Monday, August 20, 2012

भ्रष्टाचार की आग में जल रही जनता का गुस्सा जिन्न की तरह बोतल में बंद किया जा चुका है




शेष नारायण सिंह 

अन्ना हजारे के आन्दोलन को तहस नहस कर दिया गया. शासक वर्गों को इसमें मज़ा आ गया. पूरे देश में भ्रष्टाचार से त्राहि त्राहि कर रही जनता के लिए अन्ना हजारे एक ऐसे मसीहा के रूप में उभरे थे जो उसे रोज़मर्रा की ज़िंदगी में आने वाली भ्रष्टाचार की परेशानी से मुक्ति दिला सकता था. अन्ना हजारे के साथ गोपाल राय जैसा क्रांतिकारी भी था जो साम्राज्यवादी सत्ता प्रतिष्टानों के खिलाफ संघर्ष करता रहा है . गोपाल और उनके जैसे बहुत सारे सही क्रांतिकारियों को उम्मीद हो गयी थी कि  अन्ना हजारे के साथ भारत की जनता को एकजुट किया जा सकेगा और सत्ता प्रतिष्टान के खिलाफ लामबंद किया जा सकेगा . लेकिन ऐसा न  हो सका.  अपने ब्लॉग पर 4 नवम्बर २०११ को प्रकाशित एक लेख से कुछ अंश आज याद आते हैं . उस दिन  भी मेरे मन में   यह डर था कि कहीं सत्ता प्रतिष्ठानों के मालिक अन्ना के साथ मिलकर आम आदमी के गुस्से को बोतल में न बंद कर दें . आखिर में वही हुआ और  अन्ना हजारे के आन्दोलन से पैदा हुआ जागरण योग गुरु रामदेव के ज़रिये शासक वर्गों की गोद में जा बैठा. अन्ना हजारे के आन्दोलन की विफलता के कारणों की बाद में जांच होती रहेगी लेकिन फिलहाल आम आदमी पस्त है और उसे मालूम है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने की उसके क्षमता पर सवाल उठने लगे हैं .

अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन से देश के मध्य वर्ग में बहुत ही ज्यादा उत्साह जगा था और लगने लगा था कि भ्रष्टाचार पर आम आदमी की नज़र है , वह ऊब चुका है और अब निर्णायक प्रहार की मुद्रा में है . आम आदमी जब तक मैदान नहीं लेता , न तो उसका भविष्य बदलता है और न ही उसके देश या राष्ट्र का कल्याण होता है .१८५७ में इस देश के आम आदमी ने अंग्रेजों की हुकूमत के खिलाफ लड़ने के मन बनाया था. उस लड़ाई में सभी तो नहीं शामिल हुए थे लेकिन मानसिक रूप से देश की अवाम अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने के लिए तैयार थी. सही लीडरशिप नहीं थी इसलिए उस दौर के आम आदमी का आज़ाद होने का सपना बिखर गया. दोबारा यह मौक़ा तुरंत नहीं आया. साठ साल के इंतज़ार के बाद यह मौक़ा फिर मिला जब अंग्रेजों का अत्याचार सभी सीमाएं लांघ चुका था .जलियाँवाला बाग़ में हुए अंग्रेज़ी सत्ता के बेशर्म प्रदर्शन के बाद पूरे देश में सत्ता के खिलाफ गुस्सा था. ठीक इसी वक़्त महात्मा गाँधी ने आम आदमी के गुस्से को एक दिशा दे दी.आम आदमी का वही गुस्सा बाद में आज़ादी की लड़ाई की शक्ल अख्तियार करने में कामयाब हुआ . महात्मा गाँधी के नेतृत्व में चले २५ साल के संघर्ष के बार अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद ने हार मान ली और देश आज़ाद हो गया . उस राजनीतिक घटना के साठ साल बाद आज फिर इस देश का आम आदमी आर्थिक भ्रष्टाचार के आतंक के नीचे दब गया है . वह आर्थिक भ्रष्टाचार के निरंकुश तंत्र से आज़ादी चाहता है . आज देश में भ्रष्टाचार का आतंक ऐसा है कि चारों तरफ त्राहि त्राहि मची हुई है , देश के गाँवों में और शहरों के गली कूचों में लोग भ्रष्टाचार की गर्मी में झुलस रहे हैं . शायद इसीलिए जब भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे ने आवाज़ बुलंद की तो पूरे देश में लोग उनकी हाँ में हां मिला बैठे. सूचना क्रान्ति के चलते पूरे देश में अन्ना की मुहिम का सन्देश पंहुच गया. भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मसीहा मिल गया था . लगभग पूरा मध्यवर्ग अन्ना के साथ था . भ्रष्टाचार के प्रतीक के रूप में केंद्र की कांग्रेस की सरकार को घेर कर जनमत की ताक़त हमले बोल रही थी . लेकिन इसी बीच अन्ना हजारे के आन्दोलन की परतें खुलना शुरू हो गईं .अब यह शंका पैदा होने लगी है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक लड़ाई शायद अब आगे नहीं चल पायेगी. 


अन्ना हजारे की टीम के सदस्यों की व्यक्तिगत ईमानदारी पर सवाल उठने के बाद भी अन्ना का कुछ बिगड़ने वाला नहीं है. अन्ना हजारे ने महाराष्ट्र में जिस पारदर्शिता के साथ भ्रष्टाचार के किलों को ढहाया है उसके चलते उनकी ख्याति ऐसी है कि उनको कोई भी बेईमान नहीं कह सकता . उनके ऊपर उनके विरोधी भी धन की उगाही का आरोप नहीं लगा सकते . उनके साथियों के तथाकथित भ्रष्ट आचरण से भी आम आदमी का कोई लेना देना नहीं है . आम आदमी की चिंता यह है कि क्या अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकने की जो लड़ाई शुरू की थी वह भ्रष्टाचार को वास्तव में मिटा पायेगी ? अन्ना के आन्दोलन से भ्रष्टाचार से पीड़ित जनता को बहुत उम्मीदें हैं . लेकिन अब तक टकटकी लगाए बैठे लोगों की उम्मीदें अब टूटने लगी हैं .पिछले दिनों  ऐसा बहुत कुछ हुआ है जिसके बाद भरोसा टूटना जायज़ है. भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे इस आन्दोलन में कारपोरेट सेक्टर के भ्रष्टाचार के बारे में कुछ नहीं कहा गया है . जबकि सच्चाई यह है कि अब सरकारी अफसर के साथ साथ निजी कम्पनियां भी ऐसे भ्रष्टाचार में लिप्त पायी जा रही हैं जिसकी वजह से आम आदमी परेशान होता है .एक उदाहरण से बात को साफ़ करने की कोशिश की जा सकती है . दिल्ली में घरेलू बिजली सप्लाई का ज़िम्मा निजी कंपनियों के पास है . अगर यह कम्पनियां या इनके अधिकारी भ्रष्टाचार में शामिल होते हैं तो उसका सीधा नुकसान आम आदमी को होगा. ऐसी ही और भी बहुत सी सेवाएं हैं . बैंकिंग और इंश्योरेंस भी उसी श्रेणी में आता है . इसलिए वह सवाल जो अब बहुत लोगों के दिमाग में घूम फिर कर चक्कर काट रहा है, उसका जवाब भी तलाशा जाना चाहिए . कहीं ऐसा तो नहीं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उबल रहे जन आक्रोश को दिशा भ्रमित करने के लिए धन्नासेठों ने अन्ना हजारे के ज़रिये हस्तक्षेप किया हो . यह डर बेबुनियाद नहीं है क्योंकि आज से करीब सवा सौ वर्ष पहले ऐसा हो चुका है . १८५७ में जब पूरे देश में अंग्रेजों के प्रति गुस्सा फूटा था तो अंग्रेजों ने ईस्ट इण्डिया कंपनी की हुकूमत को हटाकर ब्रिटिश सामाज्य की हुकूमत कायम कर दी थी. उस से भी लोग नाराज़ हो रहे थे . साम्राज्यवादी ब्रिटिश हुकूमत ने इसे भांप लिया और ब्रिटिश इम्पायर के चाकर एक अधिकारी को आगे करके १८८५ में कांग्रेस बनवा दी . इतिहास के कई विद्वानों का कहना है कि १८८५ में कांग्रेस की स्थापना आज़ादी की लड़ाई में इम्पीरियल हस्तक्षेप था , भारतीय जनता के गुस्से को अंग्रेजों के हित की दिशा में ले जाने की एक कोशिश था. उसके बाद कांग्रेस के अधिवेशनो में जागरूक मध्य वर्ग के लोग बिटिश सम्राट की जय जय कार करते रहे . कांग्रेस के स्थापना के ३५ साल बाद वह संगठन आम आदमी का संगठन बन सका जब गाँधी ने देश की जनता का नेतृत्व संभाला. तब जाकर कहीं ब्रिटिश साम्राज्यवाद को प्रभावी चुनौती दी जा सकी. आज भी समकालीन इतिहास के जानकार पूछना शुरू कर चुके हैं कि कहीं अन्ना हजारे का आन्दोलन वर्तमान शासक वर्गों और धन्नासेठों के आशीर्वाद से अवाम के गुस्से को भोथरा करने के लिए तो नहीं चलाया गया था. क्योंकि अगर भ्रष्टाचार ख़त्म होगा तो नेताओं, अफसरों और पूंजीपतियों की आमदनी निश्चित रूप से घटेगी. इस सवाल का जवाब इतिहास की कोख में है लेकिन फिलहाल ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार की आग में जल रही जनता का गुस्सा जिन्न की तरह बोतल में बंद किया जा चुका है

मुलायम सिंह यादव मुसलमानों के सर्वमान्य राजनीतिक नेता हैं .




शेष नारायण सिंह 

उत्तर प्रदेश में बहुत साल  बाद पहली बार स्पष्ट बहुमत की सरकार २००७ में बनी थी जब मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बन गयी थीं. पांच साल तक उन्होंने एकछत्र राज किया जिसका नतीजा यह हुआ कि जनता ऊब गयी और उसने २०१२ में उनकी धुर विरोधी समाजवादी पार्टी को सत्ता सौंप दी. समाजवादी पार्टी की साफ़ जीत में मायावती की अलोकप्रियता एक महत्वपूर्ण कारण है लेकिन उनकी जीत नकारात्मक नहीं है. मायावती को स्पष्ट बहुमत देकर जो उम्मीदें एक समाज के रूप में उत्तर प्रदेश की जनता ने पालीं थीं, वे कहीं भी पूरी नहीं हुईं. उन्हीं उम्मीदों को फलीभूत करने के लिए इस बार उत्तर प्रदेश की जनता ने समाजवादी पार्टी को सत्ता सौंप दी है . स्पष्ट बहुमत की सरकार के गठन में राज्य के मुसलमानों का योगदान बहुत ज़्यादा है . पूरे राज्य में  मुसलमानों ने एकजुट होकर समाजवादी पार्टी को वोट दिया . ऐसा शायद इसलिए था कि मायावती के बारे में सबको मालूम है  कि २००७ के पहले वे जब भी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी थीं, उनको आर एस एस और बीजेपी ने ही समर्थन किया था . इस बार भी चर्चा थी कि अगर कुछ सीटें कम पड़ गयीं तो मायावती को बीजेपी सत्ता तक पंहुचा सकती थी.  ज़ाहिर है राज्य की धर्मनिरपेक्ष ताक़तों के सामने इस बार डबल चुनौती थी . एक तो यह कि बीजेपी को सत्ता से बाहर रखना है और दूसरा कि मायावती को भी सत्ता से बेदखल करना है क्योंकि अगर इस बार मायावती बीजेपी के समर्थन से सत्ता में आयीं तो  साम्प्रदायिक ताक़तों को ज़बरदस्त उछाल मिलेगा और इस बात की आशंका चारों तरफ थी कि कहीं गुजरात के २००२ जैसा माहौल न बनाया जाए . इसका  कारण यह है कि अब बीजेपी में जो थोड़े बहुत लिबरल नेता हैं वे हाशिये पर हैं और पार्टी के एक बड़े ताक़तवर वर्ग ने तय कर रखा है कि गुजरात वाले नरेंद्र मोदी को ही पार्टी का मुख्य नेता बना दिया जाए. अब तो खुले आम यह भी कहा जाने लगा है कि लाल कृष्ण आडवाणी नहीं, नरेंद्र मोदी को ही  बीजेपी  वाले प्रधान मंत्री पद के  दावेदार के रूप में पेश करेगें. 

साम्प्रदायिकता  के इस माहौल में उत्तर प्रदेश विधान सभा का चुनाव हुआ  था.  साम्प्रदायिकता विरोधी सभी ताक़तों ने समाजवादी पार्टी को वोट दिया .मुसलमानों ने भी लगभग एकमुश्त समाजवादी पार्टी को समर्थन किया . आज  राज्य में सरकार है और आजकल लगभग  हर शहर में ऐसे बहुत सारे मुसलमान मिल जाते हैं जो यह दावा करते हैं कि वे ही मुसलमानों के असली नेता हैं और उनकी वजह से ही  उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार बनी है . पिछले छः महीनों में ऐसे  बहुत सारे नेताओं से मुलाक़ात हुई . बात बहुत अजीब लगती है लेकिन कल तक जो नेता अपनी खुद की राजनीति चमकाने के लिए  तरह तरह की कोशिश करते रहते थे , तरह के लोगों के  दरवाजों  के चक्कर काटा करते थे ,वे आज इतने बड़े नेता कैसे हो गए कि पूरे उत्तर प्रदेश के   मुसलमानों ने उनकी  बात मान ली और समाजवादी पार्टी को जिता दिया.  कई  ऐसे लोग भी मिल जायेगें जो यह दावा करेगें कि अल्पसंख्यकों के बारे में कोई भी फैसला बिना उनकी सलाह के नहीं किया जाता. उत्तर प्रदेश और मुलायम सिंह यादव की राजनीति को जानने वाले  जानते हैं कि  वे सुनते तो सबकी हैं लेकिन फैसला  किसी के दबाव से भी नहीं लेते और पूरी तरह से किसी की सलाह भी नहीं  मानते . हाँ समाज के हर वर्ग से मिलते जुलते रहने की अपनी आदत के कारण उनके  फैसलों में सब का हित समाहित रहता है .

इस पृष्ठभूमि में मैंने  इस बात का एक बार फिर पड़ताल करने का फैसला किया कि उत्तर प्रदेश में  मुसलमानों का  सबसे बड़ा  राजनीतिक नेता कौन है . पूरे राज्य में ऐसे लोगों से बात की जो सच कहने के लिए मशहूर हैं .,बड़े पत्रकारों से बात की, मुस्लिम धार्मिक नेताओं से बात की ,बुद्धिजीवियों से बात की . लगभग  सबने  यही कहा कि उत्तर प्रदेश में के मुसलमानों के राजनीतिक नेता सिर्फ और सिर्फ मुलायम सिंह यादव हैं . वे ही तरह तरह के समुदायों में बँटे हुए  मुस्लिम समाज के सर्वमान्य  राजनीतिक नेता हैं . इतना ही नहीं ,जो भी मुस्लिम नेता उनके करीब आ जाता है अपने समाज में उसका सम्मान बढ़  जाता है. मुलायम सिंह यादव अकेले ऐसे राजनेता हैं जिनकी बात  राज्य के सभी मुसलमान तो मानते  ही हैं , मुस्लिम नेताओं के पास भी  उनको नेता मानने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. अपनी पार्टी को मुसलमानों के वोट का हक़दार  मानने वाले कांग्रेसी भी निजी बातचीत में यह बात स्वीकार करते हैं कि उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के अलावा मुसलमान किसी की बात  पर भरोसा नहीं करता . विधान सभा चुनाव के दौरान मुस्लिम वोटों के   बल पर चुनाव की सफलता की उम्मीद लगाकर बैठे रहे एक कांग्रेसी नेता ने कहा कि अब तो उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी को किसी नई रण नीति पर काम करना पडेगा क्योंकि अगर मुलायम सिंह यादव ने कल्याण सिंह को भर्ती करने जैसी कोई गलती न कर दी तो अब मुसलमान उनका साथ छोड़ने को तैयार नहीं हैं. मुलायम सिंह यादव ने एक बात चीत में  इस संवाददाता से बताया था कि कल्याण सिंह को साथ लेना उनकी ज़िंदगी की एक बहुत बड़ी राजनीतिक गलती थी . उन्होंने यह भी कहा कि हालांकि और भी कुछ लोग उस काम  के लिए ज़िम्मेदार थे लेकिन  आखिर में तो वह फैसला उनका ही था और अब वह गलती दुबारा कभी नहीं होगी. 
 एक धर्म निरपेक्ष नेता के रूप में उनकी पहचान १९८४ के बाद से बनना शुरू हुई.जब बीजेपी और आर एस एस ने १९८४ के लोक सभा चुनाव में बुरी तरह से हार के बाद हिंदुत्व को अपनी  राजनीति का स्थायी भाव बनाने का फैसला तो सब कुछ बदल गया . उसी दौर में बाबरी मस्जिद का मुद्दा पैदा किया गया, विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को चुनावी संघर्ष का अगला दस्ता बनाया गया और गाँव गाँव में साम्प्रदायिक दुश्मनी का ज़हर घोलने की कोशिश की गयी. नतीजा यह हुआ कि १९८९ में सीटें बढीं. बाबरी मस्जिद के हवाले से साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण होता  रहा और बीजेपी एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में उभरी . उस दौर में कांग्रेस ने भी अपने धर्मनिरपेक्ष स्वरूप से बहुत बड़े समझौते किये . नतीजा यह हुआ कि साम्प्रदायिक शक्तियां बहुत आगे  बढ़ गयीं.और धर्म निरपेक्ष  राजनीति कमज़ोर पड़ गयी . उन दिनों लाल कृष्ण आडवाणी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के बहुत ही महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हुआ करते थे , रथयात्रा के बाद तो उन्होंने देश के कई राज्यों में अपनी पार्टी की मौजूदगी सुनिश्चित कर दी थी. 
आर एस  एस और बीजेपी के उस विभाजक दौर में उत्तर प्रदेश में उनको पुरानी धर्मनिरपेक्ष  पार्टी ,कांग्रेस से कोई चुनौती नहीं मिली लेकिन जब १९८९ के चुनाव के बाद मुलायम सिंह यादव ने सत्ता संभाली तो साम्प्रदायिक ताक़तों को हर मुकाम पर रोकने की राजनीतिक प्रक्रिया शुरू हो गयी. उसी दौर की राजनीति में गाफिल पाए जाने के कारण ही उत्तर प्रदेश में एक राजनीतिक पार्टी के रूप में कांग्रेस पूरी तरह से हाशिये  पर  आ गयी . मुलायम सिंह यादव ने अपने आपको एक धर्मनिरपेक्ष विकल्प के रूप में पेश किया और आज तक उसी कमाई के सहारे  राज्य की राजनीति में उनकी पार्टी का दबदबा बना हुआ है . धर्मनिरपेक्ष राजनीति के बारे में मुलायम सिंह यादव की प्रतिबद्धता बहुत ज़्यादा है . १९९२ में बाबरी मस्जिद के विनाश के बाद उत्तर प्रदेश  में जब मुलायम सिंह यादव ने  देखा कि  आर एस एस की ताक़त रोज़ ही बढ़ रही है तो उन्होंने बीजेपी और  कल्याण सिंह को बेदखल करने के लिए बहुजन समाज पार्टी से हाथ   मिला लिया.  उस दौर में मैंने उनसे बात की थी और कहा था कि कांशीराम और मायावती की टोली का साथ करके उन्होंने अपनी पार्टी को कमज़ोर करने का काम किया है तो उन्होंने  साफ़ कहा कि अगर मैं कांशीराम को साथ न ले लेता तो वह बीजेपी के साथ चले जाते और वह देश के लिए अच्छा न होता . इसलिए कुछ इलाकों में  अपनी ताक़त से उन लोगों को कुछ सीटें देकर मैं साम्प्रदायिक ताक़तों को सत्ता से बाहर रख सकूंगा . वह काम मुलायम सिंह ने  किया भी. अपने जिले की इटावा सीट से कांशीराम को लोकसभा का सदस्य बनवाया , राज्य में कई जिलों में जहां उनकी पार्टी मज़बूत थी ,वहां से बहुजन समाज  पार्टी को जिताया ,कांशी राम की पार्टी की दूसरी सबसे  महत्वपूर्ण नेता ,मायावती थीं. उन्हें  फैजाबाद जिले की राजनीति में जमाया लेकिन कांशीराम को बीजेपी की शरण में जाने से रोक नहीं सके.  बाद में तो मुलायम सिंह यादव कहते रहते थे कि मायावती की राजनीति साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देती है.

जब दुबारा मुख्यमंत्री पद पर वे बैठे तो उन्होंने मुसलमानों के लिए जो किया  वह तब तक किसी भी मुख्य मंत्री ने नहीं किया था. उर्दू जानने वालों को सरकारी नौकरियों में  जगह दिया, पुलिस में बड़ी संख्या में मुसलमानों को भर्ती करवाया, साम्प्रदायिक दंगों की आग में बार बार झुलस रही मुस्लिम आबादी  को  सुकून से रहने के मौक़े उपलब्ध करवाए, सरकारी काम काज में मुसलमानों को बहुत सारे अवसर दिए . जो भी मुस्लिम  नौजवान अपनी बिरादरी में लोगों के साथ खड़े देखे गए उन्हें राजनीति में महत्व दिया , कुछ को तो राज्य स्तर का नेता बना दिया और ऐसा माहौल बना दिया कि आम मुसलमान समाजवादी पार्टी के राज में अपने को सुरक्षित महसूस करता है . कुल मिलाकर यह बिना संकोच कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की राजनीति के सबसे भरोसेमंद नेता मुलायम सिंह यादव ही हैं.

Friday, August 10, 2012

रामदेव का उपवास उल्लासपूर्ण माहौल में शुरू,कांग्रेस को दिक्क़त नहीं



शेष नारायण सिंह 
नई दिल्ली,९ अगस्त. योग शिक्षक  रामदेव  का तीन दिन का  उपवास आज रामलीला मैदान में पूरे जोश खरोश के साथ शुरू हो गया. तीन दिन के  इस उपवास में उनके करीब २० हज़ार समर्थक सवेरे ही रामलीला मैदान पंहुच चुके थे. खबर है कि उनके बहुत सारे समर्थक भी उनके साथ उपवास कर रहे हैं . राम लीला मैदान में रामदेव के भाषण के  बाद माहौल बहुत ही उल्लासपूर्ण  था क्योंकि  अब समर्थकों को भरोसा हो गया है कि  पिछली बार की तरह इस बार रामलीला मैदान में  पुलिस की लाठियां नहीं चलेगीं.  शुक्रवार को जन्माष्टमी है . उस दिन लोग वैसे भी व्रत रखते हैं और शनिवार को तीन दिन पूरे हो जायेगें. रामदेव ने इस बार  बहुत ही चतुराई  से अपने आपको अन्ना हजारे की टीम से अलग  कर दिया  है.. उन्होंने मंच से ऐलान किया कि उनका आन्दोलन किसी  भी पार्टी के  खिलाफ नहीं है और वे काले धन को वापस लाने के अलावा अब एक मज़बूत लोकपाल के लिए भी संघर्ष  कर रहे हैं .रामदेव ने साफ़ कहा कि वे उसी लोकपाल को पास करवाने  की माग कर रहे हैं जिसे  लोक सभा में  पास किया जा चुका है. उन्होंने कहा  वे सी बी आई के निदेशक , सी ए जी, मुख्य  विजिलेंस  कमिशनर , और  चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को पारदर्शी  बनाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं . 
रामदेव ने अपने भाषण में साफ़ किया कि वे किसी भी नेता के खिलाफ कुछ नहीं बोलेगें. अन्ना हजारे की टीम वालों की तरह वे किसी भी मंत्री के खिलाफ कुछ नहीं बोलेगें. उन्होंने यह भी कहा कि अगर लोकसभा में पास हुए लोकपाल में कुछ कमियाँ हैं और वह ९८ प्रतिशत सही है तो उसे पास करवा लेना चाहिए , बाकी २ प्रतिशत की जो कमी रह जायेगी उसे बाद  में ठीक करवा लिया जाएगा  लेकिन एक मज़बूत लोकपाल पास होना बहुत ज़रूरी है .बाबा के इस नरम रुख के बाद उनके समर्थको में  बहुत उत्साह है . कांग्रेस पार्टी ने भी  राहत की साँस ली है. बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी रामदेव के पाँव छुए और रामदेव ने गुजरात जाकर  अपने भाषण में नरेंद्र मोदी  को महान बताया  तो कांग्रेस पार्टी में  दहशत थी लेकिन आज कांग्रेसी बहुत खुश हैं .  कांग्रेस पार्टी के एक बड़े नता  ने बताया कि रामदेव जिन मुद्दों पर आन्दोलन कर रहे हैं उन पर तो कांग्रेस का भी भरोसा है . ज़ाहिर है कि कांग्रेस में इस आन्दोलन को लेकर अब कोई चिंता नहीं  है .  रामदेव की तरफ पार्टी न बनाने जाने के फैसले से बीजेपी भी खुश है . यह अलग बात है कि कांग्रेस के प्रति नरम हो जाने एक बाद बीजेपी के नेता अभी निजी  बातचीत में रामदेव के प्रति नाराज़गी जाता रहे हैं .

गांधी की नक़ल के चक्कर में अन्ना हजारे ने अपनी टीम को भंग किया था.



शेष नारायण सिंह 

 विख्यात अर्थशास्त्री  कौशिक बसु ने पिछले दिनों एक बहुत दिलचस्प बात कही . उन्होंने बताया कि हर आदमी भ्रष्टाचार के खिलाफ है , अन्ना हजारे भी भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं लेकिन  इसका मतलब यह नहीं हुआ कि हर आदमी जो भ्रष्टाचार के खिलाफ है वह अन्ना हजारे के  साथ है. लेकिन भ्रष्टाचार  से पीड़ित समाज और गरीब आदमी का दुर्भाग्य यह है कि अन्ना के  साथ लगे हुए लोगों ने यह साबित करने की कोशिश की कि हर आदमी जो भ्रष्टाचार के  खिलाफ है वह टीम अन्ना के साथ है .इस काम में उनको आंशिक सफलता भी मिली . उनको लगने लगा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जो भी इंसान होगा वह उनका कार्यकर्ता नहीं तो वोटर तो बन ही जाएगा. नतीजा यह हुआ कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जो नियोजित लड़ाई होनी थी वह गायब हो गयी. टीम अन्ना ने भ्रष्टाचार के खिलाफ होने वाली अपनी लड़ाई के दौरान अपनी हर बात को सार्वजनिक किया , जो आदमी भी उनको अच्छा नहीं उसके लिए भला बुरा कहा . कहीं किसी ने कहा कि  गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी मानवता के हत्यारे हैं . यहाँ  टीम अन्ना के  कुछ लोगों के मोदी  विरोधी  बयान की सत्यता को गलत साबित करने का कोई इरादा नहीं है लेकिन यह पक्का है कि इस बयान के बाद जो मोदी के समर्थक अन्ना के साथ जुड़े थे ,वे नाराज़ हुए और उन्होंने उनका साथ छोड़ दिया . इसी तरह से दिग्विजय सिंह  के भी बहुत सारे समर्थक  भ्रष्टाचार से परेशान हैं  और उन्हें भी  अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम से कुछ उम्मीद हो गयी थी . लेकिन जब उन्होंने देखा कि टीम अन्ना वालों ने  भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे आन्दोलन को दिग्विजत सिंह का विरोध करने के लिए एक मंच के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया तो दिग्विजय सिंह  के प्रशंसक भी नाराज़ हो गए.  अन्ना का आन्दोलन आम तौर पर यू पी ए की सरकार के खिलाफ था इसलिए यू पी ए के समर्थक  टीम अन्ना के खिलाफ थे . ज़ाहिर है यू पी ए के समर्थक भी इस  देश में बड़ी संख्या में हैं क्योंकि उनके ही वोटों से जीतकर आये लोगों की सरकार बनी हुई है . शायद इसलिए राजनीतिक अवसर की तलाश में यू पी ए के विरोधी  अन्ना की को मदद करने लगे लेकिन जब अन्ना की टीम के कुछ सदस्यों ने  बीजेपी के बड़े नेताओं  के खिलाफ भाषण देना शुरू किया  तो आर एस एस का एक बड़ा वर्ग भी उनसे अलग हो गया . देखा यह गया कि अन्ना हजारे तो पूरे आन्दोलन में भ्रष्टाचार और लोकपाल पर केन्द्रित रहे लेकिन  उनके साथी  अपनी अधूरी राजनीतिक इच्छाओं को हवा देना लगे . जिसके मन में  किसी भी नेता के खिलाफ  जो भी बात थी उसे पब्लिक में बताने लगे . भ्रष्टाचार के साथ साथ हर विषय पर बात होने लगी.  उनकी बात को दूर तलक पंहुचाने  के लिए टी वी के कैमरे हमेशा ही उपलब्ध थे.  अन्ना की टीम के ज़्यादातर सदस्य टेलिविज़न के स्टूडियो में नज़र आने लगे .  मीडिया ने भी उन्हें  खूब महत्व दिया  क्योंकि भ्रष्टाचार से पीड़ित जनता अन्ना के शुरुआती दौर में मुक्ति की राह देख रही थी . लेकिन जब अन्ना का आन्दोलन भ्रष्टाचार के अलावा हर मुद्दे पर चर्चा करने लगा तो आन्दोलन की ताक़त कमज़ोर पड़ती गयी. नतीजा यह हुआ कि  वही केंद्र सरकार जिसने आन्दोलन की शक्ति की पहचान करके  टीम अन्ना के पांच सदस्यों को लोकपाल कानून का ड्राफ्ट बनवाने के लिए सरकारी कमेटी का सदस्य बनाया था ,उसी सरकार ने उसी जन्तर मंतर पर आन्दोलन के तीन बड़े नेताओं के ९ दिन तक चले अनशन की परवाह तक  नहीं की. और घट रहे जनसमर्थन से घबडाकर आन्दोलन के नेताओं को अपना बोरिया बिस्तर बांधने के लिए मजबूर होना पडा. आन्दोलन से जुड़े एक सदस्य ने बताया कि कोशिश की गयी कि सरकार  अनशन ख़त्म कारने की अपील ही कर दे जिसके बहाने जंतर मंतर से निकला  जा सके लेकिन वह भी नहीं हुआ. आखिर में अपने ही शुभचिंतकों से चिट्ठी लिखवाकर अनशन तोड़ने को मजबूर होना पडा और वहीं पर एक आन्दोलन को समाप्त करके एक राजनीतिक पार्टी के गठन की घोषणा भी कर दी गयी . राजनीतिक पार्टी के गठन की घोषणा से उनकी टीम  के कुछ लोगों को राहत  ज़रूर मिली . शायद इसलिए कि उनकी   राजनीतिक मनोकामना एक बहुत ही दमदार आन्दोलन के ज़रिये  सफल होती नज़र आ  रही थी  लेकिन आन्दोलन में कुछ ऐसे भी लोग थे जो  या तो राजनीति से ही आये थे और या जो राजनीति में जाना ही नहीं चाहते थे. उन लोगों ने चुनावी राजनीति के ज़रिये अन्ना के आन्दोलन को आगे  बढाने की योजना पर पानी डाल दिया . और प्रस्तावित राजनीतिक पार्टी से अन्ना हजारे अलग हो गए.  राजनीति से जिन लोगों ने ऐलानियाँ किनारा  किया उनमें जस्टिस संतोष हेगड़े, मेधा पाटकर और डॉ  सुनीलम प्रमुख थे. जस्टिस हेगड़े की इच्छा थी कि इस आन्दोलन को  भ्रष्टाचार के खिलाफ एक बहुत बड़े आन्दोलन में बदल दिया जाए.   जज के रूप में अपने काम से  भी उन्होंने यह साबित कर दिया था कि  वे भ्रष्टाचार के  विरोधी हैं . रिटायर होने के बाद एक  सामाजिक और राजनीतिक हस्तक्षेप के ज़रिये वे  अपना काम करना चाहते थे . उन्होंने बहुत करीब से चुनावी राजनीति और भ्रष्टाचार के घालमेल को देखा था . कर्नाटक के लोकायुक्त के रूप में उन्होंने राज्य के पूर्व  मुख्यमंत्री के भ्रष्टाचार को जगजाहिर किया था और  राजनेताओं के भ्रष्टाचार कर सकने की क्षमता पर लगाम लगाई थी.  उनका विशवास है कि राजनीतिक भ्रष्टाचार की बुनियाद में चुनावी चंदा होता है इसलिए वे चुनावी राजनीति के किसी भी अभियान से अपने को दूर ही रखना चाहते थे. उनके अलावा मेधा पाटकर ने  भी सामाजिक बदलाव के लिए आम  जनता की भागीदारी वाले कई आन्दोलनों को सफलता पूर्वक चलाया है और आम आदमी में उसके अधिकारों के प्रति जागरूकता फैलाने का काम किया है . इस आन्दोलन में भी जब वे शामिल हुईं तो उनकी इच्छा किसी भी हालत में चुनावी राजनीति में शामिल होने की नहीं थी. ज़ाहिर है उन्होंने भी अपने आपको राजनीतिक पार्टी की मुहिम  से अलग कर  लिया और साफ़ कर दिया कि सरकार की नीतियों को प्रभावित कर सकने की क्षमता   जन आन्दोलनों में सबसे ज्यादा होती है . राजनीतिक पार्टी के अपने  सपने होते हैं , वे अपने तरीके से काम करते हैं और उनमें  न्याय की बहुत ज्यादा  उम्मीद नहीं होती. लिहाजा मेधा पाटकर भी इस आन्दोलन से अलग हो गयीं.
एक  अन्य प्रभावशाली सदस्य डॉ सुनीलम  भी  अलग हो गए . वे एक राजनीतिक पार्टी के महासचिव रह चुके हिना उर उसे छोड़कर वे जनांदोलनों में शामिल हुए थे. एक सोशलिस्ट के रूप में भी उन्होंने आम आदमी की   पक्षधरता की कई लडाइयां लड़ी हैं. उनसे बात करके अन्ना हजारे के दिमाग में चल रही  सारी उथल पुथल समझ में आ  गयी. अन्ना हजारे का अब तक जो इतिहास  हैं उसमें वे कभी भी खुद चुनावी तिकड़म  में नहीं पड़े. जन आन्दोलनों के ज़रिये ही उन्होंने अपनी बात कही और उसे आगे बढ़ाया . कभी किसी  भी राजनीतिक पार्टी के पक्षधर नहीं रहे और जो भी राजनीतिक पक्ष उनको भ्रष्ट नज़र आया उसके खिलाफ उन्होंने मैदान  लेने में संकोच नहीं किया. महाराष्ट्र सरकार के कई मंत्री उनके अभियान  के कारण इस्तीफ़ा देने के लिए मजबूर हो चुके हैं . इस बार भी उनके आन्दोलन में वह ताक़त थी कि केंद्र सरकार झुक गयी . शुरुआती दौर में केंद्र सरकार के जिन मंत्रियों के  खिलाफ उन्होंने  टिप्पणी कर दी उनको चुप होना पड़ा  . सरकारी कमेटी के सदस्य के रूप में उनकी  हर बात मानने का वादा सरकार की  तरफ से किया गया लेकिन उनके अति उत्साही साथी ऐसी ऐसी मांगें करने लगे जिनका  हल निकाला ही नहीं जा सकता. बस यहीं गड़बड़ हो गयी  . जिस अन्ना हजारे की मर्जी का आदर करके  केंद्र सरकार ने कपिल सिब्बल को उनके खिलाफ बयान देने से रोक दिया था उसी केंद्र सरकार ने उनके ९ दिन के आन्दोलन को पूरी तरह नज़र अंदाज़ कर दिया. ज़ाहिर है कि उनका आन्दोलन रास्ते से भटक गया था . और अन्ना की अथारिटी कमज़ोर हुई थी . अन्ना हजारे की भूखों रह सकने की क्षमता अदम्य है लेकिन उनको अपना अनशन ख़त्म करवाने के लिए अपने कुछ प्रबुद्ध नागरिकों की एक चिट्ठी का सहारा लेना पड़ा.  

 डॉ सुनीलम को अन्ना हजारे ने बताया कि महात्मा गांधी का आन्दोलन देश से अंग्रेजों को भगाने के  लिए था . उसके  बाद  उनकी इच्छा थी कांग्रेस को एक राजनीतिक पार्टी के रूप में मान्यता न दी जाए और वह सामाजिक परिवर्तन के एक आन्दोलन के रूप में चलता  रहे . लेकिन उनके उत्तराधिकारियों ने कांग्रेस को चुनावी  राजनीति की एक पार्टी बना दिया और महात्मा  गाँधी की राह  से अलग सामाजिक  न्याय की गाडी चलाने का फैसला किया . अन्ना हजारे  का मानना है कि महात्मा गांधी को कांग्रेस को भंग करने की एकतरफा घोषणा कर देनी चाहिए थी. अगर उन्होंने ऐसा कर दिया होता तो आज़ादी की लड़ाई में शामिल नेता अपनी अपनी राजनीतिक पार्टी बनाते और चुनाव लड़ते . लेकिन ऐसा नहीं हुआ और एक राजनीतिक पार्टी के रूप में कांग्रेस बहुत भारी गुडविल के साथ चुनावी अखाड़े में कूदी और भारी बहुमत से  जीती . यह सिलसिला लगातार चलता रहा  और कांग्रेस में भ्रष्ट लोग भरते गए. महात्मा गांधी की राजनीति के जानकार और उनके अनुयायी अन्ना हजारे ने वह काम कर दिया जो महात्मा जी करने से चूक गए थे . उन्होंने लोकपाल बिल के लिए  बात करने के लिए  बनायी गयी टीम को भंग कर दिया और यह कहा कि यह टीम अब किसी काम की नहीं है क्योंकि केंद्र  सरकार से लोकपाल के मुद्दे पर बात करने के लिए बनाई गयी थी और लोकपाल के  मामले में सरकार किसी से बात करने को तैयार नहीं है . यह सारी घोषणा अन्ना हजारे  ने अपने ब्लॉग के ज़रिये की और अपने किसी भी साथी को इसकी भनक तक न लगने दी.  बताते हैं कि उनको शक़ था कि अगर उन्होंने इस  बात को अपनी टीम के सदस्यों की नोटिस में लाने की भूल की तो वे हर बार की तरह इस बार भी सब गड़बड़ कर देगें  . पता चला है कि उनको  भरोसा था  कि उनकी शख्सियत का लाभ उठाकर उनके साथी  राजनीतिक लाभ लेगें इसलिए उन्होंने अपने आपको  चुनावी राजनीति से अलग कर  लिया और राजनीतिक पार्टी बनाने वालों को मुक्त कर दिया . उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले  समय में भी  वे भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी मुहिम जारी रखेगें . राजनेताओं की गड़बड़ियों को दुनिया के सामने लाते रहेगें . यह भी उम्मीद की  जानी चाहिए कि अब उनके साथी जो राजनीतिक पार्टी बनाने जा रहे हैं,उसको भी अन्ना हजारे भ्रष्ट आचरण  करने से रोकेगें  . यह भी सच है कि प्रस्तावित राजनीतिक पार्टी से अपने आपको अलग करके उन्होंने भ्रष्टाचार से पीड़ित जनता की उम्मीदों को जिंदा रखा है .

Thursday, August 9, 2012

२००९ चुनाव के पहले जनेश्वर ने कहा था - बीजेपी एक ज़हरीली जमात है.




शेष नारायण सिंह 
लोक सभा चुनाव २००९ के पहले ३ मई २००९ को मैंने  स्व जनेश्वर मिश्र का एक इंटरव्यू किया था. उस इंटर व्यू के नोट्स तो मेरे पास नहीं हैं लेकिन उस वक़्त के मेरे उर्दू अखबार के अलावा , एक बड़े हिन्दी अखबार ने भी इसे छापा था. आज जब वे नहीं है तो उनकी बातों को एक बार फिर प्रस्तुत करने की कोशिश  कर रहा हूँ . एक पत्रकार के रूप में यह इंटरव्यू मुझे ज़िंदगीभर याद रहेगा. उन्होंने इस इंटरव्यू के खतम होने के बाद मुझे जो बात आफ द रिकार्ड कही थी . वह लोकसभा २००९ के नतीजे आने के  बाद सही साबित हुई थी. और उनकी पार्टी को भारी नुकसान हुआ था.  उन्होंने यह भी साफ़ कहा था कि जिस व्यक्ति के कारण उनकी पार्टी  को राजनीतिक नुकसान पंहुच रहा है उसे मुलायम सिंह यादव जल्दी ही  पार्टी से निकाल देगें . प्रस्तुत है  उस दिन का शब्दशः इंटरव्यू  --------------


जनेशवर मिश्र शुद्घ छात्र नेता हैं। इलाहाबाद विश्व विद्यालय कीछात्र राजनीति में दशकों तक अधिकार रखने वाले श्री मिश्रने डाक्टर राम मनोहर लोहिया के शागिर्द के रूप मेंसमाजवादी युवजन सभा में  काम शुरू किया था। इलाहाबादविश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई तो की लेकिन कभी वकालत नहींकिया। जवाहर लाल नेहरू के खिलाफ  जब डाक्टर राममनोहर लोहिया, फुलपूर से चुनाव लड़ें थे तो जनेश्वरमिश्र के कंधों पर व्यवस्था के बहुत सारे काम थे। देशमें समाजवादियों की लोहियावादी परंपरा में जनेश्वर मिश्रका महत्वपूर्ण मुकाम है। तमाम राजनीतिक पार्टियों में चलरहे राजनीतिक विमर्श के गिरे हुए स्तर पर जनेश्वर जी बहुतही चिंतित रहते हैं। आजकल समाजवादी पार्टी में हैं, पार्टीके अध्यक्ष मुलायम सिंह उनका बहुत सम्मान करते हैं। समाजवादीपार्टी के चुनाव घोषणा पत्र में अंग्रेजी के बारे में जोबात कही गई है, उस पर ख़ासा विवाद उठ खडा हुआ है।शेष नारायण सिंह ने श्री जनेश्वर मिश्र से नई दिल्ली स्थितउनके आवास पर मुलाकात की तो बातचीत अंगे्रजी से जुड़े विवादपर ही केंद्रित हो गयी। प्रस्तुत है बातचीत के कुछ अंश: सवाल : कहां जा रही है आपकी पार्टी?जनेश्वर मिश्र : हमारी पार्टी अपनी जगह पर है और सहीकाम कर रही है। बिलकुल ठीक चल रही है। सवाल : अंग्रेजी के खिलाफ क्यों हैं?जनेश्वर मिश्र : हमारी पार्टी ने इस चुनाव के दौरान एकबहुत ही महत्वपूर्ण बहस छेड़ी है। हमने  घोषणा पत्र मेंकहा है कि अगर समाजवादी पार्टी की सरकार बनती है तोसरकारी कामकाज की भाषा अंग्रेजी नहीं रहेगी। भाषाके बारे में यह हमारी नीति है। लेकिन इस पर समाज केनिहित स्वार्थ के लोग विरोध करने लगे। पता चला है किकुछ इलाकों में विद्यार्थियों ने आंदोलन की बात भी शुरूकर दी है। नोबेल पुरस्कार विजेता अमार्त्य  सेन ने भी इसकाविरोध शुरू कर दिया। उनका आरोप है कि इस तरहकी बात को लागू करने से भारत  दसवीं शताब्दी में पहुंचजायेगा .अमार्त्य सेन अर्थशास्त्र के विद्वान हैं और उस क्षेत्रमें वे हमारे सम्मान  के पात्र हैं लेकिन भाषा  के सवालपर बंगाली बाबू फिसल गए। ऐसे ही महात्मा गांधी के वक्त भी हुआ था। जब गांधी जी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन का नारादिया तो रवींदनाथ टैगोर ने उनका विरोध किया औरआंदोलन के खिलाफ  बयान दे दिया। गांधी जी ने उन्हेंसमझाने की कोशिश की, करीब दो हफ्ते  तक शांति निकेतनमें ठहरे लेकिन टैगोर को समझा नहीं पाये। टैगोरबहुत ही काबिल व्यक्ति थे लेकिन उस वक्त महात्मा गांधी की बातउनकी समझ में नहीं आई। सवाल : ऐसा क्यों है? जनेश्वर मिश्र :  भारतीय लोग जो नोबेल पुरस्कार जीततेहैं, उन्हें यह सम्मान  अंग्रेजी की मार्फत मिलता है। उनको यहबोध कराना जरूरी है कि उनको सम्मान उनकी प्रतिभा की वजह से मिला है, उनकी अपनी तपस्या की वजह से मिला है,अंग्रेजी की वजह से नहीं। अमर्त्य सेन के तर्क को अगर विकसित कियाजाय तो जापान, चीन, रूस आदि  पिछड़े देश हो जायेंगे, क्योंकिवहां भी  सरकारी कामकाज की भाषा अंग्रजी नहीं है।लेकिन ऐसा नहीं है। दरअसल अंग्रजी की वजह से भारत  में स्वतंत्ररूप से सोचने की क्षमता का विकास ही नहीं हुआ, भारतीयों के अंदर जो महान  आदमी बनने की क्षमता है उसपर इसका उल्टा असर पड़ताहै। अंग्रेजी भाषा देश को नकलची बना रही है। नकलचीआदमी  स्वाभिमान से नहीं रह सकता। जबकि प्रतिभाशाली  आदमीस्वाभिमानी होता है . प्रतिभा का  विकास जितना अपनीभाषा की वजह से होता है, उतना किसी और की भाषा से नहीं होता। जब तक आदमी उस बोली में जिंदगी नहीं जिएगा,जो उसने गोद में सीखा था तो उसके तरक्की करने कीसंभावना  कम है। नई भाषा का व्याकरण समझने में हीबहुत समय लग जायेगा उसमें शान हासिल करने में तो बहुतटाइम लगेगा। सवाल : चुनाव के दौरान इस तरह का विवाद क्यों खडा करदिया गया?जनेश्वर मिश्र : पिछले कुछ वर्षों से समाजवादी पार्टी की पहचानआम आदमी और उसकी समस्याओं से दूर भागने  वाले संगठनके रूप में होने लगी थी। पूंजीपतियों के आगे पीछे घूमनेवाले कुछ लोगों की वजह से पार्टी के आम कार्यकर्ता मेंअजीब माहौल पैदा हो गया था। हमारी पार्टी को कुछहल्कों में सनीमा वालों की जमात के रूप में भी पहचाना जानेलगा था। अंग्रेजी ख़त्म  करने की बात शुरू करके देशभर के समजवादियों को एक करने की कोशिश की गई है औरहमारे कार्यकर्ता एकजुट हो रहे हैं।सवाल : क्या संभावना है लोकसभा चुनाव की?जनेश्वर मिश्र : हमारी पार्टी उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादासीटों पर जीतेगीसवाल : लगभग कितनी सीटों की उम्मीद है आपको?

जनेश्वर मिश्र : जितनी थीं, उससे ज्यादा रहेंगी। मायावतीकी पार्टी के सांसदों की संख्या बहुत कम हो जायेगी। बाकीबीजेपी और कांग्रेस को तो हर सीट के लिए उम्मीदवार तक नहीं मिले हैं . सवाल : बीजेपी वाले कहते हैं कि उनकी विचारधारा बहुतअच्छी है, जिसकी वजह से पूरा देश उनके साथ आ जायेगा?जनेश्वर मिश्र : बीजेपी एक जहरीले उसूल की जमात है। वहउसी उसूल पर चलकर आदमी को पागल बनाना चाहती है।यह ऐसी जमात है जो राह चलते हिंदू और मुसलमान के बीचदंगा कराने की फिराक में रहती है। छुटपन का आलम यहहै कि अगर किसी मामूली झगड़े में भी  हिंदू-मुसलमान शामिलहो जायें तो बीजेपी उसे सांप्रदायिक रंग दे देगी और हिंदूकी तरफ से हल्ला गुल्ला करके बात का बतंगड़ बना देगी इसजहरीली विचारधारा वाली जमात का हर स्तर पर विनाशकिया जाना चाहिए। सवाल: तो कल्याण सिंह को क्यों गले लगा लिया वह भी  तोइसी ज़हरीली जमात से आऐ हैं?जनेश्वर मिश्र : यह सही है कि बाबरी मस्जिद वाले मामले मेंकल्याण सिंह ज़िम्मेदार  है। अब वह हमारी पार्टी में शामिल हो गए हैं . लेकिन वह हमारी पार्टीमें मुलायम सिंह से बड़े नहीं हैं। देश का मुसलमान मुलायम सिंह यादव पर विश्वास करता है . मुलायम सिंह ने सब कुछदांव पर लगाकर बाबरी मस्जिद की हिफाजत की थी। हमारीमुखालफत बीजेपी की ज़हरीली विचारधारा से है औरहम उसको खत्म करना चाहते हैं। बीजेपी को समाप्त करने कीमुहिम में अब कल्याण सिंह शामिल हो गए हैं, उनका स्वागतकिया जाना चाहिए। हमें तो बीजेपी के जहरीले तत्व को ख़त्म करना है, उसमें तो अगर आडवाणी भी  शामिल हो जायेंतो अच्छा रहेगा। सवाल : अक्टूबर 1990 में मुलायम सिंह ने बाबरी मस्जिद कीहिफाजत की थी, उसके बाद से मुसलमानों के लिए क्या कियाआपने?जनेश्वर मिश्र : बहुत कुछ किया। जब भी  उत्तर प्रदेश मेंसरकार बनी मुसलमानों के रोजगार के अवसर बढ़ाए गए।उर्दू टीचर और अनुवादकों की बड़े पैमाने पर भर्ती की गई। पुलिस में मुसलमानों की संख्या  बढ़ाई गई। हर तरहसे सत्ता में भागीदार बनाया गया। सवाल : तो मुसलमान इस चुनाव में आप से भाग क्यों रहा है?जनेश्वर मिश्र : मुसलमान बहुत जज्बाती होता है। अल्पसंख्यक है तो जज्बात की वजह से अकसरियत से सशंकित रहता है लेकिनयह बात गलत है कि वह हमसे भाग रहा है। उत्तर प्रदेशमें मुसलमान हमारे साथ है और सांप्रदायिक ताकतों को हरानेकी लड़ाई में शामिल हैं। एक और दिलचस्प बात यह है किमुसलमान बीजेपी और मायावती के बीच कोई फर्क नहीं करता।उसे कभी नहीं भूलता  कि मायावती ने ही गुजरात दंगों केबाद अहमदाबाद जाकर मोदी के पक्ष में चुनाव प्रचार किया थाऔर बीजेपी की कृपा से ही मायावती तीन बार उत्तर प्रदेशकी मुख्यमंत्री बनी रहीं। वह मायावती को सांप्रदायिक ताकतोंकी एजेंट मानता है और उन क्षेत्रों में  भी  उनके खिलाफ  है जहांमायावती ने मुसलमान उम्मीदवार  को टिकट दिया है।

सवाल-- आपकी पार्टी में अब तक तो किसी गाँव से आये हुये लोग ही बहुत बड़े नेता बनते  थे लेकिन आजकल मुंबई की फ़िल्मी दुनिया के लोग हावी हैं . ऐसा क्यों है ?

जनेश्वर मिश्र --मैंने आपसे कहा न कि आजकल हमारी पार्टी में कुछ सनीमा वाले आ गए हैं .  आपको वही लोग दीखते हैं तो हम क्या करें. वैसे हमारी पार्टी के जितने भी नेता हैं सब संघर्ष से आये हैं .मुलायम सिंह यादव, मोहन सिंह , राम गोपाल यादव , बृज भूषण तिवारी , आज़म खां  यह सारे लोग आपको फ़िल्मी दुनिया के  नेता लगते हैं . मीडिया वालों को वही लोग दीखते हैं और आप लोग भी उन्हीं सनीमा वालों को लाने वाले अजूबे को बड़ा नेता मानते हैं . आप लोग चश्मा बदलिए .

सवाल -कांग्रेस के एक बड़े  नेता कहते हैं कि आपकी पार्टी को इस लोक सभा चुनाव में बहुत कम सीटें मिलने वाली  हैं आप की क्या टिप्पणी है ?जनेश्वर मिश्र-- उत्तर प्रदेश के बारे में कांग्रेस वालों की बात को गंभीरता से लेने की ज़रूरत नहीं है . उनको उत्तर प्रदेश की जनता बार बार नकार चुकी है . उनके बारे में बात करके चुनाव एक   मौसम में मैं उन्हें महत्व नहीं देना चाहता.

सवाल-- एक आख़िरी सवाल , आपके एक बड़े नेता  ने कहा है कि सिनेमा वालों के आने से आपकी पार्टी का सम्मान बहुत बढ़ा है  .क्या आप इस बात को स्वीकार करते हैं ?जनेश्वर मिश्र--आप कृपया इस इंटरव्यू की गंभीरता को कम मत कीजिये . वे जनाब मेरे नेता कभी नहीं रहे. किसी भी समाजवादी कार्यकर्ता की नेता बनने की उनकी औकात नहीं है.  उन्हें मुलायम  सिंह यादव ने अपने साथ लगा अरखा है . मेरी नज़र में तो वे मुलायम सिंह यादव के निजी स्टाफ के सदस्य भर हैं . इस से ज्यादा कुछ नहीं .

Sunday, August 5, 2012

अमरीकी विदेशनीति ने हक्कानी नेटवर्क के सामने घुटने टेके


शेष नारायण सिंह 
पाकिस्तान से अब अमरीकी  हुकूमत को खासी परेशानी होने लगी है .लेकिन अमरीका की मुसीबत यह है  कि वह सिविलियन सरकार से बातचीत जारी रखने के चक्कर में पाकिस्तानी फौज से सीधे संवाद नहीं कायम कर रही है . पाकिस्तान के ६५ साल के इतिहास में अमरीका ने लगभग हमेशा ही फौज  से ही रिश्ता रखा. हालांकि शुरू के कुछ साल तक वह लोकतान्त्रिक सरकार से भी मिलकर काम करते थे  लेकिन पहले प्रधान मंत्री लियाक़त अली के क़त्ल के बाद ऐसा कभी नहीं हुआ. शुरू से ही भारत पर नकेल कसने की गरज  से  अमरीका पाकिस्तान को अपने साथ रखता रहा है लेकिन हमेशा ही उसका संवाद पाकिस्तानी फौज से ही रहा . लेकिन इस बार अमरीका की कोशिश है कि वह सिविलियन हुकूमत से बात करे क्योंकि उसकी लड़ाई अब आतंक से है . ओसामा बिन लादेन को पकड़ने के लिए शुरू किया गया अमरीकी अभियान लगभग पूरी तरह से पाकिस्तान की  मदद से ही चला . यह अलग बात है कि पाकिस्तान ने ओसामा बिन लादेन को अपने यह पनाह दे रखी थी. और अमरीका को लगातार बेवकूफ बना अरह था. ओसामा बिन लादेन के नाम पर रक़म भी एंटी जा रही थी लेकिन सबसे बड़े आतंकी को अपने यहाँ हिफाज़त भी दे रखी थी.   आतंक के मुकाबले के लिए अमरीकी प्रशासन ने पाकिस्तान को अरबों डालर की मदद की. 
अब खबर आ रही है  कि अब अमरीकी कांग्रेस पूरी तरह से 
पाकिस्तान से खीझ चुकी है और पाकिस्तान की सरकार से गुजारिश की है कि वह आतंकवादी संगठनों और पाकिस्तानी फौज की दोस्ती को तोड़ दे. 
    
   अमरीकी प्रशासन में ताज़ा परेशानी हक्कानी नेटवर्क को लेकर है आरोप लगते रहे हैं कि हक्कानी नेटवर्क  बम बनाने का सामान अफगानिस्तान में भेजता रहा है. आरोप यह भी है कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी ,आई एस आई ने ही हक्कानी  नेटवर्क का सारा ताम झाम बनवाया है और वही उसकी मदद कर रहा है .आजकल हक्कानी नेटवर्क  अमरीका का ख़ासा सिरदर्द बना हुआ  है.यह अफगानिस्तान में काम कर रही पाकिस्तानी सेना को चैन से काम नहीं करने दे रहा है , पाकिस्तान में नैटो की गतिविधियों पर  हक्कानी ग्रुप वाले हर मुकाम पर अड़चन खडी कर रहे हैं .सच्चाई यह  है कि ओसामा बिन लादेन के अलकायदा और  तालिबान  जैसे आतंकवादी संगठनों के साथ साथ अमरीकी सी आई ए ने पाकिस्तान की आई एस आई की मदद से अस्सी के दशक में हक्कानी नेटवर्क को भी शुरू करवाया था. यह  तालिबान का ही एक अन्य रूप था   . उन दिनों  इसका इस्तेमाल अफगानिस्तान में सोवियत सेना से लड़ने के लिए किया गया . अब  इसी  हक्कानी नेटवर्क ने अफगानिस्तान और पाकिस्तान की सीमा के दोनों तरफ अमरीका की नाक में दम कर रखा है .अमरीकी फौज का कहना है कि इस इलाके  में हक्कानी नेटवर्क उसका  सबसे बड़ा दुश्मन है और नैटो की सेना और उसके साजो सामान को सबसे  बडा ख़तरा इसी  ग्रुप से है . अभी २०११ तक अमरीकी हुकूमत को उम्मीद थी कि हक्कानी ग्रुप के मौलवी जलालुद्दीन और इनके बेटे सिराजुद्दीन की कृपा से चल रहे आतंक के राज को सीधी बात चीत के ज़रिये ख़त्म किया जा सकता है लेकिन अब अमरीका को भरोसा हो गया  है  कि बिना पाकिस्तान की सरकार को शामिल किये हक्कानी नेटवर्क पर हाथ डालना बहुत ही खतरनाक साबित हो सकता है .

 पाकिस्तान सरकार ने ओसामा बिन लादेन को ख़त्म करने में भी अमरीका की कोई मदद नहीं की थी लेकिन कूटनीतिक भाषा का इस्तेमाल करते हुए अमरीकी विदेश विभाग 
   
  ओसामा बिन लादेन के केस में पाकिस्तान की तारीफ़ करता  है . विदेश विभाग के ताज़ा बयान में  कहा गया है कि पाकिस्तान  हक्कानी नेटवर्क और लश्करे तैय्यबा के मामले  में सही काम नहीं कर रहा है .अमरीका की तरफ से पाकिस्तान  में राजदूत बनकर जाने को  तैयार रिचर्ड ओस्लोन ने सेनेट के सामने अपनी  पेशी में बताया  कि  हक्कानी नेटवर्क को काबू में करना उनकी मुख्य प्राथमिकता  होगी.  हालांकि पाकिस्तानी हुकूमत ने अंतर राष्ट्रीय दुनिया में अपने आत्मसम्मान को  बहुत नीचे गिरा  लिया है लेकिन  पाकिस्तान में तैनात होने वाले किसी भी राजदूत के लिए पाकिस्तान के अंदरूनी मामलों में दखलंदाजी निश्चित रूप से गलत बात है . पाकिस्तान का दावा है कि वह हक्कानी नेटवर्क को काबू में करने के लिए पूरी तरह से कोशिश कर रहा है लेकिन अमरीकी विदेश विभाग उनकी बात को सुनने के लिए तैयार नहीं है.




अमरीकी विदेश नीति के कर्ता धरता लोगों  को पाकिस्तानी बयानों पर विश्वास  नहीं है क्योंकि पाकिस्तान ने हर बार अमरीकी हितों के खिलाफ काम किया है . लेकिन अमरीका भी ईमानदारी ने अपनी आतंकवाद  विरोधी नीति का संचालन नहीं करता है .उनकी नीति में बुनियादी खोट है . वह पाकिस्तान की  ज़मीन से अफगानिस्तान में हो  रही आतंकवादी गतिविधियों की तो मुखालफत करते हैं लेकिन  वही आतंकवादी जब पाकिस्तानी ज़मीन से भारत के खिलाफ आतंक फैलाते हैं तो अमरीका आँख बंद कर लेता है . अमरीका के वर्ड ट्रेड सेंटर  पर आतंकवादी हमले के पहले अमरीकी  विदेश नीति के मालिक लोग   दक्षिण एशिया के आंतंकवाद के बारे में बिलकुल बात नहीं करते थे लेकिन जब उनके ऊपर ही  हमला हो गया तो उन्हें अफगानिस्तान और पाकिस्तान में चल रहे आतंक के तालिबानी साम्राज्य को गंभीरता से लेने की ज़रुरत महसूस हुई . पाकिस्तान की ज़मीन से उठ रहे आतंकवाद के तूफ़ान को रोकने का तरीका यह है कि हर  तरह के आतंकवाद पर काबू किया जाए. अमरीका को चाहिए कि वह पाकिस्तानी सरकार ,फौज और आई एस आई को बता दे कि वह हर तरह के आतंक के खिलाफ है . अगर हर तरह के आतंकवाद पर लगाम न लगाई  गयी तो अमरीका से मिलने वाली खैरात बंद कर दी जायेगी. अगर पाकिस्तान यह रुख अपनाता है तो उसे भारत का भी पूरा  सहयोग मिलेगा क्योंकि भारत भी अपनी आतंरिक सुरक्षा के लिए  कोशिश कर रहा है और उसके ऊपर आतंकवादी हमले आई एस आई की कृपा से ही हो रहे हैं .



अमरीकी सरकार की तरफ से इस हीला हवाली के चलते ही सारी गड़बड़  है  क्योंकि अमरीकी  संसद ने तो अभी पिछले हफ्ते सरकार से आग्रह किया था कि हक्कानी नेटवर्क  विदेशी  आतंकवादी संगठन के रूप में नामजद किया जाए . जब सरकार ने ना नुकुर की तो एक प्रस्ताव पास करके अमरीकी विदेशी विदेश विभाग से जवाब तलब किया गया कि  वह हक्कानी नेटवर्क को क्यों नहीं आतंकवादी संगठन घोषित कर रहा है .विदेश विभाग से रिपोर्ट आ जाने के बाद इस प्रस्ताव पर आगे विचार होगा और अमरीकी संसद का दबाव अमरीकी सरकार पर और भारी पड़ना शुरू हो जाएगा 

जो बात समझ में नहीं आती है वह यह  है कि जब अमरीकी सरकार हक्कानी नेटवर्क से परेशान है और आतंक के क्षेत्र में उसे अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानता है  तो उसे आतंकवादी संगठन क्यों नहीं घोषित कर देता. अमरीकी  सरकार का कहना है कि उन्होंने हक्कानी  नेटवर्क के सभी बड़े पदाधिकारियों के खिलाफ पाबंदी लगा दी गयी है लेकिन अभी उसे एक संगठन के रूप में प्रतिबंधित करने का प्रस्ताव विचाराधीन है .कांग्रेस के सदस्य जल्द से जल्द कोई कार्रवाई चाहते हैं लेकिन ओबामा प्रशासन को उम्मीद है कि अभी तालिबान से जो बातचीत की जा रही है उसके बाद शायद 
   
  हक्कानी नेटवर्क 
    
    भी अमरीका से अपने रिश्तों को दोबारा जांचना चाहेगा. अमरीकी विदेश नीति के ज़्यादातर विद्वान् यह मानते हैं कि यह दुविधा ही अमरीकी विदेश नीति की सबसे बड़ी कमजोरी है और इसी कमजोरी के कारण उन्हें बार बार परेशानी का सामना करना पड़ता है. पिछले दो साल में आई अमरीकी विदेश विभाग की हर रिपोर्ट में लिखा है कि अफगानिस्तान में आतंक का राज कायम करने की कोशिश कर रहे  संगठनों को पाकिस्तान में शरण मिलती है लेकिन फिर भी उनके खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई नहीं कर रहे हैं 

ऐसा लगता है कि अमरीका दुनिया को दिखाने एक लिए तो अमरीकी फौज को लोकतंत्र के लिए ज़हर मानता है  लेकिन अभी वह फौज को ही पाकिस्तान का शासक मानने की अपने पुरानी नीति से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं . उन्होंने साफ़ देखा है कि उनका दुश्मन नंबर एक ओसामा बिन लादेन कई साल तक अमरीकी फौज की शरण में रहा और परवेज़ मुशर्रफ समेत सभी  फौज़ी आला हाकिम अमरीका से झूठ बोलते रहे फिर भी फौज पर विश्वास करने की अपनी नीति से अमरीका पता नहीं क्यों बाज़ नहीं आ रहा है . यह देखना  दिलचस्प होगा कि अमरीकी कांग्रेस के दबाव के बाद भी क्या ओबामा प्रशासन सबसे खतरनाक हक्कानी नेटवर्क के अंदर अपने दोस्त तलाशने की कोशिश से बाज़ आता है या अब वह वक़्त करीब आ गया है जब हक्कानियों के तख़्त को उछाल दिया जाए..

Saturday, August 4, 2012

अब सरकारी ज़मीन निजी उद्योगपतियों को देना बहुत आसान हो जाएगा


शेष नारायण सिंह 

 सरकारी ज़मीन का मालिकाना हक निजी हाथों में सौंपने की दिशा में केंद्र सरकार ने एक  बहुत ही महत्वपूर्ण बाधा को पार कर लिया है. पी पी पी के नाम पर सरकारी ज़मीन को बहुत आसानी से निजी उद्योगों के  विकास के लिए  दिया जा सकेगा. अब तक सरकार के एक विभाग से दूसरे विभाग को तो ज़मीन आसानी से दी जा सकती थी लेकिन अगर सरकारी ज़मीन को किसी निजी कंपनी या व्यक्ति को देना होता था तो उसके लिए कैबिनेट की मंजूरी लेने की ज़रुरत होती थी. ज़मीन की मिलकियत में बदलाव के लिए पी पी पी के नाम पर विकसित की जा रही  योजनाओं को भी निजी क्षेत्र की तरह माना जाता था. इसलिए जब कोई भी ज़मीन किसी भी निजी भागीदारी वाली कम्पनी को  देनी  होती थी तो उसकी विधिवत जांच होती थी और उसके बाद ज़मीन दी जा सकती थी. प्रधान मंत्री ने आज वह बाधा भी दूर कर दी . अब अगर कोई भी मंत्री चाहता है तो वह अपने  विभाग  की सरकारी ज़मीन , बुनियादी  ढांचागत विकास के किसी प्रोजेक्ट  को बिना कैबिनेट की  मंजूरी के किसी पी पी पी परियोजना को बड़ी आसानी से दे सकेगा.

पिछले साल की शुरुआत में सरकारी ज़मीन को किसी भी गैरसरकारी संस्था या कंपनी को देने पर पूरी तरह से रोक लगा दी गयी थी.  केवल एक सरकारी विभाग से दूसरे सरकारी विभाग को ज़मीन देने की अनुमति थी. उसके बाद वित्त मंत्रालय के आर्थिक कार्य विभाग ने सरकारी ज़मीन के हस्तांतरण के लिए एक विस्तृत योजना तैयार की इसके  पहले अगर कोई मंत्रालय अपने अधीन किसी विभाग की मिलकियत वाली ज़मीन को किसी भी पी पी पी  प्रोजेक्ट को देना चाहता  था तो उसे बाकायदा एक प्रस्ताव बनाकर कैबिनेट के पास भेजना पड़ता था. इस काम में समय भी लगता था और सरकार के साथी   उद्योगपतियों  को परेशानी भी  होती  थी. प्रधान मंत्री ने आज आर्थिक कार्य विभाग की तरफ से तैयार पालिसी को मंजूरी देकर सरकारी ज़मीन को  पी पी पी माडल के ज़रिये निजी हाथों में सौंपने की दिशा में आने वाली हर बाधा को दूर कर दिया है .सरकार का दावा है कि इसके बाद  बुनियादी ढांचे वाली किसी परियोजना में कोइ अड़चन नहीं आयेगी क्योंकि आजकल ज़्यादातर इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं में   सरकार का काम केवल ज़मीन देने तक ही सीमित रह गया है बाकी  सब कुछ तो निजी कंपनी करती है . यह भी सच है कि उसका लाभ भी निजी कंपनी ही लेती है और आम जनता उसमें आर्थिक बोझ के नीचे दबती जाती  है लेकिन पूंजीवादी माडल  के आर्थिक विकास को अपना चुकी यू पी ए सरकार के लिए जनता का हित आर्थिक विकास में कोई ख़ास प्राथमिकता नहीं रखता .

अभी तक ज़्यादातर बुनियादी ढाँचे वाले  पी पी पी प्रोजेक्ट  निजी  कंट्रोल में ही हैं . अब तो सड़कें ,रेल,बन्दरगाह ,हवाई अड्डे आदि भी निजी कंपनियों के हवाले कर दिए गए हैं .प्रधान मंत्री ने आज जो मंजूरी दी है उसके बाद अब अगर सरकारी नियम के अनुसार मंत्रालय के अधीन आने वाली ज़मीन  सार्वजनिक क्षेत्र की  कंपनियों को दी जा सकेगी. अगर कोई भी प्रस्ताव पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप अप्रूवल कमेटी के ज़रिये आयेगा और उस प्रस्ताव को सम्बंधित मंत्री की मंजूरी होगी तो उसे पी पी पी कंपनी को देने में कोई दिक्क़त नहीं आयेगी. आज के बाद अब रेलवे के पास जो ज़मीन का बहुत भारी ज़खीरा है वह भी पी पी पी  वालों को देने  में कोई दिक्क़त नहीं आयेगी. इस काम की शुरुआत बहुत पहले कर ली गयी थी जब तत्कालीन रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने रेल लैंड डेवलपमेंट अथारिटी बनाकर यह काम चालू कर दिया था अब  प्रधान मंत्री की मंजूरी के बाद पी पी पी के नाम पर रेलवे की कोई भी ज़मीने निजी कमपनियों को आसानी से दी जा सकेगी  . सरकार ने दावा किया है कि इसके बाद  पी पी पी माडल वाले ढांचागत उद्योगों में बहुत तेज़ी से प्रगति होगी.