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Friday, November 6, 2009

आतंक के भस्मासुर के सामने लाचार पाकिस्तान

पाकिस्तान अपने ६२ साल के इतिहास में सबसे भयानक मुसीबत के दौर से गुज़र रहा है. आतंकवाद का भस्मासुर उसे निगल जाने की तैयारी में है. देश के हर बड़े शहर को आतंकवादी अपने हमले का निशाना बना चुके हैं . आतंकवादी हमलों के नए दौर के बाद मरने वालों में बच्चो और औरतों की संख्या बहुत ज्यादा है .अगर पाकिस्तान को विखंडन हुआ तो बांग्लादेश की स्थापना के बाद यह सबसे बड़ा झटका माना जाएगा. अजीब बात यह है कि तानाशाही के व्यापार के चक्कर में पाकिस्तान ने अपने अस्तित्व को ही दांव पर लगा दिया है...हालांकि पाकिस्तानी हुक्मरान को बहुत दिनं तक मुगालता था कि आस पास के देशों में आतंक फैला कर वे अपनी राजनीतिक महत्ता बढा सकते थे. दर असल अमरीकी मदद के बदले में इन्हीं तालिबान को अफगानिस्तान में भेजकर पाकिस्तानी हुकूमतों ने अच्छी खासी रक़म पैदा की थी जब अमरीका की मदद से पाकिस्तानी तानाशाह, जिया उल हक आतंकवाद को अपनी सरकार की नीति के रूप में विकसित कर रहे थे , तभी दुनिया भर के समझ दार लोगों ने उन्हें चेतावनी दी थी. लेकिन उन्होंने किसी की नहीं सुनी . जनरल जिया ने धार्मिक उन्मादियों और फौज के जिद्दी जनरलों की सलाह से देश के बेकार फिर रहे नौजवानों की एक जमात बनायी थी जिसकी मदद से उन्होंने अफगानिस्तान और भारत में आतंकवाद की खेती की थी .उसी खेती का ज़हर आज पाकिस्तान के अस्तित्व पर सवालिया निशान बन कर खडा हो गया है.. अमरीका की सुरक्षा पर भी उसी आतंकवाद का साया मंडरा रहा है जो पाकिस्तानी हुक्मरानों की मदद से स्थापित किया गया था . दुनिया जानती है कि अमरीका का सबसे बड़ा दुश्मन, अल कायदा , अमरीकी पैसे से ही बनाया गया था और उसके संस्थापक ओसामा बिन लादेन अमरीका के ख़ास चेला हुआ करते थे . बाद में उन्होंने ही अमरीका पर आतंकवादी हमला करवाया और आज अमरीकी हुकूमत उनको किसी भी कीमत पर पकड़ने के लिए आमादा है. जबकि अमरीका की घेरेबंदी के चलते बुरी तरह से घिर चुके पाकिस्तानी आतंकवादी , अपने देश को ही तबाह करने के लिए तुले हुए हैं .इस माहौल में कश्मीर की सरकारी यात्रा पर गए भारत के प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह पाकिस्तान की तरफ दोस्ती का हाथ बढा दिया है. अंतर राष्ट्रीय मामलों के जानकार बताते हैं कि मनमोहन सिंह का दोस्ती के लिए बढा हुआ हाथ वास्तव में जले पर नमक की तरह का असर करेगा क्योंकि पाकिस्तान अब किसी से दोस्ती या दुश्मनी करने की ताक़त नहीं रखता. वह तो अपनी अस्तित्व की लड़ाई में इतना बुरी तरह से उलझ चुका है कि उसके पास और किसी काम के लिए फुर्सत ही नहीं है. यहाँ यह याद करना दिलचस्प होगा कि भारत जैसे बड़े देश से पाकिस्तान की दुश्मनी का आधार, कश्मीर है. वह कश्मीर को अपना बनाना चाहता है लेकिन आज वह इतिहास के उस मोड़ पर खडा है जहां से उसको कश्मीर पर कब्जा तो दूर , अपने चार राज्यों को बचा कर रख पाना ही टेढी खीर नज़र आ रही है. लेकिन कश्मीर के मसले को जिंदा रखना पाकिस्तानी शासकों की मजबूरी है क्योंकि १९४८ में जब जिनाह की सरपरस्ती में कश्मीर पर कबायली हमला हुआ था उसके बाद से ही भारत के प्रति नफरत के पाकिस्तानी अभियान में कश्मीर विवाद क भारी योगदान रहा है अगर पाकिस्तान के हुक्मरान उसको ही ख़त्म कर देंगें तो उनके लिए बहुत मुश्किल हो जायेगी

पाकिस्तान की एक देश में स्थापना ही एक तिकड़म का परिणाम है. वहां रहने वाले ज़्यादातर लोग अपने आपको भारत से जोड़ कर अपने इतिहास को याद करते हैं . शुरू से ही पाकिस्तानी शासकों ने धर्म के सहारे अवाम को इकठ्ठा रखने की कोशिश की . यह बहुत बड़ी गलती थी. जब भी धर्म को राज काज में दखल देने की आज़ादी दी जायेगी, राष्ट्र का वही हाल होगा जो आज पाकिस्तान का हो रहा है . दुर्भाग्य की बात यह है कि पाकिस्तान के संस्थापक जब इतिहास और भूगोल से इस तरह का खिलवाड़ कर रहे थे तो उन्हें अंदाज़ ही नहीं था कि वे किस सर्वनाश की नींव डाल रहे हैं . जब अंग्रेजों के एक खेल को पूरा करने के लिए जिनाह ने पाकिस्तान की जिद पकडी थी उसी वक़्त यह अंदाज़ लग गया था कि आने वाला समय इस नए देश के लिए ठीक नहीं होगा..पाकिस्तान की आज़ादी के लिए कोई लड़ाई तो लड़ी नहीं गयी . वह देश तो उस वक़्त के ब्रिटिश प्रधान मंत्री, चर्चिल के एक शातिराना खेल का नतीजा था. मुंबई के अपने घर में बैठकर मुहम्मद अली जिनाह ने चिट्ठियाँ लिख लिख कर पाकिस्तान बना दिया था. आज़ादी की जो लड़ाई १९२० से १९४७ तक चली थी , वह पूरे भारत की आज़ादी के लिए थी और उसमें वह इलाके भी शामिल थे जहां आज का पाकिस्तान है. इस इलाके के जन नायक , खान अब्दुल गफ्फार खान थे. जिनाह जननेता कभी नहीं रहे. वे तो मुस्लिम एलीट के नेता थे. उसी एलीट की हैसियत को बनाए रखने के लिए उन्होंने अंग्रेजों के साथ मिलकर पाकिस्तान बनवा दिया. उनकी अदूरदर्शी सोच का नतीजा है कि आज पाकिस्तान में रहने वाला आम आदमी अमरीकी खैरात पर जिंदा है. आज पाकिस्तान
की अर्थ व्यवस्था पूरी तरह से विदेशी मदद के सहारे चल रही है.. भारत और पाकिस्तान एक ही दिन स्वतंत्र हुए थे. लेकिन भारत आज एक ताक़तवर देश है जबकि पाकिस्तान के अन्दर होने वाली हर गतिविधि अब अमरीकी निगरानी का विषय बन चुकी है. वैसे पाकिस्तान में भी जिस सिलसिलेवार तरीके से जनतंत्र का खत्म किया गया उसका भी आतंकवाद के विकास में खासा योगदान है.आज वहां पाकिस्तानी फौज पूरी तरह से कण्ट्रोल में है. वह जो चाहती हैं करवाती है.ज़रदारी और गीलानी को जनतंत्र का मुखिया बनना भी संभवतः फौज की ही किसी रणनीति का हिस्सा है. इसी लिए जब ताज़ा अमरीकी मदद के मामले में अमरीकी सीनेट ने एक ऐसा नियम जोड़ दिया जिस से पाकिस्तानी जनरलों की तरक्की तब तक नहीं हो पायेगी जब तक कि सिविलियन सरकार उसकी मंजूरी न दे . फौज के अफसर भड़क गए और अमरीकी राष्ट्रपति को फरमान सुना दिया कि इन शर्तों के साथ अमरीकी सहायता नहीं ली जायेगी. लेकिन पाकिस्तान सरकार इस हुक्म को नहीं मान सकती क्योंकि अगर लैरी कुगर एक्ट वाली आर्थिक सहायता न मिली तो पाकिस्तान में रोज़मर्रा का खर्च चलना भी मुश्किल हो जाये़या. जहां तक मदद की बात है अमरीकी विदेश मंत्री सहित लगभग सभी बड़े अधिकारोयों ने मीडिया की मार्फ़त यह ऐलान कर दिया है कि यह मदद मुफ्त में नहीं दी जा रही है . इसके बदले पाकिस्तानी सत्ता को अमरीकी हितों की साधना करनी पड़ेगी.

सच्ची बात यह है कि यह वास्तव में पाकिस्तान के आतंरिक मामलों में अमरीका की खुली दखलंदाजी है और पाकिस्तान के शासक इस हस्तक्षेप को झेलने के लिए मजबूर हैं एक संप्रभु देश के अंदरूनी मामलों में अमरीका की दखलंदाजी को जनतंत्र के समर्थक कभी भी सही नहीं मानते लेकिन आज पाकिस्तान जिस तरह से अपने ही बनाए दलदल में फंस चुका है.और उस दलदल से निकलना पाकिस्तान के अस्तित्व के लिए तो ज़रूरी है ही बाकी दुनिया के लिए भी उतना ही ज़रूरी है. क्योंकि अगर पाकिस्तान तबाह हुआ तो वहां मौजूद प्रशिक्षित आतंकवादी बाहर निकल पडेंगें और तोड़ फोड़ के अलावा उन्हें और तो कुछ आता नहीं लिहाजा जहां भी जायेंगें तोड़ फोड़ का खेल खेलेंगे..पाकिस्तान के अस्थिर हो जाने का नुकसान भारत को सबसे ज्यादा होगा क्योंकि पाकिस्तान में सक्रिय आतंकवादी जमातों को शुरू से ही यह बता दिया गया है कि भारत ही उनका असली दुश्मन है. इस लिए बाकी दुनिया के साथ मिलकर भारत को भी यह कोशिश करनी चाहिए कि आतंकवाद का सफाया तो हो जाए लेकिन पाकिस्तान बचा रहे ज विदेशी मामलों के जानकार बताते हैं कि अमरीका की पूरी कोशिश है कि पाकिस्तान का अस्तित्व बना रहे क्योंकि राजनीतिक सत्ता ख़त्म होने के बाद किसी और देश का प्रशासन चला पाना कितना कठिन होता है उसे अमरीकी नेताओं से बेहतर कोई नहीं जानता . इराक और अफगानिस्तान में यह गलती वे कर चुके हैं और कोई दूसरी मुसीबत झेलने को तैयार नहीं हैं लेकिन पाकिस्तान को एक राष्ट्र के रूप में बचाने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी वहां के सभ्य समाज और गैर जनतंत्र की पक्षधर जमातों की है. .इस लिए इस बात में दो राय नहीं कि पाकिस्तान को एक जनतांत्रिक राज्य के रूप में बनाए रखना पूरी दुनिया के हित में है.. यह अलग बात है कि अब तक के गैर जिम्मेदार पाकिस्तानी शासकों ने इसकी गुंजाइश बहुत कम छोडी है. ..

Monday, October 26, 2009

भारत के प्रति चीन का गैरजिम्मेदार रुख

भारत के वर्तमान नेताओं पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। अमेरिका से भारत की बढ़ती मुहब्बत की वजह से चीन को चिंता हो गई है। खतरा यह है कि चीन किसी भी वक्त भारत को अस्थिर करने की कोशिश कार सकता है और अगर ऐसा हुआ तो भारत की पूंजीवादी आर्थिक प्रगति की गाड़ी पर ब्रेक लग जाएगा। चीन का सपना है कि वह एक महाशक्ति बने, कम से कम एशिया में वह किसी किस्म की चुनौती नहीं चाहता है, लेकिन भारत में भी विदेशी पूंजी और अमेरिका के बढ़ते प्रभाव और भारत की लगभग सभी पार्टियों में अमेरिका के मित्र बड़े नेताओं की मौजूदगी चीन को अच्छे नहीं लग रही है। शायद इसी कारण से चीन ने अपने मित्रों को भारत के खिलाफ लगाने की कोशिश शुरू कर दी है। नेपाल में चीन की राजनीतिक हस्तक्षेप की ताकत बढ़ी है और वह भारत को डराने के लिए उसका इस्तेमाल भी कर रहा है। पिछले दिनों नेपाल के माओवादी नेता ए बाबूराम भट्टराई ने जो बयान दिया है उसका राग चीन के हित साधन वाला है।

अब प्रधानमंत्री ने जो बयान दिया है वह तो भारत के खिलाफ चीन के अभियान की अंदरूनी कोशिशों को काफी हद तक खोल देता है। तीनों सेनाओं के कमाडरों की बैठक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि भारत पर आतंकवादी हमलों की आशका बहुत ही बढ़ गई है। देश के प्रधानमंत्री की ओर से आने वाला यह बयान निश्चित रूप से चिंता का विषय है। जाहिर है कि केंद्र सरकार को मालूम है कि भारत के खिलाफ खासी गाढ़ी खिचड़ी पाक रही है। इस बीच यहां साफ कर देना जरूरी है कि कुछ टीवी चैनलों की तरफ से चलाए जा रहे चीनी खतरे के अभियान को गंभीरता से नहीं लिया जा सकता। उनकी युद्धोन्मादी खबरें केवल मनोरंजन की सीमाओं में ही रखी जानी चाहिए, लेकिन भारत के अंदर और बाहर मौजूद चीन के दोस्तों की कारस्तानियों को हल्का करके आकने की गुंजाइश नहीं रह गई है। भारत के अंदर अपनी राह से भटके कम्युनिस्ट, जो माओवादी बन गए हैं, देश और समाज को तबाह करने परआमादा हैं। सरकार और सिविल सोसाइटी को उनके खिलाफ कोई भी अभियान चलाने के पहले बार बार सोचना पड़ेगा। नेपाल भी आजकल चीन का बड़ा दोस्त है, क्योंकि बाबूराम और प्रचंड ने चीन की कृपा से ही नेपाल में अब तक संघर्ष चलाया और अब सत्ता का सुख भोग रहे हैं। उनको भी अगर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी से हुक्म मिला तो नेपाल का भी इस्तेमाल भारत के खिलाफ करने में संकोच नहीं करेंगे। सबसे बड़ी दुविधा पाकिस्तान की है। अभी पिछले दिनों पाकिस्तानी प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी चीन की यात्रा पर गए थे। पूरी संभावना है कि वहा उनको भारत के खिलाफ आतंकवादियों को छोड़ देने का फरमान सुना दिया गया हो। पाकिस्तान की हालत यह है कि वह आजकल चीन के एक अधीन राज्य की भूमिका अदा करता है। पाकिस्तान ने बहुत सी राजनीतिक गलतियां की हैं उनमें से एक यह है कि उसने अपने परमाणु कार्यक्रम और अन्य सैनिक साजो सामान के लिए चीन से भारी मदद ली है और अब उसके अहसान के नीचे दबा हुआ है। चीन का पाकिस्तान में इतना ही स्वार्थ था कि वह उसे भारत के खिलाफ इस्तेमाल करना चाहता था। चीन को लगता है कि वह वक्त आ गया है।

जहा तक पाकिस्तान का सवाल है, उसे मालूम है कि भारत के खिलाफ अभियान चलाना उसके हित में नहीं है। आतंकवाद के भस्मासुरी जाल में फंसे पाकिस्तान की यह हैसियत भी नहीं है कि वह भारत के खिलाफ कोई तोड़-फोड़ की गतिविधि चला सके, लेकिन चीन के हुक्म को मना करना अब पाकिस्तान के लिए संभव नहीं है। पाकिस्तान की दुर्दशा का आलम यह है कि उसे भारत के खिलाफ कोई भी कार्रवाई करने पर अमेरिका से डाट पड़ेगी, लेकिन फिर भी चीन के हुक्म को नजरअंदाज कर पाना पाकिस्तान के लिए बहुत ही मुश्किल फैसला होगा। सच्चाई यह है कि आज की तारीख में पाकिस्तान को बुनियादी खर्च के लिए भी अमेरिका से मदद मिल रही है। अमेरिका नहीं चाहता कि पाकिस्तान का ध्यान और कहीं जाए। उसकी पूरी कोशिश है कि वह पाकिस्तान की सारी ताकत का इस्तेमाल तालिबान आतंकियों के खिलाफ करे। अंदर से बिखर चुकी पाकिस्तानी फौज के लिए भारत जैसी किसी संगठित सेना से मुकाबला कर पाना बहुत ही कठिन होगा, क्योंकि वह तो अपने ही देश में सक्रिय आतंकवादियों से कई बार हार का सामना कर चुकी है। इसलिए पाकिस्तान की तरफ से किसी हमले की संभावना तो नहीं है, लेकिन चीन को खुश करने के लिए पाकिस्तान की आईएसआई भारत के अंदर आतंकवादी हमले जरूर करवा सकती है। (दैनिक जागरण से साभार )

Tuesday, October 20, 2009

पाकिस्तान पर अमेरिका का शिकंजा

अमेरिका में पिछले महीने एक ऐसा कानून पास हुआ है जिसके अनुसार पाकिस्तान को हर साल 150 करोड़ डालर की आर्थिक मदद मिला करेगी। सीनेट के सदस्यों-केरी और लूगर के नाम से जुड़ा यह बिल पाकिस्तान की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था के लिए बड़ी राहत का काम करेगा, लेकिन अजीब बात है कि पाकिस्तानी फौज ने इस सहायता पैकेज का विरोध करने का फैसला किया है। उसे आर्थिक सहायता से जुड़ी कुछ शर्तो पर ऐतराज है।
अब तक जो भी अमेरिकी सहायता पाकिस्तान को मिलती थी उससे फौज के आला अफसर मजे करते थे। उनकी कोई जवाबदेही नहीं होती थी। इस रकम का इस्तेमाल भारत के खिलाफ हथियार जुटाने और आतंकवाद फैलाने के लिए भी किया जाता था। इस बार अमेरिका की कोशिश है कि पाकिस्तान में सत्तारूढ़ लोकतांत्रिक सरकार को मजबूत किया जाए। आपरेशन एक्ट (पीस एक्ट) नाम के इस कानून में वास्तव में कुछ शर्तें ऐसी हैं जिन्हें किसी भी स्वतंत्र और संप्रभु देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप माना जा सकता है। एक्ट में व्यवस्था है कि अमेरिकी विदेश मंत्री हर छह महीने बाद एक सर्टिफिकेट जारी करेंगी कि पाकिस्तान ने बीते छह महीने सही तरह काम लिया है, लिहाजा अगली किस्त जारी की जा सकती है। सही तरह काम करने वाले देश के रूप में अमेरिकी विदेश मंत्री की सनद हासिल करने के लिए पाकिस्तान को परमाणु प्रसार और अनधिकृत कारोबार के बारे में जानकारी अमेरिका को देनी पड़ेगी। पाकिस्तानी परमाणु वैज्ञानिक एक्यू खान का नाम लिए बिना उनकी हर गतिविधि पर अमेरिकी नियंत्रण की बात की गई है।
पड़ोसी देशों के खिलाफ आतंकवादी गतिविधियां करने वालों पर पूरी तरह से रोक लगाने की बात भी की गई है। अल-कायदा, तालिबान, लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मुहम्मद का साफ उल्लेख करके यह बता दिया गया है कि अगर भारत के खिलाफ आतंक फैलाया गया तो दाना-पानी बंद कर दिया जाएगा। दुनिया जानती है कि लाहौर के पास स्थित मुरीदके शहर में लश्कर-ए-तैयबा के संस्थापक हाफिज मुहम्मद सईद और जमात-उद्-दावा का मुख्यालय है। इस शहर को अमेरिकी पीस एक्ट में आतंकवाद के प्रमुख केंद्र के रूप में दिखाया गया है। जाहिर है कि अगर पाकिस्तान सरकार हाफिज मुहम्मद सईद को काबू में नहीं रखती तो अमेरिकी खैरात पर रोक लग सकती है। पाकिस्तानी फौज को जो बात सबसे नागवार गुजरी है वह यह कि अमेरिका पाकिस्तान की सरकार और वहां की फौज पर नियंत्रण रखे। सरकार को आगे से सेना के बजट, कमांड की प्रक्रिया, जनरलों का प्रमोशन, रणनीतिक नीति निर्धारण और नागरिक प्रशासन में सेना की भूमिका पर नजर रखनी पड़ेगी और अमेरिका को इसके बारे में जानकारी देनी पड़ेगी। सबसे मुश्किल बात यह है कि पाकिस्तानी सरकार के लिखकर देने मात्र से बात नहीं बनेगी। अमेरिकी विदेश मंत्री की ओर से अच्छे काम की सनद तब मिलेगी जब मौके पर तैनात अमेरिकी अधिकारी इस बात की पुष्टि कर देंगे। सही बात यह है कि अगर अमेरिका इस बात पर अड़ा रहता है तो यह माना जाएगा कि उसने पाकिस्तान की सरकार पर एक प्रकार से कब्जा कर लिया है, लेकिन अमेरिकी प्रशासन की परेशानी यह है कि पिछले तीस साल में पाकिस्तानी शासकों ने अमेरिकी मदद का दुरुपयोग ही किया है।
पिछले दिनों रावलपिंडी में सेना प्रमुख जनरल अशफाक परवेज कियानी ने पाकिस्तानी सेना के शीर्ष कमांडरों की बैठक की अध्यक्षता की। इस बैठक के बाद एक बयान जारी किया गया, जिसमें पीस एक्ट के प्रावधानों पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए कहा गया कि इन प्रावधानों के लागू होने पर पाकिस्तान की राष्ट्रीय सुरक्षा पर उलटा असर पड़ेगा। कमांडरों ने लगभग आदेश देने की भाषा में जरदारी सरकार को कहा कि राष्ट्रीय असेंबली (संसद) की बैठक बुलाएं और इस कानून के खिलाफ राष्ट्रीय प्रतिक्रिया व्यक्त करें। पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) ने भी अमेरिकी मदद के साथ जुड़ी हुई शर्तो का विरोध किया है, जबकि जरदारी सरकार इस कानून से खुश है। पाकिस्तानी राष्ट्रपति के प्रवक्ता फरहत उल्ला बाबर ने कहा कि जो लोग अमेरिकी सहायता का विरोध कर रहे हैं वे वैकल्पिक रास्ता सुझाएं। दक्षिण एशिया और मध्य पूर्व विदेशी मामलों की उपसमिति के उपाध्यक्ष सीनेटर गैरी एकरमैन ने पाक अधिकारियों को हड़काया है कि अमेरिकी मदद किसी मकसद को हासिल करने के लिए दी जा रही है। यह कोई खैरात नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि अगर पाकिस्तान शर्तो का उल्लंघन करता है तो मदद को रद भी किया जा सकता ह

Tuesday, July 28, 2009

अमेरिका के लिए भारत बना खास

अमेरिकी विदेशमंत्री हिलेरी क्लिटन जब तीन दिन की यात्रा पर चीन गयी तो भारत में चिंता की जा रही थी कि नये अमेरिकी हुकमरान की प्राथमिकताएं बदल रही है। चीन को भारत से ज्य़ादा महत्व दिया जा रहा है। लेकिन पांच दिन की भारत यात्रा पर आकर हिलेरी क्लिंटन ने ये बात साफ कर दी है कि भारत अभी भी अमेरिका की नज़र में महत्वपूर्ण देश है।


दुरस्त माहौल की शुरुआत

क्लिटन की यात्रा से साफ हो गया है कि अमेरिका भारत से हर तरह की दोस्ती का रिश्ता रखना चाहता है। भारत और अमेरिका की संभावना के बीच, आज की तारीख़ में सबसे अहम मुद्दा परमाणु समझौता है। हिलेरी क्लिंटन की यात्रा से एक बात बिल्कुल साफ हो गयी है कि परमाणु समझौता और उससे जुड़े मसले में अब किसी तरह की बहस की दरकार नहीं रखते। दोनों ही देशों के बीच पूरी तरह से समझदारी का माहौल है। हिलेरी क्लिंटन की ये यात्रा एक तरह से माहौल दुरुस्त करने की यात्रा थी। यहां आकर उन्होंने देश के बड़े उद्योगपतियों से मुलाकात की उसी होटल में विश्राम किया जिस पर 26/11 के दिन आतंकवादी हमला हुआ था।


उनकी यात्रा शुरू होने के पहले ही पाकिस्तान की सरकार ने स्वीकार कर लिया कि मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले में उसके नागरिकों का हाथ था। जाहिर है पाकिस्तान की हुकूमत ने ये कदम अमेरिकी दबाव में ही उठाया है। विदेशमंत्री हिलेरी ने इस बात को भी जोर-शोर से मीडिया को बतलाया कि अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के कार्यकाल के शुरू होने के बाद भारत के प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह पहले शासनाध्यक्ष होगें जो अमेरिका की यात्रा करेगें अपने दिल्ली प्रवास के दौरान, हिलेरी क्लिंटन ने राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हर इंसान से मुलाकात की।


परमाणु मुद्दे पर बात साफ

विदेशमंत्री एसएम कृष्णा और वे अब हर साल मिला करेगे। अपने कार्यकाल में वो कम से कम दो बार और भारत यात्रा पर आयेगी। परमाणु मुद्दे पर सारी बात साफ कर ली गयी है, खासकर जो दुविधा की स्थिति जी-8 सम्मेलन के बाद पैदा हो गयी थी। इस तरह से अमेरिकी विदेश मंत्री की यात्रा को दोनों देशों की कूटनीतिक संभावनाओं में एक खास मुकाम माना जा रहा है। विदेश मंत्री हिलेरी की इस यात्रा से एक और संदेश बहुत साफ नजर आ रहा है।


अपने देश में कुछ रिटायर्ड सरकारी कर्मचारी है, जो अपने को कूटनीति का सर्वज्ञ मानते है, इनमें से कुछ विदेश मंत्रालय की नौकरी में थे, तो कुछ रक्षा मंत्रालय की नौकरी में। बड़ी संख्या में टेलीविजन चैनलों के खबर के कारोबार में घुस जाने की वजह से इन लोगों का ज्ञान प्रवाहित होता रहता है। सच्ची बात ये है कि ये पुराने सरकारी कर्मचारी ये तो जान सकते है कि किसी कूटनीति समझौता का मतलब क्या है, लेकिन इन्हें ये नहीं पता होता कि राजनीतिक स्तर पर क्या सोचा जा रहा है। इसलिए ये लोग जब संभावनाओं की अभिव्यक्ति करते है, तो सब गड़बड़ हो जाता है।


इन बेचारों की ट्रेनिंग ऐसी नहीं होती कि ये लीक से हटकर सोच सके। इसलिए ये हर परिस्थिति की उल्टी सीधी अभिव्यक्ति करते है। आजकल भी इन लोगों का प्रवचन टीवी चैनलों पर चल रहा है। अमेरिका और भारत की संभावना की बारीकियों को समझने के लिए इन विद्वानों से बचकर रहना होगा। मौजूदा भारत-अमेरिकी संबंधों की सच्चाई यह है कि अमेरिका अब भारत को पाकिस्तान के बराबर का देश नहीं मानता और पाकिस्तान की परवाह किये बिना भारत के साथ संबंध रखना चाहता है।

आपसी हित के लिए संबंध

पाकिस्तान अमेरिका पर निर्भर एक देश है अगर अमेरिका नाराज़ हो जाएं तो पाकिस्तान मुसीबत में पड़ सकता है क्योंकि उसका खर्चा-पानी अमेरिका की मदद से ही चल रहा है। लेकिन भारत के साथ अमेरिका के संबंध आपसी हित की बुनियाद पर आधारित है। शायद इसलिए अमेरिकी कूटनीति की कोशिश है कि भारत के साथ सामरिक रिश्ते बनाएं। इस वक्त देश में ऐसी सरकार है जो अमेरिका से अच्छा रिश्ता बनाने के लिए कुछ भी कर सकती है इसके पहले की भाजपा की अगुवाई वाली सरकार तो अमेरिका की बहुत बड़ी समर्थक थी।

वामपंथी पार्टी आजकल अपने अंदरूनी लड़ाई के चलते ही परेशान है इसलिए भारत अमेरिका सामरिक रिश्तों ने बहुत आगे तक बढ़ जाने की आशंका है। ये देश की आत्मनिर्भरता और सम्मान के लिए ठीक नहीं होगा। अगर ये हो गया तो ख़तरा है कि अमेरिकी फौज के जनरल भारत के राष्ट्रपति से भी उसी तरह बात करने लगेंगे जिस तरह वे पाकिस्तान राष्ट्रपति मुर्शरफ और जरदारी के साथ करते है। पूरी कोशिश की जानी चाहिए कि भारत और अमेरिका के बीच कोई सामरिक समझौता न हो जाए।