Wednesday, April 27, 2016

संविधान के हिसाब से अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी एक अल्पसंख्यक संस्थान है


शेष नारायण सिंह


अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को दबोच लेने की केंद्र सरकार की तैयारी शुरू हो गयी है . जब भी बीजेपी वाले सरकार में आते हैं , शिक्षा संस्थानों को काबू  में करने की कोशिशों को तेज़ कर देते हैं .जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में डॉ मुरली मनोहर जोशी शिक्षामंत्री थे तो उन्होंने एक आई ए एस अफसर को फुलटाइम इसी काम पर लगा दिया था और उस अफसर ने  सबसे पहले भारतीय प्रबंध संस्थानों (आई आई एम ) को निशाना बनाया था. लेकिन सरकार को मुंह की खानी पड़ी थी . दो बातें थीं -- एक तो आई आई एम के पुराने छात्रों का दुनिया भर में दबदबा था उन्होंने हर तरफ से केंद्र सरकार पर दबाव डलवाया  . दूसरी बात यह थी कि वाजपेयी  सरकार को  जोड़गाँठ कार बनाया गया था . स्पष्ट बहुमत नहीं था.  उस  सरकार के पास मनमानी करने का अधिकार नहीं था. एक बात और थी कि उस समय  के मानव संसाधन विकास मंत्री  डॉ मुरली मनोहर जोशी ने देश की राजनीतिक सत्ता के प्रबंधन में छात्र राजनीति की ताकत को देखा था. जीवन भर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में रहे थे और उनको मालूम था कि छात्र समुदाय को परेशान करने की राजनीति सरकार के खिलाफ बहुत बड़े वर्ग को लामबंद कर देती है .

मौजूदा बीजेपी सरकार बिलकुल अलग है .उसके पास ऐसा शिक्षामंत्री नहीं है जिसको अंदाज़ हो कि विश्वविद्यालय के अन्दर की राजनीति बाहर की दुनिया को कैसे प्रभावित करती है .इस सरकार को लोकसभा में भारी बहुमत है इसलिए किसी और राजनीतिक पार्टी की बात को स्वीकार करने की मजबूरी उसके पास नहीं है . शिक्षा संस्थानों को केंद्र सरकार के अफसरों और नेताओं की मर्जी से चलाने के एजेंडे पर बेख़ौफ़ काम किया जा सकता है . इसी योजना के तहत जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को काबू में किया जा रहा है . हालांकि उसमें भी उन्होंने एक शोधछात्र ,कन्हैया कुमार को विपक्षी राजनीति का हीरो बना दिया है . जिस तरह से बीजेपी की राज्य सरकारें और उनके छात्र संगठन  कन्हैया को घेर रहे हैं , ऐसा लगने लगा है कि वह विपक्षी एकता का सूत्र बन जाएगा  . इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता.आजकल अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी  भी केंद्र सरकार की उस नीति के लपेटे में आ गयी है  जिसके तहत शिक्षा संस्थाओं में अपनी विचारधारा चलाने के लिए अपने बन्दों को स्थापित किया जाना है .केंद्र सरकार की कोशिश है कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को माइनारिटी संस्थान होने का जो अवसर मिला है उसको ख़त्म कर दिया जाए. इसके लिए सुप्रीम कोर्ट में डॉ मनमोहन सिंह सरकार के वक़्त दिए गए एक हलफनामे को वापस ले लिया गया है जिसमें कहा गया था कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी एक माइनारिटी संस्थान है. मामला कोर्ट में है और केंद्र सरकार और बीजेपी की प्रवक्ताओं ने बहस को शुद्ध रूप से  कानूनी दांव पेंच में उलझा दिया है . अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का दुर्भाग्य है कि उसके पुराने छात्रों में ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्होंने अलीगढ के अल्पसंख्यक स्वरुप की राजनीति पर अपनी सियासत चमकाई लेकिन उन्होंने अपनी यूनिवर्सिटी के बारे में देश को सही राय कायम करने में मदद नहीं की, सही जानकारी का प्रचार नहीं कर पाए . यह काम कुछ ऐसे बुद्धिजीवियों के जिम्मे आ पड़ा है जो या तो अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र हैं या न्याय के पक्ष में कहीं भी खड़े होना जिनके मिजाज़ में शामिल है .

  अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के विवाद का जो पक्ष कोर्ट में हैं वह तो वहीं लड़ा जाएगा .लेकिन यह समझ लेना ज़रूरी है कि इस सन्दर्भ में भारत के संविधान की क्या  पोजीशन है .  १९८३ में सुप्रीम कोर्ट ने एस पी मित्तल बनाम केंद्र सरकार के केस में फैसला सुनाते हुए संविधान के आर्टिकिल ३०( १) के हिसाब से अल्पसंख्यक संस्थान की व्याख्या कर दी थी . इसी आर्टिकिल ३० के अनुसार ही अल्पसंख्यक संस्थानों की स्थापना और प्रबंधन होता है .. उस महत्वपूर्ण फैसले में तीन बातें कही गयी थीं . यह कि शिक्षा संस्थान की स्थापना किसी धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय के एक सदस्य या बहुत सारे सदस्यों द्वारा  की गयी थी. दूसरी बात कि क्या शिक्षा संस्थान की स्थापना अल्पसंख्यक समुदाय के लाभ के लिए की गयी थी और तीसरा कि क्या शिक्षा संस्थान का संचालन अल्पसंख्यक समुदाय की तरफ से किया जा रहा  हैं . इन तीनों ही कसौटियों पर अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी  को जांच कर देखा जा सकता है  कि यह एक अल्पसंख्यक संस्थान है  और संविधान के आर्टिकिल ३०(१ ) को पूरी तरह से संतुष्ट करता है .
अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी पर जो मौजूदा विवाद खड़ा किया गया है उसकी बुनियाद में १९२० का तत्कालीन ब्रिटिश भारत की संसद का वह एक्ट है जिसके तहत अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी   की स्थापना की गयी थी . यह समझ बिक्लुल बेकार है . गलत है . १९२० में जिस यूनिवर्सिटी  की स्थापना की गयी थी उसकी स्थापना में तत्कालीन सरकार ने एक पैसे का खर्च  नहीं किया , कोई इमारत नहीं  बनवाई , कोई कोर्स नहीं शुरू किया कोई कर्मचारी नहीं भरती किया , कुछ नहीं किया . भारत की उस वक़्त की  संसद ने केवल एक एक्ट पास कर दिया जिसके बाद  सर सैयद अहमद खां द्वारा १८७५ में मुसलमानों के बीच आधुनिक शिक्षा का प्रचार प्रसार करने के लिए स्थापित किया गया मदरसातुल उलूम जिसे बाद में एम ए ओ कालेज कहा गया ,का नाम अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी हो गया . इस बात की जानकारी १ दिसंबर १९२० को गजट आफ इण्डिया के पार्ट १, पेज २२१३ में प्रकाशित कर दी गयी. यह है अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी   की स्थापना की सच्चाई . यानी एक शिक्षा संस्थान पहले से चल रहा था , इसको  मुसलमानों ने मुसलामानों के बीच आधुनिक शिक्षा के लिए स्थापित किया था और उसका  संचालन और प्रबंधन मुसलमानों की  संस्था ही कर रही थी . वह जैसा भी था , जो भी था उसको १९२० की सरकार ने अपना लिया. एस पी मित्तल बनाम केंद्र सरकार के सुप्रीम कोर्ट के १९८३ के आदेश में जो भी बातें कही हाई हैं वे सब अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक संस्थान साबित करने के लिए सही बैठती हैं  .इसलिए  केंद्र सरकार को अपना एजेंडा लागू करने के लिए अल्पसंख्यकों के अधिकारों से छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए .

यहाँ यह भी   साफ़ कर देना ज़रूरी है कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी   केवल एक शिक्षा संस्थान ही नहीं है .यह एक दूरद्रष्टा, सर सैयद अहमद खां के इस विज़न का नतीजा है जिसके अनुसार वे मुसलमानों के पिछड़ेपन के खिलाफ एक मुहिम चला रहे थे.  उसके लिए उनको क्या क्या नहीं झेलना पड़ा . दरअसल एक सरकारी प्रशासनिक अफसर के रूप में वे तैनात थे जब १८५७ के दौरान उनके शहर दिल्ली को अंग्रेजों ने तबाह कर दिया था. जब शान्ति  स्थापित होने के बाद वे बिजनौर से घर आये तो उन्होंने देखा कि क्या तबाही मची है . अंग्रेजों के गुस्से के शिकार १८५७ में सभी भारतीय हुए थे लेकिन मुसलमानों की  संख्या ज़्यादा थी . उनकी समझ में यह बात अच्छी तरह से आ गयी कि अगर मुसलमानों को अपनी सामाजिक और राजनीतिक पहचान बनाए रखना है तो उनको अंग्रेज़ी भाषा और साइंस की तालीम ज़रूरी तौर पर लेनी होगी .उन्होंने देखा कि ज़हालत से बाहर निकलने के लिए तालीम ज़रूरी है. इसी सोच के तहत गरीब और पिछड़े मुसलमानों  की शिक्षा के लिए उन्होंने १८५७ के बाद से ही काम शुरू कर दिया था. मुसलमानों के लिए बहुत सारे स्कूल खोले . १८६३ में साइंटिफिक सोसाइटी नाम की एक संस्था भी बना दी . १८६६ में अलीगढ इंस्टीटयूट गज़ट  छापना शुरू कर दिया . शिक्षा के बारे में दकियानूसी ख्यालात रखने वालों ने इसका खूब विरोध किया लेकिन वे डिगे नहीं , डटे रहे. तहजीबुल अखलाक नाम का एक और जर्नल निकाला जो मुसलमानों की आद्धुनिक और वैज्ञानिक शिक्षा की शुरुआत के लिए एक दस्तावेज़ और मुकाम माना जाता है .
इसका मतलब यह है कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी १९२० के एक एक्ट से नहीं स्थापित हुयी . उसकी स्थापना के लिए इस्लामी समझ की पुरानी  व्याख्या करने वालों से सर सैय्यद को पूरा युद्ध करना पडा था, बहुत सारे ऐसे लोगों को साथ लेना पड़ा था जो विरोध कर रहे थे और तब जाकर मुसलमानों के  शिक्षा केन्द्रों की  स्थापना हुयी थी. उनमें से एक एम ए ओ  कालेज को १९२० में एक्ट पास  करके अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी नाम दे दिया गया . बस.

 भारत सरकार का यह फ़र्ज़ है कि वह देश को और दुनिया को बताये  सर सैय्यद ने एक आन्दोलन के नतीजे के रूप में अलीगढ की स्थापना की थी. उनका सपना था कि उनका एम ए ओ कालेज एक यूनिवर्सिटी के रूप में जाना जाए . उनके इंतकाल के बाद भी लोग उनके सपनों को एक रूप देने में लगे रहे और १९२० क आयक्त केवल उन सपनों की तामीर  भर है , उससे ज़्यादा कुछ नहीं . शायद उन लोगों  को यह अंदाज़ भी नहीं रहा होगा कि सर सैय्यद के शिक्षा संस्थान को अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी नाम दिए जाने करीब एक सौ साल बाद राजनेताओं की एक ऐसी बिरादरी आयेगी जो उनके सपनों को अदालती और टीवी चैनलों के बहस मुबाहिसों में फंसा देगी . 

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