शेष नारायण सिंह
पिछले साठ साल में जितने दंगे हुए, सब के बाद फायदा प्रापर्टी डीलरों का ही हुआ. १९४६ का लाहौर का दंगा हो या २०१० का हैदराबाद का .हर दंगे की तरह , मार्च में हैदराबाद में हुआ दंगा भी निहित स्वार्थ वालों ने करवाया था. नागरिक अधिकारों के क्षेत्र में सक्रिय कार्यकर्ताओं ने पता लगाया है कि २३ मार्च से २७ मार्च तक चले दंगे में ज़मीन का कारोबार करने वाले माफिया का हाथ था. यह लोग बी जे पी, मजलिस इत्तेहादुल मुसलमीन और टी डी पी के नगर सेवकों को साथ लेकर दंगों का आयोजन कर रहे थे . सिविल लिबर्टीज़ मानिटरिंग कमेटी,कुला निर्मूलन पुरता समिति, पैट्रियाटिक डेमोक्रेटिक मूवमेंट, चैतन्य समाख्या और विप्लव रचैतुला संगम नाम के संगठनों की एक संयुक्त समिति ने पता लगाया है कि दंगों को शुरू करने में मुकामी आबादी का कोई हाथ नहीं था. शुरुआती पत्थरबाजी उन लोगों ने की जो कहीं से बस में बैठ कर आये थे. कमेटी की रिपोर्ट में बताया गया है कि वे लोग अपने साथ पत्थर भी लाये थे और किसी से फोन पर लगातार बात कर के मंदिरों और मस्जिदों को निशाना बना रहे थे . करीब एक हफ्ते तक चले इस दंगे में ३६ मस्जिदें और ३ मंदिरों पर हमला किया गया. कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि ईद मिलादुन्नबी के मौके पर करीब एक महीने पहले मुसलमानों ने मदनपेट मोहल्ले में कुछ बैनर लगाए थे . २३ मार्च को जब हिन्दुओं ने राम नवमी का आयोजन किया तो उन्होंने मुसलमानों एक बुजुर्गों से कहा कि बैनर हटवा दें . तय हुआ कि शाम तक हटवा दिए जायेंगें लेकिन मुकामी बी जे पी नगर सेवक झगड़े पर आमादा था. उसने मुसलमानों के झंडों के ऊपर अपने झंडे लगवाने शुरू कर दिए . फिर पता नहीं कहाँ से बसों में बैठकर आये कुछ लोगों ने पत्थर फेंकना शुरू कर दिया. जवाबी कार्रवाई में मुसलमानों की हुलिया वाले कुछ नौजवानों ने पत्थर फेंकना शुरू कर दिया. वे भी बाहर से ही आये थे. मोहल्ले के लोगों की समझ में नहीं आया कि हो क्या रहा है . लेकिन तब तक बी जे पी के कार्यकर्ता मैदान ले चुके थे . उधर से एम आई एम वाले नेता ने भी अपने कारिंदों को ललकार दिया , वे भी पत्थर फेंकने लगे. चारों तरफ बद अमनी फैल गयी . बी जे पी और मजलिस इत्तेहादुल मुसलमीन के कार्यकर्ताओं ने अफवाहें फैलाना शुरू कर दिया. एक बार अगर मामूली साम्प्रदायिक झड़प को भी अफवाहों की खाद मिल जाए तो फिर दंगा शुरू हो जाता है , यह बात सभी जानते हैं .बहर हाल हैदराबाद में दंगा इस हद तक बढ़ गया कि कई दिन तक कर्फ्यू लगा रहा .
कमेटी के जांच से पता चला है कि दंगा शुद्ध रूप से प्रापर्टी डीलरों ने करवाया था क्योंकि उनकी निगाह शहर की कुछ ख़ास ज़मीनों पर थी. इन प्रापर्टी डीलरों में हिन्दू भी थे और मुसलमान भी. और यह सभी धंधे के मामले में एक दूसरे के साथी भी हैं . यहाँ तक कि इनके व्यापारिक हित भी साझा हैं .हैदराबाद में साम्प्रदायिक तल्खी उतनी नहीं है जितनी कि उत्तर भारत के कुछ शहरों में है . शायद इसी लिए प्रापर्टी डीलरों ने पत्थरबाजी करने वालों को बाहर से मंगवाया था . कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि जो लोग पत्थर फेंक रहे थे वे देखने से भी हैदराबादी नहीं लगते थे . नागरिक अधिकार के ल;इए संघर्ष करने वाले कुछ कार्यकर्ताओं ने बताया कि हैदराबाद में पहली बार किसी दंगे में इतनी बड़ी संख्या में मस्जिदें और मंदिर तबाह किये गए हैं . इन् पूजा स्थलों की ज़मीन अब बाकायदा इसी भूमाफिया की निगरानी में है . कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक बी जे पी का नगर सेवक, सहदेव यादव और तेलुगु देशम पार्टी का मंगलघाट का नगरसेवक राजू सिंह मुख्य रूप से दंगे करवाने में शामिल थे . इन्हें इस इलाके के उन प्रापर्टी डीलरों से भी मदद मिल रही थी जो चुनाव में मजलिस इत्तेहादुल मुसलमीन के लिए काम करते हैं .
जैसा कि आम तौर पर होता है कि दंगे में हत्या और लूट का तांडव करने वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती , यहाँ भी लोगों को यही शक़ है. लेकिन पिछले दिनों कुछ ऐसे मामले आये हैं जहां दंगाइयों को कानून की प्रक्रिया से गुज़रना पड़ा और उन्हें सज़ा हुई, आज़ादी के बाद से अब तक हुए दंगों में लाखों लोगों की जान गयी है . मरने वालों में हिन्दू, मुसलमान,सिख और ईसाई सभी रहते हैं लेकिन कुछ मामलों को छोड़ कर कभी कार्रवाई नहीं होती. आन्ध्र प्रदेश में आजकल कांग्रेस की सरकार है . दिल्ली में कांग्रेसी नेता आजकल मुसलमानों के पक्ष धर के रूप में अपनी छवि बनाने की कोशिश कर रहे हैं. उन्हें चाहिए कि अपने मुख्य मंत्री को सख्त हिदायत दें कि हैदराबाद में मार्च में हुए दंगों की बाकायदा जांच करवाएं और जो भी दोषी हों उन्हें सख्त सज़ा दिलवाएं . अगर ऐसा हो सका तो भविष्य में दंगों में हाथ डालने के पहले नेता लोग भी बार बार सोचेंगें . वरना यह दंगे एक ऐसी सच्चाई हैं जो अपने देश के विकास में बहुत बड़ी बाधा बना कर खडी है . इन दंगों पर सख्त रुख की इस लिए भी ज़रुरत है कि बी जे पी वाले फिर से हिन्दुत्व की ढपली बजाना शुरू कर चुके हैं . यह देश की शान्ति प्रिय आबादी के लिए बहुत ही खतरनाक संकेत है . क्योंकि जब १९८६ में बी जे पी ने हिन्दुत्व का काम शुरू किया था तो पूरे देश में तरह तरह के दंगें हुए थे , आडवानी की रथ यात्रा हुई थी और बाबरी मस्जिद को तबाह किया गया था. वह तो जब बी जे पी वालों की सरकार दिल्ली में बनी तब जाकर कहीं दंगे बंद हुए थे ..इस लिए अगर नेताओं के हाथ में कठपुतली बनने वाला दंगाई पार्टियों का छोटा नेता अगर जेल जाने की दहशत की ज़द में नही लाया जाता तो आर एस एस की दंगे फैलाने की योजना बन चुकी है और राष्ट्र को चाहिए कि इस से सावधान रहे .
Friday, April 23, 2010
Wednesday, April 21, 2010
काले धन पर काबू करो तो महंगाई घटेगी
शेष नारायण सिंह
रिज़र्व बैंक ने एक बार फिर ब्याज दरें बढ़ा दीं हैं। उनकी सोच है कि बाज़ार में रुपये की कमी से खर्च पर लगाम लगेगी और उपभोक्ता वस्तुओं की खरीद कम होगी। रिज़र्व बैंक के प्रबंधन में देश के चोटी के विद्वान लगे हैं। अर्थशास्त्र के एक प्रकांड पंडित इस देश के प्रधानमंत्री हैं इसलिए यह कहना कि ब्याज़ दर बढ़ा कर मंहगाई पर काबू पाना नामुमकिन है, शायद छोटे मुंह बड़ी बात होगी लेकिन सच्चाई यह है कि बैंकों से पैसा लेकर फालतू की चीज़ें नहीं खरीदी जातीं।
आम तौर पर कर्ज का इस्तेमाल औद्योगिक विकास में योगदान करने के लिए होता है। मध्य वर्ग के लोग घरेलू उपयोग की चीज़ें खरीदने के लिए भी कभी कभी कर्ज लेते है। वैसे पिछले पंद्रह वर्षों का इतिहास देखा जाए तो समझ में आ जाएगा कि मध्यवर्ग के लोगों ने सबसे ज्यादा कर्ज मकान और कार खरीदने के लिए ही लिया है इस कर्ज ने आर्थिक विकास को गति दी है। इसलिए कर्ज पर ब्याज़ दर बढ़ाकर मंहगाई पर काबू करने की सोच को बहुत ही परिपक्व नहीं माना जा सकता। सरकार और रिज़र्व बैंक को इस मामले पर फिर से विचार करना चाहिए। तो सवाल उठता है कि मंहगाई बढऩे के कारण क्या है?
अर्थव्यवस्था की मामूली समझ रखने वाला इंसान भी जानता है कि मंहगाई के लिए सबसे ज्य़ादा नंबर दो का पैसा है काले धन की अर्थव्यवस्था इतनी मजबूत हो गई है कि उसे खत्म कर पाना अब मुश्किल है। इसका कारण यह है कि देश का प्रशासन चलाने वाले सभी वर्गों में ऐसे लोगों की बहुतायत है जो काली कमाई के सहारे ही अपना काम चला रहे हैं। काले धन की हैसियत का अंदाज़ इस देश में लोगों को समय समय पर लगता रहा है लेकिन मौजूदा वक्त ऐसा है जब पूरे देश को अंदाज लग गया है कि काला धन देश की अर्थव्यवस्था में क्या रुतबा हासिल कर चुका है। आई पी एल क्रिकेट और उससे जुड़े हेराफेरी के सौदों की जानकारी जबसे सार्वजनिक क्षेत्र में आई है तबसे रोज़ ही कोई न कोई नया मसाला सामने आ जाता है। अब लगभग तय हो गया है कि ललित मोदी ने आईपील में बड़े नेताओं और उद्योगपतियों के पैसे को ठिकाने लगाने का काम किया था। उसने आज जो खुलासा किया है उससे क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के बड़े बड़े कर्ता धर्ता शक के दायरे में आ गए हैं। मोदी ने अपने खास लोगों को बतया है कि उसने इन्हीं राजनीतिक आकाओं के लिए हेराफेरी की थी। उस प्रक्रिया में उसने अपने लिए भी कुछ रख लिया। ज़ाहिर है कि अगर मोदी के कारनामों की जांच होगी तो वह राजनीतिक नेताओं की पोल भी खोल देगा और अपनी काली कमाई को बेपर्दा होने से बचाने के लिए यह नेता लोग उसे भी बचाएंगे।
कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री के खास माने जाने वाले शशि थरूर को नंगा करके ललित मोदी के यूपीए और विपक्ष में मौजूद संरक्षकों ने कांग्रेस डराने की कोशिश की थी। उन्हें अंदाज़ नहीं था कि सोनिया गांधी उनके ब्लफ को ताड़ जाएंगी और शशि थरूर को रास्ते से हटाकर ललित मोदी के इन आकाओं पर हमला बोल देंगी लेकिन सोनिया गांधी ने वही किया। नतीजा यह हुआ कि अब शशि थरूर तो अखबारों की रद्दी में कही दब गए, लेकिन ललित मोदी के आकाओं की गर्दन पर तलवार लटक गई है। घबड़ाकर इन राजनीतिक सूरमाओं ने ललित मोदी को छोड़ दिया है लेकिन वह भी डटा हुआ है और सभी राजनीतिक नेताओं को औकात बताने पर आमादा है जिन्होंने उसे शिखंडी बनाकर अपनी सियासत चमकाने की कोशिश की थी। ललित मोदी का यह खेल देश हित में है क्योंकि अगर इतने बड़े पैमाने पर हेराफेरी पकड़ी जाएगी जिसमें सत्ता पक्ष और विपक्ष के बड़े बड़े लोगों की बेईमानी से पर्दा उठेगा तो देश का बड़ा फायदा होगा।
आईपीएल में हज़ारों करोड़ के काले धन की कहानी तो नंबर दो की अर्थव्यवस्था का एक बहुत ही मामूली पहलू है। इसी तरह के हजारों हजार मामले देश की राजधानी और हर प्रदेश की राजधानी में देखे जा सकते हैं। मधु कौड़ा, शिबू सोरेन, प्रमोद महाजन, रंजन भट्टाचार्य आदि ने नंबर दो की अर्थव्यवस्था के जो खेल किए थे उसे दुनिया जानती है। इसके आलावा उच्च प्रशासनिक अधिकारियों की आर्थिक अराजकता की कहानियां दुनिया जानती हैं। यही लोग मकानों की कीमतें बढ़ाते हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में ऐसे लाखों मकान है जो खाली पड़े है जिसे किसी घूसखोर ने खरीद कर छोड़ दिया है। अर्थशास्त्र का साधारण सा नियम है कि मकानों की कीमत बढऩे से बाकी चीज़ों की कीमत भी बढ़ती है। और इसी वजह से मंहगाई बढ़ती है।
इसलिए अगर सरकार चाहती है कि मंहगाई पर काबू पाया जाय तो उसे फौरन ऐसे कदम उठाने पड़ेंगे जिससे काले धन की समांतर अर्थव्यवस्था पर लगाम लगे। अगर काले धन की अर्थव्यवस्था पर लगाम लग गई तो कीमतें अपने आप कम होगी। यह काम मुश्किल है लेकिन मनमोहन सिंह के लिए असंभव नहीं है। निजी तौर पर उन्होंने कोई भी बेईमानी नहीं की है। इसलिए अगर वे कमर कस ले तो घूसखोरों पर काबू किया जा सकता है। और अगर ऐसा हुआ तो मंहगाई अपने आप कम हो जाएगी। हां यह भी सच है कि उनके मंत्रिमंडल के ज्य़ादातर सहयोगी उन्हें ऐसा करने से रोकने की कोशिश ज़रूर करेंगे।
रिज़र्व बैंक ने एक बार फिर ब्याज दरें बढ़ा दीं हैं। उनकी सोच है कि बाज़ार में रुपये की कमी से खर्च पर लगाम लगेगी और उपभोक्ता वस्तुओं की खरीद कम होगी। रिज़र्व बैंक के प्रबंधन में देश के चोटी के विद्वान लगे हैं। अर्थशास्त्र के एक प्रकांड पंडित इस देश के प्रधानमंत्री हैं इसलिए यह कहना कि ब्याज़ दर बढ़ा कर मंहगाई पर काबू पाना नामुमकिन है, शायद छोटे मुंह बड़ी बात होगी लेकिन सच्चाई यह है कि बैंकों से पैसा लेकर फालतू की चीज़ें नहीं खरीदी जातीं।
आम तौर पर कर्ज का इस्तेमाल औद्योगिक विकास में योगदान करने के लिए होता है। मध्य वर्ग के लोग घरेलू उपयोग की चीज़ें खरीदने के लिए भी कभी कभी कर्ज लेते है। वैसे पिछले पंद्रह वर्षों का इतिहास देखा जाए तो समझ में आ जाएगा कि मध्यवर्ग के लोगों ने सबसे ज्यादा कर्ज मकान और कार खरीदने के लिए ही लिया है इस कर्ज ने आर्थिक विकास को गति दी है। इसलिए कर्ज पर ब्याज़ दर बढ़ाकर मंहगाई पर काबू करने की सोच को बहुत ही परिपक्व नहीं माना जा सकता। सरकार और रिज़र्व बैंक को इस मामले पर फिर से विचार करना चाहिए। तो सवाल उठता है कि मंहगाई बढऩे के कारण क्या है?
अर्थव्यवस्था की मामूली समझ रखने वाला इंसान भी जानता है कि मंहगाई के लिए सबसे ज्य़ादा नंबर दो का पैसा है काले धन की अर्थव्यवस्था इतनी मजबूत हो गई है कि उसे खत्म कर पाना अब मुश्किल है। इसका कारण यह है कि देश का प्रशासन चलाने वाले सभी वर्गों में ऐसे लोगों की बहुतायत है जो काली कमाई के सहारे ही अपना काम चला रहे हैं। काले धन की हैसियत का अंदाज़ इस देश में लोगों को समय समय पर लगता रहा है लेकिन मौजूदा वक्त ऐसा है जब पूरे देश को अंदाज लग गया है कि काला धन देश की अर्थव्यवस्था में क्या रुतबा हासिल कर चुका है। आई पी एल क्रिकेट और उससे जुड़े हेराफेरी के सौदों की जानकारी जबसे सार्वजनिक क्षेत्र में आई है तबसे रोज़ ही कोई न कोई नया मसाला सामने आ जाता है। अब लगभग तय हो गया है कि ललित मोदी ने आईपील में बड़े नेताओं और उद्योगपतियों के पैसे को ठिकाने लगाने का काम किया था। उसने आज जो खुलासा किया है उससे क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के बड़े बड़े कर्ता धर्ता शक के दायरे में आ गए हैं। मोदी ने अपने खास लोगों को बतया है कि उसने इन्हीं राजनीतिक आकाओं के लिए हेराफेरी की थी। उस प्रक्रिया में उसने अपने लिए भी कुछ रख लिया। ज़ाहिर है कि अगर मोदी के कारनामों की जांच होगी तो वह राजनीतिक नेताओं की पोल भी खोल देगा और अपनी काली कमाई को बेपर्दा होने से बचाने के लिए यह नेता लोग उसे भी बचाएंगे।
कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री के खास माने जाने वाले शशि थरूर को नंगा करके ललित मोदी के यूपीए और विपक्ष में मौजूद संरक्षकों ने कांग्रेस डराने की कोशिश की थी। उन्हें अंदाज़ नहीं था कि सोनिया गांधी उनके ब्लफ को ताड़ जाएंगी और शशि थरूर को रास्ते से हटाकर ललित मोदी के इन आकाओं पर हमला बोल देंगी लेकिन सोनिया गांधी ने वही किया। नतीजा यह हुआ कि अब शशि थरूर तो अखबारों की रद्दी में कही दब गए, लेकिन ललित मोदी के आकाओं की गर्दन पर तलवार लटक गई है। घबड़ाकर इन राजनीतिक सूरमाओं ने ललित मोदी को छोड़ दिया है लेकिन वह भी डटा हुआ है और सभी राजनीतिक नेताओं को औकात बताने पर आमादा है जिन्होंने उसे शिखंडी बनाकर अपनी सियासत चमकाने की कोशिश की थी। ललित मोदी का यह खेल देश हित में है क्योंकि अगर इतने बड़े पैमाने पर हेराफेरी पकड़ी जाएगी जिसमें सत्ता पक्ष और विपक्ष के बड़े बड़े लोगों की बेईमानी से पर्दा उठेगा तो देश का बड़ा फायदा होगा।
आईपीएल में हज़ारों करोड़ के काले धन की कहानी तो नंबर दो की अर्थव्यवस्था का एक बहुत ही मामूली पहलू है। इसी तरह के हजारों हजार मामले देश की राजधानी और हर प्रदेश की राजधानी में देखे जा सकते हैं। मधु कौड़ा, शिबू सोरेन, प्रमोद महाजन, रंजन भट्टाचार्य आदि ने नंबर दो की अर्थव्यवस्था के जो खेल किए थे उसे दुनिया जानती है। इसके आलावा उच्च प्रशासनिक अधिकारियों की आर्थिक अराजकता की कहानियां दुनिया जानती हैं। यही लोग मकानों की कीमतें बढ़ाते हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में ऐसे लाखों मकान है जो खाली पड़े है जिसे किसी घूसखोर ने खरीद कर छोड़ दिया है। अर्थशास्त्र का साधारण सा नियम है कि मकानों की कीमत बढऩे से बाकी चीज़ों की कीमत भी बढ़ती है। और इसी वजह से मंहगाई बढ़ती है।
इसलिए अगर सरकार चाहती है कि मंहगाई पर काबू पाया जाय तो उसे फौरन ऐसे कदम उठाने पड़ेंगे जिससे काले धन की समांतर अर्थव्यवस्था पर लगाम लगे। अगर काले धन की अर्थव्यवस्था पर लगाम लग गई तो कीमतें अपने आप कम होगी। यह काम मुश्किल है लेकिन मनमोहन सिंह के लिए असंभव नहीं है। निजी तौर पर उन्होंने कोई भी बेईमानी नहीं की है। इसलिए अगर वे कमर कस ले तो घूसखोरों पर काबू किया जा सकता है। और अगर ऐसा हुआ तो मंहगाई अपने आप कम हो जाएगी। हां यह भी सच है कि उनके मंत्रिमंडल के ज्य़ादातर सहयोगी उन्हें ऐसा करने से रोकने की कोशिश ज़रूर करेंगे।
Friday, April 16, 2010
भिवंडी के पावरलूम कारखानों में बीमार हैं हज़ारों बुनकर
शेष नारायण सिंह
भिवंडी ,१६ अप्रैल /उत्तर प्रदेश से रोजी रोटी की तलाश में आये हुए मुंबई के पास के औद्योगिक नगर ,भिवंडी पंहुचे कपड़ा मजदूर आजकल बहुत बीमार हो रहे हैं. मार्च से जून तक के महीनों में यहाँ पावर लूम सेक्टर में काम करने वाले मजदूरों पर हर साल की तरह इस साल भी बीमारियों ने धावा बोल दिया है और हर गली से बीमार लोगों की आवाजें सुन ने को मिल जाती हैं .यह बीमारी इस लिए आती है कि शादी व्याह के चक्कर में बड़ी संख्या में मजदूर गाँव चले जाते हैं और मालिक उनकी जगह पर नए लोगों को भर्ती नहीं करते ,बल्कि डबल ड्यूटी का लालच देकर मजदूरों से २०-२० घंटे काम करवाते हैं . जिस से मजदूरी तो ज्यादा मिल जाती है लेकिन मजदूर का स्वास्थ्य बिलकुल बरबाद हो जाता है . भिवंडी में मजदूरों के कल्याण के लिए काम करने वाली संस्था जन कल्याण समिति ने मांग की है कि मजदूरों की गरीबी का शोषण करने के उद्देश्य से डबल ड्यूटी का लालच देने वाले मिल मालिकों के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए क्योंकि वे मानवाधिकारों का हनन कर रहे होते हैं ..
भिवंडी में उत्तर प्रदेश और बिहार से बड़ी संख्या में बुनकर, पावरलूम सेक्टर में काम करने आते हैं . उनमें से ज़्यादातर मुसलमान ही होते हैं . अपने गाँव की गरीबी और रोजगार के अवसर की कमी से परेशान यह लोग भाग कर भिवंडी आते हैं . भिवंडी से हर साल लाखों मजदूर शादी व्याह के सीज़न में अपने गाँव वापस चले जाते हैं और मिल मालिकों के सामने मजदूरों की कमी मे का संकट पैदा हो जाता है . इसके बाद मालिक लोग उन मजदूरों को डबल ड्यूटी और प्रति मीटर अधिक मजदूरी का लालच देकर उन से ही काम करवाते हैं .. आम तौर पर एक मजदूर ४ लूम चलाता है लेकिन आजकल उन्हने ६ से १२ लूम तक पर काम करने का मौक़ा मिलता है . ज़ाहिर है इस से मजदूरी ज्यादा मिल जाती है . डबल ड्यूटी में काम २० घंटे का हो जाता है . खाने पीने का कोई इंतज़ाम नहीं होता . शहर में मौजूद ढाबों पर खाना काने और दिन भर में बीसों चाय पीने से मजदूरों का शरीर इतना कमज़ोर हो जाता है कि मामूली बीमारी से भी लड़ पाने की उनकी क्षमता ख़त्म हो जाती है. इस साल अब तक कई लोग कमजोरी की वजह से अपनी जान गंवा चुके हैं.अब पुलिस ने उन मजदूरों को पकड़ना शुरू कर दिया है जो डबल ड्यूटी कर रहे हैं . लेकिन मिल मालिकों पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही है . पिछले साल भी यही हुआ था .लेकिन मालिकों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई थी . इन कारखानों में काम करने लायक हालात तो कतई नहीं हैं. मालिक लोग मजदूरों के पीने के लिए पानी तक का इंतज़ाम नहीं करते . प्यास लगने पर यह मजदूर आस पास के सस्ते ढाबों या होटलों में जाकर पानी पीते हैं .
भिवंडी ,१६ अप्रैल /उत्तर प्रदेश से रोजी रोटी की तलाश में आये हुए मुंबई के पास के औद्योगिक नगर ,भिवंडी पंहुचे कपड़ा मजदूर आजकल बहुत बीमार हो रहे हैं. मार्च से जून तक के महीनों में यहाँ पावर लूम सेक्टर में काम करने वाले मजदूरों पर हर साल की तरह इस साल भी बीमारियों ने धावा बोल दिया है और हर गली से बीमार लोगों की आवाजें सुन ने को मिल जाती हैं .यह बीमारी इस लिए आती है कि शादी व्याह के चक्कर में बड़ी संख्या में मजदूर गाँव चले जाते हैं और मालिक उनकी जगह पर नए लोगों को भर्ती नहीं करते ,बल्कि डबल ड्यूटी का लालच देकर मजदूरों से २०-२० घंटे काम करवाते हैं . जिस से मजदूरी तो ज्यादा मिल जाती है लेकिन मजदूर का स्वास्थ्य बिलकुल बरबाद हो जाता है . भिवंडी में मजदूरों के कल्याण के लिए काम करने वाली संस्था जन कल्याण समिति ने मांग की है कि मजदूरों की गरीबी का शोषण करने के उद्देश्य से डबल ड्यूटी का लालच देने वाले मिल मालिकों के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए क्योंकि वे मानवाधिकारों का हनन कर रहे होते हैं ..
भिवंडी में उत्तर प्रदेश और बिहार से बड़ी संख्या में बुनकर, पावरलूम सेक्टर में काम करने आते हैं . उनमें से ज़्यादातर मुसलमान ही होते हैं . अपने गाँव की गरीबी और रोजगार के अवसर की कमी से परेशान यह लोग भाग कर भिवंडी आते हैं . भिवंडी से हर साल लाखों मजदूर शादी व्याह के सीज़न में अपने गाँव वापस चले जाते हैं और मिल मालिकों के सामने मजदूरों की कमी मे का संकट पैदा हो जाता है . इसके बाद मालिक लोग उन मजदूरों को डबल ड्यूटी और प्रति मीटर अधिक मजदूरी का लालच देकर उन से ही काम करवाते हैं .. आम तौर पर एक मजदूर ४ लूम चलाता है लेकिन आजकल उन्हने ६ से १२ लूम तक पर काम करने का मौक़ा मिलता है . ज़ाहिर है इस से मजदूरी ज्यादा मिल जाती है . डबल ड्यूटी में काम २० घंटे का हो जाता है . खाने पीने का कोई इंतज़ाम नहीं होता . शहर में मौजूद ढाबों पर खाना काने और दिन भर में बीसों चाय पीने से मजदूरों का शरीर इतना कमज़ोर हो जाता है कि मामूली बीमारी से भी लड़ पाने की उनकी क्षमता ख़त्म हो जाती है. इस साल अब तक कई लोग कमजोरी की वजह से अपनी जान गंवा चुके हैं.अब पुलिस ने उन मजदूरों को पकड़ना शुरू कर दिया है जो डबल ड्यूटी कर रहे हैं . लेकिन मिल मालिकों पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही है . पिछले साल भी यही हुआ था .लेकिन मालिकों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई थी . इन कारखानों में काम करने लायक हालात तो कतई नहीं हैं. मालिक लोग मजदूरों के पीने के लिए पानी तक का इंतज़ाम नहीं करते . प्यास लगने पर यह मजदूर आस पास के सस्ते ढाबों या होटलों में जाकर पानी पीते हैं .
Sunday, April 11, 2010
भ्रष्टाचार और घूस के खिलाफ जन आन्दोलन की तैयारी
शेष नारायण सिंह
सारी दुनिया जानती है कि भ्रष्टाचार अपने देश के विकास में सबसे बड़ी बाधा है . लेकिन सबको यह भी मालूम है कि भ्रष्टाचार को ख़त्म करना बहुत आसान नहीं है .सरकार ने बहुत सारे ऐसे विभाग बना रखे हैं जिनका काम भ्रष्टाचार पर लगाम लगाना है लेकिन देखा यह गया है कि भ्रष्टाचार को रोकने की कोशिश करने वाले विभागों के अफसर उसी भ्रष्टाचार के आशीर्वाद से बहुत ही संपन्न हो जाते हैं . सबसे दिलचस्प बात यह है कि लगभग सभी भ्रष्टाचारी अपनी अपनी छतों पर खड़े हो कर बांग देते रहते हैं कि भ्रष्टाचार को ख़त्म करना ज़रूरी है लेकिन उनकी पूरी कोशिश यही रहती है कि चोरी-बे ईमानी का धंधा चलता रहे .
एक बात और भी बहुत सच है कि सभी अफसर भ्रष्ट नहीं होते , कुछ बहुत ही ईमान दार होते हैं . उत्तर प्रदेश जैसे भ्रष्ट अफसर शाही वाले राज्य में भी कुछ ऐसे ईमानदार अफसर हैं कि कि वे दामन निचोड़ दें तो अमृत हो जाए . लेकिन वे संख्या में बहुत कम हैं लेकिन हैं ज़रूर . उत्तर प्रदेश के इन्हीं ईमानदार अफसरों ने अपने ही बीच के भ्रष्ट अफसरों की लिस्ट बनायी थी लेकिन कुछ कर नहीं सके क्योंकि उन्हीं भ्रष्टतम अफसरों में से कुछ तो मुख्य सचिव की गद्दी तक पंहुच गए.राज्य में भ्रष्टाचार कम करने की कोशिश कर रहे ऐसे ही एक अफसर , विजय शंकर पाण्डेय ने अपने एक ताज़ा लेख में लिखा है कि आई ए एस अफसर की संपत्ति के हर पैसे का हिसाब होना चाहिए . निजी जीवन में भी श्री पाण्डेय ईमान दार हैं . लेकिन कुछ नहीं कर पा रहे हैं . बहर हाल एक खुशी की खबर है कि कुछ अवकाश प्राप्त सिविल, पुलिस और न्यायपालिका के अधिकारियों ने एक नयी पहल शुरू की है जिसके तहत सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार को ख़त्म करने में मदद मिलेगी. इन अधिकारियों ने एक सार्वजनिक अपील भी जारी की है और आम जनता से कहा है कि अगर सब चौकन्ना रहें तो अपने देश की संपत्ति को बे-ईमान अफसरों और नेताओं से बचाया जा सकता है . भारत के पूर्व मुख्य नायाधीश , जस्टिस आर सी लाहोटी, पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जे एम लिन्दोह, पूर्व सी ए जी वीके शुंगलू पूर्व पुलिस महानिदेशकों प्रकाश सिंह और जे एफ रिबेरो आदि ईमान दार लोगों की तरफ से जारी एक बयान में लोगों से अपील की गयी है कि बड़े आदमियों की बीच के भ्रष्टाचार को रोकने और भारत की चोरी की गयी सम्पदा को वापस लेने के लिए एक अभियान की ज़रुरत है .अपील में कहा गया है कि भारत सरकार के सर्वोच्च पदों पर रह चुके लोगों में इस बात पर एक राय है कि कि भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे को बहता है . और जब तक टाप पर बैठे लोगों को अपने काम में ईमानदारी से रहने को मजबूर नहीं किया जाएगा, इस देश का कोई भला नहीं हो सकता. भ्रष्टाचार इस देश में अपराध है . इसलिए भ्रष्ट और घूसखोर सरकारी अधिकारियों को गिरफ्तार करके जेल भेजना चाहिए . . बड़े पदों पर काम करने वाले लोगों को अपनी सारी संपत्ति का हिसाब देना चाहिए और उसे सार्वजनिक करना चाहिए . इन बड़े अधिकारियों ने साफ़ कहा है कि भ्रष्ट सरकारी अफसर अक्सर बच जाते हैं क्योंकि उन्हें सज़ा देने की जिनकी ज़िम्मेदारी होती है , वही भ्रष्ट होते हैं .. इन लोगों को ज़बरदस्त सज़ा दी जानी चाहिए. . घूस की कमाई का करीब सत्तर लाख करोड़ रूपया विदेशों में जमा है, उसको वापस लाने की कोशिश की जानी चाहिए . अगार विदेश में जमा किया गया इन बेईमानों का पैसा वापस लाया गया तो अपने देश की गरीबी हमेशा के लिए हट जायेगी. अपील में कहा गया है कि मौजूदा सिस्टम बिलकुल बेकार हो चुका है . क्योंकि भ्रष्टाचार से लड़ने की अपनी विश्वसनीयता गंवा चुका है . . जिन लोगों को ज़िम्मेदारी के पदों पर बैठाया गया है ,उनमें बहुत सारे लोग भ्रष्ट राजनीतिक नेताओं के सामने गिडगिडाने लगते हैं . यह बिलकुल गलत बात है . इस पर भी रोक लगानी चाहिए . भ्रष्टाचार और अपराध के बीच बहुत ही गहरा सम्बन्ध है . और दोनों ही एक दूसरे को बढ़ावा देते हैं . इन दोनों के घाल मेल की वजह से ही फासिज्म का जन्म होता है जिसमें लोक तंत्र को पूरी तरह से दफ़न कर देने की ताक़त होती है .. इन ईमानदार अफसरों का कहना है कि अगर अपने मुल्क में लोक तंत्र को जिंदा रखना है कि भ्रष्टाचार को जड़ से तबाह करना होगा.
लेकिन यह इतना आसान नहीं है . सभी जानते हैं कि घूस और भ्रष्टाचार में शामिल ज़्यादातर लोग बहुत ही ताक़त वर लोग हैं . उन्हें उनकी जगहों से बे दखल कर पाना आसान नहीं होगा. लेकिन अपील में कहा गया है कि भ्रष्टाचार में शामिल लोगों को पकड़ने और उन्हें जेल भेजने के लिए एक आन्दोलन की ज़रुरत है. ज़रुरत इस बात की भी है कि ज्यादा से ज्यादा लोग इस मुहिम में शामिल हों और सवाल पूछें. . इन पूर्व अधिकारियों ने एक वेबसाईट भी बनाया है जिसमें आन्दोलन की रूप रेखा बतायी गयी है . इन लोगों ने बहुत सारे लेख भी छापे हैं जिसमें भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रस्तावित लड़ाई को मज़बूत करने की अपील की गयी है . ऐसा ही एक लेख उत्तर प्रदेश के कद्दावर अफसर विजय शंकर पाण्डेय का है जिन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ बहुत दिनों से एक मुहिम चला रखी है . सवाल पैदा होता है कि क्या श्री पाण्डेय जैसा अफसर अपने आस पास नज़र डालने पर सब कुछ बहुत ही ईमानदारी से भरा हुआ पाता है . क्या उन्होंने अपने दफतर या बगल वाले कमरे में चल रहे बे ईमानी की सौदों पर कभी नज़र डाली है . सही बात यह है कि जब तक केवल बातों बातों में भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ी जायेगी तब तक कुछ नहीं होगा . इस आन्दोअल्न को अगर तेज़ करना है कि तो घूस के पैसे को तिरस्कार की नज़र से देखना पड़ेगा . क्योंकि सारी मुसीबत की जड़ यही है कि चोर, बे-ईमान और घूसखोर अफसर और नेता रिश्वत के बल पर समाज में सम्मान पाते रहते हैं . उत्तर प्रदेश सरकार में बहुत बड़े पद पर बैठे श्री पाण्डेय के लिए यह बहुत ज़रूरी है . क्योंकि उनकी निजी ईमानदारी बेमिसाल है लेकिन जब तक सिस्टम में ईमनदारी नहीं होगी समाज का भला नहीं होगा.
अपने देश में पिछले २० वर्षों में घूसखोरी को सम्मान का दर्जा मिल गया है . वरना यहाँ पर दस हज़ार रूपये का घूस लेने के अपराध में जवाहर लाल नेहरू ने , अपने एक मंत्री को बर्खास्त कर दिया था . लेकिन इस तरह के उदाहरण बहुत कम हैं . इसी देश में जैन हवाला काण्ड हुआ था जिसमें सभी गैर कम्युनिस्ट पार्टियों के नेता शामिल थे . स्वर्गीय मधु लिमये अपनी मृत्यु के पहले इस बात को लेकर बहुत दुखी रहा करते थे . सरकारी कंपनियों में विनिवेश के नाम पर जो घूसखोरी इस देश में हुई है उसे पूरे देश जानता है . उत्तर प्रदेश के एक पूर्व मुख्य सचिव के यहाँ से २५० करोड़ रूपये ज़ब्त किये गए थे . इस तरह के हज़ारों मामले हैं जिन पर लगाम लगाए बिना भ्रष्टाचार को खत्म कर सकना असंभव है . इस लिए पूर्व सरकारी अधिकारियों की इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए और मीडिया समेत सभी ऐसे लोगों को सामने आना चाहिए जो पब्लिक ओपीनियन को दिशा देते हैं ताकि अपने देश और अपने लोक तंत्र को बचाया जा सके.
सारी दुनिया जानती है कि भ्रष्टाचार अपने देश के विकास में सबसे बड़ी बाधा है . लेकिन सबको यह भी मालूम है कि भ्रष्टाचार को ख़त्म करना बहुत आसान नहीं है .सरकार ने बहुत सारे ऐसे विभाग बना रखे हैं जिनका काम भ्रष्टाचार पर लगाम लगाना है लेकिन देखा यह गया है कि भ्रष्टाचार को रोकने की कोशिश करने वाले विभागों के अफसर उसी भ्रष्टाचार के आशीर्वाद से बहुत ही संपन्न हो जाते हैं . सबसे दिलचस्प बात यह है कि लगभग सभी भ्रष्टाचारी अपनी अपनी छतों पर खड़े हो कर बांग देते रहते हैं कि भ्रष्टाचार को ख़त्म करना ज़रूरी है लेकिन उनकी पूरी कोशिश यही रहती है कि चोरी-बे ईमानी का धंधा चलता रहे .
एक बात और भी बहुत सच है कि सभी अफसर भ्रष्ट नहीं होते , कुछ बहुत ही ईमान दार होते हैं . उत्तर प्रदेश जैसे भ्रष्ट अफसर शाही वाले राज्य में भी कुछ ऐसे ईमानदार अफसर हैं कि कि वे दामन निचोड़ दें तो अमृत हो जाए . लेकिन वे संख्या में बहुत कम हैं लेकिन हैं ज़रूर . उत्तर प्रदेश के इन्हीं ईमानदार अफसरों ने अपने ही बीच के भ्रष्ट अफसरों की लिस्ट बनायी थी लेकिन कुछ कर नहीं सके क्योंकि उन्हीं भ्रष्टतम अफसरों में से कुछ तो मुख्य सचिव की गद्दी तक पंहुच गए.राज्य में भ्रष्टाचार कम करने की कोशिश कर रहे ऐसे ही एक अफसर , विजय शंकर पाण्डेय ने अपने एक ताज़ा लेख में लिखा है कि आई ए एस अफसर की संपत्ति के हर पैसे का हिसाब होना चाहिए . निजी जीवन में भी श्री पाण्डेय ईमान दार हैं . लेकिन कुछ नहीं कर पा रहे हैं . बहर हाल एक खुशी की खबर है कि कुछ अवकाश प्राप्त सिविल, पुलिस और न्यायपालिका के अधिकारियों ने एक नयी पहल शुरू की है जिसके तहत सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार को ख़त्म करने में मदद मिलेगी. इन अधिकारियों ने एक सार्वजनिक अपील भी जारी की है और आम जनता से कहा है कि अगर सब चौकन्ना रहें तो अपने देश की संपत्ति को बे-ईमान अफसरों और नेताओं से बचाया जा सकता है . भारत के पूर्व मुख्य नायाधीश , जस्टिस आर सी लाहोटी, पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जे एम लिन्दोह, पूर्व सी ए जी वीके शुंगलू पूर्व पुलिस महानिदेशकों प्रकाश सिंह और जे एफ रिबेरो आदि ईमान दार लोगों की तरफ से जारी एक बयान में लोगों से अपील की गयी है कि बड़े आदमियों की बीच के भ्रष्टाचार को रोकने और भारत की चोरी की गयी सम्पदा को वापस लेने के लिए एक अभियान की ज़रुरत है .अपील में कहा गया है कि भारत सरकार के सर्वोच्च पदों पर रह चुके लोगों में इस बात पर एक राय है कि कि भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे को बहता है . और जब तक टाप पर बैठे लोगों को अपने काम में ईमानदारी से रहने को मजबूर नहीं किया जाएगा, इस देश का कोई भला नहीं हो सकता. भ्रष्टाचार इस देश में अपराध है . इसलिए भ्रष्ट और घूसखोर सरकारी अधिकारियों को गिरफ्तार करके जेल भेजना चाहिए . . बड़े पदों पर काम करने वाले लोगों को अपनी सारी संपत्ति का हिसाब देना चाहिए और उसे सार्वजनिक करना चाहिए . इन बड़े अधिकारियों ने साफ़ कहा है कि भ्रष्ट सरकारी अफसर अक्सर बच जाते हैं क्योंकि उन्हें सज़ा देने की जिनकी ज़िम्मेदारी होती है , वही भ्रष्ट होते हैं .. इन लोगों को ज़बरदस्त सज़ा दी जानी चाहिए. . घूस की कमाई का करीब सत्तर लाख करोड़ रूपया विदेशों में जमा है, उसको वापस लाने की कोशिश की जानी चाहिए . अगार विदेश में जमा किया गया इन बेईमानों का पैसा वापस लाया गया तो अपने देश की गरीबी हमेशा के लिए हट जायेगी. अपील में कहा गया है कि मौजूदा सिस्टम बिलकुल बेकार हो चुका है . क्योंकि भ्रष्टाचार से लड़ने की अपनी विश्वसनीयता गंवा चुका है . . जिन लोगों को ज़िम्मेदारी के पदों पर बैठाया गया है ,उनमें बहुत सारे लोग भ्रष्ट राजनीतिक नेताओं के सामने गिडगिडाने लगते हैं . यह बिलकुल गलत बात है . इस पर भी रोक लगानी चाहिए . भ्रष्टाचार और अपराध के बीच बहुत ही गहरा सम्बन्ध है . और दोनों ही एक दूसरे को बढ़ावा देते हैं . इन दोनों के घाल मेल की वजह से ही फासिज्म का जन्म होता है जिसमें लोक तंत्र को पूरी तरह से दफ़न कर देने की ताक़त होती है .. इन ईमानदार अफसरों का कहना है कि अगर अपने मुल्क में लोक तंत्र को जिंदा रखना है कि भ्रष्टाचार को जड़ से तबाह करना होगा.
लेकिन यह इतना आसान नहीं है . सभी जानते हैं कि घूस और भ्रष्टाचार में शामिल ज़्यादातर लोग बहुत ही ताक़त वर लोग हैं . उन्हें उनकी जगहों से बे दखल कर पाना आसान नहीं होगा. लेकिन अपील में कहा गया है कि भ्रष्टाचार में शामिल लोगों को पकड़ने और उन्हें जेल भेजने के लिए एक आन्दोलन की ज़रुरत है. ज़रुरत इस बात की भी है कि ज्यादा से ज्यादा लोग इस मुहिम में शामिल हों और सवाल पूछें. . इन पूर्व अधिकारियों ने एक वेबसाईट भी बनाया है जिसमें आन्दोलन की रूप रेखा बतायी गयी है . इन लोगों ने बहुत सारे लेख भी छापे हैं जिसमें भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रस्तावित लड़ाई को मज़बूत करने की अपील की गयी है . ऐसा ही एक लेख उत्तर प्रदेश के कद्दावर अफसर विजय शंकर पाण्डेय का है जिन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ बहुत दिनों से एक मुहिम चला रखी है . सवाल पैदा होता है कि क्या श्री पाण्डेय जैसा अफसर अपने आस पास नज़र डालने पर सब कुछ बहुत ही ईमानदारी से भरा हुआ पाता है . क्या उन्होंने अपने दफतर या बगल वाले कमरे में चल रहे बे ईमानी की सौदों पर कभी नज़र डाली है . सही बात यह है कि जब तक केवल बातों बातों में भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ी जायेगी तब तक कुछ नहीं होगा . इस आन्दोअल्न को अगर तेज़ करना है कि तो घूस के पैसे को तिरस्कार की नज़र से देखना पड़ेगा . क्योंकि सारी मुसीबत की जड़ यही है कि चोर, बे-ईमान और घूसखोर अफसर और नेता रिश्वत के बल पर समाज में सम्मान पाते रहते हैं . उत्तर प्रदेश सरकार में बहुत बड़े पद पर बैठे श्री पाण्डेय के लिए यह बहुत ज़रूरी है . क्योंकि उनकी निजी ईमानदारी बेमिसाल है लेकिन जब तक सिस्टम में ईमनदारी नहीं होगी समाज का भला नहीं होगा.
अपने देश में पिछले २० वर्षों में घूसखोरी को सम्मान का दर्जा मिल गया है . वरना यहाँ पर दस हज़ार रूपये का घूस लेने के अपराध में जवाहर लाल नेहरू ने , अपने एक मंत्री को बर्खास्त कर दिया था . लेकिन इस तरह के उदाहरण बहुत कम हैं . इसी देश में जैन हवाला काण्ड हुआ था जिसमें सभी गैर कम्युनिस्ट पार्टियों के नेता शामिल थे . स्वर्गीय मधु लिमये अपनी मृत्यु के पहले इस बात को लेकर बहुत दुखी रहा करते थे . सरकारी कंपनियों में विनिवेश के नाम पर जो घूसखोरी इस देश में हुई है उसे पूरे देश जानता है . उत्तर प्रदेश के एक पूर्व मुख्य सचिव के यहाँ से २५० करोड़ रूपये ज़ब्त किये गए थे . इस तरह के हज़ारों मामले हैं जिन पर लगाम लगाए बिना भ्रष्टाचार को खत्म कर सकना असंभव है . इस लिए पूर्व सरकारी अधिकारियों की इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए और मीडिया समेत सभी ऐसे लोगों को सामने आना चाहिए जो पब्लिक ओपीनियन को दिशा देते हैं ताकि अपने देश और अपने लोक तंत्र को बचाया जा सके.
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Monday, April 5, 2010
मैदान मेरा हौसला है और अंगारा मेरी ख्वाहिश
शेष नारायण सिंह
बड़े जोर शोर से प्रचार करने के बाद भी ,मुंबई में महेश दत्तानी के नाटक 'सारा' के खिलाफ तोड़ फोड़ करने के अपने फैसले को शिव सेना लागू नहीं कर सकी. और जब पुलिस ने माहौल बहुत ही गरम कर दिया तो शिव सेना के एक छुट भैया नेता ने घोषणा कर दी कि पार्टी ने विरोध करने के अपने फैसले को स्थगित कर दिया है . यह अलग बात है कि जब यह बयान आया तो थियेटर पर विरोध करने गए दो चार शिव सैनिक पिट कर वापस आ चुके थे .और पुलिस बाकी लोगों को धमका रही थी. बान्द्रा के एक नामी थियेटर में नाटक के प्रदर्शन की घोषणा के बाद शिव सेना ने अपने पुराने तरीकों का इस्तेमाल करते हुए नाटक के प्रदर्शन के दौरान तोड़ फोड़ की धमकी देकर अपने वसूली के धंधे को परवान चढाने की कोशिश की थी लेकिन पुलिस की सख्ती के आगे उनकी एक न चली और भागना पड़ा . उनका विरोध नाटक के पाकिस्तानी होने के कारण था. जब की सच्चाई है है कि नाटक भारतीय था,अलबत्ता उसमें मुख्य करेक्टर पाकिस्तानी शायर 'सारा शगुफ्ता ' के जीवन पर आधारित था .
शिव सेना के पुराने वक्तों में उनकी धमकी के बाद किसी की हिम्मत नहीं पड़ती थी कि वह कोई नाटक या सिनेमा प्रदर्शित करे. लेकिन अब शिव सेना की धमकियों को मुंबई की कलाकार बिरादरी ने गंभीरता से लेना बंद कर दिया है. इस घटना से एक बात और साफ़ हो गयी है कि शिव सेना के लोग बिना कुछ जाने समझे दौड़ पड़ते हैं . वास्तव में यह नाटक पकिस्तान के समाज को एक बहुत ही घटिया रोशनी में पेश करता है जिस से .कायदे से शिव सेना को खुश होना चाहिए लेकिन अगर इतनी समझ होती तो शिव सैनिक क्यों बनते
नाटक 'सारा' औरत होने की सच्चाई को परत दर परत खोलता है . शाहिद अनवर के इस नाटक में पाकिस्तानी शायरा 'सारा शगुफ्ता' की ज़िंदगी के अंतर विरोधों को प्रस्तुत किया गया है ..लेकिन बात को इतने सलीके से कहा गया है कि यह पूरी दुनिया की औरत की मजबूरी का एक दस्तावेज़ बन गया है . १४ साल की उम्र में अपने से कई साल बड़े अधेड़ से शादी करने और ३ बच्चे पैदा करने के बीच सारा शगुफ्ता जिस नरक से गुज़र रही थीं, उसे इस प्रस्तुति में बहुत ही बेबाक तरीके से पेश किया गया है.उसके बाद उनकी बाकी तीन शादियों को भी एक मजबूर औरत के मज़बूत हो रहे हौसलों की रोशनी में पेश किया गया है .उनके अपने बच्चे उनसे छीनने की कोशिश की गयी . आरोप लगा कि वे बदचलन थीं . उन्होंने अदालत में स्वीकार कर लिया कि वे बद चलन थीं और वे तीनों बच्चे उनके तो थे लेकिन उनके शौहर के नहीं थे .अदालत ने बच्चों की कस्टडी सारा के हवाले कर दिया .और फिर एक बार यतीम होने का अहसास उन्होंने बहुत करीब से देखा क्योंकि अपने ११ भाई बहनों के साथ सारा भी यतीम थीं ,हालांकि उनका बाप जिंदा था. पाकिस्तानी समाज में औरत की दुर्दशा को रेखांकित करने की यह कोशिश बात को बिलकुल नारे की शक्ल में कह देती है.
'मोनोलाग' शैली में प्रस्तुत किये गए नाटक सारा शगुफ्ता का सबसे सशक्त पक्ष है उसके संवाद जिसे अभिनेत्री, सीमा आजमी ने बहुत ही खूब सूरत तरीके से पेश किया. जब सीमा कहती हैं कि ' मैदान मेरा हौसला है और अंगारा मेरी ख्वाहिश 'तो लगता है कि काश हर औरत इसी तरह उठ खडी होती तो दुनिया बदल जाती. २९ साल की उम्र में सारा शगुफ्ता ने खुदकुशी की . इसके पहले भी वे ४ बार खुदखुशी की कोशिश कर चुकी थीं लेकिन नाकामयाब रही थीं . इस बीच उन्हें ४ बार शादियाँ करनी पड़ी.. पागलखाने गयीं और वहां देखा कि जो औरतें वहां दाखिल की गयी हैं उनमें से कोई भी पागल नहीं है . सबके घर वालों ने उन्हें जायदाद हड़पने के लिए पागल करार देकर अफसरों को घूस दे कर वहाँ भर्ती करवा दिया है .कुछ दिन बाद जब पागल खाने से उनकी रिहाई हुई तो वे बहुत रोयीं क्योंकि पहली बार कुछ ऐसे इंसानों से बिछुड़ रही थीं जिन्हें वे सही में मुहब्बत करने लगी थी.
सारा शगुफ्ता की भारत की नामी साहित्यकार, अमृता प्रीतम से दोस्ती थी. हालांकि उम्र में बहुत फर्क था लेकिन औरत होने का एहसास उनको उन्हीं जमातों में खड़ाकर देता था जिसमें अमृता जैसी महिलायें खडी थी, यहाँ का खुलापन देख कर उन्हें लगा कि काश उनका अपन बदन ही उनका अपना वतन होता. लेकिन जब दिल्ली में कुछ दिन रह चुकीं तो उन्हें साफ़ नज़र आने लगा कि यहाँ भी मर्दवादी सोच के लोग औरत को उसी तरह देखते हैं जैसे उनके अपने पकिस्तान में . उन्होंने अपने आप से बार बार सवाल किया कि लोग अकेली औरत से इतना डरते क्यों हैं औरत की वफादारी पर शक़ क्यों करते हैं ,वफादारी की गलियों में आज भी कुतिया कम और कुत्ता ज़्यादा इज्ज़त क्यों पाता है . सारा शगुफ्ता ने लिखा है कि वे सवाल की गहराई तक नहीं जाना चाहतीं क्योंकि कहीं फ़रिश्ते लपेट में ना आ जाएँ.
मुंबई के मानिक सभागृह में प्रस्तुत यह नाटक एक प्रयोग था . महेश दत्तानी का निदेशन बेहतरीन है और सीमा आजमी की अभिनय क्षमता ऐसी बांकी कि कुछ देर बाद ऐसा लगने लगा कि स्टेज पर सीमा नहीं , सारा शगुफ्ता ही खडी हैं .
बड़े जोर शोर से प्रचार करने के बाद भी ,मुंबई में महेश दत्तानी के नाटक 'सारा' के खिलाफ तोड़ फोड़ करने के अपने फैसले को शिव सेना लागू नहीं कर सकी. और जब पुलिस ने माहौल बहुत ही गरम कर दिया तो शिव सेना के एक छुट भैया नेता ने घोषणा कर दी कि पार्टी ने विरोध करने के अपने फैसले को स्थगित कर दिया है . यह अलग बात है कि जब यह बयान आया तो थियेटर पर विरोध करने गए दो चार शिव सैनिक पिट कर वापस आ चुके थे .और पुलिस बाकी लोगों को धमका रही थी. बान्द्रा के एक नामी थियेटर में नाटक के प्रदर्शन की घोषणा के बाद शिव सेना ने अपने पुराने तरीकों का इस्तेमाल करते हुए नाटक के प्रदर्शन के दौरान तोड़ फोड़ की धमकी देकर अपने वसूली के धंधे को परवान चढाने की कोशिश की थी लेकिन पुलिस की सख्ती के आगे उनकी एक न चली और भागना पड़ा . उनका विरोध नाटक के पाकिस्तानी होने के कारण था. जब की सच्चाई है है कि नाटक भारतीय था,अलबत्ता उसमें मुख्य करेक्टर पाकिस्तानी शायर 'सारा शगुफ्ता ' के जीवन पर आधारित था .
शिव सेना के पुराने वक्तों में उनकी धमकी के बाद किसी की हिम्मत नहीं पड़ती थी कि वह कोई नाटक या सिनेमा प्रदर्शित करे. लेकिन अब शिव सेना की धमकियों को मुंबई की कलाकार बिरादरी ने गंभीरता से लेना बंद कर दिया है. इस घटना से एक बात और साफ़ हो गयी है कि शिव सेना के लोग बिना कुछ जाने समझे दौड़ पड़ते हैं . वास्तव में यह नाटक पकिस्तान के समाज को एक बहुत ही घटिया रोशनी में पेश करता है जिस से .कायदे से शिव सेना को खुश होना चाहिए लेकिन अगर इतनी समझ होती तो शिव सैनिक क्यों बनते
नाटक 'सारा' औरत होने की सच्चाई को परत दर परत खोलता है . शाहिद अनवर के इस नाटक में पाकिस्तानी शायरा 'सारा शगुफ्ता' की ज़िंदगी के अंतर विरोधों को प्रस्तुत किया गया है ..लेकिन बात को इतने सलीके से कहा गया है कि यह पूरी दुनिया की औरत की मजबूरी का एक दस्तावेज़ बन गया है . १४ साल की उम्र में अपने से कई साल बड़े अधेड़ से शादी करने और ३ बच्चे पैदा करने के बीच सारा शगुफ्ता जिस नरक से गुज़र रही थीं, उसे इस प्रस्तुति में बहुत ही बेबाक तरीके से पेश किया गया है.उसके बाद उनकी बाकी तीन शादियों को भी एक मजबूर औरत के मज़बूत हो रहे हौसलों की रोशनी में पेश किया गया है .उनके अपने बच्चे उनसे छीनने की कोशिश की गयी . आरोप लगा कि वे बदचलन थीं . उन्होंने अदालत में स्वीकार कर लिया कि वे बद चलन थीं और वे तीनों बच्चे उनके तो थे लेकिन उनके शौहर के नहीं थे .अदालत ने बच्चों की कस्टडी सारा के हवाले कर दिया .और फिर एक बार यतीम होने का अहसास उन्होंने बहुत करीब से देखा क्योंकि अपने ११ भाई बहनों के साथ सारा भी यतीम थीं ,हालांकि उनका बाप जिंदा था. पाकिस्तानी समाज में औरत की दुर्दशा को रेखांकित करने की यह कोशिश बात को बिलकुल नारे की शक्ल में कह देती है.
'मोनोलाग' शैली में प्रस्तुत किये गए नाटक सारा शगुफ्ता का सबसे सशक्त पक्ष है उसके संवाद जिसे अभिनेत्री, सीमा आजमी ने बहुत ही खूब सूरत तरीके से पेश किया. जब सीमा कहती हैं कि ' मैदान मेरा हौसला है और अंगारा मेरी ख्वाहिश 'तो लगता है कि काश हर औरत इसी तरह उठ खडी होती तो दुनिया बदल जाती. २९ साल की उम्र में सारा शगुफ्ता ने खुदकुशी की . इसके पहले भी वे ४ बार खुदखुशी की कोशिश कर चुकी थीं लेकिन नाकामयाब रही थीं . इस बीच उन्हें ४ बार शादियाँ करनी पड़ी.. पागलखाने गयीं और वहां देखा कि जो औरतें वहां दाखिल की गयी हैं उनमें से कोई भी पागल नहीं है . सबके घर वालों ने उन्हें जायदाद हड़पने के लिए पागल करार देकर अफसरों को घूस दे कर वहाँ भर्ती करवा दिया है .कुछ दिन बाद जब पागल खाने से उनकी रिहाई हुई तो वे बहुत रोयीं क्योंकि पहली बार कुछ ऐसे इंसानों से बिछुड़ रही थीं जिन्हें वे सही में मुहब्बत करने लगी थी.
सारा शगुफ्ता की भारत की नामी साहित्यकार, अमृता प्रीतम से दोस्ती थी. हालांकि उम्र में बहुत फर्क था लेकिन औरत होने का एहसास उनको उन्हीं जमातों में खड़ाकर देता था जिसमें अमृता जैसी महिलायें खडी थी, यहाँ का खुलापन देख कर उन्हें लगा कि काश उनका अपन बदन ही उनका अपना वतन होता. लेकिन जब दिल्ली में कुछ दिन रह चुकीं तो उन्हें साफ़ नज़र आने लगा कि यहाँ भी मर्दवादी सोच के लोग औरत को उसी तरह देखते हैं जैसे उनके अपने पकिस्तान में . उन्होंने अपने आप से बार बार सवाल किया कि लोग अकेली औरत से इतना डरते क्यों हैं औरत की वफादारी पर शक़ क्यों करते हैं ,वफादारी की गलियों में आज भी कुतिया कम और कुत्ता ज़्यादा इज्ज़त क्यों पाता है . सारा शगुफ्ता ने लिखा है कि वे सवाल की गहराई तक नहीं जाना चाहतीं क्योंकि कहीं फ़रिश्ते लपेट में ना आ जाएँ.
मुंबई के मानिक सभागृह में प्रस्तुत यह नाटक एक प्रयोग था . महेश दत्तानी का निदेशन बेहतरीन है और सीमा आजमी की अभिनय क्षमता ऐसी बांकी कि कुछ देर बाद ऐसा लगने लगा कि स्टेज पर सीमा नहीं , सारा शगुफ्ता ही खडी हैं .
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Friday, April 2, 2010
दंगें फैलाने वालों को नाकाम करो
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर जिले के एक बहुत छोटे से कस्बे खतौली में भी दंगा हो गया है .इसके पहले बरेली में हुआ था. ह्यद४एरबद में दंगा चल ही रहा है . इसी तरह से और भी इलाकों में छिटपुट घटनाएं हो रही हैं . अगर कहीं मामला थोडा और गरम हो जाए तो छोटी मोटी घटनाओं को दंगा बनने में देर नहीं लगती. .अब उत्तर भारत में मौसम भी गरम हो रहा है .ऐसे मौसम में मामूली विवाद भी बढ़ जाता है और अगर झगडा अलग अलग सम्प्रदाय के लोगों के बीच हो तो निहित स्वार्थ वाले उसे दंगे में बदल देते हैं .जब दंगा होता है तो चारों तरफ पागलपन का माहौल बन जाता है और सब अंधे हो जाते हैं . ज़ाहिर है कि समझदारी की बात कोई नहीं करता. दंगा वास्तव में सभ्य समाज पर कलंक है . सवाल यह पैदा होता है कि दंगे होते क्यों हैं .सीधा सा जवाब यह है कि राजनीति में सक्रिय लोग लोगों को बेचारा साबित करने के लिए दंगा करवाते हैं .अंग्रेजों ने जब 19२० के महात्मा गाँधी के आन्दोलन में देखा कि पूरा मुल्क गाँधी के साथ खड़ा है . हिन्दू मुसलमान एक दूसरे के साथ कंधे से कन्धा मिला कर चल रहे है तो ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रबंधकों को लगा कि अगर पूरा देश एक हो गया तो मुट्ठी भर अँगरेज़ भारत में राज नहीं कर सकेंगें . अंग्रेजों ने तय किया कि हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच फर्क डाले बिना भारत को गुलाम नहीं बनाया जा सकता. १९२० के बाद के भारत की राजनीति पर गौर करें तो साफ़ नज़र आ जाएगा कि अंग्रेजों ने हर स्तर पर हिन्दू-मुस्लिम विभेद की योजना बना दी थी. मुस्लिम लीग को फिर से महात्मा गाँधी से अलग किया, आर एस एस की स्थापना करवाई और वी डी सावरकर को खुला छोड़ दिया. सावरकार को ड्यूटी दी गयी कि वे हिन्दू मात्र को गाँधी से दूर ले जाएँ. इसी दौर में सावरकार ने अपनी किताब हिन्दुत्व लिखी जिसमें हिन्दू धर्म को राजनीति के लिए इस्तेमाल करने की बात की गयी. अंग्रेजों के आशीर्वाद से पहला संगठित दंगा १९२७ में नागपुर में आयोजित किया गया जिसमें आर एस एस वालों ने प्रमुख भूमिका निभाई. सावरकार पूरी तरह से अंग्रेजों के सेवक बन ही चुके थे . जेल में वी. डी .सावरकर सजायाफ्ता कैदी नम्बर ३२७७८ के रूप में जाने जाते थे . उन्होंने अपने माफीनामे में साफ़ लिखा था कि अगर उन्हें रिहा कर दिया गया तो वे आगे से अंग्रेजों के हुक्म को मानकर ही काम करेंगें . सावरकर के भक्तों को लगता है कि सावरकर ने अंग्रेजों से माफी नहीं माँगी होगी. ऐसे शंकालु लोगों को चाहिए कि वे नैशनल आर्काइव्ज़ चले जाएँ, वहांसावरकर का माफीनामा बहुत ही संभाल कर रखा हुआ है और इतिहास के किसी भी शोधकर्ता के लिए वह उपलब्ध है . बहरहाल सच्चाई यह है कि आर एस एस उसके सहयोगी संगठन और मुस्लिम साम्प्रदायिक राजनीति के झंडाबरदार ही दंगे करवाते हैं .
सवाल यह उठता है कि सभ्य समाज के लोग दंगा रोकने के लिए क्या काम करें . क्योंकि अब दंगे तो बार बार होंगें क्योंकि बी जे पी के नए अध्यक्ष ने तय कर लिया है कि हिन्दुत्व की बिसात पर ही अब उतर भारत में चुनाव लड़े जाने हैं . १९८४ में दो सीटें जीतने के बाद कोलकता में जब आर एस एस के आला नेताओं की बैठक हुई तो उसमें अटल बिहारी वाजपेयी को फटकार दिया गया था और उन्हें बता दिया गया था कि राग हिन्दुत्व ही चलेगा, गांधियन समाजवाद से सीटें बढ़ने वाली नहीं है . दुनिया जानती है कि उसके बाद आर एस एस ने बाबरी मस्जिद के मुद्दे को हवा दी. शहाबुद्दीन टाइप कुछ गैर ज़िम्मेदार मुसलमान उनके हाथों में खेलने लगे.. आडवानी ने सोमनाथ से अयोध्या तक की रथ यात्रा की. गाँव गाँव से नौजवानों को भगवान राम के नाम पर इकट्ठा किया गया और माहौल पूरी तरह से साम्प्रदायिक बना दिया गया. उधर बाबरी मस्जिद के नाम पर मुनाफा कमा रहे कुछ गैर ज़िम्मेदार मुसलमानों ने वही किया जिस से आर एस एस को फायदा हुआ. हद तो तब हो गयी जब मुसलमानों के नाम पर सियासत कर रहे लोगों ने २६ जनवरी के बहिष्कार की घोषणा कर दी. बी जे पी को इस से बढ़िया गिफ्ट दिया ही नहीं जा सकता था. उन लोगों ने इन गैर ज़िम्मेदार मुसलमानों के काम को पूरे मुस्लिम समाज के मत्थे मढ़ने की कोशिश की .
सवाल यह उठता है कि दंगों को रोकने के लिएय धर्म निरपेक्ष बिरादरी को क्या करना चाहिए . संघ वाले तो अब दंगों के बाद के ध्रुवीकरण के सहारे वोट बटोरने की योजना बना चुके हैं . दंगों को रोकने के लिए ज़रूरी यह है कि लोगों को जानकारी डी जाए कि दंगें होते कैसे हैं . जिन लोगों ने भीष्म साहनी की किताब तमस पढी है या उस पर बना सीरियल देखा है . उन्हें मालूम है १९४७ के बंटवारे के पहले आर एस एस वालों ने किस तरह से एक गरीब आदमी को पैसा देकर मस्जिद में सूअर फेंकवाया था. भीष्म जी ने बताया था कि वह एक सच्ची घटना पर आधारित कहानी थी. या १९८० के मुरादाबाद दंगों की योजना बनाने वालों ईद की नमाज़ के वक़्त मस्जिद में सूअर हांक दिया था . दंगा करवाने वाले इसी तरह के काम कर सकते हैं . हो सकता है कि कुछ नए तरीके भी ईजाद करें . कोशिश की जानी चाहिए कि मुसलमान इस तरह के किसी भी भड़काऊ काम को नज़र अंदाज़ करें . क्योंक दंगों में सबसे ज्यादा नुकसान मुसलमान का ही होता है . जहां तक फायदे की बात है वह बी जे पी का होगा क्योंकि साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के बाद वोटों की खेती आर एस एस की ही लहलहाती है .इस लिए दंगों को रोकने के लिए संघ की किसी भी योजना को नाकाम करना आज की राष्ट्रीय प्राथमिकता है . बरेली, हैदराबाद और खतौली में तो दंगें हो गए अब आगे न होने पायें यही कोशिश करनी चाहिय .
सवाल यह उठता है कि सभ्य समाज के लोग दंगा रोकने के लिए क्या काम करें . क्योंकि अब दंगे तो बार बार होंगें क्योंकि बी जे पी के नए अध्यक्ष ने तय कर लिया है कि हिन्दुत्व की बिसात पर ही अब उतर भारत में चुनाव लड़े जाने हैं . १९८४ में दो सीटें जीतने के बाद कोलकता में जब आर एस एस के आला नेताओं की बैठक हुई तो उसमें अटल बिहारी वाजपेयी को फटकार दिया गया था और उन्हें बता दिया गया था कि राग हिन्दुत्व ही चलेगा, गांधियन समाजवाद से सीटें बढ़ने वाली नहीं है . दुनिया जानती है कि उसके बाद आर एस एस ने बाबरी मस्जिद के मुद्दे को हवा दी. शहाबुद्दीन टाइप कुछ गैर ज़िम्मेदार मुसलमान उनके हाथों में खेलने लगे.. आडवानी ने सोमनाथ से अयोध्या तक की रथ यात्रा की. गाँव गाँव से नौजवानों को भगवान राम के नाम पर इकट्ठा किया गया और माहौल पूरी तरह से साम्प्रदायिक बना दिया गया. उधर बाबरी मस्जिद के नाम पर मुनाफा कमा रहे कुछ गैर ज़िम्मेदार मुसलमानों ने वही किया जिस से आर एस एस को फायदा हुआ. हद तो तब हो गयी जब मुसलमानों के नाम पर सियासत कर रहे लोगों ने २६ जनवरी के बहिष्कार की घोषणा कर दी. बी जे पी को इस से बढ़िया गिफ्ट दिया ही नहीं जा सकता था. उन लोगों ने इन गैर ज़िम्मेदार मुसलमानों के काम को पूरे मुस्लिम समाज के मत्थे मढ़ने की कोशिश की .
सवाल यह उठता है कि दंगों को रोकने के लिएय धर्म निरपेक्ष बिरादरी को क्या करना चाहिए . संघ वाले तो अब दंगों के बाद के ध्रुवीकरण के सहारे वोट बटोरने की योजना बना चुके हैं . दंगों को रोकने के लिए ज़रूरी यह है कि लोगों को जानकारी डी जाए कि दंगें होते कैसे हैं . जिन लोगों ने भीष्म साहनी की किताब तमस पढी है या उस पर बना सीरियल देखा है . उन्हें मालूम है १९४७ के बंटवारे के पहले आर एस एस वालों ने किस तरह से एक गरीब आदमी को पैसा देकर मस्जिद में सूअर फेंकवाया था. भीष्म जी ने बताया था कि वह एक सच्ची घटना पर आधारित कहानी थी. या १९८० के मुरादाबाद दंगों की योजना बनाने वालों ईद की नमाज़ के वक़्त मस्जिद में सूअर हांक दिया था . दंगा करवाने वाले इसी तरह के काम कर सकते हैं . हो सकता है कि कुछ नए तरीके भी ईजाद करें . कोशिश की जानी चाहिए कि मुसलमान इस तरह के किसी भी भड़काऊ काम को नज़र अंदाज़ करें . क्योंक दंगों में सबसे ज्यादा नुकसान मुसलमान का ही होता है . जहां तक फायदे की बात है वह बी जे पी का होगा क्योंकि साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के बाद वोटों की खेती आर एस एस की ही लहलहाती है .इस लिए दंगों को रोकने के लिए संघ की किसी भी योजना को नाकाम करना आज की राष्ट्रीय प्राथमिकता है . बरेली, हैदराबाद और खतौली में तो दंगें हो गए अब आगे न होने पायें यही कोशिश करनी चाहिय .
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