Thursday, March 10, 2011

वे शिक्षकों को मारते क्यों हैं ?

शेष नारायण सिंह

मध्यप्रदेश में खंडवा के गवर्नमेंट कालेज के एक प्रोफेसर को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के सदस्यों ने दौड़ा दौड़ा कर पीटा. उसका चेहरा काला किया और उसे लात घूंसों और जूतों से मारा . जान बचाने के लिए जब वह अध्यापक भाग कर प्रिंसिपल के आफिस में छुप गया तो वहां से भी घसीट कर बाहर लाये और उसको अधमरा कर दिया . संतोष की बात यह है कि वह अभी जिंदा है वरना इसी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् यानी ए बी वी पी के सदस्यों ने कुछ वर्ष पहले इंदौर में एक प्रोफ़ेसर को पीट पीट कर मार डाला था. इस में कुछ भी नया नहीं है . ए बी वी पी की मालिक संस्था आर एस एस है और वहां मतवैभिन्य के लिए कोई स्पेस नहीं होता . उज्जैन के एक कालेज में २००६ में छात्रसंघ चुनावों के विवाद में ए बी वी पी वालों ने अपने ही कालेज के शिक्षकों को घेर कर मारा जिसमें राजनीति शास्त्र के प्रोफ़ेसर , सभरवाल की मृत्यु हो गयी.उज्जैन में उस वक़्त तैनात जिलाधिकारी, नीरज मंगलोई ने कहा था कि पुलिस और प्रशासन उस मामले की छानबीन कर रहा है . बाद में पुलिस ने अदालत में इतना कमज़ोर केस प्रस्तुत किया कि सभी अभियुक्त बरी हो गए . मौजूदा केस में भी खंडवा के पुलिस अधीक्षक , आर के शिवहरे ने कहा है कि बुधवार को प्रो. चौधरी ने एक शिकायत की जिसमें उन्होंने कहा कि ए बी वी पी के सदस्यों ने उन्हें मारा पीटा . उन्होंने कहा कि मामला दर्ज हो गया है और जांच के बाद ज्यादा जानकारी दी जा सकेगी. इस पुलिस वाले के बयान और २००६ में उज्जैन के कलेक्टर के बयान में भारी समानता है . इसी तरह के बयान गुजरात में भी लगभग हर जिलाधिकारी और पुलिस कप्तान ने फरवरी २००२ में दिया था जहां मोदी के गिरोह के लोगों ने मुसलमानों को घेर घेर कर मारा था .मध्य प्रदेश से लगातार इस तरह की शिकायतें मिल रही हैं . ज़्यादातर मामले तो पुलिस तक पंहुचते ही नहीं लेकिन जो थोड़े बहुत पंहुचते हैं उन्हें देखकर लगता है वहां भी हालात गुजरात जैसे ही हो गए हैं . गुजरात में तो नरेंद्र मोदी के गैंग के लोग दावा करने लगे हैं कि राज्य का मुसलमान मोदी जी को अपना असली नेता मानने लगा है . ज़ाहिर है कि वहां इतनी दहशत है कि किसी की हिम्मत नहीं है कि वह मुख्यमंत्री के खिलाफ अपने लोकतांत्रिक विरोध को व्यक्त कर सके . गुजरात की तरह ही मध्य प्रदेश में भी में ए बी वी पी के लोग बहुत ही मनबढ़ हो गए हैं . उनका अपना बंदा राज्य का मुख्यमंत्री है , ज़ाहिर है वह भी ए बी वी पी वालों के साथ वैसा ही आचरण करता है जैसा गुजरात में आर एस एस के प्रमुख संगठनों के कार्यकर्ताओं के साथ नरेंद्र मोदी करते हैं . खंडवा की घटना में भी ए बी वी पी के छात्रों ने लगभग वैसा ही आचरण किया जैसा गुजरात में वी एच पी और बजरंग दल वालों ने फरवरी २००२ में किया था जब गोधरा के ट्रेन हादसे के बाद उन लोगों ने पूरे राज्य में मुसलमानों को अपमानित किया था और उनकी सामूहिक हत्या की थी.

मध्य प्रदेश की यह घटना भी किसी योजना का हिस्सा लगती है .पिछले कुछ वर्षों में मध्य प्रदेश में कई प्रोफेसरों पर हमले किये गए. शिक्षा संस्थाओं पर भी खूब हमले हो रहे हैं .उजैन के प्रोफ़ेसर सभरवाल की हत्या का मामला बहुत ज्यादा चर्चा में आ गया था . यहाँ तक कि ऊपरी अदालतों के आदेश के बाद मामला मध्य प्रदेश के बाहर नागपुर ले जाया गया था लेकिन शुरुआत इंदौर में ही राज्य सरकार के दबाव में पुलिस ने केस को इतना कमज़ोर कर दिया था कि सभी अभियुक्त बरी हो गए थे.. जुलाई २००९ में ए बी वी पी वालों ने जबलपुर के एक निजी संस्थान पर हमला किया और जान माल को नुकसान पंहुचाया . आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों पर हो रहे हमलों के खिलाफ आन्दोलन कर रहे ए बी वी पी के भाई लोग इस संस्थान में पंहुच गए और अपना गुस्सा उतारा. मतभेद को मारपीट से हल करने का जो तरीका है उसको ही राजनीतिशास्त्र में तानाशाही कहते हैं . दुनिया जानती है कि आर एस एस की राजनीति मूल रूप से तानाशाही की राजनीति है जो नीत्शे और माज़िनी के दर्शनशास्त्र पर आधारित है . हिटलर ने इसी सिद्धांत को अपनाया था . आर एस एस ने हमेशा ही हिटलर को सम्मान की नज़र से देखा है . आर एस एस के तत्कालीन सर संघचालक , माधव सदाशिव गोलवलकर की नागपुर के भारत पब्लिकेशन्स से प्रकाशित किताब, " वी ,आर अवर नेशनहुड डिफाइंड " के 1939 संस्करण के पृष्ठ 37 पर श्री गोलवलकर ने लिखा है कि हिटलर एक महान व्यक्ति है और उसके काम से हिन्दुस्तान को बहुत कुछ सीखना चाहिए और उसका अनुसरण करना चाहिए . दुनिया के किसी भी सभ्य समाज में हिटलर को अपना पूर्वज बताकर कोई भी गर्व नहीं कर सकता . लेकिन आर एस एस के लिए हिटलर आदर्श पुरुष हैं . इसलिए मध्य प्रदेश में छात्रों की असहिष्णुता आर एस एस की मूल राजनीतिक सोच पर ही आधारित मानी जायेगी. इसी विचार धारा को १९३० के दशक में मुसोलिनी ने इटली में लागू किया था. माज़िनी ने वी डी सावरकर बहुत प्रभावित हुए थे और उसकी किताब न्यू इटली को ही उन्होंने अपनी किताब " हिन्दुत्व " का आदर्श बनाया . उनकी किताब हिंदुत्व को लागू करने के लिए जिन पांच लोगों ने १९२५ में नागपुर में आर एस एस की स्थापना की वे सभी सावरकर से बहुत प्रभावित थे और उनके विचारों को लागू करने के लिए ही आर एस एस की स्थापना की गयी. ऐसी तानाशाही बुनियाद वाले संगठनों से और कोई उम्मीद नहीं की जानी चाहिए . इनका केवल एक ही इलाज है कि संघी विचारधारा का वैचारिक स्तर पर हर जगह विरोध किया जाए . अगर इस काम को फ़ौरन शुरू न कर दिया गया तो देश धीरे धीरे हिटलरशाही सत्ता की तरफ बढ़ जाये़या .सभी जानते हैं कि एक बार हिटलरशाही के कायम हो जाने के बाद उसे हटा पाना बहुत मुश्किल होता है

Wednesday, March 9, 2011

कांग्रेस ने बनाया दिल्ली को अपराध की राजधानी

शेष नारायण सिंह

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के दिन दिल्ली विश्वविद्यालय की एक छात्रा की उसके कालेज के सामने ही सरे आम गोली मार कर हत्या कर दी गयी .इस घटना ने एक बार फिर इस बात को रेखांकित कर दिया है कि दिल्ली भारत की राजनीतिक राजधानी होने के साथ साथ आपराधिक राजधानी भी है . दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने इस मामले में पीड़ित परिवार के घर जाकर राजनीतिक पेशबंदी शुरू कर दी है . आज उन्होंने मारी गयी लड़की के परिवार को दिलासा दिलाई और भरोसा दिया कि वे परिवार को न्याय दिलायेगीं . इसके पहले, कल उन्होंने इस घटना पर बहुत दुख व्यक्त किया था और बताया था कि दिल्ली में महिलाओं की आबरू सुरक्षित नहीं है. . शीला दीक्षित दिल्ली की मुख्यमंत्री हैं और उनका मौक़े पर पंहुचना बिलकुल सही है . लेकिन पिछले दो दिन से इस विषय पर चल रहे उनके बयान बहुत अजीब लगते हैं . सवाल पैदा होता है कि जब वे खुद दिल्ली की मुख्यमंत्री हैं और उनकी पार्टी की ही केंद्र में सरकार है तो एक राजनेता के रूप में क्या उनके पास इस बात का नैतिक अधिकार है कि वे पीड़ित के परिवार वालों के घर जाएँ और वहां राजनीतिक स्कोर बढायें. सच्ची बात यह है कि उनको अपनी पार्टी की बड़ी नेता सोनिया गाँधी के पास जाना चाहिए था और उनसे प्रार्थना करनी चाहिए थी कि जिस दिल्ली की वे मुख्यमंत्री हैं , उसे सुरक्षित करवाने में उनका साथ दें . केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय के पास दिल्ली पुलिस का ज़िम्मा है . राज्य में कानून व्यवस्था का सारा काम दिल्ली पुलिस के पास ही है . शीला दीक्षित को चाहिए कि वे सोनिया गांधी से कहें वे कांग्रेस नेता और देश के गृहमंत्री, पी चिदंबरम को सुझाव दें कि दिल्ली वालों की ज़िंदगी से दहशत की मात्रा थोडा कम कर दें . यह काम केंद्र सरकार का है जो उसे चलाने वाली कांग्रेस पार्टी का राजनीतिक ज़िम्मा है . मारी गई लडकी के घर जाकर शीला दीक्षित इस बुनियादी ज़िम्मेदारी को टाल नहीं सकतीं . शीला दीक्षित ने कल ही कहा था कि दिल्ली में महिलायें सुरक्षित नहीं है . यह कह देने से उनकी ज़िम्मेदारी ख़त्म नहीं होती. दिल्ली शहर में कानून व्यवस्था की हालत बहुत खराब है . आज हेही खबर आई है कि एक प्रसिद्द वकील की माँ को बदमाशों ने मार डाला . आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली में लगभग रोज़ ही किसी न किसी महिला का क़त्ल होता है , आये दिन बच्चियों के रेप की खबरें अखबारों में छपती रहती हैं . सरकारी तंत्र के बाबू लोग हर हालात से बेखबर अपनी ज़िंदगी जीते रहते हैं . दिल्ली में लगभग रोज़ ही सडकों पर मार पीट और क़त्ल की खबरें आती रहती हैं . दुर्भाग्य यह है कि राजनीतिक पार्टियों के नेता इस समस्या को हल करने की दिशा में कोई कारगर क़दम नहीं उठाते.

जिस बच्ची की हत्या के बारे में उसके मातापिता से मिलने शीला दीक्षित गयी थीं , उसकी हत्या के मामले को आज लोक सभा में बीजेपी के नेता शाहनवाज़ हुसैन ने भी उठाया .उन्होंने कहा कि दिल्ली अपराध की राजधानी बन गयी है और उनकी पार्टी के नेताओं ने शेम शेम के नारे लगाए . सवाल उठता है कि क्या दिल्ली में चारों तरफ फैले हुए अपराध को इस तरह से संभाला जा सकता है . क्या अपराध पर राजनीतिक बयान बाज़ी का सहारा लेकर काबू किया जा सकता है .ज़ाहिर है राजनीतिक स्कोर कार्ड में नंबर बढाने की नेताओं की आदत से दिल्ली का कुछ भी नहीं बनने वाला है . इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए और वह राजनीतिक इच्छाशक्ति दोनों ही मुख्य पार्टियों की ओर से आनी चाहिए . यह समस्या वास्तव में अब राजनीतिक समस्या नहीं रही . दिल्ली के अपराध अब बाकायदा सामाजिक मुद्दा बन चुका है . आजकल पूरे देश में अपराध करना फैशन हो गया है . इसका कारण शायद यह है कि भारी बेकारी का शिकार नौजवान जब देखता है कि उसके साथ ही काम करने वाला कोई आदमी राजनीति में प्रवेश करके बहुत संपन्न बन गया तो वह भी राजनीति की तरफ आगे बढ़ता है . दिल्ली में संगठित राजनीतिक अपराध १९८४ के सिख विरोधी दंगों के दौरान शुरू हुआ . सिखों के नरसंहार में दिल्ली की तत्कालीन कांग्रेस पार्टी के कई बड़े नेता शामिल थे . एच के एल भगत, सज्जन कुमार , जगदीश टाइटलर, धर्म दास शास्त्री , अर्जुन दास, ललित माकन आदि ने अपने अपने इलाकोंमें सिखों की हत्या की योजना को सुपरवाईज़ किया था और बाद में सभी लोग कांग्रेस पार्टी के बड़े नेता बने रहे . कुछ तो संसद सदस्य या विधायक बने , कुछ मंत्री बने और जब तक कांग्रेस सत्ता में रही इन लोगों के खिलाफ कोई जांच नहीं हुई . दिल्ली में रहने वाले वे लड़के जिन्होंने १९८४ में इन नेताओं को लोगों को मारते और ह्त्या के लिए अपने कार्यकर्ताओं को उकसाते देखा है , उन्हें शायद लगा हो कि अपराध करने से फायदा होता है. १९८५ से १९८९ तक जब तक कांग्रेस का राज रहा यह सारे अपराधी नेता ताक़तवर बने रहे . .लगता है कि दिल्ली में अपराधी मानसिकता को बढ़ावा देने में इस दौर का सबसे बड़ा योगदान है . १९८४ के बाद दिल्ली में ज़्यादातर अपराधी कांग्रेस में भर्ती हो गए थे . बाद में जब बीजेपी सत्ता में आई तो यह सभी लोग बीजेपी की तरफ चले गए थे और अपने आपराधिक इतिहास की कमाई की रोटी खाने लगे थे . हालांकि आजकल १९८४ के अपराधियों के खिलाफ कुछ कार्रवाई होती दिख रही है लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है . ज़्यादातर लोग या तो मर गए हैं या पूरे पचीस साल तक सत्ता का सुख भोग चुके हैं . इसलिए अगर दिल्ली को पूरी तरह से अपराधमुक्त करना है तो शीला दीक्षित को चाहिए कि दिल्ली विश्वविद्यालय की उस बच्ची की मौत से राजनीतिक लाभ लेने की इच्छा को दफ़न कर दें और दिल्ली राज्य को अपराधियों से मुक्त करने की कोई कारगर योजना बनाएं और अपनी पार्टी के लोगों से कहें वे उसमें उनका सहयोग करें जिस से दिल्ली में अपराधहीन राजनीतिक तंत्र की स्थापना के लिए पहल की जा सके.

करूणानिधि को धमकाने के लिए कांग्रेस ने 2जी घोटाले की तलवार का इस्तेमाल किया

शेष नारायण सिंह

तमिलनाडु की पार्टी ,द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम से पिंड छुडाने की कांग्रेस पार्टी की कोशिश ने दिल्ली में राजनीतिक उथल पुथल पैदा कर दी है . शुरू में तो डी एम के वालों को लगा कि मामला आसानी से धमकी वगैरह देकर संभाला जा सकता है लेकिन बात गंभीर थी और कांग्रेस ने डी एम के को अपनी शतरें मानने के लिए मजबूर कर दिया . कांग्रेस को अब तमिलनाडु विधान सभा में ६३ सीटों पर लड़ने का मौक़ा मिलेगा लेकिन कांग्रेस का रुख देख कर लगता है कि वह आगे भी डी एम के को दौन्दियाती रहेगी. यू पी ए २ के गठन के साथ ही कांग्रेस ने डी एम के को औकात बताना शुरू कर दिया था लेकिन बात गठबंधन की थी इसलिए खींच खांच कर संभाला गया और किसी तरह सरकार चल निकली . लेकिन यू पी ए के बाकी घटकों और कांग्रेसी मंत्रियों की तरह ही डी एम के वालों ने भी लूट खसोट शुरू कर दिया बाकी लोग तो बच निकले लेकिन डी एम के के नेता और संचार मंत्री ,ए राजा पकडे गए . उनके चक्कर में बीजेपी और वामपंथी पार्टियों ने डॉ मनमोहन सिंह को ही घेरना शूरू कर दिया . कुल मिलाकर डी एम के ने ऐसी मुसीबत खडी कर दी कि कांग्रेस भ्रष्टाचार की राजनीति की लड़ाई में हारती नज़र आने लगी. राजा को हटाया गया लेकिन राजा बेचारा तो एक मोहरा था. भ्रष्टाचार के असली इंचार्ज तो करुणानिधि ही थे. उनकी दूसरी पत्नी और बेटी भी सी बी आई की पूछ ताछ के घेरे में आने लगे. तमिलनाडु में डी एम के की हालत बहुत खराब है लेकिन करूणानिधि को मुगालता है कि वे अभी राजनीतिक रूप से कमज़ोर नहीं हैं . लिहाजा उन्होंने कांग्रेस को विधान सभा चुनावो के नाम पर धमकाने की राजनीति खेल दी .कांग्रेस ने मौक़ा लपक लिया . कांग्रेस को मालूम है कि डी एम के के साथ मिलकर इस बार तमिलनाडु में कोई चुनावी लाभ नहीं होने वाला है . इसलिए उसने सीट के बँटवारे को मुद्दा बना कर डी एम के को रास्ता दिखाने का फैसला कर लिया लेकिन डी एम के को गलती का अहसास हो गया और अब फिर से सुलह की बात शुरू हो गयी . डी एम के के नेता अभी सोच रहे है कि कुछ विधान सभा की अतिरिक्त सीटें देकर कांग्रेस से करूणानिधि के परिवार के लोगों के खिलाफ सी बी आई का शिकंजा ढीला करवाया जा सकता है . लेकिन खेल इतना आसान नहीं है . कांग्रेस ने बहुत ही प्रभावी तरीके से करूणानिधि एंड कंपनी को औकात बोध करा दिया है . उत्तर प्रदेश के २२ संसद सदस्यों वाले दल के नेता मुलायम सिंह यादव ने ऐलान कर दिया है कि वे कांग्रेस को अंदर से समर्थन करने को तैयार हैं . यह अलग बात है कि कांग्रेस को उनके समर्थन की न तो ज़रुरत है और न ही उसने मुलायम सिंह यादव से समर्थन माँगा है . लेकिन मुलायम सिंह यादव को अपनी पार्टी एकजुट रखने के लिए कहीं भी सत्ता के करीब नज़र आना है . सो उन्होंने वक़्त का सही इस्तेमाल करने का फैसला किया . कांग्रेस की अगुवायी वाली सरकार को २१ सदस्यों वाली बहुजन समाज पार्टी का समर्थन भी बाहर से मिल रहा है जयललिता भी करूणानिधि को बेघर करने के लिए यू पी ए को समर्थन देने को तैयार है . ऐसी हालत में कांग्रेस और डी एम के सम्बन्ध निश्चित रूप से राजनीति की चर्चा की सीमा पर कर गए हैं और प्रहसन के मुकाम पर पंहुच गए हैं .

Friday, March 4, 2011

दिल्ली उर्दू अकादमी की ओर से एक औरत के अज़्म को सम्मान

शेष नारायण सिंह

दिल्ली सरकार की उर्दू अकादमी की ओर से आज एक ऐसी महिला का सम्मान किया जा रहा है,जिन्होंने मुसीबतों को हर मोड़ पर चुनौती दी है. दिल्ली के समाज के निर्माण में उनका खुद का और उनके परिवार का बहुत बड़ा योगदान है .कमर आज़ाद हाशमी का जन्म ४ मार्च १९२६ को झांसी में हुआ था.उनके पिता अज़हर अली आज़ाद उर्दू और फारसी के विद्वान थे.उनकी माँ जुबैदा खातून, दहेज़ के खिलाफ सक्रिय थीं कई भाषाओं की जानकार थीं, घुड़सवारी करती थीं और राइफल चलाना जानती थीं. उनकी ससुराल के लोग दिल्ली की राजनीति में सक्रिय थे. उनके पति की माँ , बेगम हाशमी नैशनल फेडरेशन आफ इन्डियन वीमेन की संस्थापक अध्यक्ष थीं. मुल्क के बँटवारे के वक़्त ऐसे हालात बने के कमर आज़ाद हाशमी को अपने माता पिता के साथ पाकिस्तान जाना पड़ा. वहां वे पाकिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव , सज्जाद ज़हीर से मिलीं. सज्जाद ज़हीर को कम्युनिस्ट पार्टी ने पाकिस्तान भेजा था जहां उन्हें पार्टी का गठन करना था . उन्हने मालूम था कि कमर की शादी हनीफ हाशमी से होने वाली थी. उन्होंने कमर को कहा कि वापस जाओ और हनीफ से शादी करके उसे भी पाकिस्तान लाओ जिस से वहां वामपंथी आन्दोलन को ताक़त दी जा सके. कमर आज़ाद हाशमी जब दिल्ली आयीं तो शादी तो उन्होंने हनीफ हाशमी से कर ली लेकिन वापस जाने की बात ख़त्म कर दी. बाद में स्व सज्जाद ज़हीर भी वापस हिन्दुस्तान आ गये.
कमर आज़ाद हाशमी ने अपनी पहली किताब ६९ साल की उम्र में लिखी . अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में उनकी पढाई पर ब्रेक लग गयी थी क्योंकि १९४७ के तकसीम ए मुल्क ने सब कुछ बदल दिया था .उन्होंने सत्तर साल की उम्र में एम ए करने का फैसला किया और किया भी. मजदूरों के हक के लिए लड़ते हुए उनके ३४ साल के बेटे को दिल्ली के पास साहिबाबाद में गुंडों ने मार डाला लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी . उस दिन उन्होंने दुःख में डूबे उसके साथियों का हौसला बढ़ाया था और कहा कि साथियो उठ खड़े हो और रोशनी फैलाने का काम जारी रखो क्योंकि अँधेरे के परदे को रोशनी से ही खत्म किया जा सकता है .उनके बेटे का नाम सफ़दर हाशमी था और आज उसे पूरी दुनिया में लोग जानते हैं . कमर आज़ाद हाशमी के सफ़दर के अलावा चार और बच्चे हैं. इन्होने अपने सभी बच्चों के अंदर पता नहीं क्या भर दिया है कि उनमें से कोई भी अन्याय के खिलाफ मोर्चा संभालने में एक मिनट नहीं लगाता . इनकी सबसे छोटी औलाद शबनम हाशमी हैं जिन्होंने गुजरात नरसंहार २००२ के बाद दर्द की तूफ़ान को झेल रहे हर गुजराती मुसलमान को ढाढस बंधाया और उसके साथ खडी रहीं.शबनम ने बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद संघी ताक़तों का मुकाबला किया और देश में सेकुलर जमातों को एकजुट किया. इनके बड़े बेटे सुहेल हाशमी हैं जो दिल्ली की विरासत के सबसे बड़े जानकारों में गिने जाते हैं . जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के लोकतांत्रिक रूप को स्थापित करने में सुहेल का बड़ा योगदान है .इनकी दो और बेटियाँ हैं जिन्होंने स्कूल टीचर के रूप में दिल्ली के दो नामी स्कूलों में काम किया और अपने विषय को बहुत ही लोकप्रिय बनाया . अपने बच्चों को कमर आज़ाद हाशमी ने बेहतर इंसान बनने की ट्रेनिंग अच्छी तरह से दे रखी है .दिल्ली में नर्सरी शिक्षा को एक सम्मानजनक मुकाम तक पंहुचाने में कमर आज़ाद हाशमी का ख़ास योगदान है .

मुल्क के बँटवारे के बाद से दिल्ली और अलीगढ के बीच उन्होंने वक़्त की हर मार को झेला और अपने बच्चों को मज़बूत इंसान बनाया. उनके छोटे बेटे सफ़दर को १९८९ में मार डाला गया . उसकी याद में ही सामाजिक बदलाव और सांस्कृतिक हस्तक्षेप का मंच ,सहमत बनाया गया . शुरू में सहमत का संचालन उनकी छोटी बेटी शबनम हाशमी ने किया . बाद में शबनम ने अनहद का गठन किया जो शोषित पीड़ित जनता की लड़ाई का एक प्रमुख मोर्चा है . सहमत और अनहद से जुड़े ज़्यादातर लोग कमर आज़ाद हाशमी को अम्माजी कहते हैं .सफ़दर को विषय बनाकर अम्माजी ने एक किताब भी लिखी जिसका नाम है "पांचवां चिराग़ " . यह किताब कई भाषाओं में छप चुकी है . घोषित रूप से तो यह सफ़दर की जीवनी है लेकिन वास्तव में यह बीसवीं सदी में हो रहे बदलाव का एक आइना है . यह किताब उस औरत के अज़्म की कहानी है जिसका जवान बेटा राजनीतिक कारणों से शहीद कर दिया गया था,. इस किताब में चारों तरफ बिखरे हुए सपने पड़े हैं ,उम्मीदें हैं और हौसले हैं . इस किताब को पढने के बाद लगता है कि एक औरत अगर तय कर ले तो मुसीबतें कहीं नहीं ठहरेगीं. अम्माजी को बहुत सारे सम्मान मिले हैं और आज भी काम करने का ज़ज्बा ऐसा है कि अगले बीस साल तक के लिए प्लान बना चुकी हैं .
आजकल दिल्ली में अपनी छोटी बेटी शबनम हाशमी के साथ रहती हैं और अनहद के काम में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती हैं . अपने वालिद की फारसी ग़ज़लों और नज्मों का एक संकलन प्रकाशित कर चुकी है और दूसरे संकलन के बारे में काम चल रहा है.आज भी उनके पास बैठने पर लगता है कि काम करने का अगर हौसला हो तो बाकी चीज़ें अपने आप दुरुस्त हो जायेगीं.

Thursday, March 3, 2011

नरेंद्र मोदी और भागवत ने फिर किया महात्मा गाँधी की विरासत पर दावा

शेष नारायण सिंह

नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर महात्मा गाँधी का नाम लिया और उन्हें दूरदर्शी और मौलिक चिन्तक बताया .उन्होंने दावा किया कि मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने महात्मा गाँधी के कुछ सपनों को पूरा कर दिया है . गोधरा की बरसी पर आयोजित एक कार्यक्रम में आर एस एस के मुखिया मोहन भागवत की मौजूदगी में उन्होंने कहा कि अगर गाँधी जी होते तो इस बात से बहुत खुश होते कि गुजरात के हर गाँव में बिजली पंहुच चुकी है .मोदी ने लोगों से आग्रह किया कि महात्मा गाँधी की मूल किताबों को पढने की ज़रुरत है.संक्षिप्त संस्करण पढने से पूरा ज्ञान नहीं मिलता. हालांकि महात्मा गाँधी का जीवन और काम ऐसा है जिसकी कसौटी पर कसने पर नरेंद्र मोदी का हर आचरण फेल हो जाएगा लेकिन आर एस एस और बीजेपी के इतिहास में किसी भी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के के न होने के दर्द को झेल रहे संघी संगठनों को महात्मा गाँधी को अपना लेने की जल्दी पड़ी रहती है . महात्मा गाँधी की पार्टी , कांग्रेस के लोग आजकल एक अन्य गाँधी को महान बनाने के अभियान में लगे रहते हैं इसलिए भी आर एस एस को महात्मा गाँधी की विरासत को अपना लेने में आसानी होती नज़र आने लगी है . यह शायद इसलिए होता है कि हर संगठन को अपने इतिहास में ऐसे लोगों की ज़रुरत पड़ती है जिनके काम पर गर्व किया जा सके. आर एस एस के पास ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके ऊपर आज़ादी की लड़ाई के हवाले से गर्व किया जा सके. उनकी स्थापना 1925 में हुई थी. इतिहासकारों का एक वर्ग मानता है कि आर एस एस की स्थापना अंग्रेजों के आशीर्वाद से हुई थी और महात्मा गाँधी के नेतृत्व में 1920 के आन्दोलन में जो हिन्दू-मुस्लिम एकता की मिसाल कायम हुई थी ,उसी को तोड़ने के लिए इस संगठन की स्थापना करवाई गयी थी. आर एस एस की विचारधारा वी डी सावरकर की किताब, " हिंदुत्व " को आधार मानती है . यह किताब भी सावरकर ने आर एस एस की स्थापना के एक साल पहले लिखी थी . आर एस एस के संस्थापक डॉ हेडगेवार ने महात्मा गाँधी के नेतृत्व वाले 1920 के आन्दोलन में में हिस्सा लिया था और जेल भी गए थे .कलकत्ता में अपनी डाक्टरी की पढाई के दौरान उन्होंने कांग्रेस के आन्दोलनों में भी हिस्सा लिया था लेकिन जब वे वी डी सावरकर के संपर्क में आये तो उनकी हिन्दुत्व की विचारधारा से बहुत प्रभावित हुए और राजनीतिक हिंदुत्व के ज़रिये सत्ता हासिल करने की सावरकर की कोशिश के साथ चल पड़े. . इटली के फासिस्ट राजनीतिक चिन्तक ,माज़िनी की किताब " न्यू इटली "के बहुत सारे तर्क सावरकर की किताब 'हिंदुत्व " में मौजूद . जानकार कहते हैं कि जब 1920 में अंग्रेजों ने सावरकर को माफी दी थी तो उनसे एक अंडरटेकिंग लिखवा ली थी कि वे माफी मिलने के बाद ब्रिटिश इम्पायर के हित में ही काम करेगें . भारत में हिन्दू-मुस्लिम एकता को खंडित करना ऐसा ही एक काम था . लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध तक बात बदल चुकी थी . आर एस एस के लोग देश में चल रही आज़ादी की लड़ाई में शामिल नहीं थे . हाँ अंग्रेजों का कोई विरोध भी नहीं कर रहे थे. जबकि महात्मा गांधी के नेतृत्व में पूरा देश आज़ादी की बात कर रहा था. जिन्ना के साथी और आर एस एस वाले गाँधी के आन्दोलन के खिलाफ थे. 1930 और 1940 के दशक भारत की आज़ादी के लिहाज़ से बहुत ही महत्वपूर्ण हैं. इस दौर में आज़ादी के पक्षधर सभी नेता जेलों में थे लेकिन मुस्लिम लीग के जिन्ना के सभी साथी और आर एस एस के एम एस गोलवलकर और उनके सभी साथी एक दिन के लिए भी जेल नहीं गए. ज़ाहिर है कि आर एस एस और उसकी राजनीति के आधार पर राजनीति करने वालों के लिए आज़ादी के लड़ाई में अपने हीरो तलाशना बहुत ही मुश्किल काम है . महात्मा गाँधी की विरासत को अपनाने की कोशिश इसी समस्या के हल के रूप में की जाती है . लेकिन बात बनती नहीं क्योंकि जैसे ही आर एस एस वाले महात्मा गाँधी को अपनाने की कोशिश करते हैं, कहीं से कोई आदमी आर एस एस के तत्कालीन सर संघचालक , माधव सदाशिव गोलवलकर की नागपुर के भारत पब्लिकेशन्स से प्रकाशित किताब, " वी ,आर अवर नेशनहुड डिफाइंड " के 1939 संस्करण के पृष्ठ 37 का अनुवाद छाप देता है जिसमें श्री गोलवलकर ने लिखा है कि हिटलर एक महान व्यक्ति है और उसके काम से हिन्दुस्तान को बहुत कुछ सीखना चाहिए और उसका अनुसरण करना चाहिए . ज़ाहिर है कि दुनिया के किसी भी सभ्य समाज में हिटलर के प्रशंसकों को अपना पूर्वज बताकर कोई भी गर्व नहीं कर सकता . महात्मा गाँधी को अपनाने की नरेंद्र मोदी और मोहन भागवत की कोशिश को इसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए. आर एस एस ने इसके पहले भी इस तरह की कोशिश की है . एक बार तो सरदार भगत सिंह को ही अपना बनाने की कोशिश की गयी लेकिन जब पता लगा कि सरदार भगत सिंह तो कम्युनिस्ट थे तो वह कार्यक्रम बंद किया गया . वी.डी. सावरकर को आजादी की लड़ाई का हीरो बनाने की कोशिश की गई, जब संघ परिवार की केंद्र में सरकार बनी तो सावरकर की तस्वीर संसद के सेंट्रल हाल में लगाने में सफलता भी हासिल की गई लेकिन बात बनी नहीं क्योंकि 1910 तक के सावरकर और ब्रिटिश साम्राज्य से मांगी गई माफी के बाद आजाद हुए सावरकर में बहुत फर्क है और पब्लिक तो सब जानती है.सावरकर को राष्ट्रीय हीरो बनाने की बीजेपी की कोशिश मुंह के बल गिरी . इस अभियान का नुकसान बीजेपी को बहुत हुआ क्योंकि जो लोग नहीं भी जानते थे, उन्हें पता लग गया कि वी.डी. सावरकर ने अंग्रेजों से माफी मांगी थी और ब्रिटिश साम्राज्य की सेवा करने का वचन दिया था . जब संसद में सावरकर की तस्वीर लगाने के मामले पर एन.डी.ए. सरकार की पूरी तरह से दुर्दशा हो गई तो सरदार पटेल को अपनाने की कोशिश शुरू की गई. वैसे सरदार पटेल को अपनाने की आर.एस.एस. की हिम्मत की दाद देनी पडे़गी क्योंकि आर.एस.एस. को अपमानित करने वालों की अगर कोई लिस्ट बने तो उसमें सरदार पटेल का नाम सबसे ऊपर आएगा .सरदार पटेल ने ही महात्मा गांधी की हत्या वाले केस में आर.एस.एस. पर पाबंदी लगाई थी और उसके मुखिया गोलवलकर को गिरफ्तार करवाया था . जब हत्या में गोलवलकर का रोल सिद्ध नहीं हो सका तो उन्हें छोड़ देना चाहिए था लेकिन सरदार ने कहा कि तब तक नहीं छोड़ेंगे जब तक वह अंडरटेकिंग न दें. आर एस एस ने एक बार गुजराती होने के हवाले से महात्मा गाँधी को अपनाने की कोशिश शुरू कर दी है . महात्मा गाँधी आज दुनिया भर में सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं , उन्हें गुजरात की सीमा में सीमित करना बहुत ही संकीर्णता होगी

गोधरा ट्रेन हादसे की सी बी आई जांच की मांग , फैसले के खिलाफ माहौल बनना शुरू

शेष नारायण सिंह

गोधरा में एक ट्रेन के डिब्बे में लगी आग के बारे में जो फैसला आया है उससे सिविल सोसाइटी के लोग बहुत नाराज़ हैं मुंबई के विद्वान् और धर्मनिरपेक्ष चिन्तक, असगर अली इंजीनियर ने कहा है कि केस की जांच सही तरीके से नहीं हुई है लिहाज़ा इसकी जांच सी बी आई से करवाई जाए . अनहद की संयोजक और गुजरात में मुसलमानों को न्याय दिलवाने के लिए बड़े पैमाने पर सक्रिय ,शबनम हाशमी ने कहा है कि कि गुजरात पुलिस और उसके बाद सुप्रीम कोर्ट की ओर से तैनात सी बी आई के पूर्व निदेशक आर के राघवन की अगुवाई में एस आई टी ने जो जांच की है वह गड़बड़ है ,मामले की जांच सी बी आई से करवाई जानी चाहिए क्योंकि इस मामले में राघवन कमेटी ने भी एक तरह से गुजरात पुलिस की बात को ही सही ठहराकर सुप्रीम कोर्ट के हुक्म को पूरा कर दिया है . उनका आरोप है कि राघवन ने इस मामले की निष्पक्ष जांच नहीं की है . उनका कहना है कि निष्पक्ष जांच के बाद हो सकता है इस मामले की साज़िश में प्रवीण तोगड़िया ही शामिल पाए जाँए.

फरवरी २००२ में अयोध्या से वापस अहमदाबाद जाती हुई साबरमती एक्सप्रेस के एस-६ कोच में आग लग गयी थी और उसमें सवार सभी लोग मारे गए थे.गुजरात के पंचमहल जिले के गोधरा जंक्शन के पास यह हादसा हुआ था. एक ख़ास राजनीतिक बिरादरी के लोगों ने गोधरा कस्बे के मुसलमानों पर तुरंत आरोप लगाना शुरू कर दिया और भारत के इतिहास का सबसे बड़ा नरसंहार गुजरात के मुसलमानों ने झेला . ट्रेन के डिब्बे में लगी आग के बाद गुजरात के मुसलमानों पर भारी कहर बरपा हुआ . अब नौ साल बाद गोधरा का फैसला आया है .एक डिब्बे में आग लगाने के आरोप में पुलिस ने ९० से ज्यादा लोगों को अभियुक्त बनाया था जिसमें से अदालत ने ६३ लोगों को बरी कर दिया . ३१ लोगों को दोषी पाया गया था. अब सज़ा का फैसला आया है कि अभियुक्तों में से ११ लोगों को फांसी होगी और २० लोगों को आजीवन कारावास की सज़ा दी गयी है ..जानकार बताते हैं कि किसी भी मामले में ११ लोगों को फांसी की सज़ा देने का यह फैसला अपने आप में एक ख़ास घटना है . आम तौर पर इतने ज्यादा लोगों को फांसी की सज़ा नहीं होती. बहरहाल मामला अब अपील में जाएगा . विश्व हिन्दू परिषद् के नेता प्रवीण तोगड़िया ने कहा है कि ट्रायल कोर्ट ने जिन ६३ लोगों को बरी किया है , वह गलत है . उसके खिलाफ अपील की जायेगी.जिन लोगों को फांसी दी गयी है वह तो ठीक है लेकिन जिन्हें आजीवन कारावास की सज़ा मिली है,उसके खिलाफ भी अपील की जायेगी.और सब को फांसी दिलाई जाईए . प्रवीण तोगड़िया की बात को गंभीरता से लेने की ज़रुरत है.वह गुजरात की वर्तमान सरकार की विचारधारा के बहुत करीबी हैं और गुजरात के ज़्यादातर मामलों में उनकी राय का मह्त्व रहता है .

साबरमती एक्सप्रेस के एस -६ कोच में लगी आग एक दुखद घटना थी . अगर उसमें किसी साज़िश का पता लगता है तो वह और भी दुखद है . लेकिन गोधरा के अपराध के लिए किसी एक समुदाय को ज़िम्मेदार मानकर ,उसके लोगों को घेर घेर कर मारना और भी दुखद है . आने वाली नस्लें इस सारे काम के लिए उन लोगों को माफ़ नहीं करेगीं , जो इसके लिए जिम्मेदार हैं. इसलिए गोधरा और उसके बाद हुए नरसंहार के हर मामले की बहुत ही गंभीरता से जांच होनी चाहिए थी . लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि गोधरा में ट्रेन में लगी आग की जांच शुरू से ही शक़ के दायरे में रही है. गुजरात पुलिस की जांच पर पीड़ितों को और अभियुक्तों को भरोसा नहीं था . न्याय की उम्मीद में सुप्रीम कोर्ट में फ़रियाद की गयी सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद मार्च २००८ में विशेष जांच टीम बना दी गयी जिसका मुखिया सी बी आई के पूर्व निदेशक आर के राघवन को बनाया गया . राघवन ने शुरू में ही एक ऐसा फैसला ले लिया जिसकी वजह से बहुत ज्यादा हो हल्ला मच गया .उन्होंने नोएल परमार नाम के उस पुलिस अधिकारी को मुख्य जांच अधिकारी बना दिया कथित रूप से जिसके पक्षपात पूर्ण रवैय्ये की वजह से लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में न्याय की गुहार की थी . बाद में उसे हटा दिया गया लेकिन उसकी जगह पर उसी परमार के एक ख़ास आदमी को रख लिया . मोटे तौर पर राघवन कमेटी ने गुजरात पुलिस की जांच को ही आगे बढ़ाया . सच्चाई यह है कि वे महीने में तीन बार गुजरात जाते थे और गुजरात पुलिस के अधिकारियों को ही जांच में इस्तेमाल करते थे . मुसलमानों और सामाजिक संगठनों ने कई बार मांग की कि गुजरात पुलिस के बाहर के लोगों को जांच के काम में लगाया जाय लेकिन ऐसा नहीं हुआ. अब गोधरा में ट्रेन में लगी आग के मामले में साज़िश की बात करन एवालों के खिलाफ माहौल बन रहा है और उम्मीद है कि बहुत सारे और मामलों की तरह इस मामले की भी दोबारा जांच होगी और फिर उम्मीद की जानी चाहिए कि सभी पक्ष जांच और उसके बाद मिलने वाले न्याय से संतुष्ट हो जायेगें.

Tuesday, March 1, 2011

पाकिस्तान के आतंरिक मामलों में अमरीका की भारी दखल

शेष नारायण सिंह

पाकिस्तान अब अमरीका के चंगुल में बुरी तरह से फंस गया है और छूटने के लिए छटपटा रहा है.लेकिन पिछले साठ वर्षों से पाकिस्तानी हुकूमत को पाल रही अमरीकी विदेश नीति पाकिस्तान को आसानी से छोड़ने वाली नहीं है . जनरल अयूब खां से लेकर अब तक पाकिस्तान का हर तानाशाह अपने खुद के लिए और अपने देश के लिए अमरीका से खैरात लेता रहा है . ज़ाहिर है अमरीका अपने खरबों डालर को ऐसे ही नहीं डूबने देगा .पाकिस्तानी अवाम में अमरीकी दादागीरी के प्रति बहुत बड़ी नफरत का भाव है लेकिन हुकूमत के लोग चुप रहते हैं . अब लगता है कि हुकूमत को भी अपना रुख साफ़ करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है . पाकिस्तान की राजधानी लाहौर में दो लोगों के क़त्ल के आरोप में पकडे गए अमरीकी नागरिक रेमंड डेवीस की गिरफ्तारी के बाद मामला पब्लिक डोमेन में आया और रोज़ ही बिगड़ता जा रहा है. पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आई एस आई ने दावा किया है कि रेमंड डेवीस अमरीकी सी आई ए का एजेंट है और उसे ठेकेदारी का कवर देकर पाकिस्तानी सेना की गतिविधियों पर नज़र रखने को कहा गया था . आई एस आई ने मांग की है कि अमरीका अपने उन सभी सी आई ए एजेंटों के बारे में जानकारी दे जिन्हें उसने पाकिस्तान में ठेकेदार के रूप में काम करने के लिए तैनात किया है . पाकिस्तान का आरोप है कि सी आई ए ने बहुत बड़ी संख्या में अपने एजेंटों को पाकिस्तान में तैनात कर रखा है लेकिन उनके बारे में पाकिस्तानी अधिकारियों को कोई जानकारी नहीं है . अमरीका पाकिस्तान की इस बात को मानने को तैयार नहीं है . ताज़ा खबर यह है कि अमरीकी राष्ट्रपति के घर,व्हाईट हाउस से पाकिस्तान सरकार को चेतावनी दे दी गयी है कि रेमंड डेवीस अमरीकी राजनयिक है और उसे वियेना कन्वेंशन के नियमों अनुसार एक राजनयिक का सम्मान मिलना चाहिए .लेकिन पाकिस्तान सरकार के कुछ विभाग अपनी अकड़ में हैं. खबर है कि पेशावर से एक और अमरीकी नागरिक को गिरफ्तार कर लिया गया है . उस पर भी आई एस आई ने आरोप लगाया है कि वह जासूसी कर रहा था. वेस्ट वर्जीनिया का रहने वाले इस व्यक्ति का नाम मार्क देहावेन है लेकिन यह पेशावर में अहमद हारून बन कर रह रहा था .इन सारी घटनाओं का मतलब यह है कि पाकिस्तानी हुकूमत में कुछ ऐसे लोग हैं जो दोनों देशों के बीच के रिश्ते खराब करने पर आमादा है .

पाकिस्तान में और बाकी दुनिया में सभी जानते हैं कि पाकिस्तान की औकात अमरीका को चुनौती देने की नहीं है लेकिन पाकिस्तान की सरकार को यह रुख इसलिए लेना पड़ रहा है कि रेमंड डेवीस के मामले में पाकिस्तानी अवाम में अमरीका के खिलाफ बहुत गुस्सा है और उस गुस्से को काबू में करने के लिए पाकिस्तानी हुक्मरान अमरीका की अनुमति से अमरीका के खिलाफ सख्त रुख अपनाने का अभिनय कर रहे हैं. रेमंड देसस के मामले में पाकिस्तान में इतनी हडकंप का कारण यह है कि पाकिस्तान में फौज़ के आशीर्वाद से चलने वाले आतंकवाद का सबसे बड़ा सरगना, हाफ़िज़ मुहम्मद सईद खुद रेमंड डेवीस के मसले को तूल दे रहा है. हाफ़िज़ सईद का गुस्सा इसलिए भी सातवें आसमान पर है सी आई ए ने उसी पर नज़र रखने के लिए इस रेमंड डेवीस को तैनात किया था .यहाँ एक बात समझ लेने की है कि अमरीका ने पाकिस्तान की सरकार को यह आज़ादी भी नहीं दी है कि वह पाकिस्तानी अवाम के साथ खडी नज़र आये . अमरीकी फौज, सी आई ए और सिविलियन सरकार को पाकिस्तान में मौजूद अमरीका विरोध के माहौल को ख़त्म करने की पूरी ड्यूटी दी गयी है . जानकार बताते हैं कि अमरीकी विदेश विभाग ने साफ़ कह दिया है कि अगर पाकिस्तानी जनता के गुस्से को शांत करने में हुकूमत नाकाम रहती है तो भविष्य में खर्चा पानी मिलना बंद हो जाएगा . पाकिस्तानी राजनीति का कोई भी जानकार बता देगा कि अगर अमरीकी मदद मिलनी बंद हो जायेगी तो पाकिस्तान में भूखों मरने की नौबत आ जायेगी. अमरीकी राष्ट्रपति की ओर से मिली धमकी और पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था की खस्ता हालत को ध्यान में रखते हुए अब पाकिस्तानी खुफिया तंत्र के लोगों की समझ में आने लगा है कि अमरीका पर एक हद से ज्यादा दबाव नहीं डाला जा सकता .इस पृष्ठभूमि में पाकिस्तानी का रवैया थोडा लचीला हुआ है . पाकिस्तानी आई एस आई के एक अफसर ने वाशिंगटन पोस्ट के संवाददाता को बताया कि पाकिस्तान चाहता है कि अमरीकी उनके देश में जासूसी तो करें लेकिन उन्हने भी बराबरी की इज़्ज़त दें . गौर करने की बात यह है कि अमरीकी नागरिक, रेमंड डेवीस ने जिन दो पाकिस्तानी नागरिकों को गोली मारी थी वे भी पाकिस्तानी खुफिया तंत्र के कर्मचारी थे और वारदात के वक़्त रेमंड डेवीस का पीछा कर रहे थे. पारंपरिक रूप से आई एस आई और सी आई ए के बीच दोस्ताना रिश्ते रहे हैं . अगर रेमंड डेवीस ने किसी आम पाकिस्तानी नागरिक को मार डाला होता तो शायद पाकिस्तान सरकार को कोई एतराज़ न होता लेकिन आई एस आई के कर्मचारियों की ह्त्या के बाद मामला गरमा गया .. अगर पाकिस्तानी सरकार कोई एक्शन न लेती तो आई एस आई में ही बगावत के खतरे पैदा हो गए थे. बात को हल करने के लिए अमरीकी सेना के सभी विभागों के प्रमुखों की कमेटी के अध्यक्ष एडमिरल माइक मुलेन और पाकिस्तानी सेना के मुखिया जनरल अशफाक परवेज़ कयानी ने पिछले दिनों ओमान में मुलाक़ात की और समस्या का हल तलाशने की कोशिश की .पाकिस्तानी सेना के पूर्व प्रमुख जहांगीर करामत ने बताया कि दोनों ही सैन्य अधिकारियों ने मामले को रफा दफा करने की कोशिश की . सिद्धांत रूप में दोनों ही अफसरों में सहमति हो गयी हैं . अब बस यह देखा जा रहा है कि समझौता करने के लिए आई एस आई और जनरल कयानी अमरीकियों से कितना माल झटक सकते हैं . इसके अलावा डेवीस को रिहा करने के बदले पाकिस्तानी फौज की कोशिश है कि अमरीका की ब्रूकलिन कोर्ट में आई एस आई के पूर्व प्रमुख अहमद शुजा पाशा के खिलाफ दर्ज वह मामला भी ख़त्म हो जाए. अहमद शुजा पाशा के खिलाफ नवम्बर २००८ में मुंबई में हुए आतंकवादी हमले के सिलसिले में मुक़दमा दर्ज है . पाकिस्तानी हुकूमत के लिए रेमंड डेवीस को छोड़ना बहुत मुश्किल होगा क्योंकि पाकिस्तानी आतंकवादी संगठनों के आदि पुरुष हाफ़िज़ मुहम्मद सईद ने ऐसा माहौल बना दिया है कि पाकिस्तानी अवाम डेवीस को पाकिस्तान का सबसे बड़ा दुश्मन मानती है . लाहौर की सडकों पर हाफ़िज़ मुहम्म्द सईद के आशीर्वाद से रोज़ ही जुलूस निकाले जा रहे हैं और रेमंड डेवीस को फांसी देने की मांग की जा रही है . हाफ़िज़ सईद पाकिस्तान की फौजी राजनीति में बहुत ही प्रभावशाली व्यक्ति है . . कुल मिलाकर हालात ऐसे हैं कि पाकिस्तान और अमरीका के रिश्ते रेमंड डेवीस के चक्कर में ऐसे मुकाम पर पंहुच गए हैं जहां से बिना किसी नुक्सान के फिर से सामान्य रिश्ते कायम होना बहुत ही मुश्किल है

Sunday, February 27, 2011

अलविदा साथी अनिल , बहुत जल्दी क्यों चले गए ?

जाने-माने लेखक और पत्रकार अनिल सिन्हा का निधन हो गया. उन्होंने 25 फरवरी को दिन में 12 बजे पटना के मगध अस्पताल में अंतिम सांस ली. 22 फरवरी को जब वे दिल्ली से पटना आ रहे थे उसी दौरान ट्रेन में ब्रेन स्ट्रोक हुआ. उन्हें पटना के मगध अस्पताल में अचेतावस्था में भर्ती कराया गया. तीन दिनों तक जीवन और मौत से जूझते हुए अखिरकार कल उन्होंने अन्तिम सांस ली. उनका अन्तिम संस्कार पटना में ही होगा.

अनिल सिन्हा का जन्म 11 जनवरी 1942 को जहानाबाद, गया, बिहार में हुआ. उन्होंने पटना विश्वविद्दालय से 1962 में एम. ए. हिन्दी की परीक्षा पास की. विश्वविद्यालय की राजनीति और चाटुकारिता के विरोध में उन्होंने अपना पीएचडी बीच में ही छोड़ दिया. उन्होंने बाद में कई तरह के काम किये. प्रूफ रीडिंग, शिक्षण, विभिन्न सामाजिक विषयों पर शोध जैसे कार्य किये. 70 के दशक में उन्होंने पटना से ‘विनिमय’ साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया जो उस दौर की अत्यन्त चर्चित पत्रिका थी. आर्यवर्त, आज, ज्योत्स्ना, जन, दिनमान से वे जुड़े रहे. 1980 में जब लखनऊ से अमृत प्रभात निकलना शुरू हुआ उन्होंने इस अखबार में काम किया. अमृत प्रभात, लखनऊ में बन्द होने के बाद में वे नवभारत टाइम्स में आ गये.

दैनिक जागरण, रीवां के भी वे स्थानीय संपादक रहे. लेकिन वैचारिक मतभेद की वजह से उन्होंने वह अखबार छोड़ दिया. अनिल सिन्हा एक जुझारू और प्रतिबद्ध लेखक व पत्रकार रहे हैं. अनिल सिन्हा बेहतर, मानवोचित दुनिया की उम्मीद के लिए निरन्तर संघर्ष में अटूट विश्वास रखने वाले रचनाकार रहे हैं. वे मानते रहे हैं कि एक रचनाकार का काम हमेशा एक बेहतर समाज का निर्माण करना है, उसके लिए संघर्ष करना है. उनका लेखन इस ध्येय को समर्पित है.

उनके निधन की खबर से पटना, लखनऊ, दिल्ली, इलाहाबाद आदि सहित जमाम जगहों में लेखको, संस्कृतिकर्मियों के बीच दुख की लहर फैल गई. जन संस्कृति मंच ने उनके निधन पर गहरा दुख प्रकट किया है. उनके निधन को जन सांस्कृतिक आंदोलन के लिए एक बड़ी क्षति बताया है. वे जन संस्कृति मंच के संस्थापकों में थे. वे उसकी राष्ट्रीय परिषद के सदस्य थे. वे जन संस्कृति मंच उत्तर प्रदेश के पहले सचिव थे. वे क्रान्तिकारी वामपंथ की धारा तथा भाकपा माले से भी जुड़े थे. इंडियन पीपुल्स फ्रंट जैसे क्रान्तिकारी संगठन के गठन में भी उनकी भूमिका थी. इस राजनीतिक जुड़ाव ने उनकी वैचारिकी का निर्माण किया था.

कहानी, समीक्षा, अलोचना, कला समीक्षा, भेंट वार्ता, संस्मरण आदि कई क्षेत्रों में उन्होंने काम किया. ‘मठ’ नम से उनका कहानी संग्रह पिछले दिनों 2005 में भावना प्रकाशन से आया. पत्रकारिता पर उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘हिन्दी पत्रकारिता इतिहास, स्वरूप एवं संभावनाएँ’ प्रकाशित हुई. पिछले दिनों उनके द्वारा अनुदित पुस्तक ‘साम्राज्यवाद का विरोध और जतियों का उन्मूलन’ छपकर आया था. उनकी सैकड़ों रचनाएं पत्र पत्रिकाओं में छपती रही है. उनका रचना संसार बहुत बड़ा है, उससे भी बड़ी है उनको चाहने वालों की दुनिया. मृत्यु के अन्तिम दिनों तक वे अत्यन्त सक्रिय थे तथा 27 फरवरी को लखनऊ में आयोजित नागार्जुन व केदार जन्मशती आयोजन के वे मुख्यकर्ता धर्ता थे.

उनके निधन पर शोक प्रकट करने वालों में मैनेजर पाण्डेय, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, आलोक धन्वा, प्रणय कृष्ण, रामजी राय, अशोक भैमिक, अजय सिंह, सुभाष चन्द्र कुशवाहा, राजेन्द्र कुमार, भगवान स्वरूप कटियार, राजेश कुमार, कौशल किशोर, गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव, चन्द्रेश्वर, वीरेन्द्र यादव, दयाशंकर राय, वंदना मिश्र, राणा प्रताप, समकालीन लोकयुद्ध के संपादक बृजबिहारी पाण्डेय आदि रचनाकार प्रमुख हैं. अपनी संवेदना प्रकट करते हुए जारी वक्तव्य में रचनाकारों ने कहा कि अनिल सिन्हा आत्मप्रचार से दूर ऐसे रचनाकार रहे हैं जो संघर्ष में यकीन करते थे. इनकी आलोचना में सर्जनात्मकता और शालीनता दिखती है. ऐसे रचनाकार आज विरले मिलेंगे जिनमे इतनी वैचारिक प्रतिबद्धता और सृर्जनात्मकता हो. इनके निधन से लेखन और विचार की दुनिया ने एक अपना सच्चा व ईमानदार साथी खो दिया है.

Friday, February 25, 2011

रेल बजट में २ जी जैसे घोटाले की पदचाप सुनायी पड़ रही है

शेष नारायण सिंह

रेलमंत्री ममता बनर्जी ने यू पी ए -२ का तीसरा रेल बजट पेश कर दिया . जैसा कि आमतौर पर होता है तरह तरह के वायदे किये गए . यह बताया गया कि कि पिछले साल जो कुछ भी कहा था सब पूरा कर दिखाया है और आगे के लिए भी बहुत सारे वायदे किये गए और बजट भाषण पूरा हो गया .सबने देखा कि रेल मंत्री ने कोई किराया नहीं बढ़ाया , माल भाड़े में किसी तरह की वृद्धि नहीं की और हर इलाके के लिए खुशनुमा योजनाओं का ऐलान कर दिया . जानने वाले जानते हैं कि रेल भाषण में जिन नई लाइनों के ऐलान किये जाते हैं उनका कोई मतलब नहीं होता . रेलवे बोर्ड अपनी तरह से सारे काम करता रहता है और जनता इंतज़ार करती रहती है . पश्चिम बंगाल में विधान सभा के चुनाव होने हैं . लोगों को अनुमान था कि ममता बनर्जी उन चुनावों को ध्यान में रख कर ही रेल बजट बनायेगी . उन्होंने किया भी . जितनी भी स्कीमें घोषित कीं सब में बंगाल का नाम ज़रूर डाला . कुल मिलाकर बंगाल के लिए इतनी स्कीमें दे दीं कि लगता है कि रेल बजट बंगाल के लिए ही बनाया गया है . रेल मंत्री ने कलकाता मेट्रो के हवाले से बहुत सारी योजनायें शुरू करने का ऐलान किया. जादवपुर ,दानकुनी, सियालदाह, आदि ऐसे नाम बजट में आते रहे कि बंगाल का भूगोल और चुनाव क्षेत्रों को समझने वाले समझ गए कि बंगाल के हर इलाके में कोई न कोई स्कीम पंहुच रही है .
बजट भाषण में रेलमंत्री ने कुछ ऐसी योजनाओं के ज़िक्र भी किया जिनका दूरगामी परिणाम होगा . मसलन जम्मू-कश्मीर में रेल से सम्बंधित उद्योग लागाने की बात करके उन्होंने निश्चित रूप से एक नई शुरुआत की है .. राजनीतिक पार्टियों ने ममता बनर्जी के रेल बजट के आलोचना शुरू कर दी है. उंनका कहना है कि यह बजट कोई ख़ास नहीं है . विपक्षी दलों का काम है सरकारी पक्ष की आलोचना करना ,सो वे अपना काम कर रहे हैं . लेकिन ममता के बजट में कुछ ऐसी चीज़ें हैं जिनका चारों तरह स्वागत किया जाएगा .रेल में काम करने वाले मेहनतकश वर्गों के लोगों को ममता ने बहुत ही मानवीय सन्देश दिया है . खलासी आदि ऐसे वर्ग हैं जो पचास साल की उम्र होने के बाद मेहनत नहीं कर पाते . उनको अपनी जगह पर अपने बच्चों को लगाने का विकल्प देकर ममता ने बहुत ही मानवीय कार्य किया है . इसी तरह से रेल कर्मचारियों के बच्चों को मिलने वाली छात्रवृत्ति में सुधार की बात करके भी उन्होंने कल्याणकारी राज्य के मंत्री का कर्त्तव्य निभाया है . सारी अच्छी बातों के बीच रेल मंत्री ने बहुत ही मासूमियत से एक और योजना को बजट में डाल दिया है जो प्रकट रूप से तो बहुत ही साधारण और तरक्कीपसंद ख्याल है लेकिन ऐसा है नहीं . ममता बनर्जी ने ऐलान किया कि निजी क्षेत्र की कंपनियों के साथ मिलकर रेल विभाग बहुत सारे काम करने की योजना बना रहा है . उन्होंने यह भी बताया कि पचासी ऐसी योजनाओं को वे मंजूरी भी दे चुकी हैं . लेकिन इसके बाद जो उन्होंने कहा उसका देश की रेल सम्पदा पर बहुत ही उलटा असर पड़ने वाला है . उन्होंने कहा कि यह तय किया गया है कि सरकार और निजी क्षेत्र की पार्टनरशिप को मंजूरी देने के लिए सिंगिल विंडो स्कीम लागू की जायेगी. याने कोई भी पूंजीपति रेल विभाग के किसी प्रोजेक्ट को चुनेगा और उसको पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप योजना में लाकर विचार करेगा, योजना बनाएगा और सिंगिल विंडो पर मंजूरी देने वाले अफसर या मंत्री के पास पंहुच जाएगा . इसके बाद जो होगा उसका अंदाज़ अभी लोगों को नहीं है. यहाँ एक अन्य सरकारी विभाग के हवाले से बात को समझा जा सकता है . टेलीफोन विभाग भी पहले रेल की तरह का सरकारी उद्यम था . एक संचारमंत्री आये प्रमोद महाजन. उन्होंने सरकारी कंपनियों को बेचने की नीति का पालन करने का मंसूबा बनाया . और संचार विभाग में भी सिंगिल विंडो की योजना लगा दी . उसके बाद क्या हुआ,यह दुनिया जानती है . दूर संचार विभाग का २ जी घोटाला उसी सिंगिल विंडो की योजना का नतीजा है . यानी सरकार ने २ जी टाइप घोटाले की बुनियाद रख दी है . प्रमोद महाजन या ए राजा की तरह का अगर कोई रेल मंत्री आया तो घोटाले का रास्ता साफ़ हो चुका है . अभी रेल बजट पर बहस होनी है. संसद सदस्यों को चाहिए कि इस पहलू पर भी गौर कर ले और रेल मंत्री को इस खामी से अवगत करा दें . उम्मीद की जानी चाहिए कि वे इस खतरनाक संभावना को भांप लेगीं और रेल विभाग को भी संचार विभाग के रास्ते जाने से बचा लेगीं.

Thursday, February 24, 2011

पूंजी की चाकर राजनीति और गरीब की दुश्मन सरकार

शेष नारायण सिंह

अभी मिस्र जैसी बात तो नहीं है लेकिन अब भारत की जनता भी शासक वर्गों की मनमानी के खिलाफ लामबंद होने लगी है . जहां तक राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियों की बात है उनकी विश्वसनीयता तो बहुत कम है लेकिन अगर कोई भी आदमी या संगठन सरकार की तरफ से प्रायोजित महंगाई के खिलाफ नारा देता है तो जनता मैदान लेने में कोई संकोच नहीं करती . अभी कुछ हफ्ते पहले बाबा रामदेव और उनकी तरह के कुछ संदिग्ध लोगों ने महंगाई के खिलाफ एकजुटता का नारा दिया तो देश के हर शहर में लोग जमा हो गए और सरकार के साथ साथ सभी राजनीतिक पार्टियों की निंदा की . आम आदमी के दिमाग में राजनीतिक बिरादरी के लिए जो तिरस्कार का भाव है ,वह लोकशाही के लिए ठीक नहीं है. ज़ाहिर है कि राजनीतिक बिरादरी को अपनी छवि को दुरुस्त करने के लिए फौरान काम करना चाहिए वरना अगर अरब देशों की तरह जनता सडकों पर आ गयी तो आज की राजनीतिक जमातों में से कोई भी नहीं बचेगा. डर केवल यह है कि मौजूदा राजनीतिक जमातों के खिलाफ होने वाले किसी आन्दोलन की बाग़डोर उन लोगों के हाथ भी जा सकती है जिनके ऊपर क्रिमिनल गवर्नेंस का नुमाइंदा होने के आरोप लगते रहते हैं . बहरहाल दिल्ली में संसद के बजट सत्र के पहले दिन नेता लोग तो संसद में हंगामा हंगामा खेल रहे थे लेकिन उनकी मालिक जनता का एक हिस्सा दिल्ली की सडकों पर था . बजट के पहले गरीब आदमी ने दिल्ली के दरबार पर दस्तक दी और नेताओं को आगाह किया कि बजट में इस बार भी अगर हर बजट की तरह पूंजीपतियों के हित की साधना ही की गयी तो बात बिगड़ सकती है . यह बात भी लगभग तय है कि दिल्ली के हुक्मरान इस तरह की बातों को गंभीरता से नहीं लेते . वे इसे अपनी शान्ति में एक दिनी खलल की तरह ही देखते हैं लेकिन यह भी सच है कि लीबिया का कर्नल गद्दाफी या मिस्र के होस्नी मुबारक को भी तो नहीं अंदाज़ था कि बात कहाँ तह पंहुच चुकी थी. दिल्ली में जनता ने आकर गूंगी बहरी सरकार को चेतावनी दी कि मुगालते से बाहर आओ और खाने की चीज़ों की बढ़ती कीमतों को कंट्रोल करो . इस बीच दिल्ली दरबार में सक्रिय राजनीतिक नेता और अर्थशास्त्र की पूंजीवादी व्याख्या के आचार्य लोग यह बताने से नहीं चूक रहे हैं कि भारत की अर्थ व्यवस्था बहुत मज़बूत हो रही है और पूंजीवादी हितों के पोषक अर्थशास्त्री बता रहे हैं कि सन २०५० तक भारत इतना मज़बूत हो जाएगा कि चीन और अमरीका को पीछे छोड़कर दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा. पूरी दुनिया में फैले पूंजीवाद के हरकारे बैंकों में से एक बैंक की ताज़ा रिपोर्ट में यह ज्ञान बताया गया है .


लेकिन दिल्ली में महंगाई का विरोध करने आई जनता को इन बातों से कोई मतलब नहीं है. उसने साफ़ कह दिया कि कीमतें तुरंत कम करो , २०५० में जो होगा उसे किसने देखा है . पूंजीवादी व्यवस्था के पोषक अर्थशास्त्रियों ने पिछले २० साल से भारत के सरकारी कामकाज को काबू में ले रखा है . उन अर्थशास्त्रियों का उद्देश्य पूंजीवादी हितों की रक्षा करना है और वे इन्हीं पूंजीवादियों के चाकर के रूप में ऐसी योजनायें बनाते रहते हैं जिससे पूंजी की सुप्रीमेसी बनी रहे. अर्थशास्त्रियों के इस ग्रुप के मुखिया प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ही हैं . जिस तरह का अर्थशास्त्र उन्होंने पढ़ा है और पढ़ाया है उसका उद्देश्य ही आम आदमी के हितों की मुखालिफत करना होता है . उस व्यवस्था में गरीब आदमी आर्थिक विकास का कच्चा माल होता है . इसका भावार्थ यह हुआ कि पूंजीवादी अर्थशास्त्र में आम आदमी की भलाई की कोई योजना नहीं होती. उसे तो बस जिंदा रहना होता है और पूंजीवादी विकास में अपने श्रम से योगदान करना होता है . इस अर्थशास्त्र में गरीब आदमी के जन्म का मकसद ही यही होता है कि वह पूंजी को कंट्रोल करने वालों की जीवनशैली को बनाए रखने में अपना योगदान करे. डॉ मनमोहन सिंह की निजी जीवन में ईमानदारी और बेदाग़ छवि को समझने के लिए उनकी अर्थशास्त्र की समझ पर नज़र डालना ज़रूरी है . बुनियादी सवाल यह है कि जिस तरह का अर्थशास्त्र उन्होंने पढ़ा है उसका उद्देश्य ही गरीब आदमी का हित साधन नहीं है . उस व्यवस्था में मजदूर की मेहनत से जो सरप्लस पैदा होता है उसे पूंजीपति वर्ग अपनी आमदनी मानते हैं . यानी मजदूर वर्ग को हमेशा ही मजदूर बने रहने के लिए अभिशप्त रहना पड़ता है .उसकी जंजीरें कभी नहीं कट सकतीं . इस व्यवस्था में मिडिल क्लास की भूमिका भी बहुत ज्यादा होती है .वह पूंजीवादी सरकार के विकास के सेवक के रूप में अपनी कुशलता को समर्पित करता है . उसे मजदूर वर्ग से बेहतर मजूरी मिलती है लेकिन वह एक दूसरे स्तर पर भी पूंजीपति वर्ग की सेवा करता है . वह पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था में एक ग्राहक की भूमिका भी निभाता है . यानी जो कुछ भी उसे मजूरी के रूप में मिलता है उसे वह फालतू चीज़ों के उपभोक्ता के रूप में खरीदता है और पूंजी के सर्किल को पूरा करता है .वह शोषण के मज़बूत तंत्र के एक हिस्से के रूप में शोषण के निजाम को चलाने में मदद भी करता है और उसका शिकार भी होता है .


प्रधान मंत्री डॉ मनमोहन सिंह की ईमानदारी को इसी संदर्भ में संझने की ज़रुरत है . वे बहुत ईमानदार है लेकिन वे जिस राजनीतिक दर्शन में विश्ववास करते हैं और जिसके प्रतिनधि हैं वह दर्शनशास्त्र ही गरीब विरोधी है और पूंजीवादी व्यवस्था का समर्थक है . ऐसी हालत में निजी जीवन में उनकी ईमानदारी गरीब आदमी के शोषण को और पुख्ता करती है . इसलिए ज़रुरत इस बात की है कि आम आदमी की पक्षधरता वाली राजनीतिक सोच पर आधारित व्यवस्था की बात की जाए .मौजूदा राजनीतिक सोच पर बनने वाली हर सरकार गरीब विरोधी होगी उसका नेतृत्व कांग्रेस करे या बीजेपी . गरीबी बेरोजगारी और महंगाई से बचने का एक ही रास्ता है कि देश की जनता इस पूंजीवादी सोच की बुनियाद वाली सारकार को ही हटा दे और एक ऐसी सरकार बनाये जो सही मायनों में आम आदमी की बात करे. जहां तक मौजूदा सरकार की बात है इसकी तो डिजाइन में ही लिखा है कि वह आम आदमी के शोषण का निजाम कायम करेगी. उस सरकार का प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव , एच डी देवेगौडा, इन्दर गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी या मनमोहन सिंह कोई भी हो सकता है . खुद मनमोहन सिंह ने कहा है कि भारत के विकास के लिए महंगाई एक गंभीर ख़तरा है लेकिन वे इसे कम करने के लिए कर कुछ नहीं रहे हैं . एक साल में सात बार ब्याज दर बढ़ाई गयी है जबकि महंगाई की दर आठ प्रतिशत के नीचे कभी आई ही नहीं . पूंजीवादी आंकड़ों की मानें तो वह भी यही कह रहे हैं कि पिछले छः वर्षों में खाने की चीज़ों की कीमतें अस्सी प्रतिशत बढ़ गयी हैं .ऐसी हालत में उम्मीद है कि सत्ता में बने रहने के लिए कांग्रेस सरकार अगला बजट थोडा नरम ज़रूर करेगी लेकिन उसका उद्देश्य आम आदमी की भलाई नहीं होगी बल्कि जनता का ध्यान मुसीबतों से हटाना होगा .

Wednesday, February 23, 2011

बाबा रामदेव की हिचकोले खाती नैया

शेष नारायण सिंह

जब कांग्रेस ने योग गुरु बाबा रामदेव से पूछा कि उनके पास इतना काला धन कहाँ से आया तो बाबा के समर्थक कांग्रेस के बहुत खिलाफ हो गए. लेकिन इस से कांग्रेसी रण नीतिकार बिलकुल भी चिंतिंत नहीं है . उनका विश्वास है कि रामदेव के भक्त लोग वैसे भी बीजेपी के साथ हे पाये जाते हैं .. अभी तीन दिन पहले बाबा ने कहा था कहा था कि उनके पास कोई काला धन नहीं है.. लेकिन अब सवाल उठ रहा है कि कि एक हज़ार करोड़ रूपये से ज्यादा की जो संपत्ति बाबा के पास है वह कहाँ से आई. अब बाबा खामोश हो गए हैं . लगता है कि उन्हें सरकार की ताक़त से कुछ डर लगने लगा है .

पिछले दिनों बाबा रामदेव ने भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ अभियान चलाया था . देशके कुछ और नामी लोगों के साथ मिलकर उन्होंने बीजेपी की राजनीति की तरफ देश को मोड़ने की कोशिश भी की थी लेकिन कांग्रेस ने सब गुड गोबर कर दिया .. पता चला है कि सर्वोच्च स्तर पर कांग्रेस ने तय कर लिया है कि बीजेपी की रामदेव रण नीति को फेल करना ज़रूरी है .जब आम तौर्र पर उलटे सीधे बयान देने के लिए विख्यात कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने बाबा की आमदनी के श्रोतों पर सवाल उठाया तो उनकी बात को गंभीरता से नहीं लिया गया लेकिन कई दिन हो चले हैं और कांग्रेस के किसी नेता ने दिग्विजय के बयानों का खंडन नहीं किया है . इस से लगता है कि रामदेव को एक्सपोज़ करने की रणनीति कांग्रेस ने राजनीतिक तौर पर लिया है . शायद इसीलिये पहले तीन दिन तक किसी भी जांच का सामना करने की शेखी बघारने के बाद बाबा बेचारे को औकात बोध हो गया है . शुरू में तो उन्हें उम्मीद थी कि जब उनके ऊपर राजनीतिक हमला होगा तो बीजेपी वाले संभाल लेगें लेकिन जब उन्हें बीजेपी की तरफ से कोई उत्साह वर्धक संकेत नहीं मिले तो वे घबडा गए हैं . और अब किसी तरह का बडबोला बयान नहीं दे रहे हैं . कांग्रेस ने कहा है कि "सरकार काले धन को लेकर गंभीर है और केंद्रीय वित्त मंत्री और प्रधानमंत्री इस मामले में कार्रवाई कर रहे हैं। बाबा रामदेव केवल कांग्रेस पर ही ध्यान लगाए हुए हैं। दूसरे दलों पर उनका ध्यान नहीं है। उन्हें विभिन्न स्रोतों से प्राप्त होने वाली दान-दक्षिणा को सत्यापित करना चाहिए।"
जब सरकार की तरफ से इतना साफ़ बयान आ जाये तो कोई भी पूंजीपति घबडा जाएगा . बाबा तो बेचारे पिछले १० साल से पैसा देख रहे हैं . घाघ पूंजीपतियों वाले हथकंडे उन्हें नहीं आते . नतीजा यह हुआ कि अब वकीलों से राय सलाह कर रहे हैं और किसी तरह से जान बचाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं . जहां तक बाबा की संपत्ति का सवाल है ,उसके बारे में साफ़ तौर पर कहा जा सकता है कि वे दुनिया के सबसे संपन्न बाबाओं में से एक हैं .एक नज़र उनकी संपत्ति पर डाल लेना ठीक होगा. बाबा की संपत्ति के अंतर्गत पतंजलि योगपीठ, स्कॉटलैंड में रिट्रीट लैंड, धार्मिक टीवी चैनल में ट्रस्ट की हिस्सेदारी, दिव्य योग मंदिर, दिव्य फॉर्मेसी, कृपालु बाग, दिव्य योग आश्रम, पतंजलि योग विश्वविद्यालय, पतंजलि हर्बल, हर्बल वाटिका व आयुर्वेदिक चिकित्सा और अनुसंधान संस्थान हैं। बाबा रामदेव के मुताबिक उनकी इस संपत्ति की कीमत एक हजार करोड़ रुपए के करीब है।

हाल ही में बाबा रामदेव ने टेलीविजन चैनलों को विशेष इंटरव्‍यू में दावा किया था कि उनके पास कई राजनेताओं के खिलाफ पुख्‍ता सबूत हैं। उनके पास नेताओं के खिलाफ किए गए स्टिंग ऑपरेशन के वीडियो हैं। आवाज़ की रिकॉर्डिंग हैं और ऐसे बहुत सारे सबूत हैं, जो भ्रष्‍ट नेताओं की पोल खोल सकते हैं। बाबा ने तब यह भी कहा था कि वो जल्‍द ही एक-एक कर खुलासे करेंगे। जहां तक देश की जनता का सवाल है उसे बाबा रामदेव के पिटारे के खुलने का इंतजार रहेगा लेकिन बाबा के ताज़ा रुख से लगता है कि वे औकात से ज्यादा बडबोलापन कर गए हैं और सत्ता का रथ उनको कुचल देने के लिए चल पड़ा है . ऐसी हालत में बीजेपी भी उनके साथ नहीं खडी होगी क्योंकि उसे पता नहीं है कि बाबा के आने से फायदा कितना होगा लेकिन अगर एक विवादित बाबा के साथ खड़े पाए गए तो नुकसान बहुत ज्यादा होगा .

Monday, February 21, 2011

दादासाहेब फाल्के के उद्यम का दस्तावेज़ है मराठी फिल्म हरिशचंद्राची फैक्टरी

शेष नारायण सिंह

टेलिविज़न पर मराठी फिल्म "हरिशचंद्राची फैक्टरी " देखने का मौक़ा मिला. एक बहुत ही अज़ीज़ दोस्त ने कहा कि मराठी भाषा न जानने की वजह से फिल्म को देखने में कोई दिक्क़त नहीं आयेगी . इस फिल्म के बारे में इतना पता था कि आस्कर पुरस्कारों के लिए गयी थी लेकिन पुरस्कार मिला नहीं . फिल्म देख कर समझ में आया कि आस्कर पुरस्कार देने वाले गलती कैसे करते हैं .यह फिल्म भारतीय सिनेमा के आदिपुरुष दादा साहेब फाल्के की पहली फिल्म हरिश्चंद्र तारामती के निर्माण के बारे में है . दादासाहेब फाल्के ने इस देश में सिनेमा की बुनियाद डालने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था . उनके उद्यम को विषय बनाकर बनायी गयी यह फिल्म बेहतरीन है और पहली बार फिल्म निर्देशन का काम कर रहे परेश मोकाशी की लीक से हट कर चलने की हिम्मत भी लाजवाब है . फिल्म एक वृत्तचित्र है लेकिन डाकुमेंटरी की तरह बनायी गयी है. दादासाहेब फाल्के के दृढ़निश्चय को फिल्म की भाषा में पेश करने की कोशिश में फिल्मकार ने एक ऐसी फिल्म बनाने में सफलता हासिल कर ली है जो गैर मराठी भाषी को भी मन्त्रमुग्ध करने की क्षमता रखती है .. दादासाहेब फाल्के की शुरुआती ज़िंदगी और खतरों से खेलने की क्षमता को बहुत ही अच्छी तरह से प्रस्तुत किया गया है . मुंबई में प्रिंटिंग प्रेस की नौकरी छोड़कर जब फाल्के ने जादू दिखाने का काम शुरू किया तो जिस ऊहापोह से गुज़रे वह बहुत ही अच्छी तरह से फिल्म के व्याकरण में क़ैद कर लिया गया है. जादू दिखाने के काम के दौरान उन्होंने चलती फिरती तस्वीरें देखीं. अभिभूत हो गए. तब तक फिल्मों के बारे में कुछ नहीं जानते थे लेकिन पढ़ लिख कर पता लगाया कि लन्दन में उस तरह की फ़िल्में बनती थीं . खर्च पानी का इंतज़ाम करके लन्दन गए और वहां देखा कि छोटी छोटी फिल्म बनती थीं , कलाकार कुछ बोलते नहीं थे लेकिन मनोरंजन ख़ासा होता था .लन्दन में ही उन्होंने हज़रत ईसा मसीह के जीवन पर बनी एक फिल्म देखी जिसमें एक कहानी थी . बस उन्होंने फैसला कर लिया कि लौट कर महापुरुषों के जीवन पर आधारित फ़िल्में बनायेगें . लन्दन से स्वदेश लौटने के पहले कैमरा खरीदने का आर्डर दे दिया और यहाँ आकर अयोध्या के राजा हरिश्चंद्र के जीवन पर फिल्म बनाने का मन बनाया . दादा साहेब फाल्के की भूमिका इस फिल्म में नंदू माधव ने निभाई है जब कि फाल्के की पत्नी सरस्वती की भूमिका मराठी थियेटर की सफल अभिनेत्री, विभावरी देशपांडे ने की है . दोनों ही कलाकारों का अभिनय बेहतरीन है .

'हरिशचंद्राची फैक्टरी' फिल्म की कहानी १९११ में शुरू होती है जब फाल्के ने कुछ नया कर गुजरने का मन बनाया . १९१३ में हरिश्चंद्र तारामती प्रदर्शित होने और उसके बाद के फाल्के के हौसले को जिस तरह से फिल्माया गया है वह लाजवाब है . फिल्म में ह्यूमर है लेकिन फिल्म बहुत ही गंभीर है . ह्यूमर की शास्त्रीय परिभाषा में बताया गया था कि अपने आप पर हंसने की क्षमता ही ह्यूमर होता है . ज़ाहिर है अपने आप पर हंस पाना कमज़ोर इंसान का गुण नहीं होता , उसके लिए अन्दर की बहुत मजबूती चाहिए. पूरी फिल्म में ऐसी बहुत सारी सिचुएशंस हैं जब मुख्य कलाकार नंदू माधव दादासाहेब की ज़िंदगी के बहुत मुश्किल लम्हों को ह्यूमर में बदल देते हैं . इससे फाल्के के चरित्र की ऐतिहासिक मजबूती और नंदू माधव की अभिनय क्षमता दोनों का डंका बज जाता है . जब अपने घर को छोड़कर फिल्म बनाने की अपनी योजना को कार्यरूप देने के लिए फाल्के अपने बच्चों और पत्नी के साथ चल पड़ते हैं तो उनकी मंजिल दादर है . उन्हें पता चला था कि दादर में फिल्म का काम करने के लिए सस्ते दामों पर ज्यादा जगह मिल आयेगी. दादर उन दिनों शहर से बहुत दूर था . उनकी पड़ोसी एक महिला अपने पति से पूछती है कि सुना है कि दादर में तो जंगल हैं . जवाब में बहुत सारी सूचना एक वाक्य में भर दी गयी है . बुढऊ कहते हैं कि फाल्के जैसे जंगली के लिए वह सही जगह है . अभिनेताओं के लिए दिया गया विज्ञापन और उसके जवाब में आने वाले लोगों का जो हिस्सा है वह भी फाल्के की उस योग्यता की सनद है कि वे विपरीत हालात में किस तरह से लक्ष्य को नहीं भूलते. तारामती के रोल के लिए महिला कलाकार की उनकी तलाश के जो शाट हैं वह बहुत ही अच्छी तरह से प्रस्तुत किये गए हैं . किसी महिला को सिनेमा में काम करने के लिए तैयार कर पाना उन दिनों असंभव था . लेकिन फाल्के ने आसानी से हार नहीं मानी . तवायफों के कोठों पर भी गए लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी.आखिर में लड़कों को ही स्त्रियों के रोल में इस्तेमाल किया. जिस लड़के को तारामती को रोल दिया ,उसका मूंछ सहित तारामती का रोल करने का आग्रह और उसको उसके बाप की मौजूदगी में मूंछ साफ़ कराने के लिए राजी कर पाना बहुत ही कठिन काम था लेकिन उसे फाल्के ने हासिल किया और नंदू माधव ने उस सीन में जान डाल दी. उसके पहले अपनी पत्नी को तारामती की भूमिका देने की जो कोशिश है वह विभावरी देशपांडे और नंदू माधव को वहां स्थापित कर देती है जहां अभिनय की काबिलियत के लिहाज़ से हिन्दी फिल्मों का कोई भी मौजूदा स्टार नहीं पंहुच पाया है .

फाल्के की फिल्म लन्दन में दिखाई गयी और वहां के फिल्म उद्योग के नेताओं ने उन्हें आमंत्रित किया कि लन्दन में ही रहकर फिल्म बनाइये लेकिन उन्होंने यह कहकर मना कर दिया कि अगर वे ज्यादा पैसे के लालच में लन्दन में फिल्म बनायेगें तो भारत में फिल्म उद्योग की स्थापना ही नहीं हो पायेगी . बाद में जब नंदू माधव और विभावरी देशपांडे मुंबई की सडकों पर चार आने में फाल्के नाम के खिलौने बिकते देखते हैं तो उनकी समझ में आ जाता है कि भारतीय सिनेमा के आदिपुरुष ने अपना काम कर दिखाया है . फिल्म में कोई भी नाच गाना नहीं है लेकिन आनंद मोदक का संगीत बहुत ही अच्छा है . पूरी फिल्म में लगता है कि आप १९१० के मुंबई में ही घूम रहे हैं . उसके लिए कला निदेशक नितिन चंद्रकांत देसाई और संगीतकार आनंद मोदक की तारीफ़ की जानी चाहिए .सिनेमा के इतिहास पर एक ऐतिहासिक फिल्म बहुत ही अच्छी बन गयी है . इस तरह की फ़िल्में बनाने का सौदा बहुत ही रिस्की होता है . श्याम बंगाल जैसा फिल्मकार भूमिका बनाकर इस सच्चाई को रेखांकित कर चुका है लेकिन फिर भी आशा की जानी चाहिए कि हिन्दी में भी इस तरह की फ़िल्में बनाने की दुबारा कोशिश की जायेगी .