Showing posts with label कम्युनिस्ट. Show all posts
Showing posts with label कम्युनिस्ट. Show all posts

Monday, May 27, 2013

छत्तीसगढ़ का माओवादी हमला लोकतंत्र पर हमला है

शेष नारायण सिंह
बस्तर में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा के काफिले पर हुए माओवादी हमले की चारों तराफ से निंदा हो रही है . कांग्रेस तो इस हमले का पीड़ित पक्ष है और बीजेपी पहली बार किसी बर्बरतापूर्ण हमले को राजनीतिक रंग देने की कोशिश न करने की अपील करती नज़र आ रही है .बीजेपी में हडकंप है और घबडाहट का आलम यह है कि उनकी महत्वाकांक्षी जेलभरो योजना स्थगित कर दी गयी . बीजेपी के गंभीर नेता माओवादी हमले को आतंकवादी कार्रवाई बता रहे हैं और उस से राजनीतिक स्तर पर निपटने की चर्चा हो रही है . बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह और बड़े नेता लाल कृष्ण आडवानी ने माओवादी आतंकवाद का राजनीतिक हल तलाशने की कोशिश शुरू कर दिया है .
जहां तक माओवादियों को कम्युनिस्ट कहने की बात है उसका हर स्तर पर खंडन हो चुका है और सबको मालूम है कि कि माओवादी केवल आतंकवादी हैं , और कुछ नहीं . देश की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी ने भी छत्तीसगढ़ में हुए माओवादी हमले की निन्दा की है . मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने एक बयान जारी किया है जिसमें कहा गया है कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हुए बर्बरतापूर्ण हमले की निंदा की है .पार्टी ने कहा है कि इस हमले के बाद छत्तीसगढ़ के कांग्रेस अध्यक्ष सहित  और भी कई नेता और कार्यकर्ता मारे गए हैं . इस बर्बरतापूर्ण घटना ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया है कि अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ माओवादी किस तरह से आतंक से परिपूर्ण हिंसक आचरण करते हैं.पार्टी ने छत्तीसगढ़  सरकार के गैरजिम्मेदार रुख का ज़िक्र किया है और कहा है सरकार ने कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा में सुरक्षा के ज़रूरी क़दम नहीं उठाये . छत्तीसगढ़ सरकार ने माओवादियों से लड़ने के नाम पर निर्दोष आदिवासियों की हत्या करवाई और जब माओवादियों का मुकाबला कारने की बात आयी तो अपने कर्तव्य का पालन नहीं किया .
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ( एम-एल ) ने भी माओवादियों के हमले की निंदा की है और उनके काम को एक दिग्भ्रमित राजनीति का नतीजा बताया है . लेफ्ट फ्रंट की अन्य पार्टियों ने भी इस हमले की निंदा की है . ज़ाहिर है छत्तीसगढ़ सहित कई अन्य राज्यों में आतंक के ज़रिये राजनीति कर रहे माओवादी किसी भी तरह से कम्युनिस्ट नहीं हैं और उनकी सभी राजनीतिक पार्टियों की तरफ से निंदा की जा रही है . ऐसी स्थिति में अति दक्षिणपंथी ताक़तों की उस कोशिश को भी  नाकाम किया जाना चाहिए इसमें नरेंद्र मोदी जैसे लोग माओवादियों को  कम्युनिस्ट बताकर देश के लोकतांत्रिक वामपंथी आंदोलन को तबाह करने की योजना पर काम शुरू कर चुके हैं . देश में सही राजनीतिक परंपरा को विकसित करने के उद्देश्य से इन लोगों की अराजकतावादी राजनीति को रोका जाना चाहिए .
कांग्रेस के युवा संगठनों के नेता बीजेपी की छत्तीसगढ़ सरकार को बरखास्त कारने की मांग शुरू कर चुके हैं . छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता अजीत जोगी भी रमण सिंह सरकार क बर्खास्त करने की मांग कर चुके हैं . लेकिन सबको मालूम है कि किसी राज्य सरकार को बर्खास्त करके इतनी खतरनाक और बराबर समस्या का हल नहीं निकाला जा सकता .रायपुर की शोकसभा में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन  सिंह ने भी राजनीतिक अडवेंचर की भावना को कोई महत्व नहीं दिया . प्रधानमंत्री के साथ रायपुर से लौटकर केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश  ने पत्रकारों से बताया कि छत्तीसगढ़ में माओवादियों का हमला लोकतंत्र को कमज़ोर करने की साजिश का नतीजा है .उन्होंने कहा कि आतंक का सहारा लेकर माओवादी लोकतंत्र को कमज़ोर करना चाहते हैं क्योंकि अगर खुले आम चुनाव प्रचार करने पर आतंक का साया पड़ जाएगा तो किसी भी हालत में लोकतांत्रिक प्रक्रिया नहीं चल सकती. इस बीच छत्तीसगढ़ एक मुख्यमंत्री रमन सिंह ने आत्नकवादी हमले की जांच के लिए एक न्यायिक आयोग के गठन की घोषणा कर दी है .

Saturday, February 27, 2010

मीडिया,शोषित-पीड़ित वर्गों की राजनीति और मौजूदा बजट

शेष नारायण सिंह

अब तक बजट पर जितनी प्रतिक्रियाएं आई हैं उनमें मायावती की टिप्पणी सबसे सही है . उन्होंने साफ़ साफ़ कह दिया कि "बजट में विदेशी पूंजीपतियों को खुले बाजार में अनाप-शनाप मुनाफा कमाने का मौका दिया गया है। यह बजट पूंजीपति समर्थक तथा धन्नासेठों को माला-माल करने वाला है." एक अन्य प्रतिक्रिया में मायावती ने कहा है "कि बजट में सोशल सेक्टर, ग्रामीण और शहरी क्षेत्र के निर्धन लोगों के उत्थान के लिए कुछ नहीं किया गया है ,बल्कि आंकड़ों की बाजीगरी से देश के लोगों को गुमराह करने की कोशिश की गयी है."
हो सकता है कि यह टिप्पणी अर्थशास्त्र के सिद्धांतों की लफ्फाजी के हिसाब से बहुत उपयुक्त न हो , अर्थशास्त्र की सांचाबद्ध सोच से हट कर हो लेकिन यह पक्का है कि देश के अवाम की भाषा यही है . यह भी हो सकता है कि यह दिल्ली और मुंबई के काकटेल सर्किट वालों की समझ में भी न आये और दिल्ली में अड्डा जमाये पूंजीपतियों के संगठनों के नौकर अर्थशास्त्री इस तर्क को टालने की कोशिश करें लेकिन आम आदमी का सच यही है यह सच है कि जब से कांग्रेस ने विकास का समाजवादी रास्ता छोड़ने की राजनीति पर काम करना शुरू किया उसी वक़्त से वह शोषित-पीड़ित वर्ग जो महात्मा गाँधी, सरदार पटेल और जवाहरलाल नेहरू की कांग्रेस में अपना भविष्य देख रहा था ,उसने उस से कन्नी काटना शुरू कर दिया . राजनीतिक प्रक्रिया का यह विकास उत्तर प्रदेश में सबसे प्रमुखता से देखा जा रहा था.. इस क्षेत्र में दलितों के पक्षधरता की राजनीति के आधुनिक युग के विद्वान्, कांशीराम भी अपना प्रयोग कर रहे थे . उन्होंने कांग्रेस के पूंजीपति परस्त झुकाव को भांप लिया था और तय कर लिया था कि देश के गरीब आदमी को कांग्रेसी स्टाइल के विकास से बचा लेंगें जिसमें शोषित पीड़ित जनता को पूंजीवादी साम्राज्यवाद के विकास का साधन बनाना था. आम आदमी कहीं सस्ते मजदूर के रूप में तो कहीं पूंजीपतियों के कारखानों में बनाए गए फालतू सामान के खरीदार के रूप में इस्तेमाल हो रहा था. .कांशीराम को तो यह भी मालूम था कि पूंजीपति वर्ग के क़ब्ज़े वाला प्रेस भी उनकी बात को नहीं छापेगा ,शायद इसी लिए उन्होंने बहुत ही सस्ते कागज़ पर छपे हुए पम्फलेटों के ज़रिये अपनी बात दलितों और शोषितों तह पंहुचायी थी.. संवाद कायम करने की दिशा में उनका यह प्रयोग लगभग क्रांतिकारी था..उन्होंने गावों में अनुसूचित जातियों के कुछ शिक्षित नौजवानों की पहचान कर ली थी . संगठन का काम देखने वाले डी एस फोर( बहुजन समाज पार्टी का पूर्व अवतार) के लोग इन नौजवानों से संपर्क में रहते थे. कांशीराम के पम्फलेट दिल्ली में करोलबाग़ और शाहदरा के कुछ प्रेसों में छापे जाते थे और लगभग पूरे उत्तर प्रदेश के इन कार्यकर्ताओं तक पंहुच जाते थे . . उन्होंने अखबारों का इस्तेमाल अपनी बात पंहुचाने के लिए कभी नहीं किया. डाइरेक्ट संवाद की इस विधा का कांशीराम ने बहुत ही बेहतरीन तरीके से इस्तेमाल किया . उनका कहना था कि प्रेस और मीडिया पर मनुवादियों का क़ब्ज़ा है . वे अगर दलितों की कोई बात छापेंगें तो उसे तोड़-मरोड़ कर अपनी बात साबित करने के लिए ही छापेंगें . इस लिए कई बार वे अपनी मीटिंग से तथाकथित मुख्य धारा के पत्रकारों को भगा भी देते थे ... इस तरीके का इस्तेमाल करके उन्होंने बड़ी से बड़ी सभाएं कीं. अखबारों में कहीं ज़िक्र तक नहीं होता था और रैली के दिन अपनी अपनी साइकिलों से या पैदल बहुत बड़ी संख्या में दलित जनता इकट्ठा हो जाती थी. . एक बार सितम्बर १९९४ में मुझे उन्होंने,लखनऊ से दिल्ली के जहाज़ में मुझे पकड़ लिया . उस हफ्ते राष्ट्रीय सहारा अखबार के सम्पादकीय पृष्ठ पर मेरा एक लेख छपा था जिसका शीर्षक था कि "जब जाति टूटेगी,तभी समता होगी". परिचय होने पर उन्होंने कहा कि समता के लिए जाति का टूटना ज़रूरी नहीं है . उत्तर प्रदेश में उन्होंने मुलायम सिंह यादव की सरकार बनवा दी थी . उन्होंने कहा कि जाति के टूटने के पहले ही समता आ जायेगी. सत्ता पर शोषित पीड़ित जनता के कब्जे का फायदा सामाजिक बराबरी कायम करने में होगा मैंने जब कहा कि वह लेख डॉ. अंबेडकर के विचारों के हवाले से लिखा गया है तो उन्होंने साफ़ कहा था कि आप अपनी सोच बदलिए . नयी राजनीतिक सच्चाई यह है कि जाति भी रहेगी और समता भी रहेगी. आज करीब १५ साल बाद उनकी बाद सही होती नज़र आ रही है.हालांकि उस वक़्त मैं उनकी बात से सहमत नहीं हुआ था .लेकिन उनकी सोच की जो मौलिकता थी, वह हमेशा याद आ जाती है समता मूलक समाज की शुरुआत की उनकी बात १५ साल बाद सही साबित होने की डगर पर है..आज जब मायावती का बजट संबंधी बयान अखबारों में देखा तो एक बार लगा कि बहुत ही सीधे और सपाट तरीके से , साधारण भाषा में आम आदमी की तकलीफों का उन्होंने ज़िक्र कर दिया है .कांशी राम के आन्दोलन में अभिजात्य वर्ग की राजनीतिक समझ से लोहा लेना था , सो उन्होंने अपना तरीका अपनाया . आज ज़रुरत इस बात की है कि उसी आभिजात्य और सामंती सोच वाले वर्ग की आर्थिक समझ के खिलाफ शोषित पीड़ित जनता की आवाज़ को उठाया जाए . और मायावती उस काम को बखूबी निभा रही हैं .बजट का विरोध, बी जे पी के नेतृत्व में कुछ अन्य पार्टियों ने भी लिया लेकिन उस विरोध को उनकी अपने हित की लड़ाई कहना ही ठीक होगा क्योंकि उन सभी पार्टियों के लोग कभी नं कभी केंद्र सरकार में मंत्री रह चुके हैं और लगभग सभी पर पूंजीवादी साम्राज्यवादी सत्ता के हित चिन्तक होने के आरोप लग चुके हैं. हो सकता है कि यह आरोप गलत होने लेकिन इस पार्टियों के बड़े नेताओं के बड़े पूंजीपतियों से मधुर सम्बन्ध की सच्चाई को इनकार नहीं किया जा सकता .

पिछले १८ वर्षों से देश में आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण के नाम पर देश की कमाई का एक बड़ा हिस्सा विदेशी कंपनियों के हवाले किया जा रहा है . दुर्भाग्य यह है कि देश में वामपंथी पार्टियों के अलावा कोई इसका विरोध नहीं कर रहा है ..वामपंथी नेता भी अपनी सांचाबद्ध सोच के बाहर जाने को तैयार नहीं हैं. ऐसी हालत में मायावती का दो टूक बयान स्वागत करने की चीज़ है और इसका स्वागत किया जाना चाहिए.. और हो सकता है कि देश के दलितों और गरीब आदमियों की बात को उनकी भाषा में समझने के लिए दिल्ली की रायसीना पहाड़ियों पर रहने वाले शासक वर्गों को भी मजबूर किये जा सकें

Monday, February 1, 2010

पश्चिम बंगाल में विधान सभा चुनाव हार सकती हैं वामपंथी पार्टियां

शेष नारायण सिंह



ज्योति बसु के निधन से पश्चिम बंगाल की वामपंथी राजनीति में एक शून्य उभर आया है. हो सकता है यह शून्य इतना व्यापक हो जाए कि वामपंथी राजनीति के गढ़ पश्चिम बंगाल में ही वामपंथ इतना कमजोर पड़ जाए कि लालिकले पर लाल निशान फहराने की तमन्ना पश्चिम बंगाल में ही हवा हो जाए. -

दिल्ली में संपन्न ज्योति बसु की शोकसभा में उन्हें एक बहुत अच्छे राजनेता और एक कुशल प्रशासक के रूप में याद किया गया. वित्त मंत्री प्रणव मुख़र्जी ने करीब पांच दशक के अपने परिचय के हवाले से उन्हें एक बेहतरीन प्रशासक बताया और उनकी दूरदर्शिता के कुछ उदाहरण दिए. पश्चिम बंगाल में वामपंथी राजनीति को एक मज़बूत आन्दोलन और सरकार के रूप में स्थापित करने की ज्योति बाबू की योग्यता का बार बार ज़िक्र आया. सबने स्वीकार किया कि उन्होंने बंगाल के समाज को एक स्थिरता दी और राजनीतिक परिपक्वता का आलम तो यह था कि सन २००० में अपनी मर्जी से मुख्यमंत्री पद छोड़ दिया. लेकिन उनके मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद पश्चिम बंगाल की वामपंथी पार्टियां निश्चित रूप से कमज़ोर पड़ी हैं. हालांकि उनके रिटायर होने के बाद भी विधानसभा के दो चुनावों में लेफ्ट फ्रंट को सरकार बनाने लायक बहुमत मिला है लेकिन २०११ के चुनावों में कम्युनिस्ट पार्टियों की वह हैसियत नहीं रहने वाली है जो पिछले तीन दशकों से रही है. इस बात की पड़ताल की जानी चाहिए कि ऐसा क्यों हो रहा है.

जवाब तलाशने की कोशिश में बहुत सारे सवाल खड़े हो जाते हैं और ज्योति बसु के बाद के नेताओं में राजनीतिक अदूरदर्शिता के बहुत सारे निशान नज़र आने लगते हैं. २००६ के विधान सभा चुनावों के बाद जितने भी चुनाव हुए हैं उनमें लेफ्ट फ्रंट की हालत खस्ता ही है ..तुर्रा यह कि जनता के फैसले को उसकी गलती मान कर अपने आपको सही समझने की शुतुरमुर्गी सोच भी कम्युनिस्ट नेताओं के बयानों का स्थायी भाव बनी रही है. २००८ के पंचायत चुनावों में बुरी तरह से धुनी जाने के बाद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं ने कहा कि "पश्चिम बंगाल की जनता ने एक बहुत बड़ी गलती की है लेकिन यह गलती क्षणिक है" यानी उन्हें मुगालता था कि इस गलती को सुधार लिया जाएगा. लेकिन जनता ने यह गलतियाँ बार बार कीं. कई उपचुनाव हुए और नगरपालिका चुनावों में भी लेफ्ट फ्रंट को भारी चुनावी नुकसान हुआ तब जाकर कम्युनिस्ट नेताओं की समझ में आया कि यह जनता की गलती नहीं है.

वास्तव में वामपंथी नेतृत्व ने ऐसी गलतियाँ कर रखी हैं कि चुनावों में धुनाई का सिलसिला चलता ही रहेगा. लगातार जनता का समर्थन खो रहे नेताओं को अब शायद यह भी लगने लगा है कि जनता जो भी कर रही है वह अस्थायी नहीं है, वह अब वामपंथी राजनीति को अलविदा कहने की तैयारी में है. लेफ्ट फ्रंट से अवाम की नाराज़गी ज्योति बसु के मुख्यमंत्री पद छोड़ने के बाद से ही थी लेकिन खंडित विपक्ष की वजह से कुछ हो नहीं पाता था. लेफ्ट फ्रंट के उम्मीदवार सरकार बनाने लायक सीटें बटोरते रहे लेकिन जब परमाणु मुद्दे पर केंद्र की कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार को लेफ्ट फ्रंट ने गिराने की योजना बनायी तो एक नयी राजनीतिक तस्वीर सामने आ गयी. कांग्रेस ने तृणमूल कांग्रेस के साथ समझौता कर लिया और बंगाल में जो खंडित विपक्ष था वह अब एकमुश्त होने लगा. इस नयी राजनीतिक एकता की वजह से लेफ्ट फ्रंट को गंभीर झटके लगे. राज्य की राजनीति में सक्रिय सभी कम्युनिस्ट विरोधी जमातों ने इस नई ताक़त के साथ खड़े होने का फैसला किया. कुछ अति वामपंथी ताक़तों ने भी इस नए कांग्रेस-तृणमूल गठबंधन को समर्थन दिया और नतीजा सामने है .

२००६ के बाद हुए प्रत्येक चुनाव में हार का सामना कर चुकी कम्युनिस्ट पार्टियों के सामने २०११ के विधान सभा चुनाव में हार एक सच्चाई की शक्ल लेता जा रहा है..और इसका सबसे प्रमुख कारण यह है कि बंगाल के ग्रामीण इलाकों में लेफ्ट फ्रंट अब उतना लोकप्रिय नहीं रहा जितना कि ज्योति बसु के दौर में हुआ करता था. १९७७ में जब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में पश्चिम बंगाल में सरकार बनी थी तो बहुत सारे क्रांतिकारी काम हुए थे. खेती लायक ज़मीन जो कुछ लोगों के कब्जे में थी उसे धीरे धीरे आम किसानों के हाथ में देने का जो क्रांतिकारी कारनामा ज्योति बसु की सरकार ने किया था उसकी वजह से बंगाली समाज में बहुत सारे परिवर्तन आये थे. बटाईदारों के अधिकार को ऑपरेशन बर्गा के तहत जिस तरह से सुरक्षित किया गया था उसकी वजह से शहरों की तरफ भागने की गरीब आदमी की मजबूरी पर प्रभावी रोक लगा दी गयी थी. इसके अलावा ज्योति बसु ने गावों में अपने पार्टी के कार्यकर्ताओं की अगुवाई में एक मज़बूत पंचायती व्यवस्था कायम की थी. इस पंचायती इंतज़ाम का फायदा यह हुआ था कि ग्रामीण और ब्लाक स्तर पर मौजूद भ्रष्ट नौकरशाही से जनता को निजात मिल गयी थी लेकिन ३० साल बाद पार्टी की अगुवाई में बनाए गए न्याय करने के इस तंत्र का बहुत ही ज्यादा बेजा इस्तेमाल हो रहा है. अब इस व्यवस्था पर मुकामी गुंडों का क़ब्ज़ा है जो कम्युनिस्ट पार्टियों के सदस्य भी हैं. ममता बनर्जी ने इन्ही गुंडों के खिलाफ जनता को तैयार करने की कोशिश की और वे काफी हद तक सफल भी रहीं. नतीजा सामने है. वामपन्थी राजनीति के अगले दस्ते में गुंडों की बहुतायत से परेशान आम आदमी अब किसीभी चुनाव में लेफ्ट फ्रंट को दुरुस्त करने का मन बना चुका है. इस लिहाज़ से पश्चिम बंगाल विधानसभा का अगला चुनाव बहुत ही दिलचस्प होने वाला है..

पश्चिम बंगाल में सत्ताधारी लेफ्ट पार्टियों ने शुरू में जो क्रांतिकारी काम किये उसके बाद किसी नयी आईडिया को तरजीह नहीं दी गयी. ग्रामीण स्तर पर बने पार्टी के संगठन की वजह से चुनाव जीत रही कम्युनिस्ट पार्टियों ने इस बात की परवाह ही नहीं की कि ज़रा देखें कि कहीं गलती तो नहीं हो रही है. ग्रामीण बंगाल में अर्थव्यवस्था बहुत तेज़ी से बदल रही थी. खेती में इस्तेमाल होने वाली चीज़ें महंगी हो रही थीं लेकिन कोलकता और दिल्ली में बैठे कम्युनिस्ट महाप्रभुओं को सच्चाई की हवा तक नहीं लग रही थी. राज्य के ग्रामीण इलाकों में नयी किस्म के राजनीतिक समीकरण उभर रहे थे. और वामपंथी मोर्चा अपनी उसी नैतिक और राजनीतिक पूंजी के सहारे चुनाव जीतने की उम्मीद लगाए बैठा था जिसे ज्योति बसु ने ८० के दशक में सर्वहारा की पक्ष धरता के लिए कमाया था. हरकिशन सिंह सुरजीत की मृत्यु के बाद पार्टी का सर्वोच्च अधिकारी एक ऐसा व्यक्ति बन गया जिसकी मार्क्सवादी समझ का तो उसके विरोधी भी लोहा मानते हैं लेकिन राजनीति के व्यावहारिक पक्ष में वह सुरजीत की तुलना में कहीं नहीं पंहुचता था. लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष सोम नाथ चटर्जी के साथ व्यवहार और कांग्रेस से बेमतलब दुश्मनी करके उसे ममता बनर्जी के खेमे में धकेल देना ऐसे काम हैं जिन्हें राजनीतिक अदूरदर्शिता की श्रेणी में ही रखा जाएगा. क्योंकि अगर कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस एक न हुए होते तो नगर पालिका और पंचायत चुनावों में वामपंथियों की वैसी हार न हुई होती जिसकी वजह से वह आज कमज़ोर पड़ गया है. बंगाली समाज में राजनीति एक सांस्कृतिक काम भी होता है.

औद्योगीकरण और शहरीकरण के चक्कर में पड़े मुख्य मंत्री, बुद्ध देव भट्टाचार्य ने राजनीति के सांस्कृतिक पक्ष को नज़र अंदाज़ किया सिंगुर, नंदीग्राम और लाल गढ़ में वामा मोर्चा सरकार ने जो गलतियाँ कीं उसके नतीजे में बंगाली बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग उस से अलग हो गया और ममता बनर्जी के साथ खड़ा हो गया. ममता बनर्जी ने राज्य के बाहर और भीतर इन बुद्धिजीवियों के साथ आने से होने वाले फायदे को ख़ूब भुनाया. महाश्वेता देवी, सांवली मित्र, बिभाश चक्रवर्ती आदि जब ममता के साथ खड़े हो गए तो उन्हें बंगाली भद्रलोक में भी स्वीकार्यता मिलने लगी जो अब तक एक तरह से कम्युनिस्ट नेताओं के लिए सुरक्षित मानी जाती थी. ममता बनर्जी एक तेज़ तर्रार नेता हैं. युवक कांग्रेस से राजनीति शुरू करने वाली ममता बनर्जी को बंगाली समाज ने पहली बार तब देखा था जब १९७५ में उन्होंने युवक कांग्रेस के कुछ साथियों के साथ जयप्रकाश नारायण की कार पर हमला बोल दिया था .वे कोलकाता विश्वविद्यालय में एक सभा को संबोधित करने जा रहे थे. बच गए लेकिन ममता बनर्जी का राजनीतिक अवतार हो चुका था. २००६ के चुनावों के बाद लेफ्ट फ्रंट की गलतियों के ज़खीरे की वजह से अब उन्हें भद्रलोक की इज्ज़त भी मिल रही है . इस लिए करीब एक साल बाद होने वाले विधान चुनावों में कौन विजयी होता है, आने वाले कुछ दिनों में यह विमर्श और तेज़ होने जा रहा है. नतीजा चुनाव परिणाम बता देंगे.

Thursday, November 12, 2009

दूध वाले मजनूं कभी खून वाले मजनूं का स्थान नहीं ले सकते

शेष नारायण सिंह

कुछ राज्यों में हुए उप-चुनावों ने भारतीय लोकतंत्र के परिपक्व होते रूप को और मजबूती दी है. इन चुनावों के नतीजों ने यह साफ़ कर दिया है कि जनता के विश्वास पर किसी का एकाधिकार नहीं हो सकता और अब वोटों की ज़मींदारी प्रथा ख़त्म हो रही है. पश्चिम बंगाल से जो नतीजे आये हैं उनसे साफ़ है कि अगर जनता को भरोसेमंद विकल्प मिले तो वह वोट देने में उसका सही इस्तेमाल करने में संकोच नहीं करेगी. वर्षों तक , तृणमूल कांग्रेस को नॉन-सीरियस राजनीतिक ताक़त मानने वाली पश्चिम बंगाल की जनता ने ऐलान कर दिया है कि वह राज करने वाला नौकर बदलने के मूड में है .ममता बनर्जी को अब वहां की जनता ने गंभीरता से लेने का मन बना लिया है .. पिछले ३३ साल के राज में लेफ्ट फ्रंट ने बहुत सारे अच्छे काम किये जिसकी वजह से दिल्ली की हर सरकार की मर्जी के खिलाफ जनता ने कम्युनिस्टों को सत्ता दे रखी थी लेकिन अब जब कि लेफ्ट फ्रंट के नेता लोग गलतियों पर गलतियाँ करते जा रहे हैं तो जनता ने उन्हें सबक सिखाने का फैसला कर लिया है . इन नतीजों के संकेत बहुत ही साफ़ हैं कि जनता ने . राज्य सरकार और लेफ्ट फ्रंट को समझा दिया है कि अगर ठीक से काम नहीं करोगे तो बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा.
उत्तर प्रदेश में हुए उपचुनावों से भी कई तरह के संकेत सामने आ रहे हैं . सबसे बड़ा तो यही कि राज्य में कांग्रेस पार्टी ने अपनी स्वीकार्यता की जो प्रक्रिया लोकसभा चुनावों के दौर में शुरू की थी, उसे और भी मज़बूत किया है . इन नतीजों से साफ़ है कि आगे उत्तर प्रदेश में जब भी चुनाव होंगें, कांग्रेस भी एक संजीदा राजनीतिक ताक़त के रूप में हिस्सा लेगी. . जो दूसरी बात बहुत ही करीने से कह दी गयी है , वह यह कि कोई भी सीट किसी का गढ़ नहीं रहेगी. जनता हर सीट पर अपने आप फैसला करेगी. . उत्तर प्रदेश के नतीजों से कई और बातें भी सामने आई हैं. सबसे बड़ी बात तो यही है कि पिछले कई दशकों से चल रहे जाति के आधार पर वोट लेने या देने की परंपरा को ज़बरदस्त झटका लगा है . इटावा और भरथना की सीटों पर मुलायम सिंह यादव की मर्जी के खिलाफ पड़ा एक एक वोट इस बता की घोषणा है कि जातिगत आधार पर पड़ने वाले वोटों का वक़्त अब अपनी आख़री साँसे ले रहा है. मुलायम सिंह यादव के लिए इस चुनाव से और भी कई संकेत आये हैं. इन् नतीजों ने साफ़ कर दिया है कि धरती पुत्र के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले मुलायम सिंह अब जनता के उतने करीब नहीं रहे जितने कि पहले हुआ करते थे. . इस बात में दो राय नहीं है कि इन चुनावों में उनकी बदली हुई सोच को धारदार चेतावनी मिली है . फिरोजाबाद लोक सभा सीट पर उनकी निजी प्रतिष्ठा दांव पर लगी थी . अपने बेटे अखिलेश यादव की खाली हुई सीट पर उन्होंने अपनी बहू को टिकट दे कर अपनी जिन्दगी का सबसे बड़ा राजनीतिक जुआ खेला था. फिरोजाबाद का इलाका उनकी अपनी जाति के लोगों के बहुमत वाला इलाका है. वहां उनके परम्परागत वोटर, मुसलमान भी बड़ी संख्या में हैं .लोकसभा चुनाव २००९ हे दौरान बहुत दिन बाद यह सामान्य सीट बनायी गयी थी . इसके पहले यह रिज़र्व हुआ करती थी और समाजवादी पार्टी के ही रामजी लाल सुमन यहाँ से विजयी हुआ करते थे. लोकसभा २००९ में वे पड़ोस की रिज़र्व सीट आगरा से चुनाव लड़ गए थे . लेकिन हार गए. जब फिरोजाबाद में उपचुनाव का अवसर आया तो मुलायम सिंह यादव को समझने वालों को भरोसा था कि वे उपचुनाव में रामजी लाल को ही उम्मीदवार बनायेगें. लेकिन ऐसा न हुआ. उन्होंने अपनी बहू को टिकट दे दिया. इस एक टिकट ने मुलायम सिंह यादव की राजनीति को आम आदमी की राजनीति के दायरे से बाहर कर दिया..ज़ाहिर है कि किसी भी पुराने साथीको टिकट न देकर अपनी बहू को आगे करना , उनकी नयी राजनीतिक सोच का नतीजा है .. उनके ऊपर इस तरह के आरोप बहुत दिनों से लग रहे थे. उनके कई पुराने साथी उनसे अलग होकर उनके खिलाफ काम काम कर रहे हैं. अजीब इत्तेफाक है कि उन सबकी नाराज़गी एक ही व्यक्ति से है. . जो लोग उनके साथ १९८० से १९८९ के बुरे वक़्त में साथ थे , उनमें से बड़ी संख्या लोग अब उनके खिलाफ हैं. मुख्य मंत्री बनने के बाद उनके साथ बहुत सारे नए लोग जुड़े थे , उनसे यह उम्मीद करना कि वे बहुत दिन तक साथ निभायेंगें ,ठीक नहीं था क्योंकि दूध वाले मजनूं कभी खून वाले मजनूं का स्थान नहीं ले सकते. यह लोग तो सत्ता के केंद्र में बैठे मुलायम सिंह यादव के साथी थे . जब सत्ता नहीं रहेगी तो इन लोगों की कोई ख़ास रूचि नेता के साथ रहने में नहीं रह जायेगी. लेकिन उत्तर प्रदेश के गावों में ,कस्बों में और जिलों में ऐसे लोगों की बड़ी जमात है जो मुलायम सिंह यादव से किसी स्वार्थ साधन की उम्मीद नहीं रखते लेकिन वे उन्हें अपना साथी मानते हैं . भरथना, इटावा और फिरोजाबाद में समाजवादी पार्टी की हार , मुलायम सिंह के उन्हीं दोस्तों की तरफ से साथ छोड़ने का ऐलान है. उन्होंने साफ़ कह दिया है कि भाई , वही पुराना वाला, साथी मुलायम सिंह यादव लाओ वरना हम रास्ता बदलने को मजबूर हो जायेंगें. यह समाजवादी पार्टी के आला नेतृत्व पर निर्भर है कि वह इस संकेत को चेतावनी मानकर इसमें सुधार करने की कोशिश करता है कि इसे नज़रंदाज़ करके आगे की राह पकड़ता है जिसमें कि अनजानी मुश्किले हो सकती हैं .

वर्तमान उपचुनावों के नतीजों से कम से कम उत्तर प्रदेश में एक बात और साफ़ उभरी है कि अगला जो भी चुनाव होगा उसमें कांग्रेस एक मज़बूत ताक़त के रूप में मुकाबले में होगी . इसमें दो राय नहीं है कि मुख्य मुकाबला मायावती की बहुजन समाज पार्टी और मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी में होगा लेकिन कांग्रेस निश्चित रूप से एक अहम् भूमिका निभाने वाली है . फिरोजाबाद के अलावा उतर प्रदेश में जिस दूसरी सीट पर कांग्रेस को जीत हासिल हुई है , वह लखनऊ पश्चिम की विधान सभा सीट है. बी जे पी के बड़े नेता , लालजी टंडन के लोकसभा पंहुंच जाने के बाद यह सीट खाली हुई थी.पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की लोकसभा सीट का हिस्सा, लखनऊ पश्चिम को बी जे पी का गढ़ माना जाता था लेकिन वहां से कांग्रेस की जीत इस बात का पक्का संकेत है कि अगर कांग्रेस वाले अपने नेता राहुल गाँधी की तरह जुट जाएँ तो राज्य की राजनीति में दोबारा महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. . हाँ , बी जे पी के लिए यह चुनाव निश्चित रूप से बहुत बुरी खबर है . जिस राज्य में बी जे पी ने बाबरी मस्जिद को ढहाया, भव्य राम मंदिर का वादा किया , कई साल तक या तो खुद राज किया और या मायावती को मुख्य मंत्री बना कर रखा वहां पार्टी के उम्मीदवारों की धडाधड ज़मानते ज़ब्त हो रही हैं. ज़ाहिर है बी जे पी की पोल राज्य में खुल चुकी है और अब उसे उत्तर प्रदेश से बहुत ज़्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिए..

उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के नतीजों से मुसलमानों को वोट बैंक मानने वालों को भी निराशा होगी. इन चुनावों में वोटर कांग्रेस की तरफ खिंचा है . बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद, आम तौर पर मुसलमान कांग्रेस से दूर चला गया था क्योंकि , उस कारनामें में वह बी जे पी के साथ साथ उस वक़्त के कांग्रेसी प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव को भी बराबर का जिम्मेदार मानता था लेकिन इस बार यह संकेत बहुत साफ़ है कि वह अब बी जे पी के अलावा किसी को भी वोट देने से परहेज़ नहीं करेगा.. हर बार की तरह यह चुनाव पार्टियों के केंद्रीय नेतृत्व की दशा दिशा पर भी फैसला है. केरल और पश्चिम बंगाल में लेफ्ट फ्रंट की हार का एक संकेत यह भी है क उन् राज्यों में पार्टी के कार्यकर्ता दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं . उनकी नज़र में लेफ्ट फ्रंट की सबसे बड़ी पार्टी का आला नेता कमज़ोर है और वह मनमानी करने का शौकीन है.. केंद्र सरकार को परमाणु मुद्दे पर घेरने की असफल कोशिश, पूर्व लोकसभा अध्यक्ष , सोमनाथ चटर्जी के साथ अपमान पूर्ण व्यवहार, केरल की राजनीति में गुटबाजी को न केवल प्रोत्साहन देना बल्कि उसमें शामिल हो जाना , पार्टी के आला अफसर के रिपोर्ट कार्ड में ऐसे विवरण हैं जो उसे फ़ेल करने के लिए काफी हैं लेकिन वह जमा हुआ है . शायद इसी लिए जनता ने पार्टी के बाकी नेताओं को यह चेतावनी दी है कि अगर पार्टी को बचाना है तो फ़ौरन कोई कार्रवाई करो वरना बहुत देर हो जायेगी.

Sunday, November 1, 2009

वामपंथी आतंकवाद से राजनीतिक मुकाबला ज़रूरी

पश्चिम बंगाल, झारखंड, छत्तीसगढ, बिहार, उड़ीसा और आंध्रप्रदेश के कुछ इलाकों में कई वर्षों से चल रहे वामपंथी आतंकवादियों के प्रकोप के नतीजे अपने बर्बर रूप में सामने आने लगे है। मंगलवार को, पश्चिम बंगाल में रेलगाड़ी रोककर तोड़फोड़ की वारदात जहां एक तरफ आतंकवादियों की बढ़ती ताकत का डंका है, वहीं इन राज्यों की सरकारों की घिग्घी बंधने का ऐलान भी। सभी को मालूम है कि इस इलाके में चल रहा आतंकवादियों का शासन पिछले बीस साल से इस इलाके में राज करने वाली सरकारों के नाकारापन का नमूना है।

यहां यह साफ कर देना जरूरी है कि इस नकारापन के खेल में सभी राजनीतिक पार्टियां शामिल हैं। आज कल टी.वी. चैनलों पर एक दूसरे के खिलाफ राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप का दौर चल रहा है वह बिलकुल बेमतलब है। वामपंथी आतंकवाद के सहारे वोट लेने की कोशिश करने वाली ममता बनर्जी को चाहिए कि भस्मासुरी राजनीति का तिरस्कार करें वरना भस्मासुर का वर्ग चरित्र ही ऐसा है कि वह बाकी लोगों को भस्म करने के बाद अपने रचयिता का सर्वनाश करता है। इन आतंकवादियों को राजनीतिक पार्टी के सदस्य कहने वाले वाममोर्चे के नेता भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। पश्चिम बंगाल में अति वामपंथ और तृणमूल-दक्षिण पंथ के मोर्चे के खिलाफ वाम मोर्चे की निद्रा भी उतनी ही जिम्मेदार है, जितना आंध्रपेदश की कांग्रेस सत्ता जिम्मेदार है। वामपंथी आतंकवाद के प्रसार में इन दो पार्टियों के अलावा बीजेपी, जद (यू) और राजद का भी उतना ही हाथ है, इसलिए इनमें से किसी को एक दूसरी पार्टी पर हमला करने का हक नहीं है।

इन इलाकों में रहने वाले गरीब आदमियों को गरीबी के खौफनाक अंधेरे में ढकेलने वाली यही राजनीतिक पार्टियां हैं। इन क्षेत्रों की अकूत खनिज संपदा की लालच में दुनिया भर की कंपनियों और पूंजीपतियों की नजर भारत के इन आदिवासी इलाकों पर है। रिश्वत की गिज़ा पर ऐश करने वाले भारतीय नेताओं और बाबुओं की मामूली इच्छाओं की पूर्ति के लिए भारत की सुरक्षा, संप्रभुता और अखंडता को दाव पर लगा दिया गया है। अब जरूरत इस बात की है कि सभी राजनीतिक पार्टियां, मीडिया संगठन, सरकारी प्रशासक और आम आदमी छुद्र स्वार्थों की दुनिया को अलविदा कहें और इस आतंकवादी हमले को नाकाम करने में तन मन से जुट जायं। नेपाली राजशाही के समर्थकों के भारतीयों के एक नेता का बयान आज अखबारों में छपा है जिससे राजनीतिक रोटियां सेंके जाने की इच्छा की बू आ रही है। इस तरह की हरकतों पर फौरन लगाम लगाना होगा वरना बहुत देर हो जायेगी। आतंकवाद चाहे जिस रूप में हो उसका विरोध किया जाना चाहिए। तथाकथित लाल कॉरिडर के इलाके में राह से खटक चुके वामपंथियों के कुछ लालची नेताओं ने इस इलाके में रहने वाले आदिवासियों को मार्क्सवादी लफ्फाजी के जाल में फंसाकर जो लूट और आतंक का साम्राज्य बना रखा है, उसकी सभ्य समाज में चौतरफा निंदा हो रही है लेकिन इन बर्बर आतंकवादियों को सभ्य समाज की परवाह नहीं है। इन शठों के साथ शठता के साथ ही निपटा जा सकता है।

वामपंथियों का एक वर्ग यह भी कह रहा है कि इन इलाकों में रहने वाले गरीब आदिवासी लोगों को सरकार ने नजरअंदाज किया जिसकी वजह से वहां राजनीतिक शून्य पैदा हुआ और वामपंथी आतंकवादियों ने खाली जगह भर लिया। यह तर्क बिलकुल बेमतलब है। वामपंथियों से सवाल पूछा जाना चाहिए कि पूरी दुनिया में राजनीतिक जागरूकता का प्रचार करने का दम भरने वाले कम्युनिस्टों ने लालगढ़ के आसपास के इलाके में क्यों नहीं कोई जागरूकता फैलाई। आदिवासियों को राम भरोसे छोड़ने वाले राजनेताओं में कम्युनिस्ट नेताओं का नाम सबसे ऊपर लिखा जायेगा। इसलिए उनका यह आरोप बेमतलब है कि केन्द्र सरकार ने आदिवासियों के कल्याण में कोताही की। आर.एस.एस. की तरफ से इन इलाकों में वनवासी कल्याण की योजनाएं चलाई जा रही थी लेकिन वामपंथी आतंकवादियों के बढ़ चुके प्रस्ताव के मद्देनजर अब इस बात में कोई शक नहीं है कि आर.एस.एस. का काम ऐसा नहीं था जो इन आतंकवादियों के झटके को झेल सकता। वैसे भी संघ बिरादरी वहां मौजूद स्थानीय रीति रिवाजों को हटाकर अपनी विचारधारा को थोपने की कोशिश कर रही थी। ज़ाहिर है शाखे नाजुक पर बनने वाला आशियाना कमजोर ही होता है। इसलिए इन इलाकों में कुछ वर्षों तक तो वोट का लाभ लेने में संघ परिवार कामयाब रहा लेकिन जब विचारधारा और गरीब की पक्षधरता के नाम पर माओवादियों ने काम शुरू किया तो सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों को भागना पड़ा।

इस इलाके में कांग्रेस का रुख सबसे ज्यादा गैर जिम्मेदाराना रहा है। आजादी के बाद से अब तक कभी भी कांग्रेस ने इन इलाकों में रहने वाले लोगों को राजनीतिक एजेंडे पर लाने की कोशिश ही नहीं की जिसका नतीजा है कि यह लोग हमेशा अजूबे की तरह देखे जाते रहे। अजीब बात है कि झारखण्ड और छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल राज्य बनने के बाद वहां से स्थानीय तौर पर राजनीतिक प्रक्रिया के तहत विकसित नेताओं की भारी कमी है। वहां भी उन्हीं लोगों के वंशज राजनीतिक सत्ता पर काबिज़ हैं जो इन इलाकों की खनिज संपदा की लूट में बड़ी कंपनियों के मामूली ठेकेदार बनकर आए थे। यहां के नेताओं का दूसरा वर्ग उन दलालों का है जिन पर दिल्ली में बैठे नेता लोग दांव लगाते है।

ऐसे माहौल में अब राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप के दौर से बाहर निकल कर नेताओं को चाहिए कि वामपंथी आतंकवाद के नाम पर आदिवासी इलाकों में चल रहे बर्बरता के राज को फौरन खत्म करें। पश्चिम बंगाल में राजधानी एक्सप्रेस का अपहरण करके और भविष्य में ऐसी ही वारदात को फिर अंजाम देने की धमकी देकर आतंकवादियों ने सभ्य समाज और राजनेताओं के पाले में चुनौती की गेंद फेंक दी है। और राष्ट्र के सामने इन्हें कुचल देने के सिवा और कोई विकल्प नहीं है(डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट से साभार)

Friday, September 18, 2009

ऐतिहासिक भूलों का मार्क्सवादी मसीहा

पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टियों को एक और चुनावी नुकसान हुआ है। लोकसभा चुनाव में काफी सीटें गवां चुकी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और अन्य वामपंथी पार्टियों को सिलिगुड़ी नगर निगम के चुनावों में जोर का झटका बहुत ज़ोर से लगा है। पिछले 28 वर्षों से सिलीगुड़ी नगर निगम पर लाल झंडे वालों का कब्ज़ा था लेकिन इस बार उन्हें मुंह की खानी पड़ी है।

अबकी तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस गठबंधन ने 29 सीटें जीतकर स्पष्ट बहुमत हासिल कर लिया है। वामपंथी मोर्चे को केवल 17 सीटें मिली हैं। यह बड़ी हार है क्योंकि पिछले चुनावों में 36 सीटें जीतकर सिलीगुड़ी नगर पालिका पर लाल झंडा फहराया गया था। गौर करने की बात यह है कि सिलीगुड़ी किसी कस्बे की टाउन एरिया कमेटी नहीं है, यह कलकत्ता के बाद राज्य का सबसे बड़ा नगर निगम है। इसे उत्तर बंगाल में लेफ्ट का गढ़ माना जाता है।

दक्षिण बंगाल में मार्क्सवादी दलों की दुर्दशा लोकसभा चुनाव में ही हो चुकी थी अब उत्तर बंगाल में राग विदाई की भनक सुनाई पड़ने लगी है। सिलीगुड़ी नगर निगम के चुनाव का भावार्थ बहुत गहरा है। 2011 में पश्चिम बंगाल विधानसभा का चुनाव होने वाला है और तृणमूल कांग्रेस की कोशिश है कि उस चुनाव में अपनी जीत के पक्की होने के संदेश के रूप में सिलीगुड़ी की लड़ाई को पेश किया जाय। दक्षिण बंगाल में वाम मोर्चा की जो खस्ता हालत हुई है, उसको ध्यान में रखा जाय तो इस बात में बहुत वज़न नज़र आने लगता है कि ममता बनर्जी राज्य की सबसे महत्वपूर्ण नेता के रूप में उभर रही है।

सवाल उठता है कि पश्चिम बंगाल में पिछले 32 वर्षों से राज करने वाले वाम मोर्चे के नेताओं के सामने यह दुर्दिन क्यों मुंह बाए खड़ा है? 1977 में वाम मोर्चे ने कई साल से चल रहे कांग्रेसी कुशासन को समाप्त करने के लिए पश्चिम बंगाल की जनता के भारी समर्थन से कलकत्ता में सरकार बनाई थी। ज्योति बसु मुख्मंत्री बने थे और राज्य में बुनियादी परिवर्तन की शुरुआत की थी। गांवों में रहने वाले गरीब से गरीब आदमी के हित को राजकाज के फैसलों का केंद्र बिंदु बनाकर ज्योति बसु ने राज किया लेकिन जब हाथ पांव चलाने में भी दिक्कत होने लगी और उम्र अपना नज़ारा दिखाने लगी तो उन्होंने अगली पीढ़ी को काम संभलवाकर वानप्रस्थ ले लिया।

लगता है कि यहीं कोई चूक हो गई क्योंकि ज्योति बसु के जाने के बाद से ही पश्चिम बंगाल में वामपंथी राजनीति ढलान पर है। पार्टी का दुर्भाग्य ही है कि ज्योति बसु के लगभग साथ-साथ ही दिल्ली के सत्ता के गलियारों का ज्ञाता एक और कम्युनिस्ट रिटायर हो गया। हरिकिशन सिंह सुरजीत के बैठक ले लेने के बाद दिल्ली में भी सत्ता परिवर्तन हुआ और नए महासचिव, प्रकाश करात ने कमान संभाली। प्रकाश करात बहुत ही पढ़े लिखे और कुशाग्र बुद्धि के माहिर नेता हैं।

चुस्त दुरुस्त लेखन के ज्ञाता हैं और मार्क्सवाद के प्रकांड पंडित हैं। उनका व्यक्तित्व कुछ-कुछ मुहम्मद अली जिनाह वाला है। जिनाह की एक खासियत थी कि वे कभी भी किसी जन आंदोलन का हिस्सा नहीं रहे लेकिन अपनी बात को सबसे ऊपर रखने की कला के माहिर थे। जिन्ना की खासियत यह थी कि वे पूरी नहीं तो आधी ही सत्ता लेकर माने लेकिन प्रकाश करात आई हुई सत्ता को दुत्कार कर भगा देने में बहुत ही निपुण हैं।

1996 में जब पूरा देश ज्योति बसु को प्रधान मंत्री देखना चाहता था, प्रकाश करात ने ही उस खेल में गाड़ी के आगे काठ रखा था। बाद में उस गलती को ऐतिहासिक भूल कहा गया और पार्टी ने गलती स्वीकार की। उसके बाद प्रकाश करात को ऐतिहासिक भूलों का विशेषज्ञ मान लिया गया। 2004 में कांग्रेस को बाहर से समर्थन देना, अभी ऐतिहासिक भूल के रूप में औपचारिक रूप से दर्ज तो नहीं है लेकिन जानकार बताते हैं कि अंदरखाने यह चर्चा हुई थी कि अगर मनमोहन सिंह सरकार में करीब 10 कम्युनिस्ट मंत्री होते तो बहुराष्ट्रीय कंपनियां मनमानी न कर पातीं और सरकार परमाणु समझौता न कर पाती।

बाद में सरकार से समर्थन वापसी और तथाकथित तीसरा मोर्चा बनाने की ऐतिहासिक भूलें भी न होतीं। दक्षिणपंथी राजनेताओं और पूंजीवादी मीडिया की कृपा से आमतौर पर माना जाता है कि कम्युनिस्ट पार्टियों में लोकतांत्रिक तरीके से काम नहीं होता। लेकिन यह सच नहीं हैं, कम्युनिस्ट पार्टियों में हर प्रस्ताव गांव स्तर की कमेटी तक बहस के लिए लाया जाता है और अधिकतर संख्या के लोगों की राय को राष्ट्रीय प्रस्तावों में परिलक्षित होते देखा जा सकता है।

मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में भी यही माहौल था। लेकिन ज्योति बसु-सुरजीत टीम के हटने के बाद लगता है, यह रिवाज खत्म हो गया। आम कार्यकर्ता अपने को अलग थलग महसूस करने लगा। जब लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निकाला गया तो पश्चिम बंगाल में चारों तरफ निराशा छा गई। लगता है कि भविष्य में सोमनाथ को हटाने का फैसला भी ऐतिहासिक भूल की हैसियत हासिल कर लेगा। बहरहाल भूलों के बाद भूल करती मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी पश्चिम बंगाल में एक-एक करके सब कुछ गंवा रही है। यह देखना दिलचस्प होगा कि चुनावों में लगातार नुकसान उठा रही पार्टी अपने को संभाल पाती है या उसका भी वही हाल होता है, जो उत्तर भारत के कई राज्यों में कांग्रेस पार्टी का हुआ है।