शेष नारायण सिंह
अरब देश यमन में परिवर्तन की आंधी चल रही है . और इस तूफ़ान के अगले दस्ते की अगुवाई ३२ साल की तवक्कुल कारमान कर रही हैं . तवक्कुल कारमान आजकल भारत की यात्रा पर आई हुई हैं . ५ अप्रैल को उन्होंने नई दिल्ली के विज्ञान भवन में पांचवां जगजीवन राम स्मारक व्याख्यान दिया . तवक्कुल कारमान ने अपने भाषण के बाद भारत में बहुत सारे नए दोस्त बना लिए . महात्मा गांधी की अनुयायी तवक्कुल कारमान को २०११ का नोबेल शान्ति पुरस्कार भी मिल चुका है .तवक्कुल महिला हैं , पत्रकार हैं ,राजनेता हैं और अरब क्रान्ति की प्रेरणा हैं . उनके जैसे लोगों ने ही मिस्र में होस्नी मुबारक, ट्यूनिसिया में बेन अली और लीबिया में कर्नल गद्दाफी को सत्ता से बेदखल करने के आन्दोलन चलाये जिसे शुरू में गंभीरता से नहीं लिया गया लेकिन बाद में उन तानाशाहों को सत्ता से जाना पड़ा . जानकर बताते हैं कि अब यमनी तानाशाह अली अब्दुल्ला सालेह के जाने का वक़्त भी बहुत करीब आ पंहुचा है.
यमन में सत्ता पर क़ब्ज़ा अली अब्दुल्ला सालेह का है . वे राष्ट्रपति हैं.इसी पद पर १९७८ से जमे हुए हैं . अली अब्दुल्ला सालेह १९७८ में जब राष्ट्रपति बने थे तब यमन के दो हिस्से थे. उत्तरी यमन और दक्षिणी यमन .सालेह उत्तरी यमन के राष्ट्रपति बने थे. 1990 में दोनों हिस्सों का एकीकरण हुआ और इसे यमन गणराज्य का नाम दिया गया . उत्तरी यमन 1962 में गणराज्य बन गया था जबकि दक्षिण यमन में १९६७ तक ब्रिटिश राज रहा . यमन अरब प्रायद्वीप में एकमात्र गणराज्य है. इस क्षेत्र के बाक़ी देशों- सऊदी अरब, ओमान, बहरीन, कुवैत, क़तर, और संयुक्त अरब अमीरात- में राजशाही है. यमन हर तरह से विविधताओं का देश है. कबीलों, मजहबी फिरकों, राजनीतिक विचारधाराओं आदि की बहुलता और आपसी मतभेदों का लाभ उठाकर सालेह लगातार चुनाव जीतते रहे. पहले दक्षिणी यमन में कम्युनिस्टों, और बाद में सऊदी विरोधी हूथी कबीले और अल-क़ायदा की मौजूदगी ने सालेह के लिये सऊदी अरब और अमेरीका की मदद के दरवाज़े भी खुले रखे. इन तीन दशकों में सालेह और उनके साथियों के अत्याचार और भयानक भ्रष्टाचार ने बहुसंख्यक यमनियों का जीना-दूभर कर दिया है. आधी आबादी ग़रीबी रेखा से नीचे है तो एक-तिहाई आबादी कुपोषण का शिकार है. युवाओं की तिहाई आबादी बेरोज़गार है. आधी से अधिक आबादी रोज़गार और भरण-पोषण के लिये खेती पर निर्भर है, लेकिन पानी की लगातार होती कमी कुछ ही समय में बड़े भू-भाग को बंजर कर सकती है. एक अध्ययन के अनुसार, राजधानी साना अगले बीस साल में जलहीन हो सकती है. ऐसी स्थिति में आम यमनी में सालेह और उनके शासन के विरुद्ध असंतोष होना स्वाभाविक ही है. इस असंतोष की गंभीरता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि सालेह विरोधियों की ज़मात में वे सब शामिल हैं जो आमतौर से एक-दूसरे के घोर विरोधी हैं- इस्लाह (मुस्लिम ब्रदरहूड से सम्बद्ध), हूथी, यज़ीदी, शिया, सुन्नी, सलाफी, नासिरवादी, दक्षिण के समाजवादी आदि. यमन के इतिहास में कट्टरपंथी मुसलमानों और मार्क्सवादियों में कभी एका नहीं रहा लेकिन अब वे यमन की राजधानी साना के ‘परिवर्तन चौक’ पर एक साथ नज़र आते हैं .
यमन में अली सालेह का आतंक बहुत ही भयानक है अब उनकी सत्ता को ख़त्म करने के लिए यमनी जनता सडकों पर है और इसी आन्दोलन की सबसे बड़ी नेता हैं तवक्कुल कारमान. अरब देशों में तानाशाहों से मुक्ति के लिए जारी लड़ाई के दौरान जब ट्यूनीशिया में 14 जनवरी को बेन अली का पतन हुआ,उसके बाद यमन में क्रांति की शुरुआत हो गयी. तवक्कुल कारमान ने अपने देश के लोगों से कहा कि ट्यूनीशिया विद्रोह का जश्न मनाने के लिये १६ जनवरी को इकठ्ठा हों.
अगले दिन यमन की राजधानी स’ना में ट्यूनीशियाई दूतावास के सामने प्रदर्शन हुआ .प्रदर्शन जबरदस्त था. हज़ारों लोग शरीक हुए. और स’ना में सत्ता के विरुद्ध यह पहला शांतिपूर्ण प्रदर्शन था. नारे लग रहे थे कि ‘चले जाओ, इससे पहले कि तुम्हें भगाया जाये’. इसके बाद पूरे यमन में परिवर्तन का तूफ़ान आ गया . हर शहर में आस पास के लोग इकठ्ठा होने लगे और हर शहर में परिवर्तन चौक बना दिए गए. एक-दूसरे से दशकों तक लड़ते रहने वाले हिंसक कबीले ‘परिवर्तन चौकों’ पर साथ खड़े हैं, आपसी ख़ूनी संघर्ष को लोग भुला चुके हैं .सरकारी पुलिस ने कई जगहों पर लोगों को मार भी दिया है लोगों के बीच क्रोध और आक्रोश है लेकिन कहीं भी पुलिस पर कोई भी हमला नहीं हुआ . यह क्रान्ति पूरी तरह से शांतिपूर्ण है .
नई दिल्ली के अपने भाषण में तवक्कुल कारमान ने अरब देशों में चल रही स्प्रिंग रिवोल्यूशन के बारे में विस्तार से जानकारी दी और यह भरोसा जताया कि बहुत जल्द ही यमन भी एक तानाशाह के कब्जे से मुक्त हो जाएगा . उन्होंने कहा कि यह लोकतंत्र का दुर्भाग्य है कि होस्नी मुबारक, गद्दाफी, बेन अली, अब्दुल्ला अली सालेह और बशर अपने आपको लोकतंत्र का प्रतिनिधि बताते हैं जबकि इन सभी ने अपने अपने देशों में खानदानी तानाशाही कायम कर रखी है. मिस्र, लीबिया और ट्यूनीशिया के लोग तो अपने तानाशाहों से मुक्ति पा चुके हैं जबकि यमन और सीरिया में परिवर्तन बहुत दूर नहीं है. तवक्कुल ने कहा कि जो लोग अरब स्प्रिंग से डरते हैं, वे उनके आन्दोलन को बदनाम करते हैं . उन्होंने कहा कि इनके आन्दोलन को बदनाम करने के लिए उन्हने आतंकवादी संगठनों से जोड़ने की कोशिश की जा रही है. लेकिन सच्चाई यह है कि आतंकवादी लोकतंत्र में पनप ही नहीं सकते . हर तानाशाह आतंकवादी होता है और हर आतंकवादी तानाशाह होता है .दोनों एक दूसरे के पूरक होते हैं .जब तक तानाशाह ख़त्म नहीं होंगें बराबरी नहीं आयेगी. शांतिपूर्ण क्रान्ति तानाशाही को ख़त्म करने का सबसे कारगर तरीका है .उन्होंने सभी देशों से अपील की कि आन्दोलन के खिलाफ जारी प्रचार को कभी भी बढ़ावा न दें क्योंकि हर तानाशाह यही चाहता है . उन्होंने कहा कि जिन मुस्लिम देशों में लोकतंत्र की स्थापना हो चुकी है वहां आतंकवाद नहीं है. टर्की, मलयेशिया, लेबनान और इंडोनेशिया में किसी एक परिवार या तानाशाह का राज नहीं है और वहां कहीं भी आतंकवाद नहीं है . लेकिन जिन देशों में तानाशाही है वहां तरह तरह के आतंकवादी पाए जाते हैं .
तवक्कुल कारमान का दावा है कि तानाशाह को हटाने के लिये उस देश की जनता को ही आगे आना पडेगा . किसी विदेशी सत्ता की मदद से परिवर्तन नहीं लाया जा सकता. इराक का उदाहरण सामने है . अमरीकी हस्तक्षेप के बाद वहां सत्ता परिवर्तन हुआ लेकिन सही अर्थों में कोई बदलाव नहीं आया. बदलाव वही सही है जहां हर बदलाव के बाद लोकतंत्र की स्थापना हो . तवक्कुल कारमान ने भरोसा जताया कि उम्मीद से पहले ही यमन में जनता की सत्ता कायम होने वाली है.
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Sunday, April 8, 2012
Tuesday, October 20, 2009
पाकिस्तान के बिना बी जे पी का क्या होगा
बी जे पी की राजनीति का एक और प्रमुख स्तम्भ ढहने वाला है...लगता है कि पाकिस्तान पर भी अब वोटों की खेती नहीं हो पायेगी. अयोध्या विवाद पर तो अब वोट की खेती नहीं हो सकती और बोफोर्स का मुद्दा भी अब दफ़न हो गया है . उसके सहारे बी जे पी जैसी भावनाओं पर राजनीति करने वाली पार्टियों को काफी खुराक मिलती थी. वह भी ख़त्म ही है .लोक सभा चुनावों के पहले से ही मुद्दों की तलाश जारी है . बी जे पी की राजनीति में पाकिस्तान का बहुत बड़ा महत्व है . पाकिस्तान के खिलाफ तलवारें भांज कर बी जे पी वाले अपने सीधे सादे कार्यकर्ताओं को अब तक चलाते रहे हैं . कभी पाकिस्तान का कच्छ में घुसना , कभी ताशकंद में गडबडी, कभी सीमा पर झंझट ,कभी कारगिल तो कभी सीमा पार से आने वाला आतंकवाद , यह सब बी जे पी की सियासत को जिंदा रखने में काम आते रहे हैं . लेकिन अब खबर आ रही है कि कांग्रेस पार्टी वाले पाकिस्तान को टालने की राजनीति शुरू कर चुके हैं . कांग्रेस के महासचिव राहुल गाँधी ने शिमला में बयान दे दिया है कि भारत की तुलना पाकिस्तान से नहीं की जानी चाहिए . उन्होंने कहा कि पाकिस्तान उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना हम समझते हैं . भारत और पाकिस्तान में बहुत फर्क है. हम अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक अहम् मुकाम रखते हैं जब कि पाकिस्तान एक ऐसा मुल्क है जो अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है . उन्होंने कहा कि यह अलग बात है कि पाकिस्तान कुछ न कुछ गड़बड़ करता रहता है और उसका इलाज़ वही लोग कर देंगें जिन्हें उसका ज़िम्मा दिया गया है . पाकिस्तान हमारी विश्वदृष्टि में एक बहुत ही मामूली जगह घेरता है राहुल गाँधी के इस बयान के बाद बी जे पी में चिंता की स्थिति दिख रही है . राहुल गाँधी का बयान किसी मामूली कांग्रेसी का बयान नहीं है . वैसे भी, राहुल गाँधी के व्यक्तित्व की एक खासियत उभर कर सामने आ रही है कि वे बहुत गंभीर बात भी साधारण तरीके से कह देते हैं . बाद में उस पर बहस होती है और उनकी बात ही पार्टी की नीति के रूप में स्वीकार कर ली जाती है . इस लिए हो सकता है कि पाकिस्तान संबन्धी उनका बयान भी कांग्रेस की मौजूदा सोच की प्रतिध्वनि हो. बहरहाल, भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने बयान दे दिया कि राहुल गाँधी को अभी बहुत कुछ सीखना है . आपने फरमाया कि अगर पाकिस्तान इतना कम महत्वपूर्ण है तो प्रधान मंत्री को शर्म अल शैख़ में क्यों शर्म उठानी पडी. बी जे पी की चिंता का कारण यह है कि पाकिस्तान के इस्लामी गणराज्य और उसके एजेंटों की मुखालिफत की बुनियाद पर राजनीति करने वाली बी जे पी को कहाँ ठिकाना मिलेगा. वैसे भी पार्टी के पास आम आदमी से जुड़ा कोई मुद्दा नहीं है . अगर पाकिस्तान भी निकल गया तो क्या होगा . दरअसल बी जे पी की राजनीतिक सोच में पाकिस्तान का केंद्रीय मुकाम है . कश्मीर, संविधान की धारा ३७०. आतंकवाद, मुसलमान , राष्ट्रीय सुरक्षा मुस्लिम तुष्टिकरण , सीमा पार से सांस्कृतिक हमले उर्फ़ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद , बी जे पी की राजनीति के प्रमुख शब्दजाल हैं और अगर पाकिस्तान को कम महत्व देने की राहुल गाँधी की राजनीति ने जोर पकड़ लिया तो संघ की राजनीति को मीडिया में मिलने वाली जगह अपने आप कम हो जायेगी क्योंकि जब पाकिस्तान की ही कोई औकात नहीं रहेगी ,तो उसके विरोध की राजनीति को कौन पूछेगा. सवाल यह कि बी जे पी की राजनीति को जिंदा रखने के लिए पाकिस्तान के मह्त्व को कब तक जिंदा रखा जा सकता है . अमरीका और अन्य पश्चिमी देशों की शुरू से कोशिश रही है कि भारत और पाकिस्तान को एक ही तराजू में तौला जाए. अब तक वे सफल भी होते रहे हैं . लेकिन अब ऐसा करना अमरीका के लिए भी संभव नहीं है . पिछले ६० वर्षों में पाकिस्तान विकास के क्षेत्र में भारत से बहुत पीछे रह गया है और अब पाकिस्तान एक गरीब खस्ताहाल देश है . जो अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है . बलोचिस्तान और सूबा-ए- सरहद, पाकिस्तान से अलग होने की कोशिश कर रहे हैं .उसकी अर्थव्यवस्था तबाह हो चुकी है . फौज ने पिछले ५५ वर्षों में पाकिस्तान की जो दुर्दशा की है कि उसके लिए अपनी रोटी के लिए भी विदेशी मदद की ज़रुरत पड़ती है . ऐसी हालात में पाकिस्तान को कब तक बी जे पी की राजनीतिक सुविधा के लिए जिंदा रखा जा सकता है .जहां तक पाकिस्तान से भारत में आतंकवाद आने का खतरा है वह अब राजनीतिक या कूटनीतिक सवाल नहीं है . क्योंकि वहां की ज़रदारी-गीलानी की सिविलियन सरकार की इतनी हैसियत नहीं है कि वह पाकिस्तानी फौज को लगाम लगा सके. इसका मतलब यह हुआ कि पाकिस्तानी शरारतों को राजनीतिक तरीके से नहीं रोका जा सकता . उसे रोकने के लिए तो पाकिस्तानी फौज और आई एस आई को ही काबू करना पड़ेगा . आजकल यह काम अमरीकी फौज के अफगानिस्तान में तैनात जनरलों के जिम्मे है और वे उठते बैठते पाकिस्तानी सेना के आला अफसरों को धमका रहे हैं .सभी जानते हैं कि पाकिस्तान में सारी मुसीबतों की जड़ फौज ही है और अगर उनको दबा दिया गया तो पाकिस्तानी अवाम भी खुश हो जाएगा और भारत पर पाकिस्तान से आने वाली रोज़ रोज़ की परेशानियां अपने आप ख़त्म हो जायेगी . ज़ाहिर है कि यह भारत के लिए एक अच्छी स्थिति होगी.हाँ बी जे पी वालों को चाहिए कि वे राजनीति करने के लिए नए मुद्दे ढूंढ लें क्योंकि पाकिस्तान दीन, हीन खस्ताहाल और गरीब मुल्क है उसकी दुश्मनी की बुनियाद पर बहुत दिन तक राजनीति नहीं चलने वाली है .
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Saturday, September 26, 2009
लाल बुझक्कड़ी कूटनीति और गद्दाफी
लीबिया के तानाशाह, कर्नल मुअम्मर गद्दाफी के बारे में 70 के दशक में चर्चा होती थी कि वे कुछ सनकी हैं लेकिन दुनिया भर के प्रबुद्घ लोग आम तौर पर मानते थे कि वह प्रचार अमरीका और अमरीका परस्त मीडिया के अभियान का नतीजा होता था। उनके ऊपर आरोप लगा कि उन्होंने अपने अमरीका विरोध के जुनून में कुख्यात लाकरबी विमान विस्फोट कांड की साजिश रची। ऐसे बहुत सारे काम उनके खाते में दर्ज हैं जिसकी वजह से उन्हें सनकी माना जा सकता था लेकिन उनकी अमरीका का विरोध करने की शख्सियत के चलते मान लिया जाता था कि उनकी छवि को अमरीका खराब कर रहा है लेकिन अब ऐसा नहीं है।
संयुक्त राष्ट्र की जनरल असेंबली में अपने 100 मिनट के भाषण में कर्नल गद्दाफी ने साबित कर दिया कि उनके दिमागी संतुलन के बारे में प्रचलित बहुत सारी कहानियों में सच्चाई भी हो सकती है क्योंकि यह आरोप नहीं लगाया जा सकता कि उनको किसी ने मजबूर किया था कि वे वह भाषण दें जो उन्होंने वाशिंगटन में दिया। गौर करने की बात यह है कि उन्हें पहली बार इस विश्व संस्था में भाषण देने का मौका मिला। भाषण हस्तलिखित यानी गद्दाफी ने खुद ही अपने दिमाग का इस्तेमाल करके वहां वह प्रलाप किया, जिसके बाद उनके मानसिक असंतुलन के बारे में कोई शक नहंी रह जाता।
इस बात में दो राय नहीं है कि कर्नल गद्दाफी को अंतर्राष्टï्रीय संबंधों की बारीकियों की कोई जानकारी नहीं है।
क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय मंच पर किसी ऐसे देश के मसले को उठाना अपरिपक्वता की निशानी है लेकिन कूटनीति की बारीकियों से अनभिज्ञ गद्दाफी के लिए इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अपनी इसी सोच के चलते उन्होंने अपने भाषण में कश्मीर के मामले पर चर्चा की। सच्चाई यह है कि गद्दाफी या उनके देश लीबिया का कश्मीर समस्या से कोई लेना देना नहीं है लेकिन उनका कश्मीर मामले पर अपने आपको एक पार्टी बना देना परले दर्जे की राजनीतिक अपरिपक्तवता है। ऐसा करके उन्होंने भारत को तो नाराज किया ही, अपने प्रिय मित्र पाकिस्तान को भी बहुत खुश नहीं किया क्योंकि पाकिस्तान भी कश्मीर को एक स्वतंत्र देश के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं है, वह तो उसे अपने साथ मिलाना चाहता है। जहां तक भारत की बात है कश्मीर उसका एक राज्य है जो भारत के बंटवारे के बाद कश्मीर के राजा हरिसिंह की दस्तखत के बाद भारत का हिस्सा बना था।
कश्मीर के कुछ इलाके पर पाकिस्तान का कब्जा है जिसे वापस लेने के लिए भारत कूटनीतिक स्तर पर लगातार प्रयास कर रहा है। कश्मीर मसले पर मान न मान, मैं तेरा मेहमान की तर्ज पर इंट्री लेकर गद्दाफी ने यही साबित किया है कि वे कूटनीति की बारीकियों से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं। मुअम्मर गद्दाफी ने संयुक्त राष्ट्र में अपने भाषण के बाद अपने दुश्मनों की संख्या खूब बढ़ा ली है। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को अपमानित करते हुए उसे 'आतंकवादी परिषद' बताया और कहा कि अगर सुरक्षा परिषद का विस्तार हुआ तो दुनिया में गरीबी और नाइंसाफी बढ़ेगी और तनाव में इजाफा होगा। ऐसा लगता है कि जिस मनोदशा के वशीभूत होकर गद्दाफी भाषण कर रहे थे, उसमें कोई तार्किक बात ढूंढना ठीक नहीं होगा।
पता नहीं कैसे उन्होंने अनुमान लगा लिया कि आने वाले वक्त में इटली, जर्मनी, इंडोनेशिया, भारत, पाकिस्तान, फिलीपीन, जापान, अर्जेंटीना और ब्राजील के बीच बहुत प्रतिस्पर्धा होगी। उनके दिमाग में कहीं से यह बात आ गई है कि अगर भारत को सुरक्षा परिषद में जगह दी गई तो पाकिस्तान भी जगह मांगेगा। बहुत पहले, भारत और पाकिस्तान को एक तराजू पर तौलना अमरीकी विदेश नीति की एक प्रमुख धारा हुआ करती थी लेकिन भारत के चौतरफा विकास के बाद अब अमरीका इस नीति को छोड़ चुका है।
यहां तक कि पाकिस्तान भी अब अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है और वह भी अब अपने को भारत के बराबर नहीं मानता। पब्लिक में इस तरह की बात करनी पड़ती है क्योंकि वह पाकिस्तानी शासकों की आतंरिक राजनीति की मजबूरी है। इसलिए पाकिस्तान और भारत को बराबर करने की कोशिश करके गद्दाफी अपने कूटनीतिक अज्ञान का ही परिचय दे रहे थे। गद्दाफी की कल्पना शक्ति ने कुछ और भी कारनामे दिखाए। उन्होंने मांग की कि सदियों तक अफ्रीका को उपनिवेश बनाए रखने वाले मुल्क 70.77 खरब डॉलर का मुआवजा दें। पता नहीं कहां से उन्होंने यह आंकड़ा अर्जित किया था।
बहरहाल जिस रौ में वे बोल रहे थे, उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि उनके मुंह से कुछ भी निकल सकता था और वे उन आंकड़ों के प्रति प्रतिबद्घ तो बिलकुल नहीं नजर आ रहे थे। लेकिन उनकी कल्पना शक्ति की उड़ान यहीं खत्म होने वाली नहीं थी। उन्होंने उन डाकुओं का भी समर्थन किया जो सोमालिया के समुद्री क्षेत्र और उसके बाहर के इलाकों में जहाजों केा लूटने का धंधा कर रखा है। उन्होंने कहा कि डाके का काम करने वाले लोग डाकू नहीं हैं। उन्होंने स्वीकार किया वास्तव में पुराने वक्तों में लीबिया ने वहां जाकर सोमालिया के लोगों की जलसंपदा का हरण किया था इसलिए उनका अपना देश भी डाकू है। लेकिन इसके बात गद्दाफी फिर बहक गए और उन्होंने भारत, जापान और अमरीका को भी जल डाकू घोषित कर दिया।
विश्व बिरादरी के लिए मुश्किल की बात यह है कि इस मानसिक दशा का व्यक्ति आजकल अफ्रीकी देशों के संगठन का भी अध्यक्ष है और अगर वह बहकी बहकी बातें करता रहेगा तो कूटनीति के मैदान में अफ्रीकी देशों का बहुत नुकसान होगा क्योंकि अंतर्राष्टï्रीय मंच पर उल जलूल बात करने वाले की बात को कोई गंभीरता से नहीं लेता। हो सकता है कि संयुक्त राष्टï्र के मंच पर पहली बार अवसर मिलने के बाद गद्दाफी भाव विह्वïल हो गए हों और जो भी मन में आया बोलने लगे हों। यह भी हो सकता है कि उन्हें यह मुगालता हो कि संयुक्त राष्ट्र के मंच पर कुछ भी कह देने का कोई मतलब नहीं है, इसलिए दिल खोलकर भड़ास निकाल लो।
ऐसा इसलिए कि अपने इसी भाषण में गद्दाफी ने संयुक्त राष्ट्र जनरल असेंबली की तुलना लंदन के हाइड पार्क के 'स्पीकर्स कार्नर' से की जहां कोई भी आकर भाषण कर सकता है और अपनी भड़ास निकाल सकता है यानी उन्होंने खुद ही स्वीकार कर लिया कि वे एक प्रलाप कर रहे हैं जिसका कोई भी मतलब नहीं है। उनका यह विश्वास सच लगता है कि उनके लंबे भाषण को सुनने के लिए बहुत कम लोग बचे थे।
संयुक्त राष्ट्र की जनरल असेंबली में अपने 100 मिनट के भाषण में कर्नल गद्दाफी ने साबित कर दिया कि उनके दिमागी संतुलन के बारे में प्रचलित बहुत सारी कहानियों में सच्चाई भी हो सकती है क्योंकि यह आरोप नहीं लगाया जा सकता कि उनको किसी ने मजबूर किया था कि वे वह भाषण दें जो उन्होंने वाशिंगटन में दिया। गौर करने की बात यह है कि उन्हें पहली बार इस विश्व संस्था में भाषण देने का मौका मिला। भाषण हस्तलिखित यानी गद्दाफी ने खुद ही अपने दिमाग का इस्तेमाल करके वहां वह प्रलाप किया, जिसके बाद उनके मानसिक असंतुलन के बारे में कोई शक नहंी रह जाता।
इस बात में दो राय नहीं है कि कर्नल गद्दाफी को अंतर्राष्टï्रीय संबंधों की बारीकियों की कोई जानकारी नहीं है।
क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय मंच पर किसी ऐसे देश के मसले को उठाना अपरिपक्वता की निशानी है लेकिन कूटनीति की बारीकियों से अनभिज्ञ गद्दाफी के लिए इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अपनी इसी सोच के चलते उन्होंने अपने भाषण में कश्मीर के मामले पर चर्चा की। सच्चाई यह है कि गद्दाफी या उनके देश लीबिया का कश्मीर समस्या से कोई लेना देना नहीं है लेकिन उनका कश्मीर मामले पर अपने आपको एक पार्टी बना देना परले दर्जे की राजनीतिक अपरिपक्तवता है। ऐसा करके उन्होंने भारत को तो नाराज किया ही, अपने प्रिय मित्र पाकिस्तान को भी बहुत खुश नहीं किया क्योंकि पाकिस्तान भी कश्मीर को एक स्वतंत्र देश के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं है, वह तो उसे अपने साथ मिलाना चाहता है। जहां तक भारत की बात है कश्मीर उसका एक राज्य है जो भारत के बंटवारे के बाद कश्मीर के राजा हरिसिंह की दस्तखत के बाद भारत का हिस्सा बना था।
कश्मीर के कुछ इलाके पर पाकिस्तान का कब्जा है जिसे वापस लेने के लिए भारत कूटनीतिक स्तर पर लगातार प्रयास कर रहा है। कश्मीर मसले पर मान न मान, मैं तेरा मेहमान की तर्ज पर इंट्री लेकर गद्दाफी ने यही साबित किया है कि वे कूटनीति की बारीकियों से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं। मुअम्मर गद्दाफी ने संयुक्त राष्ट्र में अपने भाषण के बाद अपने दुश्मनों की संख्या खूब बढ़ा ली है। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को अपमानित करते हुए उसे 'आतंकवादी परिषद' बताया और कहा कि अगर सुरक्षा परिषद का विस्तार हुआ तो दुनिया में गरीबी और नाइंसाफी बढ़ेगी और तनाव में इजाफा होगा। ऐसा लगता है कि जिस मनोदशा के वशीभूत होकर गद्दाफी भाषण कर रहे थे, उसमें कोई तार्किक बात ढूंढना ठीक नहीं होगा।
पता नहीं कैसे उन्होंने अनुमान लगा लिया कि आने वाले वक्त में इटली, जर्मनी, इंडोनेशिया, भारत, पाकिस्तान, फिलीपीन, जापान, अर्जेंटीना और ब्राजील के बीच बहुत प्रतिस्पर्धा होगी। उनके दिमाग में कहीं से यह बात आ गई है कि अगर भारत को सुरक्षा परिषद में जगह दी गई तो पाकिस्तान भी जगह मांगेगा। बहुत पहले, भारत और पाकिस्तान को एक तराजू पर तौलना अमरीकी विदेश नीति की एक प्रमुख धारा हुआ करती थी लेकिन भारत के चौतरफा विकास के बाद अब अमरीका इस नीति को छोड़ चुका है।
यहां तक कि पाकिस्तान भी अब अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है और वह भी अब अपने को भारत के बराबर नहीं मानता। पब्लिक में इस तरह की बात करनी पड़ती है क्योंकि वह पाकिस्तानी शासकों की आतंरिक राजनीति की मजबूरी है। इसलिए पाकिस्तान और भारत को बराबर करने की कोशिश करके गद्दाफी अपने कूटनीतिक अज्ञान का ही परिचय दे रहे थे। गद्दाफी की कल्पना शक्ति ने कुछ और भी कारनामे दिखाए। उन्होंने मांग की कि सदियों तक अफ्रीका को उपनिवेश बनाए रखने वाले मुल्क 70.77 खरब डॉलर का मुआवजा दें। पता नहीं कहां से उन्होंने यह आंकड़ा अर्जित किया था।
बहरहाल जिस रौ में वे बोल रहे थे, उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि उनके मुंह से कुछ भी निकल सकता था और वे उन आंकड़ों के प्रति प्रतिबद्घ तो बिलकुल नहीं नजर आ रहे थे। लेकिन उनकी कल्पना शक्ति की उड़ान यहीं खत्म होने वाली नहीं थी। उन्होंने उन डाकुओं का भी समर्थन किया जो सोमालिया के समुद्री क्षेत्र और उसके बाहर के इलाकों में जहाजों केा लूटने का धंधा कर रखा है। उन्होंने कहा कि डाके का काम करने वाले लोग डाकू नहीं हैं। उन्होंने स्वीकार किया वास्तव में पुराने वक्तों में लीबिया ने वहां जाकर सोमालिया के लोगों की जलसंपदा का हरण किया था इसलिए उनका अपना देश भी डाकू है। लेकिन इसके बात गद्दाफी फिर बहक गए और उन्होंने भारत, जापान और अमरीका को भी जल डाकू घोषित कर दिया।
विश्व बिरादरी के लिए मुश्किल की बात यह है कि इस मानसिक दशा का व्यक्ति आजकल अफ्रीकी देशों के संगठन का भी अध्यक्ष है और अगर वह बहकी बहकी बातें करता रहेगा तो कूटनीति के मैदान में अफ्रीकी देशों का बहुत नुकसान होगा क्योंकि अंतर्राष्टï्रीय मंच पर उल जलूल बात करने वाले की बात को कोई गंभीरता से नहीं लेता। हो सकता है कि संयुक्त राष्टï्र के मंच पर पहली बार अवसर मिलने के बाद गद्दाफी भाव विह्वïल हो गए हों और जो भी मन में आया बोलने लगे हों। यह भी हो सकता है कि उन्हें यह मुगालता हो कि संयुक्त राष्ट्र के मंच पर कुछ भी कह देने का कोई मतलब नहीं है, इसलिए दिल खोलकर भड़ास निकाल लो।
ऐसा इसलिए कि अपने इसी भाषण में गद्दाफी ने संयुक्त राष्ट्र जनरल असेंबली की तुलना लंदन के हाइड पार्क के 'स्पीकर्स कार्नर' से की जहां कोई भी आकर भाषण कर सकता है और अपनी भड़ास निकाल सकता है यानी उन्होंने खुद ही स्वीकार कर लिया कि वे एक प्रलाप कर रहे हैं जिसका कोई भी मतलब नहीं है। उनका यह विश्वास सच लगता है कि उनके लंबे भाषण को सुनने के लिए बहुत कम लोग बचे थे।
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