सुमेधा वर्मा ओझा
सुमेधा वर्मा ओझा की यह टिप्पणी मेरे फेसबुक पर बीबीसी वाले लेख के बारे में थी. इसे यहाँ भी डाल दे रहा हूँ.
शेष नारायण सिंह जी मैं आपका दुःख समझ नहीं पा रही हूँ और ना ही आपका बीबीसी का गुण गान . यह इस देश के लिए बड़े ही दुर्भाग्य की बात थी और केवल अपनी ग़ुलाम मानसिकता का प्रदर्शन कि आपको एक दुसरे देश की किसी रेडियो सेवा पर इतना भरोसा था . आज बीबीसी की हिंदी या अंग्रेजी या किसी भी भाषा की सेवा की ऐसी कोई मान्यता नहीं है जिसे आप इतने प्यार से याद कर रहे हैं . इन्ही सेवाओं के द्वारा बड़े देश अपने उपनिवेशों में अपनी विचार धारा को फैला कर लोगों पर एक मानसिक पकड़ बनाये रहते थे. हमारे देश के रेडियो अखबार वगैरह उतने ही अच्छे या बुरे हैं जितने की किसी और देश के फिर हमें विदेशी सेवा की मृत्यु पर दुखी होने की क्या ज़रुरत है? हिंदी आपकी दुआ से आजकल फल फूल रही है , उसे बीबीसी की कोई ज़रुरत नहीं है
Saturday, January 29, 2011
रोमांस को हर मोड़ पर आवाज़ दी नक्श लायलपुरी के गीतों ने .
शेष नारायण सिंह
गीतकार नक्श लायलपुरी की नज्मों का एक संकलन आया है .'आँगन आँगन बरसे गीत' नाम की यह किताब उर्दू में है.पिछले ५० से भी ज्यादा बरसों से हिन्दी फिल्मों में उर्दू के गीत लिख रहे नक्श लायलपुरी एक अच्छे शायर हैं. कविता को पूरी तरह से समझते हैं लेकन जीवनयापन के लिए फ़िल्मी गीत लिखने का का काम शुरू कर देने के बाद उसी दुनिया के होकर रह गए.रस्मे उल्फत निभाते रहे और हर मोड़ पर सदा देते रहे. उनकी कुछ नज्मों के टुकड़े तो आम बोलचाल में मुहावरों की शक्ल अख्तियार कर चुके हैं .नक्श लायलपुरी ने भारत के बँटवारे के दर्द को बहुत ही करीब से महसूस किया था .१९४७ में वे शरणार्थियों के एक काफिले के साथ उस पार के पंजाब से भारत में पैदल दाखिल हुए थे. कुछ दिन रिश्तेदारों के यहाँ जालंधर में रहे लेकिन वहां दाना पानी नहीं लिखा था . उनके पिता जी इंजीनियर थे . लखनऊ में किसी इंजीनियर दोस्त से संपर्क किया तो उसने कहा कि लखनऊ आ जाओ .वहीं ऐशबाग़ में एक सरकारी प्लाट मिल गया . सड़क की तरफ तो कारखाना बना लिया गया और पीछे की तरफ रहने का इंतज़ाम कर लिया गया . इसी लखनऊ शहर से भाग कर नक्श लायलपुरी मुंबई में अपनी किस्मत आजमाने आये थे . हालांकि उन्होंने अपना पहला फ़िल्मी गाना निर्माता जगदीश सेठी की फिल्म के लिए १९५१ में लिखा था लेकिन वह फिल्म रिलीज़ नहीं हुई .१९५२ में दूसरी फिल जग्गू के लिए गाने लिखे जो पसंद किये गए. उन्हें गीतकार के रूप में पहचान फिल्म 'तेरी तलाश में ' नाम की फिल्म से मिली. इस फिल्म में आशा भोंसले ने उनके गीत गाये थे. एक बार नाम हो गया तो काम मिलने लगा और गाडी चल पड़ी. उर्दू के जानकार नक्श लायलपुरी को खुशी है कि उनको ऐसे संगीत निर्देशकों के साथ काम करने का मौक़ा मिला जो उर्दू ज़बान को जानते थे .ऐसे संगीतकारों में वे नौशाद का नाम बहुत इज्ज़त से लेते हैं . नक्श लायलपुरी कहते हैं कि गीतकार के रूप में उन्हें बुलंदी बी आर इशारा की फिल्म 'चेतना ' से मिली और उसमें उनकी नज़्म 'मैं तो हर मोड़ पर तुमको दूंगा सदा ' बहुत ही सराही गयी . जिन लोगों ने रेहाना सुलतान की चेतना और दस्तक देखी है उन्हें मालूम है कि बेहतरीन अदाकारी किसी कहते हैं . रेहाना सुलतान की परंपरा को ही स्मिता पाटिल ने आगे बढ़ाया था . नक्श लायलपुरी के फ़िल्मी गानों की बहुत दिनों तक धूम रही लेकिन आजकल वह बात नहीं है . फिल्म संगीत की दिशा में बहुत सारे प्रयोग हो रहे हैं और नए नए लोग सामने आ रहे हैं . लेकिन वे आज भी टेलीविज़न सीरियलों के माध्यम से अपनी बात कह रहे हैं.
हिन्दी फिल्मों के इस शायर की यात्रा बहुत ही मुश्किल थी. सबसे बड़ी मुसीबत तो तब आई जब उन्होंने अपने बचपन में सआदत हसन मंटो की किसी कहानी में पढ़ा कि जब पंजाबी इंसान उर्दू बोलता है तो लगता है कि कोई झूठ बोल रहा है . शायद मंटो साहेब ने उच्चारण के तरीके अलग होने की वजह से यह बात कही हो .नक्श लायलपुरी पंजाबी हैं और उसी दिन उन्होंने तय कर लिया कि वे उर्दू ही बोलेगें ,झूठ कभी नहीं बोलेगें. .उर्दू पढने और बोलने में उन्होंने मेहनत की और उर्दू के नामवर शायर बन गए. मुंबई में उनके संघर्ष का शुरुआती दौर भी मामूली नहीं है . घर से भाग कर मुंबई आये थे और जब कल्याण स्टेशन पर उतरे तो जेब में एक चवन्नी बची थी . उन दिनों कोयले के इंजन से चलने वाली गाड़ियां होती थीं .लखनऊ से दिल्ली तक की तीन दिन की यात्रा में कपडे एकदम काले हो गए थे . दिमाग में कहीं से यह बैठा था कि जब किसी शहर में रोज़गार की तलाश में जाओ तो खाली पेट नहीं जाना चाहिए, भूख भी लगी थी ,दिन के १२ बजे थे, उन दिनों कल्याण स्टेशन के प्लेटफार्म पर छत नहीं थी . चार आने की पूरियां खरीद लीं और ज्यों ही पहला निवाला मुंह में डालने के लिए उठाया कि हाथ का दोना चील झपट कर ले गयी. भूखे ही शहर में दाखिल हुए . दादर स्टेशन के पास खस्ता हाल टहल रहे थे कि सामने से एक बुज़ुर्ग सरदार जी आते नज़र आये . उनसे पूछ लिया कि यहाँ को धर्मशाला है क्या ? उन्हीं कोयले से सने कपड़ों और भूखे नौजवान को देख कर शायद उन्हें तरस आ गयी और उन्होंने माटुंगा के गुरुद्वारे का पता बता दिया . लेकिन वहां सिर्फ आठ दिन रह सकते थे . वहीं एक सिख नौजवान था जब उस को पता लगा कि यह खस्ता हाल इंसान शायर है तो वह प्रभावित हुआ और उसने साबुन और लुंगी दी और कहा कि अपने कपडे तो धो लो . जाते वक्त उसने बीस रूपये भी दिए . मना करने पर उसने कहा कि जब हो जाएँ तो वापस दे देना. वह क़र्ज़ आज तक बाकी है . किस्मत ने पल्टा खाया और सडक पर लाहौर के पुराने परिचत दीपक आशा मिल गए. वे एक्टर थे और अब मुंबई में ही रह रहे थे. अपने घर ले गए और फिर किसी शरणार्थी कैम्प में रहने का इंतज़ाम करवा दिया . उसके बाद अपना यह शायर मानवीय संवेदनाओं को गीतों एक माध्यम से सिनेमा के दर्शकों तक पंहुचाता रहा . आज बुज़ुर्ग हैं लेकिन शान से अपना बुढापा बिता रहे हैं . आज भी उनके छाने वालों का एक वर्ग उन्हें मिलता जुलता रहता है
गीतकार नक्श लायलपुरी की नज्मों का एक संकलन आया है .'आँगन आँगन बरसे गीत' नाम की यह किताब उर्दू में है.पिछले ५० से भी ज्यादा बरसों से हिन्दी फिल्मों में उर्दू के गीत लिख रहे नक्श लायलपुरी एक अच्छे शायर हैं. कविता को पूरी तरह से समझते हैं लेकन जीवनयापन के लिए फ़िल्मी गीत लिखने का का काम शुरू कर देने के बाद उसी दुनिया के होकर रह गए.रस्मे उल्फत निभाते रहे और हर मोड़ पर सदा देते रहे. उनकी कुछ नज्मों के टुकड़े तो आम बोलचाल में मुहावरों की शक्ल अख्तियार कर चुके हैं .नक्श लायलपुरी ने भारत के बँटवारे के दर्द को बहुत ही करीब से महसूस किया था .१९४७ में वे शरणार्थियों के एक काफिले के साथ उस पार के पंजाब से भारत में पैदल दाखिल हुए थे. कुछ दिन रिश्तेदारों के यहाँ जालंधर में रहे लेकिन वहां दाना पानी नहीं लिखा था . उनके पिता जी इंजीनियर थे . लखनऊ में किसी इंजीनियर दोस्त से संपर्क किया तो उसने कहा कि लखनऊ आ जाओ .वहीं ऐशबाग़ में एक सरकारी प्लाट मिल गया . सड़क की तरफ तो कारखाना बना लिया गया और पीछे की तरफ रहने का इंतज़ाम कर लिया गया . इसी लखनऊ शहर से भाग कर नक्श लायलपुरी मुंबई में अपनी किस्मत आजमाने आये थे . हालांकि उन्होंने अपना पहला फ़िल्मी गाना निर्माता जगदीश सेठी की फिल्म के लिए १९५१ में लिखा था लेकिन वह फिल्म रिलीज़ नहीं हुई .१९५२ में दूसरी फिल जग्गू के लिए गाने लिखे जो पसंद किये गए. उन्हें गीतकार के रूप में पहचान फिल्म 'तेरी तलाश में ' नाम की फिल्म से मिली. इस फिल्म में आशा भोंसले ने उनके गीत गाये थे. एक बार नाम हो गया तो काम मिलने लगा और गाडी चल पड़ी. उर्दू के जानकार नक्श लायलपुरी को खुशी है कि उनको ऐसे संगीत निर्देशकों के साथ काम करने का मौक़ा मिला जो उर्दू ज़बान को जानते थे .ऐसे संगीतकारों में वे नौशाद का नाम बहुत इज्ज़त से लेते हैं . नक्श लायलपुरी कहते हैं कि गीतकार के रूप में उन्हें बुलंदी बी आर इशारा की फिल्म 'चेतना ' से मिली और उसमें उनकी नज़्म 'मैं तो हर मोड़ पर तुमको दूंगा सदा ' बहुत ही सराही गयी . जिन लोगों ने रेहाना सुलतान की चेतना और दस्तक देखी है उन्हें मालूम है कि बेहतरीन अदाकारी किसी कहते हैं . रेहाना सुलतान की परंपरा को ही स्मिता पाटिल ने आगे बढ़ाया था . नक्श लायलपुरी के फ़िल्मी गानों की बहुत दिनों तक धूम रही लेकिन आजकल वह बात नहीं है . फिल्म संगीत की दिशा में बहुत सारे प्रयोग हो रहे हैं और नए नए लोग सामने आ रहे हैं . लेकिन वे आज भी टेलीविज़न सीरियलों के माध्यम से अपनी बात कह रहे हैं.
हिन्दी फिल्मों के इस शायर की यात्रा बहुत ही मुश्किल थी. सबसे बड़ी मुसीबत तो तब आई जब उन्होंने अपने बचपन में सआदत हसन मंटो की किसी कहानी में पढ़ा कि जब पंजाबी इंसान उर्दू बोलता है तो लगता है कि कोई झूठ बोल रहा है . शायद मंटो साहेब ने उच्चारण के तरीके अलग होने की वजह से यह बात कही हो .नक्श लायलपुरी पंजाबी हैं और उसी दिन उन्होंने तय कर लिया कि वे उर्दू ही बोलेगें ,झूठ कभी नहीं बोलेगें. .उर्दू पढने और बोलने में उन्होंने मेहनत की और उर्दू के नामवर शायर बन गए. मुंबई में उनके संघर्ष का शुरुआती दौर भी मामूली नहीं है . घर से भाग कर मुंबई आये थे और जब कल्याण स्टेशन पर उतरे तो जेब में एक चवन्नी बची थी . उन दिनों कोयले के इंजन से चलने वाली गाड़ियां होती थीं .लखनऊ से दिल्ली तक की तीन दिन की यात्रा में कपडे एकदम काले हो गए थे . दिमाग में कहीं से यह बैठा था कि जब किसी शहर में रोज़गार की तलाश में जाओ तो खाली पेट नहीं जाना चाहिए, भूख भी लगी थी ,दिन के १२ बजे थे, उन दिनों कल्याण स्टेशन के प्लेटफार्म पर छत नहीं थी . चार आने की पूरियां खरीद लीं और ज्यों ही पहला निवाला मुंह में डालने के लिए उठाया कि हाथ का दोना चील झपट कर ले गयी. भूखे ही शहर में दाखिल हुए . दादर स्टेशन के पास खस्ता हाल टहल रहे थे कि सामने से एक बुज़ुर्ग सरदार जी आते नज़र आये . उनसे पूछ लिया कि यहाँ को धर्मशाला है क्या ? उन्हीं कोयले से सने कपड़ों और भूखे नौजवान को देख कर शायद उन्हें तरस आ गयी और उन्होंने माटुंगा के गुरुद्वारे का पता बता दिया . लेकिन वहां सिर्फ आठ दिन रह सकते थे . वहीं एक सिख नौजवान था जब उस को पता लगा कि यह खस्ता हाल इंसान शायर है तो वह प्रभावित हुआ और उसने साबुन और लुंगी दी और कहा कि अपने कपडे तो धो लो . जाते वक्त उसने बीस रूपये भी दिए . मना करने पर उसने कहा कि जब हो जाएँ तो वापस दे देना. वह क़र्ज़ आज तक बाकी है . किस्मत ने पल्टा खाया और सडक पर लाहौर के पुराने परिचत दीपक आशा मिल गए. वे एक्टर थे और अब मुंबई में ही रह रहे थे. अपने घर ले गए और फिर किसी शरणार्थी कैम्प में रहने का इंतज़ाम करवा दिया . उसके बाद अपना यह शायर मानवीय संवेदनाओं को गीतों एक माध्यम से सिनेमा के दर्शकों तक पंहुचाता रहा . आज बुज़ुर्ग हैं लेकिन शान से अपना बुढापा बिता रहे हैं . आज भी उनके छाने वालों का एक वर्ग उन्हें मिलता जुलता रहता है
Thursday, January 27, 2011
अब कोई नहीं कहेगा कि यह बीबीसी लन्दन है
शेष नारायण सिंह
ब्रिटिश ब्राडकास्टिंग कारपोरेशन के कई सेक्शन बंद किये जा रहे हैं . दुर्भाग्य की बात यह है कि हिन्दी सर्विस में भी बंदी का ऐलान कर दिया गया है.इसका मतलब यह हुआ कि बीबीसी रेडियो की हिंदी सर्विस को मार्च के अंत में बंद कर दिया जाएगा. बीबीसी की हिन्दी सेवा का बंद होना केवल एक व्यापारिक फैसला नहीं है . यह संस्कृति को प्रभावित करने वाला इतिहास का ऐसा मुकाम है जिसकी धमक बहुत दिनों तक महसूस की जायेगी. हालांकि इस बात में भी दो राय नहीं है कि बीबीसी की हिंदी सर्विस ने अपना वह मुकाम खो दिया है जो उसको पहले हासिल था.. पहले के दौर में बीबीसी की ख़बरों का भारत में बहुत सम्मान किया जाता था .१९७५ में जब इमरजेंसी लगी और भारत की आकाशवाणी और दूरदर्शन इंदिरा सरकार की ढपली बजाने लगे तो जो कुछ भी सही खबरें इस देश के आम आदमी के पास पंहुचीं वे सब बीबीसी की कृपा से ही पंहुचती थीं . इसके अलावा भी देश के हिन्दी भाषी इलाकों में रेडियों के श्रोताओं का एक बहुत बड़ा वर्ग है जिसकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में बीबीसी रेडियो पर हिन्दी खबरें सुनना एक ज़रूरी काम की तरह है . उत्तर प्रदेश और बिहार में पढ़े लिखे लोगों का एक बहुत बड़ा वर्ग है जिसके लिए कोई भी सूचना खबर नहीं बनती जब तक कि उसे बीबीसी पर न सुन लिया जाए. इस तरह की संस्था का बंद होना निश्चित रूप से इस देश के लिए दुःख की बात है . पता चला है कि बीबीसी हिन्दी की वेब खबरों का सिलसिला जारी रहेगा . लेकिन अभी वेब का नाम उतना नहीं है कि वह लोगों की आदात में शुमार हो सके.अपने देश में बीबीसी की विश्वसनीयता बहुत ज्यादा थी. . हालांकि बाद के दिनों में यह थोड़ी कम हो गयी थी लेकिन पत्रकारिता के सर्वोच्च मानदंडों का वहां हमेशा ख्याल रखा जाता था .मैंने अपने बचपन में देखा था कि जब दो लोग बहस कर रहे हों और बात सहमति पर न पंहुच रही हो तो कोई एक पक्ष बीबीसी का नाम लेकर बहस को समाप्त कर देता था . अगर आप मेरी बात नहीं मान रहे हैं और मैं कह दूं कि मैंने यह बात बीबीसी पर सुनी है तो अगले की हिम्मत नहीं पड़ती थी को बहस को आगे बढाए. पहले के ज़माने में चुनाव पूर्व सर्वे या एक्सिट पोल नहीं होते थे . ज़्यादातर अखबार अपने आकलन देते थे और बीबीसी ने अगर कभी कोई आकलन दे दिया तो उस पर सबको विश्वास हो जाता था. बीबीसी का इस्तेमाल आर एस एस ने भी खूब किया . १९९१ में जब मुलायम सिंह यादव ने बाबरी मस्जिद ढहाने के लिए जुटी भीड़ पर गोलियां चलवा दी थीं तो आर एस एस के प्रिय अखबारों ने खबर दी कि अयोध्या में सरजू नदी में इतना खून बह गया था कि वह लाल हो गयी थी तो उन खबरों का तब तक विश्वास नहीं किया गया जब तक कि उन खबरों एक साथ साथ यह अफवाह फैलाने वालों क नहीं लगाया गया .भाइयों ने अफवाह फैला दी कि यह खबर बीबीसी पर सुनी गयी थी. पूरा देश तो बीबीसी सुनता नहीं लेकिन बीबीसी के नाम पर इस देश का आम आदमी झूठ पर भी विश्वास कर लेता था. नेताओंने कई बार देश में दंगे फैलाने के लिए बीबीसी का इस्तेमाल किया है . अफवाह फैला दी जाती थी कि फलां खबर बीबीसी पर सुनी है बस फिर क्या था. उस खबर को सच मान कर प्रतिक्रिया होती थी और कई बार तो दंगे भी शुरू हो जाते थे. इंदिरा गाँधी की मौत की खबर सबसे पहेल बीबीसी ने ही दी थी और उसके बाद जो सिखों का क़त्ले आम कांग्रेस के दिल्ली वाले नेताओं ने करवाया उसमें भी बीबीसी का इस्तेमाल किया गया . हुआ यह कि दुष्टों ने प्रचार करवा दिया कि बीबीसी में खबर आई है कि कुछ इलाकों में सिखों ने इंदिरा गाँधी के क़त्ल के बाद मिठाई बांटी . ऐसा बीबीसी ने कभी नहीं कहा था लेकिन उस पर लोगों का भरोसा इतना था कि बात फैल गयी. यहाँ इन बातों को बताने का उद्देश्य केवल इतना है कि कि बीबीसी इस देश में हमेशा ही एक भरोसेमंद संवाद का सोर्स रहा है और अब उसके बंद हो जाने पर ग्रामीण भारत में खबरें सुनने और विश्वास करने का फैशन बदल जाएगा. एक व्यक्तिगत अनुभव भी है.. मेरी आवाज़ बीबीसी के सुबह के प्रोग्राम में कई साल तक सुनी जाती रही थी . कई बार ऐसा हुआ कि जब भी मैंने किसी ट्रेन में या किसी पूछताछ दफ्तर में बात की तो लोगों ने आवाज़ पहचान ली और सम्मान दिया . यह मेरा निजी सम्मान नहीं होता था . यह बीबीसी की विश्वसनीयता पर आम आदमी के भरोसे की मुहर लगती थी. अब वह सब नहीं होगा . अप्रैल के बाद से बीबीसी की हिन्दी सर्विस इतिहास के कोख में जा छुपेगी . हालांकि बीबीसी के एफ एम रेडियो पर हिन्दी बोली तो जायेगी लेकिन बीबीसी हिन्दी के खबरें अब इस देश के हिन्दी जानने वाले के लिए सपना हो जायेगीं. ,इतिहास हो जायेगीं
ब्रिटिश ब्राडकास्टिंग कारपोरेशन के कई सेक्शन बंद किये जा रहे हैं . दुर्भाग्य की बात यह है कि हिन्दी सर्विस में भी बंदी का ऐलान कर दिया गया है.इसका मतलब यह हुआ कि बीबीसी रेडियो की हिंदी सर्विस को मार्च के अंत में बंद कर दिया जाएगा. बीबीसी की हिन्दी सेवा का बंद होना केवल एक व्यापारिक फैसला नहीं है . यह संस्कृति को प्रभावित करने वाला इतिहास का ऐसा मुकाम है जिसकी धमक बहुत दिनों तक महसूस की जायेगी. हालांकि इस बात में भी दो राय नहीं है कि बीबीसी की हिंदी सर्विस ने अपना वह मुकाम खो दिया है जो उसको पहले हासिल था.. पहले के दौर में बीबीसी की ख़बरों का भारत में बहुत सम्मान किया जाता था .१९७५ में जब इमरजेंसी लगी और भारत की आकाशवाणी और दूरदर्शन इंदिरा सरकार की ढपली बजाने लगे तो जो कुछ भी सही खबरें इस देश के आम आदमी के पास पंहुचीं वे सब बीबीसी की कृपा से ही पंहुचती थीं . इसके अलावा भी देश के हिन्दी भाषी इलाकों में रेडियों के श्रोताओं का एक बहुत बड़ा वर्ग है जिसकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में बीबीसी रेडियो पर हिन्दी खबरें सुनना एक ज़रूरी काम की तरह है . उत्तर प्रदेश और बिहार में पढ़े लिखे लोगों का एक बहुत बड़ा वर्ग है जिसके लिए कोई भी सूचना खबर नहीं बनती जब तक कि उसे बीबीसी पर न सुन लिया जाए. इस तरह की संस्था का बंद होना निश्चित रूप से इस देश के लिए दुःख की बात है . पता चला है कि बीबीसी हिन्दी की वेब खबरों का सिलसिला जारी रहेगा . लेकिन अभी वेब का नाम उतना नहीं है कि वह लोगों की आदात में शुमार हो सके.अपने देश में बीबीसी की विश्वसनीयता बहुत ज्यादा थी. . हालांकि बाद के दिनों में यह थोड़ी कम हो गयी थी लेकिन पत्रकारिता के सर्वोच्च मानदंडों का वहां हमेशा ख्याल रखा जाता था .मैंने अपने बचपन में देखा था कि जब दो लोग बहस कर रहे हों और बात सहमति पर न पंहुच रही हो तो कोई एक पक्ष बीबीसी का नाम लेकर बहस को समाप्त कर देता था . अगर आप मेरी बात नहीं मान रहे हैं और मैं कह दूं कि मैंने यह बात बीबीसी पर सुनी है तो अगले की हिम्मत नहीं पड़ती थी को बहस को आगे बढाए. पहले के ज़माने में चुनाव पूर्व सर्वे या एक्सिट पोल नहीं होते थे . ज़्यादातर अखबार अपने आकलन देते थे और बीबीसी ने अगर कभी कोई आकलन दे दिया तो उस पर सबको विश्वास हो जाता था. बीबीसी का इस्तेमाल आर एस एस ने भी खूब किया . १९९१ में जब मुलायम सिंह यादव ने बाबरी मस्जिद ढहाने के लिए जुटी भीड़ पर गोलियां चलवा दी थीं तो आर एस एस के प्रिय अखबारों ने खबर दी कि अयोध्या में सरजू नदी में इतना खून बह गया था कि वह लाल हो गयी थी तो उन खबरों का तब तक विश्वास नहीं किया गया जब तक कि उन खबरों एक साथ साथ यह अफवाह फैलाने वालों क नहीं लगाया गया .भाइयों ने अफवाह फैला दी कि यह खबर बीबीसी पर सुनी गयी थी. पूरा देश तो बीबीसी सुनता नहीं लेकिन बीबीसी के नाम पर इस देश का आम आदमी झूठ पर भी विश्वास कर लेता था. नेताओंने कई बार देश में दंगे फैलाने के लिए बीबीसी का इस्तेमाल किया है . अफवाह फैला दी जाती थी कि फलां खबर बीबीसी पर सुनी है बस फिर क्या था. उस खबर को सच मान कर प्रतिक्रिया होती थी और कई बार तो दंगे भी शुरू हो जाते थे. इंदिरा गाँधी की मौत की खबर सबसे पहेल बीबीसी ने ही दी थी और उसके बाद जो सिखों का क़त्ले आम कांग्रेस के दिल्ली वाले नेताओं ने करवाया उसमें भी बीबीसी का इस्तेमाल किया गया . हुआ यह कि दुष्टों ने प्रचार करवा दिया कि बीबीसी में खबर आई है कि कुछ इलाकों में सिखों ने इंदिरा गाँधी के क़त्ल के बाद मिठाई बांटी . ऐसा बीबीसी ने कभी नहीं कहा था लेकिन उस पर लोगों का भरोसा इतना था कि बात फैल गयी. यहाँ इन बातों को बताने का उद्देश्य केवल इतना है कि कि बीबीसी इस देश में हमेशा ही एक भरोसेमंद संवाद का सोर्स रहा है और अब उसके बंद हो जाने पर ग्रामीण भारत में खबरें सुनने और विश्वास करने का फैशन बदल जाएगा. एक व्यक्तिगत अनुभव भी है.. मेरी आवाज़ बीबीसी के सुबह के प्रोग्राम में कई साल तक सुनी जाती रही थी . कई बार ऐसा हुआ कि जब भी मैंने किसी ट्रेन में या किसी पूछताछ दफ्तर में बात की तो लोगों ने आवाज़ पहचान ली और सम्मान दिया . यह मेरा निजी सम्मान नहीं होता था . यह बीबीसी की विश्वसनीयता पर आम आदमी के भरोसे की मुहर लगती थी. अब वह सब नहीं होगा . अप्रैल के बाद से बीबीसी की हिन्दी सर्विस इतिहास के कोख में जा छुपेगी . हालांकि बीबीसी के एफ एम रेडियो पर हिन्दी बोली तो जायेगी लेकिन बीबीसी हिन्दी के खबरें अब इस देश के हिन्दी जानने वाले के लिए सपना हो जायेगीं. ,इतिहास हो जायेगीं
Labels:
बीबीसी,
लन्दन,
शेष नारायण सिंह,
हिन्दी सर्विस
Tuesday, January 25, 2011
आर एस एस ने १९४८ में तिरंगे को पैरों तले रौंदा था.
शेष नारायण सिंह
श्रीनगर के लाल चौक पर झंडा फहराने की बीजेपी की राजनीति पूरी तरह से उल्टी पड़ चुकी है . बीजेपी की अगुवाई वाले एन डी ए के संयोजक शरद यादव तो पहले ही इस झंडा यात्रा को गलत बता चुके हैं ,अब बिहार के मुख्य मंत्री और बीजेपी के महत्वपूर्ण सहयोगी नीतीश कुमार ने श्रीनगर में जाकर झंडा फहराने की जिद का विरोध किया है . शरद यादव ने तो साफ़ कहा है कि जम्मू कश्मीर में जो शान्ति स्थापित हो रही है उसको कमज़ोर करने के लिए की जा रही बीजेपी की झंडा यात्रा का फायदा उन लोगों को होगा जो भारत की एकता का विरोध करते हैं . नीतीश कुमार ने बीजेपी से अपील की है कि इस फालतू यात्रा को फ़ौरन रोक दे .सूचना क्रान्ति के चलते अब देश के बहुत बड़े मध्यवर्ग को मालूम चल चुका है कि झंडा फहराना बीजेपी की राजनीति का स्थायी भाव नहीं है , वह तो सुविधा के हिसाब से झंडा फहराती रहती है . . बीजेपी की मालिक आर एस एस के मुख्यालय पर २००३ तक कभी भी तिरंगा झंडा नहीं फहराया गया था. वो तो जब २००४ में तत्कालीन बीजेपी की नेता उमा भारती तिरंगा फहराने कर्नाटक के हुबली की ओर कूच कर चुकी थीं तो लोगों ने अखबारों में लिखा कि हुबली में झंडा फहराने के साथ साथ उमा भारती को नागपुर के आर एस एस के मुख्यालय में भी झंडा फहरा लेना चाहिए .,तब जाकर आर एस एस ने अपने दफ्तर पर झंडा फहराया . २००४ के विवाद के दौरान भी उतनी ही हडकंप मची थी जितनी आज मची हुई है लेकिन तब टेलीविज़न की खबरें इतनी विकसित नहीं थी इसलिए बीजेपी की धुलाई उतनी नहीं हुई थी जितनी कि आजकल हो रही है . तिरंगा फहराने के बहाने बहुत सारे सवाल भी बीजेपी वालों से पूछे जा रहे हैं. अभी कुछ साल पहले कुछ कांग्रेसी तिरंगा लेकर चल पड़े थे और उन्होंने ऐलान किया था कि वे आर एस एस के नागपुर मुख्यालय पर भी तिरंगा झंडा फहरा देगें . रास्ते में उन पर लाठियां बरसाई गयी थी. लोग सवाल पूछ रहे हैं कि उस वक़्त के तिरंगे से क्यों चिढी हुई थी बीजेपी जो महाराष्ट्र में अपनी सरकार का इस्तेमाल करके तिरंगा फहराने जा रहे कांग्रेसियों को पिटवाया था. जब उमा भारती ने २००४ हुबली में झंडा फहराने के लिए यात्रा की थी तो विद्वान् इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने प्रतिष्ठित अखबार ,हिन्दू में एक बहुत ही दिलचस्प लेख लिखा था .उन्होंने सवाल किया था कि बीजेपी आज क्यों इतनी ज्यादा राष्ट्रप्रेम की बात करती है . खुद ही उन्होंने जवाब का भी अंदाज़ लगाया था कि शायद इसलिए कि बीजेपी की मातृ पार्टी , आर एस एस ने आज़ादी की लड़ाई में कभी हिस्सा नहीं लिया था .१९३० और १९४० के दशक में जब आज़ादी की लड़ाई पूरे उफान पर थी तो आर एस एस का कोई भी आदमी या सदस्य उसमें शामिल नहीं हुआ था. यहाँ तक कि जहां भी तिरंगा फहराया गया , आर एस एस वालों ने कभी उसे सल्यूट तक नहीं किया .आर एस एस ने हमेशा ही भगवा झंडे को तिरंगे से ज्यादा महत्व दिया .३० जनवरी १९४८ को जब महात्मा गाँधी की ह्त्या कर दी गयी तो इस तरह की खबरें आई थीं कि आर एस एस के लोग तिरंगे झंडे को पैरों से रौंद रहे थे . यह खबर उन दिनों के अखबारों में खूब छपी थीं .आज़ादी के संग्राम में शामिल लोगों को आर एस एस की इस हरकत से बहुत तकलीफ हुई थी . उनमें जवाहरलाल नेहरू भी एक थे . २४ फरवरी को उन्होंने अपने एक भाषण में अपनी पीडा को व्यक्त किया था . उन्होंने कहा कि खबरें आ रही हैं कि आर एस एस के सदस्य तिरंगे का अपमान कर रहे हैं .. उन्हें मालूम होना चाहिए कि राष्ट्रीय झंडे का अपमान करके वे अपने आपको देशद्रोही साबित कर रहे हैं
यह तिरंगा हमारी आज़ादी के लड़ाई का स्थायी साथी रहा है जबकि आर एस एस वालों ने आज़ादी की लड़ाई में देश की जनता की भावनाओं का साथ नहीं दिया था. तिरंगे की अवधारना पूरी तरह से कांग्रेस की देन है . तिरंगे झंडे की बात सबसे पहले आन्ध्र प्रदेश के मसुलीपट्टम के कांग्रेसी कार्यकर्ता पी वेंकय्या के दिमाग में उपजी थी १९१८ और १९२१ के बीच हर कांग्रेस अधिवेशन में वे राष्ट्रीय झंडे को फहराने की बात करते थे . महात्मा गाँधी को यह विचार तो ठीक लगता था लेकिन उन्होंने वेंकय्या जी की डिजाइन में कुछ परिवर्तन सुझाए . गाँधी जी की बात को ध्यान में रहकर दिल्ली के देशभक्त लाला हंसराज ने सुझाव दिया कि बीच में चरखा लगा दिया जाए तो ज्यादा सही रहेगा . महात्मा गाँधी को लालाजी की बात अच्छी लगी और थोड़े बहुत परिवर्तन के बाद तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार कर लिया गया .उसके बाद कांग्रेस के सभी कार्यक्रमों में तिरंगा फहराया जाने लगा. अगस्त १९३१ में कांग्रेस की एक कमेटी बनायी गयी जिसने झंडे में कुछ परिवर्तन का सुझाव दिया . वेंकय्या के झंडे में लाल रंग था . उसकी जगह पर भगवा पट्टी कर दी गयी . उसके बाद सफ़ेद पट्टी और सबसे नीचे हरा रंग किया गया . चरखा बीच में सफ़ेद पट्टी पर सुपर इम्पोज कर दिया गया . महात्मा गाँधी ने इस परिवर्तन को सही बताया और कहा कि राष्ट्रीय ध्वज अहिंसा और राष्ट्रीय एकता की निशानी है .
आज़ादी मिलने के बाद तिरंगे में कुछ परिवर्तन किया गया . संविधान सभा की एक कमेटी ने तय किया कि उस वक़्त तक तिरंगा कांग्रेस के हर कार्यक्रम में फहराया जाता रहा है लेकिन अब देश सब का है . उन लोगों का भी जो आज़ादी की लड़ाई में अंग्रेजों के मित्र के रूप में जाने जाते थे . इसलिए चरखे की जगह पर अशोक चक्र को लगाने का फैसला किया गया . जब महात्मा गाँधी को इसकी जानकारी दी गयी तो उन्हें ताज्जुब हुआ . बोले कि कांग्रेस तो हमेशा से ही राष्ट्रीय रही है . इसलिए इस तरह के बदलाव की कोई ज़रुरत नहीं है . लेकिन उन्हें नयी डिजाइन के बारे में राजी कर लिया गया . इस तिरंगे की यात्रा में बीजेपी या उसकी मालिक आर एस एस का कोई योगदान नहीं है लेकिन वह उसी के बल पर कांग्रेस को राजनीतिक रूप से घेरने में सफल होती नज़र आ रही है . अजीब बात यह है कि कांग्रेसी अपने इतिहास की बातें तक नहीं कर रहे हैं . अगर वे अपने इतिहास का हवाला देकर काम करें तो बीजेपी और आर एस एस को बहुत आसानी से घेरा जा सकता है और तिरंगे के नाम पर राजनीति करने से रोका जा सकता है .
श्रीनगर के लाल चौक पर झंडा फहराने की बीजेपी की राजनीति पूरी तरह से उल्टी पड़ चुकी है . बीजेपी की अगुवाई वाले एन डी ए के संयोजक शरद यादव तो पहले ही इस झंडा यात्रा को गलत बता चुके हैं ,अब बिहार के मुख्य मंत्री और बीजेपी के महत्वपूर्ण सहयोगी नीतीश कुमार ने श्रीनगर में जाकर झंडा फहराने की जिद का विरोध किया है . शरद यादव ने तो साफ़ कहा है कि जम्मू कश्मीर में जो शान्ति स्थापित हो रही है उसको कमज़ोर करने के लिए की जा रही बीजेपी की झंडा यात्रा का फायदा उन लोगों को होगा जो भारत की एकता का विरोध करते हैं . नीतीश कुमार ने बीजेपी से अपील की है कि इस फालतू यात्रा को फ़ौरन रोक दे .सूचना क्रान्ति के चलते अब देश के बहुत बड़े मध्यवर्ग को मालूम चल चुका है कि झंडा फहराना बीजेपी की राजनीति का स्थायी भाव नहीं है , वह तो सुविधा के हिसाब से झंडा फहराती रहती है . . बीजेपी की मालिक आर एस एस के मुख्यालय पर २००३ तक कभी भी तिरंगा झंडा नहीं फहराया गया था. वो तो जब २००४ में तत्कालीन बीजेपी की नेता उमा भारती तिरंगा फहराने कर्नाटक के हुबली की ओर कूच कर चुकी थीं तो लोगों ने अखबारों में लिखा कि हुबली में झंडा फहराने के साथ साथ उमा भारती को नागपुर के आर एस एस के मुख्यालय में भी झंडा फहरा लेना चाहिए .,तब जाकर आर एस एस ने अपने दफ्तर पर झंडा फहराया . २००४ के विवाद के दौरान भी उतनी ही हडकंप मची थी जितनी आज मची हुई है लेकिन तब टेलीविज़न की खबरें इतनी विकसित नहीं थी इसलिए बीजेपी की धुलाई उतनी नहीं हुई थी जितनी कि आजकल हो रही है . तिरंगा फहराने के बहाने बहुत सारे सवाल भी बीजेपी वालों से पूछे जा रहे हैं. अभी कुछ साल पहले कुछ कांग्रेसी तिरंगा लेकर चल पड़े थे और उन्होंने ऐलान किया था कि वे आर एस एस के नागपुर मुख्यालय पर भी तिरंगा झंडा फहरा देगें . रास्ते में उन पर लाठियां बरसाई गयी थी. लोग सवाल पूछ रहे हैं कि उस वक़्त के तिरंगे से क्यों चिढी हुई थी बीजेपी जो महाराष्ट्र में अपनी सरकार का इस्तेमाल करके तिरंगा फहराने जा रहे कांग्रेसियों को पिटवाया था. जब उमा भारती ने २००४ हुबली में झंडा फहराने के लिए यात्रा की थी तो विद्वान् इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने प्रतिष्ठित अखबार ,हिन्दू में एक बहुत ही दिलचस्प लेख लिखा था .उन्होंने सवाल किया था कि बीजेपी आज क्यों इतनी ज्यादा राष्ट्रप्रेम की बात करती है . खुद ही उन्होंने जवाब का भी अंदाज़ लगाया था कि शायद इसलिए कि बीजेपी की मातृ पार्टी , आर एस एस ने आज़ादी की लड़ाई में कभी हिस्सा नहीं लिया था .१९३० और १९४० के दशक में जब आज़ादी की लड़ाई पूरे उफान पर थी तो आर एस एस का कोई भी आदमी या सदस्य उसमें शामिल नहीं हुआ था. यहाँ तक कि जहां भी तिरंगा फहराया गया , आर एस एस वालों ने कभी उसे सल्यूट तक नहीं किया .आर एस एस ने हमेशा ही भगवा झंडे को तिरंगे से ज्यादा महत्व दिया .३० जनवरी १९४८ को जब महात्मा गाँधी की ह्त्या कर दी गयी तो इस तरह की खबरें आई थीं कि आर एस एस के लोग तिरंगे झंडे को पैरों से रौंद रहे थे . यह खबर उन दिनों के अखबारों में खूब छपी थीं .आज़ादी के संग्राम में शामिल लोगों को आर एस एस की इस हरकत से बहुत तकलीफ हुई थी . उनमें जवाहरलाल नेहरू भी एक थे . २४ फरवरी को उन्होंने अपने एक भाषण में अपनी पीडा को व्यक्त किया था . उन्होंने कहा कि खबरें आ रही हैं कि आर एस एस के सदस्य तिरंगे का अपमान कर रहे हैं .. उन्हें मालूम होना चाहिए कि राष्ट्रीय झंडे का अपमान करके वे अपने आपको देशद्रोही साबित कर रहे हैं
यह तिरंगा हमारी आज़ादी के लड़ाई का स्थायी साथी रहा है जबकि आर एस एस वालों ने आज़ादी की लड़ाई में देश की जनता की भावनाओं का साथ नहीं दिया था. तिरंगे की अवधारना पूरी तरह से कांग्रेस की देन है . तिरंगे झंडे की बात सबसे पहले आन्ध्र प्रदेश के मसुलीपट्टम के कांग्रेसी कार्यकर्ता पी वेंकय्या के दिमाग में उपजी थी १९१८ और १९२१ के बीच हर कांग्रेस अधिवेशन में वे राष्ट्रीय झंडे को फहराने की बात करते थे . महात्मा गाँधी को यह विचार तो ठीक लगता था लेकिन उन्होंने वेंकय्या जी की डिजाइन में कुछ परिवर्तन सुझाए . गाँधी जी की बात को ध्यान में रहकर दिल्ली के देशभक्त लाला हंसराज ने सुझाव दिया कि बीच में चरखा लगा दिया जाए तो ज्यादा सही रहेगा . महात्मा गाँधी को लालाजी की बात अच्छी लगी और थोड़े बहुत परिवर्तन के बाद तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार कर लिया गया .उसके बाद कांग्रेस के सभी कार्यक्रमों में तिरंगा फहराया जाने लगा. अगस्त १९३१ में कांग्रेस की एक कमेटी बनायी गयी जिसने झंडे में कुछ परिवर्तन का सुझाव दिया . वेंकय्या के झंडे में लाल रंग था . उसकी जगह पर भगवा पट्टी कर दी गयी . उसके बाद सफ़ेद पट्टी और सबसे नीचे हरा रंग किया गया . चरखा बीच में सफ़ेद पट्टी पर सुपर इम्पोज कर दिया गया . महात्मा गाँधी ने इस परिवर्तन को सही बताया और कहा कि राष्ट्रीय ध्वज अहिंसा और राष्ट्रीय एकता की निशानी है .
आज़ादी मिलने के बाद तिरंगे में कुछ परिवर्तन किया गया . संविधान सभा की एक कमेटी ने तय किया कि उस वक़्त तक तिरंगा कांग्रेस के हर कार्यक्रम में फहराया जाता रहा है लेकिन अब देश सब का है . उन लोगों का भी जो आज़ादी की लड़ाई में अंग्रेजों के मित्र के रूप में जाने जाते थे . इसलिए चरखे की जगह पर अशोक चक्र को लगाने का फैसला किया गया . जब महात्मा गाँधी को इसकी जानकारी दी गयी तो उन्हें ताज्जुब हुआ . बोले कि कांग्रेस तो हमेशा से ही राष्ट्रीय रही है . इसलिए इस तरह के बदलाव की कोई ज़रुरत नहीं है . लेकिन उन्हें नयी डिजाइन के बारे में राजी कर लिया गया . इस तिरंगे की यात्रा में बीजेपी या उसकी मालिक आर एस एस का कोई योगदान नहीं है लेकिन वह उसी के बल पर कांग्रेस को राजनीतिक रूप से घेरने में सफल होती नज़र आ रही है . अजीब बात यह है कि कांग्रेसी अपने इतिहास की बातें तक नहीं कर रहे हैं . अगर वे अपने इतिहास का हवाला देकर काम करें तो बीजेपी और आर एस एस को बहुत आसानी से घेरा जा सकता है और तिरंगे के नाम पर राजनीति करने से रोका जा सकता है .
Monday, January 24, 2011
भावनात्मक मुद्दों पर राजनीतिक पैंतरेबाजी नहीं करनी चाहिए
शेष नारायण सिंह
राजनीति एक गंभीर विषय है . जब भी राजनीति को भावनात्मक मुद्दों के सहारे चलाने की कोशिश की जाती है, नतीजे बहुत ही भयानक होते हैं . राजनीति की गलती क्रिकेट की गलती नहीं है . जब राजनेता गलती करता है तो इतिहास बदलता है . आने वाली पीढ़ियों का भविष्य या तो सुधरता या तबाह होता है .इसलिए राजनीति को भावनात्मक धरातल पर कभी नहीं ले जाया जाना चाहिए. इस बात को समझने के लिए सबसे अच्छा उदाहरण पड़ोसी देश पाकिस्तान का है जहां आजादी के बाद से ही भावनात्मक मुद्दों को राजनीति का विषय बनाया गया और आज पाकिस्तानी राष्ट्र तबाही के कगार पर खड़ा है .आज़ादी के वक़्त हम भाग्यशाली थे कि हमारे नेता वास्तविकता के धरातल पर ही काम करते थे और देश में विकास की बुनियाद रख दी गयी. शिक्षा समेत हर क्षेत्र में जो काम हुआ उस से फौरी लाभ की उम्मीद तो नहीं थी लेकिन भविष्य के सुधरने की मज़बूत संभावना थी. जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु के बाद हमारे यहाँ भी भावनात्मक मुद्दों को राष्ट्रीय मुद्दा बनाने की कोशिश शुरू हो गयी. सबसे शुरुआती उदाहरण बंगलादेश के जन्म का है . पाकिस्तान के दो टुकड़े करके जब बंगलादेश की जनता ने अपनी आज़ादी जीती तो इंदिरा गाँधी ने उस जीत का सेहरा अपने सर लेकर बाद के जितने चुनाव हुए सबको भावनातमक धरातल पर जीतने की कोशिश की और काफी हद तक सफल भी रहीं लेकिन उसका नुकसान यह हुआ कि इंदिरा गाँधी यह समझ बैठीं कि चुनाव जीतने के लिए गंभीर राजनीति की नहीं भावनात्मक विषयों की ज़रुरत होती है . नतीजा यह हुआ कि १९७५ में सत्ता में बने रहने के लिए उन्हें इमरजेंसी लगानी पड़ी और १९७७ में सत्ता से बाहर कर दी गयीं .
लोगों की भावनाओं से खेलकर राजनीति का सबसे ताज़ा उदाहरण , बीजेपी की ओर से २६ जनवरी के दिन लाल चौक पर झंडा फहराने का है .अन्य पार्टियों के नेताओं के साथ साथ बीजेपी के नेताओं को मालूम है कि जम्मू-कश्मीर का मसला बहुत की नाजुक है . पिछली सरकारों की गलतियों की वजह से बात इतनी बिगड़ चुकी है कि देश की अखंडता को ख़तरा पैदा हो गया है . उन गलतियों के लिए कांग्रेस तो ज़िम्मेदार है ही, बीजेपी वाले भी कम ज़िम्मेदार नहीं है .पाकिस्तान के पिछले ६० साल से चल रहे अभियान की वजह से वहां की जनता में भारी असमंजस की स्थिति है. ऐसी हालत में बात को और बिगाड़ने की कोशिश करना निहायत ही गैर ज़िम्मेदार काम है . लेकिन लगता है कि प्रकृति ने ही बीजेपी को सज़ा दे दी है . पता चला है कि बीजेपी के झंडा फहराने वालों की भीड़ में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो कश्मीर में पत्थर फेंकने वालों की जमात में शामिल थे. पुलिस को उनकी तलाश थी . जब वे पकड़ लिए गए तो बीजेपी के जम्मू-कश्मीर उपाध्यक्ष ने बयान दिया कि कश्मीर पंहुच रहे बीजेपी कार्यकर्ताओं का स्वागत करने के लिए जो टीम बनायी गयी थी उसके लोगों को पुलिस गिरफ्तार करके झंडा फहराने वाले कार्यक्रम को खराब करने की कोशिश की है . जब पुलिस ने कहा कि भाई, जिन लोगों को पकड़ा गया है वे तो पत्थर फेंकने वालों के सरगना रह चुके हैं तो बीजेपी के राज्य नेतृत्व के हाथों से तोते उड़ गए. उनकी वे सारी कोशिशें धरी रह गयीं जिसके तहत वे सरकार को घेरने की कोशिश कर रहे थे .दरअसल इसमें बीजेपी की कोई गलती नहीं है. अब किसी भी पार्टी की रैली के लिए भीड़ जुटाने का काम भीड़ के ठेकेदारों को दे दिया जाता है . भीड़ में शामिल लोगों को पता नहीं रहता कि किस की तरफ से जा रहे हैं . जब वे टेम्पो में बैठ जाते हैं तो उन्हें बताया जाता है कि किस पार्टी के नेता की जय बोलनी है . भीड़ में आये लोगों को इस काम के लिए बाकायदा पैसा मिलता है . दिल्ली में यह काम बहुत अच्छी तरह से विकसित हो चुका है . राजनीतिक रैलियों को कवर करने वाले दिल्ली के सारे पत्रकार इस तरह के भीड़ के कांट्रेक्टरों को जानते हैं . कई बार तो किसी नेता के मरने पर रोने के लिए भी किराए की जनता आती है. यह कला कांग्रेसी राज में शुरू हुई जब इमरजेंसी के समर्थन में भीड़ जुटाने का काम दिल्ली में अर्जुन दास और सज्जन कुमार को १९७५ में दिया गया था .उस दौर में कांग्रेस से आम जनता बहुत नाराज़ थी . कोई आने को तैयार नहीं था .तो इन लोगों ने झुग्गी झोपडी कालोनियों से किराए की भीड़ जुटाया था . उसके बाद से तो इस तरह की भीड़ जुटाने का धंधा दिल्ली में पूरी तरह से चल रहा है . धीरे धीरे यह काम राज्यों में भी पंहुच गया . जम्मू कश्मीर में जिन पत्थर फेंकने वालों ने बीजेपी की भीड़ का हिस्सा बनने का धंधा किया था वे पकड़ लिए गए . यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं है लेकिन बीजेपी के नेतृत्व के सामने खिसियाने के सिवा अब कोई और रास्ता नहीं बचा है . लेकिन जब अवाम की हिस्सेदारी के बिना किराए की भीड़ के साथ इस तरह का काम किया जाएगा तो उसके नतीजे भी राजनीतिक नहीं होंगें ,खिसियाने की नौबत बार बार आयेगी.
श्रीनगर के लाल चौक पर झंडा फहराने के बारे में बीजेपी को इसके पहले भी एक बार खिसियाना पड़ा था जब प्रो मुरली मनोहर जोशी बीजेपी के अध्यक्ष थे और पीवी नरसिम्हा राव प्रधान मंत्री पद पर विराजमान थे. प्रो. जोशी के नेतृत्व में झंडा फहराने वालों की टोली दिल्ली से चल पड़ी. उम्मीद थी कि जनवरी की भारी ठण्ड में जम्मू-श्रीनगर हाइवे बंद रहेगा और श्रीनगर की अशांत स्थिति के मद्दे नज़र लोगों को जम्मू में ही रोक दिया जाएगा . पत्रकारों का एक दल भी साथ था . लेकिन जब डॉ जोशी जम्मू पंहुचे तो पी वी नरसिम्हा राव का बयान आ गया कि भारत में २६ जनवरी को झंडा फहराया जाता है . इस देश का कोई भी नागरिक देश के किसी भी कोने में झंडा फहरा सकता है . इसका मतलब यह हुआ कि डॉ जोशी को श्रीनगर जाकर झंडा फहराना पड़ेगा . गिरफ्तार होने की संभावना ख़त्म हो चुकी थी .पी वी नरसिम्हा राव ने सरकारी जहाज का इंतज़ाम करके जोशी जी की टीम को श्रीनगर पंहुचा दिया . २५ जनवरी के दिन लाल चौक पर एक बम धमाका भी हो गया जहां झंडा फहराया जाना था . ज़बरदस्त सुरक्षा के घेरे में जोशी जी की टीम लाल चौक ले जाई गयी और झंडा फहराने का काम शुरू हुआ. उनके साथ बीजेपी के कई और नेता भी थे. श्रीनगर की २६ जनवरी की ठण्ड में भी सब के माथे पर पसीना चमक रहा था . किस्मत की बात ऐसी कि जोशी जे ने झंडा उल्टा फहरा दिया . सुरक्षा का ज़बरदस्त बंदोबस्त था लिहाजा किसी को कोई चोट चपेट नहीं लगी. दिल्ली में बैठे बीजेपी में मौजूद जोशी जी के विरोधियों ने उस घटना का वर्णन खूब चटखारे लेकर किया. २४ घंटे की टी वी न्यूज़ का ज़माना नहीं था वरना पूरे देश ने इस दुर्दशा को देखा होता .
इस बार भी झंडा फहराने के मुद्दे पर अपशकुन शुरू हो गया है . देखना है कि अगले दो दिनों में भावनात्मक राजनीति किस तरह के मोड़ से होकर गुज़रती है . वैसे बीजेपी या उसकी पूर्वज जनसंघ की किस्मत में कश्मीर की खराब हालात से राजनीतिक लाभ लेना लिखा नहीं है. शुरुआती दौर में जनसंघ के नेता डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी के साथ भी यह हो चुका है . जब वे श्रीनगर जाने के लिए जम्मू पंहुचे तो उनके साथ जनसंघ के कार्यकर्ता के नाम पर वही लोग थे जो प्रजा परिषद् में रह चुके थे . गौर करने की बात यह है कि प्रजा परिषद् वही संगठन है जिसके लोग १९४७ में राजा के साथ थे जब वे जिन्ना के साथ जाने के चक्कर में थे. ज़ाहिर है कि जम्मू-कश्मीर में प्रजा परिषद् वालों की कोई इज्ज़त नहीं थी जिसकी वजह से डॉ श्यामप्रसाद मुखर्जी की पोजीशन भी खराब हुई थी . कुल मिलाकर ज़रूरी यह है कि राजनीति को गंभीर आचरण का विषय समझा जाना चाहिए और देश की एकता के खिलाफ काम कभी नहीं करना चाहिए .
राजनीति एक गंभीर विषय है . जब भी राजनीति को भावनात्मक मुद्दों के सहारे चलाने की कोशिश की जाती है, नतीजे बहुत ही भयानक होते हैं . राजनीति की गलती क्रिकेट की गलती नहीं है . जब राजनेता गलती करता है तो इतिहास बदलता है . आने वाली पीढ़ियों का भविष्य या तो सुधरता या तबाह होता है .इसलिए राजनीति को भावनात्मक धरातल पर कभी नहीं ले जाया जाना चाहिए. इस बात को समझने के लिए सबसे अच्छा उदाहरण पड़ोसी देश पाकिस्तान का है जहां आजादी के बाद से ही भावनात्मक मुद्दों को राजनीति का विषय बनाया गया और आज पाकिस्तानी राष्ट्र तबाही के कगार पर खड़ा है .आज़ादी के वक़्त हम भाग्यशाली थे कि हमारे नेता वास्तविकता के धरातल पर ही काम करते थे और देश में विकास की बुनियाद रख दी गयी. शिक्षा समेत हर क्षेत्र में जो काम हुआ उस से फौरी लाभ की उम्मीद तो नहीं थी लेकिन भविष्य के सुधरने की मज़बूत संभावना थी. जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु के बाद हमारे यहाँ भी भावनात्मक मुद्दों को राष्ट्रीय मुद्दा बनाने की कोशिश शुरू हो गयी. सबसे शुरुआती उदाहरण बंगलादेश के जन्म का है . पाकिस्तान के दो टुकड़े करके जब बंगलादेश की जनता ने अपनी आज़ादी जीती तो इंदिरा गाँधी ने उस जीत का सेहरा अपने सर लेकर बाद के जितने चुनाव हुए सबको भावनातमक धरातल पर जीतने की कोशिश की और काफी हद तक सफल भी रहीं लेकिन उसका नुकसान यह हुआ कि इंदिरा गाँधी यह समझ बैठीं कि चुनाव जीतने के लिए गंभीर राजनीति की नहीं भावनात्मक विषयों की ज़रुरत होती है . नतीजा यह हुआ कि १९७५ में सत्ता में बने रहने के लिए उन्हें इमरजेंसी लगानी पड़ी और १९७७ में सत्ता से बाहर कर दी गयीं .
लोगों की भावनाओं से खेलकर राजनीति का सबसे ताज़ा उदाहरण , बीजेपी की ओर से २६ जनवरी के दिन लाल चौक पर झंडा फहराने का है .अन्य पार्टियों के नेताओं के साथ साथ बीजेपी के नेताओं को मालूम है कि जम्मू-कश्मीर का मसला बहुत की नाजुक है . पिछली सरकारों की गलतियों की वजह से बात इतनी बिगड़ चुकी है कि देश की अखंडता को ख़तरा पैदा हो गया है . उन गलतियों के लिए कांग्रेस तो ज़िम्मेदार है ही, बीजेपी वाले भी कम ज़िम्मेदार नहीं है .पाकिस्तान के पिछले ६० साल से चल रहे अभियान की वजह से वहां की जनता में भारी असमंजस की स्थिति है. ऐसी हालत में बात को और बिगाड़ने की कोशिश करना निहायत ही गैर ज़िम्मेदार काम है . लेकिन लगता है कि प्रकृति ने ही बीजेपी को सज़ा दे दी है . पता चला है कि बीजेपी के झंडा फहराने वालों की भीड़ में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो कश्मीर में पत्थर फेंकने वालों की जमात में शामिल थे. पुलिस को उनकी तलाश थी . जब वे पकड़ लिए गए तो बीजेपी के जम्मू-कश्मीर उपाध्यक्ष ने बयान दिया कि कश्मीर पंहुच रहे बीजेपी कार्यकर्ताओं का स्वागत करने के लिए जो टीम बनायी गयी थी उसके लोगों को पुलिस गिरफ्तार करके झंडा फहराने वाले कार्यक्रम को खराब करने की कोशिश की है . जब पुलिस ने कहा कि भाई, जिन लोगों को पकड़ा गया है वे तो पत्थर फेंकने वालों के सरगना रह चुके हैं तो बीजेपी के राज्य नेतृत्व के हाथों से तोते उड़ गए. उनकी वे सारी कोशिशें धरी रह गयीं जिसके तहत वे सरकार को घेरने की कोशिश कर रहे थे .दरअसल इसमें बीजेपी की कोई गलती नहीं है. अब किसी भी पार्टी की रैली के लिए भीड़ जुटाने का काम भीड़ के ठेकेदारों को दे दिया जाता है . भीड़ में शामिल लोगों को पता नहीं रहता कि किस की तरफ से जा रहे हैं . जब वे टेम्पो में बैठ जाते हैं तो उन्हें बताया जाता है कि किस पार्टी के नेता की जय बोलनी है . भीड़ में आये लोगों को इस काम के लिए बाकायदा पैसा मिलता है . दिल्ली में यह काम बहुत अच्छी तरह से विकसित हो चुका है . राजनीतिक रैलियों को कवर करने वाले दिल्ली के सारे पत्रकार इस तरह के भीड़ के कांट्रेक्टरों को जानते हैं . कई बार तो किसी नेता के मरने पर रोने के लिए भी किराए की जनता आती है. यह कला कांग्रेसी राज में शुरू हुई जब इमरजेंसी के समर्थन में भीड़ जुटाने का काम दिल्ली में अर्जुन दास और सज्जन कुमार को १९७५ में दिया गया था .उस दौर में कांग्रेस से आम जनता बहुत नाराज़ थी . कोई आने को तैयार नहीं था .तो इन लोगों ने झुग्गी झोपडी कालोनियों से किराए की भीड़ जुटाया था . उसके बाद से तो इस तरह की भीड़ जुटाने का धंधा दिल्ली में पूरी तरह से चल रहा है . धीरे धीरे यह काम राज्यों में भी पंहुच गया . जम्मू कश्मीर में जिन पत्थर फेंकने वालों ने बीजेपी की भीड़ का हिस्सा बनने का धंधा किया था वे पकड़ लिए गए . यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं है लेकिन बीजेपी के नेतृत्व के सामने खिसियाने के सिवा अब कोई और रास्ता नहीं बचा है . लेकिन जब अवाम की हिस्सेदारी के बिना किराए की भीड़ के साथ इस तरह का काम किया जाएगा तो उसके नतीजे भी राजनीतिक नहीं होंगें ,खिसियाने की नौबत बार बार आयेगी.
श्रीनगर के लाल चौक पर झंडा फहराने के बारे में बीजेपी को इसके पहले भी एक बार खिसियाना पड़ा था जब प्रो मुरली मनोहर जोशी बीजेपी के अध्यक्ष थे और पीवी नरसिम्हा राव प्रधान मंत्री पद पर विराजमान थे. प्रो. जोशी के नेतृत्व में झंडा फहराने वालों की टोली दिल्ली से चल पड़ी. उम्मीद थी कि जनवरी की भारी ठण्ड में जम्मू-श्रीनगर हाइवे बंद रहेगा और श्रीनगर की अशांत स्थिति के मद्दे नज़र लोगों को जम्मू में ही रोक दिया जाएगा . पत्रकारों का एक दल भी साथ था . लेकिन जब डॉ जोशी जम्मू पंहुचे तो पी वी नरसिम्हा राव का बयान आ गया कि भारत में २६ जनवरी को झंडा फहराया जाता है . इस देश का कोई भी नागरिक देश के किसी भी कोने में झंडा फहरा सकता है . इसका मतलब यह हुआ कि डॉ जोशी को श्रीनगर जाकर झंडा फहराना पड़ेगा . गिरफ्तार होने की संभावना ख़त्म हो चुकी थी .पी वी नरसिम्हा राव ने सरकारी जहाज का इंतज़ाम करके जोशी जी की टीम को श्रीनगर पंहुचा दिया . २५ जनवरी के दिन लाल चौक पर एक बम धमाका भी हो गया जहां झंडा फहराया जाना था . ज़बरदस्त सुरक्षा के घेरे में जोशी जी की टीम लाल चौक ले जाई गयी और झंडा फहराने का काम शुरू हुआ. उनके साथ बीजेपी के कई और नेता भी थे. श्रीनगर की २६ जनवरी की ठण्ड में भी सब के माथे पर पसीना चमक रहा था . किस्मत की बात ऐसी कि जोशी जे ने झंडा उल्टा फहरा दिया . सुरक्षा का ज़बरदस्त बंदोबस्त था लिहाजा किसी को कोई चोट चपेट नहीं लगी. दिल्ली में बैठे बीजेपी में मौजूद जोशी जी के विरोधियों ने उस घटना का वर्णन खूब चटखारे लेकर किया. २४ घंटे की टी वी न्यूज़ का ज़माना नहीं था वरना पूरे देश ने इस दुर्दशा को देखा होता .
इस बार भी झंडा फहराने के मुद्दे पर अपशकुन शुरू हो गया है . देखना है कि अगले दो दिनों में भावनात्मक राजनीति किस तरह के मोड़ से होकर गुज़रती है . वैसे बीजेपी या उसकी पूर्वज जनसंघ की किस्मत में कश्मीर की खराब हालात से राजनीतिक लाभ लेना लिखा नहीं है. शुरुआती दौर में जनसंघ के नेता डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी के साथ भी यह हो चुका है . जब वे श्रीनगर जाने के लिए जम्मू पंहुचे तो उनके साथ जनसंघ के कार्यकर्ता के नाम पर वही लोग थे जो प्रजा परिषद् में रह चुके थे . गौर करने की बात यह है कि प्रजा परिषद् वही संगठन है जिसके लोग १९४७ में राजा के साथ थे जब वे जिन्ना के साथ जाने के चक्कर में थे. ज़ाहिर है कि जम्मू-कश्मीर में प्रजा परिषद् वालों की कोई इज्ज़त नहीं थी जिसकी वजह से डॉ श्यामप्रसाद मुखर्जी की पोजीशन भी खराब हुई थी . कुल मिलाकर ज़रूरी यह है कि राजनीति को गंभीर आचरण का विषय समझा जाना चाहिए और देश की एकता के खिलाफ काम कभी नहीं करना चाहिए .
Saturday, January 22, 2011
मराठी थियेटर के औरंगजेब की मौत
शेष नारायण सिंह
मराठी थियेटर के बड़े अभिनेता,प्रभाकर पणशीकर नहीं रहे. १३ जनवरी को पुणे में उन्होंने अंतिम सांस ली .साठ से भी ज्यादा वर्षों तक मराठी थियटर में जीवन बिताने के बाद उन्होंने अलविदा कहा लेकिन इस बीच उनकी ज़िंदगी बहुत ही नाटकीय रही. बचपन में घर से भागकर फुटपाथ पर ज़िंदगी बिताने के लिए वे मजबूर इसलिए हुए कि उनके पिता जी संस्कृत के बहुत बड़े विद्वान् थे और वे अपने बेटे को नाटक में नहीं जाने देना चाहते थे.. बाद में यही घर से भागा हुआ बालक , नटसम्राट के रूप में पहचाना गया .
घर से भागे तो १५ साल के थे और जब दुनिया से भागे तो उनकी उम्र अस्सी वर्ष की होने वाली थी . ६५ साल का यह सफ़र बहुत ही दिलचस्प है और मराठी समाज और नाटक में एक अहम मुकाम रखता है . इस महान अभिनेता की अंतिम यात्रा में भी नाटकीयता है . कुछ नाटकों में उनके औरंगजेब के रोल की वजह से ही ग्रामीण महाराष्ट्र के बहुत सारे इलाकों में लोग मुग़ल सम्राट औरंगजेब को जानते हैं. १९६८ में प्रो वसंत कानेटकर ने एक बहुत बड़ा नाटक , 'इथे ओशालाला मृत्यु ' प्रस्तुत किया था जिसमें उस वक़्त के मराठी रंगमंच के बड़े अभिनेताओं ने काम किया था .संभाजी का रोल डॉ काशीनाथ घंनेकर ने किया था जबकि चितरंजन कोल्हात्कर और सुधा करमाकर अन्य भूमिकाओं में थे . औरंगजेब की भूमिका प्रभाकर पणशीकर ने की थी. अब तक इस नाटक के आठ सौ से ज्यादा प्रदर्शन हो चुके हैं और पणशीकर का औरंगजेब ही ग्रामीण मराठी समाज की नज़र में औरंगजेब है . इस नाटक में वे सात बार नमाज़ पढ़ते हैं . एक बार किसी गाँव में जहां नाटक चल रहा था , उनके नमाज़ पढने के सलीके को देख कर लोगों को लगा कि उन्हें मुसलमान बन जाना चाहिए . लोगों ने उनसे आग्रह भी किया . इस नाटक की सबसे दिलचस्प बात यह है कि इसे संभाजी को मुख्य हीरो के रूप में पेश करने के लिए लिखा गया था लेकिन प्रभाकर पणशीकर का काम इतना प्रभावशाली था कि लोग नाटक देखने के बाद औरंगजेब के चरित्र को ही याद रख सके. इसी नाटक में डॉ श्रीराम लागू को अपनी अभिनय क्षमता दुनिया को दिखाने का मौक़ा मिला. औरंगजेब की भूमिका प्रभाकर पणशीकर ने १९८७ में प्रो वसंत कानेटकर के नाटक ' जिथे गवतास भले फुटतात ' में भी निभाई . पहली बार तो उन्होंने विजय के अभियान पर निकले औरंगजेब का रोल किया था लेकिन इस बार ९० साल के उस औरंगजेब की भूमिका थी जिसमें वह हार मान चुका है , निराश है . जो भी हो उन्होंने मराठा इतिहास से सम्बंधित जिन नाटकों में काम किया है वह हमेशा याद रखे जायेगें . बाद में जब वे नाट्य निकेतन के प्रबंधक बने तो जो भी कलाकार गैरहाज़िर रहता ,उसकी जगह पर अभिनय करते करते वे हर तरह के अभिनय के माहिर हो गए. उनका औरंगजेब इसीलिये सराहा गया कि उन्होंने नेगेटिव रोल में भी जान डाल देने की कला के वे माहिर हो गए थे...१९६२ में उन्होंने "तो मी नवेच " नाम के नाटक में काम करके मराठी जनमानस में जो मुकाम बनाया वह उनके जीवन का स्थायी भाव बन गया. 'तो मी नवेच' अकेला ऐसा नाटक है जिसे उन्होंने ३१ साल की उम्र में करना शुरू किया. जब तक हाथ पाँव चला उसमें काम किया . आख़िरी वक़्त में एक बार दिल्ली में जब वे पाँवकी तकलीफ से पीड़ित थे , उन्होंने उस नाटक के सभी पात्रों को व्हील चेयर पर बैठ कर निभाया और सराहे गए.
जीवन भर वे कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे. दो बार अखिल भारतीय मराठी नाट्य सम्मलेन के अध्यक्ष रहे. महाराष्ट्र सरकार के थियेटर सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष के पद पर रहने के अलावा नटसम्राट नानासाहेब फाटक प्रतिष्ठान और डॉ काशीनाथ घाणेकर प्रतिष्टान के भी अध्यक्ष रहे. मराठी नाटक में जितने भी पुरस्कार होते हैं , उन्हें वे सब मिल चुके थे. उनकी संस्था को चलाने का ज़िम्मा अब उनके प्रशंसकों पर है , उनके अपने भतीजे अनंत पणशीकर उनके बहुत बड़े प्रशंसकों में से हैं .
प्रभाकर पणशीकर का जाना मराठी थियेटर का एक बड़ा नुकसान है .
मराठी थियेटर के बड़े अभिनेता,प्रभाकर पणशीकर नहीं रहे. १३ जनवरी को पुणे में उन्होंने अंतिम सांस ली .साठ से भी ज्यादा वर्षों तक मराठी थियटर में जीवन बिताने के बाद उन्होंने अलविदा कहा लेकिन इस बीच उनकी ज़िंदगी बहुत ही नाटकीय रही. बचपन में घर से भागकर फुटपाथ पर ज़िंदगी बिताने के लिए वे मजबूर इसलिए हुए कि उनके पिता जी संस्कृत के बहुत बड़े विद्वान् थे और वे अपने बेटे को नाटक में नहीं जाने देना चाहते थे.. बाद में यही घर से भागा हुआ बालक , नटसम्राट के रूप में पहचाना गया .
घर से भागे तो १५ साल के थे और जब दुनिया से भागे तो उनकी उम्र अस्सी वर्ष की होने वाली थी . ६५ साल का यह सफ़र बहुत ही दिलचस्प है और मराठी समाज और नाटक में एक अहम मुकाम रखता है . इस महान अभिनेता की अंतिम यात्रा में भी नाटकीयता है . कुछ नाटकों में उनके औरंगजेब के रोल की वजह से ही ग्रामीण महाराष्ट्र के बहुत सारे इलाकों में लोग मुग़ल सम्राट औरंगजेब को जानते हैं. १९६८ में प्रो वसंत कानेटकर ने एक बहुत बड़ा नाटक , 'इथे ओशालाला मृत्यु ' प्रस्तुत किया था जिसमें उस वक़्त के मराठी रंगमंच के बड़े अभिनेताओं ने काम किया था .संभाजी का रोल डॉ काशीनाथ घंनेकर ने किया था जबकि चितरंजन कोल्हात्कर और सुधा करमाकर अन्य भूमिकाओं में थे . औरंगजेब की भूमिका प्रभाकर पणशीकर ने की थी. अब तक इस नाटक के आठ सौ से ज्यादा प्रदर्शन हो चुके हैं और पणशीकर का औरंगजेब ही ग्रामीण मराठी समाज की नज़र में औरंगजेब है . इस नाटक में वे सात बार नमाज़ पढ़ते हैं . एक बार किसी गाँव में जहां नाटक चल रहा था , उनके नमाज़ पढने के सलीके को देख कर लोगों को लगा कि उन्हें मुसलमान बन जाना चाहिए . लोगों ने उनसे आग्रह भी किया . इस नाटक की सबसे दिलचस्प बात यह है कि इसे संभाजी को मुख्य हीरो के रूप में पेश करने के लिए लिखा गया था लेकिन प्रभाकर पणशीकर का काम इतना प्रभावशाली था कि लोग नाटक देखने के बाद औरंगजेब के चरित्र को ही याद रख सके. इसी नाटक में डॉ श्रीराम लागू को अपनी अभिनय क्षमता दुनिया को दिखाने का मौक़ा मिला. औरंगजेब की भूमिका प्रभाकर पणशीकर ने १९८७ में प्रो वसंत कानेटकर के नाटक ' जिथे गवतास भले फुटतात ' में भी निभाई . पहली बार तो उन्होंने विजय के अभियान पर निकले औरंगजेब का रोल किया था लेकिन इस बार ९० साल के उस औरंगजेब की भूमिका थी जिसमें वह हार मान चुका है , निराश है . जो भी हो उन्होंने मराठा इतिहास से सम्बंधित जिन नाटकों में काम किया है वह हमेशा याद रखे जायेगें . बाद में जब वे नाट्य निकेतन के प्रबंधक बने तो जो भी कलाकार गैरहाज़िर रहता ,उसकी जगह पर अभिनय करते करते वे हर तरह के अभिनय के माहिर हो गए. उनका औरंगजेब इसीलिये सराहा गया कि उन्होंने नेगेटिव रोल में भी जान डाल देने की कला के वे माहिर हो गए थे...१९६२ में उन्होंने "तो मी नवेच " नाम के नाटक में काम करके मराठी जनमानस में जो मुकाम बनाया वह उनके जीवन का स्थायी भाव बन गया. 'तो मी नवेच' अकेला ऐसा नाटक है जिसे उन्होंने ३१ साल की उम्र में करना शुरू किया. जब तक हाथ पाँव चला उसमें काम किया . आख़िरी वक़्त में एक बार दिल्ली में जब वे पाँवकी तकलीफ से पीड़ित थे , उन्होंने उस नाटक के सभी पात्रों को व्हील चेयर पर बैठ कर निभाया और सराहे गए.
जीवन भर वे कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे. दो बार अखिल भारतीय मराठी नाट्य सम्मलेन के अध्यक्ष रहे. महाराष्ट्र सरकार के थियेटर सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष के पद पर रहने के अलावा नटसम्राट नानासाहेब फाटक प्रतिष्ठान और डॉ काशीनाथ घाणेकर प्रतिष्टान के भी अध्यक्ष रहे. मराठी नाटक में जितने भी पुरस्कार होते हैं , उन्हें वे सब मिल चुके थे. उनकी संस्था को चलाने का ज़िम्मा अब उनके प्रशंसकों पर है , उनके अपने भतीजे अनंत पणशीकर उनके बहुत बड़े प्रशंसकों में से हैं .
प्रभाकर पणशीकर का जाना मराठी थियेटर का एक बड़ा नुकसान है .
Labels:
औरंगजेब,
प्रभाकर पणशीकर,
मराठी थियेटर,
शेष नारायण सिंह
Friday, January 21, 2011
दिग्विजय का हमला और आर एस एस का बचाव,दोनों ही लोकतंत्र को मजबूती देगें
शेष नारायण सिंह
आर एस एस के खिलाफ दिग्विजय सिंह की मुहिम एक ऊंचे दर्जे की राजनीति है . आर एस एस की हमेशा कोशिश रही है कि वह अपने आपको गैर राजनीतिक मंच के रूप में पेश करे . लेकिन सच यह है कि वह एक राजनीतिक संगठन है . पहली बार आर एस एस की राजनीतिक स्वरुप को स्व मधु लिमये ने उजागर किया था और इसी मुद्दे पर इंदिरा गाँधी के खिलाफ लड़ी जा रही लड़ाई कमज़ोर पड़ गयी थी क्योंकि उनके बेटे संजय गाँधी को आर एस एस ने अपनाने की मुहिम शुरू कर दी थी. अब तीस साल बाद दिग्विजय सिंह ने आर एस एस को मजबूर कर दिया है कि वह राजनीतिक पार्टी के रूप में अपना बचाव करे. राजनीतिक पार्टियों का एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाना मज़बूत लोकतंत्र की निशानी है. इसलिए दिग्विजय का हमला और आर एस एस का बचाव दोनों का स्वागत किया जाना चाहिए .इस बीच आर एस एस वाले बचाव की मुद्रा में हैं . उनके टाप नेता और बम धमाकों के अभियुक्त इन्द्रेश कुमार के कुछ चेलों ने हज़रत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती, गरीब नवाज़ की अजमेर शरीफ़ स्थित दरगाह में दुआ माँगी है कि इन्द्रेश कुमार सलामत रहें. इस मुक़द्दस दरगाह पर तीन साल पहले हुए धमाकों की घटना की साज़िश में इन्द्रेश कुमार के शामिल होने का आरोप है . इन्द्रेश के जेबी संगठन मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के संयोजक मोहम्मद अफ़जाल कहते हैं कि उन्होंने डॉ सलीम के साथ एक समूह ने दरगाह में दुआ की और इन्द्रेश की सलामती के लिए चादर चढ़ाई...यानी जिस दरगाह को तबाह करने की कोशिश में इन्द्रेश के शामिल होने का आरोप है , उन्हीं ख्वाजा गरीब नवाज़ की शरण में जाकर दुआ मांगने का क्या मतलब है . जब से कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने आर एस एस पर सीधा हमला बोला है संघी आतंक के इस आयोजक की सिट्टी पिट्टी गुम है . नामी अखबार इन्डियन एक्सप्रेस में छपे उनके आज के इंटर व्यू को देखें तो समझ में आ जाएगा कि वे हर उस काम के लिए अपने अलावा बाकी पूरी दुनिया को ज़िम्मेदार मानने का आग्रह कर रहे हैं जिसमें वे गुनाहगार हैं , मसलन , समझौता एक्सप्रेस में हुए बम धमाकों के लिए वे अब चाहते हैं कि उसके लिए रक्षा , विदेश और गृह विभाग के मंत्रियों की जांच हो . साथ ही राहुल गांधी और दिग्विजय सिंह की भी जांच हो . यानी जो भी माननीय इन्द्रेश जी के ऊपर आरोप लगाएगा उसे वे हडका लेगें और डांटने लगेंगें .ख्वाजा गरीब नवाज़ से उन्होंने पता नहीं क्यों दुआ मांगने का फैसला किया .मतलब साफ़ है कि कांग्रेस महासचिव , दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में संघी आतंकवाद पर चल रहा कांग्रेस का हमला रंग ला रहा है. शुरू में तो आर एस एस ने कोशिश की कि अपने वफादार पत्रकारों और कुछ संघी लाइन वाले अखबारों की मदद से दिग्विजय सिंह को हिन्दू विरोधी साबित कर दिया जाएगा और फिर उन्हें पीट लेगें. लेकिन ऐसा हो नहीं सका . दिग्विजय सिंह ने भी साफ़ कहा और बार बार कहा कि वे भगवा या हिन्दू आतंकवाद जैसी किसी बात को सच नहीं मानते .उन्होंने कहा कि इस देश में करीब सौ करोड़ हिन्दू रहते हैं जिनमें से ९९ प्रतिशत से भी ज्यादा आर एस एस के खिलाफ हैं . ऐसी हालात में संघी आतंकवाद का यह दावा कि वे सभी हिन्दुओं के अगुवा हैं , मुंह के बल गिर जाता है. अस्सी के दशक में भी एक बार ऐसी नौबत आई थी जब आर एस एस ने तय किया कि जो उसके विरोध में है उसे हिन्दू विरोधी घोषित कर दिया जाए . वह ज़माना दूसरा था, हिन्दी क्षेत्रों में जो तीन चार बड़े अखबार थे , सब का राग आर एस एस वाला ही था. और उनकी कृपा से आर एस एस ने यह साबित कर दिया था कि जो भी उसके खिलाफ है वह हिन्दू मात्र के खिलाफ है . इस बार भी वही कोशिश शुरू की गयी. जब स्वर्गीय करकरे ने संघी आतंकवाद के पैरोकारों को चुन चुन कर पकड़ना शुरू किया तो संघी खेमे में हडकंप मच गया .हेमंत करकरे का ट्रांसफर कराने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया गया . खूंखार हिंदुत्व के सबसे बड़े विचारक , नरेंद्र मोदी को आगे कर के करकरे के नगर मुंबई में भी उनके खिलाफ जुलूस निकाले गए. लेकिन संघी आतंकवाद को करकरे के हाथों दण्डित होना नहीं लिखा था . पाकिस्तानी आतंकवाद के सरगना हाफ़िज़ सईद ने जब मुंबई के ऊपर हमला करवाया तो पाकिस्तानी आतंकवादियों ने हेमंत करकरे को ही मार डाला . हालांकि आज संघी बिरादरी ,शहीद हेमंत करकरे के लिए बहुत बड़ी बातें करती है लेकिन उनके जीवन काल में यह लोग उनके दुश्मन बन गए थे. ऐसा शायद इसलिए हुआ था कि संघ के सह्योगी संगठन , अभिनव भारत के बैनर तले काम करने वाले आतंकवादियों को पकड़ कर हेमंत करकरे ने आर एस एस का एक बहुत बड़ा हथियार छीन लिया था . हेमंत करकरे ने जब पुलिस सेवा के सर्वोच्च मानदंडों का परिचय देते हुए संघी आतंकवाद के कारनामों का पर्दाफाश किया उसके पहले ,आर एस एस और उसके मातहत संगठनों के लोग कहते पाए जाते थे कि ' हर मुस्लिम आतंकवादी नहीं होता ,लेकिन हर आतंकवादी मुस्लिम होता है .' जब करकरे ने आर एस एस और उसके अधीन संगठनों से जुड़े हुए लोगों को पकड़ लिया तो आर एस एस का मुसलमानों के खिलाफ इस्तेमाल होने वाला सबसे धारदार हथियार बेकार हो गया . शायद इसीलिए आर एस एस के दिमाग में करकरे के लिए भारी नफरत थी. बहुत कम लोगों को मालूम है कि जिस दिन करकरे की अंत्येष्टि हुई , उसी दिन आर एस एस ने उनके खिलाफ बहुत बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन का आयोजन कर रखा था. लेकिन जब वह बहादुर शहीद हो गया तो आनन् फानन में वह कार्यक्रम रद्द किया गया. दिल्ली में तो बहुत बड़ी संख्या में पोस्टर भी लगे थे . हो सकता है कि कभी कोई फोटोग्राफर उस सब को सार्वजनिक कर दे .
आर एस एस की कोशिश इस बार भी यही थी कि अर्ध सूचना और अर्ध सत्य के ज़रिये हर उस शख्स को घेर लिया जाएगा जो उनके खिलाफ बोलेगा . दिग्विजय सिंह पर हमला उसी रणनीति का हिस्सा है. इसे आर एस एस का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आजकल नियंत्रित मीडिया का ज़माना नहीं रहा . अस्सी के दशक वाली बात तो रही नहीं . अब तो सैकड़ों की संख्या में टेलिविज़न न्यूज़ के चैनल हैं और वे हर तरह के सच को बयान करते रहते हैं शायद इसी वजह से अब आर एस एस और उसके साथ सहानुभूति रखने वाले अखबार दिग्विजय सिंह पर चौतरफा हमला बोल चुके हैं . खबर है कि आर एस एस दिग्विजय सिंह से बहुत नाराज़ है क्योकि उन्होंने संघी आतंकवाद को हिन्दू धर्म से बिलकुल अलग कर दिया है और अब आर एस एस के अखबार भी दिग्विजय को घेरने में जुटे हैं . . सच्चाई यह है कि दिग्विजय सिंह हमेशा से ही कहते रहे हैं भगवा रंग एक पवित्र रंग है और हिन्दू धर्म का आतंक से कोई लेना देना नहीं है . लेकिन यह भी सच है कि आर एस एस भी हिन्दुओं का प्रतिनिधि नहीं है .आर एस एस की मुसीबत यह है कि अब आर एस एस के हर झूठ को उनके अखबारों में तो खबर के रूप में प्रचार होता है लेकिन बाकी मीडिया में उनकी सच्चाई सामने आ जाती है . .दिग्विजय सिंह ने रविवार को इंदौर में संघी आतंकवाद को घेरा और कहा,मालेगांव और समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट के वांछित आरोपियों संदीप डांगे और रामजी कलसांगरा को भी संघ प्रचारक सुनील जोशी की तरह कत्ल किया जा सकता है .उन्होंने कहा कि हैदराबाद की मक्का मस्जिद में धमाका, समझौता एक्सप्रेस में विस्फोट और अजमेर की दरगाह में धमाके की साजिश हिंदू आतंकवाद नहीं बल्कि संघ आतंकवाद का एक रूप है। असीमानंद के कबूलनामे से साबित होता है कि संघ परिवार इन घटनाओं में शामिल है. दिग्विजय सिंह ने आरोप लगाया कि 2007 के समझौता एक्सप्रेस बम कांड के वांछितों संदीप डांगे, रामजी कलसांगरा तथा संघ के मृत प्रचारक सुनील जोशी का नाम लेते हुए कहा, फरारी के दौरान मध्य प्रदेश भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने न केवल उन्हें शरण दी, बल्कि आर्थिक मदद भी मुहैया कराई. सिंह ने आरोप लगाया कि संघ प्रचारक जोशी के हत्यारों को भी मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार संरक्षण देती रही है. दिग्विजय सिंह ने दावा किया कि जोशी अपनी हत्या से पहले सारे राज फाश करने की धमकी देकर कुछ नेताओं को ब्लैकमेल कर रहा था। इसी लिए उसे कत्ल करवा दिया गया . इस बीच खबर है कि मृतक सुनील जोशी के कस्बे , देवास में आर एस एस की एक रैली निकाली गयी और लोगों को बाकायदा धमकाया गया कि अगर आर एस एस आतंक का रास्ता पकड लेगा तो बहुत मुश्किल हो जायेगी
आर एस एस के खिलाफ दिग्विजय सिंह की मुहिम एक ऊंचे दर्जे की राजनीति है . आर एस एस की हमेशा कोशिश रही है कि वह अपने आपको गैर राजनीतिक मंच के रूप में पेश करे . लेकिन सच यह है कि वह एक राजनीतिक संगठन है . पहली बार आर एस एस की राजनीतिक स्वरुप को स्व मधु लिमये ने उजागर किया था और इसी मुद्दे पर इंदिरा गाँधी के खिलाफ लड़ी जा रही लड़ाई कमज़ोर पड़ गयी थी क्योंकि उनके बेटे संजय गाँधी को आर एस एस ने अपनाने की मुहिम शुरू कर दी थी. अब तीस साल बाद दिग्विजय सिंह ने आर एस एस को मजबूर कर दिया है कि वह राजनीतिक पार्टी के रूप में अपना बचाव करे. राजनीतिक पार्टियों का एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाना मज़बूत लोकतंत्र की निशानी है. इसलिए दिग्विजय का हमला और आर एस एस का बचाव दोनों का स्वागत किया जाना चाहिए .इस बीच आर एस एस वाले बचाव की मुद्रा में हैं . उनके टाप नेता और बम धमाकों के अभियुक्त इन्द्रेश कुमार के कुछ चेलों ने हज़रत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती, गरीब नवाज़ की अजमेर शरीफ़ स्थित दरगाह में दुआ माँगी है कि इन्द्रेश कुमार सलामत रहें. इस मुक़द्दस दरगाह पर तीन साल पहले हुए धमाकों की घटना की साज़िश में इन्द्रेश कुमार के शामिल होने का आरोप है . इन्द्रेश के जेबी संगठन मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के संयोजक मोहम्मद अफ़जाल कहते हैं कि उन्होंने डॉ सलीम के साथ एक समूह ने दरगाह में दुआ की और इन्द्रेश की सलामती के लिए चादर चढ़ाई...यानी जिस दरगाह को तबाह करने की कोशिश में इन्द्रेश के शामिल होने का आरोप है , उन्हीं ख्वाजा गरीब नवाज़ की शरण में जाकर दुआ मांगने का क्या मतलब है . जब से कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने आर एस एस पर सीधा हमला बोला है संघी आतंक के इस आयोजक की सिट्टी पिट्टी गुम है . नामी अखबार इन्डियन एक्सप्रेस में छपे उनके आज के इंटर व्यू को देखें तो समझ में आ जाएगा कि वे हर उस काम के लिए अपने अलावा बाकी पूरी दुनिया को ज़िम्मेदार मानने का आग्रह कर रहे हैं जिसमें वे गुनाहगार हैं , मसलन , समझौता एक्सप्रेस में हुए बम धमाकों के लिए वे अब चाहते हैं कि उसके लिए रक्षा , विदेश और गृह विभाग के मंत्रियों की जांच हो . साथ ही राहुल गांधी और दिग्विजय सिंह की भी जांच हो . यानी जो भी माननीय इन्द्रेश जी के ऊपर आरोप लगाएगा उसे वे हडका लेगें और डांटने लगेंगें .ख्वाजा गरीब नवाज़ से उन्होंने पता नहीं क्यों दुआ मांगने का फैसला किया .मतलब साफ़ है कि कांग्रेस महासचिव , दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में संघी आतंकवाद पर चल रहा कांग्रेस का हमला रंग ला रहा है. शुरू में तो आर एस एस ने कोशिश की कि अपने वफादार पत्रकारों और कुछ संघी लाइन वाले अखबारों की मदद से दिग्विजय सिंह को हिन्दू विरोधी साबित कर दिया जाएगा और फिर उन्हें पीट लेगें. लेकिन ऐसा हो नहीं सका . दिग्विजय सिंह ने भी साफ़ कहा और बार बार कहा कि वे भगवा या हिन्दू आतंकवाद जैसी किसी बात को सच नहीं मानते .उन्होंने कहा कि इस देश में करीब सौ करोड़ हिन्दू रहते हैं जिनमें से ९९ प्रतिशत से भी ज्यादा आर एस एस के खिलाफ हैं . ऐसी हालात में संघी आतंकवाद का यह दावा कि वे सभी हिन्दुओं के अगुवा हैं , मुंह के बल गिर जाता है. अस्सी के दशक में भी एक बार ऐसी नौबत आई थी जब आर एस एस ने तय किया कि जो उसके विरोध में है उसे हिन्दू विरोधी घोषित कर दिया जाए . वह ज़माना दूसरा था, हिन्दी क्षेत्रों में जो तीन चार बड़े अखबार थे , सब का राग आर एस एस वाला ही था. और उनकी कृपा से आर एस एस ने यह साबित कर दिया था कि जो भी उसके खिलाफ है वह हिन्दू मात्र के खिलाफ है . इस बार भी वही कोशिश शुरू की गयी. जब स्वर्गीय करकरे ने संघी आतंकवाद के पैरोकारों को चुन चुन कर पकड़ना शुरू किया तो संघी खेमे में हडकंप मच गया .हेमंत करकरे का ट्रांसफर कराने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया गया . खूंखार हिंदुत्व के सबसे बड़े विचारक , नरेंद्र मोदी को आगे कर के करकरे के नगर मुंबई में भी उनके खिलाफ जुलूस निकाले गए. लेकिन संघी आतंकवाद को करकरे के हाथों दण्डित होना नहीं लिखा था . पाकिस्तानी आतंकवाद के सरगना हाफ़िज़ सईद ने जब मुंबई के ऊपर हमला करवाया तो पाकिस्तानी आतंकवादियों ने हेमंत करकरे को ही मार डाला . हालांकि आज संघी बिरादरी ,शहीद हेमंत करकरे के लिए बहुत बड़ी बातें करती है लेकिन उनके जीवन काल में यह लोग उनके दुश्मन बन गए थे. ऐसा शायद इसलिए हुआ था कि संघ के सह्योगी संगठन , अभिनव भारत के बैनर तले काम करने वाले आतंकवादियों को पकड़ कर हेमंत करकरे ने आर एस एस का एक बहुत बड़ा हथियार छीन लिया था . हेमंत करकरे ने जब पुलिस सेवा के सर्वोच्च मानदंडों का परिचय देते हुए संघी आतंकवाद के कारनामों का पर्दाफाश किया उसके पहले ,आर एस एस और उसके मातहत संगठनों के लोग कहते पाए जाते थे कि ' हर मुस्लिम आतंकवादी नहीं होता ,लेकिन हर आतंकवादी मुस्लिम होता है .' जब करकरे ने आर एस एस और उसके अधीन संगठनों से जुड़े हुए लोगों को पकड़ लिया तो आर एस एस का मुसलमानों के खिलाफ इस्तेमाल होने वाला सबसे धारदार हथियार बेकार हो गया . शायद इसीलिए आर एस एस के दिमाग में करकरे के लिए भारी नफरत थी. बहुत कम लोगों को मालूम है कि जिस दिन करकरे की अंत्येष्टि हुई , उसी दिन आर एस एस ने उनके खिलाफ बहुत बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन का आयोजन कर रखा था. लेकिन जब वह बहादुर शहीद हो गया तो आनन् फानन में वह कार्यक्रम रद्द किया गया. दिल्ली में तो बहुत बड़ी संख्या में पोस्टर भी लगे थे . हो सकता है कि कभी कोई फोटोग्राफर उस सब को सार्वजनिक कर दे .
आर एस एस की कोशिश इस बार भी यही थी कि अर्ध सूचना और अर्ध सत्य के ज़रिये हर उस शख्स को घेर लिया जाएगा जो उनके खिलाफ बोलेगा . दिग्विजय सिंह पर हमला उसी रणनीति का हिस्सा है. इसे आर एस एस का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आजकल नियंत्रित मीडिया का ज़माना नहीं रहा . अस्सी के दशक वाली बात तो रही नहीं . अब तो सैकड़ों की संख्या में टेलिविज़न न्यूज़ के चैनल हैं और वे हर तरह के सच को बयान करते रहते हैं शायद इसी वजह से अब आर एस एस और उसके साथ सहानुभूति रखने वाले अखबार दिग्विजय सिंह पर चौतरफा हमला बोल चुके हैं . खबर है कि आर एस एस दिग्विजय सिंह से बहुत नाराज़ है क्योकि उन्होंने संघी आतंकवाद को हिन्दू धर्म से बिलकुल अलग कर दिया है और अब आर एस एस के अखबार भी दिग्विजय को घेरने में जुटे हैं . . सच्चाई यह है कि दिग्विजय सिंह हमेशा से ही कहते रहे हैं भगवा रंग एक पवित्र रंग है और हिन्दू धर्म का आतंक से कोई लेना देना नहीं है . लेकिन यह भी सच है कि आर एस एस भी हिन्दुओं का प्रतिनिधि नहीं है .आर एस एस की मुसीबत यह है कि अब आर एस एस के हर झूठ को उनके अखबारों में तो खबर के रूप में प्रचार होता है लेकिन बाकी मीडिया में उनकी सच्चाई सामने आ जाती है . .दिग्विजय सिंह ने रविवार को इंदौर में संघी आतंकवाद को घेरा और कहा,मालेगांव और समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट के वांछित आरोपियों संदीप डांगे और रामजी कलसांगरा को भी संघ प्रचारक सुनील जोशी की तरह कत्ल किया जा सकता है .उन्होंने कहा कि हैदराबाद की मक्का मस्जिद में धमाका, समझौता एक्सप्रेस में विस्फोट और अजमेर की दरगाह में धमाके की साजिश हिंदू आतंकवाद नहीं बल्कि संघ आतंकवाद का एक रूप है। असीमानंद के कबूलनामे से साबित होता है कि संघ परिवार इन घटनाओं में शामिल है. दिग्विजय सिंह ने आरोप लगाया कि 2007 के समझौता एक्सप्रेस बम कांड के वांछितों संदीप डांगे, रामजी कलसांगरा तथा संघ के मृत प्रचारक सुनील जोशी का नाम लेते हुए कहा, फरारी के दौरान मध्य प्रदेश भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने न केवल उन्हें शरण दी, बल्कि आर्थिक मदद भी मुहैया कराई. सिंह ने आरोप लगाया कि संघ प्रचारक जोशी के हत्यारों को भी मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार संरक्षण देती रही है. दिग्विजय सिंह ने दावा किया कि जोशी अपनी हत्या से पहले सारे राज फाश करने की धमकी देकर कुछ नेताओं को ब्लैकमेल कर रहा था। इसी लिए उसे कत्ल करवा दिया गया . इस बीच खबर है कि मृतक सुनील जोशी के कस्बे , देवास में आर एस एस की एक रैली निकाली गयी और लोगों को बाकायदा धमकाया गया कि अगर आर एस एस आतंक का रास्ता पकड लेगा तो बहुत मुश्किल हो जायेगी
Tuesday, January 18, 2011
अब चोर कोतवालों को डांटते नहीं, उनपर हुकुम चलाते हैं
.
शेष नारायण सिंह
पुराने ज़माने में जब को बड़ा चोर पकड़ा जाता था तो बेचारे कोतवाल की मुसीबत बढ़ जाती थी . दबंग चोर अक्सर कोतवाल को डांटते रहते थे .लेकिन उस दौर में ऐसे चोर होते ही बहुत कम थे जो कोतवाल को डांट सकें .इसलिए जब भी कोतवाल चोर को डांटता था तो खबर बन जाती थी . अब ऐसा नहीं होता . अब ज़्यादातर चोर कोतवाल को डांटते ही रहते हैं . यह रिवाज़ बिहार से शुरू हुआ जहां मुहम्मद शहाबुद्दीन नाम का खूंखार बदमाश जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के एक छात्र नेता को क़त्ल करके मौज करने लगा तो हल्ला गुल्ला हुआ . उस वक़्त बिहार में सामाजिक परिवर्तन के मसीहा लालू प्रसाद जी के रिश्तेदारों की हुकूमत थी. मुख्यमंत्री का अभिनय लालू जी खुद कर रहे थे . बाद में यह रोल भी उन्होंने को दे दिया था .नी पत्नी को मुख्य मंत्री पद पर बिठाकर जेल में छुट्टियां बिताने चले गए थे जहां से उन्होंने कोतवाल को डांटने की कला को नियम के सांचे में बाँधने का काम किया था. इन्हीं लालू जी के राज़ में पब्लिक ने उन्हें परेशान किया और शहाबुद्दीन भी जेल में कुछ वक़्त के लिए चले गए थे . उसी दौर में उस आचार संहिता का विकास हुआ था जिसमें बताया गया है कि जब चोर कोतवाल को डांटे तो कैसे व्यवहार किया जाना चाहिए . इसके पहले भी कांग्रेस के राज में जेल में जाकर आराम करने की परम्परा तो बन चुकी थी, कुछ कम असर वाले लोग अस्पताल वगैरह में भर्ती होकर टाइम पास करते थे लेकिन जेल में ही रहकर हर भले आदमी को गलत साबित करने की कला शहाबुद्दीन के युग में ही शुरू हुई. अब इस खेल में और भी अधिक विकास हो गया है . अब ज़्यादातर दबंग चोर नेतागीरी का काम करने लगे हैं . अब उनके खिलाफ अगर कोई केस बनाने लगता है वे हर उस आदमी को डांटने लगते हैं जो उनके खिलाफ होता है . इस बिरादरी में आजकल सुरेश कालमाडी का नाम सबसे ऊपर है . उन्होंने कामनवेल्थ खेलों के आयोजन का ज़िम्मा मिलने के बाद मुल्क को तबियत से लूटा . उनके साथ कांग्रेस और बीजेपी के बहुत सारे नेता भी लगे हुए थे. लेकिन जैसे ही पकडे गए उन्होंने सबको डांटना शुरू कर दिया . बीजेपी के कुछ नेता ज्यादा बोल रहे तह तो जांच एजेंसियों के कुछ अफसरों को छापा मारने के लिए बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के एक सदस्य के यहाँ अपने कांग्रेसी पार्टनरों से कह कर भिजवा दिया . बीजेपी वाले सन्न हो गए. उसके बाद चोरों की बिरादरी के चक्रवर्ती सम्राट ,ए राजा का नाम भी जोर शोर से उछला . लाखों करोड़ रूपये की बेईमानी से विभूषित राजा साहेब ने पहले सब को खुद डांटा ,बाद में अपने मालिक ,एम करूणानिधि से डंटवाया . जब फिर भी बात नहीं बनी तो अपने कांग्रेसी आकाओं की मार्फ़त जांच का दायरा इतना बड़ा करवा दिया कि उनके ऊपर आरोप लगाने वाले बीजेपी के भी नेता उसी लपेट में आ गए. अब २ जी स्पेक्ट्रम की चोरी की जांच भी मिल बाँटकर खाने वाली रेंज में आ चुकी है . उम्मीद है कि इसका भी वही हाल होगा जो जैन हवाला काण्ड की जांच का हुआ था जिसमें लाल कृष्ण आडवाणी समेत सभी पार्टियों के नेता अभियुक्त थे . जांच हुई लेकिन पता नहीं चला. आजकल उस मामले को फिर से उभारा जा रहा है क्योंकि लाल कृष्ण आडवाणी,शरद यादव और विपक्ष कुछ और नेता जैन हवाला काण्ड का ज़िक्र होते ही दुबक जाते हैं . जैसे बोफोर्स का नाम लेते ही कांग्रेसी घबडा जाते हैं . सरकार को उम्मीद है कि जैन हवाला काण्ड का नाम आगे कर देने के बाद बीजेपी वालों का भी वही हाल होगा जो बोफोर्स का नाम लेने के बाद कांग्रेसियों का होता है. इस तरह से हम देखते हैं अब चोरों ने कोतवाल को डांटना बंद करके कोतवाल को हुक्म देने का काम शुरू कर दिया है .
इस खेल का सबसे ताज़ा उदाहरण आर एस एस के टाप नेता इन्द्रेश कुमार के सन्दर्भ में है . उनपर हज़रत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती, गरीब नवाज़ की अजमेर शरीफ़ स्थित दरगाह में तीन साल पहले हुए धमाकों की घटना की साज़िश में शामिल होने का आरोप है . अब पता चला है कि उनेक कुछ चाहने वालों ने उन्हीं ख्वाजा साहेब की मुक़द्दस दरगाह में उनकी सलामती के लिए दुआ माँगी है . इन्द्रेश कुमार के लिए दुआ का आयोजन छत्तीस गढ़ में रहने वाले एक मुस्लिम नेता की अगुवाई में हुआ डॉ सलीम राज नाम के इन महानुभाव का कहना है कि इन्द्रेश बेगुनाह हैं.इन्द्रेश के जेबी संगठन मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के संयोजक मोहम्मद अफ़जाल कहते हैं कि उन्होंने डॉ सलीम के साथ एक समूह ने दरगाह में दुआ की और इन्द्रेश की सलामती के लिए चादर चढ़ाई.दरगाह में ख़ादिमों की संस्था अंजुमन के पूर्व सचिव सरवर चिश्ती कहते हैं कि ये शर्मनाक है, ''मुझे ये सुनकर बेहद दुख हुआ कि ऐसी कोई दुआ इस अमन के मु़द्दस मुक़ाम पर की गई. ऐसे लोग इंसानियत के ग़द्दार है,ये तो मीर जाफ़र जैसी हरकत है. क्या हक़ है ऐसे लोगो को दुआ करने का.''यानी जिस दरगाह को तबाह करने की कोशिश में इन्द्रेश के शामिल होने का आरोप है , उन्हीं ख्वाजा गरीब नवाज़ की शरण में जाकर दुआ मांगने का क्या मातलब है . लेकिन लगता है कि इन्द्रेश जी और भी कुछ बड़े काम करने वालों हैं . नामी अखबार इन्डियन एक्सप्रेस में छपे उनके आज के इंटर व्यू को देखें तो समझ में आ जाएगा कि वे हर उस काम के लिए अपने अलावा बाकी पूरी दुनिया को ज़िम्मेदार मानाने का आग्रह कर रहे हैं जिसमें वे गुनाहगार हैं , मसलन , समझौता एक्सप्रेस में हुए बम धमाकों के लिए वे अब चाहते हैं कि उसके लिए रक्षा , विदेश और गृह विभाग के मंत्रियों की जांच हो . साथ ही राहुल गांधी और दिग्विजय सिंह की भी जांच हो . यानी जो भी माननीय इन्द्रेश जी के ऊपर आरोप लगाएगा उसे वे हडका लेगें और डांटने लगेंगें .ख्वाजा गरीब नवाज़ से उन्होंने पता नहीं क्यों दुआ मांगने का फैसला किया .
शेष नारायण सिंह
पुराने ज़माने में जब को बड़ा चोर पकड़ा जाता था तो बेचारे कोतवाल की मुसीबत बढ़ जाती थी . दबंग चोर अक्सर कोतवाल को डांटते रहते थे .लेकिन उस दौर में ऐसे चोर होते ही बहुत कम थे जो कोतवाल को डांट सकें .इसलिए जब भी कोतवाल चोर को डांटता था तो खबर बन जाती थी . अब ऐसा नहीं होता . अब ज़्यादातर चोर कोतवाल को डांटते ही रहते हैं . यह रिवाज़ बिहार से शुरू हुआ जहां मुहम्मद शहाबुद्दीन नाम का खूंखार बदमाश जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के एक छात्र नेता को क़त्ल करके मौज करने लगा तो हल्ला गुल्ला हुआ . उस वक़्त बिहार में सामाजिक परिवर्तन के मसीहा लालू प्रसाद जी के रिश्तेदारों की हुकूमत थी. मुख्यमंत्री का अभिनय लालू जी खुद कर रहे थे . बाद में यह रोल भी उन्होंने को दे दिया था .नी पत्नी को मुख्य मंत्री पद पर बिठाकर जेल में छुट्टियां बिताने चले गए थे जहां से उन्होंने कोतवाल को डांटने की कला को नियम के सांचे में बाँधने का काम किया था. इन्हीं लालू जी के राज़ में पब्लिक ने उन्हें परेशान किया और शहाबुद्दीन भी जेल में कुछ वक़्त के लिए चले गए थे . उसी दौर में उस आचार संहिता का विकास हुआ था जिसमें बताया गया है कि जब चोर कोतवाल को डांटे तो कैसे व्यवहार किया जाना चाहिए . इसके पहले भी कांग्रेस के राज में जेल में जाकर आराम करने की परम्परा तो बन चुकी थी, कुछ कम असर वाले लोग अस्पताल वगैरह में भर्ती होकर टाइम पास करते थे लेकिन जेल में ही रहकर हर भले आदमी को गलत साबित करने की कला शहाबुद्दीन के युग में ही शुरू हुई. अब इस खेल में और भी अधिक विकास हो गया है . अब ज़्यादातर दबंग चोर नेतागीरी का काम करने लगे हैं . अब उनके खिलाफ अगर कोई केस बनाने लगता है वे हर उस आदमी को डांटने लगते हैं जो उनके खिलाफ होता है . इस बिरादरी में आजकल सुरेश कालमाडी का नाम सबसे ऊपर है . उन्होंने कामनवेल्थ खेलों के आयोजन का ज़िम्मा मिलने के बाद मुल्क को तबियत से लूटा . उनके साथ कांग्रेस और बीजेपी के बहुत सारे नेता भी लगे हुए थे. लेकिन जैसे ही पकडे गए उन्होंने सबको डांटना शुरू कर दिया . बीजेपी के कुछ नेता ज्यादा बोल रहे तह तो जांच एजेंसियों के कुछ अफसरों को छापा मारने के लिए बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के एक सदस्य के यहाँ अपने कांग्रेसी पार्टनरों से कह कर भिजवा दिया . बीजेपी वाले सन्न हो गए. उसके बाद चोरों की बिरादरी के चक्रवर्ती सम्राट ,ए राजा का नाम भी जोर शोर से उछला . लाखों करोड़ रूपये की बेईमानी से विभूषित राजा साहेब ने पहले सब को खुद डांटा ,बाद में अपने मालिक ,एम करूणानिधि से डंटवाया . जब फिर भी बात नहीं बनी तो अपने कांग्रेसी आकाओं की मार्फ़त जांच का दायरा इतना बड़ा करवा दिया कि उनके ऊपर आरोप लगाने वाले बीजेपी के भी नेता उसी लपेट में आ गए. अब २ जी स्पेक्ट्रम की चोरी की जांच भी मिल बाँटकर खाने वाली रेंज में आ चुकी है . उम्मीद है कि इसका भी वही हाल होगा जो जैन हवाला काण्ड की जांच का हुआ था जिसमें लाल कृष्ण आडवाणी समेत सभी पार्टियों के नेता अभियुक्त थे . जांच हुई लेकिन पता नहीं चला. आजकल उस मामले को फिर से उभारा जा रहा है क्योंकि लाल कृष्ण आडवाणी,शरद यादव और विपक्ष कुछ और नेता जैन हवाला काण्ड का ज़िक्र होते ही दुबक जाते हैं . जैसे बोफोर्स का नाम लेते ही कांग्रेसी घबडा जाते हैं . सरकार को उम्मीद है कि जैन हवाला काण्ड का नाम आगे कर देने के बाद बीजेपी वालों का भी वही हाल होगा जो बोफोर्स का नाम लेने के बाद कांग्रेसियों का होता है. इस तरह से हम देखते हैं अब चोरों ने कोतवाल को डांटना बंद करके कोतवाल को हुक्म देने का काम शुरू कर दिया है .
इस खेल का सबसे ताज़ा उदाहरण आर एस एस के टाप नेता इन्द्रेश कुमार के सन्दर्भ में है . उनपर हज़रत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती, गरीब नवाज़ की अजमेर शरीफ़ स्थित दरगाह में तीन साल पहले हुए धमाकों की घटना की साज़िश में शामिल होने का आरोप है . अब पता चला है कि उनेक कुछ चाहने वालों ने उन्हीं ख्वाजा साहेब की मुक़द्दस दरगाह में उनकी सलामती के लिए दुआ माँगी है . इन्द्रेश कुमार के लिए दुआ का आयोजन छत्तीस गढ़ में रहने वाले एक मुस्लिम नेता की अगुवाई में हुआ डॉ सलीम राज नाम के इन महानुभाव का कहना है कि इन्द्रेश बेगुनाह हैं.इन्द्रेश के जेबी संगठन मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के संयोजक मोहम्मद अफ़जाल कहते हैं कि उन्होंने डॉ सलीम के साथ एक समूह ने दरगाह में दुआ की और इन्द्रेश की सलामती के लिए चादर चढ़ाई.दरगाह में ख़ादिमों की संस्था अंजुमन के पूर्व सचिव सरवर चिश्ती कहते हैं कि ये शर्मनाक है, ''मुझे ये सुनकर बेहद दुख हुआ कि ऐसी कोई दुआ इस अमन के मु़द्दस मुक़ाम पर की गई. ऐसे लोग इंसानियत के ग़द्दार है,ये तो मीर जाफ़र जैसी हरकत है. क्या हक़ है ऐसे लोगो को दुआ करने का.''यानी जिस दरगाह को तबाह करने की कोशिश में इन्द्रेश के शामिल होने का आरोप है , उन्हीं ख्वाजा गरीब नवाज़ की शरण में जाकर दुआ मांगने का क्या मातलब है . लेकिन लगता है कि इन्द्रेश जी और भी कुछ बड़े काम करने वालों हैं . नामी अखबार इन्डियन एक्सप्रेस में छपे उनके आज के इंटर व्यू को देखें तो समझ में आ जाएगा कि वे हर उस काम के लिए अपने अलावा बाकी पूरी दुनिया को ज़िम्मेदार मानाने का आग्रह कर रहे हैं जिसमें वे गुनाहगार हैं , मसलन , समझौता एक्सप्रेस में हुए बम धमाकों के लिए वे अब चाहते हैं कि उसके लिए रक्षा , विदेश और गृह विभाग के मंत्रियों की जांच हो . साथ ही राहुल गांधी और दिग्विजय सिंह की भी जांच हो . यानी जो भी माननीय इन्द्रेश जी के ऊपर आरोप लगाएगा उसे वे हडका लेगें और डांटने लगेंगें .ख्वाजा गरीब नवाज़ से उन्होंने पता नहीं क्यों दुआ मांगने का फैसला किया .
Labels:
इन्द्रेश कुमार,
कोतवाल,
चोर,
मोईनुद्दीन चिश्ती,
शेष नारायण सिंह,
हुकुम
किसी लेख पर विद्वान् विश्लेषक और लेखक वीरेन्द्र जैन की टिप्पणी
वीरेन्द्र जैन्
विष्णु बैरागीजी इस नेट की दुनिया में साम्प्रदाय्क संगठन के कुछ लोग अपने सैकड़ों छद्म नाम बना कर गालियां देने का यह काम ठेके पर कर रहे हैं और वे जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं। तर्क वहां दिया जा सकता है जहाँ लोग ज्ञान पिपासु हों, यहाँ तो मुकुट बिहारी सरोज के शब्दों में कहा जा सकता है-
बन्द किवार किये बैठे हैं, अब आये कोई समझाने
इसलिए इनमें से अगर कोई अज्ञानी भी है तो जीसस के शब्दों में यही कहा जा सकता है कि हे प्रभु इन्हें माफ करना, ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं
विष्णु बैरागीजी इस नेट की दुनिया में साम्प्रदाय्क संगठन के कुछ लोग अपने सैकड़ों छद्म नाम बना कर गालियां देने का यह काम ठेके पर कर रहे हैं और वे जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं। तर्क वहां दिया जा सकता है जहाँ लोग ज्ञान पिपासु हों, यहाँ तो मुकुट बिहारी सरोज के शब्दों में कहा जा सकता है-
बन्द किवार किये बैठे हैं, अब आये कोई समझाने
इसलिए इनमें से अगर कोई अज्ञानी भी है तो जीसस के शब्दों में यही कहा जा सकता है कि हे प्रभु इन्हें माफ करना, ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं
Monday, January 17, 2011
पेट्रोल की बढ़ी कीमत इस देश के गरीब आदमी के मुंह पर तमाचा है .
शेष नारायण सिंह
केंद्र सरकार ने महंगाई की एक और खेप आम आदमी के सिर पर लाद दिया है . आलू प्याज सहित खाने की हर चीज़ की महंगाई की मार झेल रही जनता के लिए पेट्रोल की बढ़ी कीमतें बहुत भारी हमला हैं . हालांकि फौरी तौर पर गरीब आदमी सोच सकता है कि बढ़ी हुई कीमतों से उनका क्या लेना देना लेकिन सही बात यह है कि यह मंहगाई निश्चित रूप से कमर तोड़ है . १९६९ में जब स्व इंदिरा गाँधी ने डीज़ल और पेट्रोल की कीमतों में मामूली वृद्धि की थी तो साप्ताहिक ब्लिट्ज के महान संपादक , रूसी करंजिया ने अपने अखबार की हेडिंग लगाई थी कि पेट्रोल के महंगा होने से आम आदमी सबसे ज्यादा प्रभावित होगा , सबसे बड़ी चपत उसी को लगेगी . उन दिनों लोगों की समझ में नहीं आता था कि पेट्रोल की कीमत बढ़ने से आम आदमी कैसे प्रभावित होगा. स्व करंजिया ने अगले अंक में ही बाकायदा समझाया था कि किस तरह से पेट्रोल की कीमत बढ़ने से आम आदमी प्रभावित होता है . उन दिनों तो उनका तर्क ढुलाई के तर्क पर ही केंद्रित था लेकिन उन्होंने समझाया था कि डीज़ल और पेट्रोल की कीमतें बढ़ने या घटने का लाभ या हानि आम आदमी को सबसे ज्यादा होता है . नेहरू युग के बाद का युग था इसलिए घूस का वह बुलंद मुकाम उन दिनों नहीं हासिल था जो आजकल है . आजकल तो हर क्षेत्र में घूस को स्थायी तत्व माना जाता है लेकिन उन दिनों हर अफसर और नेता घूस जीवी नहीं थे . लेकिन करंजिया ने अपने सम्पादकीय में लिखा कि हर उस चीज़ का असर आम आदमी पर पड़ेगा जिसका असर घूसजीवी अधिकारियों पर पड़ता है क्योंकि वह अपने सारे खर्च का मुआवजा गरीब आदमी से वसूलता है .
आज की हालात अलग हैं . यह मंहगाई जनविरोधी नीतियों की कई साल से चली आ रही परम्परा का नतीजा है . विपक्षी पार्टियों की समझ में यह बात कब आयेगी कि जब संकट की हालात शुरू हो रही हों ,उसी वक़्त सरकार की नीतियों के खिलाफ जागरण का अभियान शुरू कर देने से आम आदमी की जान महंगाई के थपेड़ों से बचाई जा सकती है. पेट्रोल की कीमतों में वृद्धि तो ऐसी बात है जो सौ फीसदी सरकारी कुप्रबंध का नतीजा है . अगर कांग्रेस के शुरुआती दौर की बात छोड़ भी दी जाए जब घनश्याम दास बिड़ला की अम्बेसडर कार को जिंदा रहने के लिए अपने देश में कारों का वही इंजन चलता रहा जिसे बाकी दुनिया बहुत पहले ही नकार चुकी थी क्योंकि वह पेट्रोल बहुत पीता था . अम्बेसडर कार में वही इंजन चलता रहा लेकिन कांग्रेस में बिड़ला की पंहुच इतनी थी कि सरकारी कार के रूप में अम्बेसडर ही चलती रही . बहर हाल यह पुरानी बात है और उसके लिए ज़िम्मेदार किसी को ठहरा लिया जाए लेकिन हालात बदलेगें नहीं . केंद्र सरकार का मौजूदा रुख निश्चित रूप से अफ़सोस नाक है जब कि वह पेट्रोल और डीज़ल की कीमतों को बेहिसाब बढ़ने से रोकने की दिशा में पहल नहीं किया. बहुत मेहनत से इस देश में पब्लिक सेक्टर का विकास हुआ था लेकिन ग्लोबलाइज़ेशन और उदारी करण की आर्थिक नीतियों ने देश के आर्थिक विकास में सबसे ज्यादा योगदान कर सकने वाली कंपनियों को ही अपने चहेते पूंजीपतियों को सौंप दिया . नतीजा यह हुआ कि सरकारी कंपनी ओ एन जी सी और अन्य पेट्रोलियम कंपनियों को राजनीतिक रूप से कनेक्ट पूंजीपतियों को सौंप दिया गया. बात अब सरकार की काबू से बाहर जा चुकी है . लेकिन पिछले २० वर्षों में पूंजीपतियों को इतनी ताक़त दे दी गयी है कि अब वे हर क्षेत्र में सरकार को चुनौती देने की स्थिति में हैं,मनमानी कर सकने की स्थिति में हैं . सरकार के पास निजी पूंजी को काबू कर सकने की ताक़त अब बिलकुल नहीं है .
इस पृष्ठभूमि में बढ़ती कीमतों के अर्थशास्त्र को समझने की ज़रुरत है . दुर्भाग्य यह है कि देश का मौजूदा राजनीतिक नेतृत्व कुछ भी कंट्रोल कर पाने की स्थिति में नहीं है . गठबंधन सरकार की अपनी मजबूरियां होती हैं लेकिन जिस तरह से दाम बढ़ रहे हैं वे बहुत ही खतरनाक दिशा की ओर संकेत कर रहे हैं . आम आदमी को पूंजीपति वर्ग के कारखानों के लिए कच्चा माल और बाज़ार दोनों रूप में मान चुकी सरकार को चाहिए कि फ़ौरन ज़रूरी क़दम उठाये वरना अफ्रीका के कुछ देशों की तरह अपने यहाँ भी खाने के लिए दंगे शुरू हो जायेगें .क्योंकि अगर खाने पीने की हर चीज़ नागरिकों की सीमा के बाहर हो गयी तो आम आदमी लूट खसोट पर आमादा हो जाएगा .अगर ऐसी नौबत आई तो हालात को संभालने वाला कोई नहीं होगा क्योंकि उस हालात में सभी मंहगाई के शिकार हो चुके होगें
केंद्र सरकार ने महंगाई की एक और खेप आम आदमी के सिर पर लाद दिया है . आलू प्याज सहित खाने की हर चीज़ की महंगाई की मार झेल रही जनता के लिए पेट्रोल की बढ़ी कीमतें बहुत भारी हमला हैं . हालांकि फौरी तौर पर गरीब आदमी सोच सकता है कि बढ़ी हुई कीमतों से उनका क्या लेना देना लेकिन सही बात यह है कि यह मंहगाई निश्चित रूप से कमर तोड़ है . १९६९ में जब स्व इंदिरा गाँधी ने डीज़ल और पेट्रोल की कीमतों में मामूली वृद्धि की थी तो साप्ताहिक ब्लिट्ज के महान संपादक , रूसी करंजिया ने अपने अखबार की हेडिंग लगाई थी कि पेट्रोल के महंगा होने से आम आदमी सबसे ज्यादा प्रभावित होगा , सबसे बड़ी चपत उसी को लगेगी . उन दिनों लोगों की समझ में नहीं आता था कि पेट्रोल की कीमत बढ़ने से आम आदमी कैसे प्रभावित होगा. स्व करंजिया ने अगले अंक में ही बाकायदा समझाया था कि किस तरह से पेट्रोल की कीमत बढ़ने से आम आदमी प्रभावित होता है . उन दिनों तो उनका तर्क ढुलाई के तर्क पर ही केंद्रित था लेकिन उन्होंने समझाया था कि डीज़ल और पेट्रोल की कीमतें बढ़ने या घटने का लाभ या हानि आम आदमी को सबसे ज्यादा होता है . नेहरू युग के बाद का युग था इसलिए घूस का वह बुलंद मुकाम उन दिनों नहीं हासिल था जो आजकल है . आजकल तो हर क्षेत्र में घूस को स्थायी तत्व माना जाता है लेकिन उन दिनों हर अफसर और नेता घूस जीवी नहीं थे . लेकिन करंजिया ने अपने सम्पादकीय में लिखा कि हर उस चीज़ का असर आम आदमी पर पड़ेगा जिसका असर घूसजीवी अधिकारियों पर पड़ता है क्योंकि वह अपने सारे खर्च का मुआवजा गरीब आदमी से वसूलता है .
आज की हालात अलग हैं . यह मंहगाई जनविरोधी नीतियों की कई साल से चली आ रही परम्परा का नतीजा है . विपक्षी पार्टियों की समझ में यह बात कब आयेगी कि जब संकट की हालात शुरू हो रही हों ,उसी वक़्त सरकार की नीतियों के खिलाफ जागरण का अभियान शुरू कर देने से आम आदमी की जान महंगाई के थपेड़ों से बचाई जा सकती है. पेट्रोल की कीमतों में वृद्धि तो ऐसी बात है जो सौ फीसदी सरकारी कुप्रबंध का नतीजा है . अगर कांग्रेस के शुरुआती दौर की बात छोड़ भी दी जाए जब घनश्याम दास बिड़ला की अम्बेसडर कार को जिंदा रहने के लिए अपने देश में कारों का वही इंजन चलता रहा जिसे बाकी दुनिया बहुत पहले ही नकार चुकी थी क्योंकि वह पेट्रोल बहुत पीता था . अम्बेसडर कार में वही इंजन चलता रहा लेकिन कांग्रेस में बिड़ला की पंहुच इतनी थी कि सरकारी कार के रूप में अम्बेसडर ही चलती रही . बहर हाल यह पुरानी बात है और उसके लिए ज़िम्मेदार किसी को ठहरा लिया जाए लेकिन हालात बदलेगें नहीं . केंद्र सरकार का मौजूदा रुख निश्चित रूप से अफ़सोस नाक है जब कि वह पेट्रोल और डीज़ल की कीमतों को बेहिसाब बढ़ने से रोकने की दिशा में पहल नहीं किया. बहुत मेहनत से इस देश में पब्लिक सेक्टर का विकास हुआ था लेकिन ग्लोबलाइज़ेशन और उदारी करण की आर्थिक नीतियों ने देश के आर्थिक विकास में सबसे ज्यादा योगदान कर सकने वाली कंपनियों को ही अपने चहेते पूंजीपतियों को सौंप दिया . नतीजा यह हुआ कि सरकारी कंपनी ओ एन जी सी और अन्य पेट्रोलियम कंपनियों को राजनीतिक रूप से कनेक्ट पूंजीपतियों को सौंप दिया गया. बात अब सरकार की काबू से बाहर जा चुकी है . लेकिन पिछले २० वर्षों में पूंजीपतियों को इतनी ताक़त दे दी गयी है कि अब वे हर क्षेत्र में सरकार को चुनौती देने की स्थिति में हैं,मनमानी कर सकने की स्थिति में हैं . सरकार के पास निजी पूंजी को काबू कर सकने की ताक़त अब बिलकुल नहीं है .
इस पृष्ठभूमि में बढ़ती कीमतों के अर्थशास्त्र को समझने की ज़रुरत है . दुर्भाग्य यह है कि देश का मौजूदा राजनीतिक नेतृत्व कुछ भी कंट्रोल कर पाने की स्थिति में नहीं है . गठबंधन सरकार की अपनी मजबूरियां होती हैं लेकिन जिस तरह से दाम बढ़ रहे हैं वे बहुत ही खतरनाक दिशा की ओर संकेत कर रहे हैं . आम आदमी को पूंजीपति वर्ग के कारखानों के लिए कच्चा माल और बाज़ार दोनों रूप में मान चुकी सरकार को चाहिए कि फ़ौरन ज़रूरी क़दम उठाये वरना अफ्रीका के कुछ देशों की तरह अपने यहाँ भी खाने के लिए दंगे शुरू हो जायेगें .क्योंकि अगर खाने पीने की हर चीज़ नागरिकों की सीमा के बाहर हो गयी तो आम आदमी लूट खसोट पर आमादा हो जाएगा .अगर ऐसी नौबत आई तो हालात को संभालने वाला कोई नहीं होगा क्योंकि उस हालात में सभी मंहगाई के शिकार हो चुके होगें
Labels:
गरीब आदमी,
तमाचा,
पेट्रोल,
बढ़ी कीमत,
शेष नारायण सिंह
Sunday, January 16, 2011
यू पी में मुसलमानों के वोटों के चक्कर में हैं कई पार्टियां
शेष नारायण सिंह
केंद्रीय मंत्रिमंडल का विस्तार कभी भी हो सकता है . कुछ मंत्रियोंकी छुट्टी की भी चर्चा है,हालांकि फोकस नयी भर्तियों पर ही ज्यादा है . कुछ मंत्रियों के विभाग भी बदले जायेगें. अगले दो वर्षों में कई राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं . जानकार बताते हैं कि यह विस्तार आगामी चुनावों को ध्यान में रख कर किया जाएगा ,इसलिए राजनीतिक प्रबंधन मंत्रिमंडल की फेरबदल का स्थायी भाव होगा. मायावती ने उत्तर प्रदेश विधान सभा के उम्मीदवारों की सूची जारी करके राज्य की राजनीति की रफ़्तार को तेज़ कर दिया है . उत्तर प्रदेश में दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियों का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है .बीजेपी की शुरुआती कोशिश तो साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के ज़रिये चुनाव में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की थी लेकिन अब लगता है कि उनकी रणनीति भी बदल गयी है . खबर है कि अपेक्षाकृत उदार विचारों वाले राजनाथ सिंह को उत्तर प्रदेश की कमान दी जाने वाली है . उनके मुख्य सहयोगी के रूप में मुख्तार अब्बास नकवी को रखे जाने की संभावना है. बीजेपी मूल रूप से नरेंद्र मोदी और वरुण गांधी टाइप खूंखार लोगों को आगे करके उत्तर प्रदेश में ध्रुवीकरण की राजनीति करना चाहती थी लेकिन नीतीश कुमार ने साफ़ बता दिया कि अगर इन अतिवादी छवि के लोगों को आगे किया गया तो यू पी में बीजेपी को एन डी ए का कवर नहीं मिलेगा . ,वहां बीजेपी के रूप में ही उन्हें विधानसभा चुनाव लड़ना पड़ेगा. बिहार में नीतीश कुमार की सफलता के बाद मुसलमानों और पिछड़ों में उन्हें एक उदार नेता के रूप में देखा जाने लगा है . लगता है कि बीजेपी उनकी छवि को इस्तेमाल करके कुछ चुनावी मजबूती के चक्कर में है . केंद्रीय मंत्रिमंडल के इस विस्तार में राजनीति की इन बारीकियों को भी ध्यान में रखा जाएगा, ऐसा अन्दर की बात जानने वालों का दावा है .
उत्तर प्रदेश में चुनावी रणनीति को डिजाइन करने वालों को मालूम रहता है कि आधे से ज्यादा सीटों पर राज्य का मुसलमानों की निर्णायक भूमिका रहती है . इसलिए बीजेपी के अलावा बाकी तीनों पार्टियां , बहुजन समाज पार्टी ,समाजवादी पार्टी और कांग्रेस की कोशिश है कि मुसलमानों को साथ रखने की जुगत भिडाई जाए. पिछले क़रीब २० साल से उत्तर प्रदेश का मुसलमान मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी को वोट देता रहा है लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में ऐसा नहीं हुआ . मुसलमान ने बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस दोनों को वोट दिया .उसकी नज़र में जो बीजेपी को हराने की स्थिति में था , वही मुस्लिम वोटों का हक़दार बना . उसके बाद भी मुलायम सिंह यादव ने कई राजनीतिक गलतियाँ कीं. एक तो अमर सिंह को पार्टी से निकाल कर उन्होंने अपने लिए एक मुफ्त का दुश्मन खड़ा कर लिया . अमर सिंह की मदद से पीस पार्टी ने राज्य के पूर्वी हिस्से में मुलायम सिंह को कहीं भी जीतने लायक नहीं छोड़ा है . दूसरी बड़ी गलती मुलायम सिंह यादव ने यह की कि उन्होंने आज़म खां को फिर से पार्टी में भर्ती कर लिया . जिसकी वजह से बड़ी संख्या में मुसलमान उनसे दूर चला गया . आज़म खां ने अपने व्यवहार से बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों को नाराज़ कर रखा है . उनकी राजनीतिक ताक़त का पता २००९ के लोकसभा चुनावों में चल गया था जब उनके अपने विधान सभा क्षेत्र में जयाप्रदा भारी वोटों से विजयी रही थीं जबकि आज़म खां ने उनको हराने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया था .. ज़ाहिर है कि आज़म खां के साथ अब राज्य का मुसलमान नहीं है . इसका मातलब यह हुआ कि मुसलमानों के वोटों की दावेदारी में मुलायम सिंह बहुत पीछे छूट गए हैं . वे अब उत्तर प्रदेश के मुस्लिम मतदाताओं के प्रिय पात्र नहीं रहे.
बीजेपी के खिलाफ मज़बूत राजनीतिक ताक़त के रूप में मुसलमानों की नज़र राज्य में बी एस पी और कांग्रेस पर पड़ रही है. मायावती पहले से ही वरुण गाँधी टाइप लोगों को जेल की हवा खिलाकर इस दिशा में पहल कर चुकी हैं . लेकिन कांग्रेस की तरफ से राहुल गांधी की मुस्लिम बहुल इलाकों की यात्राओं के अलावा कोई पहल नहीं हुई है. सच्चर कमेटी जिस से कांग्रेस को बहुत उम्मीद थी ,वह कहीं लागू ही नहीं हुई है . मुसलमानों के बच्चों के लिए वजीफे का काम भी रफ़्तार नहीं पकड़ सका. अल्पसंख्यक मंत्रालय ने उस दिशा में ज़रूरी पहल ही नहीं की..मंत्रिमंडल का विस्तार एक ऐसा मौक़ा है जब कांग्रेस मुसलमानों में यह सन्देश दे सकती है कि वह कौम को क़ाबिले एहतराम मानती है . मोहसिना किदवई उत्तरप्रदेश के राजनीतिक मुसलमानों की सबसे सीनियर नेता हैं . उन्हें अगर सम्मान दिया गया तो कुछ मुसलमान कांग्रेस को विकल्प मान सकते हैं . ज़फर अली नकवी भी सांसद हैं . उनकी वजह से भी देहाती इलाकों में मुसलमानों को बताया जा सकता है कि कांग्रेस उन्हें गंभीरता से लेती है . अभी उत्तर प्रदेश के मुसलमानों के बीच से केवल सलमान खुर्शीद मंत्रिमंडल में हैं . एक तो आम मुसलमान उन्हें यू पी वाला मानता ही नहीं क्योंकि वे अपने पुरखों का नाम लेकर उत्तर प्रदेश में केवल चुनाव लड़ने जाते हैं . दूसरी बात जो उनको मुसलमान नेता कभी नहीं बनने देगी , वह अल्पसंख्यक मंत्रालय में उनकी काम करने या यूं कहिये कि काम न करने की योग्यता है .मुसलमानों के लिए इतने महत्वपूर्ण मंत्रालय को उन्होंने जिस तरह से चलाया है वह किसी की तारीफ़ का हक़दार नहीं बन सका.
ऐसी हालात में अगर कांग्रेस ने मुसलमानों का दिल जीतने के लिए कुछ कारगर क़दम नहीं उठाती तो उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव बीजेपी बनाम बहुजन समाज पार्टी हो जाएगा . . ज़ाहिर है ऐसा होने पर मुसलमान बहुजन समाज पार्टी के साथ होगा. हाँ, अगर कांग्रेस ने मुसलमान के पक्ष में फ़ौरन कोई बड़ा सन्देश दे दिया तो कांग्रेस भी मुख्य लड़ाई में आ सकती है . अगर विधान सभा में कांग्रेस ने अपनी धमाकेदार मौजूदगी दर्ज करा दी तो लोकसभा २०१४ में कांग्रेस उत्तर प्रदेश में एक मज़बूत ताक़त बन सकेगी . जिसके लिए राहुल गाँधी और दिग्विजय सिंह खासी मेहनत कर रहे हैं
केंद्रीय मंत्रिमंडल का विस्तार कभी भी हो सकता है . कुछ मंत्रियोंकी छुट्टी की भी चर्चा है,हालांकि फोकस नयी भर्तियों पर ही ज्यादा है . कुछ मंत्रियों के विभाग भी बदले जायेगें. अगले दो वर्षों में कई राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं . जानकार बताते हैं कि यह विस्तार आगामी चुनावों को ध्यान में रख कर किया जाएगा ,इसलिए राजनीतिक प्रबंधन मंत्रिमंडल की फेरबदल का स्थायी भाव होगा. मायावती ने उत्तर प्रदेश विधान सभा के उम्मीदवारों की सूची जारी करके राज्य की राजनीति की रफ़्तार को तेज़ कर दिया है . उत्तर प्रदेश में दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियों का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है .बीजेपी की शुरुआती कोशिश तो साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के ज़रिये चुनाव में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की थी लेकिन अब लगता है कि उनकी रणनीति भी बदल गयी है . खबर है कि अपेक्षाकृत उदार विचारों वाले राजनाथ सिंह को उत्तर प्रदेश की कमान दी जाने वाली है . उनके मुख्य सहयोगी के रूप में मुख्तार अब्बास नकवी को रखे जाने की संभावना है. बीजेपी मूल रूप से नरेंद्र मोदी और वरुण गांधी टाइप खूंखार लोगों को आगे करके उत्तर प्रदेश में ध्रुवीकरण की राजनीति करना चाहती थी लेकिन नीतीश कुमार ने साफ़ बता दिया कि अगर इन अतिवादी छवि के लोगों को आगे किया गया तो यू पी में बीजेपी को एन डी ए का कवर नहीं मिलेगा . ,वहां बीजेपी के रूप में ही उन्हें विधानसभा चुनाव लड़ना पड़ेगा. बिहार में नीतीश कुमार की सफलता के बाद मुसलमानों और पिछड़ों में उन्हें एक उदार नेता के रूप में देखा जाने लगा है . लगता है कि बीजेपी उनकी छवि को इस्तेमाल करके कुछ चुनावी मजबूती के चक्कर में है . केंद्रीय मंत्रिमंडल के इस विस्तार में राजनीति की इन बारीकियों को भी ध्यान में रखा जाएगा, ऐसा अन्दर की बात जानने वालों का दावा है .
उत्तर प्रदेश में चुनावी रणनीति को डिजाइन करने वालों को मालूम रहता है कि आधे से ज्यादा सीटों पर राज्य का मुसलमानों की निर्णायक भूमिका रहती है . इसलिए बीजेपी के अलावा बाकी तीनों पार्टियां , बहुजन समाज पार्टी ,समाजवादी पार्टी और कांग्रेस की कोशिश है कि मुसलमानों को साथ रखने की जुगत भिडाई जाए. पिछले क़रीब २० साल से उत्तर प्रदेश का मुसलमान मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी को वोट देता रहा है लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में ऐसा नहीं हुआ . मुसलमान ने बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस दोनों को वोट दिया .उसकी नज़र में जो बीजेपी को हराने की स्थिति में था , वही मुस्लिम वोटों का हक़दार बना . उसके बाद भी मुलायम सिंह यादव ने कई राजनीतिक गलतियाँ कीं. एक तो अमर सिंह को पार्टी से निकाल कर उन्होंने अपने लिए एक मुफ्त का दुश्मन खड़ा कर लिया . अमर सिंह की मदद से पीस पार्टी ने राज्य के पूर्वी हिस्से में मुलायम सिंह को कहीं भी जीतने लायक नहीं छोड़ा है . दूसरी बड़ी गलती मुलायम सिंह यादव ने यह की कि उन्होंने आज़म खां को फिर से पार्टी में भर्ती कर लिया . जिसकी वजह से बड़ी संख्या में मुसलमान उनसे दूर चला गया . आज़म खां ने अपने व्यवहार से बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों को नाराज़ कर रखा है . उनकी राजनीतिक ताक़त का पता २००९ के लोकसभा चुनावों में चल गया था जब उनके अपने विधान सभा क्षेत्र में जयाप्रदा भारी वोटों से विजयी रही थीं जबकि आज़म खां ने उनको हराने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया था .. ज़ाहिर है कि आज़म खां के साथ अब राज्य का मुसलमान नहीं है . इसका मातलब यह हुआ कि मुसलमानों के वोटों की दावेदारी में मुलायम सिंह बहुत पीछे छूट गए हैं . वे अब उत्तर प्रदेश के मुस्लिम मतदाताओं के प्रिय पात्र नहीं रहे.
बीजेपी के खिलाफ मज़बूत राजनीतिक ताक़त के रूप में मुसलमानों की नज़र राज्य में बी एस पी और कांग्रेस पर पड़ रही है. मायावती पहले से ही वरुण गाँधी टाइप लोगों को जेल की हवा खिलाकर इस दिशा में पहल कर चुकी हैं . लेकिन कांग्रेस की तरफ से राहुल गांधी की मुस्लिम बहुल इलाकों की यात्राओं के अलावा कोई पहल नहीं हुई है. सच्चर कमेटी जिस से कांग्रेस को बहुत उम्मीद थी ,वह कहीं लागू ही नहीं हुई है . मुसलमानों के बच्चों के लिए वजीफे का काम भी रफ़्तार नहीं पकड़ सका. अल्पसंख्यक मंत्रालय ने उस दिशा में ज़रूरी पहल ही नहीं की..मंत्रिमंडल का विस्तार एक ऐसा मौक़ा है जब कांग्रेस मुसलमानों में यह सन्देश दे सकती है कि वह कौम को क़ाबिले एहतराम मानती है . मोहसिना किदवई उत्तरप्रदेश के राजनीतिक मुसलमानों की सबसे सीनियर नेता हैं . उन्हें अगर सम्मान दिया गया तो कुछ मुसलमान कांग्रेस को विकल्प मान सकते हैं . ज़फर अली नकवी भी सांसद हैं . उनकी वजह से भी देहाती इलाकों में मुसलमानों को बताया जा सकता है कि कांग्रेस उन्हें गंभीरता से लेती है . अभी उत्तर प्रदेश के मुसलमानों के बीच से केवल सलमान खुर्शीद मंत्रिमंडल में हैं . एक तो आम मुसलमान उन्हें यू पी वाला मानता ही नहीं क्योंकि वे अपने पुरखों का नाम लेकर उत्तर प्रदेश में केवल चुनाव लड़ने जाते हैं . दूसरी बात जो उनको मुसलमान नेता कभी नहीं बनने देगी , वह अल्पसंख्यक मंत्रालय में उनकी काम करने या यूं कहिये कि काम न करने की योग्यता है .मुसलमानों के लिए इतने महत्वपूर्ण मंत्रालय को उन्होंने जिस तरह से चलाया है वह किसी की तारीफ़ का हक़दार नहीं बन सका.
ऐसी हालात में अगर कांग्रेस ने मुसलमानों का दिल जीतने के लिए कुछ कारगर क़दम नहीं उठाती तो उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव बीजेपी बनाम बहुजन समाज पार्टी हो जाएगा . . ज़ाहिर है ऐसा होने पर मुसलमान बहुजन समाज पार्टी के साथ होगा. हाँ, अगर कांग्रेस ने मुसलमान के पक्ष में फ़ौरन कोई बड़ा सन्देश दे दिया तो कांग्रेस भी मुख्य लड़ाई में आ सकती है . अगर विधान सभा में कांग्रेस ने अपनी धमाकेदार मौजूदगी दर्ज करा दी तो लोकसभा २०१४ में कांग्रेस उत्तर प्रदेश में एक मज़बूत ताक़त बन सकेगी . जिसके लिए राहुल गाँधी और दिग्विजय सिंह खासी मेहनत कर रहे हैं
Thursday, January 13, 2011
यह कवि फौलाद का बना है ,अपनी शर्तों पर कविता करेगा
शेष नारायण सिंह
फेसबुक पर एक बहुत ही दिलचस्प बहस चल रही है.जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में उनके छात्र जीवन के साथी असरार खां ने जनवादी कवि रमाशंकर यादव विद्रोही के बारे में कुछ ऐसे बयान दे दिए हैं जिन पर विवाद है. जे एन यू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष चन्द्रशेखर से उनकी तुलना कर देने के बाद कुछ लोगों को नागवार गुज़रा और उन्होंने विद्रोही की कविता पर ही सवाल उठाने शुरू कर दिए . जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में १९८३ में हुए संघर्ष की कथा में नायकों और खलनायकों का ज़िक्र चल पड़ा और बात विद्रोही की कविता से हट कर छात्र राजनीति की बारीकियों पर केन्द्रित हो गयी. मुझे लगता है कि चंद्रशेखर और विद्रोही दोनों उस महान विश्वविद्यालय के छात्र हैं और दोनों की अपनी अपनी विशिष्टता है . दोनों ने ही अवाम के संघर्ष की गाथा में योगदान किया है .चन्द्रशेखर का हमला सीधा था तो शासक वर्गों के एक मुष्टंडे ने उनकी जान ही ले ली और विद्रोही ने कविता के ज़रिये आम आदमी की तकलीफ को आवाज़ देने की कोशिश की ,तो अभी तक उनकी सांस चल रही है. इसलिए तुलना की बात यहीं ख़त्म की जानी चाहिए .लेकिन कविता के मैदान में विद्रोही का जवाब नहीं है. उनकी अवधी कविता , 'जगीर मांगता ,जगीर मांगता ,कलजुगहा मजूर पूरी सीर मांगता ' खेतिहर मजदूरों की उस संघर्ष गाथा की अभिव्यक्ति है जिसमें मजूर के दर्द की जो परते हैं वे उसकी उस हिम्मत की बात को रेखांकित करती हैं . विद्रोही ने इसी दर्द और हिम्मत को बा-आवाज़े बुलंद ऐलान किया है . इसी कविता में विद्रोही बताते हैं अब मजूर अपने पसीने का रेट मांग रहा है . वह इनाम से संतुष्ट नहीं होने वाला ,वह हक की बात करता है . मैं साहित्य का आलोचाक नहीं हूँ ,इस अवधी कविता की साहित्यिक व्याख्या के झेमेले में नहीं पड़ना चाहता लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि अवधी क्षेत्र में किसी भी संघर्ष के अगले दस्ते का गीत बन सकने की ताक़त वाला यह गीत आलोचकों की नज़र से या तो गुज़रा ही नहीं है और या उन लोगों का वर्गचरित्र आड़े आ गया होगा और इसे मामूली कविता मानकर भुला दिया गया होगा. जिस दौर में विद्रोही जे एन यू आये थे, उस दौर के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों और प्राध्यापकों ने हिन्दी साहित्य में बहुत ज्यादा योगदान किया है . कविता,आलोचना,कहानी,उपन्यास सभी क्षेत्रों के चोटी के आज के अधिकतर रचनाकार उस दौर में उसी विश्वविद्यालय में रहते थे . विद्रोही की कविताओं के बारे में उस तरह का जिक्र नहीं हुआ जैसा बाकी लोगों का हुआ. जब विद्रोही अपनी एक कविता में चेतावनी देते हैं कि 'नाच नाचेगी ऐसे कडाही में पूड़ी, खायेगा वही जो हवन से बचेगा ' तो अपने गाँव में बैठे उस शोषण की बारीकी को बात कर रहे होते हैं जो काफी हाउस वाले आलोचकों और बुद्धिजीवियों की समझ में नहीं आयेगा. इस कविता में सामंती मानसिकता की बखिया भी उधेड़ी गयी है . इस कविता में अवध के ग्रामीण समाज के उस इतिहास को रेखांकित करते हैं जो त्रिलोचन की समझ में तो आती थी लेकिन बाकी लोगों के लिए वह बरास्ता अनुवाद ही अपनी मंजिल तय करती है .
सर्वहारा के नाम पर साहित्य की खेती करने वालों के उस विशिष्ट वर्ग में विद्रोही की पंहुच नहीं है, जो किसी को भी महान साहित्यकार के रूप में पहचान दिलाती है . उनकी कविता को जे एन यू कैम्पस के बाहर पंहुचाने में विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने प्रमुख भूमिका निभाई है, जनवादी कवियों के बीच उनकी कविता की इज़्ज़त भी है . इन छात्रों ने उनकी कुछ कविताओं को यू ट्यूब पर डाल दिया है जिसके ज़रिये विद्रोही को सुना ,देखा जा सकता है लेकिन गरीब आदमी की पक्षधरता का दावा करने वाली राजनीतिक जमातों और उनके साहित्यिक ढपलीबाजों ने कुछ नहीं किया . मैं विद्र्ही को १९७४ से जानता हूँ जब वे मेरे छात्र के रूप में बी ए में दाखिल हुए थे. वामपंथी थे ,कवि थे और बहुत ही भले आदमी थे. जिस कालेज में विद्रोही पढने गए थे ,वह बांयें बाजू के साहित्यकार और कवि स्व मान बादुर सिंह के गाँव में था. मान बहादुर बहुत पहले से कवितायें करते थे लेकिन उसे उन्होंने कहीं भी छपने के लिए नहीं भेजा था . बाद में उनकी शोहरत देख कर लगा कि वे अच्छे कवि रह एहोगें . लेकिन विद्रोही की १९७४ की कवितायें जब उनको दिखाई गयीं तो वे बहुत प्रभावित हुए थे और कहा कि विद्रोही की सोच बिलकुल मौलिक है और भाषा बहुत ही दमदार . कादीपुर में मई दिवस के एक जुलूस में विद्रोही की कवितायें पढी और सराही गई थीं . १९७९ में वे, जे एन यू आ गए और यहाँ सामंती सोच के हर अलंबरदार ने उनका शोषण किया ,उनके परिवार को तहस नहस किया और उनको विश्वविद्यालय से बाहर निकाल कर सड़क पर खदेड़ दिया लेकिन विद्रोही के जीवट का उन्हें अंदाज़ नहीं था .बगावत का यह कवि तब से वहीं सड़क पर डटा हुआ है और आपनी बात को अपनी शर्तों पर कह रहा है . इस काम के लिए उसे अपने शरीर पर अथाह कष्ट झेलने पड़ रहे हैं लेकिन कमज़ोर लोगों की तरह वह आत्महत्या नहीं करेगा , वह जिंदा रहेगा .
फेसबुक पर एक बहुत ही दिलचस्प बहस चल रही है.जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में उनके छात्र जीवन के साथी असरार खां ने जनवादी कवि रमाशंकर यादव विद्रोही के बारे में कुछ ऐसे बयान दे दिए हैं जिन पर विवाद है. जे एन यू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष चन्द्रशेखर से उनकी तुलना कर देने के बाद कुछ लोगों को नागवार गुज़रा और उन्होंने विद्रोही की कविता पर ही सवाल उठाने शुरू कर दिए . जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में १९८३ में हुए संघर्ष की कथा में नायकों और खलनायकों का ज़िक्र चल पड़ा और बात विद्रोही की कविता से हट कर छात्र राजनीति की बारीकियों पर केन्द्रित हो गयी. मुझे लगता है कि चंद्रशेखर और विद्रोही दोनों उस महान विश्वविद्यालय के छात्र हैं और दोनों की अपनी अपनी विशिष्टता है . दोनों ने ही अवाम के संघर्ष की गाथा में योगदान किया है .चन्द्रशेखर का हमला सीधा था तो शासक वर्गों के एक मुष्टंडे ने उनकी जान ही ले ली और विद्रोही ने कविता के ज़रिये आम आदमी की तकलीफ को आवाज़ देने की कोशिश की ,तो अभी तक उनकी सांस चल रही है. इसलिए तुलना की बात यहीं ख़त्म की जानी चाहिए .लेकिन कविता के मैदान में विद्रोही का जवाब नहीं है. उनकी अवधी कविता , 'जगीर मांगता ,जगीर मांगता ,कलजुगहा मजूर पूरी सीर मांगता ' खेतिहर मजदूरों की उस संघर्ष गाथा की अभिव्यक्ति है जिसमें मजूर के दर्द की जो परते हैं वे उसकी उस हिम्मत की बात को रेखांकित करती हैं . विद्रोही ने इसी दर्द और हिम्मत को बा-आवाज़े बुलंद ऐलान किया है . इसी कविता में विद्रोही बताते हैं अब मजूर अपने पसीने का रेट मांग रहा है . वह इनाम से संतुष्ट नहीं होने वाला ,वह हक की बात करता है . मैं साहित्य का आलोचाक नहीं हूँ ,इस अवधी कविता की साहित्यिक व्याख्या के झेमेले में नहीं पड़ना चाहता लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि अवधी क्षेत्र में किसी भी संघर्ष के अगले दस्ते का गीत बन सकने की ताक़त वाला यह गीत आलोचकों की नज़र से या तो गुज़रा ही नहीं है और या उन लोगों का वर्गचरित्र आड़े आ गया होगा और इसे मामूली कविता मानकर भुला दिया गया होगा. जिस दौर में विद्रोही जे एन यू आये थे, उस दौर के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों और प्राध्यापकों ने हिन्दी साहित्य में बहुत ज्यादा योगदान किया है . कविता,आलोचना,कहानी,उपन्यास सभी क्षेत्रों के चोटी के आज के अधिकतर रचनाकार उस दौर में उसी विश्वविद्यालय में रहते थे . विद्रोही की कविताओं के बारे में उस तरह का जिक्र नहीं हुआ जैसा बाकी लोगों का हुआ. जब विद्रोही अपनी एक कविता में चेतावनी देते हैं कि 'नाच नाचेगी ऐसे कडाही में पूड़ी, खायेगा वही जो हवन से बचेगा ' तो अपने गाँव में बैठे उस शोषण की बारीकी को बात कर रहे होते हैं जो काफी हाउस वाले आलोचकों और बुद्धिजीवियों की समझ में नहीं आयेगा. इस कविता में सामंती मानसिकता की बखिया भी उधेड़ी गयी है . इस कविता में अवध के ग्रामीण समाज के उस इतिहास को रेखांकित करते हैं जो त्रिलोचन की समझ में तो आती थी लेकिन बाकी लोगों के लिए वह बरास्ता अनुवाद ही अपनी मंजिल तय करती है .
सर्वहारा के नाम पर साहित्य की खेती करने वालों के उस विशिष्ट वर्ग में विद्रोही की पंहुच नहीं है, जो किसी को भी महान साहित्यकार के रूप में पहचान दिलाती है . उनकी कविता को जे एन यू कैम्पस के बाहर पंहुचाने में विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने प्रमुख भूमिका निभाई है, जनवादी कवियों के बीच उनकी कविता की इज़्ज़त भी है . इन छात्रों ने उनकी कुछ कविताओं को यू ट्यूब पर डाल दिया है जिसके ज़रिये विद्रोही को सुना ,देखा जा सकता है लेकिन गरीब आदमी की पक्षधरता का दावा करने वाली राजनीतिक जमातों और उनके साहित्यिक ढपलीबाजों ने कुछ नहीं किया . मैं विद्र्ही को १९७४ से जानता हूँ जब वे मेरे छात्र के रूप में बी ए में दाखिल हुए थे. वामपंथी थे ,कवि थे और बहुत ही भले आदमी थे. जिस कालेज में विद्रोही पढने गए थे ,वह बांयें बाजू के साहित्यकार और कवि स्व मान बादुर सिंह के गाँव में था. मान बहादुर बहुत पहले से कवितायें करते थे लेकिन उसे उन्होंने कहीं भी छपने के लिए नहीं भेजा था . बाद में उनकी शोहरत देख कर लगा कि वे अच्छे कवि रह एहोगें . लेकिन विद्रोही की १९७४ की कवितायें जब उनको दिखाई गयीं तो वे बहुत प्रभावित हुए थे और कहा कि विद्रोही की सोच बिलकुल मौलिक है और भाषा बहुत ही दमदार . कादीपुर में मई दिवस के एक जुलूस में विद्रोही की कवितायें पढी और सराही गई थीं . १९७९ में वे, जे एन यू आ गए और यहाँ सामंती सोच के हर अलंबरदार ने उनका शोषण किया ,उनके परिवार को तहस नहस किया और उनको विश्वविद्यालय से बाहर निकाल कर सड़क पर खदेड़ दिया लेकिन विद्रोही के जीवट का उन्हें अंदाज़ नहीं था .बगावत का यह कवि तब से वहीं सड़क पर डटा हुआ है और आपनी बात को अपनी शर्तों पर कह रहा है . इस काम के लिए उसे अपने शरीर पर अथाह कष्ट झेलने पड़ रहे हैं लेकिन कमज़ोर लोगों की तरह वह आत्महत्या नहीं करेगा , वह जिंदा रहेगा .
Subscribe to:
Posts (Atom)