शेष नारायण सिंह
डा.अंबेडकर के ५३वे निर्वाण दिवस के मौके पर उनको याद किया जाएगा. इस अवसर पर ज़रूरी है कि उनकी सोच और दर्शन के सबसे अहम पहलू पर गौर किया जाए. सब को मालूम है कि डा. अंबेडकर के दर्शन ने २० वीं सदी के भारत के राजनीतिक आचरण को बहुत ज्यादा प्रभावित किया था . लेकिन उनके दर्शन की सबसे ख़ास बात पर जानकारी की भारी कमी है. यह बात कई बार कही जा चुकी है कि उनके नाम पर राजनीति करने वालों को इतना तो मालूम है कि बाबा साहेब जाति व्यवस्था के खिलाफ थे लेकिन बाकी चीजों पर ज़्यादातर लोग अन्धकार में हैं. उन्हीं कुछ बातों का ज़िक्र करना आज के दिन सही रहेगा. डा. अंबेडकर को इतिहास एक ऐसे राजनीतिक चिन्तक के रूप में याद रखेगा जिन्होंने जाति के विनाश को सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन की बुनियाद माना था. यह बात किसी से छुपी नहीं है कि उनकी राजनीतिक विरासत का सबसे ज्यादा फायदा उठाने वाली पार्टी की नेता, आज जाति की संस्था को संभाल कर रखना चाहती हैं ,उसके विनाश में उनकी कोई रूचि नहीं है . वोट बैंक राजनीति के चक्कर में पड़ गयी अंबेडकरवादी पार्टियों को अब वास्तव में इस बात की चिंता सताने लगी है कि अगर जाति का विनाश हो जाएगा तो उनकी वोट बैंक की राजनीति का क्या होगा. डा अंबेडकर की राजनीतिक सोच को लेकर कुछ और भ्रांतियां भी हैं . कांशीराम और मायावती ने इस क़दर प्रचार कर रखा है कि जाति की पूरी व्यवस्था का ज़हर मनु ने ही फैलाया था, वही इसके संस्थापक थे और मनु की सोच को ख़त्म कर देने मात्र से सब ठीक हो जाएगा. लेकिन बाबा साहेब ऐसा नहीं मानते थे . उनके एक बहुचर्चित, और अकादमिक भाषण के हवाले से कहा जा सकता है कि जाति व्यवस्था की सारी बुराइयों को लिए मनु को ही ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता .मनु के बारे में उन्होंने कहा कि अगर कभी मनु रहे भी होंगें तो बहुत ही हिम्मती रहे होंगें . डा. अंबेडकर का कहना है कि ऐसा कभी नहीं होता कि जाति जैसा शिकंजा कोई एक व्यक्ति बना दे और बाकी पूरा समाज उसको स्वीकार कर ले. उनके अनुसार इस बात की कल्पना करना भी बेमतलब है कि कोई एक आदमी कानून बना देगा और पीढियां दर पीढियां उसको मानती रहेंगीं. . हाँ इस बात की कल्पना की जा सकती है कि मनु नाम के कोई तानाशाह रहे होंगें जिनकी ताक़त के नीचे पूरी आबादी दबी रही होगी और वे जो कह देंगे ,उसे सब मान लेंगें और उन लोगों की आने वाली नस्लें भी उसे मानती रहेंगी.उन्होंने कहा कि , मैं इस बात को जोर दे कर कहना चाहता हूँ कि मनु ने जाति की व्यवस्था की स्थापना नहीं की क्योंकि यह उनके बस की बात नहीं था. . मनु के जन्म के पहले भी जाति की व्यवस्था कायम थी. . मनु का योगदान बस इतना है कि उन्होंने इसे एक दार्शनिक आधार दिया. . जहां तक हिन्दू समाज के स्वरुप और उसमें जाति के मह्त्व की बात है, वह मनु की हैसियत के बाहर था और उन्होंने वर्तमान हिन्दू समाज की दिशा तय करने में कोई भूमिका नहीं निभाई. उनका योगदान बस इतना ही है उन्होंने जाति को एक धर्म के रूप में स्थापित करने की कोशिश की . जाति का दायरा इतना बड़ा है कि उसे एक आदमी, चाहे वह जितना ही बड़ा ज्ञाता या शातिर हो, संभाल ही नहीं सकता. . इसी तरह से यह कहना भी ठीक नहीं होगा कि ब्राह्मणों ने जाति की संस्था की स्थापना की. मेरा मानना है कि ब्राह्मणों ने बहुत सारे गलत काम किये हैं लेकिन उनकी औक़ात यह कभी नहीं थी कि वे पूरे समाज पर जाति व्यवस्था को थोप सकते. . हिन्दू समाज में यह धारणा आम है कि के जाति की संस्था का आविष्कार शास्त्रों ने किया और शास्त्र तो कभी गलत हो नहीं सकते. बाबा साहेब ने अपने इसी भाषण में एक चेतावनी और दी थी कि उपदेश देने से जाति की स्थापना नहीं हुई थी और इसको ख़त्म भी उपदेश के ज़रिये नहीं किया जा सकता.. यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना ज़रूरी है अपने इन विचारों के बावजूद भी , डा अंबेडकर ने समाज सुधारकों के खिलाफ कोई बात नहीं कही. ज्योतिबा फुले का वे हमेशा सम्मान करते रहे. . हाँ उन्हें यह पूरा विश्वास था कि जाति प्रथा को किसी महापुरुष से जोड़ कर उसकी तार्किक परिणति तक नहीं ले जाया जा सकता.
डा अंबेडकर के अनुसार हर समाज का वर्गीकरण और उप वर्गीकरण होता है लेकिन परेशानी की बात यह है कि इस वर्गीकरण के चलते वह ऐसे सांचों में फिट हो जाता है कि एक दूसरे वर्ग के लोग इसमें न अन्दर जा सकते हैं और न बाहर आ सकते हैं . यही जाति का शिकंजा है और इसे ख़त्म किये बिना कोई तरक्की नहीं हो सकती. सच्ची बात यह है कि शुरू में अन्य समाजों की तरह हिन्दू समाज भी चार वर्गों में बंटा हुआ था . ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र . यह वर्गीकरण मूल रूप से जन्म के आधार पर नहीं था, यह कर्म के आधार पर था .एक वर्ग से दूसरे वर्ग में आवाजाही थी लेकिन हज़ारों वर्षों की निहित स्वार्थों कोशिश के बाद इसे जन्म के आधार पर कर दिया गया और एक दूसरे वर्ग में आने जाने की रीति ख़त्म हो गयी. और यही जाति की संस्था के रूप में बाद के युगों में पहचाना जाने लगा. . अगर आर्थिक विकास की गति को तेज़ किया जाय और उसमें सार्थक हस्तक्षेप करके कामकाज के बेहतर अवसर उपलब्ध कराये जाएँ तो जाति व्यवस्था को जिंदा रख पाना बहुत ही मुश्किल होगा. और जाति के सिद्धांत पर आधारित व्यवस्था का बच पाना बहुत ही मुश्किल होगा.. अगर ऐसा हुआ तो जाति के विनाश के ज्योतिब फुले, डा. राम मनोहर लोहिया और डा. अम्बेडकर की राजनीतिक और सामाजिक सोच और दर्शन का मकसद हासिल किया जा सकेगा..
Sunday, December 6, 2009
जाति-संस्था मनु की देन नहीं -- डा. बी आर अंबेडकर
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मुझे नहीं पता कि आपके इस लेख का उद्देश्य क्या है ? वैसे तो अब इस बात से फ़र्क भी क्या पड़ता है कि जाति-वर्ण किसकी देन है ? अब तो यही कोशिश हानी चाहिए कि यह पाशविक व्यवस्था खत्म कैसे हो ? और किसकी नीयत इसे खत्म करने की है और किसकी इसे बनाए रखने की, इस पर सावधानी ज़रुर बरती जानी चाहिए। क्यों कि इसे बनाए रखने के महान प्रयासों के जतन-स्वरुप बहुत अजीबो-ग़रीब हरकतें होती देखीं गयीं हैं। कल को यह भी कहा जा सकता है कि वर्ण-व्यवस्था अंबेडकर, कांशीराम और मायावती की देन है। स्त्री-पुरुष संबंधों में कलको और खुलापन आया और उसके पक्ष में खड़ा दिखना फ़ायदेमंद दिखा तो कलको यह भी घोषित करवाया जा सकता है कि ओशो रजनीश इस धरती पर पहले चिंतक थे जिन्होने सैक्स का विरोध किया। दूसरी रणनीति यह भी हो सकती है कि ओशो तो हमारे ही तैंतीस करोड़ पैंतीसवें अवतार थे। कुछ ग़लत कह गया होऊं तो क्षमा करें। कहे बिना रहा नहीं गया।
ReplyDeleteगलत आपने बिलकुल नहीं कहा .उद्देश्य के बारे में निवेदन है यह है कि जाति टूटेगी तभी समाज की तरक्की होगी. लेकिन जैसा आप ने कहा है कि जब तक सही कारण का पता नहीं होगा तब तक मर्ज का इलाज़ नहीं खोजा जा सकता. पिछले कुछ वर्षों में ऐसा माहौल बना है , ख़ास कर मेरे राज्य उत्तरप्रदेश में , कि जाति की संस्था की सारी बीमारी मनु की वजह से है . नतीजा यह हुआ है कि जाति के विनाश के लिए काम करने वाले लोगों के बीच भ्रम पैदा होने का खतरा पैदा हो गया है . कम से कम मुझे यही लगता है . जाति की व्यवस्था शताब्दियों की साज़िश का नतीजा है और उसका खात्मा एक मनु को लक्ष्य करके नहीं किया जा सकता. जैसा कि डा. अंबेडकर ने कहा था कि जब तक अंतरजातीय शादी-ब्याह नहीं होंगें , तब तक बात नहीं बनने वाली नहीं है .. अगर इस लेख से आप को यह लगा हो कि मैं जाति की संस्था को बनाए रखना चाहता हूँ ,तो मैं इम्तिहान में फ़ेल हो गया , अपनी बात को साफ़ नहीं कर पाया. क्योंकि मेरा उद्देश्य भी आप ही की तरह जाति के विनाश के लिए मज़बूत तर्क जुटाना है जिस का इस्तेमाल करके कोई भी जागरूक व्यक्ति कहीं भी इस संस्था के विनाश की बात करे तो उसे सब कुछ मालूम हो जो इस विधा के विद्वानों ने कहा है . मैंने तो बस डा अंबेडकर की बात को अपनी ज़बान में कहने की कोशिश की है ..
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