शेष नारायण सिंह
पश्चिम बंगाल का विधान सभा चुनाव के पहले दौर का वोट पड़ चुका है . इसके साथ ही चुनाव अभियान और माहौल बहुत ही दिलचस्प हो गया है . अभी छः महीने पहले तक जो तृणमूल कांग्रेस और ममता बनर्जी अजेय मानी जा रही थीं, उनको कांग्रेस और लेफ्ट फ्रंट से ज़बरदस्त टक्कर मिल रही है . दिल्ली में बैठे ज्ञानी २०११ और २०१४ के चुनावी आंकड़ों के प्रतिशत को आधार बनाकर भांति भांति की भविष्यवाणियां कर रहे हैं. लेकिन इन आंकड़ों का कोई मतलब नहीं है . २०११ में कांग्रेस और ममता बनर्जी का गठ्बंधन था और २०१४ का लोकसभा चुनाव , मोदी लहर का चुनाव था. इस बार दोनों ही परिस्थितियाँ नहीं हैं . कांग्रेस लेफ्ट फ्रंट के साथ है , लेफ्ट फ्रंट का पुराना अहंकारी नेतृव अब बदल गया है और कार्यकर्ता अब औकात बोध की स्थिति में है . ममता बनर्जी के पक्ष में २०११ जैसी लहर तो बिलकुल नहीं है, हाँ आम इंसान की बहुत सारी उम्मीदें जो पिछले विधान सभा चुनाव में ममता बनर्जी के अभियान से जुड़ गयी थीं , वे अब निराशा में बदल चुकी हैं . ग्रामीण बंगाल में समीकरणों के हालात बिलकुल बदल चुके हैं . लेफ्ट फ्रंट के करीब ४३ साल के राज के बाद ग्रामीण इलाकों में पश्चिम बंगाल की वामपंथी राजनीति में एक शून्य उभर आया था. इस संवाददाता ने बंगाल के ग्रामीण इलाकों से लौटकर लिखा था कि " हो सकता है कार्यकर्ताओं के बीच फैला हुआ शून्य इतना व्यापक हो जाए कि वामपंथी राजनीति के गढ़ पश्चिम बंगाल में ही वामपंथ इतना कमजोर पड़ जाए कि लालिकले पर लाल निशान फहराने की तमन्ना पश्चिम बंगाल में ही हवा हो जाए. " इसका कारण यह था जब ज्योति बसु ने अपने आपको सत्ता से अलग कर लिया था तो उनके वारिसों ने ग्रामीण किसान और बटाईदारों में पक्ष में काम करने वाली सरकार और पार्टी को एक ऐसे संगठन के रूप में बदल दिया था जो अन्य राज्यों के मुकामी राजनीतिक गुंडों की जमात की तरह का आचरण करने लगा था . ग्रामीण स्तर पर पार्टी का इंचार्ज उस इलाके का नेता सबसे प्रभाव शाली गुंडे के रूप में पहचाना जाने लगा था . उसी ग्रामीण बदमाशी तंत्र से जान छुडाने के लिए जनता ने परिवर्तन की गुहार लगाई और तृणमूल कांग्रेस की सरकार बना दी.
ममता बनर्जी की अगुवाई में सरकार बन गयी और ग्रामीण क्षेत्रों में लेफ्ट फ्रंट के गुंडों के स्थान पर तृणमूल के गुंडे काबिज़ हो गए और कम्युनिस्ट राज की तरह का आतंक शुरू हो गया. इसलिए ग्रामीण बंगाल में ममता बनर्जी के प्रति वह उत्साह नहीं है जो २०११ में देखा जा रहा था.
ममता बनर्जी को चुनौती और कई तरह से मिल रही है लेकिन उनसे जो रणनीतिक चूक हुयी है, वह सबसे महत्वपूर्ण है . उन्होंने सोच रखा था कि लेफ्ट फ्रंट से तो उनकी पार्टी मुकाबला करेगी लेकिन कांग्रेस और बीजेपी को आपस में लड़ा देगीं . अगर ऐसा हुआ होता तो मध्यवर्ग का जो सेक्शन ममता बनर्जी की सरकार से नाराज़ है , वह आपस में ही लड़ जाता और ममता की पार्टी के खिलाफ वोट न डाल पाता. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. कांग्रेस और लेफ्ट फ्रंट में सहयोग की बात लगभग अकल्पनीय मानी जा रही थी लेकिन आज दोनों मिलकर मैदान में हैं . इसका एक नतीजा तो यह है कि बीजेपी का अब पश्चिम बंगाल में केवल सांकेतिक हिस्सा ही रह गया है . चुनाव सीधे सीधे तृणमूल और लेफ्ट फ्रंट-कांग्रेस जोत के बीच हो गया है . ग्रामीण पश्चिम बंगाल की मुस्लिम आबादी इन चुनावों में बहुत ही महत्वपूर्ण हो गयी है . पिछले चुनावों में उसने काग्रेस को लगभग दरकिनार कर दिया था लेकिन इस बार मुसलमान के दिमाग में एक बात बार बार घूम रही है और वह ज़मीनी स्तर पर नज़र भी आ रही है और वह यह कि जिस तरह से केंद्र की बीजेपी सरकार ने मुस्लिम विरोधी अभियान चला रखा है , उसको अगर कोई रोक सकता है तो वह कांग्रेस ही है . आम तौर पर माना जा रहा है कि लेफ्ट फ्रंट और ममता बनर्जी का पूरे देश के स्तर पर कोई प्रभाव नहीं है इसलिए उनको बीजेपी के चुनौती देने वाले के रूप में पेश नहीं किया जा सकता. स्थानीय उर्दू और बँगला अखबारों में जिस तरह से मौजूदा केंद्र सरकार के ममता बनर्जी के प्रति नरम रुख की ख़बरें छप रही हैं ,उससे भी बहुत फर्क पड़ रहा है . ममता बनर्जी के बारे में तो उनका अटल बिहारी वाजपेयी के प्रति सम्मान भी चर्चा में है . शारदा घोटाले में ममता सरकार के मंत्रियों और नेताओं के प्रति केंन्द्र की नरमी भी तृणमूल और बीजेपी की चुनाव के बाद की संभावित दोस्ती भी हवा में है .शायद मुसलमानों की यह बेरुखी ममता बनर्जी की समझ में आ चुकी है इसीलिए उत्तर बंगाल की हर चुनावी सभा में वे पूर्व रेल मंत्री और कांग्रेस के बड़े नेता ए बी ए गनी खान चौधरी का नाम बार बार लेती रहती हैं . वे दावा करती हैं कि बरकत दा उनके राजनीतिक गुरु वगैरह भी थे लेकिन इन बातों का ज़रूरी असर नहीं पड़ रहा है .
ममता बनर्जी की खिलाफ गरीबों को मिलने वाले सस्ते राशन में कटौती का मामला भी भारी पड़ रहा है . ग्रामीण इलाकों में तृणमूल के मुकामी नेताओं के आतंक के कारण कोई खुल कर सामने नहीं आ रहा है लेकिन बाहरी लोगों के सामने लोग अपने गुस्से का इज़हार कर दे रहे हैं . ममता बनर्जी के साथ २०११ के चुनावों में बंगाली भद्रलोक लगभग पूरी तरह से था लेकिन इस बार ऐसा कुछ नहीं हैं. बुद्धिजीवी और कलाकार चुप हैं इसलिए चुनाव पर भी उसका असर पडेगा , ऐसा माना जा रहा है .
आम तौर पर माना जा रहा है कि तृणमूल कांग्रेस के पास अभी भी करीब ४० प्रतिशत वोट है . अगर कांग्रेस ,बीजेपी और लेफ्ट फ्रंट अलग अलग होते तो एक बार ममता बनर्जी की सरकार बनाना पक्का हो जाता लेकिन अब माहौल बदल चुका है . अगर करीब ३८ प्रतिशत लेफ्ट फ्रंट और ९ प्रतिशत कांग्रेस जोड़ दिया जाया तो यह ममता के खिलाफ चला जाएगा . सच्चाई यह है कि ममता के वोट कम होंगें और जोत के वोट बढ़ेगें . ऐसी स्थिति में आज पश्चिम बंगाल की राजनीति में कुछ भी पक्का नहीं है .
२०१०-११ में जब ममता बनर्जी परिवर्तन वाला चुनाव अभियान चला रही थीं तो उन्होंने ऐलान किया था कि पूरे भारत में घरेलू नौकर के रूप में पहचान बना रही बंगाली आबादी को वहां से वापस बुलाकर अपने राज्य में ही सम्मान पूर्वक बसाया जाएगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ. देश के हर महानगर के आसपास के नए विकसित हो रहे शहरों में बंगाली नौकरों की मौजूदगी ममता बनर्जी के चुनावी वादों की नाकामी की कहानी बयान कर रहे हैं . राज्य में उनकी पहचान एक दम्भी इंसान की भी बन गयी है. मदन मित्रा उनके करीबी हैं , तृणमूल के बड़े नेता हैं और जेल में हैं . उनको भी महत्व देकर ममता बनर्जी ने साबित कर दिया है कि वे स्थानीय भावनाओं की परवाह नहीं करतीं , जो वे समझती हैं वही सही है . कोलकता के बीच में बन रहे भ्रष्टाचार के पुल की दुर्दशा भी सत्ताधारी पार्टी पर भारी पड़ने वाला है . ऐसी स्थिति में ममता बनर्जी की चुनावी स्स्थिति बहुत ही कमज़ोर हो गयी है . इस बात की संभावना लगातार बनी हुयी है कि इस बार भी रायटर्स बिल्डिंग में परिवर्तन दोबारा न हो जाए .