शेष नारायण सिंह
संघी आतंकवाद की परीक्षा की घड़ी आ पंहुची है . राम जन्मभूमि को मुद्दा बना कर उन्होंने राजनीति के लिए नयी पिच तैयार करने का फैसला जनवरी १९८६ में ले लिया था वह अब ढहता नज़र आ रहा है. हुआ यह था कि जब इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद हुए चुनावों में कांग्रेस ने भी साफ्ट हिन्दुत्व का खेल चल दिया तो , बी जे पी और आर एस एस जैसे संगठनों के लिए कोई स्पेस नहीं बचा था. उन दिनों अरुण नेहरू नाम के एक कारपोरेट नेता कांग्रेस के भाग्यविधाता हुआ करते थे . जितनी समझ थी, उसके हिसाब से उन्होंने हिसाब किताब लगाया और देखा कि मुसलमानों के वोट की परवाह किये बिना अगर साफ़ तरीके से हिन्दूवादी पार्टी के ढाँचे में कांग्रेस को ढाल दिया जाए तो बहुत दिन तक राज किया जा सकता था. उन्होंने वही किया . बी जे पी ज़मींदोज़ हो गयी .अब आर एस एस को अपने लिए ज़मीन तलाशनी थी, लिहाज़ा उस वक़्त के संघी नेताओं की एक बड़ी बैठक कलकत्ता में बुलाई गयी जिसमें संघ के बड़े नेताओंके अलावा बी जे पी के लाल कृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी की भी पेशी हुई. तय पाया गया कि हिन्दुत्व का ऐसा खेल शुरू किया जाए जिसे कांग्रेस के साफ्ट हिंदुत्व वाली लाइन कहीं से चुनौती न दे सके. झाड़ पोंछ कर बाबरी मस्जिद का मुद्दा निकाला गया. और बात चल पड़ी. कांग्रेस के उस वक़्त के सबसे महान नेता, अरुण नेहरू को समझ में ही नहीं आया कि हमला हुआ कहाँ से है और अपनी और अपने साथियों की अज्ञानता को राजनीति बताने की गलती करने वाले यह कांग्रेसी नेता , संघी जाल में फंसते गए .भगवान् राम को केंद्र में रख कर संघियों ने राजनीतिक अभियान शुरू किया और कांग्रेसियों की अदूरदर्शिता के चलते बी जे पी राम जी की पार्टी बनती गयी. जिसका चुनावी फायदा बाद में संघी राजनीति को खूब हुआ. एक बात यहाँ साफ़ तरीके से समझ लेने की है कि आर एस एस या बी जे पी या वी एच पी वाले कभी नहीं चाहते थे कि अयोध्या में किसी तरह का राम मंदिर बने . उन्हें मुगालता था कि यह मामला बहुत दिनों तक खींचा जा सकता था और उसका राजनीतिक लाभ उठाया जा सकता था. लेकिन ऐसा हुआ नहीं . जैसा कि काठ की हर एक हांडी के साथ होता है , यह संघी हांडी भी दुबारा नहीं चढ़ सकी. इस बीच बी जे पी की कई राज्यों में सरकारें बन गयीं . केंद्र में भी सरकार बनी लेकिन संविधान में बताये गए धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को मना करने की औकात एन डी ए सरकार की कभी नहीं हो सकी. इस बीच गुजरात में नरेंद्र मोदी ने संघी फासिज्म की शुरुआती चाल चल दी. मुसलमानों को सरकारी तौर पर ख़त्म करने का अपना काम शुरू कर दिया जिसकी वजह से पूरे देश में संघी आतंकवाद के खिलाफ माहौल बनने लगा . और आज जब देश के गृहमंत्री ने बहुत सारी परेशानियों के लिए संघी आतंकवाद को ज़िम्मेदार बता दिया तो आर एस एस और उसके अधीन काम करने वाली राजनीतिक पार्टियां मुसीबत में हैं . अब वे केवल शब्दों की बात करने लगी हैं . पी चिदंबरम ने भगवा आतंकवाद कह दिया था, जो वास्तव में हिन्दू धर्म से जुड़ा रंग माना जाता था . लेकिन कांग्रेस ने फ़ौरन डैमेज कंट्रोल की बात शुरू कर दी. पार्टी के महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने चिदंबरम के बयान से किनारा तो किया लेकिन एक दूसरे महासचिव को बात आगे बढाने का मौक़ा दे दिया. शायद इसी योजना के तहत कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने मुंबई की एक सभा में भगवा साफा बाँध कर दिन भर का कार्यक्रम चलाया और बाद में कहा कि हिन्दू धर्म इस देश में बहुत बड़ी आबादी का धर्म है लेकिन उनमें बहुत मामूली संख्या में लोग बी जे पी के साथ हैं . दिग्विजय सिंह ने कहा कि हिन्दुओं के अलावा अन्य धर्मों के लोग भी भगवा रंग को पवित्र मानते हैं इसलिए किसी एक पार्टी को भगवा रंग का इंचार्ज नहीं बनने दिया जाएगा. वह हमारा रंग है . और उस पर हर भारतवासी का बराबर का अधिकार है . दिग्विजय सिंह ने कहाकि संघी आतंकवाद को भगवा आतंकवाद कह कर पी चिदंबरम ने गलती की लेकिन यह भी सच है कि बी जे पी हर उस इंसान की प्रतिनिधि नहीं है जो भगवा रंग को सम्मान देता है. अगर कांग्रेस में यह सोच राजनीतिक स्तर पर तय हो चुकी है तो संघी राजनीति के लिए बहुत ही मुश्किल वक़्त आने वाला है .
कांग्रेस का यह नया रुख संघी सियासत के लिए अकेली मुसीबत नहीं है . इसी महीने बाबरी मस्जिद के मूल मुक़दमे पर भी फैसला आने वाला है . बी जे पी के बहुत सारे नेता अपनी बयानबाज़ी के खेल में लग गए हैं . जब अस्सी के दशक में बाबरी मस्जिद को राम जन्मभूमि बताने का काम शुरू हुआ था तो संघी भाइयों को सपने में भी उम्मीद नहीं थी कि कभी केंद्र में उनकी सरकार बन जायेगी . वे तो इस मसले को चुनावी प्रचार के लिए इस्तेमाल करके कुछ राजनीतिक स्पेस घेरने के चक्कर में रहते थे लेकिन अब बात अलग है . अब उन्होंने केंद्र सरकार की सत्ता का सुखा देख लिया है और बहुत ज्यादा पैसा बटोर चुके हैं . अब उन्हें उम्मीद है कि शायद फिर वही वक़्त आ जाये. इसलिए उनके प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार , लाल कृष्ण आडवाणी ने अपने लोगों को सलाह दी है कि अयोध्या के बारे में मनमाना बान न दें . बाबरी मस्जिद के फैसले के बारे में आम तौर पर उम्मीद की जा रही है कि वह मुसलमानों के पक्ष में जाएगा. और संघी बिरादारी के लोग कहते पाए जा रहे हैं कि अगर फैसला खिलाफ हुआ तो वे उसे नहीं मानेगें . इसका मतलब यह हुआ कि संघ की नज़र में संविधान और कानून के राज का कोई मतलब नहीं है . आडवाणी इसी परिस्थिति की संभावना से घबडा गए लगते हैं . क्योंकि अगर उनकी पार्टी के छुटभैया नेताओं ने हल्ला गुल्ला करके साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का काम तेज़ कर दिया तो संघी राजनीति बिलकुल हाशिये पर आ जायेगी. लेकिन ब्लाक या जिला लेवल के नेताओं को बाबरी मस्जिद को राम जन्म भूमि बताकर लोगों की भावनाएं भड़काने के अलावा और कोई राजनीति आती ही नहीं है .जबकि संघ के राष्ट्रीय नेता अब राज करने की बात करने लगे हैं और संविधान के खिलाफ जाकर बोलेगें तो उन्हें कोई नहीं पूछेगा. वैसे भी तथाकथित एन डी ए में नीतीश कुमार भी हैं जो आजकल मुसलमानों के वोट की बात कर रहे हैं और पिछली एन डी ए के ज़्यादातर साथी बी जे पी को छोड़ देगें अगर उन्होंने देखा कि बी जे पी वाले संविधान का मजाक उड़ा रहे हैं.
इस तरह हम देखते हैं मौजूदा राजनीतिक स्थिति ऐसी है जिसमें संघी राजनीति के लिए कोई स्पेस नहीं बच रहा है . वे भगवान् राम का नाम लेकर हिन्दुओं के हित चिन्तक बनने की कोशिश कर रहे थे लेकिन कांग्रेस के ताज़ा राजनीतिक रुख से साफ़ है कि अब वह पार्टी भी हिन्दू धर्म और हिंदुत्व के फर्क को जनता के सामने पेश कर संघी सियासत को बेनकाब करने का मन बना चुकी है . उधर साम्प्रदायिकता और दंगों के नाम पर जुटाए गए बाबा लोग भी बी जे पी से अलग हो जायेगें जब उनकी समझ में आ जाएगा कि बाकी राजनीतिक पार्टियों का हिन्दू धर्म से कोई विरोध नहीं है और दिग्विजय सिंह की अगुवाई में कांग्रेस ने इस मुहिम पर काम शुरू कर दिया है . यानी जिस दिशा में राजनीति चल रही है अगर वह सही तरीके से चलती रही तो बी जे पी के पास प्रज्ञा ठाकुर और कर्नल पुरोहित टाइप कुछ लोगों के सिवा कुछ नहीं बचेगा. और बी जे पी शुद्ध रूप से संघी आतंकवाद की पोषक पार्टी ही रह जायेगी
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Sunday, September 5, 2010
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