शेष नारायण सिंह
आतंकवाद के प्रायोजकों के लिए बहुत बुरी खबर है . आतंकवादियों को मदद देने वालों को सभ्य समाज की ताक़त दबोचती ज़रूर है . ओसामा बिन लादेन का उदाहरण दुनिया के सामने है .उसे अंदाज़ भी नहीं रहा होगा कि आतंक की कीमत इतनी भारी हो सकती है . ताज़ा उदाहरण नरेंद्र मोदी का है . गुजरात में आतंक और २००२ के नरसंहार के लिए ज़िम्मेदार नेता, नरेंद्र मोदी की पूरी दुनिया के सभ्य समाजों में प्रवेश की मनाही है . अभी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उन्हें ज़रा संभल के रहने की चेतावनी दी है .इसके पहले अमरीका और यूरोप के देशों की कुछ सरकारों ने उनकी वीजा की अर्जी को ठुकरा कर उन्हें अपनी हैसियत में रहने की ताकीद की थी. १९७४ में चिली के राष्ट्रपति अलेंदे को मार कर चिली में आतंक का शासन कायम करने वाले पिनोशे का भी वही हाल हुआ जो बाकी आतंक फैलाने वालों का होता है . आतंक की सियासत के आदिपुरुष, एडोल्फ हिटलर को अपने किये की जो सज़ा मिली, उस से दुनिया में आतंक की खेती करने वाले आजतक सबक लेते हैं .१९८४ में सिखों को चुन चुन कर आतंक का शिकार बनाने वाले अर्जुन दास, ललित माकन, हरिकिशन लाल भगत ,सज्जन कुमार और जगदीश टाइटलर का हश्र दुनिया ने देखा ही है .आतंक की सियासत के नतीजों को भोगने का एक नया मामला सामने आया है . करीब ३५ साल से अमरीका और पश्चिमी यूरोप के देशों के खिलाफ अभियान चला रहे, लीबिया के राष्ट्रपति , कर्नल मुअम्मर गद्दाफी को तीसरी दुनिया के बहुत सारे देशों में इज्ज़त से देखा जाता था लेकिन अपने आपको गलत समझने के चक्कर में वे आतंकवादी गतिविधियों के प्रायोजक हो गए.और इंग्लैंड में आतंक फैला रहे आयरिश रिपब्लिकन आर्मी के आतंकवादियों को हथियार देने लगे जिसका इस्तेमाल करके उन लोगों ने आयरलैंड और इंग्लैण्ड में खूब आतंक फैलाया . हज़ारों लोगों का मौत के घाट उतारा और सामान्य जीवन को खतरनाक बनाया .. अब तो दुनिया जानती है कि लाकरबी विमान विस्फोट काण्ड भी कर्नल गद्दाफी के दिमाग की उपज थी क्योंकि अब उन्होंने ही उसे स्वीकार कर लिया है ... हालांकि सबको मालूम है कि गद्दाफी ने अमरीकी और पश्चिमी यूरोप के साम्राज्यवादी मुल्कों की उस लूट पर लगाम लगाई थी जो पेट्रोल के आविष्कार के बाद से ही जारी थी . लेकिन अपने उत्साह में उन्होंने निर्दोष लोगों को मारने का काम शुरू कर दिया जो उन्हें नहीं करना चाहिए था लेकिन गद्दाफी निरंकुश तानाशाह थे और उनको टोकने की हिम्मत किसी के पास नहीं थी . बाद में जब सोवियत रूस का विघटन हुआ तो गद्दाफी ने पश्चिम के देशों से रिश्ते सुधारने की कोशिश शुरू कर दी लेकिन वह कोशिश उनको बहुत महंगी पड़ रही है . लाकरबी विमान के हादसे के शिकार हुए लोगों के परिवारों को वे बहुत बड़ी रक़म बतौर मुआवजा दे चुके हैं . और अब खबर आई है कि वे आयरलैंड में आतंक के शिकार हुए परिवारों को भी करीब १५ हज़ार करोड़ रूपये के बराबर की रक़म देने वाले हैं . हालांकि वे इसे मुआवजा नहीं मान रहे हैं , उनका कहना है कि यह तो मानवीय सहायता के लिए दिया जा रहा है लेकिन यह तय है कि कि लीबिया की सरकार आयरलैंड के आतंक के शिकार लोगों को बहुत बड़ी रक़म दे रही है .. गद्दाफी ने आयरलैंड के आतंकवादियों को एक खतरनाक विस्फोटक सेमटैक्स की सप्लाई की थी . यह एक प्लास्टिक विस्फोटक है और आर डी एक्स जैसा असर करता है . गद्दाफी की सरकार की तरफ से सप्लाई किये गए सेमटैक्स का इस्तेमाल कम से कम दस आतंकवादी वारदातों में हुआ था लन्दन के विख्यात डिपार्टमेंटल स्टोर, हैरड्स और लाकरबी विमान के धमाके में इसी विस्फोटक का इस्तेमाल हुआ था. लाकरबी धमाके के शिकार लोगों के परिवार वालों को तो गद्दाफी पहले ही मुआवाज़ा दे चुके हैं . यह सारी रक़म रखवा लेने के बाद ब्रिटेन की सरकार ने गद्दाफी को केवल यह राहत दी है कि वे आयरलैंड में मानवीय सहायता के नाम पर कुछ कार्यक्रम चला सकते हैं जिस से यह लगे कि वे जो कुछ भी दे रहे हैं अपनी खुशी से दे रहे हैं ,उन पर कोई दबाव नहीं है . बहर हाल तरीकों पर चर्चा करना यहाँ उद्देश्य नहीं है लेकिन यह पक्का है कि आतंकवादी की राजनीति हमेशा हार कू ही गले लगाती है और इंसानियत हर बार विजयी रहती है . भविष्य के आतंकवादियों को इन पुराने आतंकियों के अंजाम को देख कर सबक ज़रूर लेना चाहिए
Showing posts with label लीबिया. Show all posts
Showing posts with label लीबिया. Show all posts
Tuesday, June 15, 2010
Saturday, September 26, 2009
लाल बुझक्कड़ी कूटनीति और गद्दाफी
लीबिया के तानाशाह, कर्नल मुअम्मर गद्दाफी के बारे में 70 के दशक में चर्चा होती थी कि वे कुछ सनकी हैं लेकिन दुनिया भर के प्रबुद्घ लोग आम तौर पर मानते थे कि वह प्रचार अमरीका और अमरीका परस्त मीडिया के अभियान का नतीजा होता था। उनके ऊपर आरोप लगा कि उन्होंने अपने अमरीका विरोध के जुनून में कुख्यात लाकरबी विमान विस्फोट कांड की साजिश रची। ऐसे बहुत सारे काम उनके खाते में दर्ज हैं जिसकी वजह से उन्हें सनकी माना जा सकता था लेकिन उनकी अमरीका का विरोध करने की शख्सियत के चलते मान लिया जाता था कि उनकी छवि को अमरीका खराब कर रहा है लेकिन अब ऐसा नहीं है।
संयुक्त राष्ट्र की जनरल असेंबली में अपने 100 मिनट के भाषण में कर्नल गद्दाफी ने साबित कर दिया कि उनके दिमागी संतुलन के बारे में प्रचलित बहुत सारी कहानियों में सच्चाई भी हो सकती है क्योंकि यह आरोप नहीं लगाया जा सकता कि उनको किसी ने मजबूर किया था कि वे वह भाषण दें जो उन्होंने वाशिंगटन में दिया। गौर करने की बात यह है कि उन्हें पहली बार इस विश्व संस्था में भाषण देने का मौका मिला। भाषण हस्तलिखित यानी गद्दाफी ने खुद ही अपने दिमाग का इस्तेमाल करके वहां वह प्रलाप किया, जिसके बाद उनके मानसिक असंतुलन के बारे में कोई शक नहंी रह जाता।
इस बात में दो राय नहीं है कि कर्नल गद्दाफी को अंतर्राष्टï्रीय संबंधों की बारीकियों की कोई जानकारी नहीं है।
क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय मंच पर किसी ऐसे देश के मसले को उठाना अपरिपक्वता की निशानी है लेकिन कूटनीति की बारीकियों से अनभिज्ञ गद्दाफी के लिए इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अपनी इसी सोच के चलते उन्होंने अपने भाषण में कश्मीर के मामले पर चर्चा की। सच्चाई यह है कि गद्दाफी या उनके देश लीबिया का कश्मीर समस्या से कोई लेना देना नहीं है लेकिन उनका कश्मीर मामले पर अपने आपको एक पार्टी बना देना परले दर्जे की राजनीतिक अपरिपक्तवता है। ऐसा करके उन्होंने भारत को तो नाराज किया ही, अपने प्रिय मित्र पाकिस्तान को भी बहुत खुश नहीं किया क्योंकि पाकिस्तान भी कश्मीर को एक स्वतंत्र देश के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं है, वह तो उसे अपने साथ मिलाना चाहता है। जहां तक भारत की बात है कश्मीर उसका एक राज्य है जो भारत के बंटवारे के बाद कश्मीर के राजा हरिसिंह की दस्तखत के बाद भारत का हिस्सा बना था।
कश्मीर के कुछ इलाके पर पाकिस्तान का कब्जा है जिसे वापस लेने के लिए भारत कूटनीतिक स्तर पर लगातार प्रयास कर रहा है। कश्मीर मसले पर मान न मान, मैं तेरा मेहमान की तर्ज पर इंट्री लेकर गद्दाफी ने यही साबित किया है कि वे कूटनीति की बारीकियों से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं। मुअम्मर गद्दाफी ने संयुक्त राष्ट्र में अपने भाषण के बाद अपने दुश्मनों की संख्या खूब बढ़ा ली है। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को अपमानित करते हुए उसे 'आतंकवादी परिषद' बताया और कहा कि अगर सुरक्षा परिषद का विस्तार हुआ तो दुनिया में गरीबी और नाइंसाफी बढ़ेगी और तनाव में इजाफा होगा। ऐसा लगता है कि जिस मनोदशा के वशीभूत होकर गद्दाफी भाषण कर रहे थे, उसमें कोई तार्किक बात ढूंढना ठीक नहीं होगा।
पता नहीं कैसे उन्होंने अनुमान लगा लिया कि आने वाले वक्त में इटली, जर्मनी, इंडोनेशिया, भारत, पाकिस्तान, फिलीपीन, जापान, अर्जेंटीना और ब्राजील के बीच बहुत प्रतिस्पर्धा होगी। उनके दिमाग में कहीं से यह बात आ गई है कि अगर भारत को सुरक्षा परिषद में जगह दी गई तो पाकिस्तान भी जगह मांगेगा। बहुत पहले, भारत और पाकिस्तान को एक तराजू पर तौलना अमरीकी विदेश नीति की एक प्रमुख धारा हुआ करती थी लेकिन भारत के चौतरफा विकास के बाद अब अमरीका इस नीति को छोड़ चुका है।
यहां तक कि पाकिस्तान भी अब अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है और वह भी अब अपने को भारत के बराबर नहीं मानता। पब्लिक में इस तरह की बात करनी पड़ती है क्योंकि वह पाकिस्तानी शासकों की आतंरिक राजनीति की मजबूरी है। इसलिए पाकिस्तान और भारत को बराबर करने की कोशिश करके गद्दाफी अपने कूटनीतिक अज्ञान का ही परिचय दे रहे थे। गद्दाफी की कल्पना शक्ति ने कुछ और भी कारनामे दिखाए। उन्होंने मांग की कि सदियों तक अफ्रीका को उपनिवेश बनाए रखने वाले मुल्क 70.77 खरब डॉलर का मुआवजा दें। पता नहीं कहां से उन्होंने यह आंकड़ा अर्जित किया था।
बहरहाल जिस रौ में वे बोल रहे थे, उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि उनके मुंह से कुछ भी निकल सकता था और वे उन आंकड़ों के प्रति प्रतिबद्घ तो बिलकुल नहीं नजर आ रहे थे। लेकिन उनकी कल्पना शक्ति की उड़ान यहीं खत्म होने वाली नहीं थी। उन्होंने उन डाकुओं का भी समर्थन किया जो सोमालिया के समुद्री क्षेत्र और उसके बाहर के इलाकों में जहाजों केा लूटने का धंधा कर रखा है। उन्होंने कहा कि डाके का काम करने वाले लोग डाकू नहीं हैं। उन्होंने स्वीकार किया वास्तव में पुराने वक्तों में लीबिया ने वहां जाकर सोमालिया के लोगों की जलसंपदा का हरण किया था इसलिए उनका अपना देश भी डाकू है। लेकिन इसके बात गद्दाफी फिर बहक गए और उन्होंने भारत, जापान और अमरीका को भी जल डाकू घोषित कर दिया।
विश्व बिरादरी के लिए मुश्किल की बात यह है कि इस मानसिक दशा का व्यक्ति आजकल अफ्रीकी देशों के संगठन का भी अध्यक्ष है और अगर वह बहकी बहकी बातें करता रहेगा तो कूटनीति के मैदान में अफ्रीकी देशों का बहुत नुकसान होगा क्योंकि अंतर्राष्टï्रीय मंच पर उल जलूल बात करने वाले की बात को कोई गंभीरता से नहीं लेता। हो सकता है कि संयुक्त राष्टï्र के मंच पर पहली बार अवसर मिलने के बाद गद्दाफी भाव विह्वïल हो गए हों और जो भी मन में आया बोलने लगे हों। यह भी हो सकता है कि उन्हें यह मुगालता हो कि संयुक्त राष्ट्र के मंच पर कुछ भी कह देने का कोई मतलब नहीं है, इसलिए दिल खोलकर भड़ास निकाल लो।
ऐसा इसलिए कि अपने इसी भाषण में गद्दाफी ने संयुक्त राष्ट्र जनरल असेंबली की तुलना लंदन के हाइड पार्क के 'स्पीकर्स कार्नर' से की जहां कोई भी आकर भाषण कर सकता है और अपनी भड़ास निकाल सकता है यानी उन्होंने खुद ही स्वीकार कर लिया कि वे एक प्रलाप कर रहे हैं जिसका कोई भी मतलब नहीं है। उनका यह विश्वास सच लगता है कि उनके लंबे भाषण को सुनने के लिए बहुत कम लोग बचे थे।
संयुक्त राष्ट्र की जनरल असेंबली में अपने 100 मिनट के भाषण में कर्नल गद्दाफी ने साबित कर दिया कि उनके दिमागी संतुलन के बारे में प्रचलित बहुत सारी कहानियों में सच्चाई भी हो सकती है क्योंकि यह आरोप नहीं लगाया जा सकता कि उनको किसी ने मजबूर किया था कि वे वह भाषण दें जो उन्होंने वाशिंगटन में दिया। गौर करने की बात यह है कि उन्हें पहली बार इस विश्व संस्था में भाषण देने का मौका मिला। भाषण हस्तलिखित यानी गद्दाफी ने खुद ही अपने दिमाग का इस्तेमाल करके वहां वह प्रलाप किया, जिसके बाद उनके मानसिक असंतुलन के बारे में कोई शक नहंी रह जाता।
इस बात में दो राय नहीं है कि कर्नल गद्दाफी को अंतर्राष्टï्रीय संबंधों की बारीकियों की कोई जानकारी नहीं है।
क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय मंच पर किसी ऐसे देश के मसले को उठाना अपरिपक्वता की निशानी है लेकिन कूटनीति की बारीकियों से अनभिज्ञ गद्दाफी के लिए इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अपनी इसी सोच के चलते उन्होंने अपने भाषण में कश्मीर के मामले पर चर्चा की। सच्चाई यह है कि गद्दाफी या उनके देश लीबिया का कश्मीर समस्या से कोई लेना देना नहीं है लेकिन उनका कश्मीर मामले पर अपने आपको एक पार्टी बना देना परले दर्जे की राजनीतिक अपरिपक्तवता है। ऐसा करके उन्होंने भारत को तो नाराज किया ही, अपने प्रिय मित्र पाकिस्तान को भी बहुत खुश नहीं किया क्योंकि पाकिस्तान भी कश्मीर को एक स्वतंत्र देश के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं है, वह तो उसे अपने साथ मिलाना चाहता है। जहां तक भारत की बात है कश्मीर उसका एक राज्य है जो भारत के बंटवारे के बाद कश्मीर के राजा हरिसिंह की दस्तखत के बाद भारत का हिस्सा बना था।
कश्मीर के कुछ इलाके पर पाकिस्तान का कब्जा है जिसे वापस लेने के लिए भारत कूटनीतिक स्तर पर लगातार प्रयास कर रहा है। कश्मीर मसले पर मान न मान, मैं तेरा मेहमान की तर्ज पर इंट्री लेकर गद्दाफी ने यही साबित किया है कि वे कूटनीति की बारीकियों से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं। मुअम्मर गद्दाफी ने संयुक्त राष्ट्र में अपने भाषण के बाद अपने दुश्मनों की संख्या खूब बढ़ा ली है। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को अपमानित करते हुए उसे 'आतंकवादी परिषद' बताया और कहा कि अगर सुरक्षा परिषद का विस्तार हुआ तो दुनिया में गरीबी और नाइंसाफी बढ़ेगी और तनाव में इजाफा होगा। ऐसा लगता है कि जिस मनोदशा के वशीभूत होकर गद्दाफी भाषण कर रहे थे, उसमें कोई तार्किक बात ढूंढना ठीक नहीं होगा।
पता नहीं कैसे उन्होंने अनुमान लगा लिया कि आने वाले वक्त में इटली, जर्मनी, इंडोनेशिया, भारत, पाकिस्तान, फिलीपीन, जापान, अर्जेंटीना और ब्राजील के बीच बहुत प्रतिस्पर्धा होगी। उनके दिमाग में कहीं से यह बात आ गई है कि अगर भारत को सुरक्षा परिषद में जगह दी गई तो पाकिस्तान भी जगह मांगेगा। बहुत पहले, भारत और पाकिस्तान को एक तराजू पर तौलना अमरीकी विदेश नीति की एक प्रमुख धारा हुआ करती थी लेकिन भारत के चौतरफा विकास के बाद अब अमरीका इस नीति को छोड़ चुका है।
यहां तक कि पाकिस्तान भी अब अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है और वह भी अब अपने को भारत के बराबर नहीं मानता। पब्लिक में इस तरह की बात करनी पड़ती है क्योंकि वह पाकिस्तानी शासकों की आतंरिक राजनीति की मजबूरी है। इसलिए पाकिस्तान और भारत को बराबर करने की कोशिश करके गद्दाफी अपने कूटनीतिक अज्ञान का ही परिचय दे रहे थे। गद्दाफी की कल्पना शक्ति ने कुछ और भी कारनामे दिखाए। उन्होंने मांग की कि सदियों तक अफ्रीका को उपनिवेश बनाए रखने वाले मुल्क 70.77 खरब डॉलर का मुआवजा दें। पता नहीं कहां से उन्होंने यह आंकड़ा अर्जित किया था।
बहरहाल जिस रौ में वे बोल रहे थे, उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि उनके मुंह से कुछ भी निकल सकता था और वे उन आंकड़ों के प्रति प्रतिबद्घ तो बिलकुल नहीं नजर आ रहे थे। लेकिन उनकी कल्पना शक्ति की उड़ान यहीं खत्म होने वाली नहीं थी। उन्होंने उन डाकुओं का भी समर्थन किया जो सोमालिया के समुद्री क्षेत्र और उसके बाहर के इलाकों में जहाजों केा लूटने का धंधा कर रखा है। उन्होंने कहा कि डाके का काम करने वाले लोग डाकू नहीं हैं। उन्होंने स्वीकार किया वास्तव में पुराने वक्तों में लीबिया ने वहां जाकर सोमालिया के लोगों की जलसंपदा का हरण किया था इसलिए उनका अपना देश भी डाकू है। लेकिन इसके बात गद्दाफी फिर बहक गए और उन्होंने भारत, जापान और अमरीका को भी जल डाकू घोषित कर दिया।
विश्व बिरादरी के लिए मुश्किल की बात यह है कि इस मानसिक दशा का व्यक्ति आजकल अफ्रीकी देशों के संगठन का भी अध्यक्ष है और अगर वह बहकी बहकी बातें करता रहेगा तो कूटनीति के मैदान में अफ्रीकी देशों का बहुत नुकसान होगा क्योंकि अंतर्राष्टï्रीय मंच पर उल जलूल बात करने वाले की बात को कोई गंभीरता से नहीं लेता। हो सकता है कि संयुक्त राष्टï्र के मंच पर पहली बार अवसर मिलने के बाद गद्दाफी भाव विह्वïल हो गए हों और जो भी मन में आया बोलने लगे हों। यह भी हो सकता है कि उन्हें यह मुगालता हो कि संयुक्त राष्ट्र के मंच पर कुछ भी कह देने का कोई मतलब नहीं है, इसलिए दिल खोलकर भड़ास निकाल लो।
ऐसा इसलिए कि अपने इसी भाषण में गद्दाफी ने संयुक्त राष्ट्र जनरल असेंबली की तुलना लंदन के हाइड पार्क के 'स्पीकर्स कार्नर' से की जहां कोई भी आकर भाषण कर सकता है और अपनी भड़ास निकाल सकता है यानी उन्होंने खुद ही स्वीकार कर लिया कि वे एक प्रलाप कर रहे हैं जिसका कोई भी मतलब नहीं है। उनका यह विश्वास सच लगता है कि उनके लंबे भाषण को सुनने के लिए बहुत कम लोग बचे थे।
Labels:
shesh narain singh,
तानाशाह,
मुअम्मर गद्दाफी,
लीबिया,
विश्लेषण,
शेष नारायण सिंह,
हिंदी
Subscribe to:
Posts (Atom)