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Tuesday, May 28, 2013

नेहरू के बाद भारतीय नेतृत्व ने कश्मीर मुद्दे के हल के बजाय इसे बिगाड़ने की कोशिश की है

शेष नारायण सिंह 

49 साल पहले आज के ही दिन जवाहरलाल नेहरू ने अंतिम सांस ली थी. उनके जीवनकाल में और उनके बाद उनको बेकार साबित करने की बार बार कोशिश होती रही है लेकिन उनकी दूरदर्शिता के आलोचकों के नाम का उल्लेख करना भी उनको महत्व देना होगा क्योंकि वे लोग जवाहरलाल नेहरू के साथ अपने नाम को जोड़कर अपने को महान साबित करने की कोशिश करते रहते हैं . कश्मीर के मसले पर भारत में एक खास विचारधारा के लोग पानी पीकर भारत की आज़ादी के महान नायक को कोसते रहे हैं . उस विचारधारा वालों का नाम लेकर मैं उन लोगों को महत्त्व तो नहीं दे सकता लेकिन यह बताना ज़रूरी है कि जवाहरलाल नेहरू की निंदा करने वाले इन राजनेताओं के पूर्वज आज़ादी की लड़ाई में भारत की जनता के साथ नहीं खड़े थे और इनका एक भी नेता 1920 से 1947 के बीच भारत की आज़ादी की लड़ाई के लिए जेल नहीं गया था .कश्मीर के मामले में 1947 में जो सफलता मिली थी वह भारत की कूटनीतिक और राजनीतिक सफलता की एक ज़ोरदार मिसाल है .मैंने इस विषय पर बार बार लिखा है . आज जवाहरलाल की पुण्यतिथि पर उनकी याद में मेरी विनम्र श्रद्धांजलि
देश के बँटवारे के वक़्त अंग्रेजों ने देशी रियासतों को भारत या पाकिस्तान के साथ मिलने की आज़ादी दी थी. बहुत ही पेचीदा मामला था. ज़्यादातर देशी राजा तो भारत के साथ मिल गए लेकिन जूनागढ़, हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर का मामला विवादों के घेरे में बना रहा . कश्मीर में ज़्यादातर लोग तो आज़ादी के पक्ष में थे . कुछ लोग चाहते थे कि पाकिस्तान के साथ मिल जाएँ लेकिन अपनी स्वायत्तता को सुरक्षित रखें. इस बीच महाराजा हरि सिंह के प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान की सरकार के सामने एक स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट का प्रस्ताव रखा जिसके तहत लाहौर सर्किल के केंद्रीय विभाग पाकिस्तान सरकार के अधीन काम करेगें . 15 अगस्त को पाकिस्तान की सरकार ने जम्मू-कश्मीर के महाराजा के स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जिसके बाद पूरे राज्य के डाकखानों पर पाकिस्तानी झंडे फहराने लगे . भारत सरकार को इस से चिंता हुई और जवाहर लाल नेहरू ने अपनी चिंता का इज़हार इन शब्दों में किया.”पाकिस्तान की रणनीति यह है कि अभी ज्यादा से ज्यादा घुसपैठ कर ली जाए और जब जाड़ों में कश्मीर अलग थलग पड़ जाए तो कोई बड़ी कार्रवाई की .” नेहरू ने सरदार पटेल को एक पत्र भी लिखा कि ऐसे हालात बन रहे हैं कि महाराजा के सामने और कोई विकल्प नहीं बचेगा
हरि सिंह- साभार कश्मीरी लाइफ डॉट नेट
हरि सिंह- साभार कश्मीरी लाइफ डॉट नेट
और वह नेशनल कान्फरेन्स और शेख अब्दुल्ला से मदद मागेगा और भारत के साथ विलय कर लेगा.अगर ऐसा हो गया गया तो पाकिस्तान के लिए कश्मीर पर किसी तरह का हमला करना इस लिए मुश्किल हो जाएगा कि उसे सीधे भारत से मुकाबला करना पडेगा.अगर राजा ने इस सलाह को मान लिया होता तो कश्मीर समस्या का जन्म ही न होता..इस बीच जम्मू में साम्प्रदायिक दंगें भड़क उठे थे .
बात अक्टूबर तक बहुत बिगड़ गयी और महात्मा गाँधी ने इस हालत के लिए महाराजा को व्यक्तिगत तौर पर ज़िम्मेदार ठहराया पाकिस्तान ने महाराजा पर दबाव बढाने के लिए लाहौर से आने वाले कपडे, पेट्रोल और राशन की सप्प्लाई रोक दी. संचार व्यवस्था पाकिस्तान के पास स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के बाद आ ही गयी थी. उसमें भी भारी अड़चन डाली गयी. हालात तेज़ी से बिगड़ रहे थे और लगने लगा था कि अक्टूबर 1946 में की गयी महात्मा गाँधी की भविष्यवाणी सच हो जायेगी. महात्मा ने कहा था कि अगर राजा अपनी ढुलमुल नीति से बाज़ नहीं आते तो कश्मीर का एक यूनिट के रूप में बचे रहना संदिग्ध हो जाएगा.
कश्मीर का असल हीरो- शेख अब्दुल्ला
ऐसी हालत में राजा ने पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने की कोशिश शुरू कर दी. नतीजा यह हुआ कि उनके प्रधान मंत्री मेहर चंद महाजन को कराची बुलाया गया. जहां जाकर उन्होंने अपने ख्याली पुलाव पकाए. महाजन ने कहा कि उनकी इच्छा है कि कश्मीर पूरब का स्विटज़रलैंड बन जाए , स्वतंत्र देश हो और भारत और पाकिस्तान दोनों से ही बहुत ही दोस्ताना सम्बन्ध रहे. लेकिन पाकिस्तान को कल्पना की इस उड़ान में कोई दिलचस्पी नहीं थी. उसने कहा कि पाकिस्तान में विलय के कागजात पर दस्तखत करो फिर देखा जाएगा . इधर 21 अक्टूबर1947 के दिन राजा ने अगली चाल चल दी. उन्होंने रिटायर्ड जज बख्शी टेक चंद को नियुक्त कर दिया कि वे कश्मीर का नया संविधान बनाने का काम शुरू कर दें.पाकिस्तान को यह स्वतंत्र देश बनाए रखने का महाराजा का आइडिया पसंद नहीं आया और पाकिस्तान सरकार ने कबायली हमले की शुरुआत कर दी. राजा मुगालते में था और पाकिस्तान की फौज़ कबायलियों को आगे करके श्रीनगर की तरफ बढ़ रही थी. लेकिन बात चीत का सिलसिला भी जारी था . पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव मेजर ,ए एस बी शाह श्रीनगर में थे और प्रधान मंत्री समेत बाकी अधिकारियों से मिल जुल रहे थे. जिनाह की उस बात को सच करने की तैयारी थी कि जब उन्होंने फरमाया था कि , ” कश्मीर मेरी जेब में है.”
कश्मीर को उस अक्टूबर में गुलाम होने से बचाया इस लिए जा सका कि घाटी के नेताओं ने फ़ौरन रियासत के विलय के बारे में फैसला ले लिया. कश्मीरी नेताओं के एक राय से लिए गए फैसले के पीछे कुछ बात है जो कश्मीर को एक ख़ास इलाका बनाती है जो बाकी राज्यों से भिन्न है. कश्मीर के यह खासियत जिसे कश्मीरियत भी कहा जाता है , पिछले पांच हज़ार वर्षों की सांस्कृतिक प्रगति का नतीजा है. कश्मीर हमेशा से ही बहुत सारी संस्कृतियों का मिलन स्थल रहा है. इसीलिये कश्मीरियत में महात्मा बुद्ध की शख्सियत , वेदान्त की शिक्षा और इस्लाम का सूफी मत समाहित है. बाकी दुनिया से जो भी आता रहा वह इसी कश्मीरियत में शामिल होता रहा . कश्मीर मामलों के बड़े इतिहासकार मुहम्मद दीन फौक का कहना है कि अरब, इरान,अफगानिस्तान और तुर्किस्तान से जो लोग छ सात सौ साल पहले आये थे , वे सब कश्मीरी मुस्लिम बन चुके हैं.उन की एक ही पहचान है और वह है कश्मीरी इसी तरह से कश्मीरी भाषा भी बिलकुल अलग है. और कश्मीरी अवाम किसी भी बाहरी शासन को बर्दाश्त नहीं करता.
अकबर के दौर का कश्मीर
कश्मीर को मुग़ल सम्राट अकबर ने 1568 में अपने राज्य में मिला लिया था . उसी दिन से कश्मीरी अपने को गुलाम मानता था. और जब 361 साल बाद कश्मीर का भारत में अक्टूबर 1947 में विलय हुआ तो मुसलमान और हिन्दू कश्मीरियों ने अपने आपको आज़ाद माना. इस बीच मुसलमानों, सिखों और हिन्दू राजाओं का कश्मीर में शासन रहा लेकिन कश्मीरी उन सबको विदेशी शासक मानता रहा.अंतिम हिन्दू राजा, हरी सिंह के खिलाफ आज़ादी की जो लड़ाई शुरू हुयी उसके नेता, शेख अब्दुल्ला थे.
शेख ने आज़ादी के पहले कश्मीर छोड़ो का नारा दिया.इस आन्दोलन को जिनाह ने गुंडों का आन्दोलन कहा था क्योंकि वे राजा के बड़े खैर ख्वाह थे जबकि जवाहर लाल नेहरू कश्मीर छोड़ो आन्दोलन में शामिल हुए और शेख अब्दुल्ला के कंधे से कंधे मिला कर खड़े हुए . इसलिए कश्मीर में हिन्दू या मुस्लिम का सवाल कभी नहीं था .वहां तो गैर कश्मीरी और कश्मीरी शासक का सवाल था और उस दौर में शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के इकलौते नेता थे.
लेकिन राजा भी कम जिद्दी नहीं थे . उन्होंने शेख अब्दुल्ला के ऊपर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया . और शेख के वकील थे इलाहाबाद के बैरिस्टर जवाहर लाल नेहरू.1 अगस्त 1947 को महात्मा गांधी कश्मीर गए और उन्होंने घोषणा कर दी कि जिस अमृतसर समझौते को आधार बनाकर हरि सिंह कश्मीर पर राज कर रहे हैं वह वास्तव में एक बैनामा है . और अंग्रेजों के चले जाने के बाद उस गैर कानूनी बैनामे का कोई महत्व नहीं है . गाँधी जी ने एक और बात कहीं जो सबको बहुत अच्छी लगी. उन्होंने कहा कि सता का असली हक़दार कश्मीरी अवाम हैं जबकि जिन्नाह कहते रहते थे कि देशी राजाओं की सत्ता को उनसे छीना नहीं जा सकता .राजा के खिलाफ संघर्ष कर रहे कश्मीरी अवाम को यह बात बहुत अच्छी लगी. जबकि राजा सब कुछ लुट जाने के बाद भी अपने आप को सर्वोच्च्च मानते रहे. इसीलिये देश द्रोह के मुक़दमे में फंसाए गए शेख अद्बुल्ला को रिहा करने में देरी हुई क्योंकि राजा उनसे लिखवा लेना चाहता था कि वे आगे से उसके प्रति वफादार रहेगें. शेख कश्मीरी अवाम के हीरो थे . उन्होंने इन् बातों की कोई परवाह नहीं की. कश्मीरी अवाम के हित के लिए उन्होंने भारत और पाकिस्तान से बात चीत का सिलसिला जारी रखा अपने दो साथियों, बख्शी गुलाम मुहम्मद और गुलाम मुहम्मद सादिक को तो कराची भेज दिया और खुद दिल्ली चले गए . वहां वे जवाहरलाल नेहरू के घर पर रुके. कराची गए शेख के नुमाइंदों से न तो जिन्ना मिले और न ही लियाक़त अली. शेख ने अपनी आत्म कथा में लिखा है कि कश्मीरी अवाम के नेता वहां दूसरे दर्जे के पाकिस्तानी नेताओं से बात कर रहे थे और इधर कश्मीर में पाकिस्तानी सेना के साथ बढ़ रहे कबायली कश्मीर की ज़मीन और कश्मीरी अधिकारों को अपने बूटों तले रौंद रहे थे. तेज़ी से बढ़ रहे कबायलियों को रोकना डोगरा सेना के ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह के बस की बात नहीं थी. . पाकिस्तान के इस हमले के कारण कश्मीरी अवाम पाकिस्तान के खिलाफ हो गये .
क्योंकि महत्मा गांधी और नेहरू तो जनता की सत्ता की बात करते हैं जबकि पाकिस्तान उनकी आज़ादी पर ही हमला कर रहा था. इस के बाद कश्मीर के राजा के पास भारत से मदद माँगने के अलावा कोई रास्ता नहीं था. महाराजा के प्रधान मंत्री, मेहर चंद महाजन 26 अक्टूबर को दिल्ली भागे. उन्होंने नेहरू से कहा कि महाराजा भारत के साथ विलय करना चाहते हैं . लेकिन एक शर्त भी थी. वह यह कि भारत की सेना आज ही कश्मीर पंहुच जाए और पाकिस्तानी हमले से उनकी रक्षा करे वरना वे पाकिस्तान से बात चीत शुरू कर देगें. नेहरू आग बबूला हो गए और महाजन से कहा ‘” गेट आउट ” बगल के कमरे में शेख अब्दुल्ला आराम कर रहे थे. बाहर आये और नेहरू का गुस्सा शांत कराया. इसके बाद महाराजा ने विलय के कागज़ात पर दस्तखत किया और उसे 27 अक्टूबर को भारत सरकार ने मंज़ूर कर लिया. भारत की फौज़ को तुरंत रवाना किया गया और कश्मीर से पाकिस्तानी शह पर आये कबायलियों को हटा दिया गया .कश्मीरी अवाम ने कहा कि भारत हमारी आज़ादी की रक्षा के लिए आया है जबकि पाकिस्तान ने फौजी हमला करके हमारी आजादी को रौंदने की कोशिश की थी. उस दौर में आज़ादी का मतलब भारत से दोस्ती हुआ करती थी लेकिन अब वह बात नहीं है.
संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर का मुद्दा
कश्मीर का मसला बाद में संयुक्त राष्ट्र में ले जाया गया और उसके बाद बहुत सारे ऐसे काम हुए कि अक्टूबर 1947 वाली बात नहीं रही. संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पास हुआ कि कश्मीरी जनता से पूछ कर तय किया जाय कि वे किधर जाना चाहते हैं . भारत ने इस प्रस्ताव का खुले दिल से समर्थन किया लेकिन पाकिस्तान वाले भागते रहे , शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के हीरो थे और वे जिधर चाहते उधर ही कश्मीर जाता . लेकिन1953 के बाद यह हालात भी बदल गए. बाद में पाकिस्तान जनमत संग्रह के पक्ष में हो गया और भारत उस से पीछा छुडाने लगा .
इन हालात के पैदा होने में बहुत सारे कारण हैं.बात यहाँ तक बिगड़ गयी कि शेख अब्दुल्ला की सरकार बर्खास्त की गयी, और शेख अब्दुल्ला को 9 अगस्त 1953 के दिन गिरफ्तार कर लिया गया.उसके बाद तो फिर वह बात कभी नहीं रही. बीच में राजा के वफादार नेताओं की टोली जिसे प्रजा परिषद् के नाम से जाना जाता था, ने हालात को बहुत बिगाड़ा . अपने अंतिम दिनों में जवाहर लाल ने शेख अब्दुल्ला से बात करके स्थिति को दुरुस्त करने की कोशिश फिर से शुरू कर दी थी.6 अप्रैल 1964 को शेख अब्दुल्ला को जम्मू जेल से रिहा किया गया और नेहरू से उनकी मुलाक़ात हुई. शेख अब्दुल्ला ने एक बयान दिया जिसे लिखा , कश्मीरी मामलों के जानकार बलराज पुरी ने था . शेख ने कहा कि उनके नेतृत्व में ही जम्मू कश्मीर का विलय भारत में हुआ था . वे हर उस बात को अपनी बात मानते हैं जो उन्होंने अपनी गिरफ्तारी के पहले 8 अगस्त 1953 तक कहा था. नेहरू भी पाकिस्तान से बात करना चाहते थे और किसी तरह से समस्या को हल करना चाहते थे. नेहरू ने इसी सिलसिले में शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तान जाकर संभावना तलाशने का काम सौंपा.. शेख गए . और 27 मई 1964 के ,दिन जब पाक अधिकृत कश्मीर के मुज़फ्फराबाद में उनके लिए दोपहर के भोजन के लिए की गयी व्यवस्था में उनके पुराने दोस्त मौजूद थे, जवाहरलाल नेहरू की मौत की खबर आई. बताते हैं कि खबर सुन कर शेख अब्दुल्ला फूट फूट कर रोये थे.
नेहरू के मरने के बाद तो हालात बहुत तेज़ी से बिगड़ने लगे . कश्मीर के मामलों में नेहरू के बाद के नेताओं ने कानूनी हस्तक्षेप की तैयारी शुरू कर दी,वहां संविधान की धारा 356 और357 लागू कर दी गयी. इसके बाद शेख अब्दुल्ला को एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया. इस बीच पाकिस्तान ने एक बार फिर कश्मीर पर हमला करके उसे कब्जाने की कोशिश की लेकिन पाकिस्तानी फौज ने मुंह की खाई और ताशकेंत में जाकर रूसी दखल से सुलह हुई.
कश्मीर के सन्दर्भ में आज़ादी का मतलब भी भारत में विलय ही था . यह देश का दुर्भाग्य है कि जवाहरलाल नेहरू के बाद ऐसे नेता आये जिन्होंने मामले को खराब करने में योगदान किया लेकिन हालात इतने भी खराब नहीं हैं कि अरुंधती राय जैसे तथाकथित बुद्धिजीवी अपने को नेहरू के स्तर का चिन्तक बताने का दुस्साहस करें.

Saturday, October 9, 2010

जनरल मुशर्रफ ने माना ,कश्मीर के आतंकवाद में पाकिस्तान का हाथ

शेष नारायण सिंह

( मूल लेख दैनिक जागरण में छप चुका है )

पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति ,जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने एक जर्मन अखबार के साथ बातचीत में कहा है कि कश्मीर में आतंक का राज कायम करने की कोशिश में लगे आतंकवादियों को पाकिस्तान सरकार ने ही ट्रेनिंग दी है और उनकी देख-भाल भी पाकिस्तानी सरकार ही कर रही है . परवेज़ मुशर्रफ के इस इकबालिया बयान के बाद दिल्ली दरबार सकते में है . भारत सरकार के विदेश मंत्रालय के करता धरता समझ नहीं पा रहे हैं कि पाकिस्तान की राजनीति में शीर्ष पर रह चुके एक फौजी जनरल की बात को कूटनीतिक भाषा में कैसे फिट करें.हालांकि भारत समेत पूरी दुनिया को मालूम है कि कश्मीर में आतंकवाद पूरी तरह से पाकिस्तान की कृपा से ही फल फूल रहा है लेकिन अभी तक पाकिस्तानी इस्टेब्लिशमेंट ने इस बात को कभी नहीं स्वीकार किया था . पाकिस्तान का राष्ट्रपति रहते हुए जनरल मुशर्रफ ने हमेशा यही कहा कि कश्मीर में जो भी हो रहा है वह कश्मीरियों की आज़ादी की लड़ाई है और पाकिस्तान की सरकार कश्मीर में लड़ रहे लोगों को केवल नैतिक समर्थन दे रही है . भारत के विदेश मंत्रालय के लिए भी आसान था कि वह कूटनीतिक स्तर पर अपनी बात कहता रहे और कोई मज़बूत एक्शन न लेना पड़े . लेकिन अब बात बदल गयी है . अब तो कश्मीर में आतंकवाद को इस्तेमाल करने वाले एक बड़े फौजी और कई वर्षों तक सत्ता पर काबिज़ रहे जनरल ने साफ़ साफ़ कह दिया है कि हाँ हम कश्मीर में आतंकवाद फैला रहे हैं , जो करना हो कर लो. यह भारत के लिए मुश्किल है . इस तरह की साफगोई के बाद तो भारत को पाकिस्तान के साथ वही करना चाहिए जो अल-कायदा का मददगार साबित हो जाने के बाद ,तालिबान के खिलाफ अमरीका ने किया था या १९६५ में कश्मीर में घुसपैठ करा रही पाकिस्तान की जनरल अयूब सरकार को औकात बताने के लिए लाल बहादुर शास्त्री ने किया था . लेकिन अब ज़माना बदल गया है . शरारत पर आमादा पाकिस्तान को अब सैनिक भाषा में जवाब नहीं दिया जा सकता क्योंकि अभी पाकिस्तान की सरकार औपचारिक रूप से स्वीकार नहीं कर रही है कि कश्मीर में आतंकवाद उनकी तरफ से करवाया जा रहा है . पाकिस्तान की हालत तो मुशर्रफ के खुलासे के बाद बहुत ही खराब है . पाकिस्तान सरकार के मालिक सन्न हैं .औपचारिक रूप से पाकिस्तानी सरकार के प्रवक्ता ने कह दिया है कि मुशर्रफ के बयान बेबुनियाद हैं लेकिन सबको मालूम है कि मुशर्रफ को नकार पाना पाकिस्तानी फौज और सिविलियन सरकार ,दोनों के लिए असंभव है . पाकिस्तानी सरकार के प्रवक्ता ने कहा है कि उसे नहीं मालूम कि मुशर्रफ ने यह बात सार्वजनिक रूप से क्यों कही वैसे अंतर राष्ट्रीय कूटनीतिक दबाव के डर से पाकिस्तानी सरकार कह रही है कि सरकार इन बेबुनियाद आरोपों का खंडन करती है यह अलग बात है कि पाकिस्तान कश्मीरी लोगों के संघर्ष का समर्थन करता है.

मुशर्रफ आजकल पाकिस्तान की राजनीति में वापसी के लिए जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं . उन्हें मालूम है कि अमरीका की मर्जी के बिना पाकिस्तान में राज नहीं किया जा सकता. आजकल पाकिस्तान में अमरीका की रूचि केवल इतनी है कि वह उसे अल-कायदा को ख़त्म करने के लिए इस्तेमाल करना चाहता है . पाकिस्तान की राजनीति का स्थायी भाव भारत का विरोध करने की राजनीतिक रणनीति है . .अमरीका अब भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा चुका है . ज़ाहिर है वह भारत से दुश्मनी करने वाले को पाकिस्तान का चार्ज देने में संकोच करेगा . उसे ऐसे किसी बन्दे की तलाश है जो भारत को दुश्मन नंबर एक न माने. इस पृष्ठभूमि में जनरल मुशर्रफ से बढ़िया कोई आदमी हो ही नहीं सकता क्योंकि मुशर्रफ अमरीका की इच्छा का आदर करने के लिए भारत के खिलाफ दुश्मने में कमी लाने में कोई संकोच नहीं करेगें . उन्होंने अमरीका को खुश रखने के लिए पाकिस्तान की अफगान नीति को एक दिन में बदल दिया था . तालिबान की सरकार को पाकिस्तान ने ही बनवाया था लेकिन जब अमरीका ने कहा कि उन्हें तालिबान के खिलाफ काम करना है , मुशर्रफ बिना पलक झपके तैयार हो गए थे. उन्हें उम्मीद है कि भारत के साथ दुश्मनी करने वाले को अब अमरीका पाकिस्तान के तख़्त पर नहीं बैठाना चाहता . उन्हें यह भी मालूम है कि मौजूदा ज़रदारी-गीलानी सरकार से भी अमरीका पिंड छुडाना चाहता है . फौज के मौजूदा मुखिया के दिलो-दिमाग पर भारत के खिलाफ नफरत कूट कूट कर भरी हुई है . ऐसी हालत में पाकिस्तान पर राज करने के लिए जिस पाकिस्तानी की तलाश अमरीका को है , जनरल मुशर्रफ अपने आप को उसी सांचे में फिट काना चाहते हैं . अमरीका और भारत की पसंद की बातें करके जनरल मुशर्रफ अपने प्रति सही माहौल बनाने के चक्कर में हैं और उनका यह इकबालिया बयान इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए . जब यह लगभग पक्का हो चुका है कि पाकिस्तान की सिविलियन सरकार के दिन गिने चुने रह गए हैं, भारत के लिए भी पाकिस्तान में जनरल कयानी से बेहतर मुशर्रफ ही रहेगें क्योंकि वे अमरीकी हुक्म को मानने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते हैं .दुनिया जानती है कि अमरीका भारत को खुश रखने की विदेश नीति का गंभीरता से पालन कर रहा है

Monday, September 27, 2010

कश्मीर में सकारत्मक पहल की ज़रुरत

शेष नारायण सिंह

जम्मू-कश्मीर में भारत के राजनीतिक इकबाल की बुलंदी की कोशिश शुरू हो गयी है .कश्मीर में जाकर वहां के लोगों से मिलने की भारतीय संसद सदस्यों की पहल का चौतरफा असर नज़र आने लगा है . सबसे बड़ा असर तो पाकिस्तान में ही दिख रहा है . पाकिस्तानी हुक्मरान को लगने लगा है कि अगर कश्मीरी अवाम के घरों में घुस कर भारत की जनता उनको गले लगाने की कोशिश शुरू कर देगी तो पाकिस्तान की उस बोगी का क्या होगा जिसमें कश्मीरियों को मुख्य धारा से अलग रखने के लिए तरह तरह की कोशिशें की जाती हैं .पाकिस्तान की घबडाहट का ही नतीजा है कि उनकी संसद में भी भारत की पहल के खिलाफ प्रस्ताव पास किया गया और अमरीका की यात्रा पर गए उनके विदेश मंत्री अमरीकियों से गिडगिडाते नज़र आये कि अमरीका किसी तरह से कश्मीर मामले में हस्तक्षेप कर दे जिससे वे अपने मुल्क वापस जा कर शेखी बघार सकें कि अमरीका अब उनके साथ है . . जम्मू-कश्मीर की यात्रा पर गए सर्वदलीय प्रतिनधिमंडल को आम कश्मीरी से मिलने का मौक़ा तो नहीं लगा लेकिन हज़रत बल और अस्पताल में वे कुछ ऐसे लोगों से मिले जिन्हें उमर अब्दुल्ला की सरकार पकड़ कर नहीं लाई थी . यह अलग बात है कि कुछ दकियानूसी प्रवृत्ति के लोगों ने इस प्रतिनधिमंडल को कांग्रेसी पहल मानकर इसमें खामियां तलाशने की कोशिश की लेकिन लगता है उन लोगों को भी यह अहसास हो गया कि वे गलती कर रहे थे क्योंकि यह प्रतिनधिमंडल पूरे भारत की राजनीतिक इच्छाशक्ति को व्यक्त करता था. जो लोग खासकर प्रतिधिमंडल के सामने प्रायोजित तरीके से लाये गए थे उनसे कोई बात नहीं निकल कर सामने आई क्योंकि सर्वदलीय प्रतिनधिमंडल में केंद्रीय मंत्री फारूक अब्दुल्ला बैठे रहते थे . प्रतिनधिमंडल के एक सदस्य मोहन सिंह ने बताया कि लगता था कि जो लोग पेश किये जा रहे थे उन्हें सब सिखा पढ़ाकर लाया गया था और फारूक अब्दुल्ला उन लोगों पर नज़र रख रहे थे जो उनके बेटे के खिलाफ कुछ भी बोलते थे. इसलिए इस बैठक में सही बात सामने नहीं आ सकी. लेकिन कुछ बातें साफ़ हो गयीं . सबसे बड़ी बात तो यही कि कांग्रेस और केंद्र सरकार की यह जिद कि जब तक हालात सामान्य नहीं होते बात चीत नहीं होगी, को तोड़ दिया गया. सभी पार्टियों के नेताओं को पहली बार पता लगा कि कश्मीर में भारत के प्रति नाराज़गी का स्तर क्या है . अब पूरी राजनीतिक बिरादरी को मालूम है कि नाराज़गी बहुत गहरी है और अब उसका राजनीतिक स्तर पर हल तलाशा जायेगा. सर्वदलीय प्रतिनधिमंडल के सदस्य सीताराम येचुरी ने बताया कि वहां जाने पर पता चला कि भारत के प्रति कितनी नाराज़गी है . आज़ादी की बात अस्पतालों में भर्ती होने के बावजूद भी लोग करते हैं . सच्चाई यह है केंद्र और राज्य सरकारों ने वहां की स्थिति की सही जानकारी नहीं रखी है . जितनी नज़र आती है स्थिति उस से बहुत ज्यादा खराब है . सर्वदलीय प्रतिनधिमंडल में शामिल लोगों को कश्मीरियों ने बताया कि उनकी ज़िंदगी बिलकुल बर्बाद हो गयी है . घर से बाहर निकलना दूभर हो गया है .
ऐसी हालत में सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल से बहुत उम्मीदें हैं .राजनीतिक आकलन के बाद सरकार ने फ़ौरन पहल की है लेकिन ध्यान रखना होगा कि वहां की मौजूदा सरकार की विश्वसनीयता पूरी तरह से ख़त्म हो चुकी है .इसलिए सरकार जो भी पहल करेगी उसे सही तरीके से लागू करने के लिए उमर अब्दुल्ला की सरकार के अलावा कोई और तरीका सोचना पडेगा. अभी जो पैकेज घोषित किया गया है ,वह एक अच्छी शुरुआत है लेकिन कहीं वह उमर सरकार की नाकामी और लालची नेताओं की बलि न चढ़ जाए .सरकार ने घोषणा की है कि ११ जून से शुरू हुए विरोध में मरने वालों के परिवारों में से हर एक परिवार को पांच पांच लाख रूपया दिया जाएगा . जिन लड़कों पर केवल पत्थर फेंकने के आरोप हैं और अन्य कोई संगीन मामला नहीं है ,उन्हें केंद्र सरकार की सिफारिश पर रिहा किया जाएगा. . राजनीतिक पार्टियों,छात्रों और सिविल सोसाइटी के लोगों से बातचीत करने के लिए कुछ लोगों की कमेटी बनायी जायेगी जो संवाद का माहौल तैयार करेगी. शिक्षा संस्थाओं को ठीक करने के लिए एक सौ करोड़ रूपये की फौरी सहायता दी जायेगी . राज्य के स्कूलों को जल्दी खोलने के लिए राज्य सरकार पर दबाव डाला जाएगा .पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत पकडे गए लोगों के मामलों की जांच की जायेगी और राज्य में बुनियादी ढाँचे को दुरुस्त करने के लिए एक टास्क फ़ोर्स के गठन की भी बात है. उम्मीद की जानी चाहिए कि अब कश्मीर में महाल बदलेगा और हालात में कुछ सुधार होगा.

Sunday, September 26, 2010

भारत ने पाकिस्तान को कश्मीर खाली करने की चेतावनी दी

शेष नारायण सिंह

( मूल लेख २६ सितम्बर के दैनिक जागरण में छापा हुआ है )

भारत के विदेश मंत्री एस एम कृष्णा आम तौर पर कमज़ोर राजनेता माने जाते हैं .और विदेश मंत्री के रूप में तो खैर वह बहुत ही कमज़ोर हैं ही . विदेश मंत्रालय के अफसरों में भी शायद अब लीदार्शोप रोल १९८० के बाद ग्रेजुएशन करने वाले लोग आ गए हैं जो अपने समय के सबसे कुशाग्रबुद्धि लोग नहीं हैं . उस दौर में बेहतरीन टैलेंट अन्य क्षेत्रों में जाने लगा था .शायद इसीलिये कूटनीति के क्षेत्र में पाकिस्तान जैसा मामूली मुल्क भी भारत के विदेशमंत्री को कूटनीति के मैदान में मात पर मात दे रहा था . विदेश मंत्री का संयुक्त राष्ट्र की महासभा में दिया गया भाषण इस बात को नकारता है . वहां विदेश मंत्री ने पाकिस्तान समेत बाकी दुनिया को भारत की मजबूती का अहसास करा दिया है . उन्होंने अपने भाषण में पाकिस्तान को साफ़ समझा दिया कि कश्मीर विवाद में जो सबसे महत्वपूर्ण बात होनी है उसे पाकिस्तान को सबसे पहले करना चाहिए . उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर के कुछ इलाकों से पाकिस्तान को अपना गैरकानूनी क़ब्ज़ा हटा लेना चाहिये . उन्होंने पाकिस्तान को चेतावनी दी कि उसे अब गैरज़िम्मेदार तरीके से आचरण नहीं करना चाहिए और भारत को यह बताने से बाज़ आना चाहिए कि वह कश्मीर का प्रशासन कैसे चलाये . पूरी दुनिया के समझदार लोग यह चाहते हैं कि पाकिस्तान अपने देश में मुसीबत झेल रहे आम आदमी को सम्मान का जीवन देने में अपनी सारी ताक़त लगाए लेकिन पाकिस्तानी फौज की दहशत में रहकर वहां की तथाकथित सिविलियन सरकार के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भारत विरोधी राग अलापते रहते हैं . आज की भू भौगोलिक सच्चाई यह है कि अगर पाकिस्तानी नेता तमीज से रहें तो भारत के लोग और सरकार उसकी मदद कर सकते हैं . पाकिस्तान को यह भरोसा होना चाहिए कि भारत को इस बात में कोई रूचि नहीं है कि वह पाकिस्तान को परेशान करे लेकिन मुसीबत की असली जड़ वहां की फौज है . फौज के लिए भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढाना लगभग असंभव है . इसके दो कारण हैं . पहला तो यह कि भारत से दुश्मनी का हौव्वा खड़ा करके पाकिस्तानी जनरल अपने मुल्क में राजनीतिक और सिविलियन बिरादरी को सत्ता से दूर रखना चाहते हैं . इसी के आधार पर उसे चीन जैसे देशों से थोड़ी बहुत आर्थिक मदद भी मिल जाती है . लेकिन दूसरी बात सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है . आज की पाकिस्तानी फौज में टाप पर वही लोग हैं जिन्होंने १९७१ के आसपास पाकिस्तानी फौज़ में लेफ्टीनेंट के रूप में नौकरी शुरू की थी और सेना में अपने जीवन का पहला अनुभव भारत के से हार के रूप में मिला था . उनके बहुत सारे साथी भारत में युद्ध बंदी बना लिए गए थे . उस दर्द को पाकिस्तानी फौज का आला नेतृत्व अभी भूल नहीं पाया है .उसी लड़ाई में पाकिस्तान का एक बड़ा हिस्सा उस से अलग हो गया था और बंगलादेश की स्थापना हो गयी थी. पाकिस्तानी फौज़ को यह दंश हमेशा सालता रहता है . इसी दंश की पीड़ा के चक्कर में उनके एक अन्य पराजित जनरल , जिया -उल -हक ने भारत के पंजाब में खालिस्तान बनवा कर बदला लेने की कोशिश की थी . मैजूदा फौजी निजाम यही खेल कश्मीर में करने के चक्कर में है . फौज को मुगालता यह है कि उसके पास परमाणु बम है जिसके कारण भारत उस पर हमला नहीं करेगा . लेकिन ऐसा नहीं है . अगर कश्मीर में पाकिस्तानी फौज और आई एस आई ने संकट का स्तर इतना बढ़ा दिया कि भारत की एकता और अखंडता को खतरा पैदा हो गया तो भारतीय फौज पाकिस्तान को तबाह करने का माद्दा रखती है और वह उसे साबित भी कर सकती है . लेकिन फौजी जनरल को अक्ल की बात सिखा पाना थोडा टेढ़ा काम होता है . इसी तरह के हवाई किले बनाते हुए जनरल अयूब और जनरल याहया ने भारत पर हमला किया था जिसके नतीजे पाकिस्तान आज तक भोग रहा है .और उसकी आने वाली नस्लें भी भोगती रहेगीं.
ज़मीनी सच्चाई जो कुछ भी हो ,पाकिस्तानी हुक्मरान उससे बेखबर हैं .पाकिस्तानी सिविलियन सरकार के गैरज़िम्मेदार विदेश मंत्री भी आजकल अमरीका में हैं . वहां उन्होंने अमरीका से अपील की है कि उसे कश्मीर में भी उसी तरह से दखल देना चाहिये जैसे वह फिलिस्तीन में कर रहा है . अब इन पाकिस्तानी विदेशमंत्री जी को कौन समझाए कि पश्चिम एशिया में हालात दक्षिण एशिया से अलग हैं . वहां इजरायल सहित ज़्यादातर मुल्क अमरीका के दबाव में हैं .लेकिन दक्षिण एशिया में केवल पाकिस्तान पर उस तरह का अमरीकी दबाव है क्योंकि वह अमरीकी खैरात पर जिंदा है . जहां तक भारत का सवाल है ,वह एक उभरती हुई महाशक्ति है और अमरीका भारत के साथ बराबरी के रिश्ते बनाए रखने की कोशिश कर रहा है . इस लिए पाकिस्तानी हुक्मरान ,खासकर फौज को वह बेवकूफी नहीं करनी चाहिए जो१९६५ में जनरल अयूब ने की थी . उनको लगता था अकी जब वे भारत पर हमला कर देगें तो चीन भी भारत पर हमला कर देगा और भारत कश्मीर उन्हें दे देगा. ऐसा कुछ भी नहीं हुआऔर पाकिस्तानी फौज़ लगभग तबाह हो गयी. इस बार भी भारत के खिलाफ किसी भी देश से मदद मिलने की उम्मीद करना पाकिस्तानी फौज की बहुत बड़ी भूल होगी. लेकिन सच्चाई यह है कि पाकिस्तानी फौज़ के सन इकहत्तर की लड़ाई के हारे हुए अफसर बदले की आग में जल रहे हैं , वहां की तथाकथित सिविलियन सरकार पूरी तरह से फौज के सामने नतमस्तक है . कश्मीर में आई एस आई ने हालात को बहुत खराब कर दिया है . इसलिए इस बात का ख़तरा बढ़ चुका है कि पाकिस्तानी जनरल अपनी सेना के पिछले साठ साल के इतिहास से सबक न लें और भारत पर हमले की मूर्खता कर बैठें . ऐसी हालत में संयुक्त राष्ट्र के मंच पर कश्मीर से पाकिस्तान को हटने की चेतावानी देकर एस एम कृष्णा ने अच्छा काम किया है ताकि सनद रहे और अगर पाकिस्तानी फौज हमला करने के खतरे से खेलती है तो बाकी दुनिया को मालूम रहे कि भारत न तो गाफिल है और न ही पाकिस्तान पर किसी तरह की दया दिखाएगा .

Thursday, September 23, 2010

कश्मीर में सर्वदलीय पहल में अडंगा लगाने की बी जे पी की कोशिश

शेष नारायण सिंह

कश्मीर की हालात के बारे में केंद्र सरकार का ताज़ा रुख स्वागत योग्य है . बहुत वर्षों बाद केंद्र सरकार के नेता कश्मीर समस्या के बारे में शुतुरमुर्गी नीति से बाहर निकल पाए हैं . उम्मीद की जानी चाहिए कि जम्मू-कश्मीर की दो दिन की यात्रा पर गया सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल कश्मीर की समस्या को सही परिप्रेक्ष्य में रखने में मील का पत्थर साबित होगा..यह अलग बात है कि बी जे पी ने इस अवसर पर भी राजनीति खेलने की कोशिश की लेकिन आज पूरे देश में कश्मीर समस्या का हल खोजने का माहौल बन चुका है . लगभग सभी चाहते हैं कि कश्मीर समस्या में पाकिस्तान की दखलंदाजी ख़त्म हो. देश में जागरूक जनमत को मालूम है कि कश्मीर समस्या को पैदा करने में सबसे ज्यादा योगदान बी जे पी का ही है . १९४७ में प्रजा परिषद ने कश्मीर के राजा का उस वक़्त भी साथ दिया था जब वह भारत से अलग रहना चाहता था . उस वक़्त भी प्रजा परिषद् राजा के साथ थी जब वह भारत के खिलाफ पाकिस्तान से मिलना चाहता था.बाद में यही प्रजापरिषद जम्मू-कश्मीर में जनसंघ की शाखा बन गयी. इसी प्रजपरिषद के नेताओं ने डॉ श्यामा प्रसाद मुख़र्जी का इस्तेमाल शेख अब्दुल्ला के खिलाफ किया था. और अब इसी प्रजापरिषद् की वारिस पार्टी बी जे पी ने कश्मीर समस्या के हल के लिए की जा रही सर्वदलीय पहल में अडंगा डालने की कोशिश की है . इसी पार्टी के मौजूदा नेता , अरुण नेहरू और जगमोहन ने जम्मू-कश्मीर की हालात को सबसे ज्यादा बिगाड़ा है , यह बात राजनीति शास्त्र का बहुत मामूली जानकार भी बता देगा. जम्मू-कश्मीर में सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य के रूप में वहां पंहुची सुषमा स्वराज ने भी हालात को बिगाड़ने में अपनी पार्टी की लाइन के हिसाब से भूमिका निभाई. सुषमा स्वराज ने खबरों में बने रहने के चक्कर में असदुद्दीन ओवैसी,सीताराम येचुरी , राम विलास पासवान आदि की उस कोशिश का विरोध किया जिसमें जम्मू कश्मीर में मुसीबत की जड़ , हुर्रियत नेताओं से संपर्क साधा गया था.देखा गया है कि सुषमा स्वराज सहित लगभग सभी बी जे पी नेताओं की इच्छा रहती है कि वे ही सबके ध्यान का केंद्र बने रहें. शायद इसी चक्कर में उन्होंने अलगाववादी नेताओं से हुई मुलाक़ात को विवाद के घेरे में लाकर अखबारी सुर्ख़ियों में अपना नाम दर्ज करवाया होगा. लेकिन इस बात में दो राय नहीं कि कश्मीर की हालत पर सरकारी अफसरों या नेशनल कान्फरेंस के नेताओं की रिपोर्ट को सच मान कर फैसले लेना गलत था . सर्वदलीय प्रतिनधिमंडल की यात्रा पिछले ३० साल से जो हो रहा है उसे राष्ट्रहित की कसौटी पर जांचने का यह एक अहम प्रयास है . किसी भी लोकतंत्र के लिए यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण है कि सरकार के नीतिगत फैसलों में राजनीतिक बिरादरी के इनपुट का अहम रोल हो . कश्मीर के सन्दर्भ में जवाहरलाल नेहरू की मौत के बाद जयप्रकाश नारायण ने इस दिशा में कोशिश की थी और उसका नतीजा भी निकला था . १९७७ का चुनाव कश्मीर में हुए अब तक के चुनावों में सबसे पारदर्शी चुनाव माना जाता है . लेकिन १९८० में दोबारा इंदिरा गाँधी की वापसी के बाद सब कुछ खराब हो गया . पता नहीं किस सोच के तहत इंदिरा गाँधी ने अरुण नेहरू को कश्मीर के मामले में खुली छूट दे दी थी और उनके साथ मिलकर जगमोहन जैसे उनके सलाहकारों ने कश्मीर की राजनीति का मलीदा बना दिया और पाकिस्तान को दखल देने के अवसर उपलब्ध करवाए. . नतीजा सबके सामने है . एक मुकाम तो यह भी आया कि भारत के गृहमंत्री की बेटी को भी आतंकवादियों ने अगवा कर लिया. हालात दिन ब दिन खराब होते गए. आज स्थिति यह है कि कश्मीर से वहां के पंडितों को आतंकवादियों ने भगा दिया है और आतंकवादियों की मनमानी चल रही है . उनको घेर कर भारत की सोच का हिस्सा बनाने की इस राजनीतिक कोशिश का स्वागत किया जाना चाहिए . लेकिन बी जे पी यहाँ भी राजनीतिक बडबोलेपन से बाज़ नहीं आ रही है . बी जे पी को कश्मीर के सन्दर्भ में अपनी सोच की ओवर हालिंग करनी चाहिए वरना अगर कश्मीर में कुछ भी उल्टा सीधा हुआ तो आने वाली नस्लें उसके लिए बी जे पी और उसकी तरह की सोच वालों को ज़िम्मेदार ठहरायेगी . ठीक उसी तरह जैसे आज हर समझदार आदमी कश्मीर की हालात बिगाड़ने के लिए प्रजापरिषद , जनसंघ और डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी को ज़िम्मेदार मानता है .
इस बार कश्मीर के मसले को ठीक करने की पहल में राजनीति के साथ साथ कूटनीतिक पहल भी हो रही है . पाकिस्तानी संसद में एक गैरजिम्मेदार प्रस्ताव पारित हुआ था जिसमें जम्मू-कश्मीर के मामले में गैरज़रूरी हस्तक्षेप की बू आ रही थी . भारत सरकार ने इस पर कड़ी आपत्ति जताई है . विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने एक बयान में सरकार की मंशा साफ़ कर दी है . प्रवक्ता ने बताया कि ' हमने पाकिस्तान की कौमी असेम्बली और सेनेट में पास किये गए प्रस्ताव को देखा है . हम उसे सिरे से खारिज करते हैं ..पाकिस्तान का जम्मू-कश्मीर के मामलों में कोई रोल नहीं है .क्योंकि कश्मीर में जो कुछ भी हो रहा है वह भारत का आतंरिक मामला है.'.विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने बताया कि पाकिस्तान को चाहिए कि वह अपने देश में संविधान लागू करे और जम्मू-कश्मीर का जो इलाका पाकिस्तान के गैर कानूनी कब्जे में है , वहां लोकतंत्र की स्थापना करे , आतंकवाद को अपने देश से ख़त्म करे और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर सहित बाकी इलाकों में मानवाधिकारों की बहाली करे . पाकिस्तान की हालत आजकल बहुत खराब हैं . आतंकवाद, घूस , बे-ईमानी , फौज की मनमानी , गरीबी जैसे संकट से गुज़र रहे पाकिस्तान के नेताओं को चाहिए कि वे अपने देश में इंसान की इज़्ज़त करने की कोई तरकीब शुरू करें . कुदरत ने भी पाकिस्तान को घेर लिया है . इस साल वहां आई बाढ़ ने पाकिस्तानी समाज को तहस नहस कर दिया है लेकिन घूस की गिज़ा खाकर सत्ता के केंद्र में बैठे पाकिस्तानी नेता भारत के मामलों में टांग अडाने से बाज़ नहीं आ रहे हैं . भारत की सभी राजनीतिक पार्टियों ने कश्मीर के प्रति जो सकारात्मक रुख अपनाया है , उसके बाद तो लगता है कि कश्मीरी जनता एक बार अपने आप को फिर भारत का हिस्सा मानने में गर्व महसूस करेगी

Monday, August 16, 2010

कश्मीर में सकारात्मक पहल का सही मौक़ा

शेष नारायण सिंह

( मूल लेख दैनिक जागरण ( १५-८-२०१०) में छप चुका है .)

कश्मीर का आन्दोलन पाकिस्तान के समर्थन से चलने वाले अलगाववादी आन्दोलन के नेताओं के काबू से बाहर हो गया है . कश्मीर मामलों के जानकार बलराज पुरी ने अपने ताज़ा आलेख में लिखा है कि घाटी में जो नौजवान पत्थर फेंक रहे हैं , वे पाकिस्तान की शह पर चल रहे अलगाववाद के नेताओं पर अब विश्वास नहीं करते. सही बात यह है कि उन कम उम्र बच्चों का हर तरह के नेताओं से विश्वास उठ गया है . वे आज़ादी की बात करते हैं लेकिन उनकी आज़ादी भारत से अलग होने की आज़ादी नहीं है . सच्चाई यह है जब वहां के राजा ने १९४७ में भारत में विलय के कागजों पर दस्तखत कर दिया था तो १९४७ में कश्मीरी अवाम ने अपने आप को आज़ाद माना था . यह आज़ादी उन्हें ३६१ साल बाद हासिल हुई थी. कश्मीरी अवाम , मुसलमान और हिन्दू सभी अपने को तब से गुलाम मानते चले आ रहे थे जब १५८६ में मुग़ल सम्राट अकबर ने कश्मीर को अपने राज में मिला लिया था. उसके बाद वहां बहुत सारे हिन्दू और मुसलमान राजा हुए लेकिन कश्मीरियों ने अपने आपको तब तक गुलाम माना जब १९४७ में भारत के साथ विलय नहीं हो गया. इसलिए कश्मीर के सन्दर्भ में आज़ादी का मतलब बिलकुल अलग है और उसको पब्लिक ओपीनियन के नेताओं को समझना चाहिए. इसी आज़ादी की भावना को केंद्र में रख कर पाकिस्तान ने नौजवानों को भटकाया और घाटी के ही कुछ तथाकथित नेताओं का इस्तेमाल करता रहा. यह गीलानी , यह मीरवाइज़ सब पाकिस्तान के हाथों में खेलते रहे और पैसा लेते रहे . लेकिन अब जब यह साफ़ हो चुका है कि इन नेताओं की घाटी के नौजवानों को दिशा देने की औकात नहीं है तो भारत सरकार को फ़ौरन हस्तक्षेप करना चाहिए और इन नौजवानों के नेताओं को तलाश कर बात करनी चाहिए . कश्मीर के तथाकथित नेताओं या अलगाववादियों से बात करने का कोई मतलब नहीं है .इन नेताओं से समझौता हो भी गया तो कम उम्र के पत्थर फेंक रहे बच्चे इनकी बात नहीं मानेगें . पिछले २० वर्षों में यह पहली बार हुआ है कि पाकिस्तान से खर्चा पानी ले रहे नेताओं को कश्मीरी अवाम टालने के चक्कर में है .

ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार को अंदाज़ है कि अगर सही तरीके से कश्मीरी नौजवानों को संभाला जाए तो पहल को सार्थक नाम दिया जा सकता है और पाकिस्तानी तिकड़म को फेल किया जा सकता है . शायद इसी लिए सी रंगराजन की अध्यक्षता में जो कमेटी बनायी गयी है उसका फोकस केवल कश्मीरी नौजवानों को रोजगार के अवसर मुहैया करवाना है . पत्थर फेंकने वाले लड़कों के आन्दोलन को पाकिस्तानी शह पर घोषित करने में पता नहीं क्यों सरकारी बाबू वर्ग ज़रुरत से ज्यादा उतावली दिखा रहा है . . कश्मीर मामलों के जानकार बलराज पुरी कहते हैं कि कश्मीरी लड़कों के मौजूदा पत्थर फेंक आन्दोलन को पाकिस्तानी या आलगाव वादी लोगों की बात कह कर भारत अपनी सबसे महत्वपूर्ण पहल से हाथ धो बैठेगा. बताया गया है कि पत्थर फेंक आन्दोलन आधुनिक टेक्नालोजी की उपज है . बच्चे ट्विटर और फेसबुक का इस्तेमाल करके संवाद कायम कर रहे हैं और स्वतः स्फूर्त तरीके से सडकों पर आ रहे हैं . सही बात यह है कि पाकिस्तानी हुक्मरान भी नए हालात से परेशान हैं और घाटी में सक्रिय अपने गुमाश्तों को डांट फटकार रहे हैं .अगर भारत ने इस वक़्त सही पहल कर दी तो हालात बदलने में देर नहीं लगेगी. कश्मीर में जो सबसे ज़रूरी बात है ,वह यह कि १९४७ में जो कश्मीर के राजा की सोच थी उसे फ़ौरन खारिज किया जाना चाहिए . वह तो जिन्नाह के साथ जाने के चक्कर में थे. और उनकी पिछलग्गू राजनीतिक जमात उन्हें समर्थन दे रही थी. कश्मीर में भारत का इकबाल बुलंद करने के लिए सबसे ज़रूरी दस्तावेज़ है १९५२ का नेहरू-अब्दुल्ला समझौता . उसी के आधार पर कश्मीर को उसकी नौजवान आबादी को साथ लेकर भारत का अभिन्न अंग बनाने की कोशिश की जानी चाहिए . ध्यान रहे , पत्थर फेंक रहे नौजवान वे हैं जिनका पाकिस्तानी और भारतीय नेताओं से मोहभंग हो चुका है . उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती कोई भी पहल नहीं कर सकते . यह सत्ताभोगी हैं . जो सडकों पर पत्थर फेंक रहे २० साल से भी कम उम्र के लडके हैं उन्हें मुख्यधारा में लाया जाना चाहिये . १९५२ का समझौता पाकिस्तान को भी धता बताता है और राजा की मानसिकता को भी . . इसके अलावा कश्मीर में कुछ काम फ़ौरन किये जाने चाहिए . जैसे अभी वहां पंचायती राज एक्ट नहीं लगा है ., उसे लगाया जाना चाहिए . आर टी आई ने पूरे भारत में राजकाज के तरीके में भारी बदलाव ला दिया है . लेकिन अभी कश्मीर में वह ठीक से चल ही नही रहा है . उसे भी कारगर तरीके से लागू किया जाना चाहिये . मानवाधिकार आयोग का अधिकार क्षेत्र भी कश्मीर तक बढ़ा देना चाहिये .कश्मीर में मौजूद राजनीतिक पार्टियां भी अगर अपना घर तुरंत ठीक नहीं करतीं तो मुश्किल बढ़ जायेगी.. इस लिए केंद्र सरकार में मौजूद समझदार लोगों को चाहिए कि फ़ौरन पहल करें और कश्मीर में सामान्य हालात लाने में मदद करें

Saturday, July 17, 2010

आज़ादी,कश्मीर के इतिहास की सबसे बड़ी विरासत है

शेष नारायण सिंह



जम्मू-कश्मीर की मौजूदा सरकार बनने के पहले विधान सभा के लिए जो चुनाव हुए थे, वे कई मायनों में मील का पत्थर थे. आतंकवादियों और अलगाव वादियों की धमकियों की परवाह न करके आम कश्मीरी ने चुनाव में हिस्सा लिया था और भारत के साथ बने रहने के अपने निश्चय को एक बार फिर दोहराया था . सरकार बनी और उम्मीद की जा रही थी नौजवान मुख्य मंत्री राज्य की तरक्की के लिए सब कुछ दांव पर लगा देगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ . आज डेढ़ साल बाद लगता है कि कश्मीर फिर एक बार असंतोष और अशांति की आग में जलने के लिए मजबूर हो गया है.कांग्रेस की मदद से मुख्य मंत्री बने उमर अब्दुल्ला को सत्ता में बनाए रखने का कांग्रेस का मंसूबा भी कमज़ोर नहीं है लेकिन बात बनती नज़र नहीं आ रही है . घाटी में बिगड़ गए हालात को दुरुस्त करने की कोशिश कर रहे मुख्य मंत्री ने जो सर्व दलीय बैठक बुलाई उसमें पी डी पी नेता महबूबा मुफ्ती शामिल नहीं हुईं पी डी पी जम्मू-कश्मीर की मुख्य विपक्षी पार्टी है . आरोप यह भी है कि उसके अलगाव वादियों से सम्बन्ध मधुर हैं . अगर महबूबा ही शामिल नहीं हो रही हैं तो सर्वदलीय बैठक का कोई मतलब नहीं है क्योंकि घाटी के बाकी दो दल तो सरकार में शामिल ही हैं . कश्मीर में बन्दूक के ऊपर राज नीति को हावी करने की गरज से सभी राजनीतिक जमातों का जनहित और राष्ट्रहित के मामलों में साथ खड़े रहना ज़रूरी है . शायद इसीलिये प्रधान मंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने भी सर्व दलीय बैठक में महबूबा मुफ्ती के शामिल न होने के फैसले को बदलवाने की कोशिश की . उन्होंने महबूबा को फोन करके कहा कि वे बैठक में शामिल हों . दिन भर की ऊह पोह के बाद महबूबा ने मीडिया के ज़रिये कह दिया कि वे उमर अब्दुल्ला की तरफ से बुलाई गयी बैठक में शामिल नहीं होंगीं. बैठक में शामिल न होने के जो उन्होंने कारण दिए वे बहुत ही डरावने हैं . उन्होंने जिस भाषा का इस्तेमाल किया है उस से साफ़ लगता है कि वे उमर अब्दुल्ला की सरकार को बर्खास्त करवा कर एक नयी राजनीतिक व्यवस्था के सपने देख रही हैं. यह कश्मीर के हित में नहीं है . जब भी केंद्रीय हस्तक्षेप से श्रीं नगर में राजनीतिक सत्ता बदली गयी है नतीजे भयानक हुए हैं . शेख अब्दुल्ला की १९५३ की सरकार हो या फारूक अब्दुल्ला को हटाकर गुल शाह को मुख्यमंत्री बनाने की बेवकूफी, केंद्र की गैर ज़रूरी दखलंदाजी के बाद कश्मीर में हालात खराब होते हैं . सर्व दलीय बैठक में न शामिल होने के लिए महबूबा मुफ्ती ने जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया है उसका भावार्थ सीधे तौर पर केंद्रीय हस्तक्षेप की मांग करता नज़र आता है . उन्होंने कहा है कि हालात बहुत खराब हैं और हमें मुकामी स्तर पर तनाव को ख़त्म करना है . उसके लिए ऐसी पहल की ज़रुरत है जो सर्वोच्च स्तर से आये और लोग उसे गंभीरता से लें . महबूबा ने कहा कि सर्व दलीय बैठक से कुछ नहीं निकलने वाला है . राज्य सरकार की विश्वसनीयता ख़त्म हो चुकी है और अब उसके पास कोई विकल्प नहीं है . उन्होंने प्रधानमंत्री से हस्तक्षेप की मांग की और कहा कि उनके पास हस्तक्षेप करने का नैतिक अधिकार है और उनकी पहल को जनता गंभीरता से लेगी.उन्होंने कहा कि हमें एक ऐसी पहल की ज़रुरत है जिसका कश्मीर के आम आदमी पर असर पड़े. अब हमें अंतर राष्ट्रीय मंचों पर असर की परवाह नहीं करनी चाहिए . उनके इस रुख से यह बात बिलकुल साफ़ हो जाती है कि महबूबा अब किसी भी हाल में उमर अब्दुल्ला को चैन से नहीं बैठने देगीं . हालांकि इसमें दो राय नहीं है कि उमर अब्दुल्ला ने पिछले डेढ़ साल में अपना और कश्मीरी राजनीति का जितना नुकसान किया है , वह बहुत वक़्त में ठीक किया जा सकेगा लेकिन केंद्र के दबाव से निर्वाचित सरकार को हटाना वैसे भी ठीक नहीं है और कश्मीर की संवेदनशील जनता के लिए तो वह और भी बुरा होगा. कश्मीर में केन्द्रीय दखल के नतीजों के इतिहास पर नज़र डालने से तस्वीर और साफ़ हो जायेगी. सच्ची बात यह है कि जम्मू-कश्मीर की जनता हमेशा से ही बाहरी दखल को अपनी आज़ादी में गैर ज़रूरी मानती रही है . इसी रोशनी में यह भी समझने की कोशिश की जायेगी कि जिस कश्मीरी अवाम ने कभी पाकिस्तान और उसके नेता मुहम्मद अली जिन्नाह को धता बता दी थी और जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राजा की पाकिस्तान के साथ मिलने की कोशिशों को फटकार दिया था, और भारत के साथ विलय के लिए चल रही शेख अब्दुल्ला की कोशिश को अहमियत दी थी , आज वह भारतीय नेताओं से इतना नाराज़ क्यों है. कश्मीर में पिछले २० साल से चल रहे आतंक के खेल में लोग भूलने लगे हैं कि जम्मू-कश्मीर की मुस्लिम बहुमत वाली जनता ने पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय नेताओं, महात्मा गाँधी , जवाहर लाल नेहरू और जयप्रकाश नारायण को अपना माना था. पिछले ६० साल के इतिहास पर एक नज़र डाल लेने से तस्वीर पूरी तरह साफ़ हो जायेगी.

देश के बँटवारे के वक़्त अंग्रेजों ने देशी रियासतों को भारत या पाकिस्तान के साथ मिलने की आज़ादी दी थी. बहुत ही पेचीदा मामला था . ज़्यादातर देशी राजा तो भारत के साथ मिल गए लेकिन जूनागढ़, हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर का मामला विवादों के घेरे में बना रहा . कश्मीर में ज़्यादातर लोग तो आज़ादी के पक्ष में थे . कुछ लोग चाहते थे कि पाकिस्तान के साथ मिल जाएँ लेकिन अपनी स्वायत्तता को सुरक्षित रखें. इस बीच महाराजा हरि सिंह के प्रधान मंत्री ने पाकिस्तान की सरकार के सामने एक स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट का प्रस्ताव रखा जिसके तहत लाहौर सर्किल के केंद्रीय विभाग पाकिस्तान सरकार के अधीन काम करेगें . १५ अगस्त को पाकिस्तान की सरकार ने जम्मू-कश्मीर के महाराजा के स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जिसके बाद पूरे राज्य के डाकखानों पर पाकिस्तानी झंडे फहराने लगे . भारत सरकार को इस से चिंता हुई और जवाहर लाल नेहरू ने अपनी चिंता का इज़हार इन शब्दों में किया."पाकिस्तान की रण नीति यह है कि अभी ज्यादा से ज्यादा घुसपैठ कर ली जाए और जब जाड़ों में कश्मीर अलग थलग पड़ जाए तो कोई बड़ी कार्रवाई की ." नेहरू ने सरदार पटेल को एक पत्र भी लिखा कि ऐसे हालात बन रहे हैं कि महाराजा के सामने और कोई विकल्प नहीं बचेगा और वह नेशनल कान्फरेन्स और शेख अब्दुल्ला से मदद मागेगा और भारत के साथ विलय कर लेगा.अगर ऐसा हो गया गया तो पाकिस्तान के लिए कश्मीर पर किसी तरह का हमला करना इस लिए मुश्किल हो जाएगा कि उसे सीधे भारत से मुकाबला करना पडेगा.अगर राजा ने इस सलाह को मान लिया होता तो कश्मीर समस्या का जन्म ही न होता..इस बीच जम्मू में साम्प्रदायिक दंगें भड़क उठे थे . बात अक्टूबर तक बहुत बिगड़ गयी और महात्मा गाँधी ने इस हालत के लिए महाराजा को व्यक्तिगत तौर पर ज़िम्मेदार ठहराया पाकिस्तान ने महाराजा पर दबाव बढाने के लिए लाहौर से आने वाली कपडे, पेट्रोल और राशन की सप्प्लाई रोक दी. संचार व्यवस्था पाकिस्तान के पास स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के बाद आ ही गयी थी. उसमें भी भारी अड़चन डाली गयी.. हालात तेज़ी से बिगड़ रहे थे और लगने लगा था कि अक्टूबर १९४६ में की गयी महात्मा गाँधी की भविष्यवाणी सच हो जायेगी. महात्मा ने कहा था कि अगर राजा अपनी ढुलमुल नीति से बाज़ नहीं आते तो कश्मीर का एक यूनिट के रूप में बचे रहना संदिग्ध हो जाएगा.

ऐसी हालत में राजा ने पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने की कोशिश शुरू कर दी. . नतीजा यह हुआ कि उनके प्रधान मंत्री मेहर चंद महाजन को कराची बुलाया गया. जहां जाकर उन्होंने अपने ख्याली पुलाव पकाए. महाजन ने कहा कि उनकी इच्छा है कि कश्मीर पूरब का स्विटज़रलैंड बन जाए , स्वतंत्र देश हो और भारत और पाकिस्तान दोनों से ही बहुत ही दोस्ताना सम्बन्ध रहे. लेकिन पाकिस्तान को कल्पना की इस उड़ान में कोई दिलचस्पी नहीं थी. उसने कहा कि पाकिस्तान में विलय के कागजात पर दस्तखत करो फिर देखा जाएगा . इधर २१ अक्टोबर १९४७ के दिन राजा ने अगली चाल चल दी. उन्होंने रिटायर्ड जज बख्शी टेक चंद को नियुक्त कर दिया कि वे कश्मीर का नया संविधान बनाने का काम शुरू कर दें.पाकिस्तान को यह स्वतंत्र देश बनाए रखने का महाराजा का आइडिया पसंद नहीं आया और पाकिस्तान सरकार ने कबायली हमले की शुरुआत कर दी. राजा मुगालते में था और पाकिस्तान की फौज़ कबायलियों को आगे करके श्रीनगर की तरफ बढ़ रही थी. लेकिन बात चीत का सिलसिला भी जारी था . पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव मेजर ,ए एस बी शाह श्रीनगर में थे और प्रधान मंत्री समेत बाकी अधिकारियों से मिल जुल रहे थे. जिनाह की उस बात को सच करने की तैयारी थी कि जब उन्होंने फरमाया था कि , " कश्मीर मेरी जेब में है."

कश्मीर को उस अक्टूबर में गुलाम होने से बचाया इस लिए जा सका कि घाटी के नेताओं ने फ़ौरन रियासत के विलय के बारे में फैसला ले लिया. कश्मीरी नेताओं के एक राय से लिए गए फैसले के पीछे कुछ बात है जो कश्मीर को एक ख़ास इलाका बनाती है जो बाकी राज्यों से भिन्न है. कश्मीर के यह खासियत जिसे कश्मीरियत भी कहा जाता है , पिछले पांच हज़ार वर्षों की सांस्कृतिक प्रगति का नतीजा है. कश्मीर हमेशा से ही बहुत सारी संस्कृतियों का मिलन स्थल रहा है . इसीलिये कश्मीरियत में महात्मा बुद्ध की शख्सियत , वेदान्त की शिक्षा और इस्लाम का सूफी मत समाहित है. बाकी दुनिया से जो भी आता रहा वह इसी कश्मीरियत में शामिल होता रहा .. कश्मीर मामलों के बड़े इतिहासकार मुहम्मद दीन फौक का कहना है कि अरब, इरान,अफगानिस्तानऔर तुर्किस्तान से जो लोग छ सात सौ साल पहले आये थे , वे सब कश्मीरी मुस्लिम बन चुके हैं .उन की एक ही पहचान है और वह है कश्मीरी. इसी तरह से कश्मीरी भाषा भी बिलकुल अलग है . और कश्मीरी अवाम किसी भी बाहरी शासन को बर्दाश्त नहीं करता.

कश्मीर को मुग़ल सम्राट अकबर ने १५८६ में अपने राज्य में मिला लिया था . उसी दिन से कश्मीरी अपने को गुलाम मानता था. और जब ३६१ साल बाद कश्मीर का भारत में अक्टूबर १९४७ में विलय हुआ तो मुसलमान और हिन्दू कश्मीरियों ने अपने आपको आज़ाद माना. इस बीच मुसलमानों, सिखों और हिन्दू राजाओं का कश्मीर में शासन रहा लेकिन कश्मीरी उन सबको विदेशी शासक मानता रहा.अंतिम हिन्दू राजा, हरी सिंह के खिलाफ आज़ादी की जो लड़ाई शुरू हुयी उसके नेता, शेख अब्दुल्ला थे. . शेख ने आज़ादी के पहले कश्मीर छोडो का नारा दिया.इस आन्दोलन को जिनाह ने गुंडों का आन्दोलन कहा था क्योंकि वे राजा के बड़े खैर ख्वाह थे जबकि जवाहर लाल नेहरू कश्मीर छोडो आन्दोलन में शामिल हुए और शेख अब्दुल्ला के कंधे से कंधे मिला कर खड़े हुए . इसलिए कश्मीर में हिन्दू या मुस्लिम का सवाल कभी नहीं था .वहां तो गैर कश्मीरी और कश्मीरी शासक का सवाल था और उस दौर में शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के इकलौते नेता थे. लेकिन राजा भी कम जिद्दी नहीं थे . उन्होंने शेख अब्दुल्ला के ऊपर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया . और शेख के वकील थे इलाहाबाद के बैरिस्टर जवाहर लाल नेहरू .. १ अगस्त १९४७ को महात्मा गांधी कश्मीर गए और उन्होंने घोषणा कर दी कि जिस अमृतसर समझौते को आधार बनाकर हरि सिंह कश्मीर पर राज कर रहे हैं वह वास्तव में एक बैनामा है . और अंग्रेजों के चले जाने के बाद उस गैर कानूनी बैनामे का कोई महत्व नहीं है . गाँधी जी ने एक और बात कहीं जो सबको बहुत अच्छी लगी. उन्होंने कहा कि सता का असली हक़दार कश्मीरी अवाम हैं जबकि जिन्नाह कहते रहते थे कि देशी राजाओं की सत्ता को उनसे छीना नहीं जा सकता .राजा के खिलाफ संघर्ष कर रहे कश्मीरी अवाम को यह बात बहुत अच्छी लगी. जबकि राजा सब कुछ लुट जाने के बाद भी अपने आप को सर्वोच्च्च मानते रहे. इसीलिये देश द्रोह के मुक़दमे में फंसाए गए शेख अद्बुल्ला को रिहा करने में देरी हुई क्योंकि राजा उनसे लिखवा लेना चाहता था कि वे आगे से उसके प्रति वफादार रहेगें. शेख कश्मीरी अवाम के हीरो थे . उन्होंने इन् बातों की कोई परवाह नहीं की. कश्मीरी अवाम के हित के लिए उन्होंने भारत और पाकिस्तान से बात चीत का सिलसिला जारी रखा अपने दो साथियों, बख्शी गुलाम मुहम्मद और गुलाम मुहम्मद सादिक को तो कराची भेज दिया और खुद दिल्ली चले गए . वहां वे जवाहरलाल नेहरू के घर पर रुके. कराची गए शेख के नुमाइंदों से न तो जिन्ना मिले और न ही लियाक़त अली. शेख ने अपनी आत्म कथा में लिखा है कि कश्मीरी अवाम के नेता वहां दूसरे दर्जे के पाकिस्तानी नेताओं से बात कर रहे थे और इधर कश्मीर में पाकिस्तानी सेना के साथ बढ़ रहे कबायली कश्मीर की ज़मीन और कश्मीरी अधिकारों को अपने बूटों तले रौंद रहे थे. तेज़ी से बढ़ रहे कबायलियों को रोकना डोगरा सेना के ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह के बस की बात नहीं थी. . पाकिस्तान के इस हमले के कारण कश्मीरी अवाम पाकिस्तान के खिलाफ हो गया . क्योंकि महत्मा गांधी और नेहरू तो जनता की सत्ता की बात करते हैं जबकि पाकिस्तान उनकी आज़ादी पर ही हमला कर रहा था. इस के बाद कश्मीर के राजा के पास भारत से मदद माँगने के अलावा कोई रास्ता नहीं था.. महाराजा के प्रधान मंत्री, मेहर चंद महाजन २६ अक्टूबर को दिल्ली भागे. उन्होंने नेहरू से कहा कि महाराजा भारत के साथ विलय करना चाहते हैं . लेकिन एक शर्त भी थी. वह यह कि भारत की सेना आज ही कश्मीर पंहुच जाए और पाकिस्तानी हमले से उनकी रक्षा करे वरना वे पाकिस्तान से बात चीत शुरू कर देगें. नेहरू आग बबूला हो गए और महाजन से कहा '" गेट आउट " बगल के कमरे में शेख अब्दुल्ला आराम कर रहे थे. बाहर आये और नेहरू का गुस्सा शांत कराया . . इसके बाद महाराजा ने विलय के कागज़ात पर दस्तखत किया और उसे २७ अक्टूबर को भारत सरकार ने मंज़ूर कर लिया. भारत की फौज़ को तुरंत रवाना किया गया और कश्मीर से पाकिस्तानी शह पर आये कबायलियों को हटा दिया गया . कश्मीरी अवाम ने कहा कि भारत हमारी आज़ादी की रक्षा के लिए आया है जबकि पाकिस्तान ने फौजी हमला करके हमारी आजादी को रौंदने की कोशिश की थी. उस दौर में आज़ादी का मतलब भारत से दोस्ती हुआ करती थी लेकिन अब वह बात नहीं है.

कश्मीर का मसला बाद में संयुक्त राष्ट्र में ले जाया गया और उसके बाद बहुत सारे ऐसे काम हुए कि अक्टूबर १९४७ वाली बात नहीं रही. संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पास हुआ कि कश्मीरी जनता से पूछ कर तय किया जाय कि वे किधर जाना चाहते हैं . भारत ने इस प्रस्ताव का खुले दिल से समर्थन किया लेकिन पाकिस्तान वाले भागते रहे , शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के हीरो थे और वे जिधर चाहते उधर ही कश्मीर जाता . लेकिन १९५३ के बाद यह हालात भी बदल गए. . बाद में पाकिस्तान जनमत संग्रह के पक्ष में हो गया और भारत उस से पीछा छुडाने लगा . इन हालात के पैदा होने मेंबहुत सारे कारण हैं.बात यहाँ तक बिगड़ गयी कि शेख अब्दुल्ला की सरकार बर्खास्त की गयी, और शेख अब्दुल्ला को ९ अगस्त १९५३ के दिन गिरफ्तार कर लिया गया.उसके बाद तो फिर वह बात कभी नहीं रही. बीच में राजा के वफादार नेताओं की टोली जिसे प्रजा परिषद् के नाम से जाना जाता था, ने हालात को बहुत बिगाड़ा . अपने अंतिम दिनों में जवाहर लाल ने शेख अब्दुल्ला से बात करके स्थिति को दुरुस्त करने की कोशिश फिर से शुरू कर दिया था. ६ अप्रैल १९६४ को शेख अब्दुल्ला को जम्मू जेल से रिहा किया गया और नेहरू से उनकी मुलाक़ात हुई. शेख अब्दुल्ला ने एक बयान दिया जिसे लिखा , कश्मीरी मामलों के जानकार बलराज पुरी ने था . शेख ने कहा कि उनके नेतृत्व में ही जम्मू कश्मीर का विलय भारत में हुआ था . वे हर उस बात को अपनी बात मानते हैं जो उन्होंने अपनी गिरफ्तारी के पहले ८ अगस्त १९५३ तक कहा था. नेहरू भी पाकिस्तान से बात करना चाहते थे और किसी तरह से समस्या को हल करना चाहते थे.. नेहरू ने इसी सिलसिले में शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तान जाकर संभावना तलाशने का काम सौंपा.. शेख गए . और २७ मई १९६४ के ,दिन जब पाक अधिकृत कश्मीर के मुज़फ्फराबाद में उनके लिए दोपहर के भोजन के लिए की गयी व्यवस्था में उनके पुराने दोस्त मौजूद थे, जवाहरलाल नेहरू की मौत की खबर आई. बताते हैं कि खबर सुन कर शेख अब्दुल्ला फूट फूट कर रोये थे. नेहरू के मरने के बाद तो हालात बहुत तेज़ी से बिगड़ने लगे . कश्मीर के मामलों में नेहरू के बाद के नेताओं ने कानूनी हस्तक्षेप की तैयारी शुरू कर दी,..वहां संविधान की धारा ३५६ और ३५७ लागू कर दी गयी. इसके बाद शेख अब्दुल्ला को एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया. इस बीच पाकिस्तान ने एक बार फिर कश्मीर पर हमला करके उसे कब्जाने की कोशिश की लेकिन पाकिस्तानी फौज ने मुंह की खाई और ताशकेंत में जाकर रूसी दखल से सुलह हुई. .



कश्मीर की समस्या में इंदिरा गाँधी ने एक बार फिर हस्तक्षेप किया , शेख साहेब को रिहा किया और उन्हें सत्ता दी. . उसके बाद जब १९७७ का चुनाव हुआ तो शेख अब्दुला फिर मुख्य मंत्री बने . उनकी मौत के बाद उनके बेटे फारूक अब्दुल्ला को मुख्य मंत्री बनाया गया. लेकिन अब तक इंदिरा गाँधी बहुत कमज़ोर हो गयी थीं , एक बेटा खो चुकी थीं और उनके फैसलों को प्रभावित किया जा सकता था . अपने परिवार के करीबी , अरुण नेहरू पर वे बहुत भरोसा करने लगी थीं, . अरुण नेहरू ने जितना नुकसान कश्मीरी मसले का किया शायद ही किसी ने नहीं किया हो . उन्होंने डॉ फारूक अब्दुल्ला से निजी खुन्नस में उनकी सरकार गिराकर उनके बहनोई गुल शाह को मुख्य मंत्री बनवा दिया . यह कश्मीर में केंद्रीय दखल का सबसे बड़ा उदाहरण माना जाता है . हुआ यह था कि फारूक अब्दुल्ला ने श्रीनगर में कांग्रेस के विरोधी नेताओं का एक सम्मलेन कर दिया . और अरुण नेहरू नाराज़ हो गए . अगर अरुण नेहरू को मामले की मामूली समझ भी होती तो वे खुश होते कि चलो कश्मीर में बाकी देश भी इन्वाल्व हो रहा है लेकिन उन्होंने पुलिस के थानेदार की तरह का आचरण किया और सब कुछ खराब कर दिया . इतना ही नहीं . कांग्रेस ने घोषित मुस्लिम दुश्मन , जगमोहन को जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल बनाकर भेज दिया . उसके बाद तो हालात बिगड़ते ही गए. उधर पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल जिया उल हक लगे हुए थे. उन्होंने बड़ी संख्या में आतंकवादी कश्मीर घाटी में भेज दिया . बची खुची बात उस वक़्त बिगड़ गयी . जब १९९० में तत्कालीन गृह मंत्री, मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी का पाकिस्तानी आतंकवादियों ने अपहरण कर लिया यही दौर है जब . कश्मीर में खून बहना शुरू हुआ . और आज हालात जहां तक पंहुच गए हैं किसी के समझ में नहीं आ रहा है कि वहां से वापसी कब होगी.

Saturday, July 10, 2010

कश्मीर में निहत्थे शहरियों पर बरस रही गोलियों को लगाम दो

शेष नारायण सिंह

कश्मीर घाटी एक बार फिर उबाल पर है. सरकारी आंकड़ों के हिसाब से मंगलवार को ४ बच्चों की मौत हो गयी है और करीब ७० घायल हैं . मरने वालों में ९ साल का एक लड़का और एक जवान लडकी भी है . पिछले एक महीने में सी आर पी एफ की गोलियों से चौदह लोगों की मौत हो चुकी है .ताज़ा वारदात में भी सुरक्षा का ज़िम्मा सी आर पी एफ की टुकड़ियों पर था और सरकारी बयानों में उसे बलि का बकरा बनाने की कवायद शुरू हो गयी है . लेकिन अब कश्मीर में जो कुछ भी हो रहा है , उसके लिए पिछले डेढ़ साल से राज कर रहे , मुख्य मंत्री उमर अब्दुल्ला सबसे ज्यादा ज़िम्मेदार हैं .कई हफ़्तों से घाटी में अवाम का विरोध चल रहा है , उसे कुचलने के लिए सरकार ने सी आर पी एफ को ज़िम्मा दिया . तंग गलियों में कायदे से स्थानीय पुलिस को भेजा जाना चाहिए क्योंकि बाहर से आये सी आर पी एफ के जवानों के सामने भाषा और मुकामी मुहल्लों के रास्तों की जानकारी की चुनौती होती है . इसलिए उन्हें परेशानी होती है लेकिन सरकार ने उन्हें लगा दिया और नौजवानों की जानें चली गयीं . राज्य और केंद्र सरकार के नेता केंद्रीय पुलिस बलों को ज़िम्मेदार ठहराने की अपनी आदत के हिसाब से पल्ला झाड़ने के मूड में थे लेकिन सूचना क्रान्ति के चलते पूरी दुनिया को सच्चाई मालूम पड़ गयी और अब नेता लोग बगलें झाँक रहे हैं . राज्य सरकार की बेशर्मी की हद तो यह है कि वे अब अपने लोगों की राजनीतिक मांगों को तबाह करने के लिए फौज की मदद की फ़रियाद कर रहे हैं . ज़ाहिर है केंद्र सरकार गली मुहल्लों से शुरू होने वाले आम आदमी के आन्दोलन को कुचलने के लिए फौज का इस्तेमाल तो नहीं करने देगी. पता चला है कि सेना की कुछ कम्पनियां उपलब्ध कराई जायेगीं जो केवल फ्लैग मार्च के काम में लाई जायेगीं . कश्मीर में हालात रोज़ बिगड़ रहे हैं . अब तक तो वहां तोड़ फोड़ में विदेशी हाथ की थियरी चला दी जाती थी लेकिन अगर ९ साल के बच्चे भी विदेशी हाथ में जा चुके हैं तो बात बहुत ही ज्यादा बिगड़ चुकी है . इस लिए केंद्र सरकार को चाहिए कि जम्मू -कश्मीर के मुख्य मंत्री को गंभीरता से लेना बंद करें और हालात को सामान्य करने केलिए सोच विचार करके काम करें.

कश्मीर में पिछले कई हफ्ते से तनाव है.उम्मीद की जा रही थी कि मामला शांत हो जाएगा लेकिन मंगलवार को हुई मौतों ने माहौल को बहुत बिगाड़ दिया. सोमवार की रात को बटमालू में पुलिस से डर कर भाग रहे एक लडके की एक नाले में गिरकर मौत हो गयी. वह लड़का उमर अब्दुल्ला सरकार के एक मंत्री से नाराज़ था और अपनी नाराज़गी ज़ाहिर कर रहा था लेकिन पुलिस ने उसे दौड़ा लिया और जान बचाने के चक्कर में वह नाले में गिर गया और मर गया. जब मंगलवार के सुबह उस लड़के का शव नाले से निकाला गया तो लोगों को बहुत तकलीफ हुई और उन्होंने अपने ग़म और गुस्से का इज़हार करने के लिए जुलूस निकाला .भीड़ को कण्ट्रोल करने के लिए पुलिस ने गोली चलाई और एक लड़का मारा गया . कई घायल भी हो गए . इसके बाद तो एक के बाद एक गलती होती गयी और हालात काबू के बाहर होते गए. शाम को मुख्य मंत्री उमर अब्दुल्ला ने बताया कि मामले की जांच की जायेगी . उन्होंने खबर दी कि जो तीन बच्चे मारे गए हैं वे भाग कर अपने घर जा रहे थे और पुलिस ने उन्हें दौड़ा कर मारा . उन्होंने कहा कि अगर वे सड़क पर मारे गए होते तो शक़ हो सकता था कि वे पत्थर फेंक रहे थे लेकिन वे तो अपने घरों में मारे गए. उन्होंने कहा कि वापस श्रीनगर जाकर वे फ़ौरन कार्रवाई करेगें और गलती करने वालों की ज़िम्मेदारी फिक्स करेगें . कहने में यह बात बहुत अच्छी है लेकिन ज़िम्मेदारी फिक्स करने के लिए कहीं दूर जाने की ज़रुरत नहीं है . जम्मू-कश्मीर की मौजूदा हालात के लिए सबसे ज्यादा ज़िम्मेदार मुख्यमंत्री खुद हैं . डेढ़ साल पहले संपन्न हुए चुनाव में जनता ने जिस तरह से आतंकवादियों की मर्जी को ठोकर मार कर कांग्रेस और नेशनल कांफेरेंस को सत्ता सौंप दी थी , उसे आगे बढाने की ज़रुरत थी लेकिन मौजूदा मुख्यमंत्री ने सब कुछ बिगाड़ कर रख दिया . जम्मू-कश्मीर में कुछ भी होता है तो उमर अब्दुल्ला फ़ौरन राष्ट्र विरोधी ताक़तों को जिम्मेवार बात देते हैं . उनकी डिक्शनरी में राष्ट्र विरोधी ताक़तों का मतलब हुर्रियत से है. वे हुर्रियत के खिलाफ प्वाइंट स्कोर करने से कभी बाज़ नहीं आते. जबकि केंद्र सरकार की नज़र में कश्मीर में जो भी गड़बड़ होती है , उसके लिए लश्कर-ए-तय्यबा ज़िम्मेदार पाया जाता हैं . लेकिन उमर अब्दुल्ला और पी चिदंबरम की बदकिस्मती यह है कि उनकी बात में शायद आंशिक सच्चाई हो सकती है लेकिन उसे पूरा सच मानने की गलती नहीं की जा सकती. पूरा सच यह है कि जम्मू-कश्मीर में २००८ में हुए विधान सभा चुनाव के दौरान जो सकारात्मक रुख था , वह ख़त्म हो गया है. राज्य सरकार की विश्वसनीयता रसातल पंहुच चुकी है . घाटी में सबको मालूम है कि सुरक्षा बलों को शूट ऐट साईट के आदेश दिए जा चुके हैं .लोग यह भी जानते हैं कि जिस तरह से राज्य सरकार की नाकामी को छुपाने के लिए जो भी विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं उनको रौंद डालने का हुक्म दिया जा चुका है .नतीजा यह है कि राज्य के किसी भी हिस्से में लोकतंत्र नाम की चीज़ नहीं है हालांकि वहां एक ऐसी सरकार है जो बाकायदा चुन कर राज कर रही हैं . इसका सीधा कारण यह है कि मौजूदा मुख्य मंत्री के ऊपर घाटी में कोई भी विश्वास नहीं करता . सिविल सोसाइटी के लोग बहुत ही चिंतित हैं . और मांग कर रहे हैं कि केंद्र सरकार इस मामले में अपना रुख साफ़ करे . क्या केंद्र सरकार को नहीं मालूम है कि इतने संवेदनशील इलाके में बहुत ही पेचीदा समस्या का हल करने का तरीका लाठी गोली कभी नहीं हो सकती है . सच्चाई यह है कि अगर फ़ौरन से पहले इस काम को न किया गया तो बात रोज़ ही बिगड़ती जायेगी. कश्मीर में विदेशी हाथ और राष्ट्र विरोधी ताक़तों का राग अलाप रहे नेताओं को यह साफ़ बताना होगा कि ९ साल का बच्चा किन कारणों से राष्ट्र द्रोही बनता है . गौर करने की बात यह है कि यह वही लोग हैं जिन्होंने अभी डेढ़ साल पहले कश्मीर और केंद्र के नेताओं का विश्वास किया था और पाकिस्तान के इशारे पर चल रहे अलगाव वादी लोगों के आन्दोलन को फटकार दिया था . आज उन्हीं लोगों की जायज चिंताओं को यह सरकार बन्दूक की भाषा में समझाने की कोशिश कर रही है.

सबसे बड़े दुर्भाग्य की बात यह है कि देश की राजनीति के शिखर पर बैठे लोगों की तरफ से भी किसी तरह की दिलाशा नहीं दी जा रही है . केंद्रीय गृह मंत्री खुले आप इस तरह की बात कर रहे हैं जिस से कश्मीरी अवाम अलग थलग पड़ता जा रहा है . जिनके खिलाफ गोलियां चलाई जा रही हैं वे निहत्थे नागरिक हैं . सवाल यह है कि क्या भारत की जनता की जायज नाराज़गी दूर करने के लिए और कोई तरीका नहीं है.कश्मीर में चल रहे सरकारी वहशीपन का कोई जवाब नहीं है. इस वक़्त ज़रुरत इस बात की है कि कश्मीर घाटी में मुसीबत झेल रहे लोगों के साथ सहानुभूति जताई जाए और उनके ऊपर चल रही गोलियों पर लगाम लगाई जाए. अगर ऐसा न हुआ तो हमारे मौजूदा हुक्मरान को आने वाली नस्लें कभी नहीं माफ़ करेगीं . .

Thursday, June 10, 2010

प्रधान मंत्री की श्रीनगर यात्रा एक ज़रूरी पहल है

शेष नारायण सिंह

(डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट से साभार )

प्रधान मंत्री डॉ मनमोहन सिंह की कश्मीर यात्रा से दिल्ली के शासकों को बहुत उम्मीदें हैं . पिछले २० वर्षों से भी ज्यादा वक़्त से आतंकवादी हमलों को झेल रहे कश्मीरी अवाम को कुछ सुकून देने की केंद्र सरकार की कोशिश साफ़ नज़र आ रही है. आतंकवाद पर दुनिया भर में दबाव बना हुआ है. ऐसी हालत में प्रधानमंत्री की कोशिश है कि विकास के मुद्दों को पुरजोर तरीके से चर्चा का विषय बनाया जाए. उनकी मौजूदा यात्रा नयी दिल्ली के नीति नियामकों की इसी सोच का नतीजा है . यात्रा के पहले दिन ही प्रधान मंत्री ने सभी वर्गों के लोगों से बात की . उनको भरोसा दिलाने की कोशिश की कि केंद्र सरकार राज्य के विकास को गंभीरता से लेती है..अलगाववादियों की गतिविधियों को भी बेमानी साबित करने की दिशा में गंभीर पहल की गयी . उन्होंने जब यात्रा शुरू होने के पहले यह ऐलान कर दिया कि शान्ति और विकास के लिए किसी से भी बात करने में कोई हर्ज़ नहीं है, तो आतंक वालों का आधा खेल तो पहले ही बिगड़ गया था . बाकी वहां जाकर दुरुस्त करने की कोशिश की . विकास का हमला करने की मनमोहन सरकार की रणनीति के सफल होने की उम्मीद दिल्ली और इस्लामाबाद में की जा रही है . हालांकि सरहद के दोनों तरफ की अतिवादी ताकतें अभी इस फ़िराक़ में हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच झगडा बना रहे . दर असल इन अतिवादी ताक़तों की राजनीति की बुनियाद ही यही है . लेकिन मनमोहन सिंह ने विकास के रास्ते शान्ति की पहल कर दी है . वक़्त ही बतायेगा कि भारत सरकार का यह जुआ शान्ति की दिशा में सही क़दम साबित होता है कि नेताओं और अफसरों के लिए रिश्वत की गिज़ा का माध्यम बनता है . प्रधान मंत्री ने राज्य के मुख्य मंत्री की बहुत तारीफ़ की और कहा कि जिस तरह से उमर अब्दुल्ला ने राज्य के विकास और उसके लिए ज़रूरी केंद्रीय मदद की मांग की , उस से वे बहुत प्रभावित हुए हैं . इसका मतलब यह हुआ कि जम्मू-कश्मीर में बड़े पैमाने पर सरकारी धन भेजा जाने वाला है . लगता है कि प्रधानमंत्री की पुनर्निर्माण योजना के वे ६७ प्रोजेक्ट भी शुरू हो जायेंगें जो अर्थव्यवस्था के ११ क्षेत्रों को कवर करते हैं और उन पर केंद्र सरकार २४ हज़ार करोड़ रूपये खर्च करने की योजना बना चुकी है . डॉ मनमोहन सिंह की जम्मू-कश्मीर यात्रा का शान्ति के हित में बहुत ही अधिक महत्व है . राज्य के वे लोग जो अब तक गलत राजनीतिक सोच की वजह से परेशान रहे हैं उनको भी उम्मीद का एक अवसर नज़र आना चाहिए .

जम्मू -कश्मीर इस बात का उदाहरण है कि गलत राजनीतिक फैसलों से किस तरह देश का भविष्य तबाह किया जा सकता है . जिस कश्मीर की तुलना स्वर्ग से की जाती थी , वहां रहने वाले लोग देश के सबसे खस्ताहाल इलाके के नागरिक कहे जाते हैं . कश्मीर बहुत पहले से गलत राजनीतिक सोच का शिकार रहा है. पुराने इतिहास में न जाकर देश विभाजन के वक़्त की राजनीति को ही देखने से कश्मीरी अवाम की बदकिस्मती का एक खाका दिमाग में उभरता है . उस वक़्त का कश्मीर नरेश एक अजीब इंसान था . विभाजन के दौरान ,बहुत दिनों तक वह पाकिस्तान से सौदेबाजी करता रहा कि वह उनके साथ जाना चाहता था. वो तो जब पाकिस्तान ने कबायलियों के साथ अपने फौजी भेजकर ज़बरदस्ती कश्मीर पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश की तब उसकी समझ में आया कि वह कितनी बड़ी बेवकूफी का शिकार हो रहा था .बहर हाल वह सरदार पटेल की शरण में आया और उन्होंने उसे अपने साथ मिला लिया और पाकिस्तानी फौज़ को वापस खदेड़ दिया गया . शेख अब्दुल्ला उस दौर के हीरो थे. सरदार पटेल ने जब जम्मू-कश्मीर को अपने साथ लिया था तो राज्य को एक विशेष दर्जा देने का वचन दिया था . उसी वचन को पूरा करने के लिए संविधान में अनुच्छेद ३७० की व्यवस्था की गयी. लेकिन जो पार्टियां आज़ादी की लड़ाई में शामिल नहीं थीं, उन्हें सरदार पटेल के वचन या भारतीय संविधान का सम्मान करने की तमीज नहीं थी और उन्होंने उसका विरोध शुरू कर दिया . नतीजा यह हुआ कि कई फैसलों में गलतियां हुईं और जवाहर लाल नेहरू ने १९५३ में शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार कर लिया . उसके बाद तो गलत फैसलों की बाढ़ सी आ गई. राज्य के सबसे लोकप्रिय नेता को गिरफ्तार करके केंद्र सरकार ने वह गलती की जिसका खामियाजा आज तक भोगा जा रहा है . दिल्ली की पसंद की सरकार बनाने के लिए जम्मू-कश्मीर में हमेशा राजनीतिक अड़ंगेबाज़ी का सिलसिला चलता रहा. बताते हैं कि शेख साहेब की गिरफ्तारी के बाद पहली बार राज्य में निष्पक्ष चुनाव १९७७ में ही हुए . लेकिन उसके बाद पाकिस्तान में जनरल जिया उल हक का राज हो गया और वह १९७१ की पाकिस्तानी फौज की हार का बदला लेना चाहते थे और भारत को कमज़ोर करना उनका प्रमुख उद्देश्य था . पहले तो उसने पंजाब में आतंकवाद को हवा दी और साथ साथ कश्मीर में भी काम शुरू करवा दिया .इधर दिल्ली में भी अदूरदर्शी लोगों के हाथ में सत्ता आ गयी. इंदिरा गाँधी के दूसरे कार्यकाल में अरुण नेहरू बहुत बड़े सलाहकार बन कर उभरे. उन्होंने इंदिरा और राजीव ,दोनों को ही कश्मीर मामले में गलत फैसले करने के लिए उकसाया , अरुण नेहरू ने ही वह गैर ज़िम्मेदार बयान दिया था जिसमें कहा गया था कि कश्मीर में चल रहा अलगाव वादियो का आन्दोलन वास्तव में कानून व्यवस्था की समस्या है . कोई अज्ञानी ही इतनी बड़ी समस्या को कानून व्यवस्था की समस्या कह सकता है . अरुण नेहरू ने इसी स्तर की सलाह राजीव गाँधी को उपलब्ध कराई जिसकी वजह से केंद्र सरकार ने थोक में गलत फैसले किये . नतीजा सामने है . बाद में जब जगमोहन को वहां राज्यपाल बनाकर भेजा गया तब तो मूर्खता पूर्ण फैसलों का दौरदौरा शुरू हो गया . जगमोहन ने तो अपनी मुस्लिम विरोधी सोच की सारी कारस्तानियों को अंजाम दिया . मीरवाइज़ फारूक की शव यात्रा पर गोली चलवाना जगमोहन के दिमाग की ही उपज हो सकता था . जगमोहन ने ही निर्दोष मुसलमानों को फर्जी तरीके से फंसाना शुरू कर दिया . मुफ्ती मुहम्मद सईद का गृह मंत्री होना , कश्मीर का सबसे बड़ा दुर्भाग्य माना जाता है . उनके शासनकाल में ही वहां आतंकवाद खूब पला बढा . बाद में केंद्र में ऐसी सरकारें आती रहीं जिनके पास स्पष्ट जनादेश नहीं था. लिहाज़ा सब कुछ गड़बड़ होता रहा . उधर पाकिस्तान में आई एस आई और फौज की ताक़त बहुत बढ़ गयी . पाकिस्तान ने आतंक के ज़रिये भारत को दबाने की कोशिश की . यह अलग बात है कि उसी चक्कर में पाकिस्तान खुद ही नष्ट हो गया लेकिन भारत का नुकसान तो हुआ .उसी नुक्सान को संभालने के लिए आज मुल्क हर स्तर पर कोशिश कर रहा है . प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह की यात्रा को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए . अभी यह उम्मीद करना भी ठीक नहीं होगा कि सब कुछ जल्दी ही दुरुस्त हो जाएगा लेकिन यह तो तय है कि सही दिशा में क़दम उठा दिया गया है . नतीजा भविष्य की कोख में है.

Monday, November 16, 2009

ओबामा ने पाकिस्तान परस्त अफसर को तैनात करके गलती की

- शेष नारायण सिंह
अमरीकी राष्ट्रपति, बराक हुसैन ओबामा ने दक्षिण एशिया में गलतियाँ करना शुरू कर दिया है..उन्होंने पाकिस्तान को अमरीका से मिलने वाली आर्थिक सहायता के एक हिस्से की निगरानी का काम रोबिन राफेल को दे दिया है . यह हिस्सा गैर सैनिक सहायता का है. जब अमरीका ने केरी-लुगर एक्ट के तहत पाकिस्तान को करीब डेढ़ अरब डालर प्रति वर्ष की आर्थिक सहायता देने की बात की थी और उसमें बड़ी बड़ी शर्तें लगाई थीं जिसके मुताबिक अमरीका की मदद के एक एक पैसे का हिसाब रखा जाना था और पाकिस्तानी फौजियों पर सिविलियन सरकार की निगरानी रखी जानी थी तो लोगों ने उम्मीद बांधी थी कि अब अमरीका सुधर रहा है. अमरीकी टैक्सपेयर का पैसा पाकिस्तान की मनमानी के हवाले न करके , ऐसा इन्तेजाम कर दिया है कि उसका इस्तेमाल पाकिस्तानी अवाम के लिए होगा . लेकिन इन उम्मीदों पर हमेशा के लिए पानी फेर दिया गया है. अमरीकी गैर सैनिक सहायता की निगरानी का काम अमरीकी सरकार की रिटायर अफसर , रोबिन राफेल के जिम्मे कर दिया गया है. यह तेज़ तर्रार महिला अफसर काबिल तो बहुत हैं लेकिन यह पाकिस्तानी फौज, शासक वर्ग और उनकी खुफिया एजेंसियों से बहुत ही घुली मिली हैं. इनकी तैनाती का मतलब यह है कि पाकिस्तानी फौज जिस तरह से भी चाहे अमरीकी आर्थिक सहायता का इस्तेमाल कर सकती है. रोबिन राफेल को किसी भी कागज़ पर दस्तखत कर देने में कोई दिक्क़त नहीं होगी. लगता है के केरी-लुगर के आर्थिक सहायता वाले कानून के असर को पाकिस्तानी फौज के लिए बहुत उपयोगी बनाने की गरज से यह नियुक्ति की गयी है. यह वास्तव में अमरीकी फौज को दी गयी एक रियायत है.. जो लोग अमरीकी अफसर रोबिन राफेल को नहीं जानते , उनके लिए इस पहली को समझना थोडा मुश्किल होगा लेकिन दक्षिण एशिया के कूटनीतिक हलकों में इनका इतना नाम है कि कूटनीति का मामूली जानकार भी सारी बात को बहुत आसानी से समझ सकता है . आप ९० के दशक के शुरुआती वर्षों में अमरीकी प्रशासन में दक्षिण एशिया से सम्बंधित मामलों की सहायक सचिव थीं और हर मामले में अमरीकी रुख को भारत के खिलाफ करती रहती थीं. इन्होने ने कश्मीर को अमरीकी विदेशनीति की किताबों में "विवादित क्षेत्र" घोषित करवाया था. जब ये सहायक सचिव के रूप में तैनात थीं, तो पूरे दक्षिण एशिया क्षेत्र में अमरीकी विदेश नीति को सही दिशा में चलाने में मदद देना इनका मुख्य काम था लेकिन इन्होने अपने को पाकिस्तान के दोस्त के रूप में पेश करना ही ठीक समझा . इनके पक्षपात पूर्ण रुख का फायदा , बेनजीर भुट्टो और नवाज़ शरीफ ने उठाया. उस दौर में भारत और अमरीका के आपसी रिश्तों में जो ज़हर इन्होने घोला था, बाद के अमरीकी राष्ट्रपतियों ने उसको साफ़ करने में बहुत मेहनत की .इस पृष्ठभूमि में यह समझ में नहीं आ रहा है कि बराक ओबामा जैसे सुलझे हुए राष्ट्रपति ने पाकिस्तान और अमरीका के बीच ऐसे किसी इंसान को क्यों आने दिया जिसका पाकिस्तान प्रेम इस हद तक जाता है कि वह भारत की दुश्मनी की भी परवाह नहीं करता.

रोबिन राफेल के पाकिस्तान प्रेम के कुछ भावात्मक कारण भी हैं . सबसे महत्वपूर्ण तो शायद यह है कि इनके पति आर्नाल्ड राफेल , पूर्व पाकिस्तानी तानाशाह , जनरल जिया उल हक के करीबी दोस्त थे . १७ अगस्त १९८८ को जिस विमान हादसे में जिया की मौत हुई, उसी विमान में रोबिन राफेल के पति आर्नाल्ड राफेल भी सवार थे. ज़ाहिर है वह दौर अमरीका और पाकिस्तान की दोस्ती का सबसे बेहतरीन दौर है. उसी दौर में अमरीका ने पाकिस्तान के लिए थैलियाँ खोल दी थीं क्योंकि पाकिस्तानी फौज आज के अपने दुश्मन ,,इन्हीं तालिबान और ओसामा बिल लादेन के साथ कंधे से कन्धा मिला कर चल रही थी और अफगानिस्तान से सोवियत सेनाओं को भगाने का काम चल रहा था. भारत उन दिनों अमरीका का दुश्मन माना जाता था क्योंकि उसकी दोस्ती सोवियत रूस से थी और पाकिस्तानी हुक्मरान अमरीका की मदद से भारत को तबाह करने पर आमादा थे. भारतीय पंजाब में पाकिस्तान की खुफिया एजेन्सी , आई एस आई के आर्शीवाद से आतंकवाद पूरी बुलंदी पर था और कश्मीर में आतंकवाद की तैयारियों में पाकिस्तानी खाद पड़ रही थी. ज़ाहिर है पाकिस्तान से कूटनीतिक सम्बन्ध बनांये रखने के लिए अमरीका अपने बहुत ही अधिक भरोसे के अफसर को वहां राजदूत बनाएगा. और पाकिस्तानी राष्ट्रपति का निजी विश्वास भी उस अफसर पर था , इसीलिए , अपने सबसे ज्यादा भरोसे के अफसरों के साथ किसी सैनिक विमान में यात्रा करते वक़्त , जिया उल हक ने एक विदेशी को साथ ले जाने का फैसला किया . और वह राजदूत इन रोबिन राफेल साहिबा का पति था. पाकिस्तान के मामलों में इनकी दिलचस्पी की यही व्याख्या बताते हैं . पाकिस्तान में बहुत सारे परिवारों में रोबिन राफेल के घरेलू ताल्लुकात भी हैं . पाकिस्तानी राजनयिक, शफ़क़त काकाखेल का परिवार भी ऐसा ही एक परिवार है. शफ़क़त काकाखेल ९० के दशक में दिल्ली के पाकिस्तानी दूतावास में एक बड़े पद पर तैनात थे. उन दिनों के कूटनीतिक हलकों के जानकारों को मालूम है कि श्री काकाखेल जिस तरह से चाहें , अमरीकी नीति को मोड़ सकते थे. वैसे यह बात बिलकुल सच है कि रोबिन राफेल और शफ़क़त काकाखेल की जोड़ी ने भारत के खिलाफ अमरीका का खूब जमकर इस्तेमाल किया और आज भी उन दिनों हुए नुक्सान को संभालने की कोशिश की अमरीकी राजनयिक करते रहते हैं ..

अमरीकी सरकार की सेवा से रिटायर होने के बाद भी रोबिन राफेल साहिबा अमरीका में पाकिस्तान के लिए लाबी करने का काम करती रही हैं ..उनके कुछ ताज़ा काम ऐसे हैं जो कि उनकी निष्पक्षता पर सवाल पैदा कर देते हैं. पिछले कुछ महीनों में उन्होंने अमरीका के लिए जमकर लाबीइंग की है. और पाकिस्तान से रक़म भी बतौर फीस वसूल पायी है . . पाकिस्तान में अमरीकी खैरात का हिसाब रखने के लिए की गयी उनकी तैनाती ऐसी ही है जैसे कहीं किसी खदान से हो रही चोरी को रोकने के लिए मधु कोडा को तैनात कर दिया जाए ..अमरीकी प्रशासन, ख़ास कर राष्ट्रपति ओबामा को चाहिए कि रोबिन राफेल की नियुक्ति को फ़ौरन रद्द कर दें वरना पूरी दुनिया जान जायेगी कि अमरीका पाकिस्तानी फौज के अफसरों के सामने घुटने टेक चुका है

Monday, October 26, 2009

भारत के प्रति चीन का गैरजिम्मेदार रुख

भारत के वर्तमान नेताओं पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। अमेरिका से भारत की बढ़ती मुहब्बत की वजह से चीन को चिंता हो गई है। खतरा यह है कि चीन किसी भी वक्त भारत को अस्थिर करने की कोशिश कार सकता है और अगर ऐसा हुआ तो भारत की पूंजीवादी आर्थिक प्रगति की गाड़ी पर ब्रेक लग जाएगा। चीन का सपना है कि वह एक महाशक्ति बने, कम से कम एशिया में वह किसी किस्म की चुनौती नहीं चाहता है, लेकिन भारत में भी विदेशी पूंजी और अमेरिका के बढ़ते प्रभाव और भारत की लगभग सभी पार्टियों में अमेरिका के मित्र बड़े नेताओं की मौजूदगी चीन को अच्छे नहीं लग रही है। शायद इसी कारण से चीन ने अपने मित्रों को भारत के खिलाफ लगाने की कोशिश शुरू कर दी है। नेपाल में चीन की राजनीतिक हस्तक्षेप की ताकत बढ़ी है और वह भारत को डराने के लिए उसका इस्तेमाल भी कर रहा है। पिछले दिनों नेपाल के माओवादी नेता ए बाबूराम भट्टराई ने जो बयान दिया है उसका राग चीन के हित साधन वाला है।

अब प्रधानमंत्री ने जो बयान दिया है वह तो भारत के खिलाफ चीन के अभियान की अंदरूनी कोशिशों को काफी हद तक खोल देता है। तीनों सेनाओं के कमाडरों की बैठक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि भारत पर आतंकवादी हमलों की आशका बहुत ही बढ़ गई है। देश के प्रधानमंत्री की ओर से आने वाला यह बयान निश्चित रूप से चिंता का विषय है। जाहिर है कि केंद्र सरकार को मालूम है कि भारत के खिलाफ खासी गाढ़ी खिचड़ी पाक रही है। इस बीच यहां साफ कर देना जरूरी है कि कुछ टीवी चैनलों की तरफ से चलाए जा रहे चीनी खतरे के अभियान को गंभीरता से नहीं लिया जा सकता। उनकी युद्धोन्मादी खबरें केवल मनोरंजन की सीमाओं में ही रखी जानी चाहिए, लेकिन भारत के अंदर और बाहर मौजूद चीन के दोस्तों की कारस्तानियों को हल्का करके आकने की गुंजाइश नहीं रह गई है। भारत के अंदर अपनी राह से भटके कम्युनिस्ट, जो माओवादी बन गए हैं, देश और समाज को तबाह करने परआमादा हैं। सरकार और सिविल सोसाइटी को उनके खिलाफ कोई भी अभियान चलाने के पहले बार बार सोचना पड़ेगा। नेपाल भी आजकल चीन का बड़ा दोस्त है, क्योंकि बाबूराम और प्रचंड ने चीन की कृपा से ही नेपाल में अब तक संघर्ष चलाया और अब सत्ता का सुख भोग रहे हैं। उनको भी अगर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी से हुक्म मिला तो नेपाल का भी इस्तेमाल भारत के खिलाफ करने में संकोच नहीं करेंगे। सबसे बड़ी दुविधा पाकिस्तान की है। अभी पिछले दिनों पाकिस्तानी प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी चीन की यात्रा पर गए थे। पूरी संभावना है कि वहा उनको भारत के खिलाफ आतंकवादियों को छोड़ देने का फरमान सुना दिया गया हो। पाकिस्तान की हालत यह है कि वह आजकल चीन के एक अधीन राज्य की भूमिका अदा करता है। पाकिस्तान ने बहुत सी राजनीतिक गलतियां की हैं उनमें से एक यह है कि उसने अपने परमाणु कार्यक्रम और अन्य सैनिक साजो सामान के लिए चीन से भारी मदद ली है और अब उसके अहसान के नीचे दबा हुआ है। चीन का पाकिस्तान में इतना ही स्वार्थ था कि वह उसे भारत के खिलाफ इस्तेमाल करना चाहता था। चीन को लगता है कि वह वक्त आ गया है।

जहा तक पाकिस्तान का सवाल है, उसे मालूम है कि भारत के खिलाफ अभियान चलाना उसके हित में नहीं है। आतंकवाद के भस्मासुरी जाल में फंसे पाकिस्तान की यह हैसियत भी नहीं है कि वह भारत के खिलाफ कोई तोड़-फोड़ की गतिविधि चला सके, लेकिन चीन के हुक्म को मना करना अब पाकिस्तान के लिए संभव नहीं है। पाकिस्तान की दुर्दशा का आलम यह है कि उसे भारत के खिलाफ कोई भी कार्रवाई करने पर अमेरिका से डाट पड़ेगी, लेकिन फिर भी चीन के हुक्म को नजरअंदाज कर पाना पाकिस्तान के लिए बहुत ही मुश्किल फैसला होगा। सच्चाई यह है कि आज की तारीख में पाकिस्तान को बुनियादी खर्च के लिए भी अमेरिका से मदद मिल रही है। अमेरिका नहीं चाहता कि पाकिस्तान का ध्यान और कहीं जाए। उसकी पूरी कोशिश है कि वह पाकिस्तान की सारी ताकत का इस्तेमाल तालिबान आतंकियों के खिलाफ करे। अंदर से बिखर चुकी पाकिस्तानी फौज के लिए भारत जैसी किसी संगठित सेना से मुकाबला कर पाना बहुत ही कठिन होगा, क्योंकि वह तो अपने ही देश में सक्रिय आतंकवादियों से कई बार हार का सामना कर चुकी है। इसलिए पाकिस्तान की तरफ से किसी हमले की संभावना तो नहीं है, लेकिन चीन को खुश करने के लिए पाकिस्तान की आईएसआई भारत के अंदर आतंकवादी हमले जरूर करवा सकती है। (दैनिक जागरण से साभार )

Sunday, October 25, 2009

अमरीका का कारिन्दा बन कर रहना ठीक नहीं

अमरीका अब भारत को एशिया में अपना सामरिक सहयोगी बनाने के चक्कर में है .उनकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने कहा है कि भारत के साथ जो परमाणु समझौता हुआ है वह एक सामरिक संधि की दिशा में अहम् क़दम है . जब परमाणु समझौते पर वामपंथियों और केंद्र सरकार के बीच लफडा चल रहा था तो बार बार यह कहा गया था कि अमरीका की मंशा है कि भारत को इस इलाके में अपना सैन्य सहयोगी घोषित कर दे लेकिन सरकार में मौजूद पार्टियां और कांग्रेस के सभी नेता कहते फिर रहे थे कि ऐसी कोई बात नहीं है .लेकिन अब बात खुलने लगी है . अगर ऐसा हो गया तो जवाहरलाल नेहरु का वह सपना हमेशा के लिए दफ़न हो जाएगा जिसमें उन्होंने भारत को एक गुट निरपेक्ष देश के रूप में विश्व मंच पर स्थापित करने की कोशिश की थी. इमकान यह है कि नवम्बर में जब मनमोहन सिंह और बराक ओबामा की मुलाक़ात होगी तो वे बहुत सारी सूचनाएं सार्वजनिक कर दी जाएँगीं जो अब तक परदे के पीछे रखी गयी हैं .
अमरीकी विदेश नीति के एकाधिकारवादी मिजाज की वजह से हमेशा ही अमरीका को दुनिया के हर इलाके में कोई न कोई कारिन्दा चाहिए होता है.अपने इस मकसद को हासिल करने के लिए अमरीकी प्रशासन किसी भी हद तक जा सकता है .शुरू से लेकर अब तक अमरीकी विदेश विभाग की कोशिश रही है कि भारत और पाकिस्तान को एक ही तराजू में तौलें. यह काम भारत को औकात बताने के उद्देश्य से किया जाता था लेकिन पाकिस्तान में पिछले ६० साल से चल रहे पतन के सिलसिले की वजह से अमरीका का वह सपना तो साकार नहीं हो सका लेकिन अब उनकी कोशिश है कि भारत को ही इस इलाके में अपना लठैत बना कर पेश करें.भारत में भी आजकल ऐसी राजनीतिक ताक़तें सत्ता और विपक्ष में शोभायमान हैं जो अमरीका का दोस्त बनने के लिये किसी भी हद तक जा सकती हैं .वामपंथियों को अपनी राजनीतिक ज़रुरत के हिसाब से अमरीका विरोध की मुद्रा धारण करनी पड़ती है लेकिन सी पी एम के वर्तमान आला अफसर की सांचा बद्ध सोच के चलते देश में कम्युनिस्ट ताक़तें हाशिये पर आने के ढर्रे पर चल चुकी हैं .इस लिए अमरीका को एशिया में अपनी हनक कायम करने में भारत का इस्तेमाल करने में कोई दिक्क़त नहीं होगी.

अब जब यह लगभग पक्का हो चुका है कि एशिया में अमरीकी खेल के नायक के रूप में भारत को प्रमुख भूमिका मिलने वाली है तो दूसरे विश्व युद्ध के बाद के अमरीकी एकाधिकारवादी रुख की पड़ताल करना दिलचस्प होगा. शीत युद्ध के दिनों में जब माना जाता था कि सोवियत संघ और अमरीका के बीच दुनिया के हर इलाके में अपना दबदबा बढाने की होड़ चल रही थी तो अमरीका ने एशिया के कई मुल्कों के कन्धों पर रख कर अपनी बंदूकें चलायी थीं. यह समझना दिलचस्प होगा कि इराक से जिस सद्दाम हुसैन को हटाने के के लिए अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र तक को ब्लैकमेल किया , वह सद्दाम हुसैन अमरीका की कृपा से ही पश्चिम एशिया में इतने ताक़त वर बने थे . उन दिनों सद्दाम हुसैन का इस्तेमाल इरान पर हमला करने के लिए किया जाता था . सद्दाम हुसैन अमरीकी विदेश नीति के बहुत ही प्रिय कारिंदे हुआ करते थे . बाद में उनका जो हस्र अमरीका की सेना ने किया वह टेलिविज़न स्क्रीन पर दुनिया ने देखा है .और जिस इरान को तबाह करने के लिए सद्दाम हुसैन का इस्तेमाल किया जा रहा था उसी इरान और अमरीका में एक दौर में दांत काटी रोटी का रिश्ता था. शाह इरान, रजा पहलवी , एशिया, खासकर पश्चिम एशिया में अमरीकी लठैतों के सरदार के रूप में काम करते थे .जिस ओसामा बिन लादेन को तबाह करने के लिए अमरीका ने पाकिस्तान को फौजी छावनी में तब्दील कर दिया है और अफगानिस्तान को रौंद डाला , वहीं ओसामा बिन लादेन अम्र्रेका के सबसे बड़े सहयोगी थे और उनका कहीं भी इस्तेमाल होता रहता था. जिस तालिबान को आज अमरीका अपना दुश्मन नंबर एक मानत है उसी के बल पर अमरीकी विदेश नीति ने अफगानिस्तान में कभी विजय का डंका बजाया था . अपने हितों को सर्वोपरि रखने के लिए अमरीका किस्सी का भी कहीं भी इस्तेमाल कर सकता है. जब सोवियत संघ के एक मित्र देश के रूप में भारत आत्मनिर्भर बनने की कोशिश कर रहा था तो , एक के बाद एक अमरीकी राष्ट्रपतियों ने भारत के खिलाफ पाकिस्तान का इस्तेमाल किया था . बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में उस वक़्त के अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने भारत के खिलाफ अपने परमाणु सैन्य शक्ति से लैस सातवें बेडे के विमानवाहक पोत , इंटरप्राइज़, से हमला करने की धमकी तक दे डाली थी. उन दिनों यही पाकिस्तान अमरीकी विदेश नीति का ख़ास चहेता हुआ करता था. बाद में भी पाकिस्तान का इस्तेमाल भारत के खिलाफ होता रहा था. पंजाब में दिग्भ्रमित सिखों के ज़रिये पाकिस्तानी खुफिया तंत्र ने जो आतंकवाद चलाया, उसे भी अमरीका का आर्शीवाद प्राप्त था . अमरीकी हठधर्मिता की हद तो उस वक़्त देखी गयी जब चीन के नाम पर ताइवान को सुरक्षा परिषद् में बैठाया गया. . पश्चिम एशिया के सभी देशों को एक दुसरे के खिलाफ इस्तेमाल करने की अमरीकी विदेश नीति का ही जलवा है कि इजरायल आज भी सभी अरब देशों को धमकाता रहता है.

वर्तमान कूटनीतिक हालात ऐसे हैं अमरीका की छवि एक इसलाम विरोधी देश की बन गई है. अमरीका को अब किसी भी इस्लामी देश में इज्ज़त की नज़र से नहीं देखा जाता . यहान तक कि पाकिस्तानी अवाम भी अमरीका को पसंद नाहीं करता जबकि पाकिस्तान की रोटी पानी भी अमरीकी मदद से चलती है. इस पृष्ठभूमि में अमरीकी विदेश नीति के नियंता भारत को अपना बना लेने के खेल में जुट गए हैं .उन्हनें इस स्क्षेत्र में चीन की बढ़ रही ताक़त से दहशत है. जिसे बैलेंस करने के लिए ,अमरीका की नज़र में भारत सही देश है. पाकिस्तान में भी बढ़ रहे अमरीका विरोध के मदद-ए-नज़र , अगर वहां से भागना पड़े तो भारत में शरण मिल सकती हाई. भारत में राजनीतिक महाल भी अमरीकाप्रेमी ही है. सत्ता पक्ष तो है ही मुख्य विपक्षी पार्टी का भी अमरीका प्रेम जग ज़ाहिर है. ऐसे माहौल में भारत से दोस्ती अमरीका के हित में है .लेकिन भारत के लिए माहौल इतना पुर सुकून नहीं है . अमरीका की दोस्ती के अब तक के इतिहास पर नज़र डालें तो समझ में आ जाएगा कि अमरीका किसी से दोस्ती नहीं करता, वह तो बस देशों को अपने राष्ट्र हित में इस्तेमाल करता है.इस लिए भारत के नीति निर्धारकों को चाहिए कि अमरीकी राष्ट्र हित के बजाय अपने राष्ट्र हित को ध्यान में रख कर नित बनाएं और एशिया में अमरीकी हितों के चौकीदार बनने से बचे. दुनिया जानती है कि अमरीका से दोस्ती करने वाले हमेशा अमरीका के हाथों अपमानित होते रहे हैं . इस लिए अमरीकी सामरिक सहयोगी बनना भारत के हित में नहीं हैl

Saturday, October 3, 2009

आतंकवादी रुखसाना को मार डालेंगे

जम्मू-कश्मीर के राजौरी जिले के कालसी गांव की किशोरी रुखसाना कौसर की बहादुरी के किस्से पूरे देश में सुने जा रहे हैं। उसके परिवार पर हमला करने वालों को अंदाज लग गया है कि जब एक बहादुर लड़की अपनी रक्षा खुद करने का फैसला कर लेती है तो खतरनाक हथियारों से लैस दरिंदे भी हार जाते हैं। रुखसाना से पूछा गया कि इतनी बहादुरी का काम कैसे किया तो विनम्र लड़की ने कहा कि अल्लाह ने मुझे इस मुसीबत की घड़ी में इतनी हिम्मत दी कि मैं उन दहशतगर्दों का मुकाबला कर पाई।
लेकिन उसे डर है कि इतनी बड़ी शिकस्त के बाद दहशतगर्द फिर वापस आएंगे और रुखसाना के परिवार को और खुद उसको जिंदा नहीं छोड़ेंगे। उसने बताया कि गांव के बाहर पुलिस की एक पिकेट लगा दी गई है लेकिन उसको आशंका है कि उससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा, उसको आतंकवादी मार डालेंगे। रुखसाना कौसर एक बहादुर लड़की है। उसने आत्मरक्षा में हथियार छीनकर दहशतगर्दों को बता दिया कि अगर औरत अपनी रक्षा का फैसला कर ले तो खतरनाक हथियारों से लैस आतंकवादी भी उसका कुछ बना बिगाड़ नहीं सकता। लेकिन रुखसाना के मन में जो डर है वह एक बहुत बड़ी समस्या की ओर इशारा करता है।
पिछले 20 साल से कश्मीर में चल रहे आतंकवाद के खेल में आम आदमी की कोई हैसियत नहीं है। सरकार ने कभी भी आम आदमी को शामिल करने की कोशिश नहीं की। जिस मुस्तैदी से वहां सैनिक ताकत का इस्तेमाल करके समस्या को सुलझाने की कोशिश की गई वह हमेशा से विवादों के घेरे में रही है। कश्मीरी अवाम को भरोसे में लेकर अगर कोशिश की गयी होती तो जम्मू-कश्मीर में हर इंसान अपने हित को सुरक्षित करने के लिए हुकूमत के साथ होता। यह प्रयोग वहां पर सफलतापूर्पक किया जा चुका है। 1947 में जब आजादी मिली तो पाकिस्तान ने कश्मीर पर दावा ठोका था। कश्मीर के राजा हरि सिंह भी दुविधा में थे, कभी स्वतंत्र कश्मीर की बात करते थे, कभी भारत के साथ आने की तो कभी पाकिस्तान के साथ जाने की सोचते थे। इस बीच पाकिस्तानी सेना के सहयोग से कबायलियों का हमला हो गया और हरिसिंह डर गये। उन्होंने भारत सरकार से मदद मांगी। सरदार पटेल ने मदद तो दी लेकिन शर्त लगा दी कि आप अपनी मर्जी से भारत के साथ कश्मीर के विलय के कागजों पर दस्तखत कर दें तभी भारतीय सेना वहां जायेगी।
शेख अब्दुल्ला उन दिनों कश्मीरी जनता के हीरो थे। वे भारत के साथ रहना चाहते थे इसलिए पूरा कश्मीरी अवाम भारत के साथ रहना चाहता था। बहरहाल जनता को साथ लेकर चलने से कश्मीर भारत का हिस्सा बन गया। कश्मीर के राजा हरिसिंह की मरजी के खिलाफ भी शेख साहब ने जनता को अपने साथ रखा। 1953 में शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के बाद सब कुछ बिगड़ गया। उसके बाद तो दिल्ली की सरकारों ने गलतियों पर गलतियां कीं और कश्मीर में केंद्र सरकार के प्रति मुहब्बत खत्म होती गयी। उधर पाकिस्तान ने प्राक्सी वार के जरिए कश्मीर में खून खराबे को बढ़ावा दिया। रुखसाना कौसर का दूसरा डर यह है कि आतंकवादी फिर आएंगे और उसे मार डालेंगे। भारत सरकार के लिए यह मौका है कि वह साबित कर दे कि वह कश्मीरी अवाम की हिफाजत के लिए कुछ भी कर सकती है। रुखसाना की सुरक्षा के लिए वहीं पुलिस पिकेट बना देना कोई बहुत अच्छी योजना नहीं है। इस देश में हजारों लोग ऐसे हैं जिनको चौबीस घंटे की सरकारी सुरक्षा दी जाती है। बहुत सारे ऐसे लोग भी है जिन्हें राज्यों की राजधानियों में जगह दी जाती है जहां वे रह सकें। हजारों विधायकों को शहरों में सभी सुविधाओं से लैस मकान दिए जाते हैं। तर्क यह दिया जाता है कि वे जनहित और राष्ट्रहित में काम कर रहे हैं। इसलिए उनको सारी सरकारी सुविधाएं दी जा रही हैं। वे सारी सुविधाएं रुखसाना और उसके परिवार को भी दी जा सकती हैं क्योंकि जो काम उसने कर दिखाया है वह बड़े बड़े सूरमा नहीं कर सकते है। उसका काम भी जनहित और राष्ट्रहित का है दरअसल रुखसाना की बहादुरी ने जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद की सफलता के सवाल पर बहुत बड़ा सवालिया निशान लगा दिया है।
सच्चाई यह है कि आतंकवादी जमातों ने कश्मीर की जनता के दिमाग में यह दहशत पैदा कर दी थी कि उनको बचाने वाला कोई नहीं है और आम तौर पर लोग डर गए थे। वरना अगर आतंकवाद के शुरुआती दौर में ही लोगों ने मुकाबला किया होता तो दहशतगर्दी के सफल होने की सारी संभावना खत्म हो गई होती। दुनिया भर में आतंकवाद वहीं सफल होता है जहां हुकूमत आम आदमी से कट चुकी होती है और आम आदमी को भरोसा नहीं होता कि सरकार उनकी हिफाजत कर सकेगी। जम्मू कश्मीर में यही हालत थी और आतंकवाद लगभग सफल हो गया। लेकिन रुखसाना कौसर की बहादुरी ने सरकार को एक बेहतरीन मौका दिया है। रुखसाना ने वह कर दिखाया है जो सरकार के कई विभाग नहीं कर सके। सरकार को चाहिए कि वह रुखसाना के परिवार को इतनी सुविधा दे और इतनी इज्जत दे कि पूरे राज्य में यह माहौल बन जाय कि अगर आतंकवाद का सामना हिम्मत से किया जाय तो बाकी जिंदगी बहुत ही अच्छी हो सकती है। अगर इस तरह का माहौल बन गया तो इस बात की पूरी संभावना है कि हर गांव से बहादुर लड़के लड़कियां आगे आएंगे और आतंकवाद का मुकाबला हर मोड़ पर किया जायेगा। इसका फायदा यह होगा कि जनसमर्थन का मुगालता पालने वाले आतंकवादी संगठनों को औकातबोध हो जायेगा। वे आम आदमी को निशाना बनाने की हिम्मत नहीं करेंगे। जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बलों की तैनाती के नाम पर होने वाले खर्च में भी कटौती होगी और कश्मीर में फिर से अमन चैन कायम हो जाएगा।