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Thursday, August 22, 2013

मेरी पहली विदेश यात्रा ---- दिल्ली से ओस्लो




शेष नारायण सिंह 
ओस्लो,२२ अगस्त. नार्वे की राजधानी ओस्लो पंहुचने पर सुखद अनुभवों का सिलसिला शुरू हो गया. वहाँ मेरी बेटी के एक दिन पहले पैदा हुए बेटे को देखा ,अपने मित्र और मेरी बेटी के ससुर तरुण मित्र के साथ शहर की बुनियादी खासियतों का अंदाज़ लिया . अगले दिन भारतीय मूल के नार्वेजियन पत्रकार सुरेश चन्द्र शुक्ल से भेंट हुई और उन्होंने देश के राष्ट्रीय चुनाव के प्रचार अभियान से शुरुआती परिचय करवा दिया . भारत की पवित्र भूमि के बाहर जाने का यह मेरा पहला मौक़ा है ,इसलिए मित्रों ने बहुत समझाया था,संभावित परेशानियों के हल सुझाए गए थे क्योंकि आम तौर पर यह मानकर चला जाता है कि विदेश यात्रा में परेशानियां होंगीं . बहुत सारे साधारण लोगों की विदेश यात्राओं के बारे में सुन रखा था . सबकी तकलीफों के बारे में विस्तार से जानकारी थी. इसलिए यात्रा की मुसीबतों  को लेकर मन में बहुत सारी आशंकाएं थीं . लगता है कि इस बार मैं भाग्यशाली रहा कि मुझे कोई परेशानी नहीं हुई. दिल्ली हवाई अड्डे पर सारी औपचारिकताएं ऐसे बीत गयीं जैसे हर काउंटर पर बैठा हर अधिकारी हमारा ही इंतज़ार कर रहा था. मेरी पत्नी अब पूरी तरह से गदगद और आश्वस्त हो चुकी थीं कि चिंता की बात नहीं है. लुफ्थांसा की हवाई सेवा का अच्छा नाम है और वह सही साबित हुआ .बहुत ही आराम से विमान में सीट मिली और विमान में यात्रियों की सहायता करने वाले स्टाफ में कुछ जर्मन नागरिक थे और कुछ लडकियां भारतीय थीं. विमान में बैठते ही एक भारतीय लड़की ने मुझे पहचान लिया . वह टाइम्स नाउ के मुख्य संपादक अर्नब गोस्वामी की बहुत बड़ी फैन है और उसने मुझे भी उसी चैनल में हो रही किसी बहस में कभी देखा था. उसने बताया कि उसके घर में टाइम्स नाउ ज़रूर देखा जाता है .बस फिर क्या था ,लड़की अपनी शुभचिंतक बन चुकी थी . हस्बे मामूल मेरी एक बेटी और जन्म ले चुकी थी .इस लडकी ने हमारे बारे में पता नहीं क्या क्या तारीफ़ के पुल बांधे होंगें कि जब हम साढ़े सात घंटे की फ्लाईट के बात म्यूनिख पंहुचे तो वहाँ विमान कंपनी की एक अधिकारी हमारा इंतज़ार कर रही थी. दिल्ली से म्यूनिख तक का टाइम ऐसे बीत गया जैसे जौनपुर में बैठे डॉ अरुण कुमार सिंह से गप मार रहे हों . जर्मनी के शहर म्यूनिख की ख्याति पूरी दुनिया में है. नार्वे और जर्मनी,दोनों देश ,यूरोपियन युनियन के सदस्य हैं इसलिए हमारे शेंगेन वीजा की इमीग्रेशन की औपचारिकता म्यूनिख में ही होनी थी क्योंकि यूरोपियन युनियन में हम वहीं से प्रवेश कर रहे थे . पूरी दुनिया में इमीग्रेशन अधिकारियों की ख्याति लोगों से मुश्किल सवाल पूछने की है . म्यूनिख  में मुझसे जो सवाल पूछा  गया उसके बाद अपनी दिल्ली-म्यूनिख फ्लाईट की  बेटी द्वारा  की गयी प्रशस्ति गाथा का मुझे मामूली सा अंदाज़ लग गया . इमीग्रेशन काउंटर पर शीशे के पीछे  बैठे हज़रत ने सवाल दागा कि मैं क्यों मानूं कि आप पत्रकार हैं . मुझे लगता है कि उनको बता दिया गया था कि मैं कौन हूँ . म्यूनिख में विमान से उतरते ही मुझे और मेरी पत्नी को विशेष गोल्फ कार्ट दे दी गयी. उसी गाड़ी से हम इमीग्रेशन अधिकारी के सामने पेश किये गए थे . उस खिड़की पर हमारे  अलावा कोई और नहीं था . अब अपने आपको  पत्रकार साबित करने के लिए मेरे पास और कोई जरिया नहीं था . मैं कहने ही वाला था कि  दिल्ली –म्यूनिख फ्लाईट की एयर होस्टेस से पूछ लीजिए लेकिन तब तक मेरे पर्स में मेरा पी आई बी कार्ड दिख गया . उसे दिखाया और सरकारी मान्यता प्राप्त पत्रकार को उस सख्त चेहरे वाले इमीग्रेशन अधिकारी ने मुस्कराहट के साथ विदा किया .यह बात दिलचस्प लगी कि कि पी आई बी की मान्यता कहाँ खाना काम आ सकती है . बात करते करते उसने हमारे पासपोर्ट पर ज़रूरी मुहर भी लगा दी .बहुत ही सम्मानपूर्वक हम म्यूनिख से ओस्लो जाने वाले विमान के प्रतीक्षा लाउंज में बैठा दिए गए.  म्यूनिख से ओस्लो की दो घंटे की यह यात्रा भी बहुत ही सुखद रही . ओस्लो हवाई अड्डे पर हमारे दामाद अनिरबान हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे . दिन डूबने के पहले हम ओस्लो के अपने बच्चों के घर पंहुच गए..एक दिन आराम करने के बाद हमने शहर में अपने मित्रों को अपने आने की जानकारी दे दी .उसी दिन ओस्लो के साहित्यकार और नार्वेजियन पत्रकार सुरेशचंद्र शुक्ल  से मुलाक़ात हो गयी . उनका साहित्यिक नाम शरद आलोक है और वे एक बहुत ही दिलचस्प इंसान हैं . मेरी इच्छा  है कि उनके बारे में पूरा एक आलेख लिखूं जो इसके बाद ही लिखने की तमन्ना है .