Monday, April 25, 2016

कश्मीर की हालात के लिए केवल राजनेता ज़िम्मेदार


शेष नारायण सिंह

कश्मीर एक बार फिर उबाल पर है. उत्तरी कश्मीर के हंदवारा कस्बे में मरने वालों की संख्या चार हो गयी  है .कश्मीर घाटी में चौतरफा विरोध प्रदर्शन हो रहा  है और हालत बहुत ही तनावपूर्ण है .सेना के आला अफसर हंदवारा हो आये हैं और सेना की तरफ से हुई गोलीबारी को अफसोसनाक बताकर अपनी ड्यूटी कर चुके हैं .आरोप तो यह भी लगा था कि एक लड़की के साथ बलात्कार भी हुआ है लेकिन अब उसका बयान आ गया है कि ऐसा कुछ नहीं हुआ. कुछ मुकामी नौजवानों ने ही उसको परेशान किया था .लेकिन यह सच है कि अपने ही घर में काम कर रही एक अन्य महिला की गोलीबारी में मौत हो गयी है .  अलगाववादियों के साथ सहानुभूति रखने वाली और कुछ हलकों में उनकी समर्थक के रूप में नाम कमा चुकी महबूबा मुफ़्ती  और बीजेपी गठ्बंधन सरकार का बड़ा इम्तिहान हो रहा है .

पिछले कई दशकों से कश्मीर में होने वाली अशांति के कारणों में सरकारी कर्मचारियों की भूमिका को गैरजिम्मेदाराना बताकर राजनीतिक बिरादरी अपना पल्ला झाड़ लेती रही है . इस बार ही यह कार्य हो चुका है . एक मामूली पुलिस वाले को मुअत्तल कर दिया गया है क्योंकि बड़े अफसरों की नज़र में सारी गड़बड़ी के लिए वही ज़िम्मेदार है .

कश्मीर का दुर्भाग्य यह रहा है कि सरदार पटेल के अलावा हमारे सभी नेताओं ने भारत में कश्मीर के विलय को फाइनल कभी नहीं माना और उसको हमेशा  पाकिस्तान के संदर्भ में देखते रहे .कश्मीर में हमेशा से ही पाकिस्तान बदमाशी करता रहा है और स्व. शेख अब्दुल्ला के अलावा किसी नेता ने पाकिस्तान को औकात में रखने की कोशिश नहीं की. सरदार पटेल और शेख अब्दुल्ला की कोशिश का नतीजा था  कि पाकिस्तान समर्थक राजा हरि सिंह को मजबूर किया गया कि वह अपनी रियासत को भारत में विलय करने के दस्तावेज़ पर दस्तखत कर दे . उसके ऊपर जिन्ना ने  कबायली हमला करवा दिया था जिसमें पाकिस्तानी फौज भी शामिल थी . उसका प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के पास सैनिक मदद  मांगने दिल्ली आया था . लेकिन सरदार पटेल ने कहा कि जब तक कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं बन जाता हमारी  फौजें वहां नहीं जायेगीं .  इसी हालत में राजा ने दस्तखत किया और भारतीय सेना ने  कश्मीर घाटी से  कबायली पोशाक में घुस आयी पाकिस्तानी फौज को भगाया .उस दौर में शेख अब्दुल्ला कश्मीरी अवाम के हीरो हुआ करते थे . हिन्दू मुस्लिम सब उनके साथ होते थे .

लड़ाई में पाकिस्तानी पराजय के बाद कश्मीर का मसला बाद में संयुक्त राष्ट्र में ले जाया गया .संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पास हुआ कि कश्मीरी जनता से पूछ कर तय किया जाय कि वे किधर जाना चाहते हैं . भारत ने इस प्रस्ताव का खुले दिल से समर्थन किया लेकिन पाकिस्तान वाले भागते रहे उस दौर में पाकिस्तान कश्मीर में जनमतसंग्रह का विरोध करता था.शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के हीरो थे और वे जिधर चाहते उधर ही कश्मीर जाता . लेकिन १९५३ के बाद यह हालात भी बदल गए. . बाद में पाकिस्तान जनमत संग्रह के पक्ष में हो गया और भारत उस से पीछा छुडाने लगा . इन हालात के पैदा होने में बहुत सारे कारण हैं.बात यहाँ तक बिगड़ गयी कि शेख अब्दुल्ला की सरकार बर्खास्त की गयीऔर शेख अब्दुल्ला को ९ अगस्त १९५३ के दिन गिरफ्तार कर लिया गया.उसके बाद तो फिर वह बात कभी नहीं रही. बीच में राजा के वफादार नेताओं की टोली जिसे प्रजा परिषद् के नाम से जाना जाता थाने हालात को बहुत बिगाड़ा . अपने अंतिम दिनों में जवाहरलाल नेहरू ने शेख अब्दुल्ला से बात करके स्थिति को दुरुस्त करने की कोशिश फिर से शुरू कर दिया था. ६ अप्रैल १९६४ को शेख अब्दुल्ला को जम्मू जेल से रिहा किया गया और नेहरू से उनकी मुलाक़ात हुई. शेख अब्दुल्ला ने एक बयान दिया जिसका ड्राफ्ट कश्मीरी मामलों के जानकार बलराज पुरी ने तैयार किया था . शेख ने कहा कि उनके नेतृत्व में ही जम्मू कश्मीर का विलय भारत में हुआ था . वे हर उस बात को अपनी बात मानते हैं जो उन्होंने अपनी गिरफ्तारी के पहले ८ अगस्त १९५३ तक कहा था. नेहरू भी पाकिस्तान से बात करना चाहते थे और किसी तरह से समस्या को हल करना चाहते थे.. नेहरू ने इसी सिलसिले में शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तान जाकर संभावना तलाशने का काम सौंपा.. शेख गए . और २७ मई १९६४ के ,दिन जब पाक अधिकृत कश्मीर के मुज़फ्फराबाद में उनके लिए दोपहर के भोजन के लिए की गयी व्यवस्था में उनके पुराने दोस्त मौजूद थेजवाहरलाल नेहरू की मौत की खबर आई. बताते हैं कि खबर सुन कर शेख अब्दुल्ला फूट फूट कर रोये थे. नेहरू के मरने के बाद तो हालात बहुत तेज़ी से बिगड़ने लगे . कश्मीर के मामलों में नेहरू के बाद के नेताओं ने कानूनी हस्तक्षेप की तैयारी शुरू कर दी,..वहां संविधान की धारा ३५६ और ३५७ लागू कर दी गयी. इसके बाद शेख अब्दुल्ला को एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया. इस बीच पाकिस्तान ने एक बार फिर कश्मीर पर हमला करके उसे कब्जाने की कोशिश की लेकिन पाकिस्तानी फौज ने मुंह की खाई और ताशकंद में जाकर रूसी दखल से सुलह हुई. 
भारत में उसके बाद अदूरदर्शी शासक आते गए. हद तो तब हुए जब राजीव गांधी के प्रधान मंत्रित्व के दौरान अरुण नेहरू ने शेख साहेब के दामाद ,गुल शाह हो मुख्यमंत्री बनावाकर फारूक अब्दुल्ला से बदला ने की कोशिश की . एक बार फिर साफ़ हो गया कि दिल्ली वाले कश्मीरी अवाम के पक्षधर नहीं हैं वे तो कश्मीर पर हुकूमत करना चाहते हैं . उसके बाद एक से एक गलतियाँ होती गयीं. जगमोहन को राज्य का गवर्नर बनाकर भेजा गया . उन्होंने जो कुछ भी किया उसे कश्मीरी जनता ने पसंद नहीं किया. मौजूदा मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की बहन का अपहरण करके आतंकवादियों ने साबित कर दिया कि वे कश्मीरी जनता को भारत के खिलाफ कर चुके हैं . बाद में तो भारत की सेना ने ही कश्मीर को सम्भाला. और हालात बाद से बदतर होते गए . ज़रुरत इस बात की है कि कश्मीर में वही माहौल एक बार फिर पैदा हो जो १९५३ के पहले था. वरना पता नहीं कब तक कश्मीर का आम आदमी राजनीतिक स्वार्थों का शिकार होता रहेगा.

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