शेष नारायण सिंह
एक और सेल्फ गोल. उत्तराखंड की डगमगाती हरीश रावत सरकार को केंद्र सरकार ने बर्खास्त करके राज्य में कांग्रेस और हरीश रावत की राजनीति को जीवनदान दे दिया है . उत्तराखंड में चुनाव होने वाले हैं . पिछले चुनाव का दौरान २०१२ में ३ मार्च को नतीजे आ गए थे यानी पूरा जनवरी फरवरी चुनाव होंगें. अभी २० मई को जब असम ,पश्चिम बंगाल, केरल , तमिलनाडु और पुद्दुचेरी के नतीजे आयेगें , लगभग उसी दिन से उत्तर प्रदेश , उत्तराखंड, पंजाब आदि के चुनाव अभियान की शुरुआत हो जायेगी . २० मई से ही बीजेपी को मौक़ा मिल जाता कि वह हरीश रावत, राहुल गांधी और कांग्रेस के खिलाफ अभियान शुरू हो जाता . लेकिन उस सरकार को बर्खास्त करके केंद्र सरकार ने अमित शाह के हाथ से एक ज़बरदस्त हथियार छीन लिया है . अब चुनाव प्रचार में सरकार की कमियाँ चर्चा में होंगीं . बीजेपी के नेता कहेगें कि कांग्रेस ने पांच साल में तबाही ला दी और तुरंत अगला सवाल आयेगा कि आपने केंद्र में क्या किया है . सबको मालूम है कि केंद्र सरकार ने ऐसा कोई काम अब तक नहीं किया है जिसका बहुत बखान किया जा सके. ऐसी स्थिति में उत्तराखंड के बर्खास्त मुख्यमंत्री को दया का पात्र बना दिया गया जिसका खामियाजा निश्चित रूप से बीजेपी को भोगना पड़ सकता है .
इसके पहले भी बीजेपी ने सेल्फ गोल किया है . हरियाणा में बीजेपी सरकार और नेताओं ने जिस तरह से जाट आन्दोलन को सम्भाला उससे बीजेपी का भारी राजनीतिक नुकसान हुआ है . २०१४ के चुनावों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश , हरियाणा और पूर्वी राजस्थान में ताक़तवर जाट बिरादरी ने पूरी तरह से बीजेपी को वोट दिया था जिसके कारण इन इलाकों में बीजेपी की भारी जीत हुयी थी. सच्ची बात यह है कि दिल्ली के चारों तरफ आबाद जाट बिरादरी के बीच चल रहा मोदी के पक्ष में समर्थन का तूफ़ान ही मोदी लहर बनाने में कामयाब हुआ था. दुनिया भर से आने वाले पत्रकारों को दिल्ली के आस पास चारों तरफ एक सौ किलोमीटर के दायरे में मोदी को जाटों का मुखर समर्थन मिलता नज़र आ रहा था , हरियाणा में जाट आरक्षण आन्दोलन के समय सरकारी रुख और बीजेपी नेताओं का जाट बिरादरी का प्रति अपमानजनक भाषा का प्रयोग करना बीजेपी का बहुत भारी सेल्फ गोल है . आज से दो साल पहले जिन गावों में बीजेपी के कार्यकर्ताओं का स्वागत होता था , उन्हीं गावों में आज बीजेपी का कार्यकर्ता प्रवेश नहीं कर सकता . इस का नमूना साल भर के अन्दर होने वाले उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनावों में साफ़ नज़र आने वाला है .
केंद्रीय विश्वविद्यालयों में छात्रों का दमन भी बीजेपी की अदूरदर्शी राजनीति का नतीजा है . नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनवाने में छात्रों और नौजवानों का बड़ा योगदान रहा है . इन छात्रों में कांग्रेस के अलावा हरेक राजनीतिक पार्टी से सम्बद्ध छात्र संगठनों के लोग शामिल थे. लेकिन बीजेपी से समबद्ध छात्र संगठन एबीवीपी को मज़बूत करने के उद्देश्य से कुछ केंद्रीय मंत्रियों ने कुछ विश्वविद्यालयों के छात्रों को देशद्रोही आदि कहकर छात्रों में गुस्सा पैदा कर दिया है . आज आलम यह है कि देश के सभी हिस्सों में दलित और वामपंथी छात्र संगठन केंद्र सरकार और बीजेपी से नाराज़ हैं . ज़ाहिर है इसका भी नुकसान चुनावों में होने वाला है . इसी तरह से नौजवानों में भी गुस्सा है . हर साल एक करोड़ नौकरियों का वादा प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में नरेंद्र मोदी ने देश के हर कोने में किया था . वह भी कहीं नहीं है .इसकी वजह से भी भारी नाराजगी देखी जा रही है .
मोदी सरकार का वित्त मंत्रालय मध्यवर्ग को नाराज़ करने में पूरी तरह से जुट गया है. बहत सारे उदाहरण हैं लेकिन प्रोविडेंट फंड की ब्याज दर घटाने की बात जिस तरह से की जा रही है ,उससे नरेंद्र मोदी के कोर वोटर को नाराज़ करने की कोशिश हो रही है . इस ब्याज दर के घटने से सरकारी खजाने को कोई ख़ास फायदा भी नहीं होने वाला है . समझ में नहीं आता कि इन अलोकप्रिय योजनाओं को कौन आगे बढ़ा रहा है . लेकिन जो भी बढ़ा रहा है वह निश्चित रूप से नरेंद्र मोदी को कमज़ोर कर रहा है .
शहरी और ग्रामीण मध्यवर्ग को लुभाने के लिए चुनाव अभियान २०१४ के दौरान और भी बहुत सारे वायदे किये गए थे. काले धन के बारे में नरेंद्र मोदी ने लगभग हर सभा में बा आवाज़े बुलंद ऐलान किया था . उन्होंने कहा था कि विदेशों में जमा कालाधन वापस लाने से देश में हर व्यक्ति के हिस्से में करीब पंद्रह लाख रूपये आ जायेगें . जहां तक मुझे याद है उन्होंने यह कहीं नहीं कहा था कि सबके बैंक खाते में पंद्रह लाख रूपये जमा हो जायेगें . लेकिन उनकी सरकार आने के बाद जिस तरह से ताबड़तोड़ सबके बैंक खाते खोले गए और जन धन योजना का जिस तरह उनके समर्थकों और कार्यकर्ताओं ने प्रचार किया ,उससे लगने लगा कि शायद वास्तव में लोगों के बैंक में ही धन जमा होने वाला हो लेकिन बाद में बीजेपी के अध्यक्ष ने ही कालेधन के बारे में किये प्रचार को जुमला कह दिया और बात को मीडिया ने बहुत आगे बढ़ा दिया . बीजेपी के विरोधियों ने तो उसे बीजेपी यानी भारतीय जुमला पार्टी कहना तक शुरू कर दिया . मध्य वर्ग और गरीब वर्ग में इस जुमलेबाजी का भी असर बहुत ही नकारात्मक रहा.
सेल्फ गोल तो नहीं कहा जा सकता लेकिन मंहगाई कम करने के मामले में इस सरकार की जो असफलता है वह सारे देश में चर्चा का विषय है . डॉ मनमोहन सिंह की सरकार के दौरान जिस तरह से मंहगाई को मुद्दा बनाया गया था उसके सन्दर्भ में यह उम्मीद सबको थी कि मंहगाई कम करने के लिए मोदी सरकार कोई पायेदार क़दम उठायेगी . आज दो साल होने को आये लेकिन ऐसा कुछ होता नज़र नहीं आ रहा है . देश में हर उस आदमी , जिसके हाथ में आधुनिक मोबाइल फोन या कम्यूटर है ,उसको मालूम है कि कच्चे तेल की कीमतें महंगाई का पैमाना तय करने में सबसे अहम् भूमिका निभाती हैं . उसको यह भी मालूम है कि पिछले दो वर्षों में कच्चे तेल की कीमतें लगातार घट रही हैं और अब २०१४ से आधे से भी कम पर पंहुंच गयी हैं . लेकिन मंहगाई कम होने की कौन कहे लगातार बढ़ रही है . उपभोक्ता सामान और भोजन की चीज़ें तो महंगी हो ही रही हैं पेट्रोल की कीमत में भी आम आदमी को अंतर्राष्ट्रीय स्टार पर कम हुयी कीमतों का लाभ नहीं मिल रहा है . सोशल मीडिया पर चारों तरफ चर्चा है कि सरकार ने कम दाम पर आयात होने होने वाले पेट्रोलियम उत्पादों का लाभ आम आदमी नहीं पूंजीपति वर्ग को दे दिया गया . कुल मिलाकर माहौल ऐसा बन रहा है कि सरकार अपनी ज़्यादातर वायदों को पूरा नहीं कर पा रही है .
मोदी सरकार के बनने के बाद इस बात की ज़बरदस्त चर्चा थी कि विदेशनीति के बारे में भारी सफलता मिल रही है. लेकिन जब विदेशनीति की सफलता को कूटनीति के पैमाने पर जांचा जाए तो साफ़ समझ में आ जाएगा कि मौजूदा सरकार की विदेशनीति में ऐसा कुछ नहीं है जिसके लिए गौरव की अनुभूति हो. हाँ नकारात्मक कुछ ज़रूर नज़र आ जाएगा . वर्तमान विदेशनीति के प्रबंधकों को इस बात पर फिर से विचार करना होगा कि मास्को से भारत की जो मज़बूत दोस्ती थी , उसको किस कारण से कमज़ोर किया गया . अमरीका से दोस्ती बढाने और चीन से रिश्ते सामान्य करने के चक्कर में रूस को नाराज़ कर दिया गया है . समय के साथ साथ इस बात का अनुमान लगने लगा है कि अमरीका की अविश्वसनीय कूटनीति और चीन की पाकिस्तान दोस्त विदेश नीति के सामने भारत की हैसियत बहुत कम है लेकिन इन दोनों से दोस्ती करने के चक्कर में रूस को नाराज़ कर दिया गया है . रूस ने अपनी नाराजगी को व्यक्त भी कर दिया है . पाकिस्तान की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा कर रूस ने साफ़ कर दिया है कि उसके साथ दोस्ती रखना है तो अमरीका और चीन से उसी तरह का सम्बन्ध रखना पडेगा जिस तरह का अब तक के भारतीय विदेशमंत्री रखते रहे हैं . पिछले दो वर्षों की विदेशनीति की व्याख्या करने पर साफ़ समझ में आ जाएगा कि वहां भी बहुत जल्दी और अति उत्साह के चक्कर में सेल्फ गोल ही हो रहा है .
भारत की राजनीति में पिछले पचास साल की राजनीति पर गौर करें तो साफ़ समझ में आ जाएगा कि जिस भी प्रधानमंत्री ने भी सत्ता खोई है वह गलत नीतियों के कारण हुए सेल्फ गोल का ही नतीजा रहा है . जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री की बात अलग है . वे महान थे लेकिन उसके बाद के हर प्रधानमंत्री ने अपने लोगों की उल्टी सलाह के चलते ही सत्ता गंवाई है . १९७१ के बंगलादेश युद्ध और दो तिहाई बहुमत के सत्ता में आई इंदिरा गांधी ने अगर इमरजेंसी न लगाई होती तो क्या वे १०७७ में सत्ता से हाथ धोने के लिए मजबूर होतीं. इमरजेंसी एक सेल्फ गोल था और उससे बचा जा सकता था. इसी तरह की गाल्तियाँ हर शासक ने की . और दिल्ली की गलियों में पैदल नज़र आने लगे.
ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी उसी तरह के चक्रव्यूह में घिर गए हैं . लगता है कि कोई उनको सत्ता प्रतिष्ठान के अंदर से ही कमज़ोर कर रहा है . वरना एक एक करके अपने सभी समर्थक समूहों को नाराज़ करने वाली नीतियों को कभी न लागू करते. उनके दो साल पूरे होने वाले हैं . तीसरा साल बहुत ही अहम होगा क्योंकि अगर तीसरे साल में भी उनकी यही रफ़्तार रही तो २०१९ बहुत ही कठिन हो जाएगा . उससे बचने का यही तरीका है कि सही सलाहकारों की सलाह मानें और सेल्फ गोल से बचें.
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