शेषनारायण सिंह
बाबरी मस्जिद के विध्वंस के १० दिन बाद गठित किये गए लिब्रहान आयोग ने अपनी जांच पूरी करके रिपोर्ट दे दी है . रिपोर्ट के कुछ अंशों को छापने का दावा करने वाले मीडिया संगठनों का कहना है कि उनके हाथ कोई खजाना लग गया है . करीब १७ साल के काम के बाद इस आयोग के हवाले से जो कुछ अखबारों में छपा है ,उसमें कुछ भी नया नहीं है. जिन लोगों ने १९८६ से १९९२ तक के संघी तानाशाही के काम को देखा किया है उन्हें सब कुछ मालूम था. लिब्रहान आयोग से उम्मीद की जा रही थी कि वह उन बातों को सामने लाएगा जिनके बारे में मीडिया वालों को शक तो था लेकन पक्के तौर पर नहीं मालूम था कि किस तरह से आर एस एस ने सारे खेल को अंजाम दिया था .अभी रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं हुई है .उम्मीद की जानी चाहिए कि जब संसद के पटल पर रखी जायेगी तो पता लगेगा कि साम्प्रदायिक ताक़तों ने किस तरह से एक पूरे देश को घेर रखा था. एक अख़बार में रिपोर्ट के छपने के हवाले से बी जे पी ने लोकसभा में हंगामा करके , रिपोर्ट को लीक करने पर इतना बड़ा बवाल खड़ा करने की कोशिश की कि जनता का ध्यान , इस बात से हट जाए कि उसके अन्दर क्या है . विपक्ष के नेता, लाल कृष्ण अडवाणी ने खुद मोर्चा संभाला और कहा कि इस रिपोर्ट में पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को भी दोषी बताया गया है जो कि असंभव है . अडवाणी ने कहा कि वे खुद को दोषी पाए जाने से उतने दुखी नहीं है . लेकिन वाजपेयी को दोषी बता कर लिब्रहान आयोग ने भारी गलती की है .. अडवाणी के इस पैतरे से साफ़ हो गया है कि संघ बिरादरी अभी वाजपेयी को उदारवादी भूमिका में ही रखना चाहती है.उनको अभी कट्टर पंथी काम के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाने वाला है. लोकसभा में अडवाणी ने दावा किया कि वाजपेयी तो बहुत ही सीधे व्यक्ति हैं इस लिए उनको बाबरी मस्जिद के विध्वंस के काम में शामिल नहीं बताया जा सकता.
सच्ची बात यह है कि अडवाणी ,वाजपेयी और बी जे पी के बाकी नेता भी आर एस एस की कठपुतलिया हैं. . सबको आर एस एस के नाटक में रोल दिया गया हैं.. और सबको अपना काम करना है . बी जे पी के सत्ता अभियान की डोर नागपुर के बड़े दरबार के हाथ में रहती है .संघ ही इनके हर काम का नियंता है. देश में सावरकरवादी फासिज्म स्थापित करने के उद्देश्य से हिंदुत्व की राजनीति का सहारा लेने वाली संघ बिरादरी में अटल बिहारी वाजपेयी की भूमिका एक उदार वादी अभिनेता की है. वाजपेयी उसी रोल को निभा रहे हैं . अडवाणी या बी जे पी के अन्य नेता समझाने की कोशिश कर रहे हैं, कि संघी धंध फंद से वाजपेयी का कोई लेना देना नहीं है लेकिन यह सच नहीं है . वाजपेयी संघ के हर कर्म में शामिल रहे हैं . अगर ऐसा न होता तो आर एस एस उनको कभी का दूध की मक्खी की तरह निकाल कर फेंक चुका होता. संघी राजनीति में जो लोग भी नागपुर से असहमत होते हैं उनका वहीं हश्र होता है जो बलराज मधोक का हुआ था या लाल कृष्ण अडवाणी का होने वाला है . लेकिन जब संघी भाइयों ने वाजपेयी के चेहरे से उदारवादी नकाब के हटने की संभावना पर इतनी तीखी प्रतिक्रिया दिखाई है तो उनकी राजनीतिक यात्रा पर एक नज़र डाल लेना सही रहेगा.. हालांकि बी जे पी के छुटभैये नेता टी वी चैनलों पर बार बार यह कहते पाए गए हैं कि वाजपेयी जी बीमार हैं लिहाज़ा उनके खिलाफ कोई टिप्पणी न की जाए. .
अटल बिहारी वाजपेयी के ५ दिसंबर १९९२ के एक भाषण के कुछ अंश एक टी वी चैनल पर दिखाए जा रहे हैं .जिसमें उन्होंने दावा किया है कि कल अयोध्या में पता नहीं क्या होगा. यहाँ एक बार फिर यह जान लेना ज़रूरी है कि ६ दिसंबर को अयोध्या में संघी नेताओं को केवल पूजा पाठ करने की अनुमति मिली थी . उत्तर प्रदेश के उस वक़्त के मुख्य मंत्री ,कल्याण सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में लिख कर दिया था कि बाबरी मस्जिद को कोई नुक्सान नहीं पंहुचेगा . अपने ५ दिसंबर के भाषण में वाजपेयी उसी पूजा पाठ का हवाला दे रहे हैं . उसमें उन्होंने कहा है कि पूजा के पहले ज़मीन को समतल किया जाएगा ,सफाई की जायेगी और फिर वहां मौजूद करोड़ों लोग जो चाहेंगें करेंगें.. यानी यह कहना गलत होगा कि क वाजपेयी को मालूम नहीं था कि अयोध्या में ६ दिसंबर को क्या होने वाला है.. सारे ड्रामे में उनका रोल दिल्ली में रहकर माहौल दुरुस्त करने के था . उनको बाबरी मस्जिद के ज़मींदोज़ होने के बाद कहना था कि उन्हें बहुत तकलीफ हुई है . सो उन्होंने कहा . लेकिन उनको दोषमुक्त बता कर उदारवाद के संघी मुखौटे को छिन्न भिन्न करने की कोशिश का आर एस एस के सभी मातहत संगठन विरोध करेंगें. सवाल यह है कि क्या वाजपेयी वास्तव में उतने ही पवित्र हैं जितना दावा किया जा रहा है . बी जे पी वाले यह भी कहते पाये जा आरहे हैं कि वाजपेयी बीमार हैं लिहाज़ा उनके बारे में कोई सख्त टिप्पणी न की जाए. लेकिन जो इतिहास पुरुष होते हैं उनको इस तरह की माफी नहीं मिलती. वाजपेयी ६ साल तक भारत के प्रधानमंत्री रह चुके हैं इसलिए उनके काम को इतिहास की कसौटी पर कसा जाएगा. .अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते देश ने जिस तरह का अपमान झेला है उसे देखते हुए तो उन्हें कभी माफ़ नहीं किया जा सकता. कंधार में आतंकवादियों के सामने घुटने टेकना और संसद पर आतंकवादी हमला उनके दो ऐसे कारनामे हैं जिसकी वजह से इतिहास और आने वाले नस्लें उन्हें कभी माफ़ नहीं करेंगीं. . उनके प्रधान मंत्री रहते , घूस के भी सारे रिकॉर्ड टूट गए.. इन घूस के कारनामों को जानने के लिये किसी जासूस की ज़रुरत नहीं है . जो साफ़ नज़र आता है उसी का ज़िक्र किया जाएगा. . उनके ख़ास रह चुके, प्रमोद महाजन ने जुगाड़ करके १२५० करोड़ रूपये में विदेश संचार निगम लिमिटेड को बेच दिया . यानी सरकारी खजाने में केवल यही रक़म जमा हुई. जिन्होंने देखा है वे बता देंगें कि इस कंपनी की दिल्ली स्थित ग्रेटर कैलाश की एक प्रोपर्टी की कीमत इस से बहुत ज्यादा होगी. इस तरह की इस कंपनी के पास पूरे देश में बहुत सारी ज़मीन है . ज़ाहिर है कि इस एक बिक्री से देश को हज़ारों करोड़ का नुकसान हुआ और वाजपेयी के शिष्य प्रमोद महाजन को भारी आर्थिक लाभ हुआ. प्रमोद महाजन के इस काम में उनके साथ अटल बिहारी वाजपेयी की एक घनिष्ठ महिला मित्र के दामाद भी शामिल रहते थे. . हिमाचल प्रदेश में वाजपेयी के लिए पूरी एक पहाड़ी खरीद कर वहां एक महल बनवाया गया है . वाजपेयी को बहुत धर्मात्मा बताने वालों को चाहिए कि इस महल के बनवाये जाने के पीछे की कहानी सार्वजनिक करें. . १९८९ में बोफोर्स के ६५ करोड़ रूपये के कथित घूस को मुद्दा बनाकर सत्ता में आई बी जे पी के ६ साल के राज में १०० करोड़ रूपये तक को तो फुटकर पैसा माना जाता था . वह घूस था ही नहीं . अगर अब भी वाजपेयी को पवित्र मानने की बी जे पी कोशिश करती है तो उसका फैसला इतिहास पर छोड़ना ही ठीक होगा. वैसे वाजपेयी का इतिहास भी ऐसा नहीं है जिस पर गर्व किया जा सके. अटल बिहारी वाजपेयी ने १९४२ में ग्वालियर में दो देशभक्तों के खिलाफ अंग्रेजों की अदालत में गवाही दी थी जिसके बाद आज़ादी के उन दोनों सिपाहियों को फांसी हो गयी थी. . इनकी उम्र इन दिनों १८ साल की ही थी . उन दिनों आर एस एस अंग्रेजों के ख़ास मुखबिर के रूप में काम करता था.इसलिए वाजपयी को बहुत पवित्र बनाकर लिब्रहान आयोग की सिफारिशों को रास्ते से हटाने के एसंघ परिवार की हर कोशिश का विरोध किया जाना चाहिए और देश के सभ्य समाज को आग याना चाहिए ताकि नागपुर किशान्रे पर नाचने वाल एचंद नेट अहमारे देश की धरम निरापेस्ख राजनीति को नुक्सान न पंहुचा सकें
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Thursday, November 26, 2009
भागलपुर में दंगा पीड़ितों को मदद----एक ऐतिहासिक क़दम
शेषनारायण सिंह
बीस साल पहले जब भागलपुर में दंगे हुए थे तो पूरे देश में आतंक फ़ैल गया था. मुसलमानों को चुन चुन कर मारा गया था. आर एस एस ने यह साबित करने की कोशिश की थी कि उनकी मनमानी को कोई नहीं रोक सकता. बाबरी मस्जिद के खिलाफ फासिस्ट ताक़तें लामबंद हो रही थीं.. शिलापूजन का ज़माना था और बोफोर्स के चक्कर में केंद्र सरकार बैकफुट पर थी. इस पृष्ठभूमि में भागलपुर में मुसलमानों का क़त्ले-आम हुआ और १९८९ के चुनाव के बाद बी जे पी की मदद से विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बन गए. जैसा कि हर बार होता रहा है, दंगे में मारे गए लोगों के परिवार वालों के घाव रिसते रहे, केंद्र सरकार में किसी की भी हिम्मत नहीं थी कि उनपर मरहम लगा सकता क्योंकि १९८९ में गैर कांग्रेसी सत्ता पर चारों तरफ से नागपुर की नकेल लगी हुई थी. १९८४ में सिखों के सामूहिक संहार के बाद के माहौल में कुछ हलकों से पीड़ित परिवारों के पुनर्वास की बात उठ रही थी लेकिन कोई भी इसे गंभीरता से नहीं ले रहा था. . उसके पहले देश में सैकड़ों दंगे हो चुके थे और कहीं भी किसी आर्थिक सहायता की बात नहीं हुई थी . लोग मान चुके थे कि दंगे के बाद अगर मुसलमान को शान्ति से पड़े रहने की आज़ादी मिल जाए तो वही बहुत है .
आज खबर आई है कि भागलपुर दंगों के पीड़ित परिवारों को कुछ आर्थिक सहायता मिलने वाली है. लगता है कि इस फैसले में बिहार की वर्तमान सरकार का योगदान है और उसके लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को श्रेय दिया जाना चाहिए... हालांकि किसी भी आर्थिक सहायता से दंगों से हुए जान माल के नुक्सान की भरपाई नहीं हो सकती लेकिन नीतीश कुमार का यह कदम सभ्य समाज में एक उम्मीद ज़रूर जगायेगा. १९८९ का भागलपुर दंगा , फासिस्ट ताक़तों की नयी तकनीक की शुरुआत माना जाता है. राम शिलापूजन के जुलूस पर किसी ने कथित रूप से बम से हमला कर दिया था . हिंदुत्व की नयी तर्ज़ पर राजनीति कर रही बी जे पी के सहयोगी संगठनों को दंगे का बहाना मिल गया और शायद पहली बार इस इलाके में दंगाई गावों में घुस कर लूटपाट करने लगे . दंगा गावों में बड़े पैमाने पर शुरू हो चुका था और संघ भावना से प्रेरित लोग खुशियाँ मना रहे थे . उनका मानना है कि अगर दंगा फैलता है तो साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण होता है और उसका फायेदा चुनाव में बी जे पी को ही होता है. १९८९ के चुनाव में भी ऐसा ही हुआ. . वी पी सिंह की सरकार बनने के बाद लाल कृष्ण अडवाणी की रथयात्रा निकली . वी पी सिंह की कोर दबी हुई थी और जहां जहां अडवाणी का रथ गया , वहां वहां दंगे हुए. आज समाज के हर वर्ग में जो साम्प्रदायिकता का आलम है उसका ज़िम्मा अडवाणी की उस रथयात्रा पर काफी हद तक है. बहरहाल दंगे फैले और आर एस एस ने उसका लाभ उठाया . अब हालात बदल रहे हैं . सूचना की क्रान्ति के चलते मीडिया की पंहुच दूर दूर तक हो चुकी है . नेताओं को भी समझ में आने लगा है कि जनमत की दिशा तय करने में मीडिया की भूमिका है . हो सकता है कि भागलपुर दंगों के पीड़ितों को इसी सोच के तहत मदद करने का फैसला किया गया हो. जो भी हो यह क़दम महत्वपूर्ण है और इसके लिए बिहार सरकार की प्रशंसा की जानी चाहिए. हालांकि यह भी सच है कि नीतेश कुमार बिहार की गद्दी पर बी जे पी की कृपा से ही विद्यमान हैं लेकिन ऐसा लगता है कि बी जे पी वाले नीतीश कुमार की समाजवादी सोच को दबा नहीं पा रहे हैं .
अन्य राज्य सरकारों को भी चाहिए कि बिहार सरकार के इस क़दम से सबक लें और अपने राज्यों के दंगा पीड़ितों को मदद करें. . अगर एक बात शुरू हुई है तो इसका असर दूर दूर तक जाएगा. सभ्य समाज को कोशिश करना चाहिए कि आने वाले वक़्त में दंगा करने वालों की पहचान करके उनके संगठनों को ही पीड़ितों को सहायता देने का अभियान चलायें.. अगर ऐसा हो सका तो साम्प्रदायिक संगठनों के ऊपर सज़ा का दबाव पड़ेगा और भविष्य में दंगा शुरू करने से पहले लुम्पन लोगों को कई बार सोचना पड़ेगा. अगर दगाइयों को सज़ा देने की परंपरा भी शुरू हो गयी, जैसी सिख दंगों में ह़ा है तो राजनेताओं के लिए दंगों को अंजाम देने के लिए गरीब गुंडों को इस्तेमाल करना बहुत मुश्किल होगा.
बीस साल पहले जब भागलपुर में दंगे हुए थे तो पूरे देश में आतंक फ़ैल गया था. मुसलमानों को चुन चुन कर मारा गया था. आर एस एस ने यह साबित करने की कोशिश की थी कि उनकी मनमानी को कोई नहीं रोक सकता. बाबरी मस्जिद के खिलाफ फासिस्ट ताक़तें लामबंद हो रही थीं.. शिलापूजन का ज़माना था और बोफोर्स के चक्कर में केंद्र सरकार बैकफुट पर थी. इस पृष्ठभूमि में भागलपुर में मुसलमानों का क़त्ले-आम हुआ और १९८९ के चुनाव के बाद बी जे पी की मदद से विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बन गए. जैसा कि हर बार होता रहा है, दंगे में मारे गए लोगों के परिवार वालों के घाव रिसते रहे, केंद्र सरकार में किसी की भी हिम्मत नहीं थी कि उनपर मरहम लगा सकता क्योंकि १९८९ में गैर कांग्रेसी सत्ता पर चारों तरफ से नागपुर की नकेल लगी हुई थी. १९८४ में सिखों के सामूहिक संहार के बाद के माहौल में कुछ हलकों से पीड़ित परिवारों के पुनर्वास की बात उठ रही थी लेकिन कोई भी इसे गंभीरता से नहीं ले रहा था. . उसके पहले देश में सैकड़ों दंगे हो चुके थे और कहीं भी किसी आर्थिक सहायता की बात नहीं हुई थी . लोग मान चुके थे कि दंगे के बाद अगर मुसलमान को शान्ति से पड़े रहने की आज़ादी मिल जाए तो वही बहुत है .
आज खबर आई है कि भागलपुर दंगों के पीड़ित परिवारों को कुछ आर्थिक सहायता मिलने वाली है. लगता है कि इस फैसले में बिहार की वर्तमान सरकार का योगदान है और उसके लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को श्रेय दिया जाना चाहिए... हालांकि किसी भी आर्थिक सहायता से दंगों से हुए जान माल के नुक्सान की भरपाई नहीं हो सकती लेकिन नीतीश कुमार का यह कदम सभ्य समाज में एक उम्मीद ज़रूर जगायेगा. १९८९ का भागलपुर दंगा , फासिस्ट ताक़तों की नयी तकनीक की शुरुआत माना जाता है. राम शिलापूजन के जुलूस पर किसी ने कथित रूप से बम से हमला कर दिया था . हिंदुत्व की नयी तर्ज़ पर राजनीति कर रही बी जे पी के सहयोगी संगठनों को दंगे का बहाना मिल गया और शायद पहली बार इस इलाके में दंगाई गावों में घुस कर लूटपाट करने लगे . दंगा गावों में बड़े पैमाने पर शुरू हो चुका था और संघ भावना से प्रेरित लोग खुशियाँ मना रहे थे . उनका मानना है कि अगर दंगा फैलता है तो साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण होता है और उसका फायेदा चुनाव में बी जे पी को ही होता है. १९८९ के चुनाव में भी ऐसा ही हुआ. . वी पी सिंह की सरकार बनने के बाद लाल कृष्ण अडवाणी की रथयात्रा निकली . वी पी सिंह की कोर दबी हुई थी और जहां जहां अडवाणी का रथ गया , वहां वहां दंगे हुए. आज समाज के हर वर्ग में जो साम्प्रदायिकता का आलम है उसका ज़िम्मा अडवाणी की उस रथयात्रा पर काफी हद तक है. बहरहाल दंगे फैले और आर एस एस ने उसका लाभ उठाया . अब हालात बदल रहे हैं . सूचना की क्रान्ति के चलते मीडिया की पंहुच दूर दूर तक हो चुकी है . नेताओं को भी समझ में आने लगा है कि जनमत की दिशा तय करने में मीडिया की भूमिका है . हो सकता है कि भागलपुर दंगों के पीड़ितों को इसी सोच के तहत मदद करने का फैसला किया गया हो. जो भी हो यह क़दम महत्वपूर्ण है और इसके लिए बिहार सरकार की प्रशंसा की जानी चाहिए. हालांकि यह भी सच है कि नीतेश कुमार बिहार की गद्दी पर बी जे पी की कृपा से ही विद्यमान हैं लेकिन ऐसा लगता है कि बी जे पी वाले नीतीश कुमार की समाजवादी सोच को दबा नहीं पा रहे हैं .
अन्य राज्य सरकारों को भी चाहिए कि बिहार सरकार के इस क़दम से सबक लें और अपने राज्यों के दंगा पीड़ितों को मदद करें. . अगर एक बात शुरू हुई है तो इसका असर दूर दूर तक जाएगा. सभ्य समाज को कोशिश करना चाहिए कि आने वाले वक़्त में दंगा करने वालों की पहचान करके उनके संगठनों को ही पीड़ितों को सहायता देने का अभियान चलायें.. अगर ऐसा हो सका तो साम्प्रदायिक संगठनों के ऊपर सज़ा का दबाव पड़ेगा और भविष्य में दंगा शुरू करने से पहले लुम्पन लोगों को कई बार सोचना पड़ेगा. अगर दगाइयों को सज़ा देने की परंपरा भी शुरू हो गयी, जैसी सिख दंगों में ह़ा है तो राजनेताओं के लिए दंगों को अंजाम देने के लिए गरीब गुंडों को इस्तेमाल करना बहुत मुश्किल होगा.
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हिंदुत्व
Wednesday, November 18, 2009
बी जे पी में किसी भी गुट की मनमानी नहीं चलेगी
शेष नारायण सिंह
बी जे पी को एक बँटा हुआ घर कहकर नए संघ प्रमुख ने इस बात का ऐलान कर दिया है कि बी जे पी में किसी भी गुट की मनमानी नहीं चलेगी आर एस एस ने एक बार फिर स्पष्ट कर दिया है कि देश में हिंदुत्व की राजनीति पर केवल उस का कण्ट्रोल है. दिल्ली में बैठे कॉकटेल सर्किट वालों की किसी भी राय का संघ के फैसलों पर कोई असर नहीं पड़ता.पिछले कई महीनों से चल रहे आतंरिक विवाद का जब कोई हल नहीं निकला तो , संघ के मुखिया , मोहन भागवत ने बाकायदा एक न्यूज़ चैनल को इंटरव्यू दिया. इस इंटरव्यू में जो कुछ उन्होंने कहा , उसका भावार्थ यह है कि बी जे पी में अब तक सक्रिय अडवाणी और राजनाथ गुटों को किनारे करने का फैसला हो चुका है. दिल्ली में सक्रिय मौजूदा बी जे पी नेताओं की ऐसी ताक़त है कि वे किसी भी नेता के सांकेतिक भाषा में दिए गए बयान को अपने हिसाब से मीडिया में व्याख्या करवा देते हैं . लगता है कि नागपुर वालों को भी इस ताक़त का अंदाज़ लग गया है. इसीलिये अबकी बार , मोहन भागवत ने हिन्दी के सबसे बड़े टी वी न्यूज़ चैनल को अपनी बात कहने के लिए चुना.. कहीं कोई शक न रह जाए इस लिए उन्होंने अडवाणी के करीबी चार बड़े नेताओं का नाम लेकर उन्हें अध्यक्ष पद की दावेदारी से बाहर कर दिया. जब अरुण जेटली,सुषमा स्वराज और वेंकैया नायडू बी जे पी संगठन से बाहर हो जायेंगें , तो एक तरह से अडवाणी की ताक़त ख़त्म हो जायेगी क्योंकि लोकसभा में पार्टी के नेता पद से अडवाणी को हटाने का फैसला पहले ही किया जा चुका है. उस फैसले को लागू करने में थोड़ी मोहलत दे दी गयी है लेकिन हिंदुत्व की राजनीति की बारीकियां समझने वाले जानते हैं कि अडवाणी के लिए अब लोकसभा में नेता बने रहना असंभव है . इसी तरह तो उनके जिन्नाह वाले भाषण के बाद अडवाणी को अध्यक्ष पद से हटाया गया था. उस वक़्त भी कुछ दिन तक दिल्ली के सत्ता के गलियारों में और मीडिया में प्लांट की गयी ख़बरों के ज़रिये फैसले को टालने की कोशिश की गयी थी लेकिन आखिर में जाना ही पड़ा था. इस बार भी मामला लेट लतीफ़ तो हो सकता है लेकिन अडवाणी और राजनाथ के ख़ास बन्दों के कब्जे से संघ के आला नेता अपनी पार्टी को निकाल लेने का मन बना चुके हैं . यह भी एक सच है कि दिल्ली में जमे हुए अमीर-उमरा आसानी से सत्ता नहीं छोड़ते लेकिन नागपुर की ताक़त को भी कम करके नहीं आँका जा सकता . नागपुर को भी मालूम है कि दिल्ली वाले पूरी कोशिश करेंगें लेकिन आर एस एस का काम भी पूरी प्लानिंग के साथ होता है . १९९८ में सत्ता में आने के बाद जिस तरह से बी जे पी के नेताओं और मंत्रियों ने कांग्रेसियों की तरह घूस और बे-ईमान्री का आचरण शुरू किया था , उस से आर एस एस के नेताओं को बहुत निराशा हुई थी. उसी दौर में उन्होंने अपने सबसे काबिल संगठनकर्ता , गोविन्दाचार्य को बी जे पी से अलग कर दिया था और उन्हें बी जे पी का विकल्प तलाशने और राजनीतिक हस्तक्षेप की अन्य संभावनाओं को तलाशने का काम सौंप दिया था.. राष्ट्र निर्माण जैसे नारों के साथ गोविन्दाचार्य तभी से इस काम में जुटे हुए हैं. उनकी कोशिश है कि आर एस एस के बाहर से भी लोगों को लाकर जोड़ा जाए. देश के ज़्यादातर गांधीवादी संगठनों पर आर एस एस का कब्जा हो ही चुका है . कोशिश की जा रही है कि हिंद स्वराज जैसी गाँधी की विरासत की निशानियों की भी हिन्दुत्ववादी व्याख्या कर ली जाये और जल्द से जल्द बी जे पी का विकल्प तैयार कर लिया जाए. अभी तक के एप्रगति को देखन इसे लगता है कि उसमें अभी कुछ और टाइम लगेगा. शायद इसीलिये संघ ने फैसला किया है कि तब तक दिल्ली में जमे हुए नेताओं के कब्जे से बाहर लाकर अपनी राजनीतिक शाखा को अपने ख़ास बन्दों के हवाले कर दिया आये. जिस से अगर बहुत ज़रूरी न हो तो नयी पार्टी बनाने की झंझट से बचा जा सके.
महाराष्ट्र के बी जे पी अध्यक्ष , नितिन गडकरी की ताजपोशी की तैयारी, शायद इसी योजना का हिस्सा है . नितिन गडकरी एक कुशाग्रबुद्धि इंसान हैं . पेशे से इंजीनियर , नितिन गडकरी ने मुंबई वालों को बहुत ही राहत दी थी जब पी डब्ल्यू डी मंत्री के रूप में शहर में बहुत सारे काम किये थे. वे नागपुर के हैं और वर्तमान संघ प्रमुख के ख़ास बन्दे के रूप में उनकी पहचान होती. है.उनके खिलाफ स्थापित सत्ता वालों का जो अभियान चल रहा है उसमें यह कहा जा रहा है कि उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर कोई काम नहीं किया है. जो लोग यह कुतर्क चला रहे हैं उनको भी मालूम है कि यह बात चलने वाली नहीं है. मुंबई जैसे नगर में जहां दुनिया भर की गतिविधियाँ चलती रहती हैं , वहां नितिन गडकरी की इज्ज़त है, वे राज्य में मंत्री रह चुके हैं , उनके पीछे आर एस एस का पूरा संगठन खडा है तो उनकी सफलता की संभावनाएं अपने आप बढ़ जाती हैं . और इस बात को तो हमेशा के लिए दफन कर दिया जाना चाहिए कि दिल्ली में ही राष्ट्रीय अनुभव होते हैं . मुंबई, बेंगलुरु , हैदराबाद आदि शहरों में भी राष्ट्रीय अनुभव हो सकते हैं . बहरहाल अब लग रहा है कि नितिन गडकरी ही बी जे पी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए जायेंगें और दिल्ली में रहने वाले नेताओं को एक बार फिर एक प्रादेशिक नेता के मातहत काम करने को मजबूर होना पड़ेगा . राजंथ सिंह की तैनाती के बाद भी दिल्ली वाली जमात को इसी दौर से गुज़रना पड़ा था. .. यह बात भी सच है कि दिल्ली वाले नेता नागपुर की मनमानी को आसानी से मानने वाले नहीं है ..अडवाणी गुट की एक प्रमुख नेता, सुषमा स्वराज ने बयान दिया है कि अडवाणी से पांच साल के लिए लोक सभा में बी जे पी के नेता चुने गए हैं और वे अपना कार्यकाल पूरा करेंगें . राजनीतिक पर्यवेक्षक मानते हैं कि इस बयान में बगावत की बू आ रही है . हो सकता है सच भी हो लेकिन हिंदुत्व की राजनीति में बड़े बड़े लोगों की बगावत को कुचल दिया गया है. सुषमा स्वराज की बी जे पी में रहते हुए, संघ के खिलाफ झंडा बुलंद करने की वैसे भी हैसियत नहीं है क्योंकि वे मूल रूप से समाजवादी राजनीति के रास्ते सत्ता की राजनीति में आई हैं . जिस उम्र में लोग संघ की राजनीति में शामिल होते हैं उस दौर में वे अम्बाला में रह कर आर एस एस को एक फासिस्ट संगठन कहती थीं. बाद में जनता पार्टी बनने पर मंत्री बनीं और जब बी जे पी वाले जनता पार्टी से अलग हुए तो हिन्दुत्ववादी बनीं. इसलिए संघ की राजनीति में उनकी पोजीशन दूसरे स्तर की है. इस लिए अब इस बात में कोई शक नहीं है कि हिन्दुत्व की राजनीति इस देश में करवट ले रही है और आने वाले कुछ महीनों में हिन्दुत्ववादी ताक़तें रिग्रुप होने जा रही हैं .
बी जे पी को एक बँटा हुआ घर कहकर नए संघ प्रमुख ने इस बात का ऐलान कर दिया है कि बी जे पी में किसी भी गुट की मनमानी नहीं चलेगी आर एस एस ने एक बार फिर स्पष्ट कर दिया है कि देश में हिंदुत्व की राजनीति पर केवल उस का कण्ट्रोल है. दिल्ली में बैठे कॉकटेल सर्किट वालों की किसी भी राय का संघ के फैसलों पर कोई असर नहीं पड़ता.पिछले कई महीनों से चल रहे आतंरिक विवाद का जब कोई हल नहीं निकला तो , संघ के मुखिया , मोहन भागवत ने बाकायदा एक न्यूज़ चैनल को इंटरव्यू दिया. इस इंटरव्यू में जो कुछ उन्होंने कहा , उसका भावार्थ यह है कि बी जे पी में अब तक सक्रिय अडवाणी और राजनाथ गुटों को किनारे करने का फैसला हो चुका है. दिल्ली में सक्रिय मौजूदा बी जे पी नेताओं की ऐसी ताक़त है कि वे किसी भी नेता के सांकेतिक भाषा में दिए गए बयान को अपने हिसाब से मीडिया में व्याख्या करवा देते हैं . लगता है कि नागपुर वालों को भी इस ताक़त का अंदाज़ लग गया है. इसीलिये अबकी बार , मोहन भागवत ने हिन्दी के सबसे बड़े टी वी न्यूज़ चैनल को अपनी बात कहने के लिए चुना.. कहीं कोई शक न रह जाए इस लिए उन्होंने अडवाणी के करीबी चार बड़े नेताओं का नाम लेकर उन्हें अध्यक्ष पद की दावेदारी से बाहर कर दिया. जब अरुण जेटली,सुषमा स्वराज और वेंकैया नायडू बी जे पी संगठन से बाहर हो जायेंगें , तो एक तरह से अडवाणी की ताक़त ख़त्म हो जायेगी क्योंकि लोकसभा में पार्टी के नेता पद से अडवाणी को हटाने का फैसला पहले ही किया जा चुका है. उस फैसले को लागू करने में थोड़ी मोहलत दे दी गयी है लेकिन हिंदुत्व की राजनीति की बारीकियां समझने वाले जानते हैं कि अडवाणी के लिए अब लोकसभा में नेता बने रहना असंभव है . इसी तरह तो उनके जिन्नाह वाले भाषण के बाद अडवाणी को अध्यक्ष पद से हटाया गया था. उस वक़्त भी कुछ दिन तक दिल्ली के सत्ता के गलियारों में और मीडिया में प्लांट की गयी ख़बरों के ज़रिये फैसले को टालने की कोशिश की गयी थी लेकिन आखिर में जाना ही पड़ा था. इस बार भी मामला लेट लतीफ़ तो हो सकता है लेकिन अडवाणी और राजनाथ के ख़ास बन्दों के कब्जे से संघ के आला नेता अपनी पार्टी को निकाल लेने का मन बना चुके हैं . यह भी एक सच है कि दिल्ली में जमे हुए अमीर-उमरा आसानी से सत्ता नहीं छोड़ते लेकिन नागपुर की ताक़त को भी कम करके नहीं आँका जा सकता . नागपुर को भी मालूम है कि दिल्ली वाले पूरी कोशिश करेंगें लेकिन आर एस एस का काम भी पूरी प्लानिंग के साथ होता है . १९९८ में सत्ता में आने के बाद जिस तरह से बी जे पी के नेताओं और मंत्रियों ने कांग्रेसियों की तरह घूस और बे-ईमान्री का आचरण शुरू किया था , उस से आर एस एस के नेताओं को बहुत निराशा हुई थी. उसी दौर में उन्होंने अपने सबसे काबिल संगठनकर्ता , गोविन्दाचार्य को बी जे पी से अलग कर दिया था और उन्हें बी जे पी का विकल्प तलाशने और राजनीतिक हस्तक्षेप की अन्य संभावनाओं को तलाशने का काम सौंप दिया था.. राष्ट्र निर्माण जैसे नारों के साथ गोविन्दाचार्य तभी से इस काम में जुटे हुए हैं. उनकी कोशिश है कि आर एस एस के बाहर से भी लोगों को लाकर जोड़ा जाए. देश के ज़्यादातर गांधीवादी संगठनों पर आर एस एस का कब्जा हो ही चुका है . कोशिश की जा रही है कि हिंद स्वराज जैसी गाँधी की विरासत की निशानियों की भी हिन्दुत्ववादी व्याख्या कर ली जाये और जल्द से जल्द बी जे पी का विकल्प तैयार कर लिया जाए. अभी तक के एप्रगति को देखन इसे लगता है कि उसमें अभी कुछ और टाइम लगेगा. शायद इसीलिये संघ ने फैसला किया है कि तब तक दिल्ली में जमे हुए नेताओं के कब्जे से बाहर लाकर अपनी राजनीतिक शाखा को अपने ख़ास बन्दों के हवाले कर दिया आये. जिस से अगर बहुत ज़रूरी न हो तो नयी पार्टी बनाने की झंझट से बचा जा सके.
महाराष्ट्र के बी जे पी अध्यक्ष , नितिन गडकरी की ताजपोशी की तैयारी, शायद इसी योजना का हिस्सा है . नितिन गडकरी एक कुशाग्रबुद्धि इंसान हैं . पेशे से इंजीनियर , नितिन गडकरी ने मुंबई वालों को बहुत ही राहत दी थी जब पी डब्ल्यू डी मंत्री के रूप में शहर में बहुत सारे काम किये थे. वे नागपुर के हैं और वर्तमान संघ प्रमुख के ख़ास बन्दे के रूप में उनकी पहचान होती. है.उनके खिलाफ स्थापित सत्ता वालों का जो अभियान चल रहा है उसमें यह कहा जा रहा है कि उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर कोई काम नहीं किया है. जो लोग यह कुतर्क चला रहे हैं उनको भी मालूम है कि यह बात चलने वाली नहीं है. मुंबई जैसे नगर में जहां दुनिया भर की गतिविधियाँ चलती रहती हैं , वहां नितिन गडकरी की इज्ज़त है, वे राज्य में मंत्री रह चुके हैं , उनके पीछे आर एस एस का पूरा संगठन खडा है तो उनकी सफलता की संभावनाएं अपने आप बढ़ जाती हैं . और इस बात को तो हमेशा के लिए दफन कर दिया जाना चाहिए कि दिल्ली में ही राष्ट्रीय अनुभव होते हैं . मुंबई, बेंगलुरु , हैदराबाद आदि शहरों में भी राष्ट्रीय अनुभव हो सकते हैं . बहरहाल अब लग रहा है कि नितिन गडकरी ही बी जे पी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए जायेंगें और दिल्ली में रहने वाले नेताओं को एक बार फिर एक प्रादेशिक नेता के मातहत काम करने को मजबूर होना पड़ेगा . राजंथ सिंह की तैनाती के बाद भी दिल्ली वाली जमात को इसी दौर से गुज़रना पड़ा था. .. यह बात भी सच है कि दिल्ली वाले नेता नागपुर की मनमानी को आसानी से मानने वाले नहीं है ..अडवाणी गुट की एक प्रमुख नेता, सुषमा स्वराज ने बयान दिया है कि अडवाणी से पांच साल के लिए लोक सभा में बी जे पी के नेता चुने गए हैं और वे अपना कार्यकाल पूरा करेंगें . राजनीतिक पर्यवेक्षक मानते हैं कि इस बयान में बगावत की बू आ रही है . हो सकता है सच भी हो लेकिन हिंदुत्व की राजनीति में बड़े बड़े लोगों की बगावत को कुचल दिया गया है. सुषमा स्वराज की बी जे पी में रहते हुए, संघ के खिलाफ झंडा बुलंद करने की वैसे भी हैसियत नहीं है क्योंकि वे मूल रूप से समाजवादी राजनीति के रास्ते सत्ता की राजनीति में आई हैं . जिस उम्र में लोग संघ की राजनीति में शामिल होते हैं उस दौर में वे अम्बाला में रह कर आर एस एस को एक फासिस्ट संगठन कहती थीं. बाद में जनता पार्टी बनने पर मंत्री बनीं और जब बी जे पी वाले जनता पार्टी से अलग हुए तो हिन्दुत्ववादी बनीं. इसलिए संघ की राजनीति में उनकी पोजीशन दूसरे स्तर की है. इस लिए अब इस बात में कोई शक नहीं है कि हिन्दुत्व की राजनीति इस देश में करवट ले रही है और आने वाले कुछ महीनों में हिन्दुत्ववादी ताक़तें रिग्रुप होने जा रही हैं .
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Thursday, November 12, 2009
दूध वाले मजनूं कभी खून वाले मजनूं का स्थान नहीं ले सकते
शेष नारायण सिंह
कुछ राज्यों में हुए उप-चुनावों ने भारतीय लोकतंत्र के परिपक्व होते रूप को और मजबूती दी है. इन चुनावों के नतीजों ने यह साफ़ कर दिया है कि जनता के विश्वास पर किसी का एकाधिकार नहीं हो सकता और अब वोटों की ज़मींदारी प्रथा ख़त्म हो रही है. पश्चिम बंगाल से जो नतीजे आये हैं उनसे साफ़ है कि अगर जनता को भरोसेमंद विकल्प मिले तो वह वोट देने में उसका सही इस्तेमाल करने में संकोच नहीं करेगी. वर्षों तक , तृणमूल कांग्रेस को नॉन-सीरियस राजनीतिक ताक़त मानने वाली पश्चिम बंगाल की जनता ने ऐलान कर दिया है कि वह राज करने वाला नौकर बदलने के मूड में है .ममता बनर्जी को अब वहां की जनता ने गंभीरता से लेने का मन बना लिया है .. पिछले ३३ साल के राज में लेफ्ट फ्रंट ने बहुत सारे अच्छे काम किये जिसकी वजह से दिल्ली की हर सरकार की मर्जी के खिलाफ जनता ने कम्युनिस्टों को सत्ता दे रखी थी लेकिन अब जब कि लेफ्ट फ्रंट के नेता लोग गलतियों पर गलतियाँ करते जा रहे हैं तो जनता ने उन्हें सबक सिखाने का फैसला कर लिया है . इन नतीजों के संकेत बहुत ही साफ़ हैं कि जनता ने . राज्य सरकार और लेफ्ट फ्रंट को समझा दिया है कि अगर ठीक से काम नहीं करोगे तो बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा.
उत्तर प्रदेश में हुए उपचुनावों से भी कई तरह के संकेत सामने आ रहे हैं . सबसे बड़ा तो यही कि राज्य में कांग्रेस पार्टी ने अपनी स्वीकार्यता की जो प्रक्रिया लोकसभा चुनावों के दौर में शुरू की थी, उसे और भी मज़बूत किया है . इन नतीजों से साफ़ है कि आगे उत्तर प्रदेश में जब भी चुनाव होंगें, कांग्रेस भी एक संजीदा राजनीतिक ताक़त के रूप में हिस्सा लेगी. . जो दूसरी बात बहुत ही करीने से कह दी गयी है , वह यह कि कोई भी सीट किसी का गढ़ नहीं रहेगी. जनता हर सीट पर अपने आप फैसला करेगी. . उत्तर प्रदेश के नतीजों से कई और बातें भी सामने आई हैं. सबसे बड़ी बात तो यही है कि पिछले कई दशकों से चल रहे जाति के आधार पर वोट लेने या देने की परंपरा को ज़बरदस्त झटका लगा है . इटावा और भरथना की सीटों पर मुलायम सिंह यादव की मर्जी के खिलाफ पड़ा एक एक वोट इस बता की घोषणा है कि जातिगत आधार पर पड़ने वाले वोटों का वक़्त अब अपनी आख़री साँसे ले रहा है. मुलायम सिंह यादव के लिए इस चुनाव से और भी कई संकेत आये हैं. इन् नतीजों ने साफ़ कर दिया है कि धरती पुत्र के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले मुलायम सिंह अब जनता के उतने करीब नहीं रहे जितने कि पहले हुआ करते थे. . इस बात में दो राय नहीं है कि इन चुनावों में उनकी बदली हुई सोच को धारदार चेतावनी मिली है . फिरोजाबाद लोक सभा सीट पर उनकी निजी प्रतिष्ठा दांव पर लगी थी . अपने बेटे अखिलेश यादव की खाली हुई सीट पर उन्होंने अपनी बहू को टिकट दे कर अपनी जिन्दगी का सबसे बड़ा राजनीतिक जुआ खेला था. फिरोजाबाद का इलाका उनकी अपनी जाति के लोगों के बहुमत वाला इलाका है. वहां उनके परम्परागत वोटर, मुसलमान भी बड़ी संख्या में हैं .लोकसभा चुनाव २००९ हे दौरान बहुत दिन बाद यह सामान्य सीट बनायी गयी थी . इसके पहले यह रिज़र्व हुआ करती थी और समाजवादी पार्टी के ही रामजी लाल सुमन यहाँ से विजयी हुआ करते थे. लोकसभा २००९ में वे पड़ोस की रिज़र्व सीट आगरा से चुनाव लड़ गए थे . लेकिन हार गए. जब फिरोजाबाद में उपचुनाव का अवसर आया तो मुलायम सिंह यादव को समझने वालों को भरोसा था कि वे उपचुनाव में रामजी लाल को ही उम्मीदवार बनायेगें. लेकिन ऐसा न हुआ. उन्होंने अपनी बहू को टिकट दे दिया. इस एक टिकट ने मुलायम सिंह यादव की राजनीति को आम आदमी की राजनीति के दायरे से बाहर कर दिया..ज़ाहिर है कि किसी भी पुराने साथीको टिकट न देकर अपनी बहू को आगे करना , उनकी नयी राजनीतिक सोच का नतीजा है .. उनके ऊपर इस तरह के आरोप बहुत दिनों से लग रहे थे. उनके कई पुराने साथी उनसे अलग होकर उनके खिलाफ काम काम कर रहे हैं. अजीब इत्तेफाक है कि उन सबकी नाराज़गी एक ही व्यक्ति से है. . जो लोग उनके साथ १९८० से १९८९ के बुरे वक़्त में साथ थे , उनमें से बड़ी संख्या लोग अब उनके खिलाफ हैं. मुख्य मंत्री बनने के बाद उनके साथ बहुत सारे नए लोग जुड़े थे , उनसे यह उम्मीद करना कि वे बहुत दिन तक साथ निभायेंगें ,ठीक नहीं था क्योंकि दूध वाले मजनूं कभी खून वाले मजनूं का स्थान नहीं ले सकते. यह लोग तो सत्ता के केंद्र में बैठे मुलायम सिंह यादव के साथी थे . जब सत्ता नहीं रहेगी तो इन लोगों की कोई ख़ास रूचि नेता के साथ रहने में नहीं रह जायेगी. लेकिन उत्तर प्रदेश के गावों में ,कस्बों में और जिलों में ऐसे लोगों की बड़ी जमात है जो मुलायम सिंह यादव से किसी स्वार्थ साधन की उम्मीद नहीं रखते लेकिन वे उन्हें अपना साथी मानते हैं . भरथना, इटावा और फिरोजाबाद में समाजवादी पार्टी की हार , मुलायम सिंह के उन्हीं दोस्तों की तरफ से साथ छोड़ने का ऐलान है. उन्होंने साफ़ कह दिया है कि भाई , वही पुराना वाला, साथी मुलायम सिंह यादव लाओ वरना हम रास्ता बदलने को मजबूर हो जायेंगें. यह समाजवादी पार्टी के आला नेतृत्व पर निर्भर है कि वह इस संकेत को चेतावनी मानकर इसमें सुधार करने की कोशिश करता है कि इसे नज़रंदाज़ करके आगे की राह पकड़ता है जिसमें कि अनजानी मुश्किले हो सकती हैं .
वर्तमान उपचुनावों के नतीजों से कम से कम उत्तर प्रदेश में एक बात और साफ़ उभरी है कि अगला जो भी चुनाव होगा उसमें कांग्रेस एक मज़बूत ताक़त के रूप में मुकाबले में होगी . इसमें दो राय नहीं है कि मुख्य मुकाबला मायावती की बहुजन समाज पार्टी और मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी में होगा लेकिन कांग्रेस निश्चित रूप से एक अहम् भूमिका निभाने वाली है . फिरोजाबाद के अलावा उतर प्रदेश में जिस दूसरी सीट पर कांग्रेस को जीत हासिल हुई है , वह लखनऊ पश्चिम की विधान सभा सीट है. बी जे पी के बड़े नेता , लालजी टंडन के लोकसभा पंहुंच जाने के बाद यह सीट खाली हुई थी.पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की लोकसभा सीट का हिस्सा, लखनऊ पश्चिम को बी जे पी का गढ़ माना जाता था लेकिन वहां से कांग्रेस की जीत इस बात का पक्का संकेत है कि अगर कांग्रेस वाले अपने नेता राहुल गाँधी की तरह जुट जाएँ तो राज्य की राजनीति में दोबारा महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. . हाँ , बी जे पी के लिए यह चुनाव निश्चित रूप से बहुत बुरी खबर है . जिस राज्य में बी जे पी ने बाबरी मस्जिद को ढहाया, भव्य राम मंदिर का वादा किया , कई साल तक या तो खुद राज किया और या मायावती को मुख्य मंत्री बना कर रखा वहां पार्टी के उम्मीदवारों की धडाधड ज़मानते ज़ब्त हो रही हैं. ज़ाहिर है बी जे पी की पोल राज्य में खुल चुकी है और अब उसे उत्तर प्रदेश से बहुत ज़्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिए..
उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के नतीजों से मुसलमानों को वोट बैंक मानने वालों को भी निराशा होगी. इन चुनावों में वोटर कांग्रेस की तरफ खिंचा है . बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद, आम तौर पर मुसलमान कांग्रेस से दूर चला गया था क्योंकि , उस कारनामें में वह बी जे पी के साथ साथ उस वक़्त के कांग्रेसी प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव को भी बराबर का जिम्मेदार मानता था लेकिन इस बार यह संकेत बहुत साफ़ है कि वह अब बी जे पी के अलावा किसी को भी वोट देने से परहेज़ नहीं करेगा.. हर बार की तरह यह चुनाव पार्टियों के केंद्रीय नेतृत्व की दशा दिशा पर भी फैसला है. केरल और पश्चिम बंगाल में लेफ्ट फ्रंट की हार का एक संकेत यह भी है क उन् राज्यों में पार्टी के कार्यकर्ता दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं . उनकी नज़र में लेफ्ट फ्रंट की सबसे बड़ी पार्टी का आला नेता कमज़ोर है और वह मनमानी करने का शौकीन है.. केंद्र सरकार को परमाणु मुद्दे पर घेरने की असफल कोशिश, पूर्व लोकसभा अध्यक्ष , सोमनाथ चटर्जी के साथ अपमान पूर्ण व्यवहार, केरल की राजनीति में गुटबाजी को न केवल प्रोत्साहन देना बल्कि उसमें शामिल हो जाना , पार्टी के आला अफसर के रिपोर्ट कार्ड में ऐसे विवरण हैं जो उसे फ़ेल करने के लिए काफी हैं लेकिन वह जमा हुआ है . शायद इसी लिए जनता ने पार्टी के बाकी नेताओं को यह चेतावनी दी है कि अगर पार्टी को बचाना है तो फ़ौरन कोई कार्रवाई करो वरना बहुत देर हो जायेगी.
कुछ राज्यों में हुए उप-चुनावों ने भारतीय लोकतंत्र के परिपक्व होते रूप को और मजबूती दी है. इन चुनावों के नतीजों ने यह साफ़ कर दिया है कि जनता के विश्वास पर किसी का एकाधिकार नहीं हो सकता और अब वोटों की ज़मींदारी प्रथा ख़त्म हो रही है. पश्चिम बंगाल से जो नतीजे आये हैं उनसे साफ़ है कि अगर जनता को भरोसेमंद विकल्प मिले तो वह वोट देने में उसका सही इस्तेमाल करने में संकोच नहीं करेगी. वर्षों तक , तृणमूल कांग्रेस को नॉन-सीरियस राजनीतिक ताक़त मानने वाली पश्चिम बंगाल की जनता ने ऐलान कर दिया है कि वह राज करने वाला नौकर बदलने के मूड में है .ममता बनर्जी को अब वहां की जनता ने गंभीरता से लेने का मन बना लिया है .. पिछले ३३ साल के राज में लेफ्ट फ्रंट ने बहुत सारे अच्छे काम किये जिसकी वजह से दिल्ली की हर सरकार की मर्जी के खिलाफ जनता ने कम्युनिस्टों को सत्ता दे रखी थी लेकिन अब जब कि लेफ्ट फ्रंट के नेता लोग गलतियों पर गलतियाँ करते जा रहे हैं तो जनता ने उन्हें सबक सिखाने का फैसला कर लिया है . इन नतीजों के संकेत बहुत ही साफ़ हैं कि जनता ने . राज्य सरकार और लेफ्ट फ्रंट को समझा दिया है कि अगर ठीक से काम नहीं करोगे तो बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा.
उत्तर प्रदेश में हुए उपचुनावों से भी कई तरह के संकेत सामने आ रहे हैं . सबसे बड़ा तो यही कि राज्य में कांग्रेस पार्टी ने अपनी स्वीकार्यता की जो प्रक्रिया लोकसभा चुनावों के दौर में शुरू की थी, उसे और भी मज़बूत किया है . इन नतीजों से साफ़ है कि आगे उत्तर प्रदेश में जब भी चुनाव होंगें, कांग्रेस भी एक संजीदा राजनीतिक ताक़त के रूप में हिस्सा लेगी. . जो दूसरी बात बहुत ही करीने से कह दी गयी है , वह यह कि कोई भी सीट किसी का गढ़ नहीं रहेगी. जनता हर सीट पर अपने आप फैसला करेगी. . उत्तर प्रदेश के नतीजों से कई और बातें भी सामने आई हैं. सबसे बड़ी बात तो यही है कि पिछले कई दशकों से चल रहे जाति के आधार पर वोट लेने या देने की परंपरा को ज़बरदस्त झटका लगा है . इटावा और भरथना की सीटों पर मुलायम सिंह यादव की मर्जी के खिलाफ पड़ा एक एक वोट इस बता की घोषणा है कि जातिगत आधार पर पड़ने वाले वोटों का वक़्त अब अपनी आख़री साँसे ले रहा है. मुलायम सिंह यादव के लिए इस चुनाव से और भी कई संकेत आये हैं. इन् नतीजों ने साफ़ कर दिया है कि धरती पुत्र के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले मुलायम सिंह अब जनता के उतने करीब नहीं रहे जितने कि पहले हुआ करते थे. . इस बात में दो राय नहीं है कि इन चुनावों में उनकी बदली हुई सोच को धारदार चेतावनी मिली है . फिरोजाबाद लोक सभा सीट पर उनकी निजी प्रतिष्ठा दांव पर लगी थी . अपने बेटे अखिलेश यादव की खाली हुई सीट पर उन्होंने अपनी बहू को टिकट दे कर अपनी जिन्दगी का सबसे बड़ा राजनीतिक जुआ खेला था. फिरोजाबाद का इलाका उनकी अपनी जाति के लोगों के बहुमत वाला इलाका है. वहां उनके परम्परागत वोटर, मुसलमान भी बड़ी संख्या में हैं .लोकसभा चुनाव २००९ हे दौरान बहुत दिन बाद यह सामान्य सीट बनायी गयी थी . इसके पहले यह रिज़र्व हुआ करती थी और समाजवादी पार्टी के ही रामजी लाल सुमन यहाँ से विजयी हुआ करते थे. लोकसभा २००९ में वे पड़ोस की रिज़र्व सीट आगरा से चुनाव लड़ गए थे . लेकिन हार गए. जब फिरोजाबाद में उपचुनाव का अवसर आया तो मुलायम सिंह यादव को समझने वालों को भरोसा था कि वे उपचुनाव में रामजी लाल को ही उम्मीदवार बनायेगें. लेकिन ऐसा न हुआ. उन्होंने अपनी बहू को टिकट दे दिया. इस एक टिकट ने मुलायम सिंह यादव की राजनीति को आम आदमी की राजनीति के दायरे से बाहर कर दिया..ज़ाहिर है कि किसी भी पुराने साथीको टिकट न देकर अपनी बहू को आगे करना , उनकी नयी राजनीतिक सोच का नतीजा है .. उनके ऊपर इस तरह के आरोप बहुत दिनों से लग रहे थे. उनके कई पुराने साथी उनसे अलग होकर उनके खिलाफ काम काम कर रहे हैं. अजीब इत्तेफाक है कि उन सबकी नाराज़गी एक ही व्यक्ति से है. . जो लोग उनके साथ १९८० से १९८९ के बुरे वक़्त में साथ थे , उनमें से बड़ी संख्या लोग अब उनके खिलाफ हैं. मुख्य मंत्री बनने के बाद उनके साथ बहुत सारे नए लोग जुड़े थे , उनसे यह उम्मीद करना कि वे बहुत दिन तक साथ निभायेंगें ,ठीक नहीं था क्योंकि दूध वाले मजनूं कभी खून वाले मजनूं का स्थान नहीं ले सकते. यह लोग तो सत्ता के केंद्र में बैठे मुलायम सिंह यादव के साथी थे . जब सत्ता नहीं रहेगी तो इन लोगों की कोई ख़ास रूचि नेता के साथ रहने में नहीं रह जायेगी. लेकिन उत्तर प्रदेश के गावों में ,कस्बों में और जिलों में ऐसे लोगों की बड़ी जमात है जो मुलायम सिंह यादव से किसी स्वार्थ साधन की उम्मीद नहीं रखते लेकिन वे उन्हें अपना साथी मानते हैं . भरथना, इटावा और फिरोजाबाद में समाजवादी पार्टी की हार , मुलायम सिंह के उन्हीं दोस्तों की तरफ से साथ छोड़ने का ऐलान है. उन्होंने साफ़ कह दिया है कि भाई , वही पुराना वाला, साथी मुलायम सिंह यादव लाओ वरना हम रास्ता बदलने को मजबूर हो जायेंगें. यह समाजवादी पार्टी के आला नेतृत्व पर निर्भर है कि वह इस संकेत को चेतावनी मानकर इसमें सुधार करने की कोशिश करता है कि इसे नज़रंदाज़ करके आगे की राह पकड़ता है जिसमें कि अनजानी मुश्किले हो सकती हैं .
वर्तमान उपचुनावों के नतीजों से कम से कम उत्तर प्रदेश में एक बात और साफ़ उभरी है कि अगला जो भी चुनाव होगा उसमें कांग्रेस एक मज़बूत ताक़त के रूप में मुकाबले में होगी . इसमें दो राय नहीं है कि मुख्य मुकाबला मायावती की बहुजन समाज पार्टी और मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी में होगा लेकिन कांग्रेस निश्चित रूप से एक अहम् भूमिका निभाने वाली है . फिरोजाबाद के अलावा उतर प्रदेश में जिस दूसरी सीट पर कांग्रेस को जीत हासिल हुई है , वह लखनऊ पश्चिम की विधान सभा सीट है. बी जे पी के बड़े नेता , लालजी टंडन के लोकसभा पंहुंच जाने के बाद यह सीट खाली हुई थी.पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की लोकसभा सीट का हिस्सा, लखनऊ पश्चिम को बी जे पी का गढ़ माना जाता था लेकिन वहां से कांग्रेस की जीत इस बात का पक्का संकेत है कि अगर कांग्रेस वाले अपने नेता राहुल गाँधी की तरह जुट जाएँ तो राज्य की राजनीति में दोबारा महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. . हाँ , बी जे पी के लिए यह चुनाव निश्चित रूप से बहुत बुरी खबर है . जिस राज्य में बी जे पी ने बाबरी मस्जिद को ढहाया, भव्य राम मंदिर का वादा किया , कई साल तक या तो खुद राज किया और या मायावती को मुख्य मंत्री बना कर रखा वहां पार्टी के उम्मीदवारों की धडाधड ज़मानते ज़ब्त हो रही हैं. ज़ाहिर है बी जे पी की पोल राज्य में खुल चुकी है और अब उसे उत्तर प्रदेश से बहुत ज़्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिए..
उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के नतीजों से मुसलमानों को वोट बैंक मानने वालों को भी निराशा होगी. इन चुनावों में वोटर कांग्रेस की तरफ खिंचा है . बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद, आम तौर पर मुसलमान कांग्रेस से दूर चला गया था क्योंकि , उस कारनामें में वह बी जे पी के साथ साथ उस वक़्त के कांग्रेसी प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव को भी बराबर का जिम्मेदार मानता था लेकिन इस बार यह संकेत बहुत साफ़ है कि वह अब बी जे पी के अलावा किसी को भी वोट देने से परहेज़ नहीं करेगा.. हर बार की तरह यह चुनाव पार्टियों के केंद्रीय नेतृत्व की दशा दिशा पर भी फैसला है. केरल और पश्चिम बंगाल में लेफ्ट फ्रंट की हार का एक संकेत यह भी है क उन् राज्यों में पार्टी के कार्यकर्ता दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं . उनकी नज़र में लेफ्ट फ्रंट की सबसे बड़ी पार्टी का आला नेता कमज़ोर है और वह मनमानी करने का शौकीन है.. केंद्र सरकार को परमाणु मुद्दे पर घेरने की असफल कोशिश, पूर्व लोकसभा अध्यक्ष , सोमनाथ चटर्जी के साथ अपमान पूर्ण व्यवहार, केरल की राजनीति में गुटबाजी को न केवल प्रोत्साहन देना बल्कि उसमें शामिल हो जाना , पार्टी के आला अफसर के रिपोर्ट कार्ड में ऐसे विवरण हैं जो उसे फ़ेल करने के लिए काफी हैं लेकिन वह जमा हुआ है . शायद इसी लिए जनता ने पार्टी के बाकी नेताओं को यह चेतावनी दी है कि अगर पार्टी को बचाना है तो फ़ौरन कोई कार्रवाई करो वरना बहुत देर हो जायेगी.
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Friday, November 6, 2009
आतंक के भस्मासुर के सामने लाचार पाकिस्तान
पाकिस्तान अपने ६२ साल के इतिहास में सबसे भयानक मुसीबत के दौर से गुज़र रहा है. आतंकवाद का भस्मासुर उसे निगल जाने की तैयारी में है. देश के हर बड़े शहर को आतंकवादी अपने हमले का निशाना बना चुके हैं . आतंकवादी हमलों के नए दौर के बाद मरने वालों में बच्चो और औरतों की संख्या बहुत ज्यादा है .अगर पाकिस्तान को विखंडन हुआ तो बांग्लादेश की स्थापना के बाद यह सबसे बड़ा झटका माना जाएगा. अजीब बात यह है कि तानाशाही के व्यापार के चक्कर में पाकिस्तान ने अपने अस्तित्व को ही दांव पर लगा दिया है...हालांकि पाकिस्तानी हुक्मरान को बहुत दिनं तक मुगालता था कि आस पास के देशों में आतंक फैला कर वे अपनी राजनीतिक महत्ता बढा सकते थे. दर असल अमरीकी मदद के बदले में इन्हीं तालिबान को अफगानिस्तान में भेजकर पाकिस्तानी हुकूमतों ने अच्छी खासी रक़म पैदा की थी जब अमरीका की मदद से पाकिस्तानी तानाशाह, जिया उल हक आतंकवाद को अपनी सरकार की नीति के रूप में विकसित कर रहे थे , तभी दुनिया भर के समझ दार लोगों ने उन्हें चेतावनी दी थी. लेकिन उन्होंने किसी की नहीं सुनी . जनरल जिया ने धार्मिक उन्मादियों और फौज के जिद्दी जनरलों की सलाह से देश के बेकार फिर रहे नौजवानों की एक जमात बनायी थी जिसकी मदद से उन्होंने अफगानिस्तान और भारत में आतंकवाद की खेती की थी .उसी खेती का ज़हर आज पाकिस्तान के अस्तित्व पर सवालिया निशान बन कर खडा हो गया है.. अमरीका की सुरक्षा पर भी उसी आतंकवाद का साया मंडरा रहा है जो पाकिस्तानी हुक्मरानों की मदद से स्थापित किया गया था . दुनिया जानती है कि अमरीका का सबसे बड़ा दुश्मन, अल कायदा , अमरीकी पैसे से ही बनाया गया था और उसके संस्थापक ओसामा बिन लादेन अमरीका के ख़ास चेला हुआ करते थे . बाद में उन्होंने ही अमरीका पर आतंकवादी हमला करवाया और आज अमरीकी हुकूमत उनको किसी भी कीमत पर पकड़ने के लिए आमादा है. जबकि अमरीका की घेरेबंदी के चलते बुरी तरह से घिर चुके पाकिस्तानी आतंकवादी , अपने देश को ही तबाह करने के लिए तुले हुए हैं .इस माहौल में कश्मीर की सरकारी यात्रा पर गए भारत के प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह पाकिस्तान की तरफ दोस्ती का हाथ बढा दिया है. अंतर राष्ट्रीय मामलों के जानकार बताते हैं कि मनमोहन सिंह का दोस्ती के लिए बढा हुआ हाथ वास्तव में जले पर नमक की तरह का असर करेगा क्योंकि पाकिस्तान अब किसी से दोस्ती या दुश्मनी करने की ताक़त नहीं रखता. वह तो अपनी अस्तित्व की लड़ाई में इतना बुरी तरह से उलझ चुका है कि उसके पास और किसी काम के लिए फुर्सत ही नहीं है. यहाँ यह याद करना दिलचस्प होगा कि भारत जैसे बड़े देश से पाकिस्तान की दुश्मनी का आधार, कश्मीर है. वह कश्मीर को अपना बनाना चाहता है लेकिन आज वह इतिहास के उस मोड़ पर खडा है जहां से उसको कश्मीर पर कब्जा तो दूर , अपने चार राज्यों को बचा कर रख पाना ही टेढी खीर नज़र आ रही है. लेकिन कश्मीर के मसले को जिंदा रखना पाकिस्तानी शासकों की मजबूरी है क्योंकि १९४८ में जब जिनाह की सरपरस्ती में कश्मीर पर कबायली हमला हुआ था उसके बाद से ही भारत के प्रति नफरत के पाकिस्तानी अभियान में कश्मीर विवाद क भारी योगदान रहा है अगर पाकिस्तान के हुक्मरान उसको ही ख़त्म कर देंगें तो उनके लिए बहुत मुश्किल हो जायेगी
पाकिस्तान की एक देश में स्थापना ही एक तिकड़म का परिणाम है. वहां रहने वाले ज़्यादातर लोग अपने आपको भारत से जोड़ कर अपने इतिहास को याद करते हैं . शुरू से ही पाकिस्तानी शासकों ने धर्म के सहारे अवाम को इकठ्ठा रखने की कोशिश की . यह बहुत बड़ी गलती थी. जब भी धर्म को राज काज में दखल देने की आज़ादी दी जायेगी, राष्ट्र का वही हाल होगा जो आज पाकिस्तान का हो रहा है . दुर्भाग्य की बात यह है कि पाकिस्तान के संस्थापक जब इतिहास और भूगोल से इस तरह का खिलवाड़ कर रहे थे तो उन्हें अंदाज़ ही नहीं था कि वे किस सर्वनाश की नींव डाल रहे हैं . जब अंग्रेजों के एक खेल को पूरा करने के लिए जिनाह ने पाकिस्तान की जिद पकडी थी उसी वक़्त यह अंदाज़ लग गया था कि आने वाला समय इस नए देश के लिए ठीक नहीं होगा..पाकिस्तान की आज़ादी के लिए कोई लड़ाई तो लड़ी नहीं गयी . वह देश तो उस वक़्त के ब्रिटिश प्रधान मंत्री, चर्चिल के एक शातिराना खेल का नतीजा था. मुंबई के अपने घर में बैठकर मुहम्मद अली जिनाह ने चिट्ठियाँ लिख लिख कर पाकिस्तान बना दिया था. आज़ादी की जो लड़ाई १९२० से १९४७ तक चली थी , वह पूरे भारत की आज़ादी के लिए थी और उसमें वह इलाके भी शामिल थे जहां आज का पाकिस्तान है. इस इलाके के जन नायक , खान अब्दुल गफ्फार खान थे. जिनाह जननेता कभी नहीं रहे. वे तो मुस्लिम एलीट के नेता थे. उसी एलीट की हैसियत को बनाए रखने के लिए उन्होंने अंग्रेजों के साथ मिलकर पाकिस्तान बनवा दिया. उनकी अदूरदर्शी सोच का नतीजा है कि आज पाकिस्तान में रहने वाला आम आदमी अमरीकी खैरात पर जिंदा है. आज पाकिस्तान
की अर्थ व्यवस्था पूरी तरह से विदेशी मदद के सहारे चल रही है.. भारत और पाकिस्तान एक ही दिन स्वतंत्र हुए थे. लेकिन भारत आज एक ताक़तवर देश है जबकि पाकिस्तान के अन्दर होने वाली हर गतिविधि अब अमरीकी निगरानी का विषय बन चुकी है. वैसे पाकिस्तान में भी जिस सिलसिलेवार तरीके से जनतंत्र का खत्म किया गया उसका भी आतंकवाद के विकास में खासा योगदान है.आज वहां पाकिस्तानी फौज पूरी तरह से कण्ट्रोल में है. वह जो चाहती हैं करवाती है.ज़रदारी और गीलानी को जनतंत्र का मुखिया बनना भी संभवतः फौज की ही किसी रणनीति का हिस्सा है. इसी लिए जब ताज़ा अमरीकी मदद के मामले में अमरीकी सीनेट ने एक ऐसा नियम जोड़ दिया जिस से पाकिस्तानी जनरलों की तरक्की तब तक नहीं हो पायेगी जब तक कि सिविलियन सरकार उसकी मंजूरी न दे . फौज के अफसर भड़क गए और अमरीकी राष्ट्रपति को फरमान सुना दिया कि इन शर्तों के साथ अमरीकी सहायता नहीं ली जायेगी. लेकिन पाकिस्तान सरकार इस हुक्म को नहीं मान सकती क्योंकि अगर लैरी कुगर एक्ट वाली आर्थिक सहायता न मिली तो पाकिस्तान में रोज़मर्रा का खर्च चलना भी मुश्किल हो जाये़या. जहां तक मदद की बात है अमरीकी विदेश मंत्री सहित लगभग सभी बड़े अधिकारोयों ने मीडिया की मार्फ़त यह ऐलान कर दिया है कि यह मदद मुफ्त में नहीं दी जा रही है . इसके बदले पाकिस्तानी सत्ता को अमरीकी हितों की साधना करनी पड़ेगी.
सच्ची बात यह है कि यह वास्तव में पाकिस्तान के आतंरिक मामलों में अमरीका की खुली दखलंदाजी है और पाकिस्तान के शासक इस हस्तक्षेप को झेलने के लिए मजबूर हैं एक संप्रभु देश के अंदरूनी मामलों में अमरीका की दखलंदाजी को जनतंत्र के समर्थक कभी भी सही नहीं मानते लेकिन आज पाकिस्तान जिस तरह से अपने ही बनाए दलदल में फंस चुका है.और उस दलदल से निकलना पाकिस्तान के अस्तित्व के लिए तो ज़रूरी है ही बाकी दुनिया के लिए भी उतना ही ज़रूरी है. क्योंकि अगर पाकिस्तान तबाह हुआ तो वहां मौजूद प्रशिक्षित आतंकवादी बाहर निकल पडेंगें और तोड़ फोड़ के अलावा उन्हें और तो कुछ आता नहीं लिहाजा जहां भी जायेंगें तोड़ फोड़ का खेल खेलेंगे..पाकिस्तान के अस्थिर हो जाने का नुकसान भारत को सबसे ज्यादा होगा क्योंकि पाकिस्तान में सक्रिय आतंकवादी जमातों को शुरू से ही यह बता दिया गया है कि भारत ही उनका असली दुश्मन है. इस लिए बाकी दुनिया के साथ मिलकर भारत को भी यह कोशिश करनी चाहिए कि आतंकवाद का सफाया तो हो जाए लेकिन पाकिस्तान बचा रहे ज विदेशी मामलों के जानकार बताते हैं कि अमरीका की पूरी कोशिश है कि पाकिस्तान का अस्तित्व बना रहे क्योंकि राजनीतिक सत्ता ख़त्म होने के बाद किसी और देश का प्रशासन चला पाना कितना कठिन होता है उसे अमरीकी नेताओं से बेहतर कोई नहीं जानता . इराक और अफगानिस्तान में यह गलती वे कर चुके हैं और कोई दूसरी मुसीबत झेलने को तैयार नहीं हैं लेकिन पाकिस्तान को एक राष्ट्र के रूप में बचाने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी वहां के सभ्य समाज और गैर जनतंत्र की पक्षधर जमातों की है. .इस लिए इस बात में दो राय नहीं कि पाकिस्तान को एक जनतांत्रिक राज्य के रूप में बनाए रखना पूरी दुनिया के हित में है.. यह अलग बात है कि अब तक के गैर जिम्मेदार पाकिस्तानी शासकों ने इसकी गुंजाइश बहुत कम छोडी है. ..
पाकिस्तान की एक देश में स्थापना ही एक तिकड़म का परिणाम है. वहां रहने वाले ज़्यादातर लोग अपने आपको भारत से जोड़ कर अपने इतिहास को याद करते हैं . शुरू से ही पाकिस्तानी शासकों ने धर्म के सहारे अवाम को इकठ्ठा रखने की कोशिश की . यह बहुत बड़ी गलती थी. जब भी धर्म को राज काज में दखल देने की आज़ादी दी जायेगी, राष्ट्र का वही हाल होगा जो आज पाकिस्तान का हो रहा है . दुर्भाग्य की बात यह है कि पाकिस्तान के संस्थापक जब इतिहास और भूगोल से इस तरह का खिलवाड़ कर रहे थे तो उन्हें अंदाज़ ही नहीं था कि वे किस सर्वनाश की नींव डाल रहे हैं . जब अंग्रेजों के एक खेल को पूरा करने के लिए जिनाह ने पाकिस्तान की जिद पकडी थी उसी वक़्त यह अंदाज़ लग गया था कि आने वाला समय इस नए देश के लिए ठीक नहीं होगा..पाकिस्तान की आज़ादी के लिए कोई लड़ाई तो लड़ी नहीं गयी . वह देश तो उस वक़्त के ब्रिटिश प्रधान मंत्री, चर्चिल के एक शातिराना खेल का नतीजा था. मुंबई के अपने घर में बैठकर मुहम्मद अली जिनाह ने चिट्ठियाँ लिख लिख कर पाकिस्तान बना दिया था. आज़ादी की जो लड़ाई १९२० से १९४७ तक चली थी , वह पूरे भारत की आज़ादी के लिए थी और उसमें वह इलाके भी शामिल थे जहां आज का पाकिस्तान है. इस इलाके के जन नायक , खान अब्दुल गफ्फार खान थे. जिनाह जननेता कभी नहीं रहे. वे तो मुस्लिम एलीट के नेता थे. उसी एलीट की हैसियत को बनाए रखने के लिए उन्होंने अंग्रेजों के साथ मिलकर पाकिस्तान बनवा दिया. उनकी अदूरदर्शी सोच का नतीजा है कि आज पाकिस्तान में रहने वाला आम आदमी अमरीकी खैरात पर जिंदा है. आज पाकिस्तान
की अर्थ व्यवस्था पूरी तरह से विदेशी मदद के सहारे चल रही है.. भारत और पाकिस्तान एक ही दिन स्वतंत्र हुए थे. लेकिन भारत आज एक ताक़तवर देश है जबकि पाकिस्तान के अन्दर होने वाली हर गतिविधि अब अमरीकी निगरानी का विषय बन चुकी है. वैसे पाकिस्तान में भी जिस सिलसिलेवार तरीके से जनतंत्र का खत्म किया गया उसका भी आतंकवाद के विकास में खासा योगदान है.आज वहां पाकिस्तानी फौज पूरी तरह से कण्ट्रोल में है. वह जो चाहती हैं करवाती है.ज़रदारी और गीलानी को जनतंत्र का मुखिया बनना भी संभवतः फौज की ही किसी रणनीति का हिस्सा है. इसी लिए जब ताज़ा अमरीकी मदद के मामले में अमरीकी सीनेट ने एक ऐसा नियम जोड़ दिया जिस से पाकिस्तानी जनरलों की तरक्की तब तक नहीं हो पायेगी जब तक कि सिविलियन सरकार उसकी मंजूरी न दे . फौज के अफसर भड़क गए और अमरीकी राष्ट्रपति को फरमान सुना दिया कि इन शर्तों के साथ अमरीकी सहायता नहीं ली जायेगी. लेकिन पाकिस्तान सरकार इस हुक्म को नहीं मान सकती क्योंकि अगर लैरी कुगर एक्ट वाली आर्थिक सहायता न मिली तो पाकिस्तान में रोज़मर्रा का खर्च चलना भी मुश्किल हो जाये़या. जहां तक मदद की बात है अमरीकी विदेश मंत्री सहित लगभग सभी बड़े अधिकारोयों ने मीडिया की मार्फ़त यह ऐलान कर दिया है कि यह मदद मुफ्त में नहीं दी जा रही है . इसके बदले पाकिस्तानी सत्ता को अमरीकी हितों की साधना करनी पड़ेगी.
सच्ची बात यह है कि यह वास्तव में पाकिस्तान के आतंरिक मामलों में अमरीका की खुली दखलंदाजी है और पाकिस्तान के शासक इस हस्तक्षेप को झेलने के लिए मजबूर हैं एक संप्रभु देश के अंदरूनी मामलों में अमरीका की दखलंदाजी को जनतंत्र के समर्थक कभी भी सही नहीं मानते लेकिन आज पाकिस्तान जिस तरह से अपने ही बनाए दलदल में फंस चुका है.और उस दलदल से निकलना पाकिस्तान के अस्तित्व के लिए तो ज़रूरी है ही बाकी दुनिया के लिए भी उतना ही ज़रूरी है. क्योंकि अगर पाकिस्तान तबाह हुआ तो वहां मौजूद प्रशिक्षित आतंकवादी बाहर निकल पडेंगें और तोड़ फोड़ के अलावा उन्हें और तो कुछ आता नहीं लिहाजा जहां भी जायेंगें तोड़ फोड़ का खेल खेलेंगे..पाकिस्तान के अस्थिर हो जाने का नुकसान भारत को सबसे ज्यादा होगा क्योंकि पाकिस्तान में सक्रिय आतंकवादी जमातों को शुरू से ही यह बता दिया गया है कि भारत ही उनका असली दुश्मन है. इस लिए बाकी दुनिया के साथ मिलकर भारत को भी यह कोशिश करनी चाहिए कि आतंकवाद का सफाया तो हो जाए लेकिन पाकिस्तान बचा रहे ज विदेशी मामलों के जानकार बताते हैं कि अमरीका की पूरी कोशिश है कि पाकिस्तान का अस्तित्व बना रहे क्योंकि राजनीतिक सत्ता ख़त्म होने के बाद किसी और देश का प्रशासन चला पाना कितना कठिन होता है उसे अमरीकी नेताओं से बेहतर कोई नहीं जानता . इराक और अफगानिस्तान में यह गलती वे कर चुके हैं और कोई दूसरी मुसीबत झेलने को तैयार नहीं हैं लेकिन पाकिस्तान को एक राष्ट्र के रूप में बचाने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी वहां के सभ्य समाज और गैर जनतंत्र की पक्षधर जमातों की है. .इस लिए इस बात में दो राय नहीं कि पाकिस्तान को एक जनतांत्रिक राज्य के रूप में बनाए रखना पूरी दुनिया के हित में है.. यह अलग बात है कि अब तक के गैर जिम्मेदार पाकिस्तानी शासकों ने इसकी गुंजाइश बहुत कम छोडी है. ..
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Tuesday, November 3, 2009
ज्योतिबा फुले ने दलित पक्षधरता की तमीज सिखाई
महात्मा गांधी की किताब हिंद स्वराज की शताब्दी के वर्ष में कई स्तरों पर उस किताब की चर्चा हो रही है, जो जायज भी है। महात्मा जी की इसी किताब ने सत्याग्रह और अहिंसा को राजनीतिक विजय के एक हथियार के रूप में विकसित करने की प्रेरणा दी और 1920 से 1947 तक की भारत की राजनीतिक यात्रा के पाथेय के रूप में हिंद स्वराज में बताये गये मंत्र अमर हो गये।
दरअसल हिंद स्वराज एक ऐसी किताब है, जिसने भारत के सामाजिक राजनीतिक जीवन को बहुत गहराई तक प्रभावित किया। बीसवीं सदी के उथल पुथल भरे भारत के इतिहास में जिन पांच किताबों का सबसे ज़्यादा योगदान है, हिंद स्वराज का नाम उसमें सर्वोपरि है। इसके अलावा जिन चार किताबों ने भारत के राजनीतिक सामाजिक चिंतन को प्रभावित किया उनके नाम हैं, भीमराव अंबेडकर की जाति का विनाश मार्क्स और एंगेल्स की कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो, ज्योतिराव फुले की गुलामगिरी और वीडी सावरकर की हिंदुत्व। अंबेडकर, मार्क्स और सावरकर के बारे में तो उनकी राजनीतिक विचारधारा के उत्तराधिकारियों की वजह से हिंदी क्षेत्रों में जानकारी है। क्योंकि मार्क्स का दर्शन कम्युनिस्ट पार्टी का, सावरकर का दर्शन बीजेपी का और अंबेडकर का दर्शन बहुजन समाज पार्टी का आधार है लेकिन 19 वीं सदी के क्रांतिकारी चितंक और वर्णव्यवस्था को गंभीर चुनौती देने वाले ज्योतिराव फुले के बारे में जानकारी की कमी है। ज्योतिराव गोविंदराव फुले का जन्म पुणे में हुआ था और उनके पिता पेशवा के राज्य में बहुत सम्माननीय व्यक्ति थे। लेकिन ज्योतिराव फुले अलग किस्म के इंसान थे। उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए जो काम किया उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। उनका जन्म 1827 में पुणे में हुआ था, माता पिता संपन्न थे लेकिन महात्मा फुले हमेशा ही गरीबों के पक्षधर बने रहे। उनकी महानता के कुछ खास कार्यों का ज़िक्र करना ज़रूरी है।
1848 में शूद्रातिशूद्र लड़कियों के लिए एक स्कूल की स्थापना कर दी थी। आजकल जिन्हें दलित कहा जाता है, महात्मा फुले के लेखन में उन्हें शूद्रातिशूद्र कहा गया है। 1848 में दलित लड़कियों के लिए स्कूल खोलना अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम है। क्योंकि इसके 9 साल बाद बंबई विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। उन्होंने 1848 में ही मार्क्स और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो का प्रकाशन किया था। 1848 में यह स्कूल खोलकर महात्मा फुले ने उस वक्त के समाज के ठेकेदारों को नाराज़ कर दिया था। उनके अपने पिता गोविंदराव जी भी उस वक्त के सामंती समाज के बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। दलित लड़कियों के स्कूल के मुद्दे पर बहुत झगड़ा हुआ लेकिन ज्योतिराव फुले ने किसी की न सुनी। नतीजतन उन्हें 1849 में घर से निकाल दिया गया। सामाजिक बहिष्कार का जवाब महात्मा फुले ने 1851 में दो और स्कूल खोलकर दिया। जब 1868 में उनके पिताजी की मृत्यु हो गयी तो उन्होंने अपने परिवार के पीने के पानी वाले तालाब को अछूतों के लिए खोल दिया। 1873 में महात्मा फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की और इसी साल उनकी पुस्तक गुलामगिरी का प्रकाशन हुआ। दोनों ही घटनाओं ने पश्चिमी और दक्षिण भारत के भावी इतिहास और चिंतन को बहुत प्रभावित किया।
महात्मा फुले के चिंतन के केंद्र में मुख्य रूप से धर्म और जाति की अवधारणा है। वे कभी भी हिंदू धर्म शब्द का प्रयोग नहीं करते। वे उसे ब्राह्मणवाद के नाम से ही संबोधित करते हैं। उनका विश्वास था कि अपने एकाधिकार को स्थापित किये रहने के उद्देश्य से ही ब्राह्मणों ने श्रुति और स्मृति का आविष्कार किया था। इन्हीं ग्रंथों के जरिये ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था को दैवी रूप देने की कोशिश की। महात्मा फुले ने इस विचारधारा को पूरी तरह ख़ारिज़ कर दिया। फुले को विश्वास था कि ब्राह्मणवाद एक ऐसी धार्मिक व्यवस्था थी जो ब्राह्मणों की प्रभुता की उच्चता को बौद्घिक और तार्किक आधार देने के लिए बनायी गयी थी। उनका हमला ब्राह्मण वर्चस्ववादी दर्शन पर होता था। उनका कहना था कि ब्राह्मणवाद के इतिहास पर गौर करें तो समझ में आ जाएगा कि यह शोषण करने के उद्देश्य से हजारों वर्षों में विकसित की गयी व्यवस्था है। इसमें कुछ भी पवित्र या दैवी नहीं है। न्याय शास्त्र में सत की जानकारी के लिए जिन 16 तरकीबों का वर्णन किया गया है, वितंडा उसमें से एक है। महात्मा फुले ने इसी वितंडा का सहारा लेकर ब्राह्मणवादी वर्चस्व को समाप्त करने की लड़ाई लड़ी। उन्होंने अवतार कल्पना का भी विरोध किया। उन्होंने विष्णु के विभिन्न अवतारों का बहुत ही ज़ोरदार विरोध किया। कई बार उनका विरोध ऐतिहासिक या तार्किक कसौटी पर खरा नहीं उतरता लेकिन उनकी कोशिश थी कि ब्राह्मणवाद ने जो कुछ भी पवित्र या दैवी कह कर प्रचारित कर रखा है उसका विनाश किया जाना चाहिए। उनकी धारणा थी कि उसके बाद ही न्याय पर आधारित व्यवस्था कायम की जा सकेगी। ब्राह्मणवादी धर्म के ईश्वर और आर्यों की उत्पत्ति के बारे में उनके विचार को समझने के लिए ज़रूरी है कि यह ध्यान में रखा जाए कि महात्मा फुले इतिहास नहीं लिख रहे थे। वे सामाजिक न्याय और समरसता के युद्घ की भावी सेनाओं के लिए बीजक लिख रहे थे।
महात्मा फुले ने कर्म विपाक के सिद्घांत को भी ख़ारिज़ कर दिया था, जिसमें जन्म जन्मांतर के पाप पुण्य का हिसाब रखा जाता है। उनका कहना था कि यह सोच जातिव्यवस्था को बढ़ावा देती है इसलिए इसे फौरन ख़ारिज़ किया जाना चाहिए। फुले के लेखन में कहीं भी पुनर्जन्म की बात का खंडन या मंडन नहीं किया गया है। यह अजीब लगता है क्योंकि पुनर्जन्म का आधार तो कर्म विपाक ही है।
महात्मा फुले ने जाति को उत्पादन के एक औज़ार के रूप में इस्तेमाल करने और ब्राह्मणों के आधिपत्य को स्थापित करने की एक विधा के रूप में देखा। उनके हिसाब से जाति भारतीय समाज की बुनियाद का काम भी करती थी और उसके ऊपर बने ढांचे का भी। उन्होंने शूद्रातिशूद्र राजा, बालिराज और विष्णु के वामनावतार के संघर्ष का बार-बार ज़िक्र किया है। ऐसा लगता है कि उनके अंदर यह क्षमता थी कि वह सारे इतिहास की व्याख्या बालि राज-वामन संघर्ष के संदर्भ में कर सकते थे।
स्थापित व्यवस्था के खिलाफ महात्मा फुले के हमले बहुत ही ज़बरदस्त थे। वे एक मिशन को ध्यान में रखकर काम कर रहे थे। उन्होंने इस बात के भी सूत्र दिये, जिसके आधार पर शूद्रातिशूद्रों का अपना धर्म चल सके। वे एक क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन की बात कर रहे थे। ब्राह्मणवाद के चातुर्वर्ण्य व्यवस्था को उन्होंने ख़ारिज़ किया, ऋग्वेद के पुरुष सूक्त का, जिसके आधार पर वर्णव्यवस्था की स्थापना हुई थी, को फर्ज़ी बताया और द्वैवर्णिक व्यवस्था की बात की।
महात्मा फुले एक समतामूलक और न्याय पर आधारित समाज की बात कर रहे थे इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए विस्तृत योजना का उल्लेख किया है। पशुपालन, खेती, सिंचाई व्यवस्था सबके बारे में उन्होंने विस्तार से लिखा है। गरीबों के बच्चों की शिक्षा पर उन्होंने बहुत ज़ोर दिया। उन्होंने आज के 150 साल पहले कृषि शिक्षा के लिए विद्यालयों की स्थापना की बात की। जानकार बताते हैं कि 1875 में पुणे और अहमदनगर जिलों का जो किसानों का आंदोलन था, वह महात्मा फुले की प्रेरणा से ही हुआ था। इस दौर के समाज सुधारकों में किसानों के बारे में विस्तार से सोच-विचार करने का रिवाज़ नहीं था लेकिन महात्मा फुले ने इस सबको अपने आंदोलन का हिस्सा बनाया।
स्त्रियों के बारे में महात्मा फुले के विचार क्रांतिकारी थे। मनु की व्यवस्था में सभी वर्णों की औरतें शूद्र वाली श्रेणी में गिनी गयी थीं। लेकिन फुले ने स्त्री पुरुष को बराबर समझा। उन्होंने औरतों की आर्य भट्ट यानी ब्राह्मणवादी व्याख्या को ग़लत बताया।
फुले ने विवाह प्रथा में बड़े सुधार की बात की। प्रचलित विवाह प्रथा के कर्मकांड में स्त्री को पुरुष के अधीन माना जाता था लेकिन महात्मा फुले का दर्शन हर स्तर पर गैरबराबरी का विरोध करता था। इसीलिए उन्होंने पंडिता रमाबाई के समर्थन में लोगों को लामबंद किया, जब उन्होंने धर्म परिवर्तन किया और ईसाई बन गयीं। वे धर्म परिवर्तन के समर्थक नहीं थे लेकिन महिला द्वारा अपने फ़ैसले खुद लेने के सैद्घांतिक पक्ष का उन्होंने समर्थन किया।
महात्मा फुले की किताब गुलामगिरी बहुत कम पृष्ठों की एक किताब है, लेकिन इसमें बताये गये विचारों के आधार पर पश्चिमी और दक्षिणी भारत में बहुत सारे आंदोलन चले। उत्तर प्रदेश में चल रही दलित अस्मिता की लड़ाई के बहुत सारे सूत्र गुलामगिरी में ढूंढ़े जा सकते है। आधुनिक भारत महात्मा फुले जैसी क्रांतिकारी विचारक का आभारी है।
दरअसल हिंद स्वराज एक ऐसी किताब है, जिसने भारत के सामाजिक राजनीतिक जीवन को बहुत गहराई तक प्रभावित किया। बीसवीं सदी के उथल पुथल भरे भारत के इतिहास में जिन पांच किताबों का सबसे ज़्यादा योगदान है, हिंद स्वराज का नाम उसमें सर्वोपरि है। इसके अलावा जिन चार किताबों ने भारत के राजनीतिक सामाजिक चिंतन को प्रभावित किया उनके नाम हैं, भीमराव अंबेडकर की जाति का विनाश मार्क्स और एंगेल्स की कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो, ज्योतिराव फुले की गुलामगिरी और वीडी सावरकर की हिंदुत्व। अंबेडकर, मार्क्स और सावरकर के बारे में तो उनकी राजनीतिक विचारधारा के उत्तराधिकारियों की वजह से हिंदी क्षेत्रों में जानकारी है। क्योंकि मार्क्स का दर्शन कम्युनिस्ट पार्टी का, सावरकर का दर्शन बीजेपी का और अंबेडकर का दर्शन बहुजन समाज पार्टी का आधार है लेकिन 19 वीं सदी के क्रांतिकारी चितंक और वर्णव्यवस्था को गंभीर चुनौती देने वाले ज्योतिराव फुले के बारे में जानकारी की कमी है। ज्योतिराव गोविंदराव फुले का जन्म पुणे में हुआ था और उनके पिता पेशवा के राज्य में बहुत सम्माननीय व्यक्ति थे। लेकिन ज्योतिराव फुले अलग किस्म के इंसान थे। उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए जो काम किया उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। उनका जन्म 1827 में पुणे में हुआ था, माता पिता संपन्न थे लेकिन महात्मा फुले हमेशा ही गरीबों के पक्षधर बने रहे। उनकी महानता के कुछ खास कार्यों का ज़िक्र करना ज़रूरी है।
1848 में शूद्रातिशूद्र लड़कियों के लिए एक स्कूल की स्थापना कर दी थी। आजकल जिन्हें दलित कहा जाता है, महात्मा फुले के लेखन में उन्हें शूद्रातिशूद्र कहा गया है। 1848 में दलित लड़कियों के लिए स्कूल खोलना अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम है। क्योंकि इसके 9 साल बाद बंबई विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। उन्होंने 1848 में ही मार्क्स और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो का प्रकाशन किया था। 1848 में यह स्कूल खोलकर महात्मा फुले ने उस वक्त के समाज के ठेकेदारों को नाराज़ कर दिया था। उनके अपने पिता गोविंदराव जी भी उस वक्त के सामंती समाज के बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। दलित लड़कियों के स्कूल के मुद्दे पर बहुत झगड़ा हुआ लेकिन ज्योतिराव फुले ने किसी की न सुनी। नतीजतन उन्हें 1849 में घर से निकाल दिया गया। सामाजिक बहिष्कार का जवाब महात्मा फुले ने 1851 में दो और स्कूल खोलकर दिया। जब 1868 में उनके पिताजी की मृत्यु हो गयी तो उन्होंने अपने परिवार के पीने के पानी वाले तालाब को अछूतों के लिए खोल दिया। 1873 में महात्मा फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की और इसी साल उनकी पुस्तक गुलामगिरी का प्रकाशन हुआ। दोनों ही घटनाओं ने पश्चिमी और दक्षिण भारत के भावी इतिहास और चिंतन को बहुत प्रभावित किया।
महात्मा फुले के चिंतन के केंद्र में मुख्य रूप से धर्म और जाति की अवधारणा है। वे कभी भी हिंदू धर्म शब्द का प्रयोग नहीं करते। वे उसे ब्राह्मणवाद के नाम से ही संबोधित करते हैं। उनका विश्वास था कि अपने एकाधिकार को स्थापित किये रहने के उद्देश्य से ही ब्राह्मणों ने श्रुति और स्मृति का आविष्कार किया था। इन्हीं ग्रंथों के जरिये ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था को दैवी रूप देने की कोशिश की। महात्मा फुले ने इस विचारधारा को पूरी तरह ख़ारिज़ कर दिया। फुले को विश्वास था कि ब्राह्मणवाद एक ऐसी धार्मिक व्यवस्था थी जो ब्राह्मणों की प्रभुता की उच्चता को बौद्घिक और तार्किक आधार देने के लिए बनायी गयी थी। उनका हमला ब्राह्मण वर्चस्ववादी दर्शन पर होता था। उनका कहना था कि ब्राह्मणवाद के इतिहास पर गौर करें तो समझ में आ जाएगा कि यह शोषण करने के उद्देश्य से हजारों वर्षों में विकसित की गयी व्यवस्था है। इसमें कुछ भी पवित्र या दैवी नहीं है। न्याय शास्त्र में सत की जानकारी के लिए जिन 16 तरकीबों का वर्णन किया गया है, वितंडा उसमें से एक है। महात्मा फुले ने इसी वितंडा का सहारा लेकर ब्राह्मणवादी वर्चस्व को समाप्त करने की लड़ाई लड़ी। उन्होंने अवतार कल्पना का भी विरोध किया। उन्होंने विष्णु के विभिन्न अवतारों का बहुत ही ज़ोरदार विरोध किया। कई बार उनका विरोध ऐतिहासिक या तार्किक कसौटी पर खरा नहीं उतरता लेकिन उनकी कोशिश थी कि ब्राह्मणवाद ने जो कुछ भी पवित्र या दैवी कह कर प्रचारित कर रखा है उसका विनाश किया जाना चाहिए। उनकी धारणा थी कि उसके बाद ही न्याय पर आधारित व्यवस्था कायम की जा सकेगी। ब्राह्मणवादी धर्म के ईश्वर और आर्यों की उत्पत्ति के बारे में उनके विचार को समझने के लिए ज़रूरी है कि यह ध्यान में रखा जाए कि महात्मा फुले इतिहास नहीं लिख रहे थे। वे सामाजिक न्याय और समरसता के युद्घ की भावी सेनाओं के लिए बीजक लिख रहे थे।
महात्मा फुले ने कर्म विपाक के सिद्घांत को भी ख़ारिज़ कर दिया था, जिसमें जन्म जन्मांतर के पाप पुण्य का हिसाब रखा जाता है। उनका कहना था कि यह सोच जातिव्यवस्था को बढ़ावा देती है इसलिए इसे फौरन ख़ारिज़ किया जाना चाहिए। फुले के लेखन में कहीं भी पुनर्जन्म की बात का खंडन या मंडन नहीं किया गया है। यह अजीब लगता है क्योंकि पुनर्जन्म का आधार तो कर्म विपाक ही है।
महात्मा फुले ने जाति को उत्पादन के एक औज़ार के रूप में इस्तेमाल करने और ब्राह्मणों के आधिपत्य को स्थापित करने की एक विधा के रूप में देखा। उनके हिसाब से जाति भारतीय समाज की बुनियाद का काम भी करती थी और उसके ऊपर बने ढांचे का भी। उन्होंने शूद्रातिशूद्र राजा, बालिराज और विष्णु के वामनावतार के संघर्ष का बार-बार ज़िक्र किया है। ऐसा लगता है कि उनके अंदर यह क्षमता थी कि वह सारे इतिहास की व्याख्या बालि राज-वामन संघर्ष के संदर्भ में कर सकते थे।
स्थापित व्यवस्था के खिलाफ महात्मा फुले के हमले बहुत ही ज़बरदस्त थे। वे एक मिशन को ध्यान में रखकर काम कर रहे थे। उन्होंने इस बात के भी सूत्र दिये, जिसके आधार पर शूद्रातिशूद्रों का अपना धर्म चल सके। वे एक क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन की बात कर रहे थे। ब्राह्मणवाद के चातुर्वर्ण्य व्यवस्था को उन्होंने ख़ारिज़ किया, ऋग्वेद के पुरुष सूक्त का, जिसके आधार पर वर्णव्यवस्था की स्थापना हुई थी, को फर्ज़ी बताया और द्वैवर्णिक व्यवस्था की बात की।
महात्मा फुले एक समतामूलक और न्याय पर आधारित समाज की बात कर रहे थे इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए विस्तृत योजना का उल्लेख किया है। पशुपालन, खेती, सिंचाई व्यवस्था सबके बारे में उन्होंने विस्तार से लिखा है। गरीबों के बच्चों की शिक्षा पर उन्होंने बहुत ज़ोर दिया। उन्होंने आज के 150 साल पहले कृषि शिक्षा के लिए विद्यालयों की स्थापना की बात की। जानकार बताते हैं कि 1875 में पुणे और अहमदनगर जिलों का जो किसानों का आंदोलन था, वह महात्मा फुले की प्रेरणा से ही हुआ था। इस दौर के समाज सुधारकों में किसानों के बारे में विस्तार से सोच-विचार करने का रिवाज़ नहीं था लेकिन महात्मा फुले ने इस सबको अपने आंदोलन का हिस्सा बनाया।
स्त्रियों के बारे में महात्मा फुले के विचार क्रांतिकारी थे। मनु की व्यवस्था में सभी वर्णों की औरतें शूद्र वाली श्रेणी में गिनी गयी थीं। लेकिन फुले ने स्त्री पुरुष को बराबर समझा। उन्होंने औरतों की आर्य भट्ट यानी ब्राह्मणवादी व्याख्या को ग़लत बताया।
फुले ने विवाह प्रथा में बड़े सुधार की बात की। प्रचलित विवाह प्रथा के कर्मकांड में स्त्री को पुरुष के अधीन माना जाता था लेकिन महात्मा फुले का दर्शन हर स्तर पर गैरबराबरी का विरोध करता था। इसीलिए उन्होंने पंडिता रमाबाई के समर्थन में लोगों को लामबंद किया, जब उन्होंने धर्म परिवर्तन किया और ईसाई बन गयीं। वे धर्म परिवर्तन के समर्थक नहीं थे लेकिन महिला द्वारा अपने फ़ैसले खुद लेने के सैद्घांतिक पक्ष का उन्होंने समर्थन किया।
महात्मा फुले की किताब गुलामगिरी बहुत कम पृष्ठों की एक किताब है, लेकिन इसमें बताये गये विचारों के आधार पर पश्चिमी और दक्षिणी भारत में बहुत सारे आंदोलन चले। उत्तर प्रदेश में चल रही दलित अस्मिता की लड़ाई के बहुत सारे सूत्र गुलामगिरी में ढूंढ़े जा सकते है। आधुनिक भारत महात्मा फुले जैसी क्रांतिकारी विचारक का आभारी है।
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Sunday, November 1, 2009
वामपंथी आतंकवाद से राजनीतिक मुकाबला ज़रूरी
पश्चिम बंगाल, झारखंड, छत्तीसगढ, बिहार, उड़ीसा और आंध्रप्रदेश के कुछ इलाकों में कई वर्षों से चल रहे वामपंथी आतंकवादियों के प्रकोप के नतीजे अपने बर्बर रूप में सामने आने लगे है। मंगलवार को, पश्चिम बंगाल में रेलगाड़ी रोककर तोड़फोड़ की वारदात जहां एक तरफ आतंकवादियों की बढ़ती ताकत का डंका है, वहीं इन राज्यों की सरकारों की घिग्घी बंधने का ऐलान भी। सभी को मालूम है कि इस इलाके में चल रहा आतंकवादियों का शासन पिछले बीस साल से इस इलाके में राज करने वाली सरकारों के नाकारापन का नमूना है।
यहां यह साफ कर देना जरूरी है कि इस नकारापन के खेल में सभी राजनीतिक पार्टियां शामिल हैं। आज कल टी.वी. चैनलों पर एक दूसरे के खिलाफ राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप का दौर चल रहा है वह बिलकुल बेमतलब है। वामपंथी आतंकवाद के सहारे वोट लेने की कोशिश करने वाली ममता बनर्जी को चाहिए कि भस्मासुरी राजनीति का तिरस्कार करें वरना भस्मासुर का वर्ग चरित्र ही ऐसा है कि वह बाकी लोगों को भस्म करने के बाद अपने रचयिता का सर्वनाश करता है। इन आतंकवादियों को राजनीतिक पार्टी के सदस्य कहने वाले वाममोर्चे के नेता भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। पश्चिम बंगाल में अति वामपंथ और तृणमूल-दक्षिण पंथ के मोर्चे के खिलाफ वाम मोर्चे की निद्रा भी उतनी ही जिम्मेदार है, जितना आंध्रपेदश की कांग्रेस सत्ता जिम्मेदार है। वामपंथी आतंकवाद के प्रसार में इन दो पार्टियों के अलावा बीजेपी, जद (यू) और राजद का भी उतना ही हाथ है, इसलिए इनमें से किसी को एक दूसरी पार्टी पर हमला करने का हक नहीं है।
इन इलाकों में रहने वाले गरीब आदमियों को गरीबी के खौफनाक अंधेरे में ढकेलने वाली यही राजनीतिक पार्टियां हैं। इन क्षेत्रों की अकूत खनिज संपदा की लालच में दुनिया भर की कंपनियों और पूंजीपतियों की नजर भारत के इन आदिवासी इलाकों पर है। रिश्वत की गिज़ा पर ऐश करने वाले भारतीय नेताओं और बाबुओं की मामूली इच्छाओं की पूर्ति के लिए भारत की सुरक्षा, संप्रभुता और अखंडता को दाव पर लगा दिया गया है। अब जरूरत इस बात की है कि सभी राजनीतिक पार्टियां, मीडिया संगठन, सरकारी प्रशासक और आम आदमी छुद्र स्वार्थों की दुनिया को अलविदा कहें और इस आतंकवादी हमले को नाकाम करने में तन मन से जुट जायं। नेपाली राजशाही के समर्थकों के भारतीयों के एक नेता का बयान आज अखबारों में छपा है जिससे राजनीतिक रोटियां सेंके जाने की इच्छा की बू आ रही है। इस तरह की हरकतों पर फौरन लगाम लगाना होगा वरना बहुत देर हो जायेगी। आतंकवाद चाहे जिस रूप में हो उसका विरोध किया जाना चाहिए। तथाकथित लाल कॉरिडर के इलाके में राह से खटक चुके वामपंथियों के कुछ लालची नेताओं ने इस इलाके में रहने वाले आदिवासियों को मार्क्सवादी लफ्फाजी के जाल में फंसाकर जो लूट और आतंक का साम्राज्य बना रखा है, उसकी सभ्य समाज में चौतरफा निंदा हो रही है लेकिन इन बर्बर आतंकवादियों को सभ्य समाज की परवाह नहीं है। इन शठों के साथ शठता के साथ ही निपटा जा सकता है।
वामपंथियों का एक वर्ग यह भी कह रहा है कि इन इलाकों में रहने वाले गरीब आदिवासी लोगों को सरकार ने नजरअंदाज किया जिसकी वजह से वहां राजनीतिक शून्य पैदा हुआ और वामपंथी आतंकवादियों ने खाली जगह भर लिया। यह तर्क बिलकुल बेमतलब है। वामपंथियों से सवाल पूछा जाना चाहिए कि पूरी दुनिया में राजनीतिक जागरूकता का प्रचार करने का दम भरने वाले कम्युनिस्टों ने लालगढ़ के आसपास के इलाके में क्यों नहीं कोई जागरूकता फैलाई। आदिवासियों को राम भरोसे छोड़ने वाले राजनेताओं में कम्युनिस्ट नेताओं का नाम सबसे ऊपर लिखा जायेगा। इसलिए उनका यह आरोप बेमतलब है कि केन्द्र सरकार ने आदिवासियों के कल्याण में कोताही की। आर.एस.एस. की तरफ से इन इलाकों में वनवासी कल्याण की योजनाएं चलाई जा रही थी लेकिन वामपंथी आतंकवादियों के बढ़ चुके प्रस्ताव के मद्देनजर अब इस बात में कोई शक नहीं है कि आर.एस.एस. का काम ऐसा नहीं था जो इन आतंकवादियों के झटके को झेल सकता। वैसे भी संघ बिरादरी वहां मौजूद स्थानीय रीति रिवाजों को हटाकर अपनी विचारधारा को थोपने की कोशिश कर रही थी। ज़ाहिर है शाखे नाजुक पर बनने वाला आशियाना कमजोर ही होता है। इसलिए इन इलाकों में कुछ वर्षों तक तो वोट का लाभ लेने में संघ परिवार कामयाब रहा लेकिन जब विचारधारा और गरीब की पक्षधरता के नाम पर माओवादियों ने काम शुरू किया तो सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों को भागना पड़ा।
इस इलाके में कांग्रेस का रुख सबसे ज्यादा गैर जिम्मेदाराना रहा है। आजादी के बाद से अब तक कभी भी कांग्रेस ने इन इलाकों में रहने वाले लोगों को राजनीतिक एजेंडे पर लाने की कोशिश ही नहीं की जिसका नतीजा है कि यह लोग हमेशा अजूबे की तरह देखे जाते रहे। अजीब बात है कि झारखण्ड और छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल राज्य बनने के बाद वहां से स्थानीय तौर पर राजनीतिक प्रक्रिया के तहत विकसित नेताओं की भारी कमी है। वहां भी उन्हीं लोगों के वंशज राजनीतिक सत्ता पर काबिज़ हैं जो इन इलाकों की खनिज संपदा की लूट में बड़ी कंपनियों के मामूली ठेकेदार बनकर आए थे। यहां के नेताओं का दूसरा वर्ग उन दलालों का है जिन पर दिल्ली में बैठे नेता लोग दांव लगाते है।
ऐसे माहौल में अब राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप के दौर से बाहर निकल कर नेताओं को चाहिए कि वामपंथी आतंकवाद के नाम पर आदिवासी इलाकों में चल रहे बर्बरता के राज को फौरन खत्म करें। पश्चिम बंगाल में राजधानी एक्सप्रेस का अपहरण करके और भविष्य में ऐसी ही वारदात को फिर अंजाम देने की धमकी देकर आतंकवादियों ने सभ्य समाज और राजनेताओं के पाले में चुनौती की गेंद फेंक दी है। और राष्ट्र के सामने इन्हें कुचल देने के सिवा और कोई विकल्प नहीं है(डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट से साभार)
यहां यह साफ कर देना जरूरी है कि इस नकारापन के खेल में सभी राजनीतिक पार्टियां शामिल हैं। आज कल टी.वी. चैनलों पर एक दूसरे के खिलाफ राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप का दौर चल रहा है वह बिलकुल बेमतलब है। वामपंथी आतंकवाद के सहारे वोट लेने की कोशिश करने वाली ममता बनर्जी को चाहिए कि भस्मासुरी राजनीति का तिरस्कार करें वरना भस्मासुर का वर्ग चरित्र ही ऐसा है कि वह बाकी लोगों को भस्म करने के बाद अपने रचयिता का सर्वनाश करता है। इन आतंकवादियों को राजनीतिक पार्टी के सदस्य कहने वाले वाममोर्चे के नेता भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। पश्चिम बंगाल में अति वामपंथ और तृणमूल-दक्षिण पंथ के मोर्चे के खिलाफ वाम मोर्चे की निद्रा भी उतनी ही जिम्मेदार है, जितना आंध्रपेदश की कांग्रेस सत्ता जिम्मेदार है। वामपंथी आतंकवाद के प्रसार में इन दो पार्टियों के अलावा बीजेपी, जद (यू) और राजद का भी उतना ही हाथ है, इसलिए इनमें से किसी को एक दूसरी पार्टी पर हमला करने का हक नहीं है।
इन इलाकों में रहने वाले गरीब आदमियों को गरीबी के खौफनाक अंधेरे में ढकेलने वाली यही राजनीतिक पार्टियां हैं। इन क्षेत्रों की अकूत खनिज संपदा की लालच में दुनिया भर की कंपनियों और पूंजीपतियों की नजर भारत के इन आदिवासी इलाकों पर है। रिश्वत की गिज़ा पर ऐश करने वाले भारतीय नेताओं और बाबुओं की मामूली इच्छाओं की पूर्ति के लिए भारत की सुरक्षा, संप्रभुता और अखंडता को दाव पर लगा दिया गया है। अब जरूरत इस बात की है कि सभी राजनीतिक पार्टियां, मीडिया संगठन, सरकारी प्रशासक और आम आदमी छुद्र स्वार्थों की दुनिया को अलविदा कहें और इस आतंकवादी हमले को नाकाम करने में तन मन से जुट जायं। नेपाली राजशाही के समर्थकों के भारतीयों के एक नेता का बयान आज अखबारों में छपा है जिससे राजनीतिक रोटियां सेंके जाने की इच्छा की बू आ रही है। इस तरह की हरकतों पर फौरन लगाम लगाना होगा वरना बहुत देर हो जायेगी। आतंकवाद चाहे जिस रूप में हो उसका विरोध किया जाना चाहिए। तथाकथित लाल कॉरिडर के इलाके में राह से खटक चुके वामपंथियों के कुछ लालची नेताओं ने इस इलाके में रहने वाले आदिवासियों को मार्क्सवादी लफ्फाजी के जाल में फंसाकर जो लूट और आतंक का साम्राज्य बना रखा है, उसकी सभ्य समाज में चौतरफा निंदा हो रही है लेकिन इन बर्बर आतंकवादियों को सभ्य समाज की परवाह नहीं है। इन शठों के साथ शठता के साथ ही निपटा जा सकता है।
वामपंथियों का एक वर्ग यह भी कह रहा है कि इन इलाकों में रहने वाले गरीब आदिवासी लोगों को सरकार ने नजरअंदाज किया जिसकी वजह से वहां राजनीतिक शून्य पैदा हुआ और वामपंथी आतंकवादियों ने खाली जगह भर लिया। यह तर्क बिलकुल बेमतलब है। वामपंथियों से सवाल पूछा जाना चाहिए कि पूरी दुनिया में राजनीतिक जागरूकता का प्रचार करने का दम भरने वाले कम्युनिस्टों ने लालगढ़ के आसपास के इलाके में क्यों नहीं कोई जागरूकता फैलाई। आदिवासियों को राम भरोसे छोड़ने वाले राजनेताओं में कम्युनिस्ट नेताओं का नाम सबसे ऊपर लिखा जायेगा। इसलिए उनका यह आरोप बेमतलब है कि केन्द्र सरकार ने आदिवासियों के कल्याण में कोताही की। आर.एस.एस. की तरफ से इन इलाकों में वनवासी कल्याण की योजनाएं चलाई जा रही थी लेकिन वामपंथी आतंकवादियों के बढ़ चुके प्रस्ताव के मद्देनजर अब इस बात में कोई शक नहीं है कि आर.एस.एस. का काम ऐसा नहीं था जो इन आतंकवादियों के झटके को झेल सकता। वैसे भी संघ बिरादरी वहां मौजूद स्थानीय रीति रिवाजों को हटाकर अपनी विचारधारा को थोपने की कोशिश कर रही थी। ज़ाहिर है शाखे नाजुक पर बनने वाला आशियाना कमजोर ही होता है। इसलिए इन इलाकों में कुछ वर्षों तक तो वोट का लाभ लेने में संघ परिवार कामयाब रहा लेकिन जब विचारधारा और गरीब की पक्षधरता के नाम पर माओवादियों ने काम शुरू किया तो सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों को भागना पड़ा।
इस इलाके में कांग्रेस का रुख सबसे ज्यादा गैर जिम्मेदाराना रहा है। आजादी के बाद से अब तक कभी भी कांग्रेस ने इन इलाकों में रहने वाले लोगों को राजनीतिक एजेंडे पर लाने की कोशिश ही नहीं की जिसका नतीजा है कि यह लोग हमेशा अजूबे की तरह देखे जाते रहे। अजीब बात है कि झारखण्ड और छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल राज्य बनने के बाद वहां से स्थानीय तौर पर राजनीतिक प्रक्रिया के तहत विकसित नेताओं की भारी कमी है। वहां भी उन्हीं लोगों के वंशज राजनीतिक सत्ता पर काबिज़ हैं जो इन इलाकों की खनिज संपदा की लूट में बड़ी कंपनियों के मामूली ठेकेदार बनकर आए थे। यहां के नेताओं का दूसरा वर्ग उन दलालों का है जिन पर दिल्ली में बैठे नेता लोग दांव लगाते है।
ऐसे माहौल में अब राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप के दौर से बाहर निकल कर नेताओं को चाहिए कि वामपंथी आतंकवाद के नाम पर आदिवासी इलाकों में चल रहे बर्बरता के राज को फौरन खत्म करें। पश्चिम बंगाल में राजधानी एक्सप्रेस का अपहरण करके और भविष्य में ऐसी ही वारदात को फिर अंजाम देने की धमकी देकर आतंकवादियों ने सभ्य समाज और राजनेताओं के पाले में चुनौती की गेंद फेंक दी है। और राष्ट्र के सामने इन्हें कुचल देने के सिवा और कोई विकल्प नहीं है(डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट से साभार)
Friday, October 23, 2009
महाराष्ट्र के नतीजे -राज ठाकरे की हैसियत नपी
महाराष्ट्र विधान सभा के चुनाव के बाद राज्य में कोई परिवर्तन नहीं होगा.नतीजे आ गए हैं जैसी कि उम्मीद थी बी जे पी-शिव सेना गठबंधन को फिर सत्ता नहीं मिली. कांग्रेस ने सरकार बनाने लायक बहुमत हासिल कर लिया. हर बार की तरह इस बार भी टी वी चैनलों के पूर्वानुमान गलत निकले. ज्यादातर ने शरद पवार वाली पार्टी को बी जे पी , कांग्रेस और शिव सेना के बाद चौथे स्थान पर डाला था. हर बार की तरह इस बार भी टी वी चैनलों ने अपनी तथा कथित भविष्य वाणी में से कोई एक वाक्य उठा कर ढिंढोरा पीटा कि देखिये उनके चैनल ने कितनी सही बात कही थी. हर बार की तरह टी वी चैनलों के स्टूडियो में दिल्ली और मुंबई के विश्लेषक सर्वज्ञ मुद्रा में बुकराती गांठते देखे गए जैसे उन्हें सब कुछ पहले से ही मालूम था. यह अलग बात है कि उनमें से ज़्यादातर ने भारत के गावों का दर्शन बम्बइया फिल्मों में ही किया होगा. मुराद यह कि सब कुछ पहले जैसा ही था . हर बार की तरह बी जे पी ने आपनी हार का ज़िम्मा अपने अलावा सब पर डाला--ई वी एम , विरोधी पार्टियों की एकता, कांग्रेस का मज़बूत चुनाव अभियान , मीडिया की गैर जिम्मेदार रिपोर्टिंग वगैरह वगैरह. यानी बी जे पी की हार के लिए उसके अपने कार्यकर्ताओं के अलावा सभी जिम्मेदार थे. हर बार की तरह कांग्रेस की जीत के लिए इस बार भी केवल सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी जिम्मेदार रहे . हाँ , हरियाणा में थोडा ज़िम्मा भूपेंद्र सिंह हुड्डा का भी रहा क्योंकि स्पष्ट बहुमत से कुछ सीटें कम आ गयीं. अरुणाचल प्रदेश की जीत पूरी तरह से सोनिया , राहुल और मनमोहन सिंह की वजह से हुई.. इतना सब तो हर बार की तरह पहले की तरह हुआ लेकिन इस बार महाराष्ट्र के चुनाव में एक नयी बात हुई जिसे अगर हमारे समाज के प्रभावशाली वर्गों ने संभाल लिया तो आने वाले वक़्त में राजनीतिक आचरण के तरीके बदल सकते हैं ..
महाराष्ट्र विधान सभा के लिए हुए चुनाव के जो नतीजे हैं उनसे एक बात बहुत ही साफ़ तौर पर सामने आई है कि राजनीतिक प्रचार अभियान के रूप में दंभ भरी क्षेत्रीयता अब काम नहीं आने वाली है. शिव सेना और राज ठाकरे के पार्टी की जो दुर्दशा हुई है , उसकी धमक आने वाले कई वर्षों तक महसूस की जायेगी. यहाँ यह साफ़ कर देना ज़रूरी है कि राज ठाकरे को कोई ख़ास सफलता नहीं मिली है जैसा कि कई टी वी चैनलों में राग दरबारी की स्टाइल में चलाया जा रहा है. उनको भी इस चुनाव में जनता ने औकात बता दी है कि , भाई नफरत की बुनियाद पर सियासत करोगे तो ऐसे ही कुछ सीटें लाकर बैठे रहोगे.. उनको १३ सीटें मिली हैं जो कुछ न मिलने से ज्यादा तो हैं लेकिन महाराष्ट्र की सत्ता की राजनीति में इतनी सीटों से उन्हें कुछ नहीं हासिल होने वाला है..लुम्पन नौजवानों को इकठ्ठा करके मुंबई जैसे शहर में सड़क वीर बनने की भी उनकी तमन्ना धरी रह जायेगी. अब तक तो पुलिस और प्रशासन को शक था कि राज ठाकरे के पास नौजवानों की एक फौज है जिसकी वजह से वह सरकार को परेशान कर सकते हैं लेकिन इन चुनावों में उनकी ताक़त नप गयी . अब तो सब को मालूम है कि राज ठाकरे की क्या ताक़त है.अगर कहीं एक ईमानदार पुलिस अफसर तय कर लेगा तो राज ठाकरे की सारी मुरादें हवालात के हवाले हो जायेंगी .उनके चाचा, बाल ठाकरे, ने ६० के दशक में मराठी बेरोजगार नौजवानों और बाहर से मुंबई में काम की तलाश में आये लोगों को एक सेना की तरह लामबंद कर लिया था और उसे राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल किया था . राज ठाकरे ने भी उसी तर्ज़ पर फौज तैयार करके खेल करने की कोशिश की थी लेकिन आज के हालात वैसे नहीं हैं जैसे मुंबई में आज के ४०-५० साल पहले थे..उस वक़्त बाल ठाकरे ने जवाहरलाल नेहरु के जाने के बाद कमज़ोर पड़ रही कांग्रेस की अलोकप्रियता को भुनाने में सफलता पायी थी. उन दिनों उनके साथ आने को भी बहुत सारे नौजवान तैयार खड़े रहते थे. मुंबई के दादर-परेल इलाके में बहुत सारे कारखाने थे और वहां नौकरियों की तलाश में आने वाले नौजवानों की संख्या बहुत ज्यादा थी, ६२-६३ के दौर में किसानों की फसलें बहुत ही खराब हो गयी थीं. गाव से भाग कर मुंबई आने वाले युवकों की संख्या बहुत ज्यादा होती थी और साल छः महीने खाली बैठने के बाद वे कुछ भी करने को तैयार रहते थे.ठीक ऐसे मौके की तलाश में बैठे बाल ठाकरे उन्हें अपनी सेना में भर्ती कर लेते थे और बाद में वे लोग धन अर्जन के अन्य तरीकों से संपन्न बनने की कोशिश में लग जाते थे.बाद में येही सैनिक शहर के अलग अलग इलाकों में प्रोटेक्शन वगैरह का धंधा करने में जुट जाते थे. धीरे धीरे यही सेना एक राजनीतिक पार्टी बन गयी और बी जे पी से समझौता करके इज्ज़त की दावेदार भी बन गयी. बाल ठाकरे की दूसरी खासियत यह थी कि वह खुद भी संघर्ष कर रहे थे. ६० रूपये फीस न दे पाने के कारण उन्हें पढाई छोड़नी पडी थी और कहीं कोई काम नहीं था . फ्री प्रेस में मामूली तनखाह पर जब कार्टूनिस्ट की नौकरी मिली तो उनके लिए रोटी पानी का जुगाड़ हुआ था. इसलिए उनके साथ जुड़ने वाले लोग उनको अपने में से ही एक समझते थे. इसी दौर में उनका एक मैनरिज्म भी विकसित हुआ . आज राज ठाकरे उसी स्टाइल को कॉपी करने की कोशिश करते हैं . लेकिन आज हालात वह नहीं हैं जो 6० और 7० के दशक में थे. आज उतनी बड़ी संख्या में नौजवान बेरोजगार नहीं हैं. आर्थिक उदारीकरण की वजह से काम के अवसर ज्यादा हैं. जो भी मुंबई में रहता है उसे मालूम है कि राज ठाकरे को रोटी पानी के लिए नौजवान बाल ठाकरे की तरह जुगाड़ नहीं करना पड़ता . वे अरब पति हैं, करजट में उनका फार्म हाउस है और बाल ठाकरे के मैनरिज्म का वे अभिनय करते हैं . ऐसी हालत में उनकी अपील का कोई मतलब नहीं है. मुंबई के जागरूक मत दाताओं को मालूम है कि मराठी मानूस की बोगी चलाकर राज ठाकरे अपनी ही चमक को दुरुस्त करना चाहते हैं .. इस लिए उन्हें मराठी मानूस का वोट थोक में नहीं मिला.
राज ठकारे के उदय को कोई राजनीतिक घटना न मान कर बाल ठाकरे के बच्चों के बीच मूंछ की लड़ाई मानना ज्यादा सही होगा. यह भी मानना गलत होगा कि राज ठाकरे ने महारष्ट्र की राजनीति को कहीं से प्रभावित किया है . बस हुआ यह है कि जो सीटें शिव सेना को मिलनी थीं वे राज ठाकरे को मिल गयीं. जहां तक कांग्रेस की जीत का सवाल है उसमें विपक्षी वोटों के बिखराव का योगदान है . यह कोई नयी बात नहीं है. हर चुनाव में खिलाफ पड़ने की संभावना वाले वोटों को राजनीतिक दल एक दूसरे से भिडाने की कोशिश करते हैं . हाँ इस चुनाव के बाद, हो सकता है कि ठाकरे परिवार की राजनीति में कुछ बदलाव आये. हो सकता है कि वे अपने सगे बेटे उद्धव को पीछे करके , राज ठाकरे को आगे लायें . लेकिन इस से राजनीतिक विश्लेषकों , मीडिया और आम आदमी पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है.. इस चुनाव के नतीजे आम समझ के हिसाब से वही हैं जिसकी उम्मीद की जा रही थी.. लोक सभा चुनावों में हार का मुंह देख चुकी बी जे पी ने अगर कुछ ज्यादा उम्मीदें लगा रखी थीं तो वह उनकी समस्या है. और अगर मीडिया एक नॉन-इश्यू को बढा चढा कर पेश करता है तो वह भी उसकी समस्या है.
महाराष्ट्र विधान सभा के लिए हुए चुनाव के जो नतीजे हैं उनसे एक बात बहुत ही साफ़ तौर पर सामने आई है कि राजनीतिक प्रचार अभियान के रूप में दंभ भरी क्षेत्रीयता अब काम नहीं आने वाली है. शिव सेना और राज ठाकरे के पार्टी की जो दुर्दशा हुई है , उसकी धमक आने वाले कई वर्षों तक महसूस की जायेगी. यहाँ यह साफ़ कर देना ज़रूरी है कि राज ठाकरे को कोई ख़ास सफलता नहीं मिली है जैसा कि कई टी वी चैनलों में राग दरबारी की स्टाइल में चलाया जा रहा है. उनको भी इस चुनाव में जनता ने औकात बता दी है कि , भाई नफरत की बुनियाद पर सियासत करोगे तो ऐसे ही कुछ सीटें लाकर बैठे रहोगे.. उनको १३ सीटें मिली हैं जो कुछ न मिलने से ज्यादा तो हैं लेकिन महाराष्ट्र की सत्ता की राजनीति में इतनी सीटों से उन्हें कुछ नहीं हासिल होने वाला है..लुम्पन नौजवानों को इकठ्ठा करके मुंबई जैसे शहर में सड़क वीर बनने की भी उनकी तमन्ना धरी रह जायेगी. अब तक तो पुलिस और प्रशासन को शक था कि राज ठाकरे के पास नौजवानों की एक फौज है जिसकी वजह से वह सरकार को परेशान कर सकते हैं लेकिन इन चुनावों में उनकी ताक़त नप गयी . अब तो सब को मालूम है कि राज ठाकरे की क्या ताक़त है.अगर कहीं एक ईमानदार पुलिस अफसर तय कर लेगा तो राज ठाकरे की सारी मुरादें हवालात के हवाले हो जायेंगी .उनके चाचा, बाल ठाकरे, ने ६० के दशक में मराठी बेरोजगार नौजवानों और बाहर से मुंबई में काम की तलाश में आये लोगों को एक सेना की तरह लामबंद कर लिया था और उसे राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल किया था . राज ठाकरे ने भी उसी तर्ज़ पर फौज तैयार करके खेल करने की कोशिश की थी लेकिन आज के हालात वैसे नहीं हैं जैसे मुंबई में आज के ४०-५० साल पहले थे..उस वक़्त बाल ठाकरे ने जवाहरलाल नेहरु के जाने के बाद कमज़ोर पड़ रही कांग्रेस की अलोकप्रियता को भुनाने में सफलता पायी थी. उन दिनों उनके साथ आने को भी बहुत सारे नौजवान तैयार खड़े रहते थे. मुंबई के दादर-परेल इलाके में बहुत सारे कारखाने थे और वहां नौकरियों की तलाश में आने वाले नौजवानों की संख्या बहुत ज्यादा थी, ६२-६३ के दौर में किसानों की फसलें बहुत ही खराब हो गयी थीं. गाव से भाग कर मुंबई आने वाले युवकों की संख्या बहुत ज्यादा होती थी और साल छः महीने खाली बैठने के बाद वे कुछ भी करने को तैयार रहते थे.ठीक ऐसे मौके की तलाश में बैठे बाल ठाकरे उन्हें अपनी सेना में भर्ती कर लेते थे और बाद में वे लोग धन अर्जन के अन्य तरीकों से संपन्न बनने की कोशिश में लग जाते थे.बाद में येही सैनिक शहर के अलग अलग इलाकों में प्रोटेक्शन वगैरह का धंधा करने में जुट जाते थे. धीरे धीरे यही सेना एक राजनीतिक पार्टी बन गयी और बी जे पी से समझौता करके इज्ज़त की दावेदार भी बन गयी. बाल ठाकरे की दूसरी खासियत यह थी कि वह खुद भी संघर्ष कर रहे थे. ६० रूपये फीस न दे पाने के कारण उन्हें पढाई छोड़नी पडी थी और कहीं कोई काम नहीं था . फ्री प्रेस में मामूली तनखाह पर जब कार्टूनिस्ट की नौकरी मिली तो उनके लिए रोटी पानी का जुगाड़ हुआ था. इसलिए उनके साथ जुड़ने वाले लोग उनको अपने में से ही एक समझते थे. इसी दौर में उनका एक मैनरिज्म भी विकसित हुआ . आज राज ठाकरे उसी स्टाइल को कॉपी करने की कोशिश करते हैं . लेकिन आज हालात वह नहीं हैं जो 6० और 7० के दशक में थे. आज उतनी बड़ी संख्या में नौजवान बेरोजगार नहीं हैं. आर्थिक उदारीकरण की वजह से काम के अवसर ज्यादा हैं. जो भी मुंबई में रहता है उसे मालूम है कि राज ठाकरे को रोटी पानी के लिए नौजवान बाल ठाकरे की तरह जुगाड़ नहीं करना पड़ता . वे अरब पति हैं, करजट में उनका फार्म हाउस है और बाल ठाकरे के मैनरिज्म का वे अभिनय करते हैं . ऐसी हालत में उनकी अपील का कोई मतलब नहीं है. मुंबई के जागरूक मत दाताओं को मालूम है कि मराठी मानूस की बोगी चलाकर राज ठाकरे अपनी ही चमक को दुरुस्त करना चाहते हैं .. इस लिए उन्हें मराठी मानूस का वोट थोक में नहीं मिला.
राज ठकारे के उदय को कोई राजनीतिक घटना न मान कर बाल ठाकरे के बच्चों के बीच मूंछ की लड़ाई मानना ज्यादा सही होगा. यह भी मानना गलत होगा कि राज ठाकरे ने महारष्ट्र की राजनीति को कहीं से प्रभावित किया है . बस हुआ यह है कि जो सीटें शिव सेना को मिलनी थीं वे राज ठाकरे को मिल गयीं. जहां तक कांग्रेस की जीत का सवाल है उसमें विपक्षी वोटों के बिखराव का योगदान है . यह कोई नयी बात नहीं है. हर चुनाव में खिलाफ पड़ने की संभावना वाले वोटों को राजनीतिक दल एक दूसरे से भिडाने की कोशिश करते हैं . हाँ इस चुनाव के बाद, हो सकता है कि ठाकरे परिवार की राजनीति में कुछ बदलाव आये. हो सकता है कि वे अपने सगे बेटे उद्धव को पीछे करके , राज ठाकरे को आगे लायें . लेकिन इस से राजनीतिक विश्लेषकों , मीडिया और आम आदमी पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है.. इस चुनाव के नतीजे आम समझ के हिसाब से वही हैं जिसकी उम्मीद की जा रही थी.. लोक सभा चुनावों में हार का मुंह देख चुकी बी जे पी ने अगर कुछ ज्यादा उम्मीदें लगा रखी थीं तो वह उनकी समस्या है. और अगर मीडिया एक नॉन-इश्यू को बढा चढा कर पेश करता है तो वह भी उसकी समस्या है.
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Friday, June 26, 2009
जेल, नरेंद्र मोदी और नरसंहार
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को अब डर लग रहा है कि शायद गुजरात के 2002 के नरसंहार में उनके शामिल होने की बात को छुपाया नहीं जा सकता। अब तक तो जितनी भी जांच हुई है, वह सब मोदी के ही बंदों ने कीं इसीलिए उसमें उनके फंसने का सवाल ही नहीं था। एक और जांच रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने करवाई थी, जिसे बीजेपी के नेताओं और पत्रकारों ने मजाक में उड़ा दिया था।
दरअसल लालू प्रसाद की अपनी विश्वसनीयता भी ऐसी नहीं है कि उनकी जांच को गंभीरता से लिया जाता, लेकिन इस बार मामला अलग है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश से जांच होने वाली है और जांच करने वाला अफसर भी ऐसा है जिसे खरीदा नहीं जा सकता। सी बी आई के पूर्व निदेशक राघवन को जांच का जिम्मा सौंपा गया है जिनका अब तक का रिकार्ड एक ईमानदार और आत्म सम्मानी अफसर का है।
यानी अब 2002 के नरसंहार में मोदी के शामिल होने के शक पर सही जांच की संभावना बढ़ गई है। मोदी भी जानते हैं और दुनिया भी जानती है कि गोधरा और उससे संबंधित नरसंहार के मुख्य प्रायोजक नरेंद्र मोदी ही हैं। जब राघवन जैसा ईमानदार अफसर जांच करेगा तो मोदी के बच निकलने की संभावना बहुत कम रहेगी।
इसी सच्चाई के नतीजों से घबरा कर मोदी और बीजेपी के आडवाणी गुट के नेता सुप्रीम कोर्ट के आदेश को राजनीतिक रंग देने की कोशिश कर रहे हैं। बीजेपी के नेता ऐसा माहौल बनाने की कोशिश कर रहे हैं जिससे लगे कि मोदी के खिलाफ जांच का काम कांग्रेस पार्टी और केंद्र सरकार करवा रही है, जबकि जंाच सुप्रीम कोर्ट के आदेश से हो रही है। नरेंद्र मोदी ने एक चुनावी सभा में कहा कि कांग्रेस उन्हें जेल में डालने की साज़िश रच रही है।
हो सकता है कि वे तीन महीनों बाद जेल की सलाखों के अंदर हों। मोदी का यह बयान बहुत ही गैर जिम्मेदार है। इस बयान का भावार्थ यह है कि सुप्रीम कोर्ट के काम को कांग्रेस साजिश करके प्रभावित कर सकती है। शायद मोदी को भी मालूम हो कि यह बयान सुप्रीम कोर्ट की अवमानना है और अगर माननीय सुप्रीम कोर्ट ने उनके इस बयान पर कारवाई करने का फैसला कर लिया तो तीन महीने तो दूर की बात है, मोदी को अभी जेल की सज़ा हो जाएगी। जहां तक मोदी के अपने जेल जाने की बात कहकर सहानुभूति बटोरने की बात है, वह बेमतलब है।
मोदी जैसे व्यक्ति को तो 2002 के बाद ही जेल में बंद कर दिया जाना चाहिए था। राजनीति की बात का न्यायालय के आदेशों पर थोपने की कोशिश हर फासिस्ट पार्टी करती है इसलिए बीजेपी की इस कोशिश के पीछे भी उसकी नीत्शेवादी राजनीतिक सोच ही है।हिटलर की नैशनलिस्ट सोशलिस्ट पार्टी भी ऐसे कारनामों के जरिये, अदालतों पर दबाव डालती थी। जो बात उत्साह वद्र्घक है वह यह कि गुजरात नरसंहार के मामले में सुप्रीम कोर्ट का सकारात्मक दखल बहुत ही अहम है।
अब तक तो दंगों में मारे गए व्यक्तियों का कहीं कोई हिसाब ही नहीं होता था और कभी भी किसी दंगाई को सजा नहीं होई थी। सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद गुजरात के नरसंहार की जांच के नतीजों के बाद शायद दंगाईयों की समझ मे आ जाएगा कि दंगा कराने वालों तक भी कानून की पहुंच होती है और अगर नरेंद्र मोदी को गुजरात नरसंहार 2002 के अपराध में सजा हो गई तो आगे दंगाइयों के हौंसलों को पस्त करने में मदद मिलेगी।
दरअसल लालू प्रसाद की अपनी विश्वसनीयता भी ऐसी नहीं है कि उनकी जांच को गंभीरता से लिया जाता, लेकिन इस बार मामला अलग है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश से जांच होने वाली है और जांच करने वाला अफसर भी ऐसा है जिसे खरीदा नहीं जा सकता। सी बी आई के पूर्व निदेशक राघवन को जांच का जिम्मा सौंपा गया है जिनका अब तक का रिकार्ड एक ईमानदार और आत्म सम्मानी अफसर का है।
यानी अब 2002 के नरसंहार में मोदी के शामिल होने के शक पर सही जांच की संभावना बढ़ गई है। मोदी भी जानते हैं और दुनिया भी जानती है कि गोधरा और उससे संबंधित नरसंहार के मुख्य प्रायोजक नरेंद्र मोदी ही हैं। जब राघवन जैसा ईमानदार अफसर जांच करेगा तो मोदी के बच निकलने की संभावना बहुत कम रहेगी।
इसी सच्चाई के नतीजों से घबरा कर मोदी और बीजेपी के आडवाणी गुट के नेता सुप्रीम कोर्ट के आदेश को राजनीतिक रंग देने की कोशिश कर रहे हैं। बीजेपी के नेता ऐसा माहौल बनाने की कोशिश कर रहे हैं जिससे लगे कि मोदी के खिलाफ जांच का काम कांग्रेस पार्टी और केंद्र सरकार करवा रही है, जबकि जंाच सुप्रीम कोर्ट के आदेश से हो रही है। नरेंद्र मोदी ने एक चुनावी सभा में कहा कि कांग्रेस उन्हें जेल में डालने की साज़िश रच रही है।
हो सकता है कि वे तीन महीनों बाद जेल की सलाखों के अंदर हों। मोदी का यह बयान बहुत ही गैर जिम्मेदार है। इस बयान का भावार्थ यह है कि सुप्रीम कोर्ट के काम को कांग्रेस साजिश करके प्रभावित कर सकती है। शायद मोदी को भी मालूम हो कि यह बयान सुप्रीम कोर्ट की अवमानना है और अगर माननीय सुप्रीम कोर्ट ने उनके इस बयान पर कारवाई करने का फैसला कर लिया तो तीन महीने तो दूर की बात है, मोदी को अभी जेल की सज़ा हो जाएगी। जहां तक मोदी के अपने जेल जाने की बात कहकर सहानुभूति बटोरने की बात है, वह बेमतलब है।
मोदी जैसे व्यक्ति को तो 2002 के बाद ही जेल में बंद कर दिया जाना चाहिए था। राजनीति की बात का न्यायालय के आदेशों पर थोपने की कोशिश हर फासिस्ट पार्टी करती है इसलिए बीजेपी की इस कोशिश के पीछे भी उसकी नीत्शेवादी राजनीतिक सोच ही है।हिटलर की नैशनलिस्ट सोशलिस्ट पार्टी भी ऐसे कारनामों के जरिये, अदालतों पर दबाव डालती थी। जो बात उत्साह वद्र्घक है वह यह कि गुजरात नरसंहार के मामले में सुप्रीम कोर्ट का सकारात्मक दखल बहुत ही अहम है।
अब तक तो दंगों में मारे गए व्यक्तियों का कहीं कोई हिसाब ही नहीं होता था और कभी भी किसी दंगाई को सजा नहीं होई थी। सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद गुजरात के नरसंहार की जांच के नतीजों के बाद शायद दंगाईयों की समझ मे आ जाएगा कि दंगा कराने वालों तक भी कानून की पहुंच होती है और अगर नरेंद्र मोदी को गुजरात नरसंहार 2002 के अपराध में सजा हो गई तो आगे दंगाइयों के हौंसलों को पस्त करने में मदद मिलेगी।
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