Monday, April 25, 2016

आर एस एस की सोच में बदलाव की ज़रुरत है


शेष नारायण सिंह 




 राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के यूनिफार्म में एक बार फिर बदलाव कर दिया गया है . १९२५  में जब आर एस एस की स्थापना हुयी थी तब से उनके कार्यकर्ताओं की यूनिफार्म का हिस्सा रहा खाकी निकर अब बदल दिया गया है . अब  आर एस एस के स्वयंसेवक फुल पैंट पहना करेगें . इसके  पहले भी दो एक बार  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ  वालों ने अपने कार्यकर्ताओं की वर्दी में बदलाव  किया था. हालांकि खाकी निकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों की पहचान का हिस्सा शुरू से ही बना रहा था . दिलचस्प बात यह है कि कुछ टी वी चैनलों ने आर एस  एस की वर्दी में हुए बदलाव को  राष्ट्रीय महत्त्व की बात माना और निकर की फुल पैंट तक की  यात्रा को राष्ट्रीय बहस के मुद्दा बनाने की कोशिश की .  इस बात से इनकार नहीं किया जा  सकता कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में बड़े बदलाव की ज़रुरत है . उनके सदस्य अब पूरी तरह से सत्ता में हैं , कार्यपालिका,  विधायिका,  नौकरशाही, मीडिया हर जगह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ  के स्वयंसेवक महत्वपूर्ण पदों पर बैठाए जा रहे हैं . मुझे निजी तौर पर इन नियुक्तियों के बारे में कोई एतराज़ नहीं है , बल्कि मैं मानता हूँ कि अपने बन्दों को अच्छे पदों पर नियुक्त करने की जो परम्परा १९७१ के बाद से कांग्रेस ने डाली थी उसकी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ  वाले भी आगे बढ़ा रहे हैं .. उनको भी अपने चेलों को महत्वपूर्ण पदों पर भर्ती करने का उतना ही अधिकार है जितना कांग्रेसियों को था  या यू पी ए के पहले शासन काल में कम्युनिस्टों को था. बस मेरा सीमित तर्क यह है कि अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ  देश की सत्ता का मालिक है , उसकी मातहत एक पार्टी केंद्र में स्पष्ट  बहुमत के साथ सत्ता में है और देश के हर विश्वविद्यालय में उनके सदस्य एबीवीपी की ज़रिये  कैम्पस की मुकामी राजनीति में सक्रिय हैं ,नौकरशाही में भी उनके सदस्यों की भरमार है इसलिए अब उनके किसी भी फैसले से देश की पूरी आबादी प्रभावित होगी . अभी पूरी दुनिया ने देखा कि किस तरह  से हैदराबाद और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में में कैम्पस में अपनी राजनीति चमकाने के  के लिए  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्यों ने देश की कैसी तस्वीर पेश कर दी . इस से बचना होगा . आर एस एस के नागपुर स्थित मालिकों और दिल्ली में उनके संगठन की तरफ से राज कर रहे लोगों को हमेशा याद रखना होगा कि १२५ करोड़ देशवासियों की जनसँख्या में उनको केवल १७ करोड़ (171,657,549 ) के आस पास वोट ही मिले हैं. हमारी संवैधानिक व्यवस्था है कि उनको पूरे देश का नेतृत्व करना है. जाहिर है कि आर एस एस को अपनी निकर के साथ साथ अपनी सोच को भी एक ऐसी राजनीतिक पार्टी के रूप में बदलना होगा जिसको अब सत्ता पाने के लिए संघर्ष नहीं  करना है , अब सत्ता मिल चुकी है . जिन लोगों पर हुकूमत करने का उनको अधिकार मिला है उनमें ऐसे भी लोग हैं जो आर एस  एस को किसी भी कीमत पर सत्ता नहीं देना चाहते थे लेकिन अब उनको भी मौजूदा स्थिति को स्वीकार करना पडेगा. ऐसी स्थिति में आर एस एस की राजनीतिक समझदारी को पूरे देश के  लिए इन्क्लूसिव बनाना पडेगा .



संतोष की बात यह है कि मौजूदा सरकार और आर एस एस के नेता अब महात्मा गांधी को  अपना हीरो मानते हैं . अगर महात्मा की नीतियों को भी देश के मौजूदा शासक सामाजिक समरसता के लिए अपना लें तो देश और समाज के लिए बहुत अच्छा होगा. हालांकि यह काम बहुत मुश्किल होगा क्योंकि आज की सत्ताधारी पार्टी और उसके साथियों में बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो महात्मा गांधी के हत्यारों को महान  बताते पाए जाते हैं . आर  एस एस को ऐसे लोगों पर लगाम  लगानी पड़ेगी . 30 जनवरी 1948 को दिल्ली में प्रार्थना के लिए जा रहे  महात्मा जी को एक हत्यारे ने गोली मार दिया था और पूरा देश सन्न रह गया था। आज़ादी की लड़ाई में शामिल सभी राजनीतिक जमातें दुःख में  डूब गयी थी। जो जमातें आज़ादी की लड़ाई में शामिल नहीं थीं, उन्होंने गांधी जी की शहादत पर कोई आंसू नहीं बहाए। ऐसी ही एक जमात हिन्दू महासभा थी . हिन्दू महासभा के कई सदस्यों की साज़िश का ही नतीजा था जिसके कारण महात्मा गांधी की मृत्यु हुयी थी।  हिन्दू महासभा के सदस्यों पर ही  महात्मा गांधी की हत्या का मुक़दमा चला और उनमें से कुछ लोगों को फांसी हुयी, कुछ को आजीवन कारावास हुआ और कुछ तकनीकी आधार पर बच गए। नाथूराम गोडसे ने गोलियां चलायी थीं , उसे फांसी हुयी, उसके भाई गोपाल गोडसे को साज़िश में शामिल पाया गया लेकिन उसे आजीवन कारावास की सज़ा हुयी।  उस वक़्त के आर एस एस के सरसंघचालक एम एस गोलवलकर को भी महात्मा गांधी की हत्या की साज़िश में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार  किया गया था  . सरदार पटेल उन दिनों देश के गृहमंत्री थे और उन्होंने  गोलवलकर से एक अंडरटेकिंग लेकर  कुछ शर्तें मनवा कर जेल से रिहा किया था . बाद के दिनों में आर एस एस ने हिन्दू महासभा से पूरी  तरह से किनारा  कर लिया था। बाद में जनसंघ की स्थापना हुयी और आर एस एस के प्रभाव वाली एक नयी राजनीतिक पार्टी की तैयार हो गयी। आर एस एस के प्रचारक दीन दयाल उपाध्याय  को नागपुर वालों ने जनसंघ का काम करने के लिए भेजा था। बाद में  वे जनसंघ के सबसे बड़े नेता हुए।  1977  तक आर एस एस और जनसंघ वालों ने महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू की नीतियों की खूब जमकर आलोचना की और  गांधी-नेहरू की राजनीतिक  विरासत को ही देश में होने वाली हर परेशानी का कारण बताया . लेकिन 1980 में जब जनता पार्टी को तोड़कर जनसंघ वालों ने   भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की तो पता नहीं क्यों उन्होंने अपनी पार्टी के राजनीतिक उद्देश्यों में  गांधियन  सोशलिज्म को भी शामिल कर लिया। ऐसा शायद इसलिए हुआ होगा कि आज़ादी की लड़ाई में आर एस एस  का कोई आदमी कभी शामिल नहीं हुआ था। नवगठित बीजेपी  को कम से कम  एक ऐसे महान व्यक्ति तलाश थी जिसने आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया हो . हालांकि अपने पूरे जीवन भर महात्मा गांधी कांग्रेस के नेता रहे लेकिन बीजेपी ने उन्हें अपनाने की योजना पर काम करना शुरू कर दिया .और अब आर एस एस और बीजेपी के लोग महात्मा गांधी को अपना पूर्वज मानते हैं . हो सकता है कुछ वर्षों बाद वे इतिहास की किताबों में यह भी लिखवा दें कि महात्मा गांधी ने १९२५ में आर एस एस  की स्थापना में भी सहयोग दिया था.  

अंग्रेज़ी  राज  के  बारे में महात्मा गांधी और आर एस एस में बहुत भारी मतभेद था। महात्मा गांधी अंग्रेजों को हर कीमत पर हटाना चाहते थे  जबकि आर एस एस ने ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे  अंग्रेजों को देश से भगाया अजा सके. 1925 से लेकर 1947 तक आर एस एस को अंग्रेजों के सहयोगी के रूप में देखा जाता है . शायद इसीलिये जब 1942 में भारत छोडो का नारा देने के बाद देश के सभी नेता जेलों में ठूंस दिए गए थे तो आर एस एस के सरसंघचालक एम एस गोलवलकर सहित उनके सभी नेता जेलों के बाहर थे और  अपना सांस्कृतिक काम चला रहे थे .

महात्मा जी की ह्त्या के 30 साल बाद जब आर एस एस वाले जनता पार्टी के सदस्य बने तो उन्हें ऐलानियाँ महात्मा गांधी का विरोध करना बंद किया .महात्मा गांधी से अपनी करीबी और नाथूराम गोडसे से अपनी दूरी साबित करने के लिए आर एस एस ,जनसंघ और बीजेपी के नेताओं ने हमेशा से ही भारी मशक्क़त की है .  आडवानी समेत सभी बड़े नेताओं ने बार बार यह कहा था कि जब महात्मा गांधी की हत्या हुयी तो नाथूराम गोडसे आर एस एस का सदस्य नहीं था .यह बात तकनीकी आधार पर सही हो सकती है लेकिन गांधी जी  की हत्या के अपराध में आजीवन कारावास की सज़ा  काट कर लौटे  नाथू राम गोडसे के भाई , गोपाल गोडसे ने सब गड़बड़ कर दी। उन्होंने अंग्रेज़ी पत्रिका " फ्रंटलाइन " को दिए गए एक इंटरव्यू में बताया कि आडवानी  और बीजेपी के अन्य नेता उनसे दूरी  नहीं  बना सकते। . उसने कहा कि " हम सभी भाई आर एस एस में थे। नाथूराम,दत्तात्रेय . मैं और गोविन्द सभी आर एस एस में थे। आप कह सकते हैं  की हमारा पालन पोषण अपने घर में न होकर आर एस एस में हुआ। . वह हमारे लिए एक परिवार जैसा था।  . नाथूराम आर एस एस के बौद्धिक कार्यवाह बन गए थे।। उन्होंने अपने बयान में यह कहा था कि  उन्होंने आर एस एस छोड़ दिया था . ऐसा उन्होंने  इसलिए कहा क्योंकि महात्मा गांधी की हत्या के बाद गोलवलकर और आर एस एस वाले बहुत परेशानी  में पड़  गए थे। लेकिन उन्होंने कभी भी आर एस एस छोड़ा नहीं था "


महात्मा गांधी को तो मौजूदा शासक वर्ग अपना बता चुका है . अब उनको चाहिए कि वे करीब २० करोड़ उन भारतीयों को भी अपना बना लें जिनका धर्मं इस्लाम है . यह देश मुसलामानों का भी है और हिन्दुओं का भी . हिन्द स्वराज में महात्मा गांधी ने यह बात बहुत साफ़ तौर पर कह दी है .  क्योंकि १७ करोड़ लोगों के वोट लेकर बनी सरकार २० करोड़ लोगों को नज़रन्दाज़ नहीं कर सकती.

No comments:

Post a Comment