Saturday, May 25, 2013

दिग्विजय सिंह के नाम से कुछ लोगों को गुस्सा क्यों आता है .?



शेष नारायण सिंह

 कर्नाटक में बीजेपी की हार के बाद उस हार के कारणों का विश्लेषण अब एक
कुटीर उद्योग का रूप ले चुका है . एक नए विश्लेषक भी मैदान में हैं .
शिवसेना के सांसद संजय राउत ने हार के कारणों में हिंदुत्व से दूरी को
बताया है .अपनी पार्टी के अखबार सामना के सम्पादकीय में उन्होंने लिखा है
कि अगर बीजेपी ने हिंदुत्व को फोकस में रखा होता तो कर्नाटक में इतनी
बड़ी हार न होती. संजय राउत ने मोदी को भी हिंदुत्व से अलग होने पर खरी
खोटी सुनायी है और कहते हैं अगर मोदी ने हिंदुत्व का सम्मान नहीं किया तो
उनमें और दिग्विजय सिंह कोई फर्क नहीं रहेगा . बीजेपी के नेता भी
दिग्विजय सिंह का नाम आते ही इस तरह से बिफर पड़ते हों जैसे उन्हें लाल
अंगोछा दिखा दिया गया हो .किसी भी विषय पर दिग्विजय सिंह की राय को
बीजेपी वाले खारिज करने में एक मिनट नहीं लगाते . मीडिया में भी एक बड़ा
वर्ग ऐसे पत्रकारों का है जो दिग्विजय सिंह को बहुत ही अछूत टाइप मानते
हैं .  अन्ना हजारे, रामदेव और अरविन्द केजरीवाल के समर्थकों  में ऐसे
लोगों की बड़ी संख्या है जो दिग्विजय सिंह का नाम आते ही गुस्से में आ
जाते हैं और कुछ तो यह  कहते सुने गए हैं वे दिग्विजय सिंह की बातों को
गंभीरता से नहीं लेते . कांग्रेस में बड़े नेताओं का एक ताक़तवर वर्ग
दिग्विजय सिंह के किसी बयान के बाद उस बयान से अपनी दूरी बनाने के लिए
व्याकुल हो जाता है . सोशल मीडिया में भी दिग्विजय सिंह को गाली देने
वालो का एक बहुत बड़ा वर्ग है . जानकार बताते हैं वह वर्ग भी हिंदुत्ववादी
ताक़तों ने ही बनाया है .कुल मिलाकर ऐसा माहौल बन गया है कि हिंदुत्ववादी
साम्प्रदायिक पार्टियों में किसी को दिग्विजय कह देना बहुत अपमान जनक
माना जा रहा है .

सवाल यह उठता  है कि दिग्विजय सिंह के खिलाफ इस तरह का माहौल क्यों है ?
इस सवाल का जवाब उनसे ही लेने की कोशिश की गयी लेकिन उन्होंने कोई जवाब
देने से साफ़ मना कर दिया और कहा कि उन्होंने ऐसी कोई बात नहीं कही है
जिसके कारण उनके खिलाफ इस तरह का माहौल बनाया जाए . वे अपनी पार्टी की
बात करते हैं उसके सिद्धांतों की बात करते हैं और पार्टी में उनका कोई
विरोध नहीं है . उनकी पार्टी के बुनियादी सिद्धांतों में सभी धर्मों
संप्रदायों और जातियों को साथ लेकर चलने की बात कही गयी है इसलिए अगर कोई
भी व्यक्ति किसी भी भारतीय को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने की कोशिश
करेगा तो उसका विरोध किया जाएगा और उसकी राजनीतिक सोच को बेनकाब किया
जाएगा .

 मीडिया के बड़े वर्ग और दक्षिणपंथी पार्टियों के  तीखे रुख के बावजूद
दिग्विजय सिंह की पार्टी में उनकी ताक़त किसी से कम नहीं .पार्टी के
अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का उन्हें पूरा संरक्षण मिला हुआ है .इसलिए यह बात
साफ़ है कि बीजेपी , शिवसेना और उनके मुरीद चाहे जो कहें कांग्रेस पार्टी
दिग्विजय सिंह को एक महत्वपूर्ण नेता मानती है और उनकी बातों का सम्मान
किया जाता है . ज़ाहिर है कांग्रेस को उनके बयानों और राजनीति से कोई
नुक्सान नहीं हो रहा है और पार्टी उनकी राजनीतिक सोच को आगे बढाने को
तैयार है . दिग्विजय सिंह के विरोधी भी मानते हैं  कि वे धर्मनिरपेक्षता
की राजनीति को आगे बढाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं . और जब उस
राजनीति से पार्टी का कोई नुक्सान नहीं हो रहा हो तो उनकी पार्टी को क्या
एतराज़ हो सकता है . इस बारीकी को समझने के लिए कांग्रेस के समकालीन
इतिहास पर नज़र डालनी पड़ेगी. महात्मा गांधी, सरदार पटेल , मौलाना आज़ाद और
जवाहरलाल नेहरू आज़ादी के पहले और उसके बाद के  सबसे बड़े नेता थे .
उन्होंने आज़ादी के पहले और बाद में बता दिया था कि धर्मनिरपेक्षता इस
राष्ट्र की स्थापना और संचालन का बुनियादी आधार रहेगा . देखा गया है कि
जवाहरलाल नेहरू के जाने के  बाद कांग्रेस ने जब भी धर्मनिरपेक्षता की
राजनीति को  कमज़ोर किया उसे चुनाव में हार का सामना करना पड़ा .

सबसे पहले इमरजेंसी के दौरान कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता की राह को छोड़ने
की कोशिश की . विपक्ष के सभी बड़े नेता जेलों में बंद थे और ऐसा लगता था
कि बाहर  निकलना असंभव था . आर एस एस वाले भी बंद थे . उस वक़्त के आर एस
एस के मुखिया बालासाहेब  देवरस ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को
कई पत्र लिखे और कांग्रेस के साथ मिलकर काम करने का भरोसा दिया . १०
नवंबर 1975 को येरवदा जेल से लिखे एक पत्र में बालासाहेब देवरस ने इंदिरा
गांधी को बधाई दी थी कि सर्वोच्च न्यायालय की पाँच सदस्यीय बेंच ने उनके
रायबरेली वाले चुनाव को वैध ठहराया है.  इसके पहले 22 अगस्त 1975 को लिखे
एक अन्य पत्र में आर एस एस प्रमुख ने लिखा कि ''मैंने आपके 15 अगस्त के
भाषण को काफी ध्यान से सुना। आपका भाषण आजकल के हालात के उपयुक्त था और
संतुलित था।'' इसी पत्र में उन्होने इंदिरा गांधी को भरोसा दिलाया था कि
संघ के कार्यकर्ता पूरे देश में फैले हुए हैं जो निस्वार्थ रूप से काम
करते हैं। वह आपके कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में तन-मन से सहयोग करेगें
. इस सब के बावजूद भी इंदिरा गांधी के रुख में तो कोई बदलाव नहीं हुआ
लेकिन उनके बेटे संजय गांधी ने मुसलमानों के विरोध का रवैया अपनाया .
अपने खास अफसरों को लगाकर मुसलमानों के खिलाफ हिंसक कार्रवाई की और कोशिश
की कि देश के बहुसंख्यक हिंदू  उनको मुस्लिमविरोधी के रूप में स्वीकार कर
लें . यह वह कालखंड है जब कांग्रेस ने पहली बार साफ्ट हिंदुत्व को अपनी
राजनीति का आधार बनाने की कोशिश की थी. कांग्रेस की १९७७ की हार में अन्य
कारणों के अलावा इस बात का महत्त्व सबसे ज्यादा था .हार के बाद  इंदिरा
गांधी ने फिर धर्मनिरपेक्षता की बात शुरू कर दी और उनको हराने वाली जनता
पार्टी में  फूट डाल दी . उन्होंने देश को बताना शुरू कर दिया कि जनता
पार्टी वास्तव में आर एस एस की पार्टी है उसमें समाजवादी तो बहुत कम
संख्या में हैं . जनता पार्टी के बड़े नेता और समाजवादी विचारक मधु लिमये
ने भी साफ़ ऐलान कर दिया कि आर एस एस वास्तव में एक राजनीतिक पार्टी है और
उसके सदस्य जनता पार्टी के सदस्य नहीं रह सकते . कई महीने चली बहस के बाद
जनता पार्टी टूट गयी और १९८० में कांग्रेस पार्टी दुबारा सत्ता में आ गयी
.

दोहरी सदस्यता के बारे में लाल कृष्ण आडवानी ने अपने ब्लॉग में लिखा है
कि ” मुख्य रूप से 'दोहरी सदस्यता' का विचार मधु लिमये की मानसिक उपज था,
जिसका लक्ष्य था जनता पार्टी के उन सदस्यों को कमजोर करना, जो पहले जनसंघ
का हिस्सा थे और लगातार संघ से जुड़े हुए थे। जब जनता पार्टी को बने एक
वर्ष भी नहीं हुआ था तब लिमये, जो पार्टी के महासचिव थे, ने इस बात पर
जोर दिया कि जनता पार्टी का कोई भी सदस्य साथ-ही-साथ संघ का भी सदस्य
नहीं हो सकता” उन्होंने कांग्रेस की जीत का भी अपने तरीके से ज़िक्र किया
है .लिखते हैं कि “ वर्ष 1980 के संसदीय चुनावों में जनता पार्टी की हार
का अनुमान मुझे पहले से ही था। यह हार अत्यंत गंभीर थी। इसने दर्शाया कि
मतदाता 1977 के जनादेश के साथ विश्वासघात करने के लिए पार्टी को दंड देना
चाहते थे। 1977 में 298 सीटों की तुलना में पार्टी को मात्र 31 सीटें
प्राप्त हुईं। इसमें जनसंघ की सीटें 1977 में 93 की तुलना में मात्र 16
थीं। दूसरी ओर इंदिरा गांधी के नेतृत्ववाली कांग्रेस (आई) शानदार तरीके
से वापस लौटी और 1977 के 153 सांसदों की तुलना में 1980 में उसके 351
सांसद विजयी रहे, जो कि 542 सदस्यीय सदन में लगभग दो-तिहाई बहुमत था।“

दूसरी बार कांग्रेस ने साफ्ट हिंदुत्व की राजनीति को अपनाने का कार्य
बाबरी मसजिद के लिए चलाये गए आर एस एस के आंदोलन के दौरान किया जब राजीव
गांधी मंत्रिमंडल में गृहमंत्री , सरदार बूटा सिंह  ने जाकर अयोध्या में
बाबरी मसजिद के पास एक मंदिर का शिलान्यास करवा दिया . काँग्रेस पार्टी
उसके बाद हुए १९८९ के चुनावों में हार गयी . १९९१ में पी वी नरसिम्हाराव
ने जुगाड करके एक सरकार बनायी .कांग्रेस की इसी सरकार के काल में बाबरी
मसजिद का विध्वंस हुआ और उसके बाद हुए चुनावों में कांग्रेस फिर हार गयी.
उसके बाद कांग्रेस पार्टी इतिहास का विषय बनने की तरफ बढ़ रही थी लेकिन
१९९७ के कोलकता कांग्रेस में सोनिया गांधी ने पार्टी की सदस्यता ली और
१९९८ में कांग्रेस अध्यक्ष बनीं. उस वक़्त कांग्रेस की हालत बहुत खराब थी
. लेकिन सोनिया गांधी ने ऐलान किया कि उनकी पार्टी धर्मनिरपेक्षता की राह
से भटक गयी थी अब वे हमेशा उसी धर्मनिरपेक्षता की राह पर चलती रहेगीं
.सिद्धांतों को फिर से संभाल लेने का ही नतीजा है कि कांग्रेस ने अपनी
पुरानी हैसियत को पाने की योजना पर काम करना शुरू कर दिया और २००४ में
केन्द्र सरकार पर कांग्रेस का दुबारा कब्ज़ा हो गया . मुख्य विपक्षी दल तब
से लगातार सिमट रहा है .बीजेपी की सरकारें कई राज्यों में बन गयी थीं जो
अब धीरे धीरे विदा हो रही हैं . राजनीतिक जानकार बताते हैं कि इसका कारण
कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष नीतियां हैं .



दिग्विजय सिंह कांग्रेस की इसी आक्रामक धर्मनिरपेक्षता को आगे बढ़ा रहे
हैं .ज़ाहिर है धर्मनिरपेक्ष राजनीति से बीजेपी को चुनावी नुक्सान हो रहा
है और उसके नेता जब भी मौक़ा मिलता है ,दिग्विजय सिंह के खिलाफ अभियान
चलाने का अवसर नहीं चूकते . बीजेपी के समर्थक भी दिग्विजय सिंह को बहुत
ही घटिया इंसान के रूप में पेश करने में संकोच नहीं करते .रामदेव जैसे
लोगों के अलावा मीडिया में मौजूद बीजेपी के सहयोगी भी दिग्विजय सिंह के
हर बयान  को अपनी सुविधानुसार  पेश करते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि आज
दिग्विजय सिंह साम्प्रदायिक ताक़तों को चुनौती देने की राजनीति के विशेषण
बन चुके हैं और उनकी पार्टी में उनको पूरा सम्मान मिल रहा है ..

Thursday, May 23, 2013

महान व्यंग्यकार शरद जोशी की कलम से ,उनके जन्मदिन पर उनकी एक रचना


 पूर्व मंत्री की भैंस पर शरद जी का डंडा 
मंत्री थे तब उनके दरवाज़े कार बँधी रहती थी। आजकल क्वार्टर में रहते हैं और दरवाज़े भैंस बँधी रहती है। मैं जब उनके यहाँ पहुँचा वे अपने लड़के को दूध दुहना सिखा रहे थे और अफ़सोस कर रहे थे कि कैसी नई पीढ़ी आ गई है जिसे भैंसें दुहना भी नहीं आता।
मुझे देखा तो बोले – 'जले पर नमक छिड़कने आए हो!'
'नमक इतना सस्ता नहीं है कि नष्ट किया जाए। कांग्रेस राज में नमक भी सस्ता नहीं रहा।'
'कांग्रेस को क्यों दोष देते हो! हमने तो नमक–आंदोलन चलाया।' – फिर बड़बड़ाने लगे, 'जो आता है कांग्रेस को दोष देता है। आप भी क्या विरोधी दल के हैं?'
'आजकल तो कांग्रेस ही विरोधी दल है।'
वे चुप रहे। फिर बोले, 'कांग्रेस विरोधी दल हो ही नहीं सकती। वह तो राज करेगी। अंग्रेज़ हमें राज सौंप गए हैं। बीस साल से चला रहे हैं और सारे गुर जानते हैं। विरोधियों को क्या आता है, फ़ाइलें भी तो नहीं जमा सकते ठीक से। हम थे तो अफ़सरों को डाँट लगाते थे, जैसा चाहते थे करवा लेते थे। हिम्मत से काम लेते थे। रिश्तेदारों को नौकरियाँ दिलवाईं और अपनेवालों को ठेके दिलवाए। अफ़सरों की एक नहीं चलने दी। करके दिखाए विरोधी दल! एक ज़माना था अफ़सर खुद रिश्वत लेते थे और खा जाते थे। हमने सवाल खड़ा किया कि हमारा क्या होगा, पार्टी का क्या होगा?'
'हमने अफ़सरों को रिश्वत लेने से रोका और खुद ली। कांग्रेस को चंदा दिलवाया, हमारी बराबरी ये क्या करेंगे?'
'पर आपकी नीतियाँ ग़लत थीं और इसलिए जनता आपके ख़िलाफ़ हो गई!'
'कांग्रेस से यह शिकायत कर ही नहीं सकते आप। हमने जो भी नीतियाँ बनाईं उनके ख़िलाफ़ काम किया है। फिर किस बात की शिकायत? जो उस नीति को पसंद करते थे, वे हमारे समर्थक थे, और जो उस नीति के ख़िलाफ़ थे वे भी हमारे समर्थक थे, क्यों कि हम उस नीति पर चलते ही नहीं थे।'
मैं निरुत्तर हो गया।
'आपको उम्मीद है कि कांग्रेस फिर इस राज्य में विजयी होगी?'
'क्यों नहीं? उम्मीद पर तो हर पार्टी कायम है। जब विरोधी दल असफल होंगे और बेकार साबित होंगे, जब दो ग़लत और असफल दलों में से ही चुनाव करना होगा, तो कांग्रेस क्या बुरी? बस तब हम फिर 'पावर' में आ जाएँगे। ये विरोधी दल उसी रास्ते पर जा रहे हैं जिस पर हम चले थे और इनका निश्चित पतन होगा।'
'जैसे आपका हुआ।'
'बिल्कुल।'
'जब से मंत्री पद छोड़ा आपके क्या हाल हैं?'
'उसी तरह मस्त हैं, जैसे पहले थे। हम पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा। हमने पहले से ही सिलसिला जमा लिया था। मकान, ज़मीन, बंगला सब कर लिया। किराया आता है। लड़के को भैस दुहना आ जाए, तो डेरी खोलेंगे और दूध बेचेंगे, राजनीति में भी रहेंगे और बिज़नेस भी करेंगे। हम तो नेहरू–गांधी के चेले हैं।'
'नेहरू जी की तरह ठाठ से भी रह सकते हैं और गांधी जी की तरह झोंपड़ी में भी रह सकते हैं। ख़ैर, झोंपड़ी का तो सवाल ही नहीं उठता। देश के भविष्य की सोचते थे, तो क्या अपने भविष्य की नहीं सोचते! छोटे भाई को ट्रक दिलवा दिया था। ट्रक का नाम रखा है देश–सेवक। परिवहन की समस्या हल करेगा।'   
'कृषि–मंत्री था, तब जो खुद का फ़ार्म बनाया था, अब अच्छी फसल देता है। जब तक मंत्री रहा, एक मिनट खाली नहीं बैठा, परिश्रम किया, इसी कारण आज सुखी और संतुष्ट हूँ। हम तो कर्म में विश्वास करते हैं। धंधा कभी नहीं छोड़ा, मंत्री थे तब भी किया।'
'आप अगला चुनाव लड़ेंगे?'
'क्यों नहीं लड़ेंगे। हमेशा लड़ते हैं, अब भी लड़ेंगे। कांग्रेस टिकट नहीं देगी तो स्वतंत्र लड़ेंगे।'
'पर यह तो कांग्रेस के ख़िलाफ़ होगा।'
'हम कांग्रेस के हैं और कांग्रेस हमारी है। कांग्रेस ने हमें मंत्री बनने को कहा तो बने। सेवा की है। हमें टिकट देना पड़ेगा। नहीं देंगे तो इसका मतलब है कांग्रेस हमें अपना नहीं मानती। न माने। पहले प्रेम, अहिंसा से काम लेंगे, नहीं चला तो असहयोग आंदोलन चलाएँगे। दूसरी पार्टी से खड़े हो जाएँगे।'
'जब आप मंत्री थे, जाति–रिश्तेवालों को बड़ा फ़ायदा पहुँचाया आपने।'
'उसका भी भैया इतिहास है। जब हम कांग्रेस में आए और हमारे बारे में उड़ गई कि हम हरिजनों के साथ उठते–बैठते और थाली में खाना खाते हैं, जातिवालों ने हमें अलग कर दिया और हमसे संबंध नहीं रखे। हम भी जातिवाद के ख़िलाफ़ रहे और जब मंत्री बने, तो शुरू–शुरू में हमने जातिवाद को कसकर गालियाँ दीं।'
'दरअसल हमने अपने पहलेवाले मंत्रिमंडल को जातिवाद के नाम से उखाड़ा था। सो शुरू में तो हम जातिवाद के ख़िलाफ़ रहे। पर बाद में जब जातिवालों को अपनी ग़लती पता लगी तो वे हमारे बंगले के चक्कर काटने लगे। जाति की सभा हुई और हमको मानपत्र दिया गया और हमको जाति – कुलभूषण की उपाधि दी। हमने सोचा कि चलो सुबह का भूला शाम को घर आया। जब जाति के लोग हमसे प्रेम करते हैं, तो कुछ हमारा भी फर्ज़ हो जाता है। हम भी जाति के लड़कों को नौकरियाँ दिलवाने, तबादले रुकवाने, लोन दिलवाने में मदद करते और इस तरह जाति की उन्नति और विकास में योग देते। आज हमारी जाति के लोग बड़े–बड़े पदों पर बैठे हैं और हमारे आभारी हैं कि हमने उन्हें देश की सेवा का अवसर दिया। मैंने लड़कों से कह दिया कि एम.ए. करके आओ चाहे थर्ड डिवीजन में सही, सबको लैक्चरर बना दूँगा। अपनी जाति बुद्धिमान व्यक्तियों की जाति होनी चाहिए। और भैया अपने चुनाव–क्षेत्र में जाति के घर सबसे ज़्यादा हैं। सब सॉलिड वोट हैं। सो उसका ध्यान रखना पड़ता है। यों दुनिया जानती है, हम जातिवाद के ख़िलाफ़ हैं। जब तक हम रहे हमेशा मंत्रिमंडल में राजपूत और हरिजनों की संख्या नहीं बढ़ने दी। हम जातिवाद से संघर्ष करते रहे और इसी कारण अपनी जाति की हमेशा मेजॉरिटी रही।'
लड़का भैंस दुह चुका था और अंदर जा रहा था। भूतपूर्व मंत्री महोदय ने उसके हाथ से दूध की बाल्टी ले ली।
'अभी दो किलो दूध और होगा जनाब। पूरी दुही नहीं है तुमने। लाओ हम दुहें।' – फिर मेरी ओर देखकर बोले, एक तरफ़ तो देश के बच्चों को दूध नहीं मिल रहा, दूसरी ओर भैंसें पूरी दुही नहीं जा रहीं। और जब तक आप अपने स्रोतों का पूरी तरह दोहन नहीं करते, देश का विकास असंभव हैं।'
वे अपने स्रोत का दोहन करने लगे। लड़का अंदर जाकर रिकार्ड बजाने लगा और 'चा चा चा' का संगीत इस आदर्शवादी वातावरण में गूँजने लगा। मैंने नमस्कार किया और चला आया

Wednesday, May 8, 2013

गरीब महिलाओं के आत्मसहायता संगठनों को सात प्रतिशत रेट से बैंक क़र्ज़ मिलेगा .

.

शेष नारायण सिंह

केंद्र सरकार ने फैसला किया है कि इस साल से महिलाओं
के आत्मसहायता समूहों ( सेल्फ हेल्प ग्रुपों )को बैंकों से सात प्रतिशत
ब्याज दर पर क़र्ज़ मिलेगा .अभी किसानों को फसल के लिए बैंकों से सात
प्रतिशत के दर से क़र्ज़ मिलता है .स्कीम पूरे देश में लागू की जा रही है .
इस सारी योजना को राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन ( नैशनल रूरल लाइवलीहुड
मिशन ) के अधीन रखा गया है . केंद्रीय मंत्रिमंडल ने १ मई को हुई अपनी
बैठक में यह फैसला कर लिया था लेकिन कर्नाटक में चुनाव के कारण लागू
आचारसंहिता के प्रावधानों के कारण मतदान के बाद आज इसकी घोषणा की गयी
.केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री, जयराम रमेश ने अपने कमरे में कुछ
पत्रकारों को बुलाकर सरकारी फैसले और योजना की जानकारी दी . ग्रामीण
विकास मंत्री ने यह भी बताया की अपने बजट भाषण में जिस महिला बैंक की
स्थापना की घोषणा वित्तमंत्री ने की थी , उस बैंक को राष्ट्रीय
ग्रामीण आजीविका मिशन की इस योजना के लिए पूरी तरह से समर्पित कर दिया
जाना चाहिए .जयराम रमेश ने वित्तमंत्री को एक चिट्ठी लिखकर आग्रह किया है कि
जिस तरह से कृषि के लिए नाबार्ड की स्थापना की गयी है उसी तरह से
महिलाओं के बैंक की भी स्थापना की जाए जो पूरी तरह से महिलाओं के सेल्फ
हेल्प ग्रुपों के काम के लिए समर्पित हो .
जानकार बता रहे हैं कि २०१४ के चुनावों के पहले केंद्र सरकार कुछ ऐसे
कार्यक्रम लागू करना चाहती थी जिसके बाद यूं पी ए सरकार की गरीब के
हितैषी की छवि बन सके . इसी सिलसिले में सरकारी सब्सिडी और वजीफों को
डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर की योजना के तहत लागू किया गया था. केंद्र
सरकार संसद के बजट सत्र में ही खाद्य सुरक्षा बिल पास करवा लेना चाहती
थी जिसके बाद गरीबों को पूरे देश में केंद्र सरकार के सौजन्य से सस्ता
अनाज मिलता लेकिन बीजेपी ने संसद में हल्ला गुल्ला जारी रखकर कांग्रेस की
चुनावी लिहाज़ से मुफीद योजना को रोक दिया . इमकान है कि राष्ट्रीय
ग्रामीण आजीविका मिशन गरीब महिलाओं को लाभ पंहुचाएगा और उसके बाद केंद्र
सरकार की छवि एक कल्याणकारी सरकार के रूप में बनायी जा सकेगी कांग्रेस को
.इसका फायदा आगामी चुनावों में भी मिल सकता है .
ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने आज जिस योजना का ऐलान किया है उसमें
कई परते हैं . देश के १५० जिलों में महिलाओं के आत्मसहायता समूहों (
सेल्फ हेल्प ग्रुपों ) को बैंको से सात प्रतिशत रेट पर क़र्ज़ मिलेगा . अभी
क़र्ज़ का रेट ग्यारह से चौदह प्रतिशत के बीच है . ऐसा करने में बैंको को
जो घाटा होगा उसकी भरपाई केंद्र सरकार करेगी . यानी बैंकों को सब्सिडी
दी जायेगी इस योजना की एक ख़ास बात यह है की अगर महिलाओं के आत्मसहायता
समूह समय से क़र्ज़ वापस कर देगें तो ब्याज दर चार प्रतिशत ही रह जायेगे .
इस योजना में देश के सभी ८२ नक्सल प्रभावित जिले शामिल किये गए हैं .
मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ के जिलों की संख्या सबसे ज्यादा है . चौदह जिले
मध्य प्रदेश के हैं और दस जिले छत्तीसगढ़ के शामिल किये गए हैं लेकिन अब
कुछ नए जिले बन गए हैं लिहाज़ा छत्तीसगढ़ के वे दस जिले अब चौदह जिले हो गए हैं .
पहले चरण के इन एक सौ पचास जिलों में ब्याज की सब्सिडी का सारा बोझ
केंद्र सरकार उठायेगी . बाकी चार सौ तिहत्तर जिलों में भी महिलाओं के
आत्मसहायता समूहों ( सेल्फ हेल्प ग्रुपों ) को बैंको से क़र्ज़ सात प्रतिशत
के रेट से ही मिलेगा लेकिन उसको लागू करने का तरीका अलग होगा . वहां
ब्याज की सब्सिडी का ७५ प्रतिशत केंद्र सरकार देगी जबकि २५ प्रतिशत भार
राज्य सरकारों को उठाना पडेगा .इस योजना में इस साल १६५० करोड़ रूपये का
खर्च आयेगा जिसमें से केंद्र सरकार का हिस्सा १४०० करोड़ रूपये होगा.
बाकी २०० करोड़ राज्य सरकारों को लगाना होगा
अब तक महिलाओं के आत्मसहायता समूहों ( सेल्फ हेल्प ग्रुपों ) की सदस्यता
के लिए बी पी एल कार्ड धारकों को ही योग्य माना जाता था लेकिन अब यह नहीं
होगा . ग्राम पंचायत गरीब महिलाओं की पह्चान करेगी और जिसे महिला को
ग्राम पंचायत सदस्यता के लिए योग्य चिन्हित कर देगी वह महिलाओं के
आत्मसहायता समूहों ( सेल्फ हेल्प ग्रुपों ) का सदस्य बन सकेगी .
इस स्कीम को लागू करने के लिए एक सोसाइटी बनायी जायेगी जिसके अध्यक्ष
केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री होगें . यह सोसाइटी केंद्र सरकार से अलग
एक स्वायत्त संगठन के रूप में काम करेगी . अभी देश में महिलाओं
के आत्मसहायता समूहों की संख्या २५ लाख है हैं जिनकी सदस्य संख्या तीन
करोड़ है . सरकार का लक्ष्य है की अगले पांच साल में महिलाओं के
आत्मसहायता समूहों ( सेल्फ हेल्प ग्रुपों ) की संख्या साठ लाख हो जायेगी
और सदस्यों की संख्या सात करोड़ तक पंहुच जायेगी .

Tuesday, May 7, 2013

Pointers for 2014

Pointers for 2014
As the air gets hotter to signal a scorching midsummer across India, one can smell the scent of elections that will happen this year in some states, beginning with Karnataka and on to Delhi, Rajasthan, Madhya Pradesh and Chhattisgarh. And collectively, the ambience makes the summer 2014 Lok Sabha polls look that much closer. Political 'accidents' like withdrawal of support by more

UPA partners can bring them actually closer. Already pointers are palpable about which way the Lok Sabha elections may go. Senior journalist and research scholar Shesh Narain Singh takes a long look at the scene
Lok Sabha elections in 2014 are going to be a great test for our maturing democracy. Although the whole of India will decide the shape of the government after the elections, the so called BIMARU (a delightful acronym coined by demographer Ashis Bose for Bihar, Madhya Pradesh, Rajasthan and Uttar Pradesh) states will have significant political sway in shaping the next government.

Bihar, Jharkhand, Madhya Pradesh, Chhattisgarh, Uttar Pradesh, Uttarakhand and Rajasthan are likely to be the swing states and a winner here is likely to rule at the Centre. More than 200 Lok Sabha seats in these states are going to be the real pointers to the future Indian government.
BJP's dream
Actually the dream of the BJP to rule the country is dependent on the performance of these states. Other states where the BJP is likely to get support are Gujarat, Maharashtra, Punjab and Haryana. Out of 88 seats in these states the BJP might win over 50 seats. And if they are able to do well in the BIMARU states, any worker of the BJP could be the prime minister come 2014. For this dream to become a reality it is important to note that the BJP will have to crosses the 200-seat mark on its own. Therefore if they are able to win in at least 100 seats from the BIMARU states they will be able to reach the 200 mark easily.
Numerically Uttar Pradesh is a very important state. When Atal Bihari Vajpayee formed the government at the centre UP played a very important role. But now, UP is not a very significant contributor to the Lok Sabha numbers for the BJP. The party is trying to polarise the electorate in the state by putting Narendra Modi as a possible prime minister. If that happens the BJP might gain a significant number of seats in the state. The party is hoping to garner the support of the Hindus.
Narendra Modi
Rahul-Modi projection
However, uncertainty still persists about the future of the BJP-led National Democratic Alliance (NDA). Its second biggest partner JD-U has made it clear that it will not accept Gujarat chief minister Narendra Modi as the PM candidate of the alliance. Of course, BJP has not made Modi its man for the honour yet and harps that JD-U is a trusted ally that will not leave the alliance. Back channel efforts are on to sort out the matter even as JD-U is insisting that the NDA declare its PM candidate. The war of attrition is likely to stretch till close to the Lok Sabha polls.
Rahul Gandhi
The Congress led UPA alliance is not on solid ground either as far as its future is concerned. It has already lost two major allies -Trinamool Congress and DMK. Recent developments like the hanging of Afzal Guru suggest that its minor partner National Conference of Jammu and Kashmir may not be with UPA to fight the next elections. The Congress-NCP relations are not free from friction either. It is not clear how the UPA is going to make up for the loss of Trinamool and DMK.

JD-U, unhappy may be in NDA at the moment, will not find the scamtainted UPA as an alternative as Nitish Kumar's main flank is fighting corruption. AIADMK in Tamil Nadu and
Biju Janata Dal in Orissa may well be wooed by the Congress but how far the two are willing is a million dollar question. If at all, they may be willing only after the polls.

The Congress is also not certain about its PM candidate though family loyalists like Digvijaya Singh insist that Rahul Gandhi has not said a definite 'No' to the honour in case Congress is able to manage a simple majority on its own or with trusted allies. Such a scenario looks rather too dreamy at the moment. As things stand today, the Modi-Rahul rivalry and the duo's projection to the electorate as PM candidates will continue to occupy the national consciousness.
Muslim votes
In UP, the Muslims pay a very significant role in results of the elections. Ever since 1952 they have voted for the Congress, but just before the 1977 elections when the Congress under the influence of Sanjay Gandhi experimented with soft Hindutva, they lost the Muslim vote bank only to regain it in the 1980s. They remained loyal to the Congress till 1992 but after that when the Congress under the leadership of P V Narsimha Rao was seen as a collaborator of the RSS; the Muslims started looking for non-Congress political options. In UP this translated into support for Mualayam Singh Yadav’s Samajwadi Party to the extent that today Muslims along with the OBCs are the main vote base of the Samajwadi Party. But
Mualayam Singh Yadav
the Muslims have learnt from their mistakes with the Congress, they do not give full and unconditional support to the Samajwadi Party on all the seats. Now, they vote strategically and support the Congress candidates on many seats as well. The main concern of the Muslim voter in UP, like in any other state, is to keep the BJP out of power. If the BJP projects Narendra Modi as a possible prime ministerial candidate, then the Muslims will in all likelihood vote for the party that is the largest political force able to stop BJP from coming to power. This was also the consideration in UP during the Lok Sabha elections of 2009. The Congress party which was not able to even win 30 seats in the 2007 and 2008 Vidhan sabha elections was able to win 22 seats in Lok Sabha elections of 2009, thanks to the Muslim vote. In case Narendra Modi takes the center stage, we should expect a repeat of the 2009 performance. But Narendra Modi might be able draw the support of more Hindus than just the traditional voters of the BJP. In that case, the Samajwadi Party and the Bahujan Samaj Party will lose to the BJP and the Congress.
OBC identification
Nitish Kumar
In the age of identity politics, how the OBCs identify themselves will also be an important factor. Whether the OBCs see themselves as Hindus first or the beneficiaries of the Mandal commission will decide whom they vote for. In case the OBCs decide to go with their Hindu sentiments the BJP will come out as the winners. As a reaction to this the Muslims plus the anti-Modi voters will ensure that the Congress also has a honourable presence in UP. If that happens Samajwadi Party and Bhaujan Samaj Party will suffer significant losses. Everybody knows that without the support of Muslims neither Mualayam Singh Yadav nor Mayawati will be able to win many seats. No one caste in Uttar Pradesh can ensure a victory for a candidate on any seat in UP!
Bihar is a different story from UP. The BJP is the smaller partner of the ruling party- JD (U). No doubt, Nitish Kumar is the Chief Minister of Bihar with the support of the BJP, but it is an open secret that he has been trying to distance himself from the BJP for quite sometime now. After his Adhikar Rally at the Ramlila maidan in New Delhi, the analysts have predicted on several TV channels that Nitish Kumar will not add to the numbers that might make Narendra Modi or any other BJP worker prime minister.

In this political climate the possibility of Nitish Kumar joining hands with the Congress is a real possibility. BJP also has got an inclination of Nitish Kumar’s changed mood and so they are exploring other avenues as well. Narendra Modi has travelled to Bihar many times mostly on social occasions but , everybody knows, when a politician visits a place there is bound to be some politics. In all likelihood Bihar will see a polarization in the vote- Narendra Modi and his party will try playing the Hindu card but this may in turn solidify the anti-BJP votes. Like UP, if the Mandal commission beneficiaries decide to go with there identity as OBCs, then the BJP will be a major loser. As of now, Nitish Kumar is trying to play on these sentiments. If he is able to garner the support of OBCs and give an impression that he is the one who will ensure that Narendra Modi does not become the prime minister, he is likely to come out with maximum number of seats in Bihar.
Rajasthan, MP
In Rajasthan the Congress has created many enemies. Many communities who traditionally voted for the Congress are feeling alienated. The party is trying to win over the Jats, almost all the heads of the frontal organisations come from that community. The traditional voters of the Congress are drifting away from the party as they feel that in an attempt to woo the Jats everybody else has been marginalised. Favouring the Jats over the others the Chief Minister has successfully annoyed all the sections of people in the state! Anti incumbency is also going to play a very important role in Rajasthan. Former Chief Minister Vasundhara Raje is being seen as the future chief minister of the state . She has
Vasundhara Raje
Shivraj Singh Chauhan
established good relations with the elders in her party at the state level. During the previous term of Rajnath Singh as BJP president, Vausndhara Raje had fought with the BJP high command but now that situation is much improved. Rajnath Singh thinks of Vasundhara Raje as a very capable leader . Even the Congress leadership feels that they are not going to repeat their performance in Rajasthan. Hence in all probability, Rajasthan is going to be the state where the BJP will have an upper hand .

Madhya Pradesh and Chhattisgarh have been with BJP for almost 10 years now. The chief minister Shivraj Singh Chauhan is deemed to be a very successful Chief Minister . His
media management is marvellous; with the help of the media he has created a perception that he is invincible. But if one were to travel into the state one would find many BPJ politicians who do not share the same view of the Chief Minister. Most of the BJP leaders of Madhya Pradesh would like to get rid of their Chief Minister but his PR management in New Delhi is such that the BJP high command thinks of him as a good political manager. However his own party members from the state are seen telling journalists that if the Congress could get its act together in Madhya Pradesh they can actually win the state. Actually what Ashok Gehlbach has done to his party in Rajasthan, Shivraj Singh Chauhan has brought to his party in Madhya Pradesh.
Smaller states
Smaller states in the BIMARU region will be playing their traditional role. Only Jharkhand is likely to go away from both the BJP and Congress because Babulal Marandi has been working there in the remote villages and he is very popular. The Congress is expecting to team up with him before the elections, but that seems unlikely to happen as he is in a comfortable position. . In Uttarakhand and Chhattisgarh there are going to be no surprises for either Congress or the BJP.

These are just the early indicators. One factor that will affect the outcome in the whole of India is the Direct Benefit Transfer scheme of the central government. Almost all the
Babulal Marandi
scholarships, old age pension and other financial gains that will impress the poor and the youth will affect the population in the BIMARU states as well. When one converts the outcomes of these schemes in terms of votes the marginal seats may swing towards the Congress making 2014 a very interesting election year.

Monday, May 6, 2013

तालिबान का फरमान---महिलायें वोट नहीं देगीं,पाकिस्तानी लड़कियों ने कहा--देखें कौन रोकता है


    

शेष नारायण सिंह

पाकिस्तान में ११ मई को होने वाले आम चुनाव पर पूरी दुनिया की निगाहें लगी हुई हैं . दुनिया भर के , खासकर पश्चिमी देशों के अखबारों में उसके बारे में ख़बरें छप रही हैं .लोकशाही की पक्षधर जमातों को लग रहा है कि शायद पाकिस्तान में मजबूती के साथ सिविलियन और लोकतांत्रिक हुकूमत कायम हो सके . लेकिन लगता है कि पिछले पचास साल से साम्प्रदायिक ताक़तों ने जो विचारधारा का शून्य पैदा किया है उसके चलते अभी पाकिस्तान में  लोकतंत्र की स्थापना में बहुत वक़्त लगेगा . पाकिस्तान के मौजूदा चुनाव के लिए सबसे बड़ा ख़तरा पुरातनपंथियों और तालिबानी सोच के लोगों से है . पाकिस्तान के सूबा सरहद में तालिबानियों की ओर से पर्चे बांटे जा रहे हैं जिसमें अपील की जा रही है कि चुनाव के दिन कोई भी महिला घर से बाहर न निकले और वोट न डाले . सूबा सरहद को अब खैबर पख्तूनख्वां नाम दे दिया गया है . सूबे के मर्दों को हिदायत दी जा रही है कि अपने घर की औरतों को वोट डालने के लिए घर से बाहर न निकलने दें . जो पर्चे बांटे जा रहे हैं उनमें लिखा है कि औरतों के लिए डमोक्रेसी में शरीक होना गैर इस्लामी है .

पाकिस्तानी तालिबान की इस गैर ज़िम्मेदार जिद के आगे पाकिस्तानी लड़कियों का एक ग्रुप खड़ा हो गया है . अवेयर गिल्स नाम का  युवतियों का यह संगठन तालिबानियों को हर मुकाम पर चुनौती दे रहा है. मलाला युसुफजई नाम की जिस लडकी को स्कूल जाने से रोकने के लिए तालिबानियों ने  हमला किया था, वह इसी  संगठन की सदस्य है और आजकल लन्दन में शिक्षा पा रही है . अवेयर गर्ल्स  नाम के संगठन की संस्थापक सबा इस्माइल ने अपने संगठन की स्थापना करीब आठ साल पहले की थी जब वह केवल १६ साल की थी . आज वह २४ साल की हैं इसकी निदेशक हैं . वे तालिबानियों की मर्दवादी सोच को नाकाम करने के लिए  धमकियों की परवाह किये बिना अपना काम कर रही है . अवेयर गर्ल्स का मकसद बिलकुल साफ़ है . वह औरतों के अधिकारों के लिए उनको जागरूक करने का अभियान चला रहे है.’इस संगठन की शुरुआत इसलिए हुई  कि सबा इस्माइल ने देखा कि उसके अपने घर में लड़कों को ज्यादा अहमियत दी जा रही  थी जबकि उन्हीं लड़कों की सगी बहनों को दूसरे दर्जे का इंसान माना जा रहा था. यही हाल बाकी घरों का भी था . उनकीछोटी  चचेरी बहन कुल १५ साल की थी और उसकी शादी उस से दुगुनी उम्र के आदमी के साथ तय कर दी गयी थी. वह पढाई नहीं पूरी कर सकी जबकि उससे बड़े उसके भाई पढ़ रहे .उनके मोहल्ले में ऐसा माहौल था कि जो लडकियां चुपचाप फटकार और मारपीट को क़ुबूल कर लेती थीं उनकी बहुत इज्ज़त  होती थी . जो औरत अपने बाप या पति की हर उल्टी सीधी बात को मान लेती थी उसे  बहुत सम्माननीय माना जाता था . अवेयर गर्ल्स ने इसका विरोध  किया और आज जब तालिबानी सोच के लोग लड़कयों को वोट नहीं देने की हिदायत दे रहे हैं तो खैबर पख्तूनख्वां  में यह लडकियां इन्साफ के हरावल दस्ते में शामिल हैं .पाकिस्तानी समाज की मर्दवादी सोच को उनके घर में ही इन बहादुर लडकियों से चुनौती मिल रही है .
 पाकिस्तान के ११ मई को होने वाले चुनाव को नौजवानों का चुनाव कहा जा रहा है . कुल मतदाताओं का करीब ३५ प्रतिशत १८ से २९ साल की आयु वर्ग में शामिल है . ऐसे माहौल में पूरे देश में लडकियां मैदान ले चुकी हैं और सरकार, सेना और तालिबानी सोच के नेताओं को लगातार चुनौती दे रही हैं .२००८ के चुनावों में बहुत सारे पोलिंग बूथों को जला दिया गया था और कहा गया था कि वोट देना ऐसा काम है  जिसमें महिलाओं को शामिल नहीं होना चाहिए क्योंकि वह बहुत ही गन्दा काम है . सबा इस्माइल का कहना है कि पाकिस्तान में जहां औरतों को वोट देने का मौक़ा भी नसीब होता है वहाँ उनके पति या पिता या और कोई पुरुष रिश्तेदार तय करता है कि वोट किसको दिया जाना है .यह लड़कियां इस व्यवस्था को खत्म करना चाहती हैं . उनका आरोप है कि कोटा पूरा करने के लिए जिन कुछ महिलाओं को राजनीतिक प्रक्रिया में शामिल होने दिया जाता है उन्हें भी अपनी मर्ज़ी से कोई फैसला लेने का हक नहीं होता . उनको भी उनके परिवार के मालिक अपने हुक्म से हांकते हैं .
सेना ने ऐलान कर रखा है कि ७० हज़ार सैनिकों को चुनावी ड्यूटी पर लगाया जायेगा .बलूचिस्तान और खैबर पक्तूनख्वां में लड़कियों को वोट देने से रोकने के लिए आतंकवादियों ने बहुत जोर लगा रखा है . इसके बावजूद भी उम्मीद की जा रही है कि इस बार २००८ के ४४ प्रतिशत से ज़्यादा वोट पडेगा और लड़कियों के आन्दोलन का नतीजा होगा कि तालिबान के गढ़ में भी महिलायें पहले से ज्यादा वोट डालने में सफल होगीं .

Saturday, May 4, 2013

चीनी घुसपैठ के पीछे कहीं उस इलाके का यूरेनियम तो नहीं है ?



शेष नारायण सिंह
लद्दाख में चीनी सेना भारतीय नियंत्रण वाले कुछ क्षेत्रों में घुस आयी है और भारत में इस मुद्दे पर राजनीतिक तूफ़ान मचा हुआ है . मीडिया में हायतोबा मची हई है जैसे दोनों देशों के बीच युद्ध शुरू हो गया हो . भारत में चीन के सन्दर्भ में बहुत भावनात्मक स्तर पर प्रतिक्रिया होती है क्योंकि पचास साल बीत जाने के बाद भी यहाँ १९६२ का चीन का हमला कोई भी नहीं भूल पाया है . चीन के इस काम को कूटनीतिक हलकों में समझ पाना बहुत मुश्किल हो रहा है क्योंकि चीन के मौजूदा रुख से उसका बहुत नुक्सान होने वाला है . आजकल भारत और चीन के बीच व्यापार बहुत बड़े पैमाने पर हो रहा है . २००१ में दोनों देशों के बीच करीब 150 अरब रूपये का कारोबार होता था आज वह बहुत बड़ा हो गया है .बीते साल भारत और चीन के बीच करीब 3300  अरब रूपये का कारोबार हुआ  . इस कारोबार में चीन मुख्य लाभार्थी हैं क्योंकि चीन भारत को जो कुछ निर्यात करता है उसका एक बहुत ही मामूली हिस्सा वह भारत से आयात करता है यानी भारत-चीन व्यापार का पलड़ा चीन के पक्ष में झुका हुआ है और  चीन के तेज़ी से हो रहे आर्थिक विकास में चीन से होने वाले निर्यात का भी योगदान है . अगर दोनों देशों के बीच रिश्ते खराब होते हैं तो जाहिर है यह व्यापार भी प्रभावित होगा और उसका आर्थिक नुक्सान चीन को ही उठाना होगा. भारत से अच्छे संबंधों का कूटनीतिक लाभ चीन को बाकी दुनिया में भी मिल रहा है . ब्रिक्स देशों की जो राजनीति है उसमें चीन को रूस,ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका की तरह ही भारत के साथ होने का लाभ मिल रहा है भारत की हैसियत अंतरराष्ट्रीय राजनीति में हमेशा से ही एक प्रभावशाली देश की रही है .यहाँ तक कि जब भारत एक गरीब देश माना जाता था तब भी गुटनिरपेक्ष देशों के नेता के रूप में भारत की पहचान एक ऐसे देश की थी जो अमरीका और रूस की मर्जी के खिलाफ कोल्ड वार में सीधे शामिल होने को तैयार नहीं था. चीन को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि १९६२ में जब उसने भारत पर हमला किया था तो उसकी छवि एक आक्रांता देश के रूप में बन गयी थी . पूरी दुनिया में चीन को एक शान्तिविरोधी देश के रूप में देखा जाता था . वह तो जब अपनी आन्तारिक राजनीतिक मजबूरियों को ठीक करने के लिए अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और विदेशमंत्री हेनरी किसिंजर ने चीन के साथ सम्बन्ध ठीक करने की योजना पर काम करना शुरू किया तब जाकर अंतरराष्ट्रीय जगत में चीन को स्वीकार करने का रिवाज़ शुरू हुआ . इसलिए यह पहेली समझ में नहीं आती कि चीन भारत से रिश्ते खराब करने के लिए क्यों कोशिश करता नज़र आ रहा है जबकि उसमें उसका कोई फायदा नहीं होने वाला है बल्कि नुक्सान ही ज्यादा होगा . बाकी दुनिया की तरह चीन को भी मालूम है कि भारत को आसानी से धमकाया नहीं जा सकता क्योंकि चीन की तरह ही भारत भी परमाणु हथियार संपन्न देश है और उसकी सैनिक क्षमता १९६२ की तुलना में बहुत ही अच्छी है.
चीन की आतंरिक और पड़ोसी राजनीति भी उसे किसी और मोर्चे पर दुश्मनी का राग शुरू करने की अनुमति नहीं देती . अपने दो महत्वपूर्ण पड़ोसियों जापान और फिलीपीन से उसके कूटनीतिक सम्बन्ध बहुत खराब हो चुके हैं और  रोज ही बिगड रहे हैं . चीन के अंदर भी कुछ राज्यों में तनाव का माहौल है .कुछ राज्यों में अलग अलग समूहों के बीच हिंसक वारदात हो रही हैं .लद्दाख  के देस्पांग इलाके में चीन के सैनिकों की तरफ से पांच टेंट लगा लेने का जो सन्देश भारत की अवाम के बीच पंहुचा है वह १९६२ में खराब हुए रिश्तों को और खराब कर देने की क्षमता रखता है . भारत में एक ताक़तवर विपक्ष है और उस विपक्ष की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी भारतीय जनता पार्टी है जिसको चीन के खिलाफ जनमत बनाने से राजनीतिक फायदा होता है क्योंकि वह  देश में एक सन्देश देने की कोशिश करती है कि वामपंथी राजनीतिक विचारधारा वाला चीन हमारा सबसे बड़ा दुश्मन है और उसका विरोध किया जाना चाहिए. उसके साथ साथ ही बीजेपी राजनीतिक रूप से ऐसा माहौल बनाने की कोशिश करती है कि भारत में उन राजनीतिक पार्टियों का विरोध किया जाना चाहिए जो कम्युनिस्ट विचारधारा से किसी तरह का वास्ता रखती हों .

इस पृष्ठभूमि भारत से किसी तरह की दुश्मनी चीन के लिए भी घातक हो सकती है इसलिए लद्दाख में उसकी कारस्तानी को समझने के लिए और कुछ और पक्षों पर नज़र डालना होगा .आज की सच्चाई यह है कि लद्दाख क्षेत्र में चीनी सेना भारत के इलाक में घुस गयी है और करीब बीस किलोमीटर अंदर आकर अपने टेंट लगा दिए हैं . गाफिल पड़े भारतीय मिलिटरी इंटेलिजेंस वालों की तरफ से तरह तरह की व्याख्याएं सुनने को मिल रही है लेकिन सच्चाई यह है कि भारतीय सीमा में चीनी सैनिक जम गए हैं और ताज़ा जानकारी के मुताबिक वे वहाँ से हटने को तैयार नहीं हैं .जम्मू-कश्मीर में लद्दाख के दौलत बेग ओल्डी सेक्टर में घुसे चीनी सैनिकों ने  तंबू लगाकर अस्थायी चौकी बना ली है.चीन के टेंट को हटाने की कूटनीतिक कोशिशें जारी हैं लेकिन चीनी सेना फिलहाल पीछे हटने को तैयार नहीं है। दोनों पक्षों के बीच कई बार फ्लैग मीटिंग होने के बावजूद चीन अपने रुख पर अड़ा हुआ है। इस मसले को बातचीत से सुलझाने की बजाय चीनी सैनिक भारतीय क्षेत्र में और भीतर तक बढ़ने की कोशिश में हैं। सूत्र बताते हैं कि घुसपैठ कर रहे चीनी  सैनिकों के पास आधुनिक हथियार  हैं और वे वापस जाने के लिए नहीं आये हैं .
चीनी सेना ने जिस इलाके में घुसपैठ की है वहाँ कोई आबादी तो नहीं है लेकिन इस बात की भी चर्चा है कि उस क्षेत्र में भूगर्भ वैज्ञानिकों ने यूरेनियम होने के संकेत दिए हैं .अगर ऐसा है तो दोनों ही देशों के  लिए इस क्षेत्र का महत्व बहुत बढ़ जाता है कि क्योंकि परमाणु ऊर्जा और परमाणु हथियारों के  लिए  यूरेनियम की ज़रूरत पड़ती ही रहती है . यह बात अभी पक्के तौर पर नहीं मालूम है लेकिन अगर चर्चा है तो धीरे धीरे सब कुछ साफ़ हो जाएगा. भारत में चीन की इस कारस्तानी की तरह तरह से व्याख्या की जा रही है .जानकार बता रहे हैं कि चीन लदाख में भारतीय इलाके में  घुसकर ऐसा माहौल बनाने के चक्कर में है जिससे वह भारत पर दबाव बढ़ा  सके जिस से भारत अपनी सीमा के अंदर जो सड़कें आदि बना रहा है उसे रोका जा सके .चीन ने अपनी तरफ तो बहुत सारी कांक्रीट वाली सड़कें बना ली हैं रेलवे लाइनें बिछा दी हैं  यहाँ तक कि कश्मीर के उन इलाकों में भी चीनी कब्जा हो चुका है जिसे पाकिस्तान के कब्जे वाला कश्मीर कहा जाता है .दुनिया जानती है कि पाकिस्तान की हिम्मत चीन के हितों की अनदेखी करने की नहीं है .लेकिन चीन ने भारत में उन लोगों के सामने मुश्किल खड़ी कर दिया है जो दोनों देशों के बीच में  रिश्ते सुधारने के पक्ष में हैं . लद्दाख में चीनी सेना के तम्बुओं ने भारत के उदारमना लोगों की मुश्किल बढ़ा दी है . लेकिन चीन की अपनी रणनीति है .उसने कूटनीतिक चैनलों के ज़रिये यह बात भारत तक पंहुचा दिया है कि दोनों देशों की विवादित सीमा में भारत के कब्जे वाले इलाके में भी अगर भारत कोई स्थायी निर्माण करता है तो वह चीन को स्वीकार नहीं होगा . यह भारत के हित में है कि चीन की इस बात को वह गंभीरता से न ले और तेज़ी से अपना काम करता रहे . अपनी सीमा के अंदर भारत भी चीन की तरह मज़बूत सड़कें वगैरह बनवाता रहे और सीमा पर ऐसी तैयारियां रखे कि अगर चीन किसी तरह के सैनिक एडवेंचर की कोशिश करे तो उसको माकूल जवाब दिया जा सके. कूटनीतिक मोर्चे पर चीन की स्थिति बहुत साफ़ है . वह यह मानने को तैयार नहीं है कि कहीं कोई गडबड है . चीनी नेता तो यह भी मानने को तैयार नहीं है कि उनके हेलीकाप्टरों ने भारतीय  इलाके में कोई घुसपैठ की थी. इस बीच दोनों देशों के बीच बातचीत का सिलसिला भी जारी है . अगले हफ्ते भारत के विदेशमंत्री सलमान खुर्शीद चीन की यात्रा पर जा रहे हैं .हालांकि भारत की कुछ विरोधी पार्टियां इस दौरे का विरोध कर रही हैं. बीजेपी का विरोध तो शुद्ध रूप से राजनीतिक है लेकिन मनमोहन सिंह की सरकार को समर्थन दे रही समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव भी चीन से अच्छे संबंधों की कीमत पर सीमा पर चीन की गतिविधियों के घोर विरोधी हैं . उन्होंने पिछले दिनों संसद में बहुत ही ज़ोरदार शब्दों में भारत की चीन नीति का विरोध किया और मांग की कि जब तक चीन अपनी सेना को भारत के क्षेत्र से वापस नहीं बुला लेता तब  तक विदेशमंत्री को चीन जाने की ज़रूरत नहीं है .
 अमरीका भी भारत और चीन के अच्छे संबंधों का  पक्षधर हो गया है .अमरीकी विदेश विभाग के प्रवक्ता पैट्रिक वेंट्रल ने अपनी नियमित प्रेस वार्ता में बताया कि अमरीका चाहता है कि भारत और चीन अपने सीमा विवाद को आपसी बातचीत से बिना किसी अन्य देश के सहयोग  के खुद  हल कर लें .यह अलग बात है कि भारत और चीन को अब अमरीकी राय की कुछ भी परवाह नहीं है लेकिन हर देश के मामलों में दखल देने की आदत बना चुके अमरीका को कुछ न कुछ कहना होता है सो उसने भी अपना फ़र्ज़ पूरा कर दिया है .
इस बीच संतोष की बात यह है कि चीनी घुसपैठ के बावजूद दोनों देशों के बीच सामान्य संवाद की स्थिति बनी हुई है . चीन की यात्रा पर जा रहे विदेशमंत्री की यात्रा का विरोध बीजेपी वाले कर ही रहे हैं . लेकिन वे जायेगें . समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने अपने लोकसभा वाले भाषण में कह दिया था कि सेना के मुखिया ने सरकार से लद्दाख क्षेत्र में घुस आये चीनियों को खदेड़ने की अनुमति माँगी है . यह गंभीर मामला है क्योंकि सेनाध्यक्ष  को सरकार के हुक्म का पालन करना  होता है उनके पास किसी तरह का कूटनीतिक दखल देने का अधिकार नहीं होता . बहरहाल सुरक्षा मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति के सामने बुधवार को सेनाध्यक्ष की पेशी हुई और उनसे स्थिति की सही जानकारी ली गयी . उन्होने  साफ़ किया कि उन्होंने ऐसी कोई बात कहीं नहीं की थी और सेना की तैयारी के बारे में भी सरकार को जानकारी दी. सेना का चीनी सेना के साथ प्रस्तावित अभ्यास भी अभी रद्द नहीं किया गया है . दो देशों की सेनाएं समय समय पर  अभ्यास करती रहती हैं .इसके अलावा मई दिवस के दिन भारतीय सेना का एक प्रतिनधिमंडल चीन की सीमा में जाकर उनके समारोह में शामिल हुआ . दोनों देशों के बीच साल में चार बार इस तरह की औपचारिक मुलाकातें होने की परम्परा है . चीनी सेना के अफसर भारत की सीमा में १५ अगस्त और २६ जनवरी को आते हैं और भारतीय सेना का प्रतिनिधिमंडल चीन की तरफ  मई दिवस  के लिए १ मई को और चीन के राष्ट्रीय दिवस के जश्न के लिए १ अक्टूबर को जाता है . दुनिया के शांतिप्रिय लोगों की नज़र चीनी घुसपैठ पर  लगी हुई है क्योंकि अगर दो बड़े देशों के बीच तनाव बढ़ेगा तो शान्ति को बहुत बड़ा नुक्सान होगा.