शेष नारायण सिंह
किसानों की आत्मह्त्या देश की राजनीतिक पार्टियों को हमेशा मुश्किल में डालती रहती है .हालांकि मीडिया आम तौर पर किसानों की आत्महत्या को इग्नोर ही करता है लेकिन कुछ ऐसे पत्रकार हैं जो इस मामले पर समय समय बहस का माहौल बनाते रहते हैं. देश के कुछ इलाकों में तो हालात बहुत ही बिगड़ गए हैं और लोगों की समझ में नहीं आ रहा है कि समस्या का हल किस तरह से निकाला जाए.हो सकता है कि इन्हीं कारणों से संसद के शीतकालीन सत्र में राज्यसभा ने समय निकाला और किसानों की आत्महत्या से पैदा हुए सवाल पर दो दिन की बहस कर डाली . बीजेपी के वेंकैया नायडू की नोटिस पर नियम १७६ के तहत अल्पकालिक चर्चा में बहुत सारे ऐसे मुद्दे सामने आये जिसके बाद कि संसद ने इस विषय पर बात को आगे बढाने का मन बनाया. बहस के दौरान सदस्यों ने मांग की कि इसी विषय पर चर्चा के लिए सदन का एक विशेष सत्र बुलाया जाए .बहस के अंत में इस बात पर सहमति बन गयी कि सदन की एक कमेटी बनायी जाए जो किसानों की आत्महत्या के कारणों पर गंभीर विचार विमर्श करे और सदन को जल्द से जल्द रिपोर्ट पेश करे.बाद में लोकसभा में सी पी एम के नेता और कृषि मंत्रालय की स्थायी समिति के अध्यक्ष, बासुदेव आचार्य ने लोक सभा की स्पीकर से मिल कर आग्रह किया कि राज्यसभा की जो कमेटी बनने वाली है है उसमें लोकसभा के सदस्य भी शामिल हो जाएँ तो कमेटी एक जे पी सी की शक्ल अख्तियार कर लेगी.
राज्यसभा में बहस की शुरुआत करते हुए बीजेपी के वेंकैया नायडू ने किसानों की आत्मह्त्या और खेती के सामने पेश आ रही बाकी दिक्क़तों का सिलसिलेवार ज़िक्र किया . उन्होंने कृषि लागत और मूल्य आयोग की आलोचना की और कहा कि उस संस्था का तरीका वैज्ञानिक नहीं है .वह पुराने लागत के आंकड़ों की मदद से आज की फसल की कीमत तय करते हैं जिसकी वजह से किसान ठगा रह जाता है .फसल बीमा के विषय पर भी उन्होंने सरकार को सीधे तौर पर कटघरे में खड़ा किया . खेती की लागत की चीज़ों की कीमत लगातार बढ़ रही है लेकिन किसान की बात को कोई भी सही तरीके से नहीं सोच रहा है जिसके कारण इस देश में किसान तबाह होता जा रहा है .उन्होंने कहा कि जी डी पी में तो सात से आठ प्रतिशत की वृद्धि हो रही है जबकि खेती की विकास दर केवल २ प्रतिशत के आस पास है . उन्होंने कहा कि किसानों को जो सरकारी समर्थन मूल्य मिलता है वह बहुत कम है . उन्होंने इसके लिए भी सरकार को ज़िम्मेदार ठहराया .बहस में कई पार्टियों के सदस्यों ने हिस्सा लिया लेकिन नामजद सदस्य,मणिशंकर अय्यर ने किसानों की समस्याओं को सही परिप्रेक्ष्य में लाने की कोशिश की. उन्होंने साफ़ कहा कि आत्महत्या करने वाले किसान वे नहीं होते जो खाद्यान्न की खेती में लगे होते हैं और आमतौर पर सरकारी समर्थन मूल्य पर निर्भर करते हैं . किसानों की आत्मह्त्या के ज़्यादातर मामले उन इलाकों से सुनने में आ रहे हैं जहां कैश क्राप उगाई जा रही है .कैश क्राप के लिए किसानों को लागत बहुत ज्यादा लगानी पड़ती है . कैश क्राप के किसान पर देश के अंदर हो रही उथल पुथल का उतना ज्यादा असर नहीं पड़ता जितना कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रही अर्थव्यवस्था के उतार-चढाव का पड़ता है . जब उनके माल की कीमत दुनिया के बाजारों में कम हो जाती है तो उसके सामने संकट पैदा हो जाता है .वह अपनी फसल में बहुत ज़्यादा लागत लगा चुका होता है. लागत का बड़ा हिस्सा क़र्ज़ के रूप में लिया गया होता है . माल को रोकना उसके बूते की बात नहीं होती. सरकार की गैर ज़िम्मेदारी का आलम यह है कि खेती के लिए क़र्ज़ लेने वाले किसान को छोटे उद्योगों के लिए मिलने वाले क़र्ज़ से ज्यादा ब्याज देना पड़ता है.एक बार भी अगर फसल खराब हो गयी तो दोबारा पिछली फसल के घाटे को संभालने के लिए वह अगली फसल में ज्यादा पूंजी लगा देता है . अगर लगातार दो तीन साल तक फसल खराब हो गयी तो मुसीबत आ जाती है. किसान क़र्ज़ के भंवरजाल में फंस जाता है . जिसके बाद उसके लिए बाकी ज़िंदगी बंधुआ मजदूर के रूप में क़र्ज़ वापस करते रहने के लिए काम करने का विकल्प रह जाता है . किसानों की आत्म हत्या के कारणों की तह में जाने पर पता चलता है कि ज़्यादातर समस्या यही है . राज्यसभा में बहस के दौरान यह साफ़ समझ में आ गया कि ज़्यादातर सदस्य आपने इलाकों के किसानों की समस्याओं का उल्लेख करने के एक मंच के रूप में ही समय बिताते रहे. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सीताराम येचुरी ने समस्या के शास्त्रीय पक्ष पर बात की ,सदन में भी और सदन के बाहर भी . उन्होंने सरकार की नीयत पर ही सवाल उठाया और कहा कि अपने जवाब में कृषिमंत्री ने जिस तरह से आंकड़ों का खेल किया है वह किसानों की आत्महत्या जैसे सवाल को कमज़ोर रोशनी में पेश करने का काम करता है . उन्होंने सरकार पर आरोप लगाया कि २००७ के एक जवाब में सरकार ने कहा था कि नैशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो का आंकड़ा किसानों की आत्महत्या के मामले में ही सही आंकड़ा है जबकि जब राज्यसभा में इस विषय पर हुई दो दिन की बहस का जवाब केन्द्रीय कृषि मंत्री महोदय दे रहे थे तो उन्होंने राज्य सरकारों से मिले आंकड़ों का हवाला दिया .सीताराम येचुरी ने आरोप लगाया कि यह सरकार की गलती है . कोई भी मुख्यमंत्री या राज्य सरकार आमतौर पर यह स्वीकार करने में संकोच करती है कि उसके राज्य में किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे हैं.. उन्होंने उन अर्थशास्त्रियों को भी आड़े हाथों लिया जो आर्थिक सुधारों के बल पर देश की अर्थव्यवस्था में सुधार लाने की कोशिश कर रहे हैं .सीताराम ने साफ़ कहा कि जब तक इस देश के किसान खुशहाल नहीं होगा तह तह अर्थव्यवस्था में किसी तरह की तरक्की के सपने देखना बेमतलब है .उन्होंने साफ़ कहा कि जब तक खेती में सरकारी निवेश नहीं बढाया जाएगा, भण्डारण और विपणन की सुविधाओं के ढांचागत निवेश का बंदोबस्त नहीं होगा तब तक इस देश में किसान को वही कुछ झेलना पड़ेगा जो अभी वह झेल रहा है . उन्होंने सरकार पर आरोप लगाया कि पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के नाम पर खेती से जुडी हर लाभकारी स्कीम को एम एन सी के हवाले करने की जो योजना सरकारी चर्चाओं में सुनने में आ रही है वह बहुत ही चिंताकारक है.
एक दिन की बहस के बाद जब कृषिमंत्री शरद पवार ने जवाब दिया तो लगभग तस्वीर साफ़ हो गयी कि सरकार इतने अहम मसले पर भी लीपापोती का काम करने के चक्कर में है .सरकार की तरफ से कृषि मंत्री ने एक हैरत अंगेज़ बात भी कुबूल कर डाली . उन्होंने कहा कि इस देश में २७ प्रतिशत किसान ऐसे हैं जो खेती को लाभदायक नहीं . बाद में जनता दल ( यू ) के शिवानन्द तिवारी ने कहा कि कृषिमंत्री के बयान से लगता है कि २७ प्रतिशत किसान खेती छोड़ना चाहते हैं . उन्होंने कहा कि यह २७ प्रतिशत किसान का मतलब यह है कि देश के करीब १७ करोड़ किसान खेती से पिंड छुडाना चाहते हैं . यह बात बहुत ही चिंता का कारण है .भारत एक कृषिप्रधान देश है और यहाँ आबादी का एक बड़ा हिस्सा खेती से अलग होना चाहता है. कृषिमंत्री ने इस बात को भी स्वीकार किया कि रासायनिक खादों को भी किसानों को उपलब्ध कराने में सरकार असमर्थ है . उन्होंने कहा कि दुनिया के कई देशों में खाद उत्पादन करने वाली बड़ी कंपनियों ने गिरोह बना रखा है और वे भारत सरकार से मनमानी कीमतें वसूल कर रहे हैं . सरकार ऐसी हालत में मजबूर है . उन्होंने इस बात पार भी लाचारी दिखाई कि सरकार किसानों को सूदखोरों के जाल में जाने से नहीं बचा सकती . बहरहाल सरकार की लाचारी भरे जवाब के बाद यह साफ़ हो गया है कि इस देश में किसान को कोई भी राजनीतिक या सरकारी समर्थन मिलने वाला नहीं है. किसान को इस सरकार ने रामभरोसे छोड़ दिया है .
Sunday, December 25, 2011
Wednesday, December 21, 2011
किसानों की आत्म ह्त्या के मामले में सरकार आंकड़ों की बाज़ीगरी कर रही है.
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली ,२० दिसंबर. किसानों की आत्महत्या के मामले में राज्यसभा में दो दिन की बहस हुई लेकिन घूम फिर कर आमला सतही स्तर पर ही रह गा . कृषिमंत्री का जवाब ऐसा था जिस से जादा तर सदस्य निराश हुए और आखिर में वाक आउट तक किया . सदस्यों का आरोप था कि सरकार की ओर से आंकड़ों के ज़रिये बात को टालने की कोशिश की गयी. बहस की शुरुआत में ही यह तय हो गया था कि इस मामले को राष्ट्रीय मह्त्व का मानकर बात को आगे बढाया जाएगा लेकिन कृषिमंत्री शरद पवार बार बार अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल के आंकड़ों से आज के आंकड़ों की तुलना करके बात को टालने की कोशिश करते नज़र आये. सदस्यों की मांग थी कि इस विषय पर बहस के लिए एक विशेष सत्र बुलाया जाए लेकिन आखीर में यह तय पाया कि सदन की एक कमेटी बनाकर मुद्दे की जांच के जाए.
मूल प्रस्ताव भाजपा के वेंकैया नायडू का था लेकिन बहस में सबसे अहम हस्तक्षेप कांग्रेस के मणि शंकर अईय्यर , समाजवादी पार्टी के राम गोपाल यादव और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सीताराम येचुरी का रहा . मणि शंकर अईय्यर ने कहा कि किसानों की आत्म ह्त्या का मामला ऐसा है जिसमें अधिकतम समर्थन मूल्य जैसे सरकारी तरीकों से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला है .अधिकतम समर्थन मूल्य का प्रावधान खाद्यान्न की समस्या को हल करने के लिए चलाया गया जबकि आत्म ह्त्या करने वाला किसान आम तौर पर कैश क्राप वाला किसान होता है .उसको जो बीज मिलता है वह बहुत ही महंगा होता है जबकि उसकी फसल की कीमत के बाए में कोई भी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती. नतीजा यह होता है कि किसान महंगे बीज लेता है और , कैश क्राप के लिए अन्य महंगे सामान का इस्तेमाल करता है लेकिन जब फसल फेल हो जाई है तो वह क़र्ज़ के जाल में फंस जाता है. अगले साल भी वह ज़्यादा कर्ज़ लेकर फसल उगाता है लेकिन एक मुकाम ऐसा आता है जब वह क़र्ज़ के भंवर से नहीं निकल सकता और अपना जीवन ही ख़त्म कर लेता है .
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सीता राम येचुरी ने कहा कि अपने जवाब में कृषि मंत्री ने आंकड़ों का गलत इस्तेमाल किया है .उन्होंने कहा कि २००७ तक तो वे राष्ट्रीय अपराध नियंत्रण ब्यूरो के आंकड़ों का प्रयोग करते थे लेकिन आज उन्होंने राज्यों से मिले हुए किसानों की आत्म ह्त्या के आंकड़ों का प्रयोग किया है . ज़ाहिर है कि कोई भी राज्य यह स्वीकार नहीं करता कि उसके राज्य में किसान आत्मह्त्या कर रहे हैं या भूख से मर रहे हैं . इस प्रकार उनके आंकड़े सही तस्वीर नहीं पेश कर रहे हैं . उन्होंने इस बात पर संतोष जताया कि अब संसद की एक कमेटी आत्म हत्या के कारणों का पता लगाएगी जिसके बाद संसद उस पर विचार करेगी.
समाजवादी पार्टी के राम गोपाल यादव ने सुझाव दिया कि किसानों को मुफलिसी से बचाने के लिए ज़रूरी है कि उनको पशु पालन की तरफ जाने के लिए उत्साहित किया जाए. उनका कहना था कि इस से खेती में भी सुधार होगा और गामीण आबादी के लोग आत्म निर्भर भी बन सकेगें .जे डी ( यू ) के शिवानन्द तिवारी ने सरकार पर आरोप लगाया कि वह केवल आंकड़ों की बाज़ीगरी कर रही है . उन्होंने कृषि मंत्री से अनुरोध किया कि वे गद्दी छोड़ दें . बहरहाल किसानों की आत्महत्याओं का मामला अब संसद की नज़र में है . और जिन नेताओं से भी बात हुई सब इस बात की उम्मीद लगाए बैठे हैं कि इस मामले पर सरकार और संसद कुछ गंभीर काम कर सकेगी .
नई दिल्ली ,२० दिसंबर. किसानों की आत्महत्या के मामले में राज्यसभा में दो दिन की बहस हुई लेकिन घूम फिर कर आमला सतही स्तर पर ही रह गा . कृषिमंत्री का जवाब ऐसा था जिस से जादा तर सदस्य निराश हुए और आखिर में वाक आउट तक किया . सदस्यों का आरोप था कि सरकार की ओर से आंकड़ों के ज़रिये बात को टालने की कोशिश की गयी. बहस की शुरुआत में ही यह तय हो गया था कि इस मामले को राष्ट्रीय मह्त्व का मानकर बात को आगे बढाया जाएगा लेकिन कृषिमंत्री शरद पवार बार बार अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल के आंकड़ों से आज के आंकड़ों की तुलना करके बात को टालने की कोशिश करते नज़र आये. सदस्यों की मांग थी कि इस विषय पर बहस के लिए एक विशेष सत्र बुलाया जाए लेकिन आखीर में यह तय पाया कि सदन की एक कमेटी बनाकर मुद्दे की जांच के जाए.
मूल प्रस्ताव भाजपा के वेंकैया नायडू का था लेकिन बहस में सबसे अहम हस्तक्षेप कांग्रेस के मणि शंकर अईय्यर , समाजवादी पार्टी के राम गोपाल यादव और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सीताराम येचुरी का रहा . मणि शंकर अईय्यर ने कहा कि किसानों की आत्म ह्त्या का मामला ऐसा है जिसमें अधिकतम समर्थन मूल्य जैसे सरकारी तरीकों से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला है .अधिकतम समर्थन मूल्य का प्रावधान खाद्यान्न की समस्या को हल करने के लिए चलाया गया जबकि आत्म ह्त्या करने वाला किसान आम तौर पर कैश क्राप वाला किसान होता है .उसको जो बीज मिलता है वह बहुत ही महंगा होता है जबकि उसकी फसल की कीमत के बाए में कोई भी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती. नतीजा यह होता है कि किसान महंगे बीज लेता है और , कैश क्राप के लिए अन्य महंगे सामान का इस्तेमाल करता है लेकिन जब फसल फेल हो जाई है तो वह क़र्ज़ के जाल में फंस जाता है. अगले साल भी वह ज़्यादा कर्ज़ लेकर फसल उगाता है लेकिन एक मुकाम ऐसा आता है जब वह क़र्ज़ के भंवर से नहीं निकल सकता और अपना जीवन ही ख़त्म कर लेता है .
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सीता राम येचुरी ने कहा कि अपने जवाब में कृषि मंत्री ने आंकड़ों का गलत इस्तेमाल किया है .उन्होंने कहा कि २००७ तक तो वे राष्ट्रीय अपराध नियंत्रण ब्यूरो के आंकड़ों का प्रयोग करते थे लेकिन आज उन्होंने राज्यों से मिले हुए किसानों की आत्म ह्त्या के आंकड़ों का प्रयोग किया है . ज़ाहिर है कि कोई भी राज्य यह स्वीकार नहीं करता कि उसके राज्य में किसान आत्मह्त्या कर रहे हैं या भूख से मर रहे हैं . इस प्रकार उनके आंकड़े सही तस्वीर नहीं पेश कर रहे हैं . उन्होंने इस बात पर संतोष जताया कि अब संसद की एक कमेटी आत्म हत्या के कारणों का पता लगाएगी जिसके बाद संसद उस पर विचार करेगी.
समाजवादी पार्टी के राम गोपाल यादव ने सुझाव दिया कि किसानों को मुफलिसी से बचाने के लिए ज़रूरी है कि उनको पशु पालन की तरफ जाने के लिए उत्साहित किया जाए. उनका कहना था कि इस से खेती में भी सुधार होगा और गामीण आबादी के लोग आत्म निर्भर भी बन सकेगें .जे डी ( यू ) के शिवानन्द तिवारी ने सरकार पर आरोप लगाया कि वह केवल आंकड़ों की बाज़ीगरी कर रही है . उन्होंने कृषि मंत्री से अनुरोध किया कि वे गद्दी छोड़ दें . बहरहाल किसानों की आत्महत्याओं का मामला अब संसद की नज़र में है . और जिन नेताओं से भी बात हुई सब इस बात की उम्मीद लगाए बैठे हैं कि इस मामले पर सरकार और संसद कुछ गंभीर काम कर सकेगी .
Sunday, December 18, 2011
अदम गोंडवी की एक कविता
काजू भुने प्लेट में विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में
आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में
पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नखास में
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में
आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में
पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नखास में
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में
भारत सरकार के पंचायती राज मंत्रालय को एक जगह दफ्तर तक नसीब नहीं
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली, १६ दिसंबर. भारत सरकार में उन विभागों की कोई औकात नहीं है जिनका किसी कारपोरेट जगत से कोई लेना देना न हो.हालांकि सरकार की नज़र में पंचायती राज मंत्रालय को बहुत महत्व दिया जाता है लेकिन लगता है कि वह सब कुछ ज़बानी जमा खर्च ही है . नई दिल्ली में जहां बाकी मंत्रालयों को बहुत ही अच्छी जगहों पर दफ्तर दिए गए हैं वहीं पंचायती राज मंत्रालय के पास सही तरीके का दफ्तर भी नहीं है . पंचायती राज मंत्री वी किशोर चन्द्र देव हैं जिनको शास्त्री भवन में दफ्तर मिला है लेकिन उनके मंत्रालय के सभी बड़े अफसर उनसे बहुत दूरी पर बैठाए गए हैं . कोई कृषि भवन में है तो कोई कनाट प्लेस की एक कमर्शियल बिल्डिंग में टाइम पास कर रहा है .पंचायती राज विभाग के कुछ अफसर पटेल चौक पर बने हुए सरदार पटेल भवन में भी बैठते हैं .
आज़ादी के बाद महात्मा गाँधी ने देश के विकास में पंचायती राज को बहुत ही मह्त्व दिया था . उनके वारिस जवाहर लाल नेहरू ने तो पंचायती राज को महत्व दिया लेकिन उनके जाने के बाद ही हालात बहुत बिगड़ गए . जब राजीव गाँधी के प्रयास से संविधान में ७३ वां और ७४ वां संशोधन करके पंचायती राज को अहमियत दी गयी तो उम्मीद की जा रही थी कि शायद हालात कुछ सुधरेगें . लेकिन जिस तरह से इतने अहम मंत्रालय को केंद्र सरकार एक जगह दफ्तर देने में नाकाम रही है उस से लगता है कि मौजूदा सरकार ने पंचायती राज को पूरी तरह से दरकिनार कर दिया है . आज भी मनरेगा जैसी मह्त्वप्पूर्ण योजनाओं को लागू करवाने होने में पंचायती राज की संस्थाएं बहुत ही अहम भूमिका निभा रही हैं. लेकिन उस मत्रालय को केंद्र सरकार के नज़र में एक फालतू महकमे से ज्यादा के हैसियत नहीं मिल रही है.
पंचायती राज मंत्रालय के मंत्री का दफ्तर शास्त्री भवन में है जबकि मंत्रालय की सबसे बड़ी अफसर ,मंत्रालय की सचिव , किरण धींगरा का दफ्तर कृषि भवन में है . उस दफ्तर को भी एक दिन सम्पदा निदेशालय का एक डाइरेक्टर खाली करवाने पंहुच गया था. उसने सचिव के स्टाफ में काम करने वाले अफसरों से कहा कि मैडम का सामान निकाल लो . अफसरों ने कहा कि भाई तुम ही सामान निकाल कर सड़क पर रख दो. बहरहाल वह अफसर चला तो गया है लेकिन अभी ख़तरा टला नहीं है . उस देश के एकया हालात कही जायेगी जहां सेक्रेटरी स्तर के अफसर को बिना कोई वैकल्पिक जगह दिए दफ्तर खाली करने को कहा जा रहा है .
किरण धींगरा के बाद का रैंक अतिरिक्त सचिव का है , .मंत्रालय के एक अतिरिक्त सचिव पटेल चौक पर सरदार पटेल भवन में बैठते हैं जबकि दूसरे कनाट प्लेस में जीवन प्रकाश बिल्डिंग में . जो लोग सरकारी दफ्तरों के काम काज के तरीके से वाकिफ हैं उन्हें मालूम है कि सरकार के टाप अधिकारी किसी भी फैसले पर पंहुचने के लिए आपस में सलाह करते रहते हैं . अब अगर किरण धींगरा को अपने मातहत अफसरों से बात करनी है तो एक अफसर कनाट प्लेस से आएगा तो दूसरा पटेल चौक से. ज़ाहिर है कि सरकार की प्राथमिकता सूची में पंचायती राज का जो मुकाम है , उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि इस मंत्रालय को दिल्ली में कोई सम्मान जनक दफतर मिल पायेगा.
नई दिल्ली, १६ दिसंबर. भारत सरकार में उन विभागों की कोई औकात नहीं है जिनका किसी कारपोरेट जगत से कोई लेना देना न हो.हालांकि सरकार की नज़र में पंचायती राज मंत्रालय को बहुत महत्व दिया जाता है लेकिन लगता है कि वह सब कुछ ज़बानी जमा खर्च ही है . नई दिल्ली में जहां बाकी मंत्रालयों को बहुत ही अच्छी जगहों पर दफ्तर दिए गए हैं वहीं पंचायती राज मंत्रालय के पास सही तरीके का दफ्तर भी नहीं है . पंचायती राज मंत्री वी किशोर चन्द्र देव हैं जिनको शास्त्री भवन में दफ्तर मिला है लेकिन उनके मंत्रालय के सभी बड़े अफसर उनसे बहुत दूरी पर बैठाए गए हैं . कोई कृषि भवन में है तो कोई कनाट प्लेस की एक कमर्शियल बिल्डिंग में टाइम पास कर रहा है .पंचायती राज विभाग के कुछ अफसर पटेल चौक पर बने हुए सरदार पटेल भवन में भी बैठते हैं .
आज़ादी के बाद महात्मा गाँधी ने देश के विकास में पंचायती राज को बहुत ही मह्त्व दिया था . उनके वारिस जवाहर लाल नेहरू ने तो पंचायती राज को महत्व दिया लेकिन उनके जाने के बाद ही हालात बहुत बिगड़ गए . जब राजीव गाँधी के प्रयास से संविधान में ७३ वां और ७४ वां संशोधन करके पंचायती राज को अहमियत दी गयी तो उम्मीद की जा रही थी कि शायद हालात कुछ सुधरेगें . लेकिन जिस तरह से इतने अहम मंत्रालय को केंद्र सरकार एक जगह दफ्तर देने में नाकाम रही है उस से लगता है कि मौजूदा सरकार ने पंचायती राज को पूरी तरह से दरकिनार कर दिया है . आज भी मनरेगा जैसी मह्त्वप्पूर्ण योजनाओं को लागू करवाने होने में पंचायती राज की संस्थाएं बहुत ही अहम भूमिका निभा रही हैं. लेकिन उस मत्रालय को केंद्र सरकार के नज़र में एक फालतू महकमे से ज्यादा के हैसियत नहीं मिल रही है.
पंचायती राज मंत्रालय के मंत्री का दफ्तर शास्त्री भवन में है जबकि मंत्रालय की सबसे बड़ी अफसर ,मंत्रालय की सचिव , किरण धींगरा का दफ्तर कृषि भवन में है . उस दफ्तर को भी एक दिन सम्पदा निदेशालय का एक डाइरेक्टर खाली करवाने पंहुच गया था. उसने सचिव के स्टाफ में काम करने वाले अफसरों से कहा कि मैडम का सामान निकाल लो . अफसरों ने कहा कि भाई तुम ही सामान निकाल कर सड़क पर रख दो. बहरहाल वह अफसर चला तो गया है लेकिन अभी ख़तरा टला नहीं है . उस देश के एकया हालात कही जायेगी जहां सेक्रेटरी स्तर के अफसर को बिना कोई वैकल्पिक जगह दिए दफ्तर खाली करने को कहा जा रहा है .
किरण धींगरा के बाद का रैंक अतिरिक्त सचिव का है , .मंत्रालय के एक अतिरिक्त सचिव पटेल चौक पर सरदार पटेल भवन में बैठते हैं जबकि दूसरे कनाट प्लेस में जीवन प्रकाश बिल्डिंग में . जो लोग सरकारी दफ्तरों के काम काज के तरीके से वाकिफ हैं उन्हें मालूम है कि सरकार के टाप अधिकारी किसी भी फैसले पर पंहुचने के लिए आपस में सलाह करते रहते हैं . अब अगर किरण धींगरा को अपने मातहत अफसरों से बात करनी है तो एक अफसर कनाट प्लेस से आएगा तो दूसरा पटेल चौक से. ज़ाहिर है कि सरकार की प्राथमिकता सूची में पंचायती राज का जो मुकाम है , उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि इस मंत्रालय को दिल्ली में कोई सम्मान जनक दफतर मिल पायेगा.
Friday, December 16, 2011
१९७१ की विजय के असली हीरो बाबू जगजीवनराम ही थे.
शेष नारायण सिंह
१६ दिसंबर १९७१ को दोपहर बाद भारत की तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी ने लोकसभा में घोषणा कर दी कि ढाका अब एक स्वतंत्र देश की राजधानी है और बंगलादेश एक स्वतंत्र देश है . इस ऐलान के साथ ही एक नए राष्ट्र का जन्म हो चुका था . पाकिस्तान को ज़बरदस्त शिकस्त मिली थी और हमेशा के लिए सिद्ध हो चुका था कि भारत की सेना के सामने पाकिस्तान की फौज की कोई औकात नहीं है . इंदिरा गाँधी की उस घोषणा के ठीक पहले ढाका में पाकिस्तानी सेना ने भारत के पूर्वी कमांड के मुख्य कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल अरोड़ा के सामने समर्पण कर दिया था . उनके साथ करीब एक लाख पाकिस्तानी सैनिक भी युद्ध बंदी के रूप में भारत के कब्जे में आ गए थे .तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में आतंक का राज कायम करने के लिए पाकिस्तानी फौज ने वहां कुछ ऐसे संगठन बना रखे थे जो फौज की मदद करते थे और बंगलादेश में मानवीय अत्याचार के मुख्य खलनायक थे. इस संगठनों में अल बदर ,रजाकार और अल शम्स प्रमुख थे . १४ दिन तक चली लड़ाई के बाद भारत की सेना ने दुनिया के सामने यह साबित कर दिया था कि एक महान राष्ट्र के रूप में भारत ने पहला बहुत बड़ा क़दम उठा लिया है . पूर्वी पाकिस्तान के इलाके में स्थापित हुए बंगलादेश को एक स्वतंत्र देश के रूप में भारत पहले की मान्यता दे चुका था .
बंगलादेश की आज़ादी की लड़ाई तो तब से ही शुरू हो गयी थी जब याह्या खां और ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की जोड़ी ने स्पष्ट बहुमत से आम चुनाव जीतने वाली शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग को सत्ता सौंपने से इनकार कर दिया था . लेकिन युद्ध में भारत उस वक़्त शामिल हो गया जब ३ दिसंबर को पाकिसानी वायु सेना ने भारत के करीब १२ सैनिक हवाई अड्डों को तबाह कर देने के उद्देश्य से उनपर बमबारी की . आजकल की तरह ही संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा था. . पाकिस्तानी हमले का जवाब तो तुरंत ही दे दिया गया लेकिन अगले दिन लोकसभा में तत्कालीन रक्षामंत्री , बाबू जगजीवन राम ने पाकिस्तानी हमले की जानकारी दी. उन दिनों राष्ट्र से सम्बंधित किसी भी बड़ी घटना को संसद में सबसे पहले बताने की परंपरा थी. आजकल की तरह नहीं था कि ज़्यादातर अहम फैसले संसद के सत्र में होने के बावजूद भी संसद के बाहर ही किये जाते हैं .
अब तक बंगलादेश के जन्म और भारत की पश्चिमी सीमा पर पाकिस्तानी फौज के हमलों की चर्चा में ज़्यादातर सेना के बारे में ही उल्लेख होता रहा है . इस बात में दो राय नहीं है कि भारतीय या सेना के लिए १९७१ की लड़ाई एक बहुत बड़ा मील का पत्थर है लेकिन एक बात और भी सच है कि उस दौर के राजनीतिक नेतृत्व का सारी दुनिया ने लोहा माना था. भारत में दिसमबर १९७१ में विपक्ष नाम की कोई चीज़ नहीं थी. . लोकसभा में तत्कालीन जनसंघ के नेता ,अटल बिहारी वाजपेयी ने जब कहा कि अब भारत में एक ही पार्टी है और वह है भारत राष्ट्र और एक ही नेता है और वह है इंदिरा गाँधी तो कमोबेश वे भारत की एक बड़ी आबादी की भावनाओं को अभिव्यक्ति दे रहे थे . भारत में राजनीतिक विकास की एक अहम कड़ी के रूप में भी दिसंबर १९७१ की घटनाओं को देखा जाता है . महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू के जाने के बाद पहली बार भारत के राजनीतिक नेताओं की परीक्षा हो रहे एथी. आम तौर पर माना जाता है कि १९७१ की लड़ाई में जीत के बाद भारत सही मायनों में दुनिया के कूटनीतिक मंच पर अपनी हैसियत स्थापित करने में कामयाब हुआ था. वरना कभी तो १९६२ होता था तो कभी रबात से भारतीय प्रतिनिधि मंडल भगाया जाता था. कभी पूरी दुनिया में खाद्य सहायता के लिए भारत के नेता घूमते देखे जाते थे. लेकिन १९७१ ने सब कुछ बदल दिया . आम तौर पर १९७१ का श्रेय लगभग पूरी तरह से इंदिरा गांधी की राजनीतिक नेतृत्व की क्षमता को दिया जाता है लेकिन यह पूरा सच नहीं है . बँगलादेश की मुक्ति के संग्राम में सभी राजनीतिक पार्टियां इंदिरा गाँधी के साथ थीं . इसलिए १९७१ की राजनीतिक बुलंदी में सब का हिस्सा है . कांग्रेस और सरकार के अंदर भी उस दौर के रक्षा मंत्री जगजीवन राम का योगदान अद्भुत है लेकिन अजीब बात है कि जब भी बंगलादेश की आज़ादी का ज़िक्र होता है तो उसमें बाबू जगजीवन राम का वैसा उल्लेख नहीं होता , जैसा होना चाहिए . आज कोशिश करेगें कि लोक सभा में ४ दिसम्बर और १६ दिसंबर १९७१ के बीच हुई चर्चा के माध्यम से तत्कालीन रक्षा मंत्री के राजनीतिक कौशल को रेखांकित किया जाए .क्योंकि मेरा यह विश्वास है कि १९७१ की विजय के असली हीरो बाबू जगजीवनराम ही थे. .
बंगलादेश की आज़ादी की लड़ाई , पाकिस्तान अत्याचार और पाकिस्तानी सेना के गैर ज़िम्मेदार तरीकों का लोक सभा में पहला व्यवस्थित उल्लेख १५ नवम्बर १९७१ के दिन हुआ जब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद , एस एम बनर्जी ने पाकिस्तान की सेना की ओर से भारतीय इलाकों में गोलीबारी और उसकी एयर फ़ोर्स के भारतीय आसमान में अनधिकृत प्रवेश के बारे में नियम १९७ के तहत एक ध्यानाकर्षण प्रस्ताव लाया गया.एस एम बनर्जी के ध्यानाकर्षण प्रस्ताव का जवाब देते हुए रक्षा मंत्री जगजीव राम ने कहा कि पाकिस्तान के साथ हमारी सीमा पर तनाव की स्थिति वहां के सैनिक शासन और बँगलादेश के लोगों के बीच संघर्ष के कारण है . इस जवाब में बाबू जगजीवन राम ने सदन को विस्तार से बताया कि उस वक़्त की दक्षिण एशिया के हालात क्या थे . उसके अन्तर राष्ट्रीय सन्दर्भ क्या थे और पाकिस्तानी फौजी हुक्मरान भारत के लिए कितनी मुसीबत बन चुके थे. भारत के खिलाफ पाकिस्तानी राष्ट्रपति याहया खां बार बार युद्ध की धमकी देते रहते थे.. राजस्थान, गुजरात और पंजाब में हमारी सीमा के बहुत करीब उन्होंने अपने सैनिकों को जमा कर दिया था . रक्षा मंत्री ने साफ़ कहा कि उस वक़्त सीमाओं पर हालात बहुत ही गंभीर थे. लेकिन रक्षा मंत्री ने आश्वासन दिया कि हम अपनी सीमा पर किसी भी हमले का जवाब देने के लिए तैयार हैं. और अगर लाई की नौबत आयी तो लड़ाई का मैदान हमारी ज़मीन पर नहीं होगा . हमारे सैनिक युद्धक्षेत्र को शत्रु की ज़मीन पर ही कायम करने का हौसला रखते हैं . इसी बहस में जनसंघ के सांसद अटल बिहारी वाजपेयी ने कुछ शंका जताई . जवाब में रक्षा मंत्री ने जो कहा उस पर किसी भी भारतीय को गर्व होना चाहिए . उन्होंने कहा कि यह सच है कि पाकिस्तान हमारे इलाके में लगातार अतिक्रमण कर रहा है लेकिन मैंने स्पष्ट आदेश दे रखा है कि अगर कोई पाकिस्तानी विमान हमारी सीमा में दुश्मनी के इरादे से आये तो उसे मार गिराया जाए. बाबू जगजीवन राम ने कहा कि बंगलादेश की मुक्ति का संघर्ष चल रहा है .मुझे इस बात में कोई शक़ नहीं है कि बांग्लादेश के जिन नौजवानों ने अपनी माताओं और अपनी बहनों को अपमानित होते देखा है,जिन्होंने अपने निकट सम्बन्धियों की ह्त्या होते देखा है वे जानते हैं कि बंगलादेश को पूर्ण स्वाधीन करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है.
३ दिसंबर १९७१ को पाकिस्तान ने हमला कर दिया . उसी दिन शाम को इंदिरा गाँधी ने आकाशवाणी से देश को संबोधित किया और कहा कि ," आक्रमण का जवाब देना होगा.भारत के लोग इसका बहुत ही सहनशीलता से जवाब देगें .' अगले दिन ४ दिसंबर को शाम ५ बजकर ४० मिनट पर बाबू जगजीवन राम ने लोकसभा में एक विस्तृत बयान दिया और बताया कि पाकिसान ने हम पर युद्ध थोपा है . हमारे १२ हवाई अड्डों पर हमला किया गया है . उन्होंने सभी हवाई अड्डों के नाम भी बताये. अमृतसर ,पठानकोट, फरीदकोट श्रीनगर ,हलवारा,अम्बाला ,आगरा,उत्तरलाई ,जोधपुर,जामनगर,सिरसा और सरवाला के हवाई अड्डों पर बमबारी हुई थी. कोशिश यह थी कि भारतीय वायुसेना को पंगु बना दिया जाए .लेकिन हमारे सभी हवाई अड्डे बिलकुल सही हैं . भारतीय वायु सेना ने जवाबी कार्रवाई में रात ११.५० बजे पाकिस्तान के चंदेरी , शेरकोट ,सरगोधा,मुरीद,मियांवाली ,मसरूर ( कराची ) रिसालवाला ( रावलपिंडी )और चंगा मंगा ( लाहौर ) के हवाई अड्डों पर बम बरसाए . इसका फायदा ज़मीनी फौज को खूब मिल रहा है .इस बयान में बाबू जगजीवन राम ने पूरी जानकारी दी और राष्ट्र को संसद के ज़रिये आश्वस्त किया.
दिसंबर १९७१ देश के इतिहास में वह समय था जब कि जगजीवन राम के हर बयान को देश सांस रोक कर सुनता था. उन दिनों आज की तरह टेलिविज़न नहीं था और बाबू जी कभी भी संसद के सत्र में रहने पर कोई भी बड़ी बात संसद के बाहर नहीं कहते थे . ७ दिसंबर को उन्होंने फिर लोक सभा को युद्ध में हो रही प्रगति के बारे में विस्तार से जानकारी दी. उन्होंने बताया कि , " अब तक हमने ५२ पाकिस्तानी युद्धक विमान नष्ट किया है . ४ पाकिस्तानी पाइलट हमारे कब्जे में हैं . थल सेना ,वायु सेना और नौसेना मिलकर संयुक्त योजना के साथ लड़ाई लड़ रही हैं " १४ दिसंबर को उन्होंने फिर संसद को भरोसे में लिया और बताया कि ," आज हमारे ऊपर पाकिस्तान द्वारा थोपे गए युद्ध का ग्यारहवां दिन है.अपने आक्रमण का उद्देश्य प्राप्त करने में शत्रु पूरी तरह से नाकाम रहा है .पाकिस्तानी सेना को गहरा नुकसान हुआ है ." इसी बयान में जगजीवन राम ने बताया कि चारों दिशाओं से हमारे सैनिक ढाका की तरफ बढ़ रहे हैं .और वहां के कमान्डर फरमान अली को समर्पण करने के लिए सन्देश भेज दिया गया है .
उसके बाद तो बस १६ दिसंबर हुआ . इंदिरा गांधी ने लोकसभा में युद्ध के खात्मे का ऐलान किया और बंगलादेश नाम के स्वतंत्र संप्रभु राष्ट्र की विधिवत स्थापना हो गयी . लेकिन इस युद्ध में राजनीतिक और सैनिक नेतृत्व का श्रेय सबसे ज्यादा बाबू जगजीवन राम को दिया जाना चाहिए .सही मायनों में १९७१ की जीत के हीरो जगजीवन राम ही हैं .
१६ दिसंबर १९७१ को दोपहर बाद भारत की तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी ने लोकसभा में घोषणा कर दी कि ढाका अब एक स्वतंत्र देश की राजधानी है और बंगलादेश एक स्वतंत्र देश है . इस ऐलान के साथ ही एक नए राष्ट्र का जन्म हो चुका था . पाकिस्तान को ज़बरदस्त शिकस्त मिली थी और हमेशा के लिए सिद्ध हो चुका था कि भारत की सेना के सामने पाकिस्तान की फौज की कोई औकात नहीं है . इंदिरा गाँधी की उस घोषणा के ठीक पहले ढाका में पाकिस्तानी सेना ने भारत के पूर्वी कमांड के मुख्य कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल अरोड़ा के सामने समर्पण कर दिया था . उनके साथ करीब एक लाख पाकिस्तानी सैनिक भी युद्ध बंदी के रूप में भारत के कब्जे में आ गए थे .तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में आतंक का राज कायम करने के लिए पाकिस्तानी फौज ने वहां कुछ ऐसे संगठन बना रखे थे जो फौज की मदद करते थे और बंगलादेश में मानवीय अत्याचार के मुख्य खलनायक थे. इस संगठनों में अल बदर ,रजाकार और अल शम्स प्रमुख थे . १४ दिन तक चली लड़ाई के बाद भारत की सेना ने दुनिया के सामने यह साबित कर दिया था कि एक महान राष्ट्र के रूप में भारत ने पहला बहुत बड़ा क़दम उठा लिया है . पूर्वी पाकिस्तान के इलाके में स्थापित हुए बंगलादेश को एक स्वतंत्र देश के रूप में भारत पहले की मान्यता दे चुका था .
बंगलादेश की आज़ादी की लड़ाई तो तब से ही शुरू हो गयी थी जब याह्या खां और ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की जोड़ी ने स्पष्ट बहुमत से आम चुनाव जीतने वाली शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग को सत्ता सौंपने से इनकार कर दिया था . लेकिन युद्ध में भारत उस वक़्त शामिल हो गया जब ३ दिसंबर को पाकिसानी वायु सेना ने भारत के करीब १२ सैनिक हवाई अड्डों को तबाह कर देने के उद्देश्य से उनपर बमबारी की . आजकल की तरह ही संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा था. . पाकिस्तानी हमले का जवाब तो तुरंत ही दे दिया गया लेकिन अगले दिन लोकसभा में तत्कालीन रक्षामंत्री , बाबू जगजीवन राम ने पाकिस्तानी हमले की जानकारी दी. उन दिनों राष्ट्र से सम्बंधित किसी भी बड़ी घटना को संसद में सबसे पहले बताने की परंपरा थी. आजकल की तरह नहीं था कि ज़्यादातर अहम फैसले संसद के सत्र में होने के बावजूद भी संसद के बाहर ही किये जाते हैं .
अब तक बंगलादेश के जन्म और भारत की पश्चिमी सीमा पर पाकिस्तानी फौज के हमलों की चर्चा में ज़्यादातर सेना के बारे में ही उल्लेख होता रहा है . इस बात में दो राय नहीं है कि भारतीय या सेना के लिए १९७१ की लड़ाई एक बहुत बड़ा मील का पत्थर है लेकिन एक बात और भी सच है कि उस दौर के राजनीतिक नेतृत्व का सारी दुनिया ने लोहा माना था. भारत में दिसमबर १९७१ में विपक्ष नाम की कोई चीज़ नहीं थी. . लोकसभा में तत्कालीन जनसंघ के नेता ,अटल बिहारी वाजपेयी ने जब कहा कि अब भारत में एक ही पार्टी है और वह है भारत राष्ट्र और एक ही नेता है और वह है इंदिरा गाँधी तो कमोबेश वे भारत की एक बड़ी आबादी की भावनाओं को अभिव्यक्ति दे रहे थे . भारत में राजनीतिक विकास की एक अहम कड़ी के रूप में भी दिसंबर १९७१ की घटनाओं को देखा जाता है . महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू के जाने के बाद पहली बार भारत के राजनीतिक नेताओं की परीक्षा हो रहे एथी. आम तौर पर माना जाता है कि १९७१ की लड़ाई में जीत के बाद भारत सही मायनों में दुनिया के कूटनीतिक मंच पर अपनी हैसियत स्थापित करने में कामयाब हुआ था. वरना कभी तो १९६२ होता था तो कभी रबात से भारतीय प्रतिनिधि मंडल भगाया जाता था. कभी पूरी दुनिया में खाद्य सहायता के लिए भारत के नेता घूमते देखे जाते थे. लेकिन १९७१ ने सब कुछ बदल दिया . आम तौर पर १९७१ का श्रेय लगभग पूरी तरह से इंदिरा गांधी की राजनीतिक नेतृत्व की क्षमता को दिया जाता है लेकिन यह पूरा सच नहीं है . बँगलादेश की मुक्ति के संग्राम में सभी राजनीतिक पार्टियां इंदिरा गाँधी के साथ थीं . इसलिए १९७१ की राजनीतिक बुलंदी में सब का हिस्सा है . कांग्रेस और सरकार के अंदर भी उस दौर के रक्षा मंत्री जगजीवन राम का योगदान अद्भुत है लेकिन अजीब बात है कि जब भी बंगलादेश की आज़ादी का ज़िक्र होता है तो उसमें बाबू जगजीवन राम का वैसा उल्लेख नहीं होता , जैसा होना चाहिए . आज कोशिश करेगें कि लोक सभा में ४ दिसम्बर और १६ दिसंबर १९७१ के बीच हुई चर्चा के माध्यम से तत्कालीन रक्षा मंत्री के राजनीतिक कौशल को रेखांकित किया जाए .क्योंकि मेरा यह विश्वास है कि १९७१ की विजय के असली हीरो बाबू जगजीवनराम ही थे. .
बंगलादेश की आज़ादी की लड़ाई , पाकिस्तान अत्याचार और पाकिस्तानी सेना के गैर ज़िम्मेदार तरीकों का लोक सभा में पहला व्यवस्थित उल्लेख १५ नवम्बर १९७१ के दिन हुआ जब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद , एस एम बनर्जी ने पाकिस्तान की सेना की ओर से भारतीय इलाकों में गोलीबारी और उसकी एयर फ़ोर्स के भारतीय आसमान में अनधिकृत प्रवेश के बारे में नियम १९७ के तहत एक ध्यानाकर्षण प्रस्ताव लाया गया.एस एम बनर्जी के ध्यानाकर्षण प्रस्ताव का जवाब देते हुए रक्षा मंत्री जगजीव राम ने कहा कि पाकिस्तान के साथ हमारी सीमा पर तनाव की स्थिति वहां के सैनिक शासन और बँगलादेश के लोगों के बीच संघर्ष के कारण है . इस जवाब में बाबू जगजीवन राम ने सदन को विस्तार से बताया कि उस वक़्त की दक्षिण एशिया के हालात क्या थे . उसके अन्तर राष्ट्रीय सन्दर्भ क्या थे और पाकिस्तानी फौजी हुक्मरान भारत के लिए कितनी मुसीबत बन चुके थे. भारत के खिलाफ पाकिस्तानी राष्ट्रपति याहया खां बार बार युद्ध की धमकी देते रहते थे.. राजस्थान, गुजरात और पंजाब में हमारी सीमा के बहुत करीब उन्होंने अपने सैनिकों को जमा कर दिया था . रक्षा मंत्री ने साफ़ कहा कि उस वक़्त सीमाओं पर हालात बहुत ही गंभीर थे. लेकिन रक्षा मंत्री ने आश्वासन दिया कि हम अपनी सीमा पर किसी भी हमले का जवाब देने के लिए तैयार हैं. और अगर लाई की नौबत आयी तो लड़ाई का मैदान हमारी ज़मीन पर नहीं होगा . हमारे सैनिक युद्धक्षेत्र को शत्रु की ज़मीन पर ही कायम करने का हौसला रखते हैं . इसी बहस में जनसंघ के सांसद अटल बिहारी वाजपेयी ने कुछ शंका जताई . जवाब में रक्षा मंत्री ने जो कहा उस पर किसी भी भारतीय को गर्व होना चाहिए . उन्होंने कहा कि यह सच है कि पाकिस्तान हमारे इलाके में लगातार अतिक्रमण कर रहा है लेकिन मैंने स्पष्ट आदेश दे रखा है कि अगर कोई पाकिस्तानी विमान हमारी सीमा में दुश्मनी के इरादे से आये तो उसे मार गिराया जाए. बाबू जगजीवन राम ने कहा कि बंगलादेश की मुक्ति का संघर्ष चल रहा है .मुझे इस बात में कोई शक़ नहीं है कि बांग्लादेश के जिन नौजवानों ने अपनी माताओं और अपनी बहनों को अपमानित होते देखा है,जिन्होंने अपने निकट सम्बन्धियों की ह्त्या होते देखा है वे जानते हैं कि बंगलादेश को पूर्ण स्वाधीन करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है.
३ दिसंबर १९७१ को पाकिस्तान ने हमला कर दिया . उसी दिन शाम को इंदिरा गाँधी ने आकाशवाणी से देश को संबोधित किया और कहा कि ," आक्रमण का जवाब देना होगा.भारत के लोग इसका बहुत ही सहनशीलता से जवाब देगें .' अगले दिन ४ दिसंबर को शाम ५ बजकर ४० मिनट पर बाबू जगजीवन राम ने लोकसभा में एक विस्तृत बयान दिया और बताया कि पाकिसान ने हम पर युद्ध थोपा है . हमारे १२ हवाई अड्डों पर हमला किया गया है . उन्होंने सभी हवाई अड्डों के नाम भी बताये. अमृतसर ,पठानकोट, फरीदकोट श्रीनगर ,हलवारा,अम्बाला ,आगरा,उत्तरलाई ,जोधपुर,जामनगर,सिरसा और सरवाला के हवाई अड्डों पर बमबारी हुई थी. कोशिश यह थी कि भारतीय वायुसेना को पंगु बना दिया जाए .लेकिन हमारे सभी हवाई अड्डे बिलकुल सही हैं . भारतीय वायु सेना ने जवाबी कार्रवाई में रात ११.५० बजे पाकिस्तान के चंदेरी , शेरकोट ,सरगोधा,मुरीद,मियांवाली ,मसरूर ( कराची ) रिसालवाला ( रावलपिंडी )और चंगा मंगा ( लाहौर ) के हवाई अड्डों पर बम बरसाए . इसका फायदा ज़मीनी फौज को खूब मिल रहा है .इस बयान में बाबू जगजीवन राम ने पूरी जानकारी दी और राष्ट्र को संसद के ज़रिये आश्वस्त किया.
दिसंबर १९७१ देश के इतिहास में वह समय था जब कि जगजीवन राम के हर बयान को देश सांस रोक कर सुनता था. उन दिनों आज की तरह टेलिविज़न नहीं था और बाबू जी कभी भी संसद के सत्र में रहने पर कोई भी बड़ी बात संसद के बाहर नहीं कहते थे . ७ दिसंबर को उन्होंने फिर लोक सभा को युद्ध में हो रही प्रगति के बारे में विस्तार से जानकारी दी. उन्होंने बताया कि , " अब तक हमने ५२ पाकिस्तानी युद्धक विमान नष्ट किया है . ४ पाकिस्तानी पाइलट हमारे कब्जे में हैं . थल सेना ,वायु सेना और नौसेना मिलकर संयुक्त योजना के साथ लड़ाई लड़ रही हैं " १४ दिसंबर को उन्होंने फिर संसद को भरोसे में लिया और बताया कि ," आज हमारे ऊपर पाकिस्तान द्वारा थोपे गए युद्ध का ग्यारहवां दिन है.अपने आक्रमण का उद्देश्य प्राप्त करने में शत्रु पूरी तरह से नाकाम रहा है .पाकिस्तानी सेना को गहरा नुकसान हुआ है ." इसी बयान में जगजीवन राम ने बताया कि चारों दिशाओं से हमारे सैनिक ढाका की तरफ बढ़ रहे हैं .और वहां के कमान्डर फरमान अली को समर्पण करने के लिए सन्देश भेज दिया गया है .
उसके बाद तो बस १६ दिसंबर हुआ . इंदिरा गांधी ने लोकसभा में युद्ध के खात्मे का ऐलान किया और बंगलादेश नाम के स्वतंत्र संप्रभु राष्ट्र की विधिवत स्थापना हो गयी . लेकिन इस युद्ध में राजनीतिक और सैनिक नेतृत्व का श्रेय सबसे ज्यादा बाबू जगजीवन राम को दिया जाना चाहिए .सही मायनों में १९७१ की जीत के हीरो जगजीवन राम ही हैं .
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शेष नारायण सिंह
Saturday, December 10, 2011
संसद की स्थायी समिति ने लोकपाल बिल की सिफारिशें संसद के हवाले किया
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली ,९ दिसंबर. कार्मिक लोक शिकायत,कानून और न्याय संबंधी संसदीय स्थायी समिति ने आज संसद के दोनों सदनों में लोक पाल विधेयक २०११ के सम्बन्ध में अपनी सिफारिशें पेश कर दीं. यह स्थायी समिति राज्यसभा के प्रशासनिंक कंट्रोल में है इसलिए इसके अध्यक्ष भी राज्यसभा के सदस्य अभिषेक मनु सिंघवी हैं. अगस्त में अन्ना हजारे के अनशन से पैदा हुए राजनीतिक हालात के बाद लोकसभा में हुई बहस और लोकसभा की मंशा वाले प्रस्ताव के पारित होने के बाद लोकपाल बिल का ड्राफ्ट संसद की स्थायी समिति के पास विचार के लिए भेजा गया था . संसद की स्थायी समिति एक ताक़तवर समिति होती है . उसके पास सरकार के पास से आये बिल को पूरी तरह से खारिज करने समेत उसे पूरी तरह से संशोधित करने का अधिकार तक होता है . कई बार ऐसा भी हुआ है कि स्थाई समिति ने सरकार की तरफ से पेश किये गए कानूनों के कुछ मसौदों को पूरी तरह से खारिज कर दिया है .लोकपाल और राज्यों में नियुक्त होने वाले लोकायुक्तों को संवैधानिक दर्ज़ा दिया गया है जिससे उनेक काम काज में सरकारी या किसी अन्य किस्म का दबाव न पड़ सके.
लोकपाल बिल लोक सभा में ४ अगस्त २०११ को पेश किया गया था और इसे संसद की स्थायी समिति को ८ अगस्त को भेजा गया था . इस बिल का उद्देश्य एक ऐसा कानून बनाना है जो सरकार में विभिन्न पदों पर बैठे लोगों के भ्रष्टाचार के बारे में जांच करेगा. इस कमेटी के सामने विचार के लिए दस हज़ार सुझाव आये . अन्ना हजारे की टीम ने भी समिति के सामने कई बार हाज़िर होकर अपनी बात रखी २३ सितम्बर २०११ के दिन पहली बैठक हुई और अंतिम बैठक ७ दिसंबर को हुई. इस बीच कमेटी के सामने कई न्यायविद, भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश , गैरसरकारी संगठनों के प्रतिनधि , टीम अन्ना के प्रतिनिधि , अन्ना हजारे खुद ,धार्मिक संगठन ,सी बी आई, सी वी सी आदि बहुत सारे लोग पेश हुए.
रिपोर्ट संसद में पेश होने के बाद समिति के अध्यक्ष , अभिषेक मनु सिंघवी ने पत्राकारों से बात की और बताया कि सरकार के बहुत सारे सुझाव खारिज कर दिए गए हैं . जो ड्राफ्ट कमेटी के पास आया था उसको पूरी तरह से स्वीकार करने का कोई कारण नहीं था. करीब ढाई महीने की बैठकों के बाद जो सिफारिशें सरकार को दी गयी हैं उनमें टीम अन्ना समेत बहुत सारे लोगों के सुझाव हैं . किसी भी संगठन की बात को पूरी तरह से स्वीकार नहीं किया गया है.
अगर स्थायी समिति की सिफारिशों को मान लिया गया तो देश में भ्रष्टाचार की जांच की प्रक्रिया में बुनियादी बदलाव आ जायेगें . मसलन सी बी आई को अब केवल जांच करने का अधिकार रहेगा. मुक़दमा चलाने का अधिकार प्रस्तावित लोक पाल विधेयक के अभियोजन विभाग को सौंप दिया जाएगा .. सिफारिशों में प्रावधान है कि लोकपाक के अधीन एक अभियोजन विभाग बनाया जाए. और इस तरह से देश में पिछले साठ वर्षों से चल रही उस मांग को पूरा किया जा सकेगा जिसके तहत एक अभियोजन सर्विस शुरू करने की मांग होती रही है . अन्ना हजारे वालों को स्थायी समिति से निराशा इसलिए हुई है क्योंकि वे चाहते थे कि लोकपाल के अधीन ही देश के सभी सरकारी कर्मचारी आ जाएँ .लेकिन स्थाई समिति ने सुझाव दिया है कि प्रथम और द्वितीय श्रेणी के सभी अधिकारी लोकपाल के दायरे में आ जाएँ जबकि तीसरी श्रेणी के कर्मचारी मुख्य सतर्कता आयोग के जांच के दायरे में डाल दिए जाएँ . आने वाले समय में चतुर्थ श्रेणी का कोई कर्मचारी नहीं रह जाएगा क्योंकि ताज़ा वेतन आयोग की सिफारिशों में प्रावधान है कि चौथी श्रेणी को तीसरी श्रेणी में ही मिला दिया जाएगा.
अन्ना हजारे की टीम वालों को प्रधान मंत्री को लोकपाल के दायरे में न लाने पर भी परेशानी होगी क्योंकि समिति ने प्रधान मंत्री को लोक पाल में लाने के मामले को पूरी संसद के विवेक पर छोड़ दिया है . सी बी आई के कलेवर में भी पूरा बदलाव कर दिया गया है . सी बी आई अब प्रिलिमिनरी जाँच नहीं करेगी . वह कम लोकपाल का होगा . जिन मामलों में लोकपाल को लगेगा कि गंभीर जांच की ज़रुरत है, उन्हें सी बी आई के हवाले किया जाएगा. जांच के दौरान न तो लोकपाल और न ही सरकार सी बी आई के काम में दखल दे सकेंगें. जांच पूरी होने पर लोकपाल के अभियोजन विभाग का ज़िम्मा होगा कि वह विशेष अदालत में मुक़दमा चलाये और दोषी व्यक्ति को सज़ा दिलवाए. .समिति की सबसे अहम सिफारिश यह है कि अब किसी भी कर्मचारी के भ्रष्टाचार या किसी अन्य आपराधिक जांच करने के लिए जांच एजेंसी को किसी से परमिशन नहीं लेना पडेगा. अब तक होता यह था कि सम्बंधित उच्च अधिकारी मिलीभगत करके जांच की अनुमति ही नहीं देते थे . नतीजा यह होता था कि भ्रष्टाचारी कर्मचारी खुले आम घूमता रहता था.
. संसद सदस्यों के बारे में कमेटी ने साफ़ कहा है कि संविधान के अनुच्छेद १०५ में दिए गए अधिकार उनको मिलते रहेगें . संसद के अंदर के किसी भी काम पर उन्हें पहले की तरह के अधिकार हैं . लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उनको अपराध करने के छूट है. संसद के ऐसे सदस्यों को दंड देने का अधिकार है जो संसद की मर्यादा को लांघते हैं .सरकारी कंपनियों , एन जी ओ और मीडिया को भी लोकपाल के दायरे में लिया गया है . जो बात अन्ना हजारे की टीम को बहुत बुरी लगेगी , वह यह है कि दस लाख से ज्यादा धन दान में लेने वाले एन जी ओ को भी लोक पाल के घेरे में ले लिया गया है . अन्ना हजारे की टीम कई सदस्यों के पास जो कई एन जी ओ हैं वे सभी लोकपाल के दायरे में अपने आप आ जायेगे,. विदेशों से धन लेने वालों को भी लोकपाल की जांच सीमा में डाल दिया गया है . अन्ना की टीम के सभी सदस्य और उनेक एन जी ओ इस प्रावधान के लपेटे इमं आ जायेगें .
गलत शिकायत करने वालों को अब तक पांच साल की सजा और कई लाख रूपये के दंड का प्रावधान था. अब कानून में ज़रूरी सुधार करके आर्थिक जुर्माना २५ हज़ार कर दिया जाएगा जबकि जेल की सजा घटा कर छः महीने कर दी जायेगी. लोकपाल की नियुक्ति के लिए भी बहुत ऊंचे आदर्श रखे गए हैं . प्रधान मंत्री, लोक सभा के अध्यक्ष , लोक सभा में विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश के अलावा एक बहुत ही सम्मानित व्यक्ति को चयन समिति में रखा जाएगा. इस सम्मानित व्यक्ति का चुनाव सी ए जी, सी वी सी और संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष करेगें . इस चयन समिति के विचार के लिए जो नाम भेजे जायेगें उनके लिए कम से कम सात सदस्यों की एक खोजबीन समिति बनायी जायेगी. इस खोजबीन समिति में कम से कम ५० प्रतिशत ऐसे लोग होंगें जो अनुसूचित जाति , महिला ,अल्पसंख्यक और ओ बी सी समुदाय से होंगें .सरकारी बिल में लिखा गया था कि भारत के वर्तमान या पूर्व मुख्य न्यायाधीश को या सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान या अवकाश प्राप्त न्यायाधीश को ही लोक पाल बनाया जाए .स्थायी समिति ने इस बात को खारिज कर दिया है . चयन समिति के सामने अब ऐसा कोई न बंधन नहीं होगा . किसी को भी लोकपाल बनाया जा सकता है.
लोक पाल के दायरे में न्याय पालिका को शामिल नहीं किया गया है . लेकिन उनके लिए एक विस्तृत न्यायिक मानक और जवाब देही विधेयक के सिफारिश की गयी है जिसका काम यह होगा कि जजों की शुरुआती भर्ती के स्टेज से सक्रिय रहकर न्याय व्यवस्था को भ्रष्टाचार की सीमा से बाहर रखने का काम करे.
लोक पाल के साथ ही नागरिक चार्टर और शिकायत निवारण तंत्र की स्थापना करने वाले कानून को भी बनाने की सिफारिश इस समिति ने किया है. जिसका उद्देश्य उन सरकारी अफसरों पर लगाम कसना है जो अपना काम नियम के अनुसार और सही वक़्त पर नहीं करते.
नई दिल्ली ,९ दिसंबर. कार्मिक लोक शिकायत,कानून और न्याय संबंधी संसदीय स्थायी समिति ने आज संसद के दोनों सदनों में लोक पाल विधेयक २०११ के सम्बन्ध में अपनी सिफारिशें पेश कर दीं. यह स्थायी समिति राज्यसभा के प्रशासनिंक कंट्रोल में है इसलिए इसके अध्यक्ष भी राज्यसभा के सदस्य अभिषेक मनु सिंघवी हैं. अगस्त में अन्ना हजारे के अनशन से पैदा हुए राजनीतिक हालात के बाद लोकसभा में हुई बहस और लोकसभा की मंशा वाले प्रस्ताव के पारित होने के बाद लोकपाल बिल का ड्राफ्ट संसद की स्थायी समिति के पास विचार के लिए भेजा गया था . संसद की स्थायी समिति एक ताक़तवर समिति होती है . उसके पास सरकार के पास से आये बिल को पूरी तरह से खारिज करने समेत उसे पूरी तरह से संशोधित करने का अधिकार तक होता है . कई बार ऐसा भी हुआ है कि स्थाई समिति ने सरकार की तरफ से पेश किये गए कानूनों के कुछ मसौदों को पूरी तरह से खारिज कर दिया है .लोकपाल और राज्यों में नियुक्त होने वाले लोकायुक्तों को संवैधानिक दर्ज़ा दिया गया है जिससे उनेक काम काज में सरकारी या किसी अन्य किस्म का दबाव न पड़ सके.
लोकपाल बिल लोक सभा में ४ अगस्त २०११ को पेश किया गया था और इसे संसद की स्थायी समिति को ८ अगस्त को भेजा गया था . इस बिल का उद्देश्य एक ऐसा कानून बनाना है जो सरकार में विभिन्न पदों पर बैठे लोगों के भ्रष्टाचार के बारे में जांच करेगा. इस कमेटी के सामने विचार के लिए दस हज़ार सुझाव आये . अन्ना हजारे की टीम ने भी समिति के सामने कई बार हाज़िर होकर अपनी बात रखी २३ सितम्बर २०११ के दिन पहली बैठक हुई और अंतिम बैठक ७ दिसंबर को हुई. इस बीच कमेटी के सामने कई न्यायविद, भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश , गैरसरकारी संगठनों के प्रतिनधि , टीम अन्ना के प्रतिनिधि , अन्ना हजारे खुद ,धार्मिक संगठन ,सी बी आई, सी वी सी आदि बहुत सारे लोग पेश हुए.
रिपोर्ट संसद में पेश होने के बाद समिति के अध्यक्ष , अभिषेक मनु सिंघवी ने पत्राकारों से बात की और बताया कि सरकार के बहुत सारे सुझाव खारिज कर दिए गए हैं . जो ड्राफ्ट कमेटी के पास आया था उसको पूरी तरह से स्वीकार करने का कोई कारण नहीं था. करीब ढाई महीने की बैठकों के बाद जो सिफारिशें सरकार को दी गयी हैं उनमें टीम अन्ना समेत बहुत सारे लोगों के सुझाव हैं . किसी भी संगठन की बात को पूरी तरह से स्वीकार नहीं किया गया है.
अगर स्थायी समिति की सिफारिशों को मान लिया गया तो देश में भ्रष्टाचार की जांच की प्रक्रिया में बुनियादी बदलाव आ जायेगें . मसलन सी बी आई को अब केवल जांच करने का अधिकार रहेगा. मुक़दमा चलाने का अधिकार प्रस्तावित लोक पाल विधेयक के अभियोजन विभाग को सौंप दिया जाएगा .. सिफारिशों में प्रावधान है कि लोकपाक के अधीन एक अभियोजन विभाग बनाया जाए. और इस तरह से देश में पिछले साठ वर्षों से चल रही उस मांग को पूरा किया जा सकेगा जिसके तहत एक अभियोजन सर्विस शुरू करने की मांग होती रही है . अन्ना हजारे वालों को स्थायी समिति से निराशा इसलिए हुई है क्योंकि वे चाहते थे कि लोकपाल के अधीन ही देश के सभी सरकारी कर्मचारी आ जाएँ .लेकिन स्थाई समिति ने सुझाव दिया है कि प्रथम और द्वितीय श्रेणी के सभी अधिकारी लोकपाल के दायरे में आ जाएँ जबकि तीसरी श्रेणी के कर्मचारी मुख्य सतर्कता आयोग के जांच के दायरे में डाल दिए जाएँ . आने वाले समय में चतुर्थ श्रेणी का कोई कर्मचारी नहीं रह जाएगा क्योंकि ताज़ा वेतन आयोग की सिफारिशों में प्रावधान है कि चौथी श्रेणी को तीसरी श्रेणी में ही मिला दिया जाएगा.
अन्ना हजारे की टीम वालों को प्रधान मंत्री को लोकपाल के दायरे में न लाने पर भी परेशानी होगी क्योंकि समिति ने प्रधान मंत्री को लोक पाल में लाने के मामले को पूरी संसद के विवेक पर छोड़ दिया है . सी बी आई के कलेवर में भी पूरा बदलाव कर दिया गया है . सी बी आई अब प्रिलिमिनरी जाँच नहीं करेगी . वह कम लोकपाल का होगा . जिन मामलों में लोकपाल को लगेगा कि गंभीर जांच की ज़रुरत है, उन्हें सी बी आई के हवाले किया जाएगा. जांच के दौरान न तो लोकपाल और न ही सरकार सी बी आई के काम में दखल दे सकेंगें. जांच पूरी होने पर लोकपाल के अभियोजन विभाग का ज़िम्मा होगा कि वह विशेष अदालत में मुक़दमा चलाये और दोषी व्यक्ति को सज़ा दिलवाए. .समिति की सबसे अहम सिफारिश यह है कि अब किसी भी कर्मचारी के भ्रष्टाचार या किसी अन्य आपराधिक जांच करने के लिए जांच एजेंसी को किसी से परमिशन नहीं लेना पडेगा. अब तक होता यह था कि सम्बंधित उच्च अधिकारी मिलीभगत करके जांच की अनुमति ही नहीं देते थे . नतीजा यह होता था कि भ्रष्टाचारी कर्मचारी खुले आम घूमता रहता था.
. संसद सदस्यों के बारे में कमेटी ने साफ़ कहा है कि संविधान के अनुच्छेद १०५ में दिए गए अधिकार उनको मिलते रहेगें . संसद के अंदर के किसी भी काम पर उन्हें पहले की तरह के अधिकार हैं . लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उनको अपराध करने के छूट है. संसद के ऐसे सदस्यों को दंड देने का अधिकार है जो संसद की मर्यादा को लांघते हैं .सरकारी कंपनियों , एन जी ओ और मीडिया को भी लोकपाल के दायरे में लिया गया है . जो बात अन्ना हजारे की टीम को बहुत बुरी लगेगी , वह यह है कि दस लाख से ज्यादा धन दान में लेने वाले एन जी ओ को भी लोक पाल के घेरे में ले लिया गया है . अन्ना हजारे की टीम कई सदस्यों के पास जो कई एन जी ओ हैं वे सभी लोकपाल के दायरे में अपने आप आ जायेगे,. विदेशों से धन लेने वालों को भी लोकपाल की जांच सीमा में डाल दिया गया है . अन्ना की टीम के सभी सदस्य और उनेक एन जी ओ इस प्रावधान के लपेटे इमं आ जायेगें .
गलत शिकायत करने वालों को अब तक पांच साल की सजा और कई लाख रूपये के दंड का प्रावधान था. अब कानून में ज़रूरी सुधार करके आर्थिक जुर्माना २५ हज़ार कर दिया जाएगा जबकि जेल की सजा घटा कर छः महीने कर दी जायेगी. लोकपाल की नियुक्ति के लिए भी बहुत ऊंचे आदर्श रखे गए हैं . प्रधान मंत्री, लोक सभा के अध्यक्ष , लोक सभा में विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश के अलावा एक बहुत ही सम्मानित व्यक्ति को चयन समिति में रखा जाएगा. इस सम्मानित व्यक्ति का चुनाव सी ए जी, सी वी सी और संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष करेगें . इस चयन समिति के विचार के लिए जो नाम भेजे जायेगें उनके लिए कम से कम सात सदस्यों की एक खोजबीन समिति बनायी जायेगी. इस खोजबीन समिति में कम से कम ५० प्रतिशत ऐसे लोग होंगें जो अनुसूचित जाति , महिला ,अल्पसंख्यक और ओ बी सी समुदाय से होंगें .सरकारी बिल में लिखा गया था कि भारत के वर्तमान या पूर्व मुख्य न्यायाधीश को या सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान या अवकाश प्राप्त न्यायाधीश को ही लोक पाल बनाया जाए .स्थायी समिति ने इस बात को खारिज कर दिया है . चयन समिति के सामने अब ऐसा कोई न बंधन नहीं होगा . किसी को भी लोकपाल बनाया जा सकता है.
लोक पाल के दायरे में न्याय पालिका को शामिल नहीं किया गया है . लेकिन उनके लिए एक विस्तृत न्यायिक मानक और जवाब देही विधेयक के सिफारिश की गयी है जिसका काम यह होगा कि जजों की शुरुआती भर्ती के स्टेज से सक्रिय रहकर न्याय व्यवस्था को भ्रष्टाचार की सीमा से बाहर रखने का काम करे.
लोक पाल के साथ ही नागरिक चार्टर और शिकायत निवारण तंत्र की स्थापना करने वाले कानून को भी बनाने की सिफारिश इस समिति ने किया है. जिसका उद्देश्य उन सरकारी अफसरों पर लगाम कसना है जो अपना काम नियम के अनुसार और सही वक़्त पर नहीं करते.
महंगाई के मुद्दे पर सरकार को नहीं घेर सकी भाजपा
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली ,८ दिसंबर. महंगाई के मामले पर सरकार को घेरने में नाकाम रही भाजपा ने सरकार को कटघरे में खड़ा करने के लिए आज फिर वही २ जी वाला रास्ता चुना. लोक सभा में आज भाजपा महंगाई के मुद्दे पर नियम १९३ के तहत बहस के लिए राजी हो गयी जिसका मतलब कि केंद्र सरकार को संसद में महंगाई के मुद्दे पर वोट का सामना नहीं करना पड़ा . अगर बहस नियम १८४ के तहत होती तो सरकार मुश्किल में पड़ सकती थी. भाजपा को आज राजनीतिक संजीवनी सुब्रमण्यम स्वामी के एक मुदमे से मिली आज नई दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट में जनता पार्टी के नेता सुब्रमण्यम स्वामी की एक अर्जी मंजूर कर ली गयी .अब वे गवाहों से जिरह कर सकेगें . अब इस बात की संभावना बढ़ गयी है कि सुब्रमण्यम स्वामी कोर्ट में गृहमंत्री,पी चिदम्बरम से पूछताछ कर सकेगें हालांकि इसमें अभी बहुत सारी अडचने हैं लेकिन आज के नई दिल्ली की अदालत के आदेश के बाद रास्ता थोडा आसान हो गया है . स्वामी का आरोप है कि २ जी के घोटाले में ए राजा और पी चिदंबरम बराबर के गुनहगार हैं . इस आदेश के आते ही सुब्रमण्यम स्वामी की पुरानी पार्टी जनसंघ के साथी जो आजकल भाजपा में हैं ,सरकार पर टूट पड़े और गृहमंत्री के इस्तीफे की मांग को फिर से उठाना शुरू कर दिया . हालांकि सरकार ने भाजपा की मंशा को कमज़ोर करने की गरज से साफ़ कहा कि पी चिदंबरम के इस्तीफे का सवाल ही नहीं पैदा होता .
कांग्रेस और केंद्र सरकार ने भाजपा की ओर से आ रही पी चिंदबरम के इस्तीफे की मांग को राजनीतिक अवसरवादिता बताया है . कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने कहा कि नई दिल्ली कोर्ट का आज का आदेश न्यायिक प्रक्रिया में एक कड़ी मात्र है . यह कोई फैसला नहीं है . इस आदेश से यह कहीं से साबित नहीं होता कि पी चिंदबरम का आपाध साबित हो गया है .उन्होंने विपक्ष के अभियान को ज़बरदस्ती के एराजनीति बताया और कहा कि यह लोग किसी न किसी बहाने से संसद के काम में बाधा डालने के अलावा कुछ नहीं कर रहे हैं . संसदीय कार्य मंत्री राजीव शुक्ल ने कहा कि भाजपा के पास कोई रचनात्मक मुद्दा नहीं है इसलिए वे सरकार को मीडिया के ज़रिये घेरने की कोशिश कर रहे हैं .
कोर्ट में जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यम स्वामी ने चिदंबरम के खिलाफ सीबीआई जांच की मांग की अर्जी लगाई थी और आरोप लगाया था कि 2008 में जब चिदंबरम वित्त मंत्री थे तो उन्हें 2जी आवंटन में ए राजा के साथ मिलकर हेराफेरी की थी . हालांकि आज सुब्रमण्यम स्वामी बहुत दुखी थे क्योंकि आज ही खबर आई है कि अब उनको हार्वर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ाने लायक नहीं माना जा रहा है लेकिन उनके मुक़दमे से उनकी पुरानी पार्टी वालों को सरकार पर मीडिया आक्रमण करने का एक और मौक़ा मिल गया है . भाजपा के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने किसी टी वी चैनल पर कहा कि अब अगर थोड़ी सी शर्म चिंदबरम में बाकी है तो उन्हें तुरंत कुर्सी छोड़ देना चाहिए।
पटियाला हाउस कोर्ट ने सुब्रमण्यम स्वामी को सीबीआई के एक बड़े अधिकारी समेत वित्त मंत्रालय के अधिकारी एस एस खुल्लर से भी बातचीत की अनुमति दी है. लेकिन इसके पहले उन्हें 17 दिसंबर को गवाह के तौर पेश होकर गवाही देनी पड़ेगी. अगर कोर्ट स्वामी की गवाही से संतुष्ट होगा तभी चिंदबरम से पूछताछ संभव हो पायेगी. इसका मतलब यह हुआ कि अभी पी चिदंबरम से जिरह की संभावना में कई दिक्क़तें हैं लेकिन भाजपा वाले इस मुद्दे को राजनीतिक बनाने के चक्कर में इसे ले उड़े हैं .अभी २ जी मामले की जांच कर रही सीबीआई चिंदबरम को दोषी नहीं मानती .सीबीआई का दावा है कि वह मामले को लेकर चार्जशीट दाखिल कर चुकी है इसलिए चिदंबरम के खिलाफ जांच नहीं की जा सकती. ज़ाहिर है पी चिंदबरम का केस शुद्ध रूप से राजनीतिक मामला है और भाजपा के एपूरी कोशिश है इस के सहारे केंद्र सरकार को भ्रष्ट साबित करने के उसके प्रोजेक्ट को ताक़त मिले
नई दिल्ली ,८ दिसंबर. महंगाई के मामले पर सरकार को घेरने में नाकाम रही भाजपा ने सरकार को कटघरे में खड़ा करने के लिए आज फिर वही २ जी वाला रास्ता चुना. लोक सभा में आज भाजपा महंगाई के मुद्दे पर नियम १९३ के तहत बहस के लिए राजी हो गयी जिसका मतलब कि केंद्र सरकार को संसद में महंगाई के मुद्दे पर वोट का सामना नहीं करना पड़ा . अगर बहस नियम १८४ के तहत होती तो सरकार मुश्किल में पड़ सकती थी. भाजपा को आज राजनीतिक संजीवनी सुब्रमण्यम स्वामी के एक मुदमे से मिली आज नई दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट में जनता पार्टी के नेता सुब्रमण्यम स्वामी की एक अर्जी मंजूर कर ली गयी .अब वे गवाहों से जिरह कर सकेगें . अब इस बात की संभावना बढ़ गयी है कि सुब्रमण्यम स्वामी कोर्ट में गृहमंत्री,पी चिदम्बरम से पूछताछ कर सकेगें हालांकि इसमें अभी बहुत सारी अडचने हैं लेकिन आज के नई दिल्ली की अदालत के आदेश के बाद रास्ता थोडा आसान हो गया है . स्वामी का आरोप है कि २ जी के घोटाले में ए राजा और पी चिदंबरम बराबर के गुनहगार हैं . इस आदेश के आते ही सुब्रमण्यम स्वामी की पुरानी पार्टी जनसंघ के साथी जो आजकल भाजपा में हैं ,सरकार पर टूट पड़े और गृहमंत्री के इस्तीफे की मांग को फिर से उठाना शुरू कर दिया . हालांकि सरकार ने भाजपा की मंशा को कमज़ोर करने की गरज से साफ़ कहा कि पी चिदंबरम के इस्तीफे का सवाल ही नहीं पैदा होता .
कांग्रेस और केंद्र सरकार ने भाजपा की ओर से आ रही पी चिंदबरम के इस्तीफे की मांग को राजनीतिक अवसरवादिता बताया है . कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने कहा कि नई दिल्ली कोर्ट का आज का आदेश न्यायिक प्रक्रिया में एक कड़ी मात्र है . यह कोई फैसला नहीं है . इस आदेश से यह कहीं से साबित नहीं होता कि पी चिंदबरम का आपाध साबित हो गया है .उन्होंने विपक्ष के अभियान को ज़बरदस्ती के एराजनीति बताया और कहा कि यह लोग किसी न किसी बहाने से संसद के काम में बाधा डालने के अलावा कुछ नहीं कर रहे हैं . संसदीय कार्य मंत्री राजीव शुक्ल ने कहा कि भाजपा के पास कोई रचनात्मक मुद्दा नहीं है इसलिए वे सरकार को मीडिया के ज़रिये घेरने की कोशिश कर रहे हैं .
कोर्ट में जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यम स्वामी ने चिदंबरम के खिलाफ सीबीआई जांच की मांग की अर्जी लगाई थी और आरोप लगाया था कि 2008 में जब चिदंबरम वित्त मंत्री थे तो उन्हें 2जी आवंटन में ए राजा के साथ मिलकर हेराफेरी की थी . हालांकि आज सुब्रमण्यम स्वामी बहुत दुखी थे क्योंकि आज ही खबर आई है कि अब उनको हार्वर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ाने लायक नहीं माना जा रहा है लेकिन उनके मुक़दमे से उनकी पुरानी पार्टी वालों को सरकार पर मीडिया आक्रमण करने का एक और मौक़ा मिल गया है . भाजपा के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने किसी टी वी चैनल पर कहा कि अब अगर थोड़ी सी शर्म चिंदबरम में बाकी है तो उन्हें तुरंत कुर्सी छोड़ देना चाहिए।
पटियाला हाउस कोर्ट ने सुब्रमण्यम स्वामी को सीबीआई के एक बड़े अधिकारी समेत वित्त मंत्रालय के अधिकारी एस एस खुल्लर से भी बातचीत की अनुमति दी है. लेकिन इसके पहले उन्हें 17 दिसंबर को गवाह के तौर पेश होकर गवाही देनी पड़ेगी. अगर कोर्ट स्वामी की गवाही से संतुष्ट होगा तभी चिंदबरम से पूछताछ संभव हो पायेगी. इसका मतलब यह हुआ कि अभी पी चिदंबरम से जिरह की संभावना में कई दिक्क़तें हैं लेकिन भाजपा वाले इस मुद्दे को राजनीतिक बनाने के चक्कर में इसे ले उड़े हैं .अभी २ जी मामले की जांच कर रही सीबीआई चिंदबरम को दोषी नहीं मानती .सीबीआई का दावा है कि वह मामले को लेकर चार्जशीट दाखिल कर चुकी है इसलिए चिदंबरम के खिलाफ जांच नहीं की जा सकती. ज़ाहिर है पी चिंदबरम का केस शुद्ध रूप से राजनीतिक मामला है और भाजपा के एपूरी कोशिश है इस के सहारे केंद्र सरकार को भ्रष्ट साबित करने के उसके प्रोजेक्ट को ताक़त मिले
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ज़रदारी से नाराज़ पाकिस्तानी फौज ने की इमरान खां की ताजपोशी की तैयारी
शेष नारायण सिंह
पाकिस्तान एक बार फिर राजनीतिक अस्थिरता के घेरे में है . बिना पहले से तय किसी कार्यक्रम के राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी दुबई चले गए हैं . उनके बेटे ,बिलावल भुट्टो ज़रदारी ने प्रधान मंत्री युसूफ रजा गीलानी से मुलाक़ात की है . बिलावल पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के अध्यक्ष भी हैं . सरकारी तौर पर बताया गया है कि ज़रदारी मेडिकल जांच के सिलसिले में दुबई गए हैं लेकिन पाकिस्तान में पहले भी बड़े बड़े फैसले पब्लिक डोमेन में अफवाहों के रास्ते ही आये हैं . पाकिस्तानी सियासत के जानकार बताते है क कुछ बड़ा मामला हो चुका है .पाकिस्तानी फौज ने ज़रदारी को सत्ता से अलग करने की अपनी योजना को अंजाम तक पंहुचा दिया है और अब उसकी औपचारिकता पूरी की जा रही हो .वैसे भी पाकिस्तान में किसी भी सिविलियन सरकार ने कभी भी अपना वक़्त पूरा नहीं किया है ,हो सकता है कि ज़रदारी का भी वही हाल हो .
अंग्रेज़ी सत्ता के ख़त्म होने के बाद जब भारत को आज़ादी मिली तो जुगाड़ करके मुहम्मद अली जिन्नाह ने भारत के कई टुकड़े करवा कर पाकिस्तान नाम का देश बनवा दिया था. पाकिस्तान को एक राष्ट्र के रूप में हासिल करने के लिए पाकिस्तान के संस्थापाक मुहम्मद अली जिन्नाह ने एक दिन की भी जेलयात्रा नहीं की,कोई संघर्ष नहीं किया . बस लिखापढी करके पाकिस्तान ले लिया था . नतीजा यह हुआ कि जब उनके शागिर्द लियाक़त अली प्रधानमंत्री बने तो पाकिस्तान में बहुत से ऐसे लोग थे जो यह मानते थे कि लियाक़त अली को प्रधानमंत्री बनवाकर जिन्नाह ने गलती की है , लियाक़त अली से भी बहुत ज्यादा काबिल लोग पाकिस्तान में मौजूद थे. बाद में उन्हीं बहुत काबिल लोगों ने लियाक़त अली को क़त्ल करवा दिया था. बाद में जनरल अयूब ने सिविलियन सत्ता को धता बताकर फौज की हुकूमत कायम कर दी थी. यही सिलसिला पिछले साठ साल से चल रहा है. हर बार फौज सिविलियन हुकूमत को हटाने के लिए नई नई तरकीबें अपनाती है . कभी भुट्टो को गिरफ्तार करती है तो कभी नवाज़ शरीफ को देश से निकाल देती है .हो सकता है कि इस बार इलाज के लिए दुबई भेजकर राष्ट्रपति की छुट्टी करने की योजना बनायी गयी हो और उसी को अंजाम तक पंहुचाया जा रहा हो. जो भी ,इतना पक्का है कि बार बार फौजी हुकूमत कायम होने की वजह से बाकी दुनिया में पाकिस्तानी राष्ट्र की विश्वसनीयता बहुत ही कम हो गयी है . अब तक पाकिस्तान को अमरीका का पिछलग्गू देश माना जाता था , अब उसे चीन का मुहताज माना जाता है . जो भी हो अपनी स्थापना के साथ से ही राजनीतिक अस्थिरता का शिकार बने एक राष्ट्र की जितनी दुर्दशा होती है , पाकिस्तान की उतनी ही दुर्दशा हो रही है .
हर बार की तरह ,इस बार भी पाकिस्तान के मौजूदा संकट का कारण अमरीका है . अफगानिस्तान में तैनात नैटो के नाम से काम करने वाली अमरीकी फौज़ ने पाकिस्तान की सीमा में तैनात उसके २४ फौजियों मार डाला . इसके बाद पूरे देश में राजनीतिक तूफ़ान आ गया . पाकिस्तानी हुकूमत पर दबाव पड़ने लगा कि वह अमरीका से सख्ती से पेश आये . लेकिन अमरीकी मदद से अपने देश का आर्थिक इंतज़ाम कर रहे पाकिस्तान की यह हैसियत नहीं है कि वह अमरीका से सख्ती का रुख अपनाए .अमरीका के राष्ट्रपति ने भी पाकिस्तान की सिविलियन सरकार को जीत का दावा करने का कोई मौक़ा नहीं दिया . अगर अमरीका माफी मांग लेता तो ज़रदारी समेत बाकी पाकिस्तान परस्त हुक्मरानों को मुह छुपाने का मौका मिल जाता लेकिन अमरीका ने वह मौक़ा भी नहीं दिया . नतीजा सामने है . जानकार बताते हैं कि अमरीका खुद चाहता है कि अब ज़रदारी की छुट्टी कर दी जाए. वैसे भी अमरीका हमेशा से ही पाकिस्तानी फौज के तानाशाहों को अपने लिए मुफीद मानता रहा है . जो भी फौजी जनरल पाकिस्तान का शासक बना है ,वह पक्के तौर पर अमरीका का फरमाबरदार रहा है . जनरल अयूब ने पाकिस्तानी फौज़ को शुरुआती दिनों में अमरीकी साज़ सामान से पाट दिया था. १९६५ में भारत पर जब उन्होंने हमला किया था तो उन्हें मुगालता था कि सुपीरियर अमरीकी असलहों के बल पर वे भारत को हरा देगें लेकिन ऐसा न हुआ . अमरीकी पैटन टैंकों को भारतीय सेना ने दौड़ा दौड़ा कर मारा था और सैकड़ों की तादाद में उन टैंकों को ट्राफी के तौर पर भारत लाये थे . आज भारत की बहुत सारी सैनिक छावनियों में पाकिस्तानी सेना से छीने हुए अमरीका के पैटन टैंक बतौर ट्राफी देखने को मिलते रहते हैं. दूसरे फौजी जनरल याहया खां भी बहुत बड़े अमरीका परस्त थे. उनकी हुकूमत के दौरान ही पूर्वी पाकिस्तान को बंगला देश बना दिया गया था. तीसरे फौजी शासक , जनरल जिया उल हक थे . १९७१ की लड़ाई का दर्द उनको हमेशा सालता रहता था ,इसलिए उन्होंने हमेशा ही भारत को तबाह करने की योजना पर ही काम किया . भारत का सबसे बड़ा दुश्मन हाफ़िज़ सईद जनरल जिया उल हक का चेला है . भारत को तबाह करने में जनरल जिया को अमरीका से भी मदद मिली . पंजाब में आतंकवाद और कश्मीर में आतंकवाद जनरल जिया की कृपा से ही शुरू हुआ. परवेज़ मुशर्रफ भी खासे अमरीका परस्त राष्ट्रपति थे. अमरीका को खुश रखने के लिए उन्होंने पाकिस्तान को अमरीकी फौजों के हवाले कर दिया और अफगानिस्तान के तालिबान शासकों को नष्ट करने के लिए अफगानिस्तान पर होने वाले अमरीकी हमलों के लिए बेस उपलब्ध कराया . अब तक पाकिस्तानी फौज अमरीका की बहुत ही प्रिय फौज रही है लेकिन इस बार मामला गड़बड़ा रहा है . पाकिस्तानी फौज ने ओसामा बिन लादेन को अपनी हिफाज़त में रख छोड़ा था लेकिन अमरीकी खुफिया विभाग ने उसे मार डाला और अब पाकिस्तानी सैनिकों को मार कर अमरीकियों ने पाकिस्तानी फौज के लिए बहुत मुश्किल पैदा कर दिया है . अब किस मुंह से पाकिस्तानी फौज के वर्तमान मुखिया अमरीका परस्त बने रह सकते हैं . लेकिन हालात बहुत तेज़ी से बदल रहे हैं . ताज़ा राजनीतिक हालात ऐसे बन रहे हैं जिसके बाद पाकिस्तानी फौज के सामने अमरीका से मदद लेने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचेगा .
पाकिस्तान में इस बात की बहुत ज़ोरों से चर्चा है कि पाकिस्तान क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान और तहरीके इंसाफ़ पार्टी के प्रमुख इमरान खां को पाकिस्तानी फौज इस बार सत्ता सौंपना चाहती है . उसको भरोसा है कि राजनीति के कच्चे खिलाड़ी और अति महत्वाकांक्षी इमरान खां को सामने करके फौज अपनी मनमानी कर सकेगी. इस काम को वह अमरीका की मदद के बिना पूरा नहीं कर सकती. अमरीका को भी इसमें कोई दिक्क़त नहीं है क्योंकि इमरान खां खुद पश्चिमी सभ्यता के रंग में ढले हैं , वे अमरीका की किसी भी बात को मना नहीं कर पायेगें और पाकिस्तानी फौज भी दक्षिण एशिया के इलाके में अमरीकी हितों की झंडाबरदार बनी रहेगी. अमरीका भी पाकिस्तानी फौज को बहुत दबाना नहीं चाहता . उसे डर है कि कहीं जनरल कयानी चीन के शरण में न चले जाएँ . अगर ऐसा हुआ तो दक्षिण एशिया में अमरीकी दबदबे को भारी नुकसान पंहुचेगा. इसलिए लगता है कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी की बीमारी इमरान खां की ताजपोशी के रास्ते में पड़ने वाले हर रोड़े को साफ़ करने की अमरीका की कोशिश का हिस्सा है . ऐसा करके अमरीका पाकिस्तानी फौज को भी खुश रख सकेगा और दुनिया के सामने एक ऐसे इंसान को अमरीका का सिविलियन शासक बना कर पेश कर सकेगा जो पहले से ही एक अंतरराष्ट्रीय व्यक्तित्व का मालिक है .
पाकिस्तानी राजनीति के जानकारों की इस व्याख्या को अगर सच मान लिया जाए तो आसिफ अली ज़रदारी की बीमारी का राजनीतिक मतलब साफ़ हो जाता है . ऐसा लगता है कि ज़रदारी, पाकिस्तानी फौज और अमरीकी विदेश विभाग के बीच इस तरह का समझौता हो गया है . इसीलिये ज़रदारी की बीमारी को अफवाहों की ज़द से बाहर निकालने की गरज से सरकारी प्रवक्ता फरातुल्लाह बाबर से ही कहलवाया गया कि राष्ट्रपति ज़रदारी केवल रूटीन चेक अप के लिए दुबई गए हैं. उन्होंने कहा कि उनको पहले से ही दिल की कोई मामूली बीमारी थी ,जिसकी जांच का समय आ गया था और वे उसी सिलसिले में विदेश गए हैं . अभी यह पता नहीं है कि वे स्वदेश कब तक लौटेगें . उनकी गैर मौजूदगी में प्रधान मंत्री युसूफ रज़ा गीलानी की राय से सेनेट के अध्यक्ष को कार्यवाहक राष्ट्रपति भी बना दिया गया है .
इसके पहले पाकिस्तानी फौज से डरे हुए आसिफ अली ज़रदारी ने अमरीका से अपील की थी कि पाकिस्तानी फौज की उस कोशिश को नाकाम कर दिया जाए जिसके तहत वह उनको बेदखल करना चाह रही थी . लेकिन लगता है कि अब अमरीका भी ज़रदारी से ऊब गया है . शायद इसीलिये उसने इस काम में ज़रदारी की मदद कर रहे अमरीका में पाकिस्तानी राजदूत , हुसैन हक्कानी की कोशिश को बेनकाब कर दिया था और उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा था. जो भी हो ,साफ़ लग रहा है कि पाकिस्तान में सत्ता बदलने वाली है . और अमरीका किसी भी कीमत पर पाकिस्तान की फौज़ की मर्जी के खिलाफ जाने को तैयार नहीं है . इसलिए समझौते के तौर पर इमरान खां की ताजपोशी की तैयारी की जा रही है
पाकिस्तान एक बार फिर राजनीतिक अस्थिरता के घेरे में है . बिना पहले से तय किसी कार्यक्रम के राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी दुबई चले गए हैं . उनके बेटे ,बिलावल भुट्टो ज़रदारी ने प्रधान मंत्री युसूफ रजा गीलानी से मुलाक़ात की है . बिलावल पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के अध्यक्ष भी हैं . सरकारी तौर पर बताया गया है कि ज़रदारी मेडिकल जांच के सिलसिले में दुबई गए हैं लेकिन पाकिस्तान में पहले भी बड़े बड़े फैसले पब्लिक डोमेन में अफवाहों के रास्ते ही आये हैं . पाकिस्तानी सियासत के जानकार बताते है क कुछ बड़ा मामला हो चुका है .पाकिस्तानी फौज ने ज़रदारी को सत्ता से अलग करने की अपनी योजना को अंजाम तक पंहुचा दिया है और अब उसकी औपचारिकता पूरी की जा रही हो .वैसे भी पाकिस्तान में किसी भी सिविलियन सरकार ने कभी भी अपना वक़्त पूरा नहीं किया है ,हो सकता है कि ज़रदारी का भी वही हाल हो .
अंग्रेज़ी सत्ता के ख़त्म होने के बाद जब भारत को आज़ादी मिली तो जुगाड़ करके मुहम्मद अली जिन्नाह ने भारत के कई टुकड़े करवा कर पाकिस्तान नाम का देश बनवा दिया था. पाकिस्तान को एक राष्ट्र के रूप में हासिल करने के लिए पाकिस्तान के संस्थापाक मुहम्मद अली जिन्नाह ने एक दिन की भी जेलयात्रा नहीं की,कोई संघर्ष नहीं किया . बस लिखापढी करके पाकिस्तान ले लिया था . नतीजा यह हुआ कि जब उनके शागिर्द लियाक़त अली प्रधानमंत्री बने तो पाकिस्तान में बहुत से ऐसे लोग थे जो यह मानते थे कि लियाक़त अली को प्रधानमंत्री बनवाकर जिन्नाह ने गलती की है , लियाक़त अली से भी बहुत ज्यादा काबिल लोग पाकिस्तान में मौजूद थे. बाद में उन्हीं बहुत काबिल लोगों ने लियाक़त अली को क़त्ल करवा दिया था. बाद में जनरल अयूब ने सिविलियन सत्ता को धता बताकर फौज की हुकूमत कायम कर दी थी. यही सिलसिला पिछले साठ साल से चल रहा है. हर बार फौज सिविलियन हुकूमत को हटाने के लिए नई नई तरकीबें अपनाती है . कभी भुट्टो को गिरफ्तार करती है तो कभी नवाज़ शरीफ को देश से निकाल देती है .हो सकता है कि इस बार इलाज के लिए दुबई भेजकर राष्ट्रपति की छुट्टी करने की योजना बनायी गयी हो और उसी को अंजाम तक पंहुचाया जा रहा हो. जो भी ,इतना पक्का है कि बार बार फौजी हुकूमत कायम होने की वजह से बाकी दुनिया में पाकिस्तानी राष्ट्र की विश्वसनीयता बहुत ही कम हो गयी है . अब तक पाकिस्तान को अमरीका का पिछलग्गू देश माना जाता था , अब उसे चीन का मुहताज माना जाता है . जो भी हो अपनी स्थापना के साथ से ही राजनीतिक अस्थिरता का शिकार बने एक राष्ट्र की जितनी दुर्दशा होती है , पाकिस्तान की उतनी ही दुर्दशा हो रही है .
हर बार की तरह ,इस बार भी पाकिस्तान के मौजूदा संकट का कारण अमरीका है . अफगानिस्तान में तैनात नैटो के नाम से काम करने वाली अमरीकी फौज़ ने पाकिस्तान की सीमा में तैनात उसके २४ फौजियों मार डाला . इसके बाद पूरे देश में राजनीतिक तूफ़ान आ गया . पाकिस्तानी हुकूमत पर दबाव पड़ने लगा कि वह अमरीका से सख्ती से पेश आये . लेकिन अमरीकी मदद से अपने देश का आर्थिक इंतज़ाम कर रहे पाकिस्तान की यह हैसियत नहीं है कि वह अमरीका से सख्ती का रुख अपनाए .अमरीका के राष्ट्रपति ने भी पाकिस्तान की सिविलियन सरकार को जीत का दावा करने का कोई मौक़ा नहीं दिया . अगर अमरीका माफी मांग लेता तो ज़रदारी समेत बाकी पाकिस्तान परस्त हुक्मरानों को मुह छुपाने का मौका मिल जाता लेकिन अमरीका ने वह मौक़ा भी नहीं दिया . नतीजा सामने है . जानकार बताते हैं कि अमरीका खुद चाहता है कि अब ज़रदारी की छुट्टी कर दी जाए. वैसे भी अमरीका हमेशा से ही पाकिस्तानी फौज के तानाशाहों को अपने लिए मुफीद मानता रहा है . जो भी फौजी जनरल पाकिस्तान का शासक बना है ,वह पक्के तौर पर अमरीका का फरमाबरदार रहा है . जनरल अयूब ने पाकिस्तानी फौज़ को शुरुआती दिनों में अमरीकी साज़ सामान से पाट दिया था. १९६५ में भारत पर जब उन्होंने हमला किया था तो उन्हें मुगालता था कि सुपीरियर अमरीकी असलहों के बल पर वे भारत को हरा देगें लेकिन ऐसा न हुआ . अमरीकी पैटन टैंकों को भारतीय सेना ने दौड़ा दौड़ा कर मारा था और सैकड़ों की तादाद में उन टैंकों को ट्राफी के तौर पर भारत लाये थे . आज भारत की बहुत सारी सैनिक छावनियों में पाकिस्तानी सेना से छीने हुए अमरीका के पैटन टैंक बतौर ट्राफी देखने को मिलते रहते हैं. दूसरे फौजी जनरल याहया खां भी बहुत बड़े अमरीका परस्त थे. उनकी हुकूमत के दौरान ही पूर्वी पाकिस्तान को बंगला देश बना दिया गया था. तीसरे फौजी शासक , जनरल जिया उल हक थे . १९७१ की लड़ाई का दर्द उनको हमेशा सालता रहता था ,इसलिए उन्होंने हमेशा ही भारत को तबाह करने की योजना पर ही काम किया . भारत का सबसे बड़ा दुश्मन हाफ़िज़ सईद जनरल जिया उल हक का चेला है . भारत को तबाह करने में जनरल जिया को अमरीका से भी मदद मिली . पंजाब में आतंकवाद और कश्मीर में आतंकवाद जनरल जिया की कृपा से ही शुरू हुआ. परवेज़ मुशर्रफ भी खासे अमरीका परस्त राष्ट्रपति थे. अमरीका को खुश रखने के लिए उन्होंने पाकिस्तान को अमरीकी फौजों के हवाले कर दिया और अफगानिस्तान के तालिबान शासकों को नष्ट करने के लिए अफगानिस्तान पर होने वाले अमरीकी हमलों के लिए बेस उपलब्ध कराया . अब तक पाकिस्तानी फौज अमरीका की बहुत ही प्रिय फौज रही है लेकिन इस बार मामला गड़बड़ा रहा है . पाकिस्तानी फौज ने ओसामा बिन लादेन को अपनी हिफाज़त में रख छोड़ा था लेकिन अमरीकी खुफिया विभाग ने उसे मार डाला और अब पाकिस्तानी सैनिकों को मार कर अमरीकियों ने पाकिस्तानी फौज के लिए बहुत मुश्किल पैदा कर दिया है . अब किस मुंह से पाकिस्तानी फौज के वर्तमान मुखिया अमरीका परस्त बने रह सकते हैं . लेकिन हालात बहुत तेज़ी से बदल रहे हैं . ताज़ा राजनीतिक हालात ऐसे बन रहे हैं जिसके बाद पाकिस्तानी फौज के सामने अमरीका से मदद लेने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचेगा .
पाकिस्तान में इस बात की बहुत ज़ोरों से चर्चा है कि पाकिस्तान क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान और तहरीके इंसाफ़ पार्टी के प्रमुख इमरान खां को पाकिस्तानी फौज इस बार सत्ता सौंपना चाहती है . उसको भरोसा है कि राजनीति के कच्चे खिलाड़ी और अति महत्वाकांक्षी इमरान खां को सामने करके फौज अपनी मनमानी कर सकेगी. इस काम को वह अमरीका की मदद के बिना पूरा नहीं कर सकती. अमरीका को भी इसमें कोई दिक्क़त नहीं है क्योंकि इमरान खां खुद पश्चिमी सभ्यता के रंग में ढले हैं , वे अमरीका की किसी भी बात को मना नहीं कर पायेगें और पाकिस्तानी फौज भी दक्षिण एशिया के इलाके में अमरीकी हितों की झंडाबरदार बनी रहेगी. अमरीका भी पाकिस्तानी फौज को बहुत दबाना नहीं चाहता . उसे डर है कि कहीं जनरल कयानी चीन के शरण में न चले जाएँ . अगर ऐसा हुआ तो दक्षिण एशिया में अमरीकी दबदबे को भारी नुकसान पंहुचेगा. इसलिए लगता है कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी की बीमारी इमरान खां की ताजपोशी के रास्ते में पड़ने वाले हर रोड़े को साफ़ करने की अमरीका की कोशिश का हिस्सा है . ऐसा करके अमरीका पाकिस्तानी फौज को भी खुश रख सकेगा और दुनिया के सामने एक ऐसे इंसान को अमरीका का सिविलियन शासक बना कर पेश कर सकेगा जो पहले से ही एक अंतरराष्ट्रीय व्यक्तित्व का मालिक है .
पाकिस्तानी राजनीति के जानकारों की इस व्याख्या को अगर सच मान लिया जाए तो आसिफ अली ज़रदारी की बीमारी का राजनीतिक मतलब साफ़ हो जाता है . ऐसा लगता है कि ज़रदारी, पाकिस्तानी फौज और अमरीकी विदेश विभाग के बीच इस तरह का समझौता हो गया है . इसीलिये ज़रदारी की बीमारी को अफवाहों की ज़द से बाहर निकालने की गरज से सरकारी प्रवक्ता फरातुल्लाह बाबर से ही कहलवाया गया कि राष्ट्रपति ज़रदारी केवल रूटीन चेक अप के लिए दुबई गए हैं. उन्होंने कहा कि उनको पहले से ही दिल की कोई मामूली बीमारी थी ,जिसकी जांच का समय आ गया था और वे उसी सिलसिले में विदेश गए हैं . अभी यह पता नहीं है कि वे स्वदेश कब तक लौटेगें . उनकी गैर मौजूदगी में प्रधान मंत्री युसूफ रज़ा गीलानी की राय से सेनेट के अध्यक्ष को कार्यवाहक राष्ट्रपति भी बना दिया गया है .
इसके पहले पाकिस्तानी फौज से डरे हुए आसिफ अली ज़रदारी ने अमरीका से अपील की थी कि पाकिस्तानी फौज की उस कोशिश को नाकाम कर दिया जाए जिसके तहत वह उनको बेदखल करना चाह रही थी . लेकिन लगता है कि अब अमरीका भी ज़रदारी से ऊब गया है . शायद इसीलिये उसने इस काम में ज़रदारी की मदद कर रहे अमरीका में पाकिस्तानी राजदूत , हुसैन हक्कानी की कोशिश को बेनकाब कर दिया था और उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा था. जो भी हो ,साफ़ लग रहा है कि पाकिस्तान में सत्ता बदलने वाली है . और अमरीका किसी भी कीमत पर पाकिस्तान की फौज़ की मर्जी के खिलाफ जाने को तैयार नहीं है . इसलिए समझौते के तौर पर इमरान खां की ताजपोशी की तैयारी की जा रही है
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शेष नारायण सिंह
Thursday, December 8, 2011
पानी पर गांठ के बहाने कविता और समाज पर गहन चर्चा
शेष नारायण सिंह
हिन्दी की कवयित्री रीता भदौरिया के दूसरे काव्य संग्रह 'पानी में गाँठ' के लोकार्पण का अवसर। दिल्ली में भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद के सभागार में राजधानी की नामचीन अदबी और शहाफी शख्सीयतों की मौजदगी में रीता की कविताओं पर चर्चा हुई और कविता और समाज पर भी। रीता के संवेदन और उनकी रचना प्रतिभा में वक्ताओं को प्रचुर संभावना दिखी। सदारत कर रहे थे हिन्दी के बड़े कवि प्रयाग शुक्ल। अध्यक्षीय संबोधन में उन्होंने समय की कमी और विमर्श से उपजे उत्तेजनात्मक तनाव के बीच से निकलने की सधी हुई कोशिश की पर समय पर तनाव भारी रहा। संक्षिप्ति की वकालत के बावजूद विस्तार से बचना उन जैसे बड़े साहित्यकार के लिए भी संभव नहीं हो सका और सच तो यह है कि यही श्रोताओं के लिए आनंददायक रहा। वे चिंतित थे कि खराब और अच्छी कविता की बात की गयी, वे चिंतित थे कि कलावाद पर आक्षेप किया गया। उन्होंने जवाब भी दिया, बहुत स्पष्ट और साफ सुथरा, कलावाद कोई बुरी चीज नहीं है, मैं स्वयं कलावादी हूँ। कला लोक से ही जन्मती है, लोक के साथ ही आगे बढ़ती है। न तो कविता के पाठक कम हुए हैं, न ही अच्छी कविताएं। सारे देश में घूमा हूँ मैं, हर जगह कविता लिखने वाले, उसके प्रशंसक मिले हैं। मैं कविता को अच्छी या बुरी कविता के रूप में नहीं देखता हूँ, मेरे लिए कविता सिर्फ अच्छी होती है, कोई ज्यादा अच्छी, कोई कम अच्छी।
इस मौके पर प्रयाग शुक्ल के अलावा असगर वजाहत, वीरेन डंगवाल, अशोक चक्रधर, आलोक पुराणिक, कमर वहीद नकवी, राम कृपाल सिंह, प्रभात कुमार राय, प्रो. जय प्रकाश द्विवेदी, कुलदीप तलवार, कुलदीप कुमार, राम बहादुर राय, सुभाष राय, वंशीधर मिश्र, मिथिलेश कुमार सिंह, मधु जोशी आदि मौजूद थे। दिल्ली के हिन्दी पत्रकारों का भी बड़ा जमावड़ा था। असगर वजाहत ने कविता के महत्व का प्रतिपादन करते हुए उसे जीवन और समाज के परिष्कार का सबसे बड़ा औजार कहा। उन्होंने कहा कि जब आप को सभी छोड़ दें, कोई भी आप की मदद करने वाला न हो, तब भी कविता अपनी समूची ताकत और संभावना के साथ आप के साथ होगी। असगर साहब ने कहा कि कविता समानांतर समाज बनाती है, वह समाज को दिशा देने, उसे विकसित करने का काम करती है। वीरेन डंगवाल ने कहा कि बीते सालों में कविता का जनतांत्रीकरण हुआ है और बहुत से नए कवि सामने आये हैं। सुभाष राय और बंधीधर मिश्र ने कुछ खतरों की ओर संकेत किया और कविताप्रेमियों और आलोचकों को आगाह करने की कोशिश की। राय का मानना था कि बहुत सारे नकली या अखबारी अनुभवों पर कविताएं लिखी जा रहीं हैं। कवि वहां उपस्थित नहीं है, जहाँ से वह रचना का कथ्य उठाता है। अनुभव की प्रामाणिकता के अभाव में कविता भी संदेह के घेरे में है। कवि सम्मान, पुरस्कार के पीछे भाग रहा है, अच्छी कविताएं भी आ रहीं हैं लेकिन खराब कविताएं ज्यादा आ रहीं हैं। मिश्र ने धूमिल के उद्घरण देते हुए कहा कि कविताएं सार्थक वक्तव्य होने की जगह केवल वक्तव्य हो जाएँ तो वे अपना प्रभाव खो देंगी। उन्होंने दृष्टिसम्पन्नता के अभाव की ओर संकेत किया।
मधु जोशी ने विस्तार से रीता भदौरिया के संघर्ष और संवेदनात्मक विकास की चर्चा की और उनकी कविताओं को सराहा। जोशी ने कहा कि रीता की कविताओं में विचारों की निरंतरता है। अशोक चक्रधर ने रीता के संग्रह से कुछ कविताओं का पाठ किया और उनमें एक वृहत्तर संभावना की चर्चा करते हुए कहा कि पुस्तक पर अलग से बात होनी चाहिए। इस मौके पर कवयित्री रीता ने स्वयं की रचना प्रकिया के बारे में बताया और कहा कि उन्होंने जीवन में काफी उतार-चढ़ाव देखे हैं। अपने विभाग के कामकाज के सिलसिले में ऐसे लोग भी देखे हैं जिनके पास दो वक्त की रोटी का इंतजाम नहीं है और ऐसे लोग भी, जिनके पास अपनी संपत्ति को ठिकाने लगाने का तरीका नहीं सूझ रहा। उन्होंने विकास का भ्रम और अंतिम पड़ाव, अपने कविता संग्रह से दो कविताएं पढ़कर सुनाई। गोष्ठी का संचालन जाने-माने रंगकर्मी और पत्रकार अनिल शुक्ल ने किया।
हिन्दी की कवयित्री रीता भदौरिया के दूसरे काव्य संग्रह 'पानी में गाँठ' के लोकार्पण का अवसर। दिल्ली में भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद के सभागार में राजधानी की नामचीन अदबी और शहाफी शख्सीयतों की मौजदगी में रीता की कविताओं पर चर्चा हुई और कविता और समाज पर भी। रीता के संवेदन और उनकी रचना प्रतिभा में वक्ताओं को प्रचुर संभावना दिखी। सदारत कर रहे थे हिन्दी के बड़े कवि प्रयाग शुक्ल। अध्यक्षीय संबोधन में उन्होंने समय की कमी और विमर्श से उपजे उत्तेजनात्मक तनाव के बीच से निकलने की सधी हुई कोशिश की पर समय पर तनाव भारी रहा। संक्षिप्ति की वकालत के बावजूद विस्तार से बचना उन जैसे बड़े साहित्यकार के लिए भी संभव नहीं हो सका और सच तो यह है कि यही श्रोताओं के लिए आनंददायक रहा। वे चिंतित थे कि खराब और अच्छी कविता की बात की गयी, वे चिंतित थे कि कलावाद पर आक्षेप किया गया। उन्होंने जवाब भी दिया, बहुत स्पष्ट और साफ सुथरा, कलावाद कोई बुरी चीज नहीं है, मैं स्वयं कलावादी हूँ। कला लोक से ही जन्मती है, लोक के साथ ही आगे बढ़ती है। न तो कविता के पाठक कम हुए हैं, न ही अच्छी कविताएं। सारे देश में घूमा हूँ मैं, हर जगह कविता लिखने वाले, उसके प्रशंसक मिले हैं। मैं कविता को अच्छी या बुरी कविता के रूप में नहीं देखता हूँ, मेरे लिए कविता सिर्फ अच्छी होती है, कोई ज्यादा अच्छी, कोई कम अच्छी।
इस मौके पर प्रयाग शुक्ल के अलावा असगर वजाहत, वीरेन डंगवाल, अशोक चक्रधर, आलोक पुराणिक, कमर वहीद नकवी, राम कृपाल सिंह, प्रभात कुमार राय, प्रो. जय प्रकाश द्विवेदी, कुलदीप तलवार, कुलदीप कुमार, राम बहादुर राय, सुभाष राय, वंशीधर मिश्र, मिथिलेश कुमार सिंह, मधु जोशी आदि मौजूद थे। दिल्ली के हिन्दी पत्रकारों का भी बड़ा जमावड़ा था। असगर वजाहत ने कविता के महत्व का प्रतिपादन करते हुए उसे जीवन और समाज के परिष्कार का सबसे बड़ा औजार कहा। उन्होंने कहा कि जब आप को सभी छोड़ दें, कोई भी आप की मदद करने वाला न हो, तब भी कविता अपनी समूची ताकत और संभावना के साथ आप के साथ होगी। असगर साहब ने कहा कि कविता समानांतर समाज बनाती है, वह समाज को दिशा देने, उसे विकसित करने का काम करती है। वीरेन डंगवाल ने कहा कि बीते सालों में कविता का जनतांत्रीकरण हुआ है और बहुत से नए कवि सामने आये हैं। सुभाष राय और बंधीधर मिश्र ने कुछ खतरों की ओर संकेत किया और कविताप्रेमियों और आलोचकों को आगाह करने की कोशिश की। राय का मानना था कि बहुत सारे नकली या अखबारी अनुभवों पर कविताएं लिखी जा रहीं हैं। कवि वहां उपस्थित नहीं है, जहाँ से वह रचना का कथ्य उठाता है। अनुभव की प्रामाणिकता के अभाव में कविता भी संदेह के घेरे में है। कवि सम्मान, पुरस्कार के पीछे भाग रहा है, अच्छी कविताएं भी आ रहीं हैं लेकिन खराब कविताएं ज्यादा आ रहीं हैं। मिश्र ने धूमिल के उद्घरण देते हुए कहा कि कविताएं सार्थक वक्तव्य होने की जगह केवल वक्तव्य हो जाएँ तो वे अपना प्रभाव खो देंगी। उन्होंने दृष्टिसम्पन्नता के अभाव की ओर संकेत किया।
मधु जोशी ने विस्तार से रीता भदौरिया के संघर्ष और संवेदनात्मक विकास की चर्चा की और उनकी कविताओं को सराहा। जोशी ने कहा कि रीता की कविताओं में विचारों की निरंतरता है। अशोक चक्रधर ने रीता के संग्रह से कुछ कविताओं का पाठ किया और उनमें एक वृहत्तर संभावना की चर्चा करते हुए कहा कि पुस्तक पर अलग से बात होनी चाहिए। इस मौके पर कवयित्री रीता ने स्वयं की रचना प्रकिया के बारे में बताया और कहा कि उन्होंने जीवन में काफी उतार-चढ़ाव देखे हैं। अपने विभाग के कामकाज के सिलसिले में ऐसे लोग भी देखे हैं जिनके पास दो वक्त की रोटी का इंतजाम नहीं है और ऐसे लोग भी, जिनके पास अपनी संपत्ति को ठिकाने लगाने का तरीका नहीं सूझ रहा। उन्होंने विकास का भ्रम और अंतिम पड़ाव, अपने कविता संग्रह से दो कविताएं पढ़कर सुनाई। गोष्ठी का संचालन जाने-माने रंगकर्मी और पत्रकार अनिल शुक्ल ने किया।
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शेष नारायण सिंह
Wednesday, December 7, 2011
संसद में हंगामा करना सबसे कमज़ोर तरीका है संसदीय काम का
शेष नारायण सिंह
संसद के मौजूदा शीतकालीन सत्र में अभी तक कोई ख़ास काम नहीं हो सका है .लगभग आधा सत्र बीत चुका है. इस सत्र में संसद को लोकपाल बिल पास करना है. पिछले सत्र में लोकसभा ने संकल्प लिया था और यह माना जा रहा था कि शीतकालीन सत्र में लोकपाल बिल को कानून की शक्ल दे दी जायेगी. अब तक के संकेत से तो यही लगता है कि वह एक टेढ़ी खीर है जो भी दो चार मिनट संसद की कार्यवाही चलती है उसको देख कर लगता है कि आजकल यह रिवाज़ हो गया है क संसद सदस्य हर उस मसले को हल्ला गुल्ला करके ही सरकार की नज़र में ला सकते हैं जिस से वे चिंतित हैं . इस सत्र में बीजेपी और वामपंथी पार्टियों वाले तो मूल रूप से खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजी के निवेश के मुद्दे पर हंगामा कर रहे हैं जबकि अन्य पार्टियों के लोग अलग अलग मुद्दों पर संसद का काम शुरू होते ही हल्ला गुल्ला शुरू कर देते हैं . अजीब बात है कि कांग्रेस वाले भी तेलंगाना राज्य के मुद्दे पर सरकार के सामने अपनी बात रखने के लिए संसद में शोरगुल का रास्ता ही अपना रहे हैं जबकि सत्ता पक्ष की पार्टी होने के नाते उनके सामने बहुत सारे विकल्प मौजूद हैं . यह बात समझ में नहीं आती कि जब संसद के सदस्य के रूप में राजनीतिक नेताओं के सामने सरकार को घेरने के बहुत सारे विकल्प मौजूद हैं तो सदन की कार्यवाही में बाधा डालने के तरीके को अपनाने का औचित्य क्या है .देखा यह जा रहा है कि संसद में हल्ला गुल्ला करके सदस्यगण अपनी बात कहने के बहुमूल्य अवसर गँवा रहे हैं .
कुछ संसद सदस्यों से बातचीत हुई तो लगा कि वे सरकार की मनमानी से दुखी होकर संसद का काम नहीं चलने दे रहे हैं . यह बात बिलकुल तर्कसंगत नहीं है . अगर संसद सदस्य चाहे तो उसके पास सरकार को घेरने के इतने साधन हैं कि कोई भी सरकार मनमानी नहीं कर सकती.यह तो वह सरकार है जिसमें बहुत सारी राजनीतिक पार्टियां शामिल हैं . सरकार में शामिल पार्टियों के आपस में भी खूब मतभेद हैं . खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजी के निवेश के ही मसले पर सरकार में शामिल तृणमूल कांग्रेस और डी एम के खुले आम सरकार के खिलाफ बोल रहे हैं जबकि सरकार को भाहर से समर्थन दे रही समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी भी इस विषय पर सरकार के पक्ष में नहीं हैं . इसके बावजूद भी विपक्ष हल्ला करके अपनी बात को जनता तक पंहुचाने की कोशिश कर रहा है . हो सकता है आज का विपक्ष उसी को सही मानता हो लेकिन इसी लोकसभा में विपक्ष ने ऐसे ऐसे काम किये हैं कि दुनिया की कोई भी संसद उनसे प्रेरणा ले सकती है . १९७१ के लोकसभा चुनावों के बाद इंदिरा गाँधी की सरकार बनी थी . उनके पास बहुत ही मज़बूत बहुमत था. तो तिहाई से ज्यादा बहुमत वाली सरकारें कुछ भी कर सकती हैं ,संविधान में संशोधन तक कर सकती हैं लेकिन पांचवीं लोक सभा के आधा दर्जन सदस्यों ने इंदिरा गांधी की सरकार को सदन में हमेशा घेर कर रखा. इन छः सदस्यों के काम के तरीके को आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा के रूप में लेना चाहिए. इनमें से अटल बिहारी वाजपेयी के अलावा अब कोई जीवित नहीं हैं लेकिन मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के ज्योतिर्मय बसु,संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के मधु लिमये और मधु दंडवते, जनसंघ के अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय लोक दल के पीलू मोदी और कांग्रेस ( ओ ) के श्याम नंदन मिश्र की मौजूदगी में इंदिरा गाँधी की सरकार का हर वह फैसला चुनौती के रास्ते से गुज़रता था जिसे इन सदस्यों ने जनहित की अनदेखी का फैसला माना . आज तो लोकसभा की कार्यवाही लाइव दिखाई जाती है , हर पल की जानकारी देश के कोने कोने में पंहुचती है . चौबीस घंटों का टेलिविज़न समाचार है , बहुत सारे अखबार हैं जो नेताओं की हर अच्छाई को जनता तक दिन रात पंहुचा रहे हैं लेकिन उन दिनों ऐसा नहीं था. समाचार के श्रोत के रूप में टेलिविज़न का विकास नहीं हुआ था , रेडियो सरकारी था . जनता को ख़बरों के लिए कुछ अखबारों पर निर्भर रहना पड़ता था. आज तो हर बड़े शहर से अखबार छपते हैं , उन दिनों ऐसा नहीं था. इतने अखबार भी नहीं छपते थे लेकिन संसद की इन विभूतियों के काम की हनक पूरे देश में महसूस की जाती थी. बहुत साल बाद जब मधु लिमये से इसके कारणों के बारे में पूछा गया तो उन्होंने बताया कि उन दिनों संसद सदस्य बहुत सारा वक़्त संसद की लाइब्रेरी में बिताते थे जिसके कारण उनके पास हर तरह की सूचना होती थी. लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि आज ऐसा नहीं है .
संसद के सदस्य के रूप में नेताओं के पास ऐसे बहुत सारे साधन हैं कि वे सरकार को किसी भी फैसले में मनमानी से रोक सकते हैं . आजकल तो लोकसभा की कार्यवाही लाइव दिखाई जाती है जिसके कारण सदस्यों की प्रतिभा को पूरा देश देख सकता है और राजनीतिक बिरादरी के बारे में ऊंची राय बन सकती है . अगर सरकार को जनविरोधी मानते हैं तो उसके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाकर सरकार की छुट्टी करने तक का प्रावधान संसद के नियमों में है लेकिन उसके लिए सदस्यों पूरी तैयारी के साथ ही सदन में आना पड़ेगा. संसद के सदस्य के रूप में नेताओं के पास जो अवसर उपलब्ध हैं उन पर एक नज़र डालना दिलचस्प होगा.
सबसे महत्वपूर्ण तो प्रश्न काल ही है .लोकसभा की कार्यवाही के लिए जो नियम बनाए गए हैं उनमें नियम ३२ से लेकर ५४ तक प्रश्नों के बारे में हैं . सदन की कार्यवाही का पहला घंटा प्रश्न काल के रूप में जाना जाता है और इसमें हर तरह के सवाल कर सकते हैं . कुछ सवाल तो मौखिक उत्तर के लिए होते हैं सदन के अंदर सम्बंधित मंत्री को सदस्यों के सवालों का जवाब देना पड़ता है . मंत्री से बाकायदा पूरक प्रश्न पूछे जा सकते हैं , हर सदस्य किसी भी सवाल पर स्पष्टीकरण मांग सकता है और सरकार के सामने गोल मोल जवाब देने के विकल्प बहुत कम होते हैं ..मौखिक प्रशनों के अलावा बहुत सारे पश्न ऐसे होते हैं जिनका जवाब लिखित रूप में सरकार की तरफ से दिया जाता है . अगर सरकार की ओर से लिखित जवाब में कोई बात स्पष्ट नहीं होती तो सदस्य के पास नियम ५५ के तहत आधे घंटे की चर्चा के लिए नोटिस देने का अधिकार होता है . अध्यक्ष महोदय की अनुमति से आधे घंटे की चर्चा में सरकार से स्पष्टीकरण माँगा जा सकता है .सरकार की नीयत पर लगाम लगाए रखने के लिए विपक्ष के पास नियम ५६ से ६३ के तहत काम रोको प्रस्ताव का रास्ता खुला होता है . अगर कोई मामला अर्जेंट है और जनहित में है तो अध्यक्ष महोदय की अनुमति से काम रोको प्रस्ताव लाया जा सकता है . इस प्रस्ताव पर बहस के बाद वोट डाले जाते हैं और अगर सरकार के खिलाफ काम रोको प्रस्ताव पास हो जाता है तो इसे सरकार के खिलाफ निंदा का प्रस्ताव माना जाता है . देखा यह गया है कि सरकारें काम रोको प्रस्ताव से बचना चाहती हैं इसलिए इस प्रस्ताव के रास्ते में बहुत सारी अड़चन रहती है . बहरहाल सरकार के काम काज पर नज़र रखने के लिए काम रोको प्रस्ताव विपक्ष के हाथ में सबसे मज़बूत हथियार है . इसके अलावा नियम १७१ के तहत सदन के विचार के लिए एक प्रस्ताव लाया जा सकता है जो सदस्य की राय हो सकती है ,कोई सुझाव हो सकता है या सरकार की किसी नीति या किसी काम .की आलोचना हो सकती है . इसके ज़रिये सरकार को सही काम करने के लिए सुझाव दिया जा सकता है ,उस से आग्रह किया जा सकता है . ध्यान आकर्षण करने लिए बनाए गए लोक सभा के नियम १७० से १८३ के अंतर्गत जनहित के लगभग सभी मामले उठाये जा सकते हैं .
विपक्ष के हाथ में लोक सभा के नियम १८४ से लेकर १९२ तक की ताक़त भी है . इन नियमों के अनुसार कोई भी सदस्य किसी राष्ट्रीय हित के मसले पर सरकार के खिलाफ प्रस्ताव पेश कर सकता है . नियम १८६ में उन मुद्दों का विस्तार से वर्णन किया गया है जो बहस के लिए उठाये जा सकते हैं . इन नियमों के तहत होने वाली चर्चा के अंत में वोट डाले जाते हैं इसलिए यह सरकार के लिए खासी मुश्किल पैदा कर सकते हैं . लोकसभा में अध्यक्ष की अनुमति के बिना कोई भी बहस नहीं हो सकते ए, वह नियम इस बहस में भी लागू होते हैं . इसके अलावा लोकसभा के नियम १९३ से १९६ के तहत जनहित के किसी मुद्दे पर लघु अवधि की चर्चा की नोटिस दी जा सकती है . इस नियम के तहत होने वाली बहस के बाद वोट नहीं डाले जाते लेकिन जब सब कुछ पूरा देश टेलिविज़न के ज़रिये लाइव देख रहा है तो सरकार और सांसदों की मंशा तो जनता की अदालत में साफ़ नज़र आती ही रहती है .नियम १९७ के अंतर्गत संसद सदस्य , सरकार या किसी मंत्री का ध्यान आकर्षित करने के लिए ध्यानाकर्षण प्रस्ताव ला सकते हैं . पहले ध्यानाकर्षण प्रस्ताव की चर्चा आखबारों में खूब पढी जाती थी लेकिन आजकल ऐसा बहुत कम होता है .
विपक्ष के पास लोकसभा में सबसे बड़ा हथियार नियम १९८ के तहत सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव है . इस प्रस्ताव के तहत सरकारें गिराई जा सकती हैं . विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार इसी प्रस्ताव के बाद गिरी थी.इस तरह से हम देखते हैं कि संसद सदस्यों के पास सरकार से जनहित और राष्ट्रहित के काम कवाने के लिए बहुत सारे तरीके उपलब्ध हैं लेकिन उसके बाद भी जब इस देश की एक अरब से ज़्यादा आबादी के प्रतिनधि शोरगुल के ज़रिये अपनी ड्यूटी करने को प्राथमिकता देते हैं तो निराशा होती है
संसद के मौजूदा शीतकालीन सत्र में अभी तक कोई ख़ास काम नहीं हो सका है .लगभग आधा सत्र बीत चुका है. इस सत्र में संसद को लोकपाल बिल पास करना है. पिछले सत्र में लोकसभा ने संकल्प लिया था और यह माना जा रहा था कि शीतकालीन सत्र में लोकपाल बिल को कानून की शक्ल दे दी जायेगी. अब तक के संकेत से तो यही लगता है कि वह एक टेढ़ी खीर है जो भी दो चार मिनट संसद की कार्यवाही चलती है उसको देख कर लगता है कि आजकल यह रिवाज़ हो गया है क संसद सदस्य हर उस मसले को हल्ला गुल्ला करके ही सरकार की नज़र में ला सकते हैं जिस से वे चिंतित हैं . इस सत्र में बीजेपी और वामपंथी पार्टियों वाले तो मूल रूप से खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजी के निवेश के मुद्दे पर हंगामा कर रहे हैं जबकि अन्य पार्टियों के लोग अलग अलग मुद्दों पर संसद का काम शुरू होते ही हल्ला गुल्ला शुरू कर देते हैं . अजीब बात है कि कांग्रेस वाले भी तेलंगाना राज्य के मुद्दे पर सरकार के सामने अपनी बात रखने के लिए संसद में शोरगुल का रास्ता ही अपना रहे हैं जबकि सत्ता पक्ष की पार्टी होने के नाते उनके सामने बहुत सारे विकल्प मौजूद हैं . यह बात समझ में नहीं आती कि जब संसद के सदस्य के रूप में राजनीतिक नेताओं के सामने सरकार को घेरने के बहुत सारे विकल्प मौजूद हैं तो सदन की कार्यवाही में बाधा डालने के तरीके को अपनाने का औचित्य क्या है .देखा यह जा रहा है कि संसद में हल्ला गुल्ला करके सदस्यगण अपनी बात कहने के बहुमूल्य अवसर गँवा रहे हैं .
कुछ संसद सदस्यों से बातचीत हुई तो लगा कि वे सरकार की मनमानी से दुखी होकर संसद का काम नहीं चलने दे रहे हैं . यह बात बिलकुल तर्कसंगत नहीं है . अगर संसद सदस्य चाहे तो उसके पास सरकार को घेरने के इतने साधन हैं कि कोई भी सरकार मनमानी नहीं कर सकती.यह तो वह सरकार है जिसमें बहुत सारी राजनीतिक पार्टियां शामिल हैं . सरकार में शामिल पार्टियों के आपस में भी खूब मतभेद हैं . खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजी के निवेश के ही मसले पर सरकार में शामिल तृणमूल कांग्रेस और डी एम के खुले आम सरकार के खिलाफ बोल रहे हैं जबकि सरकार को भाहर से समर्थन दे रही समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी भी इस विषय पर सरकार के पक्ष में नहीं हैं . इसके बावजूद भी विपक्ष हल्ला करके अपनी बात को जनता तक पंहुचाने की कोशिश कर रहा है . हो सकता है आज का विपक्ष उसी को सही मानता हो लेकिन इसी लोकसभा में विपक्ष ने ऐसे ऐसे काम किये हैं कि दुनिया की कोई भी संसद उनसे प्रेरणा ले सकती है . १९७१ के लोकसभा चुनावों के बाद इंदिरा गाँधी की सरकार बनी थी . उनके पास बहुत ही मज़बूत बहुमत था. तो तिहाई से ज्यादा बहुमत वाली सरकारें कुछ भी कर सकती हैं ,संविधान में संशोधन तक कर सकती हैं लेकिन पांचवीं लोक सभा के आधा दर्जन सदस्यों ने इंदिरा गांधी की सरकार को सदन में हमेशा घेर कर रखा. इन छः सदस्यों के काम के तरीके को आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा के रूप में लेना चाहिए. इनमें से अटल बिहारी वाजपेयी के अलावा अब कोई जीवित नहीं हैं लेकिन मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के ज्योतिर्मय बसु,संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के मधु लिमये और मधु दंडवते, जनसंघ के अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय लोक दल के पीलू मोदी और कांग्रेस ( ओ ) के श्याम नंदन मिश्र की मौजूदगी में इंदिरा गाँधी की सरकार का हर वह फैसला चुनौती के रास्ते से गुज़रता था जिसे इन सदस्यों ने जनहित की अनदेखी का फैसला माना . आज तो लोकसभा की कार्यवाही लाइव दिखाई जाती है , हर पल की जानकारी देश के कोने कोने में पंहुचती है . चौबीस घंटों का टेलिविज़न समाचार है , बहुत सारे अखबार हैं जो नेताओं की हर अच्छाई को जनता तक दिन रात पंहुचा रहे हैं लेकिन उन दिनों ऐसा नहीं था. समाचार के श्रोत के रूप में टेलिविज़न का विकास नहीं हुआ था , रेडियो सरकारी था . जनता को ख़बरों के लिए कुछ अखबारों पर निर्भर रहना पड़ता था. आज तो हर बड़े शहर से अखबार छपते हैं , उन दिनों ऐसा नहीं था. इतने अखबार भी नहीं छपते थे लेकिन संसद की इन विभूतियों के काम की हनक पूरे देश में महसूस की जाती थी. बहुत साल बाद जब मधु लिमये से इसके कारणों के बारे में पूछा गया तो उन्होंने बताया कि उन दिनों संसद सदस्य बहुत सारा वक़्त संसद की लाइब्रेरी में बिताते थे जिसके कारण उनके पास हर तरह की सूचना होती थी. लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि आज ऐसा नहीं है .
संसद के सदस्य के रूप में नेताओं के पास ऐसे बहुत सारे साधन हैं कि वे सरकार को किसी भी फैसले में मनमानी से रोक सकते हैं . आजकल तो लोकसभा की कार्यवाही लाइव दिखाई जाती है जिसके कारण सदस्यों की प्रतिभा को पूरा देश देख सकता है और राजनीतिक बिरादरी के बारे में ऊंची राय बन सकती है . अगर सरकार को जनविरोधी मानते हैं तो उसके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाकर सरकार की छुट्टी करने तक का प्रावधान संसद के नियमों में है लेकिन उसके लिए सदस्यों पूरी तैयारी के साथ ही सदन में आना पड़ेगा. संसद के सदस्य के रूप में नेताओं के पास जो अवसर उपलब्ध हैं उन पर एक नज़र डालना दिलचस्प होगा.
सबसे महत्वपूर्ण तो प्रश्न काल ही है .लोकसभा की कार्यवाही के लिए जो नियम बनाए गए हैं उनमें नियम ३२ से लेकर ५४ तक प्रश्नों के बारे में हैं . सदन की कार्यवाही का पहला घंटा प्रश्न काल के रूप में जाना जाता है और इसमें हर तरह के सवाल कर सकते हैं . कुछ सवाल तो मौखिक उत्तर के लिए होते हैं सदन के अंदर सम्बंधित मंत्री को सदस्यों के सवालों का जवाब देना पड़ता है . मंत्री से बाकायदा पूरक प्रश्न पूछे जा सकते हैं , हर सदस्य किसी भी सवाल पर स्पष्टीकरण मांग सकता है और सरकार के सामने गोल मोल जवाब देने के विकल्प बहुत कम होते हैं ..मौखिक प्रशनों के अलावा बहुत सारे पश्न ऐसे होते हैं जिनका जवाब लिखित रूप में सरकार की तरफ से दिया जाता है . अगर सरकार की ओर से लिखित जवाब में कोई बात स्पष्ट नहीं होती तो सदस्य के पास नियम ५५ के तहत आधे घंटे की चर्चा के लिए नोटिस देने का अधिकार होता है . अध्यक्ष महोदय की अनुमति से आधे घंटे की चर्चा में सरकार से स्पष्टीकरण माँगा जा सकता है .सरकार की नीयत पर लगाम लगाए रखने के लिए विपक्ष के पास नियम ५६ से ६३ के तहत काम रोको प्रस्ताव का रास्ता खुला होता है . अगर कोई मामला अर्जेंट है और जनहित में है तो अध्यक्ष महोदय की अनुमति से काम रोको प्रस्ताव लाया जा सकता है . इस प्रस्ताव पर बहस के बाद वोट डाले जाते हैं और अगर सरकार के खिलाफ काम रोको प्रस्ताव पास हो जाता है तो इसे सरकार के खिलाफ निंदा का प्रस्ताव माना जाता है . देखा यह गया है कि सरकारें काम रोको प्रस्ताव से बचना चाहती हैं इसलिए इस प्रस्ताव के रास्ते में बहुत सारी अड़चन रहती है . बहरहाल सरकार के काम काज पर नज़र रखने के लिए काम रोको प्रस्ताव विपक्ष के हाथ में सबसे मज़बूत हथियार है . इसके अलावा नियम १७१ के तहत सदन के विचार के लिए एक प्रस्ताव लाया जा सकता है जो सदस्य की राय हो सकती है ,कोई सुझाव हो सकता है या सरकार की किसी नीति या किसी काम .की आलोचना हो सकती है . इसके ज़रिये सरकार को सही काम करने के लिए सुझाव दिया जा सकता है ,उस से आग्रह किया जा सकता है . ध्यान आकर्षण करने लिए बनाए गए लोक सभा के नियम १७० से १८३ के अंतर्गत जनहित के लगभग सभी मामले उठाये जा सकते हैं .
विपक्ष के हाथ में लोक सभा के नियम १८४ से लेकर १९२ तक की ताक़त भी है . इन नियमों के अनुसार कोई भी सदस्य किसी राष्ट्रीय हित के मसले पर सरकार के खिलाफ प्रस्ताव पेश कर सकता है . नियम १८६ में उन मुद्दों का विस्तार से वर्णन किया गया है जो बहस के लिए उठाये जा सकते हैं . इन नियमों के तहत होने वाली चर्चा के अंत में वोट डाले जाते हैं इसलिए यह सरकार के लिए खासी मुश्किल पैदा कर सकते हैं . लोकसभा में अध्यक्ष की अनुमति के बिना कोई भी बहस नहीं हो सकते ए, वह नियम इस बहस में भी लागू होते हैं . इसके अलावा लोकसभा के नियम १९३ से १९६ के तहत जनहित के किसी मुद्दे पर लघु अवधि की चर्चा की नोटिस दी जा सकती है . इस नियम के तहत होने वाली बहस के बाद वोट नहीं डाले जाते लेकिन जब सब कुछ पूरा देश टेलिविज़न के ज़रिये लाइव देख रहा है तो सरकार और सांसदों की मंशा तो जनता की अदालत में साफ़ नज़र आती ही रहती है .नियम १९७ के अंतर्गत संसद सदस्य , सरकार या किसी मंत्री का ध्यान आकर्षित करने के लिए ध्यानाकर्षण प्रस्ताव ला सकते हैं . पहले ध्यानाकर्षण प्रस्ताव की चर्चा आखबारों में खूब पढी जाती थी लेकिन आजकल ऐसा बहुत कम होता है .
विपक्ष के पास लोकसभा में सबसे बड़ा हथियार नियम १९८ के तहत सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव है . इस प्रस्ताव के तहत सरकारें गिराई जा सकती हैं . विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार इसी प्रस्ताव के बाद गिरी थी.इस तरह से हम देखते हैं कि संसद सदस्यों के पास सरकार से जनहित और राष्ट्रहित के काम कवाने के लिए बहुत सारे तरीके उपलब्ध हैं लेकिन उसके बाद भी जब इस देश की एक अरब से ज़्यादा आबादी के प्रतिनधि शोरगुल के ज़रिये अपनी ड्यूटी करने को प्राथमिकता देते हैं तो निराशा होती है
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शेष नारायण सिंह,
संसद में हंगामा करना,
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Tuesday, December 6, 2011
एक मनु की औकात नहीं कि वह जाति व्यवस्था की स्थापना कर दे
शेष नारायण सिंह
डा.अंबेडकर के 55वे निर्वाण दिवस के मौके पर ज़रूरी है कि उनकी सोच और दर्शन के सबसे अहम पहलू पर गौर किया जाए. सब को मालूम है कि डा. अंबेडकर के दर्शन ने २० वीं सदी के भारत के राजनीतिक आचरण को बहुत ज्यादा प्रभावित किया था . लेकिन उनके दर्शन की सबसे ख़ास बात पर जानकारी की भारी कमी है. यह बात कई बार कही जा चुकी है कि उनके नाम पर राजनीति करने वालों को इतना तो मालूम है कि बाबा साहेब जाति व्यवस्था के खिलाफ थे लेकिन बाकी चीजों पर ज़्यादातर लोग अन्धकार में हैं. उन्हीं कुछ बातों का ज़िक्र करना आज के दिन सही रहेगा. डा. अंबेडकर को इतिहास एक ऐसे राजनीतिक चिन्तक के रूप में याद रखेगा जिन्होंने जाति के विनाश को सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन की बुनियाद माना था. यह बात किसी से छुपी नहीं है कि उनकी राजनीतिक विरासत का सबसे ज्यादा फायदा उठाने वाली पार्टी की नेता, आज जाति की संस्था को संभाल कर रखना चाहती हैं ,उसके विनाश में उनकी कोई रूचि नहीं है . वोट बैंक राजनीति के चक्कर में पड़ गयी अंबेडकरवादी पार्टियों को अब वास्तव में इस बात की चिंता सताने लगी है कि अगर जाति का विनाश हो जाएगा तो उनकी वोट बैंक की राजनीति का क्या होगा. डा अंबेडकर की राजनीतिक सोच को लेकर कुछ और भ्रांतियां भी हैं . कांशीराम और मायावती ने इस क़दर प्रचार कर रखा है कि जाति की पूरी व्यवस्था का ज़हर मनु ने ही फैलाया था, वही इसके संस्थापक थे और मनु की सोच को ख़त्म कर देने मात्र से सब ठीक हो जाएगा. लेकिन बाबा साहेब ऐसा नहीं मानते थे . उनके एक बहुचर्चित, और अकादमिक भाषण के हवाले से कहा जा सकता है कि जाति व्यवस्था की सारी बुराइयों को लिए मनु को ही ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता .मनु के बारे में उन्होंने कहा कि अगर कभी मनु रहे भी होंगें तो बहुत ही हिम्मती रहे होंगें . डा. अंबेडकर का कहना है कि ऐसा कभी नहीं होता कि जाति जैसा शिकंजा कोई एक व्यक्ति बना दे और बाकी पूरा समाज उसको स्वीकार कर ले. उनके अनुसार इस बात की कल्पना करना भी बेमतलब है कि कोई एक आदमी कानून बना देगा और पीढियां दर पीढियां उसको मानती रहेंगीं. . हाँ इस बात की कल्पना की जा सकती है कि मनु नाम के कोई तानाशाह रहे होंगें जिनकी ताक़त के नीचे पूरी आबादी दबी रही होगी और वे जो कह देंगे ,उसे सब मान लेंगें और उन लोगों की आने वाली नस्लें भी उसे मानती रहेंगी.उन्होंने कहा कि , मैं इस बात को जोर दे कर कहना चाहता हूँ कि मनु ने जाति की व्यवस्था की स्थापना नहीं की क्योंकि यह उनके बस की बात नहीं था. . मनु के जन्म के पहले भी जाति की व्यवस्था कायम थी. . मनु का योगदान बस इतना है कि उन्होंने इसे एक दार्शनिक आधार दिया. . जहां तक हिन्दू समाज के स्वरुप और उसमें जाति के मह्त्व की बात है, वह मनु की हैसियत के बाहर था और उन्होंने वर्तमान हिन्दू समाज की दिशा तय करने में कोई भूमिका नहीं निभाई. उनका योगदान बस इतना ही है उन्होंने जाति को एक धर्म के रूप में स्थापित करने की कोशिश की . जाति का दायरा इतना बड़ा है कि उसे एक आदमी, चाहे वह जितना ही बड़ा ज्ञाता या शातिर हो, संभाल ही नहीं सकता. . इसी तरह से यह कहना भी ठीक नहीं होगा कि ब्राह्मणों ने जाति की संस्था की स्थापना की. मेरा मानना है कि ब्राह्मणों ने बहुत सारे गलत काम किये हैं लेकिन उनकी औक़ात यह कभी नहीं थी कि वे पूरे समाज पर जाति व्यवस्था को थोप सकते. . हिन्दू समाज में यह धारणा आम है कि के जाति की संस्था का आविष्कार शास्त्रों ने किया और शास्त्र तो कभी गलत हो नहीं सकते. बाबा साहेब ने अपने इसी भाषण में एक चेतावनी और दी थी कि उपदेश देने से जाति की स्थापना नहीं हुई थी और इसको ख़त्म भी उपदेश के ज़रिये नहीं किया जा सकता.. यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना ज़रूरी है अपने इन विचारों के बावजूद भी , डा अंबेडकर ने समाज सुधारकों के खिलाफ कोई बात नहीं कही. ज्योतिबा फुले का वे हमेशा सम्मान करते रहे. . हाँ उन्हें यह पूरा विश्वास था कि जाति प्रथा को किसी महापुरुष से जोड़ कर उसकी तार्किक परिणति तक नहीं ले जाया जा सकता.
डा अंबेडकर के अनुसार हर समाज का वर्गीकरण और उप वर्गीकरण होता है लेकिन परेशानी की बात यह है कि इस वर्गीकरण के चलते वह ऐसे सांचों में फिट हो जाता है कि एक दूसरे वर्ग के लोग इसमें न अन्दर जा सकते हैं और न बाहर आ सकते हैं . यही जाति का शिकंजा है और इसे ख़त्म किये बिना कोई तरक्की नहीं हो सकती. सच्ची बात यह है कि शुरू में अन्य समाजों की तरह हिन्दू समाज भी चार वर्गों में बंटा हुआ था . ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र . यह वर्गीकरण मूल रूप से जन्म के आधार पर नहीं था, यह कर्म के आधार पर था .एक वर्ग से दूसरे वर्ग में आवाजाही थी लेकिन हज़ारों वर्षों की निहित स्वार्थों कोशिश के बाद इसे जन्म के आधार पर कर दिया गया और एक दूसरे वर्ग में आने जाने की रीति ख़त्म हो गयी. और यही जाति की संस्था के रूप में बाद के युगों में पहचाना जाने लगा. . अगर आर्थिक विकास की गति को तेज़ किया जाय और उसमें सार्थक हस्तक्षेप करके कामकाज के बेहतर अवसर उपलब्ध कराये जाएँ तो जाति व्यवस्था को जिंदा रख पाना बहुत ही मुश्किल होगा. और जाति के सिद्धांत पर आधारित व्यवस्था का बच पाना बहुत ही मुश्किल होगा.. अगर ऐसा हुआ तो जाति के विनाश के ज्योतिब अफुले, डा. राम मनोहर लोहिया और डा. अम्बेडकर की राजनीतिक और सामाजिक सोच और दर्शन का मकसद हासिल किया जा सकेगा..
डा.अंबेडकर के 55वे निर्वाण दिवस के मौके पर ज़रूरी है कि उनकी सोच और दर्शन के सबसे अहम पहलू पर गौर किया जाए. सब को मालूम है कि डा. अंबेडकर के दर्शन ने २० वीं सदी के भारत के राजनीतिक आचरण को बहुत ज्यादा प्रभावित किया था . लेकिन उनके दर्शन की सबसे ख़ास बात पर जानकारी की भारी कमी है. यह बात कई बार कही जा चुकी है कि उनके नाम पर राजनीति करने वालों को इतना तो मालूम है कि बाबा साहेब जाति व्यवस्था के खिलाफ थे लेकिन बाकी चीजों पर ज़्यादातर लोग अन्धकार में हैं. उन्हीं कुछ बातों का ज़िक्र करना आज के दिन सही रहेगा. डा. अंबेडकर को इतिहास एक ऐसे राजनीतिक चिन्तक के रूप में याद रखेगा जिन्होंने जाति के विनाश को सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन की बुनियाद माना था. यह बात किसी से छुपी नहीं है कि उनकी राजनीतिक विरासत का सबसे ज्यादा फायदा उठाने वाली पार्टी की नेता, आज जाति की संस्था को संभाल कर रखना चाहती हैं ,उसके विनाश में उनकी कोई रूचि नहीं है . वोट बैंक राजनीति के चक्कर में पड़ गयी अंबेडकरवादी पार्टियों को अब वास्तव में इस बात की चिंता सताने लगी है कि अगर जाति का विनाश हो जाएगा तो उनकी वोट बैंक की राजनीति का क्या होगा. डा अंबेडकर की राजनीतिक सोच को लेकर कुछ और भ्रांतियां भी हैं . कांशीराम और मायावती ने इस क़दर प्रचार कर रखा है कि जाति की पूरी व्यवस्था का ज़हर मनु ने ही फैलाया था, वही इसके संस्थापक थे और मनु की सोच को ख़त्म कर देने मात्र से सब ठीक हो जाएगा. लेकिन बाबा साहेब ऐसा नहीं मानते थे . उनके एक बहुचर्चित, और अकादमिक भाषण के हवाले से कहा जा सकता है कि जाति व्यवस्था की सारी बुराइयों को लिए मनु को ही ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता .मनु के बारे में उन्होंने कहा कि अगर कभी मनु रहे भी होंगें तो बहुत ही हिम्मती रहे होंगें . डा. अंबेडकर का कहना है कि ऐसा कभी नहीं होता कि जाति जैसा शिकंजा कोई एक व्यक्ति बना दे और बाकी पूरा समाज उसको स्वीकार कर ले. उनके अनुसार इस बात की कल्पना करना भी बेमतलब है कि कोई एक आदमी कानून बना देगा और पीढियां दर पीढियां उसको मानती रहेंगीं. . हाँ इस बात की कल्पना की जा सकती है कि मनु नाम के कोई तानाशाह रहे होंगें जिनकी ताक़त के नीचे पूरी आबादी दबी रही होगी और वे जो कह देंगे ,उसे सब मान लेंगें और उन लोगों की आने वाली नस्लें भी उसे मानती रहेंगी.उन्होंने कहा कि , मैं इस बात को जोर दे कर कहना चाहता हूँ कि मनु ने जाति की व्यवस्था की स्थापना नहीं की क्योंकि यह उनके बस की बात नहीं था. . मनु के जन्म के पहले भी जाति की व्यवस्था कायम थी. . मनु का योगदान बस इतना है कि उन्होंने इसे एक दार्शनिक आधार दिया. . जहां तक हिन्दू समाज के स्वरुप और उसमें जाति के मह्त्व की बात है, वह मनु की हैसियत के बाहर था और उन्होंने वर्तमान हिन्दू समाज की दिशा तय करने में कोई भूमिका नहीं निभाई. उनका योगदान बस इतना ही है उन्होंने जाति को एक धर्म के रूप में स्थापित करने की कोशिश की . जाति का दायरा इतना बड़ा है कि उसे एक आदमी, चाहे वह जितना ही बड़ा ज्ञाता या शातिर हो, संभाल ही नहीं सकता. . इसी तरह से यह कहना भी ठीक नहीं होगा कि ब्राह्मणों ने जाति की संस्था की स्थापना की. मेरा मानना है कि ब्राह्मणों ने बहुत सारे गलत काम किये हैं लेकिन उनकी औक़ात यह कभी नहीं थी कि वे पूरे समाज पर जाति व्यवस्था को थोप सकते. . हिन्दू समाज में यह धारणा आम है कि के जाति की संस्था का आविष्कार शास्त्रों ने किया और शास्त्र तो कभी गलत हो नहीं सकते. बाबा साहेब ने अपने इसी भाषण में एक चेतावनी और दी थी कि उपदेश देने से जाति की स्थापना नहीं हुई थी और इसको ख़त्म भी उपदेश के ज़रिये नहीं किया जा सकता.. यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना ज़रूरी है अपने इन विचारों के बावजूद भी , डा अंबेडकर ने समाज सुधारकों के खिलाफ कोई बात नहीं कही. ज्योतिबा फुले का वे हमेशा सम्मान करते रहे. . हाँ उन्हें यह पूरा विश्वास था कि जाति प्रथा को किसी महापुरुष से जोड़ कर उसकी तार्किक परिणति तक नहीं ले जाया जा सकता.
डा अंबेडकर के अनुसार हर समाज का वर्गीकरण और उप वर्गीकरण होता है लेकिन परेशानी की बात यह है कि इस वर्गीकरण के चलते वह ऐसे सांचों में फिट हो जाता है कि एक दूसरे वर्ग के लोग इसमें न अन्दर जा सकते हैं और न बाहर आ सकते हैं . यही जाति का शिकंजा है और इसे ख़त्म किये बिना कोई तरक्की नहीं हो सकती. सच्ची बात यह है कि शुरू में अन्य समाजों की तरह हिन्दू समाज भी चार वर्गों में बंटा हुआ था . ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र . यह वर्गीकरण मूल रूप से जन्म के आधार पर नहीं था, यह कर्म के आधार पर था .एक वर्ग से दूसरे वर्ग में आवाजाही थी लेकिन हज़ारों वर्षों की निहित स्वार्थों कोशिश के बाद इसे जन्म के आधार पर कर दिया गया और एक दूसरे वर्ग में आने जाने की रीति ख़त्म हो गयी. और यही जाति की संस्था के रूप में बाद के युगों में पहचाना जाने लगा. . अगर आर्थिक विकास की गति को तेज़ किया जाय और उसमें सार्थक हस्तक्षेप करके कामकाज के बेहतर अवसर उपलब्ध कराये जाएँ तो जाति व्यवस्था को जिंदा रख पाना बहुत ही मुश्किल होगा. और जाति के सिद्धांत पर आधारित व्यवस्था का बच पाना बहुत ही मुश्किल होगा.. अगर ऐसा हुआ तो जाति के विनाश के ज्योतिब अफुले, डा. राम मनोहर लोहिया और डा. अम्बेडकर की राजनीतिक और सामाजिक सोच और दर्शन का मकसद हासिल किया जा सकेगा..
Monday, December 5, 2011
देव आनंद ने ज़िंदगी का साथ निभाना बंद कर दिया
शेष नारायण सिंह
देव आनंद ने आज ज़िंदगी का साथ निभाना बंद कर दिया,हालांकि उन्होंने बार बार यह ऐलान किया था कि वे ज़िंदगी साथ निभाते चले जायेगें. देव आनंद ने अपनी सारी ज़िंदगी फिल्मों को समर्पित की इसलिए उन्हें फिल्मकार के रूप में ही याद किया जाएगा. लेकिन उनकी एक ज़िन्दगी वह भी है जो १९४६ में फ़िल्मी कैरियर शुरू होने के पहले मुंबई में शुरू हो चुकी थी. देव आनंद ने उसी गवर्नमेंट कालेज लाहौर से पढाई की थी जहां देश के बड़े बड़े बुद्धिजीवी गए थे. लाहौर से अंग्रेज़ी में बी ए करने के बाद वे मुंबई चले गए जहां उनके बड़े भाई चतन आनंद रोज़गार के तलाश में पहले से ही रहते थे. दूसरे विश्व युद्ध का ज़माना था. उन्हें मुंबई में फौजी दफ्तर में एक क्लर्क की नौकरी मिल गयी.मुंबई में उन्हीं दिनों महात्मा गाँधी के नाम का तूफ़ान चल रहा था. ख्वाजा अहमद अब्बास की प्रेरणा और प्रयास से इप्टा ( इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसियेशन ) की स्थापना हो चुकी थी . चेतन आनंद इप्टा में जुट चुके थे, देव आनंद भी उनके साथ नाटक के ज़रिते जान जागरण के अभियान में जुट गए. वहां उनकी मुलाक़ात होमी भाभा, क्रिशन चंदर ,कैफ़ी आज़मी ,मजरूह सुल्तानपुरी साहिर लुधियानवी ,बलराज साहनी ,मोहन सहगल, मुल्क राज आनंद, रोमेश थापर, शैलेन्द्र ,प्रेम धवन ,इस्मत चुगताई .ए के हंगल, हेमंत कुमार , अदी मर्जबान,सलिल चौधरी जैसे कम्युनिस्टों से हुई . एक बेहतरीन कलात्मक जीवन की बुनियाद पड़ चुकी थी. १९४२-४३ में बने यह दोस्त जब तक जीवित रहे ,देव आनंद की बुलंदियों को और ऊंचा करने में सहयोग करते रहे. यह सब यह दुनिया छोड़कर जा चुके हैं . अफ़सोस, आज इप्टा का आख़िरी महान कलाकार भी अलविदा कह गया.
नाटकों में तो वे अपने भाई और बलराज साहनी के साथ बहुत कुछ काम करते रहे लेकिन पहला फ़िल्मी ब्रेक उनको १९४६ में मिला जब महान कलाकार ,अशोक कुमार ने उन्हें प्रभात टाकीज की फिल्म हम एक हैं में काम दे दिया . इसी फिल्म की शूटिंग के दौरान उनकी मुलाक़ात , गुरु दत्त से हुई, जो गुरु दत्त के जीवन भर चली. इसी दोस्ती का नतीजा था कि जब देव आनंद ने अपनी फिल्म कंपनी नवकेतन के बैनर तले, व्लादिमीर गोगोल के विख्यात नाटक , इन्स्पेक्टर जनरल के आधार पर फिल्म बाज़ी बनाने का फैसला किया तो उनके इप्टा वाले कई साथी साथ आये. इस फिल्म की कहानी और संवाद बलराज सहनी ने लिखा, गुरु दत्त की यह पहली निर्देशित फिल्म है , साहिर लुधियानवी ने गाने लिखे , सचिन देव बर्मन ने संगीत दिया और अपनी भावी पत्नी कल्पना कार्तिक के साथ देव आनंद ने इस फिल्म में मुख्य भूमिका निभाई. यह देव आनद का ही जज्बा था कि बहुत सारे नए लोगों के साथ उन्होंने फिल्म बानने का रिस्क लिया . इस फिल्म में ही बलराज साहनी पहली बार लेखक के रूप में देखे गए . गीतकार के रूप में साहिर लुधियानवी की यह पहली फिल्म है , गुरुदत्त और सचिन देव बर्मन की भी पहली फिल्म है . लेकिन देव आनंद ने बाज़ी लगाई और एक बहुत ही सफल फिल्म बन गयी. बाकी ज़िंदगी में भी देव आनंद इस तरह के खतरों से खेलते रहे , प्रयोग करते रहे , नए नए लोगों को फ़िल्मी परदे पर बड़े बड़े काम के लिए उतारते रहे. आज जब भारतीय सिनेमा के इतिहास पर नज़र डालते हैं तो साफ़ समझ में आ जाता है कि रावी नदी के किनारे के इस छोरे की रिस्क लेने की ताक़त की वजह से ही आज हम भारतीय सिनेमा के बहुत बड़े कलाकारों को जानते हैं .उन्होंने अपनी पहली फिल्म में ही नए लोगों को मौक़ा दिया . बाद में भी शत्रुघ्न सिन्हा को प्रेम पुजारी में ब्रेक दिया , जीनत अमान, टीना मुनीम जैसी अभिनेत्रियों को खोज निकाला. उनके कुछ प्रयोग बुरी तरह से फेल भी हुए . जाहिदा और नताशा नाम की अनजान लड़कियों को उन्होंने अपनी बहुत बड़ी फिल्मों में मुख्य भूमिका दी लेकिन वे अभिनय नहीं कर सकीं , कहीं खो गयीं . अपने बेटे सुनील को भी उन्होंने हीरो बनाने की कोशिश की. सफल विदेशी फिल्म क्रेमर बनाम क्रेमर की तरह की आनंद बनाम आनंद बनायी लेकिन सुनील अभिनय कला में माहिर नहीं थे. देव आनंद ने मनोज कुमार या राजेंद्र कुमार की तरह अपने बेटे को अभिनेता बनने की जिद नहीं की, उसे और काम में लगा दिया .
देव आनंद ने जो कुछ भी किया वह सिनेमा हो गया . साठ और सत्तर के दशक में देव आनंद जो करते थे,वही फैशन हो जाता था. उनके नाम से बहुत सारी कहानियाँ भी चला दी जाती थी, १९६७ में मुझे कई लोगों ने बताया था कि देव आनंद के ऊपर सरकारी रोक लगी हुई है कि वे सफ़ेद पैंट और काली कमीज़ नहीं पहन सकते . उस पोशाक में वे इतने ज्यादा आकर्षक लगते थे कि जिधर जाते हैं उधर लडकियां उनके पीछे दौड़ पड़ती हैं .यह बकवास थी लेकिन एक कहानी के रूप में चल गयी थी. उनके स्टाइल को सभी कापी करते थे. उनके समकालीन दिलीप कुमार और राज कपूर भी बहुत बड़े अभिनेता थे लेकिन जो जलवा देव आनंद का था ,वह किसी का नहीं .अपने समय की सबसे खूबसूरत अभिनत्रियों ने देव आनंद के साथ काम किया था. सुरैया , मधुबाला , नूतन, वहीदा रहमान, हेमा मालिनी, जीनत अमान, टीना मुनीम ,मुमताज को इस बात पर हमेशा गर्व रहा कि वे देव आनंद की हीरोइन रह चुकी हैं.
देव आनंद को उनकी हिम्मत के लिए हमेशा याद किया जाएगा.फिल्मों में तो वे प्रयोग करते ही रहे , इंसाफ़ के पक्षधर के रूप में अपने आपको स्थापित करने के मामले में भी उनका कोई जोड़ नहीं है . १९७५ में जब इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी लगाई तो देव आनंद ने उसका विरोध किया. यह वही दौर है जब मुंबई की फिल्मी दुनिया के लोग लाइन लगाकर संजय गाँधी और इंदिरा गांधी की जय जयकार कर रहे थे , उन्हीं दिनों किशोर कुमार और देव आनंद ने तानाशाही के खिलाफ मोर्चा खोल दिया . संजय गांधी ने दूरदर्शन पर उनकी फिल्मों और किशोर कुमार के गानों को बंद करवा दिया. उन दिनों दूरदर्शन ही इकलौता टी वी चैनल होता था . लेकिन इन दोनों ने परवाह नहीं की. देव आनंद ने तो एक राजनीतिक पार्टी भी बनायी . बाद में जब जनता पार्टी की जीत हुई तो और सारे नव निर्वाचित सांसद दिल्ली के राज घाट स्थित महात्मा गांधी की समाधि पर क़सम खाने गए तो देव आनंद भी वहां मौजूद थे . सबकी नज़र उनके सामने इज्ज़त से झुक झुक जाती थी.
देव आनंद की शख्सियत को आंकड़ों के ज़रिये समझ पाना थोडा मुश्किल है . उन्हें वे सभी पुरस्कार और सम्मान मिले जो बड़े सिनेमा वालों को मिलते हैं , दादा साहेब फाल्के, पद्म भूषण , फिल्मफेयर जैसे सभी सम्मान उन्हें मिले लेकिन जो सबसे बड़ा सम्मान उन्हें मिला वह यह कि उन्होंने भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक मील का पत्थर स्थापित किया .आज देव आनंद नहीं है , जाना ही था , सभी जाते हैं . लेकिन मन में एक हूक सी उठती है कि काश देव आनंद न जाते ..
देव आनंद ने आज ज़िंदगी का साथ निभाना बंद कर दिया,हालांकि उन्होंने बार बार यह ऐलान किया था कि वे ज़िंदगी साथ निभाते चले जायेगें. देव आनंद ने अपनी सारी ज़िंदगी फिल्मों को समर्पित की इसलिए उन्हें फिल्मकार के रूप में ही याद किया जाएगा. लेकिन उनकी एक ज़िन्दगी वह भी है जो १९४६ में फ़िल्मी कैरियर शुरू होने के पहले मुंबई में शुरू हो चुकी थी. देव आनंद ने उसी गवर्नमेंट कालेज लाहौर से पढाई की थी जहां देश के बड़े बड़े बुद्धिजीवी गए थे. लाहौर से अंग्रेज़ी में बी ए करने के बाद वे मुंबई चले गए जहां उनके बड़े भाई चतन आनंद रोज़गार के तलाश में पहले से ही रहते थे. दूसरे विश्व युद्ध का ज़माना था. उन्हें मुंबई में फौजी दफ्तर में एक क्लर्क की नौकरी मिल गयी.मुंबई में उन्हीं दिनों महात्मा गाँधी के नाम का तूफ़ान चल रहा था. ख्वाजा अहमद अब्बास की प्रेरणा और प्रयास से इप्टा ( इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसियेशन ) की स्थापना हो चुकी थी . चेतन आनंद इप्टा में जुट चुके थे, देव आनंद भी उनके साथ नाटक के ज़रिते जान जागरण के अभियान में जुट गए. वहां उनकी मुलाक़ात होमी भाभा, क्रिशन चंदर ,कैफ़ी आज़मी ,मजरूह सुल्तानपुरी साहिर लुधियानवी ,बलराज साहनी ,मोहन सहगल, मुल्क राज आनंद, रोमेश थापर, शैलेन्द्र ,प्रेम धवन ,इस्मत चुगताई .ए के हंगल, हेमंत कुमार , अदी मर्जबान,सलिल चौधरी जैसे कम्युनिस्टों से हुई . एक बेहतरीन कलात्मक जीवन की बुनियाद पड़ चुकी थी. १९४२-४३ में बने यह दोस्त जब तक जीवित रहे ,देव आनंद की बुलंदियों को और ऊंचा करने में सहयोग करते रहे. यह सब यह दुनिया छोड़कर जा चुके हैं . अफ़सोस, आज इप्टा का आख़िरी महान कलाकार भी अलविदा कह गया.
नाटकों में तो वे अपने भाई और बलराज साहनी के साथ बहुत कुछ काम करते रहे लेकिन पहला फ़िल्मी ब्रेक उनको १९४६ में मिला जब महान कलाकार ,अशोक कुमार ने उन्हें प्रभात टाकीज की फिल्म हम एक हैं में काम दे दिया . इसी फिल्म की शूटिंग के दौरान उनकी मुलाक़ात , गुरु दत्त से हुई, जो गुरु दत्त के जीवन भर चली. इसी दोस्ती का नतीजा था कि जब देव आनंद ने अपनी फिल्म कंपनी नवकेतन के बैनर तले, व्लादिमीर गोगोल के विख्यात नाटक , इन्स्पेक्टर जनरल के आधार पर फिल्म बाज़ी बनाने का फैसला किया तो उनके इप्टा वाले कई साथी साथ आये. इस फिल्म की कहानी और संवाद बलराज सहनी ने लिखा, गुरु दत्त की यह पहली निर्देशित फिल्म है , साहिर लुधियानवी ने गाने लिखे , सचिन देव बर्मन ने संगीत दिया और अपनी भावी पत्नी कल्पना कार्तिक के साथ देव आनंद ने इस फिल्म में मुख्य भूमिका निभाई. यह देव आनद का ही जज्बा था कि बहुत सारे नए लोगों के साथ उन्होंने फिल्म बानने का रिस्क लिया . इस फिल्म में ही बलराज साहनी पहली बार लेखक के रूप में देखे गए . गीतकार के रूप में साहिर लुधियानवी की यह पहली फिल्म है , गुरुदत्त और सचिन देव बर्मन की भी पहली फिल्म है . लेकिन देव आनंद ने बाज़ी लगाई और एक बहुत ही सफल फिल्म बन गयी. बाकी ज़िंदगी में भी देव आनंद इस तरह के खतरों से खेलते रहे , प्रयोग करते रहे , नए नए लोगों को फ़िल्मी परदे पर बड़े बड़े काम के लिए उतारते रहे. आज जब भारतीय सिनेमा के इतिहास पर नज़र डालते हैं तो साफ़ समझ में आ जाता है कि रावी नदी के किनारे के इस छोरे की रिस्क लेने की ताक़त की वजह से ही आज हम भारतीय सिनेमा के बहुत बड़े कलाकारों को जानते हैं .उन्होंने अपनी पहली फिल्म में ही नए लोगों को मौक़ा दिया . बाद में भी शत्रुघ्न सिन्हा को प्रेम पुजारी में ब्रेक दिया , जीनत अमान, टीना मुनीम जैसी अभिनेत्रियों को खोज निकाला. उनके कुछ प्रयोग बुरी तरह से फेल भी हुए . जाहिदा और नताशा नाम की अनजान लड़कियों को उन्होंने अपनी बहुत बड़ी फिल्मों में मुख्य भूमिका दी लेकिन वे अभिनय नहीं कर सकीं , कहीं खो गयीं . अपने बेटे सुनील को भी उन्होंने हीरो बनाने की कोशिश की. सफल विदेशी फिल्म क्रेमर बनाम क्रेमर की तरह की आनंद बनाम आनंद बनायी लेकिन सुनील अभिनय कला में माहिर नहीं थे. देव आनंद ने मनोज कुमार या राजेंद्र कुमार की तरह अपने बेटे को अभिनेता बनने की जिद नहीं की, उसे और काम में लगा दिया .
देव आनंद ने जो कुछ भी किया वह सिनेमा हो गया . साठ और सत्तर के दशक में देव आनंद जो करते थे,वही फैशन हो जाता था. उनके नाम से बहुत सारी कहानियाँ भी चला दी जाती थी, १९६७ में मुझे कई लोगों ने बताया था कि देव आनंद के ऊपर सरकारी रोक लगी हुई है कि वे सफ़ेद पैंट और काली कमीज़ नहीं पहन सकते . उस पोशाक में वे इतने ज्यादा आकर्षक लगते थे कि जिधर जाते हैं उधर लडकियां उनके पीछे दौड़ पड़ती हैं .यह बकवास थी लेकिन एक कहानी के रूप में चल गयी थी. उनके स्टाइल को सभी कापी करते थे. उनके समकालीन दिलीप कुमार और राज कपूर भी बहुत बड़े अभिनेता थे लेकिन जो जलवा देव आनंद का था ,वह किसी का नहीं .अपने समय की सबसे खूबसूरत अभिनत्रियों ने देव आनंद के साथ काम किया था. सुरैया , मधुबाला , नूतन, वहीदा रहमान, हेमा मालिनी, जीनत अमान, टीना मुनीम ,मुमताज को इस बात पर हमेशा गर्व रहा कि वे देव आनंद की हीरोइन रह चुकी हैं.
देव आनंद को उनकी हिम्मत के लिए हमेशा याद किया जाएगा.फिल्मों में तो वे प्रयोग करते ही रहे , इंसाफ़ के पक्षधर के रूप में अपने आपको स्थापित करने के मामले में भी उनका कोई जोड़ नहीं है . १९७५ में जब इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी लगाई तो देव आनंद ने उसका विरोध किया. यह वही दौर है जब मुंबई की फिल्मी दुनिया के लोग लाइन लगाकर संजय गाँधी और इंदिरा गांधी की जय जयकार कर रहे थे , उन्हीं दिनों किशोर कुमार और देव आनंद ने तानाशाही के खिलाफ मोर्चा खोल दिया . संजय गांधी ने दूरदर्शन पर उनकी फिल्मों और किशोर कुमार के गानों को बंद करवा दिया. उन दिनों दूरदर्शन ही इकलौता टी वी चैनल होता था . लेकिन इन दोनों ने परवाह नहीं की. देव आनंद ने तो एक राजनीतिक पार्टी भी बनायी . बाद में जब जनता पार्टी की जीत हुई तो और सारे नव निर्वाचित सांसद दिल्ली के राज घाट स्थित महात्मा गांधी की समाधि पर क़सम खाने गए तो देव आनंद भी वहां मौजूद थे . सबकी नज़र उनके सामने इज्ज़त से झुक झुक जाती थी.
देव आनंद की शख्सियत को आंकड़ों के ज़रिये समझ पाना थोडा मुश्किल है . उन्हें वे सभी पुरस्कार और सम्मान मिले जो बड़े सिनेमा वालों को मिलते हैं , दादा साहेब फाल्के, पद्म भूषण , फिल्मफेयर जैसे सभी सम्मान उन्हें मिले लेकिन जो सबसे बड़ा सम्मान उन्हें मिला वह यह कि उन्होंने भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक मील का पत्थर स्थापित किया .आज देव आनंद नहीं है , जाना ही था , सभी जाते हैं . लेकिन मन में एक हूक सी उठती है कि काश देव आनंद न जाते ..
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