शेष नारायण सिंह
तेलंगाना के विवाद के चलते हैदराबाद एक बार फिर चर्चा में है. जब भी हैदराबाद का ज़िक्र आता है , समकालीन इतिहास का कोई भी विद्यार्थी सरदार पटेल को याद किये बिना नहीं रह सकता.३१ अक्टूबर और १५ दिसंबर के दिन सरकारी तबकों में सरदार पटेल को याद करना फैशन है . हालांकि ३१ अक्टूबर को इंदिरा गाँधी के मौत के चलते कांग्रेसी लोग उसी में व्यस्त रहते हैं लेकिन आज भी देश का समझदार वर्ग इस अवसर पर कुशल राज्य के उस महान प्रणेता और हैदराबाद के सबंधों को याद करना ज़रूरी समझता है .१५ अगस्त १९४७ को जब आज़ादी मिली तो सरदार को इस बात अनुमान हो गया था कि उनके पास बहुत वक़्त नहीं बचा है ..गृहमंत्री के रूप में उनके सिर पर समस्याओं का अम्बार लगा था .अंग्रेजों ने ऐसे ऐसे खेल रच रखे थे कि भारत के गृहमंत्री को एक मिनट की फुरसत न मिले..लेकिन सरदार पटेल की नज़र में भी लक्ष्य और उसको पूरा करने की पक्की कार्ययोजना थी और अपने सहयोगी वी पी मेनन के साथ मिल कर वे उसको पूरा कर रहे थे..
अंग्रेजों ने आज़ादी के बाद जो देश छोड़ा था उसमें ऐसे बहुत सारे देशी राजा थे जो अपने को भारत से अलग रखना चाहते थे. इन राजाओं को अंग्रेजों का नैतिक समर्थन भी हासिल था. मुल्क का बंटवारा हो चुका था और देश , ख़ास कर पंजाब और बंगाल में बड़े पैमाने पर दंगे भड़के हुए थे .. लेकिन सरदार पटेल ने देश की एकता और अखंडता के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया . जब १५ दिसंबर १९५० को उन्होंने अपना शरीर त्याग किया तो आने वाली नस्लों के लिए एक ऐसा देश छोड़ कर गए थे जो पूरी तरह से एक राजनीतिक यूनिट था ..दुर्भाग्य यह है कि आज के नेता अपनी अदूरदर्शिता के चलते उसी देश को फिर तरह तरह के टुकड़ों में बांटने में लगे हुए हैं . हैदराबाद के लिये एक बार फिर लड़ाई शुरू हो गयी है . तेलंगाना और बाकी आन्ध्र प्रदेश के लोग हैदराबाद के लिए दावेदारी ठोंक रहे हैं . शायद इन में से किसी को पता नहीं होगा कि कैसे सरदार पटेल ने हैदराबाद को तबाही से बचाया था.हैदराबाद को स्वतंत्र भारत का हिस्सा बनाने के लिए सरदार पटेल को बहुत सारे पापड बेलने पड़े थे अंग्रेजों ने हैदराबाद के निजाम,उस्मान अली खां , को पता नहीं क्यों भरोसा दिला दिया था कि वे उसकी मर्जी का पूरा सम्मान करेंगे और निजाम जो चाहेंगें वही होगा... किसी ज़माने में इंग्लैंड के सम्राट ने निजाम को अपना सबसे वफादार सहयोगी कह दिया था और १९४७ के आस पास जो लोग भी ब्रिटिश सत्ता के आसपास थे वे निजाम की भलाई के लिए कुछ भी करने को तैयार थे .स्वतंत्र भारत के पहले गवर्नर जनरल , लार्ड माउंटबेटन भी उसी जमात में शामिल थे . वे निजाम से खुद ही बातचीत करना चाहते थे . भारत के गृहमंत्री, सरदार पटेल ने उनको भारी छूट दे रखी थी . बस एक शर्त थी कि हैदराबाद का मसला सिर्फ और सिर्फ ,भारत का मामला है उसमें किसी बाहरी देश की दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं की जायेगी. उनके इस बयान में इंग्लैंड और पाकिस्तान दोनों के लिए चेतावनी निहित है ... उस वक़्त का हैदराबाद का निजाम भी बहुत गुरू चीज़ था. शायद उस वक़्त की दुनिया के सबसे धनी आदमियों में से एक था लेकिन कपडे लत्ते बिलकुल अजीब तरह के पहनता था. उसने एक ब्रिटिश वकील लगा रखा था जिसकी पहुँच लन्दन से लेकर दिल्ली तक थी. . सर वाल्टर मोक्टन नाम के इस वकील ने कई महीनों तक चीज़ों को घालमेल की स्थिति में रखा . इसकी सलाह पर ही निजाम ने भारत में पूर्ण विलय की बात न करके , एक सहयोग के समझौते पर दस्तखत करने की पेशकश की थी. . लार्ड माउंटबेटन भी इस प्रस्ताव के पक्ष में थे लेकन सरदार ने साफ़ मना कर दिया था. . इस बीच निजाम पाकिस्तान में शामिल होने की कोशिश भी कर रहा था .सरदार पटेल ने साफ़ कर दिया था कि अगर निजाम इस बात की गारंटी दे कि वह पाकिस्तान में कभी नहीं मिलेगा तो उसके साथ कुछ रियायत बरती जा सकती है . निजाम के राजी होने पर एक ऐसा समझौता हुआ जिसके तहत भारत और हैदराबाद एक दूसरे की राजधानी में एजेंट जनरल नियुक्त कर सकते थे..इस समझौते को करने के लिए निजाम को अपने प्रधानमंत्री, नवाब छतारी और ब्रिटिश वकील,सर वाल्टर मोक्टन की सलाह का लाभ मिला था लेकिन उन दिनों निजाम के ऊपर एक मुकामी नौजवान का बहुत प्रभाव था.उसका नाम कासिम रिज़वी था और वह इत्तेहादुल मुसलमीन का मुखिया था. कुख्यात रजाकार, इसी संगठन के मातहत काम करते थे . कासिम रिज़वी ने तिकड़म करके नवाब छतारी की छुट्टी करवा दी और उनकी जगह पर मीर लायक अली नाम के एक व्यापारी को तैनात करवा दिया . बस इसी फैसले के बाद निजाम की मुसीबतों का सिलसिला शुरू हुआ जो बहुत बाद तक चला...मीर लायक अली हैदराबाद के थे ,मुहम्मद अली जिन्ना के कृपापात्र थे और पाकिस्तान की तरफ से संयुक्तराष्ट्र जाने वाले प्रतिनिधि मंडल के सदस्य रह चुके थे... इसके बाद हैदराबाद में रिज़वी की तूती बोलने लगी थी .निजाम के प्रतिनिधि के रूप में उसने दिल्ली की यात्रा भी की. जब उसकी मुलाक़ात सरदार पटेल से हुई तो वह बहुत ही ऊंची किस्म की डींग मार रहा था. उसने सरदार पटेल से कहा कि उसके साथी अपना मकसद हासिल करने के लिए अंत तक लड़ेंगें .सरदार पटेल ने कहा कि अगर आप आत्महत्या करना चाहते हैं तो आपको कोई कैसे रोक सकता है ...हैदराबाद वापस जाकर भी, यह रिज़वी गैर ज़िम्मेदार करतूतों में लगा रहा ..इस बीच खबर आई कि हैदराबाद के बाहर के व्यापारियों ने वहां कुछ भी सामान भेजना बंद कर दिया है. निजाम की फ़रियाद लेकर वाल्टर मोक्टन दिल्ली पंहुचे और सरदार ने इस मसले पर गौर करने की बात की लेकिन इस बीच कासिम रिज़वी का एक बयान अखबारों में छपा जिसमें उसने मुसलमानों से अपील की थी कि अगर भारत से लड़ाई हुई तो उन्हें एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में तलवार लेकर जंग में जाना होगा . उसने यह भी कहा कि भारत के साढ़े चार करोड़ मुसलमान भी उसके पांचवें कालम के रूप में उसके साथ रहेंगें ..बेचारे वाल्टर मोक्टन उस वक़्त दिल्ली में थे और जब सरदार पटेल ने उनको निजाम के सबसे ख़ास चेले की इस गैर जिम्मेदाराना हरकत के बारे में बताया तो वे परेशान हो गए और वादा किया कि हैदराबाद जाकर वे निजाम को सलाह देंगें कि रिज़वी को गिरफ्तार कर लें .लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ . उलटे मीर लायक अली ने कहा कि रिज़वी ने वह भाषण दिया ही नहीं था ..उसके बाद लायक अली भी दिल्ली आये जहां उनकी मुलाक़ात सरदार से भी हुई . अपनी बीमारी के बावजूद सरदार पटेल ने बातचीत की और साफ़ कह दिया कि यह रिज़वी अगर फ़ौरन काबू में न किया गया तो निजाम और हैदराबाद के लिए बहुत ही मुश्किल पेश आ सकती है . मीर लायक अली को इस तरह की साफ़ बात सुनने का अनुभव नहीं था क्योंकि जवाहर लाल नेहरु बातों को बहुत ही कूटनीतिक भाषा में कहते थे .. कुल मिलाकर माहौल ऐसा बन गया था कि बातें ही बातें होती रहती थीं और मामला उलझता जा रहा था . .. सरदार पटेल ने कहा कि अगर निजाम इस जिद पर अड़े रहते हैं कि वे भारत में शामिल नहीं होंगें तो उन्हें कम से कम लोकतांत्रिक व्यवस्था तो कायम कर ही देनी चाहिए..लेकिन हैदराबाद में इस बात को मानने के लिए कोई भी तैयार नहीं था. इसीलिए हैदराबाद को भारत के साथ मिलाना सरदार पटेल के सबसे मुश्किल कामों में एक साबित हुआ. . पता नहीं कहाँ से निजाम उस्मान अली खां को यह उम्मीद हो गयी थी कि भारत की आज़ादी के बाद , हैदराबाद को भी डोमिनियन स्टेटस मिल जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ ..लेकिन इस उम्मीद के चलते निजाम ने थोक में गलतियाँ की .यहाँ तक कि वहां पर बाकायदा शक्तिप्रयोग किया और हैदराबाद की समस्या का हल निकाला गया. आखिर में सरदार को हैदराबाद में पुलिस एक्शन करना पड़ा जिसके बाद ही हैदराबाद पूरी तरह से भारत का हिस्सा बन सका .आज उनको गए साठ साल होने को आये लेकिन आज भी राजनीतिक फैसलों में उतनी ही दृढ़ता होनी चाहिए अगर किसी भी राजनीतिक समस्या का हल निकालना हो. ..राजनीतिक फैसलों में पारदर्शिता और मजबूती वास्तव में सरदार पटेल की विरासत है . वैसे भी आन्ध्र प्रदेश की राजनीति में बहुत सारे दांव पेंच होते हैं..जब सरदार पटेल जैसा गृहमंत्री परेशान हो सकता है तो आज के गृहमंत्री को तो बहुत ही चौकन्ना रहना पड़ेगा वरना एक गलत फैसला भारी राजनीतिक संकट पैदा कर सकता है
Monday, October 31, 2011
Saturday, October 29, 2011
श्रीलाल शुक्ल की मौत के बाद का आत्ममंथन
शेष नारायण सिंह
राग दरबारी वाले शुकुल जी की मौत हो गयी. होनी ही थी. बुज़ुर्ग थे.उनकी मौत के बाद अपनी भी छाती में शूल चुभ रहा है .लगता है जैसे अपने ही सगे काका मर गए हों . दरअसल श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारी ने ज़िंदगी में कहीं बहुत अंदर तक जाकर अपने को संबल दिया था. हालांकि किसी परीक्षा में हम कभी फेल नहीं हुए लेकिन ज़िंदगी के ज़्यादातर इम्तिहानों में अपने रिज़ल्ट वही रहे. हर बार फेल होना. अभी दयानंद पाण्डेय को पढ़ा, उन्होंने भी लिखा है कि वे भी कभी कभी अपने आपको को रंगनाथ समझते थे. मैं भी ऐसा ही समझता था. लेकिन यह अनुभव बहुत दिन तक नहीं रहा. सच्ची बात यह है कि अपनी ज़िंदगी में शुरू में ऐसे अवसर बार बार आये जब मैंने अपने आप को लंगड़ समझा था . हर गलत काम के खिलाफ अपने आपको खड़ा पाया था लेकिन दसवीं पास करने के बाद मेरे अंदर का लंगड़ कहीं मर गया, दुबारा उसने कभी भी चूँ चपड़ नहीं की. लंगड़ की मौत के बाद मैं कुछ दिन तक सनीचर हो गया था ,जब मामूली ज़रूरतों के लिए भी घर से मदद मिलनी बंद हो गयी थी, दूसरों का मुंह ताकता था लेकिन आदमी की फितरत का क्या कहना .जैसे ही डिग्री कालेज में मास्टरी मिली ,मेरे अंदर खन्ना मासटर की आत्मा प्रवेश कर गयी, बिना किसी सपोर्ट के मैं बागी बन गया. नौकरी हाथ से गयी. अजीब बेवक़ूफ़ था मैं . हर नौकरी के बाद इस खन्ना मास्टर का अभिनय करता रहा और बहुत सारी नौकरियाँ छूटती रहीं. लेकिन इस रंगनाथ से कभी पिंड न छूटा. यह हर बेतुका मौके पर आता रहा और मुझे समझौते करने से रोकता रहा . आज साठ साल की उम्र पार करके लगता है कि वास्तव में मैं कुछ भी नहीं था. मैं रामाधीन भीखमखेडवी ही था और वही हूँ , जो करने चला था , कुछ नहीं कर सका लेकिन मुझे किसी तरह की ग्लानि नहीं है क्योंकि मैंने राग दरबारी को पढ़ा है और उसेक रचयिता को छूकर देखा भी है . आज वह साहित्यकार तो नहीं है लेकिन उसने मुसीबतों को हँसकर उड़ा देने का जो संबल राग दरबारी के ज़रिये दिया था वह मेरे पास है , आने वाली पीढ़ियों के पास भी रहेगा . और हर उस रामाधीन भीखमखेडवी को ताक़त देता रहेगा जो कालेज खोलने का मंसूबा बनाएगा और आटे की चक्की खोलकर अपनी रोटी कमाएगा .
राग दरबारी वाले शुकुल जी की मौत हो गयी. होनी ही थी. बुज़ुर्ग थे.उनकी मौत के बाद अपनी भी छाती में शूल चुभ रहा है .लगता है जैसे अपने ही सगे काका मर गए हों . दरअसल श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारी ने ज़िंदगी में कहीं बहुत अंदर तक जाकर अपने को संबल दिया था. हालांकि किसी परीक्षा में हम कभी फेल नहीं हुए लेकिन ज़िंदगी के ज़्यादातर इम्तिहानों में अपने रिज़ल्ट वही रहे. हर बार फेल होना. अभी दयानंद पाण्डेय को पढ़ा, उन्होंने भी लिखा है कि वे भी कभी कभी अपने आपको को रंगनाथ समझते थे. मैं भी ऐसा ही समझता था. लेकिन यह अनुभव बहुत दिन तक नहीं रहा. सच्ची बात यह है कि अपनी ज़िंदगी में शुरू में ऐसे अवसर बार बार आये जब मैंने अपने आप को लंगड़ समझा था . हर गलत काम के खिलाफ अपने आपको खड़ा पाया था लेकिन दसवीं पास करने के बाद मेरे अंदर का लंगड़ कहीं मर गया, दुबारा उसने कभी भी चूँ चपड़ नहीं की. लंगड़ की मौत के बाद मैं कुछ दिन तक सनीचर हो गया था ,जब मामूली ज़रूरतों के लिए भी घर से मदद मिलनी बंद हो गयी थी, दूसरों का मुंह ताकता था लेकिन आदमी की फितरत का क्या कहना .जैसे ही डिग्री कालेज में मास्टरी मिली ,मेरे अंदर खन्ना मासटर की आत्मा प्रवेश कर गयी, बिना किसी सपोर्ट के मैं बागी बन गया. नौकरी हाथ से गयी. अजीब बेवक़ूफ़ था मैं . हर नौकरी के बाद इस खन्ना मास्टर का अभिनय करता रहा और बहुत सारी नौकरियाँ छूटती रहीं. लेकिन इस रंगनाथ से कभी पिंड न छूटा. यह हर बेतुका मौके पर आता रहा और मुझे समझौते करने से रोकता रहा . आज साठ साल की उम्र पार करके लगता है कि वास्तव में मैं कुछ भी नहीं था. मैं रामाधीन भीखमखेडवी ही था और वही हूँ , जो करने चला था , कुछ नहीं कर सका लेकिन मुझे किसी तरह की ग्लानि नहीं है क्योंकि मैंने राग दरबारी को पढ़ा है और उसेक रचयिता को छूकर देखा भी है . आज वह साहित्यकार तो नहीं है लेकिन उसने मुसीबतों को हँसकर उड़ा देने का जो संबल राग दरबारी के ज़रिये दिया था वह मेरे पास है , आने वाली पीढ़ियों के पास भी रहेगा . और हर उस रामाधीन भीखमखेडवी को ताक़त देता रहेगा जो कालेज खोलने का मंसूबा बनाएगा और आटे की चक्की खोलकर अपनी रोटी कमाएगा .
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Monday, October 24, 2011
हालीवुड के बड़े अभिनेता हार्वी काइटेल भारतीय फिल्म " गांधी आफ द मंथ " की मुख्य भूमिका में होंगे
शेष नारायण सिंह
जब भी कोई अमरीकी या ब्रिटिश अभिनेता या निदेशक भारत में बन रही किसी फिल्म पर काम करता है , वह बड़ी खबर बनती है . बोलती फिल्मों के के शुरू होने के बाद यह परंपरा लगभग ख़त्म हो गयी थी लेकिन अस्सी के दशक के शुरुआती वर्षों में रिचर्ड एटनबरो ने गाँधी फिल्म बनाकर इस रिवाज़ को बहुत ही धमाकेदार तरीके से ताक़त दी. गांधी फिल्म को बहुत सारे आस्कर अवार्ड मिले थे . उसके बाद इस श्रेणी की फिल्मों में स्लमडाग मिलिनयेर का नाम लिया जा सकता है . हालीवुड की फ़िल्मी दुनिया और भारत के सबंधों में ताज़ा घटना अमरीकी अभिनेता , हार्वी काइटेल की नई फिल्म को लेकर है . ' गाँधी आफ द मंथ ' नाम की इस फिल्म की शूटिंग पूरी हो चुकी है . पोस्ट प्रोडक्शन का काम चल रहा है . फिल्म अंग्रेज़ी में है लेकिन हिन्दी में भी डब की जा रही है . इसका मतलब यह हुआ कि देश की आम जनता भी फिल्म को देख सकेगी. मुंबई के फ़िल्मी गलियारों से खबर है कि इस फिल्म को कान फिल्म फेस्टिवल में भारत की फिल्म के रूप में भेजने की तैयारी शुरू हो चुकी है . इसके पहले कान फिल्म फेस्टिवल के हवाले से आमिर खां की फ़िल्में चर्चा में आई थीं .फेस्टिवल में भेजने की तैयारी का ही इतना हडकंप नाध दिया गया था कि लगता है था कि उस दौर में मुंबई की फ़िल्मी दुनिया में और कोई खबर ही नहीं बन रही थी. लेकिन 'गाँधी ऑफ़ द मंथ ' वालों की तरफ से ऐसी कोई तैयारी नज़र नहीं आ रही है . फिल्म को प्रोड्यूस करने वाली कंपनी भी लगभग नई है . . २०१० में उनकी दो फ़िल्में आई हैं . हाँ यह कहा जा सकता है कि दोनों ही फ़िल्में, ' उड़ान 'और ' तनु वेड्स मनु ' आम आदमी तक बहुत ही शानदार तरीके से पंहुची थीं .पसंद की गयी थीं . लीक से हटकर थीं. जिस परम्परा को श्याम बेनेगल ने ३५ साल पहले शुरू किया था और जिसे रामगोपाल वर्मा ने आगे बढाया और जिसके व्याकरण को आधार मानकर आजकल अनुराग कश्यप और विशाल भारद्वाज फ़िल्में बना रहे हैं , दोनों ही उसी ढर्रे की फिल्मे थीं .इस निर्माता कम्पनी की दोनों शुरुआती फ़िल्में अच्छी मानी जाती हैं ..विषय भी लीक से हटकर था . अब पता पता चला है कि नई फिल्म में इस प्रोडक्शन हाउस ने बहुत ही ज्वलंत मुद्दा उठा दिया है . कोई अमरीकी सज्जन हैं को करीब तीस साल से भारत के किसी पिछड़े इलाके में स्कूल चला रहे हैं . उस इलाके में बहुत ही लोकप्रिय हो जाते हैं . उनके स्कूल की लोकप्रियता से गुस्सा होने के बाद उस इलाके में धर्म के नाम पर राजनीतिक धंधा करने वाले लोग बहुत गुस्सा हो जाते हैं और उनके स्कूल के खिलाफ भिड़ जाते हैं . पूरी फिल्म में इसी उठापटक को प्रस्तुत किया गया है . ज़ाहिर है कि देश के अलग अलग इलाके में यह फिल्म लोगों को किसी बड़ी घटना की याद दिलायेगी. हो सकता है कि कुछ लोगों को यह उड़ीसा के उस विदेशी मिशनरी की याद दिला दे जिसकी लोकप्रियता से परेशान होकर कुछ लोगों ने उसे जिंदा जला दिया था . अन्य इलाकों के लोगों के मान में यह फिल्म और तरह की यादें ताज़ा कर सकती है . कहानी के केंद्र में एक ईसाई है जिस पर ईसाई विरोधी मानसिकता के लोग लगातार हमले बोल रहे हैं.वह अपने स्कूल के गरीब बच्चों को सुनहरे भविष्य के लिए लगातार लड़ रहा है . महात्मा गाँधी को महान मानने वाला यह व्यक्ति नई पीढी को साबरमती के संत की बातें बताते रहना चाहता है लेकिन असहिष्णु राजनीति को यह सूट नहीं करता. एक स्कूल के हेडमास्टर की उस बुलंदी को रेखांकित करने की कोशिश करती हुई यह फिल्म निश्चित रूप से लीक से हटकर होगी, इसमें दो राय नहीं है .
' गाँधी आफ द मंथ ' का निदेशक भी हिन्दी सिनेमा का बहुत नामी आदमी नहीं है . कम से कम हिन्दी इलाकों में आम चर्चा का विषय तो कभी नहीं रहा . फिल्म में काम करने वाले कलाकार भी तथाकथित मेनस्ट्रीम सिनेमा के बहुत बड़े नाम नहीं है . सुहासिनी मुले के अलावा बाकी भारतीय अभिनेताओं को बहुत लोग नहीं जानते होंगें .शायद ऐसा इसलिए किया गया है कि फिल्म की जो मुख्य कथा है , ग्लैमरी चकाचौंध में उस से दर्शक की नज़र न हट जाए. ऐसा लगता है कि इसी रणनीति के तहत निर्माताओं ने हालीवुड के एक बहुत बड़े अभिनेता के साथ अपने अच्छे लेकिन कम प्रसिद्ध अभिनेताओं को जोड़ दिया है . दरअसल इस फिल्म का मुद्दा इतना दिलचस्प है कि आने वाले दिनों में उस पर होने वाली चर्चा को कोई रोक नहीं सकता . ज़ाहिर है कि ऐसी हालत में ध्यान मुख्य अभिनेता पर ही जमा रहेगा .
अगर ऐसा है तो प्रोडक्शन वालों की बात समझ में आती है . फिल्म का मुख्य अभिनेता, भारत में तो शायद स्टार नहीं हो लेकिन हालीवुड में उसका शुमार बड़े स्टारों में किया जाता है .हार्वी काइटेल विख्यात हालीवुड निदेशक मार्टिन स्करसेसी के बचपन के साथी हैं . दोनों ने साथ साथ सिनेमा की शिक्षा ली. दरअसल मार्टिन स्करसेसी ने अपनी पहली फिल्म ,'हूज दैट नाकिंग ऐट माई डोर ' में हार्वी काइटेल को हीरो बनाया था. इसी फिल्म के कारण मार्टिन स्करसेसी का सिक्का पूरी दुनिया में जम गया था . इसी फिल्म के बाद उनका परिचय फ्रांसिस फोर्ड कपोला,ब्रायन ड पल्मा और स्टीवेन स्पाइलबर्ग से हुआ. बाद में ब्रायन ड पाल्मा ने ही स्करसेसी को राबर्ट ड नीरो से मिलवाया जिसके बाद हालीवुड में अपराध की थीम पर बनने वाली कुछ बेहतरीन फ़िल्में बन सकीं. हार्वी काइटेल के साथ स्करसेसी ने टैक्सी ड्राइवर और मीन स्ट्रीट जैसी फ़िल्में भी बनायीं जिनको आज भी अच्छी फिल्मों के सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में देखा जाता है .शुरुआती परिचय के बाद हार्वी काइटेल ने भी राबर्ट ड नीरों के साथ कई फिल्मों में काम किया . हार्वी काइटेल एक दिलचस्प इंसान भी हैं . उनको नए निदेशकों के साथ काम करने में बहुत मज़ा आता है . अपने दोस्त मार्टिन स्करसेसी के साथ तो उन्होंने पहली फिल्म की ही थी,हालीवुड के कुछ और बहुत बड़े निदेशकों के साथ उन्होंने उनकी पहली फिल्मो में काम किया और उनको इतना उत्साहित किया कि वे आज विश्व सिनेमा के नामी हस्ताक्षर हैं .इस तरह के निदेशकों में मार्टिन स्करसेसी के अलावा रिडली स्काट, पॉल श्रेडर और जेम्स टोबैक का उल्लेख किया जा सकता है .देखना यह है कि भारतीय सिनेमा की दुनिया में हार्वी काइटेल क्या छाप छोड़ते हैं .
जब भी कोई अमरीकी या ब्रिटिश अभिनेता या निदेशक भारत में बन रही किसी फिल्म पर काम करता है , वह बड़ी खबर बनती है . बोलती फिल्मों के के शुरू होने के बाद यह परंपरा लगभग ख़त्म हो गयी थी लेकिन अस्सी के दशक के शुरुआती वर्षों में रिचर्ड एटनबरो ने गाँधी फिल्म बनाकर इस रिवाज़ को बहुत ही धमाकेदार तरीके से ताक़त दी. गांधी फिल्म को बहुत सारे आस्कर अवार्ड मिले थे . उसके बाद इस श्रेणी की फिल्मों में स्लमडाग मिलिनयेर का नाम लिया जा सकता है . हालीवुड की फ़िल्मी दुनिया और भारत के सबंधों में ताज़ा घटना अमरीकी अभिनेता , हार्वी काइटेल की नई फिल्म को लेकर है . ' गाँधी आफ द मंथ ' नाम की इस फिल्म की शूटिंग पूरी हो चुकी है . पोस्ट प्रोडक्शन का काम चल रहा है . फिल्म अंग्रेज़ी में है लेकिन हिन्दी में भी डब की जा रही है . इसका मतलब यह हुआ कि देश की आम जनता भी फिल्म को देख सकेगी. मुंबई के फ़िल्मी गलियारों से खबर है कि इस फिल्म को कान फिल्म फेस्टिवल में भारत की फिल्म के रूप में भेजने की तैयारी शुरू हो चुकी है . इसके पहले कान फिल्म फेस्टिवल के हवाले से आमिर खां की फ़िल्में चर्चा में आई थीं .फेस्टिवल में भेजने की तैयारी का ही इतना हडकंप नाध दिया गया था कि लगता है था कि उस दौर में मुंबई की फ़िल्मी दुनिया में और कोई खबर ही नहीं बन रही थी. लेकिन 'गाँधी ऑफ़ द मंथ ' वालों की तरफ से ऐसी कोई तैयारी नज़र नहीं आ रही है . फिल्म को प्रोड्यूस करने वाली कंपनी भी लगभग नई है . . २०१० में उनकी दो फ़िल्में आई हैं . हाँ यह कहा जा सकता है कि दोनों ही फ़िल्में, ' उड़ान 'और ' तनु वेड्स मनु ' आम आदमी तक बहुत ही शानदार तरीके से पंहुची थीं .पसंद की गयी थीं . लीक से हटकर थीं. जिस परम्परा को श्याम बेनेगल ने ३५ साल पहले शुरू किया था और जिसे रामगोपाल वर्मा ने आगे बढाया और जिसके व्याकरण को आधार मानकर आजकल अनुराग कश्यप और विशाल भारद्वाज फ़िल्में बना रहे हैं , दोनों ही उसी ढर्रे की फिल्मे थीं .इस निर्माता कम्पनी की दोनों शुरुआती फ़िल्में अच्छी मानी जाती हैं ..विषय भी लीक से हटकर था . अब पता पता चला है कि नई फिल्म में इस प्रोडक्शन हाउस ने बहुत ही ज्वलंत मुद्दा उठा दिया है . कोई अमरीकी सज्जन हैं को करीब तीस साल से भारत के किसी पिछड़े इलाके में स्कूल चला रहे हैं . उस इलाके में बहुत ही लोकप्रिय हो जाते हैं . उनके स्कूल की लोकप्रियता से गुस्सा होने के बाद उस इलाके में धर्म के नाम पर राजनीतिक धंधा करने वाले लोग बहुत गुस्सा हो जाते हैं और उनके स्कूल के खिलाफ भिड़ जाते हैं . पूरी फिल्म में इसी उठापटक को प्रस्तुत किया गया है . ज़ाहिर है कि देश के अलग अलग इलाके में यह फिल्म लोगों को किसी बड़ी घटना की याद दिलायेगी. हो सकता है कि कुछ लोगों को यह उड़ीसा के उस विदेशी मिशनरी की याद दिला दे जिसकी लोकप्रियता से परेशान होकर कुछ लोगों ने उसे जिंदा जला दिया था . अन्य इलाकों के लोगों के मान में यह फिल्म और तरह की यादें ताज़ा कर सकती है . कहानी के केंद्र में एक ईसाई है जिस पर ईसाई विरोधी मानसिकता के लोग लगातार हमले बोल रहे हैं.वह अपने स्कूल के गरीब बच्चों को सुनहरे भविष्य के लिए लगातार लड़ रहा है . महात्मा गाँधी को महान मानने वाला यह व्यक्ति नई पीढी को साबरमती के संत की बातें बताते रहना चाहता है लेकिन असहिष्णु राजनीति को यह सूट नहीं करता. एक स्कूल के हेडमास्टर की उस बुलंदी को रेखांकित करने की कोशिश करती हुई यह फिल्म निश्चित रूप से लीक से हटकर होगी, इसमें दो राय नहीं है .
' गाँधी आफ द मंथ ' का निदेशक भी हिन्दी सिनेमा का बहुत नामी आदमी नहीं है . कम से कम हिन्दी इलाकों में आम चर्चा का विषय तो कभी नहीं रहा . फिल्म में काम करने वाले कलाकार भी तथाकथित मेनस्ट्रीम सिनेमा के बहुत बड़े नाम नहीं है . सुहासिनी मुले के अलावा बाकी भारतीय अभिनेताओं को बहुत लोग नहीं जानते होंगें .शायद ऐसा इसलिए किया गया है कि फिल्म की जो मुख्य कथा है , ग्लैमरी चकाचौंध में उस से दर्शक की नज़र न हट जाए. ऐसा लगता है कि इसी रणनीति के तहत निर्माताओं ने हालीवुड के एक बहुत बड़े अभिनेता के साथ अपने अच्छे लेकिन कम प्रसिद्ध अभिनेताओं को जोड़ दिया है . दरअसल इस फिल्म का मुद्दा इतना दिलचस्प है कि आने वाले दिनों में उस पर होने वाली चर्चा को कोई रोक नहीं सकता . ज़ाहिर है कि ऐसी हालत में ध्यान मुख्य अभिनेता पर ही जमा रहेगा .
अगर ऐसा है तो प्रोडक्शन वालों की बात समझ में आती है . फिल्म का मुख्य अभिनेता, भारत में तो शायद स्टार नहीं हो लेकिन हालीवुड में उसका शुमार बड़े स्टारों में किया जाता है .हार्वी काइटेल विख्यात हालीवुड निदेशक मार्टिन स्करसेसी के बचपन के साथी हैं . दोनों ने साथ साथ सिनेमा की शिक्षा ली. दरअसल मार्टिन स्करसेसी ने अपनी पहली फिल्म ,'हूज दैट नाकिंग ऐट माई डोर ' में हार्वी काइटेल को हीरो बनाया था. इसी फिल्म के कारण मार्टिन स्करसेसी का सिक्का पूरी दुनिया में जम गया था . इसी फिल्म के बाद उनका परिचय फ्रांसिस फोर्ड कपोला,ब्रायन ड पल्मा और स्टीवेन स्पाइलबर्ग से हुआ. बाद में ब्रायन ड पाल्मा ने ही स्करसेसी को राबर्ट ड नीरो से मिलवाया जिसके बाद हालीवुड में अपराध की थीम पर बनने वाली कुछ बेहतरीन फ़िल्में बन सकीं. हार्वी काइटेल के साथ स्करसेसी ने टैक्सी ड्राइवर और मीन स्ट्रीट जैसी फ़िल्में भी बनायीं जिनको आज भी अच्छी फिल्मों के सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में देखा जाता है .शुरुआती परिचय के बाद हार्वी काइटेल ने भी राबर्ट ड नीरों के साथ कई फिल्मों में काम किया . हार्वी काइटेल एक दिलचस्प इंसान भी हैं . उनको नए निदेशकों के साथ काम करने में बहुत मज़ा आता है . अपने दोस्त मार्टिन स्करसेसी के साथ तो उन्होंने पहली फिल्म की ही थी,हालीवुड के कुछ और बहुत बड़े निदेशकों के साथ उन्होंने उनकी पहली फिल्मो में काम किया और उनको इतना उत्साहित किया कि वे आज विश्व सिनेमा के नामी हस्ताक्षर हैं .इस तरह के निदेशकों में मार्टिन स्करसेसी के अलावा रिडली स्काट, पॉल श्रेडर और जेम्स टोबैक का उल्लेख किया जा सकता है .देखना यह है कि भारतीय सिनेमा की दुनिया में हार्वी काइटेल क्या छाप छोड़ते हैं .
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Monday, October 17, 2011
मैंने क़सम ली -- मैं फासिस्ट राजनीति और उसके कारिंदों के खिलाफ कुछ नहीं लिखूंगा
शेष नारायण सिंह
प्रशांत भूषण की पिटाई के बाद इस देश की राजनीति ने करवट नहीं कई पल्थे खाए हैं . जिन लोगों को अपना मान कर प्रशांत भूषण क्रान्ति लाने चले थे उन्होंने उनकी विधिवत कुटम्मस की .टी वी पर उनकी हालत देख कर मैं भी डर गया हूँ . जिन लोगों ने प्रशांत जी की दुर्दशा की वही लोग तो पोर्टलों पर मेरे लेख पढ़कर गालियाँ लिखते हैं . लिखते हैं कि मेरे जैसे देशद्रोहियों को देश से निकाल दिया जाएगा. मार डाला जाएगा, काट डाला जाएगा. कुछ ऐसी गालियाँ लिखते हैं जिनका उल्लेख करना असंभव है . मुझे मुगालता था. मैं समझता था कि यह बेचारे किसी ऐसी राजनीतिक पार्टी में नौकरी करते हैं जिसको हमारी बातें कभी नहीं अच्छी लगीं.उसी पार्टी को खुश करने के लिए इस तरह की बातें लिखी जा रही हैं . मुझे इस बात का बिलकुल अंदाज़ नहीं था कि यह लोग बाकायदा तशरीफ़ लाकर शारीरिक रूप से कष्ट भी दे सकते हैं . प्रशांत भूषण की पिटाई का मेरे ऊपर यह असर हुआ है कि अब मैं फासिस्ट राजनीति के खिलाफ कुछ नहीं लिखूंगा. मैं दहशत में हूँ . यह भाई लोग कभी भी पंहुच सकते हैं और धुनाई कर सकते हैं .मुझे ऐसा इसलिए लगता है कि प्रशांत जी की कुटाई कोई हादसा नहीं था. बाकायदा योजनाबद्ध तरीके से उन्हें घेरकर लतियाया गया था. यह भी हो सकता है कि जिस टी वी चैनल वाले उनसे बात कर रहे थे, वहां भी इन मारपीट वालों का कोई बंदा रहा हो जिसने पिटाई वाली सेना को एडवांस में खबर कर दी हो.
अब यहाँ यह कहकर कि जिन लोगों ने पिटाई की वे सब आर एस एस के अधीन संगठनो से किसी न किसी रूप में जुड़े हैं मैं अपनी शामत नहीं बुलाना चाहता हूँ . लेकिन जिन लोगों को पिटने का डर नहीं है वे खुले आम कह रहे हैं .मेरी हिम्मत तो नहीं है कि मैं लिख सकूं लेकिन बताने वाले बता रहे हैं पिटाई करने पंहुचे लोग बीजेपी के बड़े नेताओं के साथ भी अक्सर फोटो खिंचवाते रहते थे. और उनके बहुत भरोसे के बन्दे थे. . श्री राम सेना के कर्नाटक राज्य के अधिपति श्री प्रमोद मुथालिक ने भी कहलवा भेजा है कि प्रशांत भूषण को पीटने वाले लोग उनके अपने बन्दे नहीं थे. उन्हें तो प्रमोद जी ने केवल टेक्नीकल ज्ञान मात्र सिखाया था. वह भी खुद प्रमोद जी का इन योद्धाओं से कुछ लेना देना नहीं था. उनके किसी मातहत अफसर ने दिल्ली की श्रीराम सेना को फ़्रैन्चाइज़ी दी थी जिसकी जानकारी मुथालिक श्री को नहीं थी. भगत सिंह के नाम पर धंधा कर रहे भारतीय जनता युवा मोर्चा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के पूर्व सदस्य का बीजेपी या उसकी किसी सहयोगी पार्टी से कोई लेना देना नहीं है.वह कभी भी बीजेपी में नहीं था क्योंकि अगर वह बीजेपी में कभी भी रहा होता तो उसे अपने पराये की पहचान होती और अपनी ही पार्टी के पूर्व सदस्य के बेटे को सरे आम देश की सबसे बड़ी अदालत के आस पास इतनी बेरहमी से न पीटता. ऐसी बहुत सी बातें हैं जो आर एस एस के विरोधी लिख रहे हैं लकिन अपनी हिम्मत नहीं है कि मैं यह लिख दूं कि जिन लोगों ने प्रशांत भूषण को पीटा वे आर एस एस या उसके अधीन काम करने वाले किसी संगठन से किसी तरह से सम्बंधित रहे होंगें.
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण की पिटाई का मैं अपनी पूरी ताक़त से विरोध करता हूँ . उनके बहुत सारे विचारों से सहमत नहीं हुआ जा सकता लेकिन विचारों से असहमत होने पर किसी को पीटना बिकुल गलत है . इसलिए मेरे अलावा जो भी चाहे उन लोगों की भरपूर भर्त्सना कर सकता है. वैसे सही बात यह है कि उन लोगों की जितनी निन्दा की जाए कम है . पिटाई करने वाले निंदनीय लोग हैं . जिन लोगों ने " मैं अन्ना हूँ " की टोपी पहनकर नई दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट में टी वी कैमरों को धन्य करने की कोशिश की उनकी पिटाई करने वालों की भी सभी निंदा कर ही रहे हैं . वह निंदा बिलकुल सही है . लेकिन मैं उन लोगों की कोई निंदा नहीं कर सकता . क्योंकि कई बार मैं भी पटियाला हाउस कोर्ट के बगल वाली पुराना किला रोड से अपने घर जाता हूँ . लेकिन प्रशांत भूषण को भी आर एस एस प्रायोजित किसी आन्दोलन में शामिल होने के पहले यह सोच लेना चाहिए था कि अगर वे अन्ना हजारे के साथ आर एस एस वालों के आन्दोलन को संचालन करने के प्रोजेक्ट में शामिल हो रहे हैं तो उन्हें आर एस एस की हर बात को मानना पडेगा. आर एस एस के कई बड़े नेताओं ने बार बार बताया है कि वे लोग बहुत ही लोकतांत्रिक सोच के लोग हैं ,लोगों के विरोध करने के अधिकार को सम्मान देते हैं लेकिन वे यह बात कभी नहीं बर्दाश्त कर सकते कि अपना कोई बंदा उनकी मंज़ूर शुदा राजनीतिक लाइन से हटकर कोई बात कहे. इसका सबसे पहला शिकार प्रो.बलराज मधोक बने थे . किसी ज़माने में वे पार्टी के बहुत बड़े नेता थे. भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष थे . पं. दीन दयाल उपाध्याय के साथ पार्टी को आगे ले जाने की कोशिश कर रहे थे . लेकिन कुछ मंचों पर उन्होंने अपने विचार रख दिए और पार्टी से निकाल दिए गए. यह जो अपने डॉ सुब्रमण्यम स्वामी हैं . बड़े विद्वान् हैं . नानाजी देशमुख जैसा बड़ा नेता उनका अमरीका से पकड़ कर जनसंघ में लाया था . १९७४ में उत्तर प्रदेश में जो विधान सभा को चुनाव हुआ था ,उसमें इनकी खासी भूमिका थी. बहुत ही सुरुचिपूर्ण पोस्टर बनाए गए थे . आज़ादी के छब्बीस साल के बाद कांग्रेस की नाकामियों को बहुत ही अच्छे तरीके से उभारा गया था लेकिन निकाल दिए गए. के एन गोविन्दाचार्य की बात तो बहुत ही ताज़ा है . उनको राजनीति के दूध और मक्खी वाले चैप्टर के हवाले से सारी बारीकियां समझा दी गयीं .बेचारे आजकल व्यवस्था परिवर्तन की राजनीति के मैदान में फ्रीलांसिंग कर रहे हैं .हाँ यह लोग प्रशांत भूषण से ज्यादा भाग्यशाली तह , इनको टी वी कैमरों के सामने बैठाकर पीटा नहीं गया.
इसलिए प्रशांत भूषण को समझ लेना चाहिए था कि अगर वे आर एस एस वालों से घनिष्ठता जोड़ रहे हैं तो उन्हें बाकी जीवन बहुत आनंद रहेगा. बशर्ते वे संघ की हर बात को अपनी बात कहकर प्रचारित करते रहते.देश के कई बड़े अखबारों के पत्रकारों ने भी आर एस एस की शरण ग्रहण कर ली है . हमेशा मौज करते रहते हैं . लेकिन उनको मालूम है कि अगर बीच में पत्रकारिता की शेखी बघारेगें तो वही हाल होगा जो प्रशांत भूषण का हुआ है .ऐसा कुछ पत्रकारों के साथ हो चुका है . प्रशांत जी को भी चाहिए था कि वे अगर आर एस एस वालों के साथ जुड़ रहे थे तो बाकी ज़िंदगी उनके कानूनी विशेषज्ञ बने रहते और मौज करते. लेकिन उन्होंने अन्य बुद्धिजीवियों की तरह अपनी स्वतंत्र राय का इज़हार किया तो उनके नए आका लोग इस बात को कभी बर्दाश्त नहीं करेगें.
हाँ आजकल ज़माना ऐसा है कि कुछ छिपता नहीं . यह संभव नहीं है कि आप किसी पार्टी या संगठन के साथ गुपचुप काम करने लगें और बात में फायदा उठा लें . लालू प्रसाद यादव ने सबको बता दिया कि किरण बेदी चांदनी चौक से टिकट के चक्कर में हैं . कांग्रेस वाले दिग्विजय सिंह भी बहुत गलत आदमी हैं उन्होंने सारी दुनिया को बता दिया कि अपने अन्ना जी राष्ट्रपति बनना चाहते हैं .दिग्विजय सिंह को पता ही नहीं है कि देवतास्वरुप अन्ना जी की पोल खोल कर उन्होंने देश और समाज का बहुत नुकसान किया है .हालांकि यह भी सच है कि अन्ना हजारे और उनकी टीम ने भी देश के साथ दग़ा किया है . भ्रष्टाचार से त्राहि त्राहि कर रही देश की जनता सडकों पर आने का मन बना रही थी. शासक वर्गों का वही हाल होने वाला था जो चेकोस्लोवाकिया में १९९० में हुआ था , या चिली के तानाशाहों के खिलाफ जनता ने मैदान ले लिया था. जनता तो उस मूड में थी कि वह सत्ता के सभी दलालों को हमेशा के लिए खत्म कर देती लेकिन शासक वर्गों की कृपा के साथ साथ कांग्रेस और बीजेपी के सहयोग से अन्ना हजारे ने रामलीला मैदान में जनता के बढ़ रहे तूफ़ान को मोड़ दिया . अब पता नहीं इतिहास के किस मोड़ पर जनता इतनी तैयारी के साथ भ्रष्टाचार को चुनौती दे पायेगी. लेकिन २०११ वाला जनता का गुस्सा तो निश्चित रूप से अन्ना वालों ने दफ़न कर दिया है . और अब हिसार में उस भजनलाल की राजनीति को समर्थन दे रहे हैं जिसने भ्रष्टाचार के तरह तरह के प्रयोग किये थे. या उस चौतालावाद को बढ़ावा दे रहे हैं जो हरियाणा में भ्रष्ट राजनीति के पुरोधा के रूप में किसी सूरत में भजनलाली परंपरा से कम नहीं हैं .जहां तक कांग्रेस की बात है वह तो पिछले चुनाव में भी वहां तीसरे स्थान पर थी, और इस चुनाव में भी तीसरे पर ही रहेगी. वहां भी लगता है कि अन्ना के चेला नंबर वन राजनीतिक सपने देखने की तैयारी कर रहे हैं .
मैं अपने पूरे होशो हवास में घोषणा करता हूँ कि ऊपर जो कुछ भी लिखा है ,उसे मैंने बिलकुल नहीं लिखा है. यह सारी बातें सुनी सुनायी हैं और अगर कोई भगवा वस्त्रधारी मुझे पीटने आया तो मैं साफ़ मना कर दूंगा कि यह सब बकवास मैंने नहीं लिखी है .
प्रशांत भूषण की पिटाई के बाद इस देश की राजनीति ने करवट नहीं कई पल्थे खाए हैं . जिन लोगों को अपना मान कर प्रशांत भूषण क्रान्ति लाने चले थे उन्होंने उनकी विधिवत कुटम्मस की .टी वी पर उनकी हालत देख कर मैं भी डर गया हूँ . जिन लोगों ने प्रशांत जी की दुर्दशा की वही लोग तो पोर्टलों पर मेरे लेख पढ़कर गालियाँ लिखते हैं . लिखते हैं कि मेरे जैसे देशद्रोहियों को देश से निकाल दिया जाएगा. मार डाला जाएगा, काट डाला जाएगा. कुछ ऐसी गालियाँ लिखते हैं जिनका उल्लेख करना असंभव है . मुझे मुगालता था. मैं समझता था कि यह बेचारे किसी ऐसी राजनीतिक पार्टी में नौकरी करते हैं जिसको हमारी बातें कभी नहीं अच्छी लगीं.उसी पार्टी को खुश करने के लिए इस तरह की बातें लिखी जा रही हैं . मुझे इस बात का बिलकुल अंदाज़ नहीं था कि यह लोग बाकायदा तशरीफ़ लाकर शारीरिक रूप से कष्ट भी दे सकते हैं . प्रशांत भूषण की पिटाई का मेरे ऊपर यह असर हुआ है कि अब मैं फासिस्ट राजनीति के खिलाफ कुछ नहीं लिखूंगा. मैं दहशत में हूँ . यह भाई लोग कभी भी पंहुच सकते हैं और धुनाई कर सकते हैं .मुझे ऐसा इसलिए लगता है कि प्रशांत जी की कुटाई कोई हादसा नहीं था. बाकायदा योजनाबद्ध तरीके से उन्हें घेरकर लतियाया गया था. यह भी हो सकता है कि जिस टी वी चैनल वाले उनसे बात कर रहे थे, वहां भी इन मारपीट वालों का कोई बंदा रहा हो जिसने पिटाई वाली सेना को एडवांस में खबर कर दी हो.
अब यहाँ यह कहकर कि जिन लोगों ने पिटाई की वे सब आर एस एस के अधीन संगठनो से किसी न किसी रूप में जुड़े हैं मैं अपनी शामत नहीं बुलाना चाहता हूँ . लेकिन जिन लोगों को पिटने का डर नहीं है वे खुले आम कह रहे हैं .मेरी हिम्मत तो नहीं है कि मैं लिख सकूं लेकिन बताने वाले बता रहे हैं पिटाई करने पंहुचे लोग बीजेपी के बड़े नेताओं के साथ भी अक्सर फोटो खिंचवाते रहते थे. और उनके बहुत भरोसे के बन्दे थे. . श्री राम सेना के कर्नाटक राज्य के अधिपति श्री प्रमोद मुथालिक ने भी कहलवा भेजा है कि प्रशांत भूषण को पीटने वाले लोग उनके अपने बन्दे नहीं थे. उन्हें तो प्रमोद जी ने केवल टेक्नीकल ज्ञान मात्र सिखाया था. वह भी खुद प्रमोद जी का इन योद्धाओं से कुछ लेना देना नहीं था. उनके किसी मातहत अफसर ने दिल्ली की श्रीराम सेना को फ़्रैन्चाइज़ी दी थी जिसकी जानकारी मुथालिक श्री को नहीं थी. भगत सिंह के नाम पर धंधा कर रहे भारतीय जनता युवा मोर्चा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के पूर्व सदस्य का बीजेपी या उसकी किसी सहयोगी पार्टी से कोई लेना देना नहीं है.वह कभी भी बीजेपी में नहीं था क्योंकि अगर वह बीजेपी में कभी भी रहा होता तो उसे अपने पराये की पहचान होती और अपनी ही पार्टी के पूर्व सदस्य के बेटे को सरे आम देश की सबसे बड़ी अदालत के आस पास इतनी बेरहमी से न पीटता. ऐसी बहुत सी बातें हैं जो आर एस एस के विरोधी लिख रहे हैं लकिन अपनी हिम्मत नहीं है कि मैं यह लिख दूं कि जिन लोगों ने प्रशांत भूषण को पीटा वे आर एस एस या उसके अधीन काम करने वाले किसी संगठन से किसी तरह से सम्बंधित रहे होंगें.
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण की पिटाई का मैं अपनी पूरी ताक़त से विरोध करता हूँ . उनके बहुत सारे विचारों से सहमत नहीं हुआ जा सकता लेकिन विचारों से असहमत होने पर किसी को पीटना बिकुल गलत है . इसलिए मेरे अलावा जो भी चाहे उन लोगों की भरपूर भर्त्सना कर सकता है. वैसे सही बात यह है कि उन लोगों की जितनी निन्दा की जाए कम है . पिटाई करने वाले निंदनीय लोग हैं . जिन लोगों ने " मैं अन्ना हूँ " की टोपी पहनकर नई दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट में टी वी कैमरों को धन्य करने की कोशिश की उनकी पिटाई करने वालों की भी सभी निंदा कर ही रहे हैं . वह निंदा बिलकुल सही है . लेकिन मैं उन लोगों की कोई निंदा नहीं कर सकता . क्योंकि कई बार मैं भी पटियाला हाउस कोर्ट के बगल वाली पुराना किला रोड से अपने घर जाता हूँ . लेकिन प्रशांत भूषण को भी आर एस एस प्रायोजित किसी आन्दोलन में शामिल होने के पहले यह सोच लेना चाहिए था कि अगर वे अन्ना हजारे के साथ आर एस एस वालों के आन्दोलन को संचालन करने के प्रोजेक्ट में शामिल हो रहे हैं तो उन्हें आर एस एस की हर बात को मानना पडेगा. आर एस एस के कई बड़े नेताओं ने बार बार बताया है कि वे लोग बहुत ही लोकतांत्रिक सोच के लोग हैं ,लोगों के विरोध करने के अधिकार को सम्मान देते हैं लेकिन वे यह बात कभी नहीं बर्दाश्त कर सकते कि अपना कोई बंदा उनकी मंज़ूर शुदा राजनीतिक लाइन से हटकर कोई बात कहे. इसका सबसे पहला शिकार प्रो.बलराज मधोक बने थे . किसी ज़माने में वे पार्टी के बहुत बड़े नेता थे. भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष थे . पं. दीन दयाल उपाध्याय के साथ पार्टी को आगे ले जाने की कोशिश कर रहे थे . लेकिन कुछ मंचों पर उन्होंने अपने विचार रख दिए और पार्टी से निकाल दिए गए. यह जो अपने डॉ सुब्रमण्यम स्वामी हैं . बड़े विद्वान् हैं . नानाजी देशमुख जैसा बड़ा नेता उनका अमरीका से पकड़ कर जनसंघ में लाया था . १९७४ में उत्तर प्रदेश में जो विधान सभा को चुनाव हुआ था ,उसमें इनकी खासी भूमिका थी. बहुत ही सुरुचिपूर्ण पोस्टर बनाए गए थे . आज़ादी के छब्बीस साल के बाद कांग्रेस की नाकामियों को बहुत ही अच्छे तरीके से उभारा गया था लेकिन निकाल दिए गए. के एन गोविन्दाचार्य की बात तो बहुत ही ताज़ा है . उनको राजनीति के दूध और मक्खी वाले चैप्टर के हवाले से सारी बारीकियां समझा दी गयीं .बेचारे आजकल व्यवस्था परिवर्तन की राजनीति के मैदान में फ्रीलांसिंग कर रहे हैं .हाँ यह लोग प्रशांत भूषण से ज्यादा भाग्यशाली तह , इनको टी वी कैमरों के सामने बैठाकर पीटा नहीं गया.
इसलिए प्रशांत भूषण को समझ लेना चाहिए था कि अगर वे आर एस एस वालों से घनिष्ठता जोड़ रहे हैं तो उन्हें बाकी जीवन बहुत आनंद रहेगा. बशर्ते वे संघ की हर बात को अपनी बात कहकर प्रचारित करते रहते.देश के कई बड़े अखबारों के पत्रकारों ने भी आर एस एस की शरण ग्रहण कर ली है . हमेशा मौज करते रहते हैं . लेकिन उनको मालूम है कि अगर बीच में पत्रकारिता की शेखी बघारेगें तो वही हाल होगा जो प्रशांत भूषण का हुआ है .ऐसा कुछ पत्रकारों के साथ हो चुका है . प्रशांत जी को भी चाहिए था कि वे अगर आर एस एस वालों के साथ जुड़ रहे थे तो बाकी ज़िंदगी उनके कानूनी विशेषज्ञ बने रहते और मौज करते. लेकिन उन्होंने अन्य बुद्धिजीवियों की तरह अपनी स्वतंत्र राय का इज़हार किया तो उनके नए आका लोग इस बात को कभी बर्दाश्त नहीं करेगें.
हाँ आजकल ज़माना ऐसा है कि कुछ छिपता नहीं . यह संभव नहीं है कि आप किसी पार्टी या संगठन के साथ गुपचुप काम करने लगें और बात में फायदा उठा लें . लालू प्रसाद यादव ने सबको बता दिया कि किरण बेदी चांदनी चौक से टिकट के चक्कर में हैं . कांग्रेस वाले दिग्विजय सिंह भी बहुत गलत आदमी हैं उन्होंने सारी दुनिया को बता दिया कि अपने अन्ना जी राष्ट्रपति बनना चाहते हैं .दिग्विजय सिंह को पता ही नहीं है कि देवतास्वरुप अन्ना जी की पोल खोल कर उन्होंने देश और समाज का बहुत नुकसान किया है .हालांकि यह भी सच है कि अन्ना हजारे और उनकी टीम ने भी देश के साथ दग़ा किया है . भ्रष्टाचार से त्राहि त्राहि कर रही देश की जनता सडकों पर आने का मन बना रही थी. शासक वर्गों का वही हाल होने वाला था जो चेकोस्लोवाकिया में १९९० में हुआ था , या चिली के तानाशाहों के खिलाफ जनता ने मैदान ले लिया था. जनता तो उस मूड में थी कि वह सत्ता के सभी दलालों को हमेशा के लिए खत्म कर देती लेकिन शासक वर्गों की कृपा के साथ साथ कांग्रेस और बीजेपी के सहयोग से अन्ना हजारे ने रामलीला मैदान में जनता के बढ़ रहे तूफ़ान को मोड़ दिया . अब पता नहीं इतिहास के किस मोड़ पर जनता इतनी तैयारी के साथ भ्रष्टाचार को चुनौती दे पायेगी. लेकिन २०११ वाला जनता का गुस्सा तो निश्चित रूप से अन्ना वालों ने दफ़न कर दिया है . और अब हिसार में उस भजनलाल की राजनीति को समर्थन दे रहे हैं जिसने भ्रष्टाचार के तरह तरह के प्रयोग किये थे. या उस चौतालावाद को बढ़ावा दे रहे हैं जो हरियाणा में भ्रष्ट राजनीति के पुरोधा के रूप में किसी सूरत में भजनलाली परंपरा से कम नहीं हैं .जहां तक कांग्रेस की बात है वह तो पिछले चुनाव में भी वहां तीसरे स्थान पर थी, और इस चुनाव में भी तीसरे पर ही रहेगी. वहां भी लगता है कि अन्ना के चेला नंबर वन राजनीतिक सपने देखने की तैयारी कर रहे हैं .
मैं अपने पूरे होशो हवास में घोषणा करता हूँ कि ऊपर जो कुछ भी लिखा है ,उसे मैंने बिलकुल नहीं लिखा है. यह सारी बातें सुनी सुनायी हैं और अगर कोई भगवा वस्त्रधारी मुझे पीटने आया तो मैं साफ़ मना कर दूंगा कि यह सब बकवास मैंने नहीं लिखी है .
Thursday, October 13, 2011
वंचित तबकों की बेहतरी के लिए ज़रूरी हस्तक्षेप हैं फुटपाथ के यह स्कूल
शेष नारायण सिंह
मुंबई के फुटपाथों पर भीख मांगने वाले बच्चों के लिए शुरू किये गए कोचिंग सेंटर अब वंचित तबकों के लोगों के सपनों को संजोने के महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में विकसित हो रहे हैं . आशा किरण चैरिटेबल ट्रस्ट नाम के संगठन के प्रयास से मुंबई के उपनगर अंधेरी और वर्सोवा के इलाके में सडकों के फुटपाथों पर स्कूल चल रहे हैं जो हज़ारों रूपये देकर ट्यूशन करने वालों से बेहतर शिक्षा उन बच्चों को दे रहे हैं जिनके लिए ट्यूशन क्या, स्कूल जाना भी एक सपने से कम नहीं था. आशा किरण ट्रस्ट के इस अभियान को प्रो.शर्मा नाम के एक बुज़ुर्ग लीड कर रहे हैं .
एयर फोर्स से रिटायर होकर शर्माजी ने मुंबई के चार बंगला इलाके को अपना ठिकाना बनाया. करीब १६ साल पहले की बात है उन्होंने देखा कि चार बंगला क्रासिंग के पास कुछ लोग भीख मांगने वाले बच्चों को खाना खिला रहे हैं .खिचडी घर नाम की संस्था के तत्वावधान में यह काम चल रहा था. यह रोज़ का काम था. खाना वितरण के वक़्त वहां भीख मांगने वालों की भारी संख्या हो जाती थी . चार विषयों के एम ए ,शर्माजी एयर फोर्स से आने के बाद ट्यूशन किया करते थे. खुद अविवाहित हैं इसलिए कोई जिम्मेवारी भी नहीं थी. ट्रस्ट वालों से उन्होंने कहा कि इस तरह से भिखारी को खाना देने से भीख मांगने के काम को प्रोत्साहन मिलता है . इस काम पर होने वाले खर्च का समाज के विकास में कोई रचनात्मक योगदान नहीं है.शर्माजी ने उन दानी लोगों से कहा कि मैं इन बच्चों को पढ़ाऊंगा . उन्होंने विवेकानंद की उस बात का हवाला भी दिया जहां उन्होंने कहा था कि अगर प्यासा कुएं के पास नहीं जा सकता तो ऐसे उपाय किये जाने चाहिए कि कुआं ही प्यासे के पास चला जाए. उन्होंने तर्क दिया कि शिक्षा ही समाज और राष्ट्र के विकास की मुख्य धुरी है . इसी के आस पास सारी आर्थिक और सामाजिक गतिविधियां घूमती हैं . आशा किरण चैरिटेबल ट्रस्ट के ट्रस्टियों की समझ में बात आ गयी . उन्होंने शर्माजी को हरी झंडी दे दी और पूछा कि कब से आप पढ़ाना चाहेगें. उन्होंने कहा कि मैं अभी इसी वक़्त काम शुरू करना चाहता हूँ.शुरू में वे दो बच्चों को वहां लेकर बैठे . बाकी माता पिता अपने बच्चों को शिक्षा जैसी बेकार की चीज़ में समय बर्बाद करने के लिए भेजने को तैयार नहीं थे. ट्रस्ट के अध्यक्ष अग्रवाल साहेब और अन्य साथियों ने मिलकर आस पास की झुग्गी झोपडी इलाकों में जाकर अभियान चलाया . लेकिन बच्चों की कमी रही . १९९६ में एक अन्य ट्रस्टी नंदा कोटावाला ने कहा कि जो बच्चे स्कूल आयेगें उन्हें पांच रूपया दिया जाएगा . संख्या तो बढ़ी लेकिन उस रूपये का दुरुपयोग होने लगा . बच्चे सुरती तमाखू खाने लगे. शर्माजी ने सुझाव दिया कि नक़द नहीं सभी बच्चों को २०० ग्राम दूध दिया जाए जिसे या तो वे खुद पी लेगें या अपने घर ले जायेगें . दोनों ही हालात में उस दूध का सही इस्तेमाल होगा. बहरहाल शुरुआती मुश्किलों के बाद आज यह प्रयास चल निकला है . इन सेंटरों को स्कूल के रूप में मान्यता नहीं मिली है इसलिए सभी बच्चों का आस पास के महानगरपालिका के स्कूलों में दाखिला करा दिया जाता है . जहां वे स्कूली पढाई करते हैं और महाराष्ट्र बोर्ड की परीक्षाओं में शामिल होते हैं .
मुंबई के व्यस्त उपनगर अंधेरी की व्यस्त सडकों के फुटपाथों पर चटाई बिछाकर बैठे यह बच्चे उन वर्गों के लोगों के हैं जो आमतौर पर हिम्मत हार चुके होते हैं . सड़क पर ट्रैफिक शोर लगातार सुनायी पड़ता रहता है लेकिन इन बच्चों की पढाई चलती रहती है . वाकर के सहारे चलने वाले शर्माजी खुद भी कुछ सेंटरों पर मौजूद रहते हैं . उनके साथ एक सुषमा मेहता भी मिलीं . मुंबई के महंगे पोद्दार स्कूल में ३५ साल तक पढ़ाने के बाद वे इन बच्चों को मुफ्त में पढ़ाती हैं . एक ब्रिगेडियर साहेब की पत्नी रेखा शर्मा भी जुडी हैं जो अपना समय और ज्ञान इन बच्चों को मुफ्त में दे रही हैं. मिसेज़ मेहता और मिसेज़ शर्मा की तरह के करीब चालीस और लोग हैं जो समाज के संपन्न वर्ग के हैं लेकिन इन वंचित वर्ग के बच्चों के लिए अपना समय और प्रयास लगा रहे हैं . लेकिन सारा काम वालिटियरों के सहारे ही नहीं चलता .हर सेन्टर पर तीन घंटे पढाई होती है . इन सेन्टरों पर काम करने के लिए कुछ ऐसी लड़कियों को नौकरी पर भी रखा गया है जिनको तीन घंटे के काम के लिए उपयुक्त वेतन दिया जाता है .
शून्य से शुरू हुआ यह प्रयास आज मुंबई की शहरी ज़िंदगी में एक सार्थक हस्तक्षेप है . शुरुआती कोशिश के बाद जब स्कूल ने कुछ गति पकड़ी तो एक सरदार जी आये और उन्होंने कहा कि जितने भी केले खरीदे जाते हों सब का भुगतान वे करेगें . ट्रस्ट ने कभी किसी सरकारी संस्था या किसी नेता से कोई मदद नहीं ली है . अपने सहयोगियों के प्रयास से ही म्हाडा का फ़्लैट खरीदा गया था जो करीब १५ साल पहले १३ लाख रूपये का मिला था. आज उसकी कीमत डेढ़ करोड़ रूपये है . सेंटर को एक बस की ज़रुरत थी तो हिन्दुस्तान टाइम्स में काम करने वाले एक पत्रकार ने बिरला औद्योगिक परिवार से साढ़े छः लाख रूपये दिलवा दिया .कुछ और लोगों के सहयोग से बस भी खरीद ली गयी. आज ट्रस्ट का एक फ़्लैट भी है जहां सारा सामान रखा जाता है .
इन केन्द्रों से पढ़कर जाने वाले बच्चे जीवन में बेहतर ज़िंदगी जीने और अपने आस पास के माहौल को बदलने की कोशिश करते हैं . यहाँ से जाने वाली लड़कियां गरीब तो होती हैं लेकिन अपनी अगली पीढ़ियों को बेहतर ज़िंदगी देने की कोशिश करती रहती हैं .शर्माजी ने बताया कि उनके केन्द्रों से पढाई करने वाले कुछ पूर्व छात्र-छात्राएं यहाँ आते भी है और अपने स्कूल से सम्बन्ध बनाए रखने में गर्व का अनुभव करते हैं .
मुंबई के फुटपाथों पर भीख मांगने वाले बच्चों के लिए शुरू किये गए कोचिंग सेंटर अब वंचित तबकों के लोगों के सपनों को संजोने के महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में विकसित हो रहे हैं . आशा किरण चैरिटेबल ट्रस्ट नाम के संगठन के प्रयास से मुंबई के उपनगर अंधेरी और वर्सोवा के इलाके में सडकों के फुटपाथों पर स्कूल चल रहे हैं जो हज़ारों रूपये देकर ट्यूशन करने वालों से बेहतर शिक्षा उन बच्चों को दे रहे हैं जिनके लिए ट्यूशन क्या, स्कूल जाना भी एक सपने से कम नहीं था. आशा किरण ट्रस्ट के इस अभियान को प्रो.शर्मा नाम के एक बुज़ुर्ग लीड कर रहे हैं .
एयर फोर्स से रिटायर होकर शर्माजी ने मुंबई के चार बंगला इलाके को अपना ठिकाना बनाया. करीब १६ साल पहले की बात है उन्होंने देखा कि चार बंगला क्रासिंग के पास कुछ लोग भीख मांगने वाले बच्चों को खाना खिला रहे हैं .खिचडी घर नाम की संस्था के तत्वावधान में यह काम चल रहा था. यह रोज़ का काम था. खाना वितरण के वक़्त वहां भीख मांगने वालों की भारी संख्या हो जाती थी . चार विषयों के एम ए ,शर्माजी एयर फोर्स से आने के बाद ट्यूशन किया करते थे. खुद अविवाहित हैं इसलिए कोई जिम्मेवारी भी नहीं थी. ट्रस्ट वालों से उन्होंने कहा कि इस तरह से भिखारी को खाना देने से भीख मांगने के काम को प्रोत्साहन मिलता है . इस काम पर होने वाले खर्च का समाज के विकास में कोई रचनात्मक योगदान नहीं है.शर्माजी ने उन दानी लोगों से कहा कि मैं इन बच्चों को पढ़ाऊंगा . उन्होंने विवेकानंद की उस बात का हवाला भी दिया जहां उन्होंने कहा था कि अगर प्यासा कुएं के पास नहीं जा सकता तो ऐसे उपाय किये जाने चाहिए कि कुआं ही प्यासे के पास चला जाए. उन्होंने तर्क दिया कि शिक्षा ही समाज और राष्ट्र के विकास की मुख्य धुरी है . इसी के आस पास सारी आर्थिक और सामाजिक गतिविधियां घूमती हैं . आशा किरण चैरिटेबल ट्रस्ट के ट्रस्टियों की समझ में बात आ गयी . उन्होंने शर्माजी को हरी झंडी दे दी और पूछा कि कब से आप पढ़ाना चाहेगें. उन्होंने कहा कि मैं अभी इसी वक़्त काम शुरू करना चाहता हूँ.शुरू में वे दो बच्चों को वहां लेकर बैठे . बाकी माता पिता अपने बच्चों को शिक्षा जैसी बेकार की चीज़ में समय बर्बाद करने के लिए भेजने को तैयार नहीं थे. ट्रस्ट के अध्यक्ष अग्रवाल साहेब और अन्य साथियों ने मिलकर आस पास की झुग्गी झोपडी इलाकों में जाकर अभियान चलाया . लेकिन बच्चों की कमी रही . १९९६ में एक अन्य ट्रस्टी नंदा कोटावाला ने कहा कि जो बच्चे स्कूल आयेगें उन्हें पांच रूपया दिया जाएगा . संख्या तो बढ़ी लेकिन उस रूपये का दुरुपयोग होने लगा . बच्चे सुरती तमाखू खाने लगे. शर्माजी ने सुझाव दिया कि नक़द नहीं सभी बच्चों को २०० ग्राम दूध दिया जाए जिसे या तो वे खुद पी लेगें या अपने घर ले जायेगें . दोनों ही हालात में उस दूध का सही इस्तेमाल होगा. बहरहाल शुरुआती मुश्किलों के बाद आज यह प्रयास चल निकला है . इन सेंटरों को स्कूल के रूप में मान्यता नहीं मिली है इसलिए सभी बच्चों का आस पास के महानगरपालिका के स्कूलों में दाखिला करा दिया जाता है . जहां वे स्कूली पढाई करते हैं और महाराष्ट्र बोर्ड की परीक्षाओं में शामिल होते हैं .
मुंबई के व्यस्त उपनगर अंधेरी की व्यस्त सडकों के फुटपाथों पर चटाई बिछाकर बैठे यह बच्चे उन वर्गों के लोगों के हैं जो आमतौर पर हिम्मत हार चुके होते हैं . सड़क पर ट्रैफिक शोर लगातार सुनायी पड़ता रहता है लेकिन इन बच्चों की पढाई चलती रहती है . वाकर के सहारे चलने वाले शर्माजी खुद भी कुछ सेंटरों पर मौजूद रहते हैं . उनके साथ एक सुषमा मेहता भी मिलीं . मुंबई के महंगे पोद्दार स्कूल में ३५ साल तक पढ़ाने के बाद वे इन बच्चों को मुफ्त में पढ़ाती हैं . एक ब्रिगेडियर साहेब की पत्नी रेखा शर्मा भी जुडी हैं जो अपना समय और ज्ञान इन बच्चों को मुफ्त में दे रही हैं. मिसेज़ मेहता और मिसेज़ शर्मा की तरह के करीब चालीस और लोग हैं जो समाज के संपन्न वर्ग के हैं लेकिन इन वंचित वर्ग के बच्चों के लिए अपना समय और प्रयास लगा रहे हैं . लेकिन सारा काम वालिटियरों के सहारे ही नहीं चलता .हर सेन्टर पर तीन घंटे पढाई होती है . इन सेन्टरों पर काम करने के लिए कुछ ऐसी लड़कियों को नौकरी पर भी रखा गया है जिनको तीन घंटे के काम के लिए उपयुक्त वेतन दिया जाता है .
शून्य से शुरू हुआ यह प्रयास आज मुंबई की शहरी ज़िंदगी में एक सार्थक हस्तक्षेप है . शुरुआती कोशिश के बाद जब स्कूल ने कुछ गति पकड़ी तो एक सरदार जी आये और उन्होंने कहा कि जितने भी केले खरीदे जाते हों सब का भुगतान वे करेगें . ट्रस्ट ने कभी किसी सरकारी संस्था या किसी नेता से कोई मदद नहीं ली है . अपने सहयोगियों के प्रयास से ही म्हाडा का फ़्लैट खरीदा गया था जो करीब १५ साल पहले १३ लाख रूपये का मिला था. आज उसकी कीमत डेढ़ करोड़ रूपये है . सेंटर को एक बस की ज़रुरत थी तो हिन्दुस्तान टाइम्स में काम करने वाले एक पत्रकार ने बिरला औद्योगिक परिवार से साढ़े छः लाख रूपये दिलवा दिया .कुछ और लोगों के सहयोग से बस भी खरीद ली गयी. आज ट्रस्ट का एक फ़्लैट भी है जहां सारा सामान रखा जाता है .
इन केन्द्रों से पढ़कर जाने वाले बच्चे जीवन में बेहतर ज़िंदगी जीने और अपने आस पास के माहौल को बदलने की कोशिश करते हैं . यहाँ से जाने वाली लड़कियां गरीब तो होती हैं लेकिन अपनी अगली पीढ़ियों को बेहतर ज़िंदगी देने की कोशिश करती रहती हैं .शर्माजी ने बताया कि उनके केन्द्रों से पढाई करने वाले कुछ पूर्व छात्र-छात्राएं यहाँ आते भी है और अपने स्कूल से सम्बन्ध बनाए रखने में गर्व का अनुभव करते हैं .
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आशा किरण चैरिटेबल ट्रस्ट,
शेष नारायण सिंह
Wednesday, October 12, 2011
सरकारी अस्पताल की नर्स किसी मुख्यमंत्री की नौकर नहीं होती
शेष नारायण सिंह
मुंबई ,११ अक्टूबर . मुम्बई के दो सरकारी अस्पतालों की नर्सों ने अपने अस्पतालों के सामने प्रदर्शन किया और नारे लगाये. उनकी मांग थी कि उन्होंने सरकारी अस्पताल में काम करने के लिए नौकरी की है . वे किसी मंत्री के घर जाकर उसके किसी रिश्तेदार की देखभाल करने के लिए तैयार नहीं हैं.इस हड़ताल का फौरी कारण था कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वी राज चह्वाण की सास जी का देखभाल करने के लिए मुंबई के कामा अस्पताल से कुछ नर्सों को उनके मालाबार हिल स्थित सरकारी आवास में भेज दिया गया था.
मुख्यमंत्री की बीमार सास की सेवा के लिए मुख्यमंत्री आवास पर तलब किये जाने से नर्सों में भारी गुस्सा है . कामा और आल्ब्लेस अस्पताल की जिन नर्सों को वहां भेजा गया था उन्होंने कहा कि अस्पताल के अफसर उनके ऊपर गैरकानूनी तरीके से दबाव डालते हैं . यह तरीका ठीक नहीं है . इन नर्सों के हड़ताल पर जाने के बाद तीन अन्य सरकारी अस्पतालों, जे जे ,सेंट जार्ज और जी टी अस्पताल की नर्सें भी उनके समर्थन में हड़ताल पर चली गयीं. नर्सों में इस बात को लेकर भारी नाराज़गी है कि उन्हें मंत्रियों के घर भेज दिया जाता है जब्कू उनकी ड्यूटी सरकारी अस्पताल में काम करने की है . उनका कहना है कि अस्पताल में चाहे कोई मंत्री आये या कोई सामान्य व्यक्ति , वे सबकी सेवा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं लेकिन मंत्रियों के घरों पर जाना उन्हें बर्दाश्त नहीं है.जो नर्सें मुख्यमंत्री आवास पर भेजी गयी थीं, उनका आरोप है कि वहां नर्सिंग जैसा कोई काम नहीं था . मुख्य मंत्री की सास जी को चलने में थोड़ी दिक्क़त होती है , बस उनको वाकर के सहारे टहलाने भर का काम करना था जिसे घर का कोई भी सदस्य या कोई भी प्रायवेट नर्स कर सकती थी. नर्सों को इस बात पर भी घोर एतराज़ है कि राज्य के संसाधनों का इस्तेमाल मुख्यमंत्री जी की सास के सामने शेखी बघारने के लिए किया जा रहा है .
महाराष्ट्र सरकारी नर्स फेडरेशन की जनरल सेक्रेटरी , कस्तूरी कदम का कहना है कि ५ अक्टूबर को जे जे ग्रुप आफ हास्पिटल्स के डीन, डॉ टी पी लाहने ने आदेश भेज दिया था कि तीन नर्सों को मुख्यमंत्री आवास पर काम करना है . यह नहीं बताया गया कि कब तक वहां रहना है . जो नर्सें वहां गयी थीं, उनको १२ घंटे की ड्यूटी करनी पड़ी. और वे देर से घर पंहुचीं .फेडरेशन ने सवाल उठाया है कि अगर उन नर्सों के साथ कोई अनहोनी हो जाती तो कौन ज़िम्मेदार होता.
पता चला है कि सरकारी अस्पतालों के डाक्टरों और नर्सों को इस तरह से मंत्रियों के घरों पर भेजना कोई नई बात नहीं है . यह तो अक्सर होता रहता है . उधर जे जे ग्रुप आफ हास्पिटल्स के डीन ,डॉ टी पी लाहने का दावा है कि नर्सों को मुख्य मंत्री निवास पर ड्यूटी के लिए भेजने में कोई गैर कानूनी काम नहीं किया गया है .इन नर्सों की ड्यूटी इसलिए लगाई गयी थी क्यंकि मुख्यमंत्री की सास की देखभाल का काम जिस प्राइवेट नर्स के जिम्मे था वह छुट्टी पर चली गयी थी. लेकिन नर्सों का आरोप है कि यह काम तो गैरकानूनी है लेकिन विरोध के स्वर कमज़ोर होने की वजह से अपनी चापलूसी को चमकदार बनाने के लिए अधिकारी इस तरह के काम करते रहते हैं . नर्सों की यूनियन की एक अन्य नेता, श्रीमती वायकर का कहना है कि १९६६ में भी एक बार मुख्यमंत्री आवास पर नर्सों की ड्यूटी लगा दी गयी थी . जब विरोध किया गया तब जाकर कानूनी स्थिति साफ़ हुई और बाद के कई वर्षों तक किसी भी अफसर की हिम्मत नर्सों को मंत्रियों के यहाँ भेजने की नहीं पड़ी अब जब मुख्यमंत्री की सास की सेवा के मामले में ज़बरदस्त विरोध कर दिया गया है , सब लोग ठीक हो जायेगें.
मुंबई ,११ अक्टूबर . मुम्बई के दो सरकारी अस्पतालों की नर्सों ने अपने अस्पतालों के सामने प्रदर्शन किया और नारे लगाये. उनकी मांग थी कि उन्होंने सरकारी अस्पताल में काम करने के लिए नौकरी की है . वे किसी मंत्री के घर जाकर उसके किसी रिश्तेदार की देखभाल करने के लिए तैयार नहीं हैं.इस हड़ताल का फौरी कारण था कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वी राज चह्वाण की सास जी का देखभाल करने के लिए मुंबई के कामा अस्पताल से कुछ नर्सों को उनके मालाबार हिल स्थित सरकारी आवास में भेज दिया गया था.
मुख्यमंत्री की बीमार सास की सेवा के लिए मुख्यमंत्री आवास पर तलब किये जाने से नर्सों में भारी गुस्सा है . कामा और आल्ब्लेस अस्पताल की जिन नर्सों को वहां भेजा गया था उन्होंने कहा कि अस्पताल के अफसर उनके ऊपर गैरकानूनी तरीके से दबाव डालते हैं . यह तरीका ठीक नहीं है . इन नर्सों के हड़ताल पर जाने के बाद तीन अन्य सरकारी अस्पतालों, जे जे ,सेंट जार्ज और जी टी अस्पताल की नर्सें भी उनके समर्थन में हड़ताल पर चली गयीं. नर्सों में इस बात को लेकर भारी नाराज़गी है कि उन्हें मंत्रियों के घर भेज दिया जाता है जब्कू उनकी ड्यूटी सरकारी अस्पताल में काम करने की है . उनका कहना है कि अस्पताल में चाहे कोई मंत्री आये या कोई सामान्य व्यक्ति , वे सबकी सेवा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं लेकिन मंत्रियों के घरों पर जाना उन्हें बर्दाश्त नहीं है.जो नर्सें मुख्यमंत्री आवास पर भेजी गयी थीं, उनका आरोप है कि वहां नर्सिंग जैसा कोई काम नहीं था . मुख्य मंत्री की सास जी को चलने में थोड़ी दिक्क़त होती है , बस उनको वाकर के सहारे टहलाने भर का काम करना था जिसे घर का कोई भी सदस्य या कोई भी प्रायवेट नर्स कर सकती थी. नर्सों को इस बात पर भी घोर एतराज़ है कि राज्य के संसाधनों का इस्तेमाल मुख्यमंत्री जी की सास के सामने शेखी बघारने के लिए किया जा रहा है .
महाराष्ट्र सरकारी नर्स फेडरेशन की जनरल सेक्रेटरी , कस्तूरी कदम का कहना है कि ५ अक्टूबर को जे जे ग्रुप आफ हास्पिटल्स के डीन, डॉ टी पी लाहने ने आदेश भेज दिया था कि तीन नर्सों को मुख्यमंत्री आवास पर काम करना है . यह नहीं बताया गया कि कब तक वहां रहना है . जो नर्सें वहां गयी थीं, उनको १२ घंटे की ड्यूटी करनी पड़ी. और वे देर से घर पंहुचीं .फेडरेशन ने सवाल उठाया है कि अगर उन नर्सों के साथ कोई अनहोनी हो जाती तो कौन ज़िम्मेदार होता.
पता चला है कि सरकारी अस्पतालों के डाक्टरों और नर्सों को इस तरह से मंत्रियों के घरों पर भेजना कोई नई बात नहीं है . यह तो अक्सर होता रहता है . उधर जे जे ग्रुप आफ हास्पिटल्स के डीन ,डॉ टी पी लाहने का दावा है कि नर्सों को मुख्य मंत्री निवास पर ड्यूटी के लिए भेजने में कोई गैर कानूनी काम नहीं किया गया है .इन नर्सों की ड्यूटी इसलिए लगाई गयी थी क्यंकि मुख्यमंत्री की सास की देखभाल का काम जिस प्राइवेट नर्स के जिम्मे था वह छुट्टी पर चली गयी थी. लेकिन नर्सों का आरोप है कि यह काम तो गैरकानूनी है लेकिन विरोध के स्वर कमज़ोर होने की वजह से अपनी चापलूसी को चमकदार बनाने के लिए अधिकारी इस तरह के काम करते रहते हैं . नर्सों की यूनियन की एक अन्य नेता, श्रीमती वायकर का कहना है कि १९६६ में भी एक बार मुख्यमंत्री आवास पर नर्सों की ड्यूटी लगा दी गयी थी . जब विरोध किया गया तब जाकर कानूनी स्थिति साफ़ हुई और बाद के कई वर्षों तक किसी भी अफसर की हिम्मत नर्सों को मंत्रियों के यहाँ भेजने की नहीं पड़ी अब जब मुख्यमंत्री की सास की सेवा के मामले में ज़बरदस्त विरोध कर दिया गया है , सब लोग ठीक हो जायेगें.
जगजीत सिंह को श्रद्धांजलि
शेष नारायण सिंह
जगजीत सिंह को पहली बार १९७८ में जाकिर हुसेन मार्ग के मकान नंबर ४७ के लान में देखा था. दिल्ली हाई कोर्ट के ऐन पीछे यह मकान है. उस मकान में उन दिनों विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव डॉ इंदु प्रकाश सिंह रहते थे. जनता पार्टी का ज़माना था . इंदिरा गांधी १९७७ में चुनाव हार चुकी थीं . पाकिस्तानियों के लिए १९७१ की लड़ाई को भूल पाना मुश्किल था लेकिन मोरारजी देसाई के आने के बाद भारत की विदेशनीति का मुख्य नारा था कि पड़ोसियों से अच्छे सम्बन्ध बनाने की ज़रुरत है . वही कवायद चल रही थी. डॉ इंदु प्रकाश सिंह विदेश मंत्रालय में पाकिस्तान डेस्क के इंचार्ज थे .विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे .अटल जी का शुमार उर्दू के बहुत बड़े शायर फैज़ अहमद फैज़ के समर्थकों में किया जाता था.अटल बिहारी वाजपेयी इमरजेंसी में जेल में बंद रह चुके थे . जेल से आने के बाद उन्होंने दिल्ली की एक सभा में बा-आवाज़े बुलंद घोषित किया था कि उन्होंने जेल में फैज़ की शायरी को पढ़ा था और उनको फैज़ का वह शेर बहुत पसंद आया था जहां फैज़ फरमाते हैं कि " कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले " . जब अटल जी का यह भाषण मावलंकर आडिटोरियम में चल रहा था ,उस वक़्त दर्शकों में कनाडा के नागरिक अशोक सिंह भी बैठे थे. अशोक सिंह किसी भारतीय राजनयिक के बेटे थे और पूरी दुनिया में संगीत और संगीतकारों के प्रमोशन का काम करते थे. मुझे लगता है कि वहीं उन्होंने तय कर लिया था कि फैज़ को इस देश में सम्मानपूर्वक लाना है . अशोक सिंह ही फैज़ को अपने पिता जी के मित्र डॉ इंदु प्रकाश सिंह के लान के कार्यक्रममें लाये थे . वह कार्यक्रम हालांकि घर पर हुआ था लेकिन वह कार्यक्रम था सरकारी . वहां पर माहौल फैज़मय था . फैज़ ने बहुत सारी अपनी गज़लें पढ़ीं . फैज़ की शायरी को फैज़ की मौजूदगी में गाने के लिए पाकिस्तान की नामी गज़ल गायिका मुन्नी बेगम भी तशरीफ़ लाई थीं. उन्होंने फैज़ की कई गज़लें गाईं. बीच में थक गयीं और लगा कि वे कुछ मिनटों का एक ब्रेक चाहती थीं ,. इसी बीच अशोक सिंह ने कहा कि माहौल बन चुका है .उसको जारी रखना ज़रूरी है . मुन्नी बेगम थोड़ी देर आराम करेंगीं लेकिन इस बीच उन्होंने अपने बम्बई के एक साथी को फैज़ गाने के लिए प्रस्तुत कर दिया. वहां मौजूद लोगों में किसी ने जगजीत सिंह नाम के इस नौजवान को कभी गाते नहीं सुना था . लेकिन टाइम पास करने के लिए लोगों ने इस नौजवान को भी सुनने के मन बना लिया. पहली ग़ज़ल के बाद ही सब कुछ बदल चुका था.इस खूबसूरत नौजवान की पहली ग़ज़ल सुन कर ही लोग फरमाइश करने लगे. दूसरी, तीसरी और चौथी ग़ज़ल के बाद मुन्नी बेगम ने मोर्चा संभाला लेकिन उन्होंने साफ़ कहा कि जगजीत सिंह की आवाज़ में फैज़ सुनना बहुत अच्छा लगा. प्रोग्राम के आखिर में फैज़ साहब ने खुद कहा कि यह नौजवान ग़ज़ल गायकी की बुलंदियों तक जाएगा. फैज़ की बात में दम था . जगजीत सिंह ने उस दिन बहुत सारे लोगों के अलावा फैज़ और मुन्नी बेगम का नाम भी अपने शुरुआती प्रशंसकों की लिस्ट में लिख लिया था .
उसके बाद बहुत दिन तक जगजीत सिंह को करीब से देखने का मौक़ा नहीं मिला. उनकी फिल्म प्रेमगीत ने यह सुनिश्चित कर दिया कि जगजीत सिंह एक गायक के रूप में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं .फ़िल्मी दुनिय अमन वे चलता सिक्का बन चुके थे. उसके बाद अर्थ आई, फिर फिल्म साथ साथ .उसके बाद तो फिल्मों का सिलसिला ही शुरू हो गया . जगजीत सिंह ने ग़ज़ल गायकी को एक मेयार दिया. जब टी वी में हमने नसीरुद्दीन शाह को गालिब के रूप में देखा तो समझ में आ गया कि करीब डेढ़ सौ साल पहले गालिब उसी हुलिया में दिल्ली में घूमते रहे होंगें लेकिन जगजीत सिंह ने गालिब की गजलों को जिस मुहब्बत के साथ गाया वह आने वाली नस्लों के लिए फख्र की बात है . जगजीत सिंह ने ग़ज़ल गायकी की मूल परम्परा को भी निभाया लेकिन बहुत सारे प्रयोग भी किये. उनके जाने के बाद ग़ज़ल के जानकारों का एक करीबी दोस्त गुज़र गया है . और ग़ज़ल को सुनने वालों का एक बहुत बड़ा हीरो चला गया है . अलविदा जगजीत , अलविदा ग़ज़ल के राजकुमार
जगजीत सिंह को पहली बार १९७८ में जाकिर हुसेन मार्ग के मकान नंबर ४७ के लान में देखा था. दिल्ली हाई कोर्ट के ऐन पीछे यह मकान है. उस मकान में उन दिनों विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव डॉ इंदु प्रकाश सिंह रहते थे. जनता पार्टी का ज़माना था . इंदिरा गांधी १९७७ में चुनाव हार चुकी थीं . पाकिस्तानियों के लिए १९७१ की लड़ाई को भूल पाना मुश्किल था लेकिन मोरारजी देसाई के आने के बाद भारत की विदेशनीति का मुख्य नारा था कि पड़ोसियों से अच्छे सम्बन्ध बनाने की ज़रुरत है . वही कवायद चल रही थी. डॉ इंदु प्रकाश सिंह विदेश मंत्रालय में पाकिस्तान डेस्क के इंचार्ज थे .विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे .अटल जी का शुमार उर्दू के बहुत बड़े शायर फैज़ अहमद फैज़ के समर्थकों में किया जाता था.अटल बिहारी वाजपेयी इमरजेंसी में जेल में बंद रह चुके थे . जेल से आने के बाद उन्होंने दिल्ली की एक सभा में बा-आवाज़े बुलंद घोषित किया था कि उन्होंने जेल में फैज़ की शायरी को पढ़ा था और उनको फैज़ का वह शेर बहुत पसंद आया था जहां फैज़ फरमाते हैं कि " कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले " . जब अटल जी का यह भाषण मावलंकर आडिटोरियम में चल रहा था ,उस वक़्त दर्शकों में कनाडा के नागरिक अशोक सिंह भी बैठे थे. अशोक सिंह किसी भारतीय राजनयिक के बेटे थे और पूरी दुनिया में संगीत और संगीतकारों के प्रमोशन का काम करते थे. मुझे लगता है कि वहीं उन्होंने तय कर लिया था कि फैज़ को इस देश में सम्मानपूर्वक लाना है . अशोक सिंह ही फैज़ को अपने पिता जी के मित्र डॉ इंदु प्रकाश सिंह के लान के कार्यक्रममें लाये थे . वह कार्यक्रम हालांकि घर पर हुआ था लेकिन वह कार्यक्रम था सरकारी . वहां पर माहौल फैज़मय था . फैज़ ने बहुत सारी अपनी गज़लें पढ़ीं . फैज़ की शायरी को फैज़ की मौजूदगी में गाने के लिए पाकिस्तान की नामी गज़ल गायिका मुन्नी बेगम भी तशरीफ़ लाई थीं. उन्होंने फैज़ की कई गज़लें गाईं. बीच में थक गयीं और लगा कि वे कुछ मिनटों का एक ब्रेक चाहती थीं ,. इसी बीच अशोक सिंह ने कहा कि माहौल बन चुका है .उसको जारी रखना ज़रूरी है . मुन्नी बेगम थोड़ी देर आराम करेंगीं लेकिन इस बीच उन्होंने अपने बम्बई के एक साथी को फैज़ गाने के लिए प्रस्तुत कर दिया. वहां मौजूद लोगों में किसी ने जगजीत सिंह नाम के इस नौजवान को कभी गाते नहीं सुना था . लेकिन टाइम पास करने के लिए लोगों ने इस नौजवान को भी सुनने के मन बना लिया. पहली ग़ज़ल के बाद ही सब कुछ बदल चुका था.इस खूबसूरत नौजवान की पहली ग़ज़ल सुन कर ही लोग फरमाइश करने लगे. दूसरी, तीसरी और चौथी ग़ज़ल के बाद मुन्नी बेगम ने मोर्चा संभाला लेकिन उन्होंने साफ़ कहा कि जगजीत सिंह की आवाज़ में फैज़ सुनना बहुत अच्छा लगा. प्रोग्राम के आखिर में फैज़ साहब ने खुद कहा कि यह नौजवान ग़ज़ल गायकी की बुलंदियों तक जाएगा. फैज़ की बात में दम था . जगजीत सिंह ने उस दिन बहुत सारे लोगों के अलावा फैज़ और मुन्नी बेगम का नाम भी अपने शुरुआती प्रशंसकों की लिस्ट में लिख लिया था .
उसके बाद बहुत दिन तक जगजीत सिंह को करीब से देखने का मौक़ा नहीं मिला. उनकी फिल्म प्रेमगीत ने यह सुनिश्चित कर दिया कि जगजीत सिंह एक गायक के रूप में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं .फ़िल्मी दुनिय अमन वे चलता सिक्का बन चुके थे. उसके बाद अर्थ आई, फिर फिल्म साथ साथ .उसके बाद तो फिल्मों का सिलसिला ही शुरू हो गया . जगजीत सिंह ने ग़ज़ल गायकी को एक मेयार दिया. जब टी वी में हमने नसीरुद्दीन शाह को गालिब के रूप में देखा तो समझ में आ गया कि करीब डेढ़ सौ साल पहले गालिब उसी हुलिया में दिल्ली में घूमते रहे होंगें लेकिन जगजीत सिंह ने गालिब की गजलों को जिस मुहब्बत के साथ गाया वह आने वाली नस्लों के लिए फख्र की बात है . जगजीत सिंह ने ग़ज़ल गायकी की मूल परम्परा को भी निभाया लेकिन बहुत सारे प्रयोग भी किये. उनके जाने के बाद ग़ज़ल के जानकारों का एक करीबी दोस्त गुज़र गया है . और ग़ज़ल को सुनने वालों का एक बहुत बड़ा हीरो चला गया है . अलविदा जगजीत , अलविदा ग़ज़ल के राजकुमार
मुंबई के पुलिस कमिश्नर ने थानेदारों फटकारा ,राजनीतिक गुंडों को सख्ती से काबू करो
शेष नारायण सिंह
मुंबई,९ अक्टूबर. मुंबई पुलिस ने राजनीतिक गुंडई को काबू में करने का मन बना लिया है . मुंबई के पुलिस कमिश्नर ,अरूप पटनायक ने अपने थानेदारों को हिदायत दी है कि राजनीतिक गुंडों की पहचान करके उन्हें बदमाशी करने से हर हाल में रोकना होगा . अगर किसी थानेदार के इलाके में राजनीतिक गुंडई होती है तो दरोगा को सज़ा दी जायेगी. पुलिस की इस सख्ती से सबसे ज़्यादा लाभ उत्तर भारतीय ऑटो ड्राइवरों को होगा जो आजकल राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के कार्यकर्ताओं के आतंक को झेल रहे हैं.
मुंबई के पुलिस कमिश्नर का यह बयान बहुत ही ज़रूरी था. मुंबई में अगले तीन चार महीनों ताक बहुत ही ज़्यादा राजनीतिक गहमागहमी रहने वाली है .मुंबई नगर निगम के चुनाव होने वाले हैं जहां आजकल शिवसेना का कब्ज़ा है . शिवसेना से अलग होकर अपना राजनीतिक कारोबार करने वाले शिव सेना प्रमुख के भतीजे ,राज ठाकरे वहां शिवसेना को सबक सिखाना चाहते हैं , इसलिए शिवसेना के कट्टर समर्थकों को अपनी तरफ लाने के लिए वे उत्तर भारतीयों के खिलाफ तरह तरह के हथकंडे अपना रहे हैं . राज ठाकरे का पिछ्ला रिकार्ड ऐसा है कि उनको उत्तर भारतीय तो किसी भी हालत में वोट नहीं देगें. उन्होंने ही हर मौके पर यू पी और बिहार से जाकर मुंबई में रोटी कमाने वाले गरीब लोगों को पिटवाया था.ऐसी ही हालत शिवसेना की भी है . इसलिए उत्तर भारतीयों के खिलाफ भावनाओं को भड़का कर वोट लेने की अपनी कोशिश के तहत राज ठाकरे ने पिछ्ले दिनों राजनीतिक गुंडई के सहारे उत्तर भारतीयों को परेशान करने की राजनीतिक योजना पर काम शुरू कर दिया था. उन्होंने सबसे ज्यादा असंगठित वर्ग , ऑटो रिक्शा चालकों को निशाने पार लिया .इस वर्ग में भी केवल उत्तर भारतीयों पर लाठियां बरसाने का काम शुरू किया गया.ऑटो चालकों में यू पी से जाकर अपनी रोटी कमाने वालों की संख्या सबसे ज्यादा है .इसी तरह की गुंडागर्दी के खिलाफ पुलिस ने अभियान शुरू करने का फैसला किया है .
पुलिस कमिश्नर अरूप पटनायक का कहना है कि इस तरह की गुंडई से पुलिस की छवि तो खराब होती ही है, मुंबई शहर की भी बदनामी होती है . उन्होंने कहा कि पिछले दिनों पुलिस स्टेशनों के इंचार्ज लोगों की मिलीभगत भी इस तरह की कारस्तानियों में पायी गयी थी . उन्हें रंज है कि आज राजनीतिक गुंडई की हालात लगभग बेकाबू इसलिए हो गए हैं कि शुरू में पुलिस ने अपना काम ठीक से नहीं किया . कमिश्नर पटनायक ने अपनी फ़ोर्स को चेतावनी दी कि चौकन्ना रहो और योजना बनाकर अपराध करने की राजनीतिक पार्टियों की कोशिश को वारदात होने से पहले ही रोक दो.पुलिस कमिश्नर ने कहा कि पिछले दिनों ऑटो रिक्शा वालों पर हुए हमले बेशक छिटपुट घटनाएं लगती हों लेकिन वे घटनाएं शहर में फ़ैली अराजकता को रेखांकित करने में पूरी तरह से सफल रही हैं . उन्होंने चिंता जताई कि अगर इस तरह की घटनाएं होती रहीं तो मुंबई ऐसे शहर के रूप में पहचाना जाने लगेगा जहां कानून व्यवस्था की हालत बहुत ही खराब है .उन्होंने अपने लोगों को आदेश दिया कि स्कूलों में एडमिशन करवाने के लिए भी कुछ लोकल नेता प्रिंसिपलों पर बेजा दबाव डालते हैं . ऐसे नेताओं पार भी सख्ती की ज़रुरत है और कोशिश की जानी चाहिए कि यह छोटे मोटे नेता भी गुंडई करने की हिम्मत न कर सकें.पिछले दिनों उत्तर भारतीयों पर हुए हमलों पर नाराज़गी जताते हुए उन्होंने थानेदारों को फटकारा और कहा कि यह घटनाएं पुलिस गाफिल पड़ने की वजह से हुई थीं .
मुंबई,९ अक्टूबर. मुंबई पुलिस ने राजनीतिक गुंडई को काबू में करने का मन बना लिया है . मुंबई के पुलिस कमिश्नर ,अरूप पटनायक ने अपने थानेदारों को हिदायत दी है कि राजनीतिक गुंडों की पहचान करके उन्हें बदमाशी करने से हर हाल में रोकना होगा . अगर किसी थानेदार के इलाके में राजनीतिक गुंडई होती है तो दरोगा को सज़ा दी जायेगी. पुलिस की इस सख्ती से सबसे ज़्यादा लाभ उत्तर भारतीय ऑटो ड्राइवरों को होगा जो आजकल राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के कार्यकर्ताओं के आतंक को झेल रहे हैं.
मुंबई के पुलिस कमिश्नर का यह बयान बहुत ही ज़रूरी था. मुंबई में अगले तीन चार महीनों ताक बहुत ही ज़्यादा राजनीतिक गहमागहमी रहने वाली है .मुंबई नगर निगम के चुनाव होने वाले हैं जहां आजकल शिवसेना का कब्ज़ा है . शिवसेना से अलग होकर अपना राजनीतिक कारोबार करने वाले शिव सेना प्रमुख के भतीजे ,राज ठाकरे वहां शिवसेना को सबक सिखाना चाहते हैं , इसलिए शिवसेना के कट्टर समर्थकों को अपनी तरफ लाने के लिए वे उत्तर भारतीयों के खिलाफ तरह तरह के हथकंडे अपना रहे हैं . राज ठाकरे का पिछ्ला रिकार्ड ऐसा है कि उनको उत्तर भारतीय तो किसी भी हालत में वोट नहीं देगें. उन्होंने ही हर मौके पर यू पी और बिहार से जाकर मुंबई में रोटी कमाने वाले गरीब लोगों को पिटवाया था.ऐसी ही हालत शिवसेना की भी है . इसलिए उत्तर भारतीयों के खिलाफ भावनाओं को भड़का कर वोट लेने की अपनी कोशिश के तहत राज ठाकरे ने पिछ्ले दिनों राजनीतिक गुंडई के सहारे उत्तर भारतीयों को परेशान करने की राजनीतिक योजना पर काम शुरू कर दिया था. उन्होंने सबसे ज्यादा असंगठित वर्ग , ऑटो रिक्शा चालकों को निशाने पार लिया .इस वर्ग में भी केवल उत्तर भारतीयों पर लाठियां बरसाने का काम शुरू किया गया.ऑटो चालकों में यू पी से जाकर अपनी रोटी कमाने वालों की संख्या सबसे ज्यादा है .इसी तरह की गुंडागर्दी के खिलाफ पुलिस ने अभियान शुरू करने का फैसला किया है .
पुलिस कमिश्नर अरूप पटनायक का कहना है कि इस तरह की गुंडई से पुलिस की छवि तो खराब होती ही है, मुंबई शहर की भी बदनामी होती है . उन्होंने कहा कि पिछले दिनों पुलिस स्टेशनों के इंचार्ज लोगों की मिलीभगत भी इस तरह की कारस्तानियों में पायी गयी थी . उन्हें रंज है कि आज राजनीतिक गुंडई की हालात लगभग बेकाबू इसलिए हो गए हैं कि शुरू में पुलिस ने अपना काम ठीक से नहीं किया . कमिश्नर पटनायक ने अपनी फ़ोर्स को चेतावनी दी कि चौकन्ना रहो और योजना बनाकर अपराध करने की राजनीतिक पार्टियों की कोशिश को वारदात होने से पहले ही रोक दो.पुलिस कमिश्नर ने कहा कि पिछले दिनों ऑटो रिक्शा वालों पर हुए हमले बेशक छिटपुट घटनाएं लगती हों लेकिन वे घटनाएं शहर में फ़ैली अराजकता को रेखांकित करने में पूरी तरह से सफल रही हैं . उन्होंने चिंता जताई कि अगर इस तरह की घटनाएं होती रहीं तो मुंबई ऐसे शहर के रूप में पहचाना जाने लगेगा जहां कानून व्यवस्था की हालत बहुत ही खराब है .उन्होंने अपने लोगों को आदेश दिया कि स्कूलों में एडमिशन करवाने के लिए भी कुछ लोकल नेता प्रिंसिपलों पर बेजा दबाव डालते हैं . ऐसे नेताओं पार भी सख्ती की ज़रुरत है और कोशिश की जानी चाहिए कि यह छोटे मोटे नेता भी गुंडई करने की हिम्मत न कर सकें.पिछले दिनों उत्तर भारतीयों पर हुए हमलों पर नाराज़गी जताते हुए उन्होंने थानेदारों को फटकारा और कहा कि यह घटनाएं पुलिस गाफिल पड़ने की वजह से हुई थीं .
Sunday, October 9, 2011
लखनऊ की शान हैं मुद्रा राक्षस
शेष नारायण सिंह
इस बार लखनऊ यात्रा दिलचस्प रही. मेरे संपादकजी ने सुझाया कि मुद्राराक्षस से भी मुलाक़ात हो सकती है . ३५ साल का बाइस्कोप याद की नज़रों में घूम गया . दिल्ली के श्रीराम सेंटर में १९७६ में मैं मुद्राराक्षस को पहली बार देखा था . वे मेकअप में थे.गोगोल का नाटक " इन्स्पेक्टर जनरल " ले कर आये थे. चाटुकार राजनीति और नौकरशाही पर भारी व्यंग्य था . नाम दिया था ' आला अफसर '. उन दिनों ' आला अफसर ' शीर्षक खूब माकूल लग रहा था. इमरजेंसी लग चुकी थी . इंदिरा गाँधी और उस वक़्त के युवराज संजय गांधी का आतंक राजधानी के हर कोने में देखा जा सकता था . लोकतंत्र में लोक के प्रतिनिधि सांसदों का भीगी बिल्ली बनने का प्रोजेक्ट शुरू हो चुका था .नौकरशाही अपनी मनमानी के नए तरीकों पार काम शुरू कर चुकी थी. दिल्ली नगर निगम के कमिश्नर बहादुर राम टमटा, दिल्ली विकास प्राधिकारण के मुखिया जगमोहन और दिल्ली पुलिस में भिंडर नाम के एक पुलिस वाले का आतंक था . सभी आला अफसर थे, मुद्राराक्षस के 'आला अफसर' की करतूतें श्रोता वर्ग में बैठे दिल्ली वालों को भोगा हुआ यथार्थ लग रही थीं . मुराद यह कि 'आला अफसर' की याद ऐसी थी जिसको कि भुलाना आसान नहीं है. नौटंकी शैली में पेश की गयी इस प्रस्तुति में मुद्राराक्षस ने ' चाँद सा एक मुखड़ा पहलू में हो' वाले गाने की कपाल क्रिया की थी. वह बहुत ही आला थी. मुद्रा जी की ऊंचाई तो दुनिया जानती है , किसी भी पैमाने से उन्हें लम्बा नहीं कहा जा सकता लेकिन उनके साथ जो बल्लो भाई थे वे छः फीट से भी ज्यादा लम्बे थे. जब दोनों बा आवाज़े बुलंद, " चाँद सा के मुखड़ा पहलू में हो ,इसके आगे हमें नहीं आता है " की टेर लगाते थे तो लगता था कि हर तरह के पल्प साहित्य और संस्कृति के खिलाफ मोर्चा खोलने का आवाहन किया जा रहा हो.
मुद्रा राक्षस का यह तसव्वुर लेकर मैं अपने संपादक श्री के साथ नाका हिंडोला से रानी गंज चौराहे की तरफ बढ़ा. संपादक जी का जो ड्राइवर उनको पहले लेकर मुद्रा जी के यहाँ आया रहा होगा ,आज वह नहीं था . ज़ाहिर है नए ड्राइवर को जगह के बारे में जानकारी नहीं थी.हमारे पास घर का नंबर नहीं था और मोहल्ले का नाम नहीं था. बस संपादक जी की ऊह का पाथेय लेकर हम चल पड़े थे.. संपादक जी ने एक ऐसा मोड़ याद कर लिया था जिस पर मुड़ जाने पर मुद्राराक्षस का घर आ जाता है . लेकिन कुछ चूक हो गयी .कोई दूसरा मोड़ ले लिया गया . उसी मोड़ की घुमरी परैया में हम घूमते रहे. संपादक जी की प्रतिभा का मैं लोहा तब मान गया जब दो एक बार परिक्रमा करने के बाद वे आखिर में मुद्रा जी के घर के सामने प्रकट हो गए.
इतनी परेड के बाद मुद्राराक्षस से जो मुलाक़ात हुई वह मेरे जीवन की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है . करीब एक घंटे हम उनके साथ रहे. बहुत सारे विषयों पर बातें हुईं. आजकल इस्लाम में हदीस के मह्त्व या उस से जुड़े हुए विषयों पर कोई किताब लिखने की योजना पर काम रहे हैं . धर्म की बात शुरू हो गयी तो बताया कि सभी धर्म को मानने वालों के अपने अपने सम्प्रदाय हैं , सब के ईश्वर हैं ,सब का सामाजिक तंत्र है . एक बार उन्होंने सुझाव दिया था कि अनीश्वर वादियों का एक सम्प्रदाय क्यों न बनाया जाए. लेकिन बात इस पर आकर अंटक गयी कि वहां भी उस सम्प्रदाय के कर्ता धर्ता द्वारा अपने आपको ईश्वर घोषित कर देने के खतरे बने हुए रहते हैं . प्रभाकर का ज़िक्र आया जो अपने आप को अनीश्वरवादियों का ईश्वर घोषित ही कर चुके थे. उन्होंने कहा कि आम तौर पर धर्म हिंसा की बात ज़रूर करता है . मैंने कहा कि हिन्दू धर्म में तो हिंसा नहीं है . आप ने फट जवाब दिया कि हिन्दू धर्म के मूल में ऋग्वेद है और उसकी कई ऋचाओं में विरोधी को मार डालने की बात कही गयी है . इसलिए धर्म के सहारे शान्ति की उम्मीद करने का को मतलब नहीं है .
मुद्राराक्षस से बात चीत के दौरान साफ़ समझ में आ रहा था कि वे हिन्दी साहित्य और भाषा की मठाधीशी परम्परा से बहुत दुखी हैं. कहने लगे कि यह तो बड़ा अच्छा हुआ कि सुभाष राय के संपादकत्व में हिन्दी का सही दिशा में कुछ काम हो रहा है . हालांकि यह भी कहते पाए गए कि डर लगता है कि कहीं यह बंद न हो जाए . मुद्राराक्षस का इस बात का बहुत बुरा मानते हैं कि आजकल हिन्दी आलोचना को ब्लैकमेल की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है . उन्होंने नाम लेकर बताया कि किस तरह से आलोचक शिरोमणि महोदय अपने चेलों को प्रमोट करने के लिए आलोचना का इस्तेमाल करते हैं . शिष्टाचार का तकाज़ा है कि यहाँ इन ब्लैकमेलर जी का नाम न छापा जाए. मुद्राराक्षस को मालूम है कि अपने चेलों को स्थापित करने के लिए प्रकाशकों को धमकाया भी जाता है . हिन्दी की प्रेमचंद वाली पत्रिका के मठाधीश के प्रति तो उनकी वाणी मधुर थी लेकिन चेले पालने की उनकी तन्मयता के बारे में उन्होंने उसी कबीरपंथी ईमानदारी के साथ बात की.
पिछले दिनों हिन्दी पखवाड़े के दौरान लखनऊ के एक सरकारी हिन्दी कार्यक्रम में हुई चर्चा की भी बात हुई. वहां उनको एक सरकारी अफसर टाइप जीव मिल गए थे जिन्होंने मुद्रा जी को बताया कि वे हिन्दी का पुण्यस्मरण करने के लिए इकट्ठा हुए हैं. जब इस अफसर को याद दिलाया गया कि पुण्यस्मरण को मृत लोगों का किया जाता है तो वे बेचारे अफसर बगलें झांकते नज़र आये. मुद्रा जी मानते हैं कि हिन्दी क्षेत्र में आज हिन्दी की जो दुर्दशा है उसके लिए हिन्दी वालों के साथ साथ सरकारी अफसरों की हिन्दी नवाजी की लालसा भी बहुत हद तक ज़िम्मेदार है . भाषा के वर्गीकरण के बारे में भी वे दुखी थे. अवधी, ब्रज भाषा और भोजपुरी में लिखे गए हिन्दी के श्रेष्ठतम साहित्य को हिन्दी जगत अपना तो बताता है लेकिन इन भाषाओं को बोली कह कर हिन्दी का बहुत नुकसान करता है . तुलसीदास के रामचरित मानस की बात भी हुई . कहने लगे कि तुलसीदास के दृष्टिकोण से असहमत हुआ जा सकता है लेकिन उनकी काव्यशक्ति का सम्मान तो करना ही पडेगा. जब मैंने कहा कि विषय की भी अपनी अपील है तो कहने लगे कि उस विषय पर उसी काल में और उसके बाद बहुत कुछ लिखा गया लेकिन किसी को भी वह रुतबा नहीं मिला जो तुलसी की काव्यशक्ति की वजह से उनको मिला है .मुलाक़ात के अंत में मुझे अपनी कुछ किताबें दीं और हम वापस चल पड़े.
इस बार लखनऊ यात्रा दिलचस्प रही. मेरे संपादकजी ने सुझाया कि मुद्राराक्षस से भी मुलाक़ात हो सकती है . ३५ साल का बाइस्कोप याद की नज़रों में घूम गया . दिल्ली के श्रीराम सेंटर में १९७६ में मैं मुद्राराक्षस को पहली बार देखा था . वे मेकअप में थे.गोगोल का नाटक " इन्स्पेक्टर जनरल " ले कर आये थे. चाटुकार राजनीति और नौकरशाही पर भारी व्यंग्य था . नाम दिया था ' आला अफसर '. उन दिनों ' आला अफसर ' शीर्षक खूब माकूल लग रहा था. इमरजेंसी लग चुकी थी . इंदिरा गाँधी और उस वक़्त के युवराज संजय गांधी का आतंक राजधानी के हर कोने में देखा जा सकता था . लोकतंत्र में लोक के प्रतिनिधि सांसदों का भीगी बिल्ली बनने का प्रोजेक्ट शुरू हो चुका था .नौकरशाही अपनी मनमानी के नए तरीकों पार काम शुरू कर चुकी थी. दिल्ली नगर निगम के कमिश्नर बहादुर राम टमटा, दिल्ली विकास प्राधिकारण के मुखिया जगमोहन और दिल्ली पुलिस में भिंडर नाम के एक पुलिस वाले का आतंक था . सभी आला अफसर थे, मुद्राराक्षस के 'आला अफसर' की करतूतें श्रोता वर्ग में बैठे दिल्ली वालों को भोगा हुआ यथार्थ लग रही थीं . मुराद यह कि 'आला अफसर' की याद ऐसी थी जिसको कि भुलाना आसान नहीं है. नौटंकी शैली में पेश की गयी इस प्रस्तुति में मुद्राराक्षस ने ' चाँद सा एक मुखड़ा पहलू में हो' वाले गाने की कपाल क्रिया की थी. वह बहुत ही आला थी. मुद्रा जी की ऊंचाई तो दुनिया जानती है , किसी भी पैमाने से उन्हें लम्बा नहीं कहा जा सकता लेकिन उनके साथ जो बल्लो भाई थे वे छः फीट से भी ज्यादा लम्बे थे. जब दोनों बा आवाज़े बुलंद, " चाँद सा के मुखड़ा पहलू में हो ,इसके आगे हमें नहीं आता है " की टेर लगाते थे तो लगता था कि हर तरह के पल्प साहित्य और संस्कृति के खिलाफ मोर्चा खोलने का आवाहन किया जा रहा हो.
मुद्रा राक्षस का यह तसव्वुर लेकर मैं अपने संपादक श्री के साथ नाका हिंडोला से रानी गंज चौराहे की तरफ बढ़ा. संपादक जी का जो ड्राइवर उनको पहले लेकर मुद्रा जी के यहाँ आया रहा होगा ,आज वह नहीं था . ज़ाहिर है नए ड्राइवर को जगह के बारे में जानकारी नहीं थी.हमारे पास घर का नंबर नहीं था और मोहल्ले का नाम नहीं था. बस संपादक जी की ऊह का पाथेय लेकर हम चल पड़े थे.. संपादक जी ने एक ऐसा मोड़ याद कर लिया था जिस पर मुड़ जाने पर मुद्राराक्षस का घर आ जाता है . लेकिन कुछ चूक हो गयी .कोई दूसरा मोड़ ले लिया गया . उसी मोड़ की घुमरी परैया में हम घूमते रहे. संपादक जी की प्रतिभा का मैं लोहा तब मान गया जब दो एक बार परिक्रमा करने के बाद वे आखिर में मुद्रा जी के घर के सामने प्रकट हो गए.
इतनी परेड के बाद मुद्राराक्षस से जो मुलाक़ात हुई वह मेरे जीवन की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है . करीब एक घंटे हम उनके साथ रहे. बहुत सारे विषयों पर बातें हुईं. आजकल इस्लाम में हदीस के मह्त्व या उस से जुड़े हुए विषयों पर कोई किताब लिखने की योजना पर काम रहे हैं . धर्म की बात शुरू हो गयी तो बताया कि सभी धर्म को मानने वालों के अपने अपने सम्प्रदाय हैं , सब के ईश्वर हैं ,सब का सामाजिक तंत्र है . एक बार उन्होंने सुझाव दिया था कि अनीश्वर वादियों का एक सम्प्रदाय क्यों न बनाया जाए. लेकिन बात इस पर आकर अंटक गयी कि वहां भी उस सम्प्रदाय के कर्ता धर्ता द्वारा अपने आपको ईश्वर घोषित कर देने के खतरे बने हुए रहते हैं . प्रभाकर का ज़िक्र आया जो अपने आप को अनीश्वरवादियों का ईश्वर घोषित ही कर चुके थे. उन्होंने कहा कि आम तौर पर धर्म हिंसा की बात ज़रूर करता है . मैंने कहा कि हिन्दू धर्म में तो हिंसा नहीं है . आप ने फट जवाब दिया कि हिन्दू धर्म के मूल में ऋग्वेद है और उसकी कई ऋचाओं में विरोधी को मार डालने की बात कही गयी है . इसलिए धर्म के सहारे शान्ति की उम्मीद करने का को मतलब नहीं है .
मुद्राराक्षस से बात चीत के दौरान साफ़ समझ में आ रहा था कि वे हिन्दी साहित्य और भाषा की मठाधीशी परम्परा से बहुत दुखी हैं. कहने लगे कि यह तो बड़ा अच्छा हुआ कि सुभाष राय के संपादकत्व में हिन्दी का सही दिशा में कुछ काम हो रहा है . हालांकि यह भी कहते पाए गए कि डर लगता है कि कहीं यह बंद न हो जाए . मुद्राराक्षस का इस बात का बहुत बुरा मानते हैं कि आजकल हिन्दी आलोचना को ब्लैकमेल की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है . उन्होंने नाम लेकर बताया कि किस तरह से आलोचक शिरोमणि महोदय अपने चेलों को प्रमोट करने के लिए आलोचना का इस्तेमाल करते हैं . शिष्टाचार का तकाज़ा है कि यहाँ इन ब्लैकमेलर जी का नाम न छापा जाए. मुद्राराक्षस को मालूम है कि अपने चेलों को स्थापित करने के लिए प्रकाशकों को धमकाया भी जाता है . हिन्दी की प्रेमचंद वाली पत्रिका के मठाधीश के प्रति तो उनकी वाणी मधुर थी लेकिन चेले पालने की उनकी तन्मयता के बारे में उन्होंने उसी कबीरपंथी ईमानदारी के साथ बात की.
पिछले दिनों हिन्दी पखवाड़े के दौरान लखनऊ के एक सरकारी हिन्दी कार्यक्रम में हुई चर्चा की भी बात हुई. वहां उनको एक सरकारी अफसर टाइप जीव मिल गए थे जिन्होंने मुद्रा जी को बताया कि वे हिन्दी का पुण्यस्मरण करने के लिए इकट्ठा हुए हैं. जब इस अफसर को याद दिलाया गया कि पुण्यस्मरण को मृत लोगों का किया जाता है तो वे बेचारे अफसर बगलें झांकते नज़र आये. मुद्रा जी मानते हैं कि हिन्दी क्षेत्र में आज हिन्दी की जो दुर्दशा है उसके लिए हिन्दी वालों के साथ साथ सरकारी अफसरों की हिन्दी नवाजी की लालसा भी बहुत हद तक ज़िम्मेदार है . भाषा के वर्गीकरण के बारे में भी वे दुखी थे. अवधी, ब्रज भाषा और भोजपुरी में लिखे गए हिन्दी के श्रेष्ठतम साहित्य को हिन्दी जगत अपना तो बताता है लेकिन इन भाषाओं को बोली कह कर हिन्दी का बहुत नुकसान करता है . तुलसीदास के रामचरित मानस की बात भी हुई . कहने लगे कि तुलसीदास के दृष्टिकोण से असहमत हुआ जा सकता है लेकिन उनकी काव्यशक्ति का सम्मान तो करना ही पडेगा. जब मैंने कहा कि विषय की भी अपनी अपील है तो कहने लगे कि उस विषय पर उसी काल में और उसके बाद बहुत कुछ लिखा गया लेकिन किसी को भी वह रुतबा नहीं मिला जो तुलसी की काव्यशक्ति की वजह से उनको मिला है .मुलाक़ात के अंत में मुझे अपनी कुछ किताबें दीं और हम वापस चल पड़े.
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शेष नारायण सिंह
Thursday, October 6, 2011
पीस पार्टी ने जोड़ा सुलतानपुर की राजनीति में एक नया आयाम
शेष नारायण सिंह और विजय पाण्डेय
आम तौर पर बसपा का गढ़ माने जाने वाले सुलतान पुर की राजनीति में डॉ मोहम्मद अयूब की पीस पार्टी ने एक नया आयाम जोड़ दिया है . इस जिले की पांच सीटों में से अब तक चार सीटें बसपा के पास हैं .इस बार भी आम तौर पर माना जा रहा था कि ज़्यादातर सीटों पर मुकाबला बसपा और सपा के बीच होगा लेकिन पीस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने लम्भुआ विधान सभा सीट से अपने ठाकुर उम्मीदवार के नाम का ऐलान करके मुक़म्मल तरीके से लड़ाई को त्रिकोणीय बना दिया है .लोकसभा चुनाव २००९ में बहुत दिन बाद कांग्रेसी उम्मीदवार की जीत के बाद माना जा रहा था कि इस इलाके में कांग्रेस की भी थोड़ी बहुत मौजूदगी लेकिन ऐसा कहीं होता कहीं नहीं दिख रहा है . जहां तक बीजेपी का सवाल है, उसने राम जन्मभूमि के आन्दोलन के बाद हुए दो चुनावों में सफलता पायी थी लेकिन अब वह बहुत दूर कहीं हाशिये पर चली गयी . लेकिन ऐसा लगता है कि पीस पार्टी की नई पहल के बाद समीकरण बिलकुल बदल जायेगें.
सुलतान पुर जिले में पिछले कई वर्षों से लोक सभा सीट बीजेपी और बी एस पी के कमज़ोर उम्मीदवारों के बीच बंटती रही है .बीजेपी ने कभी किसी बाबा को टिकट दे दिया तो कभी किसी पुलिस वाले को लेकिन जनसमर्थन का सैलाब ऐसा था कि पार्टी जीत जाती थी. जब राम जन्मभूमि वाला राजनीतिक मुद्दा कमज़ोर पड़ा तो बी एस पी के ऐसे उम्मीदवार जीतने लगे जिनका कहीं किसी ने नाम तक न सुना था. बी एस पी के पक्के वोटों की ताक़त पर ऐसे लोग जीत गए जिनका राजनीतिक मजबूती के बारे में ज्ञान लगभग शून्य था. ऐसे ही एक बी एस पी सांसद को हराने के लिए २००९ में लगभग पूरा जिला एकजुट हो गया और कांग्रेस के एक मज़बूत नेता को चुनाव जिता दिया और संजय गांधी और राजीव गाँधी युग के ताक़तवर कांग्रेस नेता , संजय सिंह एम पी बन गए.लेकिन उनकी जीत के बाद भी पार्टी को कोई मजबूती नहीं मिल सकी क्योंकि उनके आलाकमान ने उन्हें दिल्ली में कोई हैसियत नहीं दी.आज कांग्रेस की हालात खस्ता है . हालांकि पार्टी के बहुत बड़े नेता आस्कर फर्नांडीज़ के सहयोगी बी पी सिंह दिल्ली में माहौल बनाए हुए हैं कि वे जयसिंह पुर विधान सभा क्षेत्र से चुनाव जीत सकते हैं लेकिन क्षेत्र में उनकी ज़मीनी पहचान कुछ नहीं हैं . लोग उनको गंम्भीरता से नहीं ले रहे हैं .जयसिंह पुर विधान सभा क्षेत्र में एक अजीब बात देखने में आई . कांगेस के लिए टिकट की दौड़ में मुंबई के एक व्यापारी भी हैं.कहते हैं कि वे सीधे राहुल गाँधी के दरबार से टिकट पा जायेगें . इलाके के लोग उसको गंभीरता से ले रहे हैं . उसका एक भाई जिला पंचायत का सदस्य बनने में सफल रहा था . पूरे जिले में कांग्रेस के उम्मीदवारों में इनका नाम ही मुकाबले में मौजूद रह सकने लायक उम्मीद्वारों में लिया जा रहा है. हालांकि आई आई टी से बी टेक पास करने वाला एक नौजवान भी लम्भुआ से कांग्रेस के टिकट की कोशिश कर रहा है लेकिन जब कांग्रेस की ही हालत खस्ता है तो उसके उम्मीदवारों की क्या बिसात .
जिले में चर्चा है कि बी एस पी के मौजूदा विधायक चन्द्रभद्र सिंह बीजेपी के साथ भी जा सकते हैं . आकलन यह है कि अगर वे बीजेपी में जाते हैं तो बीजेपी को मजबूती मिलेगी . लेकिन यह बात चर्चा के स्तर पर ही है . इस बात को गंभीरता से लेने वालों की भारी कमी है . सुलतान पुर शहर से बीजेपी के कुछ ऐसे उम्मीदवार सुनायी पड़ रहे हैं जो जिले में बीजेपी की मौजूदगी का माहौल बना सकते हैं . हाँ ,अगर और पार्टियों ने उलटे सीधे टिकट दे दिए तो शहर की सीट पर बीजेपी की जीत की थोड़ी बहुत संभावना बन सकती है .लेकिन अगर चन्द्रभद्र सिंह बीजेपी के साथ न गए तो पार्टी का कोई नामलेवा नहीं है .
राष्ट्रीय स्तर की दोनों पार्टियों, बीजेपी और कांग्रेस की हालत एक जैसी ही है . जिले के जिन बड़े पत्रकारों से बातचीत हुई सब का मानना है कि लड़ाई बसपा और सपा के बीच ही है . कादीपुर सुरक्षित विधानसभा सीट पर बसपा के वर्तमान विधायक के खिलाफ कोई आरोप नहीं हैं लेकिन उनके खिलाफ सपा का जो उम्मीदवार है उसकी छवि एक बेदाग़ इंसान की है . १९७४ में वह तत्कालीन जनसंघ की टिकट पर चुनाव मैदान में उतरे थे. लेकिन कांग्रेस के उम्मीदवार जयराज गौतम ने उन्हें हरा दिया था . ३७ साल की अपनी चुनावी राजनीति में वे इस मुकाम पर हैं जहां उनके साथ लोगों की सहानुभूति है . क्षेत्र में मुसलमानों और पिछड़ी जातियों का प्रतिशत अच्छा है इसलिए वे मज़बूत माने जा रहे हैं .अगर कहीं कांग्रेसी उम्मीदवार ठीक से लड़ गया तो बसपा विधायक के लिए मुश्किल पेश आ सकती है . जिले की एक अन्य प्रतिष्ठित सीट लम्भुआ है. इस सीट पर भी सपा का उम्मीदवार मज़बूत है . हालांकि पार्टी ने वहां भी दुविधा दिखाई है . एक बार टिकट देकर बदल दिया गया है . चर्चा है कि फिर बदल दिया जाएगा . ऊपर से उसका मुकाबला राज्य के पर्यटन मंत्री , विनोद सिंह से है . लम्भुआ में आम तौर पर ठाकुर और ब्रह्मण एक दूसरे के खिलाफ रहते हैं . सपा का ब्राह्मण उम्मीदवार पहले भी विधायक रह चुका है और ब्राह्मणों में लोकप्रिय है .बसपा के विनोद सिंह का दावा है कि उनके खिलाफ कोई नहीं जीत सकता. उन्होंने बहुत काम किया है . गोमती नदी पर तीन पुल उनके सौजन्य से ही बन रहे हैं. वैसे भी वे क्षेत्र के लोगों से संपर्क में रहते हैं लेकिन उनके खिलाफ दो बातें हो सकती हैं . एक तो वे इलाके में एक ख़ास वर्ग के ठाकुरों को साथ लेकर चल रहे हैं . इसके अलावा पीस पार्टी के लम्भुआ से ताज़ा घोषित हुए उमीदवार उनकी मुसीबत बढ़ा सकते हैं . के डी सिंह नाम के यह व्यक्ति ठाकुर नौजवानों में आज से ही चर्चा में आ गए हैं .जो ठाकुर लड़के उनका गुणगान कर रहे हैं अगर वे साथ चले गए तो विनोद सिंह को फ़ौरन किसी नई रणनीति पर काम करने के लिए मजबूर होना पडेगा.कुल मिलाकर सुल्तानपुर जिले की राजनीति ऐसी है जहां बहुत कुछ बदलने वाला नहीं है.
आम तौर पर बसपा का गढ़ माने जाने वाले सुलतान पुर की राजनीति में डॉ मोहम्मद अयूब की पीस पार्टी ने एक नया आयाम जोड़ दिया है . इस जिले की पांच सीटों में से अब तक चार सीटें बसपा के पास हैं .इस बार भी आम तौर पर माना जा रहा था कि ज़्यादातर सीटों पर मुकाबला बसपा और सपा के बीच होगा लेकिन पीस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने लम्भुआ विधान सभा सीट से अपने ठाकुर उम्मीदवार के नाम का ऐलान करके मुक़म्मल तरीके से लड़ाई को त्रिकोणीय बना दिया है .लोकसभा चुनाव २००९ में बहुत दिन बाद कांग्रेसी उम्मीदवार की जीत के बाद माना जा रहा था कि इस इलाके में कांग्रेस की भी थोड़ी बहुत मौजूदगी लेकिन ऐसा कहीं होता कहीं नहीं दिख रहा है . जहां तक बीजेपी का सवाल है, उसने राम जन्मभूमि के आन्दोलन के बाद हुए दो चुनावों में सफलता पायी थी लेकिन अब वह बहुत दूर कहीं हाशिये पर चली गयी . लेकिन ऐसा लगता है कि पीस पार्टी की नई पहल के बाद समीकरण बिलकुल बदल जायेगें.
सुलतान पुर जिले में पिछले कई वर्षों से लोक सभा सीट बीजेपी और बी एस पी के कमज़ोर उम्मीदवारों के बीच बंटती रही है .बीजेपी ने कभी किसी बाबा को टिकट दे दिया तो कभी किसी पुलिस वाले को लेकिन जनसमर्थन का सैलाब ऐसा था कि पार्टी जीत जाती थी. जब राम जन्मभूमि वाला राजनीतिक मुद्दा कमज़ोर पड़ा तो बी एस पी के ऐसे उम्मीदवार जीतने लगे जिनका कहीं किसी ने नाम तक न सुना था. बी एस पी के पक्के वोटों की ताक़त पर ऐसे लोग जीत गए जिनका राजनीतिक मजबूती के बारे में ज्ञान लगभग शून्य था. ऐसे ही एक बी एस पी सांसद को हराने के लिए २००९ में लगभग पूरा जिला एकजुट हो गया और कांग्रेस के एक मज़बूत नेता को चुनाव जिता दिया और संजय गांधी और राजीव गाँधी युग के ताक़तवर कांग्रेस नेता , संजय सिंह एम पी बन गए.लेकिन उनकी जीत के बाद भी पार्टी को कोई मजबूती नहीं मिल सकी क्योंकि उनके आलाकमान ने उन्हें दिल्ली में कोई हैसियत नहीं दी.आज कांग्रेस की हालात खस्ता है . हालांकि पार्टी के बहुत बड़े नेता आस्कर फर्नांडीज़ के सहयोगी बी पी सिंह दिल्ली में माहौल बनाए हुए हैं कि वे जयसिंह पुर विधान सभा क्षेत्र से चुनाव जीत सकते हैं लेकिन क्षेत्र में उनकी ज़मीनी पहचान कुछ नहीं हैं . लोग उनको गंम्भीरता से नहीं ले रहे हैं .जयसिंह पुर विधान सभा क्षेत्र में एक अजीब बात देखने में आई . कांगेस के लिए टिकट की दौड़ में मुंबई के एक व्यापारी भी हैं.कहते हैं कि वे सीधे राहुल गाँधी के दरबार से टिकट पा जायेगें . इलाके के लोग उसको गंभीरता से ले रहे हैं . उसका एक भाई जिला पंचायत का सदस्य बनने में सफल रहा था . पूरे जिले में कांग्रेस के उम्मीदवारों में इनका नाम ही मुकाबले में मौजूद रह सकने लायक उम्मीद्वारों में लिया जा रहा है. हालांकि आई आई टी से बी टेक पास करने वाला एक नौजवान भी लम्भुआ से कांग्रेस के टिकट की कोशिश कर रहा है लेकिन जब कांग्रेस की ही हालत खस्ता है तो उसके उम्मीदवारों की क्या बिसात .
जिले में चर्चा है कि बी एस पी के मौजूदा विधायक चन्द्रभद्र सिंह बीजेपी के साथ भी जा सकते हैं . आकलन यह है कि अगर वे बीजेपी में जाते हैं तो बीजेपी को मजबूती मिलेगी . लेकिन यह बात चर्चा के स्तर पर ही है . इस बात को गंभीरता से लेने वालों की भारी कमी है . सुलतान पुर शहर से बीजेपी के कुछ ऐसे उम्मीदवार सुनायी पड़ रहे हैं जो जिले में बीजेपी की मौजूदगी का माहौल बना सकते हैं . हाँ ,अगर और पार्टियों ने उलटे सीधे टिकट दे दिए तो शहर की सीट पर बीजेपी की जीत की थोड़ी बहुत संभावना बन सकती है .लेकिन अगर चन्द्रभद्र सिंह बीजेपी के साथ न गए तो पार्टी का कोई नामलेवा नहीं है .
राष्ट्रीय स्तर की दोनों पार्टियों, बीजेपी और कांग्रेस की हालत एक जैसी ही है . जिले के जिन बड़े पत्रकारों से बातचीत हुई सब का मानना है कि लड़ाई बसपा और सपा के बीच ही है . कादीपुर सुरक्षित विधानसभा सीट पर बसपा के वर्तमान विधायक के खिलाफ कोई आरोप नहीं हैं लेकिन उनके खिलाफ सपा का जो उम्मीदवार है उसकी छवि एक बेदाग़ इंसान की है . १९७४ में वह तत्कालीन जनसंघ की टिकट पर चुनाव मैदान में उतरे थे. लेकिन कांग्रेस के उम्मीदवार जयराज गौतम ने उन्हें हरा दिया था . ३७ साल की अपनी चुनावी राजनीति में वे इस मुकाम पर हैं जहां उनके साथ लोगों की सहानुभूति है . क्षेत्र में मुसलमानों और पिछड़ी जातियों का प्रतिशत अच्छा है इसलिए वे मज़बूत माने जा रहे हैं .अगर कहीं कांग्रेसी उम्मीदवार ठीक से लड़ गया तो बसपा विधायक के लिए मुश्किल पेश आ सकती है . जिले की एक अन्य प्रतिष्ठित सीट लम्भुआ है. इस सीट पर भी सपा का उम्मीदवार मज़बूत है . हालांकि पार्टी ने वहां भी दुविधा दिखाई है . एक बार टिकट देकर बदल दिया गया है . चर्चा है कि फिर बदल दिया जाएगा . ऊपर से उसका मुकाबला राज्य के पर्यटन मंत्री , विनोद सिंह से है . लम्भुआ में आम तौर पर ठाकुर और ब्रह्मण एक दूसरे के खिलाफ रहते हैं . सपा का ब्राह्मण उम्मीदवार पहले भी विधायक रह चुका है और ब्राह्मणों में लोकप्रिय है .बसपा के विनोद सिंह का दावा है कि उनके खिलाफ कोई नहीं जीत सकता. उन्होंने बहुत काम किया है . गोमती नदी पर तीन पुल उनके सौजन्य से ही बन रहे हैं. वैसे भी वे क्षेत्र के लोगों से संपर्क में रहते हैं लेकिन उनके खिलाफ दो बातें हो सकती हैं . एक तो वे इलाके में एक ख़ास वर्ग के ठाकुरों को साथ लेकर चल रहे हैं . इसके अलावा पीस पार्टी के लम्भुआ से ताज़ा घोषित हुए उमीदवार उनकी मुसीबत बढ़ा सकते हैं . के डी सिंह नाम के यह व्यक्ति ठाकुर नौजवानों में आज से ही चर्चा में आ गए हैं .जो ठाकुर लड़के उनका गुणगान कर रहे हैं अगर वे साथ चले गए तो विनोद सिंह को फ़ौरन किसी नई रणनीति पर काम करने के लिए मजबूर होना पडेगा.कुल मिलाकर सुल्तानपुर जिले की राजनीति ऐसी है जहां बहुत कुछ बदलने वाला नहीं है.
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सुलतानपुर की राजनीति
Sunday, October 2, 2011
गलत आर्थिक नीतियों के कारण भारत बड़े शहरों,मलिन बस्तियों और उजड़े गाँवों का देश बन गया
शेष नारायण सिंह
२ अक्टूबर महात्मा गाँधी का जन्मदिन तो है ही, लाल बहादुर शास्त्री का जन्मदिन भी है . इसी दिन १९५२ में भारत में कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम भी शुरू किया गया था. आज़ादी के बाद देश में आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए शुरू किये गए कार्यक्रमों में यह बहुत ही महत्वपूर्ण कार्यक्रम था . लेकिन यह असफल रहा ,अपने लक्ष्य हासिल नहीं कर सका.इस कार्यक्रम के असफल होने के कारणों की पडताल शायद महात्मा जी के प्रति सच्ची श्रध्हांजलि होगी क्योंकि इस कार्यक्रम को शुरू करते वक़्त लगभग हर मंच से सरकार ने यह दावा किया था कि कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम के ज़रिये महात्मा गान्धी के सपनों के भारत को एक वाताविकता में बदला जा सकता है.
सामुदायिक विकास वास्तव में एक ऐसी प्रक्रिया है जिस से एक समुदाय के विकास के लिए लोग अपने आपको औपचारिक या अनौपचारिक रूप से संगठित करते हैं.यह विकास की एक सतत प्रक्रिया है.इसकी पहली शर्त ही यही थी कि अपने यहाँ स्थानीय स्तर पर उपलब्ध संसाधनों का इस्तेमाल करके समुदाय का विकास किया जाना था जहां ज़रूरी होता वहां बाहरी संसाधनों के प्रबंध का प्रावधान भी था. कम्युनिटी डेवलपमेंट की परिभाषा में ही यह लिखा है कि सामुदायिक विकास वह तरीका है जिसके ज़रिये गांव के लोग अपनी आर्थिक और सामाजिक दशा में सुधार लाने के लिए संगठित होते हैं . बाद में यही संगठन राष्ट्र के विकास में भी प्रभावी योगदान करते हैं . सामुदायिक विकास की बुनियादी धारणा ही यह है कि अगर लोगों को अपने भविष्य के बारे में निर्णय लेने के अवसर मुहैया कराये जाएँ तो वे किसी भी कार्यक्रम को सफलतापूर्वक चला सकते हैं .
भारत में २ अक्टूबर १९५२ के दिन जब कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम की शुरुआत की गयी तो सोचा गया था कि इसके रास्ते ही ग्रामीण भारत का समग्र विकास किया जाएगा.इस योजना में खेती,पशुपालन,लघु सिंचाई,सहकारिता,शिक्षा,ग्रामीण उद्योग अदि शामिल था जिसमें सुधार के बाद भारत में ग्रामीण जीवन की हालात में क्रांतिकारी परिवर्तन आ सकता था.कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम को लागू करने के लिए बाकायदा एक अमलातंत्र बनाया गया . जिला और ब्लाक स्तर पर सरकारी अधिकारी तैनात किये गए लेकिन कार्यक्रम से वह नहीं हासिल हो सका जो तय किया गया था. इस तरह महात्मा गांधी के सपनों के भारत के निर्माण के लिए सरकारी तौर पर जो पहली कोशिश की गयी थी वह भी बेकार साबित हुई . ठीक उसी तरह जिस तरह गांधीवादी दर्शन की हर कड़ी को अन्धाधुन्ध औद्योगीकरण और पूंजी के केंद्रीकरण के सहारे तबाह किया गया . कांग्रेस ने कभी भी गांधीवाद को इस देश में राजकाज का दर्शनशास्त्र नहीं बनने दिया . ग्रामीण भारत में नगरीकरण के तरह तरह के प्रयोग हुए और आज भारत तबाह गाँवों का एक देश है .
यह देखना दिलचस्प होगा कि इतनी बड़ी और महत्वाकांक्षी परियोजना को इस देश के हर दौर के हुक्मरानों ने कैसे बर्बाद किया .यहाँ यह ध्यान में रखना होगा कि उस योजना को तबाह करने वालों में जवाहरलाल नेहरू भी एक थे. उनके दिमाग में भी यह बात समा गयी थी कि भारत का ऐसा विकास होना चाहिये जिसके बाद भारत के गाँव भी शहर जैसे दिखने लगें . वे गाँवों में शहरों जैसी सुविधाओं को उपलब्ध कराने के चक्कर में थे .उन्होंने उसके लिए सोवियत रूस में चुने गए माडल को विकास का पैमाना बनाया और हम एक राष्ट्र के रूप में बड़े शहरों , मलिन बस्तियों और उजड़े गाँवों का देश बन गए . कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम को शुरू करने वालों ने सोचा था कि इस कार्यक्रम के लागू होने के बाद खेतों, घरों और सामूहिक रूप से गाँव में बदलाव आयेगा . कृषि उत्पादन और रहन सहन के सत्र में बदलाव् आयेगा . गाँव में रहने वाले पुरुष ,स्त्री और नौजवानों की सोच में बदलाव लाना भी कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम का एक उद्देश्य था लेकिन कहीं कुछ नहीं हुआ. सरकारी स्तर पर ग्रामीण विकास के लिए जो लोग तैनात किये गए उनके मन में सरकारी नौकरी का भाव ज्यादा था , इलाके या गांव के विकास को उन्होंने कभी प्राथमिकता नहीं दिया . ब्रिटिश ज़माने की नज़राने और रिश्वत की परम्परा को इन सरकारी कर्मचारियों ने खूब विकसित किया. पंचायत स्तर पर कोई भी ग्रामीण लीडरशिप डेवलप नहीं हो पायी. अगर विकास हुआ तो सिर्फ ऐसे लोगों का जो इन सरकारी कर्मचारियों के दलाल के रूप में काम करते रहे. इसी बुनियादी गलती के कारण ही आज जो भी स्कीमें ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के अंतर्गत गाँवों में भेजी जाती हैं उनका लगभग सारा पैसा इन्हीं दलालों के रास्ते सरकारी अफसरों और नेताओं के पास पंहुच जाता है .
२ अक्टूबर १९५२ को शुरू किया गया यह कार्यक्रम आज पूरी तरह से नाकाम साबित हो चुका है . इसके कारण बहुत से हैं . सामुदायिक विकास कार्यक्रम के नाम पर पूरे देश में नौकरशाही का एक बहुत बड़ा वर्ग तैयार हो गया है लेकिन उस नौकरशाही ने सरकारी नौकरी को ही विकास का सबसे बड़ा साधन मान लिया .शायद ऐसा इसलिए हुआ कि विकास के काम में लगे हुए लोग रिज़ल्ट दिखाने के चक्कर में ज्यादा रहने लगे. सच्चाई यह है कि ग्रामीण विकास का काम ऐसा है जिसमें नतीजे हासिल करने के लिए किया जाने वाला प्रयास ही सबसे अहम प्रक्रिया है . सरकारी बाबुओं ने उस प्रक्रिया को मार दिया .उसी प्रक्रिया के दौरान तो गाँव के स्तर पर सही अर्थों में लीडरशिप का विकास होता लेकिन सरकारी कर्मचारियों ने ग्रामीण लीडरशिप को मुखबिर या दलाल से ज्यादा रुतबा कभी नहीं हासिल करने दिया .सामुदायिक विकास के बुनियादी सिद्धांत में ही लिखा है कि समुदाय के लोग अपने विकास के लिए खुद ही प्रयास करेगें .उस काम में लगे हुए सरकारी कर्मचारियों का रोल केवल ग्रामीण विकास के लिए माहौल बनाना भर था लेकिन वास्तव में ऐसा कहीं नहीं हुआ . कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम के बुनियादी कार्यक्रम के लिए बनायी गयी सुविधाओं और नौकरशाही के जिम्मे अब लगभग सभी विकास कार्यक्रम लाद दिए गए गए हैं लेकिन विकास नज़र नहीं आता.सबसे ताज़ा उदाहरण महात्मा गाँधी के नाम पर शुरू किये गए मनरेगा कार्यक्रम की कहानी है . बड़े ऊंचे उद्देश्य के साथ शुरू किया गया यह कार्यक्र आज ग्राम प्रधान से लेकर कलेक्टर तक को रिश्वत की एक गिज़ा उपलब्ध कराने से ज्यादा कुछ नहीं बन पाया है . इसलिए आज महात्मा गाँधी के जन्म दिवस के अवसर पर उनके सपनों का भारत बनाने के लिए शुरू किये गए जवाहर लाल नेहरू के प्रिय कार्यक्रम की दुर्दशा का ज़िक्र कर लेना उचित जान पड़ता है
२ अक्टूबर महात्मा गाँधी का जन्मदिन तो है ही, लाल बहादुर शास्त्री का जन्मदिन भी है . इसी दिन १९५२ में भारत में कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम भी शुरू किया गया था. आज़ादी के बाद देश में आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए शुरू किये गए कार्यक्रमों में यह बहुत ही महत्वपूर्ण कार्यक्रम था . लेकिन यह असफल रहा ,अपने लक्ष्य हासिल नहीं कर सका.इस कार्यक्रम के असफल होने के कारणों की पडताल शायद महात्मा जी के प्रति सच्ची श्रध्हांजलि होगी क्योंकि इस कार्यक्रम को शुरू करते वक़्त लगभग हर मंच से सरकार ने यह दावा किया था कि कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम के ज़रिये महात्मा गान्धी के सपनों के भारत को एक वाताविकता में बदला जा सकता है.
सामुदायिक विकास वास्तव में एक ऐसी प्रक्रिया है जिस से एक समुदाय के विकास के लिए लोग अपने आपको औपचारिक या अनौपचारिक रूप से संगठित करते हैं.यह विकास की एक सतत प्रक्रिया है.इसकी पहली शर्त ही यही थी कि अपने यहाँ स्थानीय स्तर पर उपलब्ध संसाधनों का इस्तेमाल करके समुदाय का विकास किया जाना था जहां ज़रूरी होता वहां बाहरी संसाधनों के प्रबंध का प्रावधान भी था. कम्युनिटी डेवलपमेंट की परिभाषा में ही यह लिखा है कि सामुदायिक विकास वह तरीका है जिसके ज़रिये गांव के लोग अपनी आर्थिक और सामाजिक दशा में सुधार लाने के लिए संगठित होते हैं . बाद में यही संगठन राष्ट्र के विकास में भी प्रभावी योगदान करते हैं . सामुदायिक विकास की बुनियादी धारणा ही यह है कि अगर लोगों को अपने भविष्य के बारे में निर्णय लेने के अवसर मुहैया कराये जाएँ तो वे किसी भी कार्यक्रम को सफलतापूर्वक चला सकते हैं .
भारत में २ अक्टूबर १९५२ के दिन जब कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम की शुरुआत की गयी तो सोचा गया था कि इसके रास्ते ही ग्रामीण भारत का समग्र विकास किया जाएगा.इस योजना में खेती,पशुपालन,लघु सिंचाई,सहकारिता,शिक्षा,ग्रामीण उद्योग अदि शामिल था जिसमें सुधार के बाद भारत में ग्रामीण जीवन की हालात में क्रांतिकारी परिवर्तन आ सकता था.कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम को लागू करने के लिए बाकायदा एक अमलातंत्र बनाया गया . जिला और ब्लाक स्तर पर सरकारी अधिकारी तैनात किये गए लेकिन कार्यक्रम से वह नहीं हासिल हो सका जो तय किया गया था. इस तरह महात्मा गांधी के सपनों के भारत के निर्माण के लिए सरकारी तौर पर जो पहली कोशिश की गयी थी वह भी बेकार साबित हुई . ठीक उसी तरह जिस तरह गांधीवादी दर्शन की हर कड़ी को अन्धाधुन्ध औद्योगीकरण और पूंजी के केंद्रीकरण के सहारे तबाह किया गया . कांग्रेस ने कभी भी गांधीवाद को इस देश में राजकाज का दर्शनशास्त्र नहीं बनने दिया . ग्रामीण भारत में नगरीकरण के तरह तरह के प्रयोग हुए और आज भारत तबाह गाँवों का एक देश है .
यह देखना दिलचस्प होगा कि इतनी बड़ी और महत्वाकांक्षी परियोजना को इस देश के हर दौर के हुक्मरानों ने कैसे बर्बाद किया .यहाँ यह ध्यान में रखना होगा कि उस योजना को तबाह करने वालों में जवाहरलाल नेहरू भी एक थे. उनके दिमाग में भी यह बात समा गयी थी कि भारत का ऐसा विकास होना चाहिये जिसके बाद भारत के गाँव भी शहर जैसे दिखने लगें . वे गाँवों में शहरों जैसी सुविधाओं को उपलब्ध कराने के चक्कर में थे .उन्होंने उसके लिए सोवियत रूस में चुने गए माडल को विकास का पैमाना बनाया और हम एक राष्ट्र के रूप में बड़े शहरों , मलिन बस्तियों और उजड़े गाँवों का देश बन गए . कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम को शुरू करने वालों ने सोचा था कि इस कार्यक्रम के लागू होने के बाद खेतों, घरों और सामूहिक रूप से गाँव में बदलाव आयेगा . कृषि उत्पादन और रहन सहन के सत्र में बदलाव् आयेगा . गाँव में रहने वाले पुरुष ,स्त्री और नौजवानों की सोच में बदलाव लाना भी कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम का एक उद्देश्य था लेकिन कहीं कुछ नहीं हुआ. सरकारी स्तर पर ग्रामीण विकास के लिए जो लोग तैनात किये गए उनके मन में सरकारी नौकरी का भाव ज्यादा था , इलाके या गांव के विकास को उन्होंने कभी प्राथमिकता नहीं दिया . ब्रिटिश ज़माने की नज़राने और रिश्वत की परम्परा को इन सरकारी कर्मचारियों ने खूब विकसित किया. पंचायत स्तर पर कोई भी ग्रामीण लीडरशिप डेवलप नहीं हो पायी. अगर विकास हुआ तो सिर्फ ऐसे लोगों का जो इन सरकारी कर्मचारियों के दलाल के रूप में काम करते रहे. इसी बुनियादी गलती के कारण ही आज जो भी स्कीमें ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के अंतर्गत गाँवों में भेजी जाती हैं उनका लगभग सारा पैसा इन्हीं दलालों के रास्ते सरकारी अफसरों और नेताओं के पास पंहुच जाता है .
२ अक्टूबर १९५२ को शुरू किया गया यह कार्यक्रम आज पूरी तरह से नाकाम साबित हो चुका है . इसके कारण बहुत से हैं . सामुदायिक विकास कार्यक्रम के नाम पर पूरे देश में नौकरशाही का एक बहुत बड़ा वर्ग तैयार हो गया है लेकिन उस नौकरशाही ने सरकारी नौकरी को ही विकास का सबसे बड़ा साधन मान लिया .शायद ऐसा इसलिए हुआ कि विकास के काम में लगे हुए लोग रिज़ल्ट दिखाने के चक्कर में ज्यादा रहने लगे. सच्चाई यह है कि ग्रामीण विकास का काम ऐसा है जिसमें नतीजे हासिल करने के लिए किया जाने वाला प्रयास ही सबसे अहम प्रक्रिया है . सरकारी बाबुओं ने उस प्रक्रिया को मार दिया .उसी प्रक्रिया के दौरान तो गाँव के स्तर पर सही अर्थों में लीडरशिप का विकास होता लेकिन सरकारी कर्मचारियों ने ग्रामीण लीडरशिप को मुखबिर या दलाल से ज्यादा रुतबा कभी नहीं हासिल करने दिया .सामुदायिक विकास के बुनियादी सिद्धांत में ही लिखा है कि समुदाय के लोग अपने विकास के लिए खुद ही प्रयास करेगें .उस काम में लगे हुए सरकारी कर्मचारियों का रोल केवल ग्रामीण विकास के लिए माहौल बनाना भर था लेकिन वास्तव में ऐसा कहीं नहीं हुआ . कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम के बुनियादी कार्यक्रम के लिए बनायी गयी सुविधाओं और नौकरशाही के जिम्मे अब लगभग सभी विकास कार्यक्रम लाद दिए गए गए हैं लेकिन विकास नज़र नहीं आता.सबसे ताज़ा उदाहरण महात्मा गाँधी के नाम पर शुरू किये गए मनरेगा कार्यक्रम की कहानी है . बड़े ऊंचे उद्देश्य के साथ शुरू किया गया यह कार्यक्र आज ग्राम प्रधान से लेकर कलेक्टर तक को रिश्वत की एक गिज़ा उपलब्ध कराने से ज्यादा कुछ नहीं बन पाया है . इसलिए आज महात्मा गाँधी के जन्म दिवस के अवसर पर उनके सपनों का भारत बनाने के लिए शुरू किये गए जवाहर लाल नेहरू के प्रिय कार्यक्रम की दुर्दशा का ज़िक्र कर लेना उचित जान पड़ता है
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