शेष नारायण सिंह
एक नौसिखिया मंत्री के बयानों के हवाले से एक बार फिर जवाहरलाल नेहरू की विदेश नीति के बारे में बहस का सिलसिला शुरू हो गया है और वे लोग जिनकी पार्टियां आज़ादी की लड़ाई के दौरान अंग्रेजों की मददगार थीं, नेहरू को बहुत ही मामूली नेता बताने की दौड़ में शामिल हो गयी हैं ..कुछ टेलिविज़न समाचारों के चैनल भी इस लड़ाई में कूद पड़े हैं . दिल्ली के काकटेल सर्किट में होने वाली गपबाज़ी से इतिहास और राजनीति की जानकारी ग्रहण करने वाले कुछ पत्रकार भी १९४७ के पहले और बाद के अंग्रेजों के वफादार बुद्धिजीवियों की जमात की मदद से जवाहरलाल नेहरू को बौना बताने की कोशिश में जुट गए हैं . यहाँ किसी का नाम लेकर बौने नेताओं , दलालों और पत्रकारों को मह्त्व देने की कोशिश नही की जायेगी लेकिन यह ज़रूरी है कि आज़ादी की लड़ाई और उसके बाद की भारत की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक तरक्की में जवाहरलाल नेहरू की हैसियत को कम करने वालों की कोशिशों पर लगाम लगाई जाए. .. जिस चैनल पर जवाहरलाल नेहरू की विदेशनीति के बारे में बहस चल रही थी ,उसमें विषय ही ऐसा चुना गया था जो स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, राजनेता, राष्ट्रनिर्माता, संस्थाओं के निर्माता जवाहललाल नेहरू की शान के मुताबिक नहीं था . बहस में आर एस एस की राजनीतिक शाखा का एक छुटभैया नेता और बड़ा पत्रकार और भारतीय मूल का एक ब्रिटिश नागरिक जवाहरलाल नेहरू को अपमानित कर रहे थे . न्यूज़ रीडर भी अपने हिसाब से और अपने ज्ञान के हिसाब से नेहरू को प्रस्तुत कर रही थी . इस हमले से नेहरू को बचाने के लिए एक कांग्रेसी नेता मैदान में था.
आर एस एस और अँगरेज़ नागरिक की बात तो समझ में आती है कि वे नेहरू की मुखालिफत करें लेकिन एक नामी टी वी चैनल जब इस खेल में इस्तेमाल होता है तो तकलीफ होती है .बहरहाल नेहरू की विदेश नीति या राजनीति में कमी बताने वालों को यह ध्यान रखना चाहिए कि यह नेहरू की दूरदर्शिता का ही नतीजा है कि आज भारत एक महान देश माना जाता है और ठीक उसी दिन आज़ादी पाने वाला पाकिस्तान आज एक बहुत ही पिछड़ा मुल्क है.. बहस में शामिल ब्रिटिश नागरिक की कोशिश थी कि वह यह साबित करे कि अगर आज़ादी मिलने के बाद भारत ने अमरीका का साथ पकड़ लिया होता तो बहुत अच्छी विदेशनीति बनती और आर एस एस वाले बुद्धिजीवी की कोशिश तो वही थी कि जो कुछ भी कांग्रेस ने किया वह गलत था.. ज़ाहिर है यह दोनों ही सोच भारत के लोगों के हित के खिलाफ है और उसे गंभीरता से लेने की ज़रुरत नहीं है . लेकिन जवाहरलाल नेहरू की विदेश नीति की बुनियाद को समझना ज़रूरी है ..१९४६ में जब कांग्रेस ने अंतरिम सरकार में शामिल होने का फैसला किया , उसी वक़्त जवाहरलाल ने स्पष्ट कर दिया था कि भारत की विदेशनीति विश्व के मामलों में दखल रखने की कोशिश करेगी , स्वतंत्र विदेशनीति होगी और अपने राष्ट्रहित को सर्वोपरि महत्व देगी .. लेकिन यह बात भी गौर करने की है कि किसी नवस्वतंत्र देश की विदेशनीति एक दिन में नहीं विकसित होती. जब विदेशनीति के मामले में नेहरू ने काम शुरू किया तो बहुत सारी अडचनें आयीं लेकिन वे जुटे रहे और एक एक करके सारे मानदंड तय कर दिया जिसकी वजह से भारत आज एक महान शक्ति है .. सच्चाई यह है कि भारत की विदेशनीति उन्ही आदर्शों का विस्तार है जिनके आधार पर आज़ादी की लड़ाई लड़ी गयी थी और आज़ादी की लड़ाई को एक महात्मा ने नेतृत्व प्रदान किया था जिनकी सदिच्छा और दूरदर्शिता में उनके दुश्मनों को भी पूरा भरोसा रहता था. आज़ादी के बाद भारत की आर्थिक और राजनयिक क्षमता बहुत ज्यादा थी लेकिन अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में ताक़त कुछ नहीं थी. जब भारत को आज़ादी मिली तो शीतयुद्ध शुरू हो चुका था और ब्रितानी साम्राज्यवाद के भक्तगण नहीं चाहते थे कि भारत एक मज़बूत ताक़त बने और अंतरराष्ट्रीय मंच पर उसकी आवाज़ सुनी जाए . जबकि जवाहरलाल नेहरू की विदेशनीति का यही लक्ष्य था. अमरीका के पास परमाणु हथियार थे लेकिन उसे इस बात से डर लगा रहता था कि कोई नया देश उसके खिलाफ न हो जाए जबकि सोविएत रूस के नेता स्टालिन और उनके साथी हर उस देश को शक की नज़र से देखते थे जो पूरी तरह उनके साथ नहीं था. नेहरू से दोनों ही देश नाराज़ थे क्योंकि वे किसी के साथ जाने को तैयार नहीं थे, भारत को किसी गुट में शामिल करना उनकी नीति का हिस्सा कभी नहीं रहा . दोनों ही महाशक्तियों को नेहरू भरोसा दे रहे थे कि भारत उनमें से न किसी के गुट में शामिल होगा और न ही किसी का विरोध करेगा. यह बात दोनों महाशक्तियों को बुरी लगती थी. यहाँ यह समझने की चीज़ है कि उस दौर के अमरीकी और सोवियत नेताओं को भी अंदाज़ नहीं था कि कोई देश ऐसा भी हो सकता है जो शान्तिपूर्वक अपना काम करेगा और किसी की तरफ से लाठी नहीं भांजेगा . जब कश्मीर का मसला संयुक्तराष्ट्र में गया तो ब्रिटेन और अमरीका ने भारत की मुखालिफत करके अपने गुस्से का इज़हार किया ..नए आज़ाद हुए देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अमरीकियों को कुछ इन शब्दों में फटकारा था . उन्होंने कहा कि ,'यह हैरतअंगेज़ है कि अपनी विदेशनीति को अमरीकी सरकार किस बचकाने पन से चलाती है .वे अपनी ताक़त और पैसे के बल पर काम चला रहे हैं , उनके पास न तो अक्ल है और न ही कोई और चीज़.' सोवियत रूस ने हमेशा नेहरू के गुटनिरपेक्ष विदेशनीति का विरोध किया और आरोप लगाया कि वह ब्रिटिश साम्राज्यवाद को समर्थन देने का एक मंच है ..सोवियत रूस ने कश्मीर के मसले पर भारत की कोई मदद नहीं की और उनकी कोशिश रही कि भारत उनके साथ शामिल हो जाए . जवाहरलाल ने कहा कि भारत रूस से दोस्ती चाहता है लेकिन हम बहुत ही संवेदंशील लोग हैं . हमें यह बर्दाश्त नहीं होगा कि कोई हमें गाली दे या हमारा अपमान करे. रूस को यह मुगालता है कि भारत में कुछ नहीं बदला है और हम अभी भी ब्रिटेन के साथी है . यह बहुत ही अहमकाना सोच है ..और अगर इस सोच की बिना पर कोई नीति बनायेगें तो वह गलत ही होगी जहां तक भारत का सवाल है वह अपने रास्ते पर चलता रहेगा. 'जो लोग समकालीन इतिहास की मामूली समझ भी रखते हैं उन्हें मालूम है कि कितनी मुश्किलों से भारत की आज़ादी के बाद की नाव को भंवर से निकाल कर जवाहरलाल लाये थे और आज जो लोग अपने पूर्वाग्रहों के आधार पर टी वी चैनलों पर बैठ कर मूर्खतापूर्ण प्रलाप करते हैं उन पर कोई भी केवल दया ही कर सकता है.(Already printed in Daily News Activist)
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Thursday, January 14, 2010
Wednesday, November 11, 2009
सारे जहां में धूम हमारी ज़बां की है।
शेष नारायण सिंह
कभी उर्दू की धूम सारे जहां में हुआ करती थी, दक्षिण एशिया का बेहतरीन साहित्य इसी भाषा में लिखा जाता था और उर्दू जानना पढ़े लिखे होने का सबूत माना जाता था। अब वह बात नही है। राजनीति के थपेड़ों को बरदाश्त करती भारत की यह भाषा आजकल अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है।
वह उर्दू जो आज़ादी की ख्वाहिश के इज़हार का ज़रिया बनी आज एक धर्म विशेष के लोगों की जबान बताई जा रही है। इसी जबान में कई बार हमारा मुश्तरका तबाही के बाद गम और गुस्से का इज़हार भी किया गया था।
आज जिस जबान को उर्दू कहते हैं वह विकास के कई पड़ावों से होकर गुजरी है। 12वीं सदी की शुरुआत में मध्य एशिया से आने वाले लोग भारत में बसने लगे थे। वे अपने साथ चर्खा और कागज भी लाए जिसके बाद जिंदगी, तहज़ीब और ज़बान ने एक नया रंग अख्तियार करना शुरू कर दिया। जो फौजी आते थे, वे साथ लाते थे अपनी जबान खाने पीने की आदतें और संगीत।
वे यहां के लोगों से अपने इलाके की जबान में बात करते थे जो यहां की पंजाबी, हरियाणवी और खड़ी बोली से मिल जाती थी और बन जाती थी फौजी लश्करी जबान जिसमें पश्तों, फारसी, खड़ी बोली और हरियाणवी के शब्द और वाक्य मिलते जाते थे। 13 वीं सदी में सिंधी, पंजाबी, फारसी, तुर्की और खड़ी बोली के मिश्रण से लश्करी की अगली पीढ़ी आई और उसे सरायकी ज़बान कहा गया। इसी दौर में यहां सूफी ख्यालात की लहर भी फैल रही थी।
सूफियों के दरवाज़ों पर बादशाह आते और अमीर आते, सिपहसालार आते और गरीब आते और सब अपनी अपनी जबान में कुछ कहते। इस बातचीत से जो जबान पैदा हो रही थी वही जम्हूरी जबान आने वाली सदियों में इस देश की सबसे महत्वपूर्ण जबान बनने वाली थी। इस तरह की संस्कृति का सबसे बड़ा केंद्र महरौली में कुतुब साहब की खानकाह थी। सूफियों की खानकाहों में जो संगीत पैदा हुआ वह आज 800 साल बाद भी न केवल जिंदा है बल्कि अवाम की जिंदगी का हिस्सा है।
अजमेर शरीफ में चिश्तिया सिलसिले के सबसे बड़े बुजुर्ग ख़्वाजा गऱीब नवाज के दरबार में अमीर गरीब हिन्दू, मुसलमान सभी आते थे और आशीर्वाद की जो भाषा लेकर जाते थे, आने वाले वक्त में उसी का नाम उर्दू होने वाला था। सूफी संतों की खानकाहों पर एक नई ज़बान परवान चढ़ रही थी। मुकामी बोलियों में फारसी और अरबी के शब्द मिल रहे थे और हिंदुस्तान को एक सूत्र में पिरोने वाली ज़बान की बुनियाद पड़ रही थी।
इस ज़बान को अब हिंदवी कहा जाने लगा था। बाबा फरीद गंजे शकर ने इसी ज़बान में अपनी बात कही। बाबा फरीद के कलाम को गुरूग्रंथ साहिब में भी शामिल किया गया। दिल्ली और पंजाब में विकसित हो रही इस भाषा को दक्षिण में पहुंचाने का काम ख्वाजा गेसूदराज ने किया। जब वे गुलबर्गा गए और वहीं उनका आस्ताना बना। इस बीच दिल्ली में हिंदवी के सबसे बड़े शायर हज़रत अमीर खुसरो अपने पीर हजरत निजामुद्दीन औलिया के चरणों में बैठकर हिंदवी जबान को छापा तिलक से विभूषित कर रहे थे।
अमीर खुसरो साहब ने लाजवाब शायरी की जो अभी तक बेहतरीन अदब का हिस्सा है और आने वाली नस्लें उन पर फख्र करेंगी। हजरत अमीर खुसरों से महबूब-ए-इलाही ने ही फरमाया था कि हिंदवी में शायरी करो और इस महान जीनियस ने हिंदवी में वह सब लिखा जो जिंदगी को छूता है। हजरत निजामुद्दीन औलिया के आशीर्वाद से दिल्ली की यह जबान आम आदमी की जबान बनती जा रही थी।
उर्दू की तरक्की में दिल्ली के सुलतानों की विजय यात्राओं का भी योगदान है। 1297 में अलाउद्दीन खिलजी ने जब गुजरात पर हमला किया तो लश्कर के साथ वहां यह जबान भी गई। 1327 ई. में जब तुगलक ने दकन कूच किया तो देहली की भाषा, हिंदवी उनके साथ गई। अब इस ज़बान में मराठी, तेलुगू और गुजराती के शब्द मिल चुके थे। दकनी और गूजरी का जन्म हो चुका था।
इस बीच दिल्ली पर कुछ हमले भी हुए। 14वीं सदी के अंत में तैमूर लंग ने दिल्ली पर हमला किया, जिंदगी मुश्किल हो गई। लोग भागने लगे। यह भागते हुए लोग जहां भी गए अपनी जबान ले गए जिसका नतीजा यह हुआ कि उर्दू की पूर्वज भाषा का दायरा पूरे भारत में फैल रहा था। दिल्ली से दूर अपनी जबान की धूम मचने का सिलसिला शुरू हो चुका था। बीजापुर में हिंदवी को बहुत इज्जत मिली। वहां का सुलतान आदिलशाह अपनी प्रजा में बहुत लोकप्रिय था, उसे जगदगुरू कहा जाता था।
सुलतान ने स्वयं हजरत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम), ख्वाजा गेसूदराज और बहुत सारे हिंदू देवी देवताओं की शान में शायरी लिखी। गोलकुंडा के कुली कुतुबशाह भी बड़े शायर थे। उन्होंने राधा और कृष्ण की जिंदगी के बारे में शायरी की। मसनवी कुली कुतुबशाह एक ऐतिहासिक किताब है। 1653 में उर्दू गद्य (नस्त्र) की पहली किताब लिखी गई। उर्दू के विकास के इस मुकाम पर गव्वासी का नाम लेना जरूरी हैं।
गव्वासी ने बहुत काम किया है इनका नाम उर्दू के जानकारों में सम्मान से लिया जाता है। दकन में उर्दू को सबसे ज्यादा सम्मान वली दकनी की शायरी से मिला। आप गुजरात की बार-बार यात्रा करते थे। इन्हें वली गुजराती भी कहते हैं। 2002 में अहमदाबाद में हुए दंगों में इन्हीं के मजार पर बुलडोजर चलवा कर नरेंद्र मोदी ने उस पर सड़क बनवा दी थी। जब तुगलक ने अपनी राजधानी दिल्ली से दौलताबाद शिफ्ट करने का फैसला लिया तो दिल्ली की जनता पर तो पहाड़ टूट पड़ा लेकिन जो लोग वहां गए वे अपने साथ संगीत, साहित्य, वास्तु और भाषा की जो परंपरा लेकर गए वह आज भी उस इलाके की थाती है।
1526 में जहीरुद्दीन बाबर ने इब्राहीम लोदी को हराकर भारत में मुगुल साम्राज्य की बुनियाद डाली। 17 मुगल बादशाह हुए जिनमें मुहम्मद जलालुद्दीन अकबर सबसे ज्यादा प्रभावशाली हुए। उनके दौर में एक मुकम्मल तहज़ीब विकसित हुई। अकबर ने इंसानी मुहब्बत और रवादारी को हुकूमत का बुनियादी सिद्घांत बनाया। दो तहजीबें इसी दौर में मिलना शुरू हुईं। और हिंदुस्तान की मुश्तरका तहजीब की बुनियाद पड़ी। अकबर की राजधानी आगरा में थी जो ब्रज भाषा का केंद्र था और अकबर के दरबार में उस दौर के सबसे बड़े विद्वान हुआ करते थे।
वहां अबुलफजल भी थे, तो फैजी भी थे, अब्दुर्रहीम खानखाना थे तो बीरबल भी थे। इस दौर में ब्रजभाषा और अवधी भाषाओं का खूब विकास हुआ। यह दौर वह है जब सूफी संतों और भक्ति आंदोलन के संतों ने आम बोलचाल की भाषा में अपनी बात कही। सारी भाषाओं का आपस में मेलजोल बढ़ रहा था और उर्दू जबान की बुनियाद मजबूत हो रही थी। बाबर के समकालीन थे सिखों के गुरू नानक देव। उन्होंने नामदेव, बाबा फरीद और कबीर के कलाम को सम्मान दिया और अपने पवित्र ग्रंथ में शामिल किया। इसी दौर में मलिक मुहम्मद जायसी ने पदमावती की रचना की जो अवधी भाषा का महाकाव्य है लेकिन इसका रस्मुल खत फारसी है।
शाहजहां के काल में मुगल साम्राज्य की राजधानी दिल्ली आ गई। इसी दौर में वली दकनी की शायरी दिल्ली पहुंची और दिल्ली के फारसी दानों को पता चला कि रेख्ता में भी बेहतरीन शायरी हो सकती थी और इसी सोच के कारण रेख्ता एक जम्हूरी जबान के रूप में अपनी पहचान बना सकी। दिल्ली में मुगल साम्राज्य के कमजोर होने के बाद अवध ने दिल्ली से अपना नाता तोड़ लिया लेकिन जबान की तरक्की लगातार होती रही। दरअसल 18वीं सदी मीर, सौदा और दर्द के नाम से याद की जायेगी। मीर पहले अवामी शायर हैं। बचपन गरीबी में बीता और जब जवान हुए तो दिल्ली पर मुसीबत बनकर नादिर शाह टूट पड़ा।
उनकी शायरी की जो तल्खी है वह अपने जमाने के दर्द को बयान करती है। बाद में नज़ीर की शायरी में भी ज़ालिम हुक्मरानों का जिक्र, मीर तकी मीर की याद दिलाता है। मुगलिया ताकत के कमजोर होने के बाद रेख्ता के अन्य महत्वपूर्ण केंद्र हैं, हैदराबाद, रामपुर और लखनऊ। इसी जमाने में दिल्ली से इंशा लखनऊ गए। उनकी कहानी ''रानी केतकी की कहानी'' उर्दू की पहली कहानी है। इसके बाद मुसहफी, आतिश और नासिख का जिक्र होना जरूरी है। मीर हसन ने दकनी और देहलवी मसनवियां लिखी।
उर्दू की इस विकास यात्रा में वाजिद अली शाह 'अख्तर' का महत्वपूर्ण योगदान है। लेकिन जब 1857 में अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया तो अदब के केंद्र के रूप में लखनऊ की पहचान को एक धक्का लगा लेकिन दिल्ली में इस दौर में उर्दू ज़बान परवान चढ़ रही थी।
बख्त खां ने पहला संविधान उर्दू में लिखा। बहादुरशाह जफर खुद शायर थे और उनके समकालीन ग़ालिब और जौक उर्दू ही नहीं भारत की साहित्यिक परंपरा की शान हैं। इसी दौर में मुहम्मद हुसैन आज़ाद ने उर्दू की बड़ी सेवा की उर्दू के सफरनामे का यह दौर गालिब, ज़ौक और मोमिन के नाम है। गालिब इस दौर के सबसे कद्दावर शायर हैं। उन्होंने आम ज़बानों में गद्य, चिट्ठयां और शायरी लिखी। इसके पहले अदालतों की भाषा फारसी के बजाय उर्दू को बना दिया गया।
1822 में उर्दू सहाफत की बुनियाद पड़ी जब मुंशी सदासुख लाल ने जाने जहांनुमा अखबार निकाला। दिल्ली से 'दिल्ली उर्दू अखबार' और 1856 में लखनऊ से 'तिलिस्मे लखनऊ' का प्रकाशन किया गया। लखनऊ में नवल किशोर प्रेस की स्थापना का उर्दू के विकास में प्रमुख योगदान है। सर सैय्यद अहमद खां, मौलाना शिबली नोमानी, अकबर इलाहाबादी, डा. इकबाल उर्दू के विकास के बहुत बड़े नाम हैं। इक़बाल की शायरी, लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी और सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा हमारी तहजीब और तारीख का हिस्सा हैं। इसके अलावा मौलवी नजीर अहमद, पं. रतनलाल शरशार और मिर्जा हादी रुस्वा ने नोवल लिखे। आग़ा हश्र कश्मीरी ने नाटक लिखे।
कांग्रेस के सम्मेलनों की भाषा भी उर्दू ही बन गई थी। 1916 में लखनऊ कांग्रेस में होम रूल का जो प्रस्ताव पास हुआ वह उर्दू में है। 1919 में जब जलियां वाला बाग में अंग्रेजों ने निहत्थे भारतीयों को गोलियों से भून दिया तो उस $गम और गुस्से का इज़हार पं. बृज नारायण चकबस्त और अकबर इलाहाबादी ने उर्दू में ही किया था। इस मौके पर लिखा गया मौलाना अबुल कलाम आजाद का लेख आने वाली कई पीढिय़ां याद रखेंगी। हसरत मोहानी ने 1921 के आंदोलन में इकलाब जिंदाबाद का नारा दिया था जो आज न्याय की लड़ाई का निशान बन गया है।
आज़ादी के बाद सीमा के दोनों पार जो क़त्लो ग़ारद हुआ था उसको भी उर्दू जबान ने संभालने की पूरी को कोशिश की। हमारी मुश्तरका तबाही के खिलाफ अवाम को फिर से लामबंद करने में उर्दू का बहुत योगदान है। आज यह सियासत के घेर में है लेकिन दाग के शब्दों में
उर्दू है जिसका नाम, हमीं जानते हैं दाग
सारे जहां में धूम हमारी ज़बां की है।
गंगा जमुना के दो आब में जन्मी और विकसित हुई इस जबान की ऐतिहासिक यात्रा के बारे में विदेश मंत्रालय की ओर से एक बहुत अच्छी फिल्म बनाई गई है। इस फिल्म का नाम है, ''उर्दू है जिसका नाम'। इसके निर्देशक हैं सुभाष कपूर। फिल्म की अवधारणा, शोध और कहानी सुहैल हाशमी की है। इस फिल्म में संगीत का इस्तेमाल बहुत ही बेहतरीन तरीके से किया गया है जिसे प्रसिद्घ गायिका शुभा मुदगल और डा. अनीस प्रधान ने संजोया है। शुभा की आवाज में मीर और ग़ालिब की गज़लों को बिलकुल नए अंदाज में प्रस्तुत किया गया है।
फिल्म पर काम 2003 में शुरू हो गया था और 2007 में बनकर तैयार हो गई थी। अभी तक दूरदर्शन पर नहीं दिखाई गई है। इस फिल्म के बनने में सुहैल हाशमी का सबसे ज्य़ादा योगदान था और आजकल वे ही इसे प्राइवेट तौर पर दिखाते हैं। पिछले दिनों प्रेस क्लब दिल्ली में कुछ पत्रकारों को यह फिल्म दिखाई गई। मैंने भी फिल्म देखी और लगा कि उर्दू के विकास की हर गली से गुजर गया।
कभी उर्दू की धूम सारे जहां में हुआ करती थी, दक्षिण एशिया का बेहतरीन साहित्य इसी भाषा में लिखा जाता था और उर्दू जानना पढ़े लिखे होने का सबूत माना जाता था। अब वह बात नही है। राजनीति के थपेड़ों को बरदाश्त करती भारत की यह भाषा आजकल अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है।
वह उर्दू जो आज़ादी की ख्वाहिश के इज़हार का ज़रिया बनी आज एक धर्म विशेष के लोगों की जबान बताई जा रही है। इसी जबान में कई बार हमारा मुश्तरका तबाही के बाद गम और गुस्से का इज़हार भी किया गया था।
आज जिस जबान को उर्दू कहते हैं वह विकास के कई पड़ावों से होकर गुजरी है। 12वीं सदी की शुरुआत में मध्य एशिया से आने वाले लोग भारत में बसने लगे थे। वे अपने साथ चर्खा और कागज भी लाए जिसके बाद जिंदगी, तहज़ीब और ज़बान ने एक नया रंग अख्तियार करना शुरू कर दिया। जो फौजी आते थे, वे साथ लाते थे अपनी जबान खाने पीने की आदतें और संगीत।
वे यहां के लोगों से अपने इलाके की जबान में बात करते थे जो यहां की पंजाबी, हरियाणवी और खड़ी बोली से मिल जाती थी और बन जाती थी फौजी लश्करी जबान जिसमें पश्तों, फारसी, खड़ी बोली और हरियाणवी के शब्द और वाक्य मिलते जाते थे। 13 वीं सदी में सिंधी, पंजाबी, फारसी, तुर्की और खड़ी बोली के मिश्रण से लश्करी की अगली पीढ़ी आई और उसे सरायकी ज़बान कहा गया। इसी दौर में यहां सूफी ख्यालात की लहर भी फैल रही थी।
सूफियों के दरवाज़ों पर बादशाह आते और अमीर आते, सिपहसालार आते और गरीब आते और सब अपनी अपनी जबान में कुछ कहते। इस बातचीत से जो जबान पैदा हो रही थी वही जम्हूरी जबान आने वाली सदियों में इस देश की सबसे महत्वपूर्ण जबान बनने वाली थी। इस तरह की संस्कृति का सबसे बड़ा केंद्र महरौली में कुतुब साहब की खानकाह थी। सूफियों की खानकाहों में जो संगीत पैदा हुआ वह आज 800 साल बाद भी न केवल जिंदा है बल्कि अवाम की जिंदगी का हिस्सा है।
अजमेर शरीफ में चिश्तिया सिलसिले के सबसे बड़े बुजुर्ग ख़्वाजा गऱीब नवाज के दरबार में अमीर गरीब हिन्दू, मुसलमान सभी आते थे और आशीर्वाद की जो भाषा लेकर जाते थे, आने वाले वक्त में उसी का नाम उर्दू होने वाला था। सूफी संतों की खानकाहों पर एक नई ज़बान परवान चढ़ रही थी। मुकामी बोलियों में फारसी और अरबी के शब्द मिल रहे थे और हिंदुस्तान को एक सूत्र में पिरोने वाली ज़बान की बुनियाद पड़ रही थी।
इस ज़बान को अब हिंदवी कहा जाने लगा था। बाबा फरीद गंजे शकर ने इसी ज़बान में अपनी बात कही। बाबा फरीद के कलाम को गुरूग्रंथ साहिब में भी शामिल किया गया। दिल्ली और पंजाब में विकसित हो रही इस भाषा को दक्षिण में पहुंचाने का काम ख्वाजा गेसूदराज ने किया। जब वे गुलबर्गा गए और वहीं उनका आस्ताना बना। इस बीच दिल्ली में हिंदवी के सबसे बड़े शायर हज़रत अमीर खुसरो अपने पीर हजरत निजामुद्दीन औलिया के चरणों में बैठकर हिंदवी जबान को छापा तिलक से विभूषित कर रहे थे।
अमीर खुसरो साहब ने लाजवाब शायरी की जो अभी तक बेहतरीन अदब का हिस्सा है और आने वाली नस्लें उन पर फख्र करेंगी। हजरत अमीर खुसरों से महबूब-ए-इलाही ने ही फरमाया था कि हिंदवी में शायरी करो और इस महान जीनियस ने हिंदवी में वह सब लिखा जो जिंदगी को छूता है। हजरत निजामुद्दीन औलिया के आशीर्वाद से दिल्ली की यह जबान आम आदमी की जबान बनती जा रही थी।
उर्दू की तरक्की में दिल्ली के सुलतानों की विजय यात्राओं का भी योगदान है। 1297 में अलाउद्दीन खिलजी ने जब गुजरात पर हमला किया तो लश्कर के साथ वहां यह जबान भी गई। 1327 ई. में जब तुगलक ने दकन कूच किया तो देहली की भाषा, हिंदवी उनके साथ गई। अब इस ज़बान में मराठी, तेलुगू और गुजराती के शब्द मिल चुके थे। दकनी और गूजरी का जन्म हो चुका था।
इस बीच दिल्ली पर कुछ हमले भी हुए। 14वीं सदी के अंत में तैमूर लंग ने दिल्ली पर हमला किया, जिंदगी मुश्किल हो गई। लोग भागने लगे। यह भागते हुए लोग जहां भी गए अपनी जबान ले गए जिसका नतीजा यह हुआ कि उर्दू की पूर्वज भाषा का दायरा पूरे भारत में फैल रहा था। दिल्ली से दूर अपनी जबान की धूम मचने का सिलसिला शुरू हो चुका था। बीजापुर में हिंदवी को बहुत इज्जत मिली। वहां का सुलतान आदिलशाह अपनी प्रजा में बहुत लोकप्रिय था, उसे जगदगुरू कहा जाता था।
सुलतान ने स्वयं हजरत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम), ख्वाजा गेसूदराज और बहुत सारे हिंदू देवी देवताओं की शान में शायरी लिखी। गोलकुंडा के कुली कुतुबशाह भी बड़े शायर थे। उन्होंने राधा और कृष्ण की जिंदगी के बारे में शायरी की। मसनवी कुली कुतुबशाह एक ऐतिहासिक किताब है। 1653 में उर्दू गद्य (नस्त्र) की पहली किताब लिखी गई। उर्दू के विकास के इस मुकाम पर गव्वासी का नाम लेना जरूरी हैं।
गव्वासी ने बहुत काम किया है इनका नाम उर्दू के जानकारों में सम्मान से लिया जाता है। दकन में उर्दू को सबसे ज्यादा सम्मान वली दकनी की शायरी से मिला। आप गुजरात की बार-बार यात्रा करते थे। इन्हें वली गुजराती भी कहते हैं। 2002 में अहमदाबाद में हुए दंगों में इन्हीं के मजार पर बुलडोजर चलवा कर नरेंद्र मोदी ने उस पर सड़क बनवा दी थी। जब तुगलक ने अपनी राजधानी दिल्ली से दौलताबाद शिफ्ट करने का फैसला लिया तो दिल्ली की जनता पर तो पहाड़ टूट पड़ा लेकिन जो लोग वहां गए वे अपने साथ संगीत, साहित्य, वास्तु और भाषा की जो परंपरा लेकर गए वह आज भी उस इलाके की थाती है।
1526 में जहीरुद्दीन बाबर ने इब्राहीम लोदी को हराकर भारत में मुगुल साम्राज्य की बुनियाद डाली। 17 मुगल बादशाह हुए जिनमें मुहम्मद जलालुद्दीन अकबर सबसे ज्यादा प्रभावशाली हुए। उनके दौर में एक मुकम्मल तहज़ीब विकसित हुई। अकबर ने इंसानी मुहब्बत और रवादारी को हुकूमत का बुनियादी सिद्घांत बनाया। दो तहजीबें इसी दौर में मिलना शुरू हुईं। और हिंदुस्तान की मुश्तरका तहजीब की बुनियाद पड़ी। अकबर की राजधानी आगरा में थी जो ब्रज भाषा का केंद्र था और अकबर के दरबार में उस दौर के सबसे बड़े विद्वान हुआ करते थे।
वहां अबुलफजल भी थे, तो फैजी भी थे, अब्दुर्रहीम खानखाना थे तो बीरबल भी थे। इस दौर में ब्रजभाषा और अवधी भाषाओं का खूब विकास हुआ। यह दौर वह है जब सूफी संतों और भक्ति आंदोलन के संतों ने आम बोलचाल की भाषा में अपनी बात कही। सारी भाषाओं का आपस में मेलजोल बढ़ रहा था और उर्दू जबान की बुनियाद मजबूत हो रही थी। बाबर के समकालीन थे सिखों के गुरू नानक देव। उन्होंने नामदेव, बाबा फरीद और कबीर के कलाम को सम्मान दिया और अपने पवित्र ग्रंथ में शामिल किया। इसी दौर में मलिक मुहम्मद जायसी ने पदमावती की रचना की जो अवधी भाषा का महाकाव्य है लेकिन इसका रस्मुल खत फारसी है।
शाहजहां के काल में मुगल साम्राज्य की राजधानी दिल्ली आ गई। इसी दौर में वली दकनी की शायरी दिल्ली पहुंची और दिल्ली के फारसी दानों को पता चला कि रेख्ता में भी बेहतरीन शायरी हो सकती थी और इसी सोच के कारण रेख्ता एक जम्हूरी जबान के रूप में अपनी पहचान बना सकी। दिल्ली में मुगल साम्राज्य के कमजोर होने के बाद अवध ने दिल्ली से अपना नाता तोड़ लिया लेकिन जबान की तरक्की लगातार होती रही। दरअसल 18वीं सदी मीर, सौदा और दर्द के नाम से याद की जायेगी। मीर पहले अवामी शायर हैं। बचपन गरीबी में बीता और जब जवान हुए तो दिल्ली पर मुसीबत बनकर नादिर शाह टूट पड़ा।
उनकी शायरी की जो तल्खी है वह अपने जमाने के दर्द को बयान करती है। बाद में नज़ीर की शायरी में भी ज़ालिम हुक्मरानों का जिक्र, मीर तकी मीर की याद दिलाता है। मुगलिया ताकत के कमजोर होने के बाद रेख्ता के अन्य महत्वपूर्ण केंद्र हैं, हैदराबाद, रामपुर और लखनऊ। इसी जमाने में दिल्ली से इंशा लखनऊ गए। उनकी कहानी ''रानी केतकी की कहानी'' उर्दू की पहली कहानी है। इसके बाद मुसहफी, आतिश और नासिख का जिक्र होना जरूरी है। मीर हसन ने दकनी और देहलवी मसनवियां लिखी।
उर्दू की इस विकास यात्रा में वाजिद अली शाह 'अख्तर' का महत्वपूर्ण योगदान है। लेकिन जब 1857 में अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया तो अदब के केंद्र के रूप में लखनऊ की पहचान को एक धक्का लगा लेकिन दिल्ली में इस दौर में उर्दू ज़बान परवान चढ़ रही थी।
बख्त खां ने पहला संविधान उर्दू में लिखा। बहादुरशाह जफर खुद शायर थे और उनके समकालीन ग़ालिब और जौक उर्दू ही नहीं भारत की साहित्यिक परंपरा की शान हैं। इसी दौर में मुहम्मद हुसैन आज़ाद ने उर्दू की बड़ी सेवा की उर्दू के सफरनामे का यह दौर गालिब, ज़ौक और मोमिन के नाम है। गालिब इस दौर के सबसे कद्दावर शायर हैं। उन्होंने आम ज़बानों में गद्य, चिट्ठयां और शायरी लिखी। इसके पहले अदालतों की भाषा फारसी के बजाय उर्दू को बना दिया गया।
1822 में उर्दू सहाफत की बुनियाद पड़ी जब मुंशी सदासुख लाल ने जाने जहांनुमा अखबार निकाला। दिल्ली से 'दिल्ली उर्दू अखबार' और 1856 में लखनऊ से 'तिलिस्मे लखनऊ' का प्रकाशन किया गया। लखनऊ में नवल किशोर प्रेस की स्थापना का उर्दू के विकास में प्रमुख योगदान है। सर सैय्यद अहमद खां, मौलाना शिबली नोमानी, अकबर इलाहाबादी, डा. इकबाल उर्दू के विकास के बहुत बड़े नाम हैं। इक़बाल की शायरी, लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी और सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा हमारी तहजीब और तारीख का हिस्सा हैं। इसके अलावा मौलवी नजीर अहमद, पं. रतनलाल शरशार और मिर्जा हादी रुस्वा ने नोवल लिखे। आग़ा हश्र कश्मीरी ने नाटक लिखे।
कांग्रेस के सम्मेलनों की भाषा भी उर्दू ही बन गई थी। 1916 में लखनऊ कांग्रेस में होम रूल का जो प्रस्ताव पास हुआ वह उर्दू में है। 1919 में जब जलियां वाला बाग में अंग्रेजों ने निहत्थे भारतीयों को गोलियों से भून दिया तो उस $गम और गुस्से का इज़हार पं. बृज नारायण चकबस्त और अकबर इलाहाबादी ने उर्दू में ही किया था। इस मौके पर लिखा गया मौलाना अबुल कलाम आजाद का लेख आने वाली कई पीढिय़ां याद रखेंगी। हसरत मोहानी ने 1921 के आंदोलन में इकलाब जिंदाबाद का नारा दिया था जो आज न्याय की लड़ाई का निशान बन गया है।
आज़ादी के बाद सीमा के दोनों पार जो क़त्लो ग़ारद हुआ था उसको भी उर्दू जबान ने संभालने की पूरी को कोशिश की। हमारी मुश्तरका तबाही के खिलाफ अवाम को फिर से लामबंद करने में उर्दू का बहुत योगदान है। आज यह सियासत के घेर में है लेकिन दाग के शब्दों में
उर्दू है जिसका नाम, हमीं जानते हैं दाग
सारे जहां में धूम हमारी ज़बां की है।
गंगा जमुना के दो आब में जन्मी और विकसित हुई इस जबान की ऐतिहासिक यात्रा के बारे में विदेश मंत्रालय की ओर से एक बहुत अच्छी फिल्म बनाई गई है। इस फिल्म का नाम है, ''उर्दू है जिसका नाम'। इसके निर्देशक हैं सुभाष कपूर। फिल्म की अवधारणा, शोध और कहानी सुहैल हाशमी की है। इस फिल्म में संगीत का इस्तेमाल बहुत ही बेहतरीन तरीके से किया गया है जिसे प्रसिद्घ गायिका शुभा मुदगल और डा. अनीस प्रधान ने संजोया है। शुभा की आवाज में मीर और ग़ालिब की गज़लों को बिलकुल नए अंदाज में प्रस्तुत किया गया है।
फिल्म पर काम 2003 में शुरू हो गया था और 2007 में बनकर तैयार हो गई थी। अभी तक दूरदर्शन पर नहीं दिखाई गई है। इस फिल्म के बनने में सुहैल हाशमी का सबसे ज्य़ादा योगदान था और आजकल वे ही इसे प्राइवेट तौर पर दिखाते हैं। पिछले दिनों प्रेस क्लब दिल्ली में कुछ पत्रकारों को यह फिल्म दिखाई गई। मैंने भी फिल्म देखी और लगा कि उर्दू के विकास की हर गली से गुजर गया।
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Tuesday, October 20, 2009
अब क्या करेगी बी जे पी
आर एस एस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में उसके मुखिया मोहनराव भागवत ने कह दिया कि संघ के कैडर अपने हिसाब से इस बात का चुनाव कर सकते हैं कि उन्हें किस पार्टी को वोट देना है . उन्होंने साफ किया कि ज़रूरी नहीं के संघ के सदस्य केवल बी जे पी को ही वोट दें .इस कथित बयान के बाद बी जे पी में हड़कंप मच गया . सच्ची बात यह है कि आर एस एस के कार्यकर्ताओं के अलावा , बी जे पी के पास और कोई जनाधार नहीं है . विश्वविद्यालयों में जो भी छात्र एबीवीपी के नाम पर इकठ्ठा होते हैं , उनमें लगभग सभी आर एस एस के ही सदस्य होते हैं.
मजदूरों में पार्टी की कहीं कोई हैसियत नहीं है. दत्तोपंत ठेंगडी की मौत के बाद ट्रेड यूनियन की राजनीति में संघ की कोई ख़ास उपस्थिति नहीं है. नौजवानों में भी वही आर एस एस वाले सक्रिय हैं . गरज कि बी जे पी के समर्थकों में से अगर आर एस एस वालों को हटा लिया जाए तो वहां कुछ नहीं बचेगा . ज़ाहिर है इस तरह की बात शुरू होने के बाद बी जे पी में चिंता का माहौल बन गया . वैसे भी २००९ में पार्टी की चुनाव में हुई हार के बाद उसकी दुर्दशा की खबरें रोज़ ही अखबारों में छपती ही रहती हैं .. लेकिन आर एस एस के मुखिया के बयान के बाद बी जे पी के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने पटना में मीडिया को बताया कि मोहनराव भागवत ने ऐसा कुछ नहीं कहा है कि संघ के कार्यकर्ता चाहे तो भाजपा को वोट करें या न करें.
राजगीर में चल रही आर एस एस की कार्यकारिणी में शामिल किसी सूत्र के हवाले से आईएएनएस एजंसी ने एक खबर जारी कर दी थी जिसमें कहा गया था कि मोहनराव भागवत ने कहा है कि वे यह स्वयंसेवकों को तय करना है कि वे भाजपा को वोट करें या न करें. यह खबर जब अखबारों में छपी तो बी जे पी में खलबली मच गयी. इसके बाद रविशंकर ने कहा कि संघ हमेशा ही यह कहता रहता है कि संघ के स्वयंसेवक जिसे चाहें वोट कर सकते हैं, लेकिन व्यावहारिक रूप में ऐसा होता नहीं है.. आर एस एस की विश्वसनीयता के बारे में रवि शंकर प्रसाद की इस बात को शायाद उनकी पार्टी के लोग ही गंभीरता से न लें लेकिन इस बात में दो राय नईं है कि आर एस एस के नए प्रमुख मोहन भागवत बी जे पी के मौजूदा नेतृत्व से खुश नहीं हैं . यह बात उन्होंने बार बार कह भी दिया है .कम से कम सिद्धांत रूप से आर एस एस मानता है कि वह हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए किसी भी राजनीतिक दल की मदद कर सकता है.
बी जे पी को अपने पूर्व अवतार में जनसंघ कहा जाता था. उसकी स्थापना के बाद से ही स्वर्गीय दीन दयाल उपाध्याय के ज़रिये आर एस एस ने पार्टी पर पूरा कंट्रोल रखा. और जब जनता पार्टी बनी तो जनसंघ घटक के लोगों को हुक्म नागपुर से ही लेना पड़ता था. बी जे पी बनने के बाद तो इस बात पर कभी चर्चा भी नहीं हुई कि पार्टी में आर एस एस की भूमिका क्या है. सब जानते हैं कि बी जे पी पूरी तरह से आर एस एस का सहयोगी संगठन है . लेकिन आजकल आर एस एस में बी जे पी की उपयोगिता के बारे में बेचैनी है. आर एस एस के कुछ ख़ास लोग कद्दावर आर एस एस नेता , गोविन्दाचार्य के नेतृत्व में बी जे पी के विकल्प की तालाश कर रहे हैं . उसी प्रोजेक्ट के तहत महात्मा गाँधी और सरदार पटेल जैसे कांग्रेस के बड़े नेताओं को अपना बना लेने की कोशिश चल रही है है. गोविन्दाचार्य के दोस्त लोग राष्ट्र निर्माण जैसे लोक लुभावन नारों के ज़रिये जनता तक पंहुचने की कोशिश कर रहे हैं जिस से सही वक़्त पर संघ की नयी पार्टी की घोषणा कर दी जाए. बताया गया है कि गोविन्दाचार्य के व्यक्तित्व के आकर्षण की वजह से वर्तमान बी जे पी के भी कुछ बड़े नेता उनके संपर्क में हैं . इन लोगों ने महात्मा गाँधी के नाम पर चलने वाले कई संगठनों पर कब्जा भी कर लिया है . आज कल आर एस एस वालों का एक बड़ा तबका अपने आप को गांधीवादी भी कहता पाया जा रहा है . इस लिए मोहन राव भागवत की इस बात में दम लगता है कि आर एस एस जल्दी ही बी जे पी से पिंड छुडाने वाला है.
आर एस एस के लिए नयी राजनीतिक पार्टी की तलाश कोई नयी बात नहीं है. १९७५ में जब पूरी दुनिया संजय गाँधी की क्रूर तानाशाही प्रवृत्तियों से दहशत में थी, तो आर एस एस वाले उन्हें अपना बना लेने के चक्कर में थे. अकाल मृत्यु ने संजय गाँधी के जीवन में हस्तक्षेप कर दिया वरना हो सकता है कि बाद में जो उनकी पत्नी और बेटे ने किया वह काम संजय गाँधी के जीवन में ही हो गया होता.
आजकल भी आर एस एस के लोग पुराने कांग्रेसियों, महात्मा गाँधी और सरदार पटेल को अपना पूर्वज बताने की कोशिश तो कर ही रहे हैं , नए वालों पर भी उनकी नज़र है. आर एस एस के प्रमुख ने पिछले दिनों राहुल गाँधी की तारीफ़ की और पी चिदंबरम के काम पर बहुत ही संतोष ज़ाहिर किया. महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावों के बीच में आर एस एस के कांग्रेस के नेताओं की तारीफ करना बीजेपी को ठीक बिलकुल नहीं लगा लेकिन बेचारे कर क्या सकते हैं. इस लिए आर एस एस के मुखिया के बयान के बाद बीजेपी में परेशानी शुरू होना स्वाभाविक है और इस बात को भी पूरा बल मिलता है कि आर एस एस ने नयी राजनीतिक पार्टी के विकल्प वाले प्रोजेक्ट पर गंभीरता से काम शुरू कर दिया है. इसके लिए खुद आरएसएस के अंदर ही कई धाराएं हैं जो नये राजनीतिक विकल्प का खाका तैयार करने में लगी हुई हैं. हालांकि आरएसएस 2007 में कह चुका है कि वह इसी भाजपा को ठीक करेगा लेकिन यह भाजपा ठीक होती दिखाई न दी तो नये विकल्पों को आजमाने से आरएसएस हिचकेगा भी नहीं
मजदूरों में पार्टी की कहीं कोई हैसियत नहीं है. दत्तोपंत ठेंगडी की मौत के बाद ट्रेड यूनियन की राजनीति में संघ की कोई ख़ास उपस्थिति नहीं है. नौजवानों में भी वही आर एस एस वाले सक्रिय हैं . गरज कि बी जे पी के समर्थकों में से अगर आर एस एस वालों को हटा लिया जाए तो वहां कुछ नहीं बचेगा . ज़ाहिर है इस तरह की बात शुरू होने के बाद बी जे पी में चिंता का माहौल बन गया . वैसे भी २००९ में पार्टी की चुनाव में हुई हार के बाद उसकी दुर्दशा की खबरें रोज़ ही अखबारों में छपती ही रहती हैं .. लेकिन आर एस एस के मुखिया के बयान के बाद बी जे पी के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने पटना में मीडिया को बताया कि मोहनराव भागवत ने ऐसा कुछ नहीं कहा है कि संघ के कार्यकर्ता चाहे तो भाजपा को वोट करें या न करें.
राजगीर में चल रही आर एस एस की कार्यकारिणी में शामिल किसी सूत्र के हवाले से आईएएनएस एजंसी ने एक खबर जारी कर दी थी जिसमें कहा गया था कि मोहनराव भागवत ने कहा है कि वे यह स्वयंसेवकों को तय करना है कि वे भाजपा को वोट करें या न करें. यह खबर जब अखबारों में छपी तो बी जे पी में खलबली मच गयी. इसके बाद रविशंकर ने कहा कि संघ हमेशा ही यह कहता रहता है कि संघ के स्वयंसेवक जिसे चाहें वोट कर सकते हैं, लेकिन व्यावहारिक रूप में ऐसा होता नहीं है.. आर एस एस की विश्वसनीयता के बारे में रवि शंकर प्रसाद की इस बात को शायाद उनकी पार्टी के लोग ही गंभीरता से न लें लेकिन इस बात में दो राय नईं है कि आर एस एस के नए प्रमुख मोहन भागवत बी जे पी के मौजूदा नेतृत्व से खुश नहीं हैं . यह बात उन्होंने बार बार कह भी दिया है .कम से कम सिद्धांत रूप से आर एस एस मानता है कि वह हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए किसी भी राजनीतिक दल की मदद कर सकता है.
बी जे पी को अपने पूर्व अवतार में जनसंघ कहा जाता था. उसकी स्थापना के बाद से ही स्वर्गीय दीन दयाल उपाध्याय के ज़रिये आर एस एस ने पार्टी पर पूरा कंट्रोल रखा. और जब जनता पार्टी बनी तो जनसंघ घटक के लोगों को हुक्म नागपुर से ही लेना पड़ता था. बी जे पी बनने के बाद तो इस बात पर कभी चर्चा भी नहीं हुई कि पार्टी में आर एस एस की भूमिका क्या है. सब जानते हैं कि बी जे पी पूरी तरह से आर एस एस का सहयोगी संगठन है . लेकिन आजकल आर एस एस में बी जे पी की उपयोगिता के बारे में बेचैनी है. आर एस एस के कुछ ख़ास लोग कद्दावर आर एस एस नेता , गोविन्दाचार्य के नेतृत्व में बी जे पी के विकल्प की तालाश कर रहे हैं . उसी प्रोजेक्ट के तहत महात्मा गाँधी और सरदार पटेल जैसे कांग्रेस के बड़े नेताओं को अपना बना लेने की कोशिश चल रही है है. गोविन्दाचार्य के दोस्त लोग राष्ट्र निर्माण जैसे लोक लुभावन नारों के ज़रिये जनता तक पंहुचने की कोशिश कर रहे हैं जिस से सही वक़्त पर संघ की नयी पार्टी की घोषणा कर दी जाए. बताया गया है कि गोविन्दाचार्य के व्यक्तित्व के आकर्षण की वजह से वर्तमान बी जे पी के भी कुछ बड़े नेता उनके संपर्क में हैं . इन लोगों ने महात्मा गाँधी के नाम पर चलने वाले कई संगठनों पर कब्जा भी कर लिया है . आज कल आर एस एस वालों का एक बड़ा तबका अपने आप को गांधीवादी भी कहता पाया जा रहा है . इस लिए मोहन राव भागवत की इस बात में दम लगता है कि आर एस एस जल्दी ही बी जे पी से पिंड छुडाने वाला है.
आर एस एस के लिए नयी राजनीतिक पार्टी की तलाश कोई नयी बात नहीं है. १९७५ में जब पूरी दुनिया संजय गाँधी की क्रूर तानाशाही प्रवृत्तियों से दहशत में थी, तो आर एस एस वाले उन्हें अपना बना लेने के चक्कर में थे. अकाल मृत्यु ने संजय गाँधी के जीवन में हस्तक्षेप कर दिया वरना हो सकता है कि बाद में जो उनकी पत्नी और बेटे ने किया वह काम संजय गाँधी के जीवन में ही हो गया होता.
आजकल भी आर एस एस के लोग पुराने कांग्रेसियों, महात्मा गाँधी और सरदार पटेल को अपना पूर्वज बताने की कोशिश तो कर ही रहे हैं , नए वालों पर भी उनकी नज़र है. आर एस एस के प्रमुख ने पिछले दिनों राहुल गाँधी की तारीफ़ की और पी चिदंबरम के काम पर बहुत ही संतोष ज़ाहिर किया. महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावों के बीच में आर एस एस के कांग्रेस के नेताओं की तारीफ करना बीजेपी को ठीक बिलकुल नहीं लगा लेकिन बेचारे कर क्या सकते हैं. इस लिए आर एस एस के मुखिया के बयान के बाद बीजेपी में परेशानी शुरू होना स्वाभाविक है और इस बात को भी पूरा बल मिलता है कि आर एस एस ने नयी राजनीतिक पार्टी के विकल्प वाले प्रोजेक्ट पर गंभीरता से काम शुरू कर दिया है. इसके लिए खुद आरएसएस के अंदर ही कई धाराएं हैं जो नये राजनीतिक विकल्प का खाका तैयार करने में लगी हुई हैं. हालांकि आरएसएस 2007 में कह चुका है कि वह इसी भाजपा को ठीक करेगा लेकिन यह भाजपा ठीक होती दिखाई न दी तो नये विकल्पों को आजमाने से आरएसएस हिचकेगा भी नहीं
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पाकिस्तान के बिना बी जे पी का क्या होगा
बी जे पी की राजनीति का एक और प्रमुख स्तम्भ ढहने वाला है...लगता है कि पाकिस्तान पर भी अब वोटों की खेती नहीं हो पायेगी. अयोध्या विवाद पर तो अब वोट की खेती नहीं हो सकती और बोफोर्स का मुद्दा भी अब दफ़न हो गया है . उसके सहारे बी जे पी जैसी भावनाओं पर राजनीति करने वाली पार्टियों को काफी खुराक मिलती थी. वह भी ख़त्म ही है .लोक सभा चुनावों के पहले से ही मुद्दों की तलाश जारी है . बी जे पी की राजनीति में पाकिस्तान का बहुत बड़ा महत्व है . पाकिस्तान के खिलाफ तलवारें भांज कर बी जे पी वाले अपने सीधे सादे कार्यकर्ताओं को अब तक चलाते रहे हैं . कभी पाकिस्तान का कच्छ में घुसना , कभी ताशकंद में गडबडी, कभी सीमा पर झंझट ,कभी कारगिल तो कभी सीमा पार से आने वाला आतंकवाद , यह सब बी जे पी की सियासत को जिंदा रखने में काम आते रहे हैं . लेकिन अब खबर आ रही है कि कांग्रेस पार्टी वाले पाकिस्तान को टालने की राजनीति शुरू कर चुके हैं . कांग्रेस के महासचिव राहुल गाँधी ने शिमला में बयान दे दिया है कि भारत की तुलना पाकिस्तान से नहीं की जानी चाहिए . उन्होंने कहा कि पाकिस्तान उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना हम समझते हैं . भारत और पाकिस्तान में बहुत फर्क है. हम अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक अहम् मुकाम रखते हैं जब कि पाकिस्तान एक ऐसा मुल्क है जो अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है . उन्होंने कहा कि यह अलग बात है कि पाकिस्तान कुछ न कुछ गड़बड़ करता रहता है और उसका इलाज़ वही लोग कर देंगें जिन्हें उसका ज़िम्मा दिया गया है . पाकिस्तान हमारी विश्वदृष्टि में एक बहुत ही मामूली जगह घेरता है राहुल गाँधी के इस बयान के बाद बी जे पी में चिंता की स्थिति दिख रही है . राहुल गाँधी का बयान किसी मामूली कांग्रेसी का बयान नहीं है . वैसे भी, राहुल गाँधी के व्यक्तित्व की एक खासियत उभर कर सामने आ रही है कि वे बहुत गंभीर बात भी साधारण तरीके से कह देते हैं . बाद में उस पर बहस होती है और उनकी बात ही पार्टी की नीति के रूप में स्वीकार कर ली जाती है . इस लिए हो सकता है कि पाकिस्तान संबन्धी उनका बयान भी कांग्रेस की मौजूदा सोच की प्रतिध्वनि हो. बहरहाल, भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने बयान दे दिया कि राहुल गाँधी को अभी बहुत कुछ सीखना है . आपने फरमाया कि अगर पाकिस्तान इतना कम महत्वपूर्ण है तो प्रधान मंत्री को शर्म अल शैख़ में क्यों शर्म उठानी पडी. बी जे पी की चिंता का कारण यह है कि पाकिस्तान के इस्लामी गणराज्य और उसके एजेंटों की मुखालिफत की बुनियाद पर राजनीति करने वाली बी जे पी को कहाँ ठिकाना मिलेगा. वैसे भी पार्टी के पास आम आदमी से जुड़ा कोई मुद्दा नहीं है . अगर पाकिस्तान भी निकल गया तो क्या होगा . दरअसल बी जे पी की राजनीतिक सोच में पाकिस्तान का केंद्रीय मुकाम है . कश्मीर, संविधान की धारा ३७०. आतंकवाद, मुसलमान , राष्ट्रीय सुरक्षा मुस्लिम तुष्टिकरण , सीमा पार से सांस्कृतिक हमले उर्फ़ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद , बी जे पी की राजनीति के प्रमुख शब्दजाल हैं और अगर पाकिस्तान को कम महत्व देने की राहुल गाँधी की राजनीति ने जोर पकड़ लिया तो संघ की राजनीति को मीडिया में मिलने वाली जगह अपने आप कम हो जायेगी क्योंकि जब पाकिस्तान की ही कोई औकात नहीं रहेगी ,तो उसके विरोध की राजनीति को कौन पूछेगा. सवाल यह कि बी जे पी की राजनीति को जिंदा रखने के लिए पाकिस्तान के मह्त्व को कब तक जिंदा रखा जा सकता है . अमरीका और अन्य पश्चिमी देशों की शुरू से कोशिश रही है कि भारत और पाकिस्तान को एक ही तराजू में तौला जाए. अब तक वे सफल भी होते रहे हैं . लेकिन अब ऐसा करना अमरीका के लिए भी संभव नहीं है . पिछले ६० वर्षों में पाकिस्तान विकास के क्षेत्र में भारत से बहुत पीछे रह गया है और अब पाकिस्तान एक गरीब खस्ताहाल देश है . जो अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है . बलोचिस्तान और सूबा-ए- सरहद, पाकिस्तान से अलग होने की कोशिश कर रहे हैं .उसकी अर्थव्यवस्था तबाह हो चुकी है . फौज ने पिछले ५५ वर्षों में पाकिस्तान की जो दुर्दशा की है कि उसके लिए अपनी रोटी के लिए भी विदेशी मदद की ज़रुरत पड़ती है . ऐसी हालात में पाकिस्तान को कब तक बी जे पी की राजनीतिक सुविधा के लिए जिंदा रखा जा सकता है .जहां तक पाकिस्तान से भारत में आतंकवाद आने का खतरा है वह अब राजनीतिक या कूटनीतिक सवाल नहीं है . क्योंकि वहां की ज़रदारी-गीलानी की सिविलियन सरकार की इतनी हैसियत नहीं है कि वह पाकिस्तानी फौज को लगाम लगा सके. इसका मतलब यह हुआ कि पाकिस्तानी शरारतों को राजनीतिक तरीके से नहीं रोका जा सकता . उसे रोकने के लिए तो पाकिस्तानी फौज और आई एस आई को ही काबू करना पड़ेगा . आजकल यह काम अमरीकी फौज के अफगानिस्तान में तैनात जनरलों के जिम्मे है और वे उठते बैठते पाकिस्तानी सेना के आला अफसरों को धमका रहे हैं .सभी जानते हैं कि पाकिस्तान में सारी मुसीबतों की जड़ फौज ही है और अगर उनको दबा दिया गया तो पाकिस्तानी अवाम भी खुश हो जाएगा और भारत पर पाकिस्तान से आने वाली रोज़ रोज़ की परेशानियां अपने आप ख़त्म हो जायेगी . ज़ाहिर है कि यह भारत के लिए एक अच्छी स्थिति होगी.हाँ बी जे पी वालों को चाहिए कि वे राजनीति करने के लिए नए मुद्दे ढूंढ लें क्योंकि पाकिस्तान दीन, हीन खस्ताहाल और गरीब मुल्क है उसकी दुश्मनी की बुनियाद पर बहुत दिन तक राजनीति नहीं चलने वाली है .
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Friday, September 11, 2009
हैदराबाद के तख्त की लड़ाई
हैदराबाद के तख्त की लड़ाई निर्णायक मुकाम पर पहुंचने वाली है। राजशेखर रेड्डी की दु:खद मृत्यु के बाद उनके वफादरों का एक वर्ग उनके अनुभवहीन बेटे को गद्दी पर बैठाने की जुगत में है। इन लोगों का कहना है कि वाई.एस.आर. के बेटे, जगनमोहन को मुख्यमंत्री बना देने से पार्टी का बहुत फायदा होगा। दावा किया जा रहा है कि आंध्रप्रदेश के लगभग सभी विधायक और अधिसंख्य सांसद, जगनमोहन रेड्डी को मुख्यमंत्री बनवाना चाहते हैं।
इसी तरह के और भी बहुत सारे तर्क दिए जा रहे हैं। यह सारे ही तर्क बेमतलब हैं। कोई वंशवाद की जय जयकार कर रहे इन कांग्रेसियों से पूछे कि अगर जगनमोहन रेड्डी के अलावा दिल्ली दरबार में किसी और व्यक्ति को आंध्र प्रदेश की गद्दी सौंप दी जाएगी तो क्या यह जगन ब्रिगेड नए मुख्यमंत्री का समर्थन नहीं करेगा। यह प्रश्न है जो सभी सवालों के जवाब दे देगा। आम तौर पर माना जाता है कि जयकारा लगाने वाले ए नेता सिंहासन से प्रतिबद्घ होते हैं। जो ही राजा बन जाएगा, उसी का चालीसा पढऩे लगेगे।
कांग्रेस आलाकमान के अब तक के संकेत से तो साफ है कि आंध्रप्रदेश में वंशवाद को बढ़ावा नहीं दिया जायेगा। एक तो जगन मोहन रेड्डी बिलकुल अनुभवहीन हैं, दूसरे उनकी ख्याति भी बहुत सकारात्मक नहीं है। इसके अलावा सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि राजनीति में रिटेक नहीं होता यानी दुबारा मौका नहीं मिलता। अगर एक राजनीतिक गलती कर दी तो आंध्रप्रदेश में कांग्रेस का वह हाल भी हो सकता है जो एन.टी. रामाराव ने किया था।
इसलिए सोनिया गांधी कोई भी लूज बाल नहीं फेंकना चाहतीं क्योंकि क्रिकेट में लूज बाल फेंकने पर एक छक्का लगता है लेकिन राजनीतिक में लूज बाल पर छक्का भी लगता है और विकेट भी जाती है। इसलिए कांग्रेस को आंध्रप्रदेश में ऐसे व्यक्ति की तलाश है जो उस मजबूती को संभाल सके जो राजशेखर रेड्डी की मेहनत से राज्य में मौजूद है। एक और भी तल्ख सच्चाई है जिस पर है कि कांग्रेस आलाकमान की नजर ज़रूर होगी। वह यह कि राज्य में स्वर्गीय राजशेखर रेड्डी के कद का कोई नेता नहीं है।
सोनिया गांधी के सामने विकल्प बहुत कम हैं और फैसला कठिन। शायद आंध्रप्रदेश के कांग्रेस सांसद और राजशेखर रेड्डी के निजी मित्र के.वी.पी. राव को विकल्पों की कमी का एहसास सबसे ज्यादा है इसीलिए जगनमोहन की ताजपोशी न होने की हालत में वे केंद्र में अपने या जगन मोहन के लिए कुछ हासिल कर लेना चाहते हैं।
वंशवाद के खिलाफ जाने के मामले पर कांगे्रेस की कोर भी थोड़ी दबी हुई है। 1975 में जब इंदिरा गांधी ने अपने अनुभवहीन बेटे को उत्तराधिकारी बनाने की योजना बनाई तो एक तरह से कांग्रेस के अंदर रहकर वंशवाद के खिलाफ आवाज उठाने वालों की बोलती सदा के लिए बंद कर दी गई थी। यह परंपरा आज तक कायम है इसलिए जगनमोहन की दावेदारी, वंशवाद का तर्क देकर तो नहीं खारिज की जा सकती। इसके बावजूद भी सोनिया गांधी का अब तक का रुख ऐसा है कि वह राजनीतिक परिपक्वता का परिचय देकर किसी ऐसे व्यक्ति को सत्ता सौंपना चाहती हैं जो राजनीतिक रूप से सब को स्वीकार्य हो।
यहां यह भी स्पष्ट रूप से समझ लेने की जरुरत है कि सत्तर के दशक में जो कांग्रेस पार्टी ने राज्यों के कद्दावर नेताओं को बौना बनाने का सिलसिला शुरू किया था अब वह पूरी तरह से लागू है और फल फूल रहा है अगर भूला बिसरा कोई नेता किसी राज्य में ताकतवर होता भी है तो वह आलाकमान के आशीर्वाद का मोहताज रहता है। इसलिए यह सोचना ही बेमतलब है कि कोई भी ऐसा व्यक्ति जिसे दिल्ली से नामजद कर दिया जाएगा, उसे विधायक अस्वीकार कर देंगे।
इसलिए जगनमोहन रेड्डी का सारा समर्थन काफूर हो जायेगा जब आलाकमान किसी और को मुख्यमंत्री बना देगा। सारे विधायक उसी के समर्थक हो जाएंगे। इस मामले ने एक बार फिर हमारे लोकतंत्र की दुखती रग पर हाथ रख दिया है। साठ के दशक तक ज्यादातर राज्यों में कांग्रेसी शासन होता था लेकिन आम तौर पर मुख्यमंत्री के बारे में राज्य की राजधानी में ही फैसला होता था। राज्यों के मुख्यमंत्री आम तौर पर आलाकमान का हिस्सा होते थे। उनका चुनाव आम सहमति से होता था लेकिन वह आम सहमति सोच विचार और बहस के बाद हासिल की जाती थी, हड़काकर नहीं।
बहरहाल, सोनिया गांधी के सामने इस वक्त वह अवसर है कि सच्ची आम सहमति की संस्कृति को फिर से महत्व दे सकती हैं। पिछले कुछ वर्षों में उन्होंने देश की राजनीतिक व्यवस्था में कुछ ऐसे प्रयोग किए हैं जो देश को सही ढर्रे पर ले जा सकते हैं। देखना यह है कि आंध्रप्रदेश में उनका फैसला राजनीतिक परिपक्वता का संदेश देता है या राजनीतिक गुटबाजी और वंशवाद को बढ़ावा देता है।
आंध्रप्रदेश में राजशेखर रेड्डी के बाद किसी को भी मुश्किल पेश आएगी। 2004 में जब राजशेखर रेड्डी ने तेलगुदेशम पार्टी को हराकर कांग्रेस को फिर से सत्ता दिलवाई थी, तो कांग्रेस की हैसियत बहुत कम थी।
पिछले पांच वर्षों में उन्होंने पार्टी को मजबूती दी और दुबारा जीतकर आए लेकिन यह कोई अटल सत्य नहीं है कि कांग्रेस हमेशा के लिए आ गई है। अगर एक फैसला गड़बड़ हुआ कि कांग्रेस फिर वहीं पहुंच जाएगी। जहां एन.टी.आर. ने पहुंचाया था इसलिए यह लोकतंत्र के हित में है कि कांग्रेस आलाकमान सही फैसला ले।
इसी तरह के और भी बहुत सारे तर्क दिए जा रहे हैं। यह सारे ही तर्क बेमतलब हैं। कोई वंशवाद की जय जयकार कर रहे इन कांग्रेसियों से पूछे कि अगर जगनमोहन रेड्डी के अलावा दिल्ली दरबार में किसी और व्यक्ति को आंध्र प्रदेश की गद्दी सौंप दी जाएगी तो क्या यह जगन ब्रिगेड नए मुख्यमंत्री का समर्थन नहीं करेगा। यह प्रश्न है जो सभी सवालों के जवाब दे देगा। आम तौर पर माना जाता है कि जयकारा लगाने वाले ए नेता सिंहासन से प्रतिबद्घ होते हैं। जो ही राजा बन जाएगा, उसी का चालीसा पढऩे लगेगे।
कांग्रेस आलाकमान के अब तक के संकेत से तो साफ है कि आंध्रप्रदेश में वंशवाद को बढ़ावा नहीं दिया जायेगा। एक तो जगन मोहन रेड्डी बिलकुल अनुभवहीन हैं, दूसरे उनकी ख्याति भी बहुत सकारात्मक नहीं है। इसके अलावा सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि राजनीति में रिटेक नहीं होता यानी दुबारा मौका नहीं मिलता। अगर एक राजनीतिक गलती कर दी तो आंध्रप्रदेश में कांग्रेस का वह हाल भी हो सकता है जो एन.टी. रामाराव ने किया था।
इसलिए सोनिया गांधी कोई भी लूज बाल नहीं फेंकना चाहतीं क्योंकि क्रिकेट में लूज बाल फेंकने पर एक छक्का लगता है लेकिन राजनीतिक में लूज बाल पर छक्का भी लगता है और विकेट भी जाती है। इसलिए कांग्रेस को आंध्रप्रदेश में ऐसे व्यक्ति की तलाश है जो उस मजबूती को संभाल सके जो राजशेखर रेड्डी की मेहनत से राज्य में मौजूद है। एक और भी तल्ख सच्चाई है जिस पर है कि कांग्रेस आलाकमान की नजर ज़रूर होगी। वह यह कि राज्य में स्वर्गीय राजशेखर रेड्डी के कद का कोई नेता नहीं है।
सोनिया गांधी के सामने विकल्प बहुत कम हैं और फैसला कठिन। शायद आंध्रप्रदेश के कांग्रेस सांसद और राजशेखर रेड्डी के निजी मित्र के.वी.पी. राव को विकल्पों की कमी का एहसास सबसे ज्यादा है इसीलिए जगनमोहन की ताजपोशी न होने की हालत में वे केंद्र में अपने या जगन मोहन के लिए कुछ हासिल कर लेना चाहते हैं।
वंशवाद के खिलाफ जाने के मामले पर कांगे्रेस की कोर भी थोड़ी दबी हुई है। 1975 में जब इंदिरा गांधी ने अपने अनुभवहीन बेटे को उत्तराधिकारी बनाने की योजना बनाई तो एक तरह से कांग्रेस के अंदर रहकर वंशवाद के खिलाफ आवाज उठाने वालों की बोलती सदा के लिए बंद कर दी गई थी। यह परंपरा आज तक कायम है इसलिए जगनमोहन की दावेदारी, वंशवाद का तर्क देकर तो नहीं खारिज की जा सकती। इसके बावजूद भी सोनिया गांधी का अब तक का रुख ऐसा है कि वह राजनीतिक परिपक्वता का परिचय देकर किसी ऐसे व्यक्ति को सत्ता सौंपना चाहती हैं जो राजनीतिक रूप से सब को स्वीकार्य हो।
यहां यह भी स्पष्ट रूप से समझ लेने की जरुरत है कि सत्तर के दशक में जो कांग्रेस पार्टी ने राज्यों के कद्दावर नेताओं को बौना बनाने का सिलसिला शुरू किया था अब वह पूरी तरह से लागू है और फल फूल रहा है अगर भूला बिसरा कोई नेता किसी राज्य में ताकतवर होता भी है तो वह आलाकमान के आशीर्वाद का मोहताज रहता है। इसलिए यह सोचना ही बेमतलब है कि कोई भी ऐसा व्यक्ति जिसे दिल्ली से नामजद कर दिया जाएगा, उसे विधायक अस्वीकार कर देंगे।
इसलिए जगनमोहन रेड्डी का सारा समर्थन काफूर हो जायेगा जब आलाकमान किसी और को मुख्यमंत्री बना देगा। सारे विधायक उसी के समर्थक हो जाएंगे। इस मामले ने एक बार फिर हमारे लोकतंत्र की दुखती रग पर हाथ रख दिया है। साठ के दशक तक ज्यादातर राज्यों में कांग्रेसी शासन होता था लेकिन आम तौर पर मुख्यमंत्री के बारे में राज्य की राजधानी में ही फैसला होता था। राज्यों के मुख्यमंत्री आम तौर पर आलाकमान का हिस्सा होते थे। उनका चुनाव आम सहमति से होता था लेकिन वह आम सहमति सोच विचार और बहस के बाद हासिल की जाती थी, हड़काकर नहीं।
बहरहाल, सोनिया गांधी के सामने इस वक्त वह अवसर है कि सच्ची आम सहमति की संस्कृति को फिर से महत्व दे सकती हैं। पिछले कुछ वर्षों में उन्होंने देश की राजनीतिक व्यवस्था में कुछ ऐसे प्रयोग किए हैं जो देश को सही ढर्रे पर ले जा सकते हैं। देखना यह है कि आंध्रप्रदेश में उनका फैसला राजनीतिक परिपक्वता का संदेश देता है या राजनीतिक गुटबाजी और वंशवाद को बढ़ावा देता है।
आंध्रप्रदेश में राजशेखर रेड्डी के बाद किसी को भी मुश्किल पेश आएगी। 2004 में जब राजशेखर रेड्डी ने तेलगुदेशम पार्टी को हराकर कांग्रेस को फिर से सत्ता दिलवाई थी, तो कांग्रेस की हैसियत बहुत कम थी।
पिछले पांच वर्षों में उन्होंने पार्टी को मजबूती दी और दुबारा जीतकर आए लेकिन यह कोई अटल सत्य नहीं है कि कांग्रेस हमेशा के लिए आ गई है। अगर एक फैसला गड़बड़ हुआ कि कांग्रेस फिर वहीं पहुंच जाएगी। जहां एन.टी.आर. ने पहुंचाया था इसलिए यह लोकतंत्र के हित में है कि कांग्रेस आलाकमान सही फैसला ले।
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