शेष नारायण सिंह
पिछले दिनों पत्रकारिता के संकट पर बहुत बहस मुबाहसे हुए .पत्रकार का अभिनय करने वाले राडिया के कुछ कारिंदे दलाली करते हुए पकडे गए,तो ऐसी हाय तौबा मची कि पत्रकारिता पर ही संकट आ गया है .वास्तव में ऐसा नहीं था. मीडिया कंपनियों में बहुत बड़े पदों पर बैठे लोग अपनी और अपनी कंपनी की आर्थिक तरक्की के लिए काम कर रहे थे. ,उनका कवर ख़त्म हो गया क्योंकि वे वास्तव में पत्रकार नहीं धंधेबाज़ थे. पत्रकारिता उनका कवच थी. उनके पतन से बहुत दुखी होने की ज़रुरत न तब थी और न अब है . पत्रकार तो अपने काम पर जमे हुए थे . पत्रकारिता पर कोई संकट नहीं था. वेबपत्रकारिता ने अपना काम बखूबी किया और ऐसा कुछ भी छुप न सका जो पब्लिक इंटरेस्ट में था. नीरा राडिया जैसी पत्रकारफरोश कवर के लिए दौड़ती देखी गयी. देश के दो सबसे बड़े औद्योगिक घरानों का हित साधन करने वाली देवी जो सरकारें बना बिगाड़ सकती थी, बहुत बेचारी हो गयी . और उसकी दुर्दशा के लिए जिम्मेवार केवल पत्रकार थे.उद्योग और व्यापार के क्षेत्र में नैतिकता के सबसे बड़े लठैत रतन टाटा अपनी आबरू बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के सामने गिडगिडाते नज़र आये और दुनिया को पता लग गया कि वे भी अम्बानी ग्रुप ही तरह की काम करते हैं .यू पी ए सरकार की जीवनदायी शक्ति बने एम करूणानिधि के चेले, ए राजा ,चोरकटई के बादशाह बन गए . कांग्रेस पार्टी के बड़े बड़े सूरमा निहायत ही बौने दिखने लगे. पूरी दुनिया जान गयी कि नैतिकता का स्वांग करने वाले बीजेपी के बड़े नेता भी राडिया की चेलाही करते थे . यह सारा काम पत्रकारिता ने किया . इसलिए वह दौर मनोरंजक लग रहा था जब लोग पत्रकारिता के पतन पर दुःख व्यक्त कर रहे थे .पत्रकारिता का कोई पतन नहीं हुआ था . पतन उन लोगों का हुआ था जो पत्रकारिता के कवर में और कोई धंधा कर रहे थे.पत्रकार तो अपना काम कर रहा था . अगर धन्धेबाज़ मालिक ने पत्रकार की बात नहीं naheen सुनी तो वह अपनी खबर भड़ास ,हस्तक्षेप जनतंत्र अदि के सहारे दुनिया के सामने रख रहा था. मुझे मालूम है कि उस दौर में बड़ी पूंजी में मौजूद राडिया के चेलों ने वेब मीडिया के इस माध्यम को खरीदने की कोशिश की थी लेकिन यह दीवाने बिकने को तैयार नहीं थे. आज भारतीय पत्रकारिता का सिर दुनिया के सामने ऊंचा इसी वजह से है कि वेब मीडिया के इन अभिमन्यु पत्रकारों ने हिम्मत नहीं छोडी. एक और दिलचस्प बात हुई कि यह अभिमन्यु हालांकि चक्रव्यूह तोडना नहीं जानते थे लेकिन इनके साथ आलोक तोमर, विनोद मेहता , एन राम जैसे कुछ ऐसे भीष्म पितामह थे जो शर शैया पर जाने को तैयार नहीं थे. आलोक तोमर तो कैंसर के साथ साथ कौरव रूप में कमान संभाले राडिया की सेना से भी मुकाबला कर रहे थे . इन्हीं भीष्म पितामहों की वजह से रादिया की अठारह अक्षौहिणी सेना के बहादुरों में से कोई भी जयद्रथ नहीं बन सका . आज अगर बरखा दत्त, प्रभु चावला , वीर संघवी जैसे व्यापारियों के प्रतिनधि पत्रकारिता वाली पोशाक पहन कर काम करते हुए बेनकाब हुए हैं, तो उसमें एन राम ,विनोद मेहता और आलोक तोमर का भी हाथ है . आने वाली पीढियां जब भड़ास के यशवंत को प्रणाम करेगीं तो इन भीष्म पितामहों के नाम के सामने भी सिर झुकायेंगी .इन लोगों ने पत्रकारिता को नरक में जाने से बचाया है .
Monday, December 27, 2010
राडियागेट के दौरान पत्रकार तो बुलंद हुए हैं, दलालों का कवच उतर गया
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