Thursday, March 20, 2014

अगर राजनेताओं का ढिंढोरची बना तो कहीं का नहीं रहेगा मीडिया


शेष नारायण सिंह 

लोकसभा चुनाव २०१४ में राजनीतिक पार्टियों और नेताओं का भविष्य दांव पर लगा हुआ है इसके साथ साथ बहुत कुछ  कसौटी पर है , बहुत सारे नेताओं और राजनीतिक पार्टियों की परीक्षा हो रही है . इस चुनाव में सबसे ज़्यादा कठिन परीक्षा से मीडिया को गुजरना पड़ रहा है .सभी पार्टियां मीडिया पर उनके विरोधी का पस्ख लेने के आरोप लगा रही हैं . इस बार राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय कई राजनीतिक पार्टियों के बारे में कहा जा रहा है कि वे मीडिया की देन हैं . आम आदमी पार्टी के बारे में तो सभी एकमत हैं कि उसे मीडिया ने ही बनाया है . लेकिन अब मीडिया से सबसे ज्यादा नाराज़ भी आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो ही हैं . वे कई बार कह चुके हैं कि मीडिया बिक चुका है . बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी की हवा बनाने में भी मीडिया की खासी भूमिका है . उनकी पार्टी के नेता आम तौर पार मीडिया  को अपना मित्र  मानते हैं . लेकिन अगर कहीं किसी बहस में कोई पत्रकार उनकी पार्टी के स्थापित मानदंडों का विरोध कर दे तो उसका विरोध तो करते ही हैं ,कई बार फटकारने भी लगते हैं . कांग्रेस के नेता आम तौर पर मीडिया के खिलाफ बोलते रहते हैं . उनका आरोप रहता है कि मीडिया के ज़्यादातर लोग उनके खिलाफ लामबंद हो गए  हैं और कांग्रेस की मौजूदा स्थति में मीडिया के  विरोध की खासी  भूमिका है . हालांकि ऊपर लिखी बातों में पूरी तरह से कुछ भी सच नहीं है  लेकिन सारी ही बातें आंशिक रूप से सच हैं . इस बात में दो राय नहीं  है कि इस चुनाव में मीडिया भी कसौटी पर है और यह लगभग तय है कि इन चुनावों के बाद सभी पार्टियों की शक्ल बदली हुयी होगी और मीडिया की हालत भी निश्चित रूप से बदल जायेगी .
आज से करीब बीस साल पहले जब आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू हुआ तो वह हर क्षेत्र में देखा गया . मीडिया भी  उस से अछूता नहीं रह गया . मीडिया संस्थाओं के नए मालिकों का प्रादुर्भाव हुआ , पुराने मालिकों ने नए नए तरीके से काम करना शुरू कर दिया . देश की सबसे बड़ी मीडिया कंपनी के मालिक ने तो साफ़ कह दिया कि वे तो विज्ञापन के लिए अखबार निकालते हैं ,उसमें ख़बरें भी डाल दी जाती हैं . बहुत सारे मालिकों ने यह कहा नहीं लेकिन सभी कहने लगे कि धंधा तो करना ही है.  इस दौर में बहुत सारे ऐसे पत्रकार भी पैदा हो गए जो निष्पक्षता को भुलाकर कर  निजी एजेंडा की पैरवी में  लग गए. एक बहुत बड़े चैनल के मुख्य सम्पादक और अब एक पार्टी के उम्मीदवार हर सेमीनार में  टेलिविज़न चलाने के लिए लगने वाले पैसे का ज़िक्र करते थे और उसको इकट्ठा करने के लिए पत्रकारों की भूमिका में बदलाव के पैरोकारों में सबसे आगे खड़े नज़र आते थे . इस अभियान में उनको कई बार सही पत्रकारों के गुस्से का सामना भी करना पडा .जब अन्ना हजारे का रामलीला मैदान वाला शो हुआ तो उन पत्रकार महोदय की अजीब दशा थी . उनकी पूरी कायनात अन्नामय हो गयी थी . अब  जाकर पता चला है कि वे एक निश्चित योजना के अनुसार काम कर  रहे थे . आज वे उस दौर में अन्ना हजारे के  मुख्य शिष्य रहे व्यक्ति की पार्टी के नेता हैं . इस तरह की घटनाओं से पत्रकारिता की  निष्पक्षता की संस्था के रूप में पहचान  को  नुक्सान होता है .मौजूदा चुनाव में यह ख़तरा सबसे ज़्यादा है और इससे बचना पत्राकारिता की सबसे बड़ी चुनौती है .

टेलिविज़न आज पत्रकारिता का सबसे प्रमुख माध्यम है . चुनावों के दौरान  वह और भी ख़ास हो जाता है .वहीं पत्रकार की सबसे कठिन परीक्षा होती  है . आजकल टेलिविज़न में पत्रकारों के कई रूप देखने को मिल रहे हैं . एक तो रिपोर्टर  का है जिसमें उसको  उन बातों को भी पूरी ईमानदारी , निष्पक्षता और निष्ठुरता से बताना होता है जो सच हैं , उसे सच के प्रति प्रतिबद्ध रहना होता है ठीक उसी तरह जैसे भीष्म पितामह हस्तिनापुर के सिंहासन के साथ  प्रतिबद्ध थे. उसको ऐसी  बातों को भी रिपोर्ट करना होता है जिनको वह पसंद नहीं करता . दूसरा  रूप विश्लेषक का होता है जहां उसको  स्थिति की स्पष्ट व्याख्या करनी होती है . इस व्यख्या में भी उसको अपनी  प्रतिबद्धताओं से बचना होता है .और अंतिम रूप टिप्पणीकार  का है जहा पत्रकार अपने  दृष्टिकोण को भी  रख सकता है और उसकी तार्किक व्याख्या कर सकता है .. यह सारे काम बहुत  ही कठिन हैं और इनका पालन करना इस चुनाव में मीडिया के लोगों का सबसे कठिन लक्ष्य है , अब तक के संकेतों से साफ़ है कि मीडिया घरानों के मालिक अपनी प्राथमिकताओं के हिसाब से ही काम करने वाले है . पत्रकार की अपनी निष्पक्षता  कहाँ तक  पब्लिक डोमेन में आ पाती है यह देखना दिलचस्प होगा.

मीडिया की सबसे बड़ी चुनौती पेड न्यूज का संकट है . पेड न्यूज़ के ज़्यादातर  मामलों में मालिक लोग खुद ही शामिल रहते हैं लेकिन काम तो पत्रकार के ज़रिये होता है इसलिए असली अग्निपरीक्षा पत्रकारिता के पेशे में लगे हुए लोगों की है .पेड न्यूज़ के कारण आज मीडिया की विश्वसनीयता पर संकट आ गया है। मीडिया पैसे लेकर खबर छापकर अपने पाठकों के विश्वास के साथ खेल रहा है और पेड न्यूज के कारण मीडियाकर्मियों की चारों तरफ आलोचना हो रही है। २००९ के लोकसभा चुनावों के दौरान यह संकट बहुत मुखर रूप से सामने आया था  .अखबारों के मालिक पैसे लेकर विज्ञापनों को समाचार की शक्ल में छापने लगे .. प्रभाष जोशीपी.साईंनाथ , परंजय गुहा ठाकुरता और विपुल मुद्गल ने इसकी आलोचना का अभियान चलाया  . प्रेस काउन्सिल ने भी पेड न्यूज की विवेचना करने के लिये  पराजंय गुहा ठाकुरता और के.श्रीनिवास रेड्डी की कमेटी बनाकर एक रिपोर्ट तैयार की जिसको आज के संदर्भ में एक बहुत ही महत्वपूर्ण दस्तावेज़ माना जा सकता है. सरकारी तौर पर भी इस पर चिंता प्रकट की गयी और प्रेस कौंसिल ने पेड न्यूज को रोकने के उपाय किये . प्रेस कौंसिल ने बताया कि  कोई समाचार या विश्लेषण अगर पैसे या किसी और तरफादारी के बदले किसी भी मीडिया में जगह पाता है तो उसे पेड न्यूज की श्रेणी में रखा जाएगा ।प्रेस कौंसिल के इस विवेचन के बाद पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर तरह तरह के सवाल उठने लगे . सरकार भी सक्रिय हो गयी .और पेड न्यूज़ पर चुनाव आयोग की नज़र भी पड़ गयी. चुनाव आयोग ने पेड न्यूज के केस में २०११ में  पहली कार्रवाई की और उत्तर प्रदेश से विधायक रहीं उमलेश यादव को तीन साल के लिए अयोग्य करार दिया। आयोग ने महिला विधायक उमलेश यादव के खिलाफ यह कार्रवाई दो हिंदी समाचार पत्रों में प्रकाशित समाचारों पर हुए चुनाव खर्च के बारे में गलत बयान देने के लिए की . उमलेश यादव ने जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 77 के तहत अप्रैल 2007 में उत्तर प्रदेश में बिसौली के लिए हुए विधानसभा चुनाव के दौरान हुए चुनावी खर्च में अनियमितता की थी और अखबारों को धन देकर अपने पक्ष में ख़बरें छपवाई थीं . उत्तर प्रदेश की इस घटना के बाद और भी घटनाएं  हुईं .  लोगों को सज़ा भी मिली लेकिन समस्या बद से बदतर होती जा रही है . आज मीडियाकर्मी के ऊपर चारों तरफ से दबाव है और मीडिया और संचार माध्यामों की कृपा से ही पूरी दुनिया बहुत छोटी हो गयी है .मार्शल मैक्लुहान ने कहा  था कि एक दिन आएगा जब सारी दुनिया एक गाँव हो जायेगी , वह होता दिख रहा  है लेकिन यह भी ज़रूरी है कि उस गाँव के लिए आचरण के नए मानदंड तय किये जाएँ . यह काम मीडिया वालों  को ही करना  है लेकिन उदारीकरण के चलते सब कुछ गड्डमड्ड हो गया है .इसके चलते आम आदमी की भावनाओं को कंट्रोल किया जा रहा  है .सब कुछ एक बाज़ार की शक्ल में देखा जा रहा है .यह बाज़ार पूंजी के ,मालिकों  और मीडिया संस्थानों को  विचारधारा की शक्ति को काबू करने की ताकत देता है .पश्चिमी दुनिया में  बाजार की ताक़त  को विचारधारा की स्वतंत्रता के बराबर माना जाता है लेकिन बाजार का गुप्त हाथ नियंत्रण के औजार के रुप में भी इस्तेमाल किया जाता  है .
आज भारत में यही पूंजी काम कर रही है और मीडिया पार उसके कंट्रोल के चलते ऐसे ऐसे राजनीतिक अजूबे पैदा हो रहे हैं जिनका भारत के भविष्य पर  क्या असर पडेगा कहना मुश्किल  है . राजनीतिक आचरण का उद्देश्य हमेशा से ज्यादा से ज़्यादा लोगों की नैतिक और सामूहिक इच्छाओं  को पूरा करना माना जाता रहा है .  दुनिया भर में जितने भी इतिहास को दिशा देने वाले आन्दोलन हुए हैं  उनमें आम आदमी सडकों पर उतर कर शामिल हुआ है . महात्मा गांधी का भारत की आज़ादी के लिए हुआ आन्दोलन इसका सबसे अहम उदाहारण है . अमरीका का महान मार्च  हो या फ्रांसीसी क्रान्ति ,, माओ का चीन की आज़ादी के लिए हुआ मार्च हो या लेनिन की बोल्शेविक क्रान्ति ,हर ऐतिहासिक  परिवर्तन के दौर में जनता सडकों पर जाकर शामिल हई है . लेकिन अजीब बात  है कि इस बार जनता  कहीं शामिल नहीं है , मीडिया के ज़रिये भारत में एक ऐसे परिवर्तन की शुरुआत करने की कोशिश की जा रही है जिसके बाद सारी व्यवस्था बदल जायेगी . व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर किया जा रहा यह वायदा कभी कार्यक्रम की तरह लगता है और कभी यह धमकी के रूप में प्रयोग होता है . यहाँ सब अब सार्वजनिक डोमेन में है . भारत की आज़ादी की मूल मान्यताओं , लिबरल डेमोक्रेसी को भी बदल डालने की कोशिश की जा रही है , मीडिया के दत्तक पुत्र की हैसियत  रखने वाले आम आदमी पार्टी के नेता  व्यवस्था पारिवर्तन के नाम पर संविधान को ही बेकार साबित करने के चक्कर  में हैं . उनकी  प्रतिद्वंदी पार्टी बीजेपी है जो संसदीय लोकतंत्र के नेहरू माडल को बदल कर गुजरात माडल लगाने की सोच रही है . पता नहीं क्या होने वाला है. देश का राजनीतिक भविष्य कसौटी पर है लेकिन उसके साथ साथ मीडिया का भविष्य भी कसौटी पर है . लगता है कि इस चुनाव के बाद यह तय हो जाएगा की मीडिया सामाजिक बदलाव की ताक़तों का निगहबान दस्ता रहेगा या वह सत्ता पर काबिज़ राजनीतिक ताक़तों का ढिंढोरा पीटने वालों में शामिल होने का खतरा तो नहीं उठा रहा  है .


1 comment:

  1. निष्पक्ष तो होना ही चाहिए मीडिया को

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