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Tuesday, May 28, 2013

नेहरू के बाद भारतीय नेतृत्व ने कश्मीर मुद्दे के हल के बजाय इसे बिगाड़ने की कोशिश की है

शेष नारायण सिंह 

49 साल पहले आज के ही दिन जवाहरलाल नेहरू ने अंतिम सांस ली थी. उनके जीवनकाल में और उनके बाद उनको बेकार साबित करने की बार बार कोशिश होती रही है लेकिन उनकी दूरदर्शिता के आलोचकों के नाम का उल्लेख करना भी उनको महत्व देना होगा क्योंकि वे लोग जवाहरलाल नेहरू के साथ अपने नाम को जोड़कर अपने को महान साबित करने की कोशिश करते रहते हैं . कश्मीर के मसले पर भारत में एक खास विचारधारा के लोग पानी पीकर भारत की आज़ादी के महान नायक को कोसते रहे हैं . उस विचारधारा वालों का नाम लेकर मैं उन लोगों को महत्त्व तो नहीं दे सकता लेकिन यह बताना ज़रूरी है कि जवाहरलाल नेहरू की निंदा करने वाले इन राजनेताओं के पूर्वज आज़ादी की लड़ाई में भारत की जनता के साथ नहीं खड़े थे और इनका एक भी नेता 1920 से 1947 के बीच भारत की आज़ादी की लड़ाई के लिए जेल नहीं गया था .कश्मीर के मामले में 1947 में जो सफलता मिली थी वह भारत की कूटनीतिक और राजनीतिक सफलता की एक ज़ोरदार मिसाल है .मैंने इस विषय पर बार बार लिखा है . आज जवाहरलाल की पुण्यतिथि पर उनकी याद में मेरी विनम्र श्रद्धांजलि
देश के बँटवारे के वक़्त अंग्रेजों ने देशी रियासतों को भारत या पाकिस्तान के साथ मिलने की आज़ादी दी थी. बहुत ही पेचीदा मामला था. ज़्यादातर देशी राजा तो भारत के साथ मिल गए लेकिन जूनागढ़, हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर का मामला विवादों के घेरे में बना रहा . कश्मीर में ज़्यादातर लोग तो आज़ादी के पक्ष में थे . कुछ लोग चाहते थे कि पाकिस्तान के साथ मिल जाएँ लेकिन अपनी स्वायत्तता को सुरक्षित रखें. इस बीच महाराजा हरि सिंह के प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान की सरकार के सामने एक स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट का प्रस्ताव रखा जिसके तहत लाहौर सर्किल के केंद्रीय विभाग पाकिस्तान सरकार के अधीन काम करेगें . 15 अगस्त को पाकिस्तान की सरकार ने जम्मू-कश्मीर के महाराजा के स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जिसके बाद पूरे राज्य के डाकखानों पर पाकिस्तानी झंडे फहराने लगे . भारत सरकार को इस से चिंता हुई और जवाहर लाल नेहरू ने अपनी चिंता का इज़हार इन शब्दों में किया.”पाकिस्तान की रणनीति यह है कि अभी ज्यादा से ज्यादा घुसपैठ कर ली जाए और जब जाड़ों में कश्मीर अलग थलग पड़ जाए तो कोई बड़ी कार्रवाई की .” नेहरू ने सरदार पटेल को एक पत्र भी लिखा कि ऐसे हालात बन रहे हैं कि महाराजा के सामने और कोई विकल्प नहीं बचेगा
हरि सिंह- साभार कश्मीरी लाइफ डॉट नेट
हरि सिंह- साभार कश्मीरी लाइफ डॉट नेट
और वह नेशनल कान्फरेन्स और शेख अब्दुल्ला से मदद मागेगा और भारत के साथ विलय कर लेगा.अगर ऐसा हो गया गया तो पाकिस्तान के लिए कश्मीर पर किसी तरह का हमला करना इस लिए मुश्किल हो जाएगा कि उसे सीधे भारत से मुकाबला करना पडेगा.अगर राजा ने इस सलाह को मान लिया होता तो कश्मीर समस्या का जन्म ही न होता..इस बीच जम्मू में साम्प्रदायिक दंगें भड़क उठे थे .
बात अक्टूबर तक बहुत बिगड़ गयी और महात्मा गाँधी ने इस हालत के लिए महाराजा को व्यक्तिगत तौर पर ज़िम्मेदार ठहराया पाकिस्तान ने महाराजा पर दबाव बढाने के लिए लाहौर से आने वाले कपडे, पेट्रोल और राशन की सप्प्लाई रोक दी. संचार व्यवस्था पाकिस्तान के पास स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के बाद आ ही गयी थी. उसमें भी भारी अड़चन डाली गयी. हालात तेज़ी से बिगड़ रहे थे और लगने लगा था कि अक्टूबर 1946 में की गयी महात्मा गाँधी की भविष्यवाणी सच हो जायेगी. महात्मा ने कहा था कि अगर राजा अपनी ढुलमुल नीति से बाज़ नहीं आते तो कश्मीर का एक यूनिट के रूप में बचे रहना संदिग्ध हो जाएगा.
कश्मीर का असल हीरो- शेख अब्दुल्ला
ऐसी हालत में राजा ने पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने की कोशिश शुरू कर दी. नतीजा यह हुआ कि उनके प्रधान मंत्री मेहर चंद महाजन को कराची बुलाया गया. जहां जाकर उन्होंने अपने ख्याली पुलाव पकाए. महाजन ने कहा कि उनकी इच्छा है कि कश्मीर पूरब का स्विटज़रलैंड बन जाए , स्वतंत्र देश हो और भारत और पाकिस्तान दोनों से ही बहुत ही दोस्ताना सम्बन्ध रहे. लेकिन पाकिस्तान को कल्पना की इस उड़ान में कोई दिलचस्पी नहीं थी. उसने कहा कि पाकिस्तान में विलय के कागजात पर दस्तखत करो फिर देखा जाएगा . इधर 21 अक्टूबर1947 के दिन राजा ने अगली चाल चल दी. उन्होंने रिटायर्ड जज बख्शी टेक चंद को नियुक्त कर दिया कि वे कश्मीर का नया संविधान बनाने का काम शुरू कर दें.पाकिस्तान को यह स्वतंत्र देश बनाए रखने का महाराजा का आइडिया पसंद नहीं आया और पाकिस्तान सरकार ने कबायली हमले की शुरुआत कर दी. राजा मुगालते में था और पाकिस्तान की फौज़ कबायलियों को आगे करके श्रीनगर की तरफ बढ़ रही थी. लेकिन बात चीत का सिलसिला भी जारी था . पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव मेजर ,ए एस बी शाह श्रीनगर में थे और प्रधान मंत्री समेत बाकी अधिकारियों से मिल जुल रहे थे. जिनाह की उस बात को सच करने की तैयारी थी कि जब उन्होंने फरमाया था कि , ” कश्मीर मेरी जेब में है.”
कश्मीर को उस अक्टूबर में गुलाम होने से बचाया इस लिए जा सका कि घाटी के नेताओं ने फ़ौरन रियासत के विलय के बारे में फैसला ले लिया. कश्मीरी नेताओं के एक राय से लिए गए फैसले के पीछे कुछ बात है जो कश्मीर को एक ख़ास इलाका बनाती है जो बाकी राज्यों से भिन्न है. कश्मीर के यह खासियत जिसे कश्मीरियत भी कहा जाता है , पिछले पांच हज़ार वर्षों की सांस्कृतिक प्रगति का नतीजा है. कश्मीर हमेशा से ही बहुत सारी संस्कृतियों का मिलन स्थल रहा है. इसीलिये कश्मीरियत में महात्मा बुद्ध की शख्सियत , वेदान्त की शिक्षा और इस्लाम का सूफी मत समाहित है. बाकी दुनिया से जो भी आता रहा वह इसी कश्मीरियत में शामिल होता रहा . कश्मीर मामलों के बड़े इतिहासकार मुहम्मद दीन फौक का कहना है कि अरब, इरान,अफगानिस्तान और तुर्किस्तान से जो लोग छ सात सौ साल पहले आये थे , वे सब कश्मीरी मुस्लिम बन चुके हैं.उन की एक ही पहचान है और वह है कश्मीरी इसी तरह से कश्मीरी भाषा भी बिलकुल अलग है. और कश्मीरी अवाम किसी भी बाहरी शासन को बर्दाश्त नहीं करता.
अकबर के दौर का कश्मीर
कश्मीर को मुग़ल सम्राट अकबर ने 1568 में अपने राज्य में मिला लिया था . उसी दिन से कश्मीरी अपने को गुलाम मानता था. और जब 361 साल बाद कश्मीर का भारत में अक्टूबर 1947 में विलय हुआ तो मुसलमान और हिन्दू कश्मीरियों ने अपने आपको आज़ाद माना. इस बीच मुसलमानों, सिखों और हिन्दू राजाओं का कश्मीर में शासन रहा लेकिन कश्मीरी उन सबको विदेशी शासक मानता रहा.अंतिम हिन्दू राजा, हरी सिंह के खिलाफ आज़ादी की जो लड़ाई शुरू हुयी उसके नेता, शेख अब्दुल्ला थे.
शेख ने आज़ादी के पहले कश्मीर छोड़ो का नारा दिया.इस आन्दोलन को जिनाह ने गुंडों का आन्दोलन कहा था क्योंकि वे राजा के बड़े खैर ख्वाह थे जबकि जवाहर लाल नेहरू कश्मीर छोड़ो आन्दोलन में शामिल हुए और शेख अब्दुल्ला के कंधे से कंधे मिला कर खड़े हुए . इसलिए कश्मीर में हिन्दू या मुस्लिम का सवाल कभी नहीं था .वहां तो गैर कश्मीरी और कश्मीरी शासक का सवाल था और उस दौर में शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के इकलौते नेता थे.
लेकिन राजा भी कम जिद्दी नहीं थे . उन्होंने शेख अब्दुल्ला के ऊपर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया . और शेख के वकील थे इलाहाबाद के बैरिस्टर जवाहर लाल नेहरू.1 अगस्त 1947 को महात्मा गांधी कश्मीर गए और उन्होंने घोषणा कर दी कि जिस अमृतसर समझौते को आधार बनाकर हरि सिंह कश्मीर पर राज कर रहे हैं वह वास्तव में एक बैनामा है . और अंग्रेजों के चले जाने के बाद उस गैर कानूनी बैनामे का कोई महत्व नहीं है . गाँधी जी ने एक और बात कहीं जो सबको बहुत अच्छी लगी. उन्होंने कहा कि सता का असली हक़दार कश्मीरी अवाम हैं जबकि जिन्नाह कहते रहते थे कि देशी राजाओं की सत्ता को उनसे छीना नहीं जा सकता .राजा के खिलाफ संघर्ष कर रहे कश्मीरी अवाम को यह बात बहुत अच्छी लगी. जबकि राजा सब कुछ लुट जाने के बाद भी अपने आप को सर्वोच्च्च मानते रहे. इसीलिये देश द्रोह के मुक़दमे में फंसाए गए शेख अद्बुल्ला को रिहा करने में देरी हुई क्योंकि राजा उनसे लिखवा लेना चाहता था कि वे आगे से उसके प्रति वफादार रहेगें. शेख कश्मीरी अवाम के हीरो थे . उन्होंने इन् बातों की कोई परवाह नहीं की. कश्मीरी अवाम के हित के लिए उन्होंने भारत और पाकिस्तान से बात चीत का सिलसिला जारी रखा अपने दो साथियों, बख्शी गुलाम मुहम्मद और गुलाम मुहम्मद सादिक को तो कराची भेज दिया और खुद दिल्ली चले गए . वहां वे जवाहरलाल नेहरू के घर पर रुके. कराची गए शेख के नुमाइंदों से न तो जिन्ना मिले और न ही लियाक़त अली. शेख ने अपनी आत्म कथा में लिखा है कि कश्मीरी अवाम के नेता वहां दूसरे दर्जे के पाकिस्तानी नेताओं से बात कर रहे थे और इधर कश्मीर में पाकिस्तानी सेना के साथ बढ़ रहे कबायली कश्मीर की ज़मीन और कश्मीरी अधिकारों को अपने बूटों तले रौंद रहे थे. तेज़ी से बढ़ रहे कबायलियों को रोकना डोगरा सेना के ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह के बस की बात नहीं थी. . पाकिस्तान के इस हमले के कारण कश्मीरी अवाम पाकिस्तान के खिलाफ हो गये .
क्योंकि महत्मा गांधी और नेहरू तो जनता की सत्ता की बात करते हैं जबकि पाकिस्तान उनकी आज़ादी पर ही हमला कर रहा था. इस के बाद कश्मीर के राजा के पास भारत से मदद माँगने के अलावा कोई रास्ता नहीं था. महाराजा के प्रधान मंत्री, मेहर चंद महाजन 26 अक्टूबर को दिल्ली भागे. उन्होंने नेहरू से कहा कि महाराजा भारत के साथ विलय करना चाहते हैं . लेकिन एक शर्त भी थी. वह यह कि भारत की सेना आज ही कश्मीर पंहुच जाए और पाकिस्तानी हमले से उनकी रक्षा करे वरना वे पाकिस्तान से बात चीत शुरू कर देगें. नेहरू आग बबूला हो गए और महाजन से कहा ‘” गेट आउट ” बगल के कमरे में शेख अब्दुल्ला आराम कर रहे थे. बाहर आये और नेहरू का गुस्सा शांत कराया. इसके बाद महाराजा ने विलय के कागज़ात पर दस्तखत किया और उसे 27 अक्टूबर को भारत सरकार ने मंज़ूर कर लिया. भारत की फौज़ को तुरंत रवाना किया गया और कश्मीर से पाकिस्तानी शह पर आये कबायलियों को हटा दिया गया .कश्मीरी अवाम ने कहा कि भारत हमारी आज़ादी की रक्षा के लिए आया है जबकि पाकिस्तान ने फौजी हमला करके हमारी आजादी को रौंदने की कोशिश की थी. उस दौर में आज़ादी का मतलब भारत से दोस्ती हुआ करती थी लेकिन अब वह बात नहीं है.
संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर का मुद्दा
कश्मीर का मसला बाद में संयुक्त राष्ट्र में ले जाया गया और उसके बाद बहुत सारे ऐसे काम हुए कि अक्टूबर 1947 वाली बात नहीं रही. संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पास हुआ कि कश्मीरी जनता से पूछ कर तय किया जाय कि वे किधर जाना चाहते हैं . भारत ने इस प्रस्ताव का खुले दिल से समर्थन किया लेकिन पाकिस्तान वाले भागते रहे , शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के हीरो थे और वे जिधर चाहते उधर ही कश्मीर जाता . लेकिन1953 के बाद यह हालात भी बदल गए. बाद में पाकिस्तान जनमत संग्रह के पक्ष में हो गया और भारत उस से पीछा छुडाने लगा .
इन हालात के पैदा होने में बहुत सारे कारण हैं.बात यहाँ तक बिगड़ गयी कि शेख अब्दुल्ला की सरकार बर्खास्त की गयी, और शेख अब्दुल्ला को 9 अगस्त 1953 के दिन गिरफ्तार कर लिया गया.उसके बाद तो फिर वह बात कभी नहीं रही. बीच में राजा के वफादार नेताओं की टोली जिसे प्रजा परिषद् के नाम से जाना जाता था, ने हालात को बहुत बिगाड़ा . अपने अंतिम दिनों में जवाहर लाल ने शेख अब्दुल्ला से बात करके स्थिति को दुरुस्त करने की कोशिश फिर से शुरू कर दी थी.6 अप्रैल 1964 को शेख अब्दुल्ला को जम्मू जेल से रिहा किया गया और नेहरू से उनकी मुलाक़ात हुई. शेख अब्दुल्ला ने एक बयान दिया जिसे लिखा , कश्मीरी मामलों के जानकार बलराज पुरी ने था . शेख ने कहा कि उनके नेतृत्व में ही जम्मू कश्मीर का विलय भारत में हुआ था . वे हर उस बात को अपनी बात मानते हैं जो उन्होंने अपनी गिरफ्तारी के पहले 8 अगस्त 1953 तक कहा था. नेहरू भी पाकिस्तान से बात करना चाहते थे और किसी तरह से समस्या को हल करना चाहते थे. नेहरू ने इसी सिलसिले में शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तान जाकर संभावना तलाशने का काम सौंपा.. शेख गए . और 27 मई 1964 के ,दिन जब पाक अधिकृत कश्मीर के मुज़फ्फराबाद में उनके लिए दोपहर के भोजन के लिए की गयी व्यवस्था में उनके पुराने दोस्त मौजूद थे, जवाहरलाल नेहरू की मौत की खबर आई. बताते हैं कि खबर सुन कर शेख अब्दुल्ला फूट फूट कर रोये थे.
नेहरू के मरने के बाद तो हालात बहुत तेज़ी से बिगड़ने लगे . कश्मीर के मामलों में नेहरू के बाद के नेताओं ने कानूनी हस्तक्षेप की तैयारी शुरू कर दी,वहां संविधान की धारा 356 और357 लागू कर दी गयी. इसके बाद शेख अब्दुल्ला को एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया. इस बीच पाकिस्तान ने एक बार फिर कश्मीर पर हमला करके उसे कब्जाने की कोशिश की लेकिन पाकिस्तानी फौज ने मुंह की खाई और ताशकेंत में जाकर रूसी दखल से सुलह हुई.
कश्मीर के सन्दर्भ में आज़ादी का मतलब भी भारत में विलय ही था . यह देश का दुर्भाग्य है कि जवाहरलाल नेहरू के बाद ऐसे नेता आये जिन्होंने मामले को खराब करने में योगदान किया लेकिन हालात इतने भी खराब नहीं हैं कि अरुंधती राय जैसे तथाकथित बुद्धिजीवी अपने को नेहरू के स्तर का चिन्तक बताने का दुस्साहस करें.

Wednesday, February 8, 2012

१९४७ में भारत में विलय को कश्मीरी अवाम ने आज़ादी माना था.

शेष नारायण सिंह

जश्ने आजादी नाम की एक फिल्म के हवाले से कश्मीर एक बार फिर फोकस में है . पुणे में यह फिल्म दिखाई जानी थी लेकिन एक राजनीतिक पार्टी की छात्र शाखा के लोगों को लगा कि ऐसा नहीं होना चाहिए .सच्चाई यह है कि कश्मीर की आज़ादी की अवधारणा बाकी देश की अवधारणा से बिलकुल अलग है .कश्मीर के सन्दर्भ में आज़ादी का मतलब भी भारत में विलय ही था .कश्मीर को मुग़ल सम्राट अकबर ने १५८६ में अपने राज्य में मिला लिया था . उसी दिन से कश्मीरी अपने को गुलाम मानता था. और जब ३६१ साल बाद कश्मीर का भारत में अक्टूबर १९४७ में विलय हुआ तो मुसलमान और हिन्दू कश्मीरियों ने अपने आपको आज़ाद माना. इस बीच मुसलमानों, सिखों और हिन्दू राजाओं का कश्मीर में शासन रहा लेकिन कश्मीरी उन सबको विदेशी शासक मानता रहा.अंतिम हिन्दू राजा, हरी सिंह के खिलाफ आज़ादी की जो लड़ाई शुरू हुयी उसके नेता, शेख अब्दुल्ला थे. शेख ने आज़ादी के पहले कश्मीर छोडो का नारा दिया.इस आन्दोलन को जिनाह ने गुंडों का आन्दोलन कहा था क्योंकि वे राजा के बड़े खैरख्वाह थे जबकि जवाहरलाल नेहरू कश्मीर छोडो आन्दोलन में शामिल हुए और शेख अब्दुल्ला के कंधे से कंधे मिला कर खड़े हुए . इसलिए कश्मीर में हिन्दू या मुस्लिम का सवाल कभी नहीं था .वहां तो गैर कश्मीरी और कश्मीरी शासक का सवाल था और उस दौर में शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के इकलौते नेता थे. लेकिन राजा भी कम जिद्दी नहीं थे . उन्होंने शेख अब्दुल्ला के ऊपर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया . उस मुक़दमे में शेख के वकील थे इलाहाबाद के बैरिस्टर जवाहर लाल नेहरू .. १ अगस्त १९४७ को महात्मा गांधी कश्मीर गए और उन्होंने घोषणा कर दी कि जिस अमृतसर समझौते को आधार बनाकर हरि सिंह कश्मीर पर राज कर रहे हैं वह वास्तव में एक बैनामा है . उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर को हरि सिंह के पूर्वजों ने अंग्रेजों से खरीदा था . अंग्रेजों के चले जाने के बाद उस गैर कानूनी बैनामे का कोई महत्व नहीं है . गाँधी जी ने एक और बात कहीं जो सबको बहुत अच्छी लगी. उन्होंने कहा कि सता का असली हक़दार कश्मीरी अवाम हैं जबकि जिन्नाह कहते रहते थे कि देशी राजाओं की सत्ता को उनसे छीना नहीं जा सकता .राजा के खिलाफ संघर्ष कर रहे कश्मीरी अवाम को महात्मा गांधी की यह बात बहुत अच्छी लगी. जबकि राजा सब कुछ लुट जाने के बाद भी अपने आप को सर्वोच्च्च मानते रहे. इसीलिये देश द्रोह के मुक़दमे में फंसाए गए शेख अद्बुल्ला को रिहा करने में देरी हुई क्योंकि राजा उनसे लिखवा लेना चाहता था कि वे आगे से उसके प्रति वफादार रहेगें.

शेख अब्दुल्ला ,कश्मीरी अवाम के हीरो थे . उन्होंने इन् बातों की कोई परवाह नहीं की. कश्मीरी अवाम के हित के लिए उन्होंने भारत और पाकिस्तान से बात चीत का सिलसिला जारी रखा अपने दो साथियों, बख्शी गुलाम मुहम्मद और गुलाम मुहम्मद सादिक को तो कराची भेज दिया और खुद दिल्ली चले गए . वहां वे जवाहरलाल नेहरू के घर पर रुके. कराची गए शेख के नुमाइंदों से न तो जिन्ना मिले और न ही लियाक़त अली. शेख ने अपनी आत्म कथा में लिखा है कि कश्मीरी अवाम के नेता वहां दूसरे दर्जे के पाकिस्तानी नेताओं से बात कर रहे थे और इधर कश्मीर में पाकिस्तानी सेना के साथ बढ़ रहे कबायली लड़ाके,कश्मीर की ज़मीन और कश्मीरी अधिकारों को अपने बूटों तले रौंद रहे थे. तेज़ी से बढ़ रहे कबायलियों को रोकना डोगरा सेना के ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह के बस की बात नहीं थी. . पाकिस्तान के इस हमले के कारण कश्मीरी अवाम पाकिस्तान के खिलाफ हो गया . क्योंकि महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू तो जनता की सत्ता की बात करते थे जबकि पाकिस्तान उनकी आज़ादी पर ही हमला कर रहा था. इसके बाद कश्मीर के राजा के पास भारत से मदद माँगने के अलावा कोई रास्ता नहीं था.. महाराजा के प्रधान मंत्री, मेहर चंद महाजन २६ अक्टूबर को दिल्ली भागे. उनको जवाहरलाल नेहरू के घर पर बातचीत के लिए समय दिया गया .उन्होंने नेहरू से कहा कि महाराजा भारत के साथ विलय करना चाहते हैं . लेकिन एक शर्त भी थी. वह यह कि भारत की सेना आज ही कश्मीर पंहुच जाए और पाकिस्तानी हमले से उनकी रक्षा करे वरना वे पाकिस्तान से बात चीत शुरू कर देगें. उनकी यह शर्त सुनकर जवाहर लाल नेहरू आग बबूला हो गए और महाजन से कहा '" गेट आउट " . बगल के कमरे में शेख अब्दुल्ला आराम कर रहे थे. बाहर आये और नेहरू का गुस्सा शांत कराया . . इसके बाद महाराजा ने विलय के कागज़ात पर दस्तखत किया और उसे २७ अक्टूबर को भारत सरकार ने मंज़ूर कर लिया. भारत की फौज़ को तुरंत रवाना किया गया और कश्मीर से पाकिस्तानी शह पर आये कबायलियों को हटा दिया गया .कश्मीरी अवाम ने कहा कि भारत हमारी आज़ादी की रक्षा के लिए आया है जबकि पाकिस्तान ने फौजी हमला करके हमारी आजादी को रौंदने की कोशिश की थी. उस दौर में आज़ादी का मतलब भारत से दोस्ती हुआ करती थी लेकिन अब वह बात नहीं है.

कश्मीर का मसला बाद में संयुक्त राष्ट्र में ले जाया गया और उसके बाद बहुत सारे ऐसे काम हुए कि अक्टूबर १९४७ वाली बात नहीं रही. संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पास हुआ कि कश्मीरी जनता से पूछ कर तय किया जाय कि वे किधर जाना चाहते हैं . भारत ने इस प्रस्ताव का खुले दिल से समर्थन किया लेकिन पाकिस्तान वाले भागते रहे , उस दौर में पाकिस्तान कश्मीर में जनमत संग्रह का विरोध करता था.शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के हीरो थे और वे जिधर चाहते उधर ही कश्मीर जाता . लेकिन १९५३ के बाद यह हालात भी बदल गए. . बाद में पाकिस्तान जनमत संग्रह के पक्ष में हो गया और भारत उस से पीछा छुडाने लगा . इन हालात के पैदा होने में बहुत सारे कारण हैं.बात यहाँ तक बिगड़ गयी कि शेख अब्दुल्ला की सरकार बर्खास्त की गयी, और शेख अब्दुल्ला को ९ अगस्त १९५३ के दिन गिरफ्तार कर लिया गया.उसके बाद तो फिर वह बात कभी नहीं रही. बीच में राजा के वफादार नेताओं की टोली जिसे प्रजा परिषद् के नाम से जाना जाता था, ने हालात को बहुत बिगाड़ा . अपने अंतिम दिनों में जवाहर लाल ने शेख अब्दुल्ला से बात करके स्थिति को दुरुस्त करने की कोशिश फिर से शुरू कर दिया था. ६ अप्रैल १९६४ को शेख अब्दुल्ला को जम्मू जेल से रिहा किया गया और नेहरू से उनकी मुलाक़ात हुई. शेख अब्दुल्ला ने एक बयान दिया जिसे लिखा कश्मीरी मामलों के जानकार बलराज पुरी ने था . शेख ने कहा कि उनके नेतृत्व में ही जम्मू कश्मीर का विलय भारत में हुआ था . वे हर उस बात को अपनी बात मानते हैं जो उन्होंने अपनी गिरफ्तारी के पहले ८ अगस्त १९५३ तक कहा था. नेहरू भी पाकिस्तान से बात करना चाहते थे और किसी तरह से समस्या को हल करना चाहते थे.. नेहरू ने इसी सिलसिले में शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तान जाकर संभावना तलाशने का काम सौंपा.. शेख गए . और २७ मई १९६४ के ,दिन जब पाक अधिकृत कश्मीर के मुज़फ्फराबाद में उनके लिए दोपहर के भोजन के लिए की गयी व्यवस्था में उनके पुराने दोस्त मौजूद थे, जवाहरलाल नेहरू की मौत की खबर आई. बताते हैं कि खबर सुन कर शेख अब्दुल्ला फूट फूट कर रोये थे. नेहरू के मरने के बाद तो हालात बहुत तेज़ी से बिगड़ने लगे . कश्मीर के मामलों में नेहरू के बाद के नेताओं ने कानूनी हस्तक्षेप की तैयारी शुरू कर दी,..वहां संविधान की धारा ३५६ और ३५७ लागू कर दी गयी. इसके बाद शेख अब्दुल्ला को एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया. इस बीच पाकिस्तान ने एक बार फिर कश्मीर पर हमला करके उसे कब्जाने की कोशिश की लेकिन पाकिस्तानी फौज ने मुंह की खाई और ताशकंद में जाकर रूसी दखल से सुलह हुई.

भारत में उसके बाद अदूरदर्शी शासक आते गए. हद तो तब हुए जब राजीव गांधी के प्रधान मंत्रित्वा के दौरान अरुण नेहरू ने शेख साहेब के दामाद ,गुज शाह हो मुख्य मंत्री बनावाकर फारूक अब्दुल्ला से बदला ने की कोशिश की . एक बार फिर साफ़ हो गया कि दिल्ली वाले कश्मीरी अवाम के पक्ष धर नहीं हैं , वेट तो कश्मीर पर हुकूमत करना चाहते हैं . उसके बाद एक से एक गलतियाँ होती गयीं. जगमोहन को राज्य का गवर्नर बनाकर भेजा गया . उन्होंने जो कुछ भी किया उसे कश्मीरी जनता ने पसंद नहीं किया. वी पी सिंह सरकार में गृह मंत्री रहे मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी का अपहरण करके आतंकवादियों ने साबित कर दिया कि वे कश्मीरी जनता को भारत के खिलाफ कर चुके हैं . बाद में तो भारत की सेना ने ही कश्मीर को सम्भाला. और हालात बाद से बदतर होते गए . आज आलम यह है कि कश्मीर के बारे में कुछ भे एबोलकर हर तरह के स्वार्थी लोग अपने एराजनीति चमकाते फिर रह एहियन . ज़रुरत इस बात की है कि कश्मीर में वही माहौल एक बार फिर पैदा हो जो १९५३ के पहले था. वरना पता नहीं कब तक कश्मीर का आम आदमी राजनीतिक स्वार्थों का शिकार होता रहेगा.

Saturday, October 23, 2010

कश्मीरी अवाम ने भारत में विलय को ही आज़ादी माना था .

शेष नारायण सिंह

दिल्ली में मीडियाजीवियों का एक वर्ग है जो प्रचार के वास्ते कुछ भी कर सकता है . इसी जमात के कुछ लोगों को ब्रेनवेव आई कि कश्मीर में सक्रिय पाकिस्तानी एजेंट सैय्यद अली शाह गीलानी को पकड़ कर लाया जाय और दिल्ली में एक मंच दिया जाय जहां से वे अपना प्रचार कर सकें.समझ में नहीं आता कि जो आदमी घोषित रूप से पाकिस्तानी तोड़फोड़ का समर्थक है , कश्मीर को पाकिस्तान की गुलामी में सौंपना चाहता है उसे भारतीय संविधान की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार के तहत क्यों महिमामंडित किया जा रहा है . दिल्ली में बहुत सारे धतेंगण घूम रहे हैं जो धार्मिक कठमुल्लापन की भी सारी हदें पार कर जाते हैं , हिन्दू महासभा की राजनीति में गले तक डूबे रहते हैं , मंदिर मार्ग की हिन्दू मह्सभा की प्रापर्टी पर क़ब्ज़ा करने के लिए कुछ भी कर सकते हैं और और मौक़ा मिलते ही मुसलमानों और माओवादियों के शुभचिंतक बन जाते हैं . इस तरह के दिल्ली में करीब एक हज़ार लोग हैं जो हमेशा विवादों के रास्ते मीडिया में मौजूद पाए जाते हैं . इसी प्रजाति के कुछ जीवों ने दिल्ली में गीलानी को मंच दे दिया. तुर्रा यह कि गीलानी जैसे पाकिस्तान के गुलाम आज़ादी की बात करते रहे और बुद्धि के अजीर्ण से ग्रस्त लोग उसे सुनते रहे. दुर्भाग्य यह है कि अपने देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा कश्मीरी अवाम की आज़ादी की भावना को समझता ही नहीं. एक बात अगर सबकी समझ में आ जाय तो कश्मीर संबंधी चिंतन का बहुत उपकार होगा और वह यह कि जब १९४७ में जम्मू-कश्मीर के राजा ने भारत के साथ विलय के दस्तावेज़ पर दस्तखत किया तो कश्मीरी अवाम ने अपने आपको आज़ाद माना था . यानी भारत के साथ रहना कश्मीर वालों के लिए आज़ादी का दूसरा नाम है . शेख अब्दुल्ला ने राजा की हुकूमत को ख़त्म करके कश्मीरी अवाम की आज़ादी की बात की थी और जब राजा ने विलय की बात मान ली और कश्मीर भारत का अखंड हिस्सा बन गया तो कश्मीर आज़ाद हो गया . यहाँ यह समझना ज़रूरी है कि राजा ने विलय के कागजों पर अक्टूबर १९४७ में दस्तखत किया था . दस्तखत करने की प्रक्रिया इसलिए भी तेज़ हो गयी थी कि कश्मीर पर ज़बरदस्ती क़ब्ज़ा करने के उद्दश्य से पाकिस्ताने एफौज़ ने कबायलियों को साथ लेकर हमला कर दिया था और राजा ने कहा कि आज़ादी की बात तो दूर, पाकिस्तानी सरकार और उसके मुखिया मुहम्मद अली जिन्ना तो कश्मीर को फौज के बूटों तले रौंद कर गुलाम बनाना चाहते हैं . उनकी भारत के साथ विलय का फैसला पाकिस्तानी हमले के बाद हो गया था . राजा ने कहा कि कश्मीर भारत के साथ जा रहा है क्योंकि भारत ने उसकी आज़ादी की रक्षा की है जबकि पाकिस्तान उन्हने हमेशा के लिए गुलाम बनाना चाहता है . उसी पाकिस्तान के गुलाम और उसी के खर्चे पर ऐश कर रहे गीलानी के मुंह से आज़ादी की बात समझ में नहीं आती है .हाँ यह भी सच है कि शेख अब्दुल्ला को परेशान करके भारत सरकार ने अपना एक बेहतरीन दोस्त खो दिया था लेकिन अब वह सब कुछ इतिहास की बातें हैं वरना अगर प्रजा परिषद् ने शेख साहेब से राजा का बदला लेने की गरज से तूफ़ान न मचाया होता तो कश्मीर की समस्या ही न पैदा होती . कश्मीर के सन्दर्भ में आज़ादी को समझने के लिए इतिहास के कुछ तःत्यों पर नज़र डालनी ज़रूरी है .कश्मीर को मुग़ल सम्राट अकबर ने १५८६ में अपने राज्य में मिला लिया था . उसी दिन से कश्मीरी अपने को गुलाम मानता था. और जब ३६१ साल बाद कश्मीर का भारत में अक्टूबर १९४७ में विलय हुआ तो मुसलमान और हिन्दू कश्मीरियों ने अपने आपको आज़ाद माना. इस बीच मुसलमानों, सिखों और हिन्दू राजाओं का कश्मीर में शासन रहा लेकिन कश्मीरी उन सबको विदेशी शासक मानता रहा.अंतिम हिन्दू राजा, हरी सिंह के खिलाफ आज़ादी की जो लड़ाई शुरू हुयी उसके नेता, शेख अब्दुल्ला थे. . शेख ने आज़ादी के पहले कश्मीर छोडो का नारा दिया.इस आन्दोलन को जिनाह ने गुंडों का आन्दोलन कहा था क्योंकि वे राजा के बड़े खैर ख्वाह थे जबकि जवाहर लाल नेहरू कश्मीर छोडो आन्दोलन में शामिल हुए और शेख अब्दुल्ला के कंधे से कंधे मिला कर खड़े हुए . इसलिए कश्मीर में हिन्दू या मुस्लिम का सवाल कभी नहीं था .वहां तो गैर कश्मीरी और कश्मीरी शासक का सवाल था और उस दौर में शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के इकलौते नेता थे. लेकिन राजा भी कम जिद्दी नहीं थे . उन्होंने शेख अब्दुल्ला के ऊपर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया . और शेख के वकील थे इलाहाबाद के बैरिस्टर जवाहर लाल नेहरू .. १ अगस्त १९४७ को महात्मा गांधी कश्मीर गए और उन्होंने घोषणा कर दी कि जिस अमृतसर समझौते को आधार बनाकर हरि सिंह कश्मीर पर राज कर रहे हैं वह वास्तव में एक बैनामा है . और अंग्रेजों के चले जाने के बाद उस गैर कानूनी बैनामे का कोई महत्व नहीं है . शेख ने अपनी आत्म कथा में लिखा है कि कश्मीर में पाकिस्तानी सेना के साथ बढ़ रहे कबायली कश्मीर की ज़मीन और कश्मीरी अधिकारों को अपने बूटों तले रौंद रहे थे. पाकिस्तान के इस हमले के कारण कश्मीरी अवाम पाकिस्तान के खिलाफ हो गया . महात्मा गांधी और नेहरू तो जनता की सत्ता की बात करते हैं जबकि पाकिस्तान उनकी आज़ादी पर ही हमला कर रहा था. इस के बाद कश्मीर के राजा के पास भारत से मदद माँगने के अलावा कोई रास्ता नहीं था.. महाराजा के प्रधान मंत्री, मेहर चंद महाजन २६ अक्टूबर को दिल्ली भागे. इसके बाद महाराजा ने विलय के कागज़ात पर दस्तखत किया और उसे २७ अक्टूबर को भारत सरकार ने मंज़ूर कर लिया. भारत की फौज़ को तुरंत रवाना किया गया और कश्मीर से पाकिस्तानी शह पर आये कबायलियों को हटा दिया गया .कश्मीरी अवाम ने कहा कि भारत हमारी आज़ादी की रक्षा के लिए आया है जबकि पाकिस्तान ने फौजी हमला करके हमारी आजादी को रौंदने की कोशिश की थी. उस दौर में आज़ादी का मतलब भारत से दोस्ती हुआ करती थी .

इसलिए यह बात सबकी समझ में आ जानी चाहिए कि कश्मीरी अवाम जिसे आज़ादी कहता है उसका मातलब भारत में विलय है और गीलीनी टाइप पाकिस्तानी पैसे पर पलने वालों को यह हक नहीं है कि वे पाकिस्तान की तारीफ करटे हुए कश्मीर की आज़ादी की बात करें क्योंकि पाकिस्तान ही तो कश्मीर की आज़ादी का असली दुश्मन है

Saturday, July 17, 2010

आज़ादी,कश्मीर के इतिहास की सबसे बड़ी विरासत है

शेष नारायण सिंह



जम्मू-कश्मीर की मौजूदा सरकार बनने के पहले विधान सभा के लिए जो चुनाव हुए थे, वे कई मायनों में मील का पत्थर थे. आतंकवादियों और अलगाव वादियों की धमकियों की परवाह न करके आम कश्मीरी ने चुनाव में हिस्सा लिया था और भारत के साथ बने रहने के अपने निश्चय को एक बार फिर दोहराया था . सरकार बनी और उम्मीद की जा रही थी नौजवान मुख्य मंत्री राज्य की तरक्की के लिए सब कुछ दांव पर लगा देगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ . आज डेढ़ साल बाद लगता है कि कश्मीर फिर एक बार असंतोष और अशांति की आग में जलने के लिए मजबूर हो गया है.कांग्रेस की मदद से मुख्य मंत्री बने उमर अब्दुल्ला को सत्ता में बनाए रखने का कांग्रेस का मंसूबा भी कमज़ोर नहीं है लेकिन बात बनती नज़र नहीं आ रही है . घाटी में बिगड़ गए हालात को दुरुस्त करने की कोशिश कर रहे मुख्य मंत्री ने जो सर्व दलीय बैठक बुलाई उसमें पी डी पी नेता महबूबा मुफ्ती शामिल नहीं हुईं पी डी पी जम्मू-कश्मीर की मुख्य विपक्षी पार्टी है . आरोप यह भी है कि उसके अलगाव वादियों से सम्बन्ध मधुर हैं . अगर महबूबा ही शामिल नहीं हो रही हैं तो सर्वदलीय बैठक का कोई मतलब नहीं है क्योंकि घाटी के बाकी दो दल तो सरकार में शामिल ही हैं . कश्मीर में बन्दूक के ऊपर राज नीति को हावी करने की गरज से सभी राजनीतिक जमातों का जनहित और राष्ट्रहित के मामलों में साथ खड़े रहना ज़रूरी है . शायद इसीलिये प्रधान मंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने भी सर्व दलीय बैठक में महबूबा मुफ्ती के शामिल न होने के फैसले को बदलवाने की कोशिश की . उन्होंने महबूबा को फोन करके कहा कि वे बैठक में शामिल हों . दिन भर की ऊह पोह के बाद महबूबा ने मीडिया के ज़रिये कह दिया कि वे उमर अब्दुल्ला की तरफ से बुलाई गयी बैठक में शामिल नहीं होंगीं. बैठक में शामिल न होने के जो उन्होंने कारण दिए वे बहुत ही डरावने हैं . उन्होंने जिस भाषा का इस्तेमाल किया है उस से साफ़ लगता है कि वे उमर अब्दुल्ला की सरकार को बर्खास्त करवा कर एक नयी राजनीतिक व्यवस्था के सपने देख रही हैं. यह कश्मीर के हित में नहीं है . जब भी केंद्रीय हस्तक्षेप से श्रीं नगर में राजनीतिक सत्ता बदली गयी है नतीजे भयानक हुए हैं . शेख अब्दुल्ला की १९५३ की सरकार हो या फारूक अब्दुल्ला को हटाकर गुल शाह को मुख्यमंत्री बनाने की बेवकूफी, केंद्र की गैर ज़रूरी दखलंदाजी के बाद कश्मीर में हालात खराब होते हैं . सर्व दलीय बैठक में न शामिल होने के लिए महबूबा मुफ्ती ने जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया है उसका भावार्थ सीधे तौर पर केंद्रीय हस्तक्षेप की मांग करता नज़र आता है . उन्होंने कहा है कि हालात बहुत खराब हैं और हमें मुकामी स्तर पर तनाव को ख़त्म करना है . उसके लिए ऐसी पहल की ज़रुरत है जो सर्वोच्च स्तर से आये और लोग उसे गंभीरता से लें . महबूबा ने कहा कि सर्व दलीय बैठक से कुछ नहीं निकलने वाला है . राज्य सरकार की विश्वसनीयता ख़त्म हो चुकी है और अब उसके पास कोई विकल्प नहीं है . उन्होंने प्रधानमंत्री से हस्तक्षेप की मांग की और कहा कि उनके पास हस्तक्षेप करने का नैतिक अधिकार है और उनकी पहल को जनता गंभीरता से लेगी.उन्होंने कहा कि हमें एक ऐसी पहल की ज़रुरत है जिसका कश्मीर के आम आदमी पर असर पड़े. अब हमें अंतर राष्ट्रीय मंचों पर असर की परवाह नहीं करनी चाहिए . उनके इस रुख से यह बात बिलकुल साफ़ हो जाती है कि महबूबा अब किसी भी हाल में उमर अब्दुल्ला को चैन से नहीं बैठने देगीं . हालांकि इसमें दो राय नहीं है कि उमर अब्दुल्ला ने पिछले डेढ़ साल में अपना और कश्मीरी राजनीति का जितना नुकसान किया है , वह बहुत वक़्त में ठीक किया जा सकेगा लेकिन केंद्र के दबाव से निर्वाचित सरकार को हटाना वैसे भी ठीक नहीं है और कश्मीर की संवेदनशील जनता के लिए तो वह और भी बुरा होगा. कश्मीर में केन्द्रीय दखल के नतीजों के इतिहास पर नज़र डालने से तस्वीर और साफ़ हो जायेगी. सच्ची बात यह है कि जम्मू-कश्मीर की जनता हमेशा से ही बाहरी दखल को अपनी आज़ादी में गैर ज़रूरी मानती रही है . इसी रोशनी में यह भी समझने की कोशिश की जायेगी कि जिस कश्मीरी अवाम ने कभी पाकिस्तान और उसके नेता मुहम्मद अली जिन्नाह को धता बता दी थी और जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राजा की पाकिस्तान के साथ मिलने की कोशिशों को फटकार दिया था, और भारत के साथ विलय के लिए चल रही शेख अब्दुल्ला की कोशिश को अहमियत दी थी , आज वह भारतीय नेताओं से इतना नाराज़ क्यों है. कश्मीर में पिछले २० साल से चल रहे आतंक के खेल में लोग भूलने लगे हैं कि जम्मू-कश्मीर की मुस्लिम बहुमत वाली जनता ने पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय नेताओं, महात्मा गाँधी , जवाहर लाल नेहरू और जयप्रकाश नारायण को अपना माना था. पिछले ६० साल के इतिहास पर एक नज़र डाल लेने से तस्वीर पूरी तरह साफ़ हो जायेगी.

देश के बँटवारे के वक़्त अंग्रेजों ने देशी रियासतों को भारत या पाकिस्तान के साथ मिलने की आज़ादी दी थी. बहुत ही पेचीदा मामला था . ज़्यादातर देशी राजा तो भारत के साथ मिल गए लेकिन जूनागढ़, हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर का मामला विवादों के घेरे में बना रहा . कश्मीर में ज़्यादातर लोग तो आज़ादी के पक्ष में थे . कुछ लोग चाहते थे कि पाकिस्तान के साथ मिल जाएँ लेकिन अपनी स्वायत्तता को सुरक्षित रखें. इस बीच महाराजा हरि सिंह के प्रधान मंत्री ने पाकिस्तान की सरकार के सामने एक स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट का प्रस्ताव रखा जिसके तहत लाहौर सर्किल के केंद्रीय विभाग पाकिस्तान सरकार के अधीन काम करेगें . १५ अगस्त को पाकिस्तान की सरकार ने जम्मू-कश्मीर के महाराजा के स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जिसके बाद पूरे राज्य के डाकखानों पर पाकिस्तानी झंडे फहराने लगे . भारत सरकार को इस से चिंता हुई और जवाहर लाल नेहरू ने अपनी चिंता का इज़हार इन शब्दों में किया."पाकिस्तान की रण नीति यह है कि अभी ज्यादा से ज्यादा घुसपैठ कर ली जाए और जब जाड़ों में कश्मीर अलग थलग पड़ जाए तो कोई बड़ी कार्रवाई की ." नेहरू ने सरदार पटेल को एक पत्र भी लिखा कि ऐसे हालात बन रहे हैं कि महाराजा के सामने और कोई विकल्प नहीं बचेगा और वह नेशनल कान्फरेन्स और शेख अब्दुल्ला से मदद मागेगा और भारत के साथ विलय कर लेगा.अगर ऐसा हो गया गया तो पाकिस्तान के लिए कश्मीर पर किसी तरह का हमला करना इस लिए मुश्किल हो जाएगा कि उसे सीधे भारत से मुकाबला करना पडेगा.अगर राजा ने इस सलाह को मान लिया होता तो कश्मीर समस्या का जन्म ही न होता..इस बीच जम्मू में साम्प्रदायिक दंगें भड़क उठे थे . बात अक्टूबर तक बहुत बिगड़ गयी और महात्मा गाँधी ने इस हालत के लिए महाराजा को व्यक्तिगत तौर पर ज़िम्मेदार ठहराया पाकिस्तान ने महाराजा पर दबाव बढाने के लिए लाहौर से आने वाली कपडे, पेट्रोल और राशन की सप्प्लाई रोक दी. संचार व्यवस्था पाकिस्तान के पास स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के बाद आ ही गयी थी. उसमें भी भारी अड़चन डाली गयी.. हालात तेज़ी से बिगड़ रहे थे और लगने लगा था कि अक्टूबर १९४६ में की गयी महात्मा गाँधी की भविष्यवाणी सच हो जायेगी. महात्मा ने कहा था कि अगर राजा अपनी ढुलमुल नीति से बाज़ नहीं आते तो कश्मीर का एक यूनिट के रूप में बचे रहना संदिग्ध हो जाएगा.

ऐसी हालत में राजा ने पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने की कोशिश शुरू कर दी. . नतीजा यह हुआ कि उनके प्रधान मंत्री मेहर चंद महाजन को कराची बुलाया गया. जहां जाकर उन्होंने अपने ख्याली पुलाव पकाए. महाजन ने कहा कि उनकी इच्छा है कि कश्मीर पूरब का स्विटज़रलैंड बन जाए , स्वतंत्र देश हो और भारत और पाकिस्तान दोनों से ही बहुत ही दोस्ताना सम्बन्ध रहे. लेकिन पाकिस्तान को कल्पना की इस उड़ान में कोई दिलचस्पी नहीं थी. उसने कहा कि पाकिस्तान में विलय के कागजात पर दस्तखत करो फिर देखा जाएगा . इधर २१ अक्टोबर १९४७ के दिन राजा ने अगली चाल चल दी. उन्होंने रिटायर्ड जज बख्शी टेक चंद को नियुक्त कर दिया कि वे कश्मीर का नया संविधान बनाने का काम शुरू कर दें.पाकिस्तान को यह स्वतंत्र देश बनाए रखने का महाराजा का आइडिया पसंद नहीं आया और पाकिस्तान सरकार ने कबायली हमले की शुरुआत कर दी. राजा मुगालते में था और पाकिस्तान की फौज़ कबायलियों को आगे करके श्रीनगर की तरफ बढ़ रही थी. लेकिन बात चीत का सिलसिला भी जारी था . पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव मेजर ,ए एस बी शाह श्रीनगर में थे और प्रधान मंत्री समेत बाकी अधिकारियों से मिल जुल रहे थे. जिनाह की उस बात को सच करने की तैयारी थी कि जब उन्होंने फरमाया था कि , " कश्मीर मेरी जेब में है."

कश्मीर को उस अक्टूबर में गुलाम होने से बचाया इस लिए जा सका कि घाटी के नेताओं ने फ़ौरन रियासत के विलय के बारे में फैसला ले लिया. कश्मीरी नेताओं के एक राय से लिए गए फैसले के पीछे कुछ बात है जो कश्मीर को एक ख़ास इलाका बनाती है जो बाकी राज्यों से भिन्न है. कश्मीर के यह खासियत जिसे कश्मीरियत भी कहा जाता है , पिछले पांच हज़ार वर्षों की सांस्कृतिक प्रगति का नतीजा है. कश्मीर हमेशा से ही बहुत सारी संस्कृतियों का मिलन स्थल रहा है . इसीलिये कश्मीरियत में महात्मा बुद्ध की शख्सियत , वेदान्त की शिक्षा और इस्लाम का सूफी मत समाहित है. बाकी दुनिया से जो भी आता रहा वह इसी कश्मीरियत में शामिल होता रहा .. कश्मीर मामलों के बड़े इतिहासकार मुहम्मद दीन फौक का कहना है कि अरब, इरान,अफगानिस्तानऔर तुर्किस्तान से जो लोग छ सात सौ साल पहले आये थे , वे सब कश्मीरी मुस्लिम बन चुके हैं .उन की एक ही पहचान है और वह है कश्मीरी. इसी तरह से कश्मीरी भाषा भी बिलकुल अलग है . और कश्मीरी अवाम किसी भी बाहरी शासन को बर्दाश्त नहीं करता.

कश्मीर को मुग़ल सम्राट अकबर ने १५८६ में अपने राज्य में मिला लिया था . उसी दिन से कश्मीरी अपने को गुलाम मानता था. और जब ३६१ साल बाद कश्मीर का भारत में अक्टूबर १९४७ में विलय हुआ तो मुसलमान और हिन्दू कश्मीरियों ने अपने आपको आज़ाद माना. इस बीच मुसलमानों, सिखों और हिन्दू राजाओं का कश्मीर में शासन रहा लेकिन कश्मीरी उन सबको विदेशी शासक मानता रहा.अंतिम हिन्दू राजा, हरी सिंह के खिलाफ आज़ादी की जो लड़ाई शुरू हुयी उसके नेता, शेख अब्दुल्ला थे. . शेख ने आज़ादी के पहले कश्मीर छोडो का नारा दिया.इस आन्दोलन को जिनाह ने गुंडों का आन्दोलन कहा था क्योंकि वे राजा के बड़े खैर ख्वाह थे जबकि जवाहर लाल नेहरू कश्मीर छोडो आन्दोलन में शामिल हुए और शेख अब्दुल्ला के कंधे से कंधे मिला कर खड़े हुए . इसलिए कश्मीर में हिन्दू या मुस्लिम का सवाल कभी नहीं था .वहां तो गैर कश्मीरी और कश्मीरी शासक का सवाल था और उस दौर में शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के इकलौते नेता थे. लेकिन राजा भी कम जिद्दी नहीं थे . उन्होंने शेख अब्दुल्ला के ऊपर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया . और शेख के वकील थे इलाहाबाद के बैरिस्टर जवाहर लाल नेहरू .. १ अगस्त १९४७ को महात्मा गांधी कश्मीर गए और उन्होंने घोषणा कर दी कि जिस अमृतसर समझौते को आधार बनाकर हरि सिंह कश्मीर पर राज कर रहे हैं वह वास्तव में एक बैनामा है . और अंग्रेजों के चले जाने के बाद उस गैर कानूनी बैनामे का कोई महत्व नहीं है . गाँधी जी ने एक और बात कहीं जो सबको बहुत अच्छी लगी. उन्होंने कहा कि सता का असली हक़दार कश्मीरी अवाम हैं जबकि जिन्नाह कहते रहते थे कि देशी राजाओं की सत्ता को उनसे छीना नहीं जा सकता .राजा के खिलाफ संघर्ष कर रहे कश्मीरी अवाम को यह बात बहुत अच्छी लगी. जबकि राजा सब कुछ लुट जाने के बाद भी अपने आप को सर्वोच्च्च मानते रहे. इसीलिये देश द्रोह के मुक़दमे में फंसाए गए शेख अद्बुल्ला को रिहा करने में देरी हुई क्योंकि राजा उनसे लिखवा लेना चाहता था कि वे आगे से उसके प्रति वफादार रहेगें. शेख कश्मीरी अवाम के हीरो थे . उन्होंने इन् बातों की कोई परवाह नहीं की. कश्मीरी अवाम के हित के लिए उन्होंने भारत और पाकिस्तान से बात चीत का सिलसिला जारी रखा अपने दो साथियों, बख्शी गुलाम मुहम्मद और गुलाम मुहम्मद सादिक को तो कराची भेज दिया और खुद दिल्ली चले गए . वहां वे जवाहरलाल नेहरू के घर पर रुके. कराची गए शेख के नुमाइंदों से न तो जिन्ना मिले और न ही लियाक़त अली. शेख ने अपनी आत्म कथा में लिखा है कि कश्मीरी अवाम के नेता वहां दूसरे दर्जे के पाकिस्तानी नेताओं से बात कर रहे थे और इधर कश्मीर में पाकिस्तानी सेना के साथ बढ़ रहे कबायली कश्मीर की ज़मीन और कश्मीरी अधिकारों को अपने बूटों तले रौंद रहे थे. तेज़ी से बढ़ रहे कबायलियों को रोकना डोगरा सेना के ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह के बस की बात नहीं थी. . पाकिस्तान के इस हमले के कारण कश्मीरी अवाम पाकिस्तान के खिलाफ हो गया . क्योंकि महत्मा गांधी और नेहरू तो जनता की सत्ता की बात करते हैं जबकि पाकिस्तान उनकी आज़ादी पर ही हमला कर रहा था. इस के बाद कश्मीर के राजा के पास भारत से मदद माँगने के अलावा कोई रास्ता नहीं था.. महाराजा के प्रधान मंत्री, मेहर चंद महाजन २६ अक्टूबर को दिल्ली भागे. उन्होंने नेहरू से कहा कि महाराजा भारत के साथ विलय करना चाहते हैं . लेकिन एक शर्त भी थी. वह यह कि भारत की सेना आज ही कश्मीर पंहुच जाए और पाकिस्तानी हमले से उनकी रक्षा करे वरना वे पाकिस्तान से बात चीत शुरू कर देगें. नेहरू आग बबूला हो गए और महाजन से कहा '" गेट आउट " बगल के कमरे में शेख अब्दुल्ला आराम कर रहे थे. बाहर आये और नेहरू का गुस्सा शांत कराया . . इसके बाद महाराजा ने विलय के कागज़ात पर दस्तखत किया और उसे २७ अक्टूबर को भारत सरकार ने मंज़ूर कर लिया. भारत की फौज़ को तुरंत रवाना किया गया और कश्मीर से पाकिस्तानी शह पर आये कबायलियों को हटा दिया गया . कश्मीरी अवाम ने कहा कि भारत हमारी आज़ादी की रक्षा के लिए आया है जबकि पाकिस्तान ने फौजी हमला करके हमारी आजादी को रौंदने की कोशिश की थी. उस दौर में आज़ादी का मतलब भारत से दोस्ती हुआ करती थी लेकिन अब वह बात नहीं है.

कश्मीर का मसला बाद में संयुक्त राष्ट्र में ले जाया गया और उसके बाद बहुत सारे ऐसे काम हुए कि अक्टूबर १९४७ वाली बात नहीं रही. संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पास हुआ कि कश्मीरी जनता से पूछ कर तय किया जाय कि वे किधर जाना चाहते हैं . भारत ने इस प्रस्ताव का खुले दिल से समर्थन किया लेकिन पाकिस्तान वाले भागते रहे , शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के हीरो थे और वे जिधर चाहते उधर ही कश्मीर जाता . लेकिन १९५३ के बाद यह हालात भी बदल गए. . बाद में पाकिस्तान जनमत संग्रह के पक्ष में हो गया और भारत उस से पीछा छुडाने लगा . इन हालात के पैदा होने मेंबहुत सारे कारण हैं.बात यहाँ तक बिगड़ गयी कि शेख अब्दुल्ला की सरकार बर्खास्त की गयी, और शेख अब्दुल्ला को ९ अगस्त १९५३ के दिन गिरफ्तार कर लिया गया.उसके बाद तो फिर वह बात कभी नहीं रही. बीच में राजा के वफादार नेताओं की टोली जिसे प्रजा परिषद् के नाम से जाना जाता था, ने हालात को बहुत बिगाड़ा . अपने अंतिम दिनों में जवाहर लाल ने शेख अब्दुल्ला से बात करके स्थिति को दुरुस्त करने की कोशिश फिर से शुरू कर दिया था. ६ अप्रैल १९६४ को शेख अब्दुल्ला को जम्मू जेल से रिहा किया गया और नेहरू से उनकी मुलाक़ात हुई. शेख अब्दुल्ला ने एक बयान दिया जिसे लिखा , कश्मीरी मामलों के जानकार बलराज पुरी ने था . शेख ने कहा कि उनके नेतृत्व में ही जम्मू कश्मीर का विलय भारत में हुआ था . वे हर उस बात को अपनी बात मानते हैं जो उन्होंने अपनी गिरफ्तारी के पहले ८ अगस्त १९५३ तक कहा था. नेहरू भी पाकिस्तान से बात करना चाहते थे और किसी तरह से समस्या को हल करना चाहते थे.. नेहरू ने इसी सिलसिले में शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तान जाकर संभावना तलाशने का काम सौंपा.. शेख गए . और २७ मई १९६४ के ,दिन जब पाक अधिकृत कश्मीर के मुज़फ्फराबाद में उनके लिए दोपहर के भोजन के लिए की गयी व्यवस्था में उनके पुराने दोस्त मौजूद थे, जवाहरलाल नेहरू की मौत की खबर आई. बताते हैं कि खबर सुन कर शेख अब्दुल्ला फूट फूट कर रोये थे. नेहरू के मरने के बाद तो हालात बहुत तेज़ी से बिगड़ने लगे . कश्मीर के मामलों में नेहरू के बाद के नेताओं ने कानूनी हस्तक्षेप की तैयारी शुरू कर दी,..वहां संविधान की धारा ३५६ और ३५७ लागू कर दी गयी. इसके बाद शेख अब्दुल्ला को एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया. इस बीच पाकिस्तान ने एक बार फिर कश्मीर पर हमला करके उसे कब्जाने की कोशिश की लेकिन पाकिस्तानी फौज ने मुंह की खाई और ताशकेंत में जाकर रूसी दखल से सुलह हुई. .



कश्मीर की समस्या में इंदिरा गाँधी ने एक बार फिर हस्तक्षेप किया , शेख साहेब को रिहा किया और उन्हें सत्ता दी. . उसके बाद जब १९७७ का चुनाव हुआ तो शेख अब्दुला फिर मुख्य मंत्री बने . उनकी मौत के बाद उनके बेटे फारूक अब्दुल्ला को मुख्य मंत्री बनाया गया. लेकिन अब तक इंदिरा गाँधी बहुत कमज़ोर हो गयी थीं , एक बेटा खो चुकी थीं और उनके फैसलों को प्रभावित किया जा सकता था . अपने परिवार के करीबी , अरुण नेहरू पर वे बहुत भरोसा करने लगी थीं, . अरुण नेहरू ने जितना नुकसान कश्मीरी मसले का किया शायद ही किसी ने नहीं किया हो . उन्होंने डॉ फारूक अब्दुल्ला से निजी खुन्नस में उनकी सरकार गिराकर उनके बहनोई गुल शाह को मुख्य मंत्री बनवा दिया . यह कश्मीर में केंद्रीय दखल का सबसे बड़ा उदाहरण माना जाता है . हुआ यह था कि फारूक अब्दुल्ला ने श्रीनगर में कांग्रेस के विरोधी नेताओं का एक सम्मलेन कर दिया . और अरुण नेहरू नाराज़ हो गए . अगर अरुण नेहरू को मामले की मामूली समझ भी होती तो वे खुश होते कि चलो कश्मीर में बाकी देश भी इन्वाल्व हो रहा है लेकिन उन्होंने पुलिस के थानेदार की तरह का आचरण किया और सब कुछ खराब कर दिया . इतना ही नहीं . कांग्रेस ने घोषित मुस्लिम दुश्मन , जगमोहन को जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल बनाकर भेज दिया . उसके बाद तो हालात बिगड़ते ही गए. उधर पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल जिया उल हक लगे हुए थे. उन्होंने बड़ी संख्या में आतंकवादी कश्मीर घाटी में भेज दिया . बची खुची बात उस वक़्त बिगड़ गयी . जब १९९० में तत्कालीन गृह मंत्री, मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी का पाकिस्तानी आतंकवादियों ने अपहरण कर लिया यही दौर है जब . कश्मीर में खून बहना शुरू हुआ . और आज हालात जहां तक पंहुच गए हैं किसी के समझ में नहीं आ रहा है कि वहां से वापसी कब होगी.

Sunday, May 16, 2010

हमारी आज़ादी की विरासत का केंद्र है देवबंद

शेष नारायण सिंह


दारुल उलूम, देवबंद को दुश्मन की तरह पेश करने वाले सांप्रदायिक हिंदुओं को भी यह बता देने की जरूरत है कि जब भी अंग्रेजों के खि़लाफ बगावत हुई, देवबंद के छात्र और शिक्षक हमेशा सबसे आगे थे। इन लोगों को यह भी बता देने की ज़रूरत है कि देवबंद के स्कूल की स्थापना भी उन लोगों ने की थी जो 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के हीरो थे।

हाल में ही देवबंद के मौलाना नूरुल हुदा को दिल्ली हवाई अड्डे पर गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर दफा 341 के तहत चार्जशीट दाखिल की गई और उन्हें दिल्ली की एक अदालत से जमानत लेनी पड़ी। वे जेल से तो बाहर आ गए हैं लेकिन अभी केस खत्म नहीं हुआ है। उन पर अभी मुकदमा चलेगा और अदालत ने अगर उन्हें निर्दोष पाया तो उनको बरी कर दिया जायेगा वरना उन्हें जेल की सजा भी हो सकती है। उनके भाई का आरोप है कि 'यह सब दाढ़ी, कुर्ता और पायजामे की वजह से हुआ है, यानी मुसलमान होने की वजह से उनको परेशान किया जा रहा है।

हुआ यह कि मौलाना नूरुल हुदा दिल्ली से लंदन जा रहे थे। जब वे जहाज़ में बैठ गए तो किसी रिश्तेदार का फोन आया और उन्होंने अपनी खैरियत बताई और और कहा कि 'जहाज उडऩे वाला है और हम भी उडऩे वाले है।' किसी महिला यात्री ने शोरगुल मचाया और कहा कि यह मौलाना जहाज़ को उड़ा देने की बात कर रहे हैं। जहाज़ रोका गया और मौलाना नूरुल हुदा को गिरफ्तार कर लिया गया। पूछताछ हुई और पुलिस ने स्वीकार किया कि बात समझने में महिला यात्री ने गलती की थी। सवाल यह है कि अगर पुलिस ने यह पता लगा लिया था कि महिला की बेवकूफी की वजह से मौलान नूरुल हुदा को हिरासत में लिया गया था तो केस खत्म क्यों नहीं कर दिया गया। उन पर चार्जशीट दाखिल करके पुलिस ने उनके नागरिक अधिकारों का हनन किया है और उनके लोकतांत्रिक अधिकारों का अपमान किया है। इसके लिए पुलिस को माफी मांगनी चाहिए। अगर माफी न मांगे तो सभ्य समाज को चाहिए कि वह पुलिस पर इस्तगासा दायर करे और उसे अदालत के जरिए दंडित करवाए। पुलिस को जब मालूम हो गया था कि महिला का आरोप गलत है तो मौलाना के खिलाफ दफा 341 के तहत मुकदमा चलाने की प्रक्रिया क्यों शुरू की? इस दफा में अगर आरोप साबित हो जाय तो तीन साल की सज़ा बामशक्कत का प्रावधान है। इतनी कठोर सजा की पैरवी करने वालों के खि़लाफ सख्त से सख्त प्रशासनिक और कानूनी कार्रवाई की जानी चाहिए। मामला और भी गंभीर हो जाता है क्योंकि जांच के दौरान ही पुलिस को मालूम चल गया था कि आरोप लगाने वाली महिला झूठ बोल रही थी। इस मामले में मौलाना नूरुल हुदा, उनके परिवार वालों और मित्रों को जो मानसिक प्रताडऩा झेलनी पड़ी है, सरकार को चाहिए कि उसके लिए संबंधित एअरलाइन, झूठ बोलनी वाली महिला, दिल्ली पुलिस और जांच करने वाले अधिकारियों के खिलाफ मु$कदमा चलाए और मौलाना को मुआवज़ा दिलवाए। इस मामले में मौलाना नूरुल हुदा को मानसिक क्लेश पहुंचा कर सभी संबंधित पक्षों ने उनका अपमान किया है।

वास्तव में देवबंद का दारुल उलूम विश्व प्रसिद्घ धार्मिक केंद्र होने के साथ-साथ हमारी आज़ादी की लड़ाई की भी सबसे महत्वपूर्ण विरासत भी है। हिंदू-मुस्लिम एकता का जो संदेश महात्मा गांधी ने दिया था, दारुल उलूम से उसके समर्थन में सबसे ज़बरदस्त आवाज़ उठी थी। 1930 में जब इलाहाबाद में संपन्न हुए मुस्लिम लीग के सम्मेलन में डा. मुहम्मद इकबाल ने अलग मुस्ल्मि राज्य की बात की तो दारुल उलूम के विख्यात कानूनविद मौलाना हुसैन अहमद मदनी ने उसकी मुखालिफत की थी। उनकी प्रेरणा से ही बड़ी संख्या में मुसलमानों ने महात्मा गांधी की अगुवाई में नमक सत्याग्रह में हिस्सा लिया था। सरकारी आंकड़ों के अनुसार करीब 12 हज़ार मुसलमानों ने नमक सत्याग्रह के दौरान गिरफ्तारी दी थी। दारुल उलूम के विद्वानों की अगुवाई में चलने वाला संगठन जमीयतुल उलेमा-ए-हिंद आज़ादी की लड़ाई के सबसे अगले दस्ते का नेतृत्व कर रहा था।

आजकल देवबंद शब्द का उल्लेख आते ही कुछ अज्ञानी प्रगतिशील लोग ऊल जलूल बयान देने लगते हैं और ऐसा माहौल बनाते हैं गोया देवबंद से संबंधित हर व्यक्ति बहुत ही खतरनाक होता है और बात बात पर बम चला देता है। पिछले कुछ दिनों से वहां के फतवों पर भी मीडिया की टेढ़ी नज़र है। देवबंद के दारुल उलूम के रोज़मर्रा के कामकाज को अर्धशिक्षित पत्रकार, सांप्रदायिक चश्मे से पेश करने की कोशिश करते हैं जिसका विरोध किया जाना चाहिए।1857 में आज़ादी की लड़ाई में $कौम, हाजी इमादुल्ला के नेतृत्व में इकट्ठा हुई थी। वे 1857 में मक्का चले गए थे। उनके दो प्रमुख अनुयायियों मौलाना मुहम्मद कासिम नानौतवी और मौलाना रशीद अहमद गंगोही ने देवबंद में दारुल उलूम की स्थापना करने वालों की अगुवाई की थी। यही वह दौर था जब यूरोपीय साम्राज्यवाद एशिया में अपनी जड़े मज़बूत कर रहा था। अफगानिस्तान में यूरोपी साम्राज्यवाद का विरोध सैय्यद जमालुद्दीन कर रहे थे। जब वे भारत आए तो देवबंद के मदरसे में उनका जबरदस्त स्वागत हुआ और अंग्रेजों की सत्ता को उखाड़ फैंकने की कोशिश को और ताकत मिली। जब 1885 में कांग्रेस की स्थापना हुई तो दारुल उलूम के प्रमुख मौलाना रशीद अहमद गंगोही थे। आपने फतवा दिया कि शाह अब्दुल अज़ीज़ का फतवा है कि भारत दारुल हर्ब है। इसलिए मुसलमानों का फर्ज है कि अंग्रेजों को भारत से निकाल बाहर करें। उन्होंने कहा कि आजादी के लक्ष्य को हासिल करने के लिए हिन्दुओं को साथ लेकर संघर्ष करना शरियत के लिहाज से भी बिल्कुल दुरुस्त है। वें भारत की पूरी आजाद के हिमायती थे। इसलिए उन्होंने कांग्रेस में शामिल न होने का फैसला किया। क्योंकि कांग्रेस 1885 में पूरी आजादी की बात नहीं कर रही थी। लेकिन उनकी प्रेरणा से बड़ी संख्या में मुसलमानों ने कांग्रेस की सदस्यता ली और आजादी की लड़ाई में शामिल हो गये।

इतिहास गवाह है कि देवबंद के उलेमा दंगों के दौरान भी भारत की आजादी और राष्ट्रीय एकता के सबसे बड़े पक्षधर के रूप में खड़े रहते थे। देवबंद के बड़े समर्थकों में मौलाना शिबली नोमानी का नाम भी लिया जा सकता है। उनके कुछ मतभेद भी थे। लेकिन आजादी की लड़ाई के मसले पर उन्होंने देवबंद का पूरी तरह से समर्थन किया। सर सैय्यद अहमद खां की मृत्यु तक वे अलीगढ़ में शिक्षक रहे लेकिन अंग्रेजी राज के मामले में वे सर सैय्यद से अलग राय रखते थे। प्रोफेसर ताराचंद ने अपनी किताब 'भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास' में साफ लिखा है कि देवबंद के दारुल उलूम ने हर उस आंदोलन का समर्थन किया जो भारत से अंग्रेजों को खदेडऩे के लिए चलाया गया था। 1857 के जिन बागियों ने देवबंद में धार्मिक मदरसे की स्थापना की उनके प्रमुख उद्देश्यों में भारत की सरजमीन से मुहब्बत भी थी। कलामे पाक और हदीस की शिक्षा तो स्कूल का मुख्य काम था लेकिन उनके बुनियादी सिद्घांतों में यह भी था कि विदेशी सत्ता खत्म करने के लिए जिहाद की भावना को हमेंशा जिंदा रखा जाए। आज कल जिहाद शब्द के भी अजीबो गरीब अर्थ बताये जा रहे हैं। यहां इतना ही कह देना काफी होगा कि 1857 में जिन बागी सैनिकों ने अंग्रेजों के खि़लाफ सब कुछ दांव पर लगा दिया था वे सभी अपने आपको जिहादी ही कहते थे। यह जिहादी हिन्दू भी थे और मुसलमान भी और सबका मकसद एक ही था विदेशी शासक को पराजित करना।

मौलाना रशीद अहमद गंगोही के बाद दारुल उलूम के प्रमुख मौलाना महमूद उल हसन बने। उनकी जिंदगी का मकसद ही भारत की आजादी था। यहां तक कि कांग्रेस ने बाद में महात्मा गांधी के नेतृत्व में पूरी स्वतंत्रता का नारा दिया। लेकिन मौलाना महमूद उल हसन ने 1905 में ही पूर्ण स्वतंत्रता की अपनी योजना पर काम करना शुरू कर दिया था। उन्होंने भारत से अंगे्रजों को भगा देने के लिए एक मिशन की स्थापना की जिसका मुख्यालय देवबंद में बनाया गया। मिशन की शाखाएं दिल्ली, दीनापुर, अमरोट, करंजी खेड़ा और यागिस्तान में बनाई गयीं। इसमें बड़ी संख्या में मुसलमान शामिल हुए। लेकिन यह सभी धर्मों के लिए खुला था। पंजाब के सिख और बंगाल की क्रांतिकारी पार्टी के सदस्य भी इसमें शामिल हुए। मौलाना महमूद उल हसन के बाद देवबंद का नेतृत्व मौलाना हुसैन अहमद मदनी के कंधों पर पड़ा। उन्होंने भी कांग्रेस, महात्मा गांधी और मौलाना अबुल कलाम आजाद के साथ मिलकर मुल्क की आजादी के लिए संघर्ष किया। उन्होंने 1920 में कांग्रेस के असहयोग आंदोलन का समर्थन करने का फै सला किया और उसे अंत तक समर्थन देते रहे। उन्होंने कहा कि धार्मिक मतभेद के बावजूद सभी भारतीयों को एक राष्ट्र के रूप में संगठित रहना चाहिए। उन्होंने कहा कि राष्ट्र की स्थापना भौगोलिक तरीके से की जानी चाहिए। धार्मिक आधार पर नहीं। अपने इस विचार की वजह से उनको बहुत सारे लोगों, खासकर पाकिस्तान के समर्थकों का विरोध झेलना पड़ा लेकिन मौलाना साहब अडिग रहे। डा. मुहम्मद इकबाल ने उनके खि़ला$फ बहुत ही जहरीला अभियान शुरू किया तो मौलाना हुसैन अहमद मदनी ने फारसी में एक शेर लिखकर उनको जवाब दिया कि अरब के रेगिस्तानों में घूमने वाले इंसान जिस रास्ते पर आप चल पड़े हैं वह आपको काबा शरीफ तो नहीं ले जाएगा अलबत्ता आप इंगलिस्तान पहुंच जाएंगे। मौलाना हुसैन अहमद मदनी 1957 तक रहे और भारत के संविधान में भी बड़े पैमाने पर उनके सुझावों को शामिल किया गया है।

जाहिर है पिछले 150 वर्षों के भारत के इतिहास में देवबंद का एक अहम मुकाम है। भारत की शान के लिए यहां के शिक्षकों और छात्रों ने हमेशा कुर्बानियां दी हैं। अफसोस की बात है कि आज देवबंद शब्द आते ही सांप्रदायिक ताकतों के प्रतिनिधि ऊल-जलूल बातें करने लगते हैं। जरूरत इस बात की है कि धार्मिक मामलों में दुनिया भर में विख्यात देवबंद को भारत की आजादी में उनके सबसे महत्वपूर्ण रोल के लिए भी याद किया जाए और उनके रोजमर्रा के कामकाज को सांप्रदायिकता के चश्मे से न देखा जाए