शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली,२८ सितम्बर.बीजेपी ने कांग्रेस की सरकार को घेरने के लिए सारी ताक़तों को आगे कर दीया है . आज संसद में दोनों सदनों के नेताओं, सुषमा स्वराज और अरुण जेटली ने प्रेस को संबोधित किया और कहा कि कांग्रेस की सरकार के सामने विश्वसनीयता का संकट है और वह अपने ही विरोधाभासों के नीचे बुरी तरह से दब चुकी है . बीजेपी ने प्रधान मंत्री के उस बयान को गलत बताया जिसमें उन्होंने कहा है कि बीजेपी समेत विपक्ष की कुछ पार्टियां सरकार क स्थिर करने की कोशिश कर रही हैं . प्रधान मंत्री ने अपनी विदेश यात्रा से लौटते समय यह आरोप लगाया था कि विपक्ष की कोशिश है कि देश में जल्दी ही चुनाव हो जाएँ जबकि अभी सरकार का कार्यकाल पूरा होने में करीब ढाई साल बाकी हैं . बीजेपी ने पी चिदंबरम को बचाने के मामले में प्रधान मंत्री को दोषी ठहराया लेकिन प्रधान मंत्री के इस्तीफे की मांग नहीं की जबकि अरुण जेटली ने साफ़ कहा कि प्रधान मंत्री को मालूम था कि २००८ में वित्त मंत्री रहे पी चिदंबरम और ए राजा मिलकर २ जी घोटाला कर रहे थे.
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लोक सभा में विपक्ष की नेता,सुषमा स्वराज ने कहा कि बीजेपी अभी चुनाव के लिए दबाव नहीं डाल रही है . अगर मध्यावधि चुनाव होता है तो उसके लिए कांग्रेस और उसकी अगुवाई वाली सरकार का गलत काम ही ज़िम्मेदार होंगें . दोनों नेताओं ने गृह मंत्री पी चिदंबरम को भ्रष्ट बाताया और मांग की कि उनकी जांच की जानी चाहिए. बीजेपी ने दावा किया है कि जब यू पी ए सरकार में शामिल गैर कांग्रेस पार्टियों के नेता किसी गलती में पकडे जाते हैं तो कांग्रेस नेतृत्व और प्रधान मंत्री उन्हें अपने हाल पर छोड़ देते हैं ./ उन्होंने २ जी मामले में ए राजा को जेल में भेजने का ज़िक्र किया . सुषमा स्वराज ने कहा कि जब मंहगाई के बढ़ने की बात आती है तो एन सी पी के शरद पवार को ज़िम्मेदार ठहरा दिया जाता है . इसी तरह जब एयर इंडिया में भ्रष्टाचार की बात आती है तो एन सी पी के प्रफुल पटेल का नाम ले लिया जाता है लेकिन जब कांग्रेस के पी चिदंबरम पर बात आती है तो कांग्रेस उनके बचाव में आ जाती है . अरुण जेटली ने प्रधान मंत्री पर आरोप लगाया कि वे पी चिदंबरम का बचाव करके भ्रष्टाचार को शह दे रहे हैं ..उन्होंने कहा कि पी चिदंबरम दागी हैं और उन पर अगर भरोसा करते रहे तो प्रधान मंत्री देश का भरोसा बहुत जल्द खो देगें.बीजेपी ने अब कैश फार वोट मामले में फंसे अपने सदस्यों का बचाव करने का फैसला कर लिया है . कल सुषमा स्वराज जेल में बंद अपनी पार्टी के कैश फार वोट के अभियुक्तों से मिल कर आई हैं और आज अरुण जेटली और आडवानी से सुधीन्द्र कुलकर्णी और अन्य दो पूर्व सांसदों से मिलने जा रहे हैं . जब पूछा गया कि अब कैश फार वोट के केस से आप लोग अपनी पार्टी को कैसे बचायेगें तो अरुण जेटली ने कहा कि उनकी पार्टी के लोग तो भ्रष्टाचार को एक्सपोज कर रहे थे . वे अपराधी नहीं हैं .
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Thursday, September 29, 2011
Friday, March 11, 2011
बीजेपी की कद्दावर नेता,सुषमा स्वराज को कमज़ोर करने की साज़िश
शेष नारायण सिंह
बीजेपी में शीर्ष स्तर पर गडबडी के संकेत साफ़ नज़र आने लगे हैं . मुख्य सतर्कता आयुक्त के मसले पर लोक सभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने जो कुछ भी किया उस पर लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्ववास रखने वालों को संतोष ही होगा . सुषमा स्वराज ने सी वी सी की नियुक्ति के मामले में जो भी काम किया है वह शुरू से अंत तक मर्यादा की मिसाल है . जानकार बताते हैं कि अगर उनका आचरण ऐसे ही चलता रहा तो आने वाले वक़्त में वे एक स्टेट्समैन राजनेता के रूप में स्थापित हो जायेगीं . संविधान में दी गयी व्यवस्था के तहत लोकसभा में विपक्ष की नेता ,सुषमा स्वराज उस सेलेक्शन कमेटी की सदस्य हैं जो सी वी सी का चुनाव करती है . जब चुनाव करने के लिए बैठक हुई तो तो सुषमा स्वराज ने विरोध किया और कहा कि एक भ्रष्ट आदमी को भ्रष्टाचार पर काबू करने वाले पद पर नहीं तैनात किया जाना चाहिए . उनके अलावा उस कमेटी में प्रधान मंत्री और गृह मंत्री भी सदस्य थे. उनके विरोध को दरकिनार करके सरकारी पक्ष ने पी जे टामस को नियुक्त कर दिया . लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट ने टामस की नियुक्ति को रद कर दिया तो सरकार की भारी किरकिरी हुई और प्रधानमंत्री को संसद में अपनी गलती माननी पड़ी .ज़ाहिर है कि अब एक नया सी वी सी तैनात किया जाएगा और सरकारी काम अपने ढर्रे से चलेगा . सुषमा स्वराज ने लोकतांत्रिक और उदारता की परम्पराओं को ध्यान में रख कर अपने ट्विटर पर बयान दे दिया कि ' मैं समझती हूँ कि इतना काफी है और अब बात यहीं ख़त्म कर डी जानी चाहिए और अब आगे बढ़ जाना चाहिए '. सुषमा स्वराज का यह बयान ऐसा है जिस पर किसी भी लोकतांत्रिक मूल्यों के कद्रदान को गर्व होगा . लेकिन उनके इस बयान के बाद बीजेपी का असली चेहरा सामने आ गया . नागपुर शहर के बीजेपी नेता और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने अपनी हनक स्थापित करने का मौक़ा देखा और ऐलान कर दिया कि सुषमा जो कह रही हैं वह बीजेपी की पार्टी लाइन नहीं है . बीजेपी वाले इस चक्कर में हैं कि प्रधानमंत्री को एक गलत काम करते पकड़ लिया है तो उस से अधिकतम राजनीतिक लाभ लिया जाना चाहिए . राज्यसभा में आज का अरुण केतली का बयान भी इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए. उन्होंने राज्य सभा में आज एक तरह से सुषमा स्वराज की लाइन को रद्द करते हुए कहा कि सी वी सी की नियुक्ति और उस पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मद्देनज़र, प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को राष्ट्र को पूरी तरह से जवाब देना चाहिए. इसका मतलब यह हुआ कि एक बहुत ही साधारण से मामले को लेकर बीजेपी के आपसी मतभेद पूरी तरह से सामने आ गए हैं . यह मतभेद कोई एक स्तर पर नहीं हैं . इसकी कई परते हैं . सबसे बड़ी बात तो यही है कि बीजेपी में नागपुर लाइन वाले कभी भी किसी ऐसे नेता को राष्ट्रीय स्तर पर मह्त्व नहीं लेने देगें जो आर एस एस का "तपा तपाया "कार्यकर्ता न हो . यह भेद बहुत शुरू से चला आ रहा है .ताज़ा मिसाल यशवंत सिन्हा, जसवंत सिंह और शत्रुघ्न सिन्हा की है . बीजेपी के गैर आर एस एस नेता लोग अक्सर मौक़ा चूक जाते हैं . क्योंकि बीजेपी में जो लोग भी ऊपर पंहुचे हैं और संघी ट्रेनिंग लिए बिना पार्टी में आये हैं ,उन्हें 'तपे तपाये ' भाजपाइयों से नीची श्रेणी में रखा जाता है . इस पैमाने पर सुषमा स्वराज बिलकुल फेल हो जाती हैं . जहां तक यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह का सवाल है , वे तो सरकारी नौकर थे . उनके खिलाफ कुछ भी नही है लेकिन सुषमा स्वराज तो समाजवादी रही हैं. वे एस वाई एस की सदस्य भी रह चुकी हैं , इमरजेंसी के खिलाफ इंदिरा गांधी की तानाशाही के खिलाफ लाठी भी भांज चुकी हैं और समाजवादी कोटे से जनता पार्टी में १९७७ में शामिल हुई थीं . बडौदा डायनामाईट केस में जब वे जार्ज फर्नांडीज़ की वकील बनीं तो दुनिया ने उनकी हिम्मत का लोहा माना था .जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद वे मंत्री भी बनीं , हरियाणा में सबसे कम उम्र की मंत्री रहने का सौभाग्य भी उन्हें मिल चुका है . वे मूल रूप से समाजवादी सोच की नेता हैं और शायद इसीलिये वे लोकत्रांत्रिक मूल्यों के प्रति ज्यादा सजग हैं . लेकिन यह बात संघ के "तपे तपाये " लोगों के गले नहीं उतरती है . इस बात में दो राय नहीं है कि बीजेपी में अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी के बाद सुषमा सबसे कद्दावर नेता हैं . बीजे पी का मौजूदा झगडा शायद इसी वैचारिक मतभेद के कारण ही एक मामूली से मुद्दे पर उबल पड़ा और आर एस एस की ओर से आये लगभग सभी नेता सुषमा स्वराज के खिलाफ जुट पड़े हैं . बीजेपी जैसी पुरुषप्रधान मानसिकता वाली पार्टी में किसी महिला के लिए सबसे ऊंचे पद पर पंहुचना वैसे भी बहुत मुश्किल माना जाता है . ऊपर से सुषमा स्वराज 'तपे तपाये' कटेगरी की नहीं हैं ,वे समाजवादी बैकग्राउंड से आई हैं . उनके लिए और भी मुश्किल होगा .
बीजेपी में शीर्ष स्तर पर गडबडी के संकेत साफ़ नज़र आने लगे हैं . मुख्य सतर्कता आयुक्त के मसले पर लोक सभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने जो कुछ भी किया उस पर लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्ववास रखने वालों को संतोष ही होगा . सुषमा स्वराज ने सी वी सी की नियुक्ति के मामले में जो भी काम किया है वह शुरू से अंत तक मर्यादा की मिसाल है . जानकार बताते हैं कि अगर उनका आचरण ऐसे ही चलता रहा तो आने वाले वक़्त में वे एक स्टेट्समैन राजनेता के रूप में स्थापित हो जायेगीं . संविधान में दी गयी व्यवस्था के तहत लोकसभा में विपक्ष की नेता ,सुषमा स्वराज उस सेलेक्शन कमेटी की सदस्य हैं जो सी वी सी का चुनाव करती है . जब चुनाव करने के लिए बैठक हुई तो तो सुषमा स्वराज ने विरोध किया और कहा कि एक भ्रष्ट आदमी को भ्रष्टाचार पर काबू करने वाले पद पर नहीं तैनात किया जाना चाहिए . उनके अलावा उस कमेटी में प्रधान मंत्री और गृह मंत्री भी सदस्य थे. उनके विरोध को दरकिनार करके सरकारी पक्ष ने पी जे टामस को नियुक्त कर दिया . लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट ने टामस की नियुक्ति को रद कर दिया तो सरकार की भारी किरकिरी हुई और प्रधानमंत्री को संसद में अपनी गलती माननी पड़ी .ज़ाहिर है कि अब एक नया सी वी सी तैनात किया जाएगा और सरकारी काम अपने ढर्रे से चलेगा . सुषमा स्वराज ने लोकतांत्रिक और उदारता की परम्पराओं को ध्यान में रख कर अपने ट्विटर पर बयान दे दिया कि ' मैं समझती हूँ कि इतना काफी है और अब बात यहीं ख़त्म कर डी जानी चाहिए और अब आगे बढ़ जाना चाहिए '. सुषमा स्वराज का यह बयान ऐसा है जिस पर किसी भी लोकतांत्रिक मूल्यों के कद्रदान को गर्व होगा . लेकिन उनके इस बयान के बाद बीजेपी का असली चेहरा सामने आ गया . नागपुर शहर के बीजेपी नेता और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने अपनी हनक स्थापित करने का मौक़ा देखा और ऐलान कर दिया कि सुषमा जो कह रही हैं वह बीजेपी की पार्टी लाइन नहीं है . बीजेपी वाले इस चक्कर में हैं कि प्रधानमंत्री को एक गलत काम करते पकड़ लिया है तो उस से अधिकतम राजनीतिक लाभ लिया जाना चाहिए . राज्यसभा में आज का अरुण केतली का बयान भी इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए. उन्होंने राज्य सभा में आज एक तरह से सुषमा स्वराज की लाइन को रद्द करते हुए कहा कि सी वी सी की नियुक्ति और उस पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मद्देनज़र, प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को राष्ट्र को पूरी तरह से जवाब देना चाहिए. इसका मतलब यह हुआ कि एक बहुत ही साधारण से मामले को लेकर बीजेपी के आपसी मतभेद पूरी तरह से सामने आ गए हैं . यह मतभेद कोई एक स्तर पर नहीं हैं . इसकी कई परते हैं . सबसे बड़ी बात तो यही है कि बीजेपी में नागपुर लाइन वाले कभी भी किसी ऐसे नेता को राष्ट्रीय स्तर पर मह्त्व नहीं लेने देगें जो आर एस एस का "तपा तपाया "कार्यकर्ता न हो . यह भेद बहुत शुरू से चला आ रहा है .ताज़ा मिसाल यशवंत सिन्हा, जसवंत सिंह और शत्रुघ्न सिन्हा की है . बीजेपी के गैर आर एस एस नेता लोग अक्सर मौक़ा चूक जाते हैं . क्योंकि बीजेपी में जो लोग भी ऊपर पंहुचे हैं और संघी ट्रेनिंग लिए बिना पार्टी में आये हैं ,उन्हें 'तपे तपाये ' भाजपाइयों से नीची श्रेणी में रखा जाता है . इस पैमाने पर सुषमा स्वराज बिलकुल फेल हो जाती हैं . जहां तक यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह का सवाल है , वे तो सरकारी नौकर थे . उनके खिलाफ कुछ भी नही है लेकिन सुषमा स्वराज तो समाजवादी रही हैं. वे एस वाई एस की सदस्य भी रह चुकी हैं , इमरजेंसी के खिलाफ इंदिरा गांधी की तानाशाही के खिलाफ लाठी भी भांज चुकी हैं और समाजवादी कोटे से जनता पार्टी में १९७७ में शामिल हुई थीं . बडौदा डायनामाईट केस में जब वे जार्ज फर्नांडीज़ की वकील बनीं तो दुनिया ने उनकी हिम्मत का लोहा माना था .जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद वे मंत्री भी बनीं , हरियाणा में सबसे कम उम्र की मंत्री रहने का सौभाग्य भी उन्हें मिल चुका है . वे मूल रूप से समाजवादी सोच की नेता हैं और शायद इसीलिये वे लोकत्रांत्रिक मूल्यों के प्रति ज्यादा सजग हैं . लेकिन यह बात संघ के "तपे तपाये " लोगों के गले नहीं उतरती है . इस बात में दो राय नहीं है कि बीजेपी में अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी के बाद सुषमा सबसे कद्दावर नेता हैं . बीजे पी का मौजूदा झगडा शायद इसी वैचारिक मतभेद के कारण ही एक मामूली से मुद्दे पर उबल पड़ा और आर एस एस की ओर से आये लगभग सभी नेता सुषमा स्वराज के खिलाफ जुट पड़े हैं . बीजेपी जैसी पुरुषप्रधान मानसिकता वाली पार्टी में किसी महिला के लिए सबसे ऊंचे पद पर पंहुचना वैसे भी बहुत मुश्किल माना जाता है . ऊपर से सुषमा स्वराज 'तपे तपाये' कटेगरी की नहीं हैं ,वे समाजवादी बैकग्राउंड से आई हैं . उनके लिए और भी मुश्किल होगा .
Saturday, November 28, 2009
राजनाथ सिंह होंगें हिन्दुत्व के नए अलम्बरदार
शेष नारायण सिंह
ख़बरों में बने रहकर भारतीय राजनेता बहुत कुछ हासिल कर लेता है. खबर चाहे पक्ष में हो या खिलाफ हो, वह नेताओं के बड़े काम की होती है. जब १९७७ में जनता पार्टी की सरकार आई तो आम तौर पर माना जा रहा था कि कांग्रेस और उसकी नेता इंदिरा गाँधी को जनता ने हमेशा के लिए अलविदा कह दिया है . इंदिरा गाँधी की समझ में भी नहीं आ रहा था कि क्या करें. आपराधिक राजनीति का विशेषज्ञ उनका बेटा , जो इमरजेंसी की तानाशाही के लिए बराबर का ज़िम्मेदार था , अपने ऊपर चल रहे आपराधिक मुक़दमों की पैरवी में व्यस्त हो गया था लेकिन इंदिरा गाँधी के सामने दिशाभ्रम की स्थिति थी. ठीक ऐसे वक़्त में तत्कालीन गृहमंत्री स्व. चौधरी चरण सिंह ने इंदिरा गाँधी को संजीवनी दे दी .इंदिरा गाँधी की राजनीतिक गिरफ्तारी का आदेश दे दिया और सी बी आई के एक अति उत्साही अफसर ने इंदिरा गाँधी को गिरफ्तार भी कर लिया . अगले दिन इंदिरा गाँधी हर अखबार के पहले पेज पर छा गयीं. और भारत की राजनीति में उनकी धमाकेदार वापसी का रास्ता खुल गया. इसलिए राजनीति में अगर कोई व्यक्ति या पार्टी अखबारी सुर्ख़ियों में बना रहने में सफलता हासिल कर लेता है तो उसे राजनीति में अपनी मंजिल पाने में आसानी होती है . खबर चाहे नकारात्मक कारणों से ही छपे , उसका फायदा होता है.
राजनीति की सफलता का यह मन्त्र बी जे पी वालों ने खूब अच्छी तरह से समझ लिया है. इसीलिए पार्टी के नेता अक्सर विवादों में छाये रहते हैं .आजकल नया विवाद लोकसभा में लिब्रहान आयोग पर होने वाली बहस के सन्दर्भ में है .पहले विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सदन में उपनेता सुषमा स्वराज को इस विषय में होने वाली बहस को शुरू करने की जिम्मेदारी दी थी लेकिन चंदौली वाले बाबू साहब ने खेल बदल दिया है .अब लोकसभा में बहस की शुरुआत पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह करेंगे। इस घटनाक्रम से पार्टी में लोकसभा में आडवाणी के उत्तराधिकारी को लेकर अटकलें लगनी शुरू हो गई हैं। अभी तक सुषमा स्वराज को ही इसका स्वाभाविक दावेदार माना जाता रहा है।
बी जे पी को उम्मीद थी कि लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट राजनीतिक हलकों में तूफान खड़ा कर देगी. लेकिन ऐसा न हो सका . मीडिया में जो लोग आर एस एस के बन्दे माने जाते हैं वे भी लिब्रहान पर कोई तूफ़ान नहीं पैदा कर सके लेकिन बी जे पी की कोशिश है कि उस पर होने वाली बहस को जोरदार बनाया जाए. जैसी की उम्मीद थी , रिपोर्ट में बी जे पी और आर एस एस के आला नेताओं को अपराधी की तरह पेश किया गया है इसलिए भाजपा ने इस पर बहस की शुरुआत के लिए दोनों सदनों के अपने प्रखर वक्ताओं राज्यसभा में अरुण जेटली व लोकसभा में सुषमा स्वराज को तय किया था। लेकिन गुरुवार को अचानक भाजपा ने सुषमा स्वराज की जगह पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह से लोकसभा में बहस शुरू कराने का फैसला किया। सुषमा स्वराज पार्टी की दूसरी प्रमुख वक्ता होंगी, जबकि अयोध्या मामले से सीधे जुड़े रहे दोनों प्रमुख नेता लालकृष्ण आडवाणी व डा मुरली मनोहर जोशी बहस में हस्तक्षेप करेंगे। राजनाथ सिंह का नाम तय होने का किस्सा जितना रोचक है, उतना ही पार्टी की अंदरूनी राजनीति को लेकर संवेदनशील भी है। उपनेता सुषमा स्वराज ने लोकसभा में अपने बगल में बैठे राजनाथ सिंह से चर्चा करते हुए उनसे सदन में किसी बहस में हिस्सा लेने के बारे में पूछा. राजनाथ सिंह ने कहा कि वे ऐसी किसी बहस में हिस्सा लेने के लिए तैयार हैं, जिसकी तारीख तय हो. सुषमा स्वराज ने उनसे लिब्रहान आयोग पर अगले मंगलवार को होने वाली बहस में हिस्सा लेने की बात कही. राजनाथ सिंह राजी हो गए.अब सुषमा के सामने कोई चारा नहीं था उन्होंने बहस की शुरुआत करने के लिए राजनाथ को संकेत किया और उन्होंने सहमति दे दी .सुषमा स्वराज ने खुद को दूसरे वक्ता के रूप में रखा और इस बदलाव की जानकारी लालकृष्ण आडवाणी को दे दी. राजनाथ सिंह अयोध्या आंदोलन के समय पार्टी के बड़े नेता नहीं थे, लेकिन सक्रिय थे जबकि सुषमा स्वराज दिल्ली में ही रहती थीं और सत्ता के गलियारों की माहिर के रूप में उनकी पहचान होती थी. सच्ची बात यह है कि १९९२ तक राजनाथ सिंह की पहचान बनारस से आये एक नौजवान कार्यकर्ता के रूप में होती थी, वे उत्तर प्रदेश के बड़े नेताओं में भी नहीं गिने जाते थे. अडवाणी गुट के खिलाफ, आर एस एस की शह पर उनको राष्ट्रीय नेता के रूप में विकसित किया गया है .कोशिश है कि उन्हें हिन्दुत्व-वादी राजनीति के नए अलंबरदार के रूप में स्थापित किया जाए. ज़ाहिर है इस डिजाइन को अमली जामा पहनाने के लिये इस मुद्दे पर उनको बोलने का मौक़ा देकर पार्टी को संसद में एक हिंदुत्ववादी छवि के नेता के रूप में उन्हें आगे बढ़ाने का मौका भी मिलेगा। अभी लोकसभा में आडवाणी व डा जोशी प्रख्रर हिंदुत्ववादी व संघ विचारधारा के प्रमुख नेता हैं। हालांकि इस बदलाव से लोकसभा में आडवाणी के भावी उत्तराधिकारी को लेकर नई सुगबुगाहट शुरू हो गई है।
ख़बरों में बने रहकर भारतीय राजनेता बहुत कुछ हासिल कर लेता है. खबर चाहे पक्ष में हो या खिलाफ हो, वह नेताओं के बड़े काम की होती है. जब १९७७ में जनता पार्टी की सरकार आई तो आम तौर पर माना जा रहा था कि कांग्रेस और उसकी नेता इंदिरा गाँधी को जनता ने हमेशा के लिए अलविदा कह दिया है . इंदिरा गाँधी की समझ में भी नहीं आ रहा था कि क्या करें. आपराधिक राजनीति का विशेषज्ञ उनका बेटा , जो इमरजेंसी की तानाशाही के लिए बराबर का ज़िम्मेदार था , अपने ऊपर चल रहे आपराधिक मुक़दमों की पैरवी में व्यस्त हो गया था लेकिन इंदिरा गाँधी के सामने दिशाभ्रम की स्थिति थी. ठीक ऐसे वक़्त में तत्कालीन गृहमंत्री स्व. चौधरी चरण सिंह ने इंदिरा गाँधी को संजीवनी दे दी .इंदिरा गाँधी की राजनीतिक गिरफ्तारी का आदेश दे दिया और सी बी आई के एक अति उत्साही अफसर ने इंदिरा गाँधी को गिरफ्तार भी कर लिया . अगले दिन इंदिरा गाँधी हर अखबार के पहले पेज पर छा गयीं. और भारत की राजनीति में उनकी धमाकेदार वापसी का रास्ता खुल गया. इसलिए राजनीति में अगर कोई व्यक्ति या पार्टी अखबारी सुर्ख़ियों में बना रहने में सफलता हासिल कर लेता है तो उसे राजनीति में अपनी मंजिल पाने में आसानी होती है . खबर चाहे नकारात्मक कारणों से ही छपे , उसका फायदा होता है.
राजनीति की सफलता का यह मन्त्र बी जे पी वालों ने खूब अच्छी तरह से समझ लिया है. इसीलिए पार्टी के नेता अक्सर विवादों में छाये रहते हैं .आजकल नया विवाद लोकसभा में लिब्रहान आयोग पर होने वाली बहस के सन्दर्भ में है .पहले विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सदन में उपनेता सुषमा स्वराज को इस विषय में होने वाली बहस को शुरू करने की जिम्मेदारी दी थी लेकिन चंदौली वाले बाबू साहब ने खेल बदल दिया है .अब लोकसभा में बहस की शुरुआत पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह करेंगे। इस घटनाक्रम से पार्टी में लोकसभा में आडवाणी के उत्तराधिकारी को लेकर अटकलें लगनी शुरू हो गई हैं। अभी तक सुषमा स्वराज को ही इसका स्वाभाविक दावेदार माना जाता रहा है।
बी जे पी को उम्मीद थी कि लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट राजनीतिक हलकों में तूफान खड़ा कर देगी. लेकिन ऐसा न हो सका . मीडिया में जो लोग आर एस एस के बन्दे माने जाते हैं वे भी लिब्रहान पर कोई तूफ़ान नहीं पैदा कर सके लेकिन बी जे पी की कोशिश है कि उस पर होने वाली बहस को जोरदार बनाया जाए. जैसी की उम्मीद थी , रिपोर्ट में बी जे पी और आर एस एस के आला नेताओं को अपराधी की तरह पेश किया गया है इसलिए भाजपा ने इस पर बहस की शुरुआत के लिए दोनों सदनों के अपने प्रखर वक्ताओं राज्यसभा में अरुण जेटली व लोकसभा में सुषमा स्वराज को तय किया था। लेकिन गुरुवार को अचानक भाजपा ने सुषमा स्वराज की जगह पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह से लोकसभा में बहस शुरू कराने का फैसला किया। सुषमा स्वराज पार्टी की दूसरी प्रमुख वक्ता होंगी, जबकि अयोध्या मामले से सीधे जुड़े रहे दोनों प्रमुख नेता लालकृष्ण आडवाणी व डा मुरली मनोहर जोशी बहस में हस्तक्षेप करेंगे। राजनाथ सिंह का नाम तय होने का किस्सा जितना रोचक है, उतना ही पार्टी की अंदरूनी राजनीति को लेकर संवेदनशील भी है। उपनेता सुषमा स्वराज ने लोकसभा में अपने बगल में बैठे राजनाथ सिंह से चर्चा करते हुए उनसे सदन में किसी बहस में हिस्सा लेने के बारे में पूछा. राजनाथ सिंह ने कहा कि वे ऐसी किसी बहस में हिस्सा लेने के लिए तैयार हैं, जिसकी तारीख तय हो. सुषमा स्वराज ने उनसे लिब्रहान आयोग पर अगले मंगलवार को होने वाली बहस में हिस्सा लेने की बात कही. राजनाथ सिंह राजी हो गए.अब सुषमा के सामने कोई चारा नहीं था उन्होंने बहस की शुरुआत करने के लिए राजनाथ को संकेत किया और उन्होंने सहमति दे दी .सुषमा स्वराज ने खुद को दूसरे वक्ता के रूप में रखा और इस बदलाव की जानकारी लालकृष्ण आडवाणी को दे दी. राजनाथ सिंह अयोध्या आंदोलन के समय पार्टी के बड़े नेता नहीं थे, लेकिन सक्रिय थे जबकि सुषमा स्वराज दिल्ली में ही रहती थीं और सत्ता के गलियारों की माहिर के रूप में उनकी पहचान होती थी. सच्ची बात यह है कि १९९२ तक राजनाथ सिंह की पहचान बनारस से आये एक नौजवान कार्यकर्ता के रूप में होती थी, वे उत्तर प्रदेश के बड़े नेताओं में भी नहीं गिने जाते थे. अडवाणी गुट के खिलाफ, आर एस एस की शह पर उनको राष्ट्रीय नेता के रूप में विकसित किया गया है .कोशिश है कि उन्हें हिन्दुत्व-वादी राजनीति के नए अलंबरदार के रूप में स्थापित किया जाए. ज़ाहिर है इस डिजाइन को अमली जामा पहनाने के लिये इस मुद्दे पर उनको बोलने का मौक़ा देकर पार्टी को संसद में एक हिंदुत्ववादी छवि के नेता के रूप में उन्हें आगे बढ़ाने का मौका भी मिलेगा। अभी लोकसभा में आडवाणी व डा जोशी प्रख्रर हिंदुत्ववादी व संघ विचारधारा के प्रमुख नेता हैं। हालांकि इस बदलाव से लोकसभा में आडवाणी के भावी उत्तराधिकारी को लेकर नई सुगबुगाहट शुरू हो गई है।
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Wednesday, November 18, 2009
बी जे पी में किसी भी गुट की मनमानी नहीं चलेगी
शेष नारायण सिंह
बी जे पी को एक बँटा हुआ घर कहकर नए संघ प्रमुख ने इस बात का ऐलान कर दिया है कि बी जे पी में किसी भी गुट की मनमानी नहीं चलेगी आर एस एस ने एक बार फिर स्पष्ट कर दिया है कि देश में हिंदुत्व की राजनीति पर केवल उस का कण्ट्रोल है. दिल्ली में बैठे कॉकटेल सर्किट वालों की किसी भी राय का संघ के फैसलों पर कोई असर नहीं पड़ता.पिछले कई महीनों से चल रहे आतंरिक विवाद का जब कोई हल नहीं निकला तो , संघ के मुखिया , मोहन भागवत ने बाकायदा एक न्यूज़ चैनल को इंटरव्यू दिया. इस इंटरव्यू में जो कुछ उन्होंने कहा , उसका भावार्थ यह है कि बी जे पी में अब तक सक्रिय अडवाणी और राजनाथ गुटों को किनारे करने का फैसला हो चुका है. दिल्ली में सक्रिय मौजूदा बी जे पी नेताओं की ऐसी ताक़त है कि वे किसी भी नेता के सांकेतिक भाषा में दिए गए बयान को अपने हिसाब से मीडिया में व्याख्या करवा देते हैं . लगता है कि नागपुर वालों को भी इस ताक़त का अंदाज़ लग गया है. इसीलिये अबकी बार , मोहन भागवत ने हिन्दी के सबसे बड़े टी वी न्यूज़ चैनल को अपनी बात कहने के लिए चुना.. कहीं कोई शक न रह जाए इस लिए उन्होंने अडवाणी के करीबी चार बड़े नेताओं का नाम लेकर उन्हें अध्यक्ष पद की दावेदारी से बाहर कर दिया. जब अरुण जेटली,सुषमा स्वराज और वेंकैया नायडू बी जे पी संगठन से बाहर हो जायेंगें , तो एक तरह से अडवाणी की ताक़त ख़त्म हो जायेगी क्योंकि लोकसभा में पार्टी के नेता पद से अडवाणी को हटाने का फैसला पहले ही किया जा चुका है. उस फैसले को लागू करने में थोड़ी मोहलत दे दी गयी है लेकिन हिंदुत्व की राजनीति की बारीकियां समझने वाले जानते हैं कि अडवाणी के लिए अब लोकसभा में नेता बने रहना असंभव है . इसी तरह तो उनके जिन्नाह वाले भाषण के बाद अडवाणी को अध्यक्ष पद से हटाया गया था. उस वक़्त भी कुछ दिन तक दिल्ली के सत्ता के गलियारों में और मीडिया में प्लांट की गयी ख़बरों के ज़रिये फैसले को टालने की कोशिश की गयी थी लेकिन आखिर में जाना ही पड़ा था. इस बार भी मामला लेट लतीफ़ तो हो सकता है लेकिन अडवाणी और राजनाथ के ख़ास बन्दों के कब्जे से संघ के आला नेता अपनी पार्टी को निकाल लेने का मन बना चुके हैं . यह भी एक सच है कि दिल्ली में जमे हुए अमीर-उमरा आसानी से सत्ता नहीं छोड़ते लेकिन नागपुर की ताक़त को भी कम करके नहीं आँका जा सकता . नागपुर को भी मालूम है कि दिल्ली वाले पूरी कोशिश करेंगें लेकिन आर एस एस का काम भी पूरी प्लानिंग के साथ होता है . १९९८ में सत्ता में आने के बाद जिस तरह से बी जे पी के नेताओं और मंत्रियों ने कांग्रेसियों की तरह घूस और बे-ईमान्री का आचरण शुरू किया था , उस से आर एस एस के नेताओं को बहुत निराशा हुई थी. उसी दौर में उन्होंने अपने सबसे काबिल संगठनकर्ता , गोविन्दाचार्य को बी जे पी से अलग कर दिया था और उन्हें बी जे पी का विकल्प तलाशने और राजनीतिक हस्तक्षेप की अन्य संभावनाओं को तलाशने का काम सौंप दिया था.. राष्ट्र निर्माण जैसे नारों के साथ गोविन्दाचार्य तभी से इस काम में जुटे हुए हैं. उनकी कोशिश है कि आर एस एस के बाहर से भी लोगों को लाकर जोड़ा जाए. देश के ज़्यादातर गांधीवादी संगठनों पर आर एस एस का कब्जा हो ही चुका है . कोशिश की जा रही है कि हिंद स्वराज जैसी गाँधी की विरासत की निशानियों की भी हिन्दुत्ववादी व्याख्या कर ली जाये और जल्द से जल्द बी जे पी का विकल्प तैयार कर लिया जाए. अभी तक के एप्रगति को देखन इसे लगता है कि उसमें अभी कुछ और टाइम लगेगा. शायद इसीलिये संघ ने फैसला किया है कि तब तक दिल्ली में जमे हुए नेताओं के कब्जे से बाहर लाकर अपनी राजनीतिक शाखा को अपने ख़ास बन्दों के हवाले कर दिया आये. जिस से अगर बहुत ज़रूरी न हो तो नयी पार्टी बनाने की झंझट से बचा जा सके.
महाराष्ट्र के बी जे पी अध्यक्ष , नितिन गडकरी की ताजपोशी की तैयारी, शायद इसी योजना का हिस्सा है . नितिन गडकरी एक कुशाग्रबुद्धि इंसान हैं . पेशे से इंजीनियर , नितिन गडकरी ने मुंबई वालों को बहुत ही राहत दी थी जब पी डब्ल्यू डी मंत्री के रूप में शहर में बहुत सारे काम किये थे. वे नागपुर के हैं और वर्तमान संघ प्रमुख के ख़ास बन्दे के रूप में उनकी पहचान होती. है.उनके खिलाफ स्थापित सत्ता वालों का जो अभियान चल रहा है उसमें यह कहा जा रहा है कि उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर कोई काम नहीं किया है. जो लोग यह कुतर्क चला रहे हैं उनको भी मालूम है कि यह बात चलने वाली नहीं है. मुंबई जैसे नगर में जहां दुनिया भर की गतिविधियाँ चलती रहती हैं , वहां नितिन गडकरी की इज्ज़त है, वे राज्य में मंत्री रह चुके हैं , उनके पीछे आर एस एस का पूरा संगठन खडा है तो उनकी सफलता की संभावनाएं अपने आप बढ़ जाती हैं . और इस बात को तो हमेशा के लिए दफन कर दिया जाना चाहिए कि दिल्ली में ही राष्ट्रीय अनुभव होते हैं . मुंबई, बेंगलुरु , हैदराबाद आदि शहरों में भी राष्ट्रीय अनुभव हो सकते हैं . बहरहाल अब लग रहा है कि नितिन गडकरी ही बी जे पी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए जायेंगें और दिल्ली में रहने वाले नेताओं को एक बार फिर एक प्रादेशिक नेता के मातहत काम करने को मजबूर होना पड़ेगा . राजंथ सिंह की तैनाती के बाद भी दिल्ली वाली जमात को इसी दौर से गुज़रना पड़ा था. .. यह बात भी सच है कि दिल्ली वाले नेता नागपुर की मनमानी को आसानी से मानने वाले नहीं है ..अडवाणी गुट की एक प्रमुख नेता, सुषमा स्वराज ने बयान दिया है कि अडवाणी से पांच साल के लिए लोक सभा में बी जे पी के नेता चुने गए हैं और वे अपना कार्यकाल पूरा करेंगें . राजनीतिक पर्यवेक्षक मानते हैं कि इस बयान में बगावत की बू आ रही है . हो सकता है सच भी हो लेकिन हिंदुत्व की राजनीति में बड़े बड़े लोगों की बगावत को कुचल दिया गया है. सुषमा स्वराज की बी जे पी में रहते हुए, संघ के खिलाफ झंडा बुलंद करने की वैसे भी हैसियत नहीं है क्योंकि वे मूल रूप से समाजवादी राजनीति के रास्ते सत्ता की राजनीति में आई हैं . जिस उम्र में लोग संघ की राजनीति में शामिल होते हैं उस दौर में वे अम्बाला में रह कर आर एस एस को एक फासिस्ट संगठन कहती थीं. बाद में जनता पार्टी बनने पर मंत्री बनीं और जब बी जे पी वाले जनता पार्टी से अलग हुए तो हिन्दुत्ववादी बनीं. इसलिए संघ की राजनीति में उनकी पोजीशन दूसरे स्तर की है. इस लिए अब इस बात में कोई शक नहीं है कि हिन्दुत्व की राजनीति इस देश में करवट ले रही है और आने वाले कुछ महीनों में हिन्दुत्ववादी ताक़तें रिग्रुप होने जा रही हैं .
बी जे पी को एक बँटा हुआ घर कहकर नए संघ प्रमुख ने इस बात का ऐलान कर दिया है कि बी जे पी में किसी भी गुट की मनमानी नहीं चलेगी आर एस एस ने एक बार फिर स्पष्ट कर दिया है कि देश में हिंदुत्व की राजनीति पर केवल उस का कण्ट्रोल है. दिल्ली में बैठे कॉकटेल सर्किट वालों की किसी भी राय का संघ के फैसलों पर कोई असर नहीं पड़ता.पिछले कई महीनों से चल रहे आतंरिक विवाद का जब कोई हल नहीं निकला तो , संघ के मुखिया , मोहन भागवत ने बाकायदा एक न्यूज़ चैनल को इंटरव्यू दिया. इस इंटरव्यू में जो कुछ उन्होंने कहा , उसका भावार्थ यह है कि बी जे पी में अब तक सक्रिय अडवाणी और राजनाथ गुटों को किनारे करने का फैसला हो चुका है. दिल्ली में सक्रिय मौजूदा बी जे पी नेताओं की ऐसी ताक़त है कि वे किसी भी नेता के सांकेतिक भाषा में दिए गए बयान को अपने हिसाब से मीडिया में व्याख्या करवा देते हैं . लगता है कि नागपुर वालों को भी इस ताक़त का अंदाज़ लग गया है. इसीलिये अबकी बार , मोहन भागवत ने हिन्दी के सबसे बड़े टी वी न्यूज़ चैनल को अपनी बात कहने के लिए चुना.. कहीं कोई शक न रह जाए इस लिए उन्होंने अडवाणी के करीबी चार बड़े नेताओं का नाम लेकर उन्हें अध्यक्ष पद की दावेदारी से बाहर कर दिया. जब अरुण जेटली,सुषमा स्वराज और वेंकैया नायडू बी जे पी संगठन से बाहर हो जायेंगें , तो एक तरह से अडवाणी की ताक़त ख़त्म हो जायेगी क्योंकि लोकसभा में पार्टी के नेता पद से अडवाणी को हटाने का फैसला पहले ही किया जा चुका है. उस फैसले को लागू करने में थोड़ी मोहलत दे दी गयी है लेकिन हिंदुत्व की राजनीति की बारीकियां समझने वाले जानते हैं कि अडवाणी के लिए अब लोकसभा में नेता बने रहना असंभव है . इसी तरह तो उनके जिन्नाह वाले भाषण के बाद अडवाणी को अध्यक्ष पद से हटाया गया था. उस वक़्त भी कुछ दिन तक दिल्ली के सत्ता के गलियारों में और मीडिया में प्लांट की गयी ख़बरों के ज़रिये फैसले को टालने की कोशिश की गयी थी लेकिन आखिर में जाना ही पड़ा था. इस बार भी मामला लेट लतीफ़ तो हो सकता है लेकिन अडवाणी और राजनाथ के ख़ास बन्दों के कब्जे से संघ के आला नेता अपनी पार्टी को निकाल लेने का मन बना चुके हैं . यह भी एक सच है कि दिल्ली में जमे हुए अमीर-उमरा आसानी से सत्ता नहीं छोड़ते लेकिन नागपुर की ताक़त को भी कम करके नहीं आँका जा सकता . नागपुर को भी मालूम है कि दिल्ली वाले पूरी कोशिश करेंगें लेकिन आर एस एस का काम भी पूरी प्लानिंग के साथ होता है . १९९८ में सत्ता में आने के बाद जिस तरह से बी जे पी के नेताओं और मंत्रियों ने कांग्रेसियों की तरह घूस और बे-ईमान्री का आचरण शुरू किया था , उस से आर एस एस के नेताओं को बहुत निराशा हुई थी. उसी दौर में उन्होंने अपने सबसे काबिल संगठनकर्ता , गोविन्दाचार्य को बी जे पी से अलग कर दिया था और उन्हें बी जे पी का विकल्प तलाशने और राजनीतिक हस्तक्षेप की अन्य संभावनाओं को तलाशने का काम सौंप दिया था.. राष्ट्र निर्माण जैसे नारों के साथ गोविन्दाचार्य तभी से इस काम में जुटे हुए हैं. उनकी कोशिश है कि आर एस एस के बाहर से भी लोगों को लाकर जोड़ा जाए. देश के ज़्यादातर गांधीवादी संगठनों पर आर एस एस का कब्जा हो ही चुका है . कोशिश की जा रही है कि हिंद स्वराज जैसी गाँधी की विरासत की निशानियों की भी हिन्दुत्ववादी व्याख्या कर ली जाये और जल्द से जल्द बी जे पी का विकल्प तैयार कर लिया जाए. अभी तक के एप्रगति को देखन इसे लगता है कि उसमें अभी कुछ और टाइम लगेगा. शायद इसीलिये संघ ने फैसला किया है कि तब तक दिल्ली में जमे हुए नेताओं के कब्जे से बाहर लाकर अपनी राजनीतिक शाखा को अपने ख़ास बन्दों के हवाले कर दिया आये. जिस से अगर बहुत ज़रूरी न हो तो नयी पार्टी बनाने की झंझट से बचा जा सके.
महाराष्ट्र के बी जे पी अध्यक्ष , नितिन गडकरी की ताजपोशी की तैयारी, शायद इसी योजना का हिस्सा है . नितिन गडकरी एक कुशाग्रबुद्धि इंसान हैं . पेशे से इंजीनियर , नितिन गडकरी ने मुंबई वालों को बहुत ही राहत दी थी जब पी डब्ल्यू डी मंत्री के रूप में शहर में बहुत सारे काम किये थे. वे नागपुर के हैं और वर्तमान संघ प्रमुख के ख़ास बन्दे के रूप में उनकी पहचान होती. है.उनके खिलाफ स्थापित सत्ता वालों का जो अभियान चल रहा है उसमें यह कहा जा रहा है कि उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर कोई काम नहीं किया है. जो लोग यह कुतर्क चला रहे हैं उनको भी मालूम है कि यह बात चलने वाली नहीं है. मुंबई जैसे नगर में जहां दुनिया भर की गतिविधियाँ चलती रहती हैं , वहां नितिन गडकरी की इज्ज़त है, वे राज्य में मंत्री रह चुके हैं , उनके पीछे आर एस एस का पूरा संगठन खडा है तो उनकी सफलता की संभावनाएं अपने आप बढ़ जाती हैं . और इस बात को तो हमेशा के लिए दफन कर दिया जाना चाहिए कि दिल्ली में ही राष्ट्रीय अनुभव होते हैं . मुंबई, बेंगलुरु , हैदराबाद आदि शहरों में भी राष्ट्रीय अनुभव हो सकते हैं . बहरहाल अब लग रहा है कि नितिन गडकरी ही बी जे पी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए जायेंगें और दिल्ली में रहने वाले नेताओं को एक बार फिर एक प्रादेशिक नेता के मातहत काम करने को मजबूर होना पड़ेगा . राजंथ सिंह की तैनाती के बाद भी दिल्ली वाली जमात को इसी दौर से गुज़रना पड़ा था. .. यह बात भी सच है कि दिल्ली वाले नेता नागपुर की मनमानी को आसानी से मानने वाले नहीं है ..अडवाणी गुट की एक प्रमुख नेता, सुषमा स्वराज ने बयान दिया है कि अडवाणी से पांच साल के लिए लोक सभा में बी जे पी के नेता चुने गए हैं और वे अपना कार्यकाल पूरा करेंगें . राजनीतिक पर्यवेक्षक मानते हैं कि इस बयान में बगावत की बू आ रही है . हो सकता है सच भी हो लेकिन हिंदुत्व की राजनीति में बड़े बड़े लोगों की बगावत को कुचल दिया गया है. सुषमा स्वराज की बी जे पी में रहते हुए, संघ के खिलाफ झंडा बुलंद करने की वैसे भी हैसियत नहीं है क्योंकि वे मूल रूप से समाजवादी राजनीति के रास्ते सत्ता की राजनीति में आई हैं . जिस उम्र में लोग संघ की राजनीति में शामिल होते हैं उस दौर में वे अम्बाला में रह कर आर एस एस को एक फासिस्ट संगठन कहती थीं. बाद में जनता पार्टी बनने पर मंत्री बनीं और जब बी जे पी वाले जनता पार्टी से अलग हुए तो हिन्दुत्ववादी बनीं. इसलिए संघ की राजनीति में उनकी पोजीशन दूसरे स्तर की है. इस लिए अब इस बात में कोई शक नहीं है कि हिन्दुत्व की राजनीति इस देश में करवट ले रही है और आने वाले कुछ महीनों में हिन्दुत्ववादी ताक़तें रिग्रुप होने जा रही हैं .
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