Saturday, September 26, 2009

इस्लाम का आतंकवाद से कोई मतलब नहीं

दक्षिण अफ्रीका के तीन शहरों में शबाना आजमी की फिल्मों का रिट्रोस्पेक्टिव चल रहा है। इस मौके पर वहां तरह तरह के कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। कुछ कार्यक्रमों में शबाना आजमी शामिल भी हो रही हैं। ऐसे ही एक सेमिनार में उन्होंने कहा कि इस्लाम को आतंकवाद से जोडऩे की कोशिश अनुचित और अन्यायपूर्ण तो है ही, यह बिल्कुल गलत भी है। उनका कहना है कि इस्लाम ऐसा धर्म नहीं है जिसे किसी तरह के सांचे में फिट किया जा सके। शबाना आजमी ने बताया कि 53 देशों में इस्लाम पर विश्वास करने वाले लोग रहते हैं और जिस देश में भी मुसलमान रहते हैं वहां की संस्कृति पर इस्लाम का प्रभाव साफ देखा जा सकता है।

दरअसल अमरीका के कई शहरों में 9 सितंबर 2001 को हुए आतंकवादी हमलों के बाद के मुख्य अभियुक्त के रूप में ओसामा बिन लादेन का नाम आया जिसने अपने संगठन अल-कायदा के माध्यम से आतंक के बहुत से काम अंजाम दिए है। अमरीका ने योजनाबद्घ तरीके से ओसामा बिन लादेन और उसके साथियों को अपने अभियान का निशाना बनाना शुरू किया। यह दुनिया और सभ्य समाज की बद किस्मती है कि उन दिनों अमरीका का राष्ट्रपति एक ऐसा व्यक्ति जिसके बौद्घिक विकास के स्तर को लेकर जानकारों में मतभेद है।

आम तौर पर माना जाता है कि तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्लू बुश अव्वल दर्जे के मंद बुद्घि इंसान हैं लेकिन अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकारों का एक वर्ग ऐसा भी है जिसे शक है कि बुश जूनियर कभी कभी समझदारी की बात भी करने की क्षमता रखते हैं। बहर-हाल अपने आठ साल के राज में उन्होंने अमरीका का बहुत नुकसान किया। अमरीकी अर्थ व्यवस्था को भयानक तबाही के मुकाम पर पहुंचा दिया, इराक और अफगानिस्तान पर मूर्खता पूर्ण हमले किए।

पाकिस्तान के एक फौजी तानाशाह की ज़ेबें भरीं जिसने आतंक का इतना जबरदस्त ढांचा तैयार कर दिया कि अब पाकिस्तान का अस्तित्व ही खतरे में है। अपने गैर जिम्मेदार बयानों से बुश ने जितने दुश्मन बनाए शायद इतिहास में किसी ने न बनाया हो। बहरहाल बुश ने ही शायद जानबूझकर यह कोशिश की कि मुसलमानों से आतंकवाद को जोड़कर वह उन्हें अलग थलग कर लेंगे। यह उनकी मूर्खतापूर्ण गलती थी। उनको जानना चाहिए था कि इस्लाम मुहब्बत, भाईचारे और जीवन के उच्चतम आदर्श मूल्यों का धर्म है।

अगर कोई मुसलमान इस्लाम की मान्यताओं से हटकर आचरण करता है तो वह मुसलमान नहीं है। इसलाम में आतंक को कहीं भी सही नहीं ठहराया गया है। अगर यही बुनियादी बात बुश जूनियर की समझ में आ गई होती तो शायद वे उतनी गलतियां न करते जितनी उन्होंने कीं। उन्होंने योजनाबद्घ तरीके से इस्लाम को आतंक से जोडऩे का अभियान चलाया। उसी का नतीजा है कि अमरीकी हवाई अड्डों पर उन लोगों को अपमानित किया जाता है जिनका नाम फारसी या अरबी शब्दों से मिलता जुलता है। अपने बयान में शबाना आजमी इसी अमरीकी अभियान को फटकार रही थीं।

अमरीकी विदेश नीति की इस योजना को सफल होने से रोकना बहुत जरूरी है। संतोष की बात यह है कि वर्तमान अमरीकी राष्टï्रपति बराक ओबामा भी इस दिशा में काम कर रहे हैं। भारत में भी एक खास तरह की सोच के लोग यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि सभी मुसलमान एक जैसे होते हैं। और अगर यह साबित करने में सफलता मिल गई तो संघी सोच वाले लोगों को मुसलमान को आतंकवादी घोषित करने में कोई वक्त नहीं लगेगा। यहां यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि संघी सोच के लोग आर.एस.एस. के बाहर भी होते हैं। सरकारी पदों पर बैठे मिल जाते हैं, पत्रकारिता में होते हैं और न्याय व्यवस्था में भी पाए जाते हैं।

एक उदाहरण से बात को स्पष्ट करने की कोशिश की जायेगी। सरकार की तरफ से सांप्रदायिक सदभाव के पोस्टर जारी किये जाते हैं जिसमें कुछ शक्लें बनाई जाती है। चंदन लगाए व्यक्ति को हिंदू, पगड़ी पहने व्यक्ति को सिख और एक खास किस्म की पोशाक वाले को पारसी बताया जाता है। मुसलमान का व्यक्तित्व दिखाने के लिए जालीदार बनियान, चारखाने का तहमद और एक स्कल कैप पहनाया जाता है। कोशिश की जाती है कि मुसलमान को इसी सांचे में पेश करके दिखाया जाय। सारे मुसलमान इसी पोशाक को नहीं पहनते लेकिन इस तरह से पेश करना एक साजिश है और इस पर फौरन रोक लगाई जानी चाहिए।

क्योंकि अगर ऐसा न हुआ और दुबारा बीजेपी का कोई आदमी प्रधानमंत्री बना तो भारत में भी वही हो सकता है जो बुश जूनियर ने पूरी दुनिया में कर दिखाया है। वैसे संघ बिरादरी ने यह कोशिश शुरू कर दी थी कि आतंकवाद की सारी घटनाओं को मुसलमानों से जोड़कर पेश किया जाय लेकिन जब मालेगांव के धमाकों में संघ के अपने खास लोग पकड़ लिए गए तो मुश्किल हो गई। वरना उसके पहले तो बीजेपी के सदस्य और शुभचिंतक पत्रकार मुसलमान और आतंकवादी को समानार्थक शब्द बताने की योजना पर काम करने लगे थे। शबाना आजमी जैसे और भी लोगों को सामने आना चाहिए और यह साफ करना चाहिए कि मुसलमान और इसलाम को आतंकवाद से जोडऩे की कोशिश को सफल नहीं होने दिया जाएगा। धर्मनिरपेक्ष पत्रकारों को भी इस दिशा में होने वाली हर पहल का उल्लेख करना चाहिए क्योंकि एक वर्ग विशेष को आतंकवादी साबित करने की कोशिशों के नतीजे किसी के हित में नहीं होंगे।

लाल बुझक्कड़ी कूटनीति और गद्दाफी

लीबिया के तानाशाह, कर्नल मुअम्मर गद्दाफी के बारे में 70 के दशक में चर्चा होती थी कि वे कुछ सनकी हैं लेकिन दुनिया भर के प्रबुद्घ लोग आम तौर पर मानते थे कि वह प्रचार अमरीका और अमरीका परस्त मीडिया के अभियान का नतीजा होता था। उनके ऊपर आरोप लगा कि उन्होंने अपने अमरीका विरोध के जुनून में कुख्यात लाकरबी विमान विस्फोट कांड की साजिश रची। ऐसे बहुत सारे काम उनके खाते में दर्ज हैं जिसकी वजह से उन्हें सनकी माना जा सकता था लेकिन उनकी अमरीका का विरोध करने की शख्सियत के चलते मान लिया जाता था कि उनकी छवि को अमरीका खराब कर रहा है लेकिन अब ऐसा नहीं है।

संयुक्त राष्ट्र की जनरल असेंबली में अपने 100 मिनट के भाषण में कर्नल गद्दाफी ने साबित कर दिया कि उनके दिमागी संतुलन के बारे में प्रचलित बहुत सारी कहानियों में सच्चाई भी हो सकती है क्योंकि यह आरोप नहीं लगाया जा सकता कि उनको किसी ने मजबूर किया था कि वे वह भाषण दें जो उन्होंने वाशिंगटन में दिया। गौर करने की बात यह है कि उन्हें पहली बार इस विश्व संस्था में भाषण देने का मौका मिला। भाषण हस्तलिखित यानी गद्दाफी ने खुद ही अपने दिमाग का इस्तेमाल करके वहां वह प्रलाप किया, जिसके बाद उनके मानसिक असंतुलन के बारे में कोई शक नहंी रह जाता।
इस बात में दो राय नहीं है कि कर्नल गद्दाफी को अंतर्राष्टï्रीय संबंधों की बारीकियों की कोई जानकारी नहीं है।

क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय मंच पर किसी ऐसे देश के मसले को उठाना अपरिपक्वता की निशानी है लेकिन कूटनीति की बारीकियों से अनभिज्ञ गद्दाफी के लिए इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अपनी इसी सोच के चलते उन्होंने अपने भाषण में कश्मीर के मामले पर चर्चा की। सच्चाई यह है कि गद्दाफी या उनके देश लीबिया का कश्मीर समस्या से कोई लेना देना नहीं है लेकिन उनका कश्मीर मामले पर अपने आपको एक पार्टी बना देना परले दर्जे की राजनीतिक अपरिपक्तवता है। ऐसा करके उन्होंने भारत को तो नाराज किया ही, अपने प्रिय मित्र पाकिस्तान को भी बहुत खुश नहीं किया क्योंकि पाकिस्तान भी कश्मीर को एक स्वतंत्र देश के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं है, वह तो उसे अपने साथ मिलाना चाहता है। जहां तक भारत की बात है कश्मीर उसका एक राज्य है जो भारत के बंटवारे के बाद कश्मीर के राजा हरिसिंह की दस्तखत के बाद भारत का हिस्सा बना था।

कश्मीर के कुछ इलाके पर पाकिस्तान का कब्जा है जिसे वापस लेने के लिए भारत कूटनीतिक स्तर पर लगातार प्रयास कर रहा है। कश्मीर मसले पर मान न मान, मैं तेरा मेहमान की तर्ज पर इंट्री लेकर गद्दाफी ने यही साबित किया है कि वे कूटनीति की बारीकियों से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं। मुअम्मर गद्दाफी ने संयुक्त राष्ट्र में अपने भाषण के बाद अपने दुश्मनों की संख्या खूब बढ़ा ली है। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को अपमानित करते हुए उसे 'आतंकवादी परिषद' बताया और कहा कि अगर सुरक्षा परिषद का विस्तार हुआ तो दुनिया में गरीबी और नाइंसाफी बढ़ेगी और तनाव में इजाफा होगा। ऐसा लगता है कि जिस मनोदशा के वशीभूत होकर गद्दाफी भाषण कर रहे थे, उसमें कोई तार्किक बात ढूंढना ठीक नहीं होगा।

पता नहीं कैसे उन्होंने अनुमान लगा लिया कि आने वाले वक्त में इटली, जर्मनी, इंडोनेशिया, भारत, पाकिस्तान, फिलीपीन, जापान, अर्जेंटीना और ब्राजील के बीच बहुत प्रतिस्पर्धा होगी। उनके दिमाग में कहीं से यह बात आ गई है कि अगर भारत को सुरक्षा परिषद में जगह दी गई तो पाकिस्तान भी जगह मांगेगा। बहुत पहले, भारत और पाकिस्तान को एक तराजू पर तौलना अमरीकी विदेश नीति की एक प्रमुख धारा हुआ करती थी लेकिन भारत के चौतरफा विकास के बाद अब अमरीका इस नीति को छोड़ चुका है।

यहां तक कि पाकिस्तान भी अब अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है और वह भी अब अपने को भारत के बराबर नहीं मानता। पब्लिक में इस तरह की बात करनी पड़ती है क्योंकि वह पाकिस्तानी शासकों की आतंरिक राजनीति की मजबूरी है। इसलिए पाकिस्तान और भारत को बराबर करने की कोशिश करके गद्दाफी अपने कूटनीतिक अज्ञान का ही परिचय दे रहे थे। गद्दाफी की कल्पना शक्ति ने कुछ और भी कारनामे दिखाए। उन्होंने मांग की कि सदियों तक अफ्रीका को उपनिवेश बनाए रखने वाले मुल्क 70.77 खरब डॉलर का मुआवजा दें। पता नहीं कहां से उन्होंने यह आंकड़ा अर्जित किया था।

बहरहाल जिस रौ में वे बोल रहे थे, उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि उनके मुंह से कुछ भी निकल सकता था और वे उन आंकड़ों के प्रति प्रतिबद्घ तो बिलकुल नहीं नजर आ रहे थे। लेकिन उनकी कल्पना शक्ति की उड़ान यहीं खत्म होने वाली नहीं थी। उन्होंने उन डाकुओं का भी समर्थन किया जो सोमालिया के समुद्री क्षेत्र और उसके बाहर के इलाकों में जहाजों केा लूटने का धंधा कर रखा है। उन्होंने कहा कि डाके का काम करने वाले लोग डाकू नहीं हैं। उन्होंने स्वीकार किया वास्तव में पुराने वक्तों में लीबिया ने वहां जाकर सोमालिया के लोगों की जलसंपदा का हरण किया था इसलिए उनका अपना देश भी डाकू है। लेकिन इसके बात गद्दाफी फिर बहक गए और उन्होंने भारत, जापान और अमरीका को भी जल डाकू घोषित कर दिया।

विश्व बिरादरी के लिए मुश्किल की बात यह है कि इस मानसिक दशा का व्यक्ति आजकल अफ्रीकी देशों के संगठन का भी अध्यक्ष है और अगर वह बहकी बहकी बातें करता रहेगा तो कूटनीति के मैदान में अफ्रीकी देशों का बहुत नुकसान होगा क्योंकि अंतर्राष्टï्रीय मंच पर उल जलूल बात करने वाले की बात को कोई गंभीरता से नहीं लेता। हो सकता है कि संयुक्त राष्टï्र के मंच पर पहली बार अवसर मिलने के बाद गद्दाफी भाव विह्वïल हो गए हों और जो भी मन में आया बोलने लगे हों। यह भी हो सकता है कि उन्हें यह मुगालता हो कि संयुक्त राष्ट्र के मंच पर कुछ भी कह देने का कोई मतलब नहीं है, इसलिए दिल खोलकर भड़ास निकाल लो।

ऐसा इसलिए कि अपने इसी भाषण में गद्दाफी ने संयुक्त राष्ट्र जनरल असेंबली की तुलना लंदन के हाइड पार्क के 'स्पीकर्स कार्नर' से की जहां कोई भी आकर भाषण कर सकता है और अपनी भड़ास निकाल सकता है यानी उन्होंने खुद ही स्वीकार कर लिया कि वे एक प्रलाप कर रहे हैं जिसका कोई भी मतलब नहीं है। उनका यह विश्वास सच लगता है कि उनके लंबे भाषण को सुनने के लिए बहुत कम लोग बचे थे।

आतंकवादी का कोई मजहब नहीं होता

पुलिस ने पटना में एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया है जो पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आई.एस.आई के लिए काम करता था। वह भारतीय सेना में भी कभी नौकरी कर चुका है। उसके ऊपर आरोप है कि उसने भारतीय सेना के बारे में बहुत ही गुप्त जानकारी चुराई और उसे पाकिस्तानी आई.एस.आई. को बेच रहा था। ज़ाहिर है यह काम पैसे के लालच में कर रहा था। वह हिंदू है और उसे मालूम है कि आई.एस.आई. को दिया गया सामान आतंकवादी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है क्योंकि अब सारी दुनिया जानती है कि आई.एस.आई. का काम राह भटक चुके नौजवानों को बेवकूफ बनाकर भारत समेत अन्य देशों के खिलाफ इस्तेमाल करना है।

पाकिस्तान में 70 के दशक में जनरल जिया उल हक ने सत्ता संभाली तब से ही भारत में आतंक फैलाने के लिए राह भटके लोगों का इस्तेमाल होता रहा है। पंजाब में दस साल तक आतंक का जो राज चला उसके पीछे पाकिस्तानी जनरल और तानाशाह जिया उल हक का मुख्य हाथ था। लेकिन भारत के पंजाब में खून की होली खेल रहे लोग ज्यादातर सिख थे। दिल्ली में एक माओवादी नेता को बाद को पकड़ा गया है। आंध्र्रप्रदेश, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में चल रहे आतंकवादी कारनामों को चलाने वाले संगठन कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया (माओवादी) की सबसे महत्वपूर्ण नीति निर्धारक संस्था, पोलिट ब्यूरो के सदस्य कोबाद गांधी का धर्म पारसी है। माले गांव में विस्फोट करने वाले संगठन के लोग प्रज्ञा ठाकुर और रमेश पुरोहित हिंदू हैं।

अयोध्या की बाबरी मस्जिद को विध्वंस करने पर आमादा भीड़ में लगभग सभी हिंदू थे। प्रवीन तोगडिय़ा, अशोक सिंघल सभी हिंदू हैं और आतंक के जरिए अपनी बात मनवा लेने के लिए हिंसा का सहारा लेते है। कश्मीर में आतंक फैलाने वाले और पाकिस्तान की आई.एस.आई की मदद से तबाही करने वाले लोग मुसलमान हैं। भारतीय संसद पर हमला करने वाले लोग ज्यादातर मुसलमान थे, बजरंग दल का हर सदस्य हिंदू है। गुजरात 2002 के नरसंहार को अंजाम देने वाले लोग भी हिंदू ही बताए गए हैं। इस तरह हम देखते हैं कि आतंकवाद के जरिए अपना लक्ष्य हासिल करने वाले व्यक्ति का उद्देश्य राजनीतिक होता है जिसको पूरा करने के लिए वह उन लोगों का इस्तेमाल करता है जो पूरी बात को समझ नहीं पाते।

पूरी दुनिया में आतंक के तरह तरह के रूप देखे गए है। जब अमरीका में नागरिक अधिकारों के लिए लड़ाई शुरू हुई तो शुरुआती काम अमरीका के दक्षिणी शहर, नेशविल में हुआ। तीन साल तक भारत में रहकर जब जेम्स लासन नाम के व्यक्ति ने काम शुरू किया तो उसका सबसे बड़ा हथियार महात्मा गांधी का सत्याग्रह था। इसके पहले अमरीका के अफ्रीकी मूल वाले नागरिक, मानवाधिकारों की लड़ाई के लिए हिंसक तरीके अपनाते थे लेकिन जेम्स लासन ने महत्मा गांधी की तरकीब अपनाई और लड़ाई सिविल नाफरमानी के सिद्घांत पर केंद्रित हो गई। वहां के क्लू, क्लास, क्लान के श्वेत गुंडों ने इन लोगों को बहुत मारा-पीटा, आतंक का सहारा लिया लेकिन लड़ाई चलती रही, शांति ही उस लड़ाई का स्थाई भाव था।

बाद में मार्टिन लूथर किंग भी इस संघर्ष में शामिल हुए और अमरीका में अश्वेत मताधिकार सेग्रेगेशन आदि समस्याएं हल कर ली गईं। अमरीकी मानवाधिकारों को दबा देने की कोशिश कर रहे सभी अश्वते गुंडे आतंक का सहारा ले रहे थे और ईसाई धर्म में विश्वास करते थे। मतलब यह हुआ कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता और आतंकवाद को राजनीतिक हथियार बनाने वाले व्यक्ति का उद्देश्य हमेशा राजनीतिक होता है और वह भोले भाले लोगों को अपने जाल में फंसाता है। इसलिए आतंकवाद की मुखालिफत करना तो सभ्य समाज का कर्तव्य है लेकिन आतंकवाद को किसी धर्म से जोडऩे की कोशिश करना जहालत की इंतहा है क्योंकि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता। आतंकवाद अपने आप में एक राजनीतिक विचारधारा बनती जा रही है।

इसे हर हाल में रोकना होगा। जहां तक भारत का सवाल है, उसने आतंकवाद की राजनीति के चलते बहुत नुकसान उठाया है। महात्मा गांधी की हत्या करने वाले भी आतंकवादी थे और पूरी तरह से राजनीतिक रूप से प्रशिक्षित थे। उनके मुख्य साजिश कर्ता वी.डी. सावरकर थे जो हिन्दुत्व के सबसे बड़े अलंबरदार थे। यहां यह समझ लेना जरूरी है कि हिंदू धर्म का सावरकर के हिंदुत्व से कोई लेना देना नहीं है। इसके बाद भी इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्याएं भी आतंकवादी कारणों से हुईं। इंदिरा गांधी के हत्यारे सिख थे राजीव गांधी की हत्या हिन्दू आतंकवादियों ने की थी। मतलब यह हुआ कि आतंकवाद को राजनीतिक हथियार बनाने वाले का कोई मजहब नहीं होता। वह सीधे सादे लोगों की भावनाओं को उभारता है और उसका इस्तेमाल अपने मकसद को हासिल करने के लिए करता है।

सवाल यह है कि आतंकवाद को खत्म करने के लिए क्या किया जाय। जवाब साफ है कि किसी भी आतंकवादी को ऐसे मौके न दिए जांय जिससे कि वह मामूली आदमी की भावनाओं को भड़का सके। सरकारों को सख्त होना पड़ेगा और न्यायपूर्ण तरीके से फैसले करना पड़ेगा। उदाहरण के लिए अगर उस वक्त की सरकारों ने 6 दिसंबर 1992 के दिन अपने कर्तव्य का पालन इंसाफ को ध्यान में रखकर किया होता तो मुस्लिम नवयुवकों का एक बड़ा वर्ग आतंकवादियों की बात को न मानता। लेकिन साफ दिख रहा था कि उत्तरप्रदेश की कल्याण सिंह सरकार और केंद्र की नरसिम्हा राव सरकार आतंकवादियों के साथ मिली हुई हैं तो नौजवान भटका। इसमें से ही कुछ लोग आंतकवादियों के हत्थे चढ़ गये और इस्तेमाल हो गये।

1992-93 के मुंबई विस्फोट का सारा विस्फोटक मुंबई में तस्करी के चैनल से आया था और उसमें कस्टम अधिकारियों का हाथ था। स्वर्गीय मधु लिमये ने पता लगाया था कि वे सारे कस्टम वाले हिंदू थे। यह लोग पैसे की लालच में काम कर रहे थे। पटना में पकड़ा गया, आई.एस.आई. का कार्यकर्ता भी हिंदू है और पैसे की लालच में था। पंजाब में भी आतंकवाद शुरू तो हुआ पाकिस्तान की शह पर लेकिन अपने आखरी दिनों में पंजाब का आतंकवाद शुद्घ कारोबार बन गया था। इसलिए आतंकवाद को किसी भी मजहब से जोडऩा बहुत बड़ी गलती होगी।

Thursday, September 24, 2009

इस जिन्ना को भी तो देखिए...

जसवंत सिंह ने पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना के बारे में किताब लिखकर आजादी की लड़ाई और देश के बंटवारे के बहुत से मुद्दों को बहस के केंद्र में ला दिया है। इस किताब से भाजपा को दोहरा नुकसान हुआ है। ठीक है, पार्टी को जसवंत सिंह जैसा दूसरा नेता मिल जाएगा लेकिन दूसरे की भरपाई नामुमकिन है।

पिछले कई वर्षों से भाजपा की कोशिश थी कि सरदार पटेल को अपने हीरो के रुप में पेश किया जाए। ये काम काफी सुनियोजित तरीके से चल रहा था और ये संभावना थी कि नेहरू गांधी परिवार के वंशजों में सरदार पटेल के प्रति जो लापरवाह रवैया है, उससे भाजपा की योजना सफल भी हो जाती और किसी दिन सरदार पटेल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के अध्यक्ष हो जाते। लेकिन जसवंत सिंह द्वारा अपनी किताब में सरदार पटेल जिन्ना की तुलना में कमतर करने की कोशिश ने राजनीति में तूफान खड़ा कर दिया और सरदार पटेल की मुखालफत के अपराध में भाजपा को जसवंत सिंह को पार्टी की आलोचना करके जसवंत सिंह ने पार्टी की मुख्य विचारधारा का विरोध किया है।

इस घटना ने बहुत सारे गड़े मुरदे उखाड़ दिए हैं और एक बार फिर सिद्ध हो गया है कि सरदार पटेल का संघ की विचारधारा से कोई लेना-देना नहीं था। वो तो संघ विरोधी थे और गृह मंत्री के रुप में संघ पर प्रतिबंध उनके आदेश से ही लगाया गया था। दुनिया को ये भी मालूम हो गया कि सरदार पटेल के ही आदेश पर उस वक्त के सरसंघ चालक एम एस गोलवलकर को गांधी जी की हत्या के मुकदमें वाले मामले में गिरफ्तार कर लिया गया था और ये भी कि संघ से पाबंदी हटाने के लिए सरदार पटेल ने गोलवरकर ने अंडरटेकिंग लिखवाई थी। यानि अगर सरदार पटेल के मन में संघ के प्रति जरा भी मुहब्बत होती को वो मौका पाते ही उसके सरसंघ चालक को इतना जलील न करते। साफ है कि जसवंत सिंह ने ये किताब लिखकर भाजपा के लिए बड़ी मुसीबत खड़ी कर दी है।

जसवंत सिंह की किताब में कुछ भी ऐसा नहीं है जो पहले से मालूम न हो, लेकिन भारत और पाकिस्तान के बंटवारे को लेकर नए सिरे से समीक्षा का माहौल पैदा करने में इस किताब का बड़ा योगदान है। पाकिस्तान के सबसे बड़े अंग्रेजी अखबार डॉन में वहां के जाने-माने लेखक माहिर अली साहब ने एक नया तथ्य पेश किया है...उनका दावा है कि मुहम्मद अली जिन्ना देश का बंटवारा बिल्कुल नहीं चाहते थे, वो पाकिस्तान की बात इसलिए कर रहे थे कि कांग्रेसी डर जाएं और उनकी हर बात मान लें। उनकी इच्छा थी कि देश आजाद हो और एक ढीला-ढाला फेडरेशन बन जाए जिसमें मुस्लिम इलाकों की चैधराहट जिन्ना के पास रहे और वो जो चाहें करवा सकें। दुनिया जानती है कि बंटवारे के बाद जिन्ना को जो पाकिस्तान मिला वो उससे संतुष्ट नहीं थे और उन्होंने कहा कि मुझे एक मॉथ ईटेन पाकिस्तान यानी कीड़ों से खाया हुआ पाकिस्तान मिला है। जिन्ना को उम्मीद थी कि कश्मीर, जूनागढ़, हैदराबाद वगैरह भी उनको पाकिस्तान के हिस्से के रूप में मिल जाएगा।

जाहिर है पाकिस्तान की मांग जिन्ना की अदूरदर्शिता का परिणाम थी। वो कभी किसी संघर्ष में शामिल नहीं हुए थे इसलिए उनको अंदाजा नहीं था कि आजादी कितनी मुश्किल से मिली थी। अंग्रेजों की मदद और प्रेरणा से मुल्क का बंटवारा तो हो गया लेकिन बाद में जिन्ना को बहुत पछतावा हुआ बंटवारे के तुरंत बाद पाकिस्तान टाइम्स ने जिन्ना को जहाज पर बैठाकर उन इलाकों के हवाई सर्वे कराए जहां शरणार्थी शिविर लगाए गए थे। लोगों की बदहाली देखकर जिन्ना सन्न रह गए और कहा, “या खुदा, ये मैंने क्या कर डाला?”

विख्याद इतिहासकार अलेक्स टुंजेलमान ने अपनी किताब, इंडिया समर- सीक्रेट हिस्ट्री ऑफ द एंड ऑफ ऐन एम्पायर में लिखा है कि पाकिस्तान की स्थापना में जिन्ना से ज्यादा अंग्रेजों का योगदान है। टुंजेलमान ने लिखा है, “अगर जिन्ना पाकिस्तान के कायदे आजम हैं तो ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल को पाकिस्तान का चाचा माना जाना चाहिए, क्योंकि इस्लामी राज्य गठित करके कांग्रेस को औकात बताने की साजिश उन्ही की थी।” टुंजेमान ने एक और दिलचस्प बात लिखी है अपनी किताब में। उनके मुताबिक अपने आखिरी वक्त में जिन्ना ने पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान से कहा था कि पाकिस्तान मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी बेवकूफू है। अगर मुझे मौका मिला तो मैं दिल्ली जाकर जवाहरलाल से कह दूंगा कि गलतियां भूल जाओ और हम फिर से दोस्तों की तरह रहें।

इतिहास किसी को माफ नहीं करता, वो जिन्ना को भी माफ नहीं करेगा क्योंकि आजादी के 6 दशक बाद भी जिन्ना की बात पर जिन लोगों ने विश्वास किया था वो चैन से नहीं हैं। फौजी तानाशाहों और अमेरिकी दादागीरी झेल रही पाकिस्तान की आवाम में बड़ी संख्या में ऐसे लोग मिल जाएंगे जो अपनी परेशानियों के लिए जिन्ना को जिम्मेदार मानते हैं। यानी जिन्ना का जिक्र सरहदों के दोने तरफ परेशानी पैदा करता है।

ये लेख अमर उजाला में 24 सितंबर को छपा है...

Wednesday, September 23, 2009

क्या कांग्रेस वास्तव में धर्मनिरपेक्ष है?

जसवंत सिंह की किताब ऐसा कोई ऐतिहासिक दस्तावेज तो नहीं है, लेकिन जिन्ना की तारीफ जिस अंदाज से की गई है उसके बाद भारत और पाकिस्तान में उस किताब के हवाले से एक दिलचस्प बहस शुरू हो गई है। इसके पहले जसवंत सिंह की पुरानी पार्टी के नेता, लालकृष्ण आडवाणी ने जिन्ना के 11 अगस्त 1947 को कराची में दिए गए भाषण में धर्मनिरपेक्षता के विचार की तारीफ की थी और पार्टी में खलबली मच गई थी।

जसवंत सिंह ने नेहरू और पटेल की तुलना में जिन्ना के ज्यादा जिम्मेदार होने का संकेत देकर माहौल को बहुत गर्मा दिया था। इस बीच गुजरात पुलिस के कुछ बड़े अधिकारियों द्वारा मुंबई की एक लड़की इशरत जहां को फर्जी मुठभेड़ में मार डालने की बात भी बहस के दायरे में आ गई। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर उंगली उठने लगी। उनके शुभचिंतक कहने लगे कि मोदी फिर एक बार अनावश्यक विवाद के घेरे में फंस गए और उनके विरोधी कहने लगे कि इशरत जहां कि हत्या नरेंद्र मोदी के सांप्रदायिक एजेंडे को पूरा करने की बड़ी योजना का एक मामूली टुकड़ा है।

बहस एक बार सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता के विषय पर पहुंच गई और मोदी के समर्थकों ने उनके हर विरोधी को छदम धर्मनिरपेक्ष और उनके विरोधियों ने उन्हें फासिस्ट और सांप्रदायिक कहना शुरू कर दिया। इस पूरी बहस में कांग्रेस पार्टी के नेता आमतौर पर तमाशबीन बनकर आनंद ले रहे हैं और आमतौर पर धर्मनिरपेक्षता के अलम्बरदार के रूप में अपने आपको पेश कर रहे हैं। इस तरह सरदार पटेल, नेहरू, जिन्ना, आडवाणी, जसवंत सिंह, कांग्रेस पार्टी और नरेंद्र मोदी के हवाले से बहस एक बार धर्मनिरपेक्षता के इतिहास और राजनीति पर केंद्रित हो गई है।

ज़ाहिर है कि धर्मनिरपेक्षता के अहम पहलुओं पर एक बार फिर से गौर करने की ज़रूरत है और यह भी कि क्या कांग्रेस वास्तव में वैसी ही धर्मनिरपेक्ष है जैसी कि आजादी की लड़ाई के दौरान देश के महान नेताओं ने इसे बनाया था। जहां तक धर्मनिरपेक्षता की बात है वह भारत के संविधान का स्थायी भाव है, उसकी मुख्यधारा है। संविधान की शुरूआत ही इसी बात से होती है कि भारत के लोगों ने एक सार्वभौम, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और जनतांत्रिक गणतंत्र के रूप में अपने आपको गठित कर लिया है।

धर्मनिरपेक्ष होना हमारे गणतंत्र के लिए अति आवश्यक है। इस देश में जो भी संविधान की शपथ लेकर सरकारी पदों पर बैठता है वह स्वीकार करता है कि भारत के संविधान की हर बात उसे मंज़ूर है यानी उसके पास धर्मनिरपेक्षता छोड़ देने का विकल्प नहीं रह जाता। यह अलग बात है कि किसी की कमीज दूसरे व्यक्ति की कमीज से ज्यादा उजली हो सकती है। इसकी बहस में आमतौर पर कांग्रेस को बहुत ही धर्मनिरपेक्ष माना जाता है। ऐसा लगता है कि यह मान लेना साधारणीकरण होगा। जहां तक आजादी की लड़ाई का सवाल है उसका तो उद्देश्य ही धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय का राज कायम करना था। इसलिए उस दौर में कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता पर सवाल नहीं उठते लेकिन आजादी की बाद की कांग्रेस के बारे में यह सौ फीसदी सही नहीं है।

60 के दशक तक तो कांग्रेस उसी रास्ते पर चलती नजर आती है लेकिन शास्त्री जी के बाद भटकाव शुरू हो गया था और जब कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता के बुनियादी सिद्घांत पर कमजोरी दिखाई तो जनता ने और विकल्प ढूंढना शुरू कर दिया। महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' में पहली बार देश की आजादी के सवाल को हिंदू-मुस्लिम एकता से जोड़ा है। 1909 में छपी इस किताब की प्रकाशन की आजकल शताब्दी भी चल रही है। गांधी जी एक महान कम्युनिकेटर थे, जटिल सी जटिल बात को बहुत साधारण तरीके से कह देते थे। हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।"

महात्मा जी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत की, उससे अंग्रेजी राज्य की चूलें हिल गईं। आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गंाधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। शौकत अली, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव बनाया।
लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी। उसने जिन्ना टाइप लोगों की मदद से आजादी की लड़ाई में अड़ंगे डालने की कोशिश की और सफल भी हुए। लेकिन कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता, सरदार वल्लभ भाई पटेल की धर्मनिरपेक्षता सीधे महात्मा गांधी वाली थी।

कांग्रेसियों के ही एक वर्ग ने सरदार को हिंदू संप्रदायवादी साबित करने की कई बार कोशिश की लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। भारत सरकार के गृहमंत्री सरदार पटेल ने 16 दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)। सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं।

सरदार अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। उनके साथ पूरा सरकारी अमला था और उनकी बहन भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, ''इसी शहर के जलियांवाला बाग की माटी में आज़ादी हासिल करने के लिए हिंदुओं, सिखों और मुसलमानों का खून एक दूसरे से मिला था। ............... मैं आपके पास एक ख़ास अपील लेकर आया हूं। इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ............ एक हफ्ते तक अपने हाथ बांधे रहिए और देखिए क्या होता है।

मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।" सरदार पटेल की इस अपील के बाद पंजाब में हिंसा नहीं हुई। कहीं किसी शरणार्थी पर हमला नहीं हुआ। कांग्रेस के दूसरे नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं। प्रेस से उनके रिश्ते हमेशा अच्छे रहे इसलिए उनके धर्मनिरपेक्ष चिंतन को सभी जानते हैं और उस पर कभी कोई सवाल नहीं उठता। लेकिन इनके जाने के बाद कांग्रेस की राजनीति ऐसे लोगों के कब्जे में आ गई जिन्हें महात्मा जी के साथ काम करने का सौभाग्य नहीं मिला था।


कांग्रेस के इंदिरा गांधी युग में धर्मनिरपेक्षता के विकल्प की तलाश शुरू हो गई थी। उनके बेटे और उस वक्त के उत्तराधिकारी संजय गांधी ने 1975 के बाद से सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल मुसलमानों के खिलाफ करने के संकेत देना शुरू कर दिया था। खासतौर पर मुस्लिम बहुल इलाकों में इमारतें ढहाना और नसबंदी अभियान में उनको घेरना ऐसे उदाहरण हैं जो सॉफ्ट हिंदुत्व की तरफ इशारा करते हैं। 1977 के चुनाव में कांग्रेस को मुसलमानों ने वोट नहीं दिया। उसके बाद से ही कांग्रेस की सांप्रदायिक राजनीति की शुरुआत होने लगी। असम में छात्र असंतोष और पंजाब में जनरैल सिंह भिंडरावाला को कांग्रेसी शह इसी राजनीति का नतीजा है।

कांग्रेस का राजीव गांधी युग राजनीतिक समझदारी के लिए बहुत विख्यात नहीं है। वे खुद प्रबंधन की पृष्ठभूमि से आए थे और उनके संगी साथी देश को एक कारपोरेट संस्था की तरह चला रहे थे। इस प्रक्रिया में वे लोग कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की मूल सोच से मीलों दूर चले गए। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री पद पर बैठते ही जिस तरह से सुनियोजित तरीके से कांग्रेसी नेताओं ने सिखों का कत्ले आम किया, वह धर्मनिरपेक्षता तो दूर, बर्बरता है। जानकार तो यह भी शक करते हैं कि उनके साथ राज कर रहे मैनेजर टाइप नेताओं को कांग्रेस के इतिहास की भी ठीक से जानकारी थी।

बहरहाल उन्होंने जो कुछ किया उसके बाद कांग्रेस को धर्मनिरपेक्ष जमात मानने के बहुत सारे अवसर नहीं रह जाते। उन्होंने अयोध्या की विवादित बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाया और आयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास करवाया। ऐसा लगता है कि उन्हें हिन्दू वोट बैंक को झटक लेने की बहुत जल्दी थी और उन्होंने वह कारनामा कर डाला जो बीजेपी वाले भी असंभव मानते थे।

राजीव गांधी के बाद जब पार्टी के किसी नेता को प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला तो पी.वी. नरसिंह राव गद्दी पर बैठे। उन्हें न तो मुसलमान धर्मनिरपेक्ष मानता है और न ही इतिहास उन्हें कभी सांप्रदायिकता के खांचे से बाहर निकाल कर सोचेगा। बाबरी मस्जिद का ध्वंस उनके प्रधानमंत्री पद पर रहते ही हुआ था। पी.वी. नरसिंह राव जुगाड़ कला के माहिर थे और इतिहास उनकी पहचान उसी रूप में करेगा। पी.वी.नरसिंह राव के दौर में ही देश में विदेशी पूंजी की धूम शुरू हो गई थी और उसके साथ ही राज करने के तरीकों में भी परिवर्तन हुए हैं। कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व घोषित तौर पर आर.एस.एस. की नीतियों की मुखालिफत करता है। और उसी के बल पर अपने को धर्मनिरपेक्ष कहता है। यहां एक लोच है।

धर्मनिरपेक्ष राजनीति किसी के खिलाफ कोई नकारात्मक प्रक्रिया नहीं है। वह एक सकारात्मक गतिविधि है। मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व को इस बात पर विचार करना पड़ेगा और धर्मनिरपेक्षता को सत्ता में बने रहने की रणनीति के तौर पर नहीं राष्ट्र निर्माण और संविधान की सर्वोच्चता के जरूरी हथियार के रूप में संचालित करना पड़ेगा। क्योंकि आज भी धर्मनिरपेक्षता का मूल तत्व वही है जो 1909 में महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज में लिख दिया था।

Monday, September 21, 2009

मानवता का युद्ध अपराधी इजरायल

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट ने गाजा शहर पर हुए इजरायली सैनिक अभियान की सच्चाई खोल दी है। इस रिपोर्ट में वही बातें कही गईं हैं जो पूरी दुनिया को पहले से ही मालूम थीं लेकिन संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट आने के बाद उम्मीद की जानी चाहिए कि अमरीका को भी सच्चाई मालूम हो जायेगी। रिपोर्ट में कहा गया है कि इजरायली सेना ने जान बूझकर फिलस्तीनी अवाम के खिलाफ सैनिक शक्ति का इस्तेमाल किया। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट तैयार करने का जिम्मा एक जज को सौंपा गया था।

रिचर्ड गोल्डस्टोन नाम के इस जज ने कहा है कि इजरायल ने जो कुछ भी गाजा में उन तीन हफ्तों में किया है, उसे युद्ध अपराध माना जाएगा कुछ मामले तो ऐसे हैं जहां इजरायली सेना की कार्रवाई "मानवता के खिलाफ" अपराध की श्रेणी में आ जाएगी इजरायल कहता रहा है कि सैनिक कार्रवाई फिलिस्तानी इलाकों से होने वाले हमलों के जवाब में है लेकिन सच्चाई यह है कि इजरायली सेना ने कम से कम चौदह सौ लोगों को मार डाला जिसमें करीब 500 महिलाएं और बच्चे हैं। यह जांच एक निष्पक्ष जज ने की है जो मूलतः दक्षिण अफ्रीका के रहने वाले हैं।

उन्होंने पता लगाया है कि नागरिक ठिकानों को जानबूझकर निशाना बनाया गया। इजरायल ने आवश्यकता से अधिक सैनिक बल का इस्तेमाल करके सिविलियन संपत्ति और सार्वजनिक सुविधाओं की तबाही की जिसकी वजह से गाजा के सीधे सादे फिलिस्तीनियों को बहुत मुसीबतों का सामना करना पड़ा। जांच से यह भी पता लगा कि इजरायली सेना ने संयुक्त राष्ट्र के शरणार्थी ठिकानों को भी नहीं बख्शा। 15 जनवरी की रात ऐसे ही एक ठिकाने पर हमला किया गया जहां करीब 700 सिविलयन रखे गए थे। इस हमले में फॉस्फोरस बम का इस्तेमाल किया गया जिसकी वजह से आग लग जाती है।

गाजा शहर के अल कुदस अस्पताल पर भी हमला किया गया इजरायल ने अस्पताल पर हमले के बाद बहाना बनाया था कि वहां फिलिस्तीनी आतंकवादी छुपे हुए थे। जांच से पता चला है कि इजरायल का यह बयान बिल्कुल गलत है, वहां कोई नहीं छुपा हुआ था। हमले में बेगुनाह लोग मारे गए थे। कई ऐसे भी मामलों से पर्दाफाश हुआ है जब इजरायली सेना ने निर्दोष बच्चों और औरतों को अगवा किया, उनकी आंखों पर पट्टी बांधी और उनको आगे करके मानवीय शील्ड की तरह इस्तेमाल किया, फिलिस्तीनी ठिकानों पर हमला किया और तबाही मचाई।

ऐसे भी सबूत मिले हैं कि इजरायली सेना ने खेती को बर्बाद किया, पानी के कुओं में बमबारी की, पानी के टैंक बरबाद किए और जिंदगी को नामुमकिन बनाने की कोशिश की। उनका लक्ष्य स्पष्ट था कि फिलिस्तीनी अवाम के लिए इतनी मुश्किले पैदा कर दी जायं कि उनकी जिंदगी तबाह हो जाय। इजरायली सेना हमेशा से यही करती रही है, इसमें नया कुछ नहीं है। नया है तो बस उस उम्मीद का मर जाना, जो दुनिया के सभ्य समाजों ने अमरीका के नए राष्ट्रपति बराक ओबामा से लगा रखी थी।अपने चुनाव अभियान के शुरुआती दौर से ही बराक ओबामा यह संकेत देते रहे थे कि उनकी पश्चिम एशिया नीति उतनी अरब विरोधी नहीं होती जितनी अब तक के राष्ट्रपतियों की होती रही है लेकिन अब तक के संकेतों से तो यही लगता है कि कोई खास परिवर्तन नहीं होने वाला है।

अमरीका की नीति पश्चिम एशिया में वही रहेगी जिसके हिसाब से इजरायल को धौंस देने के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है। दरअसल रिचर्ड ग्लैडस्टोन की रिपोर्ट के बाद बराक ओबामा की परीक्षा की घड़ी भी आ पहुंची है। जैसी कि उम्मीद थी, इजरायल ने ग्लैडस्टोन की रिपोर्ट को पक्षपातपूर्ण कहकर टरकाने की कोशिश की लेकिन इस दक्षिण अफ्रीकी जज ने इजरायल को फटकार दिया है और कहा कि इजरायल का यह कहना ही गैर जिम्मेदार आचरण है कि रिपोर्ट तैयार करते समय उन पर कोई दबाव डाल रहा था। उन्होंने कहा कि जो कुछ भी रिपोर्ट में लिखा गया है, वह एक निष्पक्ष जांच का नतीजा है। और उन्हें इस बात का अफसोस रहेगा कि इस पूरी जांच प्रक्रिया में इजरायल का रुख सहयोग का नहीं रहा।

इस बीच इजरायली मीडिया के माध्यम से सरकार ने जज ग्लैडस्टोन पर व्यक्तिगत हमलों का अभियान शुरू कर दिया है लेकिन ग्लैडस्टोन के ऊपर इसका कुछ भी असर नहीं पड़ने वाला है। वे इस तरह की परिस्थितियों से कई बार गुजर चुके हैं। 1994 में जब रंगभेद के खात्मे के बाद दक्षिणी अफ्रीका में चुनाव हुए तो चुनावों के पहले बड़े पैमाने पर हिंसा और धौंस पट्टी की वारदातें हुई थीं। उनकी जांच का जिम्मा भी इन्हें दिया गया था और उसे उन्होंने बहुत ही सच्चाई के साथ पूरा किया था। वे अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में यूगोस्लाविया और वांडा जैसे मामलों में भी संयुक्त राष्ट्र की तरफ से काम कर चुके है। अब अमरीका के राष्ट्रपति को एक मौका मिला है कि वे फिलिस्तीन और अरब राजनीति में इंसाफ के पक्षधर के रूप में अपने आपको पेश करें क्योंकि अगर ऐसा न हुआ तो अन्य अमरीकी राष्ट्रपतियों की तरह इतिहास उनको भी नहीं माफ करेगा।

Friday, September 18, 2009

ऐतिहासिक भूलों का मार्क्सवादी मसीहा

पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टियों को एक और चुनावी नुकसान हुआ है। लोकसभा चुनाव में काफी सीटें गवां चुकी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और अन्य वामपंथी पार्टियों को सिलिगुड़ी नगर निगम के चुनावों में जोर का झटका बहुत ज़ोर से लगा है। पिछले 28 वर्षों से सिलीगुड़ी नगर निगम पर लाल झंडे वालों का कब्ज़ा था लेकिन इस बार उन्हें मुंह की खानी पड़ी है।

अबकी तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस गठबंधन ने 29 सीटें जीतकर स्पष्ट बहुमत हासिल कर लिया है। वामपंथी मोर्चे को केवल 17 सीटें मिली हैं। यह बड़ी हार है क्योंकि पिछले चुनावों में 36 सीटें जीतकर सिलीगुड़ी नगर पालिका पर लाल झंडा फहराया गया था। गौर करने की बात यह है कि सिलीगुड़ी किसी कस्बे की टाउन एरिया कमेटी नहीं है, यह कलकत्ता के बाद राज्य का सबसे बड़ा नगर निगम है। इसे उत्तर बंगाल में लेफ्ट का गढ़ माना जाता है।

दक्षिण बंगाल में मार्क्सवादी दलों की दुर्दशा लोकसभा चुनाव में ही हो चुकी थी अब उत्तर बंगाल में राग विदाई की भनक सुनाई पड़ने लगी है। सिलीगुड़ी नगर निगम के चुनाव का भावार्थ बहुत गहरा है। 2011 में पश्चिम बंगाल विधानसभा का चुनाव होने वाला है और तृणमूल कांग्रेस की कोशिश है कि उस चुनाव में अपनी जीत के पक्की होने के संदेश के रूप में सिलीगुड़ी की लड़ाई को पेश किया जाय। दक्षिण बंगाल में वाम मोर्चा की जो खस्ता हालत हुई है, उसको ध्यान में रखा जाय तो इस बात में बहुत वज़न नज़र आने लगता है कि ममता बनर्जी राज्य की सबसे महत्वपूर्ण नेता के रूप में उभर रही है।

सवाल उठता है कि पश्चिम बंगाल में पिछले 32 वर्षों से राज करने वाले वाम मोर्चे के नेताओं के सामने यह दुर्दिन क्यों मुंह बाए खड़ा है? 1977 में वाम मोर्चे ने कई साल से चल रहे कांग्रेसी कुशासन को समाप्त करने के लिए पश्चिम बंगाल की जनता के भारी समर्थन से कलकत्ता में सरकार बनाई थी। ज्योति बसु मुख्मंत्री बने थे और राज्य में बुनियादी परिवर्तन की शुरुआत की थी। गांवों में रहने वाले गरीब से गरीब आदमी के हित को राजकाज के फैसलों का केंद्र बिंदु बनाकर ज्योति बसु ने राज किया लेकिन जब हाथ पांव चलाने में भी दिक्कत होने लगी और उम्र अपना नज़ारा दिखाने लगी तो उन्होंने अगली पीढ़ी को काम संभलवाकर वानप्रस्थ ले लिया।

लगता है कि यहीं कोई चूक हो गई क्योंकि ज्योति बसु के जाने के बाद से ही पश्चिम बंगाल में वामपंथी राजनीति ढलान पर है। पार्टी का दुर्भाग्य ही है कि ज्योति बसु के लगभग साथ-साथ ही दिल्ली के सत्ता के गलियारों का ज्ञाता एक और कम्युनिस्ट रिटायर हो गया। हरिकिशन सिंह सुरजीत के बैठक ले लेने के बाद दिल्ली में भी सत्ता परिवर्तन हुआ और नए महासचिव, प्रकाश करात ने कमान संभाली। प्रकाश करात बहुत ही पढ़े लिखे और कुशाग्र बुद्धि के माहिर नेता हैं।

चुस्त दुरुस्त लेखन के ज्ञाता हैं और मार्क्सवाद के प्रकांड पंडित हैं। उनका व्यक्तित्व कुछ-कुछ मुहम्मद अली जिनाह वाला है। जिनाह की एक खासियत थी कि वे कभी भी किसी जन आंदोलन का हिस्सा नहीं रहे लेकिन अपनी बात को सबसे ऊपर रखने की कला के माहिर थे। जिन्ना की खासियत यह थी कि वे पूरी नहीं तो आधी ही सत्ता लेकर माने लेकिन प्रकाश करात आई हुई सत्ता को दुत्कार कर भगा देने में बहुत ही निपुण हैं।

1996 में जब पूरा देश ज्योति बसु को प्रधान मंत्री देखना चाहता था, प्रकाश करात ने ही उस खेल में गाड़ी के आगे काठ रखा था। बाद में उस गलती को ऐतिहासिक भूल कहा गया और पार्टी ने गलती स्वीकार की। उसके बाद प्रकाश करात को ऐतिहासिक भूलों का विशेषज्ञ मान लिया गया। 2004 में कांग्रेस को बाहर से समर्थन देना, अभी ऐतिहासिक भूल के रूप में औपचारिक रूप से दर्ज तो नहीं है लेकिन जानकार बताते हैं कि अंदरखाने यह चर्चा हुई थी कि अगर मनमोहन सिंह सरकार में करीब 10 कम्युनिस्ट मंत्री होते तो बहुराष्ट्रीय कंपनियां मनमानी न कर पातीं और सरकार परमाणु समझौता न कर पाती।

बाद में सरकार से समर्थन वापसी और तथाकथित तीसरा मोर्चा बनाने की ऐतिहासिक भूलें भी न होतीं। दक्षिणपंथी राजनेताओं और पूंजीवादी मीडिया की कृपा से आमतौर पर माना जाता है कि कम्युनिस्ट पार्टियों में लोकतांत्रिक तरीके से काम नहीं होता। लेकिन यह सच नहीं हैं, कम्युनिस्ट पार्टियों में हर प्रस्ताव गांव स्तर की कमेटी तक बहस के लिए लाया जाता है और अधिकतर संख्या के लोगों की राय को राष्ट्रीय प्रस्तावों में परिलक्षित होते देखा जा सकता है।

मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में भी यही माहौल था। लेकिन ज्योति बसु-सुरजीत टीम के हटने के बाद लगता है, यह रिवाज खत्म हो गया। आम कार्यकर्ता अपने को अलग थलग महसूस करने लगा। जब लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निकाला गया तो पश्चिम बंगाल में चारों तरफ निराशा छा गई। लगता है कि भविष्य में सोमनाथ को हटाने का फैसला भी ऐतिहासिक भूल की हैसियत हासिल कर लेगा। बहरहाल भूलों के बाद भूल करती मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी पश्चिम बंगाल में एक-एक करके सब कुछ गंवा रही है। यह देखना दिलचस्प होगा कि चुनावों में लगातार नुकसान उठा रही पार्टी अपने को संभाल पाती है या उसका भी वही हाल होता है, जो उत्तर भारत के कई राज्यों में कांग्रेस पार्टी का हुआ है।

Thursday, September 17, 2009

कांग्रेस की शिकस्त और बड़प्पन के मुग़ालते

लोकसभा चुनाव 2009 के बाद धर्मनिरपेक्ष सोच वाले लोगों के घरों में जो नगाड़े बजना शुरू हुए थे, उनकी आवाज कुछ सहम सी गई है। बीजेपी और संघ से संबंधित अन्य दक्षिणपंथी ताकतों की सरकार बना लेने की योजना को नाकाम करने के बात को कांग्रेस पार्टी ने अपनी जीत बताना शुरू कर दिया था और उसी रौ में बह रही थी।

उत्तर प्रदेश में उम्मीद से कुछ सीटें ज्यादा पाने के बाद कांग्रेसी नेताओं की चाल में कुछ अलग किस्म की धमक आ गई थी, महाराष्ट्र में भी अपने पुराने साथी एनसीपी के नेता, शरद पवार को औकातबोध का ककहरा बताया जाने लगा था। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के प्रतिनिधि अमर सिंह की शिकायत टेलीविजन पर सुनाई पड़ी कि सोनिया गांधी उनको मिलने का टाइम तक नहीं दे रही हैं। यानी कांगे्रस में वही सारे लक्षण दिखने लगे थे, जो एक विजेता में पाए जाते हैं। सच्ची बात यह है कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत नहीं हुई थी।

वास्तव में जिसे कांग्रेस की जीत कहा जा रहा है, वह बीजेपी की हार थी। कांग्रेस ने तो सबसे बड़ी पार्टी की हैसियत हासिल करके कहीं का ईंट, कहीं का रोड़ा जुटाकर दिल्ली में एक सरकार बना दी थी। जिससे केंद्र में स्थिरता आ गई थी। केंद्र सरकार बन जाने के बाद कांग्रेस के ज्यादातर नेता इसे धर्मनिरपेक्षता की जीत बताने लगे और यहीं गलती हो गई क्योंकि खींच खांचकर कांग्रेस को तो सेक्युलर माना जा सकता है लेकिन यूपीए में शामिल सभी घटक दल ऐसे नहीं हैं।

उसमें ममता बनर्जी, फारूक अब्दुल्लाह और करूणानिधि भी हैं जो अटल बिहारी वाजपेयी की ताजपोशी में भूमिका अदा कर चुके हैं। ममता बनर्जी तो बीजेपी के साथ मिलकर पश्चिम बंगाल में चुनाव भी लड़ चुकी हैं। इसलिए केंद्र सरकार की धर्मनिरपेक्षता स्वंयसिद्घ नही हैं। हां अगर कांग्रेस की नीयत साफ हो तो इस सरकार से सेक्युलर एजेंडे पर काम करवाया जा सकता है। एक बात जो बहुत ज्यादा सच है, वह यह कि किसी भी सरकार के जरिए राजनीतिक लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती खासकर अगर सरकार में शामिल मंत्री आराम तलबी की लत के शिकार हो चुके हैं।

पिछले दिनों जिस तरह से हवाई जहाज़ में मंहगी टिकट लेकर यात्रा करने के मामले में नेताओं का व्यक्तित्व उभरा है, वह बहुत ही दु:खद है। इन लोगों से किसी राजनीतिक लड़ाई के संचालन की उम्मीद करना बेमतलब है। बहरहाल मई से अब तक के बीच में जो हुआ है, उसका लुब्बो-लुबाब यह है कि सांप्रदायिक ताकतें फिर से लामबंद हो रही हैं और विधान सभा के कुछ उपचुनावों के जो नतीजे आए हैं, वे निश्चित रूप से इस बात का संकेत करते हैं कि बीजेपी कहीं से कमजोर नहीं है और कांग्रेस के लोग फौरन न चेते तो उनकी राजनीतिक हैसियत ढलान पर चल रही मानी जाएगी और ढलान पर चलने वाली हर सवारी सबसे निचले स्तर पर पहुंच कर ही रूकती हैं।

अब जिन 12 उपचुनावों के नतीजे आए हैं उनमें सात सीटें बीजेपी को मिली हैं। इसमें 6 सीटें वे हैं जो पहले कांग्रेस के पास थीं और इन उपचुनावों में वे बीजेपी के पास आ गई हैं। इसका मतलब यह हुआ कि कांग्रेस इन इलाकों में कमजोर हुई है। कांग्रेस को जहां सफलता मिली है, उनमें से ज्यादातर सीटें आंध्र प्रदेश से आई हैं जहां सांप्रदायिक ताकतें बहुत ही कमज़ोर हैं। यानी अगर कांग्रेस को सांप्रदायिकता के खिलाफ ईमानदारी से लड़ाई का नेतृत्व करना है तो उसे पूरे देश में मौजूद बहुसंख्यक धर्मनिरपेक्ष लोगों की लामबंद करना पड़ेगा। यह काम कोई आसान नहीं है। उसके लिए सबसे पहले तो कांग्रेसी नेताओं को दंभ की बीमारी छोडऩी पड़ेगी।

अभी कल की बात है कि समाजवादी पार्टी ने परमाणु समझौते वाले मसले पर कांग्रेस की आबरू बचाई थी और आज थोड़ी ज्यादा सीटें आ गईं तो उस पार्टी के महामंत्री को सोनिया गांधी के निजी सहायक तक ने समय नहीं दिया। यही हाल महाराष्ट्र में भी है। संयुक्त मोर्चा सरकारों के बारे में पश्चिम बंगाल के लेफ्ट फ्रंट का तजुरबा बहुत ही महत्वपूर्ण है। 1977 में राज्य की वामपंथी पार्टियों ने मिलकर चुनाव लड़ा और सरकार बनाई। उसके बाद कई बार ऐसे मौके आए कि सबसे बड़ी पार्टी को अपने बलबूते पर स्पष्टï बहुमत मिल गया लेकिन पार्टी के सबसे बड़े नेता ज्योति बसु अहंकार से वशीभूत नहीं हुए और सभी पार्टियों को साथ लेकर चलते रहे।

केंद्रीय नेतृत्व का सबसे बड़ा अधिकारी जिद्दी और दंभी है जिसकी वजह से कांग्रेस और ममता बनर्जी की संयुक्त ताकत वामपंथियों को दुरूस्त कर रही है। बहरहाल ज्योतिबसु और हरिकिशन सिंह सुरजीत के नेतृत्व में गठबंधन राजनीति का जो बंगाल मॉडल विकसित हुआ है, केंद्र की पार्टियों को भी उसको अपनाना चाहिए। खासतौर से अगर फासिस्ट ताकतों से मुकाबला है तो जनवादी ताकतों और उनके साथियों को लामबंद होना पड़ेगा। कांग्रेसी नेताओं में घुस चुके अहंकार के भाव को अगर फौरन रोका न गया तो भारत सांप्रदायिकता के खिलाफ शुरू की गई लड़ाई हार जाएगा। जो देश के लिए बिलकुल ठीक नहीं होगा।

Tuesday, September 15, 2009

भूख की जंग का अजेय योद्धा

डॉ. नार्मन बोरलाग नहीं रहे। अमरीका के दक्षिणी राज्य टेक्सॉस में 95 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया और पिछली सदी के सबसे महान व्यक्तियों में से एक ने अपना पूरा जीवन मानवता को समर्पित करके विदा ले ली। उन्हें 1970 में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। डा. बोरलाग ने भूख के खिलाफ लड़ाई लड़ी और दुनिया के बड़े हिस्से में भूख को पराजित किया। पूरे दक्षिण अमरीका और एशिया में उन्होंने भूख को बेदखल करने का अभियान चलाया और काफी हद तक सफल रहे।


प्रो. बोरलाग को ग्रीन रिवोल्यूशन का जनक कहा जाता है। हालांकि वे इस उपाधि को स्वीकार करने में बहुत संकोच करते थे। लेकिन सच्ची बात यह है कि 1960 के दशक में भूख के मुकाबिल खड़ी दक्षिण एशिया की जनता को डॉ. नार्मल बोरलाग ने भूख से लड़ने और बच निकलने की तमीज सिखाई। 20 वीं सदी की सबसे खतरनाक समस्या भूख को ही माना जाता है। ज्यादातर विद्वानों ने दूसरे विश्वयुद्ध के बाद भविष्यवाणी कर दी थी कि सदी के अंत के दो दशकों में अनाज की इतनी कमी होगी कि बहुत बड़ी संख्या में लोग भूख से मर जाएंगे।

विद्वानों को समझ में नहीं आ रहा था कि किया क्या जाए। इसी दौरान दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति पर जब नार्मन बोरलाग, वापस आए तो उन्हें अमरीका की बहुत बड़ी रासायनिक कंपनी में नौकरी मिली लेकिन उनका मन नहीं लगा और रॉकफेलर फाउंडेशन के एक प्रोजेक्ट के तहत वे मैक्सिको चले गए। इस प्रोजेक्ट का उद्देश्य मैक्सिको के किसानों को अपनी फसल को सुधारने की जानकारी और ट्रेनिंग देना था। इस योजना को उस वक्त की अमरीकी सरकार का आशीर्वाद प्राप्त था। बोरलाग जब मैक्सिको पहुंचे तो सन्न रह गए, वहां हालात बहुत खराब थे। मिट्टी का पूरा दोहन हो चुका था, बहुत पुराने तरीके से खेती होती थी और किसान इतना भी नहीं पैदा कर सकते थे कि अपने परिवार को दो जून की रोटी खिला सकें।

इसी हालत में इस तपस्वी ने अपना काम शुरू किया। कई वर्षों के कठिन परिश्रम के बाद गेहूं की ऐसी किस्में विकसित कीं जिनकी वजह से पैदावार कई गुना ज्यादा होने लगी। आमतौर पर गेहूं की पैदावार तीन गुना ज्यादा हो गई और कुछ मामलों में तो चार गुना तक पहुंच गई। मैक्सिको सहित कई अन्य दक्षिण अमरीकी देशों में किसानों में खुशहाली आना शुरू हो गई थी, बहुत कम लोग भूखे सो रहे थे। बाकी दुनिया में भी यही हाल था। 60 का दशक पूरी दुनिया में गरीब आदमी और किसान के लिए बहुत मुश्किल भरा माना जाता है। भारत में भी खेती के वही प्राचीन तरीके थे। पीढ़ियों से चले आ रहे बीज बोए जा रहे थे।

1962 में चीन और 1965 में पाकिस्तान से लड़ाई हो चुकी थी, गरीब आदमी और किसान भुखमरी के कगार पर खड़ा था। अमरीका से पी.एल-480 के तहत सहायता में मिलने वाला गेहूं और ज्वार ही भूख मिटाने का मुख्य साधन बन चुका था और कहा जाता था कि भारत की खाद्य समस्या, "शिप इ माउथ" चलती है। यानी अमरीका से आने वाला गेहूं, फौरन भारत के गरीब आदमियों तक पहुंचाया जाता था। ऐसी विकट परिस्थिति में डॉ. बोरलाग भारत आए और हरितक्रांति का सूत्रपात किया। हरित क्रांति के अंतर्गत किसान को अच्छे औजार, सिंचाई के लिए पानी और उन्नत बीज की व्यवस्था की जानी थी जो डॉ. बोरलाग की प्रेरणा से संभव हुआ।

भारत में दो ढाई साल में ही हालात बदल गए और अमरीका से आने वाले अनाज को मना कर दिया गया। भारत एक फूड सरप्लस देश बन चुका था। भारत में हरितक्रांति के लिए तकनीकी मदद तो निश्चित रूप से नॉरमन बोरलाग की वजह से मिली लेकिन भारत के कृषिमंत्री सी. सुब्रहमण्यम ने राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया और हरित क्रांति के लिए जरूरी प्रशासनिक इंतजाम किया। डा. बोरलाग का अविष्कार था बौना गेहूं और धान जिसने भारत और पाकिस्तान में मुंह बाए खड़ी भुखमरी की समस्या को हमेशा के लिए बौना कर दिया। बाद में चीन ने भी इस टेक्नालोजी का फायदा उठाया।

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Friday, September 11, 2009

हैदराबाद के तख्त की लड़ाई

हैदराबाद के तख्त की लड़ाई निर्णायक मुकाम पर पहुंचने वाली है। राजशेखर रेड्डी की दु:खद मृत्यु के बाद उनके वफादरों का एक वर्ग उनके अनुभवहीन बेटे को गद्दी पर बैठाने की जुगत में है। इन लोगों का कहना है कि वाई.एस.आर. के बेटे, जगनमोहन को मुख्यमंत्री बना देने से पार्टी का बहुत फायदा होगा। दावा किया जा रहा है कि आंध्रप्रदेश के लगभग सभी विधायक और अधिसंख्य सांसद, जगनमोहन रेड्डी को मुख्यमंत्री बनवाना चाहते हैं।

इसी तरह के और भी बहुत सारे तर्क दिए जा रहे हैं। यह सारे ही तर्क बेमतलब हैं। कोई वंशवाद की जय जयकार कर रहे इन कांग्रेसियों से पूछे कि अगर जगनमोहन रेड्डी के अलावा दिल्ली दरबार में किसी और व्यक्ति को आंध्र प्रदेश की गद्दी सौंप दी जाएगी तो क्या यह जगन ब्रिगेड नए मुख्यमंत्री का समर्थन नहीं करेगा। यह प्रश्न है जो सभी सवालों के जवाब दे देगा। आम तौर पर माना जाता है कि जयकारा लगाने वाले ए नेता सिंहासन से प्रतिबद्घ होते हैं। जो ही राजा बन जाएगा, उसी का चालीसा पढऩे लगेगे।

कांग्रेस आलाकमान के अब तक के संकेत से तो साफ है कि आंध्रप्रदेश में वंशवाद को बढ़ावा नहीं दिया जायेगा। एक तो जगन मोहन रेड्डी बिलकुल अनुभवहीन हैं, दूसरे उनकी ख्याति भी बहुत सकारात्मक नहीं है। इसके अलावा सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि राजनीति में रिटेक नहीं होता यानी दुबारा मौका नहीं मिलता। अगर एक राजनीतिक गलती कर दी तो आंध्रप्रदेश में कांग्रेस का वह हाल भी हो सकता है जो एन.टी. रामाराव ने किया था।

इसलिए सोनिया गांधी कोई भी लूज बाल नहीं फेंकना चाहतीं क्योंकि क्रिकेट में लूज बाल फेंकने पर एक छक्का लगता है लेकिन राजनीतिक में लूज बाल पर छक्का भी लगता है और विकेट भी जाती है। इसलिए कांग्रेस को आंध्रप्रदेश में ऐसे व्यक्ति की तलाश है जो उस मजबूती को संभाल सके जो राजशेखर रेड्डी की मेहनत से राज्य में मौजूद है। एक और भी तल्ख सच्चाई है जिस पर है कि कांग्रेस आलाकमान की नजर ज़रूर होगी। वह यह कि राज्य में स्वर्गीय राजशेखर रेड्डी के कद का कोई नेता नहीं है।

सोनिया गांधी के सामने विकल्प बहुत कम हैं और फैसला कठिन। शायद आंध्रप्रदेश के कांग्रेस सांसद और राजशेखर रेड्डी के निजी मित्र के.वी.पी. राव को विकल्पों की कमी का एहसास सबसे ज्यादा है इसीलिए जगनमोहन की ताजपोशी न होने की हालत में वे केंद्र में अपने या जगन मोहन के लिए कुछ हासिल कर लेना चाहते हैं।

वंशवाद के खिलाफ जाने के मामले पर कांगे्रेस की कोर भी थोड़ी दबी हुई है। 1975 में जब इंदिरा गांधी ने अपने अनुभवहीन बेटे को उत्तराधिकारी बनाने की योजना बनाई तो एक तरह से कांग्रेस के अंदर रहकर वंशवाद के खिलाफ आवाज उठाने वालों की बोलती सदा के लिए बंद कर दी गई थी। यह परंपरा आज तक कायम है इसलिए जगनमोहन की दावेदारी, वंशवाद का तर्क देकर तो नहीं खारिज की जा सकती। इसके बावजूद भी सोनिया गांधी का अब तक का रुख ऐसा है कि वह राजनीतिक परिपक्वता का परिचय देकर किसी ऐसे व्यक्ति को सत्ता सौंपना चाहती हैं जो राजनीतिक रूप से सब को स्वीकार्य हो।

यहां यह भी स्पष्ट रूप से समझ लेने की जरुरत है कि सत्तर के दशक में जो कांग्रेस पार्टी ने राज्यों के कद्दावर नेताओं को बौना बनाने का सिलसिला शुरू किया था अब वह पूरी तरह से लागू है और फल फूल रहा है अगर भूला बिसरा कोई नेता किसी राज्य में ताकतवर होता भी है तो वह आलाकमान के आशीर्वाद का मोहताज रहता है। इसलिए यह सोचना ही बेमतलब है कि कोई भी ऐसा व्यक्ति जिसे दिल्ली से नामजद कर दिया जाएगा, उसे विधायक अस्वीकार कर देंगे।

इसलिए जगनमोहन रेड्डी का सारा समर्थन काफूर हो जायेगा जब आलाकमान किसी और को मुख्यमंत्री बना देगा। सारे विधायक उसी के समर्थक हो जाएंगे। इस मामले ने एक बार फिर हमारे लोकतंत्र की दुखती रग पर हाथ रख दिया है। साठ के दशक तक ज्यादातर राज्यों में कांग्रेसी शासन होता था लेकिन आम तौर पर मुख्यमंत्री के बारे में राज्य की राजधानी में ही फैसला होता था। राज्यों के मुख्यमंत्री आम तौर पर आलाकमान का हिस्सा होते थे। उनका चुनाव आम सहमति से होता था लेकिन वह आम सहमति सोच विचार और बहस के बाद हासिल की जाती थी, हड़काकर नहीं।

बहरहाल, सोनिया गांधी के सामने इस वक्त वह अवसर है कि सच्ची आम सहमति की संस्कृति को फिर से महत्व दे सकती हैं। पिछले कुछ वर्षों में उन्होंने देश की राजनीतिक व्यवस्था में कुछ ऐसे प्रयोग किए हैं जो देश को सही ढर्रे पर ले जा सकते हैं। देखना यह है कि आंध्रप्रदेश में उनका फैसला राजनीतिक परिपक्वता का संदेश देता है या राजनीतिक गुटबाजी और वंशवाद को बढ़ावा देता है।
आंध्रप्रदेश में राजशेखर रेड्डी के बाद किसी को भी मुश्किल पेश आएगी। 2004 में जब राजशेखर रेड्डी ने तेलगुदेशम पार्टी को हराकर कांग्रेस को फिर से सत्ता दिलवाई थी, तो कांग्रेस की हैसियत बहुत कम थी।

पिछले पांच वर्षों में उन्होंने पार्टी को मजबूती दी और दुबारा जीतकर आए लेकिन यह कोई अटल सत्य नहीं है कि कांग्रेस हमेशा के लिए आ गई है। अगर एक फैसला गड़बड़ हुआ कि कांग्रेस फिर वहीं पहुंच जाएगी। जहां एन.टी.आर. ने पहुंचाया था इसलिए यह लोकतंत्र के हित में है कि कांग्रेस आलाकमान सही फैसला ले।

Thursday, September 10, 2009

मूर्तियां जरूरी कि सूखा राहत

मायावती सरकार के मूर्ति बनाने के अभियान पर सुप्रीम कोर्ट का ब्रेक लग गया है। सूखे से त्राहि त्राहि कर रहे उत्तरप्रदेश की सरकार, राज्य में हजारों करोड़ रुपए खर्च करके दलित नेताओं और हाथियों की मूर्तियों लगवाने और कांशीराम का स्मारक बनवाने की इतनी हड़बड़ी में है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की भी अनदेखी कर रही है।

बहरहाल मंगलवार को मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार की दलीलों को कोई महत्व नहीं दिया और ऐसे सवाल पूछे जो सरकार के लिए मुश्किल खड़ी कर सकते हैं। स्टे आर्डर तो नहीं दिया लेकिन सरकार से अंडरटेकिंग लिखवा ली कि जब तक सुप्रीम कोर्ट की तरफ से विचाराधीन मामले में कोई फाइनल फैसला नहीं हो जाता, मूर्ति और स्मारक का निर्माण कार्य रोक दिया जाएगा।
जस्टिस बी.एन. अग्रवाल और जस्टिस आफताब आलम की बेंच ने उत्तरप्रदेश सरकार के फैसला लेने की प्रक्रिया की भी न्यायिक समीक्षा की संभावना पर गौर करने की बात की है। बेंच ने कहा कि इस बात की जांच की जाएगी कि क्या किसी भी सरकार को इस तरह के खर्च करने की मंजूरी संविधान में दी गई है।

उत्तरप्रदेश सरकार के वकील सतीश चंद्र मिश्र ने दलील दी कि राजनीतिक कारणों से उनके मुवक्किल यानी उत्तरप्रदेश सरकार पर इस तरह के मुकदमे दायर किए जा रहे है। न्यायालय ने उन्हें तुरंत टोका कि उनका काम मामले के संवैधानिक और कानूनी पहलू पर गौर करना है, राजनीति से अदालत का कोई मतलब नहीं है। उत्तरप्रदेश सरकार के वकील के इस दावे को भी अदालत ने सिरे से खारिज कर दिया कि मायावती कांशीराम और अंबेडकर की मूर्तियों और स्मारकों की स्थापना का फैसला संविधान सम्मत है, अदालत ने क्योंकि उसे मंत्रिपरिषद की मंजूरी मिल चुकी है तो माननीय न्यायालय ने कहा कि मामले के इस पहलू की भी जांच की जाएगी कि किसी भी सरकार को जनता के पैसे को इस तरह की योजनाओं पर खर्च करने का संवैधानिक अधिकार है कि नहीं।

सतीश मिश्रा ने यह भी दलील दी कि नेहरू गांधी परिवार की मूर्तियों पर इतना खर्च हो चुका है तो दलितों की मूर्तियों के लिए क्यों मना किया जा रहा है। अदालत ने इस हास्यास्पद दलील पर गौर करना भी मुनासिब नहीं समझा। सवाल उठता है कि मायावती ने इन मूर्तियों को बनवाने का काम युद्घ स्तर पर क्यों शुरू कर रखा है। इस वक्त उत्तरप्रदेश में किसान सूखे से तड़प रहा है, राज्य में सिंचाई के कोई भी सरकारी साधन नहीं हैं, निजी ट्यूबवेल से सिंचाई नहीं हो पा रही है क्योंकि राज्य में हफ्तों बिजली नहीं आ रही है, खरीफ की फसल तबाह हो चुकी है।

राज्य सरकार के पास कर्मचारियों की तनखाह देने के लिए पैसे भी बड़ी मुश्किल से जुट रहे हैं, कानून व्यवस्था ऐसी है कि कहीं भी, कोई भी किसी को भी झापड़ मार दे रहा है। कई जिलों में मुख्यमंत्री के खास कहे जाने वाले पुलिस वाले मनमानी कर रहे है। अपहरण और लूटमार की घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही है। अपना खर्च चलाने के लिए राज्य सरकार केंद्र से अस्सी हजार करोड़ रुपए की मांग कर रही है और मायावती इसे राज्य बनाम केंद्र का मुद्दा बनाने की कोशिश कर रही हैं।

किसी भी समझदार मुख्यमंत्री को सूखे जैसी मुसीबत के वक्त अपने लोगों के साथ खड़े रहना चाहिए। उनकी जो भी खेती संभल सके उसमें मदद करनी चाहिए लेकिन उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मूर्तियों और स्मारकों के निर्माण में इस तरह से जुटी है जैसे अब उन्हें दुबारा मौका ही नहीं मिलेगा। सुप्रीम कोर्ट तो अपना संवैधानिक कर्तव्य निभा रहा है लेकिन सरकार को अपना कर्तव्य करने की प्रेरणा देने के लिए सभ्य समाज और जागरूक जनमत का भी कोई फर्ज है।

जरूरत इस बात की है कि उत्तरप्रदेश सरकार को इस बात की जानकारी दी जाये कि राज्य में हाहाकार मचा हुआ है और सरकार का काम है जनता को राहत देना। यह काम आमतौर पर जनता के चुने हुए प्रतिनिधि करते हैं लेकिन उत्तरप्रदेश सरकार का रवैया ऐसा है कि विधान सभा की कोई भूमिका ही नहीं रह गई है। मुख्यमंत्री की सलाहकार सभा में ऐसे लोगों की भरमार है जो राजनीतिक और सामाजिक समझ से दूर रहते हैं और जी हजूरी की कला में पारंगत है। अगर सलाहकार राजा को सही सलाह देने के बजाय चापलूसी करने लगे तो न तो राजा का भला होगा और न ही राज्य का।

उसी तरह, अगर हकीम रोगी की मर्जी से इलाज करे तो भी बहुत ही मुश्किल होगी। उत्तरप्रदेश की हालत को सुधारने के लिए कुछ ऐसे लोगों की जरूरत है जो सच्चाई बयान कर सकें। अगर फौरन ऐसा न हुआ तो बहुत देर हो जाएगी। फिर मूर्तियों को देखने वाले बहुत कम हो जाएंगे या यह भी हो सकता है कि शोषित पीडि़त जनता इन मूर्तियों का वह हाल कर दे जो बाकी तानाशाहों की मूर्तियों का होता रहा है।

इशरत को आतंकी बना देने की हसरत

मुसलमानों को फर्जी मामलों में मार डालने के गुजरात सरकार के एक और कारनामे से पर्दा उठ गया है। जून 2004 में गुजरात पुलिस के बड़े अधिकारियों ने बंबई से उठाकर एक लड़की, इशरत जहां और उसके तीन साथियों की हत्या कर दी थी और इस जघन्य हत्या को एनकाउंटर बताया था। प्रचार यह किया गया कि मारे गए चारों लोग, तश्करे-तैयबा के सदस्य थे और मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या करने जा रहे थे। इस हत्याकांड के भी सरगना वही पुलिस अधिकारी थे जो सोहराबुद्दीन शेख की फर्जी मुठभेड़ में हुई हत्या में आजकल जेल में हैं।

अब बिलकुल स्पष्ट हो गया है कि डी.जी. वंजारा नाम का एक पुलिस का डी.आई.जी. एक गैंग बनाकर हत्या, लूट और डकैती की घटनाओं को अंजाम देता था। उसके सभी साथी पुलिस वाले ही होते थे। सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़कांड में जिन पुलिस वालों को सजा हुई है, वे सभी इशरत जहां और उसके साथियों के फर्जी मुठभेड़ में शामिल थे।यह सारी जानकारी अहमदाबाद के मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट, एस.पी. तमांग की जांच से मिली है।

अपनी 243 पेज की हाथ से लिखी गई रिपोर्ट में मजिस्ट्रेट ने कहा है कि इन पुलिस वालों ने मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को खुश करके नौकरी में आउट ऑफ टर्न प्रमोशन के चक्कर में निरीह और निहत्थे नौजवानों को मार डाला। जांच से पता चला कि बंबई के मुंब्रा इलाके से डी.जी. वंज़ारा के गिरोह ने इशरत जहां और अन्य तीन लड़कों का अपहरण 12 जून को किया था। इनका फर्जी मुठभेड़ 14 जून 2004 के दिन दिखाया गया यानी पुलिस अधिकारी होते हुए भी इन बच्चों को दो दिन तक अगवा करके रखा। मुठभेड़ के बाद गुजरात सरकार ने दावा किया था कि मारे गए लोगों में से दो पाकिस्तानी नागरिक थे।

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