शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली, २१ जनवरी .लगता है कि कांग्रेस ने ममता बनर्जी को औकात बनाने का मन बना लिया है . पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री के काम करने के तरीके से कांग्रेस में सर्वोच्च स्तर पर बहुत ही असुविधा होती बतायी जा रही है. वैसे भी जिस तरह से लगभग हर हफ्ते पश्चिम बंगाल सरकार की नकारात्मक पब्लिसिटी हो रही है उसके चलते कांग्रेस ममता बनर्जी के खराब काम में अपने आप को शामिल नहीं दिखाना चाहती . अस्पतालों के खस्ता प्रबंध की जो खबरें आजकल मीडिया में छाई हुई हैं उसके चलते कांग्रेस आलाकमान में ममता से राजनीतिक दोस्ती रखने के खिलाफ माहौल बन रहा है .
सोमवार को ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश कोलकाता जा रहे हैं और वहां जाकर वे २४ परगना, बांकुरा और पुरुलिया जिलों में अपने मंत्रालय के सौजन्य से चल रही स्कीमों की समीक्षा करेगें .इसके पहले ममता बनर्जी ने कई बार कांग्रेस के नेताओं को अहसास करवाया है केंद्र की कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार अपने अस्तित्व के लिए ममता बनर्जी की कृपा पर बहुत ज्यादा निर्भर है .पिछले दिनों उन्होंने कांग्रेस के पश्चिम बंगाल के कार्यकर्ताओं और राज्य स्तर के नेताओं को भी धमकाने की योजना पर काम शुरू कर दिया . पश्चिम बंगाल में उन्होंने कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाया है लेकिन अपनी ही सरकार में काम कर रहे कांग्रेसी मंत्रियों को बिलकुल जीरो पर बैठा दिया है . एक मंत्री को तो इतना परेशान कर दिया कि उसने इस्तीफ़ा देने में ही भलाई समझी. . नई दिल्ली में राजनीतिक मौसम के जानकारों का कहना है कि उत्तर प्रदेश में चुनावों के बाद यू पी ए में मुलायम सिंह यादव की पार्टी के शामिल होने की बिसात बिछ चुकी है. जिसके बाद सोनिया गाँधी ममता बनर्जी को यू पी ए छोड़ने का विकल्प दे देगीं. इसका मतलब यह हुआ कि वे ममता को साफ़ बता देगीं कि अगर सरकार में रहना है तो कांग्रेस के साथ शिष्टाचार की सीमा में ही रहना पडेगा. उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार को घेरने के पहले भी वहां जयराम रमेश ने जांच का काम शुरू किया था और कई जिलों में मनरेगा में हो रही घूसखोरी को राजनीतिक बहस के दायरे में ला दिया था . इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि पश्चिम बंगाल में भी कांग्रेस जयराम रमेश के निरीक्षण के ज़रिये ममता से दूरी बनाने के अपने प्रोजेक्ट पर काम शुरू कर चुकी है .
जयराम रमेश का पश्चिम बंगाल का दौरा बिलकुल सरकारी है. २३ जनवरी को वे कोलकाता में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जयन्ती पर आयोजित एक कार्यक्रम में शामिल होंगें.उसके बाद वे २४ परगना जिले के डोंगरिया कस्बे के लिए रवाना हो जायेगें जहां अफसरों से वे बातचीत करेगें और ग्रामीण विकास की केंद्रीय स्कीमों की समीक्षा करेगें .२४ जनवरी को जयराम रमेश बांकुरा जायेगें जहां वे पुरंदरपुर ब्लाक में पानी की जांच की प्रयोगशाला, सैनिटरी मार्ट और वाटर हार्वेस्टिंग स्कीमों के बारे में जानकारी लेगें .अगले दिन बुधवार को वे पुरुलिया जिले के रघुनाथपुर ब्लाक में प्रधान मंत्री ग्रामीण सड़क परियोजना और वाटर ट्रीटमेंट प्लान का निरीक्षण करेगें . बुधवार को वे नई दिल्ली के लिए रवाना होने से पहले कोलकाता में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मुलाक़ात करेगें . जयराम रमेश के सरकारी कार्यक्रम से बिलकुल साफ़ नज़र आ रहा है कि ममता बनर्जी को भी कांग्रेस वही सम्मान और रुतबा देने वाली है जो विधान सभा चुनावों की प्रक्रिया शुरू होने के पहले उसने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री, मायावती को दिया था .
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Monday, January 23, 2012
Thursday, February 17, 2011
पश्चिम बंगाल में सामंती कम्युनिस्टों की ज़मींदारी पर जनता की लगाम
शेष नारायण सिंह
बहुत साल बाद कोलकाता जाने का मौक़ा लगा .तीन दिन की इस कोलकाता यात्रा ने कई भ्रम साफ़ कर दिया. ज्यादा लोगों से न मिलने का फायदा भी होता है . बातें बहुत साफ़ नज़र आने लगती हैं . १९७८ में आपरेशन बर्गा पर एक परचा लिखने के बाद अपने आपको ग्रामीण पश्चिम बंगाल का ज्ञाता मानने की बेवकूफी मैं पहले भी कर चुका हू. कई बार अपने आप से यह कह चुका हूँ कि आगे से सर्वज्ञ होने की शेखी नहीं पालेगें लेकिन फिर भी मुगालता ऐसी बीमारी है जिसका जड़तोड़ इलाज़ होता ही नहीं . एक बार दिमाग दुरुस्त होता है ,फिर दुबारा वही हाल तारी हो जाता है. इसलिए मेरे अन्दर पिछले कुछ महीनों से फिर सर्वज्ञता की बीमारी के लक्षण दिखने लगे थे . १४ फरवरी को कोलकाता पंहुचा ,सब कुछ अच्छा लग रहा था . जनता के राज के ३३ साल बहुत अच्छे लग रहे थे. लेकिन जब वहां कुछ अपने पुराने दोस्तों से मुलाक़ात हुई तो सन्न रह गया . जनवादी जनादेश के बाद सत्ता में आयी कम्युनिस्ट पार्टियों की राजनीति की चिन्दियाँ हवा में नज़र आने लगीं. नंदीग्राम की कथा का ज़िक्र हुआ तो अपन दिल्ली टाइप पत्रकार की समझ को लेकर पिल पड़े और ममता बनर्जी के खिलाफ ज़हर उगलने का काम शुरू कर दिया .और कहा कि इस छात्र परिषद् टाइप महिला ने फिर उन्हीं गुंडों का राज कायम करने का मसौदा बना लिया है जिन्होंने सिद्धार्थ शंकर राय के ज़माने में बंगाल को क़त्लगाह बना दिया था . लेकिन अपने दोस्त ने रोक दिया और समझाया कि ऐसा नहीं है . नंदीग्राम में जब तूफ़ान शुरू हुआ तो वहां एक भी आदमी तृणमूल कांग्रेस का सदस्य नहीं था . जो लोग वहां वामपंथी सरकार के खिलाफ उठ खड़े हुए थे वे सभी सी पी एम के मेम्बर थे. और वे वहां के सी पी एम के मुकामी नेताओं के खिलाफ उठ खड़े हुए थे . कोलकता की राइटर्स बिल्डिंग में बैठे बाबू लोगों को जनता का उठ खड़ा होना नागवार गुज़रा और अपनी पार्टी के मुकामी ठगों को बचाने के लिए सरकारी पुलिस आदि का इस्तेमाल होने लगा . सच्ची बात यह है कि वहां सी पी एम के दबदबे के वक़्त में तो वाम मोर्चे के अलावा और किसी पार्टी का कोई बंदा घुस ही नहीं सकता था. जब नंदीग्राम के लोग सडकों पर आ गए तो उनकी नाराजगी का लाभ उठाने के लिए तृणमूल कांग्रेस ने प्रयास शुरू किया और अब वहां सी पी एम के लोग भागे भागे फिर रहे हैं . इस सूचना का मेरे ऊपर पूरा असर पड़ा . वामपंथी रुझान की वजह से चीज़ों को सही परिदृश्य में समझने की आदत के तहत और भी सवाल दिमाग में उठने लगे. सी पी एम के पुराने सहयोगी और बंगला के महान साहित्यकार सुभाष मुखोपाध्याय का भी ज़िक्र हुआ जिनका ममता को सही कहना बहुत ही अजीब माना गया था लेकिन फिर परत दर परत बातें साफ़ होने लगीं. और समझ में आ गया कि अब वहां का भद्रलोक कम्युनिस्ट पार्टियों के रास्ते ज़मींदारी प्रथा को कायम करना चाहता है . पश्चिम बंगाल का आम आदमी ज़मींदारी स्थापित करने की इसी वामपंथी कोशिश के खिलाफ उठ खड़ा हुआ है . ममता बनर्जी का राजनीतिक उदय इसी नेगेटिव राजनीति का नतीजा है . इसमें दो राय नहीं है कि उनकी पार्टी में भी जो लोग शामिल हैं वे उसी तरह की राजनीतिक फसल काटना चाह रहे हैं जो पिछले दस साल से कम्युनिस्ट पार्टियों के लोग काट रहे हैं . आशंका यह भी है कि वे मौजूदा राजनीतिक गुंडों से ज्यादा खतरनाक होंगें लेकिन जनता को तो फिलहाल मौजूदा बदमाशों की राजनीति को ख़त्म करना है .
कम्युनिस्ट पार्टी के आतंक का अंदाज़ इसी से लगाया जा सकता है कि कोई भी सरकारी अफसर अपनी मर्जी से कोई काम नहीं कर सकता . महानगरों में तो कम लेकिन गाँवों में इस आतंक का बाकायदा नंगा नाच हो रहा है . वहां तैनात बी डी ओ को लोकल पार्टी यूनिट के सेक्रेटरी से पूछे बिना कोई काम करने की अनुमति नहीं है . यहाँ तक कि उसको सरकारी काम के लिए जो जीप मिलती है उसकी चाभी भी पार्टी के अधिकारी के पास होती है .यानी पार्टी के हुकुम के बिना वह अपने रोज़मर्रा के काम भी नहीं कर सकता .सरकारी नौकरियों के मामले में तो चौतरफा आतंक का ही राज है . एक दिलचस्प वाक़या एक बहुत करीबी दोस्त से सुनने को मिला. नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अमर्त्य सेन अपनी मातृभूमि से बहुत मुहब्बत करते हैं .इंसानी जीवन से वह सब कुछ पा चुके हैं जिसके बारे में लोग सपने देखते हैं . एक बार उन्होंने पश्चिम बंगाल के मुख्य मंत्री से इच्छा ज़ाहिर की वे जादवपुर विश्वविद्यालय से किसी रूप में जुड़ना चाहते हैं . मुख्यमंत्री ने उत्साहित होकर सुझाया कि उन्हें वाइस चांसलर ही बनना चाहिए .इस से जादवपुर और वाम मोर्च सरकार का नाम होगा लेकिन पार्टी दफतर में बैठे मुंशी टाइप लोगों ने कहा कि मुख्य मंत्री को इस तरह की नियुक्ति करने का पावर नहीं है. पार्टी की एजुकेशन ब्रांच जांच करेगी. उसके बाद सरकार को फैसला लेने दिया जाएगा .खैर एजुकेशन ब्रांच के लोग बैठे और सोच विचार के बाद अमर्त्य सेन के नाम को खारिज कर दिया . जब किसी ने पूछा कि ऐसा क्यों किया जा रहा है तो जवाब मिला कि अमर्त्य सेन पार्टी के मेंबर नहीं है इसलिए उन्हें इतने महत्वपूर्ण पद पर नहीं तैनात किया जा सकता .यह है पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टी की दखलंदाजी का हाल. इस खबर के बाद समझ में आने लगा है कि ज्योति बासु को किस दम्भी मानसिकता ने प्रधान मंत्री पद तक पंहुचने से रोका था. अब सभी मानते हैं कि अगर ज्योति बाबू प्रधान मंत्री बन गए होते तो इतनी दुर्दशा नहीं होती और कम्युनिस्ट आन्दोलन का राजनीतिक फायदा हुआ होता लेकिन उस वक़्त तो दंभ अपने मानवीकृत रूप में नई दिल्ली के एकेजी भवन और कोलकाता की अलीमुद्दीन स्ट्रीट में तांडव कर रहा था.
पश्चिम बंगाल में आज कोई भी सरकारी नौकरी किसी ऐसे आदमी को नहीं मिल सकती जो वामपंथी मोर्चे की किसी पार्टी का मेंबर नहीं है . सारे टेस्ट सारे इम्तिहान पास कर लेने के बाद इंटरव्यू के वक़्त बोर्ड में पार्टी की तरफ से कोई लिस्ट आ जाती है जिसमें लिखे नामों पर बोर्ड को मुहर लगानी होती है . उसके बाहर के किसी आदमी को नौकरी नहीं दी जा सकती. पश्चिम बंगाल में लोगों के बीच वाम मोर्चे से नाराजगी है उसके पीछे इसी मानसिकता का योगदान है . सी पी एम के शुभ चिंतकों का मानना भी है कि पश्चिम बंगाल में आज सर्वहारा की पार्टी का कहीं नामो निशान नहीं है. १९७० के दशक के कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं की तीसरी पीढी के लोग उसी तरह से लूट पाट कर रहे हैं जैसे ६० और सत्तर के दशक में कांग्रेसियों ने किया था . उनके जवाब में नक्सलवादी आन्दोलन शुरू हुआ था और इनकी जवाब में माओवादी उठ खड़े हुए हैं . आने वाला कल दिलचस्प होगा क्योंकि छात्र परिषद् की बदमाशी की राजनीति सीख चुके लोगों की सत्ता आने के बाद उनके लोग भी उसी तरह की लूट पाट मचाएगें लेकिन उम्मीद की जानी चाहिये कि उसके बाद शायद जो सिंथेसिस बने उस से पश्चिम बंगाल में सही मायनों में जनवादी सरकार बन सकेगी ,
बहुत साल बाद कोलकाता जाने का मौक़ा लगा .तीन दिन की इस कोलकाता यात्रा ने कई भ्रम साफ़ कर दिया. ज्यादा लोगों से न मिलने का फायदा भी होता है . बातें बहुत साफ़ नज़र आने लगती हैं . १९७८ में आपरेशन बर्गा पर एक परचा लिखने के बाद अपने आपको ग्रामीण पश्चिम बंगाल का ज्ञाता मानने की बेवकूफी मैं पहले भी कर चुका हू. कई बार अपने आप से यह कह चुका हूँ कि आगे से सर्वज्ञ होने की शेखी नहीं पालेगें लेकिन फिर भी मुगालता ऐसी बीमारी है जिसका जड़तोड़ इलाज़ होता ही नहीं . एक बार दिमाग दुरुस्त होता है ,फिर दुबारा वही हाल तारी हो जाता है. इसलिए मेरे अन्दर पिछले कुछ महीनों से फिर सर्वज्ञता की बीमारी के लक्षण दिखने लगे थे . १४ फरवरी को कोलकाता पंहुचा ,सब कुछ अच्छा लग रहा था . जनता के राज के ३३ साल बहुत अच्छे लग रहे थे. लेकिन जब वहां कुछ अपने पुराने दोस्तों से मुलाक़ात हुई तो सन्न रह गया . जनवादी जनादेश के बाद सत्ता में आयी कम्युनिस्ट पार्टियों की राजनीति की चिन्दियाँ हवा में नज़र आने लगीं. नंदीग्राम की कथा का ज़िक्र हुआ तो अपन दिल्ली टाइप पत्रकार की समझ को लेकर पिल पड़े और ममता बनर्जी के खिलाफ ज़हर उगलने का काम शुरू कर दिया .और कहा कि इस छात्र परिषद् टाइप महिला ने फिर उन्हीं गुंडों का राज कायम करने का मसौदा बना लिया है जिन्होंने सिद्धार्थ शंकर राय के ज़माने में बंगाल को क़त्लगाह बना दिया था . लेकिन अपने दोस्त ने रोक दिया और समझाया कि ऐसा नहीं है . नंदीग्राम में जब तूफ़ान शुरू हुआ तो वहां एक भी आदमी तृणमूल कांग्रेस का सदस्य नहीं था . जो लोग वहां वामपंथी सरकार के खिलाफ उठ खड़े हुए थे वे सभी सी पी एम के मेम्बर थे. और वे वहां के सी पी एम के मुकामी नेताओं के खिलाफ उठ खड़े हुए थे . कोलकता की राइटर्स बिल्डिंग में बैठे बाबू लोगों को जनता का उठ खड़ा होना नागवार गुज़रा और अपनी पार्टी के मुकामी ठगों को बचाने के लिए सरकारी पुलिस आदि का इस्तेमाल होने लगा . सच्ची बात यह है कि वहां सी पी एम के दबदबे के वक़्त में तो वाम मोर्चे के अलावा और किसी पार्टी का कोई बंदा घुस ही नहीं सकता था. जब नंदीग्राम के लोग सडकों पर आ गए तो उनकी नाराजगी का लाभ उठाने के लिए तृणमूल कांग्रेस ने प्रयास शुरू किया और अब वहां सी पी एम के लोग भागे भागे फिर रहे हैं . इस सूचना का मेरे ऊपर पूरा असर पड़ा . वामपंथी रुझान की वजह से चीज़ों को सही परिदृश्य में समझने की आदत के तहत और भी सवाल दिमाग में उठने लगे. सी पी एम के पुराने सहयोगी और बंगला के महान साहित्यकार सुभाष मुखोपाध्याय का भी ज़िक्र हुआ जिनका ममता को सही कहना बहुत ही अजीब माना गया था लेकिन फिर परत दर परत बातें साफ़ होने लगीं. और समझ में आ गया कि अब वहां का भद्रलोक कम्युनिस्ट पार्टियों के रास्ते ज़मींदारी प्रथा को कायम करना चाहता है . पश्चिम बंगाल का आम आदमी ज़मींदारी स्थापित करने की इसी वामपंथी कोशिश के खिलाफ उठ खड़ा हुआ है . ममता बनर्जी का राजनीतिक उदय इसी नेगेटिव राजनीति का नतीजा है . इसमें दो राय नहीं है कि उनकी पार्टी में भी जो लोग शामिल हैं वे उसी तरह की राजनीतिक फसल काटना चाह रहे हैं जो पिछले दस साल से कम्युनिस्ट पार्टियों के लोग काट रहे हैं . आशंका यह भी है कि वे मौजूदा राजनीतिक गुंडों से ज्यादा खतरनाक होंगें लेकिन जनता को तो फिलहाल मौजूदा बदमाशों की राजनीति को ख़त्म करना है .
कम्युनिस्ट पार्टी के आतंक का अंदाज़ इसी से लगाया जा सकता है कि कोई भी सरकारी अफसर अपनी मर्जी से कोई काम नहीं कर सकता . महानगरों में तो कम लेकिन गाँवों में इस आतंक का बाकायदा नंगा नाच हो रहा है . वहां तैनात बी डी ओ को लोकल पार्टी यूनिट के सेक्रेटरी से पूछे बिना कोई काम करने की अनुमति नहीं है . यहाँ तक कि उसको सरकारी काम के लिए जो जीप मिलती है उसकी चाभी भी पार्टी के अधिकारी के पास होती है .यानी पार्टी के हुकुम के बिना वह अपने रोज़मर्रा के काम भी नहीं कर सकता .सरकारी नौकरियों के मामले में तो चौतरफा आतंक का ही राज है . एक दिलचस्प वाक़या एक बहुत करीबी दोस्त से सुनने को मिला. नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अमर्त्य सेन अपनी मातृभूमि से बहुत मुहब्बत करते हैं .इंसानी जीवन से वह सब कुछ पा चुके हैं जिसके बारे में लोग सपने देखते हैं . एक बार उन्होंने पश्चिम बंगाल के मुख्य मंत्री से इच्छा ज़ाहिर की वे जादवपुर विश्वविद्यालय से किसी रूप में जुड़ना चाहते हैं . मुख्यमंत्री ने उत्साहित होकर सुझाया कि उन्हें वाइस चांसलर ही बनना चाहिए .इस से जादवपुर और वाम मोर्च सरकार का नाम होगा लेकिन पार्टी दफतर में बैठे मुंशी टाइप लोगों ने कहा कि मुख्य मंत्री को इस तरह की नियुक्ति करने का पावर नहीं है. पार्टी की एजुकेशन ब्रांच जांच करेगी. उसके बाद सरकार को फैसला लेने दिया जाएगा .खैर एजुकेशन ब्रांच के लोग बैठे और सोच विचार के बाद अमर्त्य सेन के नाम को खारिज कर दिया . जब किसी ने पूछा कि ऐसा क्यों किया जा रहा है तो जवाब मिला कि अमर्त्य सेन पार्टी के मेंबर नहीं है इसलिए उन्हें इतने महत्वपूर्ण पद पर नहीं तैनात किया जा सकता .यह है पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टी की दखलंदाजी का हाल. इस खबर के बाद समझ में आने लगा है कि ज्योति बासु को किस दम्भी मानसिकता ने प्रधान मंत्री पद तक पंहुचने से रोका था. अब सभी मानते हैं कि अगर ज्योति बाबू प्रधान मंत्री बन गए होते तो इतनी दुर्दशा नहीं होती और कम्युनिस्ट आन्दोलन का राजनीतिक फायदा हुआ होता लेकिन उस वक़्त तो दंभ अपने मानवीकृत रूप में नई दिल्ली के एकेजी भवन और कोलकाता की अलीमुद्दीन स्ट्रीट में तांडव कर रहा था.
पश्चिम बंगाल में आज कोई भी सरकारी नौकरी किसी ऐसे आदमी को नहीं मिल सकती जो वामपंथी मोर्चे की किसी पार्टी का मेंबर नहीं है . सारे टेस्ट सारे इम्तिहान पास कर लेने के बाद इंटरव्यू के वक़्त बोर्ड में पार्टी की तरफ से कोई लिस्ट आ जाती है जिसमें लिखे नामों पर बोर्ड को मुहर लगानी होती है . उसके बाहर के किसी आदमी को नौकरी नहीं दी जा सकती. पश्चिम बंगाल में लोगों के बीच वाम मोर्चे से नाराजगी है उसके पीछे इसी मानसिकता का योगदान है . सी पी एम के शुभ चिंतकों का मानना भी है कि पश्चिम बंगाल में आज सर्वहारा की पार्टी का कहीं नामो निशान नहीं है. १९७० के दशक के कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं की तीसरी पीढी के लोग उसी तरह से लूट पाट कर रहे हैं जैसे ६० और सत्तर के दशक में कांग्रेसियों ने किया था . उनके जवाब में नक्सलवादी आन्दोलन शुरू हुआ था और इनकी जवाब में माओवादी उठ खड़े हुए हैं . आने वाला कल दिलचस्प होगा क्योंकि छात्र परिषद् की बदमाशी की राजनीति सीख चुके लोगों की सत्ता आने के बाद उनके लोग भी उसी तरह की लूट पाट मचाएगें लेकिन उम्मीद की जानी चाहिये कि उसके बाद शायद जो सिंथेसिस बने उस से पश्चिम बंगाल में सही मायनों में जनवादी सरकार बन सकेगी ,
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Saturday, August 14, 2010
क्या इसी नेतृत्व के साथ किया जायेगा फासिस्टों से मुकाबला
शेष नारायण सिंह
पश्चिम बंगाल में सरकार गँवा देने के मुहाने पर खडी मार्क्सवादी काम्युनिस्ट पार्टी को अपनी एक और ऐतिहासिक भूल का पता लग गया है . पार्टी के लगभग सभी बड़े नेता आन्ध्र प्रदेश के नगर ,विजयवाड़ा में मिले और स्वीकार किया कि यू पी ए सरकार से समर्थन वापस लेने में देर हो गयी . पार्टी को लगता है कि समर्थन उसी वक़्त वापस ले लेना चाहिए था जब यू पी ए -प्रथम सरकार अमरीका से परमाणु समझौता करने का मंसूबा ही बना रही थी. अफ़सोस ज़ाहिर करते हुए कहा गया है कि पार्टी के पोलित ब्यूरो और सेन्ट्रल कमेटी ने इस बात का सही आकलन नहीं किया कि मनमोहन सिंह की उस वक़्त की सरकार का इरादा कितना पक्का है . इसलिए गलती हो गयी. ज़ाहिर है कि मार्क्सवादी पार्टी ने अपनी एक और ऐतिहासिक भूल को स्वीकार कर लिया है . इसके पहले भी यह पार्टी कई ऐतिहासिक भूलें कर चुकी है लेकिन इस भूल का रंग थोडा अलग है . जब १९९६ में ज्योति बसु को मुख्य मंत्री बनने से रोका गया था ,उसे भी सी पी एम के आर्काइव्ज़ में एक बड़ी ऐतिहासिक भूल की श्रेणी में रख दिया गया है . उस भूल के सूत्रधार भी आज के महासचिव , प्रकाश करात को माना जाता है लेकिन उन दिनों वे परदे के पीछे से अपना काम करते थे. . अब खेल बदल गया है . वे खुद ही पार्टी के आला अफसर हैं और जो मन में आता है उसी को नीति बनाकर पेश कर देते हैं . इसलिए जब परमाणु समझौते के मुद्दे पर मनमोहन सिंह सरकार को गिराने की बात आई तो वे पूरी तरह से कंट्रोल में थे. जिसने भी उनकी बात नहीं मानी उसको डांट दिया . महासचिव का फरमान आया कि पार्टी के बड़े नेता और लोक सभा के स्पीकर सोमनाथ चटर्जी अपना पद छोड़ दें . सोमनाथ जी ने पार्टी के सबसे आदरणीय नेता ज्योति बसु से राय ली और कहा कि अभी इस्तीफ़ा देना ठीक नहीं है क्योंकि स्पीकर तो पार्टी की राजनीति से ऊपर उठ चुका होता है.. करात बाबू को गुस्सा आ गया और उन्होंने सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निकाल दिया. अपनी जीवनीमें सोमनाथ चटर्जी ने उस वक़्त की तानाशाही की बात को विस्तार से लिखा है . मार्क्सवादी पार्टी के बड़े नेता और पार्टी से सहानुभूति रखने वाले बुद्धिजीवी मानते हैं कि वह फैसला इतना बेतुका था कि उसके घाव को वामपंथी आन्दोलन बहुत दिन तक झेलेगा. एक मत यह भी है कि पश्चिम बंगाल में पार्टी की हालत उसी दिन से बिगड़ना शुरू हो गयी थी जिस दिन सोमनाथ दा को निकाला गया था. अब विजयवाड़ा में पेश किये गए कागजों से पता चलता है कि पार्टी ने स्वीकार किया है कि ' पार्टी ने अपनी ताक़त को ज्यादा आंक लिया था, इसी वजह से गलती हो गयी . आत्मालोचन की इस बात में दम है . यह बात बिकुल सच है कि पार्टी ने अपनी ताक़त को बहुत बढ़ा चढ़ा कर आंक लिया था . पार्टी के आला हाकिम को मुगालता हो गया था कि वह मायावती, चन्द्रबाबू नायडू आदि नेताओं का नेता बन जाएगा और तीसरा मोर्चा एक सच्चाई बन जाएगा और जब चुनाव होगें तो चारो तरफ मार्क्सवादी पार्टी की ताक़त का डंका बज जाएगा. इस सारे खेल में सबसे अजीब बात यह है कि पार्टी के सबसे बड़े नेता के अलावा सब को मालूम था कि वह मुंगेरी लाल के हसीन सपने देख रहा है लेकिन उसे उस वक़्त रोकना असंभव था. केरल में एक भ्रष्ट नेता को ईमानदार साबित करने का प्रोजेक्ट भी उसी मनोदशा का नमूना है . बहर हाल अब पार्टी का लगभग सब कुछ ख़त्म होने को है . और अगर सोमनाथ चटर्जी की बात का विश्वास करें तो इसके लिए जिम्मेवार केवल प्रकाश करात हैं . उनका कहना है कि पार्टी के वर्तमान महासचिव में दंभ बहुत ज्यादा है और वे अपनी बात के सामने किसी को सही नहीं मानते. उनकी दूसरी सबसे बड़ी दिक्क़त यह है कि वे किसी तरह के विरोध को बर्दाश्त नहीं कर पाते और विरोध करने वाले को दुश्मन मान बैठते हैं. बहर हाल विजयवाड़ा में एक बार फिर यह तय किया गया है कि गैर कांग्रेस-गैर बी जे पी विकल्प की तलाश जारी रहेगी . अब जब कुछ महीनों बाद बंगाल में भी सत्ता लुट जायगी तो इस काम को करने के लिए बड़ी संख्या में नेता भी मिल जायेगें और एक बार फिर जनवादी राजनीति को ज़मीन पर विकास का मौक़ा दिया जाएगा . इस बार बस फर्क इतना है कि आर एस एस की रहनुमाई में फासिस्ट ताकतें पहले से बहुत ज्यादा मज़बूत हैं और एक आदमी की जिद के चलते कम्युनिस्ट पार्टियां बहुत कमज़ोर हो चुकी हैं
पश्चिम बंगाल में सरकार गँवा देने के मुहाने पर खडी मार्क्सवादी काम्युनिस्ट पार्टी को अपनी एक और ऐतिहासिक भूल का पता लग गया है . पार्टी के लगभग सभी बड़े नेता आन्ध्र प्रदेश के नगर ,विजयवाड़ा में मिले और स्वीकार किया कि यू पी ए सरकार से समर्थन वापस लेने में देर हो गयी . पार्टी को लगता है कि समर्थन उसी वक़्त वापस ले लेना चाहिए था जब यू पी ए -प्रथम सरकार अमरीका से परमाणु समझौता करने का मंसूबा ही बना रही थी. अफ़सोस ज़ाहिर करते हुए कहा गया है कि पार्टी के पोलित ब्यूरो और सेन्ट्रल कमेटी ने इस बात का सही आकलन नहीं किया कि मनमोहन सिंह की उस वक़्त की सरकार का इरादा कितना पक्का है . इसलिए गलती हो गयी. ज़ाहिर है कि मार्क्सवादी पार्टी ने अपनी एक और ऐतिहासिक भूल को स्वीकार कर लिया है . इसके पहले भी यह पार्टी कई ऐतिहासिक भूलें कर चुकी है लेकिन इस भूल का रंग थोडा अलग है . जब १९९६ में ज्योति बसु को मुख्य मंत्री बनने से रोका गया था ,उसे भी सी पी एम के आर्काइव्ज़ में एक बड़ी ऐतिहासिक भूल की श्रेणी में रख दिया गया है . उस भूल के सूत्रधार भी आज के महासचिव , प्रकाश करात को माना जाता है लेकिन उन दिनों वे परदे के पीछे से अपना काम करते थे. . अब खेल बदल गया है . वे खुद ही पार्टी के आला अफसर हैं और जो मन में आता है उसी को नीति बनाकर पेश कर देते हैं . इसलिए जब परमाणु समझौते के मुद्दे पर मनमोहन सिंह सरकार को गिराने की बात आई तो वे पूरी तरह से कंट्रोल में थे. जिसने भी उनकी बात नहीं मानी उसको डांट दिया . महासचिव का फरमान आया कि पार्टी के बड़े नेता और लोक सभा के स्पीकर सोमनाथ चटर्जी अपना पद छोड़ दें . सोमनाथ जी ने पार्टी के सबसे आदरणीय नेता ज्योति बसु से राय ली और कहा कि अभी इस्तीफ़ा देना ठीक नहीं है क्योंकि स्पीकर तो पार्टी की राजनीति से ऊपर उठ चुका होता है.. करात बाबू को गुस्सा आ गया और उन्होंने सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निकाल दिया. अपनी जीवनीमें सोमनाथ चटर्जी ने उस वक़्त की तानाशाही की बात को विस्तार से लिखा है . मार्क्सवादी पार्टी के बड़े नेता और पार्टी से सहानुभूति रखने वाले बुद्धिजीवी मानते हैं कि वह फैसला इतना बेतुका था कि उसके घाव को वामपंथी आन्दोलन बहुत दिन तक झेलेगा. एक मत यह भी है कि पश्चिम बंगाल में पार्टी की हालत उसी दिन से बिगड़ना शुरू हो गयी थी जिस दिन सोमनाथ दा को निकाला गया था. अब विजयवाड़ा में पेश किये गए कागजों से पता चलता है कि पार्टी ने स्वीकार किया है कि ' पार्टी ने अपनी ताक़त को ज्यादा आंक लिया था, इसी वजह से गलती हो गयी . आत्मालोचन की इस बात में दम है . यह बात बिकुल सच है कि पार्टी ने अपनी ताक़त को बहुत बढ़ा चढ़ा कर आंक लिया था . पार्टी के आला हाकिम को मुगालता हो गया था कि वह मायावती, चन्द्रबाबू नायडू आदि नेताओं का नेता बन जाएगा और तीसरा मोर्चा एक सच्चाई बन जाएगा और जब चुनाव होगें तो चारो तरफ मार्क्सवादी पार्टी की ताक़त का डंका बज जाएगा. इस सारे खेल में सबसे अजीब बात यह है कि पार्टी के सबसे बड़े नेता के अलावा सब को मालूम था कि वह मुंगेरी लाल के हसीन सपने देख रहा है लेकिन उसे उस वक़्त रोकना असंभव था. केरल में एक भ्रष्ट नेता को ईमानदार साबित करने का प्रोजेक्ट भी उसी मनोदशा का नमूना है . बहर हाल अब पार्टी का लगभग सब कुछ ख़त्म होने को है . और अगर सोमनाथ चटर्जी की बात का विश्वास करें तो इसके लिए जिम्मेवार केवल प्रकाश करात हैं . उनका कहना है कि पार्टी के वर्तमान महासचिव में दंभ बहुत ज्यादा है और वे अपनी बात के सामने किसी को सही नहीं मानते. उनकी दूसरी सबसे बड़ी दिक्क़त यह है कि वे किसी तरह के विरोध को बर्दाश्त नहीं कर पाते और विरोध करने वाले को दुश्मन मान बैठते हैं. बहर हाल विजयवाड़ा में एक बार फिर यह तय किया गया है कि गैर कांग्रेस-गैर बी जे पी विकल्प की तलाश जारी रहेगी . अब जब कुछ महीनों बाद बंगाल में भी सत्ता लुट जायगी तो इस काम को करने के लिए बड़ी संख्या में नेता भी मिल जायेगें और एक बार फिर जनवादी राजनीति को ज़मीन पर विकास का मौक़ा दिया जाएगा . इस बार बस फर्क इतना है कि आर एस एस की रहनुमाई में फासिस्ट ताकतें पहले से बहुत ज्यादा मज़बूत हैं और एक आदमी की जिद के चलते कम्युनिस्ट पार्टियां बहुत कमज़ोर हो चुकी हैं
Sunday, May 30, 2010
माओवादी आतंक को राजनीतिक जवाब देना होगा
शेष नारायण सिंह
पश्चिम बंगाल में एक और ट्रेन हाद्से का शिकार हो गयी . पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री समेत शासक वर्गों के सभी प्रतिनिधियों ने कहा कि माओवादियों ने किया . ऐसा करने से इन सत्ताधीशों को बड़ी राहत मिल गयी . अब जब भी इस हादसे की जांच का स्वांग रचाया जाएगा तो जांच एजेंसी वालों को मालूम रहेगा कि सत्ताधीशों की क्या मर्जी है .आम तौर पर होता यह है कि जब भी कोई आतंकवादी संगठन इस तरह के धमाके करता है तो वह उसकी ज़िम्मेदारी लेता है . वह यह काम करता ही प्रचार के लिए है . लेकिन जब कोई आतंकवादी संगठन ज़िम्मेदारी नहीं ले रहा है तो बात गंभीर हो जाती है . इसमें देश के दुश्मनों का हाथ हो सकता है .सवाल पैदा होता है कि यह हमारे नेता लोग बिना किसी तरह की जांच पड़ताल कराये कैसे जान लेते हैं कि किसने किया विस्फोट , किसने की तबाही ? यह निहायत ही गैर जिम्मेदाराना रवैया है और इस पर लगाम लगाई जानी चाहिए. कोलकता से दिल्ली तक बैठे इन नेताओं को किसने बता दिया कि ट्रेन पर हमला माओवादियों ने किया था. यहाँ माओवादियों को दोषमुक्त करने की कोई कोशिश नहीं की जा रही है लेकिन सत्ता पर काबिज़ लोग जिनके पास सारी ताक़त है उन्हें बिना किसी बुनियाद के किसी को अपराधी घोषित नहीं करना चाहिए क्योंकि इस में सबसे बड़ा ख़तरा है कि अपराधी बच जाते हैं और जांच गलत दिशा में चल पड़ती है . खडग पुर के पास हुए ट्रेन हादसे में मारे गए लोगों को जिसने भी मारा है , वह अपराधी है . ट्रेन में सभी सीधे सादे लोग थे. उसको उड़ा देने की कोशिश करने वाले अपराधी को पकड़ कर कानून के अनुसार सख्त से सख्त सज़ा दी जानी चाहिये . उसकी सजा वही होनी चाहिए जो ७८ लोगों का क़त्ल करने वाले की हो . लेकिन बिना यह पता लगाए कि हत्या किसने की है , यह नहीं किया जाना चाहिए .हाँ , इस तरह के हादसों के लिए जो सरकारें ज़िम्मेदार हैं उनको भी सख्त से सख्त सज़ा देने के बारे में बहस शुरू हो जानी चाहिए . उसमें नक्सलवाद को बढ़ावा देने वालों को सज़ा देने के अलावा ठीक से सरकार न चला पाने वालों को भी दण्डित किये जाने का प्रावधान होना चाहिए .
नक्सलवाद और उस से जुड़े मुद्दों की एक बार फिर पड़ताल की ज़रुरत है . कुछ बुद्धिजीवियों का एक वर्ग आजकल यह कहता पाया जाता है कि देश के आदिवासी इलाकों में जो शोषित पीड़ित गरीब जनता रहती है उसने अपनी स्थिति को सुधारने के लिए आतंकवाद का रास्ता अपनाया है और वे नक्सलियों से मिलकर सत्ता के केन्द्रों को कमज़ोर कर रहे हैं . वे बहुत गरीब हैं और अब उन्होंने हथियार उठा लिये है . यह तर्क बिलकुल बोगस है और साधारणीकरण के भयानक दोष से ग्रस्त है . इसका मतलब यह हुआ कि जो भी गरीब होगा हथियार उठा लेगा . इस लिए इस तर्क को आगे बढाने की ज़रुरत नहीं है . आदिवासी इलाकों के शोषण और खनिज सम्पदा के बेजा दोहन के लिए सरकारों को ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए , पूंजीवादी मानसिकता के सत्ताधीशों की इलीट सोच को दोषी ठहराया जाना चाहिए और जागरूक लोगों को बड़े पैमाने पर आन्दोलन शुरू करने की कोशिश करनी चाहिए . यहाँ यह भी समझ लेने की ज़रूरत है कि माओवाद के नाम पर आदिवासी इलाकों के गरीब , बेरोजगार नौजवानों को फंसाने वाले तथाकथित माओवादियों को भी एक्सपोज़ करने की ज़रुरत है .. वामपंथी राजनीति की वैज्ञानिक सोच से विचलित हुए ये संशोधनवादी अपने निजी स्वार्थ को पूरा करने के लिए इन गरीब आदिवासियों को चारे की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं . आज ही कुछ अखबारों के संवाददाताओं ने आदिवासी इलाकों में सक्रिय माओवादी हथियारबंद नौजवानों से बातचीत करके खबर दी है कि उन लड़कों को यह माओवादी नेता लोगों को मार डालने केलिए भेजते हैं लेकिन यह नहीं बताते कि क्यों मार डालना है . यानी यह तथाकथित माओवादी नेता इन नौजवानों का इस्तेमाल शार्प शूटर की तरह कर रहे हैं . ज़ाहिर है कि अपनी राजनीतिक किलेबंदी के लिए वे इन लोगों को इस्तेमाल कर रहे हैं .इतने शातिर दिमाग दिग्भ्रमित कम्युनिस्टों की चाल को बेनकाब करने के लिए अपनाई जाने वाली रण नीति में गोली बन्दूक को प्रातामिकता देना ठीक नहीं है . क्योंकि अगर चिदंबरम साहेब वाला कार्यक्रम चल पड़ा कि हवाई हमले करके इन माओवादियों को मारो , तो मारे यही गरीब आदिवासी जायेंगें जिनका पिछले कई वर्षों से बूढ़े माओवादी नेता इस्तेमाल कर रहे हैं . लेकिन दिल्ली और कोलकता की सरकारें भी इन माओवादी नेताओं से कम ज़िम्मेदार नहीं है .पूंजीवादी पार्टियां और कम्युनिस्ट विचारधारा की सभी पार्टियां, माओवादी आतंक में बढ़ोतरी के लिए ज़िम्मेदार हैं इसलिए इन सब के खिलाफ जनता और जागरूक पब्लिक ओपिनियन को लामबंद होना पड़ेगा और दिशा भ्रम के मरीज़ इन माओवादियों और गैर ज़िम्मेदार सरकारों को सच्चाई से रू ब रू करवाना पड़ेगा.
पश्चिम बंगाल में एक और ट्रेन हाद्से का शिकार हो गयी . पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री समेत शासक वर्गों के सभी प्रतिनिधियों ने कहा कि माओवादियों ने किया . ऐसा करने से इन सत्ताधीशों को बड़ी राहत मिल गयी . अब जब भी इस हादसे की जांच का स्वांग रचाया जाएगा तो जांच एजेंसी वालों को मालूम रहेगा कि सत्ताधीशों की क्या मर्जी है .आम तौर पर होता यह है कि जब भी कोई आतंकवादी संगठन इस तरह के धमाके करता है तो वह उसकी ज़िम्मेदारी लेता है . वह यह काम करता ही प्रचार के लिए है . लेकिन जब कोई आतंकवादी संगठन ज़िम्मेदारी नहीं ले रहा है तो बात गंभीर हो जाती है . इसमें देश के दुश्मनों का हाथ हो सकता है .सवाल पैदा होता है कि यह हमारे नेता लोग बिना किसी तरह की जांच पड़ताल कराये कैसे जान लेते हैं कि किसने किया विस्फोट , किसने की तबाही ? यह निहायत ही गैर जिम्मेदाराना रवैया है और इस पर लगाम लगाई जानी चाहिए. कोलकता से दिल्ली तक बैठे इन नेताओं को किसने बता दिया कि ट्रेन पर हमला माओवादियों ने किया था. यहाँ माओवादियों को दोषमुक्त करने की कोई कोशिश नहीं की जा रही है लेकिन सत्ता पर काबिज़ लोग जिनके पास सारी ताक़त है उन्हें बिना किसी बुनियाद के किसी को अपराधी घोषित नहीं करना चाहिए क्योंकि इस में सबसे बड़ा ख़तरा है कि अपराधी बच जाते हैं और जांच गलत दिशा में चल पड़ती है . खडग पुर के पास हुए ट्रेन हादसे में मारे गए लोगों को जिसने भी मारा है , वह अपराधी है . ट्रेन में सभी सीधे सादे लोग थे. उसको उड़ा देने की कोशिश करने वाले अपराधी को पकड़ कर कानून के अनुसार सख्त से सख्त सज़ा दी जानी चाहिये . उसकी सजा वही होनी चाहिए जो ७८ लोगों का क़त्ल करने वाले की हो . लेकिन बिना यह पता लगाए कि हत्या किसने की है , यह नहीं किया जाना चाहिए .हाँ , इस तरह के हादसों के लिए जो सरकारें ज़िम्मेदार हैं उनको भी सख्त से सख्त सज़ा देने के बारे में बहस शुरू हो जानी चाहिए . उसमें नक्सलवाद को बढ़ावा देने वालों को सज़ा देने के अलावा ठीक से सरकार न चला पाने वालों को भी दण्डित किये जाने का प्रावधान होना चाहिए .
नक्सलवाद और उस से जुड़े मुद्दों की एक बार फिर पड़ताल की ज़रुरत है . कुछ बुद्धिजीवियों का एक वर्ग आजकल यह कहता पाया जाता है कि देश के आदिवासी इलाकों में जो शोषित पीड़ित गरीब जनता रहती है उसने अपनी स्थिति को सुधारने के लिए आतंकवाद का रास्ता अपनाया है और वे नक्सलियों से मिलकर सत्ता के केन्द्रों को कमज़ोर कर रहे हैं . वे बहुत गरीब हैं और अब उन्होंने हथियार उठा लिये है . यह तर्क बिलकुल बोगस है और साधारणीकरण के भयानक दोष से ग्रस्त है . इसका मतलब यह हुआ कि जो भी गरीब होगा हथियार उठा लेगा . इस लिए इस तर्क को आगे बढाने की ज़रुरत नहीं है . आदिवासी इलाकों के शोषण और खनिज सम्पदा के बेजा दोहन के लिए सरकारों को ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए , पूंजीवादी मानसिकता के सत्ताधीशों की इलीट सोच को दोषी ठहराया जाना चाहिए और जागरूक लोगों को बड़े पैमाने पर आन्दोलन शुरू करने की कोशिश करनी चाहिए . यहाँ यह भी समझ लेने की ज़रूरत है कि माओवाद के नाम पर आदिवासी इलाकों के गरीब , बेरोजगार नौजवानों को फंसाने वाले तथाकथित माओवादियों को भी एक्सपोज़ करने की ज़रुरत है .. वामपंथी राजनीति की वैज्ञानिक सोच से विचलित हुए ये संशोधनवादी अपने निजी स्वार्थ को पूरा करने के लिए इन गरीब आदिवासियों को चारे की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं . आज ही कुछ अखबारों के संवाददाताओं ने आदिवासी इलाकों में सक्रिय माओवादी हथियारबंद नौजवानों से बातचीत करके खबर दी है कि उन लड़कों को यह माओवादी नेता लोगों को मार डालने केलिए भेजते हैं लेकिन यह नहीं बताते कि क्यों मार डालना है . यानी यह तथाकथित माओवादी नेता इन नौजवानों का इस्तेमाल शार्प शूटर की तरह कर रहे हैं . ज़ाहिर है कि अपनी राजनीतिक किलेबंदी के लिए वे इन लोगों को इस्तेमाल कर रहे हैं .इतने शातिर दिमाग दिग्भ्रमित कम्युनिस्टों की चाल को बेनकाब करने के लिए अपनाई जाने वाली रण नीति में गोली बन्दूक को प्रातामिकता देना ठीक नहीं है . क्योंकि अगर चिदंबरम साहेब वाला कार्यक्रम चल पड़ा कि हवाई हमले करके इन माओवादियों को मारो , तो मारे यही गरीब आदिवासी जायेंगें जिनका पिछले कई वर्षों से बूढ़े माओवादी नेता इस्तेमाल कर रहे हैं . लेकिन दिल्ली और कोलकता की सरकारें भी इन माओवादी नेताओं से कम ज़िम्मेदार नहीं है .पूंजीवादी पार्टियां और कम्युनिस्ट विचारधारा की सभी पार्टियां, माओवादी आतंक में बढ़ोतरी के लिए ज़िम्मेदार हैं इसलिए इन सब के खिलाफ जनता और जागरूक पब्लिक ओपिनियन को लामबंद होना पड़ेगा और दिशा भ्रम के मरीज़ इन माओवादियों और गैर ज़िम्मेदार सरकारों को सच्चाई से रू ब रू करवाना पड़ेगा.
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Monday, February 1, 2010
पश्चिम बंगाल में विधान सभा चुनाव हार सकती हैं वामपंथी पार्टियां
शेष नारायण सिंह
ज्योति बसु के निधन से पश्चिम बंगाल की वामपंथी राजनीति में एक शून्य उभर आया है. हो सकता है यह शून्य इतना व्यापक हो जाए कि वामपंथी राजनीति के गढ़ पश्चिम बंगाल में ही वामपंथ इतना कमजोर पड़ जाए कि लालिकले पर लाल निशान फहराने की तमन्ना पश्चिम बंगाल में ही हवा हो जाए. -
दिल्ली में संपन्न ज्योति बसु की शोकसभा में उन्हें एक बहुत अच्छे राजनेता और एक कुशल प्रशासक के रूप में याद किया गया. वित्त मंत्री प्रणव मुख़र्जी ने करीब पांच दशक के अपने परिचय के हवाले से उन्हें एक बेहतरीन प्रशासक बताया और उनकी दूरदर्शिता के कुछ उदाहरण दिए. पश्चिम बंगाल में वामपंथी राजनीति को एक मज़बूत आन्दोलन और सरकार के रूप में स्थापित करने की ज्योति बाबू की योग्यता का बार बार ज़िक्र आया. सबने स्वीकार किया कि उन्होंने बंगाल के समाज को एक स्थिरता दी और राजनीतिक परिपक्वता का आलम तो यह था कि सन २००० में अपनी मर्जी से मुख्यमंत्री पद छोड़ दिया. लेकिन उनके मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद पश्चिम बंगाल की वामपंथी पार्टियां निश्चित रूप से कमज़ोर पड़ी हैं. हालांकि उनके रिटायर होने के बाद भी विधानसभा के दो चुनावों में लेफ्ट फ्रंट को सरकार बनाने लायक बहुमत मिला है लेकिन २०११ के चुनावों में कम्युनिस्ट पार्टियों की वह हैसियत नहीं रहने वाली है जो पिछले तीन दशकों से रही है. इस बात की पड़ताल की जानी चाहिए कि ऐसा क्यों हो रहा है.
जवाब तलाशने की कोशिश में बहुत सारे सवाल खड़े हो जाते हैं और ज्योति बसु के बाद के नेताओं में राजनीतिक अदूरदर्शिता के बहुत सारे निशान नज़र आने लगते हैं. २००६ के विधान सभा चुनावों के बाद जितने भी चुनाव हुए हैं उनमें लेफ्ट फ्रंट की हालत खस्ता ही है ..तुर्रा यह कि जनता के फैसले को उसकी गलती मान कर अपने आपको सही समझने की शुतुरमुर्गी सोच भी कम्युनिस्ट नेताओं के बयानों का स्थायी भाव बनी रही है. २००८ के पंचायत चुनावों में बुरी तरह से धुनी जाने के बाद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं ने कहा कि "पश्चिम बंगाल की जनता ने एक बहुत बड़ी गलती की है लेकिन यह गलती क्षणिक है" यानी उन्हें मुगालता था कि इस गलती को सुधार लिया जाएगा. लेकिन जनता ने यह गलतियाँ बार बार कीं. कई उपचुनाव हुए और नगरपालिका चुनावों में भी लेफ्ट फ्रंट को भारी चुनावी नुकसान हुआ तब जाकर कम्युनिस्ट नेताओं की समझ में आया कि यह जनता की गलती नहीं है.
वास्तव में वामपंथी नेतृत्व ने ऐसी गलतियाँ कर रखी हैं कि चुनावों में धुनाई का सिलसिला चलता ही रहेगा. लगातार जनता का समर्थन खो रहे नेताओं को अब शायद यह भी लगने लगा है कि जनता जो भी कर रही है वह अस्थायी नहीं है, वह अब वामपंथी राजनीति को अलविदा कहने की तैयारी में है. लेफ्ट फ्रंट से अवाम की नाराज़गी ज्योति बसु के मुख्यमंत्री पद छोड़ने के बाद से ही थी लेकिन खंडित विपक्ष की वजह से कुछ हो नहीं पाता था. लेफ्ट फ्रंट के उम्मीदवार सरकार बनाने लायक सीटें बटोरते रहे लेकिन जब परमाणु मुद्दे पर केंद्र की कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार को लेफ्ट फ्रंट ने गिराने की योजना बनायी तो एक नयी राजनीतिक तस्वीर सामने आ गयी. कांग्रेस ने तृणमूल कांग्रेस के साथ समझौता कर लिया और बंगाल में जो खंडित विपक्ष था वह अब एकमुश्त होने लगा. इस नयी राजनीतिक एकता की वजह से लेफ्ट फ्रंट को गंभीर झटके लगे. राज्य की राजनीति में सक्रिय सभी कम्युनिस्ट विरोधी जमातों ने इस नई ताक़त के साथ खड़े होने का फैसला किया. कुछ अति वामपंथी ताक़तों ने भी इस नए कांग्रेस-तृणमूल गठबंधन को समर्थन दिया और नतीजा सामने है .
२००६ के बाद हुए प्रत्येक चुनाव में हार का सामना कर चुकी कम्युनिस्ट पार्टियों के सामने २०११ के विधान सभा चुनाव में हार एक सच्चाई की शक्ल लेता जा रहा है..और इसका सबसे प्रमुख कारण यह है कि बंगाल के ग्रामीण इलाकों में लेफ्ट फ्रंट अब उतना लोकप्रिय नहीं रहा जितना कि ज्योति बसु के दौर में हुआ करता था. १९७७ में जब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में पश्चिम बंगाल में सरकार बनी थी तो बहुत सारे क्रांतिकारी काम हुए थे. खेती लायक ज़मीन जो कुछ लोगों के कब्जे में थी उसे धीरे धीरे आम किसानों के हाथ में देने का जो क्रांतिकारी कारनामा ज्योति बसु की सरकार ने किया था उसकी वजह से बंगाली समाज में बहुत सारे परिवर्तन आये थे. बटाईदारों के अधिकार को ऑपरेशन बर्गा के तहत जिस तरह से सुरक्षित किया गया था उसकी वजह से शहरों की तरफ भागने की गरीब आदमी की मजबूरी पर प्रभावी रोक लगा दी गयी थी. इसके अलावा ज्योति बसु ने गावों में अपने पार्टी के कार्यकर्ताओं की अगुवाई में एक मज़बूत पंचायती व्यवस्था कायम की थी. इस पंचायती इंतज़ाम का फायदा यह हुआ था कि ग्रामीण और ब्लाक स्तर पर मौजूद भ्रष्ट नौकरशाही से जनता को निजात मिल गयी थी लेकिन ३० साल बाद पार्टी की अगुवाई में बनाए गए न्याय करने के इस तंत्र का बहुत ही ज्यादा बेजा इस्तेमाल हो रहा है. अब इस व्यवस्था पर मुकामी गुंडों का क़ब्ज़ा है जो कम्युनिस्ट पार्टियों के सदस्य भी हैं. ममता बनर्जी ने इन्ही गुंडों के खिलाफ जनता को तैयार करने की कोशिश की और वे काफी हद तक सफल भी रहीं. नतीजा सामने है. वामपन्थी राजनीति के अगले दस्ते में गुंडों की बहुतायत से परेशान आम आदमी अब किसीभी चुनाव में लेफ्ट फ्रंट को दुरुस्त करने का मन बना चुका है. इस लिहाज़ से पश्चिम बंगाल विधानसभा का अगला चुनाव बहुत ही दिलचस्प होने वाला है..
पश्चिम बंगाल में सत्ताधारी लेफ्ट पार्टियों ने शुरू में जो क्रांतिकारी काम किये उसके बाद किसी नयी आईडिया को तरजीह नहीं दी गयी. ग्रामीण स्तर पर बने पार्टी के संगठन की वजह से चुनाव जीत रही कम्युनिस्ट पार्टियों ने इस बात की परवाह ही नहीं की कि ज़रा देखें कि कहीं गलती तो नहीं हो रही है. ग्रामीण बंगाल में अर्थव्यवस्था बहुत तेज़ी से बदल रही थी. खेती में इस्तेमाल होने वाली चीज़ें महंगी हो रही थीं लेकिन कोलकता और दिल्ली में बैठे कम्युनिस्ट महाप्रभुओं को सच्चाई की हवा तक नहीं लग रही थी. राज्य के ग्रामीण इलाकों में नयी किस्म के राजनीतिक समीकरण उभर रहे थे. और वामपंथी मोर्चा अपनी उसी नैतिक और राजनीतिक पूंजी के सहारे चुनाव जीतने की उम्मीद लगाए बैठा था जिसे ज्योति बसु ने ८० के दशक में सर्वहारा की पक्ष धरता के लिए कमाया था. हरकिशन सिंह सुरजीत की मृत्यु के बाद पार्टी का सर्वोच्च अधिकारी एक ऐसा व्यक्ति बन गया जिसकी मार्क्सवादी समझ का तो उसके विरोधी भी लोहा मानते हैं लेकिन राजनीति के व्यावहारिक पक्ष में वह सुरजीत की तुलना में कहीं नहीं पंहुचता था. लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष सोम नाथ चटर्जी के साथ व्यवहार और कांग्रेस से बेमतलब दुश्मनी करके उसे ममता बनर्जी के खेमे में धकेल देना ऐसे काम हैं जिन्हें राजनीतिक अदूरदर्शिता की श्रेणी में ही रखा जाएगा. क्योंकि अगर कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस एक न हुए होते तो नगर पालिका और पंचायत चुनावों में वामपंथियों की वैसी हार न हुई होती जिसकी वजह से वह आज कमज़ोर पड़ गया है. बंगाली समाज में राजनीति एक सांस्कृतिक काम भी होता है.
औद्योगीकरण और शहरीकरण के चक्कर में पड़े मुख्य मंत्री, बुद्ध देव भट्टाचार्य ने राजनीति के सांस्कृतिक पक्ष को नज़र अंदाज़ किया सिंगुर, नंदीग्राम और लाल गढ़ में वामा मोर्चा सरकार ने जो गलतियाँ कीं उसके नतीजे में बंगाली बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग उस से अलग हो गया और ममता बनर्जी के साथ खड़ा हो गया. ममता बनर्जी ने राज्य के बाहर और भीतर इन बुद्धिजीवियों के साथ आने से होने वाले फायदे को ख़ूब भुनाया. महाश्वेता देवी, सांवली मित्र, बिभाश चक्रवर्ती आदि जब ममता के साथ खड़े हो गए तो उन्हें बंगाली भद्रलोक में भी स्वीकार्यता मिलने लगी जो अब तक एक तरह से कम्युनिस्ट नेताओं के लिए सुरक्षित मानी जाती थी. ममता बनर्जी एक तेज़ तर्रार नेता हैं. युवक कांग्रेस से राजनीति शुरू करने वाली ममता बनर्जी को बंगाली समाज ने पहली बार तब देखा था जब १९७५ में उन्होंने युवक कांग्रेस के कुछ साथियों के साथ जयप्रकाश नारायण की कार पर हमला बोल दिया था .वे कोलकाता विश्वविद्यालय में एक सभा को संबोधित करने जा रहे थे. बच गए लेकिन ममता बनर्जी का राजनीतिक अवतार हो चुका था. २००६ के चुनावों के बाद लेफ्ट फ्रंट की गलतियों के ज़खीरे की वजह से अब उन्हें भद्रलोक की इज्ज़त भी मिल रही है . इस लिए करीब एक साल बाद होने वाले विधान चुनावों में कौन विजयी होता है, आने वाले कुछ दिनों में यह विमर्श और तेज़ होने जा रहा है. नतीजा चुनाव परिणाम बता देंगे.
ज्योति बसु के निधन से पश्चिम बंगाल की वामपंथी राजनीति में एक शून्य उभर आया है. हो सकता है यह शून्य इतना व्यापक हो जाए कि वामपंथी राजनीति के गढ़ पश्चिम बंगाल में ही वामपंथ इतना कमजोर पड़ जाए कि लालिकले पर लाल निशान फहराने की तमन्ना पश्चिम बंगाल में ही हवा हो जाए. -
दिल्ली में संपन्न ज्योति बसु की शोकसभा में उन्हें एक बहुत अच्छे राजनेता और एक कुशल प्रशासक के रूप में याद किया गया. वित्त मंत्री प्रणव मुख़र्जी ने करीब पांच दशक के अपने परिचय के हवाले से उन्हें एक बेहतरीन प्रशासक बताया और उनकी दूरदर्शिता के कुछ उदाहरण दिए. पश्चिम बंगाल में वामपंथी राजनीति को एक मज़बूत आन्दोलन और सरकार के रूप में स्थापित करने की ज्योति बाबू की योग्यता का बार बार ज़िक्र आया. सबने स्वीकार किया कि उन्होंने बंगाल के समाज को एक स्थिरता दी और राजनीतिक परिपक्वता का आलम तो यह था कि सन २००० में अपनी मर्जी से मुख्यमंत्री पद छोड़ दिया. लेकिन उनके मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद पश्चिम बंगाल की वामपंथी पार्टियां निश्चित रूप से कमज़ोर पड़ी हैं. हालांकि उनके रिटायर होने के बाद भी विधानसभा के दो चुनावों में लेफ्ट फ्रंट को सरकार बनाने लायक बहुमत मिला है लेकिन २०११ के चुनावों में कम्युनिस्ट पार्टियों की वह हैसियत नहीं रहने वाली है जो पिछले तीन दशकों से रही है. इस बात की पड़ताल की जानी चाहिए कि ऐसा क्यों हो रहा है.
जवाब तलाशने की कोशिश में बहुत सारे सवाल खड़े हो जाते हैं और ज्योति बसु के बाद के नेताओं में राजनीतिक अदूरदर्शिता के बहुत सारे निशान नज़र आने लगते हैं. २००६ के विधान सभा चुनावों के बाद जितने भी चुनाव हुए हैं उनमें लेफ्ट फ्रंट की हालत खस्ता ही है ..तुर्रा यह कि जनता के फैसले को उसकी गलती मान कर अपने आपको सही समझने की शुतुरमुर्गी सोच भी कम्युनिस्ट नेताओं के बयानों का स्थायी भाव बनी रही है. २००८ के पंचायत चुनावों में बुरी तरह से धुनी जाने के बाद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं ने कहा कि "पश्चिम बंगाल की जनता ने एक बहुत बड़ी गलती की है लेकिन यह गलती क्षणिक है" यानी उन्हें मुगालता था कि इस गलती को सुधार लिया जाएगा. लेकिन जनता ने यह गलतियाँ बार बार कीं. कई उपचुनाव हुए और नगरपालिका चुनावों में भी लेफ्ट फ्रंट को भारी चुनावी नुकसान हुआ तब जाकर कम्युनिस्ट नेताओं की समझ में आया कि यह जनता की गलती नहीं है.
वास्तव में वामपंथी नेतृत्व ने ऐसी गलतियाँ कर रखी हैं कि चुनावों में धुनाई का सिलसिला चलता ही रहेगा. लगातार जनता का समर्थन खो रहे नेताओं को अब शायद यह भी लगने लगा है कि जनता जो भी कर रही है वह अस्थायी नहीं है, वह अब वामपंथी राजनीति को अलविदा कहने की तैयारी में है. लेफ्ट फ्रंट से अवाम की नाराज़गी ज्योति बसु के मुख्यमंत्री पद छोड़ने के बाद से ही थी लेकिन खंडित विपक्ष की वजह से कुछ हो नहीं पाता था. लेफ्ट फ्रंट के उम्मीदवार सरकार बनाने लायक सीटें बटोरते रहे लेकिन जब परमाणु मुद्दे पर केंद्र की कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार को लेफ्ट फ्रंट ने गिराने की योजना बनायी तो एक नयी राजनीतिक तस्वीर सामने आ गयी. कांग्रेस ने तृणमूल कांग्रेस के साथ समझौता कर लिया और बंगाल में जो खंडित विपक्ष था वह अब एकमुश्त होने लगा. इस नयी राजनीतिक एकता की वजह से लेफ्ट फ्रंट को गंभीर झटके लगे. राज्य की राजनीति में सक्रिय सभी कम्युनिस्ट विरोधी जमातों ने इस नई ताक़त के साथ खड़े होने का फैसला किया. कुछ अति वामपंथी ताक़तों ने भी इस नए कांग्रेस-तृणमूल गठबंधन को समर्थन दिया और नतीजा सामने है .
२००६ के बाद हुए प्रत्येक चुनाव में हार का सामना कर चुकी कम्युनिस्ट पार्टियों के सामने २०११ के विधान सभा चुनाव में हार एक सच्चाई की शक्ल लेता जा रहा है..और इसका सबसे प्रमुख कारण यह है कि बंगाल के ग्रामीण इलाकों में लेफ्ट फ्रंट अब उतना लोकप्रिय नहीं रहा जितना कि ज्योति बसु के दौर में हुआ करता था. १९७७ में जब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में पश्चिम बंगाल में सरकार बनी थी तो बहुत सारे क्रांतिकारी काम हुए थे. खेती लायक ज़मीन जो कुछ लोगों के कब्जे में थी उसे धीरे धीरे आम किसानों के हाथ में देने का जो क्रांतिकारी कारनामा ज्योति बसु की सरकार ने किया था उसकी वजह से बंगाली समाज में बहुत सारे परिवर्तन आये थे. बटाईदारों के अधिकार को ऑपरेशन बर्गा के तहत जिस तरह से सुरक्षित किया गया था उसकी वजह से शहरों की तरफ भागने की गरीब आदमी की मजबूरी पर प्रभावी रोक लगा दी गयी थी. इसके अलावा ज्योति बसु ने गावों में अपने पार्टी के कार्यकर्ताओं की अगुवाई में एक मज़बूत पंचायती व्यवस्था कायम की थी. इस पंचायती इंतज़ाम का फायदा यह हुआ था कि ग्रामीण और ब्लाक स्तर पर मौजूद भ्रष्ट नौकरशाही से जनता को निजात मिल गयी थी लेकिन ३० साल बाद पार्टी की अगुवाई में बनाए गए न्याय करने के इस तंत्र का बहुत ही ज्यादा बेजा इस्तेमाल हो रहा है. अब इस व्यवस्था पर मुकामी गुंडों का क़ब्ज़ा है जो कम्युनिस्ट पार्टियों के सदस्य भी हैं. ममता बनर्जी ने इन्ही गुंडों के खिलाफ जनता को तैयार करने की कोशिश की और वे काफी हद तक सफल भी रहीं. नतीजा सामने है. वामपन्थी राजनीति के अगले दस्ते में गुंडों की बहुतायत से परेशान आम आदमी अब किसीभी चुनाव में लेफ्ट फ्रंट को दुरुस्त करने का मन बना चुका है. इस लिहाज़ से पश्चिम बंगाल विधानसभा का अगला चुनाव बहुत ही दिलचस्प होने वाला है..
पश्चिम बंगाल में सत्ताधारी लेफ्ट पार्टियों ने शुरू में जो क्रांतिकारी काम किये उसके बाद किसी नयी आईडिया को तरजीह नहीं दी गयी. ग्रामीण स्तर पर बने पार्टी के संगठन की वजह से चुनाव जीत रही कम्युनिस्ट पार्टियों ने इस बात की परवाह ही नहीं की कि ज़रा देखें कि कहीं गलती तो नहीं हो रही है. ग्रामीण बंगाल में अर्थव्यवस्था बहुत तेज़ी से बदल रही थी. खेती में इस्तेमाल होने वाली चीज़ें महंगी हो रही थीं लेकिन कोलकता और दिल्ली में बैठे कम्युनिस्ट महाप्रभुओं को सच्चाई की हवा तक नहीं लग रही थी. राज्य के ग्रामीण इलाकों में नयी किस्म के राजनीतिक समीकरण उभर रहे थे. और वामपंथी मोर्चा अपनी उसी नैतिक और राजनीतिक पूंजी के सहारे चुनाव जीतने की उम्मीद लगाए बैठा था जिसे ज्योति बसु ने ८० के दशक में सर्वहारा की पक्ष धरता के लिए कमाया था. हरकिशन सिंह सुरजीत की मृत्यु के बाद पार्टी का सर्वोच्च अधिकारी एक ऐसा व्यक्ति बन गया जिसकी मार्क्सवादी समझ का तो उसके विरोधी भी लोहा मानते हैं लेकिन राजनीति के व्यावहारिक पक्ष में वह सुरजीत की तुलना में कहीं नहीं पंहुचता था. लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष सोम नाथ चटर्जी के साथ व्यवहार और कांग्रेस से बेमतलब दुश्मनी करके उसे ममता बनर्जी के खेमे में धकेल देना ऐसे काम हैं जिन्हें राजनीतिक अदूरदर्शिता की श्रेणी में ही रखा जाएगा. क्योंकि अगर कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस एक न हुए होते तो नगर पालिका और पंचायत चुनावों में वामपंथियों की वैसी हार न हुई होती जिसकी वजह से वह आज कमज़ोर पड़ गया है. बंगाली समाज में राजनीति एक सांस्कृतिक काम भी होता है.
औद्योगीकरण और शहरीकरण के चक्कर में पड़े मुख्य मंत्री, बुद्ध देव भट्टाचार्य ने राजनीति के सांस्कृतिक पक्ष को नज़र अंदाज़ किया सिंगुर, नंदीग्राम और लाल गढ़ में वामा मोर्चा सरकार ने जो गलतियाँ कीं उसके नतीजे में बंगाली बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग उस से अलग हो गया और ममता बनर्जी के साथ खड़ा हो गया. ममता बनर्जी ने राज्य के बाहर और भीतर इन बुद्धिजीवियों के साथ आने से होने वाले फायदे को ख़ूब भुनाया. महाश्वेता देवी, सांवली मित्र, बिभाश चक्रवर्ती आदि जब ममता के साथ खड़े हो गए तो उन्हें बंगाली भद्रलोक में भी स्वीकार्यता मिलने लगी जो अब तक एक तरह से कम्युनिस्ट नेताओं के लिए सुरक्षित मानी जाती थी. ममता बनर्जी एक तेज़ तर्रार नेता हैं. युवक कांग्रेस से राजनीति शुरू करने वाली ममता बनर्जी को बंगाली समाज ने पहली बार तब देखा था जब १९७५ में उन्होंने युवक कांग्रेस के कुछ साथियों के साथ जयप्रकाश नारायण की कार पर हमला बोल दिया था .वे कोलकाता विश्वविद्यालय में एक सभा को संबोधित करने जा रहे थे. बच गए लेकिन ममता बनर्जी का राजनीतिक अवतार हो चुका था. २००६ के चुनावों के बाद लेफ्ट फ्रंट की गलतियों के ज़खीरे की वजह से अब उन्हें भद्रलोक की इज्ज़त भी मिल रही है . इस लिए करीब एक साल बाद होने वाले विधान चुनावों में कौन विजयी होता है, आने वाले कुछ दिनों में यह विमर्श और तेज़ होने जा रहा है. नतीजा चुनाव परिणाम बता देंगे.
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