महाराष्ट्र विधान सभा के चुनाव के बाद राज्य में कोई परिवर्तन नहीं होगा.नतीजे आ गए हैं जैसी कि उम्मीद थी बी जे पी-शिव सेना गठबंधन को फिर सत्ता नहीं मिली. कांग्रेस ने सरकार बनाने लायक बहुमत हासिल कर लिया. हर बार की तरह इस बार भी टी वी चैनलों के पूर्वानुमान गलत निकले. ज्यादातर ने शरद पवार वाली पार्टी को बी जे पी , कांग्रेस और शिव सेना के बाद चौथे स्थान पर डाला था. हर बार की तरह इस बार भी टी वी चैनलों ने अपनी तथा कथित भविष्य वाणी में से कोई एक वाक्य उठा कर ढिंढोरा पीटा कि देखिये उनके चैनल ने कितनी सही बात कही थी. हर बार की तरह टी वी चैनलों के स्टूडियो में दिल्ली और मुंबई के विश्लेषक सर्वज्ञ मुद्रा में बुकराती गांठते देखे गए जैसे उन्हें सब कुछ पहले से ही मालूम था. यह अलग बात है कि उनमें से ज़्यादातर ने भारत के गावों का दर्शन बम्बइया फिल्मों में ही किया होगा. मुराद यह कि सब कुछ पहले जैसा ही था . हर बार की तरह बी जे पी ने आपनी हार का ज़िम्मा अपने अलावा सब पर डाला--ई वी एम , विरोधी पार्टियों की एकता, कांग्रेस का मज़बूत चुनाव अभियान , मीडिया की गैर जिम्मेदार रिपोर्टिंग वगैरह वगैरह. यानी बी जे पी की हार के लिए उसके अपने कार्यकर्ताओं के अलावा सभी जिम्मेदार थे. हर बार की तरह कांग्रेस की जीत के लिए इस बार भी केवल सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी जिम्मेदार रहे . हाँ , हरियाणा में थोडा ज़िम्मा भूपेंद्र सिंह हुड्डा का भी रहा क्योंकि स्पष्ट बहुमत से कुछ सीटें कम आ गयीं. अरुणाचल प्रदेश की जीत पूरी तरह से सोनिया , राहुल और मनमोहन सिंह की वजह से हुई.. इतना सब तो हर बार की तरह पहले की तरह हुआ लेकिन इस बार महाराष्ट्र के चुनाव में एक नयी बात हुई जिसे अगर हमारे समाज के प्रभावशाली वर्गों ने संभाल लिया तो आने वाले वक़्त में राजनीतिक आचरण के तरीके बदल सकते हैं ..
महाराष्ट्र विधान सभा के लिए हुए चुनाव के जो नतीजे हैं उनसे एक बात बहुत ही साफ़ तौर पर सामने आई है कि राजनीतिक प्रचार अभियान के रूप में दंभ भरी क्षेत्रीयता अब काम नहीं आने वाली है. शिव सेना और राज ठाकरे के पार्टी की जो दुर्दशा हुई है , उसकी धमक आने वाले कई वर्षों तक महसूस की जायेगी. यहाँ यह साफ़ कर देना ज़रूरी है कि राज ठाकरे को कोई ख़ास सफलता नहीं मिली है जैसा कि कई टी वी चैनलों में राग दरबारी की स्टाइल में चलाया जा रहा है. उनको भी इस चुनाव में जनता ने औकात बता दी है कि , भाई नफरत की बुनियाद पर सियासत करोगे तो ऐसे ही कुछ सीटें लाकर बैठे रहोगे.. उनको १३ सीटें मिली हैं जो कुछ न मिलने से ज्यादा तो हैं लेकिन महाराष्ट्र की सत्ता की राजनीति में इतनी सीटों से उन्हें कुछ नहीं हासिल होने वाला है..लुम्पन नौजवानों को इकठ्ठा करके मुंबई जैसे शहर में सड़क वीर बनने की भी उनकी तमन्ना धरी रह जायेगी. अब तक तो पुलिस और प्रशासन को शक था कि राज ठाकरे के पास नौजवानों की एक फौज है जिसकी वजह से वह सरकार को परेशान कर सकते हैं लेकिन इन चुनावों में उनकी ताक़त नप गयी . अब तो सब को मालूम है कि राज ठाकरे की क्या ताक़त है.अगर कहीं एक ईमानदार पुलिस अफसर तय कर लेगा तो राज ठाकरे की सारी मुरादें हवालात के हवाले हो जायेंगी .उनके चाचा, बाल ठाकरे, ने ६० के दशक में मराठी बेरोजगार नौजवानों और बाहर से मुंबई में काम की तलाश में आये लोगों को एक सेना की तरह लामबंद कर लिया था और उसे राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल किया था . राज ठाकरे ने भी उसी तर्ज़ पर फौज तैयार करके खेल करने की कोशिश की थी लेकिन आज के हालात वैसे नहीं हैं जैसे मुंबई में आज के ४०-५० साल पहले थे..उस वक़्त बाल ठाकरे ने जवाहरलाल नेहरु के जाने के बाद कमज़ोर पड़ रही कांग्रेस की अलोकप्रियता को भुनाने में सफलता पायी थी. उन दिनों उनके साथ आने को भी बहुत सारे नौजवान तैयार खड़े रहते थे. मुंबई के दादर-परेल इलाके में बहुत सारे कारखाने थे और वहां नौकरियों की तलाश में आने वाले नौजवानों की संख्या बहुत ज्यादा थी, ६२-६३ के दौर में किसानों की फसलें बहुत ही खराब हो गयी थीं. गाव से भाग कर मुंबई आने वाले युवकों की संख्या बहुत ज्यादा होती थी और साल छः महीने खाली बैठने के बाद वे कुछ भी करने को तैयार रहते थे.ठीक ऐसे मौके की तलाश में बैठे बाल ठाकरे उन्हें अपनी सेना में भर्ती कर लेते थे और बाद में वे लोग धन अर्जन के अन्य तरीकों से संपन्न बनने की कोशिश में लग जाते थे.बाद में येही सैनिक शहर के अलग अलग इलाकों में प्रोटेक्शन वगैरह का धंधा करने में जुट जाते थे. धीरे धीरे यही सेना एक राजनीतिक पार्टी बन गयी और बी जे पी से समझौता करके इज्ज़त की दावेदार भी बन गयी. बाल ठाकरे की दूसरी खासियत यह थी कि वह खुद भी संघर्ष कर रहे थे. ६० रूपये फीस न दे पाने के कारण उन्हें पढाई छोड़नी पडी थी और कहीं कोई काम नहीं था . फ्री प्रेस में मामूली तनखाह पर जब कार्टूनिस्ट की नौकरी मिली तो उनके लिए रोटी पानी का जुगाड़ हुआ था. इसलिए उनके साथ जुड़ने वाले लोग उनको अपने में से ही एक समझते थे. इसी दौर में उनका एक मैनरिज्म भी विकसित हुआ . आज राज ठाकरे उसी स्टाइल को कॉपी करने की कोशिश करते हैं . लेकिन आज हालात वह नहीं हैं जो 6० और 7० के दशक में थे. आज उतनी बड़ी संख्या में नौजवान बेरोजगार नहीं हैं. आर्थिक उदारीकरण की वजह से काम के अवसर ज्यादा हैं. जो भी मुंबई में रहता है उसे मालूम है कि राज ठाकरे को रोटी पानी के लिए नौजवान बाल ठाकरे की तरह जुगाड़ नहीं करना पड़ता . वे अरब पति हैं, करजट में उनका फार्म हाउस है और बाल ठाकरे के मैनरिज्म का वे अभिनय करते हैं . ऐसी हालत में उनकी अपील का कोई मतलब नहीं है. मुंबई के जागरूक मत दाताओं को मालूम है कि मराठी मानूस की बोगी चलाकर राज ठाकरे अपनी ही चमक को दुरुस्त करना चाहते हैं .. इस लिए उन्हें मराठी मानूस का वोट थोक में नहीं मिला.
राज ठकारे के उदय को कोई राजनीतिक घटना न मान कर बाल ठाकरे के बच्चों के बीच मूंछ की लड़ाई मानना ज्यादा सही होगा. यह भी मानना गलत होगा कि राज ठाकरे ने महारष्ट्र की राजनीति को कहीं से प्रभावित किया है . बस हुआ यह है कि जो सीटें शिव सेना को मिलनी थीं वे राज ठाकरे को मिल गयीं. जहां तक कांग्रेस की जीत का सवाल है उसमें विपक्षी वोटों के बिखराव का योगदान है . यह कोई नयी बात नहीं है. हर चुनाव में खिलाफ पड़ने की संभावना वाले वोटों को राजनीतिक दल एक दूसरे से भिडाने की कोशिश करते हैं . हाँ इस चुनाव के बाद, हो सकता है कि ठाकरे परिवार की राजनीति में कुछ बदलाव आये. हो सकता है कि वे अपने सगे बेटे उद्धव को पीछे करके , राज ठाकरे को आगे लायें . लेकिन इस से राजनीतिक विश्लेषकों , मीडिया और आम आदमी पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है.. इस चुनाव के नतीजे आम समझ के हिसाब से वही हैं जिसकी उम्मीद की जा रही थी.. लोक सभा चुनावों में हार का मुंह देख चुकी बी जे पी ने अगर कुछ ज्यादा उम्मीदें लगा रखी थीं तो वह उनकी समस्या है. और अगर मीडिया एक नॉन-इश्यू को बढा चढा कर पेश करता है तो वह भी उसकी समस्या है.
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Friday, October 23, 2009
Wednesday, June 24, 2009
राजनीति की विश्वसनीयता और मतदान
तीसरे दौर के मतदान के बाद यह बात बिलकुल साफ हो गई है कि इस बार के लोकसभा चुनाव में मतदाता का कोई उत्साह नहीं है। वोट प्रतिशत ऐसा है जिसको देखकर किसी तरह की लहर की बात तो दूर, बुनियादी रुचि की कमी लगती है।
वैसे गर्मी के मौसम में जब भी चुनाव होता है, अपेक्षाकृत कम लोग बूथ तक जाने की ज़हमत उठाते हैं। देश की अगली सरकार को चुनने के लिए आधी से भी कम आबादी की शिरकत चिंता का विषय है। वास्तव में लोकतंत्र की सफलता की बुनियादी शर्त है कि उसमें अधिक से अधिक लोग शामिल हों और अगर ऐसा न हुआ तो दिन ब दिन लोकशाही की ता$कत कम होती जायगी।
इस बार चुनाव प्रक्रिया में कम लोगों के शामिल होने पर चिंता की बात इस लिए भी है कि चुनाव आयोग ने पूरे देश में अखबार, रेडियो और टेलीविज़न के जरिये अभियान चला रखा था। संदेश यह था कि ज्यादा से ज्यादा लोग वोट देने पहुंचें। चुनाव आयोग के विज्ञापनों में वोट न देने वालों को लगभग फटकारा तक गया था कि वोट ना देने वाले लोग अपनी महत्वपूर्ण डयूटी से किनारा कर लेते है। उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए।
कई गैर सरकारी संगठनों ने भी नागरिकों से अपील की थी कि वोट देना राष्ट्ररीय कर्तव्य है लेकिन बड़ी संख्या में लोगों ने उनकी इस भावना की परवाह नहीं की। आर एस एस के पराने मुखिया को बदल दिया गया है, जो नए महानुभाव आए हैं उन्होंने भी आते ही नारा दिया कि अधिक से अधिक हिंदुओं को वोट देना चाहिए। उनको मुग़ालता है कि उनकी पार्टी को ही वोट देगा। भारत में रहने वाले आम हिन्दू की मानसिकता की इससे गलत समझ हो ही नहीं सकती।
इस देश में रहने वाला हिंदू आमतौर पर सहनशील है क्योंकि अगर वह सहनशील न होता तो जनसंघ हिंदू महासभा और भारतीय जनता पार्टी आजादी के 50 साल बाद तक हाशिए पर न बैठे रहते। इस देश के हिन्दू ने महात्मा गांधी और जवाहर लाल नहरू में हमेशा विश्वास किया और अगर 1980 में दुबारा सत्ता में आने के बाद इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी ने साफ्ट हिंदुत्व की आर एस एस वाली लाइन को न अपना लिया होता तो आर एस एस के हिन्दुत्व वाले मंसूबे कभी न पूरे होते।
इंदिरा गांधी के बाद कांग्रेस का नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथ में चला गया जिनकी राजनीति की समझ पर ही सवालिया निशान लगा हुआ था। राजीव गांधी के शासन के दौरान पब्लिक स्कूल टाइप ऐसे लोग कांग्रेस के नीति नियामक बन गये जो दूर तक भी राष्ट्रहित की बात सोच ही नहीं सकते थे। लेकिन उन्होंने इस देश की एकता की भावना का बहुत नुकसान किया और देश में हिन्दुत्ववादी शक्तियों के विकास के लिए जगह मिल गई। राजीव गांधी की मंडली के ज्यादातर लोग कहीं गायब हो गए है लेकिन देश के मत्थे हलकी राजनीतिक सोच की विरासत मढ़ गये हैं।
देश में मुख्यधारा की सभी पार्टियां भी हल्की राजनीतिक सोच की बीमारी की चपेट में हैं। इसीलिए अब नताओं की सभा में वैसी भीड़ नहीं जुटती जैसी महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, जय प्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया और अटल बिहारी वाजपेयी की सभाओं में जुटती थी। अब भीड़ जुटाने के लिए किसी हेमा मालिनी, संजय दत्त, सलमान खां, या अज़हरूद्दीन की तलाश की जाती है।
इन लोगों को देखने के लिए भीड़ उमड़ पड़ती है लेकिन उसका राजनीतिक दिशा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और इसीलिए चुनाव के प्रति लोगों की रुचि घट रही है और मतदान का प्रतिशत लगातार कम हो रहा है।
वैसे गर्मी के मौसम में जब भी चुनाव होता है, अपेक्षाकृत कम लोग बूथ तक जाने की ज़हमत उठाते हैं। देश की अगली सरकार को चुनने के लिए आधी से भी कम आबादी की शिरकत चिंता का विषय है। वास्तव में लोकतंत्र की सफलता की बुनियादी शर्त है कि उसमें अधिक से अधिक लोग शामिल हों और अगर ऐसा न हुआ तो दिन ब दिन लोकशाही की ता$कत कम होती जायगी।
इस बार चुनाव प्रक्रिया में कम लोगों के शामिल होने पर चिंता की बात इस लिए भी है कि चुनाव आयोग ने पूरे देश में अखबार, रेडियो और टेलीविज़न के जरिये अभियान चला रखा था। संदेश यह था कि ज्यादा से ज्यादा लोग वोट देने पहुंचें। चुनाव आयोग के विज्ञापनों में वोट न देने वालों को लगभग फटकारा तक गया था कि वोट ना देने वाले लोग अपनी महत्वपूर्ण डयूटी से किनारा कर लेते है। उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए।
कई गैर सरकारी संगठनों ने भी नागरिकों से अपील की थी कि वोट देना राष्ट्ररीय कर्तव्य है लेकिन बड़ी संख्या में लोगों ने उनकी इस भावना की परवाह नहीं की। आर एस एस के पराने मुखिया को बदल दिया गया है, जो नए महानुभाव आए हैं उन्होंने भी आते ही नारा दिया कि अधिक से अधिक हिंदुओं को वोट देना चाहिए। उनको मुग़ालता है कि उनकी पार्टी को ही वोट देगा। भारत में रहने वाले आम हिन्दू की मानसिकता की इससे गलत समझ हो ही नहीं सकती।
इस देश में रहने वाला हिंदू आमतौर पर सहनशील है क्योंकि अगर वह सहनशील न होता तो जनसंघ हिंदू महासभा और भारतीय जनता पार्टी आजादी के 50 साल बाद तक हाशिए पर न बैठे रहते। इस देश के हिन्दू ने महात्मा गांधी और जवाहर लाल नहरू में हमेशा विश्वास किया और अगर 1980 में दुबारा सत्ता में आने के बाद इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी ने साफ्ट हिंदुत्व की आर एस एस वाली लाइन को न अपना लिया होता तो आर एस एस के हिन्दुत्व वाले मंसूबे कभी न पूरे होते।
इंदिरा गांधी के बाद कांग्रेस का नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथ में चला गया जिनकी राजनीति की समझ पर ही सवालिया निशान लगा हुआ था। राजीव गांधी के शासन के दौरान पब्लिक स्कूल टाइप ऐसे लोग कांग्रेस के नीति नियामक बन गये जो दूर तक भी राष्ट्रहित की बात सोच ही नहीं सकते थे। लेकिन उन्होंने इस देश की एकता की भावना का बहुत नुकसान किया और देश में हिन्दुत्ववादी शक्तियों के विकास के लिए जगह मिल गई। राजीव गांधी की मंडली के ज्यादातर लोग कहीं गायब हो गए है लेकिन देश के मत्थे हलकी राजनीतिक सोच की विरासत मढ़ गये हैं।
देश में मुख्यधारा की सभी पार्टियां भी हल्की राजनीतिक सोच की बीमारी की चपेट में हैं। इसीलिए अब नताओं की सभा में वैसी भीड़ नहीं जुटती जैसी महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, जय प्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया और अटल बिहारी वाजपेयी की सभाओं में जुटती थी। अब भीड़ जुटाने के लिए किसी हेमा मालिनी, संजय दत्त, सलमान खां, या अज़हरूद्दीन की तलाश की जाती है।
इन लोगों को देखने के लिए भीड़ उमड़ पड़ती है लेकिन उसका राजनीतिक दिशा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और इसीलिए चुनाव के प्रति लोगों की रुचि घट रही है और मतदान का प्रतिशत लगातार कम हो रहा है।
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