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Thursday, August 21, 2014

धर्मनिरपेक्षता की राजनीति पर संकट के बादल



शेष नारायण सिंह  

बीजेपी में हमारे एक मित्र हैं . उन्होंने अपने फेसबुक पेज पर लिखा कि जब उनको किसी को  गाली देनी होती है तो वे उसे धर्मनिरपेक्ष कह देते हैं . मुझे अजीब लगा .वे भारत राष्ट्र को और  भारत के संविधान को अपनी नासमझी की ज़द में ले रहे थे क्योंकि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है . संसद में उनकी पार्टी के एक नेता ने जिस तरह से धर्मनिरपेक्षता को समझाया उससे अब समझ में आ गया है कि यह मेरे उन मित्र की निजी राय नहीं है , यह उनकी पार्टी की राय है . उसके बाद बीजेपी/ आर एस एस के कुछ विचारक टाइप लोगों को टेलिविज़न पर बहस करते सुना और साफ़ देखा कि वे लोग  धर्मनिरपेक्ष आचरण में विश्वास करने वालों को ' सेकुलरिस्ट ' कह रहे थे और उस शब्द को अपमानजनक सन्दर्भ के तौर पर इस्तेमाल कर रहे थे . बात समझ में आ गयी कि अब यह लोग सब कुछ बदल डालेगें क्योंकि जब ३१ प्रतिशत वोटों के सहारे जीतकर आये हुए लोग आज़ादी की लड़ाई की विरासत को बदल डालने की मंसूबाबंदी कर रहे हो तो भारत को एक राष्ट्र के रूप में चौकन्ना हो जाने की ज़रुरत है .

भारत एक संविधान के अनुसार चलता है . यह बात प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने के बादनरेंद्र मोदी ने भी स्वीकार किया है और उस संविधान की प्रस्तावना में ही लिखा है की भारतएक धर्मनिरपेक्ष देश है . प्रस्तावना में लिखा है कि ," हमभारत के लोगभारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्नसमाजवादीधर्म निरपेक्षलोकतान्त्रिक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक न्यायविचारअभिव्यक्ति,विश्वासधर्म और उपासना की स्वतंत्रताप्रतिष्ठा और अवसर की समताप्राप्त करने के लिएतथा उन सब मेंव्यक्ति की गरिमा एवं राष्ट्र की एकता एवं अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख २६ नवम्बर १९४९ को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृतअधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं. ।" इस तरह के संविधान के हिसाब से देश को चलाने का संकल्प लेकर चल रहे देश की संसद में उत्तर प्रदेश के पूर्वी इलाके से आये एक सदस्य ने जिस तरह की बातें  की और सरकार की तरफ से किसी भी ज़िम्मेदार  व्यक्ति ने उसको समझाया नहीं ,यह इस बात का सबूत है कि देश बहुत ही खतरनाक रास्ते पर चल पडा है . सबसे तकलीफ की बात यह है कि साम्प्रदायिकता के इन अलंबरदारों को सही तरीके से रोका नहीं गया . कांग्रेस में भी ऐसे लोग हैं जो राजीव गांधी और संजय गांधी युग की देन हैं और जो साफ्ट हिंदुत्व की राजनीति के पैरोकार हैं . ऐसी सूरत में हिन्दू साम्प्रदायिकता का जवाब देने के लिए लोकसभा में वे लोग खड़े हो गए तो मुस्लिम साम्प्रदायिकता के  समर्थक हैं. इस देश में मौजूद एक बहुत बड़ी जमात धर्मनिरपेक्ष है और उस जमात को अपने राष्ट्र को उसी तरीके से चलाने का हक है जो आज़ादी की लड़ाई के दौरान तय हो गया था. देश की सबसे बड़ी पार्टी आज बीजेपी  है लेकिन उन दिनों कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी हुआ करती थी . महात्मा गांधी कांग्रेस के सबसे बड़े नेता थे और मुहम्मद अली जिन्ना ने एडी चोटी का जोर लगा दिया कि कांग्रेस को हिन्दुओं की पार्टी के रूप में प्रतिष्ठापित कर दें लेकिन नहीं कर पाए . महात्मा जी और उनके  उत्तराधिकारियो ने कांग्रेस को धर्मनिरपेक्ष पार्टी बनाए रखा .आज देश में बीजेपी का राज  है लेकिन क्या बीजेपी धर्मनिरपेक्षता के संविधान  में बताये गए बुनियादी सिद्धांत के खिलाफ जा सकती है . उसके कुछ नेता यह कहते देखे गए हैं की देश ने बीजेपी को अपनी मर्जी से राज करने के अधिकार दिया है लेकिन यह बात बीजेपी के हर नेता को साफ तौर पर पता होनी चाहिए की उनको सत्ता इसलिए मिली है कि वे नौजवानों को रोज़गार दें, भ्रष्टाचार खत्म करें और देश का विकास करें . उनके जनादेश में यह भी समाहित है कि वे यह सारे काम संविधान के दायरे में रहकर ही करें , उनको संविधान या आज़ादी की लड़ाई का ईथास बदलने का  मैंडेट नहीं मिला है .
ज़ाहिर है कि धर्मनिरपेक्षता के अहम पहलुओं पर एक बार फिर से गौर करने की ज़रूरत है .
धर्मनिरपेक्ष होना हमारे गणतंत्र के लिए अति आवश्यक है।  आजादी की लड़ाई का उद्देश्य ही धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय का राज कायम करना था। महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' में पहली बार देश की आजादी के सवाल को हिंदू-मुस्लिम एकता से जोड़ा है।  गांधी जी एक महान कम्युनिकेटर थे, जटिल सी जटिल बात को बहुत साधारण तरीके से कह देते थे। हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।"
महात्मा गांधी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत की, उससे अंग्रेजी शासकों को भारत के आम आदमी की ताक़त का अंदाज़ लग गया । आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव बनाया।लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी। उसने कांग्रेस से नाराज़ जिन्ना जैसे  लोगों की मदद से आजादी की लड़ाई में अड़ंगे डालने की कोशिश की और सफल भी हुए। बाद में कांग्रेसियों के ही एक वर्ग ने सरदार को हिंदू संप्रदायवादी साबित करने की कई बार कोशिश की लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। आजकल आर एस एस और बीजेपी के बड़े नेता यह बताने की कोशिश करते हैं की सरदार पटेल हिन्दू राष्ट्रवादी थे . लेकिन यह सरासर गलत  है . भारत सरकार के गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने 16दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)।
सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं।सरदार अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। उनके साथ पूरा सरकारी अमला था और सरदार पटेल की बहन भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, "इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ............ मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।" सरदार पटेल की इस अपील के बाद पंजाब में हिंसा नहीं हुई। कहीं किसी शरणार्थी पर हमला नहीं हुआ। कांग्रेस के दूसरे नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं  . लेकिन इनके जाने के बाद कांग्रेस की राजनीति ऐसे लोगों के कब्जे में आ गई जिन्हें महात्मा जी के साथ काम करने का सौभाग्य नहीं मिला था। उसके बाद कांग्रेस में भी बहुत बड़े नेता ऐसे  हुए जो निजी बातचीत में  मुसलमानों को पाकिस्तान जाने की नसीहत देते पाए जाते हैं . दर असल वंशवाद के चक्कर में कांग्रेस वह रही ही नहीं जो आज़ादी की लड़ाई के दौरान रही थी . नेहरू युग में तो कांग्रेस ने कभी भी धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत से समझौता नहीं किया लेकिन   इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी अपने छोटे बेटे की राजनीतिक समझ को महत्त्व  देने लगी थीं . नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस भी हिंदूवादी पार्टी के रूप में पहचान बनाने की दिशा में  चल पडी . बाद में राजीव हांधी के युग में तो सब कुछ गड़बड़ हो गया .
कांग्रेस का राजीव गांधी युग पार्टी को एक कारपोरेट संस्था की तरह चलाने के लिए जाना जाएगा . इस प्रक्रिया में वे लोग कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की मूल सोच से मीलों दूर चले गए। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री पद पर बैठते ही जिस तरह से सुनियोजित तरीके से कांग्रेसी नेताओं ने सिखों का कत्ले आम किया, वह धर्मनिरपेक्षता तो दूर, बर्बरता है। जानकार तो यह भी कहते हैं कि उनके साथ राज कर रहे मैनेजर टाइप नेताओं को कांग्रेस के इतिहास की भी  जानकारी नहीं थी। उन्होंने जो कुछ किया उसके बाद कांग्रेस को धर्मनिरपेक्ष जमात मानने के बहुत सारे अवसर नहीं रह जाते। उन्होंने अयोध्या की विवादित बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाया और आयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास करवाया। ऐसा लगता है कि उन्हें हिन्दू वोट बैंक को झटक लेने की बहुत जल्दी थी और उन्होंने वह कारनामा कर डाला जो बीजेपी वाले भी असंभव मानते थे।राजीव गांधी के बाद जब पार्टी के किसी नेता को प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला तो पी.वी. नरसिंह राव गद्दी पर बैठे। उन्हें न तो मुसलमान धर्मनिरपेक्ष मानता है और न ही इतिहास उन्हें कभी सांप्रदायिकता के खांचे से बाहर निकाल कर सोचेगा। बाबरी मस्जिद का ध्वंस उनके प्रधानमंत्री पद पर रहते ही हुआ था। सोनिया गांधी के राज में साम्प्रदायिक राजनीति के  सामने कांग्रेसी डरे सहमे नज़र आते थे . एक दिग्विजय सिंह हैं जो धर्मनिरपेक्षता  का झंडा अब भी बुलंद रखते  हैं लेकिन कुछ लोग कांग्रेस में भी एसे हैं जो दिग्विजय सिंह जैसे लोगों को हाशिये पर रखने पर आमादा हैं . कई बार तो लगता है कि बहुत सारे कांग्रेसी भी धर्मनिरपेक्षता  के खिलाफ काम कर रहे हैं . और जब आर एस एस और उसके मातहत संगठनों ने धर्म निरपेक्षता को चुनौती देने का बीड़ा उठाया है तो  कांग्रेस पार्टी भी अगर उनके अरदब में आ गयी तो देश से धर्मनिरपेक्षता  की राजनीति की विदाई भी हो सकती है .

Monday, April 30, 2012

मधु लिमये ने सरदार पटेल को धर्मनिरपेक्षता का महान प्रणेता बताया था


( १-०५-१९२२ को मधु लिमये का जन्म हुआ था )  



शेष  नारायण सिंह 

मधु लिमये होते तो ९० साल के हो गए होते . मुझे मधु  जी के करीब आने का मौक़ा १९७७ में मिला था जब वे लोक सभा के लिए चुनकर दिल्ली  आये थे. लेकिन उसके बाद दुआ सलाम तो होती रही लेकिन अपनी रोजी रोटी की लड़ाई में मैं बहुत व्यस्त हो गया. . जब आर एस एस ने  बाबरी मस्जिद के मामले को गरमाया तो पता नहीं कब मधु जी से मिलना जुलना लगभग रोज़ ही का सिलसिला बन गया .  इन दिनों वे सक्रिय राजनीति से संन्यास ले चुके थे और लगभग पूरा समय लिखने में लगा रहे थे. बाबरी मस्जिद के बारे में आर एस एस और बीजेपी वाले उन दिनों सरदार पटेल के हवाले से अपनी बात कहते पाए जाते थे. हुम लोग भी दबे रहते थे क्योंकि सरदार पटेल को कांग्रेसियों का एक वर्ग भी साम्प्रदायिक बताने की कोशिश करता रहता था. उन्हीं दिनों मधु लिमये ने मुझे बताया था कि सरदार पटेल किसी भी तरह से हिन्दू साम्प्रदायिक नहीं थे. 
 दिसंबर १९४९ में  फैजाबाद के तत्कालीन कलेक्टर के के नायर की साज़िश के बाद बाबरी मस्जिद में भगवान् राम की मूर्तियाँ रख दी गयी थीं . केंद्र सरकार बहुत चिंतित थी . ९ जनवरी १९५० के दिन  देश के गृह मंत्री ने रूप में सरदार पटेल ने उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री गोविन्द वल्लभ पन्त को लिखा था. पत्र में साफ़ लिखा है कि " मैं समझता हूँ कि इस मामले दोनों सम्प्रदायों के बीच आपसी समझदारी से हल किया जाना चाहिए . इस तरह के मामलों में शक्ति के प्रयोग का कोई सवाल नहीं पैदा होता... मुझे यकीन है कि इस मामले को इतना गंभीर मामला नहीं बनने देना चाहिए और वर्तमान अनुचित विवादों को शान्ति पूर्ण तरीकों से सुलझाया जाना चाहिए ." 

मधु जी ने बताया कि सरदार पटेल इतने व्यावहारिक थे किउन्होने मामले के भावनात्मक आयामों  को समझा और इसमें मुसलमानों की सहमति प्राप्त करने की आवश्यकता पर जोर दिया . उसी दौर में मधु लिमये ने बताया था कि बीजेपी किसी भी हालत में सरदार पटेल को जवाहर लाल नेहरू का विरोधी नहीं साबित कर सकती क्योंकि महात्मा जी से सरदार की जो अंतिम बात हुई थी उसमें उन्होंने साफ़ कह दिया था कि जवाहर ;लाल से मिल जुल कर काम कारण है . सरदार पटेल एन महात्मा जी की अंतिम इच्छा को हमेशा ही सम्मान दिया ..

मधु लिमये हर बार कहा करते थे कि भारत की आज़ादी की लड़ाई जिन मूल्यों पर लड़ी गयी थी, उनमें धर्म निरपेक्षता एक अहम मूल्य था . धर्मनिरपेक्षता  भारत के संविधान का स्थायी भाव है, उसकी मुख्यधारा है। धर्मनिरपेक्ष राजनीति किसी के खिलाफ कोई नकारात्मक प्रक्रिया नहीं है। वह एक सकारात्मक गतिविधि है। मौजूदा राजनेताओं को इस बात पर विचार करना पड़ेगा और धर्मनिरपेक्षता को सत्ता में बने रहने की रणनीति के तौर पर नहीं राष्ट्र निर्माण और संविधान की सर्वोच्चता के जरूरी हथियार के रूप में संचालित करना पड़ेगा। क्योंकि आज भी धर्मनिरपेक्षता का मूल तत्व वही है जो 1909 में महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज में लिख दिया था..

धर्मनिरपेक्ष होना हमारे गणतंत्र के लिए बहुत ज़रूरी है। इस देश में जो भी संविधान की शपथ लेकर सरकारी पदों पर बैठता है वह स्वीकार करता है कि भारत के संविधान की हर बात उसे मंज़ूर है यानी उसके पास धर्मनिरपेक्षता छोड़ देने का विकल्प नहीं रह जाता। जहां तक आजादी की लड़ाई का सवाल है उसका तो उद्देश्य ही धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय का राज कायम करना था। महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' में पहली बार देश की आजादी के सवाल को हिंदू-मुस्लिम एकता से जोड़ा है। गांधी जी एक महान कम्युनिकेटर थे, जटिल सी जटिल बात को बहुत साधारण तरीके से कह देते थे। हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।"

महात्मा जी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत की, उससे अंग्रेजी राज्य की चूलें हिल गईं। आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। शौकत अली, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव बनाया।लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी . महात्मा गाँधी के दो बहुत बड़े अनुयायी जवाहर लाल नेहरू और  कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता, सरदार वल्लभ भाई पटेल ने धर्मनिरपेक्षता को इस देश के मिजाज़ से बिलकुल मिलाकर राष्ट्र की बुनियाद रखी.

मधु जी बताया करते थे कि कांग्रेसियों के ही एक वर्ग ने सरदार को हिंदू संप्रदायवादी साबित करने की कई बार कोशिश की लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। भारत सरकार के गृहमंत्री सरदार पटेल ने 16 दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)। सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं। सरदार पटेल अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। उनके साथ पूरा सरकारी अमला था और उनकी बहन भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, ''इसी शहर के जलियांवाला बाग की माटी में आज़ादी हासिल करने के लिए हिंदुओं, सिखों और मुसलमानों का खून एक दूसरे से मिला था। ............... मैं आपके पास एक ख़ास अपील लेकर आया हूं। इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ............ एक हफ्ते तक अपने हाथ बांधे रहिए और देखिए क्या होता है।मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।" 

सरदार पटेल की इस अपील के बाद पंजाब में हिंसा नहीं हुई। कहीं किसी शरणार्थी पर हमला नहीं हुआ। कांग्रेस के दूसरे नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं। प्रेस से उनके रिश्ते हमेशा अच्छे रहे इसलिए उनके धर्मनिरपेक्ष चिंतन को सभी जानते हैं और उस पर कभी कोई सवाल नहीं उठता।
बाद में  इन चर्चाओं के दौरान हुई  बहुत  सारी बातों को मधु लिमये ने अपनी किताब ," सरदार पटेल: सुव्यवस्थित राज्य के प्रणेता " में विस्तार से लिखी भी हैं . १९९४ में जब मैंने इस किताब की समीक्षा लिखी तो मधु जी बहुत खुश हुए थे और उन्होंने संसद के पुस्तकालय से मेरे लेख की फोटोकापी लाकर मुझे दी और कहा कि सरदार पटेल के बारे के जो लेख तुमने लिखा है वह बहुत  अच्छा है . मैं अपने लेखन के बारे में उनके उस बयान को अपनी यादों की सबसे बड़ी धरोहर मानता हूँ जो उस महान व्यक्ति ने मुझे उत्साहित करने के लिए दिया था .

Thursday, November 26, 2009

संघी खेल में वाजपेयी बराबर के गुनाहगार

शेषनारायण सिंह

बाबरी मस्जिद के विध्वंस के १० दिन बाद गठित किये गए लिब्रहान आयोग ने अपनी जांच पूरी करके रिपोर्ट दे दी है . रिपोर्ट के कुछ अंशों को छापने का दावा करने वाले मीडिया संगठनों का कहना है कि उनके हाथ कोई खजाना लग गया है . करीब १७ साल के काम के बाद इस आयोग के हवाले से जो कुछ अखबारों में छपा है ,उसमें कुछ भी नया नहीं है. जिन लोगों ने १९८६ से १९९२ तक के संघी तानाशाही के काम को देखा किया है उन्हें सब कुछ मालूम था. लिब्रहान आयोग से उम्मीद की जा रही थी कि वह उन बातों को सामने लाएगा जिनके बारे में मीडिया वालों को शक तो था लेकन पक्के तौर पर नहीं मालूम था कि किस तरह से आर एस एस ने सारे खेल को अंजाम दिया था .अभी रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं हुई है .उम्मीद की जानी चाहिए कि जब संसद के पटल पर रखी जायेगी तो पता लगेगा कि साम्प्रदायिक ताक़तों ने किस तरह से एक पूरे देश को घेर रखा था. एक अख़बार में रिपोर्ट के छपने के हवाले से बी जे पी ने लोकसभा में हंगामा करके , रिपोर्ट को लीक करने पर इतना बड़ा बवाल खड़ा करने की कोशिश की कि जनता का ध्यान , इस बात से हट जाए कि उसके अन्दर क्या है . विपक्ष के नेता, लाल कृष्ण अडवाणी ने खुद मोर्चा संभाला और कहा कि इस रिपोर्ट में पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को भी दोषी बताया गया है जो कि असंभव है . अडवाणी ने कहा कि वे खुद को दोषी पाए जाने से उतने दुखी नहीं है . लेकिन वाजपेयी को दोषी बता कर लिब्रहान आयोग ने भारी गलती की है .. अडवाणी के इस पैतरे से साफ़ हो गया है कि संघ बिरादरी अभी वाजपेयी को उदारवादी भूमिका में ही रखना चाहती है.उनको अभी कट्टर पंथी काम के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाने वाला है. लोकसभा में अडवाणी ने दावा किया कि वाजपेयी तो बहुत ही सीधे व्यक्ति हैं इस लिए उनको बाबरी मस्जिद के विध्वंस के काम में शामिल नहीं बताया जा सकता.
सच्ची बात यह है कि अडवाणी ,वाजपेयी और बी जे पी के बाकी नेता भी आर एस एस की कठपुतलिया हैं. . सबको आर एस एस के नाटक में रोल दिया गया हैं.. और सबको अपना काम करना है . बी जे पी के सत्ता अभियान की डोर नागपुर के बड़े दरबार के हाथ में रहती है .संघ ही इनके हर काम का नियंता है. देश में सावरकरवादी फासिज्म स्थापित करने के उद्देश्य से हिंदुत्व की राजनीति का सहारा लेने वाली संघ बिरादरी में अटल बिहारी वाजपेयी की भूमिका एक उदार वादी अभिनेता की है. वाजपेयी उसी रोल को निभा रहे हैं . अडवाणी या बी जे पी के अन्य नेता समझाने की कोशिश कर रहे हैं, कि संघी धंध फंद से वाजपेयी का कोई लेना देना नहीं है लेकिन यह सच नहीं है . वाजपेयी संघ के हर कर्म में शामिल रहे हैं . अगर ऐसा न होता तो आर एस एस उनको कभी का दूध की मक्खी की तरह निकाल कर फेंक चुका होता. संघी राजनीति में जो लोग भी नागपुर से असहमत होते हैं उनका वहीं हश्र होता है जो बलराज मधोक का हुआ था या लाल कृष्ण अडवाणी का होने वाला है . लेकिन जब संघी भाइयों ने वाजपेयी के चेहरे से उदारवादी नकाब के हटने की संभावना पर इतनी तीखी प्रतिक्रिया दिखाई है तो उनकी राजनीतिक यात्रा पर एक नज़र डाल लेना सही रहेगा.. हालांकि बी जे पी के छुटभैये नेता टी वी चैनलों पर बार बार यह कहते पाए गए हैं कि वाजपेयी जी बीमार हैं लिहाज़ा उनके खिलाफ कोई टिप्पणी न की जाए. .

अटल बिहारी वाजपेयी के ५ दिसंबर १९९२ के एक भाषण के कुछ अंश एक टी वी चैनल पर दिखाए जा रहे हैं .जिसमें उन्होंने दावा किया है कि कल अयोध्या में पता नहीं क्या होगा. यहाँ एक बार फिर यह जान लेना ज़रूरी है कि ६ दिसंबर को अयोध्या में संघी नेताओं को केवल पूजा पाठ करने की अनुमति मिली थी . उत्तर प्रदेश के उस वक़्त के मुख्य मंत्री ,कल्याण सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में लिख कर दिया था कि बाबरी मस्जिद को कोई नुक्सान नहीं पंहुचेगा . अपने ५ दिसंबर के भाषण में वाजपेयी उसी पूजा पाठ का हवाला दे रहे हैं . उसमें उन्होंने कहा है कि पूजा के पहले ज़मीन को समतल किया जाएगा ,सफाई की जायेगी और फिर वहां मौजूद करोड़ों लोग जो चाहेंगें करेंगें.. यानी यह कहना गलत होगा कि क वाजपेयी को मालूम नहीं था कि अयोध्या में ६ दिसंबर को क्या होने वाला है.. सारे ड्रामे में उनका रोल दिल्ली में रहकर माहौल दुरुस्त करने के था . उनको बाबरी मस्जिद के ज़मींदोज़ होने के बाद कहना था कि उन्हें बहुत तकलीफ हुई है . सो उन्होंने कहा . लेकिन उनको दोषमुक्त बता कर उदारवाद के संघी मुखौटे को छिन्न भिन्न करने की कोशिश का आर एस एस के सभी मातहत संगठन विरोध करेंगें. सवाल यह है कि क्या वाजपेयी वास्तव में उतने ही पवित्र हैं जितना दावा किया जा रहा है . बी जे पी वाले यह भी कहते पाये जा आरहे हैं कि वाजपेयी बीमार हैं लिहाज़ा उनके बारे में कोई सख्त टिप्पणी न की जाए. लेकिन जो इतिहास पुरुष होते हैं उनको इस तरह की माफी नहीं मिलती. वाजपेयी ६ साल तक भारत के प्रधानमंत्री रह चुके हैं इसलिए उनके काम को इतिहास की कसौटी पर कसा जाएगा. .अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते देश ने जिस तरह का अपमान झेला है उसे देखते हुए तो उन्हें कभी माफ़ नहीं किया जा सकता. कंधार में आतंकवादियों के सामने घुटने टेकना और संसद पर आतंकवादी हमला उनके दो ऐसे कारनामे हैं जिसकी वजह से इतिहास और आने वाले नस्लें उन्हें कभी माफ़ नहीं करेंगीं. . उनके प्रधान मंत्री रहते , घूस के भी सारे रिकॉर्ड टूट गए.. इन घूस के कारनामों को जानने के लिये किसी जासूस की ज़रुरत नहीं है . जो साफ़ नज़र आता है उसी का ज़िक्र किया जाएगा. . उनके ख़ास रह चुके, प्रमोद महाजन ने जुगाड़ करके १२५० करोड़ रूपये में विदेश संचार निगम लिमिटेड को बेच दिया . यानी सरकारी खजाने में केवल यही रक़म जमा हुई. जिन्होंने देखा है वे बता देंगें कि इस कंपनी की दिल्ली स्थित ग्रेटर कैलाश की एक प्रोपर्टी की कीमत इस से बहुत ज्यादा होगी. इस तरह की इस कंपनी के पास पूरे देश में बहुत सारी ज़मीन है . ज़ाहिर है कि इस एक बिक्री से देश को हज़ारों करोड़ का नुकसान हुआ और वाजपेयी के शिष्य प्रमोद महाजन को भारी आर्थिक लाभ हुआ. प्रमोद महाजन के इस काम में उनके साथ अटल बिहारी वाजपेयी की एक घनिष्ठ महिला मित्र के दामाद भी शामिल रहते थे. . हिमाचल प्रदेश में वाजपेयी के लिए पूरी एक पहाड़ी खरीद कर वहां एक महल बनवाया गया है . वाजपेयी को बहुत धर्मात्मा बताने वालों को चाहिए कि इस महल के बनवाये जाने के पीछे की कहानी सार्वजनिक करें. . १९८९ में बोफोर्स के ६५ करोड़ रूपये के कथित घूस को मुद्दा बनाकर सत्ता में आई बी जे पी के ६ साल के राज में १०० करोड़ रूपये तक को तो फुटकर पैसा माना जाता था . वह घूस था ही नहीं . अगर अब भी वाजपेयी को पवित्र मानने की बी जे पी कोशिश करती है तो उसका फैसला इतिहास पर छोड़ना ही ठीक होगा. वैसे वाजपेयी का इतिहास भी ऐसा नहीं है जिस पर गर्व किया जा सके. अटल बिहारी वाजपेयी ने १९४२ में ग्वालियर में दो देशभक्तों के खिलाफ अंग्रेजों की अदालत में गवाही दी थी जिसके बाद आज़ादी के उन दोनों सिपाहियों को फांसी हो गयी थी. . इनकी उम्र इन दिनों १८ साल की ही थी . उन दिनों आर एस एस अंग्रेजों के ख़ास मुखबिर के रूप में काम करता था.इसलिए वाजपयी को बहुत पवित्र बनाकर लिब्रहान आयोग की सिफारिशों को रास्ते से हटाने के एसंघ परिवार की हर कोशिश का विरोध किया जाना चाहिए और देश के सभ्य समाज को आग याना चाहिए ताकि नागपुर किशान्रे पर नाचने वाल एचंद नेट अहमारे देश की धरम निरापेस्ख राजनीति को नुक्सान न पंहुचा सकें

Wednesday, October 21, 2009

मुलगी शिकली , प्रगति झाली

स्वाति मुंबई की एक उच्च मध्यवर्गीय सोसाइटी में घरों में काम करती है . दो बच्चियों की माँ है. हाड तोड़ मेहनत करती है . महाराष्ट्र के किसी ग्रामीण इलाके से आकर मुंबई में रहती है . उसकी कोशिश है कि उसकी बच्चियों का भविष्य बेहतर हो और उन्हें अपनी माँ की तरह पूरी मेहनत के बदले कम पैसों में काम करने के लिए मजबूर न होना पड़े . स्वाति को इस मकसद को हासिल करने के तरीके भी मालूम हैं . उसे मालूम है कि उच्च शिक्षा के बल पर उसकी बच्चियां अच्छी जिन्दगी जी सकेंगीं. इससे लिए वह स्कूल की फीस बढ़ने के साथ साथ और मेहनत करने लगती है. , नए घर पकड़ लेती है. महाराष्ट्र में लड़कियों की शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन का सबसे बड़ा साधन माना जाता है . १८४८ में ही ज्योतिबा फुले ने दलित लड़कियों के लिए अलग से स्कूल खोलकर इस क्रांति का ऐलान कर दिया था . और आज भी महाराष्ट्र में लड़कियों की इज्ज़त अन्य राज्यों की तुलना में कहीं अधिक है. बीच में मराठी मानूस के नारे के राजनीतिक इस्तेमाल के बाद लुम्पन लड़कों पर जोर ज्यादा दिया जाने लगा और पिछले ५० साल में महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में लड़कियों की शिक्षा पर उतना ध्यान नहीं दिया गया जो आज़ादी की लड़ाई के दौरान दिया गया था और जिसकी बुनियाद महात्मा फुले ने १८४८ में ही रख दी थी. . बहर हाल बच्चियों की शिक्षा को नज़र अंदाज़ करने के नतीजे महाराष्ट्र के नेताओं की समझ में आने लगे हैं . आज राज्य की राजधानी , मुंबई में यहाँ के स्थानीय लोगों की हैसियत बहुत ही कम हो गयी है. राजनीतिक सत्ता पर काबिज़ होने के बावजूद मराठी मानूस मुंबई के उच्च वर्ग में शामिल नहीं है . कई चिंतकों से बात चीत करने पर पता चला कि इस हालत के लिए शिक्षा की कमी सबसे ज्यादा जिम्मेदार है .देर से ही, सही लड़कियों की शिक्षा के लिए समाज ने पहल करना शुरू कर दिया है . सरकारी तौर पर एक अभियान चलाया जा रहा है जिसके तहत प्रचार किया जा रहा है कि अगर लडकी शिक्षित होगी , तभी प्रगति होगी.इस अभियान का फर्क भी पड़ना शुरू हो गया है. यह मानी हुई बात है कि तरक्की के लिए शिक्षा की ज़रुरत है. और परिवार की तरक्की तभी होगी जब मान सही तरीके से शिक्षित होगी.

यह बात उत्तर भारत के बड़े राज्यों, बिहार और उत्तर प्रदेश के उदाहरण से बहुत अच्छी तरह से समझी जा सकती है. यहाँ पर लड़कियों की शिक्षा लड़कों की तुलना में बहुत कम है .शायद इसी वजह से यह राज्य देश के सबसे अधिक पिछडे राज्यों में शुमार किये जाते हैं . इन् इलाकों में रहने वाले मुसलमानों की बात तो और भी चिंता पैदा करने वाली है. हज़रत मुहम्मद ने फरमाया था कि शिक्षा इंसान के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ है. आपने कहा था कि अगर इल्म के लिए उन्हें चीन भी जाना पड़े तो कोई परेशानी वाली बात नहीं है. इसका मतलब यह है कि मुसलमान को शिक्षा पर सबसे ज्यादा ध्यान देना चाहिए लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं है. कम से कम उत्तर प्रदेश और बिहार के मुसलमान शिक्षा के क्षेत्र में सबसे ज्यादा पिछडे हुए हैं . उनके इस पिछडेपन का एक बड़ा कारण यह है कि इन इलाकों में मुसलमानों की लड़कियों की शिक्षा का कोई इन्तेजाम नहीं है. जो बात समझ में नहीं आती , वह यह कि जब पैगम्बर साहेब ने ही तालीम पर सबसे ज्यादा जोर दिया था तो उनके बताये रास्ते पर चलने वाले शिक्षा के क्षेत्र में इतना पिछड़ क्यों गए. सब को मालूम है कि अगर लडकियां शिक्षित नहीं होंगी तो आने वाली नस्लें शिक्षा से वंचित ही रह जाएँगीं, इस लिए मुसलमानों के सामाजिक और धार्मिक नेताओं को चाहिए कि वह ऐसी व्यवस्था करें जिस के बाद उनकी अपनी बच्चियां अच्छी शिक्षा हासिल कर सकें.अभी पिछले दिनों दिल्ली में आयोजित एक सेमिनार में यह बात सामने आई कि मुसलमानों में आधुनिक और तकनीकी शिक्षा के लिए कोई ख़ास कोशिश नहीं हो रही है. बड़े पत्रकार विनोद मेहता ने तो यहाँ तक कह दिया है कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना के बाद , मुसलमानों ने आधुनिक और वैज्ञानिक शिक्षा के लिए कोई भी अहम् पहल नहीं की है. राजनीतिक सामाजिक नेता और लेखक आरिफ मुहम्मद खान के एक ताजे लेख से पता चलता है कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संस्थापक और क्रांतिकारी शिक्षाविद , सर सैय्यद अहमद खान को भी उस वक़्त के धार्मिक नेताओं ने खुशी से स्वीकार नहीं किया था . इस लिए मुसलमानों और समाज की तरक्की के लिए ज़रूरी है कि अर्जेंट आधार पर लड़कियों की शिक्षा के लिए समाज और काम के नेता ज़रूरी पहल करें वरना खतरा यह है कि बहुत देर हो जायेगी. जहां तक समाज के सहयोग की बात है उसकी उम्मीद करना ठीक नहीं होगा क्योंकि महाराष्ट्र में लड़कियों की शिक्षा की क्रान्ति के सूत्रधार ज्योतिबा फुले को भी उनके पिता जी ने घर से निकाल दिया था जब उन्होंने १८४८ में दलित लड़कियों के लिए पहला स्कूल पुणे में खोला था. आज के समाज, खासकर मुस्लिम समाज में ऐसे लोगों को आगे आने की ज़रुरत है जो सर सैय्यद की तरह आगे आयें और समाज को परिवर्तन की राह पर डालने की कोशिश करें

Tuesday, October 20, 2009

अब क्या करेगी बी जे पी

आर एस एस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में उसके मुखिया मोहनराव भागवत ने कह दिया कि संघ के कैडर अपने हिसाब से इस बात का चुनाव कर सकते हैं कि उन्हें किस पार्टी को वोट देना है . उन्होंने साफ किया कि ज़रूरी नहीं के संघ के सदस्य केवल बी जे पी को ही वोट दें .इस कथित बयान के बाद बी जे पी में हड़कंप मच गया . सच्ची बात यह है कि आर एस एस के कार्यकर्ताओं के अलावा , बी जे पी के पास और कोई जनाधार नहीं है . विश्वविद्यालयों में जो भी छात्र एबीवीपी के नाम पर इकठ्ठा होते हैं , उनमें लगभग सभी आर एस एस के ही सदस्य होते हैं.

मजदूरों में पार्टी की कहीं कोई हैसियत नहीं है. दत्तोपंत ठेंगडी की मौत के बाद ट्रेड यूनियन की राजनीति में संघ की कोई ख़ास उपस्थिति नहीं है. नौजवानों में भी वही आर एस एस वाले सक्रिय हैं . गरज कि बी जे पी के समर्थकों में से अगर आर एस एस वालों को हटा लिया जाए तो वहां कुछ नहीं बचेगा . ज़ाहिर है इस तरह की बात शुरू होने के बाद बी जे पी में चिंता का माहौल बन गया . वैसे भी २००९ में पार्टी की चुनाव में हुई हार के बाद उसकी दुर्दशा की खबरें रोज़ ही अखबारों में छपती ही रहती हैं .. लेकिन आर एस एस के मुखिया के बयान के बाद बी जे पी के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने पटना में मीडिया को बताया कि मोहनराव भागवत ने ऐसा कुछ नहीं कहा है कि संघ के कार्यकर्ता चाहे तो भाजपा को वोट करें या न करें.

राजगीर में चल रही आर एस एस की कार्यकारिणी में शामिल किसी सूत्र के हवाले से आईएएनएस एजंसी ने एक खबर जारी कर दी थी जिसमें कहा गया था कि मोहनराव भागवत ने कहा है कि वे यह स्वयंसेवकों को तय करना है कि वे भाजपा को वोट करें या न करें. यह खबर जब अखबारों में छपी तो बी जे पी में खलबली मच गयी. इसके बाद रविशंकर ने कहा कि संघ हमेशा ही यह कहता रहता है कि संघ के स्वयंसेवक जिसे चाहें वोट कर सकते हैं, लेकिन व्यावहारिक रूप में ऐसा होता नहीं है.. आर एस एस की विश्वसनीयता के बारे में रवि शंकर प्रसाद की इस बात को शायाद उनकी पार्टी के लोग ही गंभीरता से न लें लेकिन इस बात में दो राय नईं है कि आर एस एस के नए प्रमुख मोहन भागवत बी जे पी के मौजूदा नेतृत्व से खुश नहीं हैं . यह बात उन्होंने बार बार कह भी दिया है .कम से कम सिद्धांत रूप से आर एस एस मानता है कि वह हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए किसी भी राजनीतिक दल की मदद कर सकता है.

बी जे पी को अपने पूर्व अवतार में जनसंघ कहा जाता था. उसकी स्थापना के बाद से ही स्वर्गीय दीन दयाल उपाध्याय के ज़रिये आर एस एस ने पार्टी पर पूरा कंट्रोल रखा. और जब जनता पार्टी बनी तो जनसंघ घटक के लोगों को हुक्म नागपुर से ही लेना पड़ता था. बी जे पी बनने के बाद तो इस बात पर कभी चर्चा भी नहीं हुई कि पार्टी में आर एस एस की भूमिका क्या है. सब जानते हैं कि बी जे पी पूरी तरह से आर एस एस का सहयोगी संगठन है . लेकिन आजकल आर एस एस में बी जे पी की उपयोगिता के बारे में बेचैनी है. आर एस एस के कुछ ख़ास लोग कद्दावर आर एस एस नेता , गोविन्दाचार्य के नेतृत्व में बी जे पी के विकल्प की तालाश कर रहे हैं . उसी प्रोजेक्ट के तहत महात्मा गाँधी और सरदार पटेल जैसे कांग्रेस के बड़े नेताओं को अपना बना लेने की कोशिश चल रही है है. गोविन्दाचार्य के दोस्त लोग राष्ट्र निर्माण जैसे लोक लुभावन नारों के ज़रिये जनता तक पंहुचने की कोशिश कर रहे हैं जिस से सही वक़्त पर संघ की नयी पार्टी की घोषणा कर दी जाए. बताया गया है कि गोविन्दाचार्य के व्यक्तित्व के आकर्षण की वजह से वर्तमान बी जे पी के भी कुछ बड़े नेता उनके संपर्क में हैं . इन लोगों ने महात्मा गाँधी के नाम पर चलने वाले कई संगठनों पर कब्जा भी कर लिया है . आज कल आर एस एस वालों का एक बड़ा तबका अपने आप को गांधीवादी भी कहता पाया जा रहा है . इस लिए मोहन राव भागवत की इस बात में दम लगता है कि आर एस एस जल्दी ही बी जे पी से पिंड छुडाने वाला है.

आर एस एस के लिए नयी राजनीतिक पार्टी की तलाश कोई नयी बात नहीं है. १९७५ में जब पूरी दुनिया संजय गाँधी की क्रूर तानाशाही प्रवृत्तियों से दहशत में थी, तो आर एस एस वाले उन्हें अपना बना लेने के चक्कर में थे. अकाल मृत्यु ने संजय गाँधी के जीवन में हस्तक्षेप कर दिया वरना हो सकता है कि बाद में जो उनकी पत्नी और बेटे ने किया वह काम संजय गाँधी के जीवन में ही हो गया होता.

आजकल भी आर एस एस के लोग पुराने कांग्रेसियों, महात्मा गाँधी और सरदार पटेल को अपना पूर्वज बताने की कोशिश तो कर ही रहे हैं , नए वालों पर भी उनकी नज़र है. आर एस एस के प्रमुख ने पिछले दिनों राहुल गाँधी की तारीफ़ की और पी चिदंबरम के काम पर बहुत ही संतोष ज़ाहिर किया. महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावों के बीच में आर एस एस के कांग्रेस के नेताओं की तारीफ करना बीजेपी को ठीक बिलकुल नहीं लगा लेकिन बेचारे कर क्या सकते हैं. इस लिए आर एस एस के मुखिया के बयान के बाद बीजेपी में परेशानी शुरू होना स्वाभाविक है और इस बात को भी पूरा बल मिलता है कि आर एस एस ने नयी राजनीतिक पार्टी के विकल्प वाले प्रोजेक्ट पर गंभीरता से काम शुरू कर दिया है. इसके लिए खुद आरएसएस के अंदर ही कई धाराएं हैं जो नये राजनीतिक विकल्प का खाका तैयार करने में लगी हुई हैं. हालांकि आरएसएस 2007 में कह चुका है कि वह इसी भाजपा को ठीक करेगा लेकिन यह भाजपा ठीक होती दिखाई न दी तो नये विकल्पों को आजमाने से आरएसएस हिचकेगा भी नहीं

पाकिस्तान के बिना बी जे पी का क्या होगा

बी जे पी की राजनीति का एक और प्रमुख स्तम्भ ढहने वाला है...लगता है कि पाकिस्तान पर भी अब वोटों की खेती नहीं हो पायेगी. अयोध्या विवाद पर तो अब वोट की खेती नहीं हो सकती और बोफोर्स का मुद्दा भी अब दफ़न हो गया है . उसके सहारे बी जे पी जैसी भावनाओं पर राजनीति करने वाली पार्टियों को काफी खुराक मिलती थी. वह भी ख़त्म ही है .लोक सभा चुनावों के पहले से ही मुद्दों की तलाश जारी है . बी जे पी की राजनीति में पाकिस्तान का बहुत बड़ा महत्व है . पाकिस्तान के खिलाफ तलवारें भांज कर बी जे पी वाले अपने सीधे सादे कार्यकर्ताओं को अब तक चलाते रहे हैं . कभी पाकिस्तान का कच्छ में घुसना , कभी ताशकंद में गडबडी, कभी सीमा पर झंझट ,कभी कारगिल तो कभी सीमा पार से आने वाला आतंकवाद , यह सब बी जे पी की सियासत को जिंदा रखने में काम आते रहे हैं . लेकिन अब खबर आ रही है कि कांग्रेस पार्टी वाले पाकिस्तान को टालने की राजनीति शुरू कर चुके हैं . कांग्रेस के महासचिव राहुल गाँधी ने शिमला में बयान दे दिया है कि भारत की तुलना पाकिस्तान से नहीं की जानी चाहिए . उन्होंने कहा कि पाकिस्तान उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना हम समझते हैं . भारत और पाकिस्तान में बहुत फर्क है. हम अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक अहम् मुकाम रखते हैं जब कि पाकिस्तान एक ऐसा मुल्क है जो अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है . उन्होंने कहा कि यह अलग बात है कि पाकिस्तान कुछ न कुछ गड़बड़ करता रहता है और उसका इलाज़ वही लोग कर देंगें जिन्हें उसका ज़िम्मा दिया गया है . पाकिस्तान हमारी विश्वदृष्टि में एक बहुत ही मामूली जगह घेरता है राहुल गाँधी के इस बयान के बाद बी जे पी में चिंता की स्थिति दिख रही है . राहुल गाँधी का बयान किसी मामूली कांग्रेसी का बयान नहीं है . वैसे भी, राहुल गाँधी के व्यक्तित्व की एक खासियत उभर कर सामने आ रही है कि वे बहुत गंभीर बात भी साधारण तरीके से कह देते हैं . बाद में उस पर बहस होती है और उनकी बात ही पार्टी की नीति के रूप में स्वीकार कर ली जाती है . इस लिए हो सकता है कि पाकिस्तान संबन्धी उनका बयान भी कांग्रेस की मौजूदा सोच की प्रतिध्वनि हो. बहरहाल, भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने बयान दे दिया कि राहुल गाँधी को अभी बहुत कुछ सीखना है . आपने फरमाया कि अगर पाकिस्तान इतना कम महत्वपूर्ण है तो प्रधान मंत्री को शर्म अल शैख़ में क्यों शर्म उठानी पडी. बी जे पी की चिंता का कारण यह है कि पाकिस्तान के इस्लामी गणराज्य और उसके एजेंटों की मुखालिफत की बुनियाद पर राजनीति करने वाली बी जे पी को कहाँ ठिकाना मिलेगा. वैसे भी पार्टी के पास आम आदमी से जुड़ा कोई मुद्दा नहीं है . अगर पाकिस्तान भी निकल गया तो क्या होगा . दरअसल बी जे पी की राजनीतिक सोच में पाकिस्तान का केंद्रीय मुकाम है . कश्मीर, संविधान की धारा ३७०. आतंकवाद, मुसलमान , राष्ट्रीय सुरक्षा मुस्लिम तुष्टिकरण , सीमा पार से सांस्कृतिक हमले उर्फ़ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद , बी जे पी की राजनीति के प्रमुख शब्दजाल हैं और अगर पाकिस्तान को कम महत्व देने की राहुल गाँधी की राजनीति ने जोर पकड़ लिया तो संघ की राजनीति को मीडिया में मिलने वाली जगह अपने आप कम हो जायेगी क्योंकि जब पाकिस्तान की ही कोई औकात नहीं रहेगी ,तो उसके विरोध की राजनीति को कौन पूछेगा. सवाल यह कि बी जे पी की राजनीति को जिंदा रखने के लिए पाकिस्तान के मह्त्व को कब तक जिंदा रखा जा सकता है . अमरीका और अन्य पश्चिमी देशों की शुरू से कोशिश रही है कि भारत और पाकिस्तान को एक ही तराजू में तौला जाए. अब तक वे सफल भी होते रहे हैं . लेकिन अब ऐसा करना अमरीका के लिए भी संभव नहीं है . पिछले ६० वर्षों में पाकिस्तान विकास के क्षेत्र में भारत से बहुत पीछे रह गया है और अब पाकिस्तान एक गरीब खस्ताहाल देश है . जो अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है . बलोचिस्तान और सूबा-ए- सरहद, पाकिस्तान से अलग होने की कोशिश कर रहे हैं .उसकी अर्थव्यवस्था तबाह हो चुकी है . फौज ने पिछले ५५ वर्षों में पाकिस्तान की जो दुर्दशा की है कि उसके लिए अपनी रोटी के लिए भी विदेशी मदद की ज़रुरत पड़ती है . ऐसी हालात में पाकिस्तान को कब तक बी जे पी की राजनीतिक सुविधा के लिए जिंदा रखा जा सकता है .जहां तक पाकिस्तान से भारत में आतंकवाद आने का खतरा है वह अब राजनीतिक या कूटनीतिक सवाल नहीं है . क्योंकि वहां की ज़रदारी-गीलानी की सिविलियन सरकार की इतनी हैसियत नहीं है कि वह पाकिस्तानी फौज को लगाम लगा सके. इसका मतलब यह हुआ कि पाकिस्तानी शरारतों को राजनीतिक तरीके से नहीं रोका जा सकता . उसे रोकने के लिए तो पाकिस्तानी फौज और आई एस आई को ही काबू करना पड़ेगा . आजकल यह काम अमरीकी फौज के अफगानिस्तान में तैनात जनरलों के जिम्मे है और वे उठते बैठते पाकिस्तानी सेना के आला अफसरों को धमका रहे हैं .सभी जानते हैं कि पाकिस्तान में सारी मुसीबतों की जड़ फौज ही है और अगर उनको दबा दिया गया तो पाकिस्तानी अवाम भी खुश हो जाएगा और भारत पर पाकिस्तान से आने वाली रोज़ रोज़ की परेशानियां अपने आप ख़त्म हो जायेगी . ज़ाहिर है कि यह भारत के लिए एक अच्छी स्थिति होगी.हाँ बी जे पी वालों को चाहिए कि वे राजनीति करने के लिए नए मुद्दे ढूंढ लें क्योंकि पाकिस्तान दीन, हीन खस्ताहाल और गरीब मुल्क है उसकी दुश्मनी की बुनियाद पर बहुत दिन तक राजनीति नहीं चलने वाली है .

Wednesday, September 23, 2009

क्या कांग्रेस वास्तव में धर्मनिरपेक्ष है?

जसवंत सिंह की किताब ऐसा कोई ऐतिहासिक दस्तावेज तो नहीं है, लेकिन जिन्ना की तारीफ जिस अंदाज से की गई है उसके बाद भारत और पाकिस्तान में उस किताब के हवाले से एक दिलचस्प बहस शुरू हो गई है। इसके पहले जसवंत सिंह की पुरानी पार्टी के नेता, लालकृष्ण आडवाणी ने जिन्ना के 11 अगस्त 1947 को कराची में दिए गए भाषण में धर्मनिरपेक्षता के विचार की तारीफ की थी और पार्टी में खलबली मच गई थी।

जसवंत सिंह ने नेहरू और पटेल की तुलना में जिन्ना के ज्यादा जिम्मेदार होने का संकेत देकर माहौल को बहुत गर्मा दिया था। इस बीच गुजरात पुलिस के कुछ बड़े अधिकारियों द्वारा मुंबई की एक लड़की इशरत जहां को फर्जी मुठभेड़ में मार डालने की बात भी बहस के दायरे में आ गई। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर उंगली उठने लगी। उनके शुभचिंतक कहने लगे कि मोदी फिर एक बार अनावश्यक विवाद के घेरे में फंस गए और उनके विरोधी कहने लगे कि इशरत जहां कि हत्या नरेंद्र मोदी के सांप्रदायिक एजेंडे को पूरा करने की बड़ी योजना का एक मामूली टुकड़ा है।

बहस एक बार सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता के विषय पर पहुंच गई और मोदी के समर्थकों ने उनके हर विरोधी को छदम धर्मनिरपेक्ष और उनके विरोधियों ने उन्हें फासिस्ट और सांप्रदायिक कहना शुरू कर दिया। इस पूरी बहस में कांग्रेस पार्टी के नेता आमतौर पर तमाशबीन बनकर आनंद ले रहे हैं और आमतौर पर धर्मनिरपेक्षता के अलम्बरदार के रूप में अपने आपको पेश कर रहे हैं। इस तरह सरदार पटेल, नेहरू, जिन्ना, आडवाणी, जसवंत सिंह, कांग्रेस पार्टी और नरेंद्र मोदी के हवाले से बहस एक बार धर्मनिरपेक्षता के इतिहास और राजनीति पर केंद्रित हो गई है।

ज़ाहिर है कि धर्मनिरपेक्षता के अहम पहलुओं पर एक बार फिर से गौर करने की ज़रूरत है और यह भी कि क्या कांग्रेस वास्तव में वैसी ही धर्मनिरपेक्ष है जैसी कि आजादी की लड़ाई के दौरान देश के महान नेताओं ने इसे बनाया था। जहां तक धर्मनिरपेक्षता की बात है वह भारत के संविधान का स्थायी भाव है, उसकी मुख्यधारा है। संविधान की शुरूआत ही इसी बात से होती है कि भारत के लोगों ने एक सार्वभौम, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और जनतांत्रिक गणतंत्र के रूप में अपने आपको गठित कर लिया है।

धर्मनिरपेक्ष होना हमारे गणतंत्र के लिए अति आवश्यक है। इस देश में जो भी संविधान की शपथ लेकर सरकारी पदों पर बैठता है वह स्वीकार करता है कि भारत के संविधान की हर बात उसे मंज़ूर है यानी उसके पास धर्मनिरपेक्षता छोड़ देने का विकल्प नहीं रह जाता। यह अलग बात है कि किसी की कमीज दूसरे व्यक्ति की कमीज से ज्यादा उजली हो सकती है। इसकी बहस में आमतौर पर कांग्रेस को बहुत ही धर्मनिरपेक्ष माना जाता है। ऐसा लगता है कि यह मान लेना साधारणीकरण होगा। जहां तक आजादी की लड़ाई का सवाल है उसका तो उद्देश्य ही धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय का राज कायम करना था। इसलिए उस दौर में कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता पर सवाल नहीं उठते लेकिन आजादी की बाद की कांग्रेस के बारे में यह सौ फीसदी सही नहीं है।

60 के दशक तक तो कांग्रेस उसी रास्ते पर चलती नजर आती है लेकिन शास्त्री जी के बाद भटकाव शुरू हो गया था और जब कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता के बुनियादी सिद्घांत पर कमजोरी दिखाई तो जनता ने और विकल्प ढूंढना शुरू कर दिया। महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' में पहली बार देश की आजादी के सवाल को हिंदू-मुस्लिम एकता से जोड़ा है। 1909 में छपी इस किताब की प्रकाशन की आजकल शताब्दी भी चल रही है। गांधी जी एक महान कम्युनिकेटर थे, जटिल सी जटिल बात को बहुत साधारण तरीके से कह देते थे। हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।"

महात्मा जी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत की, उससे अंग्रेजी राज्य की चूलें हिल गईं। आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गंाधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। शौकत अली, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव बनाया।
लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी। उसने जिन्ना टाइप लोगों की मदद से आजादी की लड़ाई में अड़ंगे डालने की कोशिश की और सफल भी हुए। लेकिन कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता, सरदार वल्लभ भाई पटेल की धर्मनिरपेक्षता सीधे महात्मा गांधी वाली थी।

कांग्रेसियों के ही एक वर्ग ने सरदार को हिंदू संप्रदायवादी साबित करने की कई बार कोशिश की लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। भारत सरकार के गृहमंत्री सरदार पटेल ने 16 दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)। सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं।

सरदार अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। उनके साथ पूरा सरकारी अमला था और उनकी बहन भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, ''इसी शहर के जलियांवाला बाग की माटी में आज़ादी हासिल करने के लिए हिंदुओं, सिखों और मुसलमानों का खून एक दूसरे से मिला था। ............... मैं आपके पास एक ख़ास अपील लेकर आया हूं। इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ............ एक हफ्ते तक अपने हाथ बांधे रहिए और देखिए क्या होता है।

मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।" सरदार पटेल की इस अपील के बाद पंजाब में हिंसा नहीं हुई। कहीं किसी शरणार्थी पर हमला नहीं हुआ। कांग्रेस के दूसरे नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं। प्रेस से उनके रिश्ते हमेशा अच्छे रहे इसलिए उनके धर्मनिरपेक्ष चिंतन को सभी जानते हैं और उस पर कभी कोई सवाल नहीं उठता। लेकिन इनके जाने के बाद कांग्रेस की राजनीति ऐसे लोगों के कब्जे में आ गई जिन्हें महात्मा जी के साथ काम करने का सौभाग्य नहीं मिला था।


कांग्रेस के इंदिरा गांधी युग में धर्मनिरपेक्षता के विकल्प की तलाश शुरू हो गई थी। उनके बेटे और उस वक्त के उत्तराधिकारी संजय गांधी ने 1975 के बाद से सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल मुसलमानों के खिलाफ करने के संकेत देना शुरू कर दिया था। खासतौर पर मुस्लिम बहुल इलाकों में इमारतें ढहाना और नसबंदी अभियान में उनको घेरना ऐसे उदाहरण हैं जो सॉफ्ट हिंदुत्व की तरफ इशारा करते हैं। 1977 के चुनाव में कांग्रेस को मुसलमानों ने वोट नहीं दिया। उसके बाद से ही कांग्रेस की सांप्रदायिक राजनीति की शुरुआत होने लगी। असम में छात्र असंतोष और पंजाब में जनरैल सिंह भिंडरावाला को कांग्रेसी शह इसी राजनीति का नतीजा है।

कांग्रेस का राजीव गांधी युग राजनीतिक समझदारी के लिए बहुत विख्यात नहीं है। वे खुद प्रबंधन की पृष्ठभूमि से आए थे और उनके संगी साथी देश को एक कारपोरेट संस्था की तरह चला रहे थे। इस प्रक्रिया में वे लोग कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की मूल सोच से मीलों दूर चले गए। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री पद पर बैठते ही जिस तरह से सुनियोजित तरीके से कांग्रेसी नेताओं ने सिखों का कत्ले आम किया, वह धर्मनिरपेक्षता तो दूर, बर्बरता है। जानकार तो यह भी शक करते हैं कि उनके साथ राज कर रहे मैनेजर टाइप नेताओं को कांग्रेस के इतिहास की भी ठीक से जानकारी थी।

बहरहाल उन्होंने जो कुछ किया उसके बाद कांग्रेस को धर्मनिरपेक्ष जमात मानने के बहुत सारे अवसर नहीं रह जाते। उन्होंने अयोध्या की विवादित बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाया और आयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास करवाया। ऐसा लगता है कि उन्हें हिन्दू वोट बैंक को झटक लेने की बहुत जल्दी थी और उन्होंने वह कारनामा कर डाला जो बीजेपी वाले भी असंभव मानते थे।

राजीव गांधी के बाद जब पार्टी के किसी नेता को प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला तो पी.वी. नरसिंह राव गद्दी पर बैठे। उन्हें न तो मुसलमान धर्मनिरपेक्ष मानता है और न ही इतिहास उन्हें कभी सांप्रदायिकता के खांचे से बाहर निकाल कर सोचेगा। बाबरी मस्जिद का ध्वंस उनके प्रधानमंत्री पद पर रहते ही हुआ था। पी.वी. नरसिंह राव जुगाड़ कला के माहिर थे और इतिहास उनकी पहचान उसी रूप में करेगा। पी.वी.नरसिंह राव के दौर में ही देश में विदेशी पूंजी की धूम शुरू हो गई थी और उसके साथ ही राज करने के तरीकों में भी परिवर्तन हुए हैं। कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व घोषित तौर पर आर.एस.एस. की नीतियों की मुखालिफत करता है। और उसी के बल पर अपने को धर्मनिरपेक्ष कहता है। यहां एक लोच है।

धर्मनिरपेक्ष राजनीति किसी के खिलाफ कोई नकारात्मक प्रक्रिया नहीं है। वह एक सकारात्मक गतिविधि है। मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व को इस बात पर विचार करना पड़ेगा और धर्मनिरपेक्षता को सत्ता में बने रहने की रणनीति के तौर पर नहीं राष्ट्र निर्माण और संविधान की सर्वोच्चता के जरूरी हथियार के रूप में संचालित करना पड़ेगा। क्योंकि आज भी धर्मनिरपेक्षता का मूल तत्व वही है जो 1909 में महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज में लिख दिया था।