों में वैसा नहीं है. इसकी भी पड़ताल  की जानी चाहिए  .लगता है कि शिक्षा की कमी के  कारण ही महिलाओं के प्रति अपमान का माहौल बन रहा है . जहाँ शिक्षा  है वहाँ महिलाओं की इज्ज़त अपेक्षाकृत ज्यादा है.


महाराष्ट्र  में लड़कियों की शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण माना जाता है . १८४८ में ही ज्योतिबा फुले ने दलित लड़कियों के लिए अलग से स्कूल खोलकर इस क्रांति का ऐलान कर दिया था . और आज भी महाराष्ट्र में लड़कियों की इज्ज़त अन्य राज्यों की तुलना में कहीं अधिक है. बीच में मराठी मानूस के नारे के राजनीतिक इस्तेमाल के बाद लुम्पन लड़कों पर जोर ज्यादा दिया जाने लगा और पिछले ५० साल में महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में लड़कियों की शिक्षा पर  उतना ध्यान नहीं दिया गया जो आज़ादी की लड़ाई के दौरान दिया गया था . लड़कियों की शिक्षा में आयी कमी को पूरा करने के लिए महाराष्ट्र में  सरकारी तौर  पर एक अभियान चलाया जा रहा है जिसके तहत प्रचार किया जा रहा है कि अगर लडकी शिक्षित होगी , तभी प्रगति होगी.इस अभियान का फर्क भी पड़ना शुरू हो गया है. यह मानी हुई बात है कि तरक्की के लिए शिक्षा की ज़रुरत है. और परिवार की तरक्की तभी होगी  जब माँ सही तरीके से शिक्षित होगी.यह बात उत्तर भारत के बड़े राज्यों, बिहार और उत्तर प्रदेश  के  उदाहरण से बहुत अच्छी तरह से समझी जा सकती है. यहाँ पर लड़कियों की शिक्षा लड़कों की तुलना में बहुत कम है .शायद इसी वजह से यह राज्य देश के सबसे  अधिक पिछडे राज्यों में शुमार किये  जाते हैं . 
इसलिए यह ज़रूरी है कि देश में लड़कियों की शिक्षा और अधिकारिता का एक अभियान चलाया जाए तभी कोई राजनीतिक नेता किसी भी महिला की  शान में अभद्र टिप्पणी करने से डरेगा . सभी धर्मों में शिक्षा को बहुत ज्यादा महत्त्व दिया  गया है .इसलिए धार्मिक कारणों से भी शिक्षा का विरोध नहीं किया जाना चाहिए .शिक्षा ,खासकर लड़कियों की शिक्षा के ज़रिये ही समाज भी सभ्यता की उन सीमाओं में रहने की क्षमता  हासिल करेगा जिसके कारण  पश्चिमी  देशों  और समाजों  ने  तरक्की की है .क्योंकि इस बात में दो राय नहीं है कि जब तक देश और समाज महिलाओं को बराबरी का दर्ज़ा नहीं देगा  राष्ट्र की तरक्की नामुमकिन है. 

क्या के रहमान खान तालीम के ज़रिये मुसलमानों को तरक्की के रास्ते पर डाल पायेगें?



शेष नारायण सिंह 

अल्पसंख्यक मामलों के नए मंत्री, के रहमान खां कर्नाटक की राजनीति में एक दमदार नाम हैं. कर्नाटक में शिक्षा के क्षेत्र में निजी पहल की जो बुलंदियां हैं, उसमें रहमान खां साहेब का बड़ा योगदान है.वे पिछले ३६  वर्षों से कर्नाटक की राजनीति में सक्रिय हैं और  ३४  साल पहले कर्नाटक विधान परिषद् के सदस्य बन गए थे. राज्य के मुसलमानों की समस्याओं को वे बहुत ही बारीकी से समझते हैं और उसी बारीक समझ का नतीजा है कि जब संसद ने वक्फ की संपत्तियों के लिए संयुक्त संसदीय समिति बनाने का फैसला किया तो उसकी अध्यक्षता का काम रहमान साहेब को ही सौंपा.केरहमान खां देश के मुसलमानों का दर्द समझने वाले नेता के रूप में पहचाने जाते हैं . करीब एक साल पहले उनसे एक इंटरव्यू किया था.और उनसे  धार्मिक लाइन पर हिंदुओं को पोलराइज़ करने  की आर एस एस -बीजेपी की कोशिश की बात की गयी थी. उन्होंने दो टूक कहा कि इस देश में धार्मिक लाइन पर कभी भी पोलराइज़ेशन नहीं हो सकता.इस देश का हिन्दू आम तौर पर साम्प्रदायिक नहीं है और यही  भारत की राजनीतिक ताक़त का सबसे बड़ा सहारा है.सवाल पैदा होता है कि इस देश की कुल आबादी का करीब ८५ प्रतिशत हिन्दू हैं .वे खुद ही बहुसंख्या में हैं . उनको किसी के खिलाफ एकजुट होने की कोई ज़रुरत ही नहीं है . संविधान में बताया गया सेकुलरिज्म देश के बहुसंख्यक हिन्दू समाज की ताकत पर ही लागू हो सका है .हालांकि सावरकरवादी  नेताओं की पूरी कोशिश थी कि देश में  हिन्दू संगठित होकर दूसरे धर्म वालों का हाशिये पर लायें लेकिन सेकुलर मिजाज़ वाले इस देश में यह संभव नहीं है. इस पृष्ठभूमि में अल्पसंख्यकों के कल्याण के इंचार्ज मंत्री पद पर बैठने  वाले रहमान खान से देश को बहुत उम्मीदें हैं वे मुसलामानों की समस्याओं को अच्छी तरह समझते हैं 

मुसलमानों की असली समस्याएं गरीबी, बेरोजगारी, सामाजिक असुरक्षा ,हमेशा साम्प्रदायिक दंगों का ख़तरा आदि हैं . इन मुद्दों को बहस की मुख्य धारा में लाने की कोशिश कोई नहीं कर रहा है . या शायद करना नहीं चाह रहा है .  सब को मालूम हैकि इन समस्याओं का हल तालीम से निकलेगा . दुर्भाग्य की बात है कि  उत्तर भारत में मुसलमाओं की तालीम को वह इज्ज़त नहीं मिल रही है जो मिलनी चाहिए. चारों तरफ नज़र डाल कर देखें तो समझ में आ जाएगा कि जो अच्छी शिक्षा पा चुका है वह न गरीब है , न बेरोजगार है और उसे किसी तरह की सामाजिक असुरक्षा नहीं है. इस्लाम में तालीम को बहुत ज्यादा मह्त्व दिया गया है . रसूले खुदा, हज़रत मुहम्मद ने कहा है  कि इल्म के लिए अगर ज़रुरत पड़े तो चीन तक भी जाया जा सकता है. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि कौम के नेता शिक्षा को उतना मह्त्व नहीं देते जितना देना चाहिए . दिल्ली में पिछले पैंतीस साल के अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि मुसलमानों के ज़्यादातर धार्मिक और राजनीतिक नेता शिक्षा की कमी के लिए सरकार को दोषी ठहराते पाए जाते हैं .उससे भी ज्यादा  तकलीफ की बात यह है कि जो सरकारी सुविधाएं मिल भी रही हैं ,उनसे भी मुसलमानों को  वह फायदा नहीं मिल रहा है जो मिलना चाहिए . इस तरह की बहानेबाज़ी उत्तर भारत में ही हो रही है .


 केन्द्रीय अल्पसंख्यक मंत्रालय की ओर से शुरू की गयी छात्रवृत्ति की योजना का भी मुसलमानों के बच्चे बहुत बड़े पैमाने पर लाभ उठा रहे हैं और शिक्षा पा रहे हैं . हालांकि यह स्कीम अभी नई है और इसके नतीजे कुछ वर्षों में मिसाल बन सकेंगें लेकिन उत्तर भारत में तो सरकार के वजीफों के अधिक से अधिक इस्तेमाल की कोई गंभीर कोशिश ही नहीं हो रही है . दिलचस्प बात यह है कि इन वजीफों की कोई सीमा नहीं है .जो भी मुस्लिम बच्चा स्कूल जाता हो वह इसका हक़दार है और सभी बच्चे इस सुविधा का का इस्तेमाल कर सकते हैं . ज़रुरत सिर्फ इस बात की है कि समाज के नेता इस दिशा में कोई पहल करें. इसी तरह से शिक्षा के केन्द्रों के बारे में भी सोच है . अल्पसंख्यक मामलों के नए मंत्री के रहमान खान ने करीब एक साल पहले इस लेखक को बताया था कि पिछले अठारह साल से वे दिल्ली में हैं ,लेकिन इधर कहीं भी अल्पसंख्यकों के किसी इंजीनियरिंग कालेज के खुलने की चर्चा नहीं सुनी . हाँ यह खूब सुना गया कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की सियासत में क्या उठा पटक हो रही है. जबकि दक्षिण भारत में हर बड़े शहर में पूरी तरह से मुसलमानों की शिक्षा के लिए कोशिश चल रही है . उन्होंने अपने खुद के उदाहरण से बात को साफ़ किया . बताने लगे कि १९६४ में  बंगलोर शहर में मुसलमानों का कोई कालेज नहीं था. कुछ हाई स्कूल ज़रूर थे.  उन्होंने अल अमीन नाम के एक संगठन के तत्वावधान में १९६७ में एक कालेज  शुरू कर दिया . एक टिन शेड में शुरू हुआ  यह कालेज आज एक नामी शिक्षा संस्था है .शुरू में सरकार की बात तो छोड़ दीजिये , मुसलमानों  को ही भरोसा नहीं हुआ . लेकिन जब कुछ बच्चे अच्छी तालीम लेकर यूनिवर्सिटी में नाम पैदा करने में सफल हो गए तो लोग आगे आये और आर्थिक मदद शुरू की. सरकार से कोई मदद नहीं ली  गई. केवल मान्यता वगैरह के जो ज़रूरी कानूनी काम थे वह सरकार ने दिया . आर्थिक मदद  पूरी तरह से मुसलमानों ने किया और कालेज चल निकला . आज वह एक बहुत बड़ा कालेज है . पूरे कर्नाटक में अल अमीन संस्थाओं की संख्या अब बहुत जयादा है . . बीजापुर के अल अमीन मेडिकल कालेज की स्थापना की कहानी भी गैर मामूली है . के रहमान खान ने अपने सात  दोस्तों के साथ मिल कर एक ट्रस्ट बनाया था . कुल सात सौ सात रूपये जमा हुए . गरीब लोगों के लिए एक अस्पताल बनाने की योजना बना कर काम करना शुरू कर दिया . सात दोस्तों में एक डाक्टर भी था. किराए का एक मकान लेकर क्लिनिक शुरू कर दिया . डाक्टर दोस्त बहुत ऊंची डाक्टरी तालीम लेकर  विदेश से आया था , उसका नाम मशहूर हो गया जिसकी वजह से  पैसे वाले भी इलाज़ के लिए आने लगे. ऐसे  ही एक संपन्न मरीज़ का मुफ्त में गरीब आदमियों के साथ इलाज़ किया गया . उसने खुश होकर एक लाख रूपये का दान देने का वादा किया . उस एक लाख रूपये के वादे ने इन दोस्तों के सपनों को पंख लगा दिया . १०० बिस्तरों वाले अस्पताल का खाका बना कर  कौम से अपील की. इन लोगों को अब  तक आम आदमी का भरोसा मिल चुका था. अस्पताल बन  गया . फिर एक मेडिकल कालेज बनाने के सपने देखे . सरकार से केवल मदद  मिली. कर्नाटक के उस वक़्त के मुख्य मंत्री , राम कृष्ण हेगड़े ने बीजापुर में ज़मीन अलाट कर दी. आज बीजापुर का अल अमीन मेडिकल देश के बेहतरीन मेडिकल कालेजों में गिना जाता है . कहने का  तात्पर्य यह है कि अगर मुसलमान या कोई भी अपने लिए संस्थाएं बनाने का मन बना ले तो कहीं कोई रोकने वाला नहीं है और सरकार की मर्जी के खिलाफ भी शिक्षा के क्षेत्र में तरक्की की जा सकती. . हाँ यह बात बिलकुल सही है कि शिक्षा में तरक्की के बिना किसी भी कौम की तरक्की नहीं हो सकती.  

यह बहुत ही संतोष की बात है  कि आज के रहमान खान इस देश के अल्पसंख्यकों के कल्याण के सबसे बड़े मंत्री हैं . उन्होंने बार बार कहा है कि तालीम के बिना मुसलमानों का मुस्तकबिल नहीं सुधरेगा. उम्मीद की जानी चाहिए कि अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री के रूप में वे देश की आबादी के एक बड़े हिस्से को तालीम और तरक्की के अवसर देगें .