शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली ,८ दिसंबर. महंगाई के मामले पर सरकार को घेरने में नाकाम रही भाजपा ने सरकार को कटघरे में खड़ा करने के लिए आज फिर वही २ जी वाला रास्ता चुना. लोक सभा में आज भाजपा महंगाई के मुद्दे पर नियम १९३ के तहत बहस के लिए राजी हो गयी जिसका मतलब कि केंद्र सरकार को संसद में महंगाई के मुद्दे पर वोट का सामना नहीं करना पड़ा . अगर बहस नियम १८४ के तहत होती तो सरकार मुश्किल में पड़ सकती थी. भाजपा को आज राजनीतिक संजीवनी सुब्रमण्यम स्वामी के एक मुदमे से मिली आज नई दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट में जनता पार्टी के नेता सुब्रमण्यम स्वामी की एक अर्जी मंजूर कर ली गयी .अब वे गवाहों से जिरह कर सकेगें . अब इस बात की संभावना बढ़ गयी है कि सुब्रमण्यम स्वामी कोर्ट में गृहमंत्री,पी चिदम्बरम से पूछताछ कर सकेगें हालांकि इसमें अभी बहुत सारी अडचने हैं लेकिन आज के नई दिल्ली की अदालत के आदेश के बाद रास्ता थोडा आसान हो गया है . स्वामी का आरोप है कि २ जी के घोटाले में ए राजा और पी चिदंबरम बराबर के गुनहगार हैं . इस आदेश के आते ही सुब्रमण्यम स्वामी की पुरानी पार्टी जनसंघ के साथी जो आजकल भाजपा में हैं ,सरकार पर टूट पड़े और गृहमंत्री के इस्तीफे की मांग को फिर से उठाना शुरू कर दिया . हालांकि सरकार ने भाजपा की मंशा को कमज़ोर करने की गरज से साफ़ कहा कि पी चिदंबरम के इस्तीफे का सवाल ही नहीं पैदा होता .
कांग्रेस और केंद्र सरकार ने भाजपा की ओर से आ रही पी चिंदबरम के इस्तीफे की मांग को राजनीतिक अवसरवादिता बताया है . कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने कहा कि नई दिल्ली कोर्ट का आज का आदेश न्यायिक प्रक्रिया में एक कड़ी मात्र है . यह कोई फैसला नहीं है . इस आदेश से यह कहीं से साबित नहीं होता कि पी चिंदबरम का आपाध साबित हो गया है .उन्होंने विपक्ष के अभियान को ज़बरदस्ती के एराजनीति बताया और कहा कि यह लोग किसी न किसी बहाने से संसद के काम में बाधा डालने के अलावा कुछ नहीं कर रहे हैं . संसदीय कार्य मंत्री राजीव शुक्ल ने कहा कि भाजपा के पास कोई रचनात्मक मुद्दा नहीं है इसलिए वे सरकार को मीडिया के ज़रिये घेरने की कोशिश कर रहे हैं .
कोर्ट में जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यम स्वामी ने चिदंबरम के खिलाफ सीबीआई जांच की मांग की अर्जी लगाई थी और आरोप लगाया था कि 2008 में जब चिदंबरम वित्त मंत्री थे तो उन्हें 2जी आवंटन में ए राजा के साथ मिलकर हेराफेरी की थी . हालांकि आज सुब्रमण्यम स्वामी बहुत दुखी थे क्योंकि आज ही खबर आई है कि अब उनको हार्वर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ाने लायक नहीं माना जा रहा है लेकिन उनके मुक़दमे से उनकी पुरानी पार्टी वालों को सरकार पर मीडिया आक्रमण करने का एक और मौक़ा मिल गया है . भाजपा के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने किसी टी वी चैनल पर कहा कि अब अगर थोड़ी सी शर्म चिंदबरम में बाकी है तो उन्हें तुरंत कुर्सी छोड़ देना चाहिए।
पटियाला हाउस कोर्ट ने सुब्रमण्यम स्वामी को सीबीआई के एक बड़े अधिकारी समेत वित्त मंत्रालय के अधिकारी एस एस खुल्लर से भी बातचीत की अनुमति दी है. लेकिन इसके पहले उन्हें 17 दिसंबर को गवाह के तौर पेश होकर गवाही देनी पड़ेगी. अगर कोर्ट स्वामी की गवाही से संतुष्ट होगा तभी चिंदबरम से पूछताछ संभव हो पायेगी. इसका मतलब यह हुआ कि अभी पी चिदंबरम से जिरह की संभावना में कई दिक्क़तें हैं लेकिन भाजपा वाले इस मुद्दे को राजनीतिक बनाने के चक्कर में इसे ले उड़े हैं .अभी २ जी मामले की जांच कर रही सीबीआई चिंदबरम को दोषी नहीं मानती .सीबीआई का दावा है कि वह मामले को लेकर चार्जशीट दाखिल कर चुकी है इसलिए चिदंबरम के खिलाफ जांच नहीं की जा सकती. ज़ाहिर है पी चिंदबरम का केस शुद्ध रूप से राजनीतिक मामला है और भाजपा के एपूरी कोशिश है इस के सहारे केंद्र सरकार को भ्रष्ट साबित करने के उसके प्रोजेक्ट को ताक़त मिले
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Saturday, December 10, 2011
Thursday, May 19, 2011
राजनीति की भजनलाली परंपरा में भाजपा ने कांग्रेस को पीछे छोड़ा
शेष नारायण सिंह
कर्नाटक में आजकल जो राजनीतिक ड्रामा चल रहा है उसने १९८० के भजन लाल की याद दिला दी. चरण सिंह सरकार की गिरने के बाद जब १९८० के लोकसभा चुनावों की घोषणा हुई तो भजन लाल हरियाणा में जनता पार्टी की सरकार के मुख्यमंत्री थे. राज कर रहे थे ,मौज कर रहे थे , रिश्वत की गिज़ा काट रहे थे . लेकिन चुनावों के नतीजे आये तो जनता पार्टी ज़मींदोज़ हो चुकी थी . उसके कुछ ही दिनों बाद कुछ विधान सभाओं के चुनाव होने थे .हरियाणा का भी नंबर आने वाला था लेकिन भजन लाल पूरी सरकार के साथ दिल्ली पंहुचे और इंदिरा गाँधी के चरणों में लेट गए. हाथ जोड़कर प्रार्थना की उनको कांग्रेस में भर्ती कर लिया जाए.इंदिरा जी ने उन्हें अभय दान दे दिया . बस उसी वक़्त से उनकी सरकार हरियाणा की कांग्रेस सरकार बन गयी. अगर उस दौर में हरियाणा में भी विधान सभा चुनाव होते तो बिकुल तय था कि जनता पार्टी हार जाती और भजन लाल इतिहास के गर्त में पता नहीं कहाँ गायब हो जाते लेकिन उनकी किस्मत में राज करना लिखा था सो उन्होंने राजनीति की भजन लाली परम्परा की बुनियाद डाली . बाद में उन्होंने रिश्वतखोरी के तरह तरह के रिकार्ड बनाए , भ्रष्टाचार को एक ललित कला के रूप में विकसित किया . पी वी नरसिम्हा राव की सरकार में सांसदों की खरीद फरोख्त में अहम भूमिका निभाई और भारतीय राजनीतिक आचरण को कलंकित किया . कांग्रेस में आजकल भ्रष्टाचार के बहुत सारे कारनामें अंजाम दिए जा रहे हैं लेकिन बे ईमानी में जो बुलंदियां भजन लाल ने हासिल की थीं वह अभी अजेय हैं .भजन लाल की किताब से ही कुछ पन्ने लेकर बाद के वक़्त में अमर सिंह ने उत्तर प्रदेश में २००३ में मुलायम सिंह यादव को मुख्य मंत्री बनवाने में सफलता पायी थी . परमाणु विवाद के दौर में भी जो खेल किया गया था वह भी राजनीति के भजन लाल सम्प्रदाय की साधना से ही संभव हुआ था . आजकल कांग्रेस के जुगाड़बाज़ नेताओं में वह टैलेंट नहीं है जो भजन लाल के पास था . शहर दिल्ली के मोहल्ला दरियागंज निवासी हंस राज भरद्वाज में उस प्रतिभा के कुछ् लक्षण हैं .कांग्रेस ने उन्हें कर्नाटक का राज्यपाल बना दिया . उन्होंने वहां अपनी कला को निखारने की कोशिश की और कुछ चालें भी चलीं लेकिन वहां उनकी टक्कर राजनीति के भजनलाली परंपरा के एक बहुत बड़े आचार्य से हो गयी . वहां बीजेपी के नेता और राज्य के मुख्यमंत्री बी एस येदुरप्पा जी विराजते हैं . उनके आगे भजन लाल जैसे लोग फर्शी सलाम बजाने को मजबूर कर दिए जाते हैं . बेचारे हंसराज भारद्वाज तो भजनलाली संस्कृति के एक मामूली साधक हैं . येदुरप्पा जी ने हंस राज जी को बार बार पटखनी दी. लेकिन उनका दुर्भाग्य है कि उन्होंने अभी तक यह समझ नहीं पा रहे है कि येदुरप्पा जी भजनलाल पंथ के बहुत बाहरी ज्ञाता और महारथी हैं . भजनलाली परम्परा के संस्थापक, भजन लाल की कभी हिम्मत नहीं पड़ी कि वे अपने आला कमान को चुनौती दें , दर असल वे इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी और पी वी नरसिंह राव के आशीर्वाद से ही भ्रष्टाचार की बुलंदियां तय करते थे लेकिन बी एस येदुरप्पा ने अपने आलाकमान को डांट कर रखा हुआ है .जब बेल्लारी बंधुओं के खनिज घोटाले वाले मामले में बीजेपी सरकार की खूब कच्ची हुई तो बीजेपी अध्यक्ष और दिल्ली के अन्य बड़े नेताओं ने उनको दिल्ली तलब किया और मीडिया के ज़रिये माहौल बनाया कि उनको हटा दिया जाएगा . इस आशय के संकेत भी दे दिए गए लेकिन येदुरप्पा ने दिल्ली वालों को साफ़ बता दिया कि वे गद्दी नहीं छोड़ेगें , बीजेपी चाहे तो उनको छोड़ सकती है . उसके बाद बीजेपी के एक बहुत बड़े नेता का बयान आया कि हम येदुरप्पा को नहीं हटाएगें क्योंकि उस हालत में दक्षिण भारत से उनकी पार्टी का सफाया हो जाएगा.उन दिनों दिल्ली के नेताओं के बहुत बुरी हालत थी.उस घटना का नतीजा यह हुआ कि इस बार जब कर्नाटक के राज्यपाल ने इंदिरा युग की राजनीतिक चालबाजी की शुरुआत की तो बीजेपी के बड़े से बड़े नेताओं ने येदुरप्पा के साथ होने के दावे पेश करना शुरू कर दिया और एक बार फिर यह साबित हो गया कि बीजेपी भी भ्रष्टाचार की समर्थक पार्टी है . जिन विधायकों के बर्खास्त होने के बाद तिकड़म से येदुरप्पा ने विधान सभा में शक्ति परीक्षण में जीत दर्ज किया था , उन्हीं विधयाकों की कृपा से आज बी एस येदुरप्पा ने दोबारा सत्ता हासिल कर ली और राजनीतिक आचरण में शुचिता की बात करने वाली वाली बीजेपी के सभी नेता उनके साथ खड़े हैं . यह बुलंदी बेचारे भजन लाल को कभी नहीं मिली थी .दिल्ली के उनके नेताओं ने जब चाहा उनका हटा दिया और कुछ दिन बाद वे दुबारा जुगाड़ लगा कर सत्ता के केंद्र में पंहुच जाते थे . लेकिन आला नेता की ताबेदारी कभी नहीं छोडी . येदुरप्पा का मामला बिलकुल अलग है . उनकी वजह से बीजेपी की भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चलाने की कोशिश मुंह के बल गिर पड़ी है . विधान सभा चुनावों के नतीजों से साबित हो गया है कि जनता ने बीजेपी की मुहिम के बावजूद कांग्रेस को उतना भ्रष्ट नहीं माना जितना बीजेपी चाहती थी. जनता साफ़ देख रही है कांग्रेस तो भ्रष्ट लोगों को जेल भेज रही है , कार्रवाई कर रही है लेकिन बीजेपी अपने भ्रष्ट मुख्यमंत्री को बचा भी रही है और पार्टी के बड़े नेता उसी मुख्यमंत्री की ताल पर ताता थैया कर रहे हैं .ज़ाहिर है राजनीतिक अधोपतन के मुकाबले में देश की दोनों बड़ी पार्टियां एक दूसरे के मुक़ाबिल खडी हैं और राजनीतिक शुचिता की परवाह किसी को नहीं है .
कर्नाटक में आजकल जो राजनीतिक ड्रामा चल रहा है उसने १९८० के भजन लाल की याद दिला दी. चरण सिंह सरकार की गिरने के बाद जब १९८० के लोकसभा चुनावों की घोषणा हुई तो भजन लाल हरियाणा में जनता पार्टी की सरकार के मुख्यमंत्री थे. राज कर रहे थे ,मौज कर रहे थे , रिश्वत की गिज़ा काट रहे थे . लेकिन चुनावों के नतीजे आये तो जनता पार्टी ज़मींदोज़ हो चुकी थी . उसके कुछ ही दिनों बाद कुछ विधान सभाओं के चुनाव होने थे .हरियाणा का भी नंबर आने वाला था लेकिन भजन लाल पूरी सरकार के साथ दिल्ली पंहुचे और इंदिरा गाँधी के चरणों में लेट गए. हाथ जोड़कर प्रार्थना की उनको कांग्रेस में भर्ती कर लिया जाए.इंदिरा जी ने उन्हें अभय दान दे दिया . बस उसी वक़्त से उनकी सरकार हरियाणा की कांग्रेस सरकार बन गयी. अगर उस दौर में हरियाणा में भी विधान सभा चुनाव होते तो बिकुल तय था कि जनता पार्टी हार जाती और भजन लाल इतिहास के गर्त में पता नहीं कहाँ गायब हो जाते लेकिन उनकी किस्मत में राज करना लिखा था सो उन्होंने राजनीति की भजन लाली परम्परा की बुनियाद डाली . बाद में उन्होंने रिश्वतखोरी के तरह तरह के रिकार्ड बनाए , भ्रष्टाचार को एक ललित कला के रूप में विकसित किया . पी वी नरसिम्हा राव की सरकार में सांसदों की खरीद फरोख्त में अहम भूमिका निभाई और भारतीय राजनीतिक आचरण को कलंकित किया . कांग्रेस में आजकल भ्रष्टाचार के बहुत सारे कारनामें अंजाम दिए जा रहे हैं लेकिन बे ईमानी में जो बुलंदियां भजन लाल ने हासिल की थीं वह अभी अजेय हैं .भजन लाल की किताब से ही कुछ पन्ने लेकर बाद के वक़्त में अमर सिंह ने उत्तर प्रदेश में २००३ में मुलायम सिंह यादव को मुख्य मंत्री बनवाने में सफलता पायी थी . परमाणु विवाद के दौर में भी जो खेल किया गया था वह भी राजनीति के भजन लाल सम्प्रदाय की साधना से ही संभव हुआ था . आजकल कांग्रेस के जुगाड़बाज़ नेताओं में वह टैलेंट नहीं है जो भजन लाल के पास था . शहर दिल्ली के मोहल्ला दरियागंज निवासी हंस राज भरद्वाज में उस प्रतिभा के कुछ् लक्षण हैं .कांग्रेस ने उन्हें कर्नाटक का राज्यपाल बना दिया . उन्होंने वहां अपनी कला को निखारने की कोशिश की और कुछ चालें भी चलीं लेकिन वहां उनकी टक्कर राजनीति के भजनलाली परंपरा के एक बहुत बड़े आचार्य से हो गयी . वहां बीजेपी के नेता और राज्य के मुख्यमंत्री बी एस येदुरप्पा जी विराजते हैं . उनके आगे भजन लाल जैसे लोग फर्शी सलाम बजाने को मजबूर कर दिए जाते हैं . बेचारे हंसराज भारद्वाज तो भजनलाली संस्कृति के एक मामूली साधक हैं . येदुरप्पा जी ने हंस राज जी को बार बार पटखनी दी. लेकिन उनका दुर्भाग्य है कि उन्होंने अभी तक यह समझ नहीं पा रहे है कि येदुरप्पा जी भजनलाल पंथ के बहुत बाहरी ज्ञाता और महारथी हैं . भजनलाली परम्परा के संस्थापक, भजन लाल की कभी हिम्मत नहीं पड़ी कि वे अपने आला कमान को चुनौती दें , दर असल वे इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी और पी वी नरसिंह राव के आशीर्वाद से ही भ्रष्टाचार की बुलंदियां तय करते थे लेकिन बी एस येदुरप्पा ने अपने आलाकमान को डांट कर रखा हुआ है .जब बेल्लारी बंधुओं के खनिज घोटाले वाले मामले में बीजेपी सरकार की खूब कच्ची हुई तो बीजेपी अध्यक्ष और दिल्ली के अन्य बड़े नेताओं ने उनको दिल्ली तलब किया और मीडिया के ज़रिये माहौल बनाया कि उनको हटा दिया जाएगा . इस आशय के संकेत भी दे दिए गए लेकिन येदुरप्पा ने दिल्ली वालों को साफ़ बता दिया कि वे गद्दी नहीं छोड़ेगें , बीजेपी चाहे तो उनको छोड़ सकती है . उसके बाद बीजेपी के एक बहुत बड़े नेता का बयान आया कि हम येदुरप्पा को नहीं हटाएगें क्योंकि उस हालत में दक्षिण भारत से उनकी पार्टी का सफाया हो जाएगा.उन दिनों दिल्ली के नेताओं के बहुत बुरी हालत थी.उस घटना का नतीजा यह हुआ कि इस बार जब कर्नाटक के राज्यपाल ने इंदिरा युग की राजनीतिक चालबाजी की शुरुआत की तो बीजेपी के बड़े से बड़े नेताओं ने येदुरप्पा के साथ होने के दावे पेश करना शुरू कर दिया और एक बार फिर यह साबित हो गया कि बीजेपी भी भ्रष्टाचार की समर्थक पार्टी है . जिन विधायकों के बर्खास्त होने के बाद तिकड़म से येदुरप्पा ने विधान सभा में शक्ति परीक्षण में जीत दर्ज किया था , उन्हीं विधयाकों की कृपा से आज बी एस येदुरप्पा ने दोबारा सत्ता हासिल कर ली और राजनीतिक आचरण में शुचिता की बात करने वाली वाली बीजेपी के सभी नेता उनके साथ खड़े हैं . यह बुलंदी बेचारे भजन लाल को कभी नहीं मिली थी .दिल्ली के उनके नेताओं ने जब चाहा उनका हटा दिया और कुछ दिन बाद वे दुबारा जुगाड़ लगा कर सत्ता के केंद्र में पंहुच जाते थे . लेकिन आला नेता की ताबेदारी कभी नहीं छोडी . येदुरप्पा का मामला बिलकुल अलग है . उनकी वजह से बीजेपी की भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चलाने की कोशिश मुंह के बल गिर पड़ी है . विधान सभा चुनावों के नतीजों से साबित हो गया है कि जनता ने बीजेपी की मुहिम के बावजूद कांग्रेस को उतना भ्रष्ट नहीं माना जितना बीजेपी चाहती थी. जनता साफ़ देख रही है कांग्रेस तो भ्रष्ट लोगों को जेल भेज रही है , कार्रवाई कर रही है लेकिन बीजेपी अपने भ्रष्ट मुख्यमंत्री को बचा भी रही है और पार्टी के बड़े नेता उसी मुख्यमंत्री की ताल पर ताता थैया कर रहे हैं .ज़ाहिर है राजनीतिक अधोपतन के मुकाबले में देश की दोनों बड़ी पार्टियां एक दूसरे के मुक़ाबिल खडी हैं और राजनीतिक शुचिता की परवाह किसी को नहीं है .
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शेष नारायण सिंह
Monday, August 31, 2009
नागपुर के चश्मा बाबा
शुक्रवार को आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत की प्रेस कांफ्रेंस को सुनते हुए, मुझे चश्मा बाबा की बहुत याद आई। लगा कि हिंदुत्व कर राजनीति की झंडाबरदार पार्टी में लगी आग को बुझाने के लिए नागपुर का बुजुर्ग अपना लोटा लेकर दौड़ पड़ा है। आग लगने से न तो खलिहान में कुछ बचता है और न ही राजनीतिक पार्टी में लेकिन संघ की कोशिश है कि अपनी राजनीतिक शाखा को बचा लिया जाय, ठीक वैसे ही जैसे मेरे गांव के बुजुर्ग बचाने की कोशिश करते थे।
मेरे गांव में एक चश्मा बाबा थे। नाम कुछ और था लेकिन चश्मा लगाते थे इसलिए उनका नाम यही हो गया था। सन् 1968 में जब उनकी मृत्यु हुई तो उम्र निश्चित रूप से 90 साल के पार रही होगी। बहुत कमजोर हो गए थे, चलना फिरना भी मुश्किल हो गया था। उनके अपने नाती पोते खुशहाल थे, गांव में सबसे संपन्न परिवार था उनका। सारे गांव को अपना परिवार मानते थे, सबकी शादी गमी में मौजूद रहते थे। आमतौर पर गांव की राजनीति में दखल नहीं देते थे। लेकिन अगर कभी ऐसी नौबत आती कि गांव में लाठी चल जायेगी या और किसी कारण से लोग अपने आप को तबाह करने के रास्ते पर चल पड़े हैं तो वे दखल देते थे, और शांत करने की कोशिश करते थे।
अगर किसी के घर या खलिहान में आग लग जाती तो अपना पीतल का लोटा लेकर चल पड़ते थे, आग बुझाने। धीरे-धीरे चलते थे, बुढ़ापे की वजह से चलने में दिक्कत होने लगी थी लेकिन आग बुझाने का उनका इरादा दुनिया को जाहिर हो जाता था।
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मेरे गांव में एक चश्मा बाबा थे। नाम कुछ और था लेकिन चश्मा लगाते थे इसलिए उनका नाम यही हो गया था। सन् 1968 में जब उनकी मृत्यु हुई तो उम्र निश्चित रूप से 90 साल के पार रही होगी। बहुत कमजोर हो गए थे, चलना फिरना भी मुश्किल हो गया था। उनके अपने नाती पोते खुशहाल थे, गांव में सबसे संपन्न परिवार था उनका। सारे गांव को अपना परिवार मानते थे, सबकी शादी गमी में मौजूद रहते थे। आमतौर पर गांव की राजनीति में दखल नहीं देते थे। लेकिन अगर कभी ऐसी नौबत आती कि गांव में लाठी चल जायेगी या और किसी कारण से लोग अपने आप को तबाह करने के रास्ते पर चल पड़े हैं तो वे दखल देते थे, और शांत करने की कोशिश करते थे।
अगर किसी के घर या खलिहान में आग लग जाती तो अपना पीतल का लोटा लेकर चल पड़ते थे, आग बुझाने। धीरे-धीरे चलते थे, बुढ़ापे की वजह से चलने में दिक्कत होने लगी थी लेकिन आग बुझाने का उनका इरादा दुनिया को जाहिर हो जाता था।
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शेष नारायण सिंह
Friday, June 26, 2009
भाजपा से भागते नेता
झारखंड के पूर्व मुख्य मंत्री और कभी बीजेपी के नेता रहे बाबू लाल मरांडी ने कहा है कि वह भाजपा में वापस कभी नहीं जाएंगे। उन्होंने अपनी पार्टी झारखंड विकास मोर्चा बना ली है। आजकल झाडखंड में हर सीट पर खड़े हुए अपने प्रत्याशियों के लिए वे चुनाव प्रचार कर रहे हैं। झारखंड के इलाके में बीजेपी के काम को आगे बढ़ाने में बाबू लाल मरांडी का योगदान सबसे ज्यादा है।
इस बात की जांच करना दिलचस्प होगा कि बाबूलाल मरांडी जैसा आदमी उस पार्टी से इतना नाराज क्यों है कि वह मर जाना बेहतर समझते हैं लेकिन पार्टी में वापस जाने को राजी नहीं है। बीजेपी के वर्ग चरित्र को समझे बिना इस गुत्थी को समझ पाना मुमकिन नहीं है। बीजेपी एक ऐसी पार्टी है जो पूरी तरह से आर एस एस के नियंत्रण में है और राजनीतिक क्षेत्र में आरएसएस के लक्ष्य को हासिल करना ही बीजेपी या उसके पहले वाली भारतीय जन संघ का उद्देश्य है। इस तरह हम देखते हैं कि बीजेपी कहने को तो राजनीतिक पार्टी है लेकिन असल में वह एक ऐसा संगठन है जिसकी प्रोप्राइटर आरएसएस है।
बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार लालकृष्ण आडवाणी ने कई बार स्वीकार किया कि राजनीतिक में वो जो कुछ भी करते हैं, आरएसएस के मकसद को हासिल करने के लिए करते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि बीजेपी में जो भी रहेगा उसे हिंदुत्व का लक्ष्य हासिल करने के लिए काम करना पड़ेगा। ऐसा लगता है कि बाबू लाल मरांडी को बीजेपी की राजनीति का यह पहलू साफ तौर पर समझ में आ गया है और वे अब वापस बीजेपी में किसी भी कीमत पर जाने को तैयार नहीं। बीजेपी की हिंदुत्व की राजनीतिक का उद्देश्य हिंदू समाज के अभिजात वर्ग को सत्ता दिलाना है और उसमें बाबू लाल मरांडी के समाज के आदिवासी लोग तो सेवक की भूमिका में ही रहेंगे।
यह समझना बहुत जरूरी है कि हिंदू धर्म और हिंदुत्व में बहुत फर्क है। हिंदू धर्म को मोटे तौर पर सनातन धर्म से जोड़कर जाना जाता है। यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें कोई सख्त नियम कानून नहीं हैं पूजा करने की आज़ादी है, कोई पूजा पाठ न भी करे तो हिंदू बना रह सकता है। आमतौर पर हिंदू धर्म व्यक्तिगत आस्था का विषय होता है और उसका प्रदर्शन सार्वजनिक क्षेत्र में नहीं किया जाता। अगर हिंदू परिवार में जन्म हुआ हो और आदमी पूजा पाठ न भी करे तो वह हिंदू बना रह सकता है। कहा जा सकता है कि असली हिंदू धर्म एक लिबरल धर्म है।
इसके पलट हिंदुत्व वह सिद्घांत है जो हिंदुओं की एकता करके और उस एकता के सहारे राजनीतिक सत्ता हासिल करने की बात करता है। हिंदूत्व की विचारधारा की शुरूआत 1924 में सावरकर ने की थी। और आरएसएस के संस्थापक, हेडगेवार से अपील की थी कि हिंदू समाज को हिंदुत्व की विचारधारा की घुट्टी पिलाकर एक राजनीतिक ताकत में बदल दें। पिछले 85 वर्षो से आरएसएस यही कोशिश कर रहा है। जितने भी दंगे हुए हैं उनमें आरएसएस के वे लोग शामिल होते हैं जो हिन्दुत्वादी विचारधारा के शिकंजे में फंस चुके होते हैं। बाद में हिंदुत्व के प्रचार-प्रसार के लिए आरएसएस भारतीय जनसंघ, विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल जैसे संगठनों की स्थापना की ओर हिंदूत्व को पूरी तरह आक्रामक बना दिया है।
बाबरी मस्जिद की शहादत भी इन्हीं हिंदुत्ववादियों की राजनीतिक सोच का नतीजा है। गुजरात में नरेंद्र मोदी ने 2002 में जिस तरह से चुन-चुन कर मरवाया वह भी हिंदूत्व की राजनीति का ही नतीजा है। जाहिर है कि कोई भी हिंदू खासकर आदिवासी, दलित, पिछड़ा वर्ग या उदारवादी सोच के स्वर्ण, हिन्दुत्व की विचारधरा का पक्षधर नहीं हो सकता और इन्हीं कारणों से बाबू लाल मरांडी वापस बीजेपी में जाने को तैयार नहीं हैं।
इस बात की जांच करना दिलचस्प होगा कि बाबूलाल मरांडी जैसा आदमी उस पार्टी से इतना नाराज क्यों है कि वह मर जाना बेहतर समझते हैं लेकिन पार्टी में वापस जाने को राजी नहीं है। बीजेपी के वर्ग चरित्र को समझे बिना इस गुत्थी को समझ पाना मुमकिन नहीं है। बीजेपी एक ऐसी पार्टी है जो पूरी तरह से आर एस एस के नियंत्रण में है और राजनीतिक क्षेत्र में आरएसएस के लक्ष्य को हासिल करना ही बीजेपी या उसके पहले वाली भारतीय जन संघ का उद्देश्य है। इस तरह हम देखते हैं कि बीजेपी कहने को तो राजनीतिक पार्टी है लेकिन असल में वह एक ऐसा संगठन है जिसकी प्रोप्राइटर आरएसएस है।
बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार लालकृष्ण आडवाणी ने कई बार स्वीकार किया कि राजनीतिक में वो जो कुछ भी करते हैं, आरएसएस के मकसद को हासिल करने के लिए करते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि बीजेपी में जो भी रहेगा उसे हिंदुत्व का लक्ष्य हासिल करने के लिए काम करना पड़ेगा। ऐसा लगता है कि बाबू लाल मरांडी को बीजेपी की राजनीति का यह पहलू साफ तौर पर समझ में आ गया है और वे अब वापस बीजेपी में किसी भी कीमत पर जाने को तैयार नहीं। बीजेपी की हिंदुत्व की राजनीतिक का उद्देश्य हिंदू समाज के अभिजात वर्ग को सत्ता दिलाना है और उसमें बाबू लाल मरांडी के समाज के आदिवासी लोग तो सेवक की भूमिका में ही रहेंगे।
यह समझना बहुत जरूरी है कि हिंदू धर्म और हिंदुत्व में बहुत फर्क है। हिंदू धर्म को मोटे तौर पर सनातन धर्म से जोड़कर जाना जाता है। यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें कोई सख्त नियम कानून नहीं हैं पूजा करने की आज़ादी है, कोई पूजा पाठ न भी करे तो हिंदू बना रह सकता है। आमतौर पर हिंदू धर्म व्यक्तिगत आस्था का विषय होता है और उसका प्रदर्शन सार्वजनिक क्षेत्र में नहीं किया जाता। अगर हिंदू परिवार में जन्म हुआ हो और आदमी पूजा पाठ न भी करे तो वह हिंदू बना रह सकता है। कहा जा सकता है कि असली हिंदू धर्म एक लिबरल धर्म है।
इसके पलट हिंदुत्व वह सिद्घांत है जो हिंदुओं की एकता करके और उस एकता के सहारे राजनीतिक सत्ता हासिल करने की बात करता है। हिंदूत्व की विचारधारा की शुरूआत 1924 में सावरकर ने की थी। और आरएसएस के संस्थापक, हेडगेवार से अपील की थी कि हिंदू समाज को हिंदुत्व की विचारधारा की घुट्टी पिलाकर एक राजनीतिक ताकत में बदल दें। पिछले 85 वर्षो से आरएसएस यही कोशिश कर रहा है। जितने भी दंगे हुए हैं उनमें आरएसएस के वे लोग शामिल होते हैं जो हिन्दुत्वादी विचारधारा के शिकंजे में फंस चुके होते हैं। बाद में हिंदुत्व के प्रचार-प्रसार के लिए आरएसएस भारतीय जनसंघ, विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल जैसे संगठनों की स्थापना की ओर हिंदूत्व को पूरी तरह आक्रामक बना दिया है।
बाबरी मस्जिद की शहादत भी इन्हीं हिंदुत्ववादियों की राजनीतिक सोच का नतीजा है। गुजरात में नरेंद्र मोदी ने 2002 में जिस तरह से चुन-चुन कर मरवाया वह भी हिंदूत्व की राजनीति का ही नतीजा है। जाहिर है कि कोई भी हिंदू खासकर आदिवासी, दलित, पिछड़ा वर्ग या उदारवादी सोच के स्वर्ण, हिन्दुत्व की विचारधरा का पक्षधर नहीं हो सकता और इन्हीं कारणों से बाबू लाल मरांडी वापस बीजेपी में जाने को तैयार नहीं हैं।
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