Saturday, October 3, 2009
हिंद स्वराज के सौ साल
चालीस साल की उम्र में मोहनदास करमचंद गांधी ने 'हिंद स्वराज' की रचना की। 1909 में लिखे गए इस बीजक में भारत के भविष्य को संवारने के सारे मंत्र निहित हैं। अपनी रचना के सौ साल बाद भी यह उतना ही उपयोगी है जितना कि आजादी की लड़ाई के दौरान था। इसी किताब में महात्मा गांधी ने अपनी बाकी जिंदगी की योजना को सूत्र रूप में लिख दिया था। उनका उद्देश्य सिर्फ देश की सेवा करने का और सत्य की खोज करने का था। उन्होंने भूमिका में ही लिख दिया था कि अगर उनके विचार गलत साबित हों, तो उन्हें पकड़ कर रखना जरूरी नहीं है। लेकिन अगर वे सच साबित हों तो दूसरे लोग भी उनके मुताबिक आचरण करें। उनकी भावना थी कि ऐसा करना देश के भले के लिए होगा।
अपने प्रकाशन के समय से ही हिंद स्वराज की देश निर्माण और सामाजिक उत्थान के कार्यकर्ताओं के लिए एक बीजक की तरह इस्तेमाल हो रही है। इसमें बताए गए सिद्घांतों को विकसित करके ही 1920 और 1930 के स्वतंत्रता के आंदोलनों का संचालन किया गया। 1921 में यह सिद्घांत सफल नहीं हुए थे लेकिन 1930 में पूरी तरह सफल रहे। हिंद स्वराज के आलोचक भी बहुत सारे थे। उनमें सबसे आदरणीय नाम गोपाल कृष्ण गोखले का है। गोखले जी 1912 में जब दक्षिण अफ्रीका गए तो उन्होंने मूल गुजराती किताब का अंग्रेजी अनुवाद देखा था। उन्हें उसका मजमून इतना अनगढ़ लगा कि उन्होंने भविष्यवाणी की कि गांधी जी एक साल भारत में रहने के बाद खुद ही उस पुस्तक का नाश कर देंगे। महादेव भाई देसाई ने लिखा है कि गोखले जी की वह भविष्यवाणी सही नहीं निकली। 1921 में किताब फिर छपी और महात्मागांधी ने पुस्तक के बारे में लिखा कि "वह द्वेष धर्म की जगह प्रेम धर्म सिखाती है, हिंसा की जगह आत्म बलिदान को रखती है, पशुबल से टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है। उसमें से मैंने सिर्फ एक शब्द रद्द किया है। उसे छोड़कर कुछ भी फेरबदल नहीं किया है। यह किताब 1909 में लिखी गई थी। इसमें जो मैंने मान्यता प्रकट की है, वह आज पहले से ज्यादा मजबूत बनी है।"
महादेव भाई देसाई ने किताब की 1938 की भूमिका में लिखा है कि '1938 में भी गांधी जी को कुछ जगहों पर भाषा बदलने के सिवा और कुछ फेरबदल करने जैसा नहीं लगाÓ। हिंद स्वराज एक ऐसे ईमानदार व्यक्ति की शुरुआती रचना है जिसे आगे चलकर भारत की आजादी को सुनिश्चित करना था और सत्य और अहिंसा जैसे दो औजार मानवता को देना था जो भविष्य की सभ्यताओं को संभाल सकेंगे। किताब की 1921 की प्रस्तावना में महात्मा गांधी ने साफ लिख दिया था कि 'ऐसा न मान लें कि इस किताब में जिस स्वराज की तस्वीर मैंने खड़ी की है, वैसा स्वराज्य कायम करने के लिए मेरी कोशिशें चल रही हैं, मैं जानता हूं कि अभी हिंदुस्तान उसके लिए तैयार नहीं है।..... लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि आज की मेरी सामूहिक प्रवृत्ति का ध्येय तो हिंदुस्तान की प्रजा की इच्छा के मुताबिक पालियामेंटरी ढंग का स्वराज्य पाना है।"
इसका मतलब यह हुआ कि 1921 तक महात्मागांधी इस बात के लिए मन बना चुके थे कि भारत को संसदीय ढंग का स्वराज्य हासिल करना है। यहां यह जानना दिलचस्प होगा कि आजकल देश में एक नई तरह की तानाशाही सोच के कुछ राजनेता यह साबित करने के चक्कर में हैं कि महात्मा गांधी तो संसदीय जनतंत्र की अवधारणा के खिलाफ थे। इसमें दो राय नहीं कि 1909 वाली किताब में महात्मा गांधी ने ब्रिटेन की पार्लियामेंट की बांझ और बेसवा कहा था (हिंद स्वराज पृष्ठ 13)। लेकिन यह संदर्भ ब्रिटेन की पार्लियामेंट के उस वक्त के नकारापन के हवाले से कहा गया था। बाद के पृष्ठों में पार्लियामेंट के असली कर्तव्य के बारे में बात करके महात्मा जी ने बात को सही परिप्रेक्ष्य में रख दिया था और 1921 में तो साफ कह दिया था कि उनका प्रयास संसदीय लोकतंत्र की तर्ज पर आजादी हासिल करने का है। यहां महात्मा गांधी के 30 अप्रैल 1933 के हरिजन बंधु के अंक में लिखे गए लेख का उल्लेख करना जरूरी है। लिखा है, ''सत्य की अपनी खोज में मैंने बहुत से विचारों को छोड़ा है और अनेक नई बातें सीखा भी हूं। उमर में भले ही मैं बूढ़ा हो गया हूं, लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता कि मेरा आतंरिक विकास होना बंद हो गया है।.... इसलिए जब किसी पाठक को मेरे दो लेखों में विरोध जैसा लगे, तब अगर उसे मेरी समझदारी में विश्वास हो तो वह एक ही विषय पर लिखे हुए दो लेखों में से मेरे बाद के लेख को प्रमाणभूत माने।" इसका मतलब यह हुआ कि महात्मा जी ने अपने विचार में किसी सांचाबद्घ सोच को स्थान देने की सारी संभावनाओं को शुरू में ही समाप्त कर दिया था।
उन्होंने सुनिश्चित कर लिया था कि उनका दर्शन एक सतत विकासमान विचार है और उसे हमेशा मानवता के हित में संदर्भ के साथ विकसित किया जाता रहेगा।
महात्मा गांधी के पूरे दर्शन में दो बातें महत्वपूर्ण हैं। सत्य के प्रति आग्रह और अहिंसा में पूर्ण विश्वास। चौरी चौरा की हिंसक घटनाओं के बाद गांधी ने असहयोग आंदोलन को समाप्त कर दिया था। इस फैसले का विरोध हर स्तर पर हुआ लेकिन गांधी जी किसी भी कीमत पर अपने आंदोलन को हिंसक नहीं होने देना चाहते थें। उनका कहना था कि अनुचित साधन का इस्तेमाल करके जो कुछ भी हासिल होगा, वह सही नहीं है। महात्मा गांधी के दर्शन में साधन की पवित्रता को बहुत महत्व दिया गया है और यहां हिंद स्वराज का स्थाई भाव है। लिखते हैं कि अगर कोई यह कहता है कि साध्य और साधन के बीच में कोई संबंध नहीं है तो यह बहुत बड़ी भूल है। यह तो धतूरे का पौधा लगाकर मोगरे के फूल की इच्छा करने जैसा हुआ। हिंद स्वराज में लिखा है कि साधन बीज है और साध्य पेड़ है इसलिए जितना संबंध बीज और पेड़ के बीच में है, उतना ही साधन और साध्य के बीच में है। हिंद स्वराज में गांधी जी ने साधन की पवित्रता को बहुत ही विस्तार से समझाया है। उनका हर काम जीवन भर इसी बुनियादी सोच पर चलता रहा है और बिना खडूग, बिना ढाल भारत की आजादी को सुनिश्चित करने में सफल रहे।
हिंद स्वराज में महात्मा गांधी ने भारत की भावी राजनीति की बुनियाद के रूप में हिंदू और मुसलमान की एकता को स्थापित कर दिया था। उन्होंने साफ कह दिया कि, ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें तो उसे भी सपना ही समझिए।.... मुझे झगड़ा न करना हो, तो मुसलमान क्या करेगा? और मुसलमान को झगड़ा न करना हो, तो मैं क्या कर सकता हूं? हवा में हाथ उठाने वाले का हाथ उखड़ जाता है। सब अपने धर्म का स्वरूप समझकर उससे चिपके रहें और शास्त्रियों व मुल्लाओं को बीच में न आने दें, तो झगड़े का मुंह हमेशा के लिए काला रहेगा।ÓÓ (हिंद स्वराज, पृष्ठ 31 और 35) यानी अगर स्वार्थी तत्वों की बात न मानकर इस देश के हिंदू मुसलमान अपने धर्म की मूल भावनाओं को समझें और पालन करें तो आज भी देश में अमन चैन कायम रह सकता है और प्रगति का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है।
इस तरह हम देखते है कि आज से ठीक सौ वर्ष पहले राजनीतिक और सामाजिक आचरण का जो बीजक महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज के रूप में लिखा था, वह आने वाली सभ्यताओं को अमन चैन की जिंदगी जीने की प्रेरणा देता रहेगा।
Wednesday, September 30, 2009
भ्रष्ट अफ़सरों की बेनामी संपत्ति जब्त हो
केंद्र सरकार भ्रष्टाचार पर निर्णायक हमला करने की तैयारी में है। केंद्रीय कानून मंत्री वीरप्पा मोइली का कहना है कि भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए बनाए गए कानून में संशोधन करके और धारदार बनाने की योजना पर काम चल रहा है। अगर मोइली अपने मिशन में सफल होते हैं तो सरकारी अफसरों को रिश्वत लेने के पहले बार-बार सोचना पड़ेगा हालांकि रिश्वत लेना और देना जुर्म है लेकिन इसके लिए सजा का प्रावधान बहुत मामूली हैँ अभी तो पांच साल तक की कारावास की सजा की व्यवस्था है। घूसखोर सरकारी अफसर सोचता है कि अगर 100-200 करोड़ रुपये इकट्ठा कर लिए जाएं तो कुछ साल जेल में रहकर फिर वापसे आने पर बेइमानी से इकट्ठा किए गए धन का उपयोग बाकी जिंदगी आराम से किया जा सकता है।
लेकिन अगर जेल की सजा के साथ-साथ चोरी बेईमानी से उगाहा गया धन भी ज़ब्त होने लगे तो घुसखोर अधिकारी में कानून की दहशत पैदा होगी और भ्रष्टाचार पर काबू पाया जा सकेगा। मामला अभी बहस के दौर में है। मौजूदा भ्रष्टाचार निरोधक एक्ट में अपराध साबित होने पर 5 से 7 साल तक की सजा तो हो सकती है लेकिन सरकार के पास अपराधी अफसर की संपत्ति जब्त करने का अधिकार नहीं है। मंत्री के अनुसार सरकार भ्रष्टाचार निरोधी कानून में संशोधन करने पर गंभीरता से विचार कर रही है भ्रष्टï साधनों से अर्जित संपत्ति को भी ज़ब्त किया जा सके।
सरकारी अफसरों के भ्रष्टाचार के मामले में बिहार का नाम अब तक सर्वोपरि रहा है। बिहार सरकार में पिछले कई दशकों से व्याप्त भ्रष्टाचार से परेशान राज्य के मुख्य मंत्री नीतिश कुमार पिछले दिनों कानून मंत्री वीरप्पा मोइली से मिले थे। उन्होंने सुझाव दिया कि एक ऐसा कानून बनना चाहिए जिससे भ्रष्टाचार के मामले में जब जांच अधिकारी चार्जशीट दाखिल कर दे, उसी वक्त अभियुक्त सरकारी अधिकारी की भ्रष्टï साधनों से अर्जित की गई संपत्ति जब्त कर ली जाय। दरअसल राज्य सरकार इस तरह के एक कानून के बारे में विचार कर रही है। अफसर बिरादरी इस तरह के कानून की चर्चा मात्र से सकते में हैं।
अगर कहीं यह कानून बन गया तो सरकारी नौकरी के रास्ते अरबपति बनने के सपनों की तो अकाल मृत्यु हो जायेगी। नीतीश कुमार के इस सुझाव के बाद केंद्र सरकार में तैनात सरकारी अफसरों ने प्रस्तावित कानून में अड़ंगा लगाना शुरू कर दिया है। उनका कहना है कि इस कानून के सहारे नेता लोग अफसरों से बदला लेंगे और ईमानदारी से काम करना मुश्किल हो जाएगा। सवाल यह है कि ईमानदारी से काम करते कितने लोग हैं। इस विषय पर सिविल सेवा के एक शीर्ष अधिकारी से बात करने पर तो तसवीर बिलकुल दूसरी नज़र आई। पिछले करीब 35 साल से सरकारी अधिकारियों के जीवन को बहुत करीब से देख रहे इस अधिकारी का जीवन बहुत ही पवित्र है।
राजनीतिक सत्ता के कई मठाधीशों ने इनको भ्रष्टाचार निरोधक कानून में फंसाने की कई बार कोशिश की लेकिन एक भी केस नहीं मिला। सरकारी तनख्वाह लेते हैं, सरकारी मान्यता प्राप्त सुविधाएं हैं और जीवन अपनी शर्तों पर जीते हैं। उनका कहना है कि वर्तमान भ्रष्टाचार निरोधी कानून में संपत्ति जब्ती की व्यवस्था करने से भ्रष्टाचार रोकने में कोई मदद नहीं मिलेगी लेकिन रिकार्ड के लिए तो इन अफसरों की संपत्ति उतनी ही होती है जितनी सिविल सर्विस रूल्स के तहत होनी चाहिए। इनकी घूसखोरी वाली सारी संपत्ति बेनामी होती है।
कानून ऐसा होना चाहिए कि उस बेनामी संपत्ति को सरकार जब्त कर सके। लेकिन बेनामी संपत्ति को जब्त करना आसान इसलिए नहीं होगा कि उसका पता कैसे चलेगा। इस ईमानदार अफसर का सुझाव है कि अभियुक्त अधिकारी का नार्को टेस्ट कराया जाय जिससे वह अपनी सारी बेनामी संपत्ति और जमीन का पता बता दे और उस संपत्ति के बारे में गहराई से जांच करवाकर उसको जब्त कर लिया जाय। बेनामी संपत्ति के मामलों में अकसर देखा गया है कि जिसके नाम पर संपत्ति खरीदी गई रहती है, वह व्यक्ति या संस्था कही होती ही नहीं और इस संपत्ति पर दावेदारी नहीं की जा सकती। ऐसी हालत में लावारिस संपत्ति को जब्त करना सरकार के अधिकार क्षेत्र में है।
कई बार यह बेईमान अफसर संपत्ति की रजिस्ट्री नौकरों या रिश्तेदारों के नाम करवाते हैं। उनकी भी विधिवत जांच की जा सकती है और संपत्ति जब्त की जा सकती है। बेनामी संपत्ति का पता लगाने का दूसरा तरीका यह है कि सरकारी अधिकारियों की संपत्ति की घोषणा को सार्वजनिक डॉमेन में डाल दिया जाय, किसी लोकप्रिय वेबसाइट पर डाल दिया जाय और जनता से सुझाव मांगे जायें कि जो सूचना अफसर ने दी है क्या वह सच है। जानकार बताते हैं कि देश के कोने कोने से ख़बर आ जायेगी कि अमुक अफसर की जमीन कहां है और उसका शापिंग मॉल कहां है, या उसका कारखाना कहां है। इस सूचना के आधार पर जांच को आगे बढ़ाया जा सकता है।
संपत्ति की जब्ती को राजनीतिक नेताओं की ओर से अफसरों पर नकेल कसने के औजार के रूप में इस्तेमाल होने की संभावना को ईमानदार अफसरों ने बिलकुल बोगस बताया। उनका कहना है कि राजनेताओं की घूसखोरी और बेईमानी की सारी व्यवस्था का जिम्मा भ्रष्ट अधिकारियों के मत्थे ही है। यही लोग नेताओं मंत्रियों के भ्रष्टाचार के कामिसार के रूप में काम करते हैं और राजनीतिक आकाओं के भ्रष्टाचार के जंगल मे अपनी बेईमानी की फुलवारी सजाते हैं।
अगर अफसरों में बेईमानी और घूसखोरी के प्रति खौफ पैदा हो गया तो राजनेताओं के भ्रष्टाचार पर अपने आप लगाम लग जाएगी क्योंकि भ्रष्टाचार में अफसर की रूचि कम हो जायेगी। सूचना की क्रांति और मीडिया के जनवादी करण के इस युग में भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम में इंटरनेट भी बड़ी भूमिका बना सकती है और उसका इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
Saturday, September 26, 2009
लाल बुझक्कड़ी कूटनीति और गद्दाफी
संयुक्त राष्ट्र की जनरल असेंबली में अपने 100 मिनट के भाषण में कर्नल गद्दाफी ने साबित कर दिया कि उनके दिमागी संतुलन के बारे में प्रचलित बहुत सारी कहानियों में सच्चाई भी हो सकती है क्योंकि यह आरोप नहीं लगाया जा सकता कि उनको किसी ने मजबूर किया था कि वे वह भाषण दें जो उन्होंने वाशिंगटन में दिया। गौर करने की बात यह है कि उन्हें पहली बार इस विश्व संस्था में भाषण देने का मौका मिला। भाषण हस्तलिखित यानी गद्दाफी ने खुद ही अपने दिमाग का इस्तेमाल करके वहां वह प्रलाप किया, जिसके बाद उनके मानसिक असंतुलन के बारे में कोई शक नहंी रह जाता।
इस बात में दो राय नहीं है कि कर्नल गद्दाफी को अंतर्राष्टï्रीय संबंधों की बारीकियों की कोई जानकारी नहीं है।
क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय मंच पर किसी ऐसे देश के मसले को उठाना अपरिपक्वता की निशानी है लेकिन कूटनीति की बारीकियों से अनभिज्ञ गद्दाफी के लिए इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अपनी इसी सोच के चलते उन्होंने अपने भाषण में कश्मीर के मामले पर चर्चा की। सच्चाई यह है कि गद्दाफी या उनके देश लीबिया का कश्मीर समस्या से कोई लेना देना नहीं है लेकिन उनका कश्मीर मामले पर अपने आपको एक पार्टी बना देना परले दर्जे की राजनीतिक अपरिपक्तवता है। ऐसा करके उन्होंने भारत को तो नाराज किया ही, अपने प्रिय मित्र पाकिस्तान को भी बहुत खुश नहीं किया क्योंकि पाकिस्तान भी कश्मीर को एक स्वतंत्र देश के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं है, वह तो उसे अपने साथ मिलाना चाहता है। जहां तक भारत की बात है कश्मीर उसका एक राज्य है जो भारत के बंटवारे के बाद कश्मीर के राजा हरिसिंह की दस्तखत के बाद भारत का हिस्सा बना था।
कश्मीर के कुछ इलाके पर पाकिस्तान का कब्जा है जिसे वापस लेने के लिए भारत कूटनीतिक स्तर पर लगातार प्रयास कर रहा है। कश्मीर मसले पर मान न मान, मैं तेरा मेहमान की तर्ज पर इंट्री लेकर गद्दाफी ने यही साबित किया है कि वे कूटनीति की बारीकियों से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं। मुअम्मर गद्दाफी ने संयुक्त राष्ट्र में अपने भाषण के बाद अपने दुश्मनों की संख्या खूब बढ़ा ली है। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को अपमानित करते हुए उसे 'आतंकवादी परिषद' बताया और कहा कि अगर सुरक्षा परिषद का विस्तार हुआ तो दुनिया में गरीबी और नाइंसाफी बढ़ेगी और तनाव में इजाफा होगा। ऐसा लगता है कि जिस मनोदशा के वशीभूत होकर गद्दाफी भाषण कर रहे थे, उसमें कोई तार्किक बात ढूंढना ठीक नहीं होगा।
पता नहीं कैसे उन्होंने अनुमान लगा लिया कि आने वाले वक्त में इटली, जर्मनी, इंडोनेशिया, भारत, पाकिस्तान, फिलीपीन, जापान, अर्जेंटीना और ब्राजील के बीच बहुत प्रतिस्पर्धा होगी। उनके दिमाग में कहीं से यह बात आ गई है कि अगर भारत को सुरक्षा परिषद में जगह दी गई तो पाकिस्तान भी जगह मांगेगा। बहुत पहले, भारत और पाकिस्तान को एक तराजू पर तौलना अमरीकी विदेश नीति की एक प्रमुख धारा हुआ करती थी लेकिन भारत के चौतरफा विकास के बाद अब अमरीका इस नीति को छोड़ चुका है।
यहां तक कि पाकिस्तान भी अब अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है और वह भी अब अपने को भारत के बराबर नहीं मानता। पब्लिक में इस तरह की बात करनी पड़ती है क्योंकि वह पाकिस्तानी शासकों की आतंरिक राजनीति की मजबूरी है। इसलिए पाकिस्तान और भारत को बराबर करने की कोशिश करके गद्दाफी अपने कूटनीतिक अज्ञान का ही परिचय दे रहे थे। गद्दाफी की कल्पना शक्ति ने कुछ और भी कारनामे दिखाए। उन्होंने मांग की कि सदियों तक अफ्रीका को उपनिवेश बनाए रखने वाले मुल्क 70.77 खरब डॉलर का मुआवजा दें। पता नहीं कहां से उन्होंने यह आंकड़ा अर्जित किया था।
बहरहाल जिस रौ में वे बोल रहे थे, उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि उनके मुंह से कुछ भी निकल सकता था और वे उन आंकड़ों के प्रति प्रतिबद्घ तो बिलकुल नहीं नजर आ रहे थे। लेकिन उनकी कल्पना शक्ति की उड़ान यहीं खत्म होने वाली नहीं थी। उन्होंने उन डाकुओं का भी समर्थन किया जो सोमालिया के समुद्री क्षेत्र और उसके बाहर के इलाकों में जहाजों केा लूटने का धंधा कर रखा है। उन्होंने कहा कि डाके का काम करने वाले लोग डाकू नहीं हैं। उन्होंने स्वीकार किया वास्तव में पुराने वक्तों में लीबिया ने वहां जाकर सोमालिया के लोगों की जलसंपदा का हरण किया था इसलिए उनका अपना देश भी डाकू है। लेकिन इसके बात गद्दाफी फिर बहक गए और उन्होंने भारत, जापान और अमरीका को भी जल डाकू घोषित कर दिया।
विश्व बिरादरी के लिए मुश्किल की बात यह है कि इस मानसिक दशा का व्यक्ति आजकल अफ्रीकी देशों के संगठन का भी अध्यक्ष है और अगर वह बहकी बहकी बातें करता रहेगा तो कूटनीति के मैदान में अफ्रीकी देशों का बहुत नुकसान होगा क्योंकि अंतर्राष्टï्रीय मंच पर उल जलूल बात करने वाले की बात को कोई गंभीरता से नहीं लेता। हो सकता है कि संयुक्त राष्टï्र के मंच पर पहली बार अवसर मिलने के बाद गद्दाफी भाव विह्वïल हो गए हों और जो भी मन में आया बोलने लगे हों। यह भी हो सकता है कि उन्हें यह मुगालता हो कि संयुक्त राष्ट्र के मंच पर कुछ भी कह देने का कोई मतलब नहीं है, इसलिए दिल खोलकर भड़ास निकाल लो।
ऐसा इसलिए कि अपने इसी भाषण में गद्दाफी ने संयुक्त राष्ट्र जनरल असेंबली की तुलना लंदन के हाइड पार्क के 'स्पीकर्स कार्नर' से की जहां कोई भी आकर भाषण कर सकता है और अपनी भड़ास निकाल सकता है यानी उन्होंने खुद ही स्वीकार कर लिया कि वे एक प्रलाप कर रहे हैं जिसका कोई भी मतलब नहीं है। उनका यह विश्वास सच लगता है कि उनके लंबे भाषण को सुनने के लिए बहुत कम लोग बचे थे।
आतंकवादी का कोई मजहब नहीं होता
पाकिस्तान में 70 के दशक में जनरल जिया उल हक ने सत्ता संभाली तब से ही भारत में आतंक फैलाने के लिए राह भटके लोगों का इस्तेमाल होता रहा है। पंजाब में दस साल तक आतंक का जो राज चला उसके पीछे पाकिस्तानी जनरल और तानाशाह जिया उल हक का मुख्य हाथ था। लेकिन भारत के पंजाब में खून की होली खेल रहे लोग ज्यादातर सिख थे। दिल्ली में एक माओवादी नेता को बाद को पकड़ा गया है। आंध्र्रप्रदेश, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में चल रहे आतंकवादी कारनामों को चलाने वाले संगठन कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया (माओवादी) की सबसे महत्वपूर्ण नीति निर्धारक संस्था, पोलिट ब्यूरो के सदस्य कोबाद गांधी का धर्म पारसी है। माले गांव में विस्फोट करने वाले संगठन के लोग प्रज्ञा ठाकुर और रमेश पुरोहित हिंदू हैं।
अयोध्या की बाबरी मस्जिद को विध्वंस करने पर आमादा भीड़ में लगभग सभी हिंदू थे। प्रवीन तोगडिय़ा, अशोक सिंघल सभी हिंदू हैं और आतंक के जरिए अपनी बात मनवा लेने के लिए हिंसा का सहारा लेते है। कश्मीर में आतंक फैलाने वाले और पाकिस्तान की आई.एस.आई की मदद से तबाही करने वाले लोग मुसलमान हैं। भारतीय संसद पर हमला करने वाले लोग ज्यादातर मुसलमान थे, बजरंग दल का हर सदस्य हिंदू है। गुजरात 2002 के नरसंहार को अंजाम देने वाले लोग भी हिंदू ही बताए गए हैं। इस तरह हम देखते हैं कि आतंकवाद के जरिए अपना लक्ष्य हासिल करने वाले व्यक्ति का उद्देश्य राजनीतिक होता है जिसको पूरा करने के लिए वह उन लोगों का इस्तेमाल करता है जो पूरी बात को समझ नहीं पाते।
पूरी दुनिया में आतंक के तरह तरह के रूप देखे गए है। जब अमरीका में नागरिक अधिकारों के लिए लड़ाई शुरू हुई तो शुरुआती काम अमरीका के दक्षिणी शहर, नेशविल में हुआ। तीन साल तक भारत में रहकर जब जेम्स लासन नाम के व्यक्ति ने काम शुरू किया तो उसका सबसे बड़ा हथियार महात्मा गांधी का सत्याग्रह था। इसके पहले अमरीका के अफ्रीकी मूल वाले नागरिक, मानवाधिकारों की लड़ाई के लिए हिंसक तरीके अपनाते थे लेकिन जेम्स लासन ने महत्मा गांधी की तरकीब अपनाई और लड़ाई सिविल नाफरमानी के सिद्घांत पर केंद्रित हो गई। वहां के क्लू, क्लास, क्लान के श्वेत गुंडों ने इन लोगों को बहुत मारा-पीटा, आतंक का सहारा लिया लेकिन लड़ाई चलती रही, शांति ही उस लड़ाई का स्थाई भाव था।
बाद में मार्टिन लूथर किंग भी इस संघर्ष में शामिल हुए और अमरीका में अश्वेत मताधिकार सेग्रेगेशन आदि समस्याएं हल कर ली गईं। अमरीकी मानवाधिकारों को दबा देने की कोशिश कर रहे सभी अश्वते गुंडे आतंक का सहारा ले रहे थे और ईसाई धर्म में विश्वास करते थे। मतलब यह हुआ कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता और आतंकवाद को राजनीतिक हथियार बनाने वाले व्यक्ति का उद्देश्य हमेशा राजनीतिक होता है और वह भोले भाले लोगों को अपने जाल में फंसाता है। इसलिए आतंकवाद की मुखालिफत करना तो सभ्य समाज का कर्तव्य है लेकिन आतंकवाद को किसी धर्म से जोडऩे की कोशिश करना जहालत की इंतहा है क्योंकि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता। आतंकवाद अपने आप में एक राजनीतिक विचारधारा बनती जा रही है।
इसे हर हाल में रोकना होगा। जहां तक भारत का सवाल है, उसने आतंकवाद की राजनीति के चलते बहुत नुकसान उठाया है। महात्मा गांधी की हत्या करने वाले भी आतंकवादी थे और पूरी तरह से राजनीतिक रूप से प्रशिक्षित थे। उनके मुख्य साजिश कर्ता वी.डी. सावरकर थे जो हिन्दुत्व के सबसे बड़े अलंबरदार थे। यहां यह समझ लेना जरूरी है कि हिंदू धर्म का सावरकर के हिंदुत्व से कोई लेना देना नहीं है। इसके बाद भी इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्याएं भी आतंकवादी कारणों से हुईं। इंदिरा गांधी के हत्यारे सिख थे राजीव गांधी की हत्या हिन्दू आतंकवादियों ने की थी। मतलब यह हुआ कि आतंकवाद को राजनीतिक हथियार बनाने वाले का कोई मजहब नहीं होता। वह सीधे सादे लोगों की भावनाओं को उभारता है और उसका इस्तेमाल अपने मकसद को हासिल करने के लिए करता है।
सवाल यह है कि आतंकवाद को खत्म करने के लिए क्या किया जाय। जवाब साफ है कि किसी भी आतंकवादी को ऐसे मौके न दिए जांय जिससे कि वह मामूली आदमी की भावनाओं को भड़का सके। सरकारों को सख्त होना पड़ेगा और न्यायपूर्ण तरीके से फैसले करना पड़ेगा। उदाहरण के लिए अगर उस वक्त की सरकारों ने 6 दिसंबर 1992 के दिन अपने कर्तव्य का पालन इंसाफ को ध्यान में रखकर किया होता तो मुस्लिम नवयुवकों का एक बड़ा वर्ग आतंकवादियों की बात को न मानता। लेकिन साफ दिख रहा था कि उत्तरप्रदेश की कल्याण सिंह सरकार और केंद्र की नरसिम्हा राव सरकार आतंकवादियों के साथ मिली हुई हैं तो नौजवान भटका। इसमें से ही कुछ लोग आंतकवादियों के हत्थे चढ़ गये और इस्तेमाल हो गये।
1992-93 के मुंबई विस्फोट का सारा विस्फोटक मुंबई में तस्करी के चैनल से आया था और उसमें कस्टम अधिकारियों का हाथ था। स्वर्गीय मधु लिमये ने पता लगाया था कि वे सारे कस्टम वाले हिंदू थे। यह लोग पैसे की लालच में काम कर रहे थे। पटना में पकड़ा गया, आई.एस.आई. का कार्यकर्ता भी हिंदू है और पैसे की लालच में था। पंजाब में भी आतंकवाद शुरू तो हुआ पाकिस्तान की शह पर लेकिन अपने आखरी दिनों में पंजाब का आतंकवाद शुद्घ कारोबार बन गया था। इसलिए आतंकवाद को किसी भी मजहब से जोडऩा बहुत बड़ी गलती होगी।
Thursday, September 24, 2009
इस जिन्ना को भी तो देखिए...
पिछले कई वर्षों से भाजपा की कोशिश थी कि सरदार पटेल को अपने हीरो के रुप में पेश किया जाए। ये काम काफी सुनियोजित तरीके से चल रहा था और ये संभावना थी कि नेहरू गांधी परिवार के वंशजों में सरदार पटेल के प्रति जो लापरवाह रवैया है, उससे भाजपा की योजना सफल भी हो जाती और किसी दिन सरदार पटेल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के अध्यक्ष हो जाते। लेकिन जसवंत सिंह द्वारा अपनी किताब में सरदार पटेल जिन्ना की तुलना में कमतर करने की कोशिश ने राजनीति में तूफान खड़ा कर दिया और सरदार पटेल की मुखालफत के अपराध में भाजपा को जसवंत सिंह को पार्टी की आलोचना करके जसवंत सिंह ने पार्टी की मुख्य विचारधारा का विरोध किया है।
इस घटना ने बहुत सारे गड़े मुरदे उखाड़ दिए हैं और एक बार फिर सिद्ध हो गया है कि सरदार पटेल का संघ की विचारधारा से कोई लेना-देना नहीं था। वो तो संघ विरोधी थे और गृह मंत्री के रुप में संघ पर प्रतिबंध उनके आदेश से ही लगाया गया था। दुनिया को ये भी मालूम हो गया कि सरदार पटेल के ही आदेश पर उस वक्त के सरसंघ चालक एम एस गोलवलकर को गांधी जी की हत्या के मुकदमें वाले मामले में गिरफ्तार कर लिया गया था और ये भी कि संघ से पाबंदी हटाने के लिए सरदार पटेल ने गोलवरकर ने अंडरटेकिंग लिखवाई थी। यानि अगर सरदार पटेल के मन में संघ के प्रति जरा भी मुहब्बत होती को वो मौका पाते ही उसके सरसंघ चालक को इतना जलील न करते। साफ है कि जसवंत सिंह ने ये किताब लिखकर भाजपा के लिए बड़ी मुसीबत खड़ी कर दी है।
जसवंत सिंह की किताब में कुछ भी ऐसा नहीं है जो पहले से मालूम न हो, लेकिन भारत और पाकिस्तान के बंटवारे को लेकर नए सिरे से समीक्षा का माहौल पैदा करने में इस किताब का बड़ा योगदान है। पाकिस्तान के सबसे बड़े अंग्रेजी अखबार डॉन में वहां के जाने-माने लेखक माहिर अली साहब ने एक नया तथ्य पेश किया है...उनका दावा है कि मुहम्मद अली जिन्ना देश का बंटवारा बिल्कुल नहीं चाहते थे, वो पाकिस्तान की बात इसलिए कर रहे थे कि कांग्रेसी डर जाएं और उनकी हर बात मान लें। उनकी इच्छा थी कि देश आजाद हो और एक ढीला-ढाला फेडरेशन बन जाए जिसमें मुस्लिम इलाकों की चैधराहट जिन्ना के पास रहे और वो जो चाहें करवा सकें। दुनिया जानती है कि बंटवारे के बाद जिन्ना को जो पाकिस्तान मिला वो उससे संतुष्ट नहीं थे और उन्होंने कहा कि मुझे एक मॉथ ईटेन पाकिस्तान यानी कीड़ों से खाया हुआ पाकिस्तान मिला है। जिन्ना को उम्मीद थी कि कश्मीर, जूनागढ़, हैदराबाद वगैरह भी उनको पाकिस्तान के हिस्से के रूप में मिल जाएगा।
जाहिर है पाकिस्तान की मांग जिन्ना की अदूरदर्शिता का परिणाम थी। वो कभी किसी संघर्ष में शामिल नहीं हुए थे इसलिए उनको अंदाजा नहीं था कि आजादी कितनी मुश्किल से मिली थी। अंग्रेजों की मदद और प्रेरणा से मुल्क का बंटवारा तो हो गया लेकिन बाद में जिन्ना को बहुत पछतावा हुआ बंटवारे के तुरंत बाद पाकिस्तान टाइम्स ने जिन्ना को जहाज पर बैठाकर उन इलाकों के हवाई सर्वे कराए जहां शरणार्थी शिविर लगाए गए थे। लोगों की बदहाली देखकर जिन्ना सन्न रह गए और कहा, “या खुदा, ये मैंने क्या कर डाला?”
विख्याद इतिहासकार अलेक्स टुंजेलमान ने अपनी किताब, इंडिया समर- सीक्रेट हिस्ट्री ऑफ द एंड ऑफ ऐन एम्पायर में लिखा है कि पाकिस्तान की स्थापना में जिन्ना से ज्यादा अंग्रेजों का योगदान है। टुंजेलमान ने लिखा है, “अगर जिन्ना पाकिस्तान के कायदे आजम हैं तो ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल को पाकिस्तान का चाचा माना जाना चाहिए, क्योंकि इस्लामी राज्य गठित करके कांग्रेस को औकात बताने की साजिश उन्ही की थी।” टुंजेमान ने एक और दिलचस्प बात लिखी है अपनी किताब में। उनके मुताबिक अपने आखिरी वक्त में जिन्ना ने पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान से कहा था कि पाकिस्तान मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी बेवकूफू है। अगर मुझे मौका मिला तो मैं दिल्ली जाकर जवाहरलाल से कह दूंगा कि गलतियां भूल जाओ और हम फिर से दोस्तों की तरह रहें।
इतिहास किसी को माफ नहीं करता, वो जिन्ना को भी माफ नहीं करेगा क्योंकि आजादी के 6 दशक बाद भी जिन्ना की बात पर जिन लोगों ने विश्वास किया था वो चैन से नहीं हैं। फौजी तानाशाहों और अमेरिकी दादागीरी झेल रही पाकिस्तान की आवाम में बड़ी संख्या में ऐसे लोग मिल जाएंगे जो अपनी परेशानियों के लिए जिन्ना को जिम्मेदार मानते हैं। यानी जिन्ना का जिक्र सरहदों के दोने तरफ परेशानी पैदा करता है।
ये लेख अमर उजाला में 24 सितंबर को छपा है...
Friday, September 18, 2009
ऐतिहासिक भूलों का मार्क्सवादी मसीहा
पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टियों को एक और चुनावी नुकसान हुआ है। लोकसभा चुनाव में काफी सीटें गवां चुकी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और अन्य वामपंथी पार्टियों को सिलिगुड़ी नगर निगम के चुनावों में जोर का झटका बहुत ज़ोर से लगा है। पिछले 28 वर्षों से सिलीगुड़ी नगर निगम पर लाल झंडे वालों का कब्ज़ा था लेकिन इस बार उन्हें मुंह की खानी पड़ी है।
अबकी तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस गठबंधन ने 29 सीटें जीतकर स्पष्ट बहुमत हासिल कर लिया है। वामपंथी मोर्चे को केवल 17 सीटें मिली हैं। यह बड़ी हार है क्योंकि पिछले चुनावों में 36 सीटें जीतकर सिलीगुड़ी नगर पालिका पर लाल झंडा फहराया गया था। गौर करने की बात यह है कि सिलीगुड़ी किसी कस्बे की टाउन एरिया कमेटी नहीं है, यह कलकत्ता के बाद राज्य का सबसे बड़ा नगर निगम है। इसे उत्तर बंगाल में लेफ्ट का गढ़ माना जाता है।
दक्षिण बंगाल में मार्क्सवादी दलों की दुर्दशा लोकसभा चुनाव में ही हो चुकी थी अब उत्तर बंगाल में राग विदाई की भनक सुनाई पड़ने लगी है। सिलीगुड़ी नगर निगम के चुनाव का भावार्थ बहुत गहरा है। 2011 में पश्चिम बंगाल विधानसभा का चुनाव होने वाला है और तृणमूल कांग्रेस की कोशिश है कि उस चुनाव में अपनी जीत के पक्की होने के संदेश के रूप में सिलीगुड़ी की लड़ाई को पेश किया जाय। दक्षिण बंगाल में वाम मोर्चा की जो खस्ता हालत हुई है, उसको ध्यान में रखा जाय तो इस बात में बहुत वज़न नज़र आने लगता है कि ममता बनर्जी राज्य की सबसे महत्वपूर्ण नेता के रूप में उभर रही है।
सवाल उठता है कि पश्चिम बंगाल में पिछले 32 वर्षों से राज करने वाले वाम मोर्चे के नेताओं के सामने यह दुर्दिन क्यों मुंह बाए खड़ा है? 1977 में वाम मोर्चे ने कई साल से चल रहे कांग्रेसी कुशासन को समाप्त करने के लिए पश्चिम बंगाल की जनता के भारी समर्थन से कलकत्ता में सरकार बनाई थी। ज्योति बसु मुख्मंत्री बने थे और राज्य में बुनियादी परिवर्तन की शुरुआत की थी। गांवों में रहने वाले गरीब से गरीब आदमी के हित को राजकाज के फैसलों का केंद्र बिंदु बनाकर ज्योति बसु ने राज किया लेकिन जब हाथ पांव चलाने में भी दिक्कत होने लगी और उम्र अपना नज़ारा दिखाने लगी तो उन्होंने अगली पीढ़ी को काम संभलवाकर वानप्रस्थ ले लिया।
लगता है कि यहीं कोई चूक हो गई क्योंकि ज्योति बसु के जाने के बाद से ही पश्चिम बंगाल में वामपंथी राजनीति ढलान पर है। पार्टी का दुर्भाग्य ही है कि ज्योति बसु के लगभग साथ-साथ ही दिल्ली के सत्ता के गलियारों का ज्ञाता एक और कम्युनिस्ट रिटायर हो गया। हरिकिशन सिंह सुरजीत के बैठक ले लेने के बाद दिल्ली में भी सत्ता परिवर्तन हुआ और नए महासचिव, प्रकाश करात ने कमान संभाली। प्रकाश करात बहुत ही पढ़े लिखे और कुशाग्र बुद्धि के माहिर नेता हैं।
चुस्त दुरुस्त लेखन के ज्ञाता हैं और मार्क्सवाद के प्रकांड पंडित हैं। उनका व्यक्तित्व कुछ-कुछ मुहम्मद अली जिनाह वाला है। जिनाह की एक खासियत थी कि वे कभी भी किसी जन आंदोलन का हिस्सा नहीं रहे लेकिन अपनी बात को सबसे ऊपर रखने की कला के माहिर थे। जिन्ना की खासियत यह थी कि वे पूरी नहीं तो आधी ही सत्ता लेकर माने लेकिन प्रकाश करात आई हुई सत्ता को दुत्कार कर भगा देने में बहुत ही निपुण हैं।
1996 में जब पूरा देश ज्योति बसु को प्रधान मंत्री देखना चाहता था, प्रकाश करात ने ही उस खेल में गाड़ी के आगे काठ रखा था। बाद में उस गलती को ऐतिहासिक भूल कहा गया और पार्टी ने गलती स्वीकार की। उसके बाद प्रकाश करात को ऐतिहासिक भूलों का विशेषज्ञ मान लिया गया। 2004 में कांग्रेस को बाहर से समर्थन देना, अभी ऐतिहासिक भूल के रूप में औपचारिक रूप से दर्ज तो नहीं है लेकिन जानकार बताते हैं कि अंदरखाने यह चर्चा हुई थी कि अगर मनमोहन सिंह सरकार में करीब 10 कम्युनिस्ट मंत्री होते तो बहुराष्ट्रीय कंपनियां मनमानी न कर पातीं और सरकार परमाणु समझौता न कर पाती।
बाद में सरकार से समर्थन वापसी और तथाकथित तीसरा मोर्चा बनाने की ऐतिहासिक भूलें भी न होतीं। दक्षिणपंथी राजनेताओं और पूंजीवादी मीडिया की कृपा से आमतौर पर माना जाता है कि कम्युनिस्ट पार्टियों में लोकतांत्रिक तरीके से काम नहीं होता। लेकिन यह सच नहीं हैं, कम्युनिस्ट पार्टियों में हर प्रस्ताव गांव स्तर की कमेटी तक बहस के लिए लाया जाता है और अधिकतर संख्या के लोगों की राय को राष्ट्रीय प्रस्तावों में परिलक्षित होते देखा जा सकता है।
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में भी यही माहौल था। लेकिन ज्योति बसु-सुरजीत टीम के हटने के बाद लगता है, यह रिवाज खत्म हो गया। आम कार्यकर्ता अपने को अलग थलग महसूस करने लगा। जब लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निकाला गया तो पश्चिम बंगाल में चारों तरफ निराशा छा गई। लगता है कि भविष्य में सोमनाथ को हटाने का फैसला भी ऐतिहासिक भूल की हैसियत हासिल कर लेगा। बहरहाल भूलों के बाद भूल करती मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी पश्चिम बंगाल में एक-एक करके सब कुछ गंवा रही है। यह देखना दिलचस्प होगा कि चुनावों में लगातार नुकसान उठा रही पार्टी अपने को संभाल पाती है या उसका भी वही हाल होता है, जो उत्तर भारत के कई राज्यों में कांग्रेस पार्टी का हुआ है।
Thursday, September 10, 2009
मूर्तियां जरूरी कि सूखा राहत
बहरहाल मंगलवार को मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार की दलीलों को कोई महत्व नहीं दिया और ऐसे सवाल पूछे जो सरकार के लिए मुश्किल खड़ी कर सकते हैं। स्टे आर्डर तो नहीं दिया लेकिन सरकार से अंडरटेकिंग लिखवा ली कि जब तक सुप्रीम कोर्ट की तरफ से विचाराधीन मामले में कोई फाइनल फैसला नहीं हो जाता, मूर्ति और स्मारक का निर्माण कार्य रोक दिया जाएगा।
जस्टिस बी.एन. अग्रवाल और जस्टिस आफताब आलम की बेंच ने उत्तरप्रदेश सरकार के फैसला लेने की प्रक्रिया की भी न्यायिक समीक्षा की संभावना पर गौर करने की बात की है। बेंच ने कहा कि इस बात की जांच की जाएगी कि क्या किसी भी सरकार को इस तरह के खर्च करने की मंजूरी संविधान में दी गई है।
उत्तरप्रदेश सरकार के वकील सतीश चंद्र मिश्र ने दलील दी कि राजनीतिक कारणों से उनके मुवक्किल यानी उत्तरप्रदेश सरकार पर इस तरह के मुकदमे दायर किए जा रहे है। न्यायालय ने उन्हें तुरंत टोका कि उनका काम मामले के संवैधानिक और कानूनी पहलू पर गौर करना है, राजनीति से अदालत का कोई मतलब नहीं है। उत्तरप्रदेश सरकार के वकील के इस दावे को भी अदालत ने सिरे से खारिज कर दिया कि मायावती कांशीराम और अंबेडकर की मूर्तियों और स्मारकों की स्थापना का फैसला संविधान सम्मत है, अदालत ने क्योंकि उसे मंत्रिपरिषद की मंजूरी मिल चुकी है तो माननीय न्यायालय ने कहा कि मामले के इस पहलू की भी जांच की जाएगी कि किसी भी सरकार को जनता के पैसे को इस तरह की योजनाओं पर खर्च करने का संवैधानिक अधिकार है कि नहीं।
सतीश मिश्रा ने यह भी दलील दी कि नेहरू गांधी परिवार की मूर्तियों पर इतना खर्च हो चुका है तो दलितों की मूर्तियों के लिए क्यों मना किया जा रहा है। अदालत ने इस हास्यास्पद दलील पर गौर करना भी मुनासिब नहीं समझा। सवाल उठता है कि मायावती ने इन मूर्तियों को बनवाने का काम युद्घ स्तर पर क्यों शुरू कर रखा है। इस वक्त उत्तरप्रदेश में किसान सूखे से तड़प रहा है, राज्य में सिंचाई के कोई भी सरकारी साधन नहीं हैं, निजी ट्यूबवेल से सिंचाई नहीं हो पा रही है क्योंकि राज्य में हफ्तों बिजली नहीं आ रही है, खरीफ की फसल तबाह हो चुकी है।
राज्य सरकार के पास कर्मचारियों की तनखाह देने के लिए पैसे भी बड़ी मुश्किल से जुट रहे हैं, कानून व्यवस्था ऐसी है कि कहीं भी, कोई भी किसी को भी झापड़ मार दे रहा है। कई जिलों में मुख्यमंत्री के खास कहे जाने वाले पुलिस वाले मनमानी कर रहे है। अपहरण और लूटमार की घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही है। अपना खर्च चलाने के लिए राज्य सरकार केंद्र से अस्सी हजार करोड़ रुपए की मांग कर रही है और मायावती इसे राज्य बनाम केंद्र का मुद्दा बनाने की कोशिश कर रही हैं।
किसी भी समझदार मुख्यमंत्री को सूखे जैसी मुसीबत के वक्त अपने लोगों के साथ खड़े रहना चाहिए। उनकी जो भी खेती संभल सके उसमें मदद करनी चाहिए लेकिन उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मूर्तियों और स्मारकों के निर्माण में इस तरह से जुटी है जैसे अब उन्हें दुबारा मौका ही नहीं मिलेगा। सुप्रीम कोर्ट तो अपना संवैधानिक कर्तव्य निभा रहा है लेकिन सरकार को अपना कर्तव्य करने की प्रेरणा देने के लिए सभ्य समाज और जागरूक जनमत का भी कोई फर्ज है।
जरूरत इस बात की है कि उत्तरप्रदेश सरकार को इस बात की जानकारी दी जाये कि राज्य में हाहाकार मचा हुआ है और सरकार का काम है जनता को राहत देना। यह काम आमतौर पर जनता के चुने हुए प्रतिनिधि करते हैं लेकिन उत्तरप्रदेश सरकार का रवैया ऐसा है कि विधान सभा की कोई भूमिका ही नहीं रह गई है। मुख्यमंत्री की सलाहकार सभा में ऐसे लोगों की भरमार है जो राजनीतिक और सामाजिक समझ से दूर रहते हैं और जी हजूरी की कला में पारंगत है। अगर सलाहकार राजा को सही सलाह देने के बजाय चापलूसी करने लगे तो न तो राजा का भला होगा और न ही राज्य का।
उसी तरह, अगर हकीम रोगी की मर्जी से इलाज करे तो भी बहुत ही मुश्किल होगी। उत्तरप्रदेश की हालत को सुधारने के लिए कुछ ऐसे लोगों की जरूरत है जो सच्चाई बयान कर सकें। अगर फौरन ऐसा न हुआ तो बहुत देर हो जाएगी। फिर मूर्तियों को देखने वाले बहुत कम हो जाएंगे या यह भी हो सकता है कि शोषित पीडि़त जनता इन मूर्तियों का वह हाल कर दे जो बाकी तानाशाहों की मूर्तियों का होता रहा है।
इशरत को आतंकी बना देने की हसरत
मुसलमानों को फर्जी मामलों में मार डालने के गुजरात सरकार के एक और कारनामे से पर्दा उठ गया है। जून 2004 में गुजरात पुलिस के बड़े अधिकारियों ने बंबई से उठाकर एक लड़की, इशरत जहां और उसके तीन साथियों की हत्या कर दी थी और इस जघन्य हत्या को एनकाउंटर बताया था। प्रचार यह किया गया कि मारे गए चारों लोग, तश्करे-तैयबा के सदस्य थे और मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या करने जा रहे थे। इस हत्याकांड के भी सरगना वही पुलिस अधिकारी थे जो सोहराबुद्दीन शेख की फर्जी मुठभेड़ में हुई हत्या में आजकल जेल में हैं।
अब बिलकुल स्पष्ट हो गया है कि डी.जी. वंजारा नाम का एक पुलिस का डी.आई.जी. एक गैंग बनाकर हत्या, लूट और डकैती की घटनाओं को अंजाम देता था। उसके सभी साथी पुलिस वाले ही होते थे। सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़कांड में जिन पुलिस वालों को सजा हुई है, वे सभी इशरत जहां और उसके साथियों के फर्जी मुठभेड़ में शामिल थे।यह सारी जानकारी अहमदाबाद के मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट, एस.पी. तमांग की जांच से मिली है।
अपनी 243 पेज की हाथ से लिखी गई रिपोर्ट में मजिस्ट्रेट ने कहा है कि इन पुलिस वालों ने मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को खुश करके नौकरी में आउट ऑफ टर्न प्रमोशन के चक्कर में निरीह और निहत्थे नौजवानों को मार डाला। जांच से पता चला कि बंबई के मुंब्रा इलाके से डी.जी. वंज़ारा के गिरोह ने इशरत जहां और अन्य तीन लड़कों का अपहरण 12 जून को किया था। इनका फर्जी मुठभेड़ 14 जून 2004 के दिन दिखाया गया यानी पुलिस अधिकारी होते हुए भी इन बच्चों को दो दिन तक अगवा करके रखा। मुठभेड़ के बाद गुजरात सरकार ने दावा किया था कि मारे गए लोगों में से दो पाकिस्तानी नागरिक थे।
Wednesday, September 9, 2009
मीडिया को शर्म से सिर झुका लेना चाहिए
हत्यारी पुलिस, सांप्रदायिक सरकार, गैर-जिम्मेदार मीडिया : एक बहुत बडे़ टीवी न्यूज चैनल के न्यूज सेक्शन के कर्ताधर्ता, जो उस वक्त तक मेरे मित्र थे, ने जब इशरत जहां की हत्या को इस तरह से अपने चैनल पर पेश करना शुरू किया जैसे देश की सेना किसी दुश्मन देश पर विजय करके लौटी हो, तो मैंने उन्हें याद दिलाया कि खबर की सच्चाई जांच लें।
इतना सुनते ही वे बिफर पडे़ और कहने लगे कि उनके रिपोर्टर ने जांच कर ली है और उन्हें अपने रिपोर्टर पर भरोसा है। मैं न सिर्फ चुप हो गया बल्कि उनसे दोस्ती भी खत्म कर ली। वे श्रीमानजी टीवी के सबसे वरिष्ठ पत्रकारों में शुमार किए जाते हैं। टीवी के कारण उनकी संकुचित हो गई सोच पर मुझे घोर आश्चर्य हुआ। बात सिर्फ सबसे बड़े न्यूज चैनल की ही नहीं है। उस दौर में इशरत जहां को ज्यादातर टीवी न्यूज चैनलों ने पाकिस्तानी जासूस बताया।
उन सभी टी.वी. चैनलों को अब चाहिए कि वे राष्ट्र से न सिर्फ माफी मांगें बल्कि शर्म से अपना सिर कुछ देर के लिए झुका भी लें। दरअसल, मुसलमानों को फर्जी मामलों में मार डालने के गुजरात सरकार के एक और कारनामे से पर्दा उठने के बाद अब मीडिया को चाहिए कि मोदी के राज में हुए सभी मुठभेड़ों की निष्पक्ष न्यायिक जांच कराने के लिए आवाज उठाए। इशरत जहां मामले में गैर-जिम्मेदारी दिखा चुकी मीडिया के लिए यही प्रायश्चित भी होगा।
Tuesday, September 8, 2009
आरएसएस के एजेण्डे पर सरदार पटेल
जसवंत सिंह की जिनाह वाली किताब ने और कुछ किया हो या न किया हो लेकिन एक मुद्दे को हमेशा के लिए दफन कर दिया। किताब में सरदार पटेल, नेहरू और जिनाह के हवाले से मुल्क के बंटवारे की जो तसवीर, जसवंत सिंह ने प्रस्तुत की, उसमें कुछ भी नया नहीं है, इतिहासकारों ने उसका बार बार विवेचन किया है। इस किताब का महत्व केवल यह है कि भाजपा और आर.एस.एस. की उन कोशिशों को लगाम लग गई कि सरदार पटेल की सहानुभूति आर.एस.एस. के साथ थी, क्योंकि अब ऐसे सैकड़ों सबूत एक बार फिर से अखबारों में छपने लगे हैं।
जिससे फिर साबित हो गया है कि सरदार पटेल आर.एस.एस. और उसके तत्कालीन मुखिया गोलवलकर को बिलकुल नापसंद करते थे। यहां तक कि गांधी जी की हत्या के मुकदमे के बाद गिरफ्तार किए गए एम.एस. गोलवलकर को सरदार पटेल ने तब रिहा किया जब उन्होंने एक अंडरटेकिंग दी कि आगे से वे और उनका संगठन हिंसा का रास्ता नहीं अपनाएंगे।
उस अंडरटेकिंग के मुख्य बिंदु ये हैं:-आर.एस.एस. एक लिखित संविधान बनाएगा जो प्रकाशित किया जायेगा, हिंसा और रहस्यात्मकता को छोड़ना होगा, सांस्कृतिक काम तक ही सीमित रहेगा, भारत के संविधान और तिरंगे झंडे के प्रति वफादारी रखेगा और अपने संगठन का लोकतंत्रीकरण करेगा। (पटेल -ए-लाइफ पृष्ठ 497, लेखक राजमोहन गांधी प्रकाशक-नवजीवन पब्लिशिंग हाउस, 2001) आर.एस.एस. वाले अब इस अंडरटेकिंग को माफीनामा नहीं मानते लेकिन उन दिनों सब यही जानते थे कि गोलवलकर की रिहाई माफी मांगने के बाद ही हुई थी।
बहरहाल हम इसे अंडरटेकिंग ही कहेंगे। इस अंडरटेकिंग को देकर सरदार पटेल से रिहाई मांगने वाले संगठन का मुखिया यह दावा नहीं कर सकता कि सरदार उसके अपने बंदे थे। सरदार पटेल को अपनाने की कोशिशों को उस वक्त भी बड़ा झटका लगा जब लालकृष्ण आडवाणी गृहमंत्री बने और उन्होंने वे कागजात देखे जिसमें बहुत सारी ऐसी सूचनाएं दर्ज हैं जो अभी सार्वजनिक नहीं की गई है। जब 1947 में सरदार पटेल ने गृहमंत्री के रूप में काम करना शुरू किया तो उन्होंने कुछ लोगों की पहचान अंग्रेजों के मित्र के रूप में की थी। इसमें कम्युनिस्ट थे जो कि 1942 में अंग्रेजों के खैरख्वाह बन गए थे।
पटेल इन्हें शक की निगाह से देखते थे। लिहाजा इन पर उनके विशेष आदेश पर इंटेलीजेंस ब्यूरो की ओर से सर्विलांस रखा जा रहा था। पूरे देश में बहुत सारे ऐसे लोग थे जिनकी अंग्रेज भक्ति की वजह से सरदार पटेल उन पर नजर रख रहे थे। कम्युनिस्टों के अलावा इसमें अंग्रेजों के वफादार राजे महाराजे थे। लेकिन सबसे बड़ी संख्या आर.एस.एस. वालों की थी, जो शक के घेरे में आए लोगों की कुल संख्या का 40 प्रतिशत थे। गौर करने की बात यह है कि महात्मा जी की हत्या के पहले ही, सरदार पटेल आर.एस.एस. को भरोसे लायक संगठन मानने को तैयार नहीं थे। आगे पढ़ें...
Thursday, September 3, 2009
दर्द पर न हों हमदर्द
इसलिए जब राजस्थान की यात्रा पर गए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि बीजेपी की अस्थिरता लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है तो बात का अलग असर हुआ। उनका कहना था कि मजबूत लोकतंत्र के लिए सभी राजनीतिक पार्टियों में स्थिरता होनी चाहिए। बात तो ठीक थी। कहीं कोई गलती नहीं है लेकिन बीजेपी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह बुरा मान गए। उन्होंन प्रधानमंत्री को एक चिट्ठी लिख दी कि भाई, आप अपना काम देखिए देश में सूखा पड़ा है, उसको संभालिए, हमारी चिंता छोड़ दीजिए।
बीजेपी अपने गठन के बाद से सबसे कठिन दौर से गुजर रही है, उसके शीर्ष नेतृत्व में विश्वास का संकट चल रहा है, कौन किसको कब हमले की जद में ले लेगा, बता पाना मुश्किल है। तिकड़म के हर समीकरण पर मैकबेथ की मानसिकता हावी है सभी एक दूसरे पर शक कर रहे हैं। ऐसी हालत में प्रधानमंत्री की बीजेपी का शुभचिंतक बनने की कोशिश, राजनाथ सिंह को अच्छी नहीं लगी। शायद उनको लगा कि मनमोहन सिंह ताने की भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं और वे नाराज हो गए।
उनकी पार्टी के प्रवक्ता ने इस घटना को अपनी रूटीन प्रेस कान्फ्रेंस में भी बताया और टीवी चैनलों ने इस को दिन भर चलाया और मजा लिया। ज़ाहिर है कि खबर में जितना रस था सब बाहर आ चुका है और बीजेपी का मीडिया चित्रण एक खिसियानी बिल्ली का हो चुका है जो कभी कभार खंबे वगैरह भी नोच लेती है। आगे पढ़ें...
Monday, August 31, 2009
नागपुर के चश्मा बाबा
मेरे गांव में एक चश्मा बाबा थे। नाम कुछ और था लेकिन चश्मा लगाते थे इसलिए उनका नाम यही हो गया था। सन् 1968 में जब उनकी मृत्यु हुई तो उम्र निश्चित रूप से 90 साल के पार रही होगी। बहुत कमजोर हो गए थे, चलना फिरना भी मुश्किल हो गया था। उनके अपने नाती पोते खुशहाल थे, गांव में सबसे संपन्न परिवार था उनका। सारे गांव को अपना परिवार मानते थे, सबकी शादी गमी में मौजूद रहते थे। आमतौर पर गांव की राजनीति में दखल नहीं देते थे। लेकिन अगर कभी ऐसी नौबत आती कि गांव में लाठी चल जायेगी या और किसी कारण से लोग अपने आप को तबाह करने के रास्ते पर चल पड़े हैं तो वे दखल देते थे, और शांत करने की कोशिश करते थे।
अगर किसी के घर या खलिहान में आग लग जाती तो अपना पीतल का लोटा लेकर चल पड़ते थे, आग बुझाने। धीरे-धीरे चलते थे, बुढ़ापे की वजह से चलने में दिक्कत होने लगी थी लेकिन आग बुझाने का उनका इरादा दुनिया को जाहिर हो जाता था।
पूरा लेख पढ़ें...
Sunday, August 30, 2009
आडवाणी और झूठ का राजनीति शास्त्र
यह आडवाणी के लिए बड़ा झटका है। पिछले दो-तीन साल से प्रधानमंत्री पद की उम्मीद लगाए बैठे थे और अपने को मजबूत नेता बता रहे थे। उनकी पार्टी में ऐसे लोगों की बड़ी जमात है जो आडवाणी की हर बात को सही ठहराते हैं। इस समूह में कुछ स्वनाम धन्य पत्रकार भी हैं और कुछ ऐसे नेता हैं जो आडवाणी के प्रभाव से ओहदा पद पाते रहते हैं। ये लोग भी आस लगाए बैठे थे कि अगर मजबूत नेता, निर्णायक सरकार कायम हुई तो कुछ न कुछ हाथ आ जाएगा। बहरहाल सरकार बनने की संभावना तो कभी नहीं थी सो नहीं बनी लेकिन आज कल आडवाणी अपनी झूठ बोलने की आदत के चलते मुसीबत में हैं।
झूठ बोलने के कारण यह संकट लालकृष्ण आडवाणी पर पहली बार आया है ऐसा शायद इसलिए हुआ कि कंधार विमान अपहरण कांड के मामले में उन्होंने गलत बयानी की जो कि राष्ट्रीय महत्व का मामला था। देश की गरिमा से समझौता करने वाली उस वक्त की राष्ट्रीय सुरक्षा की मंत्रिमंडलीय समिति के सबसे शर्मनाक फैसले से वे अपने को अलग करने अपने बाकी साथियों को नाकारा साबित करने के चक्कर में बेचारे बुरे फंस गए। ऐसा नहीं है कि आडवाणी ने पहली बार झूठ बोला हो, वे बोलते ही रहते हैं उनकी इस आदत से परिचित लोग, बात को टाल देते हैं या कभी कभार उनका मजाक बनाते हैं।
एक बार अपनी शिक्षा को लेकर उन्होंने कोई बयान दिया था। बिहार के नेता लालू प्रसाद ने सिद्घ कर दिया कि जिस कोई की बात आडवाणी कर रहे थे, वह उस कॉलेज में था ही नहीं। आडवाणी ने लालू यादव की बात का कभी खंडन नहीं किया। ऐसे बहुत सारे मामले हैं लेकिन कंधार विमान अपहरण कांड जैसा मामला कोई नहीं इसलिए पूरे मुल्क में इस बात की चिंता है कि अगर किसी वजह से भी बीजेपी जीत गई होती तो यह आदमी देश का नेता होता तो हमारा क्या होता। शुक्र है कि हम बच गए।
लालकृष्ण आडवाणी ने कुछ अरसा पहले एक किताब लिखी थी जिसमें उन्होंने कहा था कि कंधार कांड में जो राष्ट्रीय अपमान हुआ था, उससे उनका कोई लेना देना नहीं था, उन्हें मालूम ही नहीं था कि जसवंत सिंह आतंकवादियों को लेकर कंधार जा रहे हैं। प्रधानमंत्री पद के लालच में उन्होंने अपने आपको राष्ट्रीय शर्म की इस घटना से अलग कर लिया था। जबकि यह फैसला राष्ट्रीय सुरक्षा की मंत्रिमंडलीय समिति में लिया गया। यह समिति सरकार की सबसे ताकतवर संस्था है।
इसमें प्रधानमंत्री अध्यक्ष होते हैं और गृहमंत्री, रक्षामंत्री व वित्तमंत्री और विदेशमंत्री सदस्य होते हैं। इसे एक तरह से सुपर कैबिनेट भी कहा जा सकता है। कंधार में फंसे आईसी 814 को वापस लगाने के लिए तीन आतंकवादियों को छोडऩे का फैसला इसी कमेटी में लिया गया था। अब पता लग रहा है कि फैसला एकमत से लिया गया था यानी अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, जॉर्ज फर्नाडीस, यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह सब की राय थी कि आतंकवादियों को छोड़ देना चाहिए। आडवाणी इस मसले से अपने को अलग कर रहे थे और यह माहौल बना रहे थे कि उनकी जानकारी के बिना ही यह महत्वपूर्ण फैसला ले लिया गया था।
जाहिर है उनके बाकी साथी आडवाणी की इस चालाकी से नाराज थे और अब जार्ज फर्नांडीज यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह ने आडवाणी के ब्लाक को उजागर कर दिया है। अटल बिहारी वाजपेयी की तबीयत ठीक नहीं है वरना वह भी अपनी बात कहते। सवाल यह उठता है कि जब पिछले दो साल से आडवाणी इतने महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक मामले पर गलत बयानी कर रहे थे। तो इन तीन महत्वपुरुषों ने सच्ची बात पर परदा डाले रखना क्यों जरूरी समझा? यह जानते हुए कि इतनी बड़ी बात पर खुले आम झूठ बोलने वाला एक व्यक्ति प्रधानमंत्री पद हथियाने के चक्कर में है उसे इन लोगों ने नहीं रोका।
रोकना तो खैऱ दूर की बात है आडवाणी को प्रधानमंत्री बनवाने के अभियान में ऐसे लोग शामिल रहे, उनकी जय-जय कार करते रहे। इस पहेली को समझना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है। यह लोग भी लालच में रहे होंगे कि सरकार बनने पर इन्हें भी कुछ मिल जाएगा। जो भी हो अब कंधार जैसे महत्वपूर्ण मामले पर उस वक्त की एन.डी.ए. सरकार के गैर जि़म्मेदाराना रुख़ से जाल साजी की परतें वरक-दर-वरक हट रही है।
सवाल यह उठता है कि जिस पार्टी की टॉप लीडरशिप सच्चाई को छुपाने के इतने बड़े खेल में शामिल रही हो उसको क्या सजा मिलनी चाहिए। देश को जागरुक जनता का इन लोगों की जवाब देही सुनिश्चित करने की कोशिश करनी चाहिए।
Friday, August 28, 2009
सुधरिए, वरना बाबू लोग मीडिया चलाएंगे
इस वर्ग से पत्रकारिता के पेशे को बहुत नुकसान हो रहा है लेकिन एक दूसरा वर्ग है जो इससे भी ज्यादा नुकसान कर रहा है। यह वर्ग ब्लैकमेलरों के मीडिया में घुस आने से पैदा हुआ है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से ख़बर है कि एक न्यूज चैनल ने कुछ ठेकेदारों के साथ मिलकर एक सरकारी अफसर और उसकी पत्नी के अंतरंग संबंधों की एक फिल्म बना ली और उसे अपने न्यूज चैनल पर दिखा दिया। अफसर का आरोप है कि चैनल वालों ने उससे बात की थी और मोटी रकम मांगी थी। पैसा न देने की सूरत में फिल्म को दिखा देने की धमकी दी थी। चैनल वाले कहते हैं कि वह अफसर का वर्जन लेने गए थे, पैसे की मांग नहीं की थी। चैनल वालों के इस बयान से लगता है कि अगर पति-पत्नी के अंतरंग संबंधों की फिल्म हाथ लग जाय तो उनके पास उसे चैनल पर दिखाने का अधिकार मिल जाता है। यह बिलकुल गलत बात है और इसकी निंदा की जानी चाहिए। चैनल की यह कारस्तानी रायपुर से छपने वाले प्रतिष्ठित अखाबारों में छपी है और भड़ास4मीडिया के लोग भी इस चैनल की गैर-ज़िम्मेदार कोशिश को सामने ला रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि मीडिया संस्थान के नाम पर ब्लैकमेलर बिरादरी पर लगाम लगाने की कोशिश इसी मामले से शुरू हो जायेगी। मौजूदा मामले में संबंधित अफसर प्रधानमंत्री ग्राम सड़क परिजयोजना के नए मुख्य अधिकारी के रूप में तैनात हुआ था। अफसर का आरोप है कि वे ठेकेदारों की आपसी राजनीति का शिकार बने हैं और उनको फंसाने के लिए साजिश रची गई थी। आरोप यह भी है कि तथाकथित न्यूज चैनल वाले भी अफसर को सबक सिखाने के लिए साजिश में शामिल हो गए थे। इस मामले से अफसर की पत्नी भी बहुत दुखी हैं कि उसके अपने पति के साथ बिताए गए अंतरंग क्षणों को सार्वजनिक करके चैनल ने उसका और उसके नारीत्व के गौरव का अपमान किया है।
पूरा लेख पढ़ें...
का बरसा...जब कृषि सुखानी
जहां तक सरकार की बात है, सूखे से मुकाबला करने की पूरी तैयारी हो चुकी है। केंद्र सरकार ने सूखे पर मंत्रियों की एक समिति का गठन किया है, जिसके अध्यक्ष वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी हैं। सभी अहम विभागों के मंत्रियों को इसमें शामिल किया गया है। अब तक के अनुमान के अनुसार, इस बार धान की पैदावार में करीब 170 लाख टन की कमी आएगी। इसका मतलब यह हुआ कि चावल की भारी कमी होने वाली है। कृषि मंत्रियों के सम्मेलन में प्रणब मुखर्जी ने बताया कि अगर अनाज की कमी हुई तो विदेशों से भी अनाज मंगाया जा सकता है।
आवश्यक वस्तुओं के निर्यात पर पहले से ही प्रतिबंध लगा हुआ है, जो जारी रहेगा। प्रणब मुखर्जी ने सम्मेलन में बताया कि इस बात का फैसला लिया जा चुका है कि जिस चीज की भी कमी होगी, उसे तुरंत आयात कर लिया जाएगा। यह भी एहतियात रखी जाएगी कि भारत में मांग बढ़ने की चर्चा से अंतरराष्ट्रीय बाजार में अनाज की कीमत बढ़ने न दी जाए यानी सरकार अपनी योजना का प्रचार नहीं करेगी। सरकार ने यह भी दावा किया कि 60 हजार करोड़ रुपये की सब्सिडी खर्च करके मंहगाई पर काबू पा लिया जाएगा। इस देश का दुर्भाग्य है कि यहां बड़ी से बड़ी मुसीबत को आंकड़ों की भाषा में बदल दिया जाता है और वही मीडिया के जरिए सूचना बन जाती है।
सरकारी फैसले इन्हीं आंकड़ों के आधार पर होते हैं। बहरहाल, भूख से मरना बहुत बड़ी बात है, दुर्दिन की इंतहा है, लेकिन भूख की वजह से मौत होने के पहले इंसान पर तरह-तरह की मुसीबतें आती हैं। भूख से मौत तो उन मुसीबतों की अंतिम कड़ी है। इन आंकड़ेबाज नेताओं को यह बताने की जरूरत है कि आम आदमी की मुसीबतों को आंकड़ों में घेरकर उनके जले पर नमक छिड़कने की संस्कृति से बाज आएं। अकाल या सूखे की हालत में ही खेती का ख्याल न करें। इसे एक सतत प्रक्रिया के रूप में अपनाएं। इस देश का दुर्भाग्य है कि जब फसल खराब होने की वजह से शहरी मध्यवर्ग प्रभावित होने लगता है, तभी इस देश का नेता जागता है।
गांव का किसान, जिसकी हर जरूरत खेती से पूरी होती है, वह इन लोगों की प्राथमिकता की सूची में कहीं नहीं आता। कोई इनसे पूछे कि फसल चौपट हो जाने की वजह से उस गरीब किसान का क्या होगा, जिसका सब कुछ तबाह हो चुका है। वह सरकारी मदद भी लेने में संकोच करेगा, क्योंकि गांव का गरीब और इज्जतदार आदमी मांगकर नहीं खाता। यह कहने में कोई संकोच नहीं कि गांव का गरीब मानसून खराब होने पर सरकारी लापरवाही के चलते भूखों मरता है। आजादी के बाद जो जर्जर कृषि व्यवस्था नए शासकों को मिली थी, वह लगभग आदिमकाल की थी।
जवाहरलाल नेहरू को उम्मीद थी कि औद्योगिक विकास के साथ-साथ खेती का विकास भी चलता रहेगा, लेकिन 1962 में जब चीन का हमला हुआ तो एक जबरदस्त झटका लगा। उस साल उत्तर भारत में मौसम अजीब हो गया था। रबी और खरीफ दोनों ही फसलें तबाह हो गई थी। जवाहर लाल नेहरू को एहसास हो गया था कि कहीं बड़ी गलती हुई है। ताबड़तोड़ मुसीबतों से घिरे मुल्क पर 1965 में पाकिस्तानी जनरल अयूब खान ने भी हमला कर दिया। युद्घ का दौर और खाने की कमी। बहरहाल, प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जय जवान, जय किसान का नारा दिया।
अनाज की बचत के लिए देश की जनता से आह्वान किया कि सभी लोग हफ्ते में एक दिन का उपवास रखें यानी मुसीबत से लड़ने के लिए हौसलों की जरूरत पर बल दिया, लेकिन भूख की लड़ाई केवल हौसलों से नहीं लड़ी जाती। जो लोग 60 के दशक में समझने लायक थे, उनसे कोई भी पता लगा सकता है कि विदेशों से सहायता में मिले बादामी रंग के बाजरे को निगल पाना कितना मुश्किल होता है और अमेरिका से पीएल 480 योजना के तहत मंगाए गए गेहूं की रोटियां किस रबड़ की तरह होती हैं, लेकिन भूख सब कुछ करवाती है।
केंद्र सरकार में ऊंचे पदों पर बैठे लोगों को क्या मालूम कि गांव का गरीब किसान जब कोटेदार के यहां अनाज खरीदने या मांगने जाता है तो कितनी बार मरता है। अपमान के कितने कड़वे घूंट पीता है। गांवों में रहने वाले किसान के लिए खरीदकर खाना शर्म की बात मानी जाती है। इन्हें कुछ नहीं मालूम और न ही आज के पत्रकारों को जरूरी लगता है कि गांव के किसानों की इस सच्चाई का आईना इन कोल्हू के बैल नेताओं और नौकरशाहों को दिखाएं। गांव के गरीब की इस निराशा और हताशा को एक नेता ने समझा था। 1967 में कृषि मंत्री रहे सी सुब्रमण्यम ने अपनी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को यह सच्चाई समझाई थी।
उनके प्रयासों से ही खेती को आधुनिक बनाने की कोशिश शुरू हुई। इस प्रयास को ग्रीन रिवोल्यूशन यानी हरित क्रांति का नाम दिया गया। लीक से हटकर सोच सकने की सुब्रमण्यम की क्षमता और उस वक्त की प्रधानमंत्री की राजनीतिक इच्छाशक्ति ने अन्न की पैदावार के क्षेत्र में क्रांति ला दिया। खेती से संबंधित हर चीज में सब्सिडी का प्रावधान किया गया। बीज, खाद, कृषि उपकरण, निजी ट्यूबवेल, डीजल, बिजली सबकुछ सरकारी मदद के लायक मान लिया गया। भारत के ज्यादातर किसानों के पास मामूली क्षेत्रफल की जमीनें हैं।
भूमि की चकबंदी योजनाएं शुरू हुई और किसान खुशहाल होने लगा। ग्रीन रिवोल्यूशन की भावना और मिशन को आगे जारी नहीं रखा गया। यथास्थितिवादी राजनीतिक सोच के चलते सुब्रमण्यम की पहल में किसी ने भी कोई योगदान नहीं किया। जनता पार्टी की 1977 में आई सरकार में आपसी झगड़े इतने थे कि वे कुछ नहीं कर पाए और जब इंदिरा गांधी दोबारा सत्ता में आई तब तक देश में लुंपन राज आ चुका था और राजनीतिक बिरादरी, खासकर सरकारी पक्ष में गांव के गरीब की खैरियत जानने वाला कोई नहीं था।
आज आलम यह है कि पिछले 35 वर्षो में हालात इतने बिगड़ गए हैं कि दिल्ली में बैठा राजनीतिक और नौकरशाह ग्रीन रिवोल्यूशन की परंपरा के बारे में नहीं सोचता। सुना तो यहां तक गया है कि खाद पर मिलने वाली सब्सिडी को राजनीतिक आकाओं की कृपा से फैक्टरी मालिक सीधे हड़प कर जा रहे हैं, किसानों को उसमें से कुछ नहीं मिल रहा है। ऐसी हालत में जरूरत इस बात की है कि सूचना क्रांति के हथियारों का इस्तेमाल करके राजनीतिक महाप्रभुओं को सच्चाई का आईना दिखाया जाए और यह काम मीडिया को करना है।
भूख से मरने वालों की खबरें पब्लिक डोमेन में लाना बहुत ही महत्वपूर्ण है, उसे आना चाहिए, लेकिन सूखा पड़ने पर ग्रामीण इलाकों में और भी बहुत-सी मुसीबतें आती हैं। इन मुसीबतों से लड़ने के लिए सरकारी मशीनरी की कोई तैयारी नहीं होती। सूखा पड़ जाने पर सबकुछ युद्ध स्तर पर शुरू होता है, और फिर इस में निहित स्वार्थ के प्रतिनिधि घुस जाते हैं। राहत की योजनाओं में इनका शेयर बनने लगता है। सूखा पड़ जाने पर सबसे बड़ी परेशानी जानवरों के चारे का इंतजाम करने में होती है। पशु मरने लगते हैं। कई-कई गांवों के लोग तो अपने जानवरों को छोड़ देते हैं। उनके अपने भोजन की व्यवस्था नहीं होती तो पशुओं को क्या खिलाएं।
जाहिर है कि सूखे की हालत के अकाल बनने के पहले गांव में रहने वाला आदमी बहुत ही ज्यादा मुसीबतों से गुजर चुका होता है। दिल्ली में बैठे राजनेताओं और अफसरों के आंकड़ों में यह कहीं नहीं आता। उसमें तो सारा ध्यान शहरी मध्यवर्ग की खुशहाली की योजनाओं पर फोकस रहता है। गांव के आदमी की परत दर परत मुसीबतें उसकी समझ में नहीं आतीं। ऐतिहासिक रूप से पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांतों में आम आदमी की पक्षधरता को बहुत ही महत्व दिया गया है। आज भी यह सिद्धांत उतना ही महत्वपूर्ण है।
खासकर सूखा और अकाल की स्थिति में अगर हम आम आदमी की मुसीबतों को सरकार और नीति निर्धारकों का एजेंडा बना सकें तो हालात निश्चित रूप से बदल जाएंगे। यह काम मुश्किल है, क्योंकि इसके लिए आंकड़े उपलब्ध नहीं होते। बहुत मेहनत के बाद ही कोई जानकारी मिल पाती है, लेकिन असंभव नहीं है। प्रसिद्ध पत्रकार पी साईनाथ ने 80 के दशक में कालाहांडी के अकाल की खबरें सरकारी आंकड़ों से हटकर दी थीं। उन खबरों की वजह से ही अकाल की सच्चाई जनता के सामने आई।
बाकी दुनिया को भी सही जानकारी मिली। मीडिया की जिम्मेदारी है कि इस भयानक सूखे पर नजर रखे और सरकारी आंकड़ों के जाल में फंसने का खतरा झेल रही सूखा राहत योजनाओं को ग्रामीण इलाकों में रहने वाले गरीबों तक पहुंचाने में मदद करें।
लेख
Wednesday, August 26, 2009
यह पब्लिक है, सब जानती है
समाज के हर वर्ग की तरह मीडिया में भी गैर जिम्मेदार लोगों का बड़े पैमाने पर प्रवेश हो चुका है। एक किताब आई है जिसमें जिक्र है कि किस तरह से हर पेशे से जुड़े लोग अपने आपको किसी मीडिया संगठन के सहयोगी के रूप में पेश करके अपना धंधा चला रहे हैं। काई कार मैकेनिक है तो कोई काल गर्ल का धंधा करता है, कोई प्रापर्टी डीलर है तो कोई शुद्घ दलाली करता है।
गरज़ यह कि मीडिया पर बेईमानों और चोर बाजारियों की नजर लग गई है। इस किताब के मुताबिक ऐसी हजारों पत्र पत्रिकाओं का नाम है जो कभी छपती नहीं लेकिन उनकी टाइटिल के मालिक गाड़ी पर प्रेस लिखकर घूम रहे हैं। इस वर्ग से पत्रकारिता के पेशे को बहुत नुकसान हो रहा है लेकिन एक दूसरा वर्ग है जो इससे भी ज्यादा नुकसान कर रहा है। यह वर्ग ब्लैकमेलरों के मीडिया में घुस आने से पैदा हुआ है।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से खबर है कि एक न्यूज चैनल ने कुछ ठेकेदारों के साथ मिलकर एक सरकारी अफसर और उसकी पत्नी के अंतरंग संबंधों की एक फिल्म बना ली और उसे अपने न्यूज चैनल पर दिखा दिया। अफसर का आरोप है कि चैनल वालों ने उससे बात की थी और मोटी रकम मांगी थी। पैसा न देने की सूरत में फिल्म को दिखा देने की धमकी दी थी। चैनल वाले कहते हैं कि वह अफसर का वर्जन लेने गए थे, पैसे की मांग नहीं की थी।
चैनल वालों के इस बयान से लगता है कि अगर पति-पत्नी के अंतरंग संबंधों की फिल्म हाथ लग जाय तो उनके पास उसे चैनल पर दिखाने का अधिकार मिल जाता है। यह बिलकुल गलत बात है और इसकी निंदा की जानी चाहिए। चैनल की यह कारस्तानी रायपुर से छपने वाले प्रतिष्ठित अखबारों में छपी है और देश के कई महत्वपूर्ण वेबसाइट भी इस चैनल की गैर जि़म्मेदार कोशिश को सामने ला रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि मीडिया संस्थान के नाम पर ब्लैकमेलर बिरादरी पर लगाम लगाने की कोशिश इसी मामले से शुरू हो जायेगी।
मौजूदा मामले में संबंधित अफसर प्रधानमंत्री ग्राम सड़क परिजयोजना के नए मुख्य अधिकारी के रूप में तैनात हुआ था। अफसर का आरोप है कि वे ठेकेदारों की आपसी राजनीति का शिकार बने हैं और उनको फंसाने के लिए साजिश रची गई थी। आरोप यह भी है कि तथाकथित न्यूज चैनल वाले भी अफसर को सबक सिखाने के लिए साजिश में शामिल हो गए थे। इस मामले से अफसर की पत्नी भी बहुत दुखी है कि उसके अपने पति के साथ बिताए गए अंतरंग क्षणों को सार्वजनिक करके चैनल ने उसका और उसके नारीत्व के गौरव का अपमान किया है।
सूचना क्रांति के आने के बाद मीडिया की पहुंच का दायरा बहुत बढ़ गया है। अगर कहीं भी कोई गैर जिम्मेदार और नासमझ व्यक्ति बैठ जाता है तो पूरी पत्रकारिता के पेशे की बदनामी होती है। इसलिए जरूरत इस बात की है कि मीडिया संगठनों से जुड़े लोग अपनी आचार संहिता बनाए और उसका सख्ती से पालन किया जाए। यह जरूरत बहुत वक्त से महसूस की जा रही है लेकिन अब यह मामला बहुत ही अर्जेंट हो गया है । इस पर फौरन काम किए जाने की जरूरत है और अगर ऐसा न हुआ तो सरकार इस मामले में दखल देगी और वह बहुत ही बुरा होगा क्योंकि सरकारी बाबू हमेशा इस चक्कर में रहता है कि अपने से सुपीरियर काम करने वालों को नीचा दिखाए।
इसमें दो राय नहीं है कि पत्रकारिता का पेशा सरकारी बाबू के पेशे से ऊंचा है। सरकारी बाबू के पास पत्रकारों को अपमानित करने की अकूत क्षमता होती है। 1975 में इमरजेंसी लगने पर इस बिरादरी ने करीब 19 महीने तक इसका इस्तेमाल किया था और लगने लगा था कि प्रेस की स्वतंत्रता नाम की चीज अब इस देश में बचने वाली नहीं है। बहरहाल इमरजेंसी की अंधेरी रात के खत्म होने के बाद गाड़ी फिर से चल पढ़ी। लेकिन जहां भी सरकारी बाबू वर्ग की दखल है उन मीडिया संस्थानों की दुर्दशा दुनिया को मालूम है।
इसलिए मीडिया क्षेत्र के मानिंद लोगों को चाहिए कि पत्रकारिता के नाम पर अन्य धंधा करने वालों पर लगाम लगाने के लिए फौरन से पेशतर कोशिश शुरू कर दें। वरना बहुत देर हो जायेगी।
यहां इस बात को ध्यान में रखना होगा कि मीडिया में दलालों का प्रवेश बहुत बड़े पैमाने पर हो चुका है। इसलिए यह काम बहुत ही मुश्किल है, निहित स्वार्थ के लोग अडंग़ा लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। इसलिए इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए क्रांतिनुमा कोई कोशिश की जानी चाहिए और मीडिया के काम से प्रभावित होने वाले हर वर्ग की भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए।
मीडिया के काम से सबसे ज्यादा प्रभावित तो आम जनता ही होती है जनता को मालूम रहता है कि कौन पत्रकार कहां हेराफेरी कर रहा है, और मीडिया संगठन कहां बेईमानी कर रहा है लेकिन जनता बोलती नहीं। इस स्थिति को समाप्त किए जाने की जरूरत है। और अगर जनता की भागीदारी हो गई तो मामूली तनख्वाह पाने वाले पत्रकारों के महलनुमा मकानों, बैंकों में जमा करोड़ों रुपयों और बच्चों की शिक्षा पर खर्च किए जा रहे लाखों रुपयों पर भी नजर जायेगी जिसके बाद चोरी और हेराफेरी करने वाले पत्रकार और मीडिया संगठन अलग-थलग पडऩे लगेंगे। इसलिए जरूरी है कि ज्यादा से ज्यादा लोग इस मुहिम में शामिल हों।
अगर जनता शामिल होगी तो मुकामी पत्रकार और मीडिया संगठन मजबूरन सच्ची रिपोर्ट देंगे। वैसे भी पत्रकार की आत्मरक्षा का सबसे बड़ा हथियार सच ही है। जब तक वह सच के सहारे रहेगा कोई भी उसका बाल बांका नहीं कर सकता लेकिन जहां उसने गलतबयानी की, मीडिया को दुरुस्त करने के आंदोलन में शामिल पब्लिक उसके लिए मुश्किल कर देगी क्योंकि उसे तो सच्चाई मालूम ही रहेगी।
रायपुर के मुकामी लोगों को आज भी मालूम होगा कि अफसर और उसकी पत्नी के निजी क्षणों को सार्वजनिक करने का अपराधी कौन है लेकिन वह रूचि नहीं लेते। लेकिन अगर उनको भी मीडिया की सफाई के मिशन में शामिल कर लिया जाय तो वे रूचि लेंगे और इससे पत्रकारों और प्रेस की प्रतिष्ठा में वृद्घि होगी।
न्यायपालिका की पवित्रता में इज़ाफा
जब राजनीतिक नेताओं और बेईमान अफसरों ने घूस के जरिए अकूत संपत्ति बनाना शुरू किया तो जनमत के दबाव के चलते ऐसे कानून बने कि उनको ईमानदार बनाए रखने के लिए कानून का डंडा चलाया गया। नेताओं को तो हलफ नामा देकर अपनी संपत्ति घेषित करने का कानून बन गया और वह सूचना सार्वजनिक भी कर दी जाती है। लेकिन ऐसी जरूरत नहीं पड़ी थी कि जजों के बारे में ऐसा कानून बनाया जाय। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में जजों के भ्रष्टïाचार के बहुत सारे मामले अखबार में छपे हैं। पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के एक जज साहब के ऊपर तो महाभियोग की तैयारी भी हो गई थी, उसी हाईकोर्ट की एक जज पिछले साल नकद रिश्वत लेने के मामले में भी चर्चा में आ गई थीं।
कलकत्ता हाईकोर्ट के जज साहब भी विवादों के घेरे में हैं लेकिन कानून ऐसे हैं कि बहुत कुछ किया नहीं जा सकता बहुत सारे फैसले भी विवाद का विषय बन गए हैं। कुल मिलाकर माहौल ऐसा बना कि हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट के जजों पर भी मीडिया या अन्य मंचो पर भ्रष्टाचार से संबंधित बहसों का सिलसिला शुरू हो गया। मांग उठने लगी कि जजों की संपत्ति सार्वजनिक की जाय और उसे सार्वजनिक डोमेन में डाला जाय। इस बात के लागू होने में सबसे बड़ा खतरा यह है कि ईमानदार जजों के सामने परेशानी खड़ी हो सकती है लेकिन उससे भी बड़ा खतरा न्यायपालिका के भ्रष्टाचार का है। पिछले कुछ वर्षों से तो कुछ लोग सुप्रीम कोर्ट के जजों पर भी उंगली उठाने लगे हैं।
और जाने अनजाने जजों की विश्वसनीयता पर सवाल उठ रहे हैं। यह हमारे देश के जनतंत्र के लिए ठीक नहीं है। इस विवाद पर विराम देने के लिए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश केजी गोपालकृष्णन ने स्थिति को स्पष्टï करते हुए कहा कि अवांछित विवादों से बचाने के लिए जजों की संपत्ति की घोषणा तो हो सकती है लेकिन उसे सार्वजनिक नहीं किया जाना चाहिए। माना जहा रहा था कि बहस यहीं खत्म हो जायेगी लेकिन कर्नाटक हाईकोर्ट के जज, न्यायमूर्ति डीवी शैलेंद्र कुमार ने एक अखबार में लेख लिखकर मामले को गंभीर बहस के दायरे में ला दिया।
जस्टिस कुमार ने भारत के मुख्य न्यायधीश की अधिकार सीमा पर ही सवाल उठा दिया। उन्होंने कहा कि सुप्रीमकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को यह अधिकार नहीं है कि वे जजों की संपत्ति की घोषणा और उसको सार्वजनिक करने के बारे में बात करें। उन्होंने यह भी कहा कि यह अवधारणा गलत है कि ऊंची अदालतों के जज अपनी संपत्ति को सार्वजनिक नहीं करना चाहते। उन्होंने कहा कि वे तो चाहते हैं कि उनकी सारी संपत्ति का ब्यौरा हाईकोर्ट की वेबसाइट पर डाल दिया जाय। जस्टिस कुमार की बात को न्यायविदों के बीच बहुत गंभीरता से लिया जा रहा है और उसकी तारीफ भी हो रही है। लेकिन भारत के मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति के जी गोपालकृष्णन ने न्यायपालिका के आंतरिक मामलों की इस बहस को सार्वजनिक करने के न्यायमूर्ति कुमार के तरीके को ठीक नहीं माना और कहा कि इस तरह का आचरण एक जज के लिए ठीक नहीं है।
न्यायमूर्ति गोपालकृष्णन ने कहा लगता है कि कर्नाटक हाईकोर्ट के जज जस्टिस डीवी शैलेंद्र कुमार प्रचार के भूखे हैं। उन्होंने अपने बयान के बारे में बताया कि अगर कोई जज अपनी संपत्ति की जानकारी सार्वजनिक करना चाहता है तो उसे मैं नहीं रोकूंगा लेकिन जहां तक सभी जजों के बारे में बोलने के अधिकार की बात है, उसमें बहस की कोई गुंजाइश नहीं है। भारत के मुख्य न्यायाधीश होने के नाते उन्हें यह अधिकार उपलब्ध है।
बाकी दुनिया की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में भी ऐसे ही होता है। जजों की संपत्ति के बारे में दबी जबान से चर्चा तो बहुत दिनों से चल रही थी लेकिन इस पर बहस नहीं होती थी। भारत के मुख्य न्यायाधीश ने इस मामले पर अपनी बात को मीडिया के माध्यम से बहस के दायरे में लाकर एक बहुत ही प्रशंसनीय काम किया है। कर्नाटक हाईकोर्ट के जज, जस्टिस कुमार ने बहस को अखबारी बहस का विषय बनाया तो कुछ अन्य जज अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनकर संपत्ति के इस विवाद में शामिल हो रहे हैं।
पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के जज, न्यायमूर्ति के कन्नन ने अपनी संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा कर दी है। उन्होंने अपने ब्लॉग पर सारी जानकारी डाल दी है। और सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशांत भूषण को चिट्ठी लिखकर अपनी पत्नी और अपने नाम अर्जित की गई सारी संपत्ति का ब्यौरा दे दिया है। प्रशांत भूषण ही जजों के भ्रष्टाचार के बारे में आंदोलन चला रहे हैं। उधर चेन्नई से खबर है कि मद्रास हाईकोर्ट के एक जज भी अपनी संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा कर रहे हैं। इस सारे घटनाक्रम का स्वागत किया जाना चाहिए और देश को भारत के मुख्य न्यायाधीश का आभार व्यक्त करना चाहिए जिन्होंने इतने नाजुक मसले पर बहस का माहौल बनाया। इससे न्यायपालिका की विश्वसनीयता को बहुत ताकत मिलेगी।
Wednesday, August 12, 2009
स्टिंग आपरेशन पर मुहर
यानी स्टिंग आपेरशन करने की मनमानी छूट नहीं दी गई है। अदालत के इस फैसले से मीडिया को अनुशासन और उच्च आदर्शो के प्रति समर्पित रहने का एक बेहतरीन मौका मिला है। आदेश में साफ कहा गया है कि मीडिया को नियंत्रित करने की कोशिश में अगर नियम-कानून बनाए गए तो लाभ कम और नुकसान अधिक होगा। मीडियाकर्मियों को चाहिए कि खुद की आचार संहिता के कायदे-कानून खुद बनाएं और पेशागत मानदंडों को हासिल करने के लिए उन्हें लागू करें। 1950 में आल इंडिया न्यूजपेपर एडिटर्स कांफ्रेंस में जवाहर लाल नेहरू ने कहा था, ''इसमें शक नहीं कि सरकार प्रेस की आजादी को बहुत पसंद नहीं करती और उसे खतरनाक मानती है, फिर भी प्रेस की आजादी में दखल देना गलत है।
मैं एकदम स्वतंत्र प्रेस को सही मानता हूं। हर वह खतरा बर्दाश्त करने को तैयार हूं जो प्रेस की आजादी की वजह से संभावित है, लेकिन दबा हुआ या सरकारी कानून के दायरे में बंधा प्रेस मुझे मंजूर नहीं है।'' प्रेस की आजादी कितनी आवश्यक है, यह नेहरू के उपरोक्त कथन से स्पष्ट हो जाती है।
शीर्षस्थ अदालत ने कहा है कि टीवी चैनलों के कुछ कार्यक्रम तो अच्छे हैं, लेकिन कुछ इतने बेकार हैं कि उनके बारे में बातचीत करना भी ठीक नहीं है। इसलिए टीवी चैनलों को अपना स्तर सुधारने का प्रयास करना होगा।
इलेक्ट्रानिक मीडिया के बारे में सुप्रीम कोर्ट का विचार एक अन्य मामले की सुनवाई के दौरान आया। वरिष्ठ अधिवक्ता आरके आनंद को हाईकोर्ट से मिली सजा के खिलाफ अपील की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट का आदेश देश के न्याय शास्त्र के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित होगा। एक गवाह को रिश्वत देने के मामले में दिल्ली हाईकोर्ट ने आरके आनंद और सरकारी वकील आईयू खान को सजा सुनाई थी। यह मामला हाई कोर्ट की जानकारी में एक निजी टीवी चैनल के स्टिंग आपरेशन के जरिए आया था।
हाई कोर्ट ने दोनों वकीलों पर दो-दो हजार रुपए का जुर्माना लगाया था। सीनियर एडवोकेट की पदवी छीन ली थी और चार महीने तक वकालत करने पर पाबंदी लगा दी थी। दोनों वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की, जिसमें हाई कोर्ट के फैसले को रद करने की प्रार्थना की गई थी और साथ ही यह भी कि स्टिंग आपरेशन करके न्यूज चैनल ने गलती की और मीडिया ने उन्हें फंसाया है। अर्जी में न्यूज चैनलों पर सख्ती लागू करने और सरकारी नियंत्रण की बात भी की गई थी। मीडिया पर नकेल कसने की अभियुक्तों की अपील उल्टी पड़ गई।
अदालत ने एक तरह से स्टिंग आपरेशन को समाचार संकलन की एक तरकीब के रूप में मान्यता दे दी, बशर्ते वह राष्ट्रीय हित में हो। आईयू खान को भी फटकार लगाकर छोड़ दिया, लेकिन आरके आनंद को हैसियत का बोध कराने वाला आदेश पारित कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की कि हाई कोर्ट ने उनके साथ नरमी बरती है।
सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि उनकी सजा को क्यों न बढ़ा दिया जाए? कोर्ट ने आनंद को बताया कि उनका जुर्म गंभीर है। एक आपराधिक मुकदमे में गवाह को रिश्वत देने की कोशिश करना निंदनीय है। इसके अलावा हाई कोर्ट के सामने उनका आचरण मामले को और भी गंभीर बना देता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आनंद के अपराध की गंभीरता के मद्देनजर उनको दी गई सजा बहुत कम है।
आर के आनंद को जो सजा मिली है उसके गुण-दोष विवेचन तो अभी सुप्रीम कोर्ट को करना है। आने वाले वक्त में कानून के विद्यार्थी इस मामले की रोशनी में भारतीय न्याय प्रक्रिया का अध्ययन करेंगे, लेकिन साधारण आदमी को इस केस के मानवीय पहलू में भी रुचि है। जिस मामले में आरके आनंद और आईयू खान को टीवी चैनल ने पकड़ा था वह एक रईसजादे द्वारा गरीब लोगों को बीएमडब्लू कार से कुचल कर मार डालने से संबंधित है।
इसी रईसजादे को कानून से बचाने के लिए आरके आनंद ने यह अपराध किया था। जानकार बताते हैं कि आरके आनंद की सजा बढ़ने की संभावना है, क्योंकि वह न्यूज चैनल के स्टिंग आपरेशन पर हमला करके अपने आपको बरी करवाना चाहते थे।
लेख
Monday, August 3, 2009
कांग्रेस ने किया मीडिया और विपक्ष का इस्तेमाल
मिस्र के नगर शर्म-अल-शैख में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बीच हुई बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकला था। दोनों देशों के नेता अपनी घोषित पोजीशन से हटने को तैय्यार नहीं थे। पाकिस्तान लगातार कंपोजि़ट डायलाग की बात करता रहा तो भारत का आग्रह था कि भारत के खिलाफ होने वाले आतंकवादी हमलों पर पाकिस्तान सही तरीके से विचार करे और अपने मुल्क में काम कर रहे आतंक के ढांचे का विनाश करे।
दोनों ही देशों पर अमरीका का दबाव था। भारत पर अमरीकी दबाव का असर कम पड़ता है लेकिन पाकिस्तान तो लगभग पूरी तरह से अमरीकी मदद पर ही निर्भर है। अमरीका डांट फटकार का पाकिस्तान से कुछ भी करवा सकता है लेकिन उसे एक सीमा से ज्यादा दबाने से सिविलियन सरकार के लिए बहुत मुश्किलें पेश आ सकती हैं। इसलिए शर्म-अल-शैख में भारत ने कंपोजिट डायलाग की बात मानने से इनकार कर दिया और अपने आपको किसी शर्त से मुक्त कर लिया। दोनों नेताओं की बातचीत के बाद जो बयान जारी किया गया उसके अनुसार अभी कोई कंपोजिट डायलाग नहीं होगा, दोनों देशों के विदेश सचिव आपस में मिलते जुलते रहेंगे और अपने विदेश मंत्रियों को बातचीत की जानकारी देते रहेंगे।
जब सही वक्त आएगा तो बातचीत शुरू की जाएगी। ज़ाहिर है कि भारत ने पाकिस्तान को झिटक दिया था और कंट्रोल अपने हाथ में ले लिया था कि जब भारत चाहेगा तो बातचीत होगी। पहले के भारतीय राजनीतिक कहते रहते थे कि भारत के खिलाफ होने वाले आतंक के नेटवर्क को जब तक पाकिस्तान खत्म नहीं करता, उससे कोई बातचीत नहीं होगी। शर्म-अल-शैख की यही उपलब्धि है कि वहां यह बात साफ कर दी गई कि आतंक और कंपोजिट डॉयलाग अलग-अलग बातें हैं, दोनों एक दूसरे पर निर्भर नहीं हैं। यानी भारत जब चाहे तब पाकिस्तान से बात करने को स्वतंत्र है, उस पर कोई पाबंदी नहीं है।
इस बातचीत के दौरान पाकिस्तानी खेमे ने भारतीय अधिकारियों को कथित रूप से एक पुलिंदा भी पकड़ा दिया था जिसमें बलूचिस्तान की आजादी की लड़ाई में भारत का हाथ होने की बात कही गई थी। यहां यह समझना जरूरी है कि शर्म-अल-शैख में दोनों पक्षों के बीच में किसी तरह की सहमति नहीं हुई थी बातचीत के बाद तय हुआ था कि फिर मौका लगा तो बातचीत की जायेगी। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गीलानी ने स्वदेश लौटकर अपनी यात्रा को बहुत सफल बताया और मीडिया में इस तरह का माहौल बनाया जैसे भारत विजय करके लौटे हों। पाकिस्तानी मीडिया भी उनकी रौ में बह गया लेकिन सच्चाई सबको मालूम थी। पाकिस्तानी फौज, आईएसआई पाकिस्तानी मीडिया, चीन, अमरीका और यूसुफ रजा गीलानी सबको मालूम था कि भारतीय प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान को एक इंच नहीं दिया है लेकिन सबकी अपनी मुकामी मजबूरियां होती हैं, सबने उसी तरह से बात करना शुरू कर दिया। भारत के मुख्य विपक्षी दल ने भी कहना शुरू कर दिया कि डा. मनमोहन सिंह ने शर्म-अल-शैख में सब कुछ लुटा दिया। भारत में पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग अंतर्राष्टï्रीय मामलों की साफ समझ नहीं सकता। इस वर्ग के वरिष्ठ लोग सरकार की विदेश नीति संबंधी आलोचना मुख्य विपक्षी दल की राय को ध्यान में रखकर करते हैं। ज़ाहिर है कि पूरे देश में माहौल बन जाता है कि विपक्षी पार्टी के कुछ लोग जो कह रहे हैं, वही जनता का भी मत है। इस बार भी वही हुआ। पराश्रयी चिंतन पर आधारित मीडिया के मर्मज्ञों ने भारत-पाक रिश्तों पर राग बीजेपी में अलाप लेना शुरू कर दिया। उसी में तरह-तरह की रागिनियां गाई जाने लगीं।
बीजेपी की प्रिय रागिनी जो कमजोर प्रधानमंत्री की कथा पर आधारित है, एक बार फिर चर्चा में आ गई। बीजेपी के प्रवक्ताओं ने कहना शुरू कर दिया कि मनमोहन सिंह ने शर्म-अल-शैख में मनमानी की है और कांग्रेस पार्टी भी उनके साथ नहीं है, उन्होंने संसद को विश्वास में लिए बिना इतनी बड़ी बात कर दी वगैरह-वगैरह। यह बात दस दिनों तक चली और पूरे विपक्ष ने शर्म-अल-शेख में हुई बातचीत और कांग्रेस के ताथाकथित मतभेद पर अपनी सारी ताकत लगा दी। कांग्रेस पार्टी के लिए यह स्थिति बहुत ही अच्छी थी। केंद्रीय बजट पर बहस चल रही थी और मंहगाई का मुद्दा बहुत ही भयानक रुख ले चुका है।
सरकार दावा कर रही है कि मंहगाई की दर बिलकुल घट गई है, हालत बहुत सुधर गए हैं। सच्चाई यह है कि जब आम आदमी दुकान पर कुछ भी खरीदने जाता है तो मंहगाई का दानव उसे घेर लेता है। मंहगाई पूरी तरह से मध्यवर्ग की कमर तोड़ रही है। लेकिन विपक्षी पार्टियों ने इस मुद्दे पर संसद में बजट पर बहस के दौरान कोई सवाल नहीं उठाया। जितना महत्व सरकारी प्रधानमंत्री का है, उतना ही महत्व विपक्ष के नेता का भी है। लोकतंत्र में जनता उम्मीद करती है कि नेता विपक्षी दल उसकी तरफ से सरकार पर लगाम लगाए लेकिन दुर्भाग्य है कि इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ। मुख्य विपक्ष के नेता वॉक आउट करते रहे, हल्ला मचाते रहे और कांग्रेस के भीतर की कलह के प्रहसन पर उल्टी सीधी टिप्पणी करते रहे।
बिना किसी संकोच कहा जा सकता है कि विपक्ष ने बजट पर हुई बहस के दौरान कोई रचनात्मक और सकारात्मक भूमिका नहीं निभाई हां, अगर कोई राष्टï्रीय संकट होता, देश की एकता और अखंडता पर प्रश्न उठ रहे होते तो नून, तेल, लकड़ी की चर्चा को भूल जाना उचित था लेकिन ऐसी कोई बात नहीं थी। कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री के जिस मतभेद की चर्चा की जा रही थी, उसका आम आदमी से कोई लेना देना नहीं है। वैसे भी दस दिन के हल्ले के बाद कांग्रेस ने स्पष्टï कर दिया कि वह पूरी तरह से प्रधानमंत्री के साथ है, यानी विपक्षी पार्टियों ने एक नॉन इश्यू पर अपनी ताकत बर्बाद की। ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने बजट और मंहगाई से विपक्ष का ध्यान बंटाने के लिए यह हालात जान बूझकर पैदा किया था और विपक्ष उस जाल में पूरी तरह उलझ गया। लेकिन इस सारी प्रक्रिया में लोकतंत्र और राजनीति का भारी नुकसान हुआ।
विपक्षी पार्टियों को चाहिए कि आगे इस तरह की स्थिति न आने दें। इस सारे गोरखधंधे में मीडिया की भूमिका पर भी गौर करने की जरूरत है। हमने शर्म-अल-शेख की दोनों प्रधान मंत्रियों की बातचीत के बात जारी की गई विज्ञप्ति को इस तरह से पेश किया जैसे वह किसी समझौते के बाद जारी किया गया घोषणा पत्र हो। ऐसा नहीं था, वह बातचीत की एक तरह से रिपोर्ट थी। उसमें जो सहमति हुई थी वह यह कि जब भी कभी दोनों विदेश सचिव मिलेंगे तो बातचीत करेंगे और अपने विदेश मंत्री को बता देंगे। हां आतंकवाद और कंपोजिट डॉयलाग को एक दूसरे से अलग कर दिया गया था। शर्म-अल-शेख से लौटकर कूटनीति और अंतर्राष्टï्रीय संबंधों के जानकार कद्दावर पत्रकारों ने अपने-अपने अखबारों में इसी तरह के विश्लेषण भी लिखे लेकिन जिन भाइयों की समझ में विज्ञप्ति की भाषा नहीं आई या कूटनीति की बारीकियां नहीं आईं, उन्होंने विपक्षी पार्टी के नेताओं के वक्तव्यों को आधार बनाकर राजनीतिक कूटनीतिक विश्लेषण लिख मारा।
विपक्ष की तो डयूटी है कि वह सरकार को कटघरे में खड़ा करे लेकिन मीडिया की डयूटी सच्चाई को बिना किसी लाग लपेट के बयान करना है। शर्म-अल-शेख वाले मामले में मीडिया का एक बड़ा वर्ग सच्चाई को पकडऩे में गफलत का शिकार हुआ है। कोशिश की जानी चाहिए कि ऐसे मौके दुबारा न आएं। जहां तक विपक्ष का सवाल है वह कांग्रेसी चाल का शिकार हुआ है, उन्हें भी आगे से संभल कर रहना होगा और कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार को जनता के हित में काम करने को मजबूर करना होगा।
हिंदू धर्म और हिंदुत्व मे फर्क
सावरकर ने हिंदुत्व की परिभाषा भी दी। उनके अनुसार -''हिंदू वह है जो सिंधु नदी से समुद्र तक के भारतवर्ष को अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि माने। इस विचारधारा को ही हिंदुत्व नाम दिया गया है। ज़ाहिर है हिंदुत्व को हिंदू धर्म से कोई लेना देना नहीं है। लेकिन हिंदू धर्म और हिंदुत्व में शाब्दिक समानता के चलते पर्यायवाची होने का बोध होता है। इसी भ्रम के चलते कई बार सांप्रदायिकता के खतरे भी पैदा हो जाते हैं। धर्म और सांप्रदायिकता के सवाल पर कोई भी सार्थक बहस शुरू करने के पहले यह जरूरी है कि धर्म के स्वरूप और उसके दर्शन को समझने की कोशिश की जाये।
दर्शन शास्त्र के लगभग सभी विद्वानों ने धर्म को परिभाषित करने का प्रयास किया है। धर्म दर्शन के बड़े ज्ञाता गैलोबे की परिभाषा लगभग सभी ईश्वरवादी धर्मों पर लागू होती है। उनका कहना है कि -''धर्म अपने से परे किसी शक्ति में श्रद्घा है जिसके द्वारा वह अपनी भावात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है और जीवन में स्थिरता प्राप्त करना है और जिसे वह उपासना और सेवा में व्यक्त करता है।
इसी से मिलती जुलती परिभाषा ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में भी दी गयी है जिसके अनुसार ''धर्म व्यक्ति का ऐसा उच्चतर अदृश्य शक्ति पर विश्वास है जो उसके भविष्य का नियंत्रण करती है जो उसकी आज्ञाकारिता, शील, सम्मान और आराधना का विषय है।
यह परिभाषाएं लगभग सभी ईश्वरवादी धर्मों पर लागू होती हैं। यह जानना दिलचस्प होगा कि भारत में कुछं ऐसे भी धर्म हैं जो सैद्घांतिक रूप से ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते। जैन धर्म में तो ईश्वर की सत्ता के विरूद्घ तर्क भी दिए गये हैं। बौद्घ धर्म में प्रतीत्य समुत्पाद के सिद्घांत को माना गया है जिसके अनुसार प्रत्येक कार्य का कोई कारण होता है और यह संसार कार्य-कारण की अनन्त श्रंखला है। इसी के आधार पर दुख के कारण स्वरूप बारह कडिय़ों की व्याख्या की गयी है। जिन्हें द्वादश निदान का नाम दिया गया है।
इसीलिए धर्म वह अभिवृत्ति है जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को, प्रत्येक क्रिया को प्रभावित करती है। इस अभिवृत्ति का आधार एक सर्वव्यापक, अदार्श विषय के प्रति आस्था है। यह विषय जैन धर्म का कर्म-नियम, बौद्घों का प्रतीत्य समुत्पाद का सिद्घांत या वैष्णवों, ईसाइयों और मुसलमानों का ईश्वर हो सकता है। आस्था और विश्वास में अंतर है। विश्वास तर्क और सामान्य प्रेक्षण पर आधारित होता है लेकिन आस्था तर्क से परे की स्थिति है। विश्वविख्यात दार्शनिक इमनुअल कांट ने आस्था की परिभाषा की है। उनके अनुसार ''आस्था वह है जिसमें आत्मनिष्ठ रूप से पर्याप्त लेकिन वस्तुन्ष्टि रूप से अपर्याप्त ज्ञान हो।
आस्था का विषय बुद्घि या तर्क के बिल्कुल विपरीत नहीं होता लेकिन उसे तर्क की कसौटी पर कसने की कोशिश भी नहीं की जानी चाहिए। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि जो धार्मिक मान्यताएं बुद्घि के विपरीत हों, वे स्वीकार्य नहीं। धार्मिक आस्था तर्कातीत है तर्क विपरीत नहीं। सच्चाई यह है कि धार्मिक आस्था का आधार अनुभूति है। यह अनुभूति सामान्य अनुभूतियों से भिन्न है। इसी अनुभूति को रहस्यात्मक अनुभूति या समाधिजन्य अनुभूति का जाता है। यह अनुभूति सबको नहीं होती केवल उनको ही होती है जो अपने आपका इसके लिए तैयार करते हैं।
इस अनुभूति को प्राप्त करने के लिए धर्म में साधना का मार्ग बताया गया है। इस साधना की पहली शर्त है अहंकार का त्याग करना। जब तक व्यक्ति तेरे-मेरे के भाव से मुक्त नहीं होगा, तब तक चित्त निर्मल नहीं होगा और दिव्य अनुभूति प्राप्त नहीं होगी। इस अनुभूति का वर्णन नहीं किया जा सकता क्योंकि इस अनुभूति के वक्त ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान की त्रिपुरी नहीं रहती। कोई भी साधक जब इस अनुभूति का वर्णन करता है तो वह वर्णन अपूर्ण रहता है। इसीलिए संतों और साधकों ने इसके वर्णन के लिए प्रतीकों का सहारा लिया है। प्रतीक उसी परिवेश के लिए जाते हैं, जिसमें साधक रहता है इसीलिए अलग-अलग साधकों के वर्णन अलग-अलग होते हैं, अनुभूति की एकरूपता नहीं रहती।
लेकिन यह बात निर्विवाद है कि इस दिव्य अनुभूति का प्रभाव सभी देशों और कालों में रहने वाले साधकों पर एक सा पड़ता है। अध्यात्मिक अनुभूति की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि सन्त चरित्र है। सभी धर्मों के संतों का चरित्र एक सा रहता है। सन्तों का जीवन के प्रति दृष्टिïकोण बदल जाता है, ऐसे सन्तों की भाषा सदैव प्रतीकात्मक होती है। इसका उद्देश्य किसी वस्तुसत्ता का वर्णन करना न होकर, जिज्ञासुओं तथा साधकों में ऊंची भावनाएं जागृत करना होता है। सन्तों में भौतिक सुखों के प्रति उदासीनता का भाव पाया जाता है। लेकिन यह उदासीनता नकारात्मक नहीं होती। पतंजलि ने साफ साफ कहा है कि योग साधक के मन में मैत्री, करुणा एवं मुदिता अर्थात दूसरों के सुख में संतोष के गुण होने चाहिये।
सांसारिक सुखों के प्रति जो उदासीनता सन्तों में पाई जाती है उसे एक उदाहरण में समझा जा सकता है। छोटी बच्ची गुडिय़ा के गायब हो जाने पर दुखी होती है और मिल जाने पर खुश होती है। उसके माता पिता मुस्कुराते हैं और बच्ची के व्यवहार को नासमझी समझते हैं। उसी प्रकार सन्त भी आम आदमी के ईप्र्या, द्वेष, मान-अपमान संबंधी मापदंडों पर मुस्कुराते हैं और मानते हैं कि जीवन के उच्चतर मूल्यों को न समझ पाने के कारण व्यक्ति इस तरह का आचरण करता है। भौतिक उपलब्धियों के प्रति उदासीनता का यह भाव श्रेष्ठ वैज्ञानिकों, चिन्तकों आदि में भी पाया जाता है।
लेकिन सन्त मानवीय तकलीफों के प्रति उदासीन नहीं होते। अरण्यकांड के अंत मे गोस्वामी तुलसीदास ने सन्तों के स्वभाव की विवेचना की है। कहते हैं-संत सबके सहज मित्र होते हैं-श्रद्घा, क्षमा, मैत्री और करुणा उनके स्वाभाविक गुण होते हैं। बौद्घ ग्रंथों में भी ब्रह्मï विहार को भिक्षुओं का स्वाभाविक गुण बताया गया है। मैत्री, करुणा, मुदिता और सांसारिक भागों के प्रति उपेक्षा ही ब्रह्मï विहार हैं। किसी भी धर्म की सर्वोच्च उपलब्धि सन्त चरित्र ही है। इसीलिए हर धर्म के महान संतों ने मैत्री, करुणा और मुदिता का ही उपदेश दिया है। भारतीय संदर्भ में धर्म का विशेष अर्थ है। प्राचीन भारतीय चिन्तन में मूल्य का प्रयोग नहीं हुआ है। मूल्य की बजाय पुरुषार्थ शब्द का प्रयोग किया गया है।
चार पुरुषार्थ हैं-धर्म, अर्थ, काम है मोक्ष। आमतौर पर 'धर्म शब्द का प्रयोग मोक्ष या पारलौकिक आनन्द प्राप्त करने के मार्ग के रूप में किया जाता है। लेकिन भारतीय परम्परा में धर्म और मोक्ष समानार्थी शब्द नहीं हैं। धर्म का अर्थ नैतिक आचरण के रूप में किया गया है, धर्म सम्मत अर्थ और काम ही पुरुषार्थ हैं। धर्म शब्द की व्युत्पत्ति 'धृ धातु से हुई है। जिसका अर्थ है धारण करना। महाभारत में कहा गया है कि जो समाज को धारण करे वही धर्म है।
यहां धर्म नैतिक चेतना या विवेक के अर्थ में प्रयोग किया गया है। वैसे भी भारतीय परम्परा में धर्म शब्द का प्रयोग अधिकतर कर्तव्य के अर्थ में ही होता है। इसीलिए धर्म के दो प्रकार बताए गये हैं-विशेषधर्म और सामान्य धर्म। सामान्य धर्म मानव का स्वाभाविक धर्म है जबकि विशेष धर्म उसके विभिन्न सामाजिक सन्दर्भों में कर्तव्य है। सामान्य धर्म है-धृति:, क्षमा,यम, शौचम् अस्तेयम् इन्द्रिय निग्रह, धा,विद्या, सत्यम, आक्रोध। मतलब यह है कि धर्म इंसान के लिए बहुत जरूरी चीज है। सच्चा धर्म मनुष्य के चरित्र को उदात्त बनाता है और वसुधैव कुटुंबकम् की धारणा को विकसित करता है। धर्म मनुष्यों को जोड़ता है, तोड़ता नहीं।
प्रथम पुरुषार्थ के रूप में धर्म नैतिकता है और चौथे पुरुषार्थ, मोक्ष की प्राप्ति का साधन है। इसीलिए नैतिक आचरण या धर्म आचरण का पालन न करने वाला व्यक्ति मोक्ष प्राप्ति का अधिकारी नहीं हो सकता। हमने देखा कि भारतीय परम्परा के अनुसार धर्म पूरी तरह से जीवन के हर पक्ष को प्रभावित करता है जबकि सम्प्रदाय का एक सीमित क्षेत्र है। संस्कृत कोश के अनुसार सम्प्रदाय का अर्थ है-धर्म (मोक्ष) शिक्षा की विशेष पद्घति। औक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार मज़हब का अर्थ है-वह धार्मिक ग्रुप या वर्ग जो मुख्य परम्परा से हटकर हो। सवाल यह है कि विभिन्न सम्प्रदाय पैदा क्यों और कैसे होते हैं। ऐसा लगता है कि सभी लोग धर्म के उदात्त स्वरूप को समझ नहीं पाते हैं जिस अहंकार से मुक्ति धर्म साधना की मुख्य शर्त होती है, उसी के वशीभूत होकर अपने-अपने ढंग से धर्म के मूल स्वरूप की व्याख्या करने लगते हैं।
दार्शनिक मतभेद के कारण भी अलग-अलग सम्प्रदायों का उदय होता है। उपनिषदों में अनुभूतिजन्य सत्य का वर्णन किया गया है। इन अनुभूतियों की व्याख्या उद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैत, शुद्घाद्वैत आदि दार्शनिक दृष्टिïयों से की गयी है। सत्य की अनुभूति के लिए इन सम्प्रदायों में अलग-अलग पद्घति बताई गयी है। लेकिन जो बात सबसे अहम है, वह यह है कि सभी सम्प्रदायों में साधना की पद्घति की विभिन्नता तो है लेकिन नैतिक आचरण के मामले पर लगभग पूरी तरह से एक रूपता है। परेशानी तब होती है जब विभिन्न सम्प्रदायों के अनुयायी इस एकरूपता का कम महत्व देकर, भिन्नता पर ही फोकस कर लेते हैं और अपनी सांप्रदायिक मान्यता को सबसे ऊपर मानने लगते हैं।
यहां समझने की बात यह है कि अपने सम्प्रदाय को सबसे बड़ा मानने में वे अहंकार की शरण जाते हैं और हमने इस की शुरूआत में ही बता दिया है कि धार्मिक साधना की पहली शर्त ही अहंकार का खात्मा है। जब व्यक्ति या सम्प्रदाय अहंकारी हो जाता है तो संघर्ष की स्थिति पैदा हो जाती है। जाहिर है कि अहंकारी व्यक्ति सांप्रदायिक तो हो सकता है, धार्मिक कतई नहीं हो सकता। संकुचित दृष्टि के कारण सामाजिक विद्वेष उत्पन्न होता है। लोग लक्ष्य को भूल जाते हैं और सत्य तक पहुंचने के रास्ते को ही महत्व देने लगते हैं और यही सांप्रदायिक आचरण है।
कभी-कभी स्वार्थी और चालक लोग भी साधारण लोगों को सांप्रदायिक श्रेष्ठता के नाम पर ठगते हैं। एक खास किस्म की पूजा पद्घति, कर्मकांड आदि के चक्कर में सादा दिल इंसान फंसता जाता है। समाज में दंगे फसाद इसे संकीर्ण स्वार्थ के कारण होते हैं। जो सत्ता सारी सृष्टि में व्याप्त है, उसे हम मंदिरों और गिरिजाघरों में सीमित कर देते हैं और इंसान को बांट देते हैं।धर्म का लक्ष्य सन्त चरित्र है, दम्भी, लोभी और भोगी गुरू नहीं सत्य तो एक ही है उसकी प्राप्ति के उपाय अनेक हो सकते हैं और अगर मकसद को भूलकर उस तक पहुंचने के साधन पर लड़ाई भिड़ाई हो जाए तो हम लक्ष्यहीन हो जाएंगी और दिग्भ्रम की स्थिति पद होगी। और इसी हालत का फायदा उठाकर हर धर्म का कठमुल्ला और धार्मिक विद्वेष की राजनीति की रोटी खाने वाला नेता सांप्रदायिक दंगे कराएगा, समाज को बांटेगा और धार्मिकता के लक्ष्य में अडंगा खड़ा करेगा।
ज़ाहिर है धर्म को सम्प्रदाय मानने की गलती से ही संघर्ष और दंगे फसाद के हालात पैदा होते हैं और अगर हमारी आजादी की लड़ाई के असली मकसद को हासिल करना है तो उदारवादी राजनीति के नेताओं को चाहिए वे आम आदमी को धर्म के असली अर्थ के बारे में जानकारी देने का अभियान चलाएं और लोगों को जागरूक करें। ऐसा करने से आजादी की लड़ाई का एक अहम लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा।