Tuesday, June 10, 2014

चीन से सम्बन्ध सुधारने की सकारात्मक पहल फिर शुरू , लेकिन रास्ते बहुत ही मुश्किल हैं



शेष नारायण सिंह 

चीन के विदेशमंत्री की नई दिल्ली यात्रा संपन्न हो गयी . जैसा कि सब को मालूम है कुछ खास हासिल नहीं हुआ. होना भी नहीं था क्योंकि दोनों देशों के आपसी रिश्तों में खटास इतनी ज़्यादा है कि मामूली बातचीत से कुछ हासिल होने वाला नहीं है .गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई बार चीन की यात्रा की थी और वे उसके विकास से बहुत प्रभावित बताये जाते हैं . लेकिन यह भी सच है कि दोनों देशों के बीच में विवादित मामलों का बहुत बड़ा पहाड़ भी है . यह उम्मीद करना कि विवादों पर चर्चा संभव हो पायेगी ,अभी बहुत जल्दबाजी होगी . लेकिन कभी एक दूसरे के दुशमन रहे दो देशों के बीच अगर बातचीत होती रहे तो कूटनीति की दुनिया में वह भी बहुत बड़ी  बात होती है . इस यात्रा में चीनी विदेशमंत्री मूल रूप से  इस उद्देश्य से  आ रहे हैं की दोनों देश इस बात का  ऐलान कर सकें कि नई हुकूमत में पहले से बेहतर तरीके से संवाद किया जायेगा, दोनों के बीच व्यापार के अवसर हैं,उनको सही परिप्रेक्ष्य में रखा जाएगा. इस यात्रा के नियोजकों को भी मालूम था कि  तिब्बत, पनबिजली योजनायें , ब्रह्मपुत्र विवाद आदि से सम्बंधित मुद्दों पर सांकेतिक भाषा में भी ज़िक्र नहीं होगा . लोकसभा चुनाव के दौरान अरुणाचल प्रदेश के बारे में दिए गए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषणों का भूलकर भी ज़िक्र नहीं किया जाएगा .. प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में प्रवासी तिब्बत सरकार के प्रधानमंत्री लोबसांग सांगे एक सम्मानित अतिथि के रूप में शामिल हुए थे .  विदेश मंत्रालय के आला अधिकारियों को  मालूम है कि चीन ने इस बात का बुरा माना था . ज़ाहिर है इस विषय को भी बातचीत में शामिल नहीं किया गया  .
मूल रूप से इस यात्रा को पड़ोसियों से अच्छे सम्बन्ध बनाने की दिशा में उठाया गया एक क़दम माना जा रहा  है . अपने पदग्रहण समारोह में दक्षेश देशों के शासकों को बुलाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसकी शुरुआत कर दी है . हमको मालूम है कि भारतीय जनता पार्टी की विदेशनीति में पड़ोसी देशों से रिश्तों को सुधारने की लालसा बहुत ही प्रमुख होती  है . जब अटल बिहारी वाजपेयी १९७७ में विदेशमंत्री बने तो उन्होंने पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने को अपनी प्राथमिकता बताया . सांकृतिक आदानप्रदान शुरू हुआ . भारत से पान के पत्तों का निर्यात शुरू हुआ , बहुत बड़े पैमाने पर बांस का भी  निर्यात किया गया . इमरजेंसी ख़त्म होने पर जब जेल से रिहा हुए तो अपने पहले  ही सार्वजनिक भाषण में अटल बिहारी  वाजपयी ने  फैज़ अहमद फैज़ की शायरी को अपना बड़ा संबल बताया और कहा कि फैज़ का वह शेर  " कूए यार से निकले तो सूए दार चले " उन्हें जेल में बहुत अच्छा लगता था . नतीजा यह हुआ कि फैज़ भी आये और इकबाल बानो भी आयीं , मुन्नी बेगम भी आयीं . लेकिन उसी दौर में भारत की लाख विरोध के बावजूद भी तत्कालीन पाकिस्तानी तानाशाह जनरल ज़िया उल हक  ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो को फांसी दे दी, और भारत से दुश्मनी की फौजी संस्कृति की शुरुआत कर दी . उसी दौर में यह हाफ़िज़ सईद उनका धार्मिक सलाहकार तैनात हुआ था और हम जानते हैं कि एक हाफ़िज़ सईद ने दोनों देशो के बीच दुश्मनी का जो माहौल तैयार किया है उससे इस इलाके में शान्ति को सबसे बड़ा खतरा  है . दोबारा जब अटल जी प्रधानमंत्री के रूप में
सत्ता में आये तो पाकिस्तान से रिश्ते   सुधारने के लिए बस पर बैठकर लाहौर गए और सबको मालूम है कि शान्ति की बात तो दूर वहां पाकिस्तानी फौजें कारगिल में भारत के खिलाफ हमला कर चुकी थीं. वह तो हमारी फौजों ने इज्ज़त बचा ली वरना कारगिल में भारी मुश्किल पैदा हो चुकी थी . पाकिस्तान से दोस्ती बढाने के लिए नरेंद्र मोदी ने ज़रूरी पहल तो कर दी है लेकिन सबको पता है कि वहां के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ की हैसियत पाकिस्तानी भारत नीति में लगभग नगण्य होती है . सारे फैसले फौज और आई एस आई करती है .
इस पृष्ठभूमि  में चीन से सकारात्मक संवाद की शुरुआत अच्छी बात है लेकिन रास्ता बहुत बड़े बीहड़ों से होकर गुज़रता है .इसलिए संवाद का लक्ष्य ही हासिल हो जाए तो बहुत अच्छा माना जायेगा लेकिन दुर्भाग्य यह है कि शुरू में ब्रितानी साम्राज्यवाद और बाद में अमरीकी साम्राज्यवाद का शिकार रहे इस इलाके में विदेशी शक्तियों का बहुत ही नाजायज़ प्रभाव रहता है . ब्रिटेन और अमरीका के बाद आजकल चीन इस इलाके में अपना प्रभुत्व स्थापित करने की फ़िराक में है चीनी विदेशमंत्री वांग यी की यात्रा इस इलाके में शान्ति और सुलह का माहौल बनाए रखने के लिए बहुत अहम क़दम है लेकिन चीन के प्रभुत्वकामी हुक्मरानों की मंशा के मद्देनज़र उसके साथ रिश्ते सुधारने के चक्कर में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए . हमें इतिहास का ध्यान रखना चाहिए क्योंकि जो इतिहास को ध्यान में नहीं रखते वे खुद ही एक दुखद इतिहास बनने का खतरा मोल लेते हैं . चीन से अच्छे सम्बन्ध बनाने के लिए जवाहरलाल नेहरू ने हर कोशिश की थी लेकिन सब कुछ बहुत जल्दी  ही चीनी विस्तारवाद का शिकार हो गया. आठ फरवरी १९६० को जब राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने संसद को दोनों सदनों को बजट सत्र की शुरुआत के वक़्त संबोधित किया तो उसमें साफ़ चिंता  जताई गयी कि चीन भारतीय सीमा पर अपने सैनिक झोंक रहा है . हालांकि चीनी हमला वास्तव  में १९६२ में हुआ लेकिन १९६० में ही मामला इतना गंभीर हो चुका था कि राष्ट्रपति को अपने संबोधन में इस मद्दे को मुख्य विषय बनाना पडा.
मौजूदा यात्रा केवल जान पहचान बढाने वाली यात्रा के रूप में देखी जा रही है और २०१५ तक १०० अरब डालर का आपसी व्यापार वाला लक्ष्य हासिल  करने की दिशा में एक ज़रूरी क़दम  मानी जा रही है . ब्राज़ील में, ब्रिक्स ( ब्राजील ,भारत, चीन रूस और दक्षिण अफ्रीका ) सम्मलेन के दौरान  होने वाली  शासनाध्यक्षों की मुलाक़ात के सन्दर्भ में भी यह यात्रा महत्वपूर्ण है क्योंकि वहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति जी जिनपिंग की मुलाक़ात होगी .  ज़ाहिर है चीनी विदेशमंत्री की इस यात्रा से ब्रिक्स में बातचीत करने के कुछ बिंदु निकाले जा रहे हैं .इस्सके अलावा इस यात्रा से बहुत उम्मीद करना जल्दबाजी होगी .

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