Thursday, February 25, 2010
भारत -पाक वार्ता, ढाक के तीन पात
अमरीका की तरफ से बार बार की गयी पहल के बाद करीब १४ महीने बाद ,भारत और पाकिस्तान के बीच एक बार फिर बात-चीत का सिलसिला शुरू हो गया है .विदेश सचिव स्तर की बात-चीत से कुछ नहीं निकलेगा ,यह सबको मालूम था . लेकिन दोनों देशों की जनता के लिए यह एक ऐसी गोली है जिसका बीमारी पर कोई असर नहीं पड़ना था लेकिन शान्ति के लिए संघर्ष कर रहे लोगों के लिए यह एक लाली पाप ज़रूर है.. भारत और पाकिस्तान के बीच जो भी समस्या है ,वह राजनीतिक है . ज़ाहिर है कि उसका हल भी राजनीतिक होना चाहिए . इस लिए जब भी सचिव स्तर की बीत चीत होती है उसे असली बात की तैयारी के रूप में ही देखा जाना चाहिए.लेकिन दोनों देशों के बीच संबंधों को सामान्य बनाने की कोशिश करने वालों को और भी बहुत कुछ ध्यान में रखना चाहिए. अपने ६३ साल के इतिहास में पाकिस्तान के शासक यह कभी नहीं भूले हैं कि भारत उनका दुश्मन नंबर एक है . और उन्होंने अपनी जनता को भी यह बात भूलने का कभी भी अवसर नहीं दिया है .शुरुआती गलती तो पाकिस्तान के संस्थापक , मुहम्मद अली जिनाह ने ही कर दी थी . उन्होंने बंटवारे के पहले अविभाजित भारत के मुसलमानों को मुगालते में रखा और सबको यह उम्मीद बनी रही कि उनका अपना इलाका पाकिस्तान में आ जाएगा लेकिन जब सही पाकिस्तान का नक्शा बना तो उसमें वह कुछ नहीं था जिसका वादा करके जिनाह ने मुसलमानों को पाकिस्तान के पक्ष में लाने की कोशिश की थी और सफल भी हुए थे ... बाद में लोगों की नाराज़गी को संभालने की गरज से पाकिस्तानी शासकों ने कश्मीर , हैदराबाद और जूनागढ़ की बात में अपने देश वालों को कुछ दिन तक भरमाये रखा. लेकिन काठ की हांडी के एक उम्र होती है और वह बहुत दिन तक काम नहीं आ सकती . वही पाकिस्तान के हुक्मरान के साथ भी हुआ. . जिसका नतीजा यह है कि पकिस्तान में आज सारे लोगों की एकता को सुनिश्चित करने के लिए कश्मीर की बोगी का इस्तेमाल होता है . पिछले ६० वषों में इतनी बार कश्मीर को अपना बताया हैं इन बेचारे नेताओं और फौजियों ने कि अब कश्मीर के बारे में कोई भी तर्क संगत बात की ही नहीं जा सकती है . जहां तक भारत का सवाल है, वह कश्मीर को अपना हिस्सा मानता है और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को अपने इलाके में मिलाना चाहता है . . पाकिस्तानी हुकूमतें कहती रही हैं कि कश्मीर के मसले पर उन्होंने भारत से ३ युद्ध लड़े हैं . लिहाज़ा वे कश्मीर को छोड़ नहीं सकते.बहर हाल यह पाकिस्तानी अवाम का दुर्भाग्य है कि अपनी आज़ादी के ६३ वर्षों में उन्हें महात्मा गाँधी, सरदार पटेल और नेहरू जैसा कोई नेता नहीं मिला. दूसरा दुर्भाग्य यह है कि पकिस्तान की आज़ादी के लिए कोई लड़ाई नहीं लड़ी गयी. वास्तव में पाकिस्तान की स्थापना भारत की आजादी की लड़ाई को बेकार साबित करने के लिए अंग्रेजों की तरफ से डिजाइन किया गया एक धोखा है जिसे जिनाह को उनकी अँगरेज़ परस्ती के लिए इनाम में दिया गया था .
आज की हकीक़तें बिलकुल अलग हैं.आज जब पाकिस्तानी विदेश सचिव दिल्ली में बात कर रहे हैं , उनके ऊपर पाकिस्तानी सत्ता के ३ केन्द्रों को खुश रखने का लक्ष्य है . ज़ाहिर तौर पर तो वहां पाकिस्तानी राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री हैं . जिनकी अपनी विश्वसनीयता की कोई औकात नहीं है .वे दोनों ही वहां इस लिए बैठे हैं कि उन्हें अमरीका का आशीर्वाद प्राप्त है . वे दोनों ही अमरीका के हुक्म के गुलाम हैं , जो भी अमरीका कहेगा उसे वे पूरा करेंगें ... दूसरी पाकिस्तानी ताक़त का नाम है , वहां की फौज. शुरू से ही फौज़ ने भारत विरोधी माहौल बना रखा है . उसी से उनकी दाल रोटी चलती है . और शायद इसी लिए पाकिस्तानी समाज में भी फौजी होना स्टेटस सिम्बल माना जाता है . आई एस आई भी इसी फौजी खेल का हिसा है . तीसरी ताक़त है वहां का आतंकवादी . इसे भी सरकार और फौज का आशीर्वाद मिला हुआ है. धार्मिक नेताओं के ज़रिये बेरोजगार नौजवानों को जिहादी बनाने का काम १९७९ में जनरल जिया उल हक ने शुरू किया था . उसी दौर में आज आतंक का पर्याय बन चुका हाफ़िज़ मुहम्मद सईद , जनरल जिया उल हक का सलाहकार बना था . और अब वह इतना बड़ा हो गया है कि आज पाकिस्तान में कोई भी उसको सज़ा नहीं दे सकता . जिया के वक़्त में उसका इतना रुतबा था कि वह लोगों को देश की बड़ी से बड़ी नौकरियों पर बैठा सकता था. बताते हैं कि पाकिस्तानी हुकूमत के हर विभाग में उसकी कृपा से नौकरी पाए हुए लोगों की भरमार है , जिसमें फौजी अफसर तो हैं ही, जज और सिविलियन अधिकारी भी शामिल हैं ..बहुत सारे नेता भी आज उसकी कृपा से ही राजनीति में हैं . पाकिस्तान के पूर्व प्रधान मंत्री, नवाज़ शरीफ भी कभी उसका हुक्का भरते थे . भारत के खिलाफ जो भी माहौल है , उसके मूल में इसी हाफ़िज़ सईद का हाथ है . बताया गया है कि पाकिस्तान का मौजूदा विदेश मंत्री , शाह महमूद कुरेशी भी इसी हाफ़िज़ सईद के अखाड़े का एक मामूली पहलवान है . ऐसी हालत में विदेश सचिव स्तर की बात चीत से कुछ भी नहीं निकलना था और न निकलेगा. भारत और पाकिस्तान के बीच विदेश सचिवों की बात चीत को इसी रोशनी में देखा जाना चाहिए ..शायद इसी लिए वार्ता शुरू होने से पहले ही चीन में जाकर पाकिस्तानी विदेश मंत्री, शाह महमूद कुरेशी ने चीन को बिचौलिया बनाने की बात कर डाली. सब को मालूम है कि इस सुझाव को कोई नहीं मानने वाला है. पाकिस्तान की रोज़मर्रा की रोटी पानी का खर्च उठा रहे अमरीका को भी यह सुझाव नागवार गुज़रा है . . पाकिस्तानी फौज को मालूम है कि अगर भारत को सैन्य विकल्प का इस्तेमाल करना पड़ा तो पाकिस्तान का तथाकथित परमाणु बम धरा रह जाएगा और पाकिस्तान का वही हश्र हो सकता है जो १९७१ की लड़ाई के बाद हुआ था लेकिन फौज किसी कीमत पर दोनों देशों के बीच सामान्य सम्बन्ध नहीं होने देगी क्योंकि अगर भारत और पाकिस्तान में दुश्मनी न रही तो पाकिस्तानी फौज़ के औचित्य पर ही सवाल पैदा होने लगेगें. आई एस आई और उसके सहयोगी आतंकवादी संगठनों को भी भारत विरोधी माहौल चाहिए क्योंकि उसके बिना उन का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाएगा. जहाँ तक ज़रदारी-गीलानी जोड़ी का सवाल है उनकी तरफ से भारत से बात चीत का राग चलता रहेगा क्योंकि अगर उन्होंने भी इस से ना नुकुर की तो अमरीका नाराज़ हो जाएगा और अमरीका के नाराज़ होने का मतलब यह है कि पकिस्तान में भूखमरी फैल जायेगी. . आज पाकिस्तान की बुनियादी ज़रूरतें भी अमरीकी खैरात से चलती हैं . इस लिए बात चीत की प्रक्रिया को चलाते रहना उनकी मजबूरी है. . लेकिन उनकी राजनीतिक हैसियत इतनी नहीं है कि वे कोई फैसला ले सकें . इस लिए पूरे भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि भारत और पकिस्तान के बीच समबन्धों में निकट भविष्य में कोई सुधार नहीं होने वाला है ..
Friday, November 6, 2009
आतंक के भस्मासुर के सामने लाचार पाकिस्तान
पाकिस्तान की एक देश में स्थापना ही एक तिकड़म का परिणाम है. वहां रहने वाले ज़्यादातर लोग अपने आपको भारत से जोड़ कर अपने इतिहास को याद करते हैं . शुरू से ही पाकिस्तानी शासकों ने धर्म के सहारे अवाम को इकठ्ठा रखने की कोशिश की . यह बहुत बड़ी गलती थी. जब भी धर्म को राज काज में दखल देने की आज़ादी दी जायेगी, राष्ट्र का वही हाल होगा जो आज पाकिस्तान का हो रहा है . दुर्भाग्य की बात यह है कि पाकिस्तान के संस्थापक जब इतिहास और भूगोल से इस तरह का खिलवाड़ कर रहे थे तो उन्हें अंदाज़ ही नहीं था कि वे किस सर्वनाश की नींव डाल रहे हैं . जब अंग्रेजों के एक खेल को पूरा करने के लिए जिनाह ने पाकिस्तान की जिद पकडी थी उसी वक़्त यह अंदाज़ लग गया था कि आने वाला समय इस नए देश के लिए ठीक नहीं होगा..पाकिस्तान की आज़ादी के लिए कोई लड़ाई तो लड़ी नहीं गयी . वह देश तो उस वक़्त के ब्रिटिश प्रधान मंत्री, चर्चिल के एक शातिराना खेल का नतीजा था. मुंबई के अपने घर में बैठकर मुहम्मद अली जिनाह ने चिट्ठियाँ लिख लिख कर पाकिस्तान बना दिया था. आज़ादी की जो लड़ाई १९२० से १९४७ तक चली थी , वह पूरे भारत की आज़ादी के लिए थी और उसमें वह इलाके भी शामिल थे जहां आज का पाकिस्तान है. इस इलाके के जन नायक , खान अब्दुल गफ्फार खान थे. जिनाह जननेता कभी नहीं रहे. वे तो मुस्लिम एलीट के नेता थे. उसी एलीट की हैसियत को बनाए रखने के लिए उन्होंने अंग्रेजों के साथ मिलकर पाकिस्तान बनवा दिया. उनकी अदूरदर्शी सोच का नतीजा है कि आज पाकिस्तान में रहने वाला आम आदमी अमरीकी खैरात पर जिंदा है. आज पाकिस्तान
की अर्थ व्यवस्था पूरी तरह से विदेशी मदद के सहारे चल रही है.. भारत और पाकिस्तान एक ही दिन स्वतंत्र हुए थे. लेकिन भारत आज एक ताक़तवर देश है जबकि पाकिस्तान के अन्दर होने वाली हर गतिविधि अब अमरीकी निगरानी का विषय बन चुकी है. वैसे पाकिस्तान में भी जिस सिलसिलेवार तरीके से जनतंत्र का खत्म किया गया उसका भी आतंकवाद के विकास में खासा योगदान है.आज वहां पाकिस्तानी फौज पूरी तरह से कण्ट्रोल में है. वह जो चाहती हैं करवाती है.ज़रदारी और गीलानी को जनतंत्र का मुखिया बनना भी संभवतः फौज की ही किसी रणनीति का हिस्सा है. इसी लिए जब ताज़ा अमरीकी मदद के मामले में अमरीकी सीनेट ने एक ऐसा नियम जोड़ दिया जिस से पाकिस्तानी जनरलों की तरक्की तब तक नहीं हो पायेगी जब तक कि सिविलियन सरकार उसकी मंजूरी न दे . फौज के अफसर भड़क गए और अमरीकी राष्ट्रपति को फरमान सुना दिया कि इन शर्तों के साथ अमरीकी सहायता नहीं ली जायेगी. लेकिन पाकिस्तान सरकार इस हुक्म को नहीं मान सकती क्योंकि अगर लैरी कुगर एक्ट वाली आर्थिक सहायता न मिली तो पाकिस्तान में रोज़मर्रा का खर्च चलना भी मुश्किल हो जाये़या. जहां तक मदद की बात है अमरीकी विदेश मंत्री सहित लगभग सभी बड़े अधिकारोयों ने मीडिया की मार्फ़त यह ऐलान कर दिया है कि यह मदद मुफ्त में नहीं दी जा रही है . इसके बदले पाकिस्तानी सत्ता को अमरीकी हितों की साधना करनी पड़ेगी.
सच्ची बात यह है कि यह वास्तव में पाकिस्तान के आतंरिक मामलों में अमरीका की खुली दखलंदाजी है और पाकिस्तान के शासक इस हस्तक्षेप को झेलने के लिए मजबूर हैं एक संप्रभु देश के अंदरूनी मामलों में अमरीका की दखलंदाजी को जनतंत्र के समर्थक कभी भी सही नहीं मानते लेकिन आज पाकिस्तान जिस तरह से अपने ही बनाए दलदल में फंस चुका है.और उस दलदल से निकलना पाकिस्तान के अस्तित्व के लिए तो ज़रूरी है ही बाकी दुनिया के लिए भी उतना ही ज़रूरी है. क्योंकि अगर पाकिस्तान तबाह हुआ तो वहां मौजूद प्रशिक्षित आतंकवादी बाहर निकल पडेंगें और तोड़ फोड़ के अलावा उन्हें और तो कुछ आता नहीं लिहाजा जहां भी जायेंगें तोड़ फोड़ का खेल खेलेंगे..पाकिस्तान के अस्थिर हो जाने का नुकसान भारत को सबसे ज्यादा होगा क्योंकि पाकिस्तान में सक्रिय आतंकवादी जमातों को शुरू से ही यह बता दिया गया है कि भारत ही उनका असली दुश्मन है. इस लिए बाकी दुनिया के साथ मिलकर भारत को भी यह कोशिश करनी चाहिए कि आतंकवाद का सफाया तो हो जाए लेकिन पाकिस्तान बचा रहे ज विदेशी मामलों के जानकार बताते हैं कि अमरीका की पूरी कोशिश है कि पाकिस्तान का अस्तित्व बना रहे क्योंकि राजनीतिक सत्ता ख़त्म होने के बाद किसी और देश का प्रशासन चला पाना कितना कठिन होता है उसे अमरीकी नेताओं से बेहतर कोई नहीं जानता . इराक और अफगानिस्तान में यह गलती वे कर चुके हैं और कोई दूसरी मुसीबत झेलने को तैयार नहीं हैं लेकिन पाकिस्तान को एक राष्ट्र के रूप में बचाने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी वहां के सभ्य समाज और गैर जनतंत्र की पक्षधर जमातों की है. .इस लिए इस बात में दो राय नहीं कि पाकिस्तान को एक जनतांत्रिक राज्य के रूप में बनाए रखना पूरी दुनिया के हित में है.. यह अलग बात है कि अब तक के गैर जिम्मेदार पाकिस्तानी शासकों ने इसकी गुंजाइश बहुत कम छोडी है. ..
Monday, October 26, 2009
भारत के प्रति चीन का गैरजिम्मेदार रुख
अब प्रधानमंत्री ने जो बयान दिया है वह तो भारत के खिलाफ चीन के अभियान की अंदरूनी कोशिशों को काफी हद तक खोल देता है। तीनों सेनाओं के कमाडरों की बैठक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि भारत पर आतंकवादी हमलों की आशका बहुत ही बढ़ गई है। देश के प्रधानमंत्री की ओर से आने वाला यह बयान निश्चित रूप से चिंता का विषय है। जाहिर है कि केंद्र सरकार को मालूम है कि भारत के खिलाफ खासी गाढ़ी खिचड़ी पाक रही है। इस बीच यहां साफ कर देना जरूरी है कि कुछ टीवी चैनलों की तरफ से चलाए जा रहे चीनी खतरे के अभियान को गंभीरता से नहीं लिया जा सकता। उनकी युद्धोन्मादी खबरें केवल मनोरंजन की सीमाओं में ही रखी जानी चाहिए, लेकिन भारत के अंदर और बाहर मौजूद चीन के दोस्तों की कारस्तानियों को हल्का करके आकने की गुंजाइश नहीं रह गई है। भारत के अंदर अपनी राह से भटके कम्युनिस्ट, जो माओवादी बन गए हैं, देश और समाज को तबाह करने परआमादा हैं। सरकार और सिविल सोसाइटी को उनके खिलाफ कोई भी अभियान चलाने के पहले बार बार सोचना पड़ेगा। नेपाल भी आजकल चीन का बड़ा दोस्त है, क्योंकि बाबूराम और प्रचंड ने चीन की कृपा से ही नेपाल में अब तक संघर्ष चलाया और अब सत्ता का सुख भोग रहे हैं। उनको भी अगर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी से हुक्म मिला तो नेपाल का भी इस्तेमाल भारत के खिलाफ करने में संकोच नहीं करेंगे। सबसे बड़ी दुविधा पाकिस्तान की है। अभी पिछले दिनों पाकिस्तानी प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी चीन की यात्रा पर गए थे। पूरी संभावना है कि वहा उनको भारत के खिलाफ आतंकवादियों को छोड़ देने का फरमान सुना दिया गया हो। पाकिस्तान की हालत यह है कि वह आजकल चीन के एक अधीन राज्य की भूमिका अदा करता है। पाकिस्तान ने बहुत सी राजनीतिक गलतियां की हैं उनमें से एक यह है कि उसने अपने परमाणु कार्यक्रम और अन्य सैनिक साजो सामान के लिए चीन से भारी मदद ली है और अब उसके अहसान के नीचे दबा हुआ है। चीन का पाकिस्तान में इतना ही स्वार्थ था कि वह उसे भारत के खिलाफ इस्तेमाल करना चाहता था। चीन को लगता है कि वह वक्त आ गया है।
जहा तक पाकिस्तान का सवाल है, उसे मालूम है कि भारत के खिलाफ अभियान चलाना उसके हित में नहीं है। आतंकवाद के भस्मासुरी जाल में फंसे पाकिस्तान की यह हैसियत भी नहीं है कि वह भारत के खिलाफ कोई तोड़-फोड़ की गतिविधि चला सके, लेकिन चीन के हुक्म को मना करना अब पाकिस्तान के लिए संभव नहीं है। पाकिस्तान की दुर्दशा का आलम यह है कि उसे भारत के खिलाफ कोई भी कार्रवाई करने पर अमेरिका से डाट पड़ेगी, लेकिन फिर भी चीन के हुक्म को नजरअंदाज कर पाना पाकिस्तान के लिए बहुत ही मुश्किल फैसला होगा। सच्चाई यह है कि आज की तारीख में पाकिस्तान को बुनियादी खर्च के लिए भी अमेरिका से मदद मिल रही है। अमेरिका नहीं चाहता कि पाकिस्तान का ध्यान और कहीं जाए। उसकी पूरी कोशिश है कि वह पाकिस्तान की सारी ताकत का इस्तेमाल तालिबान आतंकियों के खिलाफ करे। अंदर से बिखर चुकी पाकिस्तानी फौज के लिए भारत जैसी किसी संगठित सेना से मुकाबला कर पाना बहुत ही कठिन होगा, क्योंकि वह तो अपने ही देश में सक्रिय आतंकवादियों से कई बार हार का सामना कर चुकी है। इसलिए पाकिस्तान की तरफ से किसी हमले की संभावना तो नहीं है, लेकिन चीन को खुश करने के लिए पाकिस्तान की आईएसआई भारत के अंदर आतंकवादी हमले जरूर करवा सकती है। (दैनिक जागरण से साभार )
Sunday, October 25, 2009
अमरीका का कारिन्दा बन कर रहना ठीक नहीं
अमरीकी विदेश नीति के एकाधिकारवादी मिजाज की वजह से हमेशा ही अमरीका को दुनिया के हर इलाके में कोई न कोई कारिन्दा चाहिए होता है.अपने इस मकसद को हासिल करने के लिए अमरीकी प्रशासन किसी भी हद तक जा सकता है .शुरू से लेकर अब तक अमरीकी विदेश विभाग की कोशिश रही है कि भारत और पाकिस्तान को एक ही तराजू में तौलें. यह काम भारत को औकात बताने के उद्देश्य से किया जाता था लेकिन पाकिस्तान में पिछले ६० साल से चल रहे पतन के सिलसिले की वजह से अमरीका का वह सपना तो साकार नहीं हो सका लेकिन अब उनकी कोशिश है कि भारत को ही इस इलाके में अपना लठैत बना कर पेश करें.भारत में भी आजकल ऐसी राजनीतिक ताक़तें सत्ता और विपक्ष में शोभायमान हैं जो अमरीका का दोस्त बनने के लिये किसी भी हद तक जा सकती हैं .वामपंथियों को अपनी राजनीतिक ज़रुरत के हिसाब से अमरीका विरोध की मुद्रा धारण करनी पड़ती है लेकिन सी पी एम के वर्तमान आला अफसर की सांचा बद्ध सोच के चलते देश में कम्युनिस्ट ताक़तें हाशिये पर आने के ढर्रे पर चल चुकी हैं .इस लिए अमरीका को एशिया में अपनी हनक कायम करने में भारत का इस्तेमाल करने में कोई दिक्क़त नहीं होगी.
अब जब यह लगभग पक्का हो चुका है कि एशिया में अमरीकी खेल के नायक के रूप में भारत को प्रमुख भूमिका मिलने वाली है तो दूसरे विश्व युद्ध के बाद के अमरीकी एकाधिकारवादी रुख की पड़ताल करना दिलचस्प होगा. शीत युद्ध के दिनों में जब माना जाता था कि सोवियत संघ और अमरीका के बीच दुनिया के हर इलाके में अपना दबदबा बढाने की होड़ चल रही थी तो अमरीका ने एशिया के कई मुल्कों के कन्धों पर रख कर अपनी बंदूकें चलायी थीं. यह समझना दिलचस्प होगा कि इराक से जिस सद्दाम हुसैन को हटाने के के लिए अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र तक को ब्लैकमेल किया , वह सद्दाम हुसैन अमरीका की कृपा से ही पश्चिम एशिया में इतने ताक़त वर बने थे . उन दिनों सद्दाम हुसैन का इस्तेमाल इरान पर हमला करने के लिए किया जाता था . सद्दाम हुसैन अमरीकी विदेश नीति के बहुत ही प्रिय कारिंदे हुआ करते थे . बाद में उनका जो हस्र अमरीका की सेना ने किया वह टेलिविज़न स्क्रीन पर दुनिया ने देखा है .और जिस इरान को तबाह करने के लिए सद्दाम हुसैन का इस्तेमाल किया जा रहा था उसी इरान और अमरीका में एक दौर में दांत काटी रोटी का रिश्ता था. शाह इरान, रजा पहलवी , एशिया, खासकर पश्चिम एशिया में अमरीकी लठैतों के सरदार के रूप में काम करते थे .जिस ओसामा बिन लादेन को तबाह करने के लिए अमरीका ने पाकिस्तान को फौजी छावनी में तब्दील कर दिया है और अफगानिस्तान को रौंद डाला , वहीं ओसामा बिन लादेन अम्र्रेका के सबसे बड़े सहयोगी थे और उनका कहीं भी इस्तेमाल होता रहता था. जिस तालिबान को आज अमरीका अपना दुश्मन नंबर एक मानत है उसी के बल पर अमरीकी विदेश नीति ने अफगानिस्तान में कभी विजय का डंका बजाया था . अपने हितों को सर्वोपरि रखने के लिए अमरीका किस्सी का भी कहीं भी इस्तेमाल कर सकता है. जब सोवियत संघ के एक मित्र देश के रूप में भारत आत्मनिर्भर बनने की कोशिश कर रहा था तो , एक के बाद एक अमरीकी राष्ट्रपतियों ने भारत के खिलाफ पाकिस्तान का इस्तेमाल किया था . बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में उस वक़्त के अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने भारत के खिलाफ अपने परमाणु सैन्य शक्ति से लैस सातवें बेडे के विमानवाहक पोत , इंटरप्राइज़, से हमला करने की धमकी तक दे डाली थी. उन दिनों यही पाकिस्तान अमरीकी विदेश नीति का ख़ास चहेता हुआ करता था. बाद में भी पाकिस्तान का इस्तेमाल भारत के खिलाफ होता रहा था. पंजाब में दिग्भ्रमित सिखों के ज़रिये पाकिस्तानी खुफिया तंत्र ने जो आतंकवाद चलाया, उसे भी अमरीका का आर्शीवाद प्राप्त था . अमरीकी हठधर्मिता की हद तो उस वक़्त देखी गयी जब चीन के नाम पर ताइवान को सुरक्षा परिषद् में बैठाया गया. . पश्चिम एशिया के सभी देशों को एक दुसरे के खिलाफ इस्तेमाल करने की अमरीकी विदेश नीति का ही जलवा है कि इजरायल आज भी सभी अरब देशों को धमकाता रहता है.
वर्तमान कूटनीतिक हालात ऐसे हैं अमरीका की छवि एक इसलाम विरोधी देश की बन गई है. अमरीका को अब किसी भी इस्लामी देश में इज्ज़त की नज़र से नहीं देखा जाता . यहान तक कि पाकिस्तानी अवाम भी अमरीका को पसंद नाहीं करता जबकि पाकिस्तान की रोटी पानी भी अमरीकी मदद से चलती है. इस पृष्ठभूमि में अमरीकी विदेश नीति के नियंता भारत को अपना बना लेने के खेल में जुट गए हैं .उन्हनें इस स्क्षेत्र में चीन की बढ़ रही ताक़त से दहशत है. जिसे बैलेंस करने के लिए ,अमरीका की नज़र में भारत सही देश है. पाकिस्तान में भी बढ़ रहे अमरीका विरोध के मदद-ए-नज़र , अगर वहां से भागना पड़े तो भारत में शरण मिल सकती हाई. भारत में राजनीतिक महाल भी अमरीकाप्रेमी ही है. सत्ता पक्ष तो है ही मुख्य विपक्षी पार्टी का भी अमरीका प्रेम जग ज़ाहिर है. ऐसे माहौल में भारत से दोस्ती अमरीका के हित में है .लेकिन भारत के लिए माहौल इतना पुर सुकून नहीं है . अमरीका की दोस्ती के अब तक के इतिहास पर नज़र डालें तो समझ में आ जाएगा कि अमरीका किसी से दोस्ती नहीं करता, वह तो बस देशों को अपने राष्ट्र हित में इस्तेमाल करता है.इस लिए भारत के नीति निर्धारकों को चाहिए कि अमरीकी राष्ट्र हित के बजाय अपने राष्ट्र हित को ध्यान में रख कर नित बनाएं और एशिया में अमरीकी हितों के चौकीदार बनने से बचे. दुनिया जानती है कि अमरीका से दोस्ती करने वाले हमेशा अमरीका के हाथों अपमानित होते रहे हैं . इस लिए अमरीकी सामरिक सहयोगी बनना भारत के हित में नहीं हैl
Monday, September 21, 2009
मानवता का युद्ध अपराधी इजरायल
रिचर्ड गोल्डस्टोन नाम के इस जज ने कहा है कि इजरायल ने जो कुछ भी गाजा में उन तीन हफ्तों में किया है, उसे युद्ध अपराध माना जाएगा कुछ मामले तो ऐसे हैं जहां इजरायली सेना की कार्रवाई "मानवता के खिलाफ" अपराध की श्रेणी में आ जाएगी इजरायल कहता रहा है कि सैनिक कार्रवाई फिलिस्तानी इलाकों से होने वाले हमलों के जवाब में है लेकिन सच्चाई यह है कि इजरायली सेना ने कम से कम चौदह सौ लोगों को मार डाला जिसमें करीब 500 महिलाएं और बच्चे हैं। यह जांच एक निष्पक्ष जज ने की है जो मूलतः दक्षिण अफ्रीका के रहने वाले हैं।
उन्होंने पता लगाया है कि नागरिक ठिकानों को जानबूझकर निशाना बनाया गया। इजरायल ने आवश्यकता से अधिक सैनिक बल का इस्तेमाल करके सिविलियन संपत्ति और सार्वजनिक सुविधाओं की तबाही की जिसकी वजह से गाजा के सीधे सादे फिलिस्तीनियों को बहुत मुसीबतों का सामना करना पड़ा। जांच से यह भी पता लगा कि इजरायली सेना ने संयुक्त राष्ट्र के शरणार्थी ठिकानों को भी नहीं बख्शा। 15 जनवरी की रात ऐसे ही एक ठिकाने पर हमला किया गया जहां करीब 700 सिविलयन रखे गए थे। इस हमले में फॉस्फोरस बम का इस्तेमाल किया गया जिसकी वजह से आग लग जाती है।
गाजा शहर के अल कुदस अस्पताल पर भी हमला किया गया इजरायल ने अस्पताल पर हमले के बाद बहाना बनाया था कि वहां फिलिस्तीनी आतंकवादी छुपे हुए थे। जांच से पता चला है कि इजरायल का यह बयान बिल्कुल गलत है, वहां कोई नहीं छुपा हुआ था। हमले में बेगुनाह लोग मारे गए थे। कई ऐसे भी मामलों से पर्दाफाश हुआ है जब इजरायली सेना ने निर्दोष बच्चों और औरतों को अगवा किया, उनकी आंखों पर पट्टी बांधी और उनको आगे करके मानवीय शील्ड की तरह इस्तेमाल किया, फिलिस्तीनी ठिकानों पर हमला किया और तबाही मचाई।
ऐसे भी सबूत मिले हैं कि इजरायली सेना ने खेती को बर्बाद किया, पानी के कुओं में बमबारी की, पानी के टैंक बरबाद किए और जिंदगी को नामुमकिन बनाने की कोशिश की। उनका लक्ष्य स्पष्ट था कि फिलिस्तीनी अवाम के लिए इतनी मुश्किले पैदा कर दी जायं कि उनकी जिंदगी तबाह हो जाय। इजरायली सेना हमेशा से यही करती रही है, इसमें नया कुछ नहीं है। नया है तो बस उस उम्मीद का मर जाना, जो दुनिया के सभ्य समाजों ने अमरीका के नए राष्ट्रपति बराक ओबामा से लगा रखी थी।अपने चुनाव अभियान के शुरुआती दौर से ही बराक ओबामा यह संकेत देते रहे थे कि उनकी पश्चिम एशिया नीति उतनी अरब विरोधी नहीं होती जितनी अब तक के राष्ट्रपतियों की होती रही है लेकिन अब तक के संकेतों से तो यही लगता है कि कोई खास परिवर्तन नहीं होने वाला है।
अमरीका की नीति पश्चिम एशिया में वही रहेगी जिसके हिसाब से इजरायल को धौंस देने के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है। दरअसल रिचर्ड ग्लैडस्टोन की रिपोर्ट के बाद बराक ओबामा की परीक्षा की घड़ी भी आ पहुंची है। जैसी कि उम्मीद थी, इजरायल ने ग्लैडस्टोन की रिपोर्ट को पक्षपातपूर्ण कहकर टरकाने की कोशिश की लेकिन इस दक्षिण अफ्रीकी जज ने इजरायल को फटकार दिया है और कहा कि इजरायल का यह कहना ही गैर जिम्मेदार आचरण है कि रिपोर्ट तैयार करते समय उन पर कोई दबाव डाल रहा था। उन्होंने कहा कि जो कुछ भी रिपोर्ट में लिखा गया है, वह एक निष्पक्ष जांच का नतीजा है। और उन्हें इस बात का अफसोस रहेगा कि इस पूरी जांच प्रक्रिया में इजरायल का रुख सहयोग का नहीं रहा।
इस बीच इजरायली मीडिया के माध्यम से सरकार ने जज ग्लैडस्टोन पर व्यक्तिगत हमलों का अभियान शुरू कर दिया है लेकिन ग्लैडस्टोन के ऊपर इसका कुछ भी असर नहीं पड़ने वाला है। वे इस तरह की परिस्थितियों से कई बार गुजर चुके हैं। 1994 में जब रंगभेद के खात्मे के बाद दक्षिणी अफ्रीका में चुनाव हुए तो चुनावों के पहले बड़े पैमाने पर हिंसा और धौंस पट्टी की वारदातें हुई थीं। उनकी जांच का जिम्मा भी इन्हें दिया गया था और उसे उन्होंने बहुत ही सच्चाई के साथ पूरा किया था। वे अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में यूगोस्लाविया और वांडा जैसे मामलों में भी संयुक्त राष्ट्र की तरफ से काम कर चुके है। अब अमरीका के राष्ट्रपति को एक मौका मिला है कि वे फिलिस्तीन और अरब राजनीति में इंसाफ के पक्षधर के रूप में अपने आपको पेश करें क्योंकि अगर ऐसा न हुआ तो अन्य अमरीकी राष्ट्रपतियों की तरह इतिहास उनको भी नहीं माफ करेगा।
Thursday, July 30, 2009
शिक्षा के क्षेत्र में ओबामा की पहल
अमरीका में भारत और चीन से जाकर शिक्षा लेने वाले बच्चों की बहुत इज्जत है। राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा है कि अमरीका की शिक्षा व्यवस्था इस तरह की बनाई जाएगी कि वह भारत और चीन की शिक्षा के स्तर से मुकाबला कर सके। सच्चाई यह है कि अमरीका में शिक्षा का स्तर बहुत ऊंचा है, वहां कोई समस्या नहीं है। मुसीबत यह है कि अमरीकी नौजवान शिक्षा के प्रति उतना गंभीर नहीं है जितना भारतीय और चीनी नौजवान है।
नई शिक्षा व्यवस्था शुरू करने से ओबामा की योजना है कि अधिक से अधिक अमरीकी नौजवान ग्रेजुएट स्तर की शिक्षा और काम करने की कुशलता सीखे। ओबामा की इस योजना को अमेरिकन ग्रेजुएशन इनीशिएटिव नाम दिया गया है। उनकी कोशिश है कि ज्यादा से ज्यादा लोग सामुदायिक कालेजों में जायं और काम करने के लिए कुछ नई योग्यताएं हासिल करें। उस योजना में अगले दस वर्षों तक 12 अरब डॉलर खर्च किया जाएगा। इस धन की व्यवस्था उस सब्सिडी को काटकर की जाएगी जो अभी बैंकों और प्राइवेट वित्तीय संस्थानों दी जाती है जिससे वे मंहगी शिक्षा के लिए दिए जाने वाले कर्ज की ब्याज दर कम करने के लिए इस्तेमाल करते हैं।
सब्सिडी काटकर ओबामा ने यह ऐलान कर दिया है कि संपन्न वर्गों को ज्यादा सुविधा न देकर उनका प्रशासन अब आम आदमी की तरफ ज्यादा ध्यान देगा। बराक ओबामा का अमेरिकन ग्रेजुएशन इनीशिएटिव एक महत्वपूर्ण योजना है। द्वितीय विश्व युद्घ के बाद प्रेसिडेंट ट्रमैन ने शिक्षा के क्षेत्र में बहुत ही महत्वपूर्ण पहल की थी। उसके बाद से इतने बड़े पैमाने पर शिक्षा के क्षेत्र में कोई पहल नहीं हुई। दरअसल उच्च शिक्षा के लिए ओबामा की यह पहल बेरोजगारी की समस्या को हल करने की दिशा में दूरगामी और महत्वपूर्ण कदम है।
अमरीकी अर्थव्यवस्था के विकास के बाद ऐसा माहौल बन गया था कि हाई स्कूल तक की पढ़ाई करने के बाद बच्चे कोई न कोई नौकरी पा जाते थे। इसीलिए उच्च शिक्षा के लिए एशिया के देशों, खासकर भारत और चीन के बच्चों को फेलोशिप आदि देकर अमरीकी विश्वविद्यालयों में रिसर्च करने के लिए उत्साहित किया जाता था। नतीजा यह हुआ है कि निचले स्तर पर तो बड़ी संख्या में अमरीकी नौजवान काम कर रहा है लेकिन ऊपर के स्तर पर विदेशियों की संख्या ज्यादा है। ग्रेजुएशन इनीशिएटिव के माध्यम से ओबामा की कोशिश है कि बड़ी से बड़ी संख्या में अमरीकी नौजवान अच्छी शिक्षा लेकर नौकरियों की ऊपरी पायदान पर पहुंचे जिससे अमरीकी समाज और राष्ट्र का भला हो।
किसी भी राष्ट्र की तरक्की में शिक्षा के महत्व और उसकी मुख्य भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता भारत में पिछड़ेपन का मुख्य कारण शिक्षा की कमी ही थी। आज़ादी के बाद जवाहरलाल नेहरू की दूर तक सोच सकने की क्षमता का ही नतीजा था कि उन्होंने बड़ी संख्या में विश्व स्तर के शिक्षा केंद्रों की स्थापना की। सामाजिक जीवन में सक्रिय लोगों को भी स्कूल कालेज खोलने की प्रेरणा दी। नतीजा यह हुआ कि बड़े पैमाने पर शिक्षा का प्रचार-प्रसार हुआ। भारत में शिक्षा के क्षेत्र में आजादी के बाद की गई पहल का नतीजा था कि देश के कई हिस्सों, खासकर दक्षिण भारत में बड़ी संख्या में प्राइवेट शिक्षा संस्थाओं की स्थापना हुई।
जब 1991 में डा. मनमोहन सिंह को वित्तमंत्री बनाया गया तो उन्होंने आर्थिक विकास को उदारीकरण और वैश्वीकरण के रास्ते पर डाल दिया। उन्होंने कहा कि नौजवानों में कौशल के विकास और अच्छी शिक्षा के बिना कोई भी लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता था। शिक्षा के महत्व को डा. मनमोहन सिंह से बेहतर कौन समझ सकता था। अविभाजित पंजाब के एक छोटे से गांव में पैदा हुए मनमोहन सिंह ने शिक्षा के बल पर ही समाज में इज्जत पाई थी और वर्तमान पद पर भी वे उच्च शिक्षा के बल पर पहुंचे है।
1991 में की गई उनकी शुरुआत का ही नतीजा है कि देश में शिक्षा संस्थाओं की बाढ़ आ गई है। कुछ धूर्त किस्म के लोगों ने भी उच्च शिक्षा के केंद्र खोल कर कमाई शुरू कर दी है लेकिन समय के साथ-साथ सब ठीक हो जाएगा। बराक ओबामा भी शिक्षा के बल पर ही अपनी वर्तमान पोजीशन तक पहुंचे है। उन्हें भी मनमोहन सिंह की तरह ही शिक्षा का महत्व मालूम है। शायद इसीलिए शिक्षा व्यवस्था में सुधार के रास्ते वे अमरीकी समाज को तरक्की के रास्ते पर एक बार फिर से डालने की कोशिश कर रहे है।
Tuesday, July 28, 2009
अमेरिका के लिए भारत बना खास
दुरस्त माहौल की शुरुआत
क्लिटन की यात्रा से साफ हो गया है कि अमेरिका भारत से हर तरह की दोस्ती का रिश्ता रखना चाहता है। भारत और अमेरिका की संभावना के बीच, आज की तारीख़ में सबसे अहम मुद्दा परमाणु समझौता है। हिलेरी क्लिंटन की यात्रा से एक बात बिल्कुल साफ हो गयी है कि परमाणु समझौता और उससे जुड़े मसले में अब किसी तरह की बहस की दरकार नहीं रखते। दोनों ही देशों के बीच पूरी तरह से समझदारी का माहौल है। हिलेरी क्लिंटन की ये यात्रा एक तरह से माहौल दुरुस्त करने की यात्रा थी। यहां आकर उन्होंने देश के बड़े उद्योगपतियों से मुलाकात की उसी होटल में विश्राम किया जिस पर 26/11 के दिन आतंकवादी हमला हुआ था।
उनकी यात्रा शुरू होने के पहले ही पाकिस्तान की सरकार ने स्वीकार कर लिया कि मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले में उसके नागरिकों का हाथ था। जाहिर है पाकिस्तान की हुकूमत ने ये कदम अमेरिकी दबाव में ही उठाया है। विदेशमंत्री हिलेरी ने इस बात को भी जोर-शोर से मीडिया को बतलाया कि अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के कार्यकाल के शुरू होने के बाद भारत के प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह पहले शासनाध्यक्ष होगें जो अमेरिका की यात्रा करेगें अपने दिल्ली प्रवास के दौरान, हिलेरी क्लिंटन ने राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हर इंसान से मुलाकात की।
परमाणु मुद्दे पर बात साफ
विदेशमंत्री एसएम कृष्णा और वे अब हर साल मिला करेगे। अपने कार्यकाल में वो कम से कम दो बार और भारत यात्रा पर आयेगी। परमाणु मुद्दे पर सारी बात साफ कर ली गयी है, खासकर जो दुविधा की स्थिति जी-8 सम्मेलन के बाद पैदा हो गयी थी। इस तरह से अमेरिकी विदेश मंत्री की यात्रा को दोनों देशों की कूटनीतिक संभावनाओं में एक खास मुकाम माना जा रहा है। विदेश मंत्री हिलेरी की इस यात्रा से एक और संदेश बहुत साफ नजर आ रहा है।
अपने देश में कुछ रिटायर्ड सरकारी कर्मचारी है, जो अपने को कूटनीति का सर्वज्ञ मानते है, इनमें से कुछ विदेश मंत्रालय की नौकरी में थे, तो कुछ रक्षा मंत्रालय की नौकरी में। बड़ी संख्या में टेलीविजन चैनलों के खबर के कारोबार में घुस जाने की वजह से इन लोगों का ज्ञान प्रवाहित होता रहता है। सच्ची बात ये है कि ये पुराने सरकारी कर्मचारी ये तो जान सकते है कि किसी कूटनीति समझौता का मतलब क्या है, लेकिन इन्हें ये नहीं पता होता कि राजनीतिक स्तर पर क्या सोचा जा रहा है। इसलिए ये लोग जब संभावनाओं की अभिव्यक्ति करते है, तो सब गड़बड़ हो जाता है।
इन बेचारों की ट्रेनिंग ऐसी नहीं होती कि ये लीक से हटकर सोच सके। इसलिए ये हर परिस्थिति की उल्टी सीधी अभिव्यक्ति करते है। आजकल भी इन लोगों का प्रवचन टीवी चैनलों पर चल रहा है। अमेरिका और भारत की संभावना की बारीकियों को समझने के लिए इन विद्वानों से बचकर रहना होगा। मौजूदा भारत-अमेरिकी संबंधों की सच्चाई यह है कि अमेरिका अब भारत को पाकिस्तान के बराबर का देश नहीं मानता और पाकिस्तान की परवाह किये बिना भारत के साथ संबंध रखना चाहता है।
आपसी हित के लिए संबंध
पाकिस्तान अमेरिका पर निर्भर एक देश है अगर अमेरिका नाराज़ हो जाएं तो पाकिस्तान मुसीबत में पड़ सकता है क्योंकि उसका खर्चा-पानी अमेरिका की मदद से ही चल रहा है। लेकिन भारत के साथ अमेरिका के संबंध आपसी हित की बुनियाद पर आधारित है। शायद इसलिए अमेरिकी कूटनीति की कोशिश है कि भारत के साथ सामरिक रिश्ते बनाएं। इस वक्त देश में ऐसी सरकार है जो अमेरिका से अच्छा रिश्ता बनाने के लिए कुछ भी कर सकती है इसके पहले की भाजपा की अगुवाई वाली सरकार तो अमेरिका की बहुत बड़ी समर्थक थी।
वामपंथी पार्टी आजकल अपने अंदरूनी लड़ाई के चलते ही परेशान है इसलिए भारत अमेरिका सामरिक रिश्तों ने बहुत आगे तक बढ़ जाने की आशंका है। ये देश की आत्मनिर्भरता और सम्मान के लिए ठीक नहीं होगा। अगर ये हो गया तो ख़तरा है कि अमेरिकी फौज के जनरल भारत के राष्ट्रपति से भी उसी तरह बात करने लगेंगे जिस तरह वे पाकिस्तान राष्ट्रपति मुर्शरफ और जरदारी के साथ करते है। पूरी कोशिश की जानी चाहिए कि भारत और अमेरिका के बीच कोई सामरिक समझौता न हो जाए।
Sunday, July 26, 2009
भारत का मित्र नहीं अमेरिका
भले ही मनमोहन सिंह और बराक ओबामा की मुलाकात को इस रूप में रेखांकित किया जा रहा हो कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के मामले में भारत एवं अमेरिका एकजुट हैं, लेकिन इस शाब्दिक एकजुटता से पाकिस्तान की सेहत पर कोई असर पडऩे वाला नहीं है। इसका ताजा प्रमाण पाकिस्तान का यह बयान है कि वह रुकी पड़ी शांति वार्ता को आगे बढ़ाने के लिए कोई शर्त स्वीकार नहीं करेगा।
यह बयान मनमोहन सिंह के इस कथन के जवाब में आया है कि संवाद शुरू करने के लिए पहले पाकिस्तान मुंबई हमले के षड्यंत्रकारियों को दंडित करने का काम करे। स्पष्ट है कि भारत यह मानकर संतुष्ट नहीं हो सकता कि अब गेंद पाकिस्तान के पाले में है, क्योंकि पाकिस्तानी शासक एक बार फिर दुष्प्रचार का सहारा लेकर यह साबित करने की कोशिश में हैं कि भारत उनसे बातचीत करने के मामले में उन पर शर्ते थोप रहा है।
इससे भी अधिक चिंताजनक बराक ओबामा का यह सुझाव है कि जब दोनों देशों की सबसे बड़ी शत्रु गरीबी है तब भारत-पाकिस्तान के बीच प्रभावशाली संवाद आवश्यक है। क्या ऐसे किसी सुझाव का तब कोई मतलब हो सकता है जब पाकिस्तान उन तत्वों के खिलाफ कार्रवाई करने के मामले में नित-नए बहाने बना रहा हो जो भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गए हैं? यह सही समय है जब भारत इस अमेरिकी रट के खिलाफ दृढ़ता का परिचय दे कि उसे पाकिस्तान से बातचीत करनी चाहिए, क्योंकि इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि बराक ओबामा के बयान के बाद पाकिस्तान इस नतीजे पर पहुंच सकता है कि अमेरिकी प्रशासन तो उसका पक्ष ले रहा है।
भारत इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकता कि ओबामा प्रशासन पाकिस्तान में बेकाबू हो रहे आतंकवाद के संदर्भ में लगभग उसी नीति पर चल रहा है जिस पर बुश प्रशासन चल रहा था। मौजूदा अमेरिकी प्रशासन पाकिस्तान और अफगानिस्तान में कथित उदार आतंकियों की भी तलाश कर रहा है। इसके अतिरिक्त वह यह मानकर भी चल रहा है कि पाकिस्तान को आर्थिक सहायता देकर वहां पनप रहे आतंकवाद को आसानी से समाप्त किया जा सकता है।
नि:संदेह पाकिस्तान को आर्थिक मदद की जरूरत है, लेकिन तभी जब वह उसका उपयोग आतंकी संगठनों से लडऩे में करे। अमेरिका का कुछ भी मानना हो, लेकिन पाकिस्तान के मौजूदा सत्ता तंत्र की एक मात्र कोशिश आतंकी संगठनों की गतिविधियों पर पर्दा डालने की है। इसके लिए वह विश्व समुदाय की आंखों में धूल झोंक रहा है, लेकिन अमेरिका असलियत समझने से इनकार कर रहा है।