शेष नारायण सिंह
· प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उड़ीसा की एक सभा में दुःख प्रकट किया कि उनके विरोधी उनकी सरकार गिराना चाहते हैं और इस काम में विरोधियों को उन गैर सरकारी संगठनों से मदद मिल रही है जिनको विदेशों से आर्थिक सहायता मिलती है . प्रथम दृष्टया यही लगता है कि उनका इशारा साफ़ साफ़ कांग्रेस की तरफ था क्योंकि कांग्रेस ने ही उनके हाथों २०१४ में सत्ता गंवाई थी . जहां तक गैर सरकारी संगठनों का सवाल है उनकी सरकार तीस्ता सीतलवाड जैसे लोगों के कुछ संगठनों पर कार्रवाई कर रही है सो शक की सुई उनकी तरफ गयी. गौर से देखने पर समझ में आता है कि कांग्रेस के पास लोकसभा में कुल ४५ सीटें हैं, स्पष्ट बहुमत के साथ बनी हुयी सरकार को गिरा पाना कांग्रेस के बूते की बात नहीं है . विपक्ष की पार्टियों में वैसा एका भी नहीं है कि कांग्रेस को कुछ मजबूती मिल सके. नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव के अलावा बाकी सभी नेताओं की पार्टियां कांग्रेस को नापसंद करती हैं . ऐसी हालत में प्रधानमंत्री मोदी के उन विरोधियों की पड़ताल ने एक दिलचस्प मोड़ ले लिया कि वे कौन लोग हैं जो उनकी सरकार गिराना चाहते हैं . नई दिल्ली के सत्ता के गलियारों में दिन भर चकरघिन्नी काटने वाले पत्रकारों की नज़र कुछ ऐसे तथ्यों की तरफ मुड़ गयी जो आम तौर पर असंभव माने जायेगें . पिछले एक महीने के राजनीतिक घटनाक्रम की अगर व्याख्या की जाए तो तस्वीर बिलकुल दूसरी उभरती है . ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री के वे विरोधी जो उनकी सरकार गिराना चाहते हैं वे सत्ता के बाहर नहीं , अन्दर ही कहीं विद्यमान हैं . ठीक उसी तरह से जैसे १९७८ में मोरारजी देसाई की सरकार गिराई गयी थी या १९८९ में राजीव गांधी को तीन चौथाई बहुमत वाली सरकार का नेता होने के बावजूद बहुत ही मजबूर सरकार का मुखिया बनना पडा था.
जिन कारणों से प्रधानमंत्री की राजनीतिक अथारिटी कमज़ोर पड़ रही है उसमें उनका उन वर्गों में अलोकप्रिय होना है जिन वर्गों ने उनको पूरे जोरशोर से मदद किया था . लोकसभा चुनाव २०१४ में प्रधानमंत्री का सबसे बड़ा सहयोगी नौजवानों का वह तबका था जो देश को प्रगति के रास्ते पर ले जाना चाहता था. उस वर्ग को प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी में वे संभावनाएं नज़र आई थीं .उन नौजवानों में एक बहुत बड़ा वर्ग छात्रों का था. पहली बार बीजेपी को जातपांत के दायरे से ऊपर उठकर नौजवानों ने समर्थन दिया था . लेकिन आजकल छात्रों के बीच नरेंद्र मोदी के विरोध का माहौल बन गया हैं . हालांकि उनके चाकर विश्लेषक यह बताने की कोशिश करेगें कि हैदराबाद और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में चल रहा विरोध बहुत ही छोटा है लेकिन उनको भी मालूम है कि देश के हर विश्वविद्यालय में मौजूदा सरकार की वह साख नहीं है जो डेढ़ साल पहले हुआ करती थी . जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की घटना का नतीजा तो यह हुआ है कि दुनिया भर के नामी शिक्षा केन्द्रों में भी सरकार की निंदा हो रही है . हार्वर्ड विश्वविद्यालय जैसे केन्द्रों में भी सरकार के अकादमिक संस्थाओं को दबोचने के रुख के खिलाफ प्रस्ताव पास किये गए हैं . अमरीकी और यूरोपीय विश्वविद्यालय में नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ बने माहौल का नतीजा यह होगा कि अगली बार की अमरीका यात्रा के दौरान उनको वह स्वागत नहीं मिलेगा जो पिछली यात्राओं में मिलता रहा है .
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की घटना को इतना बड़ा बनाने वालों पर नज़र डालें तो साफ़ समझ में आ जाएगा . इस घटना को इतनाबड़ा बनाने में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का योगदान है . आम तौर पर माना जाता है कि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद बीजेपी का छात्र संगठन है लेकिन ऐसा नहीं है . अगर यह कहा जाए की बीजेपी एबीवीपी का राजनीतिक संगठन है तो ज्यादा सही होगा क्योंकि बीजेपी की पूर्ववर्ती पार्टी , भारतीय जनसंघ की स्थापना १९५१ में हिन्दू महासभा के नेता डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने की थी जबकि अखिल भारतीय विद्यार्थी की स्थापना मुंबई में ९ जुलाई १९४९ को चुकी थी और यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का संगठन था . आज एबीवीपी विश्व के सबसे बड़ा छात्र संगठन हैं। अगर गौर से देखा जाए तो साफ़ समझ में आता है कि हैदराबाद और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालयों की घटनाओं को बिगाड़ने में एबीवीपी की सबसे अहम् भूमिका है . ज़ाहिर है कि एबीवीपी को किसी विरोधी दल के नेता का आशीर्वाद नहीं मिला हुआ है . यह आर एस एस का एक बहुत ही मज़बूत संगठन है और देश के कई बहुत बड़े नेताओं ने एबीवीपी से ही अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की है . गृहमंत्री राजनाथ सिंह और वित्त मंत्री अरुण जेटली एबीवीपी से ही आये हैं . दिल्ली विधान सभा के जिन सदस्य महोदय ने पटियाला हाउस कोर्ट में सारी हंगामा आयोजित किया वे भी एबीवीपी के हैं . दिल्ली के विवादास्पद पुलिस कमिश्नर भीम सैन बस्सी के बारे में पक्का पता तो नहीं है लेकिन वे भी दिल्ली के श्रीराम कालेज आफ कामर्स के छात्र रहे हैं जहां एबीवीपी का भारी प्रभाव हुआ करता था. यह लगभग तय है कि बंडारू दत्तात्रेय , महेश गिरी और स्मृति इरानी के कार्यों से हालात इस मुकाम पर न पंहुचते जहां पंहुचे हुए हैं और दिल्ली के विधायक ओ पी शर्मा अगर दिल्ली के पुलिस कमिश्नर बी एस बस्सी ने योगदान न किया होता. इनमें से कोई भी विपक्षी पार्टियों का नहीं है .
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उडीसा की सभा में कुछ गैर सरकारी संगठनों को भी अपने खिलाफ हो रही साज़िश में ज़िम्मेदार बताया . प्रधानमंत्री को चाहिए कि इस बात की पूरी जांच करवाएं और देश को बाखबर करें . वैसे यह भी सच है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी एक गैर सरकारी सांस्कृतिक संगठन है और उनकी सरकार में मजुजूद बहुत सारी ताक़तवर लोगों के अपने निजी एन जी ओ हैं .
उनकी सरकार के इकबाल को कमज़ोर करने में पिछले कई दिनों से जारी जाट आरक्षण के मामले में हरियाणा में चल रहे आन्दोलन का भी योगदान है . इस आन्दोलन का कोई नेता नहीं है . पता चला है कि हरियाणा के कुछ कांग्रेसी और बीजेपी के वे नेता जो मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे , इस आन्दोलन को हवा दे रहे हैं .इस आन्दोलन का कोई नेता भी नहीं है इसलिए इसने विकराल रूप धारण कर लिया है . दिल्ली में जब निर्भया बलात्कार काण्ड का जघन्य अपराध हुआ था तब भी सडकों पर उतर आये नौजवानों का कोई नेता नहीं था जिसके कारण उस वक़्त की मनमोहन सरकार की छवि बहुत खराब हुयी थी . उसी तरह इस बात की पूरी संभावना है कि आरक्षण का यह आन्दोलन स्वतःस्फूर्त हो लेकिन सरकार की छवि को निश्चित रूप से कमज़ोर कर रहा है . प्रधानमंत्री के लिए चिंता की बात यह भी हो सकती है कि जाट समुदाय के लोग उनकी सरकार से नाराज़ हो रहे हैं . सबको मालूम है कि उत्तर प्रदेश ,हरियाणा और राजस्थान में जाट बिरादरी के लोगों ने लोकसभा २०१४ में बीजेपी को लगभग १०० प्रतिशत समर्थन दिया था . ज़ाहिर है कि उनको भी बीजेपी के अन्दर के लोग ही भड़का रहे हैं , बाहरी कोई नहीं है .
ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री को राजनीतिक प्रबंधन के काम में फ़ौरन जुट जाना चाहिए क्योंकि स्पष्ट बहुमत की सरकार बनवा कर देश ने उनसे बहुत उम्मीदें लगा रखी हैं . राजनीतिक अस्थिरता से देश के विकास को धक्का लगता है इसलिए उसे हर कीमत पर काबू में रखना चाहिए .