शेष नारायण सिंह
मागड़ी तहसील के इस गाँव में जो बहुएं बेटा नहीं पैदा करतीं उनकी ज़िंदगी में मुसीबत की शुरुआत हो जाती है . वैसे भी उनकी ज़िंदगी बहुत खूबसूरत नहीं होती क्योंकि इस गाँव में भी महिलाओं को पुरुषों से इन्फीरियर माना जाता है .गाँव के ज़्यादातर लड़के शराब पीते हैं और उनके घर की औरतें काम करती हैं . बेंगलूरू शहर से इस गाँव की दूरी करीब तीस किलोमीटर है लेकिन आई टी की राजधानी कहे जाने वाले शहर की प्रगति का कोई भी असर इस गाँव में नहीं पंहुचा है . यहाँ ३५ परिवार रहते हैं . जिनमें से ३३ मराठे हैं और दो वोक्कालिगा हैं . वोक्कालिगा परिवार के लोग ही पंचायत से लेकर राज्य की राजनीति के अन्य क्षेत्रों में पहचाने जाते हैं . यहाँ रहने वाले मराठों को शिवाजी के किसी अभियान के दौरान यहाँ लाया गया था . शायद एकाध परिवार ही आया था लेकिन तीन सौ साल बाद उसी परिवार की इतने शाखें बन गयी हैं कि पूरा गाँव बस गया है . गाँव में विधवाएं बहुत ज्यादा हैं क्योंकि जो नौजवान शराब पीकर वाहन चलाते हैं वे हमेशा खतरे से जूझ रहे होते हैं .वैसे भी गाँव के बाहर जाने वाली सड़क पर ट्रैफिक इतना तेज है कि अगर शराब के नशे में पैदल चल रहा कोई आदमी ज़रा सा भी गाफिल हो गया तो वह मौत का शिकार हो जाता हैं .बिना कंट्रोल चल रही गाडियां किसी को भी रौंद देने में मिनट नहीं लगातीं . पहले तो गाँव के बाहर की सड़क पर स्पीडब्रेकर भी नहीं था लेकिन करीब आठ महीने पहले स्पीडब्रेकर लग गया है . स्पीडब्रेकर लगने के बाद से यहाँ ऐसा कोई हादसा नहीं हुआ जिसमें किसी की जान चली जाए. इस गाँव से कुछ दूरी पर एक प्राइमरी स्कूल है इसलिए गाँव के बहुत सारे बच्चे पांचवीं पास हैं लेकिन उसके बाद बच्चों की पढाई पर ब्रेक लग जाती है क्योंकि उसके ऊपर की जमातों के स्कूल मागड़ी या अन्य दूर के कस्बों में हैं और बेंगलूरू से मागड़ी जाने वाली बसों के ड्राइवर इस गाँव में बस नहीं रोकते . ऑटोरिक्शा से भी वहाँ जाया जा सकता है लेकिन आमतौर पर मजदूरी करने वाली महिलाओं के परिवार ऑटो रिक्शा का किराया नहीं दे सकते.लिहाजा पढाई छूट जाती है .
यह कहानी बंगलूरू से लगे हुए रामनगरम जिले के मागड़ी तालुका के ज्योतिपाल्या गाँव की है लेकिन यही कहानी कर्नाटक के बहुत सारे गाँवों की भी हो सकती है. एक दिन यहाँ अजीब मुसीबत खड़ी हो गयी . यहाँ के एक किसान, छत्रपति राव का दामाद उसकी बेटी को घर छोड़ गया . साथ में सन्देश भी है कि दो लाख रूपया भेज दो ,तो बेटी भी साथ जायेगी वरना अब संभालो अपनी बेटी. अभी साल भर पहले इस बेटी की शादी करने के लिए , छत्रपति ने अपनी पुश्तैनी ज़मीन का एक टुकड़ा बेच दिया था. अब अगर बेटी को उसके पति के पास भेजना है तो उसे बाकी ज़मीन भी बेचनी पड़ेगी . इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है . छत्रपति को उसकी बेटी ने बताया कि उसे उसके सास ससुर पैसा लाने के लिए परेशान करते हैं और मारपीट भी करते हैं . यह बदकिस्मत किसान बहुत ही गैरजिम्मेदार इंसान हैं या यों कहिए कि पुरुष रूप में पशु हैं . अपनी पत्नी और बेटियों को इसलिए अपमानित करते रहते हैं कि वे स्त्रियाँ हैं .
इसी गाँव में प्रेमा रहती है जो सरकार के एक ऐसे कार्यक्रम में काम करती है जो अपने कर्मचारियों से कम तनखाह पर काम करवाता है .उसके पति ने उसे मारपीट कर घर से निकाल दिया है और उसके ऊपर तलाक का मुकदमा दायर कर रखा है . उसके ऊपर भी सारी मुसीबत इसलिए आयी है कि उसकी कोख से दो लडकियां पैदा हो गयीं . वह सरकारी काम के साथ साथ घर की मजूरी भी करती थी लेकिन लडकियां पैदा करने का इस इलाके का सबसे बड़ा अपराध कर बैठी . उसके आदमी को जब किसी ने समझाया कि, भाई लडकियां या लड़के पैदा करने में औरत और मर्द का बराबर का ज़िम्मा है तो उस अहंकारी पुरुष ने समझाने वाले को ही अपमानित कर दिया .
यहाँ पड़ोस के गाँव से आकर एक महिला रहती है . अपने खाने के लिए वह लोगों से भीख मांगती है . उसके अपने गाँव में उसके घर वाले रहते हैं , उसके नाम ज़मीन भी है जिसपर घर वालों ने कब्जा कर रखा है . बताया गया है कि उसके घर वाले अक्सर आकर देख जाते हैं कि वह जिंदा है कि नहीं . क्योंकि जब वह मर जायेगी तो उसकी लाश का अंतिम संस्कार कर देगें और इस इलाके के पुरुषप्रधान समाज के लोग उनको उस महिला की ज़मीन का कानूनी मालिक घोषित करवा देगें . यहाँ के समाज में अभी भी लड़की को बोझ माना जाता है . शादी के लिए कोई भी हमउम्र लड़का तलाशा जाता है , चाहे जितना नाकारा हो .लड़की के लिए योग्य वर की तलाश की अवधारणा अभी यहाँ नहीं है . लड़कियों की शिक्षा के बारे में सरकार ने भी बहुत ध्यान नहीं दिया है . सरकारी स्कूलों की खस्ता हालत देखकर लगता ही नहीं कि यह उत्तर प्रदेश या बिहार के सरकारी प्राइमरी स्कूलों से अलग है .
इतिहास की कोख में सो गए इस गाँव में भी महिलाओं के दृढ निश्चय के सामने परिवर्तन की जुम्बिश साफ़ नज़र आने लगी है .खेत में दिन भर मजदूरी करने वाली एक विधवा महिला की बच्चियां पास के चित्रकूट कालेज में पढ़ने जाने लगी हैं . यह बच्चियां अंग्रेज़ी में कमज़ोर हैं लेकिन चित्रकूट के संस्थापक भी फुल जिद्दी आइटम हैं , उन्होंने तय कर लिया है कि बिना किसी अतिरिक्त फीस के इन बच्चियों को अंग्रेज़ी सिखायेगें और उनको भी बाकी बच्चियों और लड़कों के बराबर खडा कर देगें . लेकिन फीस तो देना ही पडेगा . खेत में मजदूरी करने वाली माहिला इतनी फीस भी कहाँ से देगी . ऐसी और भी महिलायें हैं जो अपनी औकात से ज़्यादा पैसा लड़कियों की फीस के लिए देने के लिए आमादा देखी गयीं .इन महिलाओं के दृढ निश्चय की पड़ताल की कोशिश की जाए तो तस्वीर के कुछ आयाम समझ में आने लगते हैं . जहां महिलायें सदियों से अपनी नियत का अनुसरण करने के लिए अभिशप्त थीं वहाँ की तलाकशुदा, विधवा ,परित्यक्ता महिलाओं ने अपनी बेटियों के भविष्य को बदलने के लिए शिक्षा का सहारा लेने का फैसला कैसे ले लिया . खासतौर से जब वे पुरुष भी जो अपनी लड़कियों की भलाई के बारे में सजग हैं , वह भी शिक्षा को महत्व नहीं देते . पता चला कि कुछ महीने पहले यहाँ बंगलोर के एक स्कूल में फाइन आर्ट की टीचर महिला ने अपना घर बनाने का फैसला किया था . जब उन्होंने यहाँ आकर लड़कियों और महिलाओं की ज़िंदगी की मुसीबतें देखीं तो वे सन्नाटे में आ गयीं . उन्होंने बताया कि समझ में ही नहीं आया कि शिक्षा के बल पर आसमान छू लेने की कोशिश कर रही युवतियों और युवकों के शहर बंगलोर के इतना करीब यह क्या हो रहा था. शुरू में तो यहाँ आकार उनके बस जाने की वजह से कुछ नाराज़गी थी लेकिन जब धीरे धीरे लोगों को मालूम चला कि वे तो सबकी भलाई के लिए काम कर रही हैं तो वे पूरे गाँव की अज्जी हो गयीं .कर्नाटक के इस इलाके में दादी को अज्जी कहते हैं और सफ़ेद बालों और करीब ४० साल तक पब्लिक स्कूलों में टीचर के रूप में काम करके उन्होंने कई पीढ़ियों की अज्जी होने का तजुर्बा हासिल कर लिया है .
इन अज्जी की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है . दिल्ली के कश्मीरी गेट और अलीगढ में इनका बचपन बीता . इनकी माता जी ने चालीस के दशक में अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में अपने साथ पढ़ने वाली लड़कियों को अपने अधिकारों के बारे में बताना शुरू कर दिया था और कई बार ज्यादतियों के खिलाफ उनको लामबंद भी किया था. इनके परिवार के लोग आज़ादी की लड़ाई में शामिल हुए थे ,इनके पिता जी ने १९४६-४७ में हिंदू कालेज के छात्र के रूप में दिल्ली शहर में मुस्लिम लीग के फैलाए हुए दंगे के खिलाफ मोर्चा लिया था . अज्जी के सभी भाई बहन अन्याय के खिलाफ मोर्चा लेने में कभी संकोच नहीं करते . दिल्ली के एक बहुत ही नामी पब्लिक स्कूल में सीनियर टीचर के रूप में काम करते हुए इन्होने बहुत सारे कारनामे किए हैं .स्कूल की इनकी लैब में चपरासी के रूप में काम कर रहे एक दलित लड़के को इन्होने इतना उकसाया किया कि इनको खुश करने के लिए उसने बी ए का पत्राचार का कोर्स किया और बैंक में अफसर का इम्तहान दिया और आज किसी बैंक में मैनेजर है . अपने भाई के एक दोस्त के बच्चों को इन्होने ऐसी दिशा पर डाल दिया कि आज वे सभी मध्यवर्ग की ऊंची पायदान पर विराजमान हैं और जीवन यापन कर रहे हैं . हालांकि यह दोस्त उत्तर प्रदेश के उस इलाके का रहने वाला है जहां अभी बहुत पिछडापन है .यह सब उन्होंने शिक्षा के महत्व का वर्णन करके किया . कई ऐसे केस हैं जहां उन्होने किसी के भी बच्चों की पढाई के लिए ज़रूरी इंतजामात कर दिए थे .उन्होंने रामनगरम जिले के ज्योतिपालया गाँव में देखा कि शिक्षा की कमी के चलते महिलाओं का शोषण हो रहा है तो उन्हें मिशन मिल गया और आज वे इस गाँव में परिवर्तन के लिए जुट पडी हैं . मानसिक रूप से परेशान कुछ पुरुषों के अलावा अब यहाँ लड़कियों की शिक्षा का विरोध करने वाले बहुत कम हैं और लगता है कि धीरे धीरे सब कुछ बदल जाएगा क्योंकि अगर लडकी की शिक्षा का सही इंतज़ाम होगा तो असली सामाजिक बदलाव आएगा .
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