Friday, October 2, 2015

महात्मा गांधी की किताब 'हिन्द स्वराज' का ऐतिहासिक सन्दर्भ




शेष नारायण सिंह

 हिंद स्वराज एक ऐसी किताब है, जिसने भारत के सामाजिक राजनीतिक जीवन को बहुत गहराई तक प्रभावित किया। बीसवीं सदी के उथल पुथल भरे भारत के इतिहास में जिन पांच किताबों का सबसे ज़्यादा योगदान है, हिंद स्वराज का नाम उसमें सर्वोपरि है। इसके अलावा जिन चार किताबों ने भारत के राजनीतिक सामाजिक चिंतन को प्रभावित किया उनके नाम हैं, भीमराव अंबेडकर की जाति का विनाश, मार्क्‍स और एंगेल्स की कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो, ज्योतिराव फुले की गुलामगिरी और वीडी सावरकर की हिंदुत्व। अंबेडकर, मार्क्‍स और सावरकर के बारे में तो उनकी राजनीतिक विचारधारा के उत्तराधिकारियों की वजह से हिंदी क्षेत्रों में जानकारी है। क्योंकि मार्क्‍स का दर्शन कम्युनिस्ट पार्टी का, सावरकर का दर्शन बीजेपी का और अंबेडकर का दर्शन बहुजन समाज पार्टी का आधार है . ज्योतिबा फुले की किताब ' गुलामगीरी' ने बहुत सारे दार्शनिकों और चिंतकों को प्रभावित किया है .


चालीस साल की उम्र में मोहनदास करमचंद गांधी ने 'हिंद स्वराज' की रचना की। 1909 में लिखे गए इस बीजक में भारत के भविष्य को संवारने के सारे मंत्र निहित हैं। अपनी रचना के सौ साल बाद भी यह उतना ही उपयोगी है जितना कि आजादी की लड़ाई के दौरान था। इसी किताब में महात्मा गांधी ने अपनी बाकी जिंदगी की योजना को सूत्र रूप में लिख दिया था। उनका उद्देश्य सिर्फ देश की सेवा करने का और सत्य की खोज करने का था। उन्होंने भूमिका में ही लिख दिया था कि अगर उनके विचार गलत साबित हों, तो उन्हें पकड़ कर रखना जरूरी नहीं है। लेकिन अगर वे सच साबित हों तो दूसरे लोग भी उनके मुताबिक आचरण करें। उनकी भावना थी कि ऐसा करना देश के भले के लिए होगा।
अपने प्रकाशन के समय से ही हिंद स्वराज की देश निर्माण और सामाजिक उत्थान के कार्यकर्ताओं के लिए एक बीजक की तरह इस्तेमाल हो रही है। इसमें बताए गए सिद्धांतों को विकसित करके ही 1920 और 1930 के स्वतंत्रता के आंदोलनों का संचालन किया गया। 1921 में यह सिद्घांत सफल नहीं हुए थे लेकिन 1930 में पूरी तरह सफल रहे। हिंद स्वराज के आलोचक भी बहुत सारे थे। उनमें सबसे आदरणीय नाम गोपाल कृष्ण गोखले का है। गोखले जी 1912 में जब दक्षिण अफ्रीका गए तो उन्होंने मूल गुजराती किताब का अंग्रेजी अनुवाद देखा था। उन्हें उसका मजमून इतना अनगढ़ लगा कि उन्होंने भविष्यवाणी की कि गांधी जी एक साल भारत में रहने के बाद खुद ही उस पुस्तक का नाश कर देंगे। महादेव भाई देसाई ने लिखा है कि गोखले जी की वह भविष्यवाणी सही नहीं निकली। 1921 में किताब फिर छपी और महात्मा गांधी ने पुस्तक के बारे में लिखा कि "वह द्वेष धर्म की जगह प्रेम धर्म सिखाती है, हिंसा की जगह आत्म बलिदान को रखती है, पशुबल से टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है। उसमें से मैंने सिर्फ एक शब्द रद्द किया है। उसे छोड़कर कुछ भी फेरबदल नहीं किया है। यह किताब 1909 में लिखी गई थी। इसमें जो मैंने मान्यता प्रकट की है, वह आज पहले से ज्यादा मजबूत बनी है।"
महादेव भाई देसाई ने किताब की 1938 की भूमिका में लिखा है कि '1938 में भी गांधी जी को कुछ जगहों पर भाषा बदलने के सिवा और कुछ फेरबदल करने जैसा नहीं लगा। हिंद स्वराज एक ऐसे ईमानदार व्यक्ति की शुरुआती रचना है जिसे आगे चलकर भारत की आजादी को सुनिश्चित करना था और सत्य और अहिंसा जैसे दो औजार मानवता को देना था जो भविष्य की सभ्यताओं को संभाल सकेंगे। किताब की 1921 की प्रस्तावना में महात्मा गांधी ने साफ लिख दिया था कि 'ऐसा न मान लें कि इस किताब में जिस स्वराज की तस्वीर मैंने खड़ी की है, वैसा स्वराज्य कायम करने के लिए मेरी कोशिशें चल रही हैं, मैं जानता हूं कि अभी हिंदुस्तान उसके लिए तैयार नहीं है।..... लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि आज की मेरी सामूहिक प्रवृत्ति का ध्येय तो हिंदुस्तान की प्रजा की इच्छा के मुताबिक पालियामेंटरी ढंग का स्वराज्य पाना है।"
इसका मतलब यह हुआ कि 1921 तक महात्मा गांधी इस बात के लिए मन बना चुके थे कि भारत को संसदीय ढंग का स्वराज्य हासिल करना है। यहां यह जानना दिलचस्प होगा कि आजकल देश में एक नई तरह की तानाशाही सोच के कुछ राजनेता यह साबित करने के चक्कर में हैं कि महात्मा गांधी तो संसदीय जनतंत्र की अवधारणा के खिलाफ थे। इसमें दो राय नहीं कि 1909 वाली किताब में महात्मा गांधी ने ब्रिटेन की पार्लियामेंट की बांझ और बेसवा कहा था (हिंद स्वराज पृष्ठ 13)। लेकिन यह संदर्भ ब्रिटेन की पार्लियामेंट के उस वक्त के नकारापन के हवाले से कहा गया था। बाद के पृष्ठों में पार्लियामेंट के असली कर्तव्य के बारे में बात करके महात्मा जी ने बात को सही परिप्रेक्ष्य में रख दिया था और 1921 में तो साफ कह दिया था कि उनका प्रयास संसदीय लोकतंत्र की तर्ज पर आजादी हासिल करने का है। यहां महात्मा गांधी के 30 अप्रैल 1933 के हरिजन बंधु के अंक में लिखे गए लेख का उल्लेख करना जरूरी है। लिखा है, ''सत्य की अपनी खोज में मैंने बहुत से विचारों को छोड़ा है और अनेक नई बातें सीखा भी हूं। उमर में भले ही मैं बूढ़ा हो गया हूं, लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता कि मेरा आतंरिक विकास होना बंद हो गया है।.... इसलिए जब किसी पाठक को मेरे दो लेखों में विरोध जैसा लगे, तब अगर उसे मेरी समझदारी में विश्वास हो तो वह एक ही विषय पर लिखे हुए दो लेखों में से मेरे बाद के लेख को प्रमाणभूत माने।" इसका मतलब यह हुआ कि महात्मा जी ने अपने विचार में किसी सांचाबद्घ सोच को स्थान देने की सारी संभावनाओं को शुरू में ही समाप्त कर दिया था।
उन्होंने सुनिश्चित कर लिया था कि उनका दर्शन एक सतत विकासमान विचार है और उसे हमेशा मानवता के हित में संदर्भ के साथ विकसित किया जाता रहेगा।
महात्मा गांधी के पूरे दर्शन में दो बातें महत्वपूर्ण हैं। सत्य के प्रति आग्रह और अहिंसा में पूर्ण विश्वास। चौरी चौरा की हिंसक घटनाओं के बाद गांधी ने असहयोग आंदोलन को समाप्त कर दिया था। इस फैसले का विरोध हर स्तर पर हुआ लेकिन गांधी जी किसी भी कीमत पर अपने आंदोलन को हिंसक नहीं होने देना चाहते थें। उनका कहना था कि अनुचित साधन का इस्तेमाल करके जो कुछ भी हासिल होगा, वह सही नहीं है। महात्मा गांधी के दर्शन में साधन की पवित्रता को बहुत महत्व दिया गया है और यहां हिंद स्वराज का स्थाई भाव है। लिखते हैं कि अगर कोई यह कहता है कि साध्य और साधन के बीच में कोई संबंध नहीं है तो यह बहुत बड़ी भूल है। यह तो धतूरे का पौधा लगाकर मोगरे के फूल की इच्छा करने जैसा हुआ। हिंद स्वराज में लिखा है कि साधन बीज है और साध्य पेड़ है इसलिए जितना संबंध बीज और पेड़ के बीच में है, उतना ही साधन और साध्य के बीच में है। हिंद स्वराज में गांधी जी ने साधन की पवित्रता को बहुत ही विस्तार से समझाया है। उनका हर काम जीवन भर इसी बुनियादी सोच पर चलता रहा है और बिना खडूग, बिना ढाल भारत की आजादी को सुनिश्चित करने में सफल रहे।
हिंद स्वराज में महात्मा गांधी ने भारत की भावी राजनीति की बुनियाद के रूप में हिंदू और मुसलमान की एकता को स्थापित कर दिया था। उन्होंने साफ कह दिया कि, ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें तो उसे भी सपना ही समझिए।.... मुझे झगड़ा न करना हो, तो मुसलमान क्या करेगा? और मुसलमान को झगड़ा न करना हो, तो मैं क्या कर सकता हूं? हवा में हाथ उठाने वाले का हाथ उखड़ जाता है। सब अपने धर्म का स्वरूप समझकर उससे चिपके रहें और शास्त्रियों व मुल्लाओं को बीच में न आने दें, तो झगड़े का मुंह हमेशा के लिए काला रहेगा।' (हिंद स्वराज, पृष्ठ 31 और 35) यानी अगर स्वार्थी तत्वों की बात न मानकर इस देश के हिंदू मुसलमान अपने धर्म की मूल भावनाओं को समझें और पालन करें तो आज भी देश में अमन चैन कायम रह सकता है और प्रगति का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है।
इस तरह हम देखते है कि आज से सौ से अधिक वर्ष पहले राजनीतिक और सामाजिक आचरण का जो बीजक महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज के रूप में लिखा था, वह आने वाली सभ्यताओं को अमन चैन की जिंदगी जीने की प्रेरणा देता रहेगा।

Friday, January 2, 2015

नौ ग्यारह के बाद सी आई ए ने मानवता को बार बार अपमानित किया



शेष नारायण सिंह  

 अमरीकी ख़ुफ़िया एजेंसी ,सी आई ए को हमेशा से ही गैरकानूनी तरीके से अमरीकी मनमानी को लागू करने का हथियार माना जाता रहा है . तरह तरह की आपराधिक गतिविधियों में सी आई ए  को अक्सर शामिल पाया जाता है . दुनिया भर में कई देशों के राष्ट्राध्यक्षों की हत्या के आरोप भी इस संगठन पर लगते रहे हैं . इसी क्रम में अमरीकी सेनेट की एक रिपोर्ट को देखा जा सकता है जिसमें लिखा है कि छब्बीस ग्यारह के आतंकी हमले के बाद अमरीकी ख़ुफ़िया एजेंसी ने अपनी हिरासत में लिए गए लोगों से जिस तरह से पूछताछ की उस से लगता है की मानवता को हर क़दम पर अपमानित किया गया था. इसी हमले के बाद तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश ने आतंकवाद को धार्मिक  आधार देने के अपने प्रयास को अमली जामा पहनाने की कोशिश शुरू कर दी थी. इस्लामिक  आतंकवाद , जेहादी आतंक आदि शब्द उसी दौर में ख़बरों की भाषा में घुस गए थे जो अब तक मौजूद हैं .इसी दौर में  अल कायदा के खिलाफ काम कारने के लिए सी आई ए को इतने अधिकार दे दिए गए की उसने पूरी दुनिया में अमरीकी विदेश विभाग के काम को रौंदना शुरू कर दिया और कई बार तो विदेश विभाग की मर्जी के खिलाफ भी सी आई ए ने काम किया है . यह सारी बात सी आई ए के बारे में अमरीकी सेनेट की ताज़ा रिपोर्ट में दर्ज है .
अमरीकी सेनेट की एक कमेटी की जांच रिपोर्ट आई है .करीब ६००० पृष्ठों की रिपोर्ट के केवल ६०० पृष्ठ ही जारी किये गए हैं लेकिन उनके आधार पर ही कहा जा सकता है कि सी आई ए ने मानवता के प्रति अपराध की  सारी सीमाएं पार कर ली थीं. रिपोर्ट में कैदियों से पूछ ताछ के अमानवीय तरीकों का उल्लेख किया गया है और यह बताया गया है कि  किस तरह से डाक्टरों की मर्जी के खिलाफ इस तरह की कारगुजारी की जाती थी. पूछ ताछ का सबसे खतरनाक तरीका वाटरबोर्डिंग का है . इसमें कैदी के मुंह पर कपड़ा लपेट कर उसे पीठ के बल लेटा दिया जाता है . मुंह पर पड़े कपडे पर पानी की बौछार डाली जाती है . उस व्यक्ति को लगता है कि वह पानी में डूब रहा है . नाक और मुंह से साँस लेना दूभर हो जाता है  और वह कई बार तो बेहोश भी हो जाता है . अगर सांस लेने में लगातार मुश्किल आती रही तो व्यक्ति के मर जाने का भी ख़तरा रहता है .संदिग्ध व्यक्तियों से पूछ ताछ का  जो दूसरा सबसे अमानवीय तरीका अपनाया गया वह उनको खाना खिलाने का था. गुदा के रास्ते खाना खिलाने का यह पैशाचिक काम भी पूरी तरह से राक्षसी प्रवृत्ति का नमूना है .सी आई ए ने जांच और प्रताड़ना के यह केंद्र पूरी दुनिया में अपने केन्द्रों पर बना रखा था. अमरीकी प्रभाव वाले जिन देशों में सी आई ए के औपचारिक दफ्तर हैंवहां इस तरह के जांच केंद्र बने हिये हैं . अफगानिस्तानथाईलैंड ,,रोमानिया ,लिथुआनिया और पोलैंड में  सी आई ए के आतंक के केंद्र बने हुए हैं .जिनको सरकारी भाषा में पूछताछ के केंद्र बताया जाता है .
छब्बीस ग्यारह के आतंकी हमले के बाद तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश जूनियर लगभग बौखला गए थे . उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा था कि अमरीका की सरकार आतंकवाद को ख़त्म कर देगी चाहे जो करना पड़े . सेनेट की कमेटी की रिपोर्ट से बाहर आयीं  सी आई ए की जांच की  यह तरकीबें उसी में से एक हैं .  सी आई  ए का यह तामझाम बुश जूनियर के राज में ही रहा सत्ता में आने पर ओबामा ने इसे ख़त्म कर दिया था. अमरीकी सेनेट की कमेटी की जो रिपोर्ट आयी है वह अमरीकी राष्ट्रपति भवन को आतंकवाद की मशीनरी के रूप में पेश करता है . अम्रीकी सरकार में जिम्मेवार पदों पर तैनात लोगों को भी व्हाईट हाउस के लोग अन्धकार में रख रहे थे . एक आतंरिक मेमो में अमरीकी राष्ट्रपति  भवन के एक आदेश का ज़िक्र किया गया है जिसमें लिखा है कि तत्कालीन विदेश मंत्री कालिन पावेल को इसके बारे में कुछ न बताया जाए क्योंकि अगर उनको पता चल गया तो हल्ला मचाएगें .
इस रिपोर्ट से इसी तरह की और भी बहुत सारी अजीबोगरीब जानकारी मिली है . एक जेल में सी आई ए के करीब ११९  कैदी  हिरासत में थे जिनमें से २६ ऐसे कैदी थे जिनको गलती से उठा लिया गया था लेकिन जब उठा लिया तो उनको बंद रखा गया क्योंकि बाहर जाकर वे सी आई ए की पोल न खोल दें .इस रिपोर्ट की ख़ास बात यह है कि मानवीय मूल्यों को पूरी तरह से दरकिनार कर देने के बाद भी सी आई ए को वह नतीजे नहीं मिले जिसकी उनको उम्मीद  थी. ओसामा बिन लादेन की खोज के  बारे में भी इस रिपोर्ट में दावे किये गए हैं लेकिन वहां भी सी आई ए के दावे पूरी तरह से गलत हैं . जांच के इन तरीकों से ओसामा बिन लादेन को तलाशने में कोई मदद नहीं मिली. हालांकि कमेटी की इस जांच को रिपब्लिकन पार्टी के सेनेट सदस्यों ने गलत बताया है लेकिन जानकार बताते हैं कि बुश जूनियर के राज की खामियों को उनकी पार्टी वाले आसानी से स्वीकार नहीं करते .
जबकि वर्तमान राष्ट्रपति ओबामा ने इस रिपोर्ट की तारीफ़ की है और कहा है कि अल कायदा को तबाह करने के अपने कार्यक्रम में सी आई ए को बड़ी सफलता मिली है लेकिन कैदियों के साथ हुए आचरण से अमरीकी मूल्यों की अनदेखी की है और उनके कारण अमरीका को दुनिया के  सामने शर्मिंदा होना पडेगा . इस  रिपोर्ट के आने के बाद सी आई ए ने भी एक जवाब दिया है . सी आई ए ने स्वीकार किया है कि उनसे गलती तो हुयी है लेकिन उनका इरादा सरकार को अँधेरे में रखने का नहीं है . अमरीकी प्रबुद्ध वार्ग इस बात का विश्वास नहीं कर रहा है क्योंकि पकडे जाने पर हर अपराधी अपने इरादों को पाक साफ़ बताता है . सी आई ए ने यह भी दावा किया है कि इस तरह से को जानकारी इकात्था की गयी ,सी आई ए को तबाह करने में उससे बहुत मदद मिली है . सी आई ए ने यह भी दावा किया कि तथाकथित इस्लामी आतंकवाद को ख़त्म करने में जांच के इन तरीकों से बहुत फ़ायदा मिला है  लेकिन सबको मालूम है कि यह बिलकुल गलत दावा है. पूरी दुनिया में सभ्य समाजों में किसी भी आतंकवाद को इस्लामी आतंकवाद का नाम देने की घोर निंदा हुयी है और सीरिया और इराक में इस्लामिक स्टेट के  संगठन के तहत जो आतंक चल रहा है वह अल कायदा की ही पैदावार है . यहाँ यह नोट करना भी दिलचस्प होगा कि अल कायदा और ओसामा बिन लादेन शुरुआती दौर में अमरीका की मदद से ही फलते फूलते रहे थे . मौजूदा रिपोर्ट में जो कुछ भी लिखा गया है उसमें से ज़्यादातर सी आई ए के अपने कर्मचारियों को लिखे गए पत्रों या आदेशों का उद्धरण है ,इसलिए याह नामुमकिन है की कोई भी इस रिपोर्ट पर गलत बयानी का आरोप लगा सके. मिसाल के तौर पर थाईलैंड के सी आई ए ठिकाने में कैद अल कायदा के अबू जुबैदा पर जब पूछ ताछ के दौरान अत्याचार शुरू हुआ तो वहां तैनात सी आई ए कर्मचारी रो पडा और यह बात उसने अपने बड़े अफसरों के पास लिख भेजा. उसकी बात को ज्यों का अत्यों रिपोर्ट में नक़ल कर दिया गया है .
इस रिपोर्ट से साफ़ हो गया है कि जो सी आई ए घोषित रूप से केवल इंटेलिजेंस इकठ्ठा करने की संस्था थी ,वह अब कैसे एक पुलिस संगठन के रूप में बदल चुकी है . इसके पहले  आन्या देशों के मामलों में जो भी दखलन्दाजी की जाती थी वह शुद्ध रूप से गुपचुप तरीकों से की जाती थी लेकिन अब अल कायदा के नाम पर वह खुले आम धर पकड़ करना ड्रोन हमले करना , लोगों को गिरफ्तार करना आदि कर रही है . छब्बीस ग्यारह के तुरंत बाद से ही राष्ट्रपति बुश जूनियर ने एक सेक्रेट आदेश पर दस्तखत कर दिया था जिसके अनुसार सी आई ए को " उन लोगों को पकड़ने और हिरासत में लेने का अधिकार दे दिया गया था अजो अमरीकी अवाम और उसके हितों के लिए ख़तरा बने हुए हों ." इस आदेश में पूछताछ करने का अधिकार नहीं दिया गया था .लगता है कि हस्बे मामूल सी आई ए ने बहुत सारे अधिकार लपक लिए  हैं .

Thursday, August 21, 2014

धर्मनिरपेक्षता की राजनीति पर संकट के बादल



शेष नारायण सिंह  

बीजेपी में हमारे एक मित्र हैं . उन्होंने अपने फेसबुक पेज पर लिखा कि जब उनको किसी को  गाली देनी होती है तो वे उसे धर्मनिरपेक्ष कह देते हैं . मुझे अजीब लगा .वे भारत राष्ट्र को और  भारत के संविधान को अपनी नासमझी की ज़द में ले रहे थे क्योंकि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है . संसद में उनकी पार्टी के एक नेता ने जिस तरह से धर्मनिरपेक्षता को समझाया उससे अब समझ में आ गया है कि यह मेरे उन मित्र की निजी राय नहीं है , यह उनकी पार्टी की राय है . उसके बाद बीजेपी/ आर एस एस के कुछ विचारक टाइप लोगों को टेलिविज़न पर बहस करते सुना और साफ़ देखा कि वे लोग  धर्मनिरपेक्ष आचरण में विश्वास करने वालों को ' सेकुलरिस्ट ' कह रहे थे और उस शब्द को अपमानजनक सन्दर्भ के तौर पर इस्तेमाल कर रहे थे . बात समझ में आ गयी कि अब यह लोग सब कुछ बदल डालेगें क्योंकि जब ३१ प्रतिशत वोटों के सहारे जीतकर आये हुए लोग आज़ादी की लड़ाई की विरासत को बदल डालने की मंसूबाबंदी कर रहे हो तो भारत को एक राष्ट्र के रूप में चौकन्ना हो जाने की ज़रुरत है .

भारत एक संविधान के अनुसार चलता है . यह बात प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने के बादनरेंद्र मोदी ने भी स्वीकार किया है और उस संविधान की प्रस्तावना में ही लिखा है की भारतएक धर्मनिरपेक्ष देश है . प्रस्तावना में लिखा है कि ," हमभारत के लोगभारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्नसमाजवादीधर्म निरपेक्षलोकतान्त्रिक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक न्यायविचारअभिव्यक्ति,विश्वासधर्म और उपासना की स्वतंत्रताप्रतिष्ठा और अवसर की समताप्राप्त करने के लिएतथा उन सब मेंव्यक्ति की गरिमा एवं राष्ट्र की एकता एवं अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख २६ नवम्बर १९४९ को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृतअधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं. ।" इस तरह के संविधान के हिसाब से देश को चलाने का संकल्प लेकर चल रहे देश की संसद में उत्तर प्रदेश के पूर्वी इलाके से आये एक सदस्य ने जिस तरह की बातें  की और सरकार की तरफ से किसी भी ज़िम्मेदार  व्यक्ति ने उसको समझाया नहीं ,यह इस बात का सबूत है कि देश बहुत ही खतरनाक रास्ते पर चल पडा है . सबसे तकलीफ की बात यह है कि साम्प्रदायिकता के इन अलंबरदारों को सही तरीके से रोका नहीं गया . कांग्रेस में भी ऐसे लोग हैं जो राजीव गांधी और संजय गांधी युग की देन हैं और जो साफ्ट हिंदुत्व की राजनीति के पैरोकार हैं . ऐसी सूरत में हिन्दू साम्प्रदायिकता का जवाब देने के लिए लोकसभा में वे लोग खड़े हो गए तो मुस्लिम साम्प्रदायिकता के  समर्थक हैं. इस देश में मौजूद एक बहुत बड़ी जमात धर्मनिरपेक्ष है और उस जमात को अपने राष्ट्र को उसी तरीके से चलाने का हक है जो आज़ादी की लड़ाई के दौरान तय हो गया था. देश की सबसे बड़ी पार्टी आज बीजेपी  है लेकिन उन दिनों कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी हुआ करती थी . महात्मा गांधी कांग्रेस के सबसे बड़े नेता थे और मुहम्मद अली जिन्ना ने एडी चोटी का जोर लगा दिया कि कांग्रेस को हिन्दुओं की पार्टी के रूप में प्रतिष्ठापित कर दें लेकिन नहीं कर पाए . महात्मा जी और उनके  उत्तराधिकारियो ने कांग्रेस को धर्मनिरपेक्ष पार्टी बनाए रखा .आज देश में बीजेपी का राज  है लेकिन क्या बीजेपी धर्मनिरपेक्षता के संविधान  में बताये गए बुनियादी सिद्धांत के खिलाफ जा सकती है . उसके कुछ नेता यह कहते देखे गए हैं की देश ने बीजेपी को अपनी मर्जी से राज करने के अधिकार दिया है लेकिन यह बात बीजेपी के हर नेता को साफ तौर पर पता होनी चाहिए की उनको सत्ता इसलिए मिली है कि वे नौजवानों को रोज़गार दें, भ्रष्टाचार खत्म करें और देश का विकास करें . उनके जनादेश में यह भी समाहित है कि वे यह सारे काम संविधान के दायरे में रहकर ही करें , उनको संविधान या आज़ादी की लड़ाई का ईथास बदलने का  मैंडेट नहीं मिला है .
ज़ाहिर है कि धर्मनिरपेक्षता के अहम पहलुओं पर एक बार फिर से गौर करने की ज़रूरत है .
धर्मनिरपेक्ष होना हमारे गणतंत्र के लिए अति आवश्यक है।  आजादी की लड़ाई का उद्देश्य ही धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय का राज कायम करना था। महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' में पहली बार देश की आजादी के सवाल को हिंदू-मुस्लिम एकता से जोड़ा है।  गांधी जी एक महान कम्युनिकेटर थे, जटिल सी जटिल बात को बहुत साधारण तरीके से कह देते थे। हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।"
महात्मा गांधी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत की, उससे अंग्रेजी शासकों को भारत के आम आदमी की ताक़त का अंदाज़ लग गया । आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव बनाया।लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी। उसने कांग्रेस से नाराज़ जिन्ना जैसे  लोगों की मदद से आजादी की लड़ाई में अड़ंगे डालने की कोशिश की और सफल भी हुए। बाद में कांग्रेसियों के ही एक वर्ग ने सरदार को हिंदू संप्रदायवादी साबित करने की कई बार कोशिश की लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। आजकल आर एस एस और बीजेपी के बड़े नेता यह बताने की कोशिश करते हैं की सरदार पटेल हिन्दू राष्ट्रवादी थे . लेकिन यह सरासर गलत  है . भारत सरकार के गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने 16दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)।
सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं।सरदार अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। उनके साथ पूरा सरकारी अमला था और सरदार पटेल की बहन भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, "इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ............ मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।" सरदार पटेल की इस अपील के बाद पंजाब में हिंसा नहीं हुई। कहीं किसी शरणार्थी पर हमला नहीं हुआ। कांग्रेस के दूसरे नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं  . लेकिन इनके जाने के बाद कांग्रेस की राजनीति ऐसे लोगों के कब्जे में आ गई जिन्हें महात्मा जी के साथ काम करने का सौभाग्य नहीं मिला था। उसके बाद कांग्रेस में भी बहुत बड़े नेता ऐसे  हुए जो निजी बातचीत में  मुसलमानों को पाकिस्तान जाने की नसीहत देते पाए जाते हैं . दर असल वंशवाद के चक्कर में कांग्रेस वह रही ही नहीं जो आज़ादी की लड़ाई के दौरान रही थी . नेहरू युग में तो कांग्रेस ने कभी भी धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत से समझौता नहीं किया लेकिन   इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी अपने छोटे बेटे की राजनीतिक समझ को महत्त्व  देने लगी थीं . नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस भी हिंदूवादी पार्टी के रूप में पहचान बनाने की दिशा में  चल पडी . बाद में राजीव हांधी के युग में तो सब कुछ गड़बड़ हो गया .
कांग्रेस का राजीव गांधी युग पार्टी को एक कारपोरेट संस्था की तरह चलाने के लिए जाना जाएगा . इस प्रक्रिया में वे लोग कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की मूल सोच से मीलों दूर चले गए। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री पद पर बैठते ही जिस तरह से सुनियोजित तरीके से कांग्रेसी नेताओं ने सिखों का कत्ले आम किया, वह धर्मनिरपेक्षता तो दूर, बर्बरता है। जानकार तो यह भी कहते हैं कि उनके साथ राज कर रहे मैनेजर टाइप नेताओं को कांग्रेस के इतिहास की भी  जानकारी नहीं थी। उन्होंने जो कुछ किया उसके बाद कांग्रेस को धर्मनिरपेक्ष जमात मानने के बहुत सारे अवसर नहीं रह जाते। उन्होंने अयोध्या की विवादित बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाया और आयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास करवाया। ऐसा लगता है कि उन्हें हिन्दू वोट बैंक को झटक लेने की बहुत जल्दी थी और उन्होंने वह कारनामा कर डाला जो बीजेपी वाले भी असंभव मानते थे।राजीव गांधी के बाद जब पार्टी के किसी नेता को प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला तो पी.वी. नरसिंह राव गद्दी पर बैठे। उन्हें न तो मुसलमान धर्मनिरपेक्ष मानता है और न ही इतिहास उन्हें कभी सांप्रदायिकता के खांचे से बाहर निकाल कर सोचेगा। बाबरी मस्जिद का ध्वंस उनके प्रधानमंत्री पद पर रहते ही हुआ था। सोनिया गांधी के राज में साम्प्रदायिक राजनीति के  सामने कांग्रेसी डरे सहमे नज़र आते थे . एक दिग्विजय सिंह हैं जो धर्मनिरपेक्षता  का झंडा अब भी बुलंद रखते  हैं लेकिन कुछ लोग कांग्रेस में भी एसे हैं जो दिग्विजय सिंह जैसे लोगों को हाशिये पर रखने पर आमादा हैं . कई बार तो लगता है कि बहुत सारे कांग्रेसी भी धर्मनिरपेक्षता  के खिलाफ काम कर रहे हैं . और जब आर एस एस और उसके मातहत संगठनों ने धर्म निरपेक्षता को चुनौती देने का बीड़ा उठाया है तो  कांग्रेस पार्टी भी अगर उनके अरदब में आ गयी तो देश से धर्मनिरपेक्षता  की राजनीति की विदाई भी हो सकती है .

Tuesday, July 15, 2014

अमरीकी गलतियों के कारण पश्चिम एशिया में जंग के हालात


शेष नारायण सिंह

पश्चिम एशिया में अमरीकी विदेशनीति की धज्जियां उड़ रही हैं . करीब सौ साल पहले इसी सरज़मीन पर अमरीका ने एक बड़ी ताक़त बनने के सपने को शक्ल देना शुरू किया था और कोल्ड वार के बाद यह साबित हो गया था कि अमरीका ही दुनिया का सबसे ताक़तवर मुल्क है. सोवियत रूस टूट गया था और उसके साथ रहने वाले ज़्यादातर देशों ने अमरीका को साथी मान लिया था . लेकिन बाद में तस्वीर बदली. चीन ने अमरीका को चुनौती देने की तैयारी कर ली और आज चीन एक बड़ी ताक़त  है  अमरीका अपनी एशिया नीति में चीन की हैसियत को नज़रंदाज़ करने की हिम्मत नहीं कर सकता है. अमरीका के मौजूदा राष्ट्रपति बराक ओबामा की विदेशनीति में अमरीकी हितों के हवाले से हर उस मान्यता को दरकिनार करने के आरोप लग रहे हैं जिनके लिए कथित रूप से अमरीका अपने को दुनिया का  चौकीदार मानता रहा है . बराक ओबामा की विदेशनीति अब मानवाधिकारों या लोकतंत्रीय राजनीति की  संरक्षक के रूप में नहीं जानी जाती , अब वह पूरी तरह से अमरीकी हितों की बात करती है. यह भी सच है की राष्ट्रपति के रूप में बराक ओबामा ने मानवाधिकारों की बात बार बार की है , कुछ इलाकों में उनकी रक्षा भी की है लेकिन यह भी सच है कि पश्चिम एशिया और अरब दुनिया में अमरीकी नीतियों की मौकापरस्ती के चलते आज मानवाधिकारों और लोकतंत्र की मान्यताओं का सबसे ज़्यादा नुक्सान हो रहा है . अमरीकी नीतियों की लुकाछिपी का ही नतीजा है कि आज इजरायल और फिलिस्तीन के बीच एक खूनी संघर्ष की शुरुआत की इबारत लिखी जा रही है. वेस्ट बैंक में तीन इजरायली किशोर बच्चों के कथित अपहरण और हत्या के बाद इस इलाके में मारकाट शुरू हो गयी है . ताज़ा वारदात में फिलिस्तीनी डाक्टरों ने बताया कि कम से कम २३ लोगों की जान गयी है . बताया गया है की हमास और इस्लामिक जेहाद वालों के खिलाफ इजरायल ने अभियान छेड़ रखा है और उसी का नतीजा  है कि इस इलाके में शान्ति की संभावनाओं पर बहुत बड़ा सवालिया निशान लग गया है . इजरायल ने झगड़े को बढाने के साफ़ संकेत दे दिए हैं . इजरायल में १५०० रिज़र्व सैनिकों को तैनात कर दिया है और अगर ज़रूरत पड़ी तो ४०,००० और रिजर्व  सैनिकों को तैनात कर दिया जाएगा . इजरायली सेना ने यह भी कहा  है कि उनके ठिकानों पर मिसाइलों से लगातार हमले हो रहे हैं.  गज़ा से करीब ८० मिसाइल दागे गए जो काफी अन्दर तक  पंहुचने में सफल रहे .
दुनिया जानती है कि इजरायल पश्चिम एशिया में अमरीकी मंसूबों का सबसे भरोसेमंद लठैत  है और उसकी सेवाओं के लिए अमरीका ने उसे इस खित्ते के इस्लामी  शासकों पर नाजिल कर रखा है .बराक ओबामा के दोस्त और दुश्मन , सभी अमरीकी राष्ट्रपति को विदेशनीति के ऐसे जानकार के रूप में पेश करते हैं जिसकी नज़र हमेशा सच्चाई पर  रहती  है. यहाँ सच्चाई का मतलब न्याय नहीं है . ओबामा की सच्चाई का मतलब यह है कि घोषित नीतियों से चाहे जितनी पलटी मारनी पड़े , लेकिन अमरीकी फायदे के अलावा और कोई  बात नहीं की जायेगी . अरब दुनिया की राजनीति में उनकी इस शख्सियत को आजकल बार  बार देखने  का मौक़ा लग रहा है . इसी जून के अंतिम सप्ताह में मिस्र के दौरे पर आये अमरीकी विदेश मंत्री जॉन केरी मिस्र के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति , अब्दुल फतह अल सीसी  के साथ  मुस्कराते हुए फोटो खिंचा रहे थे .अब्दुल फतह अल-सीसी को अमरीका तानाशाह कहता रहा है . अमरीकी हुकूमत की तरफ से उनकी एक ऐसे व्यक्ति के रूप में शिनाख्त की गयी थी जो मुस्लिम ब्रदरहुड में अपने विरोधियों को साज़िश करके मरवा  डालता है . यह व्यक्ति अल जजीरा के उन तीन पत्रकारों का गुनाहगार भी है जिनको जेल की सज़ा सुना दी गयी है . जॉन केरी फोटो खिंचाकर लौटे ही थे  कि पत्रकारों को सज़ा  का हुक्म हो गया . अमरीका ने मिस्र के इस कारनामे  की निंदा की लेकिन उसी दिन मिस्र को करीब ५८ करोड़ डालर की सैनिक सहायता भी मुहैया करवा दी. यह शुद्ध रूप से मतलबी विदेशनीति है क्योंकि अमरीका को इसमें अपना लाभ नज़र आता है .
बराक ओबामा अपने दूसरे कार्यकाल में पश्चिम एशिया में तरह तरह के अजूबे  करते रहे हैं . वियतनाम के बाद अमरीका ने अफगानिस्तान और इराक में सैनिक हस्तक्षेप बड़े पैमाने पर किया था . जब बुश बाप बेटों ने इराक और अफगानिस्तान में  सेना की धौंस मारने की कोशिश की थी तो उनके शुभचिंतकों ने उनको चेतावनी दी थी कि संभल कर रहना , कहीं वियतमान न हो जाए. खैर , अभी तक वियतनाम तो नहीं हुआ है लेकिन अभी दोनों ही देशों में अमरीकी गलतियों का सिलसिला ख़त्म भी तो नहीं हुआ  है .अफगानिस्तान में वर्षों का हामिद करज़ई का शासन ख़त्म होने को है . अमरीकी सुरक्षा के तहत वहां राष्ट्रपति पद के चुनाव हुए हैं . दूसरे दौर की गिनती हो चुकी  है . पहले राउंड के बाद कोई फैसला नहीं  हो सका था . उसके बाद अब्दुल्ला अब्दुल्ला  और अशरफ गनी के बीच दूसरे राउंड का चुनाव हो चुका है . औपचारिक रूप से नतीजे घोषित नहीं हुए हैं लेकिन संकेत साफ़ आ चुके हैं  . आम तौर पर माना जा रहा है कि पख्तूनों के समर्थन से चुनाव लड़ रहे अशरफ गनी ने बेईमानी करके ताजिकों के समर्थन वाले अब्दुल्ला अब्दुल्ला को हरा दिया है  . इस बीच नतीजों के संकेत आने के बाद अब्दुल्ला के समर्थकों ने दबाव बनाना शुरू कर दिया है  कि आप अपने आपको निर्वाचित घोषित कर दीजिये . अगर ऐसा हुआ तो साफ़ माना जाएगा कि अफगानिस्तान के दो टुकड़े होने वाले हैं . अभी कोई नहीं जानत्ता कि अफगानिस्तान का राष्ट्रपति कौन होगा---- अब्दुल्ला या अशरफ गनी . या कहीं दोनों ही राष्ट्रपति न बन जाएँ . अमरीका की मनमानी नीतियों की  कृपा से ही आज अफगानिस्तान एक अशान्ति का क्षेत्र है . एक ऐसा क्षेत्र जहां अमरीका की कृपा से अल कायदा का जन्म हुआ , जहां पाकिस्तानी सेना ने तालिबान की स्थापना की और जिसके संघर्ष में शामिल  मुजाहिदीन ने आसपास के इलाकों में आतंक का माहौल  बना रखा है . आज इस अशांति से अमरीका को सबसे बड़ा खतरा  है . यह ख़तरा हमेशा से ही था लेकिन अमरीकी हुक्मरान को यह दिखता नहीं था .उनको लगता  था कि पश्चिम और दक्षिण एशिया की अशांति अमरीका नहीं पंहुचेगी लेकिन जब ११ सितम्बर को न्यूयार्क में हमला हो गया तब से अमरीकी विदेश नीति तरह तरह के कुलांचे भरती नज़र आ रही है .
अफगानिस्तान की तरह ही अमरीकी विदेशनीति ने इराक में अशान्ति का माहौल बना रखा है . अमरीका का हुक्म मानने से इनकार करने वाले तत्कालीन इराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को सबक सिखाने के लिए अमरीका ने सामूहिक नरसंहार के  हथियारों की फर्जी बोगी के ज़रिये इराक पर हमला किया था . दिमाग से थोड़े कमज़ोर अमरीकी राष्ट्रपति बुश जूनियर और उनके साथी ब्रिटेन के राष्ट्रपति टोनी ब्लेयर ने इराक को तबाह करने की योजना बनाई थी . आज अमरीकी विदेशनीति वहीं दजला और फरात  नदियों के दोआब में बुरी तरह से पिट रही है . अमरीका की पश्चिम एशिया नीति में कभी भी कोई स्थिरता नहीं रही है लेकिन बेचारे बराक ओबामा की मुश्किल बहुत ही अजीब है . आजकल वे इराक में राज कर रहे प्रधानमंत्री नूरी अल मलिकी को नहीं संभाल पा रहे हैं . अमरीका अब उन पर भरोसा नहीं करता. लेकिन उनके लिए ३०० अमरीकी सैनिक सलाहकार भेज दिए गए . संकेत यह है कि अमरीका मलिकी के साथ है जबकि ऐसा नहीं है .इससे इराक के अल्पसंख्यक सुन्नी नेताओं में खासी नाराज़गी  है . ऐसा लगता है कि इस्लामिक स्टेट नाम के आतंकी संगठन के खिलाफ और किसी स्वीकार्य नेता को इराक में न तलाश पाने की कुंठा के चलते ओबामा अल मलिकी को ही समर्थन करने की सोच रहे हैं . इस  चक्कर में वे अपने परंपरागत दुश्मन इरान और सीरिया  के राष्ट्रपति बशर अल असद के साथ हाथ मिलाते नज़र आ  रहे हैं .अमरीका ने इरान से सैनिक सहयोग मांग लिया है जबकि बशर अल असद ने अमरीकी सलाह से इराक के अन्दर उन इलाकों पर लड़ाकू विमानों से बमबारी करवाई है जो इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया के सुन्नी  लड़ाकों के कब्जे में है. अब दूसरा विरोधाभास देखिये . अमरीकी राष्ट्रपति ने अपनी संसद से ५० करोड़ डालर की सैनिक सहायता उन ज़िम्मेदार सुन्नी मिलिसिया के लिए माँगी है जो सीरिया में बशर अल असद की सरकार के खिलाफ लड़ रहे हैं.   देखा यह गया है  कि सीरिया और इरान के बारे में अमरीका बिलकुल कन्फ्यूज़न का शिकार है .इजरायल, साउदी अरब आदि के दबाव में वह इरान और लेबनान में एक आचरण करता  है जबकि इराक की ज़मीनी सच्चाई की रोशनी में वह शिया हुक्मरानों के करीब जाने की कोशिश  करता नज़र  आता  है . कोई भी साफ़ दिशा कहीं से भी नज़र नहीं आती है .
आजकल तो अमरीकी विदेशनीति के आयोजक और संचालक मुंगेरीलालों को एक और  हसीन सपना आ रहा है . वे इरान के साथ किसी ऐसे समझौते के सपने देख रहे हैं  जिसके बाद इरान के परमाणु कार्यक्रम को भी काबू में किया जा सकेगा . अगर ऐसा हुआ तो अमरीका और इरान के बाच ३५ साल से चली आ रही दुश्मनी ख़त्म हो जायेगी . अब इनको कौन बताये कि जो इरान हर तरह की अमरीकी पाबंदियों को झेलता रहा , अमरीका के हर तरह के दबाव को झेलता रहा और उन दिनों के अमरीकी  चेला सद्दाम हुसैन के हमले  झेलता रहा और अमरीका के सामने कभी नहीं झुका , वह इरान आज जबकि उसका पलड़ा भारी  है , वह अमरीका की मूर्खतापूर्ण विदेशनीति को डूबने से बचा सकता  है तो वह अपने परमाणु कार्यक्रम जो अमरीका की मर्जी से चलाने पर राजी हो जाएगा. अमरीकी विदेशनीति के संचालकों को यह नहीं दख रहा है कि  अगर इरान से बहुत अधिक दोस्ती बढ़ाने की कोशिश की गयी तो इजरायल को कैसा लगेगा या कि साउदी अरब को कैसा लगेगा .
आज भी पश्चिम एशिया में अमरीका के सबसे करीबी दोस्तों में इजरायल के अलावा जार्डन, संयुक्त अरब अमीरात और तुर्की शामिल हैं . इसके अलावा क़तर , बहरीन, ओमान, लेबनान और कुवैत भी अमरीका के दोस्तों में शुमार किये जाते हैं . इस्लामिक स्टेट आफ इराक और सीरिया को काबू में करने के लिए अमरीका को साउदी अरब की मदद भी मिल सकती है क्योंकि वह भी आजकल अल कायदा से बहुत खफा है . ज़ाहिर है की अगर इन साथियों के इर्द गिर्द अमरीका कोई योजना बनाता है तो शायद इस्लामिक स्टेट आफ इराक और सीरिया को काबू में किया जा सके. इस मुहिम में उसको इरान और  सीरिया के राष्ट्पति की मदद भी मिल सकती है लेकिन अब वक़्त आ गया  है कि अमरीका अपनी उस आदत से बाज़ आ गए जिसमें सब कुछ उसकी मर्जी से ही होता रहा है . पश्चिम एशिया में आज अमरीका मुसीबत के  घेरे में है उसे समझदारी से काम लेना पडेगा .

Thursday, June 12, 2014

आतंकवाद के भस्मासुर की चपेट में पाकिस्तानी राष्ट्र


शेष नारायण सिंह 


पाकिस्तान  के कराची हवाई अड्डे पर हमलों का  सिलसिला लगातार जारी  है. तहरीके तालिबान पाकिस्तान ने  हमलों की ज़िम्मेदारी ली है।  इन हमलों  के बाद आत्नकवाद की राजनीति में एक नया अध्याय जुड़ गया है।  जब पाकिस्तान के तत्कालीन  फौजी तानाशाह जनरल ज़िया उल हक़ ने आतंकवाद को विदेशनीति   का बुनियादी आधार बनाने का  खतरनाक खेल खेलना  शुरू किया तो दुनिया  शान्तिप्रिय लोगों ने उनको आगाह किया  था कि  आतंकवाद को कभी भी राजनीति का हथियार नहीं बनाना चाहिए।  लेकिन जनरल  जिया  अपनी ज़िद पर अड़े रहे।  भारत के कश्मीर और पंजाब में उन्होंने फ़ौज़ की मदद से आतंकवादियों को झोंकना शुरू कर दिया।  अफगानिस्तान में भी अमरीकी मदद से उन्होंने आतंकवादियों  पैमाने पर तैनाती की।  इस इलाक़े की मौजूदा तबाही का कारण यही है कि  जनरल  जिया का आतंकवाद अपनी जड़ें  जमा चुका है। 
पाकिस्तानी आतंकवाद की सबसे नई बात यह है कि  पहली बार पाकिस्तानी फ़ौज़ और आई यस आई के खिलाफ इस बार उनके द्वारा पैदा किया गया आतंकवाद ही मैदान में है।  पहली बार पाकिस्तानी इस्टैब्लिशमेंट के खिलाफ तालिबान के लड़ाकू हमला कर रहे हैं।  इसलिए जो   आतंकवाद भारत को नुक्सान पंहुचाने के लिए पाकिस्तानी फ़ौज़ ने तैयार किया था वह अब उनके ही सर की मुसीबत बन चुका है।  भारत में भस्मासुर की जो अवधारणा बताई जाती है ,वह पाकिस्तान में सफल होती   नज़र आ रही है।  अस्सी  के दशक में पाकिस्तान  अमरीका की कठपुतली के रूप में भारत के खिलाफ आतंकवाद फैलाने का काम करता था।  यह  बात हमेशा से ही मालूम थी कि  अमरीका तब से भारत का विरोधी हो गया था जब से अमरीका की मर्ज़ी के खिलाफ जवाहरलाल  नेहरू ने निर्गुट आन्दोलन  की स्थापना की थी।  क़रीब तीन साल पहले अमरीका की जे एफ के लाइब्रेरी में नेहरू-केनेडी पत्रव्यवहार को सार्वजनिक किये जाने के बाद कुछ ऐसे तथ्य सामने आये हैं जिनसे पता चलता है कि अमरीका ने भारत की मुसीबत  के वक़्त कोई मदद नहीं की थी.  भारत के  ऊपर जब १९६२ में चीन का हमला हुआ था तो वह नवस्वतंत्र भारत के लिए सबसे बड़ी मुसीबत थी . उस वक़्त के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अमरीका से मदद माँगी भी थी लेकिन अमरीकी राष्ट्रपति जॉन केनेडी ने कोई भी सहारा नहीं दिया  और नेहरू की चिट्ठियों का जवाब तक नहीं दिया था . इसके बाद इंदिरा गाँधी के प्रधान मंत्री बनने के बाद लिंडन जॉनसन  ने भारत का अमरीकी कूटनीति के हित में इस्तेमाल करने की कोशिश की थी लेकिन इंदिरा गाँधी ने अपने राष्ट्रहित को महत्व दिया और अमरीका के हित से ज्यादा महत्व अपने हित को दिया और गुट निरपेक्ष आन्दोलन की नेता के रूप में भारत की इज़्ज़त बढ़ाई . हालांकि अमरीका की  यह हमेशा से कोशिश रही है कि वह एशिया की  राजनीति में भारत का अमरीकी हित में इस्तेमाल करे लेकिन भारतीय विदेशनीति के नियामक अमरीकी राष्ट्रहित के प्रोजेक्ट में अपने आप को पुर्जा बनाने को तैयार नहीं थे .
पिछले साठ वर्षों के इतिहास पर नज़र डालें तो समझ में आ जाएगा कि अमरीका ने भारत को हमेशा  की नीचा दिखाने की कोशिश की  है . १९४८ में जब कश्मीर मामला संयुक्तराष्ट्र में गया था तो तेज़ी से सुपर पावर बन रहे अमरीका ने भारत के खिलाफ काम किया था .  १९६५ में जब कश्मीर में घुसपैठ कराके उस वक़्त के पाकिस्तानी तानाशाह , जनरल अय्यूब  ने भारत पर हमला किया था तो उनकी सेना के पास जो भी हथियार थे सब अमरीका ने ही उपलब्ध करवाया था . उस लड़ाई में जिन पैटन टैंकों को भारतीय सेना ने रौंदा था, वे सभी अमरीका की खैरात के रूप में पाकिस्तान  की झोली में आये थे. पाकिस्तानी सेना के हार जाने के बाद अमरीका ने भारत पर दबाव बनाया था कि वह अपने कब्जे वाले पाकिस्तानी इलाकों को छोड़ दे  . १९७१ की बंगलादेश की  मुक्ति की लड़ाई में भी अमरीकी राष्ट्रपति निक्सन ने  तानाशाह याहया खां के बड़े भाई के रूप में काम किया था और भारत  को धमकाने के लिए अमरीकी सेना के सातवें बेडे को बंगाल की खाड़ी में तैनात कर दिया था . उस वक़्त के अमरीकी विदेशमंत्री हेनरी कीसिंजर ने उस दौर में पाकिस्तान की तरफ से पूरी दुनिया  में पैरवी की थी. संयुक्त राष्ट्र में भी भारत के खिलाफ काम किया था . जब भी भारत ने परमाणु परीक्षण किया अमरीका को तकलीफ हुई . भारत ने बार बार पूरी दुनिया से अपील की कि बिजली पैदा करने के लिए उसे परमाणु शक्ति का विकास करने दिया जाय लेकिन अमरीका ने शान्ति पूर्ण परमाणु के प्रयोग की कोशिश के बाद भारत के ऊपर तरह तरह की पाबंदियां लगाईं. उसकी हमेशा कोशिश रही कि वह भारत और पाकिस्तान को बराबर की हैसियत वाला मुल्क बना कर रखे लेकिन ऐसा करने में वह सफल नहीं रहा .आज भारत के जिन इलाकों में भी अशांति है , वह सब अमरीका की कृपा से की गयी पाकिस्तानी  दखलंदाजी की वजह से ही है . कश्मीर में जो कुछ भी पाकिस्तान कर रहा है उसके पीछे पूरी तरह से अमरीका का पैसा लगा है . पंजाब में भी आतंकवाद पाकिस्तान की  फौज की कृपा से ही शुरू हुआ था . 

आज हम देखते हैं कि  अमरीका ने जिस पाकिस्तानी आतंकवाद का ज़रिये भारत की एकता पर प्राक्सी हमला किया था  पाकिस्तान  ही मुसीबत बन गया है. पाकिस्तानी  फ़ौज़ और राजनेताओं को चाहिए कि वे अपने देश की सुरक्षा को सबसे ऊपर  रखें और भारत की मदद से आतंकवाद के खात्मे के लिए योजना बनाएं वरना एक राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान  अस्तित्व खतरे में पड़  जाएगा।

Tuesday, June 10, 2014

प्रधानमंत्री के चुनावी नारों को राष्ट्रपति के अभिभाषण में शामिल किया गया .




शेष नारायण सिंह

 संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में राष्ट्रपति के अभिभाषण के साथ ही सोलहवीं  लोकसभा का विधवत आगाज़ हो गया. मानी हुयी बात है कि राष्ट्रपति के अभिभाषण में उनकी सरकार की नीतियों और योजनाओं का ज़िक्र होता है  लेकिन आज का राष्ट्रपति का अभिभाषण इस बात  के लिए ख़ास तौर पर याद रखा जाएगा कि उसमें मौजूदा प्रधानमंत्री के उन भाषणों के अंश भी थे जिनको उन्होंने लोकसभा चुनाव के दौरान नारों की शक्ल में इस्तेमाल किया था  सबको मालूम है कि राष्ट्रपति हर काम मंत्रिमंडल की सलाह से करते हैं  ,उनके सार्वजनिक भाषण भी सरकार की तरफ से लिखे जाते हैं , उनके हर भाषण में सरकार की नीतियों का ही उल्लेख होता है लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि राष्ट्रपति महोदय अपने भाषण में सत्ताधारी पार्टी के चुनावी नारों का बड़े विस्तार से उल्लेख करें . आज का भाषण इस सन्दर्भ में बहुत ही उल्लेखनीय है कि राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनाव भाषणों के कई नारों का अपने भाषण में इस्तेमाल किया .
आज के भाषण में जो सबसे प्रमुख बात समझ में आई वह  यह कि महिलाओं को संसद और विधानमंडलों में ३३ प्रतिशत आरक्षण की बीजेपी और कांग्रेस की करीब बीस साल से चल रही योजना  को लागू किया जा सकेगा . इसका कारण यह है कि बीजेपी की सरकार किसी भी ऐसी पार्टी के सहयोग की मुहताज नहीं है जो आम तौर पर महिलाओं के आरक्षण की बात शुरू होने पर हंगामा करते थे .  समर्थन की बात  तो दूर इस तरह  की विचारधारा  के लोग लोकसभा के सदस्य भी नहीं हैं . कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही इस मामले पर एकमत  रहे हैं . आज राष्ट्रपति जी ने महिलाओं के लिए जिन सकारात्मक बातों का उल्लेख किया उसमें से एक यह भी है . ज़ाहिर है कि दशकों से ठन्डे बसते में पडी यह योजना  मानसून सत्र में ही लागू की जा सकती है . महिलाओं के लिए अभिभाषण में और भी अहम् बाते  कही गयी हैं जिनपर सबकी नज़र रहेगी . मसलन महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा पर काबू  करने की जिस  मंशा की बात की गयी है अगर वह  लागू हो गयी तो भारत दुनिया के सभ्य देशों की सूची में काफी ऊपर पंहुंच जायेगा .

अपने अभिभाषण में केंद्र सरकार की पांच साल की योजनाओं का ज़िक्र तो राष्ट्रपति जी ने किया ही , कई बार उन्होंने ऐसी योजनाओं का ज़िक्र भी किया जिनके पूरा होने में दस साल से भी ज़्यादा समय लग सकता है . मूल रूप से बड़े उद्योगों के ज़रिये रोज़गार सृजन करने की सम्भावनाओं का लगभग हर योजना में उल्लेख था . खेती में निबेश को बढ़ावा देने की बात थी तो रेलवे के  विकास के बारे में उनकी रूपरेखा से बिलकुल साफ़ लग रहा था कि अब रेलवे में बड़े पैमाने पर तथाकथित पी पी पी माडल के ज़रिये निजीकरण की शुरुआत होने वाली है . पानी की सुरक्षा और उसकी व्यवस्था के बारे में मौजूदा सरकार बहुत गंभीर है और प्रधानमंत्री सिंचाई योजना लाने की मंशा का ऐलान भी बाकायदा किया गया  . शिक्षा के क्षेत्र में प्रधानमन्त्री के हुनर विकास योजना  को प्रमुखता से लागू करने की बात भी की गयी. उन्होंने प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना ,सेना में समान रैंक ,सामान पेंशन योजना ,प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन के लिए नीति,सुरक्षाबलों के लिए आधुनिक ,सागरमाला प्रोजेक्ट ,नेशनल मिशन ऑफ हिमालय ,हर परिवार को पक्का घरशौंचालय, १००  नए शहर, पूर्वोत्तर और पहाड़ी राज्यों में रेल नेटवर्क,हाई स्पीड ट्रेन , काला धन लाने के लिए एसआईटी , स्वच्छ भारत मिशन आदि बहुत सारे नारों का उल्लेख किया जो कि मौजूदा सरकार की योजनाओं  का हिस्सा हैं . हर हाथ को हुनर , हर खेत को पानी का जो बीजेपी या उसकी पूर्ववर्ती जनसंघ का पुराना ऩारा  है उसको भी अपने भाषण में शामिल किया
सरकारी हिसाब किताब का डिजिटाइजेशन,बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ कार्यक्रम , कश्मीरी पंडितों को घाटी में लौटाने की योजना, राज्य और केंद्र का टीम इंडिया की अवधारणा आदि ऐसी योजनायें हैं जिनपर पूरे देश की नज़र रहेगी .

एक भारत , श्रेष्ठ भारत , प्रधानमंत्री का प्रिय चुनावी नारा था जो राष्ट्रपति जी के भाषण में इस्तेमाल हुआ .  यह अलग बात है कि इस नारे  को नीति के स्तर पर कैसे लागू किया जाएगा ,इसके बारे में सही योजना का  उल्लेख नहीं किया गया . कुल मिलाकर राष्ट्रपति का अभिभाषण उन सभी वायदों से भरा हुआ था . देखना दिलचस्प होगा कि इनमें से कितनों को मौजूदा सरकार लागू कर पाती है .

संसदीय लोकतंत्र में सरकार से कम नहीं है विपक्ष की ज़िम्मेदारी





शेष नारायण सिंह 


कांग्रेस पार्टी ने राज्यसभा में गुलाम नबी आज़ाद को नेता और आनंद शर्मा को उपनेता तैनात कर दिया है .सबको मालूम है कि अगर राज्यसभा के साठ से भी अधिक कांग्रेसी सांसदों की राय ली गयी होती तो इन दोनों में से कोई न चुना जाता .ज़ाहिर है दिल्ली शहर के जनपथ और तुगलक लेन के साकिनों की मेहरबानी से यह हुआ है .इस तैनाती के साथ ही लगता है कि कांग्रेस ने  एक संगठन के रूप में अपनी जिजीविषा को भी तिलांजलि दे दी है. और एक संगठन के रूप में  संघर्षशील जनता के प्रतिनिधि के रूप में देश की राजनीति में बने रहने की इच्छा को अलविदा कह दिया है . प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकसभा चुनाव के अभियान के दौरान अक्सर कहा करते थे कि देश को कांग्रेसमुक्त भारत चाहिए .ऐसा लगता  है कि प्रधानमंत्री की उस इच्छा को पूरा करने में कांग्रेस का मौजूदा  नेतृत्व भी अपना योगदान कर रहा है . इन दो महानुभावों के बारे में इस तरह की टिप्पणी का मतलब यह कतई नहीं है कि यह बताया जाए कि किसी भी संघर्ष में इनकी कहीं कोई भूमिका नहीं है . यह भी बताना उद्देश्य नहीं  है कि पी वी नरसिम्हा राव समेत दिल्ली के ताक़तवर कांग्रेसियों के ख़ास शिष्य के रूप में गुलाम नबी आज़ाद ने लोकसभा में भी प्रवेश पा लिया था . यह भी बताने की ज़रुरत नहीं है कि अपने राज्य ,जम्मू कश्मीर की राजनीति में उनका केवल योगदान यह है कि दिल्ली दरबार के प्रतिनिधि के रूप में वहां  वे मुख्यमंत्री रहे हैं . जहां तक जनसमर्थन की बात है , वह वहां भी नहीं रहा  है क्योंकि इस बार के लोकसभा चुनाव में पराजित होकर आये हैं . यहाँ इस विषय पर चर्चा करना  भी ठीक नहीं होगा कि आनंद शर्मा का देश की राजनीति में सबसे बड़ा योगदान कभी इंदिरा गांधी और कभी राजीव गांधी का कृपापात्र बने रहने के सिवा कुछ नहीं है . यह भी कहने की ज़रुरत नहीं है कि युवक कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में आनंद शर्मा ने ही देश के कांग्रेस से सहानुभूति रखने वाले नौजवानों को दरबारगीरी की संस्कृति का महत्त्व समझाया था .
कांग्रेस पार्टी का कौन नेता हो या कौन डस्टबिन में फेंक दिया जाए यह उनका अपना मामला है  लेकिन कांग्रेस पार्टी देश की आज़ादी की लड़ाई की विरासत का निशान है ,यह बात किसी भी कांग्रेसी को नहीं भूलना चाहिए .समझ में नहीं  आता कि जब डॉ मनमोहन सिंह  पिछले दस साल से राज्यसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता थे तो उनको हटाने की क्या ज़रूरत थी. कांग्रेस के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के इर्दगिर्द गणेश परिक्रमा करने वाले कांग्रेस नेताओं के समूह ने पिछले दस वर्षों से हमेशा यह कोशिश की है कि कांग्रेस या यू पी ए सरकार की हर सफलता के लिए सोनिया गांधी या राहुल गांधी की तारीफ़ की जाए और अगर कहीं कोई विफलता  हो तो उसका ठीकरा डॉ मनमोहन सिंह के सर मढ़ दिया जाए.  यहाँ यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि  डॉ मनमोहन सिंह दस वर्षों तक प्राक्सी प्रधानमंत्री ही रहे हैं. पहले कांग्रेस अध्यक्ष की बात पूरी तरह से मानी जाती थी ,बाद में पार्टी के उपाध्यक्ष जी नानसेंस आदि के संबोधनों से मनमोहन सरकार के फैसलों को विभूषित किया करते थे.. तो जब किसी प्राक्सी को ही राज्यसभा में नेता बनाया जाना था तो डॉ मनमोहन सिंह में क्या कमी थी.
कांग्रेस पार्टी के आलाकमान को शायद यह समझ में नहीं आ रहा है कि उनकी पार्टी किसी परिवार की पार्टी नहीं है . यहाँ आज़ादी की लड़ाई में कांग्रेस की भूमिका का ज़िक्र करके बात को ऐतिहासिक सन्दर्भ देने की भी मंशा नहीं है. बस यह याद दिला देना है की संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका सरकारी पक्ष से कम नहीं होती, कई बार तो ज़्यादा  ही होती है . १९७१ में इंदिरा गांधी भारी बहुमत से जीतकर आयी थीं और  विपक्ष में संख्या के लिहाज़ से बहुत सांसद थे लेकिन उन सांसदों में  देशहित का भाव सर्वोच्च था . उन सब को मालूम था कि वे आने वाले समय में सरकार में नहीं शामिल होने वाले थे क्योंकि देश में कभी गैरकांग्रेसी सरकार ही नहीं बनी थी . उनको मालूम था कि उनकी राजनीति मूलरूप से सरकार पर नज़र रखने की राजनीति ही थी लेकिन उस दौर में  इंदिरा गांधी की कोई भी जनविरोधी नीति संसद में चुनौती से बच नहीं सकी. तत्कालीन प्रधानमंत्री के बेटे संजय गांधी की मारुति फैकटरी  और उससे जुड़ी भ्रष्टाचार की गाथाएँ देश के बड़े भाग में लोगों को मालूम थीं . पांडिचेरी लाइसेंस घोटाला की हर जानकारी जनता तक पंहुंच रही थी. यह यह समझ लेना ज़रूरी है कि उन दिनों २४ घंटे का टेलिविज़न नहीं था , मात्र कुछ अखबार थे जिनकी वजह से सारी जानकारी जनता तक पंहुचती थी.१९७७ में भी विपक्ष की भूमिका किसी से कम नहीं थी. इंदिरा गांधी खुद चुनाव हार गयी थीं . कांग्रेस पार्टी के हौसले पस्त थे लेकिन कुछ ही दिनों में विपक्ष ने सरकार के हर काम को पब्लिक स्क्रूटिनी के दायरे में डाल दिया .सब ठीक हो गया और मोरारजी देसाई की सरकार में काम करने वाले भ्रष्ट मंत्रियों की ज़िंदगी दुश्वार हो गयी क्योंकि सरकार के हर काम पर कांग्रेसी विपक्ष की नज़र थी . राजीव गांधी भी जब लोकसभा में विपक्ष के नेता थे तो विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार को माकूल विपक्ष मिला और जब राजा ने खुद ही यह साबित कर दिया कि राजकाज के मामले में वी पी सिंह बहुत ही लचर थे तो उनको हटाकर अस्थायी ही सही  , एक नया और राजनीतिज्ञ प्रधानमंत्री देश को दे दिया . जानकार बताते हैं की अगर उन दिनों चंद्र्शेखर जी को प्रधानमंत्री न बनाया गया  होता तो वी पी सिंह की सरकार की कमज़ोर राजनीतिक कुशलता के चलते, कश्मीर और पंजाब में आई एस आई  की कृपा से चल रहा आतंकवाद देश की अस्मिता पर भारी पड़ जाता .
 सबको मालूम है कि लोकसभा में बीजेपी का स्पष्ट बहुमत है और राज्यसभा में ही उनकी नीतियों की सही निगरानी  होगी .ऐसी स्थिति में  कांग्रेस आलाकमान ने अपनी पिछली टुकड़ी के वफादार टाइप नेताओं को राज्यसभा का चार्ज देकर देश के लोकतंत्र के साथ न्याय नहीं किया है .  जिस तरह से नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव का संचालन किया है उसके कारण देश के संसदीय लोकतंत्र के सामने अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है .लगता है कि सब कुछ राष्ट्रपति प्रणाली की तरफ बढ़ रहा है . ऐसी हालत  में मुख्य विपक्षी दल की तरफ से कमजोरी का संकेत देना राष्ट्रहित में नहीं है .

चीन से सम्बन्ध सुधारने की सकारात्मक पहल फिर शुरू , लेकिन रास्ते बहुत ही मुश्किल हैं



शेष नारायण सिंह 

चीन के विदेशमंत्री की नई दिल्ली यात्रा संपन्न हो गयी . जैसा कि सब को मालूम है कुछ खास हासिल नहीं हुआ. होना भी नहीं था क्योंकि दोनों देशों के आपसी रिश्तों में खटास इतनी ज़्यादा है कि मामूली बातचीत से कुछ हासिल होने वाला नहीं है .गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई बार चीन की यात्रा की थी और वे उसके विकास से बहुत प्रभावित बताये जाते हैं . लेकिन यह भी सच है कि दोनों देशों के बीच में विवादित मामलों का बहुत बड़ा पहाड़ भी है . यह उम्मीद करना कि विवादों पर चर्चा संभव हो पायेगी ,अभी बहुत जल्दबाजी होगी . लेकिन कभी एक दूसरे के दुशमन रहे दो देशों के बीच अगर बातचीत होती रहे तो कूटनीति की दुनिया में वह भी बहुत बड़ी  बात होती है . इस यात्रा में चीनी विदेशमंत्री मूल रूप से  इस उद्देश्य से  आ रहे हैं की दोनों देश इस बात का  ऐलान कर सकें कि नई हुकूमत में पहले से बेहतर तरीके से संवाद किया जायेगा, दोनों के बीच व्यापार के अवसर हैं,उनको सही परिप्रेक्ष्य में रखा जाएगा. इस यात्रा के नियोजकों को भी मालूम था कि  तिब्बत, पनबिजली योजनायें , ब्रह्मपुत्र विवाद आदि से सम्बंधित मुद्दों पर सांकेतिक भाषा में भी ज़िक्र नहीं होगा . लोकसभा चुनाव के दौरान अरुणाचल प्रदेश के बारे में दिए गए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषणों का भूलकर भी ज़िक्र नहीं किया जाएगा .. प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में प्रवासी तिब्बत सरकार के प्रधानमंत्री लोबसांग सांगे एक सम्मानित अतिथि के रूप में शामिल हुए थे .  विदेश मंत्रालय के आला अधिकारियों को  मालूम है कि चीन ने इस बात का बुरा माना था . ज़ाहिर है इस विषय को भी बातचीत में शामिल नहीं किया गया  .
मूल रूप से इस यात्रा को पड़ोसियों से अच्छे सम्बन्ध बनाने की दिशा में उठाया गया एक क़दम माना जा रहा  है . अपने पदग्रहण समारोह में दक्षेश देशों के शासकों को बुलाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसकी शुरुआत कर दी है . हमको मालूम है कि भारतीय जनता पार्टी की विदेशनीति में पड़ोसी देशों से रिश्तों को सुधारने की लालसा बहुत ही प्रमुख होती  है . जब अटल बिहारी वाजपेयी १९७७ में विदेशमंत्री बने तो उन्होंने पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने को अपनी प्राथमिकता बताया . सांकृतिक आदानप्रदान शुरू हुआ . भारत से पान के पत्तों का निर्यात शुरू हुआ , बहुत बड़े पैमाने पर बांस का भी  निर्यात किया गया . इमरजेंसी ख़त्म होने पर जब जेल से रिहा हुए तो अपने पहले  ही सार्वजनिक भाषण में अटल बिहारी  वाजपयी ने  फैज़ अहमद फैज़ की शायरी को अपना बड़ा संबल बताया और कहा कि फैज़ का वह शेर  " कूए यार से निकले तो सूए दार चले " उन्हें जेल में बहुत अच्छा लगता था . नतीजा यह हुआ कि फैज़ भी आये और इकबाल बानो भी आयीं , मुन्नी बेगम भी आयीं . लेकिन उसी दौर में भारत की लाख विरोध के बावजूद भी तत्कालीन पाकिस्तानी तानाशाह जनरल ज़िया उल हक  ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो को फांसी दे दी, और भारत से दुश्मनी की फौजी संस्कृति की शुरुआत कर दी . उसी दौर में यह हाफ़िज़ सईद उनका धार्मिक सलाहकार तैनात हुआ था और हम जानते हैं कि एक हाफ़िज़ सईद ने दोनों देशो के बीच दुश्मनी का जो माहौल तैयार किया है उससे इस इलाके में शान्ति को सबसे बड़ा खतरा  है . दोबारा जब अटल जी प्रधानमंत्री के रूप में
सत्ता में आये तो पाकिस्तान से रिश्ते   सुधारने के लिए बस पर बैठकर लाहौर गए और सबको मालूम है कि शान्ति की बात तो दूर वहां पाकिस्तानी फौजें कारगिल में भारत के खिलाफ हमला कर चुकी थीं. वह तो हमारी फौजों ने इज्ज़त बचा ली वरना कारगिल में भारी मुश्किल पैदा हो चुकी थी . पाकिस्तान से दोस्ती बढाने के लिए नरेंद्र मोदी ने ज़रूरी पहल तो कर दी है लेकिन सबको पता है कि वहां के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ की हैसियत पाकिस्तानी भारत नीति में लगभग नगण्य होती है . सारे फैसले फौज और आई एस आई करती है .
इस पृष्ठभूमि  में चीन से सकारात्मक संवाद की शुरुआत अच्छी बात है लेकिन रास्ता बहुत बड़े बीहड़ों से होकर गुज़रता है .इसलिए संवाद का लक्ष्य ही हासिल हो जाए तो बहुत अच्छा माना जायेगा लेकिन दुर्भाग्य यह है कि शुरू में ब्रितानी साम्राज्यवाद और बाद में अमरीकी साम्राज्यवाद का शिकार रहे इस इलाके में विदेशी शक्तियों का बहुत ही नाजायज़ प्रभाव रहता है . ब्रिटेन और अमरीका के बाद आजकल चीन इस इलाके में अपना प्रभुत्व स्थापित करने की फ़िराक में है चीनी विदेशमंत्री वांग यी की यात्रा इस इलाके में शान्ति और सुलह का माहौल बनाए रखने के लिए बहुत अहम क़दम है लेकिन चीन के प्रभुत्वकामी हुक्मरानों की मंशा के मद्देनज़र उसके साथ रिश्ते सुधारने के चक्कर में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए . हमें इतिहास का ध्यान रखना चाहिए क्योंकि जो इतिहास को ध्यान में नहीं रखते वे खुद ही एक दुखद इतिहास बनने का खतरा मोल लेते हैं . चीन से अच्छे सम्बन्ध बनाने के लिए जवाहरलाल नेहरू ने हर कोशिश की थी लेकिन सब कुछ बहुत जल्दी  ही चीनी विस्तारवाद का शिकार हो गया. आठ फरवरी १९६० को जब राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने संसद को दोनों सदनों को बजट सत्र की शुरुआत के वक़्त संबोधित किया तो उसमें साफ़ चिंता  जताई गयी कि चीन भारतीय सीमा पर अपने सैनिक झोंक रहा है . हालांकि चीनी हमला वास्तव  में १९६२ में हुआ लेकिन १९६० में ही मामला इतना गंभीर हो चुका था कि राष्ट्रपति को अपने संबोधन में इस मद्दे को मुख्य विषय बनाना पडा.
मौजूदा यात्रा केवल जान पहचान बढाने वाली यात्रा के रूप में देखी जा रही है और २०१५ तक १०० अरब डालर का आपसी व्यापार वाला लक्ष्य हासिल  करने की दिशा में एक ज़रूरी क़दम  मानी जा रही है . ब्राज़ील में, ब्रिक्स ( ब्राजील ,भारत, चीन रूस और दक्षिण अफ्रीका ) सम्मलेन के दौरान  होने वाली  शासनाध्यक्षों की मुलाक़ात के सन्दर्भ में भी यह यात्रा महत्वपूर्ण है क्योंकि वहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति जी जिनपिंग की मुलाक़ात होगी .  ज़ाहिर है चीनी विदेशमंत्री की इस यात्रा से ब्रिक्स में बातचीत करने के कुछ बिंदु निकाले जा रहे हैं .इस्सके अलावा इस यात्रा से बहुत उम्मीद करना जल्दबाजी होगी .