शेष नारायण सिंह
जब अमरीका ने इराक पर हमला किया था तो उसकी दुम की तरह एक और प्रधानमंत्री उसके पीछे पीछे लगा हुआ था. वह अमरीकी राष्ट्रपति बुश की हर बात पर हाँ में हाँ मिला रहा था. उस वक़्त के ब्रिटेन के प्रधानमंत्री , टोनी ब्लेयर इतनी शेखी में थे कि लगता था कि वे दुनिया बदल देंगें , इराक के सद्दाम हुसैन को हटाकर इंसानियत को तबाही से बचा लेंगें..झूठ के सहारे मीडिया में ऐसी ऐसी ख़बरें छपवा दी थीं कि लगता था कि अगर सद्दाम हुसैन को ख़त्म न किया गया तो दुनिया पर पता नहीं क्या दुर्दिन आ जाएगा. उन्होंने अपने लोगों और पूरी दुनिया को बता रखा था कि इराक के पास सामूहिक संहार के हथियार थे और अगर इराक को फ़ौरन तबाह न किया गया तो सद्दाम हुसैन ४५ मिनट के अन्दर ब्रिटेन पर हमला कर सकते हैं इस सारे गड़बड़ झाले में ब्रिटिश और अमरीकी मीडिया की भूमिका भी कम नहीं है क्योंकि उसने भी ब्लेयर और बुश के राग झूठ को अपना स्थायी भाव बना लिया था. इराक के मामले की जांच कर रही चिल्कोट इन्क्वायरी ने जांच कर के पता लगाया है कि यह ४५ मिनट वाला शिगूफा किसी गंभीर इंटेलिजेंस का नतीजा नहीं था, वह तो पश्चिमी देशों के आला अधिकारियों ने एक टैक्सी ड्राईवर की बात पर विश्ववास करके अपनी रिपोर्ट में लिख दिया था. हुआ यह था कि बग़दाद के एक टैक्सी वाले ने अपनी गाडी की पिछली सीट पर बैठे दो फौजी अफसरों को आपस में गप्प मारते सुना था और उसने ब्रिटेन के इन इंटेलिजेंस अफसरों को यह जानकारी दे दी थी . इस तथाकथित जानकारी पर ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को इतना भरोसा था कि जब संयुक्त राष्ट्र सहित बाकी सभी विश्वसनीय संस्थाओं ने अपनी रिपोर्टों में यह लिख दिया कि इराक के पास सामूहिक संहार के हथियार नहीं हैं तो टोनी ब्लेयर और उनके आका , जार्ज डब्ल्यू बुश ने विश्वास नहीं किया..अपनी इस बेवकूफी की वजह से टोनी ब्लेयर को ब्रिटेन में कहीं भी मुंह छुपाने के लिये जगह नहीं बची है . उनसे ब्रिटेन की जनता जवाब मांग रही है , ब्रिटिश संसद को भी उन्होंने गुमराह किया , वहां भी उनसे जवाब माँगा जा सकता है और आपराधिक मामलों की अंतर राष्ट्रीय कोर्ट में भी उन्हें जवाब देना पड़ सकता है लेकिन ब्रिटेन के इस पूर्व प्रधान मंत्री की हिम्मत इन मंचों पर अपने झूठ का बचाव करने की नहीं पड़ रही है ..उन्होंने अपनी बात कहने के लिए बी बी सी वन के एक धार्मिक प्रोग्राम को चुना और वहां कहा कि अगर सद्दाम हुसैन के पास सामूहिक संहार के हाथियार न भी होते तो भी उन्होंने मन बना लिया था और इराक पर हमला ज़रूर करते ..टोनी ब्लेयर ने कहा कि उस हालत में वे किसी और बहाने से इराक पर हमला करते लेकिन सद्दाम हुसैन को ख़त्म कर देने का मन बन चुका था तो वे उसमें कोई भी अड़चन नहीं आने देना चाहते थे..टोनी ब्लेयर ने दावा किया कि उनकी योजना इस्लाम के अन्दर दुनिया भर में चल रहे तथाकथित संघर्ष को दुरु दुरुस्त करने की थी. ज़िंदगी की बाज़ी हार चुके एक अपमानित दम्भी राजनेता के अहंकार की कोई सीमा नहीं होती. अपने ही लोगों से ठुकरा दिया गया एक पराजित नेता जब अपने आप को इस्लाम जैसे महान धर्म को दुरुस्त करने के काबिल पाने लगे तो उसके दिमागी तनाजुन के बारे में शक होना स्वाभाविक है ..टोनी ब्लेयर की इस्लाम के बारे में जानकारी का दावा सौ फीसदी बकवास है लेकिन इस बात में कोई दो राय नहीं कि उन्हें और जार्ज बुश को अमरीकी और ब्रिटिश अफसरों ने चेतावनी दे दी थी कि इराक के पास सामूहिक नरसंहार के हथियार नहीं थे .ब्लेयर और बुश को २००१ में ही पता चल गया था कि इराक के पास कोई भी परमाणु हथियार नहीं है . संयुक्त राष्ट्र के हथियार निरीक्षकों ने भी साफ़ बता दिया था कि इराक के पास १९९८ के बाद से कोई भी परमाणु हथियार नहीं था और न ही इसके पास ऐसे हथियार बनाने की क्षमता थी. बुश सीनियर के इराक हमले के बाद से ही इराक लगातार कमज़ोर हो रहा था, उस पर आर्थिक पाबंदी लगी हुई थी,उसकी अर्थव्यवस्था तबाह हो चुकी थी और उसके पड़ोसी देशों तक को विश्वास था कि इराक के पास सामूहिक नरसंहार के कोई हथियार नहीं थे और उन्हें सद्दाम हुसैन से कोई भी खतरा नहीं था..ब्रिटेन के सरकारी अफसरों ने भी लिख कर दे दिया था कि संयुक्त राष्ट्र की मंजूरी के बिना अगर कोई हमला किया गया तो वह गैर कानूनी होगा और अपने पक्ष का बचाव कर पाना बहुत ही मुश्किल होगा..लेकिन अपनी जिद और अपने आका, जार्ज बुश की इच्छा को पूरा करने के लिए ब्रिटेन का प्रधान मंत्री किस हद तक जा सकता था इसका अंदाज़ लगा पाना बहुत ही मुश्किल है ..ब्लेयर ने अपनी सरकार के अटार्नी जनरल,लार्ड गोल्डस्मिथ को आदेश दे दिया कि अंतर राष्ट्रीय कानून की ऐसी व्याख्या कर दें जिनकी बिना पर हमले में भाग लेने वाली ब्रिटिश फौज को आपराधिक आरोपों से बचाया जा सके.. अब जब सारी दुनिया को पता है कि इराक पर हमला न केवल गैर कानूनी था बल्कि गलत कारणों के आधार पर किया गया था, इस बात की एक बार समीक्षा करने की ज़रुरत है कि इंसानियत के खिलाफ इस हमले के जिम्मेवार कौन लोग हैं ..इराक पर हुए ब्लेयर और बुश के हमले की वजह से कम से कम १० लाख लोगों की जाने गयी हैं और पश्चिमी देशों के प्रति पूरी दुनिया में जो नाराज़गी है ,उसका भी हिसाब माँगा जाना चाहिए.उस हमले के बाद दुनिया भर में अस्थिरता का माहौल बन गया है इसलिए इस हमले के बारे में फैसला लेने वालों को सद्दाम हुसैन के बाद की दुनिया की राजनीतिक हालात के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए और उन्हें युद्ध अपराधी मान कर उनके ऊपर मुक़दमा चलाया जाना चाहिए
Thursday, December 17, 2009
Wednesday, December 16, 2009
बंगलादेश--इंसानी हौसलों की जीत का मुल्क
शेष नारायण सिंह
३८ साल पहले बंगलादेश का जन्म हुआ था. और उसके साथ ही असंभव भौगोलिक बंटवारे का एक अध्याय ख़त्म हो गया था. नए राष्ट्र के संस्थापक , शेख मुजीबुर्रहमान को तत्कालीन पाकिस्तानी शासकों ने जेल में बंद कर रखा था लेकिन उनकी प्रेरणा से शुरू हुआ बंगलादेश की आज़ादी का आन्दोलन भारत की मदद से परवान चढ़ा और एक नए देश का जन्म हो गया.. बंगलादेश का जन्म वास्तव में दादागीरी की राजनीति के खिलाफ इतिहास का एक तमाचा था जो शेख मुजीब के माध्यम से पाकिस्तान के मुंह पर वक़्त ने जड़ दिया था. आज पाकिस्तान जिस अस्थिरता के दौर में पंहुच चुका है उसकी बुनियाद तो उसकी स्थापना के साथ ही १९४७ में रख दी गयी थी लेकिन इस उप महाद्वीप की ६० के दशक की घटनाओं ने उसे बहुत तेज़ रफ़्तार दे दी थी.. यह पाकिस्तान का दुर्भाग्य था कि उसकी स्थापना के तुरंत बाद ही मुहम्मद अली जिन्नाह की मौत हो गयी. . प्रधानमंत्री लियाक़त अली को पंजाबी आधिपत्य वाली पाकिस्तानी फौज और व्यवस्था के लोग अपना बंदा मानने को तैयार नहीं थे ,. और उन्हें भी मौत के घाट उतार दिया. जब जनरल अय्यूब खां ने पाकिस्तान की सत्ता पर क़ब्ज़ा किया तो वहां गैर ज़िम्मेदार हुकूमतों के दौर का आगाज़ हो गया.. याह्या खां की हुकूमत पाकिस्तानी इतिहास में सबसे गैर ज़िम्मेदार सत्ता मानी जाती है. ऐशो आराम की दुनिया में डूबते उतराते , जनरल याहया खां ने पाकिस्तान की सत्ता को अपने क्लब का ही विस्तार समझा था . मानसिक रूप से कुंद ,याहया खान किसी न किसी की सलाह पर ही निर्भर करते थे , उन्हें अपने तईं राज करने की तमीज नहीं थी. कभी प्रसिद्द गायिका नूरजहां की राय मानते ,तो कभी ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की. सच्ची बात यह है कि सत्ता हथियाने की अपनी मुहिम के चलते ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने याहया खान से थोक में मूर्खतापूर्ण फैसले करवाए..ऐसा ही एक मूर्खतापूर्ण फैसला था कि जब संयुक्त पाकिस्तान की राष्ट्रीय असेम्बली ( संसद) में शेख मुजीबुर्रहमान की पार्टी, अवामी लीग को स्पष्ट बहुमत मिल गया तो भी उन्हें सरकार बनाने का न्योता नहीं दिया गया..पश्चिमी पाकिस्तान की मनमानी के खिलाफ पूर्वी पाकिस्तान में पहले से ही गुस्सा था और जब उनके अधिकारों को साफ़ नकार दिया गया तो पूर्वी बंगाल के लोग सडकों पर आ गए. . मुक्ति का युद्ध शुरू हो गया, मुक्तिबाहिनी का गठन हुआ और स्वतंत्र बंगलादेश की स्थापना हो गयी.. इस तरह १६ दिसंबर १९७१ का दिन बंगलादेश के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज हो गया. दूसरी तरफ बचे खुचे पाकिस्तान के इतिहास में यह तारीख सबसे काले अक्षरों में लिख दी गयी. . उसकी फौज के करीब १ लाख सैनिको ने घुटने टेक दिए और भारतीय सेना के सामने समर्पण कर दिया. . बाद में बंगलादेश ने भी बहुत परेशानियां देखीं , शेख मुजीब को ही शहीद कर दिया गया. वहां भी फौज ने सत्ता पर क़ब्ज़ा किया, कई बार तो वही लोग सत्ता पर काबिज़ हो गए जो पाकिस्तानी आततायी, जनरल टिक्का खान के सहयोगी रह चुके थे. लेकिन अब वहां लोकशाही की स्थापना हो चुकी है और शेख मुजीब की बेटी शेख हसीना ने नागरिक प्रशासन को मजबूती देने की कोशिश शुरू कर दी है..
बंगलादेश का गठन इंसानी हौसलों की फ़तेह का एक बेमिसाल उदाहरण है..जब से शेख मुजीब ने ऐलान किया था कि पाकिस्तानी फौजी हुकूमत से सहयोग नहीं किया जाएगा, उसी वक्त से पाकिस्तानी फौज ने पूर्वी पाकिस्तान में दमनचक्र शुरू कर दिया था. सारा राजकाज सेना के हवाले कर दिया गया था और वहां फौज ने वे सारे अत्याचार किये, जिनकी कल्पना की जा सकती है .. .आतंक का राज कायम कर रखा था सेना ने .. लोगों को पकड़ पकड़ कर मार रहे थे पाकिस्तानी फौजी. बलात्कार की घटनाएं उस दौर में पूर्वी पाकिस्तान में जितना हुईं उतनी शायद ज्ञात इतिहास में कहीं भी ,कभी न हुई हों .. लेकिन बंगलादेशी नौजवान भी किसी कीमत पर हार मानने को तैयार नहीं था. जिस समाज में बलात्कार पीड़ित महिलाओं को तिरस्कार की नज़र से देखा जाता था उसी समाज में स्वतंत्र बंगलादेश की स्थापना के बाद पूरे देश का नौजवान उन लड़कियों से शादी करके उन्हें सामान्य जीवन देने के लिए आगे आया. और पाकिस्तानी फौज के सबसे खूंखार हाथियार को भोथरा कर दिया.जिन लोगों ने उस दौर में बंगलादेशी युवकों का जज्बा देखा है वे जानते हैं कि इंसानी हौसले पाकिस्तानी फौज़ जैसी खूंखार ताक़त को भी शून्य पर ला कर खड़ा कर सकते हैं .. . बंगलादेश की स्थापना में भारत और उस वक़्त की प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी का भी योगदान है . सच्चाई यह है कि अगर भारत का समर्थन न मिला होता तो शायद बंगलादेश का गठन अलग तरीके से हुआ होता..
लेकिन यह बात भी सच है कि अपनी स्थापना के इन ३८ वर्षों में बंगलादेश ने बहुत सारी मुसीबतें देखी हैं . अभी वहां लोकशाही की जड़ें बहुत ही कमज़ोर हैं..शेख हसीना एक मज़बूत, दूरदर्शी और समझदार नेता तो हैं लेकिन उनको उखाड़ फेंकने के लिए अभी तक वही शक्तियां जोर मार रही हैं जिन्होंने बंगलादेश की स्थापना का विरोध किया था या उनके परिवार को ही ख़त्म कर दिया था . इस लिए अपने पड़ोसी देश में लोकतंत्र को मज़बूत करने के लिए भारत को शेख हसीना को हर तरह की मदद देनी होगी. लगभग उसी तरह की मदद,जैसी १९७१ में दी गयी थी.
३८ साल पहले बंगलादेश का जन्म हुआ था. और उसके साथ ही असंभव भौगोलिक बंटवारे का एक अध्याय ख़त्म हो गया था. नए राष्ट्र के संस्थापक , शेख मुजीबुर्रहमान को तत्कालीन पाकिस्तानी शासकों ने जेल में बंद कर रखा था लेकिन उनकी प्रेरणा से शुरू हुआ बंगलादेश की आज़ादी का आन्दोलन भारत की मदद से परवान चढ़ा और एक नए देश का जन्म हो गया.. बंगलादेश का जन्म वास्तव में दादागीरी की राजनीति के खिलाफ इतिहास का एक तमाचा था जो शेख मुजीब के माध्यम से पाकिस्तान के मुंह पर वक़्त ने जड़ दिया था. आज पाकिस्तान जिस अस्थिरता के दौर में पंहुच चुका है उसकी बुनियाद तो उसकी स्थापना के साथ ही १९४७ में रख दी गयी थी लेकिन इस उप महाद्वीप की ६० के दशक की घटनाओं ने उसे बहुत तेज़ रफ़्तार दे दी थी.. यह पाकिस्तान का दुर्भाग्य था कि उसकी स्थापना के तुरंत बाद ही मुहम्मद अली जिन्नाह की मौत हो गयी. . प्रधानमंत्री लियाक़त अली को पंजाबी आधिपत्य वाली पाकिस्तानी फौज और व्यवस्था के लोग अपना बंदा मानने को तैयार नहीं थे ,. और उन्हें भी मौत के घाट उतार दिया. जब जनरल अय्यूब खां ने पाकिस्तान की सत्ता पर क़ब्ज़ा किया तो वहां गैर ज़िम्मेदार हुकूमतों के दौर का आगाज़ हो गया.. याह्या खां की हुकूमत पाकिस्तानी इतिहास में सबसे गैर ज़िम्मेदार सत्ता मानी जाती है. ऐशो आराम की दुनिया में डूबते उतराते , जनरल याहया खां ने पाकिस्तान की सत्ता को अपने क्लब का ही विस्तार समझा था . मानसिक रूप से कुंद ,याहया खान किसी न किसी की सलाह पर ही निर्भर करते थे , उन्हें अपने तईं राज करने की तमीज नहीं थी. कभी प्रसिद्द गायिका नूरजहां की राय मानते ,तो कभी ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की. सच्ची बात यह है कि सत्ता हथियाने की अपनी मुहिम के चलते ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने याहया खान से थोक में मूर्खतापूर्ण फैसले करवाए..ऐसा ही एक मूर्खतापूर्ण फैसला था कि जब संयुक्त पाकिस्तान की राष्ट्रीय असेम्बली ( संसद) में शेख मुजीबुर्रहमान की पार्टी, अवामी लीग को स्पष्ट बहुमत मिल गया तो भी उन्हें सरकार बनाने का न्योता नहीं दिया गया..पश्चिमी पाकिस्तान की मनमानी के खिलाफ पूर्वी पाकिस्तान में पहले से ही गुस्सा था और जब उनके अधिकारों को साफ़ नकार दिया गया तो पूर्वी बंगाल के लोग सडकों पर आ गए. . मुक्ति का युद्ध शुरू हो गया, मुक्तिबाहिनी का गठन हुआ और स्वतंत्र बंगलादेश की स्थापना हो गयी.. इस तरह १६ दिसंबर १९७१ का दिन बंगलादेश के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज हो गया. दूसरी तरफ बचे खुचे पाकिस्तान के इतिहास में यह तारीख सबसे काले अक्षरों में लिख दी गयी. . उसकी फौज के करीब १ लाख सैनिको ने घुटने टेक दिए और भारतीय सेना के सामने समर्पण कर दिया. . बाद में बंगलादेश ने भी बहुत परेशानियां देखीं , शेख मुजीब को ही शहीद कर दिया गया. वहां भी फौज ने सत्ता पर क़ब्ज़ा किया, कई बार तो वही लोग सत्ता पर काबिज़ हो गए जो पाकिस्तानी आततायी, जनरल टिक्का खान के सहयोगी रह चुके थे. लेकिन अब वहां लोकशाही की स्थापना हो चुकी है और शेख मुजीब की बेटी शेख हसीना ने नागरिक प्रशासन को मजबूती देने की कोशिश शुरू कर दी है..
बंगलादेश का गठन इंसानी हौसलों की फ़तेह का एक बेमिसाल उदाहरण है..जब से शेख मुजीब ने ऐलान किया था कि पाकिस्तानी फौजी हुकूमत से सहयोग नहीं किया जाएगा, उसी वक्त से पाकिस्तानी फौज ने पूर्वी पाकिस्तान में दमनचक्र शुरू कर दिया था. सारा राजकाज सेना के हवाले कर दिया गया था और वहां फौज ने वे सारे अत्याचार किये, जिनकी कल्पना की जा सकती है .. .आतंक का राज कायम कर रखा था सेना ने .. लोगों को पकड़ पकड़ कर मार रहे थे पाकिस्तानी फौजी. बलात्कार की घटनाएं उस दौर में पूर्वी पाकिस्तान में जितना हुईं उतनी शायद ज्ञात इतिहास में कहीं भी ,कभी न हुई हों .. लेकिन बंगलादेशी नौजवान भी किसी कीमत पर हार मानने को तैयार नहीं था. जिस समाज में बलात्कार पीड़ित महिलाओं को तिरस्कार की नज़र से देखा जाता था उसी समाज में स्वतंत्र बंगलादेश की स्थापना के बाद पूरे देश का नौजवान उन लड़कियों से शादी करके उन्हें सामान्य जीवन देने के लिए आगे आया. और पाकिस्तानी फौज के सबसे खूंखार हाथियार को भोथरा कर दिया.जिन लोगों ने उस दौर में बंगलादेशी युवकों का जज्बा देखा है वे जानते हैं कि इंसानी हौसले पाकिस्तानी फौज़ जैसी खूंखार ताक़त को भी शून्य पर ला कर खड़ा कर सकते हैं .. . बंगलादेश की स्थापना में भारत और उस वक़्त की प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी का भी योगदान है . सच्चाई यह है कि अगर भारत का समर्थन न मिला होता तो शायद बंगलादेश का गठन अलग तरीके से हुआ होता..
लेकिन यह बात भी सच है कि अपनी स्थापना के इन ३८ वर्षों में बंगलादेश ने बहुत सारी मुसीबतें देखी हैं . अभी वहां लोकशाही की जड़ें बहुत ही कमज़ोर हैं..शेख हसीना एक मज़बूत, दूरदर्शी और समझदार नेता तो हैं लेकिन उनको उखाड़ फेंकने के लिए अभी तक वही शक्तियां जोर मार रही हैं जिन्होंने बंगलादेश की स्थापना का विरोध किया था या उनके परिवार को ही ख़त्म कर दिया था . इस लिए अपने पड़ोसी देश में लोकतंत्र को मज़बूत करने के लिए भारत को शेख हसीना को हर तरह की मदद देनी होगी. लगभग उसी तरह की मदद,जैसी १९७१ में दी गयी थी.
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Tuesday, December 15, 2009
हैदराबाद और सरदार पटेल की याद
शेष नारायण सिंह
तेलंगाना के विवाद के चलते हैदराबाद एक बार फिर चर्चा में है. जब भी हैदराबाद का ज़िक्र आता है , समकालीन इतिहास का कोई भी विद्यार्थी सरदार पटेल को याद किये बिना नहीं रह सकता. १५ दिसंबर को सरदार पटेल की पुण्यतिथि के अवसर पर कुशल राज्य के उस महान प्रणेता और हैदराबाद के सबंधों को याद करना बहुत ही महत्वपूर्ण है ...१५ अगस्त १९४७ को जब आज़ादी मिली तो सरदार को इस बात अनुमान हो गया था कि उनके पास बहुत वक़्त नहीं बचा है ..गृहमंत्री के रूप में उनके सिर पर समस्याओं का अम्बार लगा था .अंग्रेजों ने ऐसे ऐसे खेल रच रखे थे कि भारत के गृहमंत्री को एक मिनट की फुरसत न मिले..लेकिन सरदार पटेल की नज़र में भी लक्ष्य और उसको पूरा करने की पक्की कार्ययोजना थी और अपने सहयोगी वी पी मेनन के साथ मिल कर वे उसको पूरा कर रहे थे..
अंग्रेजों ने आज़ादी के बाद जो देश छोड़ा था उसमें ऐसे बहुत सारे देशी राजा थे जो अपने को भारत से अलग रखना चाहते थे. इन राजाओं को अंग्रेजों का नैतिक समर्थन भी हासिल था. मुल्क का बंटवारा हो चुका था और देश , ख़ास कर पंजाब और बंगाल में बड़े पैमाने पर दंगे भड़के हुए थे .. लेकिन सरदार पटेल ने देश की एकता और अखंडता के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया . जब १५ दिसंबर १९५० को उन्होंने अपना शरीर त्याग किया तो आने वाली नस्लों के लिए एक ऐसा देश छोड़ कर गए थे जो पूरी तरह से एक राजनीतिक यूनिट था ..दुर्भाग्य यह है कि आज के नेता अपनी अदूरदर्शिता के चलते उसी देश को फिर तरह तरह के टुकड़ों में बांटने में लगे हुए हैं . हैदराबाद के लिये एक बार फिर लड़ाई शुरू हो गयी है . तेलंगाना और बाकी आन्ध्र प्रदेश के लोग हैदराबाद के लिए दावेदारी ठोंक रहे हैं . शायद इन में से किसी को पता नहीं होगा कि कैसे सरदार पटेल ने हैदराबाद को तबाही से बचाया था.हैदराबाद को स्वतंत्र भारत का हिस्सा बनाने के लिए सरदार पटेल को बहुत सारे पापड बेलने पड़े थे अंग्रेजों ने हैदराबाद के निजाम,उस्मान अली खां , को पता नहीं क्यों भरोसा दिला दिया था कि वे उसकी मर्जी का पूरा सम्मान करेंगे और निजाम जो चाहेंगें वही होगा... किसी ज़माने में इंग्लैंड के सम्राट ने निजाम को अपना सबसे वफादार सहयोगी कह दिया था और १९४७ के आस पास जो लोग भी ब्रिटिश सत्ता के आसपास थे वे निजाम की भलाई के लिए कुछ भी करने को तैयार थे .स्वतंत्र भारत के पहले गवर्नर जनरल , लार्ड माउंटबेटन भी उसी जमात में शामिल थे . वे निजाम से खुद ही बातचीत करना चाहते थे . भारत के गृहमंत्री, सरदार पटेल ने उनको भारी छूट दे रखी थी . बस एक शर्त थी कि हैदराबाद का मसला सिर्फ और सिर्फ ,भारत का मामला है उसमें किसी बाहरी देश की दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं की जायेगी. उनके इस बयान में इंग्लैंड और पाकिस्तान दोनों के लिए चेतावनी निहित है ... उस वक़्त का हैदराबाद का निजाम भी बहुत गुरू चीज़ था. शायद उस वक़्त की दुनिया के सबसे धनी आदमियों में से एक था लेकिन कपडे लत्ते बिलकुल अजीब तरह के पहनता था. उसने एक ब्रिटिश वकील लगा रखा था जिसकी पहुँच लन्दन से लेकर दिल्ली तक थी. . सर वाल्टर मोक्टन नाम के इस वकील ने कई महीनों तक चीज़ों को घालमेल की स्थिति में रखा . इसकी सलाह पर ही निजाम ने भारत में पूर्ण विलय की बात न करके , एक सहयोग के समझौते पर दस्तखत करने की पेशकश की थी. . लार्ड माउंटबेटन भी इस प्रस्ताव के पक्ष में थे लेकन सरदार ने साफ़ मना कर दिया था. . इस बीच निजाम पाकिस्तान में शामिल होने की कोशिश भी कर रहा था .सरदार पटेल ने साफ़ कर दिया था कि अगर निजाम इस बात की गारंटी दे कि वह पाकिस्तान में कभी नहीं मिलेगा तो उसके साथ कुछ रियायत बरती जा सकती है . निजाम के राजी होने पर एक ऐसा समझौता हुआ जिसके तहत भारत और हैदराबाद एक दूसरे की राजधानी में एजेंट जनरल नियुक्त कर सकते थे..इस समझौते को करने के लिए निजाम को अपने प्रधानमंत्री, नवाब छतारी और ब्रिटिश वकील,सर वाल्टर मोक्टन की सलाह का लाभ मिला था लेकिन उन दिनों निजाम के ऊपर एक मुकामी नौजवान का बहुत प्रभाव था.उसका नाम कासिम रिज़वी था और वह इत्तेहादुल मुसलमीन का मुखिया था. कुख्यात रजाकार, इसी संगठन के मातहत काम करते थे . कासिम रिज़वी ने तिकड़म करके नवाब छतारी की छुट्टी करवा दी और उनकी जगह पर मीर लायक अली नाम के एक व्यापारी को तैनात करवा दिया . बस इसी फैसले के बाद निजाम की मुसीबतों का सिलसिला शुरू हुआ जो बहुत बाद तक चला...मीर लायक अली हैदराबाद के थे ,मुहम्मद अली जिन्ना के कृपापात्र थे और पाकिस्तान की तरफ से संयुक्तराष्ट्र जाने वाले प्रतिनिधि मंडल के सदस्य रह चुके थे... इसके बाद हैदराबाद में रिज़वी की तूती बोलने लगी थी .निजाम के प्रतिनिधि के रूप में उसने दिल्ली की यात्रा भी की. जब उसकी मुलाक़ात सरदार पटेल से हुई तो वह बहुत ही ऊंची किस्म की डींग मार रहा था. उसने सरदार पटेल से कहा कि उसके साथी अपना मकसद हासिल करने के लिए अंत तक लड़ेंगें .सरदार पटेल ने कहा कि अगर आप आत्महत्या करना चाहते हैं तो आपको कोई कैसे रोक सकता है ...हैदराबाद वापस जाकर भी, यह रिज़वी गैर ज़िम्मेदार करतूतों में लगा रहा ..इस बीच खबर आई कि हैदराबाद के बाहर के व्यापारियों ने वहां कुछ भी सामान भेजना बंद कर दिया है. निजाम की फ़रियाद लेकर वाल्टर मोक्टन दिल्ली पंहुचे और सरदार ने इस मसले पर गौर करने की बात की लेकिन इस बीच कासिम रिज़वी का एक बयान अखबारों में छपा जिसमें उसने मुसलमानों से अपील की थी कि अगर भारत से लड़ाई हुई तो उन्हें एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में तलवार लेकर जंग में जाना होगा . उसने यह भी कहा कि भारत के साढ़े चार करोड़ मुसलमान भी उसके पांचवें कालम के रूप में उसके साथ रहेंगें ..बेचारे वाल्टर मोक्टन उस वक़्त दिल्ली में थे और जब सरदार पटेल ने उनको निजाम के सबसे ख़ास चेले की इस गैर जिम्मेदाराना हरकत के बारे में बताया तो वे परेशान हो गए और वादा किया कि हैदराबाद जाकर वे निजाम को सलाह देंगें कि रिज़वी को गिरफ्तार कर लें .लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ . उलटे मीर लायक अली ने कहा कि रिज़वी ने वह भाषण दिया ही नहीं था ..उसके बाद लायक अली भी दिल्ली आये जहां उनकी मुलाक़ात सरदार से भी हुई . अपनी बीमारी के बावजूद सरदार पटेल ने बातचीत की और साफ़ कह दिया कि यह रिज़वी अगर फ़ौरन काबू में न किया गया तो निजाम और हैदराबाद के लिए बहुत ही मुश्किल पेश आ सकती है . मीर लायक अली को इस तरह की साफ़ बात सुनने का अनुभव नहीं था क्योंकि जवाहर लाल नेहरु बातों को बहुत ही कूटनीतिक भाषा में कहते थे .. कुल मिलाकर माहौल ऐसा बन गया था कि बातें ही बातें होती रहती थीं और मामला उलझता जा रहा था . .. सरदार पटेल ने कहा कि अगर निजाम इस जिद पर अड़े रहते हैं कि वे भारत में शामिल नहीं होंगें तो उन्हें कम से कम लोकतांत्रिक व्यवस्था तो कायम कर ही देनी चाहिए..लेकिन हैदराबाद में इस बात को मानने के लिए कोई भी तैयार नहीं था. इसीलिए हैदराबाद को भारत के साथ मिलाना सरदार पटेल के सबसे मुश्किल कामों में एक साबित हुआ. . पता नहीं कहाँ से निजाम उस्मान अली खां को यह उम्मीद हो गयी थी कि भारत की आज़ादी के बाद , हैदराबाद को भी डोमिनियन स्टेटस मिल जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ ..लेकिन इस उम्मीद के चलते निजाम ने थोक में गलतियाँ की .यहाँ तक कि वहां पर बाकायदा शक्तिप्रयोग किया और हैदराबाद की समस्या का हल निकाला गया. आखिर में सरदार को हैदराबाद में पुलिस एक्शन करना पड़ा जिसके बाद ही हैदराबाद पूरी तरह से भारत का हिस्सा बन सका .आज उनको गए ५९ साल हो गए लेकिन आज भी राजनीतिक फैसलों में उतनी ही दृढ़ता होनी चाहिए अगर किसी भी राजनीतिक समस्या का हल निकालना हो. ..राजनीतिक फैसलों में पारदर्शिता और मजबूती वासत्व में सरदार पटेल की विरासत है . वैसे भी आन्ध्र प्रदेश की राजनीति में बहुत सारे दांव पेंच होते हैं..जब सरदार पटेल जैसा गृहमंत्री परेशान हो सकता है तो आज के गृहमंत्री को तो बहुत ही चौकन्ना रहना पड़ेगा वरना वैसे ही फैसले लेते रहेंगें जैसा इस बार लिया है और राजनीतिक संकट पैदा हो गया है
तेलंगाना के विवाद के चलते हैदराबाद एक बार फिर चर्चा में है. जब भी हैदराबाद का ज़िक्र आता है , समकालीन इतिहास का कोई भी विद्यार्थी सरदार पटेल को याद किये बिना नहीं रह सकता. १५ दिसंबर को सरदार पटेल की पुण्यतिथि के अवसर पर कुशल राज्य के उस महान प्रणेता और हैदराबाद के सबंधों को याद करना बहुत ही महत्वपूर्ण है ...१५ अगस्त १९४७ को जब आज़ादी मिली तो सरदार को इस बात अनुमान हो गया था कि उनके पास बहुत वक़्त नहीं बचा है ..गृहमंत्री के रूप में उनके सिर पर समस्याओं का अम्बार लगा था .अंग्रेजों ने ऐसे ऐसे खेल रच रखे थे कि भारत के गृहमंत्री को एक मिनट की फुरसत न मिले..लेकिन सरदार पटेल की नज़र में भी लक्ष्य और उसको पूरा करने की पक्की कार्ययोजना थी और अपने सहयोगी वी पी मेनन के साथ मिल कर वे उसको पूरा कर रहे थे..
अंग्रेजों ने आज़ादी के बाद जो देश छोड़ा था उसमें ऐसे बहुत सारे देशी राजा थे जो अपने को भारत से अलग रखना चाहते थे. इन राजाओं को अंग्रेजों का नैतिक समर्थन भी हासिल था. मुल्क का बंटवारा हो चुका था और देश , ख़ास कर पंजाब और बंगाल में बड़े पैमाने पर दंगे भड़के हुए थे .. लेकिन सरदार पटेल ने देश की एकता और अखंडता के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया . जब १५ दिसंबर १९५० को उन्होंने अपना शरीर त्याग किया तो आने वाली नस्लों के लिए एक ऐसा देश छोड़ कर गए थे जो पूरी तरह से एक राजनीतिक यूनिट था ..दुर्भाग्य यह है कि आज के नेता अपनी अदूरदर्शिता के चलते उसी देश को फिर तरह तरह के टुकड़ों में बांटने में लगे हुए हैं . हैदराबाद के लिये एक बार फिर लड़ाई शुरू हो गयी है . तेलंगाना और बाकी आन्ध्र प्रदेश के लोग हैदराबाद के लिए दावेदारी ठोंक रहे हैं . शायद इन में से किसी को पता नहीं होगा कि कैसे सरदार पटेल ने हैदराबाद को तबाही से बचाया था.हैदराबाद को स्वतंत्र भारत का हिस्सा बनाने के लिए सरदार पटेल को बहुत सारे पापड बेलने पड़े थे अंग्रेजों ने हैदराबाद के निजाम,उस्मान अली खां , को पता नहीं क्यों भरोसा दिला दिया था कि वे उसकी मर्जी का पूरा सम्मान करेंगे और निजाम जो चाहेंगें वही होगा... किसी ज़माने में इंग्लैंड के सम्राट ने निजाम को अपना सबसे वफादार सहयोगी कह दिया था और १९४७ के आस पास जो लोग भी ब्रिटिश सत्ता के आसपास थे वे निजाम की भलाई के लिए कुछ भी करने को तैयार थे .स्वतंत्र भारत के पहले गवर्नर जनरल , लार्ड माउंटबेटन भी उसी जमात में शामिल थे . वे निजाम से खुद ही बातचीत करना चाहते थे . भारत के गृहमंत्री, सरदार पटेल ने उनको भारी छूट दे रखी थी . बस एक शर्त थी कि हैदराबाद का मसला सिर्फ और सिर्फ ,भारत का मामला है उसमें किसी बाहरी देश की दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं की जायेगी. उनके इस बयान में इंग्लैंड और पाकिस्तान दोनों के लिए चेतावनी निहित है ... उस वक़्त का हैदराबाद का निजाम भी बहुत गुरू चीज़ था. शायद उस वक़्त की दुनिया के सबसे धनी आदमियों में से एक था लेकिन कपडे लत्ते बिलकुल अजीब तरह के पहनता था. उसने एक ब्रिटिश वकील लगा रखा था जिसकी पहुँच लन्दन से लेकर दिल्ली तक थी. . सर वाल्टर मोक्टन नाम के इस वकील ने कई महीनों तक चीज़ों को घालमेल की स्थिति में रखा . इसकी सलाह पर ही निजाम ने भारत में पूर्ण विलय की बात न करके , एक सहयोग के समझौते पर दस्तखत करने की पेशकश की थी. . लार्ड माउंटबेटन भी इस प्रस्ताव के पक्ष में थे लेकन सरदार ने साफ़ मना कर दिया था. . इस बीच निजाम पाकिस्तान में शामिल होने की कोशिश भी कर रहा था .सरदार पटेल ने साफ़ कर दिया था कि अगर निजाम इस बात की गारंटी दे कि वह पाकिस्तान में कभी नहीं मिलेगा तो उसके साथ कुछ रियायत बरती जा सकती है . निजाम के राजी होने पर एक ऐसा समझौता हुआ जिसके तहत भारत और हैदराबाद एक दूसरे की राजधानी में एजेंट जनरल नियुक्त कर सकते थे..इस समझौते को करने के लिए निजाम को अपने प्रधानमंत्री, नवाब छतारी और ब्रिटिश वकील,सर वाल्टर मोक्टन की सलाह का लाभ मिला था लेकिन उन दिनों निजाम के ऊपर एक मुकामी नौजवान का बहुत प्रभाव था.उसका नाम कासिम रिज़वी था और वह इत्तेहादुल मुसलमीन का मुखिया था. कुख्यात रजाकार, इसी संगठन के मातहत काम करते थे . कासिम रिज़वी ने तिकड़म करके नवाब छतारी की छुट्टी करवा दी और उनकी जगह पर मीर लायक अली नाम के एक व्यापारी को तैनात करवा दिया . बस इसी फैसले के बाद निजाम की मुसीबतों का सिलसिला शुरू हुआ जो बहुत बाद तक चला...मीर लायक अली हैदराबाद के थे ,मुहम्मद अली जिन्ना के कृपापात्र थे और पाकिस्तान की तरफ से संयुक्तराष्ट्र जाने वाले प्रतिनिधि मंडल के सदस्य रह चुके थे... इसके बाद हैदराबाद में रिज़वी की तूती बोलने लगी थी .निजाम के प्रतिनिधि के रूप में उसने दिल्ली की यात्रा भी की. जब उसकी मुलाक़ात सरदार पटेल से हुई तो वह बहुत ही ऊंची किस्म की डींग मार रहा था. उसने सरदार पटेल से कहा कि उसके साथी अपना मकसद हासिल करने के लिए अंत तक लड़ेंगें .सरदार पटेल ने कहा कि अगर आप आत्महत्या करना चाहते हैं तो आपको कोई कैसे रोक सकता है ...हैदराबाद वापस जाकर भी, यह रिज़वी गैर ज़िम्मेदार करतूतों में लगा रहा ..इस बीच खबर आई कि हैदराबाद के बाहर के व्यापारियों ने वहां कुछ भी सामान भेजना बंद कर दिया है. निजाम की फ़रियाद लेकर वाल्टर मोक्टन दिल्ली पंहुचे और सरदार ने इस मसले पर गौर करने की बात की लेकिन इस बीच कासिम रिज़वी का एक बयान अखबारों में छपा जिसमें उसने मुसलमानों से अपील की थी कि अगर भारत से लड़ाई हुई तो उन्हें एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में तलवार लेकर जंग में जाना होगा . उसने यह भी कहा कि भारत के साढ़े चार करोड़ मुसलमान भी उसके पांचवें कालम के रूप में उसके साथ रहेंगें ..बेचारे वाल्टर मोक्टन उस वक़्त दिल्ली में थे और जब सरदार पटेल ने उनको निजाम के सबसे ख़ास चेले की इस गैर जिम्मेदाराना हरकत के बारे में बताया तो वे परेशान हो गए और वादा किया कि हैदराबाद जाकर वे निजाम को सलाह देंगें कि रिज़वी को गिरफ्तार कर लें .लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ . उलटे मीर लायक अली ने कहा कि रिज़वी ने वह भाषण दिया ही नहीं था ..उसके बाद लायक अली भी दिल्ली आये जहां उनकी मुलाक़ात सरदार से भी हुई . अपनी बीमारी के बावजूद सरदार पटेल ने बातचीत की और साफ़ कह दिया कि यह रिज़वी अगर फ़ौरन काबू में न किया गया तो निजाम और हैदराबाद के लिए बहुत ही मुश्किल पेश आ सकती है . मीर लायक अली को इस तरह की साफ़ बात सुनने का अनुभव नहीं था क्योंकि जवाहर लाल नेहरु बातों को बहुत ही कूटनीतिक भाषा में कहते थे .. कुल मिलाकर माहौल ऐसा बन गया था कि बातें ही बातें होती रहती थीं और मामला उलझता जा रहा था . .. सरदार पटेल ने कहा कि अगर निजाम इस जिद पर अड़े रहते हैं कि वे भारत में शामिल नहीं होंगें तो उन्हें कम से कम लोकतांत्रिक व्यवस्था तो कायम कर ही देनी चाहिए..लेकिन हैदराबाद में इस बात को मानने के लिए कोई भी तैयार नहीं था. इसीलिए हैदराबाद को भारत के साथ मिलाना सरदार पटेल के सबसे मुश्किल कामों में एक साबित हुआ. . पता नहीं कहाँ से निजाम उस्मान अली खां को यह उम्मीद हो गयी थी कि भारत की आज़ादी के बाद , हैदराबाद को भी डोमिनियन स्टेटस मिल जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ ..लेकिन इस उम्मीद के चलते निजाम ने थोक में गलतियाँ की .यहाँ तक कि वहां पर बाकायदा शक्तिप्रयोग किया और हैदराबाद की समस्या का हल निकाला गया. आखिर में सरदार को हैदराबाद में पुलिस एक्शन करना पड़ा जिसके बाद ही हैदराबाद पूरी तरह से भारत का हिस्सा बन सका .आज उनको गए ५९ साल हो गए लेकिन आज भी राजनीतिक फैसलों में उतनी ही दृढ़ता होनी चाहिए अगर किसी भी राजनीतिक समस्या का हल निकालना हो. ..राजनीतिक फैसलों में पारदर्शिता और मजबूती वासत्व में सरदार पटेल की विरासत है . वैसे भी आन्ध्र प्रदेश की राजनीति में बहुत सारे दांव पेंच होते हैं..जब सरदार पटेल जैसा गृहमंत्री परेशान हो सकता है तो आज के गृहमंत्री को तो बहुत ही चौकन्ना रहना पड़ेगा वरना वैसे ही फैसले लेते रहेंगें जैसा इस बार लिया है और राजनीतिक संकट पैदा हो गया है
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Saturday, December 12, 2009
संयुक्त राष्ट्र के कोपेनहेगन सम्मलेन में धनी देशों की मनमानी
शेष नारायण सिंह
कोपेनहेगन में चल रही जलवायु वार्ता में विकसित देश दादागीरी के मूड में हैं। दुनिया भर के राष्ट्रों के कार्बन उत्सर्जन और उनके उत्तरदायित्व के बारे में चल रहे इस सम्मेलन में भाति-भाति के लोग शामिल हो रहे हैं। पृथ्वी को तबाही से बचाने के बजाय सभी देश अपने राष्ट्रहित में बात कर रहे हैं और उसमें कोई बुराई भी नहीं है। कूटनीति के बुनियादी सिद्धात हैं कि देश अपने राष्ट्रहित में बात करते हैं, लेकिन जब दूसरे देशों के हितों को कुचलने की कोशिश शुरू हो जाती है तो समस्या खड़ी हो जाती है। कई बार दूसरे मुल्क को रौंदने की ताकतवर देशों की कोशिश के चलते ही युद्ध की नौबत आ जाती है। कोपेनहेगन में जमा हुए देशों का एजेंडा तो है कि संयुक्त राष्ट्र के फ्रेमवर्क में कार्बन उत्सर्जन के किसी सर्वमान्य फार्मूले पर पर्हुचें, लेकिन विकसित देशों की नीयत साफ नहीं दिख रही है। विकसित देशों की कोशिश यह है कि क्योटो प्रोटोकाल से हटकर एक समझौता विकासशील और गरीब मुल्कों के ऊपर थोप दिया जाए, जिसकी वजह से उनके औद्योगिक विकास में ब्रेक लग जाए और वे हमेशा के लिए इन विकसित देशों पर निर्भर हो जाएं। कोपेनहेगन में सम्मेलन इसलिए किया गया है कि क्योटो की संधि को और चुस्त-दुरुस्त किया जाए, लेकिन तथाकथित विकसित देश इस मौके का इस्तेमाल बाकी दुनिया को आर्थिक गुलामी की जंजीर पहनाने के लिए करना चाहते हैं।
डेनमार्क की मार्फत इन विकसित देशों ने एक ऐसा मसौदा तैयार किया है जो अगर लागू हो गया तो जी-77 के देश और चीन कार्बन उत्सर्जन को संभालने के बोझ के नीचे दब जाएंगें। हालाकि इस मसौदे को गुप्त रखा जा रहा था, लेकिन यह लीक हो गया और अखबारों ने प्रकाशित हो गया। अगर विकसित देश इस मसौदे में बताई गई आधी बातों को भी लागू करवाने में सफल हो गए तो भारत और चीन सहित बाकी देशों को हमेशा के लिए आर्थिक दौड़ में पछाड़ देंगे। अन्य बातों के अलावा इस मसौदे में विकसित देशों ने प्रति व्यक्ति कार्बन छोड़ने की जो सीमा तय की है वह भी अनुचित है। गरीब देशों के लिए यह सीमा 1.44 टन प्रति व्यक्ति और विकसित देशों के लिए 2.67 टन रखी गई है। 2050 तक के लिए प्रस्तावित कार्ययोजना में जलवायु परिवर्तन को संयुक्त राष्ट्र के अधिकार क्षेत्र से खींच कर संपन्न देशों के हवाले करने की साजिश का भी पर्दाफाश इस मसौदे के लीक हो जाने से हो गया है। दुनिया भर के कूटनीतिक जानकार इस दस्तावेज के नतीजों को मानवता के लिए बहुत खतरनाक मान रहे हैं। अगर यह मसौदा पास हो गया तो जलवायु परिवर्तन में लगने वाले खर्च को पूरी तरह से विश्व बैंक के हवाले कर दिया जाएगा और क्योटो प्रोटोकाल को कूड़ेदान में डाल दिया जाएगा। यह संयुक्त राष्ट्र को जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र से पूरी तरह से बेदखल कर देगा।
विकासशील देशों को इस मसौदे के आधार पर किसी तरह की चर्चा नहीं होने देनी चाहिए। डेनमार्क दस्तावेज से भारत और चीन सहित बाकी देशों में बहुत ही नाराजगी है। डेनमार्क दस्तावेज में प्रस्ताव है कि विकासशील देशों को ऐसे कटौती प्रस्तावों पर सहमत होने के लिए मजबूर कर दिया जाए जो मूल रूप से संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव से हट कर हैं। संपन्न देशों की कोशिश है कि विकासशील देशों को कई खेमों में बांट दिया जाए। उनकी इस योजना का असर दिखने भी लगा है। बैठक में समुद्र के आसपास बसे छोटे देशों के संगठन के प्रतिनिधियों ने बगावत कर दी। यह संगठन वास्तव में जी-77 और चीन के संयुक्त मंच का ही सदस्य है, लेकिन उन्होंने माग करनी शुरू कर दी कि जलवायु परिवर्तन के संयुक्त राष्ट्र के फ्रेमवर्क के अंतर्गत ही एक नया समझौता होना चाहिए, जिसमें भारत और चीन जैसे बड़े देशों पर कार्बन कटौती का ज्यादा जिम्मा आए। यानी क्योटो प्रोटोकाल को कमजोर करने की औद्योगिक देशों की साजिश के जाल में ये छोटे देश साफ फंसते नजर आ रहे हैं।
बात और साफ इसलिए हो गई कि डेनमार्क का प्रतिनधि भी इन देशों की हां में हां मिलाने लगा और भारत और चीन के खिलाफ भाषण देने लगा। जी-77 के सदस्य देश हक्के-बक्के रह गए। बैठक कुछ देर के लिए स्थगित करनी पड़ी और बाद में जब फिर चर्चा शुरू हुई तो जी-77 और चीन ने साफ कर दिया कि अमेरिका सहित सभी संपन्न देशों को क्योटो संधि के तहत ही कार्बन की कटौती को स्वीकार करना पड़ेगा। विकासशील देशों में इस बात को लेकर बहुत नाराजगी है कि तथाकथित डेनमार्कमसौदे पर गुपचुप बात हो रही है और कोशिश की जा रही है कि जब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा कोपेनहेगन पहुंचें तो उनके प्रभाव का इस्तेमाल करके विकसित देश अपनी मनमानी करने में कामयाब हो जाएं।
(दैनिक जागरण से साभार )
कोपेनहेगन में चल रही जलवायु वार्ता में विकसित देश दादागीरी के मूड में हैं। दुनिया भर के राष्ट्रों के कार्बन उत्सर्जन और उनके उत्तरदायित्व के बारे में चल रहे इस सम्मेलन में भाति-भाति के लोग शामिल हो रहे हैं। पृथ्वी को तबाही से बचाने के बजाय सभी देश अपने राष्ट्रहित में बात कर रहे हैं और उसमें कोई बुराई भी नहीं है। कूटनीति के बुनियादी सिद्धात हैं कि देश अपने राष्ट्रहित में बात करते हैं, लेकिन जब दूसरे देशों के हितों को कुचलने की कोशिश शुरू हो जाती है तो समस्या खड़ी हो जाती है। कई बार दूसरे मुल्क को रौंदने की ताकतवर देशों की कोशिश के चलते ही युद्ध की नौबत आ जाती है। कोपेनहेगन में जमा हुए देशों का एजेंडा तो है कि संयुक्त राष्ट्र के फ्रेमवर्क में कार्बन उत्सर्जन के किसी सर्वमान्य फार्मूले पर पर्हुचें, लेकिन विकसित देशों की नीयत साफ नहीं दिख रही है। विकसित देशों की कोशिश यह है कि क्योटो प्रोटोकाल से हटकर एक समझौता विकासशील और गरीब मुल्कों के ऊपर थोप दिया जाए, जिसकी वजह से उनके औद्योगिक विकास में ब्रेक लग जाए और वे हमेशा के लिए इन विकसित देशों पर निर्भर हो जाएं। कोपेनहेगन में सम्मेलन इसलिए किया गया है कि क्योटो की संधि को और चुस्त-दुरुस्त किया जाए, लेकिन तथाकथित विकसित देश इस मौके का इस्तेमाल बाकी दुनिया को आर्थिक गुलामी की जंजीर पहनाने के लिए करना चाहते हैं।
डेनमार्क की मार्फत इन विकसित देशों ने एक ऐसा मसौदा तैयार किया है जो अगर लागू हो गया तो जी-77 के देश और चीन कार्बन उत्सर्जन को संभालने के बोझ के नीचे दब जाएंगें। हालाकि इस मसौदे को गुप्त रखा जा रहा था, लेकिन यह लीक हो गया और अखबारों ने प्रकाशित हो गया। अगर विकसित देश इस मसौदे में बताई गई आधी बातों को भी लागू करवाने में सफल हो गए तो भारत और चीन सहित बाकी देशों को हमेशा के लिए आर्थिक दौड़ में पछाड़ देंगे। अन्य बातों के अलावा इस मसौदे में विकसित देशों ने प्रति व्यक्ति कार्बन छोड़ने की जो सीमा तय की है वह भी अनुचित है। गरीब देशों के लिए यह सीमा 1.44 टन प्रति व्यक्ति और विकसित देशों के लिए 2.67 टन रखी गई है। 2050 तक के लिए प्रस्तावित कार्ययोजना में जलवायु परिवर्तन को संयुक्त राष्ट्र के अधिकार क्षेत्र से खींच कर संपन्न देशों के हवाले करने की साजिश का भी पर्दाफाश इस मसौदे के लीक हो जाने से हो गया है। दुनिया भर के कूटनीतिक जानकार इस दस्तावेज के नतीजों को मानवता के लिए बहुत खतरनाक मान रहे हैं। अगर यह मसौदा पास हो गया तो जलवायु परिवर्तन में लगने वाले खर्च को पूरी तरह से विश्व बैंक के हवाले कर दिया जाएगा और क्योटो प्रोटोकाल को कूड़ेदान में डाल दिया जाएगा। यह संयुक्त राष्ट्र को जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र से पूरी तरह से बेदखल कर देगा।
विकासशील देशों को इस मसौदे के आधार पर किसी तरह की चर्चा नहीं होने देनी चाहिए। डेनमार्क दस्तावेज से भारत और चीन सहित बाकी देशों में बहुत ही नाराजगी है। डेनमार्क दस्तावेज में प्रस्ताव है कि विकासशील देशों को ऐसे कटौती प्रस्तावों पर सहमत होने के लिए मजबूर कर दिया जाए जो मूल रूप से संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव से हट कर हैं। संपन्न देशों की कोशिश है कि विकासशील देशों को कई खेमों में बांट दिया जाए। उनकी इस योजना का असर दिखने भी लगा है। बैठक में समुद्र के आसपास बसे छोटे देशों के संगठन के प्रतिनिधियों ने बगावत कर दी। यह संगठन वास्तव में जी-77 और चीन के संयुक्त मंच का ही सदस्य है, लेकिन उन्होंने माग करनी शुरू कर दी कि जलवायु परिवर्तन के संयुक्त राष्ट्र के फ्रेमवर्क के अंतर्गत ही एक नया समझौता होना चाहिए, जिसमें भारत और चीन जैसे बड़े देशों पर कार्बन कटौती का ज्यादा जिम्मा आए। यानी क्योटो प्रोटोकाल को कमजोर करने की औद्योगिक देशों की साजिश के जाल में ये छोटे देश साफ फंसते नजर आ रहे हैं।
बात और साफ इसलिए हो गई कि डेनमार्क का प्रतिनधि भी इन देशों की हां में हां मिलाने लगा और भारत और चीन के खिलाफ भाषण देने लगा। जी-77 के सदस्य देश हक्के-बक्के रह गए। बैठक कुछ देर के लिए स्थगित करनी पड़ी और बाद में जब फिर चर्चा शुरू हुई तो जी-77 और चीन ने साफ कर दिया कि अमेरिका सहित सभी संपन्न देशों को क्योटो संधि के तहत ही कार्बन की कटौती को स्वीकार करना पड़ेगा। विकासशील देशों में इस बात को लेकर बहुत नाराजगी है कि तथाकथित डेनमार्कमसौदे पर गुपचुप बात हो रही है और कोशिश की जा रही है कि जब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा कोपेनहेगन पहुंचें तो उनके प्रभाव का इस्तेमाल करके विकसित देश अपनी मनमानी करने में कामयाब हो जाएं।
(दैनिक जागरण से साभार )
Thursday, December 10, 2009
हिन्दुत्व और हिन्दू धर्म को एक बताने की राजनीति
शेष नारायण सिंह
बाबरी मस्जिद के विध्वंस के सत्रह साल पूरे हो गए. . इन सत्रह वर्षो में अपनी योजना के अनुसार हिन्दुववादी राजनीतिक ताक़तों ने सत्ता के हर तरह के सुख का आनंद ले लिया. पहले वी पी सिंह की कठपुतली सरकार बनवाई, फिर पी वी नरसिंह राव को सत्ता में बने रहने दिया, हालांकि संघ की इतनी ताक़त थी कि जब चाहते उसे ज़मींदोज़ कर सकते थे लेकिन नरसिंह राव, संघ का ही कम कर रहे थे इसलिए उन्हें बना रहने दिया.. बाद में अटल बिहारी वाजपेयी को गद्दी पर बैठाकर आर एस एस ने भारतीय गणतंत्र की संस्थाओं को ढहाने के प्रोजेक्ट पर काम शुरू कर दिया. शिक्षा के भगवाकरण का काम मुरली मनोहर जोशी को सौंपा और अन्य भरोसे के बन्दों को सही जगह पर लगा दिया . योजना यह थी कि सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी और भ्रष्टाचार से मुक्ति जैसे कार्यों के ज़रिये जनता को अपने पक्ष में रखा जाएगा जिससे वह बार बार वोट देकर आर एस एस की पार्टी को सत्तासीन करती रहे . इसी सोच के तहत गुजरात की राज्य सरकार चलाने का मंसूबा बनाया गया था जो लगभग योजना के अनुसार चल रही है और किसी भी बहस में जब नरेन्द्र मोदी की साम्प्रादायिक राजनीति का सवाल उठाने की कोशिश की जाती है तो संघी चिन्तक और पत्रकार साफ़ कह देते हैं कि जनता ने मोदी को वोट देकर जिताया है और उन्हें अपनी राजनीतिक यानी हिन्दुत्ववादी योजना को लागू करने का अधिकार दिया है . आर एस एस वालों ने केंद्र सरकार के लिये भी ऐसा ही कुछ सोचा था लेकिन बात उलट गयी. केंद्र सरकार में सक्रिय बी जे पी वाले भ्रष्टाचार की उन बुलंदियों पर पंहुच गए जहां तक उनके पहले के कांग्रेसियों की जाने की हिम्मत नहीं पडी थी . बी जे पी अध्यक्ष , को टी वी के परदे पर घूस के रूपये झटकते पूरे देश ने देखा, मुंबई के एक धन्धेबाज़ भाजपाई ने तो ऐसे रिकॉर्ड बनाए जिसमें बोफोर्स की ६५ करोड़ की घूस की रक़म होटल के बैरे को दी जाने वाली टिप जैसी लगने लगी. दिल्ली में सत्ता के गलियारों में अक्सर चर्चा सुनी जाती थी कि तत्कालीन प्रधान मंत्री के एक दामादनुमा रिश्तेदार ने तो २० करोड़ के नीचे की रक़म कभी बतौर बयाना भी नहीं पकड़ी.मतलब यह कि बी जे पी की अगुवाई वाली अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार भ्रष्टाचार की उदाहरण बन गयी और उसकी रिश्वत खोरी की कथाएं इतनी चलीं कि कांग्रेस के भ्रष्ट नेतागण महात्मा लगने लगे. कुल मिलाकर स्वच्छ और कुशल प्रशासन की आड़ में में संघी एजेंडा लागू करने के सपने हमेशा के लिए दफन हो गए. जैसा कि प्रकृति का नियम है कि काठ की हांडी एक बार से ज्यादा नहीं चढ़ सकती, इसलिए अब हिन्दुत्व को हिन्दू धर्मं बताकर सत्ता हड़पने की कोशिश ख़त्म हो चुकी है लेकिन किसी और राजनीतिक कार्यक्रम के अभाव में फिर से हिंदुत्व को जिंदा करने की कोशिश शुरू हो गयी है . नागपुर के सर्वाच्च अधिकारी ने इस आशय का नारा दे दिया है लेकिन इस बार खेल थोडा बदला हुआ है . अबकी मुसलमानों को भी साथ लेने की बात की जा रही है . मुसलमानों के धार्मिक नेताओं के दरवाज़े पर फेरी लगाई जा रही है और बताया जा रहा है कि भारत में रहने वाले सभी मुसलमानों के पूर्वज हिन्दू थे... बाबरी मस्जिद की राजनीति के बाद अवाम की ऑंखें बहुत सारे मामलों में खुल गयी थीं . एक तो यही कि धर्म के नाम पर पैसा बटोरने वाला कभी भी ईमानदार नहीं रह सकता. आर एस एस का तो बहुत नुकसान हुआ, क्योंकि लोगों को समझ में आ गया कि राममंदिर के नाम पर किये गए आन्दोलन का इस्तेमाल सत्ता हासिल करने के लिए करने वाले लोग धोखेबाज़ होते हैं . मुसलमानों में भी कुछ महत्वाकांक्षी लोग आगे आ गए थे . बाबरी मस्जिद की हिफाज़त के आन्दोलन में शामिल बहुत सारे मुस्लिम नेता ३-४ साल के अन्दर ही बहुत मालदार हो गए थे. कुछ लोग केंद्र और राज्यों में मंत्री बने और कुछ लोग राजदूत वगैरह बन गए. गरज यह कि जनता को अब सब कुछ मालूम पड़ चुका है और ऐसा लगता है कि धर्म के नाम पर राजनीति करके धोखा देने वालों को वह बख्शने वाली नहीं है .. पिछले २३ वर्षों की राजनीति का यह एक बड़ा सबक रहेगा अगर जनता यह मान ले धर्म की बात करने वालों से धर्म की बात तो की जायेगी लेकिन अगर वे राजनीति की बात करने लगेंगें तो उनसे उसी तरह का बर्ताव किया जाएगा जिस तरह उत्तर प्रदेश की जनता ने बी जे पी से करना शुरू कर दिया है . अगर धर्मनिरपेक्षता की बहस को कुछ देर के लिए भूल भी जाएँ तो बाबरी मस्जिद के नाम पर धंधा करने वालों का जो हस्र हुआ उसे देख कर शायद भविष्य में शातिर से शातिर ठग भी धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति करने की हिम्मत नहीं करेगा. उस राजनीति में शामिल नेताओं ने पैसा-कौड़ी तो चाहे जितना बना लिया हो लेकिन उनकी विश्वसनीयता शून्य के आसपास ही मंडराती रहती है . शायद इसीलिए इस बार आर एस एस के मुखिया के बयानों में कुछ ट्विस्ट है . आजकल वे कहते पाए जा रहे हैं कि राममंदिर के लिए संतसमाज के आन्दोलन को वे समर्थन देंगें..यानी उन्हें भी इस बात का अंदाज़ लग गया है कि धर्म के नाम पर राजनीति करके सत्ता नहीं मिलने वाली है .बाबरी मस्जिद के खिलाफ जब आर एस एस ने आन्दोलन शुरू किया था तो सूचना की क्रान्ति नहीं आई थी . बहुत सारी बातें ऐसी भी लोगों ने सच मान ली थीं जो कि वास्तव में झूठ थीं लेकिन किसी मकसद को हासिल करने के लिए निहित स्वार्थ के लोग फैला रहे थे .अब ऐसा नहीं है . किसी भी नेता के लिए झूठ बोलकर पार पाना मुश्किल है क्योंकि चौबीसों घंटे चलने वाले न्यूज़ चैनल ऐसा नहीं होने देंगें . इसलिए ऐसा लगता है कि अब धार्मिक आधार पर राजनीतिक लाभ के लिए, आम आदमी को उकसाना उतना आसान नहीं होगा, जितना बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पहले था
बाबरी मस्जिद के विध्वंस के सत्रह साल पूरे हो गए. . इन सत्रह वर्षो में अपनी योजना के अनुसार हिन्दुववादी राजनीतिक ताक़तों ने सत्ता के हर तरह के सुख का आनंद ले लिया. पहले वी पी सिंह की कठपुतली सरकार बनवाई, फिर पी वी नरसिंह राव को सत्ता में बने रहने दिया, हालांकि संघ की इतनी ताक़त थी कि जब चाहते उसे ज़मींदोज़ कर सकते थे लेकिन नरसिंह राव, संघ का ही कम कर रहे थे इसलिए उन्हें बना रहने दिया.. बाद में अटल बिहारी वाजपेयी को गद्दी पर बैठाकर आर एस एस ने भारतीय गणतंत्र की संस्थाओं को ढहाने के प्रोजेक्ट पर काम शुरू कर दिया. शिक्षा के भगवाकरण का काम मुरली मनोहर जोशी को सौंपा और अन्य भरोसे के बन्दों को सही जगह पर लगा दिया . योजना यह थी कि सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी और भ्रष्टाचार से मुक्ति जैसे कार्यों के ज़रिये जनता को अपने पक्ष में रखा जाएगा जिससे वह बार बार वोट देकर आर एस एस की पार्टी को सत्तासीन करती रहे . इसी सोच के तहत गुजरात की राज्य सरकार चलाने का मंसूबा बनाया गया था जो लगभग योजना के अनुसार चल रही है और किसी भी बहस में जब नरेन्द्र मोदी की साम्प्रादायिक राजनीति का सवाल उठाने की कोशिश की जाती है तो संघी चिन्तक और पत्रकार साफ़ कह देते हैं कि जनता ने मोदी को वोट देकर जिताया है और उन्हें अपनी राजनीतिक यानी हिन्दुत्ववादी योजना को लागू करने का अधिकार दिया है . आर एस एस वालों ने केंद्र सरकार के लिये भी ऐसा ही कुछ सोचा था लेकिन बात उलट गयी. केंद्र सरकार में सक्रिय बी जे पी वाले भ्रष्टाचार की उन बुलंदियों पर पंहुच गए जहां तक उनके पहले के कांग्रेसियों की जाने की हिम्मत नहीं पडी थी . बी जे पी अध्यक्ष , को टी वी के परदे पर घूस के रूपये झटकते पूरे देश ने देखा, मुंबई के एक धन्धेबाज़ भाजपाई ने तो ऐसे रिकॉर्ड बनाए जिसमें बोफोर्स की ६५ करोड़ की घूस की रक़म होटल के बैरे को दी जाने वाली टिप जैसी लगने लगी. दिल्ली में सत्ता के गलियारों में अक्सर चर्चा सुनी जाती थी कि तत्कालीन प्रधान मंत्री के एक दामादनुमा रिश्तेदार ने तो २० करोड़ के नीचे की रक़म कभी बतौर बयाना भी नहीं पकड़ी.मतलब यह कि बी जे पी की अगुवाई वाली अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार भ्रष्टाचार की उदाहरण बन गयी और उसकी रिश्वत खोरी की कथाएं इतनी चलीं कि कांग्रेस के भ्रष्ट नेतागण महात्मा लगने लगे. कुल मिलाकर स्वच्छ और कुशल प्रशासन की आड़ में में संघी एजेंडा लागू करने के सपने हमेशा के लिए दफन हो गए. जैसा कि प्रकृति का नियम है कि काठ की हांडी एक बार से ज्यादा नहीं चढ़ सकती, इसलिए अब हिन्दुत्व को हिन्दू धर्मं बताकर सत्ता हड़पने की कोशिश ख़त्म हो चुकी है लेकिन किसी और राजनीतिक कार्यक्रम के अभाव में फिर से हिंदुत्व को जिंदा करने की कोशिश शुरू हो गयी है . नागपुर के सर्वाच्च अधिकारी ने इस आशय का नारा दे दिया है लेकिन इस बार खेल थोडा बदला हुआ है . अबकी मुसलमानों को भी साथ लेने की बात की जा रही है . मुसलमानों के धार्मिक नेताओं के दरवाज़े पर फेरी लगाई जा रही है और बताया जा रहा है कि भारत में रहने वाले सभी मुसलमानों के पूर्वज हिन्दू थे... बाबरी मस्जिद की राजनीति के बाद अवाम की ऑंखें बहुत सारे मामलों में खुल गयी थीं . एक तो यही कि धर्म के नाम पर पैसा बटोरने वाला कभी भी ईमानदार नहीं रह सकता. आर एस एस का तो बहुत नुकसान हुआ, क्योंकि लोगों को समझ में आ गया कि राममंदिर के नाम पर किये गए आन्दोलन का इस्तेमाल सत्ता हासिल करने के लिए करने वाले लोग धोखेबाज़ होते हैं . मुसलमानों में भी कुछ महत्वाकांक्षी लोग आगे आ गए थे . बाबरी मस्जिद की हिफाज़त के आन्दोलन में शामिल बहुत सारे मुस्लिम नेता ३-४ साल के अन्दर ही बहुत मालदार हो गए थे. कुछ लोग केंद्र और राज्यों में मंत्री बने और कुछ लोग राजदूत वगैरह बन गए. गरज यह कि जनता को अब सब कुछ मालूम पड़ चुका है और ऐसा लगता है कि धर्म के नाम पर राजनीति करके धोखा देने वालों को वह बख्शने वाली नहीं है .. पिछले २३ वर्षों की राजनीति का यह एक बड़ा सबक रहेगा अगर जनता यह मान ले धर्म की बात करने वालों से धर्म की बात तो की जायेगी लेकिन अगर वे राजनीति की बात करने लगेंगें तो उनसे उसी तरह का बर्ताव किया जाएगा जिस तरह उत्तर प्रदेश की जनता ने बी जे पी से करना शुरू कर दिया है . अगर धर्मनिरपेक्षता की बहस को कुछ देर के लिए भूल भी जाएँ तो बाबरी मस्जिद के नाम पर धंधा करने वालों का जो हस्र हुआ उसे देख कर शायद भविष्य में शातिर से शातिर ठग भी धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति करने की हिम्मत नहीं करेगा. उस राजनीति में शामिल नेताओं ने पैसा-कौड़ी तो चाहे जितना बना लिया हो लेकिन उनकी विश्वसनीयता शून्य के आसपास ही मंडराती रहती है . शायद इसीलिए इस बार आर एस एस के मुखिया के बयानों में कुछ ट्विस्ट है . आजकल वे कहते पाए जा रहे हैं कि राममंदिर के लिए संतसमाज के आन्दोलन को वे समर्थन देंगें..यानी उन्हें भी इस बात का अंदाज़ लग गया है कि धर्म के नाम पर राजनीति करके सत्ता नहीं मिलने वाली है .बाबरी मस्जिद के खिलाफ जब आर एस एस ने आन्दोलन शुरू किया था तो सूचना की क्रान्ति नहीं आई थी . बहुत सारी बातें ऐसी भी लोगों ने सच मान ली थीं जो कि वास्तव में झूठ थीं लेकिन किसी मकसद को हासिल करने के लिए निहित स्वार्थ के लोग फैला रहे थे .अब ऐसा नहीं है . किसी भी नेता के लिए झूठ बोलकर पार पाना मुश्किल है क्योंकि चौबीसों घंटे चलने वाले न्यूज़ चैनल ऐसा नहीं होने देंगें . इसलिए ऐसा लगता है कि अब धार्मिक आधार पर राजनीतिक लाभ के लिए, आम आदमी को उकसाना उतना आसान नहीं होगा, जितना बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पहले था
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लिब्रहान रिपोर्ट जैसी ही रही उस पर लोकसभा में बहस
शेष नारायण सिंह
लोक सभा में लिब्रहान कमीशन की जांच के नतीजों पर नियम १९३ के तहत दो दिन की चर्चा हुई. . लोक सभा के इतिहास में यह चर्चा उन चर्चाओं में गिनी जायेगी जिनका स्तर बहुत ही निम्नकोटि का था. .. लोकसभा के सदस्यों ने एक बार फिर साबित कर दिया कि अगर वे चाहें तो बहस का स्तर रसातल तक ले जा सकते हैं .. इस बार उन्होंने अपनी इस योग्यता का विधिवत परिचय दिया. ज़्यादातर नेता इस तर्ज में भाषण देते रहे जैसे कोई चुनाव होने वाला हो . बहस के दौरान बहुत सारी बातें ऐसी हुईं जिन्हें प्रहसन और विद्रूप की श्रेणी में रखा जा सकता है. कुछ अभद्र टिप्पणियाँ भी की गयीं. . उत्तर प्रदेश के सांसद बेनी प्रसाद वर्मा ने जब अपनी असंसदीय भाषा वाली टिप्पणी की तो बहुत ही मगन दिख रहे थे.. बी जे पी को लगा कि नागपुर की ताज़ा फरमाइश के हिसाब से हिंदुत्व के आधार पर समाज के ध्रुवीकरण का यह अच्छा मौक़ा है . शायद इसीलिये उसके नेता कल्पनालोक के तर्क देते पाए गए. पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह होमवर्क करके क्लास में आये बच्चे की तरह उत्साहित थे तो सुषमा स्वराज ने बाबरी विध्वंस के लिए आये लोगों की भीड़ को जन आन्दोलन कह डाला और उसके नेता लाल कृष्ण अडवाणी को जननायक कह दिया. ताज़ा इतिहास में भारत ने दो जननायक देखे हैं. एक तो महात्मा गाँधी और दूसरे जयप्रकाश नारायण . दोनों ने ही सत्ता को हमेशा अपने से दूर रखा और जन मानस में आज भी उनकी चावी ऐसे व्यक्ति की है जो सत्ता कामी नहीं था. . अब उनकी श्रेणी में अडवाणी को रखने की कोशिश की जा रही है जिन्हें बी जे पी ने पिछले चुनाव में एक सत्तालोभी व्यक्ति के रूप में पेश करके पूरे देश में प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार का अभिनय करवाया और अब आर एस एस वाले उन्हें विपक्ष के नेता पद से भी हटा रहे हैं और वे छोड़ने को तैयार नहीं हैं ..उनकी छवि सत्ता के एक लोभी व्यक्ति की है .. अगर अडवाणी जननायक हैं तो मायावती , लालू यादव,जयललिता जैसे लोग भी उसी श्रेणी में आयेंगें . अब जनता को तय करना हो कि जिस बहस में इस तरह की काल्पनिक बातें कही गयी हों उसे क्या कहा जाएगा. . जहां तक कांग्रेस का सवाल है,लगता है उसने बहस को गंभीरता से नहीं लिया.जगदम्बिका पाल, बेनी प्रसाद वर्मा जैसे लोगों को उतार कर बहस की गंभीरता को कांग्रेस ने बहुत ही हल्का कर दिया..
लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट पर ही तरह तरह सवाल पूछे जा रहे हैं और उसके सार्वजनिक होने के बाद एक अलग बहस शुरू हो गयी है. सवाल पूछे जा रहे हैं कि जनता का नौ करोड़ रूपया और करीब सत्रह साल का वक़्त बरबाद करने के बाद जो जानकारी न्यायमूर्ति लिब्रहान ने इकठ्ठा की है उसमें नया क्या है? जो कुछ भी वे इकठ्ठा कर के लाये हैं वह जागरूक लोगों को पहले से ही मालूम था. उन्होंने बहुत सारे लोगों को अयोध्या में मौजूद बाबरी मस्जिद, जिसे संघ वाले विवादित ढांचा कहते हैं, के विध्वंस में शामिल बताया है . लेकिन जो कुछ भी उन्होंने पता लगाया है ,उसका इस्तेमाल ज़िम्मेदार लोगों पर मुक़दमा चलाने में नहीं किया जा सकता. अगर उनकी जांच के आधार पर किसी के ऊपर मुक़दमा चलाना हो तो , नए सिरे से जांच करनी पड़ेगी . इसका मतलब यह हुआ कि फिर से एफ आई आर लिखी जायेगी, विवेचना होगी और अगर कोई अपराध पाया जाएगा तो आरोप पत्र दाखिल किये जायेंगें और अदालत में मुक़दमा चलेगा. सी बी आई के प्रवक्ता से जब पूछा गया कि न्यायमूर्ति लिब्रहान ने जो जानकारी इकठ्ठा की है , क्या उसका इस्तेमाल सबूत के रूप में किया जा सकता है. सी बी आई के प्रवक्ता ने साफ़ कहा कि उसका कोई इस्तेमाल नहीं है .अगर किसी गवाह ने जांच आयोग के सामने बयान दिया है तो उसकी उतनी भी मान्यता नहीं है जितनी कि एक मजिस्ट्रेट के सामने दिए गए बयान की होती है. आयोग के सामने दिए गए बयान से कोई भी गवाह मुकर सकता है और उसका कुछ नहीं बनाया बिगाड़ा जा सकता.. सवाल उठता है कि अगर किसी जांच की इतनी कीमत भी नहीं कि उसका इस्तेमाल आरोपित व्यक्ति को दण्डित करने के लिए किया जा सके ,तो उसकी ज़रुरत क्या है.इंदिरा गाँधी की इमरजेंसी की ज्यादतियों की जांच के लिए बने शाह कमीशन ,मुंबई दंगों के लिए बनाए गए श्रीकृष्ण कमीशन, गुजरात के नानावती कमीशन, महात्मा गाँधी की याद में बनी संस्थाओं की जांच के लिए बने कुदाल कमीशन, सिखों पर हुए अत्याचार के लिए बने रंग नाथ मिश्र आयोग आदि कुछ ऐसे आयोग हैं जो १९५२ के एक्ट के आधार पर बने थे और उनसे कोई फायेदा नहीं हुआ.
.सभी जानकार मानते हैं कि कमीशन ऑफ़ इन्क्वायरी एक्ट १९५२ के आधार पर बने आयोग के नतीजों के पर कोई भी कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती.. यहाँ यह समझ लेना ज़रूरी है कि न्यायिक जांच आयोग का गठन इस एक्ट के अनुसार नहीं होता, वह अलग मामला है. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ,आर सी लाहोटी ने तो यहाँ तक कह दिया था कि इस तरह के कमीशन का कोई महत्व नहीं है . किसी भी जज को १९५२ के इस एक्ट के तहत बनाए जाने वाले कमीशन की अध्यक्षता का काम स्वीकार ही नहीं करना चाहिए. न्यायमूर्ति लाहोटी ने कहा है कि इस एक्ट के हिसाब से जांच आयोग बैठाकर सरकारें बहुत ही कूटनीतिक तरीके से मामले को टाल देती हैं . . उनका कहना है कि अगर इन् आयोगों की जांच को प्रभावकारी बनाना है तो संविधान में संशोधन करके उस तरह की व्यवस्था की जानी चाहिए.. किसी ज्वलंत मसले पर शुरू हुई बहस की गर्मी से बचने के लिए सरकारें इसका बार बार इस्तेमाल कर चुकी हैं .
कमीशन ऑफ़ इन्क्वायरी एक्ट १९५२ लागू होने के पहले कोई भी सार्वजनिक जांच पब्लिक सर्विस इन्क्वायारीज़ एक्ट , 1850 के तहत की जाती थी . इस लिए १९५२ में संसद में एक बिल लाकर यह कानून बनाया गया. लेकिन इस से कोई फायेदा नहीं हुआ. क्योंकि इस एक्ट में जो व्यवस्था है उसके हिसाब से अपनी धारा ८ बी की बिना पर यह कमीशन केवल गवाह या सरकारी दस्तावेज़ तलब कर सकता है . बाकी कुछ नहीं कर सकता .. इसलिए समाज के प्रबुद्ध वर्ग से यह मांग बार बार उठ रही है कि कमीशन ऑफ़ इन्क्वायरी एक्ट १९५२ को रद्द कर देना चाहिए .क्योंकि इसका इस्तेमाल सरकारें किसी बड़े मसले से लोगों का ध्यान बंटाने के लिए ही करती हैं . लेकिन अगर इसे रद्द नहीं करना है तो इसे कुछ तो ताक़त दे दी जानी चाहिए. जैसा कि न्यायमूर्ति आर सी लाहोटी ने बताया है कि जब तक संविधान में संशोधन नहीं किया जाता इस एक्ट का कोई लाभ नहीं है. .
लोक सभा में लिब्रहान कमीशन की जांच के नतीजों पर नियम १९३ के तहत दो दिन की चर्चा हुई. . लोक सभा के इतिहास में यह चर्चा उन चर्चाओं में गिनी जायेगी जिनका स्तर बहुत ही निम्नकोटि का था. .. लोकसभा के सदस्यों ने एक बार फिर साबित कर दिया कि अगर वे चाहें तो बहस का स्तर रसातल तक ले जा सकते हैं .. इस बार उन्होंने अपनी इस योग्यता का विधिवत परिचय दिया. ज़्यादातर नेता इस तर्ज में भाषण देते रहे जैसे कोई चुनाव होने वाला हो . बहस के दौरान बहुत सारी बातें ऐसी हुईं जिन्हें प्रहसन और विद्रूप की श्रेणी में रखा जा सकता है. कुछ अभद्र टिप्पणियाँ भी की गयीं. . उत्तर प्रदेश के सांसद बेनी प्रसाद वर्मा ने जब अपनी असंसदीय भाषा वाली टिप्पणी की तो बहुत ही मगन दिख रहे थे.. बी जे पी को लगा कि नागपुर की ताज़ा फरमाइश के हिसाब से हिंदुत्व के आधार पर समाज के ध्रुवीकरण का यह अच्छा मौक़ा है . शायद इसीलिये उसके नेता कल्पनालोक के तर्क देते पाए गए. पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह होमवर्क करके क्लास में आये बच्चे की तरह उत्साहित थे तो सुषमा स्वराज ने बाबरी विध्वंस के लिए आये लोगों की भीड़ को जन आन्दोलन कह डाला और उसके नेता लाल कृष्ण अडवाणी को जननायक कह दिया. ताज़ा इतिहास में भारत ने दो जननायक देखे हैं. एक तो महात्मा गाँधी और दूसरे जयप्रकाश नारायण . दोनों ने ही सत्ता को हमेशा अपने से दूर रखा और जन मानस में आज भी उनकी चावी ऐसे व्यक्ति की है जो सत्ता कामी नहीं था. . अब उनकी श्रेणी में अडवाणी को रखने की कोशिश की जा रही है जिन्हें बी जे पी ने पिछले चुनाव में एक सत्तालोभी व्यक्ति के रूप में पेश करके पूरे देश में प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार का अभिनय करवाया और अब आर एस एस वाले उन्हें विपक्ष के नेता पद से भी हटा रहे हैं और वे छोड़ने को तैयार नहीं हैं ..उनकी छवि सत्ता के एक लोभी व्यक्ति की है .. अगर अडवाणी जननायक हैं तो मायावती , लालू यादव,जयललिता जैसे लोग भी उसी श्रेणी में आयेंगें . अब जनता को तय करना हो कि जिस बहस में इस तरह की काल्पनिक बातें कही गयी हों उसे क्या कहा जाएगा. . जहां तक कांग्रेस का सवाल है,लगता है उसने बहस को गंभीरता से नहीं लिया.जगदम्बिका पाल, बेनी प्रसाद वर्मा जैसे लोगों को उतार कर बहस की गंभीरता को कांग्रेस ने बहुत ही हल्का कर दिया..
लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट पर ही तरह तरह सवाल पूछे जा रहे हैं और उसके सार्वजनिक होने के बाद एक अलग बहस शुरू हो गयी है. सवाल पूछे जा रहे हैं कि जनता का नौ करोड़ रूपया और करीब सत्रह साल का वक़्त बरबाद करने के बाद जो जानकारी न्यायमूर्ति लिब्रहान ने इकठ्ठा की है उसमें नया क्या है? जो कुछ भी वे इकठ्ठा कर के लाये हैं वह जागरूक लोगों को पहले से ही मालूम था. उन्होंने बहुत सारे लोगों को अयोध्या में मौजूद बाबरी मस्जिद, जिसे संघ वाले विवादित ढांचा कहते हैं, के विध्वंस में शामिल बताया है . लेकिन जो कुछ भी उन्होंने पता लगाया है ,उसका इस्तेमाल ज़िम्मेदार लोगों पर मुक़दमा चलाने में नहीं किया जा सकता. अगर उनकी जांच के आधार पर किसी के ऊपर मुक़दमा चलाना हो तो , नए सिरे से जांच करनी पड़ेगी . इसका मतलब यह हुआ कि फिर से एफ आई आर लिखी जायेगी, विवेचना होगी और अगर कोई अपराध पाया जाएगा तो आरोप पत्र दाखिल किये जायेंगें और अदालत में मुक़दमा चलेगा. सी बी आई के प्रवक्ता से जब पूछा गया कि न्यायमूर्ति लिब्रहान ने जो जानकारी इकठ्ठा की है , क्या उसका इस्तेमाल सबूत के रूप में किया जा सकता है. सी बी आई के प्रवक्ता ने साफ़ कहा कि उसका कोई इस्तेमाल नहीं है .अगर किसी गवाह ने जांच आयोग के सामने बयान दिया है तो उसकी उतनी भी मान्यता नहीं है जितनी कि एक मजिस्ट्रेट के सामने दिए गए बयान की होती है. आयोग के सामने दिए गए बयान से कोई भी गवाह मुकर सकता है और उसका कुछ नहीं बनाया बिगाड़ा जा सकता.. सवाल उठता है कि अगर किसी जांच की इतनी कीमत भी नहीं कि उसका इस्तेमाल आरोपित व्यक्ति को दण्डित करने के लिए किया जा सके ,तो उसकी ज़रुरत क्या है.इंदिरा गाँधी की इमरजेंसी की ज्यादतियों की जांच के लिए बने शाह कमीशन ,मुंबई दंगों के लिए बनाए गए श्रीकृष्ण कमीशन, गुजरात के नानावती कमीशन, महात्मा गाँधी की याद में बनी संस्थाओं की जांच के लिए बने कुदाल कमीशन, सिखों पर हुए अत्याचार के लिए बने रंग नाथ मिश्र आयोग आदि कुछ ऐसे आयोग हैं जो १९५२ के एक्ट के आधार पर बने थे और उनसे कोई फायेदा नहीं हुआ.
.सभी जानकार मानते हैं कि कमीशन ऑफ़ इन्क्वायरी एक्ट १९५२ के आधार पर बने आयोग के नतीजों के पर कोई भी कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती.. यहाँ यह समझ लेना ज़रूरी है कि न्यायिक जांच आयोग का गठन इस एक्ट के अनुसार नहीं होता, वह अलग मामला है. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ,आर सी लाहोटी ने तो यहाँ तक कह दिया था कि इस तरह के कमीशन का कोई महत्व नहीं है . किसी भी जज को १९५२ के इस एक्ट के तहत बनाए जाने वाले कमीशन की अध्यक्षता का काम स्वीकार ही नहीं करना चाहिए. न्यायमूर्ति लाहोटी ने कहा है कि इस एक्ट के हिसाब से जांच आयोग बैठाकर सरकारें बहुत ही कूटनीतिक तरीके से मामले को टाल देती हैं . . उनका कहना है कि अगर इन् आयोगों की जांच को प्रभावकारी बनाना है तो संविधान में संशोधन करके उस तरह की व्यवस्था की जानी चाहिए.. किसी ज्वलंत मसले पर शुरू हुई बहस की गर्मी से बचने के लिए सरकारें इसका बार बार इस्तेमाल कर चुकी हैं .
कमीशन ऑफ़ इन्क्वायरी एक्ट १९५२ लागू होने के पहले कोई भी सार्वजनिक जांच पब्लिक सर्विस इन्क्वायारीज़ एक्ट , 1850 के तहत की जाती थी . इस लिए १९५२ में संसद में एक बिल लाकर यह कानून बनाया गया. लेकिन इस से कोई फायेदा नहीं हुआ. क्योंकि इस एक्ट में जो व्यवस्था है उसके हिसाब से अपनी धारा ८ बी की बिना पर यह कमीशन केवल गवाह या सरकारी दस्तावेज़ तलब कर सकता है . बाकी कुछ नहीं कर सकता .. इसलिए समाज के प्रबुद्ध वर्ग से यह मांग बार बार उठ रही है कि कमीशन ऑफ़ इन्क्वायरी एक्ट १९५२ को रद्द कर देना चाहिए .क्योंकि इसका इस्तेमाल सरकारें किसी बड़े मसले से लोगों का ध्यान बंटाने के लिए ही करती हैं . लेकिन अगर इसे रद्द नहीं करना है तो इसे कुछ तो ताक़त दे दी जानी चाहिए. जैसा कि न्यायमूर्ति आर सी लाहोटी ने बताया है कि जब तक संविधान में संशोधन नहीं किया जाता इस एक्ट का कोई लाभ नहीं है. .
Wednesday, December 9, 2009
भारत-रूस परमाणु समझौता--अमरीकी ब्लैकमेल से छुटकारा
शेष नारायण सिंह
भारत और रूस के बीच परमाणु समझौता हो गया है. इस समझौते में बहुत सारी शर्तें नहीं हैं सीधे सीधे दोस्तों के बीच होने वाली समझदारी जैसी बात की गयी है . अमरीका से हुए परमाणु समझौते में जहां भारत को पूरी तरह से झुकाने की बात की गयी थी , हाइड एक्ट लगाया गया था, १२३ समझौता किया गया था . अमरीकी राजनीति का हर ऐरा गैरा नत्थू खैरा , भारत को परमाणु सहायता के बारे में उपदेश देता फिरता था. लगभग हर अमरीकी बयान में यह बात छुपी रहती थी कि अगर कभी फिर परमाणु परीक्षण कर लिया तो सब कुछ बर्बाद करके रख देंगें. कुल मिलाकर ऐसा माहौल तैयार कर लिया गया था कि लगता था कि भारत के साथ परमाणु समझौता करके अमरीका ने बहुत बड़ा एहसान किया है . लेकिन रूस के समझौते में ऐसी कोई बात नहीं है . अमरीकी समझौते में जहां जहां कोई कसर रख ली गई थी, उसे रूसी परमाणु समझौता भर देता है और एक तरह से यह मुकम्मल इंतज़ाम कर दिया गया है कि भारत को अपने परमाणु कार्यक्रम के लिए अब यूरेनियम की सप्लाई के लिये किसी का मुंह नहीं ताकना पड़ेगा. रूस ने कह दिया है कि जब भी जितनी भी युरेनियम की ज़रुरत हो , रूस देगा.
रूस भारत का दुर्दिन का साथी रहा है . .जो दुर्दिन का साथी होता है वही असली मित्र होता है .सोवियत रूस भारत का ऐसा ही साथी हुआ करता था.जब १९७१ में पाकिस्तान की दोस्ती के चक्कर में अमरीकी राष्ट्रपति कूटनीतिक मूर्खताओं के कीर्तिमान बना रहे थे और भारत को परमाणु हमले की धमकी तक दे रहे थे ,उस वक़्त सोवियत रूस की सरकार भारत के साथ चट्टान की तरह खडी थी. भारत के रक्षा तंत्र के विकास में सोवियत रूस का सबसे ज्यादा योगदान है .इसीलिये भारत में रूस की दोस्ती को बहुत ही सम्मान से देखा जाता है . सोवियंत रूस के टूटने के बाद मास्को में जो लोग सत्ता में आये, वे कुछ वर्ष तो भ्रमित रहे लेकिन अब उनकी दिशा तय हो चुकी है . बदली हालात में भी भारत और रूस की दोस्ती बहुत ही मह्त्वपूर्ण है. रूस से अपनी दोस्ती को संभालने के लिये भारत की तरफ से भी कोशिश की जाती है . भारत के प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह की रूस की दो दिन की यात्रा को इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए. दोनों देशों के बीच साल में एक बार शिखर स्तर पर मुलाक़ात होती है . वर्तमान यात्रा उसी शिखर सम्मलेन के सिलसिले का हिस्सा थी. .इस यात्रा में रक्षा समझौते को फिर से ताज़ा किया गया है , मल्टीपुल ट्रांसपोर्ट विमान और सांस्कृतिक आदान प्रदान के समझौतों के अलावा अपनेपन की अनुभूति को और पुख्ता करने का काम भी किया गया है...
रूस और भारत के बीच गहरी दोस्ती के चलते दोनों देशों के बीच बड़े नेताओं की आवाजाही लगी ही रहती है . इस साल भी भारत से कई बड़े नेता रूस गए और वहां से भी राजनीतिक स्तर पर बड़े पैमाने पर लोग आये. भारत की राष्ट्रपति, प्रतिभा पाटिल तो वहां इस वर्ष गयी ही थीं, विदेश मंत्री, रक्षा मंत्री , और वाणिज्य मंत्री भी इसी साल रूस की यात्रा पर हो आये हैं ..इस अवसर पर जारी संयुक्त घोषणा पत्र में वे सारी बातें शामिल हैं जिनसे दोनों देशों के बीच और बेहतर सम्बन्ध बनाने में मदद मिलेगी. ..लेकिन सबसे महत्वपूर्ण समझौता , परमाणु करार को ही माना जाएगा . बाकी समझौते तो रूस के साथ होने ही थे. लेकिन परमाणु करार में भारत को अपने बराबर हैसियत देकर रूस ने सही अर्थों में दोस्ती निभाई है .. इसी तरह के परमाणु समझौते को कर के अमरीका ने भारत को इतना मजबूर और बेचारा बना दिया था कि उसे अपनी घरेलू राजनीति में बहुत ज्यादा मुश्किलें पेश आई थी . सरकार में सहयोग दे रही वामपंथी पार्टियों ने मनमोहन सिंह को बहुत ही नचाया था और जब समर्थन वापस ले लिया तो नया समर्थन जुटाने के लिए कांग्रेस को नाकों चने चबाने पड़े थे... . रूस से हुये समझौते के बाद अब मनमोहन सिंह की सरकार को घरेलू राजनीति में भी ताकत मिलेगी. विश्वमंच पर भी भारत को अपने कूटनीतिक लक्ष्य हासिल करने में आसानी होगी. भारत के राजनयिकों की बड़ी इच्छा है कि उन्हें भी परमाणु हथियार संपन्न देशों का रुतबा मिले.. इस समझौते के बाद अमरीका समेत बाकी विकसित देशों पर दबाव पड़ेगा कि भारत को अपमानित करने की कोशिश न करें और अपनी बिरादरी में शामिल कर लें .सुरक्षा परिषद् की सदस्यता के मामले में भी इस से फायदा हो सकता है... जहां तक इस समझौते के व्यापारिक महत्व का सवाल है , भारत के साथ साथ रूस को भी भारी फायदा होगा, उसके उद्योगों को ताक़त मिलेगी. . वैसे यह बात अमरीका के बारे में भी सच है लेकिन अमरीकी मानसिकता वही सुपर पावर वाली है इसलिए वे अगर अपने लाभ के लिए भी कोई सौदा करते हैं तो दूसरे पक्ष के ऊपर एहसान लादने से बाज़ नहीं आते. इस लिए रूस का समझौता अब भारत को अमरीकी ब्लैकमेल से भी निजात दिलाएगा
भारत और रूस के बीच परमाणु समझौता हो गया है. इस समझौते में बहुत सारी शर्तें नहीं हैं सीधे सीधे दोस्तों के बीच होने वाली समझदारी जैसी बात की गयी है . अमरीका से हुए परमाणु समझौते में जहां भारत को पूरी तरह से झुकाने की बात की गयी थी , हाइड एक्ट लगाया गया था, १२३ समझौता किया गया था . अमरीकी राजनीति का हर ऐरा गैरा नत्थू खैरा , भारत को परमाणु सहायता के बारे में उपदेश देता फिरता था. लगभग हर अमरीकी बयान में यह बात छुपी रहती थी कि अगर कभी फिर परमाणु परीक्षण कर लिया तो सब कुछ बर्बाद करके रख देंगें. कुल मिलाकर ऐसा माहौल तैयार कर लिया गया था कि लगता था कि भारत के साथ परमाणु समझौता करके अमरीका ने बहुत बड़ा एहसान किया है . लेकिन रूस के समझौते में ऐसी कोई बात नहीं है . अमरीकी समझौते में जहां जहां कोई कसर रख ली गई थी, उसे रूसी परमाणु समझौता भर देता है और एक तरह से यह मुकम्मल इंतज़ाम कर दिया गया है कि भारत को अपने परमाणु कार्यक्रम के लिए अब यूरेनियम की सप्लाई के लिये किसी का मुंह नहीं ताकना पड़ेगा. रूस ने कह दिया है कि जब भी जितनी भी युरेनियम की ज़रुरत हो , रूस देगा.
रूस भारत का दुर्दिन का साथी रहा है . .जो दुर्दिन का साथी होता है वही असली मित्र होता है .सोवियत रूस भारत का ऐसा ही साथी हुआ करता था.जब १९७१ में पाकिस्तान की दोस्ती के चक्कर में अमरीकी राष्ट्रपति कूटनीतिक मूर्खताओं के कीर्तिमान बना रहे थे और भारत को परमाणु हमले की धमकी तक दे रहे थे ,उस वक़्त सोवियत रूस की सरकार भारत के साथ चट्टान की तरह खडी थी. भारत के रक्षा तंत्र के विकास में सोवियत रूस का सबसे ज्यादा योगदान है .इसीलिये भारत में रूस की दोस्ती को बहुत ही सम्मान से देखा जाता है . सोवियंत रूस के टूटने के बाद मास्को में जो लोग सत्ता में आये, वे कुछ वर्ष तो भ्रमित रहे लेकिन अब उनकी दिशा तय हो चुकी है . बदली हालात में भी भारत और रूस की दोस्ती बहुत ही मह्त्वपूर्ण है. रूस से अपनी दोस्ती को संभालने के लिये भारत की तरफ से भी कोशिश की जाती है . भारत के प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह की रूस की दो दिन की यात्रा को इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए. दोनों देशों के बीच साल में एक बार शिखर स्तर पर मुलाक़ात होती है . वर्तमान यात्रा उसी शिखर सम्मलेन के सिलसिले का हिस्सा थी. .इस यात्रा में रक्षा समझौते को फिर से ताज़ा किया गया है , मल्टीपुल ट्रांसपोर्ट विमान और सांस्कृतिक आदान प्रदान के समझौतों के अलावा अपनेपन की अनुभूति को और पुख्ता करने का काम भी किया गया है...
रूस और भारत के बीच गहरी दोस्ती के चलते दोनों देशों के बीच बड़े नेताओं की आवाजाही लगी ही रहती है . इस साल भी भारत से कई बड़े नेता रूस गए और वहां से भी राजनीतिक स्तर पर बड़े पैमाने पर लोग आये. भारत की राष्ट्रपति, प्रतिभा पाटिल तो वहां इस वर्ष गयी ही थीं, विदेश मंत्री, रक्षा मंत्री , और वाणिज्य मंत्री भी इसी साल रूस की यात्रा पर हो आये हैं ..इस अवसर पर जारी संयुक्त घोषणा पत्र में वे सारी बातें शामिल हैं जिनसे दोनों देशों के बीच और बेहतर सम्बन्ध बनाने में मदद मिलेगी. ..लेकिन सबसे महत्वपूर्ण समझौता , परमाणु करार को ही माना जाएगा . बाकी समझौते तो रूस के साथ होने ही थे. लेकिन परमाणु करार में भारत को अपने बराबर हैसियत देकर रूस ने सही अर्थों में दोस्ती निभाई है .. इसी तरह के परमाणु समझौते को कर के अमरीका ने भारत को इतना मजबूर और बेचारा बना दिया था कि उसे अपनी घरेलू राजनीति में बहुत ज्यादा मुश्किलें पेश आई थी . सरकार में सहयोग दे रही वामपंथी पार्टियों ने मनमोहन सिंह को बहुत ही नचाया था और जब समर्थन वापस ले लिया तो नया समर्थन जुटाने के लिए कांग्रेस को नाकों चने चबाने पड़े थे... . रूस से हुये समझौते के बाद अब मनमोहन सिंह की सरकार को घरेलू राजनीति में भी ताकत मिलेगी. विश्वमंच पर भी भारत को अपने कूटनीतिक लक्ष्य हासिल करने में आसानी होगी. भारत के राजनयिकों की बड़ी इच्छा है कि उन्हें भी परमाणु हथियार संपन्न देशों का रुतबा मिले.. इस समझौते के बाद अमरीका समेत बाकी विकसित देशों पर दबाव पड़ेगा कि भारत को अपमानित करने की कोशिश न करें और अपनी बिरादरी में शामिल कर लें .सुरक्षा परिषद् की सदस्यता के मामले में भी इस से फायदा हो सकता है... जहां तक इस समझौते के व्यापारिक महत्व का सवाल है , भारत के साथ साथ रूस को भी भारी फायदा होगा, उसके उद्योगों को ताक़त मिलेगी. . वैसे यह बात अमरीका के बारे में भी सच है लेकिन अमरीकी मानसिकता वही सुपर पावर वाली है इसलिए वे अगर अपने लाभ के लिए भी कोई सौदा करते हैं तो दूसरे पक्ष के ऊपर एहसान लादने से बाज़ नहीं आते. इस लिए रूस का समझौता अब भारत को अमरीकी ब्लैकमेल से भी निजात दिलाएगा
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Monday, December 7, 2009
कोपेनहेगन में दुनिया को बचाने का मौका.
आज अखबारों में एक सम्पादकीय छपा है .. दुनिया भर के ४५ देशों के ५६ अखबारों में वही पीस छापा गया है जिसमें विश्व के नेताओं से अपील की गयी है कि दुनिया को जलवायु परिवर्तन के खतरे से बचाओ. उसी सम्पादकीय का भावानुवाद प्रस्तुत है.
कोपेनहेगन में दुनिया को बचाने का मौका.
जलवायु परिवर्तन अब एक कड़वी सच्चाई है .अगर फ़ौरन क़दम न उठाये गए तो पृथ्वी पर रहने वालों की सुरक्षा और सम्पन्नता ख़त्म हो जायगी. हो सकता है कि धरती पूरी तरह से बाँझ हो जाए. कोपेनहेगन में करीब २ हफ्ते बाद होने वाले सम्मलेन से दुनिया को बहुत उम्मीद है लेकिन लगता है कि वहां कोई कोई समझौता नहीं होने वाला है . प्रदूषक गैसों को वातावरण में छोड़ने वाले उद्योगों और ऊर्जा पैदा करने वाली अन्य तरकीबों की वजह से भूमंडल का तापमान बढ रहा है. पिछले १४ वर्षों का रिकॉर्ड देखा जाय तो पता लगेगा कि ११ साल ज़रुरत से ज्यादा गर्म रहे हैं और यही खतरे की घंटी है ..इन्हीं कारणों से पिछले कुछ वर्षों में खाने पीने की चीज़ों की कीमतों में वृद्धि हुई है . अगर जलवायु परिवर्तन के मसले को हल न कर लिया गया तो इसे बतौर चेतावनी माना जा सकता है.. इस विषय पर वैज्ञानिक पत्रिकाओं में पहले चर्चा होती थी कि सारा गड़बड़ इंसानों का किया धरा है लेकिन अब मुद्दा यह नहीं है . अब चर्चा का विषय यह है कि अब इस मुसीबत से बचने के लिए कितना वक़्त रह गया है ..
जलवायु में परिवर्तन कोई एक दिन में नहीं हुआ है . यह शताब्दियों की गड़बड़ी का नतीजा है और इसके अपने आप ख़त्म होने की संभावना बिलकुल नहीं है . इसको रोकने की कोशिशों में अगले २ हफ्ते बहुत ही अहम् भूमिका निभा सकते हैं . कोपेनहेगन में १९२ देशों की सरकारों के प्रतिनिधि जमा होंगें ..उनके सामने बस एक मकसद होना चाहिए कि जलवायु को और भी तबाह होने से बचाएं. इन नेताओं के सामने झगडा करके बातचीत को रोक देने का विकल्प नहीं है इस लिए इन्हें हर हाल में सुलह करने की कोशिश करनी चाहिए, एक दूसरे पर आरोप और प्रत्यारोप लगाने से बचना चाहिए. अगर यह लोग किसी समझौते पर नहीं पंहुच सके तो इनका काम राजनीति की सबसे बड़ी नाकामियों में दर्ज किया जाएगा. पूरी कोशिश की जानी चाहिए कि यह लड़ाई धनी और गरीब देशों के बीच के बाकी झगड़ों की तरह न हो जाय. क्योंकि अगर ये नेता यहाँ से कोई सही फैसला किये बिना लौटे तो आने वाली नस्लों को कोई सफाई देने लायक भी नहीं रह जायेंगें ..इस बात की उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए कि कोपेनहेगन में कोई संधि हो जायेगी. लेकिन उस दिशा में क़दम तो उठाये जा सकते हैं .इस सारे मामले में उम्मीद की एक किरण अमरीका के राष्ट्रपति पद पर बराक ओबामा की मौजूदगी है क्योंकि उनके पहले तो आठ साल तक अमरीका ने जलवायु के मुद्दे पर जमकर अड़ंगेबाजी की है ..हालांकि आज भी दुनिया के भविष्य के लिए जो भी फैसले होने हैं उसमें अमरीकी राजनीति का ख़ासा असर रहता है क्योंकि चाह कर भी ओबामा , अमरीकी कांग्रेस की मंजूरी के बिना कुछ भी नहीं कर सकते. और वहां अभी भी वही मानसिकता हावी है जिसके आधार पर पूर्व राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश काम किया करते थे..लेकिन कोपेनहेगन में जो लोग जमा हो रहे हैं उन्हें राजनेता के रूप में अपनी पह्चान को भुलाकर अपने आप को स्टेट्समैन के रूप में प्रस्तुत करना पड़ेगा .अगर वे किसी समझौते पर न पंहुंच सकें तो उन्हें इस बात की कोशिश करनी पड़ेगी कि जलवायु परिवर्तन की समस्या को हल करने के लिये एक टाइम टेबुल बना कर वापस लौटें और जब जून में जर्मनी में लोग मिलें तो कुछ कर गुजरने का मौक़ा हो.... समझौते की बुनियाद में संपन्न और गरीब मुल्कों के बीच इस बात पर सहमति होनी चाहिए कि प्रदूषण के मुद्दे पर न्यायपूर्ण सर्वसम्मत फैसला हो.. दिक्क़त यह है कि संपन्न देश आज के आंकड़े पेश करने लगते हैं और कहते हैं कि विकासशील देशों को चाहिए कि वे अपना गैस उत्सर्जन कम करें. . या एक तर्क प्रणाली यह होती है कि अमरीका और चीन आज की तारीख में सबसे ज्यादा प्रदूषण कर रहे हैं ,उन्हें इस पर रोक लगाना चाहिए लेकिन सब को मालूम है कि इनमें से कोई भी बात स्वीकार नहीं होने वाली है . सबको मालूम है कि १८५० से अब तक जितना भी कार्बन डाई आक्साइड वातावरण में छोड़ा गया है उसका तीन चौथाई विकसित और औद्योगिक देशों की वजह से है ..इस लिय विकसित देशों को पहल करनी पड़ेगी कि वे ऐसे उपाय करें कि अगले १० वर्षों में गैसों का उत्सर्जन स्तर ऐसा हो जाए जो १९९० तक था. सामाजिक न्याय का तकाज़ा है कि विकसित देश दुनिया भर के सारे प्रदूषण को एक इकाई माने और उसे दुरुस्त करने की लिए सबके साथ मिलकर क़दम उठायें जिसमें संपन्न देशों को ज्यादा धन खर्च करने के लिए पहल करनी पड़ेगी और जलवायु को ठीक करने के लिए गरीब मुल्क जो कटौती करेंगें उसकी भरपाई अमीरों की जेब से की जायेगी. . ज़ाहिर है इस सारे काम में खर्च भारी होगा लेकिन वह हर हाल में उस खर्च से कम होगा जो दुनिया के संपन्न देशों ने आर्थिक मंदी को रोकने के लिए किया है . यहाँ यह भी याद रखना पड़ेगा कि कि आर्थिक मंदी से बड़ा खतरा जलवायु वाला है क्योंकि अगर इसे तुरंत न रोका गया तो पहल इंसानियत के हाथ से निकल चुकी होगी और तबाही इस पृथ्वी की नियति बन जायेगी. ज़ाहिर है कि कोपेनहेगन में जुटे नेताओं से मानवता को बहुत उम्मीदें हैं , उन्हें चाहिए कि उन उम्मीदों पर खरा उतरें
कोपेनहेगन में दुनिया को बचाने का मौका.
जलवायु परिवर्तन अब एक कड़वी सच्चाई है .अगर फ़ौरन क़दम न उठाये गए तो पृथ्वी पर रहने वालों की सुरक्षा और सम्पन्नता ख़त्म हो जायगी. हो सकता है कि धरती पूरी तरह से बाँझ हो जाए. कोपेनहेगन में करीब २ हफ्ते बाद होने वाले सम्मलेन से दुनिया को बहुत उम्मीद है लेकिन लगता है कि वहां कोई कोई समझौता नहीं होने वाला है . प्रदूषक गैसों को वातावरण में छोड़ने वाले उद्योगों और ऊर्जा पैदा करने वाली अन्य तरकीबों की वजह से भूमंडल का तापमान बढ रहा है. पिछले १४ वर्षों का रिकॉर्ड देखा जाय तो पता लगेगा कि ११ साल ज़रुरत से ज्यादा गर्म रहे हैं और यही खतरे की घंटी है ..इन्हीं कारणों से पिछले कुछ वर्षों में खाने पीने की चीज़ों की कीमतों में वृद्धि हुई है . अगर जलवायु परिवर्तन के मसले को हल न कर लिया गया तो इसे बतौर चेतावनी माना जा सकता है.. इस विषय पर वैज्ञानिक पत्रिकाओं में पहले चर्चा होती थी कि सारा गड़बड़ इंसानों का किया धरा है लेकिन अब मुद्दा यह नहीं है . अब चर्चा का विषय यह है कि अब इस मुसीबत से बचने के लिए कितना वक़्त रह गया है ..
जलवायु में परिवर्तन कोई एक दिन में नहीं हुआ है . यह शताब्दियों की गड़बड़ी का नतीजा है और इसके अपने आप ख़त्म होने की संभावना बिलकुल नहीं है . इसको रोकने की कोशिशों में अगले २ हफ्ते बहुत ही अहम् भूमिका निभा सकते हैं . कोपेनहेगन में १९२ देशों की सरकारों के प्रतिनिधि जमा होंगें ..उनके सामने बस एक मकसद होना चाहिए कि जलवायु को और भी तबाह होने से बचाएं. इन नेताओं के सामने झगडा करके बातचीत को रोक देने का विकल्प नहीं है इस लिए इन्हें हर हाल में सुलह करने की कोशिश करनी चाहिए, एक दूसरे पर आरोप और प्रत्यारोप लगाने से बचना चाहिए. अगर यह लोग किसी समझौते पर नहीं पंहुच सके तो इनका काम राजनीति की सबसे बड़ी नाकामियों में दर्ज किया जाएगा. पूरी कोशिश की जानी चाहिए कि यह लड़ाई धनी और गरीब देशों के बीच के बाकी झगड़ों की तरह न हो जाय. क्योंकि अगर ये नेता यहाँ से कोई सही फैसला किये बिना लौटे तो आने वाली नस्लों को कोई सफाई देने लायक भी नहीं रह जायेंगें ..इस बात की उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए कि कोपेनहेगन में कोई संधि हो जायेगी. लेकिन उस दिशा में क़दम तो उठाये जा सकते हैं .इस सारे मामले में उम्मीद की एक किरण अमरीका के राष्ट्रपति पद पर बराक ओबामा की मौजूदगी है क्योंकि उनके पहले तो आठ साल तक अमरीका ने जलवायु के मुद्दे पर जमकर अड़ंगेबाजी की है ..हालांकि आज भी दुनिया के भविष्य के लिए जो भी फैसले होने हैं उसमें अमरीकी राजनीति का ख़ासा असर रहता है क्योंकि चाह कर भी ओबामा , अमरीकी कांग्रेस की मंजूरी के बिना कुछ भी नहीं कर सकते. और वहां अभी भी वही मानसिकता हावी है जिसके आधार पर पूर्व राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश काम किया करते थे..लेकिन कोपेनहेगन में जो लोग जमा हो रहे हैं उन्हें राजनेता के रूप में अपनी पह्चान को भुलाकर अपने आप को स्टेट्समैन के रूप में प्रस्तुत करना पड़ेगा .अगर वे किसी समझौते पर न पंहुंच सकें तो उन्हें इस बात की कोशिश करनी पड़ेगी कि जलवायु परिवर्तन की समस्या को हल करने के लिये एक टाइम टेबुल बना कर वापस लौटें और जब जून में जर्मनी में लोग मिलें तो कुछ कर गुजरने का मौक़ा हो.... समझौते की बुनियाद में संपन्न और गरीब मुल्कों के बीच इस बात पर सहमति होनी चाहिए कि प्रदूषण के मुद्दे पर न्यायपूर्ण सर्वसम्मत फैसला हो.. दिक्क़त यह है कि संपन्न देश आज के आंकड़े पेश करने लगते हैं और कहते हैं कि विकासशील देशों को चाहिए कि वे अपना गैस उत्सर्जन कम करें. . या एक तर्क प्रणाली यह होती है कि अमरीका और चीन आज की तारीख में सबसे ज्यादा प्रदूषण कर रहे हैं ,उन्हें इस पर रोक लगाना चाहिए लेकिन सब को मालूम है कि इनमें से कोई भी बात स्वीकार नहीं होने वाली है . सबको मालूम है कि १८५० से अब तक जितना भी कार्बन डाई आक्साइड वातावरण में छोड़ा गया है उसका तीन चौथाई विकसित और औद्योगिक देशों की वजह से है ..इस लिय विकसित देशों को पहल करनी पड़ेगी कि वे ऐसे उपाय करें कि अगले १० वर्षों में गैसों का उत्सर्जन स्तर ऐसा हो जाए जो १९९० तक था. सामाजिक न्याय का तकाज़ा है कि विकसित देश दुनिया भर के सारे प्रदूषण को एक इकाई माने और उसे दुरुस्त करने की लिए सबके साथ मिलकर क़दम उठायें जिसमें संपन्न देशों को ज्यादा धन खर्च करने के लिए पहल करनी पड़ेगी और जलवायु को ठीक करने के लिए गरीब मुल्क जो कटौती करेंगें उसकी भरपाई अमीरों की जेब से की जायेगी. . ज़ाहिर है इस सारे काम में खर्च भारी होगा लेकिन वह हर हाल में उस खर्च से कम होगा जो दुनिया के संपन्न देशों ने आर्थिक मंदी को रोकने के लिए किया है . यहाँ यह भी याद रखना पड़ेगा कि कि आर्थिक मंदी से बड़ा खतरा जलवायु वाला है क्योंकि अगर इसे तुरंत न रोका गया तो पहल इंसानियत के हाथ से निकल चुकी होगी और तबाही इस पृथ्वी की नियति बन जायेगी. ज़ाहिर है कि कोपेनहेगन में जुटे नेताओं से मानवता को बहुत उम्मीदें हैं , उन्हें चाहिए कि उन उम्मीदों पर खरा उतरें
Sunday, December 6, 2009
जाति-संस्था मनु की देन नहीं -- डा. बी आर अंबेडकर
शेष नारायण सिंह
डा.अंबेडकर के ५३वे निर्वाण दिवस के मौके पर उनको याद किया जाएगा. इस अवसर पर ज़रूरी है कि उनकी सोच और दर्शन के सबसे अहम पहलू पर गौर किया जाए. सब को मालूम है कि डा. अंबेडकर के दर्शन ने २० वीं सदी के भारत के राजनीतिक आचरण को बहुत ज्यादा प्रभावित किया था . लेकिन उनके दर्शन की सबसे ख़ास बात पर जानकारी की भारी कमी है. यह बात कई बार कही जा चुकी है कि उनके नाम पर राजनीति करने वालों को इतना तो मालूम है कि बाबा साहेब जाति व्यवस्था के खिलाफ थे लेकिन बाकी चीजों पर ज़्यादातर लोग अन्धकार में हैं. उन्हीं कुछ बातों का ज़िक्र करना आज के दिन सही रहेगा. डा. अंबेडकर को इतिहास एक ऐसे राजनीतिक चिन्तक के रूप में याद रखेगा जिन्होंने जाति के विनाश को सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन की बुनियाद माना था. यह बात किसी से छुपी नहीं है कि उनकी राजनीतिक विरासत का सबसे ज्यादा फायदा उठाने वाली पार्टी की नेता, आज जाति की संस्था को संभाल कर रखना चाहती हैं ,उसके विनाश में उनकी कोई रूचि नहीं है . वोट बैंक राजनीति के चक्कर में पड़ गयी अंबेडकरवादी पार्टियों को अब वास्तव में इस बात की चिंता सताने लगी है कि अगर जाति का विनाश हो जाएगा तो उनकी वोट बैंक की राजनीति का क्या होगा. डा अंबेडकर की राजनीतिक सोच को लेकर कुछ और भ्रांतियां भी हैं . कांशीराम और मायावती ने इस क़दर प्रचार कर रखा है कि जाति की पूरी व्यवस्था का ज़हर मनु ने ही फैलाया था, वही इसके संस्थापक थे और मनु की सोच को ख़त्म कर देने मात्र से सब ठीक हो जाएगा. लेकिन बाबा साहेब ऐसा नहीं मानते थे . उनके एक बहुचर्चित, और अकादमिक भाषण के हवाले से कहा जा सकता है कि जाति व्यवस्था की सारी बुराइयों को लिए मनु को ही ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता .मनु के बारे में उन्होंने कहा कि अगर कभी मनु रहे भी होंगें तो बहुत ही हिम्मती रहे होंगें . डा. अंबेडकर का कहना है कि ऐसा कभी नहीं होता कि जाति जैसा शिकंजा कोई एक व्यक्ति बना दे और बाकी पूरा समाज उसको स्वीकार कर ले. उनके अनुसार इस बात की कल्पना करना भी बेमतलब है कि कोई एक आदमी कानून बना देगा और पीढियां दर पीढियां उसको मानती रहेंगीं. . हाँ इस बात की कल्पना की जा सकती है कि मनु नाम के कोई तानाशाह रहे होंगें जिनकी ताक़त के नीचे पूरी आबादी दबी रही होगी और वे जो कह देंगे ,उसे सब मान लेंगें और उन लोगों की आने वाली नस्लें भी उसे मानती रहेंगी.उन्होंने कहा कि , मैं इस बात को जोर दे कर कहना चाहता हूँ कि मनु ने जाति की व्यवस्था की स्थापना नहीं की क्योंकि यह उनके बस की बात नहीं था. . मनु के जन्म के पहले भी जाति की व्यवस्था कायम थी. . मनु का योगदान बस इतना है कि उन्होंने इसे एक दार्शनिक आधार दिया. . जहां तक हिन्दू समाज के स्वरुप और उसमें जाति के मह्त्व की बात है, वह मनु की हैसियत के बाहर था और उन्होंने वर्तमान हिन्दू समाज की दिशा तय करने में कोई भूमिका नहीं निभाई. उनका योगदान बस इतना ही है उन्होंने जाति को एक धर्म के रूप में स्थापित करने की कोशिश की . जाति का दायरा इतना बड़ा है कि उसे एक आदमी, चाहे वह जितना ही बड़ा ज्ञाता या शातिर हो, संभाल ही नहीं सकता. . इसी तरह से यह कहना भी ठीक नहीं होगा कि ब्राह्मणों ने जाति की संस्था की स्थापना की. मेरा मानना है कि ब्राह्मणों ने बहुत सारे गलत काम किये हैं लेकिन उनकी औक़ात यह कभी नहीं थी कि वे पूरे समाज पर जाति व्यवस्था को थोप सकते. . हिन्दू समाज में यह धारणा आम है कि के जाति की संस्था का आविष्कार शास्त्रों ने किया और शास्त्र तो कभी गलत हो नहीं सकते. बाबा साहेब ने अपने इसी भाषण में एक चेतावनी और दी थी कि उपदेश देने से जाति की स्थापना नहीं हुई थी और इसको ख़त्म भी उपदेश के ज़रिये नहीं किया जा सकता.. यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना ज़रूरी है अपने इन विचारों के बावजूद भी , डा अंबेडकर ने समाज सुधारकों के खिलाफ कोई बात नहीं कही. ज्योतिबा फुले का वे हमेशा सम्मान करते रहे. . हाँ उन्हें यह पूरा विश्वास था कि जाति प्रथा को किसी महापुरुष से जोड़ कर उसकी तार्किक परिणति तक नहीं ले जाया जा सकता.
डा अंबेडकर के अनुसार हर समाज का वर्गीकरण और उप वर्गीकरण होता है लेकिन परेशानी की बात यह है कि इस वर्गीकरण के चलते वह ऐसे सांचों में फिट हो जाता है कि एक दूसरे वर्ग के लोग इसमें न अन्दर जा सकते हैं और न बाहर आ सकते हैं . यही जाति का शिकंजा है और इसे ख़त्म किये बिना कोई तरक्की नहीं हो सकती. सच्ची बात यह है कि शुरू में अन्य समाजों की तरह हिन्दू समाज भी चार वर्गों में बंटा हुआ था . ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र . यह वर्गीकरण मूल रूप से जन्म के आधार पर नहीं था, यह कर्म के आधार पर था .एक वर्ग से दूसरे वर्ग में आवाजाही थी लेकिन हज़ारों वर्षों की निहित स्वार्थों कोशिश के बाद इसे जन्म के आधार पर कर दिया गया और एक दूसरे वर्ग में आने जाने की रीति ख़त्म हो गयी. और यही जाति की संस्था के रूप में बाद के युगों में पहचाना जाने लगा. . अगर आर्थिक विकास की गति को तेज़ किया जाय और उसमें सार्थक हस्तक्षेप करके कामकाज के बेहतर अवसर उपलब्ध कराये जाएँ तो जाति व्यवस्था को जिंदा रख पाना बहुत ही मुश्किल होगा. और जाति के सिद्धांत पर आधारित व्यवस्था का बच पाना बहुत ही मुश्किल होगा.. अगर ऐसा हुआ तो जाति के विनाश के ज्योतिब फुले, डा. राम मनोहर लोहिया और डा. अम्बेडकर की राजनीतिक और सामाजिक सोच और दर्शन का मकसद हासिल किया जा सकेगा..
डा.अंबेडकर के ५३वे निर्वाण दिवस के मौके पर उनको याद किया जाएगा. इस अवसर पर ज़रूरी है कि उनकी सोच और दर्शन के सबसे अहम पहलू पर गौर किया जाए. सब को मालूम है कि डा. अंबेडकर के दर्शन ने २० वीं सदी के भारत के राजनीतिक आचरण को बहुत ज्यादा प्रभावित किया था . लेकिन उनके दर्शन की सबसे ख़ास बात पर जानकारी की भारी कमी है. यह बात कई बार कही जा चुकी है कि उनके नाम पर राजनीति करने वालों को इतना तो मालूम है कि बाबा साहेब जाति व्यवस्था के खिलाफ थे लेकिन बाकी चीजों पर ज़्यादातर लोग अन्धकार में हैं. उन्हीं कुछ बातों का ज़िक्र करना आज के दिन सही रहेगा. डा. अंबेडकर को इतिहास एक ऐसे राजनीतिक चिन्तक के रूप में याद रखेगा जिन्होंने जाति के विनाश को सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन की बुनियाद माना था. यह बात किसी से छुपी नहीं है कि उनकी राजनीतिक विरासत का सबसे ज्यादा फायदा उठाने वाली पार्टी की नेता, आज जाति की संस्था को संभाल कर रखना चाहती हैं ,उसके विनाश में उनकी कोई रूचि नहीं है . वोट बैंक राजनीति के चक्कर में पड़ गयी अंबेडकरवादी पार्टियों को अब वास्तव में इस बात की चिंता सताने लगी है कि अगर जाति का विनाश हो जाएगा तो उनकी वोट बैंक की राजनीति का क्या होगा. डा अंबेडकर की राजनीतिक सोच को लेकर कुछ और भ्रांतियां भी हैं . कांशीराम और मायावती ने इस क़दर प्रचार कर रखा है कि जाति की पूरी व्यवस्था का ज़हर मनु ने ही फैलाया था, वही इसके संस्थापक थे और मनु की सोच को ख़त्म कर देने मात्र से सब ठीक हो जाएगा. लेकिन बाबा साहेब ऐसा नहीं मानते थे . उनके एक बहुचर्चित, और अकादमिक भाषण के हवाले से कहा जा सकता है कि जाति व्यवस्था की सारी बुराइयों को लिए मनु को ही ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता .मनु के बारे में उन्होंने कहा कि अगर कभी मनु रहे भी होंगें तो बहुत ही हिम्मती रहे होंगें . डा. अंबेडकर का कहना है कि ऐसा कभी नहीं होता कि जाति जैसा शिकंजा कोई एक व्यक्ति बना दे और बाकी पूरा समाज उसको स्वीकार कर ले. उनके अनुसार इस बात की कल्पना करना भी बेमतलब है कि कोई एक आदमी कानून बना देगा और पीढियां दर पीढियां उसको मानती रहेंगीं. . हाँ इस बात की कल्पना की जा सकती है कि मनु नाम के कोई तानाशाह रहे होंगें जिनकी ताक़त के नीचे पूरी आबादी दबी रही होगी और वे जो कह देंगे ,उसे सब मान लेंगें और उन लोगों की आने वाली नस्लें भी उसे मानती रहेंगी.उन्होंने कहा कि , मैं इस बात को जोर दे कर कहना चाहता हूँ कि मनु ने जाति की व्यवस्था की स्थापना नहीं की क्योंकि यह उनके बस की बात नहीं था. . मनु के जन्म के पहले भी जाति की व्यवस्था कायम थी. . मनु का योगदान बस इतना है कि उन्होंने इसे एक दार्शनिक आधार दिया. . जहां तक हिन्दू समाज के स्वरुप और उसमें जाति के मह्त्व की बात है, वह मनु की हैसियत के बाहर था और उन्होंने वर्तमान हिन्दू समाज की दिशा तय करने में कोई भूमिका नहीं निभाई. उनका योगदान बस इतना ही है उन्होंने जाति को एक धर्म के रूप में स्थापित करने की कोशिश की . जाति का दायरा इतना बड़ा है कि उसे एक आदमी, चाहे वह जितना ही बड़ा ज्ञाता या शातिर हो, संभाल ही नहीं सकता. . इसी तरह से यह कहना भी ठीक नहीं होगा कि ब्राह्मणों ने जाति की संस्था की स्थापना की. मेरा मानना है कि ब्राह्मणों ने बहुत सारे गलत काम किये हैं लेकिन उनकी औक़ात यह कभी नहीं थी कि वे पूरे समाज पर जाति व्यवस्था को थोप सकते. . हिन्दू समाज में यह धारणा आम है कि के जाति की संस्था का आविष्कार शास्त्रों ने किया और शास्त्र तो कभी गलत हो नहीं सकते. बाबा साहेब ने अपने इसी भाषण में एक चेतावनी और दी थी कि उपदेश देने से जाति की स्थापना नहीं हुई थी और इसको ख़त्म भी उपदेश के ज़रिये नहीं किया जा सकता.. यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना ज़रूरी है अपने इन विचारों के बावजूद भी , डा अंबेडकर ने समाज सुधारकों के खिलाफ कोई बात नहीं कही. ज्योतिबा फुले का वे हमेशा सम्मान करते रहे. . हाँ उन्हें यह पूरा विश्वास था कि जाति प्रथा को किसी महापुरुष से जोड़ कर उसकी तार्किक परिणति तक नहीं ले जाया जा सकता.
डा अंबेडकर के अनुसार हर समाज का वर्गीकरण और उप वर्गीकरण होता है लेकिन परेशानी की बात यह है कि इस वर्गीकरण के चलते वह ऐसे सांचों में फिट हो जाता है कि एक दूसरे वर्ग के लोग इसमें न अन्दर जा सकते हैं और न बाहर आ सकते हैं . यही जाति का शिकंजा है और इसे ख़त्म किये बिना कोई तरक्की नहीं हो सकती. सच्ची बात यह है कि शुरू में अन्य समाजों की तरह हिन्दू समाज भी चार वर्गों में बंटा हुआ था . ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र . यह वर्गीकरण मूल रूप से जन्म के आधार पर नहीं था, यह कर्म के आधार पर था .एक वर्ग से दूसरे वर्ग में आवाजाही थी लेकिन हज़ारों वर्षों की निहित स्वार्थों कोशिश के बाद इसे जन्म के आधार पर कर दिया गया और एक दूसरे वर्ग में आने जाने की रीति ख़त्म हो गयी. और यही जाति की संस्था के रूप में बाद के युगों में पहचाना जाने लगा. . अगर आर्थिक विकास की गति को तेज़ किया जाय और उसमें सार्थक हस्तक्षेप करके कामकाज के बेहतर अवसर उपलब्ध कराये जाएँ तो जाति व्यवस्था को जिंदा रख पाना बहुत ही मुश्किल होगा. और जाति के सिद्धांत पर आधारित व्यवस्था का बच पाना बहुत ही मुश्किल होगा.. अगर ऐसा हुआ तो जाति के विनाश के ज्योतिब फुले, डा. राम मनोहर लोहिया और डा. अम्बेडकर की राजनीतिक और सामाजिक सोच और दर्शन का मकसद हासिल किया जा सकेगा..
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Thursday, December 3, 2009
चीनी मिल के शीरे में भी किसान को हिस्सा दो
शेषनारायण सिंह
अजित सिंह बुरे फंस गए हैं . दिल्ली में गन्ना किसानों के बहुत ही बड़े जमावड़े के बाद उनकी राजनीति में कुछ चमक आनी शुरू हुई थी लेकिन अब वह धुन्धलाना शुरू हो गयी है . दिल्ली में आकर किसानों ने सरकार से वह पूंजीपति परस्त गन्ना अध्यादेश तो वापस करवा दिया था जिसे पता नहीं कितनी रिश्वत देकर मिल मालिकों ने बनवाया था. लेकिन गन्ने की प्रति कुंतल कीमत के सवाल पर अजित सिंह गड़बड़ा गए. किसानों की मांग तो २८० रूपये प्रति कुंतल की थी लेकिन सब को पता था कि वह होने वाला नहीं है लेकिन यह उम्मीद सब को थी कि कृषि मंत्री शरद पवार के राज्य के बराबर तो यू पी वालों को मिल ही जाएगा या पड़ोसी राज्य उत्तराखंड के बराबर तो मानकर चल रहे थे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. २०० से भी कम के मिल मालिकों के प्रस्ताव पर अजित सिंह ने हुक्म जारी कर दिया कि गन्ना देना शुरू कर दिया जाए. लेकिन किसानों ने उनकी बात नहीं मानी. इस बीच खबर आई कि किसी चीनी मिल में अजित सिंह का कुछ स्वार्थ है . बस फिर क्या था ,गन्ना किसानों में गुस्से की लहर दौड़ गयी. . फिर किसानों की एक पंचायत बुलाई गयी . जिसमें पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बड़ी संख्या में किसान जमा हुए. अजित सिंह खुद तो इस पंचायत में नहीं गए लेकिन अपने ख़ास मित्र और विधायक सत्येन्द्र सोलंकी को भेज दिया. सोलंकी पारदर्शी राजनीति में विश्वास करते हैं और पार्टी के बड़े नेताओं के आशीर्वाद के बिना भी राजनीति में सफल हैं और जनता की मदद से चुनाव जीतते हैं . गन्ना किसानों की पंचायत में जो बातें सामने आयीं वे किसी भी किसान के आत्म गौरव को झकझोर सकती थीं. बहरहाल अपने समर्थकों को समझाने बुझाने में सोलंकी सफल रहे लेकिन पंचायत की मंशा से अब कोई भी बड़ा नेता अनभिज्ञ नहीं है . पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जनता अब जान गयी है कि दिल्ली में किसानों की ताक़त की वजह से सेठों के समर्थन वाला अध्यादेश वापस लिया गया था, उसमें उन नेताओं का कोई योगदान नहीं था जो वोटों की लालच में जंतर मंतर की भीड़ में आकर शामिल हो गए थे. .अजित सिंह की राजनीति की मुश्किल यह है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों के ऐसे कई नेता है जिनका क़द उनसे बड़ा है . वे सभी लोग , चौधरी चरण सिंह का पुत्र होने की वजह से अजित सिंह की इज्ज़त करते हैं . इस सारे खेल में अजित सिंह से उम्मीद की जाती है कि वे स्वर्गीय चौधरी साहेब जितने बड़े तो नहीं बन पायेंगें लेकिन कोशिश तो करते रहेंगें. उस महान किसान नेता ने किसानों के हित के लिए हमेशा संघर्ष किया था और अपने बड़े से बड़े निजी स्वार्थ को किसानों के आत्म सम्मान की लड़ाई में आड़े नहीं आने दिया था. . लेकिन जब अजित सिंह किसी मिल मालिक के लाभ के लिए किसानों की बात को हल्का करने की कोशिश करेंगें तो उनके लिए बहुत मुश्किल हो जायेगी. संतोष की बात यह है कि मिल मालिकों की समझ में आ गया है कि अजित सिंह के फरमान का कोई मतलब नहीं है और उन्होंने किसानों से सीधी बात शुरू कर दी है . कुछ मिलों ने तो २२० रूपये के रेट पर गन्ना खरीदना शुरू भी कर दिया है. राजनीति में किसी नेता की विश्वस्नीयता पर सवाल उठना बहुत बुरा होता है . आज अजित सिंह उसी दौर से गुज़र रहे हैं . अगर उन्होंने फ़ौरन से भी पहले अपनी साख को फिर से न संभाल लिया तो इतिहास के गर्त में ऐसे पंहुच जायेगें जैसे कहीं कभी थे ही नहीं.
गन्ना किसानों की राजनीति में इस तरह से पोल खुलने के बाद अजित सिंह क्या करेंगें , यह तो वे ही जानें लेकिन सूचना क्रान्ति की वजह से मीडिया में आये बदलाव के कारण डर के मारे ही सही,राजनेता ज्यादा धंध फंद से बचने की कोशिश कर रहे हैं . पहले जहां नेता लोग रूपये पैसे लेकर हजम करने में कोई संकोच नहीं करते थे, अब बीस बार सोचने लगे हैं .राजनीतिक शिक्षा और सूचना की उपलब्धता के चलते अब जनता भी पहले से जादा चौकन्ना हो गयी है . अब उसे मालूम है कि गन्ना किसान को उसकी प्रति कुंतल कीमत देने के बाद , मिल मालिक अपने फायदे की बात शुरू करता है . वह लेवी की चीनी के नाम पर सरकार से सुविधा लेता है और इस तरह से बात की जाती है जैसे बस सब कुछ उसी चीनी तक सीमित रहता है . हर चीनी मिल में बहुत बड़ी मात्र में शीरा निकालता है जिस से अल्कोहल जैसी महंगी चीज़ें बनती हैं जिस से मिल मालिक को असली फायदा होता है . जबकि गन्ने की खेती और चीनी मिल मालिकं के बीच बातचीत केवल चीनी की होती है . जागरूकता का तकाज़ा है कि चीनी के साथ साथ शीरे को भी मिल और गन्ना किसान की कीमतों के अध्ययन में शामिल किया जाए . लेकिन यह तभी संभव होगा जब गन्ना किसानों का भी एक ऐसा संगठन बने जो मिल मालिकों से सारे मोल भाव को किसानों के हित में लाने की कोशिश करे. क्योंकि राजनीतिक पार्टियों के नेताओं पर अब किसानों के हित की बात को सही तरीके से प्रस्तुत करने के मामले में विश्वास नहीं किया जा सकता.
अजित सिंह बुरे फंस गए हैं . दिल्ली में गन्ना किसानों के बहुत ही बड़े जमावड़े के बाद उनकी राजनीति में कुछ चमक आनी शुरू हुई थी लेकिन अब वह धुन्धलाना शुरू हो गयी है . दिल्ली में आकर किसानों ने सरकार से वह पूंजीपति परस्त गन्ना अध्यादेश तो वापस करवा दिया था जिसे पता नहीं कितनी रिश्वत देकर मिल मालिकों ने बनवाया था. लेकिन गन्ने की प्रति कुंतल कीमत के सवाल पर अजित सिंह गड़बड़ा गए. किसानों की मांग तो २८० रूपये प्रति कुंतल की थी लेकिन सब को पता था कि वह होने वाला नहीं है लेकिन यह उम्मीद सब को थी कि कृषि मंत्री शरद पवार के राज्य के बराबर तो यू पी वालों को मिल ही जाएगा या पड़ोसी राज्य उत्तराखंड के बराबर तो मानकर चल रहे थे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. २०० से भी कम के मिल मालिकों के प्रस्ताव पर अजित सिंह ने हुक्म जारी कर दिया कि गन्ना देना शुरू कर दिया जाए. लेकिन किसानों ने उनकी बात नहीं मानी. इस बीच खबर आई कि किसी चीनी मिल में अजित सिंह का कुछ स्वार्थ है . बस फिर क्या था ,गन्ना किसानों में गुस्से की लहर दौड़ गयी. . फिर किसानों की एक पंचायत बुलाई गयी . जिसमें पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बड़ी संख्या में किसान जमा हुए. अजित सिंह खुद तो इस पंचायत में नहीं गए लेकिन अपने ख़ास मित्र और विधायक सत्येन्द्र सोलंकी को भेज दिया. सोलंकी पारदर्शी राजनीति में विश्वास करते हैं और पार्टी के बड़े नेताओं के आशीर्वाद के बिना भी राजनीति में सफल हैं और जनता की मदद से चुनाव जीतते हैं . गन्ना किसानों की पंचायत में जो बातें सामने आयीं वे किसी भी किसान के आत्म गौरव को झकझोर सकती थीं. बहरहाल अपने समर्थकों को समझाने बुझाने में सोलंकी सफल रहे लेकिन पंचायत की मंशा से अब कोई भी बड़ा नेता अनभिज्ञ नहीं है . पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जनता अब जान गयी है कि दिल्ली में किसानों की ताक़त की वजह से सेठों के समर्थन वाला अध्यादेश वापस लिया गया था, उसमें उन नेताओं का कोई योगदान नहीं था जो वोटों की लालच में जंतर मंतर की भीड़ में आकर शामिल हो गए थे. .अजित सिंह की राजनीति की मुश्किल यह है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों के ऐसे कई नेता है जिनका क़द उनसे बड़ा है . वे सभी लोग , चौधरी चरण सिंह का पुत्र होने की वजह से अजित सिंह की इज्ज़त करते हैं . इस सारे खेल में अजित सिंह से उम्मीद की जाती है कि वे स्वर्गीय चौधरी साहेब जितने बड़े तो नहीं बन पायेंगें लेकिन कोशिश तो करते रहेंगें. उस महान किसान नेता ने किसानों के हित के लिए हमेशा संघर्ष किया था और अपने बड़े से बड़े निजी स्वार्थ को किसानों के आत्म सम्मान की लड़ाई में आड़े नहीं आने दिया था. . लेकिन जब अजित सिंह किसी मिल मालिक के लाभ के लिए किसानों की बात को हल्का करने की कोशिश करेंगें तो उनके लिए बहुत मुश्किल हो जायेगी. संतोष की बात यह है कि मिल मालिकों की समझ में आ गया है कि अजित सिंह के फरमान का कोई मतलब नहीं है और उन्होंने किसानों से सीधी बात शुरू कर दी है . कुछ मिलों ने तो २२० रूपये के रेट पर गन्ना खरीदना शुरू भी कर दिया है. राजनीति में किसी नेता की विश्वस्नीयता पर सवाल उठना बहुत बुरा होता है . आज अजित सिंह उसी दौर से गुज़र रहे हैं . अगर उन्होंने फ़ौरन से भी पहले अपनी साख को फिर से न संभाल लिया तो इतिहास के गर्त में ऐसे पंहुच जायेगें जैसे कहीं कभी थे ही नहीं.
गन्ना किसानों की राजनीति में इस तरह से पोल खुलने के बाद अजित सिंह क्या करेंगें , यह तो वे ही जानें लेकिन सूचना क्रान्ति की वजह से मीडिया में आये बदलाव के कारण डर के मारे ही सही,राजनेता ज्यादा धंध फंद से बचने की कोशिश कर रहे हैं . पहले जहां नेता लोग रूपये पैसे लेकर हजम करने में कोई संकोच नहीं करते थे, अब बीस बार सोचने लगे हैं .राजनीतिक शिक्षा और सूचना की उपलब्धता के चलते अब जनता भी पहले से जादा चौकन्ना हो गयी है . अब उसे मालूम है कि गन्ना किसान को उसकी प्रति कुंतल कीमत देने के बाद , मिल मालिक अपने फायदे की बात शुरू करता है . वह लेवी की चीनी के नाम पर सरकार से सुविधा लेता है और इस तरह से बात की जाती है जैसे बस सब कुछ उसी चीनी तक सीमित रहता है . हर चीनी मिल में बहुत बड़ी मात्र में शीरा निकालता है जिस से अल्कोहल जैसी महंगी चीज़ें बनती हैं जिस से मिल मालिक को असली फायदा होता है . जबकि गन्ने की खेती और चीनी मिल मालिकं के बीच बातचीत केवल चीनी की होती है . जागरूकता का तकाज़ा है कि चीनी के साथ साथ शीरे को भी मिल और गन्ना किसान की कीमतों के अध्ययन में शामिल किया जाए . लेकिन यह तभी संभव होगा जब गन्ना किसानों का भी एक ऐसा संगठन बने जो मिल मालिकों से सारे मोल भाव को किसानों के हित में लाने की कोशिश करे. क्योंकि राजनीतिक पार्टियों के नेताओं पर अब किसानों के हित की बात को सही तरीके से प्रस्तुत करने के मामले में विश्वास नहीं किया जा सकता.
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Wednesday, December 2, 2009
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद, इशरत जहां को न्याय की उम्मीद
शेष नारायण सिंह
गुजरात में मोदी की सरकार अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए कुछ भी करने में कोई संकोच नहीं कर रही है . मुंबई की एक लडकी, इशरत जहां को ,कुछ तथाकथित आतंकियों के साथ अहमदाबाद में जून २००५ में कथित मुठभेड़ में मार डाला गया था. . इशरत जहां के घर वाले पुलिस की इस बात को मानने को तैयार नहीं थे कि उनकी लड़की आतंकवादी है . मामला अदालतों में गया और सिविल सोसाइटी के कुछ लोगों ने उनकी मदद की और अब मामले के हर पहलू पर सुप्रीम कोर्ट की नज़र है.. न्याय के उनके युद्ध के दौरान इशरत जहां की मां , शमीमा कौसर को कुछ राहत मिली जब गुजरात सरकार के न्यायिक अधिकारी, एस पी तमांग की रिपोर्ट आई जिसमें उन्होंने साफ़ कह दिया कि इशरत जहां को फर्र्ज़ी मुठभेड़ में मारा गया था और उसमें उसी पुलिस अधिकारी, वंजारा का हाथ था जो कि इसी तरह के अन्य मामलों में शामिल पाया गया था. एस पी तमांग की रिपोर्ट ने कोई नयी जांच नहीं की थी, उन्होंने तो बस उपलब्ध सामग्री और पोस्ट मार्टम की रिपोर्ट के आधार पर सच्चाई को सामने ला दिया था . एस पी तमांग के एरेपोर्ट के बाद ,सार्वजनिक जीवन के कई क्षेत्रो में साम्प्रदायिकता के जमे होने की ख़बरें आयीं थीं. जहां तक गुजरात सरकार और उसकी पुलिस का सवाल है , पिछले कई वर्षों के मोदी राज में वहां तो साम्प्रदायिकता पूरी तरह से स्थापित हो चुकी है . इशरत जहां के मामले में मीडिया के एक वर्ग की गैर जिम्मेदाराना सोच भी सामने आ गयी थी. ज़्यादातर टी वी चैनलों ने , इशरत के हत्यारे पुलिस वालों की बाईट लेकर दिन दिन भर खबर चलाई थी कि गुजरात पुलिस ने एक खूंखार महिला आतंकवादी और उसके साथियों को मुठभेड़ में मार गिराया था .. बहरहाल इशरत जहां के फर्जी मुठभेड़ के बारे में जब एस पी तमांग की रिपोर्ट आई तो कुछ गंभीर किस्म के पत्रकारोंने अपनी गलती मानी और खेद प्रकट किया लेकिन जो गुरु लोग साम्प्रदायिकता के चश्मे से ही सच्चाई देखते हैं वे चुप रहे , सांस नहीं ली.. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया. और इशरत की याद को बेदाग़ बनाने की उसकी मां की मुहिम को फिर भारतीय लोकतंत्र और न्याय व्यवस्था में विश्वास हो गया. इशरत की मां का आरोप है कि गुजरात हाई कोर्ट भी राज्य की पुलिस के संघ प्रेमी रुख को ही आगे बढाता है .हालांकि किसी कोर्ट के बारे में उनके इस आरोप को सही नहीं ठहराया जा सकता लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें राहत दी है . हुआ यह था कि जब एस पी तमांग की रिपोर्ट आई तो गुजरात हाई कोर्ट ने उस पर रोक लगा दी थी और कह दिया कि उस रिपोर्ट पर कोईभी कार्रवाई नहीं हो सकती थी. शमीमा कौसर ने सुप्रीम कोर्ट में गुहार की और अब देश की सर्वोच्च अदालत का फैसला आ गया है कि गुजरात हाई कोर्ट में इशरत जहां केस के फर्जी मुठभेड़ से सम्बंधित सारे मामले रोक दिए जाएँ...इस स्टे के साथ ही मामले को जल्दी निपटाने की प्रक्रिया भी शुरू कर दी गयी है . . जस्टिस बी सुदर्शन रेड्डी और जस्टिस दीपक वर्मा की अदालत ने ७ दिसंबर को मामले की सुनवाई का हुक्म भी सुना दिया है .. शमीमा कौसर को इस बात से सख्त एतराज़ है कि सुप्रीम कोर्ट में मामला लंबित होने के बावजूद, गुजरात हाई कोर्ट मामले को रफा दफा करने के चक्कर में है..नरेन्द्र मोदी सरकार ने गुजरात हाई कोर्ट में प्रार्थना की थी कि एस पी तमांग की रिपोर्ट गैर कानूनी है और उस पर कोई कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए क्योंकि एस पी तमांग ने जो जांच की है वह उनके अधिकार क्षेत्र के बाहर है . गुजरात हाई कोर्ट ने ९ सितम्बर के दिन इस रिपोर्ट पर रोक लगा दी थी हाई कोर्ट के इसी फैसले के खिलाफ शमीमा कौसर ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी जिस पर अब फैसला आया है . एस पी तमांग की रिपोर्ट में तार्किक तरीके से उसी सामग्री की जांच की गयी है जिसके आधार पर इशरत जहां के फर्जी मुठभेड़ मामले को पुलिस अफसरों की बहादुरी के तौर पर पेश किया जा रहा था. तमांग की रिपोर्ट में आरोप लगाया गया है कि जिन अधिकारियों ने इशरत जहां को मार गिराया था उनको उम्मीद थी कि उनके उस कारनामे से मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी बहुत खुश हो जायेंगें और उन्हें कुछ इनाम -अकराम देंगें . अफसरों की यह सोच ही देश की लोकशाही पर सबसे बड़ा खतरा है . जिस राज में अधिकारी यह सोचने लगे कि किसी बेक़सूर को मार डालने से मुख्य मंत्री खुश होगा , वहां आदिम राज्य की व्यवस्था कायम मानी जायेगी. यह ऐसी हालत है जिस पर सभ्य समाज के हर वर्ग को गौर करना पड़ेगा वरना देश की आज़ादी पर मंडरा रहा खतरा बहुत ही बढ़ जाएगा और एक मुकाम ऐसा भी आ सकता है जब सही और न्यायप्रिय लोग कमज़ोर पड़ जायेंगें और मोदी टाईप लोग समाज के हर क्षेत्र में भारी पड़ जायेंगें.. ज़ाहिर है ऐसी किसी भी परिस्थिति का मुकाबला करने के लिए सभी जनवादी लोगों को तैयार रहना पड़ेगा. वरना मोदी के साथी कभी भी, किसी भी वक़्त महात्मा गाँधी की अगुवाई में हासिल की गयी आज़ादी को वोट के ज़रिये तानाशाही में बदल देंगें . ऐसा न हो सके इसके लिए जनमत को तो चौकन्ना रहना ही पड़ेगा , लोकत्रंत्र के चारों स्तंभों , न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका और मीडिया को भी हमेशा सतर्क रहना पड़ेगा
गुजरात में मोदी की सरकार अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए कुछ भी करने में कोई संकोच नहीं कर रही है . मुंबई की एक लडकी, इशरत जहां को ,कुछ तथाकथित आतंकियों के साथ अहमदाबाद में जून २००५ में कथित मुठभेड़ में मार डाला गया था. . इशरत जहां के घर वाले पुलिस की इस बात को मानने को तैयार नहीं थे कि उनकी लड़की आतंकवादी है . मामला अदालतों में गया और सिविल सोसाइटी के कुछ लोगों ने उनकी मदद की और अब मामले के हर पहलू पर सुप्रीम कोर्ट की नज़र है.. न्याय के उनके युद्ध के दौरान इशरत जहां की मां , शमीमा कौसर को कुछ राहत मिली जब गुजरात सरकार के न्यायिक अधिकारी, एस पी तमांग की रिपोर्ट आई जिसमें उन्होंने साफ़ कह दिया कि इशरत जहां को फर्र्ज़ी मुठभेड़ में मारा गया था और उसमें उसी पुलिस अधिकारी, वंजारा का हाथ था जो कि इसी तरह के अन्य मामलों में शामिल पाया गया था. एस पी तमांग की रिपोर्ट ने कोई नयी जांच नहीं की थी, उन्होंने तो बस उपलब्ध सामग्री और पोस्ट मार्टम की रिपोर्ट के आधार पर सच्चाई को सामने ला दिया था . एस पी तमांग के एरेपोर्ट के बाद ,सार्वजनिक जीवन के कई क्षेत्रो में साम्प्रदायिकता के जमे होने की ख़बरें आयीं थीं. जहां तक गुजरात सरकार और उसकी पुलिस का सवाल है , पिछले कई वर्षों के मोदी राज में वहां तो साम्प्रदायिकता पूरी तरह से स्थापित हो चुकी है . इशरत जहां के मामले में मीडिया के एक वर्ग की गैर जिम्मेदाराना सोच भी सामने आ गयी थी. ज़्यादातर टी वी चैनलों ने , इशरत के हत्यारे पुलिस वालों की बाईट लेकर दिन दिन भर खबर चलाई थी कि गुजरात पुलिस ने एक खूंखार महिला आतंकवादी और उसके साथियों को मुठभेड़ में मार गिराया था .. बहरहाल इशरत जहां के फर्जी मुठभेड़ के बारे में जब एस पी तमांग की रिपोर्ट आई तो कुछ गंभीर किस्म के पत्रकारोंने अपनी गलती मानी और खेद प्रकट किया लेकिन जो गुरु लोग साम्प्रदायिकता के चश्मे से ही सच्चाई देखते हैं वे चुप रहे , सांस नहीं ली.. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया. और इशरत की याद को बेदाग़ बनाने की उसकी मां की मुहिम को फिर भारतीय लोकतंत्र और न्याय व्यवस्था में विश्वास हो गया. इशरत की मां का आरोप है कि गुजरात हाई कोर्ट भी राज्य की पुलिस के संघ प्रेमी रुख को ही आगे बढाता है .हालांकि किसी कोर्ट के बारे में उनके इस आरोप को सही नहीं ठहराया जा सकता लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें राहत दी है . हुआ यह था कि जब एस पी तमांग की रिपोर्ट आई तो गुजरात हाई कोर्ट ने उस पर रोक लगा दी थी और कह दिया कि उस रिपोर्ट पर कोईभी कार्रवाई नहीं हो सकती थी. शमीमा कौसर ने सुप्रीम कोर्ट में गुहार की और अब देश की सर्वोच्च अदालत का फैसला आ गया है कि गुजरात हाई कोर्ट में इशरत जहां केस के फर्जी मुठभेड़ से सम्बंधित सारे मामले रोक दिए जाएँ...इस स्टे के साथ ही मामले को जल्दी निपटाने की प्रक्रिया भी शुरू कर दी गयी है . . जस्टिस बी सुदर्शन रेड्डी और जस्टिस दीपक वर्मा की अदालत ने ७ दिसंबर को मामले की सुनवाई का हुक्म भी सुना दिया है .. शमीमा कौसर को इस बात से सख्त एतराज़ है कि सुप्रीम कोर्ट में मामला लंबित होने के बावजूद, गुजरात हाई कोर्ट मामले को रफा दफा करने के चक्कर में है..नरेन्द्र मोदी सरकार ने गुजरात हाई कोर्ट में प्रार्थना की थी कि एस पी तमांग की रिपोर्ट गैर कानूनी है और उस पर कोई कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए क्योंकि एस पी तमांग ने जो जांच की है वह उनके अधिकार क्षेत्र के बाहर है . गुजरात हाई कोर्ट ने ९ सितम्बर के दिन इस रिपोर्ट पर रोक लगा दी थी हाई कोर्ट के इसी फैसले के खिलाफ शमीमा कौसर ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी जिस पर अब फैसला आया है . एस पी तमांग की रिपोर्ट में तार्किक तरीके से उसी सामग्री की जांच की गयी है जिसके आधार पर इशरत जहां के फर्जी मुठभेड़ मामले को पुलिस अफसरों की बहादुरी के तौर पर पेश किया जा रहा था. तमांग की रिपोर्ट में आरोप लगाया गया है कि जिन अधिकारियों ने इशरत जहां को मार गिराया था उनको उम्मीद थी कि उनके उस कारनामे से मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी बहुत खुश हो जायेंगें और उन्हें कुछ इनाम -अकराम देंगें . अफसरों की यह सोच ही देश की लोकशाही पर सबसे बड़ा खतरा है . जिस राज में अधिकारी यह सोचने लगे कि किसी बेक़सूर को मार डालने से मुख्य मंत्री खुश होगा , वहां आदिम राज्य की व्यवस्था कायम मानी जायेगी. यह ऐसी हालत है जिस पर सभ्य समाज के हर वर्ग को गौर करना पड़ेगा वरना देश की आज़ादी पर मंडरा रहा खतरा बहुत ही बढ़ जाएगा और एक मुकाम ऐसा भी आ सकता है जब सही और न्यायप्रिय लोग कमज़ोर पड़ जायेंगें और मोदी टाईप लोग समाज के हर क्षेत्र में भारी पड़ जायेंगें.. ज़ाहिर है ऐसी किसी भी परिस्थिति का मुकाबला करने के लिए सभी जनवादी लोगों को तैयार रहना पड़ेगा. वरना मोदी के साथी कभी भी, किसी भी वक़्त महात्मा गाँधी की अगुवाई में हासिल की गयी आज़ादी को वोट के ज़रिये तानाशाही में बदल देंगें . ऐसा न हो सके इसके लिए जनमत को तो चौकन्ना रहना ही पड़ेगा , लोकत्रंत्र के चारों स्तंभों , न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका और मीडिया को भी हमेशा सतर्क रहना पड़ेगा
Tuesday, December 1, 2009
एक अफसर की मौत और नौकरशाही की मजबूरियां
शेष नारायण सिंह
उत्तर प्रदेश के आला अफसर हरमिंदर राज सिंह की लखनऊ के उनके सरकारी मकान में आधी रात के बाद मौत हो गयी. वे ५६ वर्ष के थे. राज्य सरकार के सबसे महत्वपूर्ण विभागों में से एक आवास विभाग के प्रमुख सचिव थे . अभी ४ साल बाद रिटायर होना था. काबिल लाफ्सर थे , हो सकता है कि राज्य सरकार की सबसे बड़ी नौकरशाही की कुर्सी पर पंहुच जाते. उनके मुख्य सचिव होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता था. लखनऊ की नौकरशाही जुबान में कहें तो वे बहुत ही अच्छी ज़िंदगी बसर कर रहे थे लेकिन एकाएक उनकी मौत हो गयी. हादसे के दिन हालांकि छुट्टी थी लेकिन वे दफ्तर गए थे , दिन भर काम किया था , शाम को किसी पार्टी में गए थे , हंसी- खुशी घर आये थे , पति पत्नी एक ही कमरे में सो रहे थे और रात को उठे और और अपनी लाइसेंसी रिवाल्वर से खुद को गोली मार ली. लखनऊ पुलिस का कहना है कि उन्होंने आत्महत्या कर ली. जो पुलिस अफसर टेलीविजन वालों को उनकी मौत की जानकारी दे रहा था , उसके हाव भाव से लग रहा था कि जिसे भी ब्लड प्रेशर की बीमारी होगी और जो दवा खा रहा होगा , उसे तो आत्महत्या कर ही लेना चाहिए , जैसे आत्महत्या करना कोई कोई ज़रूरी ड्यूटी हो. उत्तर प्रदेश के आई ए एस अफसरों के संगठन के एक अधिकारी भुस रेड्डी ने टी वी चैनलों को बताया कि हरमिंदर राज सिंह की मौत उनकी सर्विस के लिए एक बड़ा हादसा है और इसके कारणों पर विचार किया जाना चाहिए.. उनका संगठन इसे पूरी गंभीरता से लेता है और इसे बहुत बड़ी बात मानता है . उत्तर प्रदेश के आई ए एस असोसिएशन ने सर्विस में भ्रष्टाचार कम करने और अधिकारियों के सम्मान की बहाली के लिए कई बार लड़ाई का रास्ता भी अपनाया है , इसलिए श्री रेड्डी की बात को गंभीरता से लिया जाना चाहिए. और अगर कोई हरमिंदर राज सिंह की मौत को रूटीन की आत्म हत्या बताने की कोशिश करता है तो उसे जल्दबाजी न करने की सलाह दी जानी चाहिए. . आत्महत्या करना एक बहुत ही कठिन फैसला है और जांच शुरू होने के पहले ही पुलिस का यह ऐलान निश्चित रूप से मृत आत्मा का अपमान करने जैसा है . एक सफल और बा रुतबा ज़िंदगी जी रहा अफसर बी पी की वजह से आत्म हत्या कर लेगा , यह बात किसी के गले नहीं उतरने वाली नहीं है . . दूसरी तरफ हरमिंदर राज सिंह की मौत के मामले में राजनीतिक दलों के कूद पड़ने की वजह से मामला राजनीतिक होता दिख रहा है. समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने मामले की सी बी आई जांच की मांग करके राज्य सरकार और उसकी पुलिस को घेरने की कोशिश शुरू कर दी है. ज़ाहिर है चाहे जितनी सच्च्ची जांच करे लेकिन अगर वह काम उत्तर प्रदेश सरकार के अधीन काम करने वाले किसी विभाग से करवाया जाएगा , तो नतीजे शक के दायरे के बाहर कभी नहीं निकल पायेंगें. इस लिए उत्तर प्रदेश सरकार को चाहिए कि जांच सी बी आई के हवाले करके इस मुद्दे पर राजनीति होने का मौक़ा न दे. इतने बड़े अधिकारी की अकाल मृत्यु कोई मामूली हादसा नहीं है, बिना शुरुआती जांच किये लखनऊ पुलिस की तरफ से इसे बी पी की वजह से की गयी आत्म हत्या कहना बहुत ही गैर ज़िम्मेदार आचरण है .क्योंकि इस घोषणा के कारण आगे होने वाली जांच प्रभावित हो सकती है .
लेकिन इसे केवल पुलिस की असफलता कह देना भी ठीक नहीं होगा. हरमिंदर राज सिंह की मौत के कारणों का पता तो जांच के बाद चलेगा हो.. सकता है कि वह आत्महत्या का ही मामला हो . लेकिन अगर यह आत्महत्या का मामला है तो निश्चित रूप से बहुत सारे सवाल पैदा करता है.. क्या जिसे भी, ब्लड प्रेशर की बीमारी होगी उसे आत्महत्या कर लेना चाहिए. इस तरह के प्रचार पर फ़ौरन रोक लगनी चाहिए. . अगर आत्महत्या है तो एक प्रमुख कारण तनाव और डिप्रेशन ही होगा . लेकिन एक भाग्य विधाता की नौकरी कर रहे राज्य के टॉप अफसर के तनाव के क्या कारण हैं इसकी भी जांच की जानी चाहिए.. उत्तर प्रदेश में नौकरशाही एक अजीब दौर से गुज़र रही है . ज़्यादातर लोग अपनी आमदनी से ज्यादा धन इकठ्ठा करते पाए जाते हैं. राज्य के आई ए एस अफसरों के संगठन ने ही अपनी बिरादरी के कई अधिकारियों को भ्रष्ट घोषित करके बात को संभालने की कोशिश की है .यहाँ यह समझ लेना ज़रूरी है कि आई ए एस या कोई और भी सरकारी अफसर जब नौकरी ज्वाइन करता है तो वह संविधान को लागू करने की शपथ लेता है , वह वचन देता है कि किसी के साथ भी पक्षपात नहीं करेगा लेकिन जब वह रिश्वत की कमाई में जुट जाता है तो राजनीतिक नेता उसे अपने आर्थिक लाभ के लिए इस्तेमाल करने लगता है . बस यहीं गड़बड़ हो जाती है . पिछले २० वर्षों से तो उत्तर प्रदेश में यही हो रहा है . राज्य में बहुत सारे ईमानदार अफसर भी हैं लेकिन वे आम तौर पर हाशिये पर ही रहते हैं . मुख्य मंत्री का कार्यालय ऐसे अफसरों को जिम्मेवारी के काम देता है जो उनकी हाँ में हाँ मिला सकें. इसमें बी जे पी, समाजवादी पार्टी, बी एस पी और कांग्रेस बराबर के हिस्सेदार हैं .ज्यादातर पार्टियों में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोग महत्व पाने लगे हैं इसलिए अगर अफसर संविधान और राष्ट्र हित के बुनियादी सिद्धांत से ज़रा सा भी विचलित होता है तो यह अपराधी तत्व उसका इस्तेमाल अपने लाभ के लिए करने लगते हैं . उसके बाद तो भ्रष्ट प्रशासन का एक सिलसिला शुरू हो जाता है जिसका कोई अंत नहीं होता. हरमिंदर राज सिंह की अकाल मौत के सन्दर्भ में एक बार फिर यह कोशिश की जानी चाहिए कि राज्य का नौकरशाह उन कामों से अपने को अलग कर ले जो संविधान सम्मत नहीं है . अगर ऐसा हुआ तो आने वाले कल में कोई भी अफसर तनाव के कारण तो 'आत्महत्या' नहीं करेगा
उत्तर प्रदेश के आला अफसर हरमिंदर राज सिंह की लखनऊ के उनके सरकारी मकान में आधी रात के बाद मौत हो गयी. वे ५६ वर्ष के थे. राज्य सरकार के सबसे महत्वपूर्ण विभागों में से एक आवास विभाग के प्रमुख सचिव थे . अभी ४ साल बाद रिटायर होना था. काबिल लाफ्सर थे , हो सकता है कि राज्य सरकार की सबसे बड़ी नौकरशाही की कुर्सी पर पंहुच जाते. उनके मुख्य सचिव होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता था. लखनऊ की नौकरशाही जुबान में कहें तो वे बहुत ही अच्छी ज़िंदगी बसर कर रहे थे लेकिन एकाएक उनकी मौत हो गयी. हादसे के दिन हालांकि छुट्टी थी लेकिन वे दफ्तर गए थे , दिन भर काम किया था , शाम को किसी पार्टी में गए थे , हंसी- खुशी घर आये थे , पति पत्नी एक ही कमरे में सो रहे थे और रात को उठे और और अपनी लाइसेंसी रिवाल्वर से खुद को गोली मार ली. लखनऊ पुलिस का कहना है कि उन्होंने आत्महत्या कर ली. जो पुलिस अफसर टेलीविजन वालों को उनकी मौत की जानकारी दे रहा था , उसके हाव भाव से लग रहा था कि जिसे भी ब्लड प्रेशर की बीमारी होगी और जो दवा खा रहा होगा , उसे तो आत्महत्या कर ही लेना चाहिए , जैसे आत्महत्या करना कोई कोई ज़रूरी ड्यूटी हो. उत्तर प्रदेश के आई ए एस अफसरों के संगठन के एक अधिकारी भुस रेड्डी ने टी वी चैनलों को बताया कि हरमिंदर राज सिंह की मौत उनकी सर्विस के लिए एक बड़ा हादसा है और इसके कारणों पर विचार किया जाना चाहिए.. उनका संगठन इसे पूरी गंभीरता से लेता है और इसे बहुत बड़ी बात मानता है . उत्तर प्रदेश के आई ए एस असोसिएशन ने सर्विस में भ्रष्टाचार कम करने और अधिकारियों के सम्मान की बहाली के लिए कई बार लड़ाई का रास्ता भी अपनाया है , इसलिए श्री रेड्डी की बात को गंभीरता से लिया जाना चाहिए. और अगर कोई हरमिंदर राज सिंह की मौत को रूटीन की आत्म हत्या बताने की कोशिश करता है तो उसे जल्दबाजी न करने की सलाह दी जानी चाहिए. . आत्महत्या करना एक बहुत ही कठिन फैसला है और जांच शुरू होने के पहले ही पुलिस का यह ऐलान निश्चित रूप से मृत आत्मा का अपमान करने जैसा है . एक सफल और बा रुतबा ज़िंदगी जी रहा अफसर बी पी की वजह से आत्म हत्या कर लेगा , यह बात किसी के गले नहीं उतरने वाली नहीं है . . दूसरी तरफ हरमिंदर राज सिंह की मौत के मामले में राजनीतिक दलों के कूद पड़ने की वजह से मामला राजनीतिक होता दिख रहा है. समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने मामले की सी बी आई जांच की मांग करके राज्य सरकार और उसकी पुलिस को घेरने की कोशिश शुरू कर दी है. ज़ाहिर है चाहे जितनी सच्च्ची जांच करे लेकिन अगर वह काम उत्तर प्रदेश सरकार के अधीन काम करने वाले किसी विभाग से करवाया जाएगा , तो नतीजे शक के दायरे के बाहर कभी नहीं निकल पायेंगें. इस लिए उत्तर प्रदेश सरकार को चाहिए कि जांच सी बी आई के हवाले करके इस मुद्दे पर राजनीति होने का मौक़ा न दे. इतने बड़े अधिकारी की अकाल मृत्यु कोई मामूली हादसा नहीं है, बिना शुरुआती जांच किये लखनऊ पुलिस की तरफ से इसे बी पी की वजह से की गयी आत्म हत्या कहना बहुत ही गैर ज़िम्मेदार आचरण है .क्योंकि इस घोषणा के कारण आगे होने वाली जांच प्रभावित हो सकती है .
लेकिन इसे केवल पुलिस की असफलता कह देना भी ठीक नहीं होगा. हरमिंदर राज सिंह की मौत के कारणों का पता तो जांच के बाद चलेगा हो.. सकता है कि वह आत्महत्या का ही मामला हो . लेकिन अगर यह आत्महत्या का मामला है तो निश्चित रूप से बहुत सारे सवाल पैदा करता है.. क्या जिसे भी, ब्लड प्रेशर की बीमारी होगी उसे आत्महत्या कर लेना चाहिए. इस तरह के प्रचार पर फ़ौरन रोक लगनी चाहिए. . अगर आत्महत्या है तो एक प्रमुख कारण तनाव और डिप्रेशन ही होगा . लेकिन एक भाग्य विधाता की नौकरी कर रहे राज्य के टॉप अफसर के तनाव के क्या कारण हैं इसकी भी जांच की जानी चाहिए.. उत्तर प्रदेश में नौकरशाही एक अजीब दौर से गुज़र रही है . ज़्यादातर लोग अपनी आमदनी से ज्यादा धन इकठ्ठा करते पाए जाते हैं. राज्य के आई ए एस अफसरों के संगठन ने ही अपनी बिरादरी के कई अधिकारियों को भ्रष्ट घोषित करके बात को संभालने की कोशिश की है .यहाँ यह समझ लेना ज़रूरी है कि आई ए एस या कोई और भी सरकारी अफसर जब नौकरी ज्वाइन करता है तो वह संविधान को लागू करने की शपथ लेता है , वह वचन देता है कि किसी के साथ भी पक्षपात नहीं करेगा लेकिन जब वह रिश्वत की कमाई में जुट जाता है तो राजनीतिक नेता उसे अपने आर्थिक लाभ के लिए इस्तेमाल करने लगता है . बस यहीं गड़बड़ हो जाती है . पिछले २० वर्षों से तो उत्तर प्रदेश में यही हो रहा है . राज्य में बहुत सारे ईमानदार अफसर भी हैं लेकिन वे आम तौर पर हाशिये पर ही रहते हैं . मुख्य मंत्री का कार्यालय ऐसे अफसरों को जिम्मेवारी के काम देता है जो उनकी हाँ में हाँ मिला सकें. इसमें बी जे पी, समाजवादी पार्टी, बी एस पी और कांग्रेस बराबर के हिस्सेदार हैं .ज्यादातर पार्टियों में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोग महत्व पाने लगे हैं इसलिए अगर अफसर संविधान और राष्ट्र हित के बुनियादी सिद्धांत से ज़रा सा भी विचलित होता है तो यह अपराधी तत्व उसका इस्तेमाल अपने लाभ के लिए करने लगते हैं . उसके बाद तो भ्रष्ट प्रशासन का एक सिलसिला शुरू हो जाता है जिसका कोई अंत नहीं होता. हरमिंदर राज सिंह की अकाल मौत के सन्दर्भ में एक बार फिर यह कोशिश की जानी चाहिए कि राज्य का नौकरशाह उन कामों से अपने को अलग कर ले जो संविधान सम्मत नहीं है . अगर ऐसा हुआ तो आने वाले कल में कोई भी अफसर तनाव के कारण तो 'आत्महत्या' नहीं करेगा
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